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पंचमोऽधिकारः
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दशयोजन विस्तीर्णे दक्षिणोत्तरसंझिके । पूर्वापराब्धि संलग्ने द्वे श्रेण्यौ भवतः शुभे ॥६०॥ पूर्वागराब्धिदीर्घोऽयं विद्येशपुर सौधभत् । त्रिंशद्योजन विस्तीर्णो ह्यत्र स्यात् सुन्दराकृतिः ॥६१।। दशयोजन संख्यं शं त्यक्त्वा तोऽस्यद्वि पार्वयोः । प्रागुक्तायाम विस्तारे श्रेण्यौवस्तोऽपरे शुभे । ६२॥ दशयोजन विस्तीर्णोऽत्रंषोऽभर पुराङ्कितः । नवकूटाङ्कितोमूनि त्यक्त्वानुपञ्चयोजनात् ।।६३॥ निजोदय चतुर्थांशावगाहो राजतेऽचलः । खगेशचारण : श्वेतमणिभिः शुक्लपुजवत् ।।६४।।
प्रथं :-भरत क्षेत्र के ठीक मध्य में विजया नाम का एक श्वेतरत्नमय पर्वत है । जो पच्चीस योजन ऊँचा और भूतल पर ५० योजन चौड़ा है । यह ५० योजन की चौड़ाई १० योजन की ऊंचाई तक जाती है । इसके ऊपर (दक्षिणोत्तर) दोनों पार्श्वभागों में दश दश योजन (की कटनी) छोड़ कर १० योजन को ऊँचाई पर्यन्त ३० योजन चौड़ा है । इसी प्रथम कटनी पर १० योजन चौड़ी, पूर्व-पश्चिम समुद्र को स्पर्श करने वाली और दक्षिण-उत्तर नाम वाली दो शुभ श्रेणियां हैं। इन पूर्व समुद्र से पश्चिम समुद्र पर्यन्त लम्बी उत्तर-दक्षिग दोनों श्रेणियों पर विद्याधरों के सुन्दर आकृति को धारण करने वाले महलों से युक्त नगर हैं । ३० योजन चौड़ाई में भी दोनों पार्श्वभागों में १०-१० योजन (की कटनी) छोड़कर पांच योजन की ऊँचाई पर्यन्त केबल १० योजन चौड़ा जाता है । इस दूसरी कटनी पर पूर्वोक्त पायाम और विस्तार (१० योजन चौड़ी और पूर्व समुद्र से पश्चिम समुद्र तक लम्बी) वाली अन्य दो श्रेणियां हैं, जो व्यन्तर देवों के नगरों से अलंकृत हैं। इन श्रेणियों से पांच योजन ऊपर अर्थात् विजयाय का अग्रभाग नक्कूटों से संयुक्त है । इस विजयाध पर्वत को नींव अपनो ऊँचाई (२५ योजन) का चतुर्थभाग मर्थात् ६२ योजन प्रमाण है । श्वेत मरिणयों के साथ साथ चारण ऋद्धि धारी मुनीश्वरों और विद्याधरों से ब्याप्त यह विजया ऐसा शोभायमान होता है मानो शुक्लता का पुन ही हो ॥५८-६४॥
विशेषार्थ :
विजयाध की दक्षिणोत्तर दोनों तटों को प्रथम श्रेणी पर विद्याधर और द्वितीय श्रेणी पय व्यन्तर जाति के देव निवास करते हैं, तथा शिखर पर नवकट हैं, जिसका चित्रण निम्न प्रकार है :