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________________ चत्तुदंशोऽधिकारः [ ४८६ योजनामा तयकलमान्तराम्वितान्यपि । मध्यलोकान्तपर्यन्तं घान्तिमाध्यन्तमञ्जसा ॥१॥ एषु द्वीप समस्येषु तारेवा भावनालया। वर्धन्तेऽन्योज्य चत्वारएफक बलयं प्रति ॥१२॥ अवस्था भास्कराः पुष्य नक्षत्रेषु प्रतिष्ठिताः। सर्वे चन्द्राश्च तिष्ठन्त्यमिजिस्सुसंख्य जिताः ॥३॥ स्वकीयस्य स्वकीयस्य स्वस्वेन्द्रभानुसंख्यकः । घलयस्य विभक्तस्य यदन्तरं परस्परम ॥४॥ तदेवान्तरमेव स्यामचन्द्रासचन्द्रमसः पृथक् । सूर्यास्सूर्यस्य चान्यस्मात्सर्षोषान्तरस्थितिः ॥५॥ अर्थ:-मानुषोत्तर पर्वत के बाह्य भाग में पर्वत से पचास हजार योजन प्रागे जाकर सूर्य-चन्द्र आदि ज्योतिष्क देवों का प्रथम वलय है ७१॥ इस प्रथम वलय में १४४ चन्द्र एवं १४४ सूर्य हैं, अन्य ग्रहों की अवस्थिति भी इसी क्रम से जानना चाहिए ॥७२॥ इस प्रथम वलय से एक एक लाख योजन कम से भागे जाते हुए पुष्कराई द्वीप में ज्योतिष्क देवों का पृथक् पृथक् एक एक वलय है, तथा प्रत्येक यलय में कम से चार चार चन्द्र और चार चार सूर्यों की अपने अपने परिवार देवों के साथ जब तक सातवा बलय प्राप्त नहीं होता, तब तक अभिवृद्धि होती रहती है। इस प्रकार मानुषोत्तर के बाह्य भाग से पुष्कराध पर्यन्त के सर्व वलयों का एकत्रित योग पाठ है ।।७३-७५। इसके प्रागे पुष्कराई द्वीप की अन्तिम वेदी से प्रारम्भ कर पुष्करवर समुद्र में पचास हजार योजन भीतर जाकर ६ वा वलय है ॥७६। इस ह वें वलय में २८८ चन्द्र और २८८ सूर्य समान भाग में अवस्थित हैं ॥७७॥ यहां से क्रमशः एक एक लाख योजन आगे प्रागे पुष्करार्ध द्वीप को समावेष्टित करते हुये पृथक् पृथक एक एक वलय है ।७८॥ यहाँ भी पूर्व के ही सदृश अपने अपने ग्रह प्रादि परिवार देवों के साथ प्रत्येक वलय में चार चार चन्द्र और पार चार सूर्यों की वृद्धि होती है ।। ७६ ।। इसी विधि से असंख्यातद्वीप समुद्रों में क्रमश: चन्द्र मादि ज्योतिष्क देवों के असंख्यात वलय हैं ।।०॥ वलय मध्यलोक के अन्त में अवस्थित स्वयम्भूरमरा समुद्र पर्यन्त हैं, तथा इन सभी में एक एक लाख योजन का अन्तर है ।।८।। इन असंख्यात द्वीप समुद्रों में प्रथस्थित प्रसंख्यात वलयों में से प्रत्येक वलय में अपने अपने परिवार सहित चार-चार चन्द्रों और चार-चार सूर्यों की अभिवृद्धि होतो है (किन्तु इस वृद्धि का सम्बन्ध अपने अपने द्वीप समुद्र पर्यन्त ही होता है, अन्य द्वीप समुद्रों से नहीं । अन्य द्वीप समुद्रों के प्रथम वलय में तो इनकी संख्या पूर्व द्वीप समुद्र के प्रथम वलय से नियमतः दुगुणी हो जाती है । जैसे:-बाह्य पुष्कराध द्वीप में कुल पाठ वलय हैं । प्रथम वलय में १४४ चन्द्र हैं, इसके आगे प्रत्येक वलय में चार चार की
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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