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________________ ४६० ] सिद्धान्तसार दीपक वृद्धि होते हुए १४८, १५२. १५६, १६०, १६४, १६८ और ८ वें वलय में १७२ चन्द्रों की प्राप्ति हुई, किन्तु पुष्करवर सा में कवस्थिः ह क प ने ली संसारका है, जो पुष्कराध द्वीप स्थित प्रथम क्लय से दूनी है । इसी प्रकार सर्वत्र जानना ।) ॥२॥ इन असंख्यात वलय में अवस्थित असंख्यात सूर्य स्व स्व परिवार सम्बन्धी पुष्य नक्षत्रों पर अवस्थित हैं और असंख्यात चन्द्र अभिजित् नक्षत्रों पर अवस्थित हैं ।। ६३ ।। अपने अपने बलय ( को परिधि के प्रमाण ) को स्व स्व बलय स्थित सूर्य चन्द्रों की संख्या से भाजित करने पर जो अन्तर प्राप्त होता है वही अन्तर अपने बलय में एक चन्द्र से दूसरे चन्द्र का और एक सूर्य से दूसरे सूर्य का होता है [ यथामानुषोत्तर पर्वत का सूची व्यास (३+२+४++८=२२३४२-) ४५ लाख योजन है, इसमें बाह्य पुष्कराध के दोनों ओर का पचास-पचास हजार मिला देने से बाह्य पुष्कराध के प्रथम वलय के सूची व्यास का प्रमाण (४५ + १ )-४६ लाख योजन और इसकी सूक्ष्म परिधि का प्रमाण १४५४६४७७ योजन हुआ, इसमें प्रथम क्लय में अवस्थित :१४४ चन्द्रों का भाग देने पर एक चन्द्र से दूसरे चन्द्र का अन्तर प्रमाण (१४५४६४७७१४४ ) =१०१०१७११ योजम प्राप्त हा ! इसी प्रकार सर्वत्र ज्ञातव्य है ] अन्य सर्वत्र भी परस्पर का अन्तर निकालने की यही प्रक्रिया है अर्थात् अन्तर को अवस्थिति इसी प्रकार है ॥८४-८५।। - पत्र व्यासेन बलयेषु परिधिश्चन्द्रान्तरादीनां व्याख्यानं क्रियते : मानुषोत्तराद्रेः पुष्कराघस्य प्रथमे वलये परिधिः एका कोटी पञ्चमत्वारिंशल्लक्षषट्चत्वारिंशसहस्रचतुःशतसप्तसप्ततियोजनानि । चतुश्चत्वारियादधिकशतचन्द्राः तावन्त आदित्याः स्युः । द्वयोश्चन्द्रयोः सूर्ययोश्चान्तरं एकलौकसहस्रसप्तदशयोजनानि, योजनस्य चतुश्चत्वारिंशदनशतभागाना एकोन त्रिंशद्भागाश्च । द्वितीये बलये परिधिः एका कोटचं कपञ्चाशल्लक्षाष्टसप्ततिसहस्रनवशतद्वात्रिशद्योजनानि । प्रष्ट वत्वारिंश दधिकशतनिशाकराः। तावन्तो दिवाकराश्च । चन्द्रयोः सूर्ययोश्चान्तरं एकलक्षद्विसहस्रपञ्चशतषष्टि योजनानि योजनस्य सप्तत्रिंशद्भागानां योभागाः । तृतीये वलये परिधिः एकाकोट्यष्टपञ्चाशल्लकादशसहस्रविशताष्टाशोति योजनानि । द्विपञ्चाशदधिकशतेन्दवः स्युः । तावन्तो दिनकराश्च । चन्द्रयोः सूर्ययो योश्चान्तरं एकलक्षचतुःसहस्रद्वाविंशतियोजनानि । योजनस्याष्टादशभागानां एकादशभागाः। चतुर्थे वलये परिधिः एककोटोचतुःषष्टि लक्षत्रिचत्वारिंशत्सहस्राष्टशतत्रिचत्वारिंशयोजनानि । षट्पञ्चाशदग्नशतचन्द्रमसः। तत्प्रमा प्रादित्याश्चचन्द्रयोः सूर्ययोई योरन्तरं एकलक्षपञ्चसहस्र चतुःशतनवयोजनानि क्रोशैकश्च । अनया गणनयापरेष्वसंख्य बलयेषु चन्द्रयोः सूर्ययोरन्तरमानेतव्यं ॥ अब व्यास के द्वारा वलय में परिधि व चन्द्रमा का अन्तर प्रादि कहते हैं :
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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