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________________ षष्ठोऽधिकार : अब चैत्यवृक्ष का वर्णन सात श्लोकों द्वारा करते हैं:स्तूपानां पुरतोगत्वा हेमपीठं भवेन्महत् । सहस्रयोजनायास विस्तारंमरिणभास्वरम् ||५५ ।। युतं द्वाभिण्डितम् । पीठस्योपरिसन्ति प्रोन्नताः षोडशयोजनैः ॥५६ ।। श्रष्टयोजनविस्तीर्णाश्चैत्यवृक्षाः शुभप्रदाः । रम्याः सिद्धार्थनामानो महान्तः सुरपूजिताः ॥५७॥ एकं लक्षं च चत्वरिंशत्सहस्र तथा शतम् । विशत्य प्रमिमासंख्या विशेया चेत्यशाखिनाम् ।। ५८ ।। द्रुमाणां भूतलाद्गत्वा चत्वारियोजनानि च । चतुदिक्षुचतस्रः स्युद्विषट्कयोजनायताः || ५६|| योजन कसुविस्तीर्णा महाशाखाः क्षयातिगाः । मूलेषु चैत्यवृक्षाणां चतुर्दिक्षु मनोहराः ||६०|| जिनेन्द्रप्रतिमाः शाश्वताः पत्यङ्कासन स्थिताः । भवेयुर्मारीताङ्गः प्रातिहार्य श्रियाचिताः ॥ ६१ ॥ अर्थ:-- स्तूपों के आगे ( पूर्व दिशा की ओर ) जाकर एक हजार योजन लम्बा और एक हजार योजन चौड़ा, मणियों की प्रभा से दीप्तवान्, बारह वेदियों से वेष्टित तथा उत्तम तोरणों से मण्डित एक स्वर्णमय पीठ है । उस पीठ के ऊपर सोलह योजन ऊँचा और आठ योजन चौड़ा यति शोभायुक्त, रमणीक और देवों से पूजित एक सिद्धार्थ नाम का महान चैत्यवृक्ष है ।। ५५-५७ ।। उस चैत्यवृक्ष के परिवार वृक्षों की संख्या एक लाख चालीस हजार एक सौ बीस जानना चाहिये ||१८|| चैत्यवृक्ष के भूमितल भाग से चार योजन ऊपर जाकर बारह योजन लम्बी और एक योजन चौड़ी प्रमाण वाली तथा विनाश से रहित चार महाशाखाएं चारों दिशाओं में फैली हैं। चैत्यवृक्षों के मुलभाग को चारों दिशाओं में पत्पङ्कासन (पद्मासन ) से स्थित एक एक जिनेन्द्र प्रतिमाएं हैं । जो अपनो सुन्दरता से मन को हरण करने वाली, उत्पत्ति विनाश से रहित, मणियों की दीप्ति से भास्वर शरीर वाली तथा प्रातिहार्य आदि लक्ष्मी से सेव्यमान हैं ।।५६ - ६१ ॥ [ १८१ अब ध्वजापीठ, स्तम्भ, ध्वजासमूह और वापियों का वर्णन पाँच श्लोकों के माध्यम से करते हैं: ततश्चत्यद्र ुमेभ्योऽनुगत्वा प्राग्दिग्महीतले । महत्पीठं ध्वजघानां स्याद्वेदीद्वादशाङ्कितम् ||६२॥
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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