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सिद्धांतसार दीपक वेला, पाताल विवर, जल में हानि वृद्धि एवं शिखा सदश जल की ऊँचाई अर्थात् जल की शिखा केवल लवासमुद्र में ही है, अन्य असंख्यात समुद्रों में नहीं हैं ।। १०६|| इसलिए शेष सब समुद्र टोत्कीर्ण के सद्दश, एक हजार योजन अबगाह से युक्त और हानि वृद्धि रूप विकार से रहित कहे गये हैं ॥११०॥
ततोऽस्ति वलयाकारी धातकीवृक्षलक्षितः । योजनानां चतुर्लक्षविस्तीर्णो हि विधाध्ययः ।।१११॥ द्वितीयो पातकीखण्डद्वीपस्तस्य द्वयोदिशोः । दक्षिणोत्तरयोः स्यातामिक्ष्वाकाराख्यपर्वतौ ॥११२।। सहस्रयोजनव्यासौ चतुःशतसुयोजनः।। उन्नती सच्चतुःकूटः प्रत्येक मूनि भूषितौ ॥११३।। एकक श्रीजिनागारालंकृतों काञ्चनप्रभो । लवणाम्बुधिकालोदवेद्यन्तस्पशिनौ परौ ॥११४॥ साभ्यां स धातकोखण्डो द्विधाभेदमुपाश्रितः । पूर्वात्यो धातकीखण्ड एकोऽन्योऽपरसंशकः ।।११५॥ एतस्याभ्यन्तरा सूची पञ्चलक्षप्रमाणिका । मध्यमा नव लक्षा च बाह्या जिनागमे मता ॥११६।। योजनानां जिनाधीशलक्षत्रयोदशप्रमा । सूचोनां त्रिगुरणा सर्वा स्थूला परिधिरुच्यते ॥११७।। लक्षाः पञ्चदशकाशीतिसहस्राः शतं तथा । योजनानां किल कोनचत्वारिंशदिति स्फुटम् ।।११८॥ परिधिः प्रोदिता पूर्वसूच्या दक्षंजिनागमे । अष्टाविंशतिलक्षाः षट्चत्वारिंशत्सहरूकाः ॥११॥ तवैकोन पञ्चाशत् परिधिश्चेति मध्यमा । लक्षाणि चकचत्वारिंशद्दशव सहस्त्रकाः ॥१२०॥ शतानि नव चकाग्रषष्टिरित्ययोजनः ।
तद्वीपे बाह्यसूच्या हि कौतिता परिधिजिनः ।।१२१॥ अर्थ:-लवणसमुद्र के बाद बलयाकार, धातको वृक्ष से युक्त, चार लाख योजन प्रमाण व्यास वाला, पूर्व और पश्चिम के भेद से दो भेद वाला और अविनाशी धातको खण्ड नाम का दूसरा द्वीप है । इस द्वीप की उत्तर दक्षिण दोनों दिशाओं में दो इंध्याकार पर्वत हैं । जो (पूर्वपश्चिम) एक हजार