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________________ सप्तमोऽधिकारः [१६६ विस्तृत, मध्य में पाठ योजन ऊँची और अन्त में अर्ध योजन ऊँची है। इस स्थली के मध्य में आठ योजन ऊंची एक अन्य रमणीक और स्वर्णमय पीठिका है, जिसका मूल व्यास बारह योजन, मध्य व्यास पाठ योजन और अग्रभाग का व्यास चार योजन प्रमाण है ।।३६-४१॥ ___ इस पीठ के मध्य भाग में ऊपर तोन छत्रों से अञ्चित, वज्र मयस्कन्ध, उत्तम वैडूर्यरत्नों के पत्र एवं फलों से संकुलित, अनेक लघु जम्बूवृक्षों के मध्य में महादेदीप्यमान जम्बूवृक्ष है । उस जम्बूवृक्ष का स्कन्ध (पीठ से) दो योजन ऊँचा, दो कोस चौड़ा और अर्ध योजन अवगाह ( नींव ) से युक्त है। उस वृक्ष के अर्ध भाग से शाश्वत और उत्तम चार शाखाएँ निकलती हैं जो दो कोस चौड़ी, पाठ योजन लम्बी, दिव्य प्रासादों से युक्त, ज्योतिर्मान, सुन्दर और मरकतमरिण मय हैं ।।४२-४५॥ इन में से उत्तर दिशा की शाखा पर अनावृत प्रादि यक्ष समूह से निरन्तर पूज्य, चन्दनीय एवं स्तुत्य शाश्वत अर्थात् अकृत्रिम जिन चैत्यालय है। शेष तीन शाखाओं पर स्थित उन्नत प्रासादों में जम्बूद्वीप का रक्षक और यक्षकुलोत्पन्न अनावृत नाम का देव अपनी परम विभूति के साथ निवास करता है ।।४६-४७|| अब परिवार वृक्षों की संख्या, प्रमाण एवं स्वामियों का निवर्शन करते हैं:-- यावन्तः स्युः श्रियो देव्याः परिवारान्जसद्गृहाः । परिषत् च्यादिदेवानां संख्ययाखिलदिस्थिताः ॥४७।। तायतोऽत्रास्य देवस्य परिवारसुधाभुजाम् । सर्वे जम्बूद्र मा शेयाः शाखाग्रसौधसंयुताः ॥४८।। व्यासायामोन्नता जम्बूवृक्षस्या@च्छुितादिभिः । एकैक श्रीजिनागारालंकृताः भयदूरगाः ॥४६॥ विशेषोऽयं भवेदश चतुदिक्षु गृहद्रमाः । चत्वारोऽस्याग्रदेवीनां स्यः पद्यरागतन्मयाः ॥५०॥ अर्थ:-[ पद्मद्रह में स्थित ] श्री देवी की चारों दिशाओं में स्थित तीन परिषद् यादि के समस्त परिवार देवों के कमल स्थित प्रासादों की जितनी संख्या है, उतनी ही संख्या इस अनावृत देव के परिवार देवों की है। ये समस्त परिवार जम्बूवृक्षशास्त्रा के अग्रभाग पर प्रासादों से संयुक्त हैं ऐसा जानना चाहिये ॥४७-४८॥ इन परिवार जम्बूवृक्षों की चौड़ाई, लम्बाई एवं ऊँचाई मूल जम्बूवृक्ष के अर्घ प्रमाण है, और प्रत्येक परिवार जम्बूवृक्ष एक एक अत्रिम जिन चैत्यालय से अलंकृत है। अर्थात् जितने (१४०१२०) जम्बूवृक्ष हैं, उतने ही अकृत्रिम जिन चैत्यालय हैं। श्रीदेवी के परिवार कमलों से यहाँ इतना विशेष है कि प्रधान जम्बूवृक्ष की चारों दिशाओं में अनावृत देव की चार पट्टदेवाङ्गनामों के पद्मरागमणिमय चार गृहम अधिक हैं ।।४६-५०॥
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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