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________________ २३२ ] सिद्धान्तसार दोपक श्रर्यः - चक्रवर्ती के नगर के चारों ओर क्षितिसार नाम का उत्तुङ्ग और वृत्ताकार प्राकार है । कान्तिमान् उत्तम रत्नों का सर्वतोभद्र नाम का गोपुर है। शिविर ( डेरा, तम्बू ) के निवेश द्वार का नाम नन्द्यावर्त है। सर्व ऋतुयों में सुख देने वाला वैजयन्त नाम का प्रासाद है ।। २५६-२५७॥ पराद्ध मणि का है आंगन (भूमि ) जिसका ऐसा दिक्स्वस्तिका नाम का सभा स्थल और चक्रवर्ती के हाथ में लेने की घूमने वाली सुविधि नाम को मरिण निर्मित छड़ी है ।। २५८ ॥ दिशाओं का अवलोकन करने के लिये गिरिकूट नाम का उन्नत प्रासाद है, और अति रमसीक वर्धमान नाम का प्रेक्षागार है ।। २५६॥ प्रताप का विनाश करने वाला शोतल और रम्य धारागृह नाम का भवन है, वर्षाकाल में सर्व सुखों को देनेवाला मन को शिकूनम का है। चुने की कलई से उज्ज्वल और रम्य पुष्करावर्त नाम का उत्तम भवन है जिसमें अक्षय निधि से परिपूर्ण कुबेरकान्त नाम का भण्डारगार है ।। २६०-२६१ ।। चक्रवर्ती के क्षय से रहित वसुधारा नाम का कोष्ठागार है और अत्यन्त तेज कान्ति से युक्त जीमूत नामका मज्जनागार ( स्नानगृह ) है || २६२ ॥ चक्रवर्ती की प्रति देदीप्यमान रत्नों की माला है, और प्रोच्चा नाम की उत्तम दोपी है । यति सुन्दर और महान विस्तार वाली देवरम्य नाम की दृष्य कुटी अर्थात् वस्त्रागार कहा गया है || २६३ || भयावह ( बड़े- बड़े) सिहों पर प्रारूढ़ सिंहवाहिनी नाम की उत्तम शय्या है और अनुत्तर नाम का दिव्य और उन्नत श्रेष्ठ सिंहासन है ॥२६४॥ अनुपम नाम के श्रेष्ठ चमर और उत्तम रत्नों से रचित देदीप्यमान सूर्यप्रभ नाम के छत्र हैं || २६५|| विद्यत्प्रभ नाम के सुन्दर मणिकुण्डल और शत्रुओं के वारणों द्वारा छिन्न भिन्न न होने वाला प्रभेव नाम का कवच है || २६६॥ चक्रवर्ती की रत्नजड़ित विषमोचिका नाम की दो पादुकाएँ हैं जो अन्य जनों के पैरों के स्पर्श करने मात्र से उनके प्रतितीव्र विष का मोचन (हरण) कर लेतीं हैं ।। २६७॥ श्रजितञ्जय नाम का रथ और चक्रवर्ती को विजय प्राप्त कराने वाले प्रमोघ नाम के बाणों से युक्त वञ्चकाएड नाम का महान धनुष है || २६८ ।। श्रय चक्रवर्ती के हथियारों, मौ निधियों एवं चौदह रत्नों के नाम कहते हैं: वज्रतुण्डाभिधा शक्तिर्ववारिखण्डिनी । कुन्तः सिंहाटको रत्नदण्डः सिहनखाङ्कितः ॥ २६६ ॥ तस्यासिपुत्रिका दोप्ता महती लोहवाहिनी । कयोस्ति मनोवेगोऽसिश्च सौमम्बका रूयकः ॥ २७० ॥ पृथुभूतमुखं खेटं सार्थं भूतमखान्वितम् । सुदर्शन चक्रं षट्लण्णाक्रमणक्षमम् ॥२७१॥ चण्डवेनाभिषोदण्डो गुरद्विमेवकृत् । चर्मरत्नं जलामेदं महद्वजमधाभिधम् ॥२७२।।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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