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________________ द्वितीय अधिकार श्रञ्जनाभाभिधा मूला स्फटिकाख्याथ चन्दना । सपर्वाकुलाला खरे पृथ्व्यो हि षोडश ।। ११ । एकैकस्याः' सुबाहुल्यं सहस्रगुरणयोजनम् । भूमेश्चैव तदात्मासौ खरभागो मतो बुधैः ||१२|| [ २३ अर्थ :-- प्रथम रत्नप्रभा पृथिवी खरभाग, पङ्कभाग और प्रभ्वहुल भाग के भेद से तीन प्रकार की है, जिसमें खरभाग में नीचे कही जाने वाली सोलह भूमि पडत हैं । १ चित्रा, २ वा ३ बेडूर्या, ४ लोहिता, ५ मसारिका ६ गोमेदा, ७ प्रवाला, ६ ज्योतिरसा, १ जना, १० अञ्जनाभा, ११ मूला, I १२ स्फटिका, १३ चन्दना, १४ संपर्क. १५ वकुला और १६ शैला ये खर भाग में सोलह पृथ्वियों के पत हैं । इनमें प्रत्येक पृथिवी ( पडत) का बाहुल्य (मोटाई) एक एक हजार योजन प्रमाण है। इन सोलह पृथिवी पडतात्मक भूमि ही विद्वानों के द्वारा खरभाग माना गया है। अर्थात् खरभाग सोलह हजार योजन मोटा है जिसमें एक एक हजार योजन मोटी सोलह पृथ्वियाँ ( पडत ) हैं अतः सोलह पृथिवी (प) प्रात्मक ही खर भाग है ऐसा कहा गया है ।।६, १२ ।। नोट: - त्रि० स० गा० १४८ में ११ वीं पृथिवी का नाम अङ्का और १४ वीं का सर्वार्धिका कहा गया है। खर आदि भागों में रहने वाले देवों का विवेचन दो श्लोकों द्वारा करते हैं: खरभागे वसन्त्यत्र सप्तधा व्यन्तरामराः । राक्षसानां कुलं मुक्त्वा नवभेदारच भावनाः ॥ १३॥ असुराणां कुलं त्यक्त्वा पङ्कभागेऽसुरव्रजाः । राक्षसाश्च वसन्त्येव तृतीयांशे च नारकाः ।। १४॥ अर्थ :- राक्षस कुलको छोड़कर शेष सात प्रकार के व्यन्तर देव और असुरकुमार देवों को छोड़ कर शेष नौ प्रकार के भवनवासी देव हरभाग में व राक्षस और असुरकुमार पक भाग में रहते हैं, तथा तृतीय बहुल भाग में नारकी जीवों का वास है ।। १३, १४ ।। 1 विशेषार्थ:-- व्यन्तर देवों के प्राठ कुल हैं किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच । इनमें से राक्षस कुल को छोड़कर शेष सात कुलों के व्यन्तरवासी देव खरभाग में रहते हैं । इसीप्रकार भवनवासी देवों के ददश कुल हैं - प्रसुर कुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, विद्यत्कुमार, स्तनितकुमार, दिवकुमार, अग्निकुमार और बायुकुमार । इनमें से असुरकुमार के कुलको छोड़कर शेष कुलों के भवनवासी देव भी खर भाग में रहते हैं, तथा राक्षस और असुरकुमार (द्वितीय) पक भाग में रहते हैं और तृतीय अश्वहुल भाग में प्रथम नरकके नारकी रहते हैं । १ एम श्लोक ० प्रतो नास्ति ।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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