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पंचदशोऽधिकार!
[ ५११ अब ऋतु इन्द्रक को अवस्थिति एवं इन्द्रों के स्वामित्व की सीमा का विवेचन करते हैं:
सुदर्शनमहामेरोश्चूलिकोवनभस्तले । रोममात्रान्तरं मुक्त्वा तिष्ठत्वाख्य इन्द्रकः ।।५७॥ स्वस्वान्स्यपटलेष्वन्स्य स्वस्वेन्द्रकस्य यच्च यत् । ध्वजान तत्र तत्र स्थितेन्द्रस्य स्वामिता भवेत् ॥५८।।
अर्थः-सुदर्शन मेरु की चूलिका के ऊपर प्रकाश में बाल के अग्रभाग प्रमाण अन्तर छोड़कर ऋतु नाम का प्रथम इन्द्रक विमान है 11५७।। अपने अपने अन्तिम पटल के अन्तिम इन्द्रक के ध्वजादण्ड पर्यन्त वहाँ स्थित अपने अपने इन्द्रों का स्वामित्व है। जैसे- सौधर्म इन्द्र का स्वामित्व प्रभा नामक अन्तिम इन्द्रक के ध्वजदण्ड पर्यन्त है । इसो प्रकार आगे भी जानना ॥५॥
प्रब इन्त्रक विमानों का प्रमाण कहते हैं:
नरक्षेत्रप्रमाणं स्यावास्यं प्रथमेन्द्रकम् । सर्वार्थसिद्धिनामान्त्यं जम्बूद्वीपसमानकम् ॥५६॥ शेषाणामिन्द्रकाणां स्यादेकोनेन्द्रकसंख्यया । विभक्तर्योजनैः शेषः क्रमहासो हि विस्तरः ॥६०॥
' अर्थः-प्रथम ऋतु इन्द्रक विमान का विस्तार मनुष्य क्षेत्र (ढाई द्वीप) के बराबर और सर्वार्थ सिद्धि नामक अन्तिम इन्द्रक का प्रमाण जम्बूद्वीप के बराबर है । उन दोनों के प्रमाण को परस्पर घटा कर शेष में एक कम इन्द्रक प्रमाण का भाग देने पर हानि-वृद्धि चय का प्रमाण प्राप्त होता है । जैसे:--ऋतु नामक प्रथम इन्द्रक का प्रमाण ४५००००० योजन और सर्वार्थ सिद्धि इन्द्रक का प्रमाण १७०००० योजन है । इन दोनों को परस्पर में घटा कर एक कम इन्द्रक का भाग देने से (४५०००११-२०००००= )७०९६७३३ योजन हानि चय का प्रमाण है ।।५६-६०॥
६३ इन्त्रक विमानों के विस्तार का प्रमाण निम्न प्रकार है: