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षष्ठोऽधिकारः
[ १८३ क्रीड़ागृहों से भागे पूर्व दिशा में जाकर रत्नों से व्याप्त विचित्र तोरण है, जो पचास योजन ऊँचा, इससे प्राधा अर्थात् पच्चीस योजन चौड़ा, मुक्ता माला से संयुक्त, रमणीय एवं उत्तम घण्टा समूह से समन्धित है ।।६७-७०॥ अब प्रासादों, ध्वजाओं और वनखण्डों का निर्देश करते हैं:----
ततोऽस्यतोरणस्यैव पाश्वयोः स्तो द्वयोः परौं । द्वौ द्वौ सबस्नगेही च शतकयोजनोन्नती ॥७१॥ ततः परं विचित्राः स्यवंजवाताः समुन्नताः । नानावमहान्तोऽशीतिसहस्रप्रमाणकाः ।।७२॥ शततोरण संयुक्ता बनवेदी प्रवेष्टिताः । ततः परे महीभागे बनखण्डं स्फुरत्प्रभम् ॥७३॥ यादीगुल रहनसोएगाढच मनोहरम् । विचित्रमणिपीठाग्रस्थित मौघशोभितम् ॥७४॥ विद् मोत्थमहाशाखंहेमपुष्पौधशोभितम् । वैडूर्यफलपूर्ण मरकतारमसुपत्रकम् ॥७॥ चम्पकाशोकवक्षामसप्तपर्णद्र मैश्चितम् ।
कल्पपादपसंकीर्णशाश्वतं स्यात् खशर्मदम् ॥७६॥ अर्था:-इसके प्रागे तोरण के दोनों पाश्वभागों में सौ सौ योजन ऊँचे और उत्तम रत्नों के दो दो भवन हैं ॥७१।। इसके आगे विविध वर्ण के, समुन्नत और महान एक हजार प्रस्सी ( १०८४१० =१०८० ) संख्या प्रमाण विचित्र ध्वजारों के समूह हैं, जो सौ तोरणों से संयुक्त और उत्तम वनवेदी से परिवेष्ठित हैं । इसके आगे पृथ्वोतल पर देदीप्यमान प्रभा से भासुर वनखण्ड हैं, जो बनवेदी से युत; रत्नतोरणों से संयुक्त. मन को हरण करनेवाले, नाना प्रकार की मगिण पीठों के अग्रभाग पर स्थित वृक्षसमूहों से सुशोभित, विद म अर्थात् प्रवालमय शाखानों को शोभा से युक्त, स्वर्ण के पुष्प समूह से समृद्ध, वडूर्यमय फलों से व्याप्त, मरकत मरिण के पत्थरमय उत्तम पत्रों से संकीर्ण, चम्पक, अशोकवृक्ष, आम एवं सप्तपर्ण के वृक्षों द्वारा गहन, अन्य कल्पवृक्षों से परिपूर्ण, अनाद्यनिधन और इन्द्रियों को मुख देने वाले हैं ।।७२-७६।।
अब मेरु के जिन भवनों को अवस्थिति और अन्य बनों आदि में स्थित जिनालयों के विस्तार प्रादि का वर्णन पाँच श्लोकों द्वारा करते हैं:
तेषां कन्पद्रमाणांसन्मूले स्युजिनमूर्तयः । चतुर्दिक्षुमहादीप्ताः प्रातिहार्याद्यलंकृताः ॥७॥