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________________ ३८४ ] सिद्धान्तमार दीपक स्वव्यासेन समोत्सेधो मन्तव्योऽस्य महागिरेः । सहस्रयोजनागाहोऽग्रे स्युः कूटान्य मून्यपि ॥३६८॥ अर्थ:-११ । कुण्डलवर द्वीप के बाद १२ वा शंखवर द्वीप है. और शंखवर द्वीप के आगे १३ वा रुचकवर द्वीप है, जो जिनेन्द्र भगवान के जिनालयों से देवों को प्रानन्द कारक है, ऐसे रुचकगिरि ( पर्वत ) से सुशोभित है ॥ ३६५ ॥ इस रुचकवर द्वीप के मध्य में शाश्वत और वलयाकार पुण्यकर्म को आकर्षण करने वाला रुचक नाम का पर्वत है ।। ३६६ ॥ इस पर्वत का प्रादि, मध्य और शिखर का सर्वत्र विस्तार समान है । अर्थात् सर्वत्र ८४००० योजन प्रमाण है ॥३६७॥ इस रुचक पर्वत की ऊँचाई भी अपने विस्तार के सदृश अर्थात् ८४००० योजन प्रमाण ही है, तथा अवगाह १००० योजन है । इस महागिरि के ऊपर अनेक कूट भी हैं ।।३६८।। अब रुचकगिरि पर स्थित कुटों का अवस्थान, संख्या, स्वामी और उनके कार्यों एवं व्यास प्रादि के प्रमाण का निधारण करते हैं : पूर्वाद्यासु चतुर्विश्वष्टौ कूटानि पृथक् पृथक् । प्रत्येक रुचकाल्या बहिर्भागे च मूर्धनि ।।३६६।। पूर्वाशास्थाष्टकूटेषु दिक्कुमार्यो वसन्ति ताः । याः शृङ्गारविधायिन्यो जिनमातुर्भवन्ति च ।।३७०॥ दक्षिणाशाष्टकूटाग्रस्थ सौधेषु वसन्ति च । मरिणदर्पणधारिण्योऽष्टौ तस्या दिक्कुमारिकाः ॥३७१।। पश्चिमाशाष्ट कूटेषु तिष्ठन्ति दिक्कुमारिकाः । मूर्यष्टौ छत्रधारिण्यो जिनाम्बाया मुवागताः ॥३७२॥ उत्तराशाष्टकूटेषु दिक्कुमार्यो वसन्ति ताः । जिनमातुरिहायाताश्चामराण्युत् क्षिपन्ति याः ॥३७३॥ तथास्याश्चतुदिक्षु पङ्क्त्या फूटानि सन्ति च । त्रीणि श्रीणि मनोज्ञानि प्रत्येकं हि ततोऽन्तरे ।।३७४॥ चतुःकूटेषु तिष्ठन्ति दिक्कुमार्यश्चतुःप्रमाः । ता या जिनजनन्याश्च निकटे संवनोत्सुकाः ॥३७५॥ अमीषां मध्यभागेषु चतुःकूटस्थयेश्मसु । वसन्ति दिक्कुमारीणां सन्महतरिकाः पराः ॥३७६।।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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