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विलास बीप
रत्नद्वाराणि बेथ्योधेदु गंमाणि सुरोत्करैः । सन्मध्ये स्वर्गमाथस्य दिव्यं स्याद्धरिविष्टरम् ॥ १७७॥
अर्थः
:- प्रस्थान मण्डप की पूर्व, उत्तर और दक्षिण दिशा में १६ योजन ऊंचे और ५ योजन चौडाई के प्रमाण को लिए हुए, एक एक दरवाजा है। ये द्वार रत्नों से निर्मित और देव देवियों के समूह से लङ्घनीय है । मण्डप के मध्य भाग में इन्द्र का एक दिव्य सिंहासन है ।।१७६-१७७।।
अब महादेवियों के, लोकपालों के और अन्य देवों के सिहासनों का प्रवस्थान कहते हैं:
तस्य सिंहासनस्यात्र तिष्ठन्ति सन्मुखानि च । प्रष्टानां तन्महादेवानां महान्त्यासनान्यपि ॥१७८॥ पूर्वादिदिक्षु तिष्ठन्ति लोकपालासनानि च । अन्येषां देवसङ्घानां यथाईमासनान्यपि ॥१७६॥
अर्थ:- :- उस सिंहासन के सम्मुख ( श्रागे ) अष्ट महादेवांगनाओं के महान श्रासन अवस्थित हैं ।। १७८|| महादेवियों के श्रासनों से बाहर पूर्वादि दिशाओं में चारों लोकपालों के प्रासन हैं, तथा दक्षिण श्रादि दिशाओं में श्रन्य देवों के योग्य आसन हैं । अर्थात् इन्द्र के सिंहासन की आग्नेय, दक्षिण और मैऋत्य में अभ्यन्तर आदि परिषदों के नैऋत्य में श्रायत्रश देवों के, पश्चिम में सेना नायकों के, वायव्य एवं ईशान में सामाजिक देत्रों के तथा पूर्वादि चारों दिशाओं में अङ्गरक्षक देवों के प्रासन हैं ॥१७६॥ इनका चित्रण निम्न प्रकार है
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