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________________ १० ] सिद्धान्तसार दीपक अर्थः- सर्वज्ञदेव के ज्ञान का विषयभूत सम्पूर्ण प्रकाश अनन्तप्रदेशी और शाश्वत है । उसके मध्यभाग में तीन प्रकार के भेदों से युक्त लोकाकाश है। जो असंख्यात प्रदेशी, तीन बात चलयों से वेष्टित और चेतन चेतन छह द्रव्यों से भरा हुआ है तथा अलोकाकाश में नक्षत्र के समान शोभायमान होता है ॥४६-४७॥ जीवाश्च पुद्गला धर्माधर्मकालाः स्थिताः सदा । खे यावति विलोक्यन्ते लोकाकाशः स कथ्यते ||४८ || एतस्माच्च बहिर्भागे शाश्वतो द्रव्यवर्जितः । सर्वज्ञगोचरोऽनन्तोऽलोकाकाशो जिनंर्मतः ॥४६॥ अर्थ : - याकाश के जितने भाग में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल द्रव्य शाश्वत स्थित रहते हैं उसे लोकाकाश कहते हैं, और इसके ( लोकाकाश के ) बाह्य भाग में जिनेन्द्र के द्वारा कहा हुआ पांच द्रव्यों से रहित, सर्वज्ञगोचर, शाश्वत और अनन्त विस्तार वाला अलोकाकाश है ||४८-४६ लोक के विषय में मतान्तरों का खण्डन करते हैं : केनचित्र कृतो लोको ब्रह्मादिनाथवा धृतः । न च विष्ण्वादिना जातु न हृतश्चेश्वरादिना ॥५०॥ अर्थः- यह लोक न किन्हीं ब्रह्मा आदि के द्वारा बनाया हुआ है, न किन्हीं विष्णु आदि के द्वारा धारण- रक्षण किया हुआ है और न किन्हीं महादेव यादि के द्वारा विनाश को प्राप्त होता है ||५०|| विशेषार्थ:- यह लोक प्रकृत्रिम है, अतः ईश्वर आदि कोई इसके कर्ता नहीं हैं। अनादिनिधन है अतः कोई संहारक नहीं है और स्वभाव निर्वृत होने से इसका कोई रक्षक भी नहीं है । अव सात श्लोकों द्वारा लोक का स्वरूप यदि कहते हैं : :― किन्तु त्वचावृतो वृक्ष इव वातत्र्यावृतः । श्रनादिनिधनो लोको नानाकारस्त्रिषात्मकः ॥५१॥ अर्थ :--- किन्तु यह लोक त्वचा (छाल) से वेष्टित वृक्ष के सहश तीनवातवलयों से वेष्टित, अनादिनिधन अर्थात् श्रादि अन्त से रहित, अनेक संस्थानों ( आकारों ) से युक्त और ऊर्ध्व मध्य एवं प्रधोलोक के भेद से तीन भेद वाला है ॥ ५१ ॥ स्थापितस्याप्यधोभागे मुरजार्धस्य मस्तके | धृत्तेऽत्र मुरजे पूर्णे ह्याकारो यादृशो भवेत् ॥ ५२ ॥
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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