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________________ सिद्धान्तसार दीपक सहस्रांचकेभ्योऽपि दष्टे योधिक वेदना । वजफण्टकसोर्ण श्वभ्रभूस्पर्शनाद् भवेत् ॥५॥ मार्जारश्वानगोमायु दष्ट्रि खगादिदेहिनाम् । तत्रात्यऽशुभदुर्गन्धाः स्युः कलेवरराशयः ॥६॥ अर्थ:-एक साथ हजारों बिच्छों के काटने पर जो वेदना होती है उससे भी अधिक वेदना बचमय कांटों से व्याप्त नरक भूमि के स्पर्श मात्र से होती है। बिल्ली, कुत्ता, शृगाल, व्याघ्र, हाथी और पक्षियों के मृतक शरीरों की राशि समूह से जो दुर्गन्ध निकलती है उससे भी अति प्रशुभ और भयङ्कर दुर्गन्ध वहां निरन्तर व्याप्त रहती है ॥५-६।। नरक स्थित नदी, वन, वृक्ष एवं पवन का विवेचन : भारश्रोणिस दुर्गन्धयारि वीचिधयाफुलाः। वहन्ति वैतरण्याख्या नद्योऽत्र मासकर्दमाः ॥७॥ प्रसिपत्रनिभैः पौराकीर्णानि हपनेकशः । दुराश्रयाणि सन्न्यासु चासिपत्रवनानि ये ।।८।। अधोमध्यानभागेष सर्वत्र तीक्षणकण्टकः । चिताः शाल्मलिवृक्षौघाः भवन्ति ते दुःखस्पृशाः ॥९॥ किरन्तोऽग्निकरणाभानि रजांसि वाययोऽशुभाः । तेषु वान्त्यतिकुःस्पर्शाः सर्वाङ्गदुःखहेतवः ॥१०॥ अर्थ:---उन नरक भूमियों में मांगरूप कीचड़ और क्षार एवं दुर्गन्धित रक्त रूप जल की कल्लोलों से व्याप्त वैतरणी नाम की नदियाँ बहतीं हैं । उन नरकों में प्रसिपत्र के सदृश हैं पत्ते जिनमें ऐसे वृक्षों से युक्त अनेक असिपत्र नाम के वन हैं जो नारकी जीवों को दुःखसमूह की उत्पत्ति के कारणभूत हैं जिनका स्पर्श अति दुःखद है और जो जड़ भाग से मस्तक पयन्त तीक्ष्य कांटो से युक्त है ऐसे शाल्मलि नाम के वृक्ष समूहों से वे नरकभूमियाँ व्याप्त हैं । जिसका स्पर्श सम्पूर्ण शरीर को भयङ्कर दुःख का कारण है, जो असुहावनी है और जिसमें खिरने वाले अग्नि करणों के सदृश रज का मिश्रण है ऐसो वायु वहाँ नित्य ही बहतो रहती है ।।७-१०।। विक्रियाजन्य पशुपक्षियों का स्वरूप :-- भीमा गिरिगुहा बह्वयः सिंहध्याघ्रादिभिताः । करैमासाशिभिर्मागर्भवन्ति नरकेषु च ॥११॥
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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