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________________ ५६२] सिद्धतिसार दीपक महातमः प्रभान्ते षड्चत्वारिशच्च रज्जवः। इत्यधोलोकरसूनां परणवत्यधिकं शतम् ॥२०॥ अर्थ:-अब सिद्धों के सुखों का बएंन करने के बाद पूर्व में जो लोक का ३४३ धन राजू क्षेत्रफल कहा गया था, उसी को अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्वलोक इन तीन भागों में विभाजित करके अधोलोक सम्बन्धी प्रत्येक पृथ्वी के घनफल की पृथक पृथक् संख्या कहते हैं ।।१६।। रत्नप्रभा पृथिवी ( उपरिम प्रथम भाग ) का घन फल १० घन राजू प्रमाण है । शर्करा पृथ्वी ( द्वितीय भाग ) का १६ घन राजू प्रमाण, बालुका प्रभा ( तृतीय भाग ) का २२ घन राजू, पङ्क प्रभा ( चतुर्थ भाग ) का २८ घन राजू, धूम प्रभा ( पचम भाग) का ३४ घन राजू. तमः प्रभा ( षष्ठ भाग) का ४० घन राजू और महातमः प्रभा पृथ्वी (सप्तम भाग) का घन फल ४६ घन राजू प्रमाण है । इस प्रकार अधोलोक का सर्व घन फल (१०+१६+२२+२८+ ३४+४० + ४६-) १६६ घन राजू प्रमाग है।।१६-२०॥ विशेष:-किसी भी क्षेत्र की लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई या मोटाई का परस्पर में गुरगा करने से उस क्षेत्र का घनफल प्राप्त होता है । अथवा--मुख और भूमि को जोड़कर उसका प्राधा करके मोटाई एवं ऊंचाई से गुणा करने पर घनफल प्राप्त होता है । यथा:- प्रथम पृथ्वी ( उपरिम भाग) का पूर्व-पश्चिम व्यास राजू है, जो भूमि स्वरूप हुआ । मुख १ राजू है.+H-x=x *x-१० घन राजू । इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिए । अब प्रत्येक स्वर्गों का भिन्न भिन्न घनफल कहते हैं:-- सौधर्मयुगले रज्जवः सार्धंकोनविंशतिः । द्वितीयेयुगले सार्घसप्तत्रिंशच्च रज्जयः ।।२१।। ब्रह्माविशययुग्मे च अर्यास्त्रशच्च रज्जयः । शुक्रावियुगले सन्ति सार्धनिसप्तरज्जवः ।।२२।। शातारयुगलेसार्धद्वादशप्रमरज्जवः। अानतप्राणते सार्धदशरज्जव एव हि ।।२३॥ प्रारणाव्युत मूक्षेत्रे सार्धाष्ट रज्जयो मताः । प्र वेयकादिलोकान्ते ह्य कादशव रज्जवः ॥२४॥ इति त्रिविषलोकस्य घनाकारेण पिण्डिताः । रज्जयः स्युस्त्रिचत्वारिंशदप्रतिशतप्रमाः ॥२५॥
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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