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________________ दशमोऽधिकार: [ ३७१ कूटानामुदयो योजनानां पञ्चशतप्रमः । मूले पञ्चशतव्यासश्चाग्ने सार्धशतद्वयः ॥२०॥ केयल्याख्यसमुद्घाताच्चोपपादाद्विनाङ्गिनाम् । अद्रिमुल्लंध्यशक्ता नेमं गन्तु तत्परां भुवम् ॥२१॥ विद्येशाश्चारणा वान्ये प्राप्ताऽनेकद्धयः क्वचित् । ततोऽयं पर्वतो मर्त्यलोकसीमाकरो भवेत् ॥२६२।। अर्था. इस पुष्कराध द्वीप के मध्यभाग में अरहन्त भगवान् के चैत्यालयों प्रादि से अलंकृत, श्रीमान् अर्थात् श्रेष्ठ मानुषोत्तर पर्वत शोभायमान होता है ।।२७०॥ चौदह महानदियों के निर्गमन चौदह द्वारों से सुशोभित और क्रमशः ह्रस्व होते हुये इस मानुषोनर पर्वत की ऊँचाई जिनेन्द्र भगवान् ने १७२१ योजन दर्शाई है । भूतल अर्थात् मूल में इस पर्वत को चौडाई १०२२ योजन, मध्य में चौडाई ७२३ योजन और ऊपर की चौड़ाई ४२४ योजन प्रमाण है ॥२७१-२७३।। मानुषोनर का अवगाह अर्थात् नींव का प्रमाण ४३० योजन और एक कोश है। इस पर्वत के शिखर पर दो कोस ऊँची (और ४०.० धनुष चौड़ी) अत्यन्त देदीप्यमान और दिव्य मणिमय वेदी है ।।२७४।। उस मानुपोनर पर्वत पर नैऋत्य और वायव्य इन दो दिशाओं को छोड़ कर अवशेष पूर्वादि छह दिशाओं में पंक्ति रूप से तीन तीन कूट अवस्थित हैं ।।२७५।। आग्नेय और ईशान दिशा सम्बन्धी छह कूदों के दिव्य प्रासादों में गरुड़ कुमार जाति के देव अपनी समस्त विभूति के साथ निवास करते हैं ।।२७६।। दिशागत अवशेष बारह कूटों के प्रासादों की चारों दिशाओं में सुपर्ण कुलोत्पन्न दिक्कुमारी देवांगनाएँ निवास करती हैं ॥२७७। इन अठारह ( १२+.६ ) कूटों के प्रभ्यन्तर भाग में अर्थात् मनुष्य लोक की ओर पूर्वादि चारों दिशाओं में चार कूट हैं, जिनके शिस्त्र र पर देवताओं से पूज्य और उत्त ङ्ग स्वर्ण एवं रत्नमय जिनालय हैं ।।२७८-२७६।। इन समस्त कूटों की ऊँचाई ५०० योजन, मूल में व्यास ५०० योजन और शिखर पर भ्यास का प्रमाण २५० योजन है ॥२८०1। केवलिसमुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद जन्म वाले देवों के सिवाय अन्य कोई भी प्राणी इस मानुषोत्तर पर्यत से युक्त पृथ्वी को उल्लंघन करके नहीं जा सकता ॥२८१।। विद्याधर, चारणऋद्धिधारी तथा अनेक प्रकार को और भी अनेक ऋद्धियों से युक्त जीव भी इस पर्वत का उल्लंघन नहीं कर सकते, इसीलिये यह पर्वत मनुष्यलोक की सीमा का निर्धारण करने वाला है ॥२२॥ अब यह बतलाते हैं कि ढाई द्वीप के प्रागे मनुष्य नहीं हैं, केवल तिर्यञ्च हैं : यतो द्वीपद्वये साः स्युस्तियंञ्चश्च मानवाः । ततोऽपरेष्वसंख्येषु द्वोपेषु सन्ति केवलम् ॥२३॥
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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