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________________ त्रयोदशोऽधिकारः I केषाञ्चिद् भौमदेवानामावासाः सन्ति केवलम् । केषाञ्चिद मवनः सार्धमावासाः स्युः सुधासुजाब ।।५।। पुराणि भवनान्युच्चाबासा एते त्रयः शुभाः । भवन्ति वसतिस्थानाः कषावित्पुण्यपाकप्त: ।।६॥ तथेतित्रिविषस्थानानि स्पु वनवासिनाम् । नवानामसुराणां च केवलं भवनान्यपि ।।८७॥ अर्थः-इन उत्कृष्ट एवं जघन्य सर्व कूटों के ऊपर मध्य भाग में देदीप्यमान रत्नमय एक एक उत्त जिनालय हैं ।।८२॥ उत्कृष्ट भवनों आदि की उत्कृष्ट वेदियों प्रतोली तथा तोरणों आदि से युक्त दो कोस ऊंची हैं, तथा जघन्य भवनों आदि की जघन्य वेदियो गोपुर प्रादि से विभूषित और २५ धनुष ऊँची हैं ।।८३-८४॥ पूर्व पुण्योदय से किन्हों किन्ही व्यन्तर देवों के मात्र प्रावास ही हैं, किन्हीं के प्रावास और भवन दोनों हैं ।।८॥ तथा किन्हीं किन्हीं व्यन्तर देवों के आवास, भवन और पुर ये तीनों प्रकार के अत्यन्त शुभ निवास स्थान होते हैं ।। ६६ ।। भवनवासी देवों में असुरकुमारों के मात्र भवन होते हैं, अन्य शेष भवनवासयों के तीनों प्रकार के निवास स्थान होते हैं ॥७॥ अब व्यस्तरेन्द्रों के परिवार देवों का विवेचन करते हैं : प्रतिशकं भवेदेकैकः प्रप्तीन्द्रोऽमरावृतः। प्रत्येक किन्नरादीनां सर्वेन्द्राणां भवन्ति च ॥ll चत्वार्यय सहस्राणि देवाः सामानिकाह्वयाः । अङ्गरक्षामराः सन्ति सहस्रषोडशप्रमाः ।।८।। प्राविमापरिषत्स्थाः स्यर्देवा प्रष्टशतानि च।। मध्यमापरिषदेवाः सहलप्रमिता मता: 10॥ प्रन्तिमापरिषत्स्थामरा द्वादशशसप्रमाः। गजा अश्वा रथास्तुङ्गा वृषभाश्म पदातयः ॥१॥ गन्धर्वाः सुरनर्तक्यः सप्तानीकान्यमूनि च । प्रत्येकं सर्वयुक्तानि कक्षाभिः सप्तसप्तभिः ॥१२॥ गजानां प्रथमेऽनोकेऽष्टाविंशति सहस्रकाः । गजावच बितोये षट्पञ्चाशत्सहनहस्तिनः ॥६॥ इत्येवं च तृतीयायनीकेषु द्विगुणोत्तराः। सप्समानीकपर्यन्तं विद्यन्ते हस्तिनः क्रमास् ॥६॥
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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