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नवमोऽधिकारः
मङ्गलाचरणः--
प्रादिमध्यान्तसजातान तुर्षे काले जगद्वितान् ।
त्रिजगद्दीपकान बन्दे ज्ञानाय परमेष्ठिनः ।।१।। अर्थ:-चतुर्यकाल के आदि, मध्य और अन्त में उत्पन्न होने वाले, त्रैलोक्य का हित करने वाले और तीनों जगत को प्रकाशित करने के लिये दीपक के सदृश पञ्चपरमेष्ठियों के ज्ञान प्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूँ ॥१॥ छह कालों का सामान्य वर्णन :---
मथ येऽत्र प्रवर्तन्ते कालाः षट् षट् पृथग्विधाः । उत्सपिण्यवपिण्यौ भरतरायतेषु च ॥२॥ एककमित्यरूपेण विवेहादिजगत्त्रये ।।
वक्ष्ये तेषां पृथग्भूतं स्वरूपं वर्तनादिभिः ॥३॥ अर्श:-भरत एवं ऐरावत क्षेत्रों (के आर्य स्खण्डों) में उत्सपिरणी तथा अवसर्पिणी काल सम्बन्धी भिन्न-भिन्न छह-छह कालों का वर्तन होता है, और विदेह आदि तीनों लोकों में अवस्थित रूप से एकएक काल का वर्तन होता है । अब यहाँ मैं वर्ननादि के द्वारा उनका भिन्न-भिन्न स्वरूप कहूँगा ।।२-३।। प्रम प्रथम काल का सामान्य वर्णन करते हैं :--
अमीषां प्रथमः कालः सुषमासुषमाह्वयः। सुखाकरोऽवसपिण्यामुत्कृष्टभोगभूमिवत् ।।४।। सागराणां चतुःकोटि कोटिप्रमाण उत्तमः।। तस्यादौ तपनोयाभास्त्रिपल्योपमजीविताः ॥५॥ कोशत्रयोन्नता आर्या वदरीफलमात्रकम् । भुञ्जना विष्यमाहारं गते दिनत्रये सति ।।६।। उस्कृष्टपात्रदानोत्थोत्कृष्टपुण्येन सन्ततम् ।। भुञ्जन्त्युत्कृष्टसद्भोगान् दशांगकल्पवृक्षजान् ॥१७॥