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________________ ३०२ ] सिद्धान्तसार दोपक अब नन्दीश्वर समुद्र को एवं दो द्वीपों को अवस्थिति कहते हैं : ततस्तं परिवेष्टनास्ति नन्दीश्वरवराम्बुधिः । ततः स्यादरुणो द्वोपोऽरुणप्रभसमाह्वयः ॥३५२॥ अर्थ:-मन्दीश्वर द्वीप को परिवेष्टित करके नन्दीश्वर नामक महासमुद्र है, इसके आगे बां अरुण द्वीप और १० वा अरुणप्रभ नाम के द्वीप हैं ।।३५२।। अब फुण्डलद्वीपस्थ कुण्डलगिरि के ध्यास प्रावि का प्रमाण कहते हैं :-- अर्थकादशमो द्वीपो विख्यातः कुण्डलाभिधः । कण्डलाकारसंस्थानकुण्डलाचलभूषितः ।।३५३।। योजनानां सहस्राणि पञ्चसप्ततिरुन्नतिः । सहस्रपोजनामाहोऽस्याले च विस्तरः ॥३५४॥ सहस्रदशसंख्याविशाग्रद्विशतप्रमः । मध्ये च द्विशतत्रिंशद्य क्तसप्तसहस्रकः ॥३५५।। अग्रे व्यासः सहस्राणि चत्वारि द्वे शते तथा । योजनानि च चत्वारिंशत्कुण्डलमहीभृतः ॥३५६॥ इत्युक्तोत्सेधविस्तारः स्वर्णाभः कुण्डलाचलः । द्वीपस्य मध्यभागेऽस्ति कुण्डलाकृतिमाश्रितः ॥३५७।। अर्थ:--अरुणप्रभद्वीप के बाद ग्यारहवां कुण्डल नाम का विख्यात द्वीप है, जो कुण्डल के साकार वाले कुण्डलाचल पर्वत से विभूषित है ॥३५३।। यह पर्वत ७५००० योजन ऊँचा, १००० अवगाह ( नींव ) से युक्त, मूल विस्तार १०२२० योजन, मध्यविस्तार ७२३० योजन और शिखर विस्तार ४२४० योजन है ।।३५४-३५६।। कुण्डलद्वीप के मध्यभाग में कुण्डलाकृति का धारक उपर्युक्त उत्सेध एवं विस्तार से युक्त और स्वर्णाभा के सदृश कान्ति वाला कुण्डलाचल पर्वत है ।।३५७।। अब कुण्डलगिरिस्थ कूटों का अवस्थान, संख्या एवं व्यास प्रादि के प्रमाण का दिग्दर्शन कराते हैं : प्रस्यान मस्तके सन्ति कुटानि दिक्चतुष्टये । चत्वारि विदिशासु स्याद्रम्य कूटचतुष्टयम् ॥३५८।। तासामष्टदिशा मध्यान्तरेष्वष्टसु सन्ति च । अष्टौ महान्ति कटानोमानि कूटानि षोडश ॥३५६॥
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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