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________________ ५६८ ] सिद्धान्तसार दीपक संगित करने पर मध्यम असंख्यातासंख्यात रूप जो महाराशि उत्पन्न हो उसमें (१) स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान ( जो कल्पकाल के समयों से असंख्यातगुणे हैं ) (२) अनुभागबन्धाध्यवसाय स्थान (३) योग के उत्कृष्ट अविभाग-प्रतिच्छेद और (४) उत्सपिणी-अवसर्पिणी स्वरूप कल्प काल के समयों का प्रमाण मिलाने पर ( पुनः पूर्वोक्त रीत्या तीन बार वगित-संगित करने पर ) जो पाशि उत्पन्न हो वह जघन्य परीतानन्त का प्रमाण है । जघन्य परीतानन्त के प्रमाण में से एक अंक निकाल लेने पर उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात का प्रमाण होता है। जघन्य परीतानन्त के प्रमाण को जघन्य परीतानन्त वार जघन्य परोतानन्त के प्रमाण से गुणित करने पर जो लब्ध उत्पन्न होता है, वह जघन्ययुक्तानन्त का प्रमाण है । जघन्य युक्तानन्त के प्रमाण में से एक अङ्क कम कर देने पर उत्कृष्ट परीतानन्त का प्रमाण होता है । जघन्य परीतानन्त और उत्कृष्ट परीसानन्त के मध्य में मध्यम परीतानन्त अनेकानेक प्रकार वाला है। जघन्य युक्तानन्त के प्रमाण को एक अन्य जघन्य युक्तानन्त के प्रमाण से गुणित कर देने पर जघन्य अनन्तानन्त होता है जघन्य अनन्तानन्त के प्रमाण में से एक अंक निकाल लेने पर उत्कृष्ट युक्तानन्त का प्रमाण उत्पन्न होता है । जघन्य और उत्कृष्ट युक्तानन्त के मध्य में मध्यम वृत्तानात गोडाने भेद वान होता है । जघन्य अनन्तानन्त रूप महाराशि को तीन बार वगित-संगित करने पर जो राशि उत्पन्न हो उसमें (१) सिद्ध राशि (२) निगोद राशि (३) वनस्पतिकायिक राशि (४) सम्पूर्ण काल के समयों स्वरूप काल राशि ( ५) पुद्गलद्रव्य रूप सम्पूर्ण अणुओं की राशि और सम्पूर्ण अलोकाकाश के प्रदेशों का क्षेपण करने पर जो प्रमाण प्राप्त हो उसे पुनः तीन बार 'वर्गित-संगित करना चाहिए । इस प्रक्रिया से जो महाराशि उत्पन्न हो उसमें धर्म द्रश्य ( और अधर्म द्रव्य ) के अगुमलघु गुण के अविभागी-प्रतिच्छेदों को मिला कर पुन: - - - - - - १. जिस राशि को वगित-संगित करना हो उसे शलाका, विरलन और देय रूप से तीन जगह स्थापित कर लेना चाहिये । पश्चात विरलन राशि का एक एक अंक विरलन कर, उस प्रत्येक अंक पर देय राशि रख कर ' परस्पर गुणा करके शलाका राशि में से एक घटा देना चाहिए । परस्पर के गुणन से उत्पन्न हुई राशि का पुनः घिरसन कर और उसी राशि का देय देकर परस्पर गुणा करने के बाद शलाका राशि में से दूसरी बार एक अंक पोर घटा बेना चाहिए । इसी प्रकार पुन: पुन: विरलन, देय, गुणन पीर ऋण रूप क्रिया तब तक करना चाहिए जब तक कि शलाका राशि समान न हो जाय (यह एक बार गित संगित हुआ)। इतनी प्रक्रिया बाद जो महाराशि उत्पन्न हो उसे पूर्वोक्त प्रकार विरसन, देय पोर शलाका रूप से तीन जगह स्थापित कर, विरनन राशि का पिरलन कर उस पर देय राशि देय रूप रख कर परस्पर में मुणा कर शलाका राशि में से एक अंक घटा देना चाहिए । यह प्रक्रिया पुन: पुन: तन तक करना चाहिए जब तक शलाका रामि समाप्त न हो जाय ( यह दूसरी बार यगित सर्वागत हुआ)। इस द्वितीय शलाका राशि के समाप्त होने पर जो महाराशि उत्पन्न हो उसकी पुन: पुन: उपयुक्त प्रक्रिया तब तक करना चाहिए, जब तक कि एक एक अक घटाते हुए महाराशि रूप शलाका राशि की परिसमाप्ति न हो जाय (यह तृतीय बार वगित-सर्वागत हुप्रा)।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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