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________________ २४८ ] सिद्धान्तसार दीपक ततोऽस्तिविषयो मंगलावतीसंगकोऽद्भुतः । धर्मकर्मोत्थ माङ्गल्यैजिनाथैमङ्गलोसमैः ॥७७॥ तन्मध्येनगरी भाति महती रस्नसञ्चया । दृग्ज्ञानवतरत्नाढय न स्त्रीरत्नस्तथापरैः ॥७॥ ततोपरदिशाभागे नित्या प्राग्वेदिकासमा । स्यात्पूर्वभदशालाख्य वनस्य रत्नवेदिका ॥७॥ सतो नैऋत्य दिग्भागे मेरोइचदक्षिणे तटे । सीतोदाया महानद्या विदेहेऽपरसंजके 1001 अर्थ:-रमणीय महादेश के पश्चिम में प्रादर्शन नामका अतीव सुन्दर वक्षार पर्वत है, जिसका शिखर जिन चैत्यालय एवं अन्य व्यन्तर देवों के प्रासादों से संयुक्त सिद्धायतन, रमणीय, मङ्गलावती और प्रादर्शन नामक कूटों से अलंकृत है ॥७५-७६ ।। इस प्रादर्शन वक्षार के पश्चिम में धर्म और अन्य क्रियानों से उत्पन्न होने वाले मङ्गलों से तथा जिनेन्द्र भगवान रूप उत्तम मङ्गलों से संयुक्त मंगलावती नाम का अद्भुत देश है। उसके मध्य में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नों से, स्त्री पुरुष रूप रत्नों से (वहाँ के स्त्री पुरुष रत्नों के समान हैं) और अन्य रत्नों से युक्त रत्नसञ्चया नाम की विशाल नगरी सुशोभित है ।।७७-७८॥ इस देश के पश्चिम भाग में पूर्व कथित भद्रशाल की बेदिका के समान पूर्णभद्रशालवन की शाश्वत, रत्नमय वेदिका है |७६॥ इस पूर्णभद्रशाल वन वेदी के प्रागे मेरु पर्वत की नैऋत्य दिशा में और सीतोदा महानदी के दक्षिण तट पर पश्चिम विदेह क्षेत्र की अवस्थिति है 11८०॥ अब पश्चिम दिवेहगत वेशों, वक्षारों एवं नदियों का प्रवस्थान कहते हैं :-- निषधस्योत्तरे भागे शाश्वता मणिदेविका । भवेत् पश्चिमसंजस्य भद्रशालबनस्य च ॥१॥ धेद्याः पश्चिमदिग्भागे पद्माख्यो विषयः शुभः । स्याद् गंगासिन्धु रूपाद्रिभिः षड्खण्डोकृतोऽखिलः ।।२।। तन्मध्येऽशवपुरी नाम्नी नगरी पुण्यमातृका । पुण्यवर्बुिधैः पूर्णा जिनधामादिशोभिता ॥३॥ ततोऽस्ति शन्दवान्नाम्ना वक्षारो हाटकप्रमः। चतुःकूटाङ्कितो मूनि बनवेद्यायलंकृतः ।।४।।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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