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________________ अष्टमोऽधिकारः [ २४७ तस्या अपरभागेस्याद् रमणीयाभिधो महान् । मिधामजिनागारैः सार्थोदेशोऽतिसुन्दरः ॥७३।। तन्मध्ये राजते रम्या शुभारमा नगरी शुभा। शुभष्मानशुभाचारैः शुभैः शुभखनीय च ॥७४।। अर्थ:-वैश्रवण वक्षार पर्वत के प्रागे वत्सकावती नाम का अद्भुत देश है । जो छह खण्डों, पर्वतों और नदियों से युक्त तथा स्वर्ग और मोक्ष सुख का साधन है। उस देश के मध्य में प्रभङ्करा नाम की शाश्वत और महान नगरी है. जो अर्हन्त परमेष्ठियों, जिन संघों और जिनमन्दिरों से निरन्तर भरी रहती है ॥६३-६४।। इस.वत्सकावती देश के बाद मत्तजला नाम की उत्तम विभङ्गा नदी है, जो कुण्ड के द्वार से निकल कर सीता महानदी के मध्य में प्रविष्ट हुई है ।। ६५।। इस नदी के पश्चिम भाग में रम्या नाम का श्रेष्ठ देश है, जो मनोज जिन चैत्यालयों एवं धार्मिक और लौकिक महोत्सवों से निरंतर रम्य-शोभित रहती है, इस देश के मध्य में सुन्दर आर्य खण्ड है, जिसके मध्य में अड़ा नाम को नगरी है, जो धर्म की खान के सदृश है और धर्म प्रवर्तन करने वाले उत्कृष्ट धर्मात्मानों से सुशोभित है ॥६६-६७।। रम्या देश के पश्चिम भाग में प्रजन गिरि नाम का उत्तुङ्ग वक्षार पर्वत है, जो हेमवर्ण का है, और चार वटों, चैत्यालयों तथा अन्य देवगणों के प्रासादों से समन्वित है । इस पर्वत का शिखर सिद्धकूट, रम्यकूट, सुरम्यकूट और अञ्जन इन चार क्रूटों से अलंकृत है ।।६८-६९॥ इस अंजनपिरि वज्ञार के पश्चिम में मन को अभिराम और पुण्य प्रदेश का कारण भूत सुरभ्य नाम का देश है, जो जिन चैत्यालयों, जिनसंघों, ग्रामों, खेदों और अनेक नगरों से युक्त है। इसके मध्य में आर्य खण्ड है, जिसके मध्य में शाश्वत पद्मावतो नाम की नगरी है, जो धनवानों और धार्मिक भव्य जनों के द्वारा पद्म के समान शोभायमान होती है ।।७०-७१॥ इस सुरम्य देश के पश्चिम में उन्मत्तजला नाम की श्रेष्ठ विभङ्गा नदी है, जो जिनेन्द्र प्रतिमानों, वेदिकानों एवं तोरणों से संयुक्त है ।।७।। इस नदो के पश्चिम में धर्म स्थानों एवं जिन चंत्यालयों से रम्य सार्थक नाम वाला रमणीय नाम का सुन्दर देश है, जिसके मध्य में शुभा नाम को शुभ शोभा युक्त नगरी है, जो शुभ-कल्याण की खान के सदृश, शुभ-उत्तम ध्यान और शुभ पाचरणों से सुशोभित है ।।७३-७४।। अब सुदर्शनमेरु पर्यन्त देशों, वक्षारों एवं नदियों का प्रवस्थान कहते हैं :--- तत प्रादर्शनाभिल्यो वक्षारोऽतीवसुन्दरः । सिद्धायतनकूटं च रमलोयसमाह्वयम् ।।७५॥ कूटं हि मङ्गलावस्यास्यमापनसंज्ञकम् । चैत्यदेवालयाग्रस्थैरेत: फूटैः स संपुतः ॥७६।।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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