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________________ सिद्धान्तसार दीपक सप्तस्तोलंबैका सार्धाष्टसित्प्रमाणकः । लबानां घटिकैका च मुहूर्तो विघटीभवा ।।७।। क्षणकोनो मुहूर्तः स्याद भिन्नमुहूर्तनामकः । तस्मादावल्यसंख्येण्भागो यावच्छ हानितः ।।७७।। तावदन्समुहूर्तोऽत्र नानाभेदो निगद्यते । त्रिंशन्मुहूर्तः सद्भिरहोरात्रं मतं श्रुते ।।७।। निशदिनर्भवेन्मासः षण्मासैरयनं स्मृतम् । वघयनाभ्यां भवेद् वर्ष पश्चवर्षेयुगं मतम् ।।७।। अर्थ:-जिनेन्द्रों के द्वारा जैसा कहा गया है, काल मान का वैसा हो वर्णन मैं करता है। लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर रत्नों की राशि के सदृश एक एक काल द्रव्य के अणु पृथक् पृथक् स्थित हैं और वे असंख्यात हैं ।।७२।। उन कालाणुओं अर्थात् काल द्रव्य का वर्तना लक्षण है, इसी के निमित्त से जीव भोर पुद्गल में पारणमन अर्थात् नई परानी प्रादि अवस्थाएं होती हैं । पुद्गल का सबसे छोटा अणु उस कालाणु को जितने काल में उल्लंघन करता है, उतने काल प्रमाण को समय कहते हैं ।।७३-७४॥ जिनागम में ऐसे ही असंख्यात ( जघन्ययुक्तासंख्यात ) समयों को एक प्रावली कही गई है । संख्यात प्रावलियों का एक उच्छ बास और सात उच्छ वासों का एक स्तोक होता है ७५।। सप्त स्तोकों का एक लब, ३८१ लवों की एक घड़ी और दो घड़ी का एक मुहूर्त होता है ॥७६|| एक क्षण ( १८ निमेषों की एक काष्टा, ३० काष्टा को एक कला और ३० कला का एक क्षण होता है) कम मुहूर्त ( १२ क्षणों का एक मुहूर्त ) को भिन्न मुहूर्त कहते हैं । इससे कम अर्थात् प्रावली के असंख्यातवें भाग पर्यन्त अन्तर्मुहूर्त कहलाता है। यह अन्तर्मुहूर्त अनेक भेदों वाला कहा गया है। मागम में ३० मुहूर्त का एक दिन कहा गया है । ३० दिनों का एक मास, ६ मासों का एक प्रयन, दो प्रयनों का एक वर्ष और ५ वर्षों का एक युग होता है ।।७७-७९॥ अब व्यवहार काल के भेदों में से पूर्वांग प्रादि के लक्षण कहते हैं:-- प्रथ पूणिपूर्वाशना प्रमाणं निरूप्यते । स्यात् पूर्वाङ्गैकमन्दानां लक्षश्चतुरशीतिकः ।।८।। पूर्वान गुणितं पूर्व लॉश्चतुरशीतिकः । पूर्व चतुरशीतिघ्नं पर्वाङ्गमुच्यते बुधः ॥१॥
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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