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________________ पञ्चमोऽधिकारः [१३३ भगवान् का अभिषेक करने की इच्छा से ही मानो भवन के प्रश्न भाग पर स्थित जिनेन्द्र प्रतिमा के पारीर पर गिरती है । इसके बाद उस कुण्ड के दक्षिणद्वार से निकलकर हैमवत क्षेत्र (जघन्य भोगभूमि) को प्राप्तकर वहाँ स्थित (श्रद्धावान्) नाभिगिरि को अर्धयोजन दूर से हो छोड़ती हुई तथा उसी नाभिगिरि की अर्धप्रदक्षिणा करती हुई अर्थात् पूर्वाभिमुख होकर पश्चात् फिर दक्षिणाभिमुख होती हुई १२५ योजन चौड़ी और २३ योजन गहरी वह रोहित नदो १२५ योजन चौड़े, १८७२ योजन ऊँचे, ३ (अर्ध) योजन मोटे, दो कोस अवगाह (नीव) वाबै, तोरणस्थ प्रहन्त प्रतिमानों एवं दिक्कन्यानों के आवासों से अलंकृत रोहित् देव है अधिपति जहां का ऐसे रोहित द्वार से पूर्व समुद्र में प्रविष्ट करती है। रोहितास्या नदी का वर्णन: हिमवान् पर्वतस्थ पद्मसरोवर को उतर दिशा में ल द्वार है. जिसका प्रालिका प्रमाण महापद्मसरोवर की दक्षिण दिशा में स्थित द्वार के समान है। रोहित नदी के व्यास और अवगाह के समान जिसका व्यास और अवगाह है ऐसी रोहितास्या नदी उस पद्मसरोवर के उत्तर द्वार से निकल कर उत्तराभिमुख होती हुई ग्रह के व्यास से हीन हिमवान् पर्वत के अधंयास प्रमाण अर्थात् (१०५२३१-५००-५५२:२) =२७६५: योजन आगे तट पर पाकर पहिले कही हुई रोहित् को प्रणालिका के व्यासादि के सदृश प्रणालिका से बीस योजन चौड़ी और १०० योजन ऊँची रोहितास्या नदी प्रागमोक्त योजनों द्वारा पर्वत को छोड़ती हुई हैमवत क्षेत्र के भूतल पर गिरती है। जहां यह नदो मिरती है वहां स्थित कुण्ड, द्वाप, पर्वत और गृह आदि के व्यास आदि का प्रमाण रोहित नदी सम्बन्धी कुण्ड प्रादि के व्यासादि के समान जानना चाहिये । उस कुण्ड के उत्तर द्वार से निकलकर हैमवत क्षेत्र के मध्य में स्थित (श्रद्धावान्) नाभिगिरि को अर्धयोजन दूर से छोड़कर उसको अर्ध प्रदक्षिणा करतो हुई अर्थात् पश्चिम दिशा में जाकर पश्चात् उत्तराभिमुख होती हुई रोहित् नदी के समान व्यास और अवगाह से युक्त रोहितास्या नदी पूर्वोक्त पूर्वद्वार के व्यासादि के सदृश व्यास वाले पश्चिमद्वार से पश्चिम समुद्र में प्रविष्ट होती है । हरित नदी का सविस्तार वर्णनः-- निषध पर्वत के ऊपर स्थित तिगिञ्छ नाम के सरोवर की दक्षिण दिशा में २५ योजन चौड़ा, ३७३ योजन ऊँचा, दो कोस गहरा (नींब), तोरणस्थ जिनप्रतिमा और दिक्कन्यानों के प्रावास (भवनों) प्रादि से मण्डित एक वजमय द्वार है । २५ योजन चौड़ो और दो कोस गहरी हरित नदी उस द्वार से निकल कर सरोवर के व्यास से हीन पर्वत के अर्धव्यास प्रमाण अर्थात् (१६८४२१२०००-१४८४२:२) - ७४२१० योजन आगे जाकर निषधकुलाचल के तट से २५ योजन चौड़ो, दो योजन मोटी और दो योजन लम्बी गोमुखप्रणालिका द्वारा ४० योजन चौड़ी और ४००
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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