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________________ ४१० ] सिद्धान्तसार दोपक योनि है, किन्हीं को अवित योनि है और किन्हीं जीवों के सचित्ताचित्त (मिश्र) योनि है । इस प्रकार - सम्मूर्च्छन जन्म वालों के तीनों प्रकार की योनियाँ मानी गई हैं ॥ ६६-१००॥ देव और नारकियों में किन्हीं की शीत योनियाँ, किन्हीं की उष्ण योनियों और किन्हीं की शीतोष्ण योनियां होतीं हैं ॥१०१॥ नायक जोवों की उष्ण योनि, जलकाधिक जीवों की शीत योनि होती है। शेष पृथ्वी, वायु और वनस्पतिकायिक जीवों के तथा एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, वेन्द्रिय और सम्मूर्च्छन जन्म वाले पंचेन्द्रिय जीवों के पृथक् पृथक् एक एक रूप से शीत भादि तोनों योनि होती है। अर्थात् किन्हीं जोवों के शीत किन्हीं के उष्ण और किलों के मिश्र इस प्रकार तीनों योनियाँ होती हैं ॥। १०२-१०३॥ देव, नारकी और एकेन्द्रिय जीवों के संवृत योनि होती है। विकलेन्द्रिय जीवों के विवृत ( प्रगट ) योनि और गर्भज जीवों के नियम से संवृत-विवृत्त ( मिश्र ) योनि होती है ।। १०४॥ | इसके पश्चात् योनि सम्बन्धी पाप नाश के लिए शुभ अशुभ कर्मोदय से युक्त गर्भज जीवों के विशेषता पूर्वक तोन प्रकार की योनियाँ कहूँगा || १०५।। प्रथम शेखावत, द्वितीय कूर्मोन्नत और तृतीय वंशपत्र नामक तीन प्रकार की योनियाँ होती हैं ।। १०६ ।। स्कटिक की उपमा को धारण करने वाली कूर्मोन्नत नाम की महायोनि में तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव उत्पन्न होते हैं ।। १०७ ॥ वंशपत्र नाम की योनि में भोगभूमिज और शंखावर्त एवं वंश इन दोनों में कर्मभूमिज आदि अन्य साधारण मनुष्य जन्म लेते हैं, किन्तु शंखावर्त नामक कुयोनि में नियम से गर्भ का विनाश होता है क्योंकि वह गर्भ अशुभ होता है । इस प्रकार जीवों की इन योनियों का लक्षण कहा है ।। १०८ - १०६ ।। :― अब जीवों के शरीरों की श्रवगाहना का प्रतिपादन करते हैं। पृथ्थ्यप्तेजो मरुत्कायानां सूक्ष्मवादरात्मनाम् । श्रङ्गुलस्याप्यसंख्यात भागतुन्यं वपुर्भवेत् ॥ ११० ॥ सूक्ष्मपर्याप्तजातस्य निकोतस्याङ्गिनी मतम् । तृतीये समये सर्वजघन्याङ्ग जगत्त्रये ॥ १११ ॥ सर्वोत्कृष्टशरीरं स्यान्मत्स्यानां महतां भुवि । तपोमध्ये परेषां स्युर्माना देहानि देहिनाम् ।। ११२ ।। अर्थ:-- सूक्ष्म और बादर पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक जीवों के शरीर को अवगाहना अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग प्रमाण होती है ।। ११० ।। त्रैलोक्य में सर्व जघन्य ग्रवगाहना सुक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्यातक जीवों के उत्पन्न होने के तीसरे समय में होती है और शरीर की सर्वोत्कृष्ट अवगाहना महामत्स्यों के होती है। इन दोनों (जघन्योत्कृष्ट ) के बीच में अन्य जीवों के शरीय की मध्यम श्रवगाहना विविध प्रकार की होती है ।। १११-११२।।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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