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________________ ४०६ ] सिद्धांतसार दीपक वनस्पत्याङ्गिनोऽन्ये च स्थावराः सूक्ष्मवादराः । अनन्ताधिविधा एते रक्षणीयाः सदाबुधः ॥७६॥ न प्रतिस्खलनं येषां गत्यादी सूक्ष्मदेहिनाम् । पृथ्वीजलाग्निवाताद्यैर्जातु से सूक्ष्मकायिकाः ॥७७॥ प्रतिस्खलन्ति ये स्थूलाः स्थावरा गमनादिषु । केचिश्मा समाते बादः श्रीजिनर्मताः ।।७।। अर्थ:-जिनकी शिरा-बहिः स्नाय, सन्धि-रेखाबन्ध और पर्व-गांठ अप्रगट हों और जिन वनस्पतियों का भंग करने पर समान भंग हो, दोनों भंगों में परस्पर सूत्र-तन्तु न लगा रहे तथा शरीरों को छिन्न भिन्न कर देने पर भी जो ऊग जाते हैं तथा वृद्धि प्रादि को प्राप्त होते हैं ऐसे अनन्तकायिक वे सब जीव यहाँ पर साधारण कहे गये हैं। जो जीव इन चिह्नों से रहित हैं, वे प्रत्येक (अप्रतिष्ठित) बनस्पतिकायिक हैं ।।७२-७३॥ पृथ्वो आदिक पांच कायों को धारण करने वाले पांचों बादर स्थावर जीव इस लोक में कहीं हैं और कहीं नहीं है, किन्तु दृष्टि अगोचर पृथ्वीकात्यादि पांचों सूक्ष्म स्थावर जीव तीनों लोकों को परिपुर्ण करते हुए सर्वत्र रहते हैं ॥७४-७५|| विद्वानों को अन्य अनन्त प्रकार के सूक्ष्म और बादर वनस्पतिकायिक व स्थावर जीवों की रक्षा करना चाहिए ॥७६।। सूक्ष्मनामकर्म के उदय से युक्त पृथ्वी, जल अग्नि और वायु कायिक प्रादि के द्वारा जिन जीवों की गति आदि कभी भी रुकती नहीं है उसे सूक्ष्मकायिक कहते हैं ।।७७।। जिन स्थावर जीवों की गति आदि दूसरों से रुकती है और दूसरों को रोकती है, उन्हें जिनेन्द्र भगवान् ने बादर जीव कहा है इनमें कुछ जीव दृष्टि गोचर होते हैं कुछ दृष्टि अगोचर रहते हैं ।।७८।। अब त्रस जीवों के भेद आदि कहते हैं :-- प्राणिनो विकलाक्षाश्च सकलाक्षास्ततः परे । इत्यमी द्विविधाः प्रोक्तास्त्रसा उद्वेगिनोऽसुखात् ।।७।। द्वित्रितर्यात्य भेदावे स्त्रिविधा विकलेन्द्रियाः ।। स्युः कृम्याद्या नृगीरिणतिर्यञ्चः सकलेन्द्रियाः ।।०॥ कृमयः शुक्तिकाः शङ्काः बालकाश्च कपटु काः । जलूकाधा मताः शास्त्रो द्वीन्द्रिया हीन्द्रियाडिताः ॥१॥ कुन्थयो मत्कुणा यूका वृश्चिकाश्च पिपीलिकाः । उद्देहिका हि गोम्यायास्त्रीन्द्रियास्त्र्यक्षसंयुताः ।।२।।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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