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________________ सृती अभिः अर्थः- इस प्रकार उन नरकों के दुःखों से भयभीत और सुख की इच्छा करने वाले जीवों का कर्तव्य है कि ये पाप रूप शत्रु को सर्वथा नष्ट करके प्रयत्न पूर्वक धर्म कार्य करें ।।११८।। धर्म की महिमा : यतो नरक पाताला धर्म उद्धतु मङ्गिमः । .. क्षमः स्थापयितुं मोमे कन्पे बानुत्तरादिषु ॥११९॥ .धर्मावूध्वंगतीः साराः पापानिन्द्या अधोगतोः । समन्ते प्राणिनो लोके याश्च मध्यमा गतीः ॥१२०॥ पापं शत्रु रिहामुन धर्मो पन्धुर्न चापरः । सहगामी जिनेन्द्रोक्तो मुक्तिमार्गप्रसाधकः ॥१२१॥ अर्थः–जोवों को नरक रूप गड्ढे से निकालने में और मोक्ष, काल्पवासी एवं अनुत्तर आदि उत्तम स्थानोंमें पहुँचाने के लिये एक धर्म ही समर्थ है। ___ इस लोक में जीव धर्म से सारभूत ऊध्वं गति, पाप से निन्द्यनीय अधोगति और पाप पुण्य दोनों से मध्यम गति { मनुष्य, तिर्यञ्च गति ) प्राप्त करते हैं । इस लोक और पर लोक में जीवों को जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे हुये मोक्षमार्ग का साधनभूत धर्म के समान अन्य कोई बन्धु नहीं है और पाप के समान कोई शत्र नहीं है ।।११६-१२१॥ चारित्र धारण करने को प्रेरणा :-- मत्वेति भो । बुधजनाः सकलं निहत्य, पापारिमा नरकादिकुखुःखमूलम् । स्वमुक्तिशर्मजन परमार्षभूतम् धर्म कुरुध्वमनिशं व्रतसंयमाद्यः ॥१२२॥ अर्थः-ऐसा मारकर हे भव्यजनो ! नरकादि गतियों में होने वाले भयङ्कर दुःखों का जो मूल है ऐसे पाप रूप शत्रु को शीघ्र ही नष्ट करके व्रत. संयम आदि चारित्र के द्वारा स्वर्ग और मोक्ष सुख का जनक परमार्थभूत धर्म करो ॥१२२।। अन्तिम मङ्गलाचरण :-- धर्मः श्वभ्रगृहागलोऽसुखहरो, धर्मः शिवश्रीप्रवो, धर्मो नाकनरामरेन्द्रपददो धर्मो गुणानां निषिः।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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