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________________ X50 ] सिद्धांता दीपक सब उन इन्द्रादि देवों के इन्द्रिय जम्म सुखों का वर्णन करते हैं:-- इत्यादिविविधाचारैः शुभैः पुण्यं परं समम् । देवैः शक्राश्व देवीमिरजयन्ति सुखाकरम् ।। ३५२ ।। तत्पुण्यजनितान् भोगान् निरौपम्याभिरन्तरम् । भुञ्जन्ति सहदेवीभिः समस्तेन्द्रियतृप्तिदान् ॥ ३५३॥ व्रजन्ति स्वेच्छया देवा असंख्यद्वीपवाधिषु । सद् विमानं मुवारुह्य क्रीडाकामसुखाप्तये || ३५४॥ देवोद्यानेषु सौधेषु नदीक्रीडाचलेषु च । स्वेच्छया स्वस्ववेवीभिः क्रीडां कुर्वन्ति नाकिनः || ३५५ । । श्रृण्वन्ति मधुरं गीतं पश्यन्ति नर्तनं महत् । सुभृङ्गारं विलासं चाप्सरसां ते रसावहम् || ३५६ ।। इति नाना विनोवाद्यैः परमाह्लादकारणम् । प्रतिक्षणं परं सौख्यं लभन्ते नाकिनोऽनिशम् ||३५७।। दीर्घकालं निराबाधं यत्सुखं स्वगिणां भवेत् । केवलं तच्च तेषां स्यानान्येषां हि च्युतोपमम् ॥ ३५८ ॥ प्रर्थ::- इस प्रकार स्वगं स्थित इन्द्र अनेक देव और देवियों के साथ अनेक प्रकार के शुभ चरणों द्वारा सुख की खान स्वरूप उत्कृष्ट पुण्य का उपार्जन करते हैं ।। ३५२ || उस पुण्य फल से उत्पन्न समस्त इन्द्रियों को तृप्त करने वाले अनुपम भोगों को देवियों के साथ साथ निरन्तर भोगते हैं ||३५३|| सभी देव अपनी इच्छा से उत्तम विमानों में श्रारूढ़ होकर काम क्रीड़ा रूप सुख प्राप्ति के लिए असंख्यात द्वीप समुद्रों में जाते हैं ।। ३५४ || स्वर्ग स्थित देव अपनी अपनी देवांगनाओं के साथ स्वइच्छानुसार उद्यानों में, महलों में, नदियों में एवं कुलाचलों पर कीड़ा करते हैं ||३५५।। एवं वै देव कभी अप्सराम्रों के मधुर गीत सुनते हैं, कभी सुन्दर नृत्य देखते हैं, और काम रस को उत्पन्न करने वाली नाना प्रकार के श्रृङ्गार एवं विलास पूर्ण क्रियाएँ करते हैं ।। ३५६ ।। इस प्रकार देव परम श्रल्हाद उत्पन्न करने वाली नाना प्रकार की विनोद पूर्ण क्रियाओं द्वारा प्रतिक्षण निरन्तर परम सुखों को भोगते हैं || ३५७ ॥ दीर्घ काल तक निराबाध और अनुपम, जो सुख स्वर्गवासी देवों को प्राप्त होता है, वह सुख मात्र उन्हीं देवों को ही है, वैसा सुख अन्य किसी को भी प्राप्त नहीं है ||३५८ ||
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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