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________________ पंचदशोऽधिकाराः [५८१ अब उत्तम मनुष्य किन किन क्रियानों के द्वारा स्वर्ग प्राधि सुखों को प्राप्त करते हैं, उसका वर्णन किया जाता हैः ये तपश्चरगोशुक्ता रत्नत्रयधनेश्वराः । व्रतशीलमहाभूषाः सदाचाराः शुभाशयाः ॥३५६।। जिनधर्मरता नित्यं जिनधर्मप्रभावकाः । जिनधर्मकरा ये च जिनधर्मोपदेशकाः ॥३६०॥ जिनाघ्रिपूजका येत्र जिनभक्ता विवेकिनः । जिनवारणीसमासक्ता जिनसद्गुणरजिताः ॥३६१॥ धर्मिणां वत्सला दक्षा धर्मवात्सल्यकारिणः । धर्मे साहाय्यकारोऽन्येषां धर्मे च प्रेरकाः ॥३६२।। धर्मकार्योधता ये च पापकार्थे पराङ्मुखाः । अनीता अध्याय जितेन्द्रिया जिताशयाः ।।३६३॥ निर्मदा निरहङ्कारा बुधा मन्दकषायिणः । निर्लोभाः शुभलेश्याढचा विचारचतुरारच ये ॥३६४।। धर्मशुक्लशुभध्यान परा दुनि दूरगाः । अग्रगा धर्मकार्ये च ये सर्वत्र हितोयताः ॥३६५॥ इत्याद्यन्यैः शुभाचारभूषिता ये नरोचमाः । ते सर्वे धर्मपाकेन प्राणान्मुक्त्वा समाधिना ||३६६।। सौधर्ममुख्यसर्वार्थसिद्धि पर्यन्तमजसा । वअन्ति स्वतपो योग्यं लमन्ते चेन्द्रसस्पदम् ॥३६७।। अर्थ:-जो निरन्तर दुद्धर तप तपते हैं, रत्नत्रय धन के स्वामी हैं, व्रत एवं शील से विभूषित हैं, सदाचारी हैं, जिनके चित्त शुभाशय से युक्त हैं, निरन्तर जिनधर्म में रत रहते हैं, जिनधर्म की प्रभावना करने वाले हैं, जिन धर्म का उद्योत करने वाले हैं और जो जिन धर्म के उपदेशक हैं ॥३५६३६०।। जो यहां जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों की पूजा करते हैं, जिन भक्त हैं, विवेकी हैं, जिनवाणी में जिनका चित्त बासक्त रहता है, जिनका मन जिनेन्द्र के गुणों में रजायमान रहता है, जो धर्मात्माओं से प्रत्यन्त प्रीति रखते हैं, धर्म कार्यों में दक्ष हैं, धर्म एवं धर्मात्माओं में वात्सल्य भाव
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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