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________________ मङ्गलाचरण: सप्तमोऽधिकारः जिनालयान् जिनाचरिच जिनेन्द्रान जिनलिङ्गिनः । जिननिर्वाणभूम्यादीन् वन्दे जिनागमध्वनीन् ॥१॥ अर्थ :--- जिनमन्दिरों, जिनप्रतिमाओं, जिनेन्द्रदेवों, जिनसाधुनों, जिन निर्वाणभूमि श्रादिकों को तथा जिनागम को मैं नमस्कार करता है || १ | अब गजदन्तों का प्रवस्थान एवं वर्ण कहते हैं:-- श्राग्नेयदिशिमेरोः स्यान्महान्सौमनसाह्वयः । गजदन्तश्च रूपाभः सप्तकूटा मण्डितः ॥२॥ नैऋत्यादिशि तस्यैव विद्युत्प्रभाभिधो भवेत् । गजदन्तः सुवर्णाभो नवकूटाङ्कितोऽद्भुतः ॥३॥ ऐशान्यां विशिसन्मेरोगंजदन्तोऽस्ति माल्यवान् । वैडूर्य रत्नदीप्साङ्गो नवकूटान्वितः शुभः ||४| वायव्यां दिशि रम्यः स्याद्गन्धमादन संज्ञकः । सप्तकूटाङ्कित मूनि शातकुम्भप्रभोऽचलः ||५|| अर्थ:-- सुदर्शन मे की प्रान्नेय दिशा में सात कूटों से मण्डित रजतमय महासौमनस नाम का गजदन्त है । नैऋत्य दिशा में नवकूटों से अलंकृत अद्भुत शोभा युक्त स्वर्णमय विद्युत्प्रभ नाम का गजदन्त है । ईशान दिशा में नवकूटों से समन्वित वैडूर्य रत्नों की दीति से युक्त उत्तम माल्यवान् गजदन्त है, तथा वायव्य दिशा में शिखर पर सात कूटों से संयुक्त, स्वर्णमय एवं रमणीक गन्धमादन नाम का गजदन्त पत है || २-५॥ अब गजदन्तों के विस्तार प्रादि का निर्धारण करते हैं:-- तेषां त्रिंशत्सहस्राणि नवाधिकशतद्वयम् । योजनानां कलाषट्प्रमाणक योजनस्य च ॥ ६ ॥
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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