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________________ ३७४ ] सिद्धान्तसार दोपक नवत्यग्रशतं क्रोश एक इत्ययोजनः । अन्तिमा परिधि: ह्यन्त्यसूच्या मतागमे ।।३०२।। अर्थः-३शुवर समुद्र को वेष्टित किये हुए नन्दीश्वर नाम का पाठवां द्वीप है, इसका व्यास १६३८४००००० योजन प्रमाण है । अर्थात् जम्बूद्वीप से प्रारम्भ कर पाठवें नन्दीश्वर द्वीप पर्यन्त का वलयव्यास एक सौ श्रेस करोड़ चौरासी लाख प्रमाण है ॥२६४॥ धर्म को धारण करने वाले महा उत्सङ्ग ५२ जिनालयों से सुशोभित नन्दीश्वर द्वीप को आदिम सूचो व्यास का प्रमाण ३२७६५००००० योजन है ।।२६५-२६६।। इस प्रादिम सूची व्यास की परिधि १०३६१२०२७५३ योजन और दो (२) कोस मानी गई है ।।२९७-२६८।। भब्य जिनालयों के द्वारा संसार को आनन्दित करने वाले इस नन्दी. श्वर द्वीप की अन्तिम सूची व्यास का प्रमाण जिनेन्द्र भगवन्तों के द्वारा ६५५३३००००० योजन कहीं गई है ॥२६६-३००11 जिनागम में इस अन्तिम सूची व्यास की परिधि का प्रमाण २०७२३३५४१६० योजन और एक कोस कहा गया है ।।३०१-३०२।। अब अजनगिरि पर्वत और वापिकाओं का अवस्थान एवं उनका व्यास प्रादि कहते हैं :-- तस्य मध्ये चतुर्विक्ष चत्वारोऽजनपर्वताः । राजन्ते पटहाकारा इन्द्रनीलमणिप्रभाः ।।३०३॥ योजनानां सहस्र श्चतुरग्राशीतिसंख्यकः । उन्नता विस्तृता योजनसहस्रावगाहकाः ॥३०४।। लक्षयोजनभूभागं मुक्त्वाद्रीणां पृथग्विधाः । प्रत्येकं च चतुर्विक्षु चतस्रः सन्ति वापिकाः ॥३०५॥ लक्षयोजनविस्तीर्णा चतुरस्राः क्षयातिगाः । सहस्रयोजनागाहा रत्नसोपानराजिताः ॥३०६।। निर्जन्तु जलसम्पूर्णाः पनवेदीतटाकिताः । हेमाम्बुजीघसंछन्ना महावीधीशताकुलाः ॥३०७॥ अर्थः-नन्दीश्वर द्वीप के मध्य में चारों दिशाओं में अजनगिरि नाम के चार पर्वत हैं, जिनका प्राकार ढोल के समान और ग्राभा इन्द्रनीलमणि के सदृश है ॥३०३।। प्रत्येक प्रजनगिरि की ऊँचाई ८४००० योजन, चौड़ाई ८४००० योजन और प्रवगाह १००० योजन है ।।३०४।। प्रत्येक अञ्जन गिरि के चारों ओर एक एक लाख योजन भूमि को छोड़ कर भिन्न भिन्न चारों दिशाओं में चौकोर प्राकार
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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