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[ १० ] प्रेरणा-स्रोत
सं० २०२६-३० में त्रिलोकसार ग्रन्थ की टीका की थी। टोका कार्य समाप्त होते ही सिद्धान्तभूषण स्व० रतनचंद्रजी मुख्तार एवं विद्वद् शिरोमणि पं० पन्नालालजी साहित्याचार्यने विचार विमर्श कर मुझसे कहा कि - सकलकीर्त्याचार्य विरचित सिद्धान्तसार दीपक ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है. अतः आप इस ग्रन्थ की हिन्दी टीका करें, प० पू० भा० कल्प १०८ श्री श्रुतसागरजी महाराज ने भी इस अप्रकाशित ग्रन्थको टीका करने की प्रेरणा की, आपके शुभाशीर्वाद से ही यह बृहद कार्य करने का साहस किया ।
महाराज श्री का आशीर्वाद प्राप्त होते ही प्रतियों की खोज प्रारम्भ कर दी गई। परम पूज्य विद्यागुरु १०८ श्री अजित सागर म० के पास से एक प्रति प्राप्त हुई, जो प्रायः शुद्ध थी । श्रीमान् डा० कस्तुरचन्द्रजी कासलीवाल और श्री अनुपलालजी न्यायतीर्थं जयपुर वालों के सौजन्य से एक प्रति श्रामेर शास्त्र भण्डार जयपुर से प्राप्त हुई। टीका कार्य सम्पन्न करने में यही प्रति प्रमुख रही । श्रप दोनों के ही माध्यम से दो प्रतियां जयपुर के किसी शास्त्र भण्डार (शास्त्र भण्डार का नाम याद नहीं रहा) से और भी प्राप्त हुई । स्व० श्री रतनचन्दजी मुख्तार के प्रयास से एक प्रति कैराना ( यू०पी० ) शास्त्र भण्डार से प्राप्त हुई। इन प्रतियों को प्राप्त करने में बहुत कठिनाई हुई, तथा समय भी बहुत व्यय हुआ ।
ग्रन्थ मुद्रित न होने के कारण सर्व प्रथम इसके सम्पूर्ण मूल श्लोक मात्र लिखे, जिनका सवाई माधोपुर संशोधन श्रीम नृ पं० मूलचन्दजी शास्त्री महावीरजी वालों ने किया । सं० २०३२ वर्षायोग में प० पू० १०८ श्री प्रजितसागरजी महाराज के सानिध्य में वयोवृद्ध विद्वद्वर्ष पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्री कटनी, डा० पं० पन्नालालजी सागर, स्व० पं० रतनचन्दजी मु० सहारनपुर एवं श्री नीरजजी सतना आदि ने उपलब्ध समस्त प्रतियों का मिलान कर अनेक पाठ भेद लिए जिससे अर्थ करने में सरलता प्राप्त हुई ।
चातुर्मास की समाप्ति के समय श्रीयुत पण्डित लाड़लीप्रसादजी 'नवीन' सवाई माधोपुर के सौजन्य से नथमल विलास नामक ग्रन्थ प्राप्त हुआ जिसमें सिद्धान्तसार दीपक का हिन्दी पद्यानुवाद था । अर्थ करने में यह प्रति भी सहायक हुई।
सं० २०३४ द्वि० श्राषाढ़ शुक्ला ५ गुरुवार दि० २११७११६७७ को दिन के ११३ बजे श्री दि० जैन मन्दिर रेनवाल किशनगढ़ में कन्या लग्न के उदित रहते टोका समाप्त हुई । इसी वर्षायोग में श्रीमान् स्व० पं० रतन चन्दजी मु० ते विषय की दृष्टि से सम्पूर्ण टीका का अवलोकन किया । श्रीमान् विद्वद्वर्य पं० डॉ० पन्नालालजी साहित्याचार्य से ग्रन्थ संशोधन कराने का मेरा हार्दिक परिणाम था.