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________________ चतुर्दशोऽधिकारा [ ४७ लवणाद्याः स्वविष्कम्भाः सूर्याधमण्डलोनिताः । स्वसूर्याधन संमक्तास्तदन्तरं द्विसर्ययोः ॥६६॥ सूर्यान्तरं यदेवात्र तस्यार्धमन्सरं हि तव । विकासन्नमार्गस्य दिवाकरस्य जायते ॥७०॥ अर्थ:-सर्व ज्योतिगंण सुदर्शन मेरु को तिर्यग् रूप से ११२१ योजन (४४८४००० मील) छोड़ कर प्रदक्षिणा रूप से मेरु के चारों कोर आकाश में परिभ्रमण करते हैं ॥६६॥ मनुष्यक्षेत्रस्थ द्वीप समुद्रों में से अपने अपने द्वीपःसमुद्रों के ऊपर ज्योतिष्क देवों के जो देव समूह अवस्थित है, उनका प्रधं । अर्ध भाग अपने अपने द्वीप समुद्र के एक भाग में और अन्य दूसरा अर्ध भाग दूसरे एक भाग में संचार (गमन) करता है ।।६७-६८॥ लवण समुद्र एवं धातकी खण्ड आदि स्थानों में जितने जितने सूर्य हैं, उनके अर्ध अर्ध सूर्य बिम्बों के विष्कम्भ को लवण समुद्रादि के स्व स्व विष्कम्भों में से घटाकर अवशेष में स्वकीय सूर्यों के अर्धभाग का भाग देने पर एक सूर्य से दूसरे सूर्य का अन्तर प्राप्त होता है, तथा वेदी से निकटवर्ती सूर्य का अलर उपयुक्त अन्तर का अर्घ प्रमाण होता है । अर्थात् लवण समुद्र में चार सूर्य हैं, इनके अधं ( २ ) सूों के विष्कम्भ का प्रमाण (४२= ) योजन हुआ, इसे लवण समुद्र के २००००० योजन में से घटाने पर ( २००१००-11)-१२१११५०४ योजन अवशेष बचता है । इसमें लवण समुद्र के सूर्यो (४) के अर्ध भाग (२) का भाग लेने पर (१११९०४) EEEEEN योजन लब्ध प्राप्त होता है । यही एक सूर्य से दूसरे सूर्य के अन्तर का प्रमाण है, और वेदी से निकटवर्ती सूर्य का अन्तर उपर्युक्त अन्तर का अर्थ ( ४६६६६३ योजन) प्रमाण है । अर्थात् लवण समुद्र की अभ्यंतर वेदी से प्रथम सूर्य ४६REET योजन ( १९६९९८४२६१ मील ) दूर रहता है। इस सूर्य से दूसरा सूर्य ECREEN यो० { ३९६६६६८५२३६ मील ) दूर है, और इस सूर्य से लवण समुद्र की बाह्य वेदी ४६६६E* यो दूर है ।।६९-७०॥ अस्य व्यक्तं व्याख्यानं क्रियते :-- ___ लवणाधी सूर्ययोरन्तरं नवनवतिसहन नक्शत नवनवतियोजनानि योजनस्यक षष्टिभागानां प्रयोदशभागाः । धातकोखण्डे सूर्ययो रन्तरं षष्टिसहस्रषट्शतपञ्चषष्टि योजनानि योजनस्य श्यशीत्यप्रशतभागानां एकषष्ट्यधिकशतभागाः ॥ कालोदधौ सूर्ययोरन्तरं अष्टत्रिशत्सहस्र चतुर्णवति योजनानि, योजनस्य काशीति युत वादशशतभागानां प्रष्टसप्तत्यप्रपञ्चशतभागाः । पुष्कराचे सूर्ययोरन्तरं द्वाविंशतिसहस्रद्विशतकविंशतियोजनानि । योजनस्य षणवत्यक विशतिशत भागानां षट्पञ्चाशदधिकनदशतभागाः। प्रष इन अन्तरालों का स्पष्ट व्याख्यान करते हैं :
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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