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सिद्धान्तसार दीपक
चतुःशतप्रमारणाये पिण्डिताः कनकाद्रयः । उत्सेधविस्तरास्ते घातकीखण्डयो योः ॥ १७६॥ सर्वे प्रथमोपस्य यमाद्रयादिसम्मिता । प्रागुक्तदर्शनोपेता वनवेद्याद्यलंकृताः ॥ १६० ॥
अर्थः- पूर्व और पश्चिम दोनों धातको खण्डों में [मेरु पर्वत दो, विजया ६८ ] यमकगिरि दिग्गज पर्वत १६, नाभि पर्वत = वृषभाचल ६८ और कञ्चनगिरि ४०० [१२ कुलाचल, ३२ वक्षार, गजदन्त और दो इष्वारकार ] ये सब ६२४ पर्वत हैं, इनका उत्सेध एवं विस्तार आदि सच जम्बूद्वीपस्थ विदेह के पर्वतों सहा है ।। १७८ - १८० ।।
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अब धातकीखण्ड सम्बन्धी भोग भूमियों, कर्म भूमियों, पर्वतों, नदियों एवं ब्रहादिकों की संख्या कह कर उसके प्रधिपति देवों के नाम श्रादि कहते हैं। द्विषट् भोगधरा श्रत्र स्युश्चषट्कर्म भूमयः । जम्बूद्वीपसमानाश्च सुखगत्यादि कारणैः ॥ १८१॥ द्विमेप्रमुखाः सर्वे पिण्डिताः ख्यातपर्वताः । चतुर्विंशतिसंयुक्तषट्शतप्रमिता मताः ।।१८२॥ पंचशिच लक्षाणि ह्यशीतिश्चतुस्त्तराः । सहस्राणि शतकं चाशीतिरित्युक्तसंख्यया ॥ १८३॥ सर्वाः पिडकृता नद्यो गङ्गाद्याः कीर्तिता जिनः । धातकीखण्डयोर्मूलपरिवारायाः श्रुते || १८४ | चत्वारिंशद् ब्रहाः सीता सोतोबामध्य संस्थिताः ।
त्रादिद्वीपतोऽन्ये द्विगुणा हृद - बनावयः ॥१८५॥ द्वीपस्यास्य पती स्यातां प्रभासप्रियदर्शिनौ । दक्षिणोत्तरभागस्थौ जिनबिम्बात्त शेखरौ ॥ १८६॥
अर्थ ः- सम्पूर्ण धातकी खण्ड में वारह भोगभूमियाँ और ग्रह कर्मभूमियाँ हैं। इनमें सुख और गति - श्रागति आदि के समस्त कारण एवं सम्पूर्ण वर्णन जम्बूद्वीप सम्बन्धी भोग भूमियों एवं कर्मभूमियों के सच ही है || १८१|| दोनों दिशा सम्बन्धी दो मे हैं प्रमुख जिनमें ऐसे सम्पूर्ण धातकी सरह सम्बंधी पर्वतों का एकत्रित योग (२ मेरु + ६८ विजयार्घ + ६८ वृषभाचल :- १६ दिग्गज + = नाभिगिरि + ४०० कंचनगिरि + यमकगिरि : १२ कुलाचल + ३२ वक्षारगिरि गजदन्त और २ इष्वाकार ) = )= ६२४ है || १८२ ॥ जिनेन्द्र भगवान के द्वारा श्रागम में सम्पूर्ण बातको खण्ड की गंगा आदि मूल और