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________________ प्रथम अधिकार गृहीत्वाहत्य कर्मारोन शुक्लध्यानासिमाकरोत् । मुक्तिस्त्री स्ववशे नौमि नेमिनाथं तमूजितम् ।।६।। अर्थः---बाल्य अवस्था में ही जिन्होंने मोह, काम और इन्द्रिय रूप शत्रुनों का मुख तोड़ कर वराग्य और शान के बल पर दुर्लभसंयमरूपी लक्ष्मीको धारण किया, शुक्लध्यानरूप तलवार से जिन्होंने कर्म शत्रुओंका सर्वथा विनाश कर मुक्तिरूपी स्त्री को अपने स्वाधीन बना लिया है उन विशिष्ट बलशाली नेमिनाथ भगवान् को मैं नमस्कार हूँ - पागे सर्व विघ्नों को नष्ट करने वाले श्री पार्श्वजिनेन्द्र की स्तुति करते हैं जिस्वा यो ध्यानयोगेन वैरिक्षेवकृतान परान् । घोरोपसर्गजालांश्च महाबाताम्बुवर्षणः ।।१०॥ चकार केवलज्ञानं व्यक्त विश्वासदीपकम् । स विश्वविघ्नहन्ता मे पाश्र्थोऽस्तु विघ्नहानये ।।११।। अर्थ:-जिन्होंने अपने वैरी देव ( कमठ के जीव ) द्वारा प्रचण्डवायु और वर्षाजन्य किये गये भयङ्कर उपसर्गों को अपने ध्यान के प्रभाव से जीतकर तीनकाल की पर्यायों से युक्त समस्त द्रव्यों को प्रकाशित करने वाले केबलशान को व्यक्त प्राप्त किया है, जिनके प्रभाव से संसार के समस्त विघ्न नष्ट हो जाते हैं ऐसे पाश्वनाथ भगवान मेरे विघ्नों की शान्ति करने वाले हों अर्थात् इस ग्रंथके निर्माण { या टीका ) करने में आने वाले मेरे सम्पूर्ण विघ्नों को नष्ट करें॥१०-११।। अब धर्मतीर्थ नायक श्री वर्धमान जिनेन्द्र को नमस्कार करते हैं येनोदितो द्विधा धर्मो यतिश्रावकसज्जनः । विश्वतस्वार्थसिद्धान्तः सममघापि वर्तते ॥१२॥ स्थास्यत्यग्रे च कालान्तं स्वमुक्तिश्रीसुखप्रदम् । वर्धमानं तमोडेऽहं वर्धमानगुणार्णवम् ॥१३।। अर्थ:--जिन वर्धमान जिनेन्द्र ने श्रावक और मुनिधर्म के भेद' से दो प्रकार के धर्मों का प्रतिपादन किया था वह सात तत्त्व और नव पदार्थ रूप सिद्धान्त के साथ आज भी विद्यमान है और आगे भी इस काल के अन्त पर्यन्त विद्यमान रहेगा, ऐसे स्वर्ग और मोक्ष के सुख प्रदान करने वाले उन वर्धमान गुणशाली श्री वर्धमान प्रभु की मैं स्तुति करता हूँ ।।१२-१३॥ आगे अजितनाथ प्रादि शेष तीर्थंकरों की स्तुति करते हैं
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
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