SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 483
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वादशोऽधिकाशा [ ४३७ शिरीषाख्यः कदम्बश्च राजद्र म इमे शुमाः । रत्नपीठाश्रिता रत्नमया रत्नांशुदीपिताः ।।५२॥ असुरादिदशानां दशविधा चैत्यपादपाः । रत्नोपकरणोपेता दीप्ता भवन्ति शाश्वताः ॥५३।। मूलेऽमोषां चतुर्दिक्षप्रत्येक सुरपूजिताः । पञ्च पञ्च प्रमाः सन्ति जिनेन्द्रप्रतिमाः पराः ॥५४॥ अर्थ:-भवनवासियों के जघन्य भवनों का व्यास जम्बूद्वीप प्रमाण अर्थात् एक लाख योजन है। मध्यम भवनों का व्यास संख्यात योजन और उत्कृष्ट भवनों का विस्तार असंख्यात योजन प्रमाण है । असुरकुमार आदि दस कुलों के क्रम से अश्वत्थ-पीपल, सप्तपणं, शाल्मलि-सेमल, जम्बू-जामुन, वेतस-वेत का वृक्ष, प्रियंगु, पलाश-ढाक, शिरीष-सिरस, कदम्त्र और राजगुम-कृतमाल वे दश चैत्यवृक्ष हैं। रत्नपीठ पर स्थित, रत्नमय, रत्नकिरणों से देदीप्यमान, प्रकाशमान रत्न के उपकरणों से युक्त, अत्यन्त रमणीक और शाश्वत ये दस प्रकार के चैत्यवृक्ष असुरकुमार आदि दस कलों में से क्रमश: प्रत्येक के एक एक हैं ।।४९-५३॥ इन प्रत्येक चैत्य वृक्षों के मूल में चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में देव समूहों से पूज्य परमोत्कृष्ट पांच पांच जिनेन्द्र प्रतिमा हैं ।।५४।। अब मानस्तम्भों का वर्णन करते हैं :-- पञ्चपञ्चप्रमाणाः स्युर्मानस्तम्भा महोन्नताः । रत्नपीठाश्रिता हेमघण्टाध्वजादि शोभिताः ।।५।। तीर्थेशप्रतिमासारः शिरोभागविराजिताः । मणिधीप्ताश्च सर्वेषां भवनानां दिशं प्रति ॥५६।। अर्थः–सम्पूर्ण भवनों ( चैत्यवृक्षों) को प्रत्येक दिशा में तीर्थकरों की सर्वोत्कृष्ट प्रतिमाओं से जिनके शिरोभाग विभूषित हैं ऐसे देदीप्यमान मरिणयों से निर्मित, स्वर्णमय घण्टानों एवं ध्वजारों से सुशोभित, रत्नपीठ पर स्थित महा उन्नत पांच पांच मानस्तम्भ हैं ॥५५-५६।। अब इन्द्राविक के भेव कहते हैं :-- प्रतीन्द्रो लोकपालाश्च त्रास्त्रिशसुरास्तप्तः । सामान्यकाह्वया अङ्गरक्षाश्च परिषरसुराः ।।७।। सप्तानीकामरा वै प्रकीर्णका प्राभियोगिकाः । किल्विषिका इति प्रोक्ता दशभेदाः परिच्छताः ।।५।।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy