SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 450
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०४ ] सिद्धान्तसार दोपक नन्त प्राणी भयावह संसार रूपी अटवी में भ्रमण करते हैं ।। ६२॥ अनन्तकाय जीवों के समूह में दो जीव कभी भी अस पर्याय को प्राप्त नहीं करते उन्हें नित्यनिगोदिया कहते हैं । इन अनन्तकायिक जीवों के पांच भेद माने गये हैं, जो जिनेन्द्र के द्वारा जम्बूद्वीप आदि के दृष्टान्तों से स्कन्ध, अंडर ग्रावास पुलवि और शरीर आदि के रूप में प्रतिपादन किये गये हैं ।। ६३-६४॥ अब जम्बूद्वीप आदि के दृष्टान्तों द्वारा स्कन्ध, अण्डर आदि का प्रतिपादन करते हैं : जम्बूद्वीपे यथा क्षेत्रं भारतं भारतेऽस्ति च । कोशलः कोशले देशेऽयोध्यायां सौघपङ्क्तयः ॥ ६५॥ तथा स्कन्धा असंख्येयलोक प्रदेशमात्रकाः । एकैकस्मिन् पृथक् स्कन्धे ह्यण्डरा गदिता जिनंः ॥ ६६ ॥ श्रसंख्यलोकतुल्याब्दे कैकस्मिनण्डरे स्मृताः । श्रावासेभ्यो हथसंख्यात लोकमात्रा न संशयः ॥६७॥ एकैकस्मिन् तथावासे प्रोक्ता पुलवयोऽखिलाः । असंख्य लोकमाना एकैकस्मिन् पुलवौ भवे ।। ६६ ।। असंख्यात शरीराणि लोकमानानि सन्ति च । एकैकस्मिन्निकोतानां शरीरे प्राणिनो ध्रुवम् ॥ ६६ ॥ श्रतीतानन्त कालोत्थानन्त सिद्धभ्य एव च । सर्वेभ्य श्रागमे प्रोक्ता वाण्यानन्तगुला जिनैः ॥७०॥ अर्थ - जैसे जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र है, भरतक्षेत्र में कोशल देश है, कोशल देश में प्रयोध्या नगरी हैं और एक एक अयोध्या नगरी में अनेक प्रासाद ( महल ) पंक्तियाँ हैं. उसी प्रकार असंख्यात लोक प्रमाण पुद्गल परमाणुत्रों का एक स्कन्ध और एक एक स्कन्ध में असंख्यात लोक असंख्यात लोक प्रमाण अण्डर जिनेन्द्र द्वारा कहे गये हैं ।। ६५-६६॥ पृथक् पृथक एक एक अण्डर में असंख्यात - श्रसंख्यात लोक प्रमाण आवास हैं, इसमें कोई संशय नहीं है ॥६७॥ पृथक् पृथक् एक एक ग्रावास में श्रसंख्यातलोक असंख्यात लोक प्रमारा पुलवियां हैं, एक एक पुलवि में असंख्यात लोक असंख्यात लोक प्रमाण शरीर हैं और पृथक् पृथक् एक एक निगोद शरीर में जिनेन्द्र भगवान के द्वारा आगम में अतीत और आगामी अनन्तकाल में होने वाले सर्व अनन्त सिद्धों के अनन्तगुणी जोव राशि कही गई है । अर्थात् प्रतीत और अनागत में होने वाली सर्व सिद्ध राशि का जितना प्रमाण है, उससे अनन्तगुणे जीव एक निगोद शरीर में रहते हैं ।। ६८-७० ॥
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy