SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 658
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६१२ ] सिद्धान्तसार दीपक अर्थ :- त्रैलोक्य को प्रकाशित करने के लिए प्रदीप के सदृश इस ग्रन्थ को जो विद्वज्जन मन, वचन और काय की विशुद्धि पूर्वक श्रवण करते हैं, वे नरकों के दुःखों को भलीभांति जान लेते हैं, इसलिए वे पापों से भयभीत चित्त होते हुए धर्म में तप में और सम्यग्चारित्र में दत्तचित्त हो जाते हैं ।।११०।। तथा वे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, यम, नियम और उत्तम तपश्चरण श्रादि धर्म के फल स्वरूप स्वर्ग एवं मध्यलोक के अनुपम सुखों को भोग कर संसार शरीर और भोगों से विरक्त होते हुए जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर उत्तम तप करके सिद्ध हो जाते हैं ।३१११ ।। जो भव्य जन इस शास्त्र को लिखते हैं, उनके फल का दिग्दर्शन कराते हैं: -- येset लिखन्ति निपुणा वरशास्त्रमेतत् तर वृद्धये च पठनाय तरन्ति तूर्णम् । ते ज्ञानवारिधिमनन्तगुणक हेतु सिद्धान्ततीर्थपरमोद्धरणातधर्मात् ॥ ११२ ॥ अर्थ :- शास्त्र की वृद्धि के लिए तथा दूसरों को पढ़ने के लिए जो विद्वज्जन इस उत्तम शास्त्र उद्धार स्वरूप पुण्य से अनन्त गुणों ज्ञानी बन जाते हैं ।। ११२ । प्राप्त होने वाले फल का को अपने हाथों से स्वयं लिखते हैं, वे सिद्धान्त रूप उत्कृष्ट तीर्थ के कारण भूत ज्ञान सिन्धु को शीघ्र ही तर जाते हैं। प्रर्थात् पूर्ण जो घनिक जन इस शास्त्र को लिखायेंगे, उनको दिग्दर्शन करते हैं:-- ये लेखयन्ति धनिनो धनतः किलेदम् सारागमं भुवि सुवर्तन हेतवे । सज्ञानतोर्थविमलोद्धरणात्तपुण्पादप्राप्यमुत्र सकलं श्रुतमाश्रयन्ति ॥ ११३ ॥ अर्थ :--- पृथिवी पर श्रागम के सार को प्रकाशित करने के लिए जो श्रीमान् ( धनवान् ) अपने धन से इस शास्त्र को लिखवाते हैं, वे समीचीन और निर्मल ज्ञाम रूपी तीर्थ के उद्धार स्वरूप पुण्य फल से इस लोक और परलोक में सकल श्रुतज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं । अर्थात् श्रुतकेवली हो जाते हैं ।। ११३ ।।
SR No.090473
Book TitleSiddhantasara Dipak
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorChetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy