Book Title: Savruttik Aagam Sootraani 1 Part 35 Uttaradhyayan Mool evam Vrutti Part 1
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Vardhaman Jain Agam Mandir Samstha Palitana
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 आगम नमो नमो निम्मलदंसणस्स आगम आगम पूज्य आनंद- क्षमा-ललित- सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमः सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि आगम भाग 35 आगम ४३ “उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं वृत्ति: [१] पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से 'वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा ~1~ आगम आगम आगम आगम आगम आगम आगम आगम मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब ● आगम गम अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D. श्रुतमहर्षि] राम आजम के आगम भागम Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रोजेक्ट के संपूर्ण अनुदान-दाता ருகம் OFF OF OF श्री आगम मंदिर पालिताणा HIRO HIRO HIRO 2~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स गत सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक अभिनव-संकलनकर्ता __ पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855/9825306275 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਹ ਨsਹਾਸ ਸਾਹਸ ਸ ਸ ਸ ਸ ਸ ਸ ਸ 3 वाचना शताब्दी वर्ष ਸ | ਮ ਹਿਲ ਤਹਿ ਨਗਰਲ ਸ਼ਰਧਾ 33ਕੁਲ ਘਰ ਸ਼ ਸ ਹਾਰ ਨੂੰ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाग-३५] श्री उत्तराध्ययनानि (मूलसूत्रम्-४/१) नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम: "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं वृत्ति: [मूलं + नियुक्ति: + शान्तिसूरि-रचिता वृत्तिः] [आद्य संपादकश्री] पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) 28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५ 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-35 श्री आगमोद्धारक-वाचना-शताब्दी-वर्ष-निमित्त 'आगम-वृत्ति-मुद्रण-प्रोजेक्ट' Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी महाराज साहेब | .जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक्-श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक : | अभ्यंतर-तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है , फ़िर भी | गरुभक्ति बद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है। .चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये , तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले । पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज : एकासणा तप के साथ बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, | । प्राचीन लिपिओ का, व्याकरण-न्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए। . एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े। देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हुए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक : हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और नियुक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया || फिर पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा , सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और । : "आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ | .सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे , उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अवचूरी, संस्कृत-छाया आदि का भी संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकत नए ग्रंथो की रचना भी की । कितने ही ग्रंथो : की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की | .ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं . को प्रतिबोध कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई । बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे | सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था | .सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ८७० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | ...ये थे हमारे गुरुदेव “सागरजी"... ........मुनि दीपरत्नसागर... : .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. ~6~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब : ... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी , जो एक | पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फ़िर क्या ! शिष्यो कि संख्या बढ़ती चली, बढ़ते हुए पुन्य के । • साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की: प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापुन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का । स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य-परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे। ... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेल दिखाए । एक और भी अनसरणीय बात उन के जीवन में देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. | कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि : | आराधना कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही | रटण बारबार चालु हो गया- “अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनु शरण' इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे : | समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना | ... मुनि दीपरत्नसागर... | ... श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा ... पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक-प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुइ।। पूज्य आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुइ । शिल्प-स्थापत्य , शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन-प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर' है, जो शत्रुजय-गिरिराज कि तलेटीमे स्थित है | वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है | जहां : |४० समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्षों के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस-पत्थर से बना है, देवो द्वारा रचित समवसरण | के शास्त्र वर्णन-अनुसार आगम-मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है । ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है। - मुनि दीपरत्नसागर... . . .. - .. -.. - .. - .. - .. -.. -.. - .. - .. - .. . - .. - .. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. - .. - .. - . ____ 'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई, उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे| समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन-अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर : का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के | पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हए अपनी मेधावी बुद्धि का । : परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई। ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है । .. मुनि दीपरत्नसागर [कात्रजपूना, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यास, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब (एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ :-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-.. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-], नियुक्ति: [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३) मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: TA श्रेष्ठि-देवचन्द्र लालभाई-जैनपुस्तकोद्धारे-मन्थाङ्कः ३३. श्रीजिनेन्नदेषानुमतप्रत्येकदादिकषिप्रणीतानि श्रुतकेवलिधुर्यत्रीमजबबाहुस्वाभिसूक्तनिथुक्तिकानि वादिवेतालश्रीशान्तिसूरिवर्यविवृतानि श्रीमन्त्युत्तराध्ययनानि। (विभागः प्रथमः) प्रसेपिका-देवचन्द्र लालभाई जैनपुस्तकोदारभाण्डागारसंस्था विख्यातिकारकः-शाह नगीनभाई घेलाभाई-जव्हेरी, अस्खैकः कार्यवाहकः । इदं पुस्तकं मुम्बयां शाह नगीनभाई घेलाभाई जन्हेरी ४२६ जव्हेरी बाजार इसनेम 'निर्णयसागर' मुदणास्पदे कोलभाटवीभ्यां २३ तमे गृहे रामचन्द्र येसू शेडगेवारा मुद्राषितं प्रकाशित। प्रथमसंस्कारे प्रतयः ५०..] अस्य पुनर्मुद्रणाचाः सर्वेऽधिकारा एतद्भाण्डागारकार्यवाहकाणामायत्ताः स्थापिताः। [मोहमयीपत्तने. वीरसंवत् २४४२. विक्रमसंवत् १९७२. क्राइष्टस्य सम् १९१६. वेतनं १-५-० [Rs. 1-5-0] T MIREDuratimintinatime उत्तराध्ययन० सूत्रस्य मूल “टाइटल पेज" ~9~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाका: १६४०+८८ उत्तराध्ययनानि मूल-सूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: १७३१ | पृष्ठांक: मूलांक: अध्ययनं | पृष्ठांक: | | मलांक: | | अध्ययनं ०००१ | ०१ विनयसूत्तं ०४०७ | १३ चित्रसंभूतियं ००४९ | ०२ परिषह विभक्ति : ०४४२ | १४ इषकारियं ००९५ / ०३ चातरंगियं २९० ०४९५ | १५ सभिक्षुकं ०११५ ०४ असंस्कृतं ३८७ ०५११ | १६ ब्रह्मचर्यसमाधि. ०१२८ | ०५ अकाममरणियं । ४६४ ०५३९ | १७ पापश्रमणियं ०१६००६ क्षुल्लकनिर्ग्रन्थियं ०५६० | १८ संयतियं ०१७९ ०७ औरभियं ०६१४ | १९ मृगापुत्रिक ०२०९ ०८ कापिलियं ०७१३ २० महानिर्ग्रन्थियं ०२२८ | ०९ नमिप्रव्रज्या ०७७३ २१ समुद्रपालितं ०२९१ | १० द्रुमपत्रक ०७९७ २२ रथनेमियं ०३२८ | ११ बहुश्रुतपूजा ०८४७ २३ केशीगौतमियं ०३६० | १२ हरिकेशियं ०९३६ | २४ प्रवचनमाता मुलांक: अध्ययन | पृष्ठांक: ०९६३ | २५ यज्ञकियं १००७ २६ सामाचारी १०५९ २७ खलंकियं १०७६ २८ मोक्षमार्गगति: १११२ | २९ सम्यक्त्वपराक्रम १९८९ ३० तपोमार्गगति: १२२६ | ३१ चरणविधिः १२४७ ३२ प्रमादस्थानं १३५८ | ३३ कर्मप्रकृत्ति : १३८३ | ३४ लेश्या-अध्ययन १४४४ | ३५ अणगारमार्गगति: १४६५ ३६ जीवाजीवविभक्तिः पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~10 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [उत्तराध्ययनानि- मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “उत्तराध्ययनानि सूत्र” के नामसे सन १९१६ (विक्रम संवत १९७२) में देवचन्द्र लालभाइ पुस्तकोद्धार संस्था द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर अपने नामसे 'जिनशासन आराधना ट्रस्ट' की तरफ से आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने छपवाई , जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के , ऊपर अपना नाम एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. यह स्पष्ट रूपसे एक प्रकारसे अदत्तादान ही है, ऐसी अनेक प्रतो के अगले दो पेज पलटकर या नए डालकर उन्होंने अपने नामसे छपवाइ है , इस तरह वो अपने आपको बड़ा आगम संरक्षक साबित करनेकी अनुचित चेष्टा कर चुके है। इसी उत्तराध्ययन--सूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से दुसरोने भी प्रकाशित करवाई है , किसीने पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराजश्री का नाम बड़ी इज्जत के साथ अपनी जगह पे ही रखा है , और खुदका नाम पुन: संपादक रूप से पेश किया है तो किसीने अपना नाम आगे कर दिया है और पूज्य सागरानंदसूरीश्वरजीका नाम गौण कर दिया है या उड़ा दिया है। हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी,ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर अध्ययन-मूलसूत्र आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, सूत्र, आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके | बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है , इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस ] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-| ऐसी दो लाइन खींची या 'गाथा' शब्द लिखा है| हर पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट दी है। शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-३५ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है। परत्नसागर. ~11~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि"-मूलसूत्र ___ अध्ययनं -1, मूलं -1, (४३) नियुक्ति: [-] EC+C+C२५ACCIA श्रेष्टिदेवचन्द्रलालभाई जैनपुस्तकोद्धार-ग्रन्थाङ्के अहम् पूर्वोदृतजिनभाषितश्रुतस्थविरसंडब्धानि । श्रीमद्भद्रबाहुस्वामिसंकलितनियुक्तियुतानि । श्रीशान्त्याचार्यविहितशिष्यहिताख्यवृत्तियुक्तानि । श्रीउत्तराध्ययनानि । शिवदाः सन्तु तीर्थशा, विनसवातघातिनः । भवकृपोतो येषां, वाग वरत्रायते नृणाम् ॥१॥ समस्तवस्तुविस्तारे, व्यासर्पत्तलयजले । जीयात् श्रीशासनं जैनं, धीदीपोद्दीसिवर्द्धनम् ॥२॥ यत्प्रभावादवाप्यन्ते, पदार्थाः कल्पना विना । सा देवी संविदे नः स्तादस्तकल्पलतोपमा ॥३॥ For PATRAPVRUIROIN पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्रा४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~12~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-], नियुक्ति: [-] * उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः * व्याख्याकृतामखिलशास्त्रविशारदाना, सूच्यप्रवेधकधियां शिवमस्तु तेषाम् । अध्ययनम् यैरत्र गाढतरगूढविचित्रसूत्रग्रन्थिर्विभिद्य विहितोऽद्य ममापि गम्यः॥४॥ अध्ययनानामेषां यदपि कृताभूर्णिवृत्तयः कृतिभिः । तदपि प्रवचनभक्तिस्त्वरयति मामत्र वृत्तिविधौ ॥५॥ इह खलु सकलकल्याणनिबन्धनं जिनागममवाप्य विवेकिनैवं विवेचनीयं-यदुत महार्थोऽयं मनोरथानामप्यपथभूतो भूरिजन्मान्तरोपचितपुण्यपरिपाकतो महानिधिरिष मयाऽधिगतः, तथाहि-महति संसारमण्डलेऽस्मिन् मानसादिदण्डैरभिहन्यमानाः कष्टेनेष्टविशिष्टार्थी महापुरीमिय मनुजगतिमनुप्रविशन्ति जन्तवः, अनुप्रविश्यापि चास्यामौरथ्यिका इवाकृतसुकृतसम्भारा निरीक्षितुमपि नैनं क्षमन्ते, किमङ्ग पुनरखामुमिति ?, एतदवाप्ती सर्वथा । कतार्थोऽस्मि, सम्भवति चास्यां खोपकारवत्परोपकारेऽपि शक्तिरिति नेदानी युक्ता कर्दर्यता, किन्तु ?, भवितव्य-TH मुदाराशयेन, परोपकारपूर्विकैव च खोपकारप्रवृत्तिरुदाराशयतां ख्यापयतीति परोपकार एवादितः प्रवर्तितुमुचितम् । १ सन्ति चास्मिन् महितमाहात्म्याः समीहितसम्पादकाच मणय इव चरणकरणादिगोचराचाराद्यङ्गानुयोगाः, न चैत इदानीं सम्यग्दर्शनादिहेतुं मिथ्यात्वादिपिशाचशमनं धर्मकथात्मकोत्तराध्ययनानुयोगं रक्षाविधानमिवापहाय ॥१॥ खयं ग्रहीतुमन्यस्मै वा दातुं युज्यन्ते, इत्यारभ्यत उत्तराध्ययनानुयोगः-तत्र च न तथाविधफलादिपरिज्ञान १ भिक्षाचराः। २ कृपणता । **** पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~13 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-], नियुक्ति: [-] T༔ ༔ r”བློ विकला प्रेक्षावतां प्रवृत्तिः, तस्यास्तद्यापकत्वाद्, व्याप्यस्य च व्यापकाविनाभावित्वात् , अतः प्रेक्षावत्प्रवृत्त्यङ्गमात्वात् फलयोगमङ्गलसमुदायार्थानुयोगद्वारतद्भेदनिरुक्तिक्रमप्रयोजनानि याच्यानि । यथ शब्दस्याप्रमाणत्वमभिधाय । मतदभिधानस्यानर्थकत्वमिह कैश्चिदुक्तं, तदसाधु, शब्दस्याप्रमाणत्वे तत्प्रामाण्यमूलत्वेन सकलव्यवहाराणामुच्छेद प्रसङ्गात् , उक्तं हि-"लोकिकव्यवहारोऽपि, यस्मिन्न व्यवतिष्ठते । तत्र साधुत्वविज्ञानं, व्यामोहोपनिवन्धनम् ॥१॥" इति । तथा च शास्त्रादौ फलादिप्रतिपादिका पूर्वाचार्यगाथा-'तस्स फलजोगमंगलसमुदायत्था तहेव दाराई । से तब्भेयनिरुत्तिक्कमपयोयणाईच बचाई॥१॥'फलाभिलाषिणां च सकलप्रेक्षावतां प्रवृत्तिरिति प्रथमतः फलस्थाभि-3 धानं, तत्रापि किमिदं सम्बद्धमुतासम्बद्धमिति विचारत एव विपश्चितः प्रवर्तन्त इति तदनु योगस्य, इत्यादि क्रमप्रमायोजनं सर्वत्र योज्य, तत्र फलं कर्तुः श्रोतुश्चाव्यवहितं विनेयानुग्रहो यथावदर्थावबोधश्च, व्यवहितं पुनरुभयोरपि & तदुत्तरोत्तरगुणप्रकर्षप्राप्त्याऽपवर्गावाप्तिरिति । योगः सम्बन्धः, स च हेतुतः फलतच, तत्र हेतुत उत्तराध्ययनानु-ट योगस्य साक्षात्कृतधर्माणः सूत्रकृत एव यथाखं प्रणेतारः ततस्तदवयोधिततदर्धास्तच्छिष्याः ततोऽपि तद्विने-12 यास्तावद् यावद् भगवान् भद्रबाहुः ततो भाष्यकृतस्ततश्चूर्णिकृतः ततोऽपि वृत्तिकृतो यावदस्मद्गुरव इति गुरुपर्वदाक्रमलक्षणः । फलतस्तूपायोपेयभावरूपः अभिहितफलस्योपेयत्वात् प्रतुतानुयोगस्य च तदुपायत्वादिति । ममाति-13 १ तस्य फलयोगमङ्गलसमुदायार्थांस्तथैव द्वाराणि । तद् (द्वार ) भेदनिरुक्तिक्रमप्रयोजनानि च वाच्यानि ॥ १॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~14 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], ____मूलं [-], नियुक्ति: [-] RSSC T_ Ta उत्तराध्य. विनाशयति शास्त्रपारगमनविघ्नान् गमयति-प्रापयति शास्त्रस्थैर्य लालयति च-श्लेषयति तदेव शिष्यप्रशिष्यपरम्प-12 बृहदृत्तिः | कारायामिति मङ्गलं, यद्वा मन्यन्ते अनापायसिद्धिं गायन्ति प्रवन्धप्रतिष्ठिर्ति लान्ति वाऽव्यवच्छिन्नसन्तानाः शिष्य प्रशिष्यादयः शास्त्रमस्मिन्निति मङ्गलम् , आदिमध्यावसानवर्तिनस्तस्योक्तरूपार्थप्रसाधकत्येन प्रसिद्धत्वात् , उक्तं ॥२॥ हि-तं मंगलमाईए मज्झे पजंतए य सत्थस्स । पढमं सत्थस्साविग्घपारगमणाय निद्दिढे ॥१॥ तस्सेव उ |थिजत्थं मज्झिमयं अंतिमं च तस्सेव । अबोच्छित्तिनिमित्तं सिस्सपसिस्साइवंसस्स ॥ २॥" तच नामादिचतुर्भेद, तत्र मझलमिति नामैव नाममङ्गलं, स्थापनामङ्गलं मालाकारः, मकलानि च दर्पणादीनि, यथोक्तम्-“दप्पणहै भद्दासण वद्धमाण वरकलसमच्छसिरिवच्छा । सोच्छिय नंदावत्ता लिहिया अट्टह मंगलगा॥१॥" इति, द्रव्यमा वमङ्गले त्यावश्यकभाष्यानुसारतोऽवबोद्धव्ये । तत्र चेह भावमङ्गलेनाधिकारः, तय कृतमेव, नन्दिरूपत्वात् तस्य, नन्दिव्याख्यानपूर्वकत्वाच सकलानुयोगस्य, अपवादत उत्क्रमेणापि यदाऽनुयोगस्तदा भावत आदिमङ्गलं 'संजोगा विष्पमुकरस अणगारस्स' त्ति अणगारग्रहणं, मध्यमङ्गलं, 'कंपिले नयरे राया' इत्यादिनाऽनगारगुणवर्णनम् , अन्त्य १ दन्मङ्गलमादौ मध्ये पर्वन्ते च शास्त्रस्य । प्रथमं शास्त्रस्याविनपारगमनाय निर्दिष्टम् ॥१॥ तस्यैव तु स्थैर्य मध्यममन्तिमंच तस्वैष । अव्यवच्छित्तिनिमितं शिष्यपशिष्यादिवशे ॥२॥ २ दर्पर्ण भद्रासनं वर्धमानो वरकलशो मरमः श्रीवत्सः । स्खसिको नन्द्या-12 वों लिखितान्यष्टाष्ट मङ्गलानि ॥१॥ ISROXXX wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~15 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-], नियुक्ति: [-] Tཙྪཱ ༔ ཟླ་ Pमालम् 'इइ पाउकरे बुद्धे' इत्यादिना बुद्धाद्यभिधानं । समुदायो-वर्णपदवाक्यश्लोकाध्ययनकदम्बकात्मकश्रुतस्क न्धरूपस्तस्याभिधेयोऽर्थः समुदायार्थः, स चेह धर्मकथात्मकः, विशेषतस्त्वेनं 'पढमे विणओं' इत्यादिना नियुक्ति कार एवं वक्ष्यति । द्वाराणीति प्रक्रमादनुयोगद्वाराणि, तत्र चानुगतमनुरूपं वा श्रुतस्य खेनाभिधेयेन योजन-सम्बFधनं तस्मिन् वाऽनुरूपोऽनुकूलो वा योगः श्रुतस्यैवाभिधानन्यापारोऽनुयोगः, तदुक्तम्-“अणुजोयणमणुजोगो सुयस्स नियएण जमभिधेयेणं । वावारो वा जोगो जो अणुरूवोऽणुकूलो वा ॥१॥" तस्य द्वाराणि-उपक्रमादीनि अनुयोगद्वाराणि तानि तद्भेदनिरुक्तिक्रमप्रयोजनानि च 'तत्थज्झयणं पढम' मित्यत्र वक्ष्यामः । आह-प्रकृतोऽयमुत्तराध्ययनानुयोगः, तत्र किमेतान्युत्तराध्ययनान्यङ्गमङ्गानि श्रुतस्कन्धः श्रुतकन्धा अध्ययनमध्ययनानि उद्देशक उद्देशकाः १, उच्यते, नाझं नाङ्गानि, श्रुतस्कन्धो न श्रुतस्कन्धाः, नाध्ययनमध्ययनानि, नोद्देशको नोद्देशका इति । अस्य च नामनिक्षेपे 'उत्तराध्ययनश्रुतस्कन्ध' इति नाम, तत्रोत्तरं निक्षेप्तव्यमध्ययनं श्रुतस्कन्धश्च, तत्रोत्तरनिक्षेपाभिधानायाह भगवान् नियुक्तिकारः -% - 224 १ अनुयोजनमनुयोगः सूत्रस्य निजकेन यदभिधेयेन । व्यापारो वा योगो योऽनुरूपोऽनुकूलो वा ॥१॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~16 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], ____मूलं [-], नियुक्ति: [१] I उत्तराध्य. नाम ठवणा दविए खित्त दिसा तावखित्त पन्नवए । पइकालसंचयपहाणनाणकमगणणओ भावे ॥१॥ अध्ययनम् बृहद्वृत्तिः 8 व्याख्या-इह च सुपो यत्रादर्शनं तत्र सूत्रत्वेन छान्दसत्वात् लुक्, तथोत्तरनिक्षेपप्रस्तावात् सूचकत्वात्सू त्रस्य 'कमउत्तरेण पगय' मित्युत्तरश्रवणाच 'नाम' ति नामोत्तरं 'ठवणं' ति स्थापनोत्तरमित्याद्यभिलापः कार्यः । तत्र नामोत्तरमिति नामैच यस्य था जीवादेरुत्तरमिति नाम क्रियते, स्थापनोत्तरमक्षादि, उत्तरमिति वर्णविन्यासो। वा, द्रव्योत्तरमागमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तो नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरे तयतिरिक्तं च, तत्र तयतिरिक्तं त्रिधा-सचिदत्ताचित्तमित्रभेदेन, तत्र सचित्तं पितुः पुत्रः, अचित्तं क्षीरात् दधि, मिश्रं जननीशरीरतो रोमादिमदपत्यम् , इह च द्रव्यपर्यायोभयात्मकत्वेऽपि वस्तुनो द्रव्यप्राधान्यविवक्षया पित्रादेवंभवनतश्च पुत्रादीनां द्रव्योत्तरत्वं भावनीयं, क्षेत्रोत्तरं मेर्वाद्यपेक्षया यदुत्तरं, यथोत्तराः कुरवः, यद्वा पूर्व शालिक्षेत्रं तदेव पश्चादिक्षुक्षेत्रं, दिगुत्तरमुत्तरा दिग, दि दक्षिणदिगपेक्षत्वादस्य, तापक्षेत्रोत्तरं यत्तापदिगपेक्षयोत्तरमित्युच्यते, यथा-सर्वेपामुत्तरो मन्दराद्रिः, प्रज्ञापकोत्तरं| यत् प्रज्ञापकस्य वाम, प्रत्युत्तरमेकदिगवस्थितयोर्देवदत्तयज्ञदत्तयोर्देवदत्तात् परो यज्ञदत्त उत्तरः, कालोत्तरः समया १कयपवयणप्पणामो बुच्छ धम्माणुओगसंगहि । उत्तरज्झवणाणुओगं गुरुवएसाणुसारेण ॥१।। इत्येषा गाथाऽऽदौ नियुक्तिपुस्तके दृश्यते, न च व्याख्यातेत्युपेक्षिता, अनुषन्धादिदर्शितयोपयोगिवे (कृतप्रवचनप्रणामो वक्ष्ये धर्मानुयोगसंगृहीतम्। उत्तराभ्ययनानुयोग गुरूपदेशानुसारेण)13 - इति संस्करणं नेयम्। T IN३॥ JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~17~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) निर्युक्तिः [१] अध्ययनं [-], मूलं [-], दावलिका आवलिकातो मुहूर्तमित्यादि, सञ्चयोत्तरं यत्सञ्चयस्योपरि, यथा धान्यराशेः काष्ठं, प्रधानोत्तरमपि त्रिविधंसचित्ताचित्तमिश्रभेदात्, सचित्तप्रधानोत्तरमपि त्रिधैव तथथा - द्विपदं चतुष्पदमपदं च तत्र द्विपदमनुत्तरपुण्यप्रकृतितीर्थकरनामाद्यनुभवनतः तीर्थकरः, चतुष्पदमनन्यसाधारणशौर्यधैर्यादियोगतः सिंहः, अपदं रम्यत्वसुरसेव्यत्वादिभिर्जात्यजाम्बूनदादिमयी जम्बूद्वीपमध्यस्थिता सुदर्शनाजम्बूः, अचित्तमचिन्त्यमाहात्म्यश्चिन्तामणिः, मिश्रं तीर्थकर एव गृहस्थावस्थायां सर्वालङ्कारालङ्कृतः, ज्ञानोत्तरं केवलज्ञानं विलीनसकलावरणत्वेन समस्तवस्तुस्वभावाभासितया च यद्वा श्रुतज्ञानं, तस्य खपरप्रकाशकत्वेन केवलादपि महर्द्धिकत्वात् उक्तं च"सुयणाणं महिडीयं, केवलं तयणंतरं । अप्पणो य परेसिं च, जम्हा तं परिभावणं ॥ १ ॥” ति, क्रमोत्तरं क्रममाश्रित्य यद्भवति तच्चतुर्विधं - द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतच, तत्र द्रव्यतः परमाणोर्द्विप्रदेशिकः ततोऽपि त्रिप्रदेशिकः एवं यावदन्त्योऽनन्तप्रदेशिकः स्कन्धः, क्षेत्रत एकप्रदेशावगाढात् द्विप्रदेशावगाढः ततोऽपि त्रिप्रदे| शावगाढः एवं यावदवसानवर्त्यसङ्ख्येयप्रदेशावगाढः, कालत एकसमयस्थितेर्द्विसमय स्थितिः ततोऽपि त्रिसमयस्थितिः | एवं यावदसङ्ख्येय समयस्थितिः, भावत एकगुणकृष्णात् द्विगुणकृष्णः ततोऽपि त्रिगुणकृष्णः एवं यावदनन्तगुणकृष्णः, यतो वा क्षायोपशमिकादिभावादनन्तरं यः क्षायिकादिर्भवति, 'गणणओत्ति गणनात उत्तरमेककाद १ श्रुतज्ञानं महद्धिकं केवलं तदनन्तरम् । आत्मनश्च परेषां च यस्मात्तत्परिभावनम् ॥ १ ॥ Education intimational For at Use Only www.jancibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~18~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [-], निर्युक्ति: [१] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः | द्विकस्ततोऽपि त्रिक एवं यावच्छीर्षप्रहेलिका, भायोत्तरं क्षायिको भावः, तस्य केवलज्ञानदर्शनाद्यात्मकत्वेन सकलौदयिकादिभावप्रधानत्वाद् । आह— एवमस्य प्रधानोत्तर एवान्तर्भावादयुक्तं भेदेनाभिधानं, यद्येवमत्यल्पमिदमुच्यते, एवं हि नामादिचतुष्टय एव सर्वनिक्षेपाणामन्तर्भावात्तदेवाभिधेयं तत इहान्यत्र च यन्नामादिचतुष्टयाधिकनिक्षे॥ ४ ॥ ॐ पाभिधानं तच्छिष्यमतिव्युत्पादनार्थं सामान्यविशेषोभयात्मकत्वख्यापनार्थे च सर्ववस्तूनामिति भावनीयमिति गाथार्थः ॥ १ ॥ इहानेकधोत्तराभिधानेऽपि क्रमोत्तरमेवाधिकरिष्यति, विषयज्ञाने च विषयी सुज्ञानो भवति इति मन्वानो यत्रास्य सम्भवो यत्र चासम्भवो यत्र चोभयं तदेवाह - Education intam जहण्णं सुत्तरं खलु उक्कोसं वा अणुत्तरं होइ । सेसाई उत्तराई अणुत्तराई च नेयाणि ॥ २ ॥ व्याख्या - जघन्यं सोत्तरं 'ख' अवधारणे, सोत्तरमेव 'उक्फोर्स' ति उत्कृष्टं वाशब्दस्यैवकारार्थस्य भिन्नक्रमत्वाद् अनुत्तरमेव भवति, 'शेषाणि' मध्यमानि 'उत्तराणि' इति अर्शआदित्वेनाजन्तत्वात् मतुब्लोपाद्वोतरवन्ति अनुत्तराणि च ज्ञेयानि । द्रव्यक्रमोत्तरादीनि हि जघन्यान्येकप्रदेशिकादीनि उपरि द्विप्रदेशिकादिवस्त्वन्तरभावात् सोत्तराण्येव, तदपेक्षयैव तेषां जघन्यत्वात्, उत्कृष्टानि त्वन्त्यानन्तप्रदेशिकादीन्यनुत्तराण्येव, तदुपरि वस्त्वन्तराभावाद्, अन्यथोत्कृष्टत्वायोगात्, मध्यमानि तु द्विप्रदेशिकादीनि त्रिप्रदेशिकाद्यपेक्षया सोत्तराणि एक For Fans at Use Only अध्ययनम् १ ~19~ ॥ ४ ॥ ww पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”-मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], ____मूलं [-], नियुक्ति: [२] FFEE प्रदेशापेक्षया त्वनुत्तराणि, उपरितनवस्त्वपेक्षयैव सोत्तरत्वात् इति गाथार्थः ॥ २॥ उत्तरस्यानेकविधत्वेन | येनात्र प्रकृतं तदाहकमउत्तरेण पगयं आयारस्सेव उवरिमाइं तु । तम्हा उ उत्तरा खलु अज्झयणा हुँति णायवा ॥ ३ ॥ व्याख्या-क्रमापेक्षमुत्तरं क्रमोत्तरं, शाकपार्थिवादित्वान्मध्यपदलोपी समासः, तेन प्रकृतम्-अधिकृतम् , इह च क्रमोत्तरेणेति भावतः क्रमोत्तरेण, एतानि हि श्रुतात्मकत्वेन क्षायोपशमिकभावरूपाणि तद्रूपस्यैवाऽऽचारा-1 स्योपरि पठ्यमानत्वेनोत्तराणीत्युच्यन्ते, अत एवाह-आयारस्सेव उवरिमाईति एवकारो भिन्नक्रमः, ततश्चाचारस्योपर्यंच-उत्तरकालमेव 'इमानी'ति हृदि विपरिवर्तमानतया प्रत्यक्षाणि, पठितवन्त इति गम्यते, 'तुः' विशेशायणे, विशेषश्चायं यथा-शय्यम्भवं यावदेष क्रमः, तदाऽऽरतस्तु दशवकालिकोत्तरकालं पठ्यन्त इति, तम्हा उत्ति 18 'तुः' पूरणे, यत्तदोश्च नित्यमभिसम्बन्धः, ततो यस्मादाचारस्योपर्यवेमानि पठितवन्तस्तस्माद् 'उत्तराणि' उत्तरश ब्दवाच्यानि, 'खलुः' वाक्यालद्वारेऽवधारणे वा, तत उत्तराण्येव 'अध्ययनानि' विनयश्रुतादीनि भवन्ति 'ज्ञात-1|| व्यानि' अवबोद्धब्यानि, प्राकृतत्वाच लिङ्गव्यत्यय इति गाथार्थः ॥३॥ आह-यद्याचारस्योपरि पठ्यमानत्वेनोत्तरा-8 ASSASARAN पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: -~-20~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], ____मूलं [-], नियुक्ति: [३] अध्ययनम् बृद्धृत्तिः T TA उत्तराध्य. ण्यमूनि, तकि? यत एवाचारस्य प्रसूतिरेषामपि तत एव अभिधेयमपि यदेव तस्य तदेवोतान्यति संशयाप- ४ नोदायाहअंगप्पभवा जिणभासिया य पत्तेयबुद्धसंवाया। बंधे मुक्खे य कया छत्तीसं उत्तरज्झयणा ॥४॥ व्याख्या--अङ्गाद्-दृष्टिवादादेः प्रभव-उत्पत्तिरेषामिति अङ्गप्रभवानि, यथा परीपहाध्ययन, वक्ष्यति हि-"कम्मप्पवायपुवे सत्तरसे पाहुडंमि जं सुतं । सनयं सोदाहरणं तं चेव इहंपि णायचं ॥१॥" जिनभाषितानि यथा दुमपुष्पिकाऽध्ययन, तद्धि समुत्पन्न केवलेन भगवता महावीरेण प्रणीतं, यद्वक्ष्यति--"तंणिस्साए भगवं सीसाणं| देह अणुसहि"ति, 'चः' समुचये, प्रत्येकबुद्धाच संवादश्च प्रत्येकबुद्धसंवादं तस्मादुत्पन्नानीति शेषः, तत्र प्रत्येकबुदद्धा-कपिलादयः तेभ्य उत्पन्नानि यथा कापिलीयाध्ययनं. वक्ष्यति हि-'धम्मदृया गीयं तत्र हि कपिलेनेति प्रक्रमः, संवादः-सङ्कतप्रश्नोत्तरवचनरूपस्तत उत्पन्नानि, यथा-केशिगौतमीयं, वक्ष्यति च-"गोतमसीओ य संवायसमुट्ठियं तु जम्हेय"मित्यादि । ननु स्थविरविरचितान्येवैतानि, यत आह चूर्णिकृत्-"सुत्ते थेराण अत्तागमो"त्ति १ कर्मप्रवादपूर्वे सप्तदशे प्राभृते यत्सूत्रम् । सनयं सोदाहरणं तदेवेहापि ज्ञातव्यम् ॥ १॥ २ तन्निनया भगवान् शिष्येभ्यो ददात्यदानुशास्तिम् । ३ धर्मार्थाय गीतम् । ४ गौतमकेशीसंवादतश्च समुत्थितं तु यस्मादिदम् । ५ सूत्रे स्थविराणामात्मागम इति । ॥५॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~21 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-1, ____मूलं [-], नियुक्ति: [४] FFEE नन्यध्ययनेऽप्युक्तम्-“जस्स जेत्तिया सीसा उप्पत्तियाए वेणइयाए कम्मयाए परिणामियाए चउबिहाए बुद्धीए | उबवेया तस्स तेत्तियाई पइण्णगसहस्साई" प्रकीर्णकानि चामूनि तत्कथं जिनदेशितत्वादिन विरुध्यते ?. उच्यते. तथास्थितानामेव जिनादिवचसामिह रन्धत्वेन तद्देशितत्वाधुक्तमिति न विरोधः । बन्ध-आत्मकर्मणोरत्यन्तसंश्लेपस्तस्मिन् , मोक्षः तयोरेवाऽऽत्यन्तिकः पृथग्भावस्तस्मिंश्च कृतानि, कोऽभिप्रायः?-यथा बन्धो भवति यथा च मोक्षस्तथा प्रदर्शकानि, तत्र बन्धे यथा-"आणाअणिहेसकरेति" मोक्षे यथा-"आणाणिहेसकरे"ति. आभ्यां Kा यथाक्रममविनयो विनयश्च प्रदर्श्यते, तत्राविनयो मिथ्यात्वाद्यविनाभूतत्वेन बन्धस्य विनयश्चान्तरपौरुषत्वेन मोक्षस्य कारणमिति तत्त्वतस्तौ यथा भवतस्तदेवोक्तं भवति, मोक्षप्राधान्येऽपि बन्धस्य प्रागुपादानमनादित्वोपदर्शनार्थ, यद्वा 'वंधे मोक्खे यति चशब्द एवकारार्थो भिन्नक्रमच. ततो बन्ध एवं सति यो मोक्षस्तस्मिन कृतानि, अनेनानादिमुक्तमतव्यवच्छेदश्च कृतः, तत्र हि मोक्षशब्दार्थानुपपत्तिः सकलानुष्ठानवैफल्यापत्तिश्च, किमेवं कतिचिदेव ?, नेत्याह-पत्रिंशत्' पत्रिंशत्सङ्ख्यानि, कोऽर्थः-सर्वाणि उत्तराध्ययनानि इति गाथार्थः ॥४॥ इत्थं प्रसङ्गत उक्तरूपं संशयमपाकृत्याध्ययननिक्षेपं विनेयानुग्रहाय तत्पर्यायनिक्षेपातिदेशं चाह १ यस्य चावन्तः शिष्या औत्पत्तिक्या वैनविक्या कर्मजया पारिणामिक्या चतुर्विधया युस्योपपेतास्तस्य तावन्ति प्रकीर्णकसहस्राणि । RR आज्ञाऽनिर्देशकरः । ३ आज्ञानिर्देशकरः । -1-4%-500 JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~22 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], ____मूलं [-], नियुक्ति: [५] उत्तराध्य नाम ठवणज्झयणे दवज्झयणे य भावअज्झयणे । एमेव य अज्झीणे आयज्झवणेविय तहेव ॥ ५॥ अध्ययनम् बृहद्वृत्तिः | व्याख्या-'नाम ठवणज्झयणे'त्ति प्रत्येकमध्ययनशब्दसम्बन्धानामाध्ययनं स्थापनाध्ययनं द्रव्याध्ययनं च-18 स्थ भिन्नक्रमत्वाद् भावाध्ययनं च, तत्र नामस्थापने गतार्थे, द्रव्याध्ययनमागमतो ज्ञातानुपयुक्तः, नोगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरे तव्यतिरिक्तं च पुस्तकादिन्यस्त, भावाध्ययनमागमतो ज्ञातोपयुक्तः, नोआगमतस्तु प्रस्तुताध्ययनान्येव, आगमैकदेशत्वादेषाम् । एवं चाक्षीणमायः क्षपणाऽपि च तथैव, कोऽर्थः ?-अध्ययनवदेतान्यपि नामादिभेद-13/ भिन्नान्येव ज्ञेयानीति गाथार्थः ॥ ५॥ साम्प्रतं नामाध्ययनादीनि त्रीणि प्रसिद्धान्येवेति मन्यमानो नियुक्तिकारो |निरुक्तिद्वारेण नोआगमतो भावाध्ययनं व्याख्यातुमाहअज्झप्पस्साणयणं कम्माणं अवचओ उवचियाणं । अणुवचओ व णवाणं तम्हा अज्झयणमिच्छंति ॥६॥ व्याख्या-'अज्झप्पस्सत्ति सूत्रत्वादध्यात्ममात्मनि, कोऽर्थः !-खस्वभावे, आनीयतेऽनेनेति आनयनं प्रस्तावादात्मनोऽध्ययन, निरुक्तिविधिना चात्माकारनकारलोपः, क़त एतदित्याह-यतः 'कर्मणां' ज्ञानावरणीयादी-11 Kानाम् 'अपचयः' चयापगमोऽभाव इत्यर्थः, 'उपचिताना' प्राग्बद्धानाम् 'अनुपचयश्च अनुपचीयमानताऽनुपादान-1 मितियावत् , 'नवानां' प्रत्यग्राणां, कोऽर्थः ?-प्राग्बद्धानाम्, एतदुपयुक्तस्येति गम्यते, उपसंहारमाह-तस्मात् ।। SEARNAMA JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~23~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-1, ____मूलं [-], नियुक्ति: [६] -% * प्रारबद्धबध्यमानकर्माभावेनाऽऽत्मनः खस्खभावानयनाद्धेतोः अध्ययनम् इच्छन्ति' अभ्युपगच्छन्ति, पूर्वसूरय इति गम्यते, यद्वाऽध्यात्ममिति रूढितो मनः, तच प्रस्तावात् शुभं, तस्याऽऽनयनमध्ययनम् , आनीयते बनेन शुभं चेतः, ४ अस्मिन् उपयुक्तस्य वैराग्यभावात् , शेषं प्राग्वत् , नवरं वैराग्यभावात् कर्मणामिति क्लिष्टानामिति गाथार्थः ॥६॥ व निरुक्त्यन्तरेणैतदेव व्याख्यातुमाहअहिगम्मति व अत्था अणेण अहियं व णयणमिच्छति ।अहियं वसाहु गच्छइ तम्हाअज्झयणमिच्छंति ७ व्याख्या-'अधिगम्यन्ते वा' परिच्छिद्यन्ते वा 'अर्था' जीवादयः अनेनाधिकं वा नयनं-प्रापणमर्थादात्मनि ज्ञानादीनामनेन इच्छन्ति, विद्वांस इति शेषः, 'अधिकम्' अर्गलं शीघ्रतरमितियावत्, 'वा' सर्वत्र विकल्पार्थः, साधु'त्ति साधयति पौरुषेयीभिर्विशिष्टक्रियाभिरपवर्गमिति साधुः 'गच्छति' यात्यर्थान्मुक्तिम् , अनेनेत्यत्रापि योज्यते, यस्मादेवमेवं च ततः किमित्याह-तस्मादध्ययनमिच्छन्ति, निरुक्तविधिनाऽर्थनिर्देशपरत्वाद्वाऽस्य, अयतेरेतेऽधिपूर्वस्याध्ययनम् , इच्छन्तीति चाभिधानं सर्वत्र सूत्रार्थावाधया व्याख्याविकल्पानां पूर्वाचार्यसम्मतत्वेनादुष्टत्वख्यापनार्थमिति गाथार्थः ॥७॥ नामाक्षीणादित्रयं प्रतीतमेवेति रष्टान्तद्वारेण भावाक्षीणमाहजह दीवा दीवसयं पईप्पए सो य दीप्पए दीवो। दीवसमा आयरिया अप्पं च परं च दीवंति ॥८॥ wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~24 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], ____मूलं [-], नियुक्ति: [८] ** उत्तराध्य. व्याख्या-यथा दीपाहीपशतं 'प्रदीप्यते' ज्वलति सोऽपि च दीप्यते दीपो, न पुनरन्यान्यदीपोत्पत्तावपि क्षीयते, अध्ययन बृहद्धृत्तिः द तथा किमित्याह-दीपसमा आचार्या 'दीप्यन्ते' समस्तशास्त्रार्थविनिश्चयेन खयं प्रकाशन्ते 'परं च' शिष्यं 'दीप-|| यन्ति' शास्त्रार्थप्रकाशनशक्तियुक्तं कुर्वन्ति, इह च 'तात्स्थ्यात् तद्यपदेश' इत्याचार्यशब्देन श्रुतज्ञानमेवोकं, भावा॥७॥ क्षीणस्य प्रस्तुतत्वात्तखैव चाक्षयत्वसम्भवादिति गाथार्थः ॥८॥ नामाऽऽयादयस्त्रयः सुज्ञाना इति भावायं व्याचष्टे * * _ 4% भावे पसरथमियरो नाणाई कोहमाइओ कमसो। आउत्ति आगमुत्ति य लाभुत्ति य हुंति एगट्ठा ॥९॥ व्याख्या-भाये' विचार्य इति शेषः, प्रशस्तः मुक्तिपदप्रापकत्वेन 'इतरः' अप्रशस्तो भवनिवन्धनत्वेन, प्रक्रमाहै दायः, किंरूपः पुनरयं द्विविधोऽपीत्याह-'ज्ञानादिः' आदिशब्दाद्दर्शनादिपरिग्रहः, 'कोहमाइओ'त्ति मकारस्था लाक्षणिकत्वात् क्रोधादिका, आदिशब्दान्मानादिपरिग्रहः, 'कमसो'ति आर्षत्वात् क्रमतः, किमुक्तं भवति -प्रशस्तो ज्ञानादिः, अप्रशस्तः क्रोधादिः । इह च ज्ञानादेः क्रोधादेश्च आयत्वमायविषयत्वाद्विषयविषयिणोरभेदोपचारेण आयते तमित्याय इति कर्मसाधनत्वेन वा, ज्ञानादिप्रशस्तभावायहेतुत्वाचाध्ययनमपि भावायः । 'तत्त्वभेदपर्यायेकाख्ये'ति पर्यायकथनमपि व्याख्यानमिति पर्यायानाह-आय इत्यागम इति च लाभ इति च भवन्त्येका ** X ॥ ७॥ T पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: -~-25 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], ____मूलं [-], नियुक्ति: [९] REOS Ta Ta र्थिकाः, शब्दा इति गम्यते, 'इति' प्रत्येक पर्यायखरूपनिर्देशार्थः, 'चः' समुच्चय इति गाथार्थः ॥९॥ नामस्थापनाक्षपणे प्रसिद्ध इति द्रव्यक्षपणामाहपल्लत्थिया अपत्था तत्तो उप्पिट्टणा अपत्थयरी । निप्पीलणा अपत्था तिन्नि अपत्थाइ पुत्तीए ॥१०॥ ___ व्याख्या-पर्यस्तिका' प्रसिद्धा 'अपथ्या' अहिता, 'ततः' इति पर्यस्तिकात उत्प्राबल्येन पिट्टना उत्पिट्टनाउत्पिट्टनकादिना कुटनोस्पिट्टना अपथ्यतरा, 'निष्पीडना' अत्यन्तमावलनात्मिका 'अपथ्या' इति प्रस्तावादपथ्यतमा, सर्वत्र वस्त्रस्येति गम्यते, निगमयितुमाह-त्रीण्यपथ्यानि 'पोत्तीए'त्तिवस्त्रस्य, इह चाल्पाल्पतराल्पतमका-3 लत आभिर्वखद्रव्यं क्षप्यत इति पर्यस्तिकादीनामपथ्यापथ्यतरापथ्यतमत्वं द्रव्यक्षपणत्वं चोक्तम् , अपथ्यानीति च निगमनं सामान्यस्याशेषविशेषसङ्ग्राहकत्वाददुष्टमिति गाथार्थः ॥ १०॥ भावक्षपणामाहअहविहं कम्मरयं पोराणं जं खवेइ जोगेहिं । एयं भावज्झयणं णेयत्वं आणुपुबीए ॥११॥ व्याख्या-'अष्टविधम् ' अष्टप्रकारं, क्रियत इति कर्म-ज्ञानावरणादि, रज इव रजो जीवशुद्धखरूपान्यधात्वकरणेन, इह चोपमावाचकशब्दमन्तरेणापि परार्थप्रयुक्तत्वात् अग्निर्माणवक इतिवदुपमानार्थोऽवगन्तव्यः, कर्मरज इति समस्तं वा पदं, 'पुराणम्' अनेकभवोपात्तत्वेन चिरन्तनं 'यत्' यस्मात् क्षपयति जन्तुः 'योगैः' भावाध्ययन JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~26 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं -], नियुक्ति: [११] C4OSTS उत्तराध्य. बृहद्वत्तिः ॥८॥ * T TA चिन्तनादिशुभव्यापारः, तस्मादिदमेव भावरूपत्वात् क्षपणाहेतुत्वाद्भावक्षपणेत्युच्यते इति प्रक्रमः । प्रकृतमुपसंहर्तु-अध्ययनम् माह-एतद्' इत्युक्तपर्यायाभिधेयं भावाध्ययनं नेतव्यं' प्रापयितव्यम् 'आनुपूया' शिष्यप्रशिष्यपरम्परात्मिकायां, यद्वा-'नेतव्यं' संवेदनविषयतां प्रापणीयमानुपूर्व्या-क्रमेणेति गाथार्थः ॥ ११॥ तदित्थमुत्तराध्ययनानीति व्याख्यातम् , अधुना श्रुतस्कन्धयोनिक्षेपं प्रत्यध्ययनं नामान्य_धिकारांश्च वक्तुमवसर इति तदभिधानाय प्रतिज्ञामाहसुयखंधे निक्खेवं णामाइ चउविहं परूवेउं । णामाणि य अहिगारे अज्झयणाणं पवक्खामि ॥१२॥ । व्याख्या-श्रुतं च स्कन्धथेति समाहारद्वन्द्वस्तस्मिन् निक्षेपं नामादयश्चत्वारो विधा:-प्रकारा यस्य स तथा तं 'प्ररूप्य' प्रज्ञाप्य नामान्यधिकारांश्चाध्ययनानां प्रवक्ष्यामि इति गाथार्थः ॥१३॥ इह च श्रुतस्कन्धनिक्षेपस्थान्यत्र सुप्रपञ्चितत्वात् प्रस्तावज्ञापनायैव श्रुतस्कन्धे निक्षेपं प्ररूप्येति नियुक्तिकृतोतं, न तु प्ररूपयिष्यत इति । स्थानाशून्यार्थ किश्चिदुच्यते-तत्र श्रुतं नामस्थापनात्मकं क्षुण्णं, द्रव्यश्रुतं तु द्विविधम्-आगमनोआगमभेदात्, तत्र यस्य श्रुतमिति पदं शिक्षितादिगुणान्वितं ज्ञातं न च तत्रोपयोगः तस्य आगमतो द्रव्यश्रुतम्, 'अनुपयोगो ॥८॥ द्रव्य मिति वचनात्, नोआगमतस्तु श्रुतपदार्थज्ञशरीरं भूतभविष्यत्पर्याय, तद्वयतिरिक्तं च पुस्तकादिन्यस्तम्। अभिधीयमानं वा, भावश्रुतहेतुतया द्रव्यश्रुतं, तथा चाह-"भूतस्य भाविनो या भावस्य हि कारणं तु यलोके । * * 8 % 4 wwwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~27~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं -], नियुक्ति: [१२] तद् द्रव्यं तत्त्वज्ञैः सचेतनाचेतनं कथितम् ॥१॥" भावश्रुतमप्यागमनोआगमभेदतो द्विधैव, तत्राऽऽगमतस्तज्ज्ञस्तत्र चोपयुक्तः, नोआगमतस्त्वेतान्येव प्रस्तुताध्ययनानि, आगमैकदेशत्वात् क्षायोपशमिकभाववृत्तित्वाचामीषामिति ॥ स्कन्धोऽपि नामस्थापनात्मकः प्रसिद्ध एव, द्रव्यस्कन्धः आगमततज्ज्ञोऽनुपयुक्तः, नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरे , तद्यतिरिक्तो द्रुमस्कन्धादिः, भावस्कन्ध आगमतस्तज्ज्ञस्तत्रोपयुक्तः, नोआगमतः प्रक्रान्ताध्ययनसमूह इत्यलं प्रसङ्गेन ॥ प्रतिज्ञातमनुसरनामान्याह विणयसुयं च परीसह चउरंगिजं असंचयं चेव । अकाममरणं 'नियंठि ओरॅब्भं काविलिंजं च ॥१३॥ णमिपवजे दुमपत्तयं च बहुसुर्यपुजं तहेव हरिएंसाचित्तसभूइ उसुऑरिज सभिक्खुसमाहिठीणं च॥१४॥ पावसमणिजं तह संज॑ईज मियेचारिया नियंठिज। समुद्दपौलिज रहेनेमियं केसिगोय मिजं च ॥१५॥ समिईओ जन्नईज सामायारी तहा खलंकिजं । मुक्खगैइ अप्पमाओ तव चरण पमायठाणं च ॥१६॥ कम्मप्पयडी लेसी बोद्धवे खलु णगारमग्गे य । जीवाजीवविभत्ति छत्तीसं उत्तरज्झयणा ॥ १७ ॥ ******%25*5050*523 JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~28~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ९ ॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [ - ], निर्युक्तिः [१३-१७] व्याख्या - निगदसिद्धाः | नवरमाभिरध्ययन विशेषनामान्युक्तानि, एतन्निरुक्त्यादि च नामनिष्पन्न निक्षेप प्रस्ताव एवाभिधास्यते ॥ अधिकारानाह पढमे विणओ बीए परिसहा दुलहंगया तइए । अहिगारो य चउत्थे होइ पमायप्पमापत्ति ॥ १८ ॥ | मरणविभत्ती पुण पंचमम्मि विजा चरणं च छटुअज्झयणे । रसगेहिपरिचाओ सत्तमे अट्ठमि अलोभे ॥ १९ ॥ निक्कंपया य नवमे दसमे अणुसासणोवमा भणिया । इक्कारसमे पूया तवरिद्धी चेव बारसमे ॥ २० ॥ तेरसमे अ नियाणं अनियाणं चेव होइ चउदसमे । भिक्खुगुणा पन्नरसे सोलसमे बंभगुत्तीओ ॥२१॥ पावाण वज्जणा खलु सत्तरसे भोगिड्डिवजहणद्वारे । एगुणि अप्परिकम्मे अणाहया चेव वीसइमे ॥२२॥ चरिया य विचित्ता इक्कवीसि बावीसिमे थिरं चरणं । तेवीसइमे धम्मो चउवीसइमे य समिइओ ॥ २३ ॥ बंभगुण पन्नवीसे सामायारी य होइ छबीसे । सत्तावीसे असढया अट्ठावीसे य मुक्खगई ॥ २४ ॥ एगुणतीस आवस्सगप्पमाओ तवो अ होइ तीसइमे । चरणं च इकतीसे बत्तीसि पमायठाणाई ॥२५॥ Education intimatio For Fast Use Only अध्ययनम् ~29~ ॥ ९ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ], निर्युक्तिः [१८-२६] अध्ययनं [-], तेत्तीसइमे कम्मं चउतीसइमे य हुंति लेसाओ । भिक्खुगुणा पणती से जीवाजीवा य छत्तीसे ॥२६॥ व्याख्या——आसामर्थः सुखावगम एव । नवरं विनयमूलोऽयं धर्मः, यत आगमः - "मूलोउ संघप्पभवो दुमस्स, खंधाउ पच्छा समुविंति साहा । साहप्पसाहा विरुहंति पत्ता, ततो पुष्पं च फलं रसो य ॥ १ ॥ एवं धम्मस्स विणओ मूलं परमो से मोक्खो । जेण कित्तिं सुयं सिग्धं, णीसेसं चाभिगच्छई || २ ||" इत्यतः प्रथमाध्ययने विनयोऽधिकृतः, विनयवतश्च तेषु तेषु गुरुनियोगेषु प्रवर्तमानस्य कदाचित् परीषहा उत्पद्येरन् ते च सम्यक् सोढव्या इति द्वितीयाध्ययने परीषहा इत्यादि क्रमप्रयोजनमभ्यूयम्, अध्ययनसम्बन्धाभिधानप्रस्तावे चाभिधास्यामः । उपसंहरन्नाह उत्तरज्झयणाणेसो पिंडत्थो वण्णिओ समासेणं । इत्तो इक्किकं पुण अज्झयणं कित्तइस्लामि ॥ २७ ॥ व्याख्या-- उत्तराध्ययनानाम् 'एषः' अनन्तराभिहितखरूपः 'पिण्डार्थः' समुदायार्थः 'वर्णितः' उक्तः 'समासेन' सङ्क्षेपेण, 'इतः' पिण्डार्थवर्णनाद्, अनन्तरमिति गम्यते, एकैकं 'पुनः' विशेषणे अध्ययनं 'कीर्तयि १ मूलात् स्कन्धप्रभवो मस्य, स्कन्धात् पञ्चात्समुपयन्ति शाखा: । शाखाभ्यः प्रशाखाः (ताभ्यः ) विरोहन्ति पत्राणि ततस्तु पुष्पं च फलं रसश्च ॥ १ ॥ एवं धर्मस्य विनयो मूलं परमः स मोक्षः। येन कीर्ति श्रुतं शीघ्रं निःश्रेयसं चाभिगच्छति ॥ २ ॥ रसि Education intimational For Fast Use Only www.cbrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~30~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1, नियुक्ति: [२७] बृहद्वृत्तिः उत्तराध्य प्यामि' व्याख्याद्वारेण संशब्दयिष्यामीति गाथार्थः ॥ २७॥ तत्र चाद्यं विनयश्रुतमिति तस्य कीर्तनावसरः, न 18 च तद् उपक्रमाद्यनुयोगद्वारतद्भेदनिरुक्तिक्रमप्रयोजनप्रतिपादनमन्तरेण शक्यं कीर्तयितुमिति मन्वानः प्रस्तुता ध्ययनस्यानुयोगविधानक्रममर्थाधिकारं चाहतत्थज्झयणं पढमं विणयसुयं तस्सुवकमाईणि । दाराणि पन्नवेउं अहिगारो इत्थ विणएणं ॥ २८ ॥ ___ व्याख्या-'तत्र' एतेष्यध्ययनेषु मध्ये अध्ययन 'प्रथमम्' आद्यं विनयाभिधानकं श्रुतं विनयश्रुतं मध्यपदलोपी समासः, 'तस्य' इति विनयश्रुतस्य उपक्रमादीनि द्वाराणि 'प्ररूप्य' तद्भेदनिरुक्तिक्रमप्रयोजनप्रतिपादनद्वारेण प्रज्ञाप्य, एतदनुयोगः कार्य इति शेषः, अधिकारश्चात्र विनयेन, तस्खेहानेकधाऽभिधानात् । आह–'पढमे| विणओ' इत्यनेनैवोक्तत्वात् पुनरुक्तमेतद्, उच्यते, शास्त्रपिण्डार्थविषयं तत्, एतच प्रस्तुतैकाध्ययनगोचरमिति न पौनरुक्त्यमिति गाथार्थः ॥ २८ ॥ अत्रापि 'प्ररूप्येत्सवसरज्ञापनार्थमेव नियुक्तिकृतोक्तं, न तु प्ररूपयिष्यत इति, अनुयोगद्वारेपूक्तत्यात्, तदुक्तानुसारेण किश्चिदुच्यते-इह चत्वार्यनुयोगद्वाराणि-उपक्रमो निक्षेपोऽनुगमो || नियति, तद्भेदा यथाक्रमं द्वौ प्रयो द्वौ द्वौ चेति, निरुक्तिश्चैवम-उपक्रमणं दूरस्थस्य सतो वस्तुनस्तैस्तैः प्रकारैः समीपानयनमुपक्रमः, नियतं निश्चितं वा नामादिसम्भवत्पक्षरचनात्मक क्षेपणं-न्यसनं निक्षेपः, अनुरूपं सूत्रार्था पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: अथ अध्ययनं - १ “विनयश्रुत" आरभ्यते ~31 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1, नियुक्ति: [२८] FFEE वाघया तदनुगुणं गमनं-संहितादिक्रमेण व्याख्यातुः प्रवर्तनमनुगमो, नयनम्-अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनो नियतकधर्मावलम्बेन प्रतीतो प्रापणं नयः । क्रमप्रयोजनं च-नानुपादिभिासदेशमनानीतं शास्त्रं निक्षेप्तुं शक्यं, न चौघनिष्पन्नादिभिर्निक्षेपरनिक्षिप्तमनुगन्तुं, नापि सूत्राद्यनुगमेनाननुगतं नयैर्विचारयितुमित्ययमेवैषां क्रमः, तथा च पूज्याः-"दारेकमोऽयमेव उ निक्खिप्पर जेण णासमीवत्थं । अणुगम्मइ णाणत्थं णाणुगमो णयमयविहणो॥१॥" अत्र सङ्ग्रहश्लोका:-'उपक्रमोऽथ निक्षेपोऽनुगमश्च नयाः क्रमात् । द्वाराण्येतानि भिद्यन्ते, द्वेधा प्रेधा द्विधा द्विधा ॥१॥ उपक्रम उपक्रान्तिर्दूरस्थनिकटक्रिया । निक्षेपणं तु निक्षेपो, नामादिन्यसनात्मकः॥२॥ सूत्रस्थानुगतिश्चित्राऽनुगमो नयनं नयः । अनन्तधर्मणोऽर्थस्यैकांशेनेति निरुक्तयः ॥३॥ न्यासदेशागतं शारखं, हिन्यस्यते न्यस्तमेव तत् । अन्वीयतेऽन्विते नीतिस्तेनैतेपामयं क्रमः ॥४॥' इत्थं विनेयस्मरणार्थ भेदनिरुक्तिक्रम-IN प्रयोजनभाजि द्वाराणि वर्णितानि, तद्वर्णनाच फलादीनि याच्यानीति प्रतिज्ञातं निर्वाहितम् । सम्प्रसेभिरित्थं ||| प्ररूपितरेषामेव भेदप्रपञ्चनपुरस्सरं प्रक्रान्ताध्ययनं विचार्यते, तत्रोपक्रमो द्विधा--लौकिको लोकोत्तरश्च, तत्राद्यो . नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदतः पोढा, तत्र च नामतश्चिरतरकालभाविनः सन्निहितकाल एव करणं नामोपक्रमः,M एवं स्थापनोपक्रमोऽपि, द्रव्योपक्रमः सचित्ताचित्तमिश्रभेदात् त्रिविधः, प्रत्येकोऽपि परिकर्मनाशभेदतो द्विविधः, द्वारक्रमोऽयमेव तु निक्षिप्यते वेन नासमीपस्थम् । अनुगम्यते नान्यस्तं नानुगमो नयमतविहीनः ॥१॥२ सोऽध्ये ककः परिकर्मविना प्र. ACTORAGNIK JABERatinintimattama पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~32 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ११ ॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-], निर्युक्तिः [२८] अध्ययनं [१], उक्तं च भाष्यकारेण - " णामाई उम्मेओ उवकमो दबओ सचित्ताई। तिविहो दुविहो य पुणो परिक्कमे वत्थुनासे य ॥ १ ॥ " तत्र परिकर्मणि सचित्तद्रव्योपक्रमोऽवस्थितस्यैव द्विपदचतुष्पदापदरूपस्य नरतुरगतरुप्रभृतिसचित्तवस्तुनोऽविवक्षिताचित्तकेशाद्यवयवस्य यथाक्रमं रसायन शिक्षायुर्वेदादिवशतः तथाविधकर्मोदयादेः कालान्तरभाविनो वयःस्थैर्यविनयनप्रसूनोद्गमादिपरिणतिविशेषस्यापादनम् अचित्तद्रव्योपक्रमः कनकादेः कटककुण्डलादिक्रिया, मिश्रद्रव्योपक्रमः सचित्तस्यैव द्विपदादेः अचित्तकेशादिसहितस्य स्नानादिसंस्कारकरणम्, एवं विनाशेऽपि द्रव्योपक्रमस्त्रिधा - तत्र सचित्तद्रव्योपक्रमोऽवस्थितस्यैव सचित्तद्रव्यस्याविवक्षितपर्यायान्तरोत्पत्ति प्रत्यभिज्ञा निवर्तकम| सिपरश्वादितः प्राक्तनपर्यायापनयनम्, अचित्तद्रव्योपक्रम एवमेवाचित्तस्य रजतादेः पारदादिसम्पर्कतः खरूपादिभ्रंशनं, मिश्रद्रव्योपक्रमोऽपि तथैव शङ्खशृङ्खलाद्यलङ्कृतद्विरदादेः सचेतनस्थ मुद्गरादिभिरभिघातः । एवं क्षेत्राद्युपक्रमा अपि परिकर्मविनाशभेदतो द्विभेदाः, तत्र यद्यपि क्षेत्रं नित्यममूर्त च, ततो न तस्य परिकर्मविनाशौ स्तस्तथापि | तदाधेयस्य जलादेर्नावादिहेतुतस्तौ सम्भवत इत्युपचारतस्तदुपक्रमः, उक्तं च- "खिंत्तमरूवं णिचं ण तस्स परिक १ नामादिः षद्भेद उपक्रमो द्रव्यतः सचित्तादिः । त्रिविधो द्विविधश्च पुनः परिकर्मणि वस्तुनाशे च ॥ १ ॥ २ क्षेत्रमरूपं नित्यं न तस्य परिकर्म न च विनाशः | आधेयगतवशेनैव करणविनाशोपचारोऽत्र ॥ १ ॥ नावोपक्रमणं हलकुलिकादिभिर्वाऽपि क्षेत्रस्य । संमार्जनभूमिकर्म च पथितटाकादीनां च ॥ २ ॥ Education intimatio For Fasten अध्ययनम् १ ~33~ ॥ ११ ॥ ww पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-], नियुक्ति: [२८] 6434564 TA |म्मणं ण व विणासो । आहेयगयवसेण उ करणविणासोवयारोऽथ ॥१॥ णावाए उवक्कमणं हलकुलियाईहि वावि खेत्तस्स । संमजभूमिकम्मे य पंथतलागाइयाणं च ॥२॥" कालो वर्तनादिरूपत्वेन द्रव्यपर्यायात्मक एव, द्रव्यपर्यायौ च नरसिंहवदन्योऽन्यसंवलितो, ततस्तद्वारेण तस्य गुणविशेषाऽऽधानविनाशावुपक्रमशब्दवाच्यौ, आह च-"जं वत्र्तणादिरूवो कालो दवाण घेव पज्जाओ। तो तकरणविणासे कीरइ कालोवयारो उ ॥१॥" आह-मनुष्यक्षेत्रे सूर्य क्रियान्यनयो वर्तनादिद्रव्यपरिणतिनिरपेक्षोऽद्धाकालाख्यः कालोऽस्ति, यथोक्तम्-"सूरंकि-12 रियाविसिट्टो गोदोहादिकिरियासु निरवेक्खो । अद्धाकालो भण्णइ समयकखेत्तंमि समयाई ॥१॥" ति, तत्र का वार्ता ?, उच्यते, तस्थापि शङ्कण्ठायादिना यथावत्परिज्ञानत ऋक्षादिचाररतिपाततश्चामूतत्वेऽपि परिकर्म-1 विनाशसम्भवादुपक्रमः, तथा च पूज्या:-"छायाइ नालियाइ व परिकम्मं से जहत्वविन्नाणं । रिक्खाईचारेहि य तस्स विणासो विवजासो ॥१॥" भावोपक्रमस्तु यद्यपि भावस्य पर्यायत्वात् तस्य च द्रव्यात् कथञ्चिदनन्यत्वातदुपक्रमाभिधानत उक्त एच, तथापि जीवद्रव्यपर्यायोऽभिप्रायाख्यो भावशब्दाभिधेयोऽस्ति, यदुक्तम्-"भावा १वर्तमाना० प्र.२ यर्सनाविरूपः कालो व्याणामेव पर्यायः । ततस्तत्करणविनाशयोः क्रियते कालोपचारोऽत्र ।। २ सूरक्रियाविशिष्टो| गोदोहादिक्रियासु निरपेक्षः। अद्धाकालो भण्यते समयक्षेत्रे समयादिः ॥ १ ॥ ३ डायया नालिकया वा परिकर्म तस्य यथार्थविज्ञानम् ।। ६ कक्षादिचारैश्च तस्य विनाशो विपर्यासः ॥१॥ T पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~34 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1, नियुक्ति: [२८] I उत्तराध्य. 18/ भिख्याः पञ्च खरूपसत्तात्मयोन्यभिप्रायाः" इति, ततस्तस्य परचित्तवर्तिनः संवेदनाविषयतया विप्रकर्षवत इशिता-13 अध्ययनम् कारादिना परिज्ञानतः सन्निहितकरणं ज्ञातस्स या तथाऽननुगुणानुगुणचित्रचेष्टातः कुपितप्रसन्नतापादनं भावोबृहद्धृत्तिः पक्रम एव, स चावश्यमिहाभिधेयः, तदन्तर्गतत्वात् गुरुभावोपक्रमस्थ, तस्य च सकलानुयोगप्रथमानत्वात् , ॥१२॥ उक्तंच-"भण्णइ वक्वाणगं गुरुचित्तोषकमो पढम" ति, शेषोपक्रमाणामपि चैतदकत्वात् , तथा चाह-"जुर्सी गुरुमयगहणं को सेसोवकमोवयारोऽत्थ ? । गुरुचित्तपसायत्थं तेऽपि जहाजोगमाजोजा ॥१॥ परिकम्मणासणाओ देसे काले य जे जहा जोगा। तो ते दवाईणं कज्जाऽऽहाराइकजेसुं॥२॥” तत एतदभिधानाय द्रव्योपक्रमाद्भावोपक्रमः पृथगुच्यते, स च द्विविधः-प्रशस्ताप्रशस्तभेदात् , तत्राप्रशस्तो ब्राह्मणीगणिकाऽमात्यदृष्टान्ततोऽवसेयः, प्रशस्तम शिष्यस्य श्रुतादिहेतोगुरुभावोन्नयन, यत आह-"सीसो गुरुणो भावं जमुषकमए सुहं पसत्थमणो । सहियत्थं स पसत्थो इह भावोवकमोऽहिगतो ॥१॥” इत्युक्तो लौकिक उपक्रमः, शास्त्रीयस्त्वानुपूर्वीनामप्रमाणवक्तव्यतार्थाधिकारसमवतारात्मकः, तत्रानुपूर्वी नामादिदशप्रकारा अन्यत्र प्रपञ्चत उक्ता, इह पुनरुत्कीनगण-15 १ भण्यते व्याख्यानाङ्गं गुरुचित्तोपक्रमः प्रथमम् । २ युक्तं गुरुमतमहणं कः शेषोपक्रमोपचारोऽत्र । गुरुचित्तप्रसादाय तेऽपि यथायोगमायोग्याः ॥ १॥ परिकर्मनाशनाभ्यां देशे काले च ये यथा योग्याः । ततस्ते द्रव्यादीनां कार्या आहारादिकार्येषु ॥ २॥ ३ शिष्यो गुरोवं यदुपक्रमते शुभं प्रशस्तमनाः । खहितार्थ स प्रशस्त इह भावोपक्रमोऽधिकृतः ।।१।। T P ॥१२॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~35 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1, नियुक्ति: [२८] नात्मिकया तयाऽधिकार इति सैव भण्यते-तत्रोकीर्तनं विनयश्रुतं परीपहाध्ययनं चतुरङ्गीयमित्यादि संशब्दनं, |गणनं सङ्ख्यानं, तब पूर्वानुपूर्वीपश्चानुपूर्वीअनानुपूर्वीभेदतस्विविध, तत्र पूर्वानुपूळ गण्यमानमिदमध्ययनं प्रथम, पश्चानुपूर्व्या षटत्रिंशत्तमम् , अनानुपूर्व्या त्वस्यामेबैकाद्यकोत्तरपत्रिंशद्गच्छगतायां श्रेण्यामन्योऽन्याभ्यासतो द्विरूपो नसङ्ख्याभेदं भवति, उक्तं च-"एकाद्या गच्छपर्यन्ताः, परस्परसमाहताः । राशयस्त द्धि विज्ञेयं, विकल्पगणिते सफलम् ॥१॥" इह चासम्मोहाय षट्पदाङ्गीकारतः प्रस्तारानयनोपाय उच्यते-तत्र चैकादीनि षडन्तानि षट् पदानि ६ स्थाप्यन्ते, तानि चान्योऽन्यं गुण्यन्ते, ततश्च जातानि सप्त शतानि विंशत्युत्तराणि, तेषां चान्त्येन पदेन भागहारः, तत्र लब्धं विंशत्युत्तरं शतं १२०, इयन्तः षष्ठपडी पट्दा न्यस्यन्ते, तदधस्तावन्त एव क्रमेण पञ्चकचतुष्ककत्रिक-II द्विकककाः स्थाप्याः, इत्थं जातानि षष्ठपती सप्त शतानि विंशत्युत्तराणि । ततो विंशत्युत्तरशतस्य पश्चकेन । भागहारः, तत्र च लब्धा चतुर्विंशतिः २४, तावत्सयाः पञ्चमपको क्रमेण पञ्चकचतुष्कत्रिकद्विकैकका न्यस्याः, जातं विंशत्युत्तरं शतं, तस्य चाधस्तादतनपतिस्थमङ्कमपहाय यथामहत्सङ्ख्यमकविन्यासः, तत्राग्रतनपतिस्थः पञ्चकस्तत्परित्यागतश्च सर्ववृहत्सङ्ख्यः षट्कश्चतुर्विंशतिवारानधः स्थाप्यते, ततखिकापेक्षया चतुष्को द्विकापेक्षया चत्रिक एककापेक्षया च द्विको बृहत्सङ्ख्यः तत एककश्च तावत एव वारान् न्यसनीयः, जातं पुनर्विशत्युत्तरं शतम् , एवमतनपतिस्थचतुष्कत्रिकद्विकैकपरिहारतस्तथैव तावन्नेयं यावत्पश्चमपत्रावपि पूर्णानि सस शतानि विंशत्युत्तराणि ||| पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~36 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-], नियुक्ति: [२८] अध्ययनम् * * * T TA उत्तराध्य. ततश्चतुर्विशतेश्चतुष्केण भागहारः, तत्र लब्धाः पद ६, ततश्चतुर्थपतौ तावन्त एवाधोऽधश्चतुष्कत्रिकद्विकैककाः स्था- बृहद्वृत्तिः प्याः, यावज्जाता चतुर्विंशतिः, ततश्चातनपतिस्थाङ्कपरिहारादिप्रागुक्तयुक्तित एव पतिः पूरणीया । भूयः षकस्य त्रिकेण भागहारः, ततश्च लब्धो द्विकः, ततस्तृतीयपसी द्वौ त्रिको पुनौवेव द्विको भूय एकको च द्वावधः स्थापनीयौ, ॥१३॥ अधस्ताच्च पुरःस्थिताकत्यागतो बृहत्सङ्ख्याङ्कन्यासतश्च विंशत्युत्तरसप्तशतप्रमाणेच पतिः पूरणीया। पड्भागहारलब्ध स द्विकस्य विभजने लब्ध एकः, ततो द्वितीयपसी द्विक एककश्चैको विरचनीयः, तदधश्च पुरोदितपुरस्थाङ्कपरिहारा|दिन्यायतस्तावत्सङ्ख्यैवं द्वितीयपतिः कार्या। प्रथमपतिस्तु पुरस्थाङ्कपरिहारतः पूरणीया। उक्त च-"गणितेऽन्त्यविभक्ते तु, लब्धं शेषैविभाजयेत् । आदावन्ते च तत्स्थाप्यं, विकल्पगणिते क्रमात् ॥१॥" इह च परस्परगुणनागतराशिर्गणितमुच्यते, शेषास्तु षट्कापेक्षया पञ्चकादयः, 'आदा विति च षष्ठपङ्की, 'अन्त' इति च पञ्चमादिपताविति। उक्ताऽऽMनुपूर्वी, सम्प्रति नाम, तत्र नमति-ज्ञानरूपादिपर्यायभेदानुसारतो जीवपरमाण्यादिवस्तुप्रतिपादकतया प्रहीभवतीति | नाम, तथा चाह-"ज बत्थुणोऽभिहाणं पजवभेयाणुसारितं नाम । पइभेयं जं णमए पइभेयं जाइ जं भणियं ॥१॥" तचैकनामादि दशनामान्तम् , इह तु षड्विधनानौदयिकादिषड्भावरूपेणाधिकारः, तदन्तर्भूतक्षायोपशमिकभावे श्रुतज्ञानात्मकत्वेन प्रस्तुताध्ययनस्यावतारात्, आह च-"छबिहणामे भाव खओवसमिए सुयं समोयरह । जं सुख१ यद्वस्तुनोऽभिधानं पर्यायभेदानुसारि तन्नाम । प्रतिभेदं यन्नमति प्रतिभेदं याति यद्भणितम् ॥१॥२ पडिधनानि भावे क्षायोपशमिके % % 4 |॥ १३ ॥ wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~37 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1, नियुक्ति: [२८] Mणाणावरणक्योषसमज तयं सर्व ॥१॥" प्रमीयते-परिच्छियतेऽनेनेति प्रमाणं, तच द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाचतुर्विध, तत्रास्य क्षायोपशमिकभाषरूपत्वेन भावप्रमाणेऽवतारः, यत आह–“दवाइ चउम्भेयं पमीयए जेण तं पमाणति । इणमझयणं भावोत्ति भावमाणे समोयरइ ॥१॥" भावप्रमाणं च गुणनयसझयाभेदतनिधा, तत्रास्य गुणप्रमाण सञ्जयाप्रमाणयोरेवावतारः, नयप्रमाणे तु यद्यपि श्रुतकेवलिनोक्तम्-अहिगारो तिहि उ ओसण्णं ति, तथा 'थि दणएहि विहूणं सुत्तं अत्थो व जिणमए किंचि । आसज उ सोयारं गए णयविसारओ चूया ॥१॥ तथापि सम्प्रति तथाविधनयविचारणाव्यवच्छेदतोऽनवतार एव, तथा च तेनैव भगवतोक्तम्-"मूढनइयं सुयं कोलियं तु ण णया समोयरंति इहं । अपहुत्ते समोयारो नत्थि पहुत्ते समोयारो॥ १ ॥” तथा-"जावंति अज्जवयरा अपहुत्तं कालियाणुओगस्स । तेणारेण पहुत्तं कालियसुयदिट्ठिवाए य ॥२॥" महामतिनाऽप्युक्तं-'मूढणयं तु न संपद णयप्पमाणेश्रुतं समवतरति । यत् श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमजं तकत् सर्वम् ॥ १॥ १ द्रव्यादिचतुर्भेदं प्रमीयते येन तत्प्रमाणमिति । इदमध्ययनं भाव इति भावमाने समवतरति ॥ १ ॥२ अधिकारथिमिस्तु उत्सन्नमिति । ३ नास्ति नयैविहीन सूत्रमर्थो वा जिनमते किश्चित् । आसाथ तु मोतारं नयान नयविशारदो घूयात् ॥ १॥ ४ मूढनविकं श्रुतं कालिकं तु न नयाः समवतरन्तीह । अपृथक्त्वे (अनुयोगानां ) समवतारः || नास्ति पृथक्त्वे समवतारः ॥शा यावदार्यवा अपृथक्त्वं कालिकानुयोगस्य । ततोऽर्वाक् पृथक्त्वं कालिकथुते दृष्टिवादे च । ५ मूढनयं तु न | | सम्प्रति नयप्रमाणेऽवतारस्तस्व. CA wwwanmitrary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~38~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ १४ ॥ Education intam [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) निर्युक्ति: [२८] अध्ययनं [१], मूलं [-], ऽवयारो से"। गुणप्रमाणं तु द्विधा - जीवगुणप्रमाणमजीवगुणप्रमाणं च तत्रास्य जीवोपयोगरूपत्वाज्जीवगुणप्रमाणेऽवतारः, तस्मिन्नपि ज्ञानदर्शनचारित्रभेदतख्यात्मकेऽस्य ज्ञानरूपतया ज्ञानप्रमाणे, तत्रापि प्रत्यक्षानुमानोपमानाऽऽगमात्मके प्रकृताध्ययनत्याप्तोपदेशरूपतयाऽऽगमप्रमाणे, तत्रापि लौकिकलोकोत्तरभेदे परमगुरुप्रणीतत्वेन लोकोत्तरे सूत्रार्थोभयात्मनि, तथा चाह - " जीवाणण्णत्तणओ जीवगुणेणेह भावओ नाणे । लोउत्तरसुत्तत्योभयागमे तस्स भाषाओ ॥ १ ॥” तत्राप्यात्मानन्तरपरम्परागमभेदतस्त्रिविधे अर्थतस्तीर्थकरगणधरतदन्तेवासिनः सूत्रतस्तु स्थविरत च्छिव्यतत्प्रशिष्यानपेक्ष्य यथाक्रममस्यात्मानन्तरपरम्परागमेष्ववतारः, सङ्ख्याप्रमाणमनुयोगद्वारादिषु प्रपञ्चितमिति तत एवावधारणीयं तत्र चास्य परिमाणसङ्ख्यायामवतारः, तत्रापि कालिकश्रुतदृष्टिवादश्रुतपरिमाणभेदतो द्विभेदायां | कालिकश्रुतपरिमाणसङ्ख्यायां दिवा रात्रौ च प्रथमपश्चिमपौरुष्योरेवैतत्पाठ नियमात् तत्रापि शब्दापेक्षया सङ्ख्याक्षरपादश्लोकाद्यात्मकतया सङ्ख्यातपरिमाणात्मिकाय पर्यायापेक्षया त्वनन्तपरिमाणात्मिकायाम्, अनन्तगमपर्यायत्वादागमस्य, तथा चाह - "अनंता गमा अनंता पज्जवा" इत्यादि । वक्तव्यता- पदार्थविचारः, सा च खपरोभयसमयभेदतस्त्रिधा, तत्र खसमयः - अर्हन्मतानुसारिशास्त्रात्मकः, परसमयः - कपिलाद्यभिप्रायानुवर्तिग्रन्थस्वरूपः, उभय समय स्तूभयमतानुगतशास्त्रस्वभावः, तत्रास्य स्वसमयवक्तव्यतायामेवावतारः, खसमयपदार्थानामेवात्र वर्णनात्, १ जीवानन्यत्वाज्जीवगुणेनेह भावतो ज्ञाने । लोकोत्तरसूत्रार्थोभयात्मके तस्य भावात् । १ । २ अनन्ता गमा अनन्ताः पर्यवाः For Patenty अध्ययनम् १ ~39~ ॥ १४ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) निर्युक्तिः [२८] अध्ययनं [१], मूलं [-], यत्रापि परोभयसमयपदार्थवर्णनं तत्रापि स्वसमयवक्तव्यतैव, परोभयसमययोरपि सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतत्वेन खसमयत्वात् अत एव सर्वाध्ययनानामपि स्वसमयवक्तव्यतायामेवावतारः, तदुक्तम्- "परसंमओ उभयं वा सम्मद्दिहिस्स ससमओ जेणं । तो सचज्झयणाएं ससमयवत्तवनिययाई ॥ १ ॥" ति । अर्थाधिकारः 'पढमे विणओ' इत्यनेन स्वत एव निर्युक्तिकृताऽभिहित इति नोच्यते । इह च वक्तव्यता प्रतिसूत्राभिधेयार्थविषया, अर्थाधिकारस्तु 'अहिगारो इत्थ विणएण' मित्यनेनैवाभिहितः । समवतारस्त्वानुपूर्व्यादिषु लाघवार्थं यथासम्भवमुक्त एव इति न पुनरुच्यते, उक्तं च-"अहुणा य समोयारो जेण समोयारियं पइद्दारं । विषयसुयं सोऽणुगतो लाघवओ ण उण बचेत्ति ॥ १ ॥ निक्षेपत्रिधा ओघनिष्पन्नो नामनिष्पन्नः सूत्रालापकनिष्पन्नश्च, आह च- "भण्णेह घेप्पर य सुहं णिक्षपयाणुसारओ सत्यं । ओहो नामं सुतं निक्खेयचं तओऽवस्सं ॥ १ ॥" ( ओघः) अध्ययनादि सामान्यनाम, आह च| ओहो जं सामन्नं सुयाभिहाणं चउविहं तं च । अज्झयणं अज्झीणं आओ झवणा य पत्तेयं ॥ १ ॥ णामादि चउरभेयं १ परसमय उभयं वा सम्यग्दृष्टेः स्वसमयो येन । ततः सर्वाण्यध्ययनानि स्वसमयवक्तव्यवानियतानि ॥ १ ॥ २ अधुना च समवतारो | येन समजतारितं प्रतिद्वारम् । विनयश्रुतं सोऽनुगतो लाघवतो न पुनर्वाच्य इति ॥ १॥ ३ भण्वते गृह्यते च सुखं निक्षेपपदानुसारतः शास्त्रम् । ओघो नाम सूत्रं निक्षेप्तव्यं ततोऽवश्यम् ॥ ३ ॥ ४ ओघो यत् सामान्यं श्रुताभिधानं चतुर्विधं तच्च । अध्ययनमक्षीणमायः क्षपणा च प्रत्येकम् ॥ ३० ॥ नामादि चतुर्भेदं वर्णयित्वा श्रुतानुसारेण । विनयश्वमायोज्यं चतुर्ष्वपि क्रमेण भावेषु ॥ ३१ ॥ येन शुभात्माध्ययनम For Final Pen www.ncbrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~40~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1, नियुक्ति: [२८] अध्ययनम् उत्तराध्य. वण्णेऊणं सुयाणुसारेणं । विणयसुर्य आउजं चउसुंपि कमेण भावसुं ॥२॥ जेण सुहप्पज्झयणं अज्झप्पाणयणमहिय बृहद्वृत्तिः यणं वा । वोहस्स संजमस्स य मोक्खस्स व तो तमज्झयणं ॥३॥ अक्खीणं दिजंतं अबोच्छित्तिणयतो अलोगो छ। आओ गाणाईणं झवणा पावाण कम्माणं ॥ ४॥ प्रकटार्थी एव, नवरं येन हेतुना शुभात्माध्ययनं शुभस्ख-पुण्यस्या॥१५॥ मन्याधिक्येनायन-गमनं ततो भवति, पठ्यते वा-'सुहजझप्पयणं ति, तत्र शुभं-सङ्क्लेशविरहितमध्यात्म-मनः तत्रायनमर्यादात्मनः ततः, (अध्यात्मस्थानयनं प्रापणमात्मनि ततो भवति) तथाऽधिकं नयन-प्रकर्षवत्तापणं, कस्य ?-बोधस्य-तत्त्वावगमस्थ संयमस्य वा-पृथिव्यादिसंरक्षणात्मकस्य मोक्षस्य वा-कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणस्य ततो भवति, आत्मनीति गम्यते, 'ततः तस्माद्धेतोः, प्राग्वदध्ययनमुच्यत इति शेषः, तथा 'अव्यवच्छित्तिनयतः' अव्यवच्छित्तिनयमाश्रित्य द्रव्यास्तिकनयाभिप्रायेणेत्यर्थः, 'अलोकवत्' इत्युपलक्षणत्वादलोकाकाशवदिति । नामनिष्पन्नट्रानिक्षेपेऽस्य विनयश्रुतमिति द्विपदं नाम, ततो विनयस्य श्रुतस्य च निक्षेपः शास्त्रान्तर उक्तोऽप्यवश्यमिह वक्तव्यः । तत्र च विनयनिक्षेपो बहुवक्तव्य इति तमतिदेष्टुं श्रुतनिक्षेपस्तु न तथेति तमभिधातुमाहविणओ पुबुदिट्टो सुयस्स चउक्कओ उ निक्खेवो। दवसुय निण्हगाइ भावसुय सुए उ उवउत्तो ॥२९॥ ध्यात्मानयनमधिकनवनं वा । बोधस्य संयमस्य च मोक्षस्य वा ततस्तध्ययनम् ।। ३२ ।। अक्षीण दीयमानमव्यवच्छित्तिनयतोऽलोक ४ है. इव । आयो हानादीनां अपणा पापानां कर्मणाम् ॥ ३३ ॥ एताश्चतस्रोऽपि आवश्यकनियुक्तिगाथाः सोपयोगतरा इति च संस्कृता ज्ञेयाः ४ T पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~41 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1, नियुक्ति: [२९] व्याख्या-विनीयते-अपनीयतेऽनेन कर्मेति विनयः, सच पूर्व-दशवैकालिकविनयसमाधिनामाध्ययने उद्दिष्ट18 उक्तः पूर्वोद्दिष्टः, स्थानाशून्याथै तदुक्तमेव किश्चिदुच्यते-'विणयस्स य सुत्तस्स य णिक्खेबो होइ दुण्ह य चउको। दविणयम्मि तिणिसो सुवण्णमिति एवमातीते ॥१॥ लोकोवयारविणओ अत्थनिमित्तं च कामहेउं च । भयविणयप्रमोक्खविणओ विणओ खलु पंचहा ओ ॥२॥ अब्भुट्ठाणं अंजलि आसणदाणं च अतिहिपूया य । लोगोवयार विणो देवयपूया य विभवेणं ॥३॥ अब्भासवत्तिछंदाणुवत्तणा देसकालदाणं च । अन्भुट्ठाणं अंजलि आसणदाणं च। अत्थकए ॥en एमेव कामविणओ भए य यच आणुपुषीए । मोक्खंमिवि पंचविहो परूवणा तस्सिमा होइ ॥५॥ दसणणाणचरित्ते तवे य तह ओवयारिए चेव । एसो य मोक्खविणओ पंचविहो होइ णायचो ॥६॥ दवाण सच १ विनयस्य च श्रुतस्य च निक्षेपोद्वयोश्च चतुष्कको भवति । द्रव्यविनये तिनिशः सुवर्णमिति एवमादिकः॥१॥र समाहीए इति द००९ का३ सुवण्णमिश्चेवमाईणि द०अ०९ नि०।४ लोकोपचारविनयोऽर्थनिमित्तं च कामहेतोश्च । भयविनयो मोक्षविनयो विनयः खलु पञ्चधा| शेयः ॥२॥ अभ्युत्थानम जलिरासनदानं चातिथिपूजा च । लोकोपचारचिनयो देवतापूजा च विभवेन ॥ ३ ॥ अभ्यासवर्तिता छन्दोऽनुवर्तना | देशकालदानं च । अभ्युत्थानमजलिरासनदानं चार्थकते ॥ ४॥ एवमेव कामबिनयो भये च नेतव्य आनुपूा । मोक्षेऽपि पञ्चविधः प्ररूपणा तस्वयं भवति ॥ ५॥ दर्शनज्ञानचारित्रेषु तपसि च तथौपचारिके चैव । एष च मोक्षविनयः पञ्चविधो भवति ज्ञातव्यः ॥६॥ । द्रव्याणां सर्वभावा उपविष्टा ये यथा जिनेन्द्रैः। तसिसथा अदधाति नरो दर्शनविनयो भवति तस्मात् ।। ७ ॥ ज्ञान शिक्षते ज्ञानं गुणयति । *CROCRUCATCASSES पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~42 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1, नियुक्ति: [२९] अध्ययनम् ॥१६॥ I उत्तराध्य.INमामा भावा उवइटवा जे जहा जिणिदेहि । ते तह सहहह नरो दसणविणओ भवइ तम्हा ॥७॥ नाणं सिक्खइ नाणं बृहद्वृत्तिः गुणेइ नाणेण कुणइ किच्चाई। णाणी ण ण बंधइ णाणविणीओ हवइ तम्हा ॥८॥ अविहं कम्मचयं जम्हा|2 रित्तं करेइ जयमाणो । णवमण्णं च न बंधइ चरित्तविणओ हवइ तम्हा॥९॥ अवणेइ तवेण तम उवणेइ य सग्ग-1 मोक्खमप्पाणं । तवनियमनिच्छियमई तबोविणीओ हवइ तम्हा ॥ १० ॥ अह ओवयारिओ पुण दुविहो विणओ समासओ होइ । पडिरूवजोगजुंजण तहय अणासायणाषिणओ ॥११॥ पडिरूयो खलु विणओ काइयजोगो य वायमाणसिओ । अठ्ठचउबिहदुविहो परूवणा तस्सिमा होइ ॥ १२ ॥ अब्भुट्टाणं अंजलि आसणदाणं अभिग्गह किती य । सुस्सूसण अणुगच्छण संसाहण काय अट्ठविहो ॥ १३ ॥ हियमियअफरुसवाई अणुवीईभास बाइओ ज्ञानेन करोति कृत्यानि । ज्ञानी नवं न कनाति ज्ञानविनीतो भवति तस्मात् ।।८।। अष्टविध कर्मचयं यस्माद्रिक्तं करोति यतमानः । नवमन्यच न बध्नाति चारित्रविनयो भवति सस्मात् ॥ ९॥ अपनयति तपसा तम उपनयति च वर्गमोक्षमात्मानम् । तपोनियमनिश्रितमतिस्तपोविनीतो भवति तस्मात् ॥ १० ॥ अधौपचारिकः पुनर्द्विविधो विनयः समासतो भवति । प्रतिरूपयोगयोजनं तथा च अनाशातनाविनयः ॥ ११॥ प्रतिरूपः खलु विनयः कायिकयोगच. वाचिको मानसिकः । अष्टविधः चतुर्विधः द्विविधा प्ररूपणा तस्येयं भवति ॥ १२ ॥ अभ्युत्थानम M जलिरासनदानमभिप्रहः कृतिकर्म च । शुभूषणमनुगमनं संसाधनं कायिकोऽष्टविधः ॥१३।। हितमितापरुषवादी अनुवीच्य भाषी वाचिको T ॥१६॥ JAMERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~43~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1, ___ नियुक्ति: [२९] ४ विणओ । अकुसलमणोणिरोहो कुसलमणउदीरणा चेव ॥ १४ ॥ पडिरूवो खलु विणओ पराणुवित्तिमइओ है मुणेयचो । अप्पडिरूवो विणओ णायचो केवलीणं तु ॥ १५॥ एसो भे परिकहिओ विणओ पडिरूवलक्षणो तिविहो । बावन्नविहिबिहार्ण बिति अणासायणाविणयं ॥ १६ ॥ तित्थयर १ सिद्ध २ कुल ३ गण ४ संघ + ४५ किरिय ६ धम्म ७ णाण ८णाणीणं ९। आयरिय १० थेर ११ उबज्झाय १२ गणीणं १३ तेरस पयाई ॥ १७ ॥ अणसायणा य भत्ती बहुमाणो वण्णसंजलणया य । तित्थयराई तेरस चउग्गुणा होति बावन्ना ॥१८॥ स्पष्टार्थाः, नवरं 'तिनिशो' वृक्षविशेषः, लोकोपचारविनयः लोकपतिफलः, अर्थनिमित्तं चेति, विनय इति गम्यते, ततोऽर्थप्राप्तिहेतोरीश्वराद्यनुवर्तनमर्थविनयः, कामहेतोश्चेति इहापि विनय इति प्रक्रमः, ततश्च शब्दादिविषयसम्पत्तिनिमित्तं तथा तथा प्रवर्तनं कामविनयः, दुष्प्रवर्षनृपतिसामन्तादेः प्राणादिभयेनानुवर्तनं भयविनयः, इहहै लोकानपेक्षस्य श्रद्धानज्ञानशिक्षादिषु कर्मक्षयाय प्रवर्तनं मोक्षविनयः, स च दर्शनज्ञानचारित्रतपउपचारभेदात् विनयः । अकुशलमनोनिरोधः कुशलमनउदीरणैव ॥१४॥ प्रतिरूपः खलु विनयः परानुवृत्तिमयो मुणितव्यः । अप्रतिरूपो बिनयो ज्ञातव्यः केवलिनां तु ॥ १५ ॥ एष भवन्धः परिकथितो विनयः प्रतिरूपलक्षणनिविधः । द्वापञ्चाशद्विधिविधानं ब्रुवतेऽनाशातनाविनयम् ॥ १६॥ तीर्थकर १ सिद्ध २ कुल ३ गण ४ सच ५ क्रिया ६ धर्म ७ ज्ञान ८ ज्ञानिनाम् ९ । आचार्य १० स्थबिर ११ उपाध्याय १२ गणिनां ५ १३ त्रयोदश पदानि ॥११॥ अनाशातना च भक्तिर्बहुमानो वर्णसंचलनता च । तीर्थकराद्यास्त्रयोदश चतुर्गुणा भवति द्विपञ्चाशत् ॥ १८॥ JAMERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~44 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ १७ ॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [-], निर्युक्तिः [२९] पञ्चप्रकारः, तत्र चौपचारिकोऽनुरूपव्यापारसम्पादनानाशातनाभेदतो द्विभेदः, तत्र चाद्ये अभ्युत्थानम् आगच्छति गच्छति च दृष्टे गुरावासनमोचनम्, अभिग्रहो - गुरुविश्रामणादिनियमः, कृतिः - द्वादशावर्तादिवन्दनं शुश्रूषणं 'ण पक्खओ ण पुरओ' इत्यादिविधिना गुरुवचनश्रवणेच्छा, पर्युपासनमित्यर्थः, अनुगमनम् - आगच्छतः प्रत्युद्गमनं, संसाधनं - गच्छतः सम्यगनुत्रजनं, 'कुल' नागेन्द्रादिः 'गणः' कोटिकादिः, 'क्रिया' अस्ति परलोकोऽस्त्यात्माऽस्ति च सकलक्लेशलेशाकलङ्कितं मुक्तिपदमित्यादिप्ररूपणात्मिकेह गृह्यते, 'धर्मः' श्रुतचारित्रात्मकः 'ज्ञानं' मत्यादि 'आचार्यः' अनुयोगाचार्यः 'गणी' गणाचार्य: अनाशातना-मनोवाक्कायैरप्रतीपप्रवर्तनं भक्तिः - अभ्युत्थानादिरूपा, बहुमानोमानसोऽत्यन्तप्रतिबन्धः, वर्णनं वर्ण:- श्लाघनं तेन सपलना-ज्ञानादिगुणोद्दीपना वर्णसंज्वलना ॥ श्रुतस्य चत्वारः परिमाणमस्येति चतुष्कः, सङ्खुवाया अतिशदन्तायाः कन्निति ( पा०५-१-२२) कन् तुशब्दश्चतुर्विधनिक्षेपोऽवश्यं सर्वत्र वक्तव्य इति विशेषद्योतकः, उक्तं हि - “ जत्थ उ जं जाणेजा णिक्खेवं णिक्खिवे निरवसेसं । जत्थवि वि जाणिज्जा चक्कयं निक्खिये तत्थ ॥ १ ॥” निक्षेपो न्यासः, तत्राद्ययोः सुगमत्वा तृतीयमाह - द्रव्यतो द्रव्यरूपं वा श्रुतं द्रव्यश्रुतम् आगमतो नोआगमतश्च तत्रागमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तः, नोआगमतस्त्वाह-निहुते - आग१ न पक्षतो न पुरतः | २ अथ एकोनत्रिंशत्तमनियुक्तिगाथोपात्तस्य 'सुयस्स चक्कओ उ निक्rat' इत्यस्य व्याख्या. ३ यत्र तु यं जानीयात् निक्षेपं निक्षिपेन्निरवशेषम् । यत्रापि नापि जानीयात् चतुष्ककं निक्षिपेत् तत्र । १ । ४ ' जत्थविय न जाणिवा' इत्यनुयोगद्वारेषु unnamation Forsy अध्ययनम् १ ~45~ ॥ १७ ॥ www.incibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-], नियुक्ति: [२९] माभिहितमर्थमतिक्लिष्टकर्मोदयात् कुयुक्तिभिरपनयतीति निहबो-जमालिप्रभृतिः पश्चात्कृतश्रुतपरिणतिः, आदिशन्दात्पुरस्कृतश्रुतपरिणतिसत्त्वपरिग्रहः, भावश्रुतमप्यागमनोआगमभेदतो द्विधा, तत्रागमतोऽभिधातुमाह-भावतो भावरूपं वा श्रुतं भावश्रुतं,प्राकृतत्वादिह पूर्वत्र च बिन्दुलोपः, 'श्रुते' श्रुतविषये, 'तुः' अवधारणे भिन्नक्रमः, तत उपयुक्त एव, कोऽर्थः ?-वस्य श्रुतमिति पदं ज्ञातं तत्र चोपयोगः स भावश्रुतं, तदुपयोगानन्यत्वाद् , अम्युपयुक्तमाणवकामियदिति गाथार्थः ॥ २९ ॥ उक्तावोधनामनिष्पन्न निक्षेपी, सम्प्रति सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपः प्राप्तावसरः, तथापि स नोच्यते, यतः सति सूत्रेऽसौ सम्भवति, सूत्रं च सूत्रानुगमे, स चानुगमभेद इति अनुगम एव तावदुपवर्ण्यते-द्विविधोऽनुगमः-निर्युक्त्यनुगमः सूत्रानुगमश्च, तत्राद्यो निक्षेपनियुक्तिउपोद्घातनियुक्तिसूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमविधानतस्त्रिविधः, तत्र च निक्षेपनियुक्त्यनुगम उत्तरादिनिक्षेपप्रतिपादनादनुगत एव, उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमस्तु द्वारगा थाद्वयादवसेयः, तबेदम्-"उद्देसे णिसे य णिग्गमे खेत्त काल पुरिसे य । कारण पचय लक्खण णए समोयाहरणाणुमए॥१॥ किं कइविहं कस्स कहिं केसु कहं केचिरहवइ कालं? कद संतरमविरहियं भवागरिस फासण णिरुत्ती k॥२॥" एतदर्थः सामायिकनियुक्तितोऽवसेयः, सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्त्यनुगमस्तु सूत्रावयवव्याख्यानरूपत्वात् सूत्रस्प-1& १ उद्देशो निर्देशन निर्गमः क्षेत्र कालः पुरुषश्च । कारणं प्रत्ययो लक्षणं नयः समवतारणाऽनुमतम् ॥ १॥ किं कतिविधं कस्य क केषु कथं कियविरं भवति कालम् । कतिसान्तरमविरहितं भवाकर्षाः स्पर्शना निरुक्तिः ॥२॥ THACKERALAMAA पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~46~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [२९] अध्ययनम् उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१८॥ प्रत सुत्रांक ||१|| शिकनियुक्तेः सति सूत्रे सम्भवति, तच्च सूत्रानुगम एवेति तत्रैव वक्ष्यते । नन्वेवमस्थानमिदमस्येति कस्मादिहोद्देशः? उच्यते, नियुक्त्यनुगममात्रसामान्यात् , तदुक्तम्-" संपइ सुत्तप्फासियनिजुत्ती जं सुयस्प बक्खाणं । तीसेऽवसरो। सा पुण पत्तावि ण भण्णए इहई ॥ १ ॥ किं जेणासइ सुत्ते कस्स तई तं जया कमप्पत्तो । सुत्ताणुगमो वोच्छं| होही तीस तया भाचो ॥ २॥ अत्थाणमियं तीसे जइ तो सा कीस भण्णई इहयं । सा भण्णइ निज्जुत्तीमेतसामपणओ नवरं ॥ ३॥" साम्प्रतं सूत्रानुगमः, तत्रालीकोपघातजनकत्वादिदोषरहितं निर्दोषसारत्वा(बत्त्या)दिगुणान्वितं सूत्रमुचारणीयं, तवेदम्संजोगा विप्पमुक्कस्स अणगारस्स भिक्खुणो। विणयं पाउकरिस्सामि आणुपुत्विं सुणेह मे ॥१॥ अस्य च संहितादिक्रमेण व्याख्या-तत्र चास्खलितपदोच्चारणं संहिता, सा चानुगतव, सूत्रानुगमस्य तद्रूपत्वात् , तथा चाह-"होइ कयत्थो वोत्तुं सपयच्छेयं सुर्य सुयाणुगमो"ति । पदं तु नामिकनपातिकादि खधि| १ सम्पति सूत्रस्पर्शकनियुक्तियत् श्रुतस्य व्याख्यानम् । तस्या अवसरः सा पुनः प्राप्ताऽपि न भण्वते इह । १ । किं १ येनासति सूत्रे कस्य सका तस्मात् यदा क्रमप्राप्तः । सूत्रानुगमो वक्ष्यते तदा भविष्यति तस्या भावः ॥२॥ अस्थानमिदं तस्या यदि तदा सा किं भण्यतेऽत्र । सा भण्यते नियुक्तिमात्रसामान्यतो नवरम् ॥ ३॥२ भवति कृतार्थ उक्त्वा सपदकाछेदं सूर्य सूत्रानुगमः । दीप अनुक्रम 44-6-945 ॥ wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~47 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [२९] प्रत सूत्रांक ||१|| SASACSESAXCAN CRESCReate यैव भावनीय, पदार्थस्त्वयम्-अन्यसंयुक्तस्यासंयुक्तख वा सचित्तादिवस्तुनो द्रव्यादिना संयोजन संयोगः, सच संयुक्तसंयोगादिभेदेनानेकधा वक्ष्यते, तस्मान्मात्रादिसंयोगरूपादौदयिकादिक्लिष्टतरभावसंयोगात्मकाच विविधैः-ज्ञानभावनादिभिर्विचित्रैः प्रकारैः प्रकर्षण-परीषहोपसर्गादिसहिष्णुतालक्षणेन मुक्तो-भ्रष्टो विप्रमुक्तः, तस्य, 'अनगारखेतिअविद्यमानमगारमस्येत्सनगार इति व्युत्पन्नोऽनगारशब्दो गृह्यते, यस्त्वव्युत्पन्नोरूढिशब्दो यतिवाचकः, यथोक्तम्-2 अनगारो मुनिमौनी, साधुः प्रबजितो व्रती । श्रमणः क्षपणश्चैव, यतिश्चैकार्थवाचकाः ॥१॥' इति, स इह न गृखते, भिक्षुशब्देनैव तदर्थस्य गतत्वात् , तत्र चागारं द्विधा-द्रव्यभावभेदात्, तत्र द्रव्यागारमगैः-द्रुमरषदादिभिनिवृत्तं, भावागारं पुनरगैः-विपाककालेऽपि जीवविपाकतया शरीरपुद्गलादिषु बहिःप्रवृत्तिरहितैरनन्तानुवन्ध्यादिभिनिवृत्तं । कषायमोहनीयं, तत्र च द्रव्यागारपक्षे तन्निषेधे ततोऽनगारखाविद्यमानगृहस्पेत्यर्थः, भावागारपक्षे त्वल्पताभिधायी, ततः स्थितिप्रदेशानुभागतोऽत्यल्पकपायमोहनीयस्वेत्यर्थः, कषायमोहनीयं हि कर्म, न च कर्मणः स्थित्यादिभूयस्त्वे || विरतिसङ्गमः, यत आगमः-"सत्तण्हं पयडीणं अभितरओ उ कोडिकोडीओ। काऊण सागराणं जइ लहइ चउण्हमनयरं ॥१॥" इत्यादि, क्लिष्टतरभावसंयोगमुक्तत्वेनैव चास्य गतत्वे पुनरभिधानं कषायमोहनीयस्वातिदुष्टताख्यापनार्थ, १ सप्तानामपि प्रकृतीनामभ्यन्तरतस्तु कोटीकोट्याः । कृत्वा सागरोपमाणां यदि लभते चतुर्णामन्यतरत् ॥१॥ 中中中中中中 दीप अनुक्रम JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~48~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -]/ गाथा ||१|| ___ नियुक्ति: [२९] प्रत सूत्रांक उत्तराध्य. विशेष्यमाह-'भिक्षो रिति,अत्र च पचनपाचनादिव्यापारोपरमतः साधुर्भिक्षते तद्धर्मा चेत्यर्थे "सनाशंसभिक्ष उ"रिति अध्ययनम् (पा०३-२-१६८) ताच्छीलिक उप्रत्ययः, अस्य च वर्तमानाधिकारविहितत्वेऽपि 'सज्ञाप्रकारास्ताच्छीलिका बृहद्वृत्तिः इति भाष्यकारवचनाद्भिक्षशब्दत्रिकालविषयो यतिपर्यायः सिद्धो भवति, शेषविवक्षायां च षष्ठी, अथवा॥ १९॥'अणगारस्सभिक्खुणो' त्ति अखेषु भिक्षुरसभिक्षुः-जात्यायनाजीवनादनात्मीकृतत्वेनानात्मीयानेव मंहिणोऽन्नादि भिक्षत इतिकृत्वा, स च यतिरेव, ततोऽनगारश्वासावखभिक्षुश्च अनगाराखभिक्षुस्तस्य, किमित्याह-विशिष्टो विविधो। वा नयो-नीतिनिया-साधुजनासेवितः समाचारस्तं, बिनमनं वा विनतं णीयं से गई ठाणं' इत्याथागमात्, द्रव्यतो नीचैत्तिलक्षणं प्रदत्वं भावतश्च साध्वाचारं प्रति प्रवणत्वं 'प्रादुष्करिष्यामि' प्रकटयिष्यामि, कथमिसाह-13 पूर्वस्य पश्चादनुपूर्व तस्य भाव इत्यर्थे "गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः" (पा. ५-१-१२९) कर्मणि चेति प्य, तस्य च पित्करणसामर्थ्यात् स्त्रीत्वे "षिद् गौरादिभ्यश्चे"ति (पा०४-१-४१) ङीष्यानुपूर्वी क्रमः परिपाटीतियावत् तया, द्वितीया तु 'छन्दोवैत् सूत्राणी'ति न्यायतः छान्दसत्वे 'सुपां सुपो भवन्तीति वचनात् तृतीयार्थे, 'शृणुत आकर्णयत श्रवणं प्रत्यवहिता भवत, यद्वा शृणु 'इहेति जगति जिनमते वा, व्याख्यायेऽपि शिष्याभिमुखीकरणमित्यर्थः । अनेन च परानखमपि प्रतिबोधयतो व्याख्यातुर्धर्म एवेति ख्यापितं भवति, तथा च वाचक:-"न १ दुहावित्वाहिकर्मत्वेन गृहिणोऽन्नादेश्च कर्मत्वं । २ नीचैः शयां गति स्थानम् ॥ १॥ ३ यू ख्याख्यौ नदी (१-४-३) सूत्रे भाष्ये । SARKARA दीप अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~49~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| ___ नियुक्ति: [२९] ATM प्रत सूत्रांक ||१|| भवति धर्मः श्रोतुः सर्वस्सैकान्ततो हितश्रवणात् । बुवतोऽनुग्रहबुद्ध्या वक्तुस्त्वेकान्ततो भवति ॥१॥" 'मे' मम K विनयं विनतं वा प्रादुष्करिष्यत इति प्रक्रमः । उक्तः पदार्थस्तदभिधानात् सामासिकपदान्तर्गतः पदविग्रहश्च ( उक्त इति ), ततश्चालनावसरः, सा च सूत्रार्थगतदूषणात्मिका, “सुत्तगयमत्यविसयं व दूसणं चालणं मयं तस्स" इति वचनात् , तत्र सूत्रचालना-संयोगस्यै विप्रमुक्तक्रिया प्रति कर्तृत्वात् संयोगादिति कथं पञ्चमी ?, अर्थचालना च GI'विनयं प्रादुष्करिण्यामी'ति प्रतिज्ञातम् , उत्तरत्र च 'आणाऽणिद्देसकरे' इत्यादिना 'सत्याहिं चवेडाहिं' इत्यादिना[४ च विपर्ययप्रतिपादनमपि दृश्यते, इति कथं न प्रतिज्ञाक्षितिः , प्रत्यवस्थान-शब्दार्थन्यायतः परोपन्यस्तदोषपरिहाररूपं, यत आह- “सहत्यन्नायाओ परिहारो पञ्चवत्थाणं" तत्र च यद्यपि संयोगेन विमुच्यमानो भिक्षुः कर्म तथापि कर्तृत्वेनात्र विवक्ष्यते, ततश्च तवं तें विप्रमुञ्चतो विश्लेषोऽस्तीति विश्लेपक्रियायां संयोगस्य ध्रुवत्वेनापादानत्वाच्याय्यैव पञ्चमी, अत एव विप्रमुक्त इत्यत्र कर्मकर्तुः कर्मवद्भावात् कर्मणि कोऽपि सिद्धो भवति इति न सूत्र-I& दोषो, नाप्यर्थदोपः, यतो यद् यल्लक्षणं तत्तद्विपर्ययाभिधान एव तलक्षणमक्लेशेन ज्ञातुं शक्यमिति अत्र विनयाभिप्रधानप्रतिज्ञानेऽप्यविनयाभिधानं, तथा च शय्यम्भवप्रणीताचारकथायामपि "बयटककायछक मिसादिनाऽऽचार।१ सूत्रगतमर्थविषयं वा दूषणं चालनं मतं तस्य । २ संबन्धनसंयोगरूपं गुणमपेक्ष्येयं शङ्का, तस्य गुणत्वेन नाशात् स जहाति भिक्षुमिति निर्धारणात् । ३ शब्दार्थन्यायतः परिहारः प्रत्यवस्थानम् । ४ भिक्षोः । ५ गुणं संबन्धनसंयोगरूपं । ६ मातापित्रादेः संयोगिनः। दीप अनुक्रम wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~50~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [२९] अध्ययन प्रत सुत्रांक ||१|| उत्तराध्य. प्रक्रमेऽप्यनाचारवचनम् । अथवा एकमपीदं सूत्रमावृत्त्या 'श्वेतो धावती तिवदर्थद्वयाभिधायक, ततचायमन्योऽर्थः । -संयोगेन-कपायादिसम्पर्कात्मकेनाप्यविषमुक्तः-अपरित्यक्तः, संयोगाविषमुक्तस्तस्य, ऋणमिव कालान्तरक्लेशानुबृहद्वृत्तिः ६ भवहेतुतया ऋणम्-अष्टप्रकारं कर्म तत् करोतीति, कोऽर्थः ?-तथा तथा गुरुवचनविपरीतप्रवृत्तिभिरुपचिनोतीति ऋणकारस्तस्य, 'भिक्षोः' कषायादिवशतो जीववीयविकलस्य पौरुषत्रीमेव भिक्षां तथाविधफलनिरपेक्षतया भ्रमणपशीलस्य 'विनयं प्रादुष्करिष्यामी'ति “प्राकाश्यसम्भवे प्रादु"रिति वचनात् प्रादुःशब्दस्य सम्भवार्थस्थापि दर्शना दुत्पादयिष्यामि, सम्भवति हीदमध्ययनमधीयानानां गुरुकर्मणामपि प्रायो विनीताविनीतगुणदोषविभावनातो ज्ञानादिविनयपरिणतिः, अथवा विरुद्धो नयो विनयोऽसदाचार इत्यर्थः, तं प्रादुष्करिष्यामि-प्रकटयिष्यामि, कस्य ? 4-'भिक्षोः' उक्तन्यायेन भिक्षणशीलस्य, सम्यग-अविपरीतो योगः-समाधिः संयोगः, ततो विविधैः परीपहासहन-स 51 गुरुनियोगासहिष्णुत्वालस्यादिभिः प्रकारैः प्रकर्षण मुक्तो विप्रमुक्तः तस्य, शेष प्राग्वत । एवं चाविनयप्रतिपादनस्यापि प्रतिज्ञातत्वात् सर्वं सुस्थम् । अपरस्त्वाह-प्रतिज्ञातमपि विनयमभिधित्सोरप्रस्तुतम् , इदमपि बालप्रजल्पितं, यतः शास्त्रारम्भेऽभिधेयाद्यवश्यमभिधेयम् , अन्यथा प्रेक्षावयवृत्त्यसम्भवात् , तप्रदर्शनात्मकं चैतत् प्रतिज्ञानं, तथाहि- ॥२०॥ विनयं प्रादुष्करिष्यामीत्युक्ते विनयोऽस्याध्ययनस्याभिधेयः, तत्रादुष्करणं फलं, तथा चेदमुपेयम्, उपायश्चास्य । १ वैकत्र द्वयोः (२-२८५) इति भ्रमेदिकर्मकत्वादत्र द्वितीया. दीप अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~51~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -]/ गाथा ||१|| ___ नियुक्ति: [३०] प्रत सूत्रांक ||१|| प्रस्तुताध्ययनम् , इत्यनयोरुपायोपेयभावलक्षणः सम्बन्ध इति च दर्शितं भवति, ततो नाप्रस्तुतत्वं प्रतिज्ञानस्वेति । स्थितम् । सम्प्रति सूत्राऽऽलापकनिष्पन्ननिक्षेपस्य सूत्रस्पर्शिकनियुक्तेश्च प्रस्ताव इति मन्यमानः संयोग इत्याचं पदं । स्पृशन्निक्षेप्तुमाह नियुक्तिकृत् संजोगे निक्खेवो छक्को दुविहो उ दवसंजोगे । संजुत्तगसंजोगो नायवियरेयरो चेव ॥ ३०॥ __व्याख्या-'संयोग' इति संयोगविषयः 'निक्षेपः' न्यासः, पटू परिमाणमस्येति षट्कः प्राग्वत्कन् , एतद्भेदाश्च दिनामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावाः प्रसिद्धत्वादुत्तरत्र व्याख्यानत उन्नीयमानत्वाच नोक्काः, अत्र च-'संहितादिर्यतो मान्याख्याविधिः सर्वत्र दृश्यते । नामादिविधिनाऽऽरधु, न व्याख्या युज्यते ततः॥१॥ इत्याहुरविभाव्यैव, स्थाबाद 18 वादिनोऽपरे । यत्तदत्र निराकार्यमाचक्षाणेन तद्विधिम् ॥ २ ॥ स्वादस्तीत्यादिको वादः, स्थाबाद इति गीयते ।। दानयो न च विमुच्याय, द्रव्यपर्यायवादिनी ॥३॥ अतश्चैतव्योपेतं, खं मतं समुदाहतम् । साततत्वसंविद्भिः, स्थाद्वादः परमेश्वरैः॥४॥ते हि तीर्थविधौ सर्वे, मातृकाख्यं पदत्रयम् । उत्पत्तिविगमनौव्यख्यापकं सम्प्रचक्षते ॥५॥ उत्पत्तिविगमावत्र, मतं पर्यायवादिनः। द्रव्यार्थिकस्य तु प्रौव्यं, मातृकास्यपदत्रये ॥६॥ ततश्च-द्रव्यत्वमन्वयित्वेन, मृदो यद्वद् घटादिषु । तदेवान्वयित्वेन, नामस्थापनयोरपि ॥ ७ ॥ अन्वयित्वं तु सर्वत्र, सके दीप अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~52 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -]/ गाथा ||१|| ___ नियुक्ति: [३०] प्रत सूत्रांक उत्तराध्य. तानाम्न उच्यते । स्थापनायाश्च तद्रूपक्रियातो बुद्धितोऽपि वा ॥८॥ तन्नामस्थापनाद्रव्य निक्षेपैरनुवर्तितः । द्रव्या- अध्ययनम् बृहद्वृत्तिः । मार्थिकनयो भावनिक्षेपादितरः पुनः ॥९॥ तथा च महामतिः-"तित्थयरवयणसंगहबिसेसपथारमूलबागरणी। दबढिओषि पजवणो य सेसा वियप्पा सिं ॥१०॥" तथा "नामंठवणादवियत्ति एस दबट्ठियस्स निक्खेवो। भावत्ति पजयट्ठिय परूवणा एस परमत्थो ॥११॥" यद्वा किन्नः किलैताभ्यां, किन्वेष विधिराश्रितः । यद्याख्या वस्तुतत्त्वस्य, योधायैव विधीयते ॥१२॥ तच नामादिरूपेण, चतूरूपं व्यवस्थितम् । नामाकान्तवादानामयुक्तत्वेन संस्थितेः ॥ १३ ॥ तथाहि-नामनय आह-यतो नाम विना नास्ति, वस्तुनो ग्रहणं ततः । नामैव तद्यथा कुम्भो, मृदेवान्यो न वस्तुनः ॥ १४ ॥ तथाहि-यत् प्रतीतायेव यस्य प्रतीतिस्तदेव तस्य खरूपं, यथा मृबतीतावेव प्रतीयमानस्य घटस्य मृदेव रूपं, नामप्रतीतादेव च प्रतीयते वस्तु, न च विनापि नाम निर्विकल्पकविज्ञानेन वस्तुप्रतीतिरस्तीति हेतोरसिद्धता, सर्वसंविदां वागूपत्वात् , तथा च भर्तृहरिः-"बागुरूपता चेद्बोधस्य, व्युत्क्रामेतेहशाश्वती । न प्रकाशः प्रकाशेत, सा हि प्रत्यवमर्शिनी ॥१॥" यदि च नामरूपमेव वस्तु न स्यात् ततश्च तदवग-18 ॥२१॥ १ तीर्थकरबचनसंग्रहविशेषप्रस्तारमूलव्याकरणिनी । द्रव्यार्थिकोऽपि पर्यायनयश्च शेषा विकल्पा अनयोः ॥ १॥ नाम स्थापना व्यमित्येते || द्रव्याधिकस्य निक्षेपाः । भाव इति पर्यायार्थिकप्ररूपणैप परमार्थः ॥ २॥ ॐॐॐॐ दीप अनुक्रम 2-964-% 849494 wwwjandiarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~53 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||||| दीप अनुक्रम [3] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्ति: [३०] अध्ययनं [१], तावपि वस्तुनि संशयादीनामन्यतमदेव स्यात्, तथा च पूज्याः - "संसय विवज्जओ वाऽणज्झवसाओऽवि वा जहिच्छाए । होजऽत्थे पडिवत्ती न वत्थुधम्मो जया णामं ॥ १ ॥ " स्थापनानय आह— स्थापनेत्याकारः, ततश्चप्रमाणमिदमेवार्थस्याऽऽकारमयतां प्रति । नामादि न विनाssकारं, यतः केनापि वेद्यते ॥ १ ॥ तथाहि नानोर्थान्तरेऽपि वर्तयितुं शक्यत्वान्न तदुलेखेऽप्याकारावभासमन्तरेण नियतनीलाद्यर्थग्रहणमित्याकारग्रहण एव ग्रहात् सर्वस्य सिद्धमाकारमयत्वं, ततो ज्ञानज्ञेयाभिधानाभिधेयादिसकलमाकारारूपितमेव संव्यवहारावतारि, तद्विकलस्य खपुष्पस्येवासत्त्वात् उक्तं च पूज्यैः- “आंगारो चिय महसवत्थुकिरियाफलाभिहाणाई । आगारमयं सर्व जमणागारं तयं नत्थि ॥ १ ॥ ण पराणुमयं वत्युं आगाराभावओ खपुष्कं व । उवलंभववहाराभावाओ णाणगारं च ॥ २ ॥" द्रव्य| नय आह-यथा नामादि नाकारं, बिना संवेद्यते तथा । नाऽऽकारोऽपि बिना द्रव्यं, सर्व द्रव्यात्मकं ततः ॥ १ ॥ तथाहि - द्रव्यमेव मृदादिनिखिलस्थास को शकुशूलकुट कपालाद्याकारानुयायि वस्तु सत्, तस्यैव तत्तदाकारानुयायिनः सद्बोधविषयत्वात्, स्थासकोशाद्याकाराणां तु मृद्द्रव्यातिरेकिणां कदाचिदनुपलम्भात्, तच्चोत्पादादिसकल १ संशयो विपर्ययो वाऽनध्यवसायोऽपि वा यदृच्छया । भवेदर्थे प्रतिपत्तिर्न वस्तुधर्मो यदा नाम ॥ १ ॥ २ आकार एवं मतिशब्दवस्तुक्रियाफलाभिधानानि । आकारमयं सर्वं यदनाकारं तकत् नास्ति ॥ १ ॥ न परानुमतं वस्तु आकाराभावतः खपुष्पवत् । उपलम्भब्यवहाराभावतो नानाकारं च ॥ २ ॥ Education intimation Forest Use Only www.ncbrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~54~ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/गाथा ||१|| नियुक्ति: [३०] प्रत बृहद्वृत्तिः ॥ २२॥ सूत्रांक K454 ||१|| विकारविरहितं तथा तथाऽऽविर्भावतिरोभावमात्रान्वितं सम्मूञ्छितसर्वप्रभेदनिर्भदबीजं द्रव्यमगृहीततरमादि- अध्ययनम् हप्रभेदस्तिमितसरःसलिलवत्, आह च-"दबंपरिणाममेतं मोत्तणागारदरिसणं किंतं । उप्पायवयरहियं दर्ष चिय निधियारंति ॥ १॥ आविभावतिरोभावमेत्तपरिणामकारणमचिन्तं । णिचं बहुरूवंपिय नडोष संतरावण्णो | ॥२॥" भावनय आह-सम्यग् विवेच्यमानोऽत्र, भाव एवावशिष्यते । पूर्वापरविविक्तस्य, यतस्तस्यैव दर्शनम् ॥१॥ तथाहि-भावः पर्यायः, तदात्मकमेव च द्रव्यं, तदतिरिक्तमूर्तिकं हि तदू रश्यमदृश्यं वा, यदि दृश्यं, नास्ति ४ तद्यतिरेकेण अनुपलभ्यमानत्वात् , खरविषाणवत्, न हि वलितमीलितपटीकृतत्रुटितसपटितादिविचित्रभवनबहिभूतमिह सूत्रादि द्रव्यमुपलभ्यमस्ति, अरश्यमपि नास्ति, तत्साधकप्रमाणाभावात्, षष्ठभूतवत्, ततः प्रतिसमयमुदयव्ययात्मकं वयंभवनमेव भावाख्यमस्ति, उक्तं च-"भांवत्वंतरभूयं किं दवं णाम? भाव एवायं । भवर्ण पइक्खणं चिय भावावती विवत्तीय ॥१॥" परमार्थतस्त्वयम्-संविनिष्ठेव सर्वापि, विषयाणां व्यवस्थितिः ।। संवेदनं च नामादिविकलं नानुभूयते ॥ तथाहि-घटोऽयमिति नामैतत्, पृथुबुनादिनाऽऽकृतिः । मृद्रव्यं भवनं १ द्रव्यपरिणाममात्र मुक्त्वाऽऽकारदर्शनं किं तत् ? । उत्पादव्ययरहितं द्रव्यमेव निर्विकारमिति ॥ १॥ आविर्भावतिरोभावमात्रपरिणामकारणमचिन्त्यम् । नित्यं बहुरूपमपिच नट इत्र वेषान्तरापन्नः ॥ २ ॥ २ भावार्थान्तरभूतं किं द्रव्यं नाम ? भाव एवायं (. वेदम् ) भवनं Bार प्रतिक्षणमेव भाव उत्पत्तिर्विपत्तिश्च ॥१॥ दीप अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~55 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||||| दीप अनुक्रम [3] Education [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) निर्युक्ति: [३०] अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||१|| भावो, घटे दृष्टं चतुष्टयम् ॥ १ ॥ तत्रापि नाम नाकारमाकारो नाम नो विना । तौ बिना नापि चान्योऽन्यमुत्तरावपि संस्थितौ ॥ २ ॥ मयूराण्डरसे यद्वद्वर्णा नीलादयः स्थिताः । सर्वेऽप्यन्योऽन्यमुन्मि श्रास्तद्वन्नामादयो घटे ॥ ३ ॥ इत्थं चैतत् परस्परसव्यपेक्षितयैवाशेषनयानां सम्यन्नयत्वात् इतरथा 'उत्पादव्ययभौग्ययुक्तं सदिति प्रत्यक्षादिप्रमाणप्रतीतसलक्षणानुपपत्तेश्च । किञ्च शब्दादपि घटादेर्नामादिभेदरूपेणैव घटाद्यर्थे बुद्धिपरिणामो जायते, इत्यतोऽपि नामादिचतूरूपतैव सर्वस्य वस्तुनः उक्तं च--"नोमादिभेदसद्दत्यबुद्धिपरिणामभावओ णिययं । जं वत्थु अस्थि लोए चउपज्जायं तयं सर्व्वं ॥ १ ॥" ततश्च चतुष्काभ्यधिकस्सेह, न्यासो योऽन्यस्य दर्श्यते । एतदन्तर्गतः सोऽपि, ज्ञातव्यो धीधनान्वितैः ॥ १ ॥ इत्यलं प्रसङ्गेन । सम्प्रति निर्युक्तिरनुश्रि (स्त्रि) यते तत्र नामस्थापने आगमतो नोआगमतश्च ज्ञशरीरभव्यशरीररूपश्च द्रव्यसंयोगः सुगम इति मन्वानो व्यतिरिक्तद्रव्यसंयोगमभिधातुमाह-- 'द्विविधस्त्विति द्विविध एव, द्रव्येण द्रव्यस्य वा, 'स'मिति सङ्गतो योगः संयोगः, संयोग द्वैविध्यमेवाह — संयुक्तमेव संयुक्तकम्-अन्येन संश्लिष्टं, तस्य संयोगो - वस्त्वन्तरसम्बन्धः संयुक्तकसंयोगो ज्ञातव्यः, 'इतरेतर' इति इतरेतरसंयोगः, चः समुचये 'एषः' अवधारणे, इत्थमेव द्विविध एष संयोग इति गाथासमासार्थः ॥ ३० ॥ विस्तरार्थं त्वभिधित्सुः 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायतः संयुक्तकसंयोगं भेदेनाह १ नामादिभेदशब्दार्थबुद्धिपरिणामभावतो नियतम् । यद्वस्त्वस्ति लोके चतुष्पर्यायं तत् सर्वम् ॥ २ ॥ For Fans Only पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~56~ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/ गाथा ||१|| ___ नियुक्ति: [३१] H उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२३॥ प्रत सूत्रांक ||१|| संजुत्तगसंजोगो सच्चित्तादीण होइ दवाणं। दुममणुसुवण्णमाई संतइकम्मेण जीवस्स ॥३१॥ अध्ययनम् व्याख्या-'संयुक्तकसंयोगः' अनन्तराभिहितखरूपः, 'सचित्तादीनां' सचित्ताचित्तमिश्राणां भवति द्रव्याणाम् , द अमीषामुदाहरणान्याह-'दुममणुसुवण्णमाइ'त्ति अन मकारस्थालाक्षणिकत्वात् सुब्ब्यत्ययाय 'दुमाणुसुवर्णादीनां' प्रत्येकं चादिशब्दसम्बन्धात्सचित्तद्रव्याणां दुमादीनाम् अचित्तद्रव्याणामण्वादीनां सुवर्णादीनां च मिश्रद्रव्यस्य तु सन्ततिकर्मणोपलक्षितस्य जीवस्य, अत्र चाण्वादीनां सुवर्णादीनामित्युदाहरणद्वयमचित्तद्रव्याणां सचित्तमिश्रद्रव्या|पेक्षया भूयस्त्वख्यापनार्थम्, एतद्भूयस्त्वं च जीवेभ्यः पुद्गलानामनन्तगुणत्वात् , उक्तं च-"जीवा पोग्गल समया दब पएसा य पजवा चेव । थोवाऽणताणता विसेसमहिया दुवेऽणता ॥१॥" इति, अनेन च सचित्तादेः संयोगद्रव्यस्य त्रैविध्यात् संयुक्तकसंयोगस्य त्रैविध्यमुक्तमिति गाथार्थः ॥३॥ तत्र द्रुमादीनां सचित्तसंयुक्तद्रव्यसंयोगं विवरीतुमाह मूले कंदे खंधे तया य सालेपवालपत्तेहि। पुप्फफलेबीएहि अ संजुत्तो होइ दुममाई ॥ ३२ ॥ व्याख्या- 'मूले कन्दे स्कन्धे' इति सर्वत्र सूत्रत्वात् तृतीयार्थे सप्तमी, ततश्च 'मूलेन' अधःप्रसर्पिणा खावयवेन | ॥२३॥ १ जीवाः पुद्गलाः समया द्रव्याणि प्रदेशाश्व पर्यायाश्चैव । तोका अनन्ता अनन्ता विशेषाधिकानि द्वावनन्तौ ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~57 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| ___ नियुक्ति: [३२] % प्रत सूत्रांक ||१|| R |'कन्देन' तेनैव मूलस्कन्धान्तरालवर्तिना 'स्कन्धेन' स्थुडेन 'त्वचा' छविरूपया 'साले'त्ति एकारोऽलाक्षणिकः, ततः 'शालाप्रवालपत्रैः' शाखापल्लवपलाशैः, फले इत्यत्राप्येकारस्तथैव, ततः 'पुष्पफलबीजैश्च' प्रसिद्धैरेव 'संयुक्तः' सम्बद्धो भवति 'दुममाइत्ति' मकारोऽलाक्षणिकः ततो द्रुमादिः, आदिशब्दाद्गुच्छगुल्मादिश्च संयुक्तकसंयोग इति प्रक्रमः । स हि प्रथममुद्गच्छन्नकरात्मकः पृथिव्याः संयुक्त एव मूलेन संयुज्यते, ततो मूलसंयुक्तक एव कन्देन, कन्दसंयुक्त एव स्कन्धेन एवं त्वशाखाप्रयालपत्रपुष्पफलबीजैरपि पूर्वसंयुक्त एवोत्तरोत्तरैः संयुज्यते इति भावनीयम् , नन्वेवं दुमादेव्यत्वात् संयुक्तकसंयोगस्य च गुणत्वात्कथं द्रुमादिरेव स इति, अत्रोच्यते, धर्मधर्मिणोः कथञ्चिदनन्यत्वादेवमुक्तमित्यदोषः, र एवमुत्तरभेदयोरपीति गाथार्थः ॥ ३२ ॥ अण्वादीनामचित्तसंयुक्तकद्रव्यसंयोगं स्पष्टयितुमाह एगरस एगवण्णे एगेगंधे तहा दुफासे अ । परमाणू खंधेहि अ दुपएसाईहि णायवो ॥ ३३ ॥ व्याख्या--एकः-अद्वितीयस्तिक्तादिरसान्यतमो रसोऽस्येति एकरसः, तथैकः कृष्णादिवर्णान्यतमो वर्णोऽस्पति एकवर्णः, एवम् 'एकगन्धः' सुगन्धीतरान्यतरगन्धान्वितः, 'एगे' इत्येकारस्थालाक्षणिकत्वात् , तथा द्वौ चावि-11 रुद्धौ स्निग्धशीताद्यात्मको स्पर्शावस्येति द्विस्पर्शः, चशब्दः खगतानन्तभेदोपलक्षकः, क एवंविधः ? इत्याहपरमः-सदन्यसूक्ष्मतरासम्भवात् प्रकर्षवान् स चासावणुश्च परमाणुः, उपलक्षणत्वाद् घणुकादिश्च, 'स्कन्धैश्च' स्कन्धश दीप अनुक्रम ASASK पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~58~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [३३] प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ २४॥ ब्दाभिधेयः, कैरियाह-द्वी प्रदेशावारम्भकावस्येति द्विप्रदेशो-अणुकः, स आदिउँपां त्रिप्रदेशादीनामचित्तमहास्क-18/ अध्ययनम् न्धपर्यन्तानां ते तथा तैः, घशब्दात्परमाण्वन्तरैर्वर्णान्तरादिभिश्च, संयुज्यमान इति गम्यते, 'विज्ञेयः' विशेषेणसङ्ख्यातासङ्ख्यातानन्तभविभावनात्मकेनावबोद्धयः, पाठान्तरतो ज्ञातव्यः, अचित्तसंयुक्तकसंयोग इति प्रक्रमः. अयमर्थः-कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसवर्णगन्धो द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च ॥१॥ इत्येवंलक्षणपरमाणुयंदा ज्यणुकादिस्कन्धपरिणतिमनुभवति तदा रसादिसंयुक्त एव थणुकादिभिः स्कन्धैः। संयुज्यते, यदा वा तिक्ततादिपरिणतिमपहाय कटुकत्वादिपरिणति प्रतिपद्यते तदापि वर्णादिभिः संयुक्त एव कटुकत्वादिना संयुज्यते इति संयुक्तसंयोग उच्यते । अत्र च कृष्णपरमाणुः कृष्णत्वमपहाय नीलत्वं प्रतिपयत इत्येको भङ्गः, एवं रक्तत्वं पीतत्वं शुक्लत्वं चेति चत्वारः, तथाऽयमेव रसपञ्चकगन्धद्वयाविरुद्धस्पर्शस्तारतम्यजनितैश्च सस्थान* एवं द्विगुणकृष्णत्वादिभिः परमाण्वन्तरद्विप्रदेशादिभिश्च योजनाद्विवक्षावशतः सङ्ख्यातासङ्ख्यातानन्तात्मिका भङ्गरचनामवाप्नोति, एवं वर्णान्तररसस्पर्शगन्धखगततारतम्ययुक्तोऽपि, तथा द्विप्रदेशादिश्च । यच-'घण्णरसगंधफासा पोग्गलाणं च लक्खणं' इत्यादिसूत्रेषु वर्णस्यादित्वेन दर्शनेऽपि 'एगरएगवण्णे'ति रसस्य प्रथमत उपादानं ॥२४॥ तदनानुपूर्त्या अपि व्याख्याङ्गत्वेन गाथावन्धानुलोम्येन वेति भावनीयम् । सुपर्णादीनां च प्राच्यवर्णकासंयु| १ वर्णगन्धरसस्पर्शाः पुद्गलानां च लक्षणम् । दीप अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~59~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/गाथा ||१|| नियुक्ति: [३४] प्रत सूत्रांक ||१|| कानामेव विशिष्टवर्णिकादिभिः संयोगोऽचित्तसंयुक्तकसंयोग उक्तानुसारेण सुज्ञान एवेति नियुक्तिकृता न व्याख्यात इति गाथार्थः ॥ ३३ ॥ दृष्टान्तपूर्वकं सन्ततिकर्मणा जीवस्य मिश्रसंयुक्तकद्रव्यसंयोग व्यक्तीकर्तुमाहजह धाऊ कणगाई सभावसंजोगसंजुया हुंति । इअ संतइकम्मेणं अणाइसंजुत्तओ जीवो ॥ ३४॥ __ व्याख्या-'यथा' इत्युदाहरणोपन्यासार्थः, यथा 'धातवः' कनकादियोनिभूता मृदादयः कणगाइति सूत्रत्वाकनकादिभिः, आदिशब्दात्ताम्रादिभिश्च, किमित्याह-समावेन संयोगः-प्रकृतीश्वराद्यर्थान्तरन्यापारानपेक्षयोपलक्ष्यानुपलक्ष्यरूपो यः सम्बन्धस्तेन संयुता-मिश्रिताः खभावसंयोगसंयुताः भवन्ति' विद्यन्ते 'इती त्यमुनैवार्थान्तरनिरपेक्षत्वलक्षणेन प्रकारेण सन्ततिः-उत्तरोत्तरनिरन्तरोत्पत्तिरूपःप्रवाहस्तयोपलक्षितं कर्म-ज्ञानावरणादि सन्ततिकर्म तेन, न विद्यते आदि:-प्राथम्यमस्येत्यनादिः स चेह प्रक्रमात्संयोगस्तेन 'स' मिति 'अण्णोण्णाणुगयाणं इमं च तं चत्ति विभयणमजुत्त' इत्यागमाद्विभागाभावतो युक्तः-श्लिष्टोऽनादिसंयुक्तः स एव अनादिसंयुतकः, यद्वा-संयोगः-संयुक्तं ततोऽनादिसंयुक्तमस्खेति अनादिसंयुक्तकः, क इत्याह-जीवति जीविष्यति जीवितवांचेति जीवः, मिश्रसंयुक्तकद्रव्यसंयोग इति प्रक्रमः, इदमुक्तं भवति-जीवो खनन्तकर्माणुवर्गणाभिरावेष्टितप्रवेष्टितो- II |ऽपि न खरूपं चैतन्यमतिवर्तते, न चाचैतन्यं कर्माणव इति तयुक्ततया विवक्ष्यमाणोऽसौ संयुक्तकमिश्रद्रव्यं, १ अन्योऽन्यानुगतयोरिदं च तच्चेति विभजनमयुक्तम् । दीप अनुक्रम wwwjandiarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~60~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/गाथा ||१|| नियुक्ति: [३५] प्रत सूत्रांक उत्तराध्य. ततोऽस्य कर्मप्रदेशान्तरैः संयोगो मिश्रसंयुक्तकद्रव्यसंयोग उच्यते, इह च जीवकर्मणोरनादिसंयोगस्य धातुकनकादि-अध्ययनम् संयोगदृष्टान्तद्वारेणाभिधानं तद्वदेवानादित्वेऽप्युपायतो जीवकर्मसंयोगस्वाभावख्यापनार्थम् , अन्यथा मुक्त्यनुष्ठानवबृहद्वृत्तिः काफल्यापत्तेरिति भावनीयमिति गाथार्थः ॥ ३४ ॥ उक्तः संयुक्तकसंयोगः, इतरेतरसंयोगमाह॥२५॥ इयरेयरसंजोगो परमाणूणं तहा पएसाणं । अभिपेयमणभिपेओ अभिलावो चेव संबंधो ॥३५॥ व्याख्या-इतरेतरस्य-परस्परस्य संयोगो-घटना इतरेतरसंयोगः 'परमाणूनाम्' उक्तरूपाणां, तथा प्रकर्षणसूक्ष्मातिशयलक्षणेन दिश्यन्ते-कथ्यन्त इति प्रदेशा:-धर्मास्तिकायादिसम्बन्धिनो निर्विभागा भागास्तेपाम्,४ 'अभिपेयं ति प्राकृतत्वादभिप्रेतः, इतरेतरसंयोग इति योज्यते, एवमुत्तरत्रापि, अभिप्रेतत्वं चास्वाभिप्रेतविषयत्वाद्, एतद्विपरीतोऽनभिप्रेतः, अभिलप्यते-आभिमुख्येन व्यक्तमुच्यतेऽनेनार्थ इत्यभिलापो-वाचकः शब्दस्तद्विषयत्वात् अभिलापः, चः समुच्चये, एवः' अवधारणे, सम्बन्धशब्दानन्तरं चैतौ योज्यौ, ततः सम्बन्धनं-सम्बन्धः, स चैवं खस्तामित्वादिरनेकधा वक्ष्यमाणः, एतावद्भेद एवायमितरेतरसंयोग इति चावधारणस्थार्थ इति गाथासमासार्थः ॥ ३५॥ परमाणूनां संयोगमाहदुविहो परमाणूणं हवइ य संठाणखंधओ चेव । संठाणे पंचविहो दुविहो पुण होइ खंधेसु ॥ ३६॥ दीप अनुक्रम wwwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~614 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [३६] प्रत सूत्रांक ||१|| व्याख्या-द्वौ विधौ प्रकारावस्येति द्विविधः-द्विभेदः, कोऽसौ !-'परमाणूनाम्' इति परमाणुसम्बन्धी, प्रक्रमादिK|तरेतरसंयोगो भवति, 'चः' पूरणे, कथं द्विविध इत्याह-'संठाणखंघतो'त्ति संतिष्ठतेऽनेन रूपेण पुद्गलात्मकं यस्विति संस्थानम्-आकारविशेषः ततस्तमाश्रित्य, 'स्कन्धतः स्कन्धमाश्रित्य, चः समुचये, 'एवः' भेदावधारणे । द्विविधस्यापि प्रत्येक भेदानाह-संस्थाने' संस्थानविषयः 'पञ्चविधः' पञ्चप्रकारः 'द्विविधः' द्विप्रकारः, पुनःशब्दो वाक्यान्तरोपन्यासे भवति 'स्कन्धेषु' स्कन्धविषय इति गाथार्थः ॥३६॥ इह च संस्थानस्कन्धमेदवारक एवायमितरेतरसंयोग-13 भेद इति तदभिधानमुचितं, तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायतः संस्थानभेदाभिधानप्रस्तावेऽप्यल्पवक्तव्यत्वात् स्कन्धभेदं हेतुभेदद्वारेणाहपरमाणुपुग्गला खल्लु दुन्नि व बहुगा य संहता संता। निवत्तयंति खंधं तं संठाणं अणिस्थत्थं ॥३७॥ व्याख्या-परमाणुपुद्गलौ खलु द्वौ वा बहव एव बहुकाः-त्रिप्रभृतयः, ते च परमाणुपुद्गलाः 'संहताः' एकपिण्डता-2 मापन्नाः सन्तो 'निर्वर्तयन्ति' जनयन्ति, किमित्याह-'स्कन्धं' घणुकादिकम् , अनेन च द्विपरमाणुजन्यतया बहुपर४ माणुजन्यत्वेन च स्कन्धस्य विभेदत्वमुक्तं, खलुशब्दोऽत्र विशेष द्योतयति, स चायम्-इह रूक्षः स्निग्धो वा एकगुणः सम्बध्यमानो द्विगुणाधिकेनैव खखरूपापेक्षया सम्बध्यते, न तु समगुणेनैकगुणाधिकेन वा, किमुक्तं भवति ? एकगुणस्निग्धस्त्रिगुणखिग्धेन सम्बध्यते त्रिगुणस्निग्धः पञ्चगुणस्निग्धेन पञ्चगुणस्निग्धः सप्तगुणस्निग्धेनेत्यादि, तथा द्विगुण दीप अनुक्रम JAMERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~62~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||१|| ___ नियुक्ति: [३७] अध्ययनम् प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य. स्निग्धश्चतुर्गुणस्निग्धेन चतुर्गुणस्निग्धः षड्गुणस्निग्धेनेत्यादि, एवमेकगुणरूक्षत्रिगुणरूक्षेण त्रिगुणरूक्षः पञ्चगुणरूक्षे- बृहद्वृत्तिः णेत्यादि, तथा द्विगुणरूक्षश्चतुर्गुणरूक्षेण चतुर्गुणरूक्षः पड्गुणरूक्षेणेत्यादि, एवं द्विगुणाधिकसम्बन्धो भावनीयः, न त्वेकगुणस्निग्ध एकगुण स्निग्धेन द्विगुणस्निग्धेन वा सम्बध्यते द्विगुणस्निग्धो द्विगुणस्निग्धेन त्रिगुणस्निग्धेन या यावद॥२६॥ नन्तगुणस्निग्धोऽप्यनन्तगुणस्निग्धेन समगुणेनैकगुणाधिकेन वा, एवमेकगुणरूक्ष एकगुणरूक्षेण द्विगुणरूक्षेण वा द्विगुणरूक्षो द्विगुणरूक्षेण त्रिगुणरूक्षेण वा यावदनन्तगुणरूक्षोऽप्यनन्तगुणरूक्षेण समगुणेनैकगुणाधिकेन वेति, ४. अन्ये त्वाहुः-एकगुणादि खस्थानापेक्षया द्विगुणेन रूपाधिकेन सम्बध्यत इति, अयमत्र विशेषः खलुशब्देन सूच्यते, है तथा चैककस्य स्वस्थानापेक्षया द्विगुणो द्विक एव स च रूपाधिकखिक एव इति त्रिगुणेनैवैकगुणस्य सम्बन्धः, तथा द्विगुणस्य पञ्चगुणेन त्रिगुणस्य सप्तगुणेन चतुर्गुणस्य नवगुणेन पञ्चगुणस्सैकादशगुणेनेत्यादि, उक्तं च-"समनिद्धयाइ बंधो न होइ समलुक्खयावि य न होई । वेमाइनिद्धलुक्खत्तणेण बंधो उ खंधाणं ॥१॥” तथा “दोण्ह जहण्णगुणाणं निद्धार्ण तह य लुक्खदवाणं । एगाहिएपि य गुणे ण होति बंधस्स परिणामो ॥२॥णिद्धविउणाहिएणं बंधो| १ समस्निग्धतया बन्धो न भवति समरूक्षतयाऽपि च न भवति । विमात्रस्निग्धरूझवेन बन्धस्तु स्कन्धयोः ॥ १॥ २ द्वयोजघ-1 न्यगुणवोः स्निग्धयोस्तथैव रूक्षद्रव्ययोः । एकाधिकेऽपि च गुणे न भवति बन्धस्य परिणामः ॥१॥ सिग्धेन द्विगुणाधिकेन बन्धः स्निग्धस्य भवति द्रव्यस्य । रूओण द्विगुणाधिकेन च रूक्षस्य समागमं प्राप्य ।। २ ॥ दीप अनुक्रम ॥२६॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~634 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [३७] प्रत सूत्रांक ||१|| निद्धस्स होइ दधस्स । लुक्स विउणाहिएण य लुक्खस्स समागमं पप्प ॥३॥" निग्धरूक्षपरस्परबन्धविचारणायां तु समगुणयोर्विपमगुणयोर्वा जघन्यवर्जयोर्वन्धपरिणतिरिति विशेषः । तथा चाह-"पति णिद्धलुक्खा विसमगुणा अहव समगुणा जेऽपि । वज्जित्तु जहन्नगुणे बझंती पोग्गला एवं ॥१॥” इत्यादि, येन विशेषण संस्थानात् स्कन्धस्य भेदेनोपादानं तमाविष्कर्तुमाह-'तं संठाणंति' प्राकृतत्यादेवं पाठः, तस्य-स्कन्धस्य संस्थानम्-आकारस्तत्संस्थानम् , अनेन-हदि विवर्तमानतया प्रत्यक्षेण परिमण्डलादिनाऽनन्तरोक्तप्रकारेणेत्यमित्थं तिष्ठति इत्थंस्थं, न तथा अनित्थंस्थम् , अनेन नियतपरिमण्डलाद्यन्यतराकारं संस्थानं शेषोऽनियताऽऽकारस्तु स्कन्ध इत्यनयोर्विशेष इत्युक्तं भवति । आह-स्कन्धानामपि परस्परं बन्धोऽस्ति, यदुक्तम्-“ऐमेव य खंधाणं दुपएसाईण बंधपरिणामो"त्ति अतः किं न तेषामपीतरेतरसंयोग इहोक्तः, उच्यते, उक्त एव, तेषां प्रदेशसद्भावात् , प्रदेशानां च 'इयरेतरसंजोगो परमाणूणं तहा पएसाणं' इत्यनेन तदभिधानादिति गाथार्थः ॥ ३७॥ संस्थानभेदानाह| परिमंडले य बट्टे तसे चउरंसमायए चेव । घणपयर पढमवज्जं ओयपएसे य जुम्मे य ॥ ३८॥ १ अध्येते निग्धरूक्षौ विषमगुणी अथवा समगुणौ यावपि । वर्जयित्वा जघन्यगुणौ बध्यन्ते पुगला एवम ॥१॥२ एवमेव च स्कन्धानां द्विप्रदेशादीनां बन्धपरिणामः । दीप अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~644 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -1/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [३८] प्रत सूत्रांक उत्तराध्य. 5 ब्याख्या-लिङ्गं व्यभिचार्यपी' ति प्राकृतलक्षणात् सर्वत्र लिङ्गव्यत्ययः, ततः परिमण्डलं, प्रक्रमात् संस्थान- अध्यय बृद्धृत्तिः मेवमुत्तरत्रापि, तब रहिततावस्थितप्रदेशजनितमन्तःशुपिरं, यथा बलकस्य, चशब्द उत्तरभेदापेक्षया समुचये, वृत्तं तदेवान्तःशुपिरविरहितं यथा कुलालचक्रस्य, व्यत्रं-त्रिकोणं, यथा शृङ्गाटकस्य, चतुरखं-चतुष्कोणं, यथा कुम्भिकायाः, आयतं-दीर्घ, यथा दण्डस्य, चः पूर्वभेदापेक्षया समुचये 'एव' अवधारणे, तत इयंत एव संस्थानभेदाः, 'घणपयर'त्ति धनं च प्रतरं च धनप्रतरं, प्राकृतत्वाद्विन्दुलोपः, सर्वेत्र च प्रतरपूर्वक एव घनः प्ररूप्यते, इहापि तथैवोपदर्शयिष्यते,13 ततः प्रतरघन इति निर्देशः प्रासः, अल्पाक्ष(चूत)रत्वात्तु घनशब्दस्य पूर्वनिपातः, ततश्चैकैकं परिमण्डलादि प्रतरं धनं च, भवतीति गम्यते, तथा प्रथमम्-आद्यं वर्जयति-सजतीति प्रथमवर्ज-परिमण्डलरहितं वृत्तादिसंस्थान चतुष्कमित्यर्थः 'ओयपएसे यत्ति ओजःप्रदेशं च-विषमसङ्ख्यपरमाणुकं 'जुम्मे य' ति प्रक्रमाद् युग्मप्रदेशं च, पद उभयत्र चः समुचये । इह च घनप्रतरभेदमेव वृत्तादीत्थं भिद्यते, ततः प्रतरवृत्तमोजःप्रदेशं युग्मप्रदेशं च, तथाx धनवृत्तमोजःप्रदेशं युग्मप्रदेशं च, एवं व्यस्रादिष्वपि चतुर्विधं भावनीयं, परिमण्डलं वर्जनीयं च, समसङ्ख्याणुष्वेव तस्स सम्भवेनैवंविधभेदासम्भवात् , तथा च द्विविधमेव परिमण्डलमिति गाथार्थः ॥ ३८ ॥ इह च परिमण्डलादि ॥२७॥ प्रत्येकं जघन्यमुत्कृष्टं च, तत्रोत्कृष्टं सर्वमनन्ताणुनिष्पन्नमसङ्ख्यप्रदेशावगादं चेत्येकरूपतयाऽनुक्तमपि सम्प्रदा-18 हयाज्ज्ञातुं शक्यमिति तदुपेक्ष्य जघन्यं तु प्रतिभेदमन्यान्यरूपतया न तथेति तदुपदर्शनार्थमाह दीप अनुक्रम JAMERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~65 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति : [३९-४१] प्रत सूत्रांक ||१|| पंचग बारसगं खलु सत्तग बत्तीसगं तु वदमि।तिय छक्कग पणतीसा चत्तारि य हुँति तंसंमि ॥३९॥ नव चेव तहा चउरो सत्तावीसा य अट्ट चउरंसे। तिगद्गपन्नरसेवि य छच्चेव य आयए हुंति ॥४॥ पणयालीसा बारस छन्भेया आययंमि संठाणे । वीसा चत्तालीसा परिमंडलि हुँति संठाणे ॥११॥ व्याख्या-आसामर्थः स्पष्ट एव, नवरमायते षड्भेदाभिधानमव्यापित्वेन प्रागनुद्दिष्टस्यापि श्रेणिगतभेदद्वयस्थाधिकस्य तत्र सम्भवात् , तथा परिमण्डलादिवेऽपि संस्थानानां वृत्तादिभेदानामोज प्रदेशप्रतरादीनामनन्तरोद्दिष्टत्वात् प्रत्यासचिन्यायेन यथाक्रमं पञ्चकादिभिः प्रथममुपदर्शनं, पश्चात् परिमण्डलभेदद्वयस्य । तत्रौजःप्रदेशप्रतर-16 वृत्तं पञ्चाणुनिष्पन्नं पञ्चाकाशप्रदेशावगाद च, तत्रैकोऽणुरन्तरेव स्थाप्यते, चतसषु पूर्वादिदिक्षु चैकैकः, स्थापना १ युग्मप्रदेशप्रतरवृत्तं द्वादशप्रदेशं द्वादशप्रदेशावगाढं च, तत्र हि चतुर्यु प्रदेशेषु निरन्तरमन्तश्चतुरोऽणूनिधाय तत्परिक्षेपेणाष्टौ स्थाप्यन्ते, स्थापना २, ०० ओजःप्रदेशं घनवृत्तं सप्तप्रदेश सप्तप्रदेशावगाढंच, तचैवम्-तत्रैव पञ्चप्रदेशे ०००० प्रतरवृत्ते मध्यस्थितस्याणोरुपरि-18 टादधस्ताचैकैकोऽणुरवस्थाप्यते,ततो द्वयसहिताः ०००० पश्च सप्त भवन्ति ३, युग्मप्रदेशं Kघनवृत्तं द्वात्रिंशत्प्रदेशं द्वात्रिंशत्प्रदेशावगाढं च, तत्र प्रतरवृत्तो- ०० पदर्शितद्वादशप्रदेशोपरि द्वादशा ॐॐॐ525 दीप 4%4-964458 अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~66~ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [३९-४१] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः %A5% ॥२८॥ 8 प्रत सूत्रांक olo % A न्ये, तदुपरि चत्वारोऽधस्ताच तावत-पवाणवः स्थाप्या एते मीलिता द्वात्रिंशद्भवन्ति ४ । ओजःप्रदेशं प्रतरत्र्यसं । त्रिप्रदेश त्रिप्रदेशावगाढं च, तत्र च तिर्यग्निरन्तरमणुद्वयं विन्यस्याऽऽद्यस्याध एकोऽणुः स्थाप्यः, स्थापना १ | ० युग्मप्रदेशं प्रतरत्र्यसं पटप्रदेशं षदप्रदेशावगाडं च, तत्र च तिर्यग्निरन्तरं त्रयोऽणवः स्थाप्यन्ते तत Jआवस्याधस्तादधऊयभावेन द्वयं द्वितीयस्य त्वध एकोऽणुःस्थाप्यः, स्थापना २ [. ओजःप्रदेशं घनत्यत्रं पञ्चत्रिंशत्प्रदेशं पश्चत्रिंशत्प्रदेशावगाढंच, तत्र च तिर्य निरन्तराः पञ्चाणवो न्यस्यन्ते, तेषां चाधोऽधः क्रमेण तिर्यगेव चत्वारस्त्रयो वावेकश्वाणुः स्थाप्यन्ते, स्थापना, अस्य च प्रतरस्योपरि सर्वपशिप्वन्यान्यपरमाणुपरिहारेण - दश, तथैव तेषामुपर्युपरि षट् त्रय एकश्चेति क्रमेणाणवः स्थायाः, तेषां स्थापनाः, गगनाला न एते मीलिताः पञ्चत्रिंशद्भवन्ति ३, oood युग्मप्रदेशं घनत्र्यसं चतुष्प्रदेशं 09 चतुष्प्रदेशावगाढं च, तत्र च प्रतर-19 त्र्यन एव त्रिप्रदेशे एकतरस्योपर्यको & ॥२८॥ माऽणुर्दीयते, ततो मीलिताश्चत्वारो भवन्ति । ओजःप्रदेशं प्रतरचतुरस्र नवप्रदेश नवप्रदेशावगाढं च, तत्र च तिर्य दीप ॐ अनुक्रम 09 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~67~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [३९-४१] च नव प्रत सूत्रांक ||१|| मिरन्तरं त्रिप्रदेशास्तिस्रः पतयः स्थाप्याः, स्थापना-गान युग्मप्रदेशं प्रतरचतुरस्रं च चतुष्प्रदेशं चतुष्प्रदेशावगाढं च, तत्र चतिर्यग्निरन्तरं द्विप्रदेशे द्वे पती स्था ओजःप्रदेशं धनचतुरखं सप्तविंशतिप्रदेश मामिप्यत, स्थापना २,T प्रताचतरखस्यैवाध उपरि च तथैव नव नवा-°°10णयःस्थाप्याः,तत- शावगाढं च, तत्र ०० त्रिगुणा दानव सप्तविंशतिर्भवति ३, युग्मप्रदेशं घनचतुरस्रम् अष्टप्रदेशमष्टप्रदेशावगाढंच, तत्र चतु- प्रदेशस्य प्रतरस्यैवोपरि चत्वारोऽन्ये स्थायाः, ततो द्विगुणाश्चत्वारोऽष्टी भवन्ति ४ । ओजःप्रदेशं श्रेण्यायतं त्रिप्रदेशं त्रिप्रदेशावगाढं च, तत्र च तिर्यग निरन्तरास्त्रयोऽणवः स्थाप्याः, स्थापना १, | युग्मप्रदेशं श्रेण्यायतं द्विप्रदेश द्विप्रदेशावगाढं च, तत्र च तथैवाणुद्वयं न्यस्यते, स्थापना २, । 10. ओजःप्रदेशं प्रतरायतं पञ्चदशप्रदेश पञ्चदशप्रदेशावगाडं च, तत्र प्राग्वत् पतित्रये पञ्च पञ्चाणवः स्थाप्या, स्थापना ३, नानानानान युग्मप्रदेशं प्रतरायतं पदप्रदेश षट्प्रदेशावगाई च, तत्र च प्राग्वत् पतिद्वये त्रयस्खयोऽणवः | गाना स्थायाः, स्थापना ४, 161 ओजःप्रदेश बनायतं पक्षचत्वारिंशत्प्रदेश पञ्चच-| गत्वारिंशत्प्रदेशावगाढं - -च, तत्र पञ्चदशप्रदेशस्य प्रतरायतस्यैवाध उपरि च तथैव पञ्चदश पञ्चदशा-००० णवः स्थाप्याः, ततत्रिगुणाः पञ्चदश पञ्चत्वारिंशद्भ दीप अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~68~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [3] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ २९ ॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा || १ ॥ निर्युक्ति: [३९-४१] अध्ययनं [१], वन्ति ५, युग्मप्रदेशं धनायतं द्वादशप्रदेशं द्वादशप्रदेशावगाढं च तत्र च षट्प्रदेशस्य प्रतरायतस्यैवोपरि तथैव तावन्तोऽणवः स्थाप्याः, ततो द्विगुणाः षट् द्वादश भवन्ति ६ । परिमण्डलमुक्तन्यायतो द्विभेदमेव, तत्र प्रतरपरिमण्डलं विंशतिप्रदेशं विंशतिप्रदेशावगाढं च तत्र च प्राच्यादिषु चतसृषु दिक्षु चत्वारश्चत्वारो विदिक्षु चैकैकः स्थाप्यः, मीलिताश्चैते विंशतिर्भवन्ति, स्थापना - १, 110000 घनपरिमण्डलं चत्वारिंशत्प्रदेशं चत्वारिंशत्प्रदेशावगाढं च तत्र च तस्या एव विंशतेरु- 00 100 परि तथैव विंशतिरन्या स्थाप्यते, विंशतिश्च द्विगुणा चत्वारिंशद्भवन्ति २ । इत्थं चैषां प्ररू पणमितोऽपि न्यूनदेशतायां यथोक्तसंस्थानासम्भवात्, त्वात् सर्वथाऽनुभवमारोपयितुं शक्यन्ते, स्थापनादिदर्शितानीति गाथात्रयभावार्थः ॥ ३९-४०-४१ ॥ न चैतान्यतीन्द्रियत्वेनातिशायिगम्य- 0000 द्वारेण च कथञ्चिच्छक्यानीति तथैव ०००० उक्तः परमाणूनामितरेतरसंयोगः, सम्प्रति तमेव प्रदेशानामाह धम्माइपसाणं पंचह उ जो पएससंजोगो । तिण्ह पुण अणाईओ साईओ होति दुण्हं तु ॥ ४२ ॥ व्याख्या - धर्मादीनां धर्माधर्माकाशजीवपुद्गलानां प्रदेशाः - उक्तरूपा धर्मादिप्रदेशास्तेषां 'पञ्चानाम्' इति सम्बन्धिनां धर्मादीनां पञ्चसङ्ख्यत्वेन पञ्चसङ्ख्यानां 'तुः' पुनरर्थः, संयोग इति गम्यते, स च श्रुतत्वाद्धर्मादिभिः स्कन्धैस्तथा तदन्तर्गतैर्देशः प्रदेशान्तरैश्च सजातीयेतरैः, असौ किमित्याह-प्रदेशानां संयोगः प्रकृतत्वादितरेतरसंयोगाख्यः Education into Forsy अध्ययनम् १ ~69~ ॥ २९ ॥ www.ncbrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| ___ नियुक्ति: [४२] प्रत सूत्रांक ||१|| प्रदेशसंयोगः, उच्यते इति शेषः, अस्यैव विभागमाह-त्रयाणां पुनः' पुनःशब्दस्य विशेषद्योतकत्वात् धर्माधर्माकाशप्रदेशानां धर्मादिभिरेव त्रिभिस्तेषामेव देशैः प्रदेशान्तरैश्च प्रकृतत्वादितरेतरसंयोगः 'अनादिः' आदिविकलः सदा संयुक्तत्वादेषां, 'सादिक आदियुक्तो भवति 'द्वयोः' पारिशेष्याजीवप्रदेशपुद्गलप्रदेशयोः, तथाहि-संयुज्यन्ते वियुज्यन्ते संसारिजीवप्रदेशाः कर्मपुद्गलप्रदेशाच परस्परं धर्मादिप्रदेशैश्च सह, तुशब्दो विशेष द्योतयति, स चायं-जीवप्रदेशानां धर्मादित्रयदेशप्रदेशापेक्षया पुगलस्कन्धाद्यपेक्षया च सादिसंयोगः,धर्मादिस्कन्धत्रयापेक्षया त्वनादिः, पुद्गलप्रदेशानामपि । धर्मादिस्कन्धत्रयापेक्षयाऽनादिः, शेषापेक्षया तु सादिः । इह च धर्मादिस्कन्धानां तद्देशानां च यः परस्परं संयोगः सन प्रदेशसंयोगमन्तरेणेति तदभिधानत एवोक्तो मन्तव्यः, अप्रदेशस्य तु परमाणोधर्मादिभिः संयोग उक्तानुसारतः सुज्ञान एव इति नोक्त इति गाथार्थः ॥४२॥ उक्त प्रदेशानामितरेतरसंयोगः, सम्प्रत्यभिप्रेतानभिप्रेतभेदरूपं तमेवाह अभिपेयमणभिपेओ पंचसु विसएसु होइ नायवो। अणुलोमोऽभिप्पेओ अणभिप्पेओअ पडिलोमो ४३ 18 व्याख्या-'अभिपेय' ति अभिप्रेतः 'अनभिप्पेओ' ति चस्स गम्यमानत्वादनभिप्रेतश्च, प्रक्रमादितरेतरसंयोगः, किमित्याह-'पञ्चसु' विषयेषु शब्दादिपञ्चकगोचरे, अर्थादिन्द्रियमनसां तद्ब्रहणप्रवृत्ती प्राग्राहकभावः, स चाभिप्रेतार्थविषयोऽभिप्रेतः अनभिप्रेतार्थविषयस्त्वनभिप्रेतः भवति ज्ञातव्यः, आह-अस्त्वेवाभिप्रेतानभिप्रेतार्थविषयत्वेनाभिप्रेतः अनभिप्रेतश्चेतरेतरसंयोगः, अभिप्रेतानभिप्रेतायौँ तु काविति, अत्रोच्यते, 'अनुलोम' इन्द्रियाणां प्रमोदहे दीप अनुक्रम JABERatinintamational wwwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~70 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||१|| __ नियुक्ति: [४३] अध्ययनम् उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः प्रत सुत्रांक तयाऽनुकूलश्रव्यकाकलीगीतादिरभिप्रेतः, अनभिप्रेतश्च प्रतिलोम उक्तविपरीतकाकखरादिरिति गाथार्थः ॥४३॥ इह गाथापश्चार्द्धन मनोनिरपेक्षप्रवृत्त्यभावेऽपीन्द्रियाणां प्राधान्यमाश्रित्य तदपेक्षयाऽभिप्रेतोऽनभिप्रेतश्चार्थ उक्तः, सम्प्रति मनोऽपेक्षया समेवाहसव्वा ओसहजुत्ती गंधजुत्ती य भोयणविही य । रागविहि गीयवाइयविही अभिप्पेयमणुलोमो ॥४॥ व्याख्या-'सर्वाः' समस्ताः, कोऽर्थः ?-इन्द्रियाणामनुकूलाः प्रतिकूलाश्च, अस्य चौपधयुक्त्यादिभिः प्रत्येक |सम्वन्धः, ततश्च औषधादीनाम्-अगुरुकुङ्कुमादीनां सजिकाराजिकादीनां च युक्तयो-योजनानि समविषमविभागनी-| तयो वा औषधयुक्तयः, गन्धानां-गन्धद्रव्याणां श्रीखण्डादीनां ल्हसणादीनां च युक्तयः गन्धयुक्तयः ताश्च, भोजनस्य -अन्नस्य विधयः-शाल्योदनादयः कोद्रवभक्कादयश्च भेदाः भोजनविधयः ते च, 'रागविहिगीयवाइयविहि' चि सूत्रत्वाद्वचनव्यत्यये रागविधयश्च गीतवादित्रविधयश्च रागविधिगीतवादित्रविधयः, तत्र रञ्जनं रागः-कुसुम्भादिना वर्णान्तरापादनं तद्विधयः-स्निग्धत्वादयो रूक्षत्वादयश्च गीतवादित्रविधय इति, अत्र विधिशब्दस्योभयत्र योगात्, गीत-गानं तद्विषयः-कोकिलारुतानुकारित्वादयः काकखरानुविधायित्वादयश्च, वादित्रम्-आतोद्यम्, इह चोपचारात्तद्ध्वनिः तद्विधयो-मृदङ्गादिखनाः केवलकरटिकादिखनाच, चशब्दो नृत्तादिविधिसमुच्चयार्थः, एते किमित्याह-अभिष्पेयं' ति अभिप्रेतार्थी उच्यन्ते, कीरशाः सन्त इत्याह-अनुलोमाः, कोऽर्थः ? शुभा अशुभा दीप अनुक्रम ॥३०॥ ॐ34%AE JABERatinintamational wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~71 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| ___ नियुक्ति: [४४] प्रत वा मनोऽनुकूलतया प्रतिभासमानाः, एतेनैतदप्याह-यथैत एव देशकालावस्थादिवशतो विचित्राभिसन्धितया जन्तूनां मनसोऽननुलोमाः सन्तोऽनभिप्रेतोऽर्थः । इत्थं व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिमाश्रित्येन्द्रियापेक्षया मनोऽपेक्षया च भेदेनाभिप्रेतोऽनभिप्रेतश्चार्थो व्याख्यातः, अथवाऽनन्तरगाथापश्चार्द्धनाविशेषेणेन्द्रियाणां मनसश्चानुकूलोऽभिप्रेतोऽर्थः इतरस्त्वनभिप्रेत उक्तः, एतद्गाथयाऽपि स एव विशेषतो दर्शित इति व्याख्येयम् , अत्र च सर्वा इति सर्वप्रकारा अनुलोमा इति चेन्द्रियमनसामनुकूलाः, शेष प्राग्वत् । उपेक्षणीयस्य विहानभिधानं नयस्य कस्य|चिन्मतेनानभिप्रेत एव तस्यान्तर्भावादिति गाथार्थः ॥४४॥ उक्तोऽभिप्रेतानभिप्रेतभेदरूप इतरेतरसंयोगः, साम्प्रतममुमेवामिलापविषयमाह| अभिलावे संजोगो दवे खित्ते अ कालभावे अ । दुगसंजोगाईओ अक्खरसंजोगमाईओ ॥४५॥ व्याख्या-'अभिलापः' उक्तखरूपः, तद्विषयः 'संयोगः' प्रक्रमादमिलापेतरेतरसंयोगः, अयं च त्रिधा सम्भवति, तत्रैकोऽभिलापस्याभिलाप्येन द्वितीयोऽभिलाप्यस्यामिलाप्यान्तरेण तृतीयो वर्णस्य वर्णान्तरेण । तत्राद्योऽभि-|| लाप्यस्य द्रव्यादिभेदेन चतुर्विधत्वात् 'द्रव्ये' इति द्रव्यविषयः, स चार्थाद् घटादिशब्दस्य पृथुबुनोदरोंद्याकारपरि- आणतद्रव्येण वाच्यवाचकभावलक्षणः सम्बन्धः, एवं 'क्षेत्रे च' क्षेत्रविषयः, आकाशध्वनेरवगाहदानलक्षणक्षेत्रेण 'काल-II 13 भावे' इति समाहारद्वन्द्वः, ततः 'काले' कालविषयः समयादिश्रुतेर्वर्तनादिव्यायेन कालपदार्थेन, 'भावे च' भावविषय 2025%2500-45440 सूत्रांक ||१|| दीप अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~72 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||||| दीप अनुक्रम [3] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ३१ ॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || १ || निर्युक्ति: [४५] अध्ययनं [१], औदयिकादिवचसो मनुष्यत्वादिपर्यायेण चशब्दोऽत्र पूर्वत्र च समुच्चये । द्वितीयमाह - द्विकस्य संयोगो द्विकसंयोगः स आदिर्यस्य त्रिकसंयोगादेः सोऽयं द्विकसंयोगादिकः, इहाभिलापसंयोगस्य त्रिविधत्वात् तत्र चाद्यस्याप्रअन्तरमेवोक्तत्वात् तृतीयस्य चाभिधास्यमानत्वाद् अर्थाद् द्विकग्रहणेनाभिलाप्यद्वयमेव गृह्यते, तत्र द्विकसंयोगो यथा - स च स च तौ, त्रिकसंयोगो यथा - स च तौ च ते, अत्र तौ च ते चेत्युक्ते स च स च तथा स च तौ चेत्यनुक्तावप्येकत्राभिलाप्यार्थद्वयमन्यत्र चाभिलाप्यार्थत्रयं सह प्रतीयते, अभिलापसंयोगत्वं चास्याभिलापद्वारकत्वादभिलाप्येन सह प्रतीतेः । तृतीयमाह - अक्षरे व अक्षराणि च अक्षराणि तेषां संयोगः अक्षरसंयोगः स आदिर्यस्योदाताद्यशेषवर्णधर्मसंयोगस्य सोऽयमक्षरसंयोगादिकः, मकारोऽलाक्षणिकः, तत्राक्षरयोः संयोगो यथा -- क इति, अक्ष| राणां संयोगः यथा श्रीरिति, उदात्तादिवर्णधर्मसंयोगास्तु खधिया भावनीयाः, अस्याप्यभिलापसंयोगत्वं वर्णादीनां कथञ्चिदभिलापानन्यत्वेन तदात्मकत्वात्, यद्वाऽक्षरसंयोग इत्यनेन सर्वोऽपि व्यञ्जनसंयोग उक्तः, आदिशब्देन त्वर्थसंयोगः, एतद्विशेषणं च द्विकसंयोगादिरिति योजनीयम्, अन्यत् प्राग्वत्, द्रव्यसंयोगत्वं चास्याभिलापस्य द्रव्यत्वात्, द्रव्यत्वं चास्य स्पर्शवत्वेन गुणाश्रयत्वात्, वक्ष्यति हि "गुणार्णमासओ दबं” ति, न च स्पर्शवत्त्वमसिद्धं, प्रतिघातजनकत्वात्, तथाहि यत् प्रतिघातजनकं तत्स्पर्शवत् दृष्टं यथा लोष्टादि, प्रतिघातजनकश्च शब्दः, १ गुणानामाश्रयों द्रव्यमिति Education intimation For Patenty अध्ययनम् १ ~73~ ॥ ३१ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [४५] प्रत सूत्रांक ||१|| 15 अन्यथा तथाविधशब्दश्रुतावनुभवसिद्धश्रोत्रान्तःपीडाया असम्भवादिति गाथार्थः ॥४५॥ उक्तोऽभिलापविषय इतरेतरसंयोगः, सम्प्रति सम्बन्धनसंयोगरूपस्य तस्यावसरः, सोऽपि द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदतश्चतुर्धा, तत्र द्रव्यसं-1|| योगसम्बन्धनमाह| संबंधणसंजोगो सञ्चित्ताचित्तमीसओ चेव । दुपयाइ हिरण्णाई रहतुरगाई अ बहुहा उ ॥ ४६॥ | व्याख्या-सम्बध्यते प्रायो ममेदमित्यादिवुद्धितोऽनेनास्मिन् वाऽऽत्माऽष्टविधेन कर्मणा सहेति सम्बन्धनः स चासौ संयोगश्च सम्बन्धनसंयोगः, 'सचित्ताचित्तमीसओ चेव' ति प्राग्वत् सुपो लुकि सचित्तोऽचित्तो मिश्रकः, चः समुचये, एवः भेदावधारणे, यथाक्रममदाहरणान्याह द्विपदेत्यादिना, सचित्ते द्विपदादिः, आदिशब्दाचतुष्प-13 दापदपरिग्रहः, तत्र च द्विपदसंयोगो यथा-पुत्री, चतुष्पदसंयोगो यथा-गोमान् , अपदसंयोगो यथा-पनसवान् ।।४। लि अचित्ते हिरण्यादिः, आदिशब्दान्मणिमुक्तादिग्रहः, स च हिरण्यवानित्यादि । मिश्रे रथयोजितस्तुरगः मध्यपदलोपे स्थतुरगस्तदादिः, आदिशब्दाच्छकटवृषभादिपरिग्रहः, स च रथिक इत्यादि, 'चः' समुच्चये, 'बहुधा तु' इति बहुप्रकार एव, तुशब्दस्वकारार्थत्वात्, इह च सचित्तविषयत्वात् सम्बन्धनसंयोगोऽपि सचित्त इत्यादि सर्वत्र भाव-15 नीयम् । आह-यदि सचित्तादिविषयत्वादसौ सचित्तादिरिति व्यपदिश्यते, एवं सत्यात्मन एवासौ तैः सह, तत उभयनिष्ठत्वात्तेनापि किं न व्यपदिश्यते', उच्यते, यवाङ्करादिवदसाधारणेनैव व्यपदेशः, आत्मनब सरप्यमीभि दीप अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~74 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [४६] बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक उत्तराध्य. रसाविति तस्य साधारणत्वान्न तेनेह व्यपदेशः पृथिव्यादिभिरिवाङ्करस्येति न दोषः, एवमुत्तरत्रापि, इति गाथार्थः || अध्ययनम् ॥४६ ॥ अमुमेय क्षेत्रकालभावविषयमभिधित्सुराह खेत्ते काले य तहा दुपहवि दुविहो उ होइ संजोगो। भावंमि होइ दुविहो आएसे चेवऽणाएसे ॥४७॥ ॥ ३२॥ व्याख्या-क्षेत्रे' क्षेत्रविषयः, 'काले च' कालविषयश्च तथा' इति तेनागमप्रसिद्धप्रकारेण 'द्वयोरपि' इत्यनयोरेव क्षेत्रकालयोः 'द्विविधः' द्विभेदः, चशब्दो भावम्मि इत्यत्र योक्ष्यते. भवति संयोगः प्रक्रमात् सम्बन्धनसंयोगः, न च । क्षेत्रे काले इत्युक्ते द्वयोरपीति पौनरुक्त्याद् दुष्ट, लोकेऽपि हस्तिन्यश्वे च द्वयोरपि राज्ञो दृष्टिरित्येवंविधप्रयोगदर्श-| नाद्, 'भावे च' भावविषयश्च, संयोग इति संटक, भवति द्विविधः, कथं क्षेत्रादिद्वैविध्यमित्याह-'आएसे चेव-| पाणाएसे' ति आङिति मर्यादया-विशेषरूपानतिकमात्मिकया दिश्यते-कथ्यत इति आदेशो-विशेषतस्मिन् , तदन्यस्त्वनादेश: सामान्य, पूर्वत्र चैवशब्दयोः समुच्चयावधारणार्थयोभिन्नक्रमत्वात्तभिश्चैव, तत्र क्षेत्रविषयोऽना देशे यथा-जम्बूद्वीपजोऽयम् , आदेशे तु यथा-भारतोऽयं, कालविषयोऽनादेशे यथा-दौष्पमिकोऽयम् , आदेशे सातु-वासन्तिकोऽयं, भावविषयोऽनादेशे भाववानयम् , आदेशे त्वौदयिकादिभावयानिति । सामान्यायगमपूर्वकत्वा-का द्विशेषावगमस्यैवमुदाहियते, नियुक्ती तु विपर्ययाभिधानं जम्बूद्वीप इति सामान्यमपि लोकापेक्षया विशेषो भरत १ अस्मदुक्तानादेशादेशक्रमाद्विपर्ययेण आदेशानादेशेतिक्रमेण. दीप अनुक्रम wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~75 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| ___ नियुक्ति: [४७] प्रत सूत्रांक ||१|| मिति विशेषोऽपि मगधाद्यपेक्षया सामान्यमित्यादिरूपेण सर्वत्र सामान्यविशेषयोरनियतत्वख्यापनार्थ, भावे च ४ भवति द्विविध इति भिन्नवाक्यताऽभिधानमनन्तरग्रन्थस्यैतद्विषयत्वख्यापनार्थमिति गाथार्थः ।। ४७॥ अत्र क्षेत्रकादालगतयोरादेशानादेशयोरल्पवक्तव्यत्वेन सम्प्रदायादपि सुज्ञानत्वात् तद्विषयः सम्बन्धनसंयोगोऽपि सुज्ञान एवेति मत्वा भावगतादेशानादेशविषयं तमभिधित्सुरुक्तहेतोरेव प्रथममनादेशविषयं भेदत आहओदइअ ओवसमिए खइए य तहा खओवसमिए या परिणाम सन्निवाए छबिहो होअणाएसो॥४८॥ व्याख्या--तत्रोदयः-शुभाना तीर्थकरनामादिप्रकृतीनाम् अशुभानां च मिथ्यात्वादीनां विपाकतोऽनुभवनं तेन * निर्वृत्तः औदयिका, कचित्तु 'उदयिए'त्ति पठ्यते तत्र च पदावसानवर्तिन एकारस्य गुरुत्वेऽपि विकल्पतो लघु-IN त्वानुज्ञानात् नात्र छन्दोमङ्गः, उक्तं हि-"इंहियारा बिंदुजुया एओ सुद्धा पयावसाणंमि। रहवंजणसंजोए परंमि लहुणो विभासाए ॥१॥" विपाकप्रदेशानुभवरूपतया विभेदस्थाप्युदयस्य विष्कम्भणमुपशमस्तेन निवृत्त औपश-8 दमिकः, क्षयः-कर्मणामत्यन्तोच्छेदः तेन निर्वृत्तः क्षायिकः स च, तथा क्षयश्च-अभाव उदयावस्थस्य उपशमच-विष्क म्भितोदयत्वं तदन्यस्य क्षयोपशमी ताभ्यां निर्वृत्तः क्षायोपशमिकः स च, परीति-सर्वप्रकारं नमन-जीयानामजीवानां | KI १ कपिपत्र प्रारु 'आविट्रोआएसंमि बहुविहे सरिसनाणचरणगए । सामित्तपच्चयाइमि चेव किंचित्तओ बुच्छं ॥१॥" एषा गाथा दृश्यते, न च । व्याख्याता सूचिता घेत्युपेक्षिता २ इधिकारी विन्दुयुक्ती एओ (एकारौकारौ) शुद्धौ पदावसाने। रहस्य जनसंयोगे परस्मिन् लथयो विभाषया ।। १॥ दीप अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~76 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||१|| ___ नियुक्ति: [४८] द प्रत सुत्रांक उत्तराध्याच जीवत्वादिखरूपानुभवनं प्रति प्रह्वीभवनं परिणामः, 'एदोद्रलोपा विसर्जनीयस्येति विसर्गलोपः, 'स' मिति अध्ययनम् बृहद्वृत्तिः सिंहतरूपतया नीति-नियतं पतनं-गमनं, कोऽर्थः?-एकत्र वर्तनं, सन्निपातः-औदयिकादिभावानामेव द्यादिसंयोगः, 'च' सर्वत्र समुचये, इत्थं षड् विधा:-प्रकारा अस्येति पड्डिधो भवति 'अनादेशः' सामान्य, सामान्यत्वं चौदयि॥ ३३॥ कादीनां गतिकषायादिविशेषेष्वनुवृत्तिधर्मकत्वाद्, अनादेशंस्य षड्विधत्वे तद्विपयः संयोगोऽपि पडिध इत्युक्तं भवति इति गाथार्थः ॥४८॥ इदानीमादेशविषयं तमेव भेदत आहआएसो पुण दुविहो अप्पिअववहारऽणप्पिओ चेव । इक्किको पुण तिविहो अत्ताण परे तदुभए य ॥४९॥ व्याख्या-आदेशः' अभिहितरूपः, पुनःशब्दो विशेषणे, 'द्विविधः' द्विभेदः, कथमित्याह-'अप्पियववहा-12 रणप्पिओ चेव' ति व्यवहारशब्दोऽत्र डमरुकमणिन्यायेनोभयत्र सम्बध्यते, ततश्चार्पित इति व्यवहारो यस्मिन् सोऽयमर्पितव्यवहारः, मयूरव्यंसकादित्वात् समासः, अनर्पितव्यवहारस्तु तद्विपरीतः, तत्रार्पितो नाम क्षायिका|दिर्भावः खाधारे भाववति ज्ञाताध्यमित्यादिरूपेण ज्ञानमस्येत्यादिरूपेण वा वचनव्यापारेण यात्रा स्थापितः, अनर्पितस्तु वस्तुनः साधारणत्वेऽपि निराधार एव प्ररूपणाधै विवक्षितो यथा-सर्वभावप्रधानः क्षायिको भावः । अनयोरपि ॥३३॥ | भेदानाह-एकैकः' इत्यर्पितव्यवहारः अनर्पितव्यवहारश्च पुननिविधः, कथमित्याह-'अत्ताण' ति आपत्वा-11 दात्मनि परस्मिन् तयोरात्मपरयोरुभयं तस्मिंश्च, विषयसप्तम्यश्चैताः, ततो विषयत्रैविध्येनानयोपैविध्यम् , दीप अनुक्रम Re24 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~77 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| __ नियुक्ति: [४९] प्रत सूत्रांक ||१|| लाइहाण्यादेशभेदाभिधानद्वारेण सम्बन्धनसंयोगस्य भेद उक्तो भवति, तत्र चानर्पितस्य प्ररूपणामात्रसत्त्वेऽप्यर्पितप्रतिपक्षत्वेनैवात्रोपादानम्, अतो वस्तुतस्तस्यासत्वान्न तेन कस्यचित्संयोगसम्भव इति न तद्भेदेन संयोगभेदः, अर्पितस्य त्वात्मपरोभयार्पितभेदतवैविध्यात् तद्भदेन त्रिविधः सम्बन्धनसंयोग इति गाथार्थः॥४९॥ तत्राऽऽत्मासर्पितसम्बन्धनसंयोगमाह1 ओवसमिए य खइए खओवसमिए य पारिणामे अ। एसो चउबिहो खल नायवो अत्तसंजोगो ॥५०॥ | व्याख्या-औपशमिके चस्य भिन्नक्रमत्वात् क्षायिके च क्षायोपशमिके च सर्वत्र सम्यक्त्वादिरूपे जीवस्य (ख)भावे तथा तेनागमोक्तप्रकारेण चस्यास्यापि भिन्नक्रमत्वात् परिणामे च जीवत्वाधात्मके च, सर्वत्र संयोग | इति प्रक्रमः, पठ्यते च-'खओवसमिए य पारिणामे य' ति स्पष्टमेव, 'एषः' अनन्तरोक्त औपशमिकादिसंयोगः दा'चतुर्विधः' चतुष्प्रकारः, 'खलु' निश्चितं 'ज्ञातव्यः' अवबोद्धव्यः, 'आत्मसंयोगः' इत्यात्माप्तिसम्बन्धनसंयोगः,IX अत्र ह्यात्मशब्देनार्पितभाव एव धर्मधर्मिणोः कथञ्चिदनन्यत्वादुक्तः, तथा च वृद्धाः- एए हि जीवमया भवंति, ए-13 एस भावेसु जीवो नन्नो हबई' तदात्मक इत्यर्थः, ऑपशमिकादिभावानां च प्रागनादेशतोक्तावप्यत्रादेशत्वेनाभिधान सम्यक्त्वादिविशेषनिष्ठत्वेन विवक्षितत्वाद् भावसामान्यापेक्षया वेति गाथार्थः ॥५०॥ किञ्च१ तह य परिणामे इति पाठमपेक्ष्येयं व्याख्या. २ एते हि जीवमया भवन्ति, एतेभ्यो भावेभ्यो जीवो नान्यो भवतीति. दीप अनुक्रम JAMERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~78~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [५१] प्रत ***- सूत्रांक ||१|| *- उत्तराध्य. जो सन्निवाइओ खलु भावो उदएण वजिओ होइ । इक्कारससंजोगो एसो चिय अत्तसंजोगो ॥५१॥ अध्ययनम् बृहद्वृत्तिः 181 व्याख्या-यः सान्निपातिकः 'खलु' पाक्यालङ्कारे भावः 'उदयेन' औदयिकभावेन 'वर्जितः' रहितो भवति, एका दश-एकादशसङ्ख्याः संयोगा-यादिमीलनात्मका यस्मिन् स एकादशसंयोगः, सूचकत्वात् सूत्रस्यैतद्विषयो यः संयोगः, एषोऽपि, न केवलमौपशमिकादिसंयोग इत्यपिशब्दार्थः, 'चः' पूरणे, 'आत्मसंयोगः' प्राग्वदात्मार्पितसं योगः, एकादशसंयोगाथैवं भवन्ति-औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकानां चतुपर्णी पट् द्विकसंयोगादश्चत्वारखिकसंयोगा एकश्चतुष्कसंयोगः, एते चमीलिता एकादशेति गाथार्थः ॥५१॥ वाह्यार्पितसम्बंधनसंयोगमाह लेसा कसायवेयण वेओ अन्नाणमिच्छ मीसं च । जावइया ओदइया सवो सो बाहिरो जोगो ॥५२॥ - है व्याख्या-'लेश्या' लेश्याध्ययनेऽभिधास्थमानाः, कषायाश्च वक्ष्यमाणाः 'वेदना' च सातासातानुभवात्मिका कषायवेदनं, प्राकृतत्वाद्विन्दुलोपः, 'वेदः' पुंज्युभयाभिलाषाभिव्यङ्ग्यः, मिथ्यात्वोदयवतामसदध्यवसायात्मकं सत् 8|ज्ञानमयज्ञानम् , उक्तं हि-"जह दुवयणमवयणं कुच्छियसीलं असीलमसईए । भण्णइ तह नाणंपि हु मिच्छहिहिस्स अन्नाणं ॥१॥" अत एव मिथ्यात्वोदयभाविवादस्यौदयिकत्वं, तहलिकेषु चार्पितत्वविवक्षया बाबार्पितत्वमिति || १ यथा दुर्वचनमवचनं कुत्सितं शीलमशीलमसत्याः । भण्यते तथा ज्ञानमपि मिध्यादृष्टेरज्ञानम् ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~79 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||१|| __ नियुक्ति: [१२] - प्रत सूत्रांक ||१|| भावनीयं, 'मिथ्ये' ति भावप्रधानत्वान्निर्देशस्य मिथ्यात्वम्-अशुद्धदलिकखरूपं, 'मिथ' शुद्धाशुद्धदलिकखभावं, चशब्दः शेषौदयिकभेदसमुच्चये, अत एवोपसंहारमाह-'यावन्तो' यत्परिणामा औदयिकाः, भावा इति गम्यते, प्रक्र-13 मादेतद्विषयो यः संयोगः 'सर्वः' निर्विशेषः सः 'वाह्यः परः तद्विषयत्वाद्, बायसंयोग इति प्रकृतत्वात्सम्बन्धनसंयोगो ज्ञातव्य इति शेषः, इहापि बायशब्देन प्राग्वद् बाह्यार्पित उक्तः । आह-'भावा भवन्ति जीवस्यौदयिकः पारिणामिकश्चैव' इतिवचनादौदयिकोऽपि जीवभावत्वेन जीवार्पित एवेति कथं बाये कर्मण्यर्पित इति, अत्रोच्यते, कर्मानुभवनमुदयः, अनुभवनं चानुभवितरि जीवेऽनुभूयमाने च कर्मणि स्थितं, तत्र यदाऽनुभवितरि जीये विवक्ष्यते तदोदयः जीवगतो लेश्यादिपरिणामः प्रयोजनमस्सेत्सौदयिकः-कर्मणः फलप्रदानाभिमुख्यलक्षणो विपाक एवं तमाश्रित्य कर्मणि बाह्येऽर्पितत्वमिहौदयिकमावस्योक्तं, यदा त्वनुभूयमानस्थतया विवक्ष्यते तदोदये-कर्मणः फलप्रदानाभिमुख्यलक्षणे भव औदयिको लेश्याकषायादिरूपो जीवपरिणामः, तदाश्रयणेन चोच्यते-भावा भवन्ति जीवस्यौदयिक इत्यादि । इहापि चादेशान्तरेण वक्ष्यति-'छबिहो अत्तसंजोगों' ति 'सर्वः स' इति चैकवचनं वाहसंयोगस्य विधीयमानतया प्राधान्यात् प्रधानानुयायित्वाच व्यवहाराणामिति गाथार्थः ॥५२॥ उभयापितस-12 द म्बन्धनसंयोगमाह १ यत्परिमाणा इति स्यात् । परिणामस्य परिमाणताऽर्थोऽत्र वा। दीप अनुक्रम wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~80 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [3] उत्तराध्य. वृहद्वृत्तिः ॥ ३५ ॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || १ || निर्युक्ति: [५३] अध्ययनं [१], जो सन्निवाइओ खलु भावो उदएण मीसिओ होइ । पन्नारससंजोगो सवो सो मीसिओ जोगो ॥५३॥ ॥ व्याख्या—यः सान्निपातिकः खलु भावः 'उदयेन' औदयिकभावेन 'मिश्रितः' संयुतो भवति, कियत्सङ्ख्य इत्याह-पञ्चदश संयोगा अस्मिन्निति पञ्चदशसंयोगः सर्वः सः किमित्याह-आत्मकर्मणोर्मिश्रत्वात्तदर्पितभावा अप्यौदयिकसहितौपशमिकादयो मिश्राः, ततस्तद्विषयत्वात्संयोगोऽपि मिश्रः, स एव मिश्रको योगः प्रक्रमात् सम्बन्धनसंयोगो ज्ञेय इति शेषः, ते च पञ्चदश संयोगा औदयिकममुञ्चता औपशमिकादिपञ्चकस्य द्विकत्रिकचतुष्कपञ्चकसंयोगतः कार्याः, तत्र चत्वारो द्विकसंयोगाः पद त्रिकसंयोगाश्चत्वारश्चतुष्कसंयोगा एकः पञ्चकसंयोग एते च मीलिताः पञ्चदश, भावना तु वक्ष्यमाणेति गाथार्थः ॥ ५३ ॥ पुनरात्मसंयोगादीनेव प्रकारान्तरेणाभिधित्सुः प्रस्तावनामाहबीओऽवि य आएसो अत्ताणे बाहिरे तदुभए य । संजोगो खलु भणिओ तं कित्तेऽहं समासेणं ॥ ५४॥ व्याख्या - द्वितीयोऽपि च न केवलमेक एव इत्यपि शब्दार्थः, चः पूरणे, 'आदेशः प्रकारः, प्रस्तावात् प्ररूपणीयः कीदृश इत्याह-आत्मनि नाह्मे तदुभयस्मिंश्च, संयोग इति सम्बन्धनसंयोगः, 'खलु' निश्चितं 'भणित' उक्तो, गणधरादिभिरिति गम्यते, अनेन च गुरुपारतन्त्र्यमाविष्करोति, 'तम्' इति द्वितीयमादेशं 'कीर्तये' संशब्दये' 'वर्त १ चान्द्रमतेन णिज उभयपदभावात् आत्मनेपदम् । For Fast Use Only अध्ययनम् १ ~81~ ॥ ३५ ॥ www.janbay.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||||| दीप अनुक्रम [3] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || १ || निर्युक्ति: [५४] अध्ययनं [१], |मानसामीप्ये वर्तमानवद् वे' ( पा०३-३-१३१ ) ति भविष्यत्सामीप्ये लट्, 'अहम्' इत्यात्मनिर्देशः, 'समासेन' | संक्षेपेणेति गाथार्थः ॥ ५४ ॥ तत्र तावदात्मसंयोगमाह ओदइय ओवसमिए खइए य तहा खओवसमिए य । परिणामसन्निवाए अ छविहो अत्तसंजोगो ॥५५॥ व्याख्या -- 'औदयिके' औदयिकविषये, एवम् औपशमिके च क्षायिके तथा क्षायोपशमिके च परिणामसन्निपाते च, सर्वत्र संयोग इति प्रक्रमः, तत एष 'षड्विधः' पड्ड्रेदः, आत्मभिः - आत्मरूपैः संयोग इति सम्बन्धनसंयोगः आत्मसंयोगः, न चैषामेकैकेनात्मनः संयोगः सम्भवति, अपि तु द्वाभ्यां त्रिभिश्चतुर्भिः पञ्चभिर्वा तत्र द्वाभ्यां क्षायिकेण सम्यक्त्वेन ज्ञानेन वा पारिणामिकेन च जीवत्वेन, त्रिभिरौदयिकेन देवगत्यादिना क्षायोपशमिकेन मत्यादिना पारिणामिकेन च जीवत्वेन, चतुर्भिस्त्रिभिरे (वमे) व चतुर्थेनोपशमिकेन क्षायिकेण वा सम्यक्त्वेन, पञ्चभिर्वदा क्षायिकसम्यग्रडष्टिरेवोपशमश्रेणिमारोहति तदौदयिकेन मनुष्यत्येन क्षायिकेण सम्यक्त्वेन क्षायोपशमिकेन मत्यादिना औपशमिकेन चारित्रेण पारिणामिकेन जीवत्वेनेति, अत्र च त्रिकमङ्गक एकः चतुष्कभङ्गी च द्वावेते त्रयोऽपि गतिचतुष्टयभाविन इति गतिचतुष्टयेन भिद्यमाना द्वादश भवन्ति, उक्तं च- "ओदेश्य खओवसमो तइओ पुण पारिणामिओ भावो । एसो पढमवियप्पो १ औदयिकः क्षायोपशमिकः तृतीयः पुनः पारिणामिको भावः । एष प्रथमविकल्पो देवानां भवति ज्ञातव्यः ॥ १ ॥ Jus Education intimatio For Fasten ww पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~82~ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [3] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ३६ ॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || १ || निर्युक्ति: [५५] अध्ययनं [१], | देवाणं होइ नायवो ॥ १ ॥ ओदेश्य खओवसमो ओवसमिय पारिणामिओ बीओ । उदइयखइयपारिणामियखओवसमो भवे तहओ ॥ २॥ एए चैव वियप्पा णरतिरिणरएस हुंति बोद्धवा। एए सबै मिलिया वारस होती भवे भेया ॥३॥” पञ्चभिर्मनुष्यस्यैव तस्यैव तथोपशम श्रेण्यारम्भकत्वात्, तस्यामेव च तत्सम्भवात्, तथा चाह - "ओदंइए ओवसमिए खओवसमिए खए य परिणामे । उवसमसेढिगयस्सा एस वियप्पो मुणेयवो ॥" अन्यथाऽपि च त्रिभिः सम्भवति, तद्यथा-औदयिकेन मनुष्यत्वेन क्षायिकेण ज्ञानेन पारिणामिकेन जीवत्वेन, अयं च केवलिनाम्, उक्तं हि "उदेश्य| खइयष्परिणामिय भावा होति केवलीणं तु" प्रागुक्तभावोभयेन च सिद्धानामेव, उक्तं हि "खाइय तह परिणामा सिद्धाणं होंति नायचा" एवं चैते पञ्चकत्रिकद्विकसंयोगभङ्गास्त्रयः पूर्वे च द्वादशेति मीलिताः पञ्चदश सम्भवन्ति, एत | एव चाविरुद्धसान्निपातिकभेदाः पञ्चदश तत्र तत्रोच्यन्ते, तथा चाहु:-"एऍ संजोएणं भावा पन्नरस होंति नायचा । Education into १ औदयिकः क्षायोपशमिक औपशमिकः पारिणामिको द्वितीयः । औदविकः क्षायिकः पारिणामिकः क्षायोपशमिको भवेत्तृतीयः ॥ २ ॥ एत एव विकल्पा नरतिर्यमरकेषु भवन्ति बोद्धव्याः । एते सर्वे मिलिता द्वादश भवन्ति भवे भेदाः ॥ ३ । २ औदविक औपशमिकः क्षायोपशमिकः क्षायिका पारिणामिकः । उपशमश्रेणिगतस्यैष विकल्पो मुणितव्यः ॥ १ ॥ ३ औदयिकः क्षायिकः पारिणामिको भाषा भवन्ति केवलिनामेव । ४ क्षायिकस्तथा पारिणामः सिद्धानां भवतो ज्ञातय्यौ । ५ एते संयोगेन भावाः पश्वादश भवन्ति ज्ञातव्याः । केवलिसिद्धोपशमश्रेणिषु सर्वासु च गतिषु ॥ १ ॥ For Fans Only अध्ययनम् ~83~ १ ॥ ३६ ॥ www.ncbrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/गाथा ||१|| नियुक्ति: [१६] प्रत सूत्रांक ||१|| केवलिसिद्धवसमसेडिएसु सवासु य गईसु ॥१॥" आह-एवं सान्निपातिकेनैवात्मनः सदा संयोगसम्भवात् कथं षड्विधत्वमात्मसंयोगस्य ?, उच्यते, सहभावित्वेऽपि भावानां यदैकस्स प्राधान्यं विवक्ष्यते तदैकेनाप्यात्मसंयोगसम्भव इत्यदोष इति गाथार्थः ।। ५५ ॥ बाह्यसम्बन्धनसंयोगमाहनामंमि अखित्तमि अनायवो बाहिरोय(उ)संजोगो।कालेण बाहिरो खलु मीसोऽवि य तदुभए होइ॥५६॥ व्याख्या-'नासा' वस्त्वभिधायिध्वनिखभावेन, चकारात द्रव्येण क्षेत्रेण चाकाशदेशात्मकन, प्राकृतत्वात PSI तृतीयार्थ सप्तमी, प्रकृतत्वात् संयोगः, किमित्याह-ज्ञातव्यः बाह्यविषयत्वाद् 'बाहाः, तुः पुनरर्थः 'संयोग' इति । दासम्बन्धनसंयोगः, 'कालेन' इति चस्य गम्यमानत्वात् कालेन च समयाऽऽवलिकादिना, तत एव संयोगो-बाय-14 सम्बन्धनसंयोगः 'खलु'निश्चितं, ज्ञातव्य इति योज्यम्, इदमिहदम्पर्यम्-यः पुरुषादेर्देवदत्तादिनामा सम्बन्धोऽयं । हा देवदत्त इत्यादिः द्रव्येण च दण्डीत्यादिः क्षेत्रेणारण्यजो नगरज इत्यादि कालेन दिनजो रजनिज इत्यादि, स सर्वो नामादिभि परेवेति बाह्यः सम्बन्धनसंयोगः, भावेन तु संयोग आत्मसंयोगत्वेनोक्त एव, भवितुरनन्यत्वात् भावस्या अन्यथा तस्थाभावत्वप्रसङ्ग इतीह तस्थानभिधानं, तथा कालेन बाब इति च भिन्नवाक्यताकरणं केषाश्चिन्मतेन कालस्यासत्त्वख्यापनार्थ, यद्वा नाम्नि क्षेत्र इति च विषयससम्येत्र, यो हि येन सह भवति स तद्विषय एवेतिकृत्वा । आह-नामोऽम्पमिलापत्वात् तद्विषयोऽपि संयोगोऽभिलापसंयोगः, स चोक्त एवेति कथं न पौनरुत्यम् ।, उभ्यते, दीप अनुक्रम wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~84~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [१६] अध्ययनम् प्रत सूत्रांक उत्तराध्या अभिलापसामान्यविषयोऽभिलापसंयोगः, अयं तु सम्बन्धनसंयोगस्य प्रकृतत्वात् तस्य च सकपायजीवसम्बन्धि- बृहद्वृत्तिः त्वात् , वक्ष्यति हि-"संबंधणसंजोगो कसायब(लस्स होइ जीवस्स" ति, कस्यचिन्नाम्न्यप्यभिष्यकसम्भवादभि प्वङ्गहेत्वभिलापविषय एवेति न पौनरुक्त्यं, 'मीसोऽपि यत्ति 'अपिः' पुनरर्थे, 'चः' पूरणे, ततो मिश्रविषयत्वा॥३७॥ जन्मिश्रः संम्बन्धनसंयोगः पुनर्ज्ञातव्यः, यः कीगित्याह-'तदुभए'त्ति प्रारबत्तदुभयेन-आत्मवावलक्षणेन तदुभयस्मिन् वोक्तरूप एव भवति, यः संयोग इति शेषः, यथा-क्रोधी देवदत्तः क्रोधी कौन्तिको मानी सौराष्ट्रः क्रोधी बास|न्तिकः, अत्र क्रोधादिभिरौदयिकभावान्तर्गतत्वेनात्मरूपैर्नामादिभिस्त्वात्मनोऽन्यत्वेन बाह्यरूपैः संयोग इत्युभयस|म्बन्धनसंयोग उच्यते । नन्वेवं न कदाचिन्नामादिपिकलैरौदयिकादिमिरौदयिकादिरहितैर्वा नामादिभिरात्मनः संयोग इति सर्वदोभयसम्बन्धनसंयोग एव प्राप्तः, सत्यमेतत्, किन्तु वक्तुरभिप्रायवैचित्र्यात्कदाचिदीदायिकादिभिः कदाचिन्नामादिभिः कदाचित्तदुभयेन संयोगविवक्षेति नात्मपरोभयसम्बन्धनसंयोगत्रयविरोध इति गाथार्थः ॥५६॥ प्रकारान्तरेण बाह्यसम्बन्धनसंयोगमाहआयरिय सीस पुत्तो पिया य जणणी य होइ धूया य। भज्जा पइ सीउण्हं तमुजछायाऽऽयवे चेव ॥५७॥ व्याख्या-आङित्यभिव्याप्त्या मर्यादया वा स्वयं पञ्चविधाचारं चरत्याचारयति वा परान् आचर्यते वा मुक्यर्थि दीप अनुक्रम CC ॥३७॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~85 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||||| दीप अनुक्रम [3] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || १ || निर्युक्तिः [५७] अध्ययनं [१], | मिरासेव्यत इति आचार्यः, 'अन्यत्रापी' तिवचनात् कर्तरि कर्मणि वा कृत्यप्रत्ययः, तथा शासितुं शक्यः शिष्यः पुनाति || पितुराचारानुवर्तितयाऽऽत्मानमिति पुत्रः पाति-रक्षत्यपत्यमिति पिता स च जनयति- प्रादुर्भावयत्यपत्यमिति जननी सा च भवति बाह्यसम्बन्धनसंयोगविषयत्वाद्वाह्यसम्बन्धनसंयोग इति वृद्धाः, इदं च सर्वत्र योज्यं, दोग्धि च केवलं जननीं स्तन्यार्थमिति दुहिता, ततश्च "दुहितरि घो हिलोपश्च' इतिवचनादादेर्घत्वे हिलोपे च 'उदूत् सुपुष्पोत्सवोत्सुकदुहितृषु" इति वचनात् उत ऊत्त्वे च धूया, सा च चकारत्रयं पूरणे, भ्रियते-पोप्यते भर्त्रेति भार्या पाति-रक्षति तामिति पतिः स्त्यायते धातूनामनेकार्थत्वात् कठिनीभवत्यस्मिन् जलादीति शीतम् उपति - दहति जन्तुमिति उष्णं तमयति-खेदयति जनलोचनानीति तमः औणादिकोऽसन्, 'उज्ज' त्ति आर्षत्वादुद्योतयतीति उद्द्योतः पचादित्वादच्, यति छिनत्ति वाऽऽतपमिति छाया, आ-समन्तात्तपति संतापयति जगदिति आतपः, च| शब्दो राजभृत्याद्यनुक्ताशेष सम्बन्धिसमुच्चये, लक्षणानुपपत्तौ च सर्वत्र नैरुक्तो विधिः, सुपश्च यत्राश्रवणं तत्र प्राग्वलुक्, इदमत्रै दम्पर्यम् - आचार्यः शिष्यादन्यत्वेन वाह्यः, ततो यस्तेन शिष्यस्य संयोगः- शिष्य इत्युक्तिरवश्यमाचार्यमाक्षिपति यस्यायं शिष्य इत्याक्षेप्याक्षेपकभावलक्षणः स वाद्येनेतिकृत्वा बाह्यसम्बन्धनसंयोगः, ततस्तद्विषय आचार्योऽप्युपचारात्तथोच्यते, एवं शिष्योऽप्याचार्यादम्यत्वेन वाह्यः, तेनाप्याचार्यस्य यः संयोगः- आचार्य इत्युक्ति१ कृत्यल्युटो बहुलम् इति ३-३-११३ सूत्रोकबहुलभावार्थभूतम्. Education intimatio Forsy www.incibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~86~ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||१|| ___ नियुक्ति: [१७] प्रत सूत्रांक उत्तराध्य. भरवश्यं शिष्यमाधिपति यस्यायमाचार्य इत्याक्षेप्याक्षेपकभावरूपः सोऽपि बायनेतिकृत्वा वायसम्बन्धनसंयोगः, अध्ययनम ततस्तद्विषयः शिष्योऽप्युपचारात् तथोच्यते, एवं पुत्रपित्रादिद्वयेष्वपि भावनीयं, सर्वत्र सामान्येन परस्पराक्षेप्वाक्षेबृहद्वृत्तिः पकभावः सम्बन्धः, विशेषनिरूपणायां त्वाचार्यशिष्यभार्यापतीनामुपकार्योपकारकभावः पितृपुत्रजननीदुहितृणां ॥३८॥ जन्वजनकभावः (०१०००) शीतोष्णादीनां च विरोधः सम्बन्धः, अत एव च विशेषाद् द्रव्यसंयोगत्वेऽप्यस्य भेदेनोपादानमिति गाथार्थः ॥ ५७ ॥ सम्प्रति संयोगप्रक्रमेऽप्याचार्यशिष्यमूलत्वादनुयोगस्य तयोः खरूपमाहआयरिओ तारिसओजारिसओ नवरि हुज्ज सो चेव । आयरियस्सवि सीसो सरिसो सवेहिवि गुणेहिं ५८ व्याख्या-आचार्यः 'तादृशः' तथाविधः, यारशः क इत्याह-यारशो 'नवर' मिति यदि परं भवेत् 'सचेव' कति चः पूरणे, स एव-आचार्य एव, किमुक्तं भवति ?-आचार्यस्थाचार्य एवान्यः सदृशो भवति, न पुनरना18| चायः, आचायेंगुणानामन्यत्राविद्यमानत्वात् , न बाचार्यादन्यः षटत्रिंशतसङ्ख्यगणिगुणसमन्वित इहास्ति, तत्सम-1 दान्वितत्वे वन्योऽपि तत्त्वत आचार्य एपेति । अथ क एते षटूत्रिंशद्गुणाः १, उच्यन्ते, प्रत्येकं चतुष्प्रकारा अष्टी गणि सम्पदो द्वात्रिंशत् , तत्र चाचारादिचतर्विधविनयमीलनात पत्रिंशद्भवन्ति. उक्तं च-"अट्टविहा गणिसंपर चउ-II गुणा नवरि होति बत्तीसा । विणओ य च उभेओ छत्तीस गुणा हवंतेए ॥१॥" तत्राष्टी गणिसम्पद इमाः१अष्टविधा गणिसंपत् चतुर्गुणा नवरं भवन्ति द्वात्रिंशत् । विनयश्च चतुर्भेदः पदिशद्णा भवन्त्येते ॥१॥ दीप अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~87 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [५८] प्रत सूत्रांक ||१|| आचारसम्पत् १ श्रुतसम्पत् २ शरीरसम्पत् ३ वचनसम्पत् ४ वाचनासम्पत् ५ मतिसम्पत् ६ प्रयोगमतिसम्पत् ७ सङ्ग्रहपरिक्षासम्पत् ८, तथा चाह-"आयरिसुयसरीरे वैयणे पायणमतीपतोगमती। एएसु संपया खल अहमिया संगहपरिषणा ॥१॥ तत्र चाचारसम्पत् चतुर्धा-संयमभुवयोगयुक्तता १ असम्प्रग्रहता २ अनियतवृत्तिः ३ वृद्धशीलता चेति ४, तत्र संयमः-चरणं तस्मिन् ध्रुवो-नित्यो योगः-समाधिस्तधुक्तता, कोऽर्थः -सन्तजातोपयुक्तता संयमधुवयोगयुक्तता १, असम्प्रग्रहः-समन्तात् प्रकर्षेण जात्यादिप्रकृष्टतालक्षणेन ग्रहणम्-आत्म नोऽवधारणं सम्प्रग्रहस्खदभावोऽसम्प्रग्रहः, जात्याद्यनुत्सिततेत्यर्थः, २, अनियतवृत्तिः-अनियतविहाररूपा ३, वृद्धदशीलता-वपुषि मनसि च निभृतखभायता निर्विकारतेतियावत् ४,१॥श्रुतसम्पचतुर्धा-बहुश्रुतता १ परिचितसू प्रता २ विचित्रसूत्रता ३ घोषविशुद्धिकरणता ४ च, तत्र बहुश्रुतता-युगप्रधानागमता १परिचितसूत्रता-उत मक्रमवाचनादिमिः स्थिरसूत्रता २ विचित्रसूत्रता-स्वपरसमयविविधोत्सर्गापवादादिवेदिता ३ घोषविशुद्धिकरदैवता-उदात्तानुदातादिखरशुद्धिविधायिता ४, २। शरीरसम्पञ्चतुर्धा-आरोहपरिणाहयुक्तता १ अनवत्राप्यता २ परिपूर्णेन्द्रियता ३ स्थिरसंहननता च ४, इह चाऽऽरोहो-दैथ्य परिणाहो-विस्तरः ताम्यां तुल्याभ्यां युक्तताऽऽरोह-II परिणाहयुक्तता १ अविद्यमानमवत्राप्यम्-अवत्रपणं लज्जनं यस्य सोऽयमनपत्राप्यः, यद्वाऽवत्रापयितुं-उज्जयितुमहा शक्यो वाऽवत्राप्यो-उज्जनीयः न तथाऽनवत्राप्यस्तझावोऽनवत्राप्यता * उभयत्राहीनसर्वाङ्गत्वं हेतुः, परि दीप अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~88~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [१८] पत्तराध्य बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१|| पूर्णेन्द्रियता-अनुपहतचक्षुरादिकरणता ३ स्थिरसंहननता-तपःप्रभृतिषु शक्तियुक्तता ४, ३। वचनसम्पचतुर्भे- अध्ययनम् दा-आदेयवचनता १ मधुरवचनता २ अनिश्रितवचनता ३ असन्दिग्धवचनता ४, तत्राऽऽदयवचनता-सकलज-४ नग्रायवाक्यता १, मधुरं रसवद् यदर्थतो विशिष्टार्थवत्तयार्थावगाढत्वेन शब्दतश्वापरुषत्वसौखर्यगाम्भीर्यादिगुणोतत्वेन श्रोतुराहादमुपजनयति तदेवंविधं वचनं यस्य स तथा तद्भावो मधुरवचनता २ अनिश्रितवचनता-रागा-12 चकलुषितवचनता ३ असन्दिग्धवचनता-परिस्फुटवचनता ४, वाचनासम्पञ्चतुर्धा-विदित्वोद्देशनं १ विदित्वा समुद्देशनं २ परिनिर्वाप्य वाचना ३ अर्थनिर्यापणेति ४, तत्र विदित्वोद्देशने विदित्वा समुद्देशने ज्ञात्वा परिणामिकत्वादिगुणोपेतं शिष्यं यद् यस्य योग्यं तस्य तदेवोद्दिशति समुद्दिशति वा, अपरिणामिकादावपक्वघटनिहितजलोदाहरणतो, दोषसम्भवात् २, परीति-सर्वप्रकार निर्वापयतो निरो निर्दग्धादिषु भृशार्थस्यापि दर्शनात् भृशं गमयतः-पूर्वदत्तालापकादि सर्वात्मना खात्मनि परिणमयतः शिष्यस्य सूत्रगताशेषविशेषग्रहणकालं प्रतीक्ष्य शक्त्यनुरूपप्रदानेन प्रयोजकत्वमनुभूय परिनिर्वाप्य वाचना-सूत्रप्रदानं परिनिर्वाप्यवाचना ३, अर्थ:-सूत्राभिधेयं वस्तु तस्स निरिति भृशं यापना-निर्वाहणा पूर्वापरसाङ्गत्वेन स्वयं ज्ञानतोऽन्येषां च कथनतो निर्गमना निर्यापणा ४, ५। मति-2॥ सम्पत् अवग्रहहापायधारणारूपा चतु, अवग्रहादयश्च तत्र तत्र प्रपञ्चिता एवेति न विप्रियन्ते ६ । प्रयोगमति-18 सम्पञ्चतुर्धा-आत्मपुरुषक्षेत्रवस्तुविज्ञानात्मिका, तत्राऽऽत्मज्ञानं-बादादिव्यापारकाले किममुं प्रतिवादिनं जेतुं मम दीप अनुक्रम Swanniorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~89~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/गाथा ||१|| नियुक्ति: [५८] प्रत AASA सूत्रांक ||१|| शक्तिरस्ति नवा इत्यालोचनं १, पुरुषज्ञानं-किमयं प्रतिवादी पुरुषः साङ्ख्यः सौगतोऽन्यो वा ?, तथा प्रतिभादिमानितरो वेति परिभावनं २, क्षेत्रज्ञानं-किमिदं मायाबहुलमन्यथा वा ? तथा साधुभिरभावितं भावितं वा नगरादीति विमर्शनं ३, वस्तुज्ञानं-किमिदं राजाऽमात्यादि सभासदादि वा वस्तु दारुणमदारुणं भद्रकमभद्रकं वेति निरूपणं४,७॥ सङ्ग्रहपरिज्ञा तु बालदुर्बलग्लाननिर्वाहबहुजनयोग्यक्षेत्रग्रहणलक्षणैका १ निषद्यादिमालिन्यपरिहाराय फलकपीठोपादानाऽऽत्मिका द्वितीया २ यथासमयमेव स्वाध्यायोपधिसमुत्पादनप्रत्युपेक्षणभिक्षादिकरणात्मिका तृतीया ३ प्रत्राजकाध्यापकरत्नाधिकादिगुरूणामुपधिवहनविश्रामणसंपूजनाभ्युत्थानदण्डकोपादानादिरूपा चतुर्थीति ४,८। इत्युक्ता अष्टौ चतुर्गुणा आचारादिगणिसम्पदः, विनयस्तूत्तरत्राचार्यविनयप्रस्तावेऽभिधास्यते, इति गतं प्रासङ्गिकं, प्रकतमुच्यते-तत्राऽऽचार्यस्य खरूपमभिहितं, शिष्यस्याह-आचार्यस्य, अपिभिन्नक्रमः, ततः शिष्योऽपि, न केवलमाचार्यस्तारशो यादशो नवरं स एवेति वचनादाचार्य इत्यपिशब्दार्थः, 'सदृशः तुल्यः, सर्वैरपि न कतिपयरेव, कैः'गुणैः' साधारणैः शान्त्यादिभिरिति गम्यते, यद्वा लक्षणे तृतीया, ततः सर्वैरपि खगुणैर्लक्षितः शिष्य आचार्यस्य सदृश इति योज्यं, सारश्यं च खगुणमाहात्म्यविभूतित उभयोरपि यथोक्तान्वर्धयुक्त(त्व)मेय, अथवाऽऽचार्यस्यापीति अपरेवकारार्थत्वात् खगुणोपलक्षितः शिष्यः सदृश एव-अनुरूप एव, अनुरूपार्थस्यापि सदृशशब्दस्य दर्शनात् , यथा|ऽऽत्मसदृशं कुर्याः, कुलानुरूपमित्यर्थः, अननुरूपस्तु तत्त्वतोऽशिष्य एवेति भावः, अथ के अमी शिष्यगुणाः,१] दीप अनुक्रम JAMERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~90~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [५८] प्रत सूत्रांक उत्तराध्याउथ्यन्ते, 'भाववियाणणमणुयत्तणा उ भत्ती गुरूण बहुमाणो । दक्खत्तं दक्खिणं सील कुलमुज्जमो लबा ॥१॥ अध्ययनम् ब्रहद्धत्तिः सुस्सूसा पडिपुच्छा सुणणं गहणं च ईहणमवाजो। घरणं करणं सम्म एमाई होति सीसगुणा ॥२॥ इति गाथाः *॥५८॥ इत्थमनुयोगोपयोगित्वादाचार्यशिष्ययोः स्वरूपमुक्तं, प्रकारान्तरेणोभयसम्बन्धनसंयोगमाह एवं नाणे चरणे सामित्ते अप्पणो उ(य)पिउणोत्ति।मज्झं कुलेऽयमस्स य अहयं अम्भितरो मिचि॥५९॥ | व्याख्या-'एवम्' अनन्तरोक्तबाह्यसंयोगवदाक्षेप्याक्षेपकभावेन 'ज्ञाने' ज्ञानविषयः 'चरणे' चरणविषयः, आत्मदान उभयसम्बन्धनसंयोगो ज्ञातव्य इति वृद्धाः, अत्र भावना-ज्ञानेनात्मभूतेन संयोगो, ज्ञानमित्युक्तिनिराश्रयस्थ मिर्षिपवस्य च ज्ञानस्यासम्भवादवश्यं ज्ञानिनं ज्ञेयं चाऽऽक्षिपतीति, जानाक्षिसेन च ज्ञेयेन वायेन सहारकः संयोग इत्युभयसंयोगः । एवं चरणेनाप्यात्मभूतेनोक्तवत्तदाक्षिप्तेन चर्यमाणेन च बालेन संयोग इत्युभयसम्बन्धनसंयोगः, अयमाक्षेप्याऽऽक्षेपकभावे उभयसम्बन्धनसंयोग उक्तः, अमुमेव प्रकारान्तरेणाह-'खामित्वेम' खामित्वषिषयः, उभय-1 सम्बन्धनसंयोग इति प्रक्रमः, किंरूप! इत्याह-आत्मनः' मम 'च' पूरणे, 'पितुः जनकस्ख, पुत्र इति गम्यते, एवं-IIT अविधोखण्याचे, अत्रात्मनः पित्रा सहात्मकद्वारकः खखामिमावलक्षणः सम्बन्धः, तत्पुत्रेण परद्वारका, मम पितुर, PA॥४०॥ १ भावविज्ञानमनुवर्चना तु भक्तिगुरूणां बहुमानः । दक्षत्वं दाक्षिण्यं शीलं कुलमुद्यमो लखा ॥१॥ शुभूषा प्रतिष्ठा श्रवर्ण महणं | नयपावः । धरणं करणं सम्यक् एवमाद्या भवन्ति शिध्वगुणाः ॥२॥२ मज्ज्ञार्य कुलयस्सय अहवं अनंतरोहिति व (खात). दीप DANCE अनुक्रम wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~91 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/गाथा ||१|| नियुक्ति: [५९] प्रत पुत्र इति पितृद्वारेणासावितिकृत्वा तत उभयद्वारकत्वादुभयविषयसंयोग उभयसम्बन्धनसंयोगः, इतिशब्दो मिम पितुः पिता मम भ्रातुः पुत्रः मम दासस्य कम्बल इत्येवंप्रकारसम्बन्धान्तरव्यञ्जकान्योल्लेखसूचकः, अनेन 3 लौकिके खामित्व उभयसम्बन्धनसंयोग उक्तः, लोकोत्तरमेवाह-मम 'कुले' नागेन्द्रादावयं साध्वादिरिति गम्यते, यद्वा कुलमेव कुलकं तस्य, 'चः' समुचये योक्ष्यते, ततोऽहमेव अहकम् अभ्यन्तरः 'अस्मि' भवामि, चशब्दादयं च साध्वादिरित्येवंविधोलेखव्वयव्यङ्ग्य एषोऽप्युभयसम्बन्धनसंयोग इति वृद्धवाः, अत्र हि मच्छब्दवाच्यस्य कुलेन सहात्मद्वारकः खखामिभावसम्बन्धः, कुलान्तर्वर्तिना च साध्वादिना परद्वारको, मम कुलेऽयमिति कुलद्वारकत्वादस्य, ततोऽयमपि प्राग्वदुभयसम्बन्धनसंयोगः, इहापि इतिशब्दोऽयं मम गुरोः साध्यादिरित्यायेवंप्रकारसम्बन्धान्तर-1 व्यजकान्योल्लेखसूचकार्थः, इह चोलेखस्याभिधानमेकत्राप्यनेकोलेखसम्भवख्यापनार्थमिति गाथार्थः ॥ ५९॥ पुनरन्यथा तमेवाहपच्चयओ य बहुविहो निवित्ती पच्चओ जिणस्सेव । देहा य बद्धमुक्का माइपिइसुआइ अ हवंति ॥६॥ व्याख्या-प्रतीयतेऽनेनार्थ इति प्रत्ययः-ज्ञानकारणं घटादिः, सर्वथा निरालम्बनज्ञानाभावेन तदविनाभावित्वात् ज्ञानस्य, ततस्तमाश्रित्य, चकारात् ज्ञानतश्च-ज्ञानं चाश्रित्य 'बहुविधः' बहुप्रकारः, प्रक्रमादात्मनो यः संयोगः स उभयसम्बन्धनसंयोगः, तद्बहुत्वं च प्रत्ययानां तद्विशिष्टज्ञानानां च बहुविधत्वात, तथा च वृद्धाः-घटं। *35*35* सूत्रांक ||१|| दीप * अनुक्रम ** पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~92 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [६०] प्रत सूत्रांक ||१|| 5455%E5% उत्तराध्य. प्रतीत्य घटज्ञानं पदं प्रतीत्य पटज्ञानम् एवमादीनि प्रत्ययात् ज्ञानानि भवन्ति, तथा च सति ज्ञानेनात्मद्वारको, ममेदं अध्ययनम् ज्ञानमिति,प्रत्ययेन परद्वारको, मम ज्ञानस्यायं विषय इति ज्ञानद्वारकत्वात्तस्य, तत उभयविषयत्वादुमयसम्बन्धनसं-12 बृहद्वृत्ति योगः। आह एवं केवलिनोऽप्युभयसंयोग एवेति, अत्रोच्यते, 'निर्वत्तिः' इत्युत्तरत्रैवकारस्थ भिन्नक्रमत्वानिवृत्तिरेष ॥४१॥ -सकलावरणक्षयादुत्पचिरेव प्रत्ययो जिनस्य, जिनसम्बन्धिज्ञानखेति गम्यते, इदमाकूतम्-छमस्थज्ञानं हि मत्यादिकं लन्धिरूपतयोत्पन्नमप्युपयोगरूपतायां बाथमपि घटादिकमपेक्षते, तथाहि-घटं प्रतीत्य घटज्ञानं पदं प्रतीत्य पटज्ञानं, ४ केवलिनस्तु ज्ञानं लन्धिरूपतयोत्पन्नं पुनरुपयोगरूपतां प्रति न वाझं घटादिकमपेक्षते, तज्ज्ञानस्योत्पत्तिसमकालमेव सकलातीतानागतदूरान्तरितस्थूलसूक्ष्मार्थयाधात्म्यवेदितयैवोपयोगभावात् , यदुक्तम्-"उभयावरणाईतो केवलवरकणाणदंसणसहायो । जाणइ पासद य जिणो सर्व णेयं सयाकालं ॥१॥" ततः केवलज्ञानस्य सर्वत्र सततोपयो गेन नोपयोगं प्रति बाह्यापेक्षेति निर्वृत्तिरेव प्रत्ययः, ततो न छद्मस्थज्ञानस्येव प्रत्ययत उभयसंयोगः। आह-उक्त एव ज्ञानस्योभयसंयोगः, तत् किं पुनरुच्यते ?, सत्यम् , उक्तः स तत्राक्षेप्याक्षेपकभावेन, इह त्वेकस्यापि वस्तुन उपा-14 धिभेदेनानेकसम्बन्धसम्भवण्यापनाय जन्यजनकभावेनोच्यते इति न दोपः । उभयसम्बन्धनसंयोगमेव पुनः खखा-IAll ॥४१॥ मिभावेनाह-दिहान्ते-उपचीयन्ते पुद्गलैरिति देहाः-कायाः ते च बद्धा-इह जन्मनि जीवेन सम्बद्धा मुक्का १ उभयावरणातीतः केवलवरज्ञानदर्शनस्वभावः । जानाति पश्यति च जिनः सर्व शेयं सदाकालम् ॥१॥ दीप अनुक्रम JAMERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~93~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [६०] प्रत 4 % * सूत्रांक ||१|| अन्यजन्मनि तेनैवोज्झिता अनयोर्द्वन्द्वे बद्धमुक्ताः, 'माइपितिसुयाई' त्ति 'णो जसूशसोर्लोपे' आपत्याच लोपे दीर्घ इति दीर्घत्वस्थाभावे पितृमातृसुतादयः, आदिशब्दाद् भ्रातृभगिन्यादयो, बद्धमुक्ता इत्यत्रापि योज्यते, चशब्दोऽयं व समुच्चये, एते च किमित्याह-'भवंति' ति जायन्ते, प्राग्वदुभयसम्बन्धनसंयोगः, जीवस्येति गम्यते. इयमत्र भावना-बद्धा देहा मात्रादयश्चात्मरूपाः, तत्र देहात्मनोः क्षीरनीरवदन्योऽन्यानुगतत्वेन मात्रादयश्चात्यन्तस्नेहविष-11 यतयाऽऽत्मवद्रश्यमानत्वेन, मुक्तास्तूभयेऽपि बाधाः, तत्र देहा आत्मनः पृथग्भूतत्वेन मात्रादयश्च तथाविधस्नेहाविषयतयाऽऽत्मवददृश्यमानत्वेन, अतो देहौत्रादिभिश्च बद्धमुक्तैः खखामिभावलक्षणसम्बन्धो जीवस्योभयसम्ब|न्धनसंयोगः।आह-देहादयो मुक्ताश्च स्वखामिविषयाश्चेति विरुद्धमेतत् , एवमेतद् , यदि भावतोऽपि मुक्ताः स्युः, अथ * भावतोऽप्यहमेषां स्वामी ममैते खमितिभावाभावान्मुक्ता एव ते , नन्वेवमैहिकेवष्यमीवपरापरोपयोगवत आत्मनो न सततमेवं भावोऽस्तीति कथं तेष्वपि तद्विषयता ?, अथ तेष्वेवं भावाभावेऽपि व्युत्सर्गाकरणतस्तद्विषयत्वम् , एतदिहापि समानं, व्युत्सर्गीकरणत एव तद्विषयत्वस्खेहापि विवक्षितत्वादिति गाथार्थः ॥६॥ इत्थमनेकधा है सम्बन्धनसंयोग उक्तः, अयं च कीदृशस्य कस्य भवतीत्साहसंबंधणसंजोगो कसायबहुलस्स होइ जीवस्स । पहुणो वा अपहुस्स व मज्झंति ममजमाणस्स ॥१॥ व्याख्या-'सम्बन्धनसंयोगः' उक्तरूपः, कषायाः-क्रोधादयस्तैर्बहुलस्य-व्यासस्य, प्रभूतकषायस्येत्यर्थः, 'भवति' दीप अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~94 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१|| ___ नियुक्ति: [६१] अध्ययनम् प्रत सुत्रांक उत्तराध्य. जायते, कस्य :-जीवस्य, पुनः कीरशस्य ?-प्रभवति-सम्बन्धिवस्तु तत्र तत्र खकृत्ये नियोक्तुं समर्थों भवतीति प्रभु- बृहद्वृत्तिः स्तस्य वा 'अप्रभोर्वा' उक्तविपरीतस्य, वाशब्दो समुच्चये, उभयोरपि संयोगसाम्य प्रति कारणमाह-'मज्झति मम जमाणस्स' ति ममेदं नगरजनपदादीति ममत्वमाचरतः, इदमुक्तं भवति-सत्यसति वा मत्सम्बन्धितया बासव॥४२॥ वस्तुनि तत्त्वतोऽभिष्वक एव सम्बन्धनसंयोगः, अनेन च काका कषायबहुलत्वे हेतुरुक्तः, कषायबहुलस्येति च हैब्रुवता कषायद्वारेण सम्बन्धनसंयोगस्य कर्मवन्धहेतुत्वं ख्यापितं भवति, आह-मिथ्यात्वादयो हि बन्धहेतवः, तत्कथं कषायसत्तामात्रेणैव तद्धेतुख्यापनम् ?, उच्यते, तेषामेव तत्र प्राधान्यात्, तत्प्राधान्यं च सत्तारतम्येनैव वन्धतारम्यात्, उक्तं च-"जहभागगया मत्ता रागाईणं तहा चउकम्मे" इति, बाहुल्यापेक्षं च शुक्ला बलाकेत्यादिवत् कषायवहुलस्य जीवस्येत्युच्यते, ततोऽकषायहेतुकत्वेऽप्यौपशमिकादिभावे नामादिसंयोगानामजीवविषयत्वेऽपि च शीतोष्णादिविरोधिसंयोगानां सम्बन्धनसंयोगत्वं न विरुध्यते । आह-एवमभिप्रेतानभिप्रेतसंयोगयोरपि तत्वतः सकषायजीवविषयत्वात् सम्बन्धनसंयोगत्वप्राप्तिः, सत्य, तथापीन्द्रियमनसोः साक्षात्तावुक्ती, अयं तु जीवस्येति न दोषः। अन्यस्त्वाह-संयुक्तकसंयोगोऽपि द्विष्ठत्वेनेतरेतरस्यैव तथेतरेतरसंयोगोऽपि खपरधर्मः संयुक्तत्वात् सर्ववस्तुनः संयुक्तस्यैवेति नानयोः प्रतिविशेषः, एवमेतत्, तथाऽप्येकस्कन्धताऽऽपन्नद्रव्यविषयः संयुक्तकसंयोगः, इतरेतर १ यतिभागगता मात्रा रागादीनां तथा चतुर्यु कर्मसु. RECESEXCARE दीप अनुक्रम ॥४२॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~95 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/गाथा ||१|| नियुक्ति: [६१] प्रत सूत्रांक ||१|| संयोगस्तु तथाऽन्यथा च, तत्र परमाणुसंयोगस्तथा प्रदेशादिसंयोगस्तु प्रायोऽन्यथेति युक्त एव तयोर्भेदः, एवं तह परमाणुसंयोगस्य संयुक्तकसंयोगादभेदोऽस्तूभयोरपि एकस्कन्धताऽऽपन्नद्रव्यविषयत्वात् , अयमपि न दोपः, यतो निष्पाद्यमानविषय इतरेतरसंयोगः, परिमण्डलादिसंस्थितद्रव्यस्य तेनैव (वि)निष्पाद्यमानत्वात् , संयुक्तसंयोगस्तु प्रायो निष्पन्नद्रव्यविषयः, निष्पन्नं हि मूलादिरूपेण वृक्षादिद्रव्यं कन्दादिना युज्यते, इत्यस्यनयोर्विशेष इति गाथार्थः । ॥६१॥ इत्थं सम्बन्धनसंयोगः स्वरूपत उक्तः, सम्प्रति तस्यैव फलतः प्ररूपणापूर्वकं विप्रमुक्तस्येति प्रकृतसूत्रपद व्याख्यानयन् यथा ततो विषमुक्ता भवन्ति यच तेषां फलं तदाह संबंधणसंजोगो संसाराओ अणुत्तरणवासो । तं छित्तु विप्पमुक्का माइपिइसुआइ ये हवंति ॥ ६॥ | व्याख्या-सम्बन्धनसंयोगः' उक्तरूपः, संसरन्यस्मिन् कर्मवशवर्तिजन्तष इति संसारस्तस्मात् , न विद्यते उत्तरणं । -पारगमनमस्मिन् सतीत्यनुत्तरणः, स चासी वासश्च-अवस्थानमनुचरणवासः, अनुत्तरणवासहेतुत्वादायुघृतमित्यादिबदनुत्तरणवासः, अथवा 'अनुत्तरणवासो'त्ति आत्मनः पारतत्र्यहेतुतया पाशवत् पाशः, ततोऽनुत्तरणचासौ पाशश्च अनुत्तरणपाशः, उभयत्र च सापेक्षत्वेऽपि गमकत्वात् समासः, अनेन संसाराबस्थितिः पारवश्य वा सम्बन्धनसंयोगस्वार्थतः फलमुक्तं, 'तम्' एवंविधं सम्बन्धनसंयोगम् , अर्घादौदयिकभावविपर्य मात्रादिविषयं च 'छित्त्वा' द्विधा १ टीका-साहू मुका तओ तेणं । दीप अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~96~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [3] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || १ || निर्युक्ति: [६२] अध्ययनं [१], उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ४३ ॥ विधाय निर्णाश्येतियावत् किमित्याह - विप्रमुक्ताः श्रुतत्वादनन्तरोक्तसम्बन्धनसंयोगादेव के ते ? - 'साधवः' अनगाराः, येनैवं तेन किमित्याह- मुक्ताः 'ततः' संसारात्, तद्धेतुकत्वात्तस्य, 'तेन' हेतुना, अनेन च गाथापश्चाधन सम्बन्धच्छेदनलक्षणेन प्रकारेण विप्रमुक्ता भवन्ति तेषां च फलं मुक्तिरित्यर्थत उक्तं भवति । यच्च विप्रमुक्तस्येत्येक९ त्वप्रक्रमेऽपि विप्रमुक्ता इतीह बहुवचनं तदेवंविधभिक्षोः पूज्यत्यख्यापनार्थमिति गाथार्थः ॥ ६२ ॥ एवं 'संजोगे निक्खेबो' इत्यादिमूलगा थोपक्षिप्तसंयुक्तकसंयोगेतरेतरसंयोगभेदतो द्विविधं द्रव्यसंयोगं निरूप्य तत्र संयुक्तकसंयोगं सचित्तादिभेदतस्त्रिविधम् इतरेतरसंयोगं तु परमाणुप्रदेशाभिप्रेतानभिप्रेताभिलापसम्बन्धनविधानतः षडि धमभिधाय सम्बन्धनसंयोग एव च साक्षात् कर्मसम्बन्धनिबन्धनतया संसारहेतुरिति तत्याज्यतां च सम्प्रति तत्प्रतिपादनत एवान्यदुक्तप्रायमिति मन्वानः क्षेत्रादिनिक्षेपम विशिष्टमतिदेष्टुमाहसंबंधणसंजोगे खित्ताईणं विभास जा भणिया । खित्ताइसु संजोगो सो चेव विभासियो अ ( उ ) ॥ ६३ ॥ व्याख्या --- सम्बन्धनसंयोगे क्षेत्रादीनाम्, आदिशब्दात् कालभावपरिग्रहः, विविधा - आदेशानादेशादिभेदादनेकभेदा भाषा विभाषा, या इति प्रस्तुतपरामर्शः, 'भणिता' अभिहिता, 'क्षेत्रादिषु' क्षेत्रादिविषयः संयोगः प्रथमद्वार- ७ ॥ ४३ ॥ गाथासूचितः, स चैव विभाषितव्यः, 'तुः' पूरणे, संयोगत्वं चात्र विभाषाया वचनरूपत्वाद्वचनपर्यायाणां कथञ्चिद्वाच्यादभेदख्यापनार्थमुक्तं, ततोऽयमर्थः सम्बन्धनसंयोगविषयक्षेत्रादिविभाषायां यत्संयोगखरूपमुक्तम्, इहापि Education Inational Forts at Use Only अध्ययनम् १ ~97~ www.ncbrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||२|| नियुक्ति: [६३] प्रत सूत्रांक ||२|| तदेव वक्तव्यं, चकारखानुक्कसमुचयार्थत्वात् , संयुक्तकसंयोगः सम्भवन्त इतरेतरसंयोगशेषभेदाश्च वाच्याः, तत्र क्षेत्रस्य संयुक्तकसंयोगो यथा-जम्बूद्वीपः खप्रदेशसंयुक्तक एवं लवणसमुद्रेण युज्यते, इतरेतरसंयोगः क्षेत्रप्रदेशानामेव परस्परं धर्मास्तिकायादिप्रदेश संयोगः, एवं कालभावयोरपि नेयमिति गाथार्थः ॥ ६३ ॥ इह चोक्तनीया सम्बन्धनसंयोग एव साक्षादुपयोगी, इतरेषां तु तदुपकारितया तेपामपि कथञ्चित्त्याज्यतया च शिष्यमतिव्युत्पा-IN दिनाय चोपन्यास इति भावनीयम् । उक्तः संयोगः, तदभिधानाच व्याख्यातं प्रथमसूत्रम्॥शासम्प्रति यदुक्तं 'विनयं ४ प्रादुष्करिष्यामी ति, तत्र विनयो धर्मः, स च धर्मिणः कथश्चिदभिन्न इति धर्मिद्वारेण तत्स्वरूपमाह आणानिदेसयरे, गुरुणमुववायकारए । इंगियागारसंपन्ने, से विणीएत्ति वुच्चइ ॥२॥ (सूत्रम्) * व्याख्या-आङिति खखभावावस्थानात्मिकया मर्यादयाभिव्याप्त्या वा ज्ञायन्तेऽर्था अनयेत्याज्ञा-भगवदभि-11 लिहितागमरूपा तस्या निर्देश-उत्सर्गापवादाभ्यां प्रतिपादनमाज्ञानिर्देशः, इदमित्थं विधेयमिदमित्थं वेस्पेवमा स्मकः तत्करणशीलस्तदनुलोमानुष्ठानो वा आज्ञानिर्देशकरः, यद्वाऽऽज्ञा-सौम्य ! इदं कुरु इदं च मा कारिति गुरुवचनमेव, तस्या निर्देश-ददमित्थमेव करोमि इति निश्चयाभिधानं तत्करः, आज्ञानिर्देशेन वा तरति भवाम्भोदाधिमित्याज्ञानिर्देशतर इत्यादयोऽनन्तगमपर्यायत्वाद्भगवद्वचनस्य व्याख्याभेदाः सम्भवन्तोऽपि मन्दमतीनां व्यामो हेतुतया बालाबलादिवोधोत्पादनार्थत्वाचास्य प्रयासस्य न प्रतिसूत्रं प्रदर्शयिष्यन्ते, तथा 'गुरूणां' गौरवार्हाणामा दीप अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~98~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||३|| नियुक्ति: [६३...] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥४॥ प्रत सूत्रांक ||३|| चार्यादीनामुप-समीपे पतनं-स्थानमुपपात:-ग्वचनविषयदेशावस्थानं तत्कारका-तदनुष्ठाता, न तु गुर्वादेशा- अध्ययनम् दिभीत्या तद्यवहितदेशस्थायीतियावत् , तथेनितं-निपुणमतिगम्यं प्रवृत्तिनिवृत्तिसूचकमीषद्भूशिरःकम्पादि आकार:-स्थूलधीसंवेद्यः प्रस्थानादिभावाभिव्यञ्जको दिगवलोकनादिः, आह च-"अयेलोयणं दिसाणं वियंभणं साडयस्स संठवणं । आसणसिढिलीकरणं पट्ठियलिंगाई एयाई॥१॥" अनयोद्वन्द्वे इङ्गिताकारौ तौ अर्थाद्गुरुगती सम्यक् प्रकर्पण जानाति इङ्गिताकारसम्प्रज्ञः, यद्वा-इङ्गिताकाराभ्यां गुरुगतभावपरिज्ञानमेव कारणे कार्योपचारादिगिताकारशब्देनोक्तं, तेन सम्पन्नो-युक्तः, 'स' इत्युक्तविशेषणान्वितः 'विनीतः' विनयान्वितः, 'इति' सूत्रपरामर्श, उच्यते, तीर्थकृणधरादिभिरिति गम्यते, अनेन च खमनीषिकाऽपोहमाह इति सूत्रार्थः ॥२॥ इह विनयोऽभिधित्सितः, स च विपर्ययाभिधान एव तद्विविक्ततया सुखेन ज्ञातुं शक्यत इत्यविनयं धर्मिद्वारेणाहआणाऽनिदेसकरे, गुरुणमणुवयायकारए । पडिणीए असंबुद्धे, अविणीएत्ति वुच्चइ ॥३॥ (सूत्रम्) व्याख्या-पादद्वयं प्राग्वत्, नवरं नयोजनायतिरेकतो व्याख्येयं, 'प्रत्यनीकः' प्रतिकूलवर्ती शिलाऽऽक्षे-IMIn४ ॥ पककूलवालकश्रमणवत्, दोषानीकं प्रति वर्तत इति प्रत्यनीकः, किमित्येवंविधोऽसावित्याह-'असम्बुद्धः' अनव१ अवलोकनं विशां विजृम्भणं शाटकस्य संस्थापनम् । आसनशिथिली (श्लथी करणं प्रस्थितलिशान्येतानि ॥ १ ॥ Reck दीप अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~99~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||४|| नियुक्ति: [६३...] प्रत सूत्रांक ||४|| गततत्त्वः, 'अविनीतः' अविनयवान् ‘इत्युच्यते' इति पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ साम्प्रतं दृष्टान्तपूर्वकमिहेवास्य । सदोषतामाह18||जहा सुणी पुईकण्णी, णिक्कसिजइ सवसो। एवं दुस्सीलपडिणीए, मुहरि निकसिजइ ॥४॥(सूत्रम्) व्याख्या-'यथा' इत्युपदर्शने, वसितीति शुनी, स्त्रीनिर्देशोऽत्यन्तकुत्सोपदर्शकः, पूती-परिपाकतः कुथितगन्धौ कृमिकुलाकुलत्याधुपलक्षणमेतत् , तथाविधौ कौँ-श्रुती यस्याः पक्करक्तं वा पूतिस्तद्याप्ती कणौं यस्याः सा पूतिकर्णा, सकलावयवकुत्सोपलक्षणं चैतत् , सा चेशी शुनी किमित्याह-निष्काश्यते' निर्यास्यते बहिनिःसायेत इतियावत् , कुतः १-'सबसों' ति सर्वतः सर्वेभ्यो गोपुरगृहागणादिभ्यः सर्वान् वा हतहतेत्यादिविरूक्षवचनलतालकुटलेष्टुघातादिकान् प्रकारानाश्रित्य 'छन्दोवत् सूत्राणि भवन्तीति छान्दसत्वाच सूत्रे शस्प्रत्ययः । उपनयमाह-एवम्' अनेनैव प्रकारेण, दुष्टमिति-रागद्वेषादिदोषविकृतं शीलं-खभावः समाधिराचारो वा यस्खासौ दुःशीलः, प्रत्यनीकः प्राग्वत् , मुखेनारिमावहति मुखमेव वेहपरलोकापकारितयाऽरिरस्य मुधैव वा कार्य विनवा-2 रयो यस्यासौ मुखारिसुधारिया-बहुविधासम्बद्धभाषी, सूत्रत्वाद्वा 'मुहरि' ति मुखरो-वाचाटो निष्काश्यते 'सर्वतः'। दाइतीहापि योज्यते, ततश्च सर्वतो निष्काश्यते, सर्वथा कुलगणसङ्घसमवायबहिर्वर्ती विधीयत इति सूत्रार्थः ॥४॥ 45 दीप अनुक्रम JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~100 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||५|| दीप अनुक्रम [4] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ४५ ॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || ५ || निर्युक्ति: [६३...] अध्ययनं [१], आह-दौः शील्यनिमित्त एवायमविनीतस्य दोषः, प्रत्यनीकतामुखरत्वयोरपि तत्प्रभवत्वात् तत्र चैत्रमनर्थहेतो किमसौ प्रवर्तत इति, जत्रोच्यते, पापोपहतमतित्वेन तत्रैवास्याभिरतिरितिकृत्वा, तामेव दृष्टान्तपूर्विकामाहकणकुंडगं जहित्ता णं, विद्वं भुंजइ सूयरो । एवं सीलं जहित्ता णं, दुस्सिले रमइ मिए ॥५॥ (सूत्रम् ) व्याख्या -- कणाः - तन्दुलास्तेषां तन्मिश्रो वा कुण्डकः- तत्क्षोदनोत्पन्नकुक्कुसः कणकुण्डकस्तं 'हित्वा' पाठान्तरतस्त्यक्त्वा वा 'विष्ठां' पुरीषं 'भुङ्क्ते' अभ्यवहरति 'सूकर' इति गतसूकरो, यथेति गम्यते, एवं 'शीलम् उक्तरूपं 4 प्रस्तावाच्छोभनं 'हित्वा' प्राग्वच्यक्त्वा वा दुष्टं शीलं दुःशीलं तस्मिन् भावप्रधानत्वाद्वा निर्देशस्य दुष्टं शीलमस्येति दुःशीलतद्भावो दौः शील्यं तस्मिन्, उभयत्र दुराचारादी 'रमते धृतिमाधत्ते मृग इव मृगः अज्ञत्वादविनीत इति प्रक्रमः, इदमत्र हृदयं यथा मृग उद्गीर्णासिपुत्रिकगौरिगायन पुरुषहेतु कमायती मृत्युरूपमपायमपश्यन्नज्ञः, एवमयमपि दौः शील्य हेतु कमागामिनं भवभ्रमणलक्षणमपायमनालोकयन्नज्ञ एवं सन् गर्तासूकरोपमः सदा पुष्टिदायिकणकुण्डकसदृशं शीलमपहाय विवेकिजनगर्हिततया विष्ठोपमे दुःशीले दौः शील्ये वा रमते, इह च दृष्टान्तेऽपि विड्भुक्त्यअभिरतिरेवार्धत उक्ता तदविनाभावित्वात्तस्याः, यद्वा शुभपरिहारेणाशुभाश्रयणमुभयत्रापि सादृश्यनिमित्तमस्तीति नोपमानोपमेयभावविरोध इति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ उक्तोपसंहारपूर्वकं कृत्योपदेशमाह For Fans Only अध्ययनम् १ ~ 101 ~ ॥ ४५ ॥ www.janbay.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥६॥ दीप अनुक्रम [६] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || ६ || निर्युक्ति: [६३...] अध्ययनं [१], सुणियाभावं साणस्स, सूयरस्त नरस्स य। विणए ठविज अप्पाणं, इच्छंतो हियमप्पणो ॥ ६॥ (सूत्रम्) व्याख्या- 'श्रुत्वा' आकर्ण्य 'अभाव' नञः कुत्सायामपि दर्शनादशोभनं भावं सर्वतो निष्काशनलक्षणं पर्याय 'साणस्स' त्ति प्राकृतत्वादिवेत्यस्य गम्यमानत्वात् शून्या इव 'सूकरस्य' उक्तन्यायेन शूकरोपमस्य नरस्य, 'चः' पूरणे, यद्वा शून्याः शूकरस्य च दृष्टान्तस्य नरस्य च दार्शन्तिकस्याशोभनं भावं त्रयाणामप्युक्तरूपं श्रुत्वा, किमित्याह- 'विनये' वक्ष्यमाणस्वरूपे, स्थापयेदात्मानम्, आत्मनैवेति गम्यते, 'इच्छन्' वान्छन् 'हितम् ऐहिकमामुष्मिकं च पथ्यम् 'आत्मनः' स्वस्थ, इह च पुनर्दृष्टान्ताभिधानमुपसंहारत्वेनाविनये शिष्यस्याशुभभावस्योत्पादनार्थत्वेन वा नाप्रकृतमिति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ यतथैवं ततः किमित्याह तम्हा विणयमेसिज्जा, सीलं पडिलभे जओ । बुद्धउत्ते नियागट्ठी, न निक्कसिजड़ कण्हुइ ॥७॥ (सूत्रम्) व्याख्या—'तस्माद्' इति यस्मादविनयदोपदर्शनादात्मा विनये स्थापनीयस्तस्मात् विनयम् 'एषयेत्' अनेकार्थत्वेन धातूनां पर्यवसितवृत्या वा कुर्यात् एवं ह्यात्मा विनये स्थाप्यत इति, किं पुनरस्य विनयस्य फलं ? येनैवमत्रात्मनोऽवस्थापनमुद्दिश्यत इत्याशङ्क्याह-- 'शीलम्' उक्तरूपं 'प्रतिलभेत' प्राप्नुयात् 'यत' इति विनयात् अनेन | विनयस्य शीलावासिः फलमुक्तम्, अस्यापि किं फलमित्याह- बुद्धैः - अबगततत्त्यैस्तीर्थकरादिभिरुक्तम्-अभिहितं, Education intimation For Fasten ww पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~ 102 ~ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||७|| दीप अनुक्रम [७] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ४६ ॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||७|| अध्ययनं [१], निर्युक्तिः [६३...] तच तन्निजमेव निजकं च- ज्ञानादि तस्यैव बुद्धेरात्मीयत्वेन तत्त्वत उक्तत्वात् बुद्धोक्तनिजकं, तदर्थयते-अभिलपतीत्येवंशीलः बुद्धोक्तनिजकार्थी सन्, पठन्ति च- 'बुद्धबुत्ते णियागट्टि त्ति' बुद्धैः- उक्तरूपैर्युक्तो - विशेषेणाभिहितः, स च द्वादशाङ्गरूप आगमस्तस्मिन् स्थित इति गम्यते, यद्वा बुद्धानाम् - आचार्यादीनां पुत्र इव पुत्रो बुद्धपुत्रः, 'पुत्ता व सीसा य समं विद्दित्ता' इति वचनात् स्वरूपविशेषणमेतत् नितरां यजनं यागः-पूजा यस्मिन् सोऽयं नियागो मोक्षः, तत्रैव नितरां पूजासम्भवात् तदर्थी सन् किमित्याह - 'न निष्काश्यते' न वहिष्क्रियते, कुतचिद् गच्छगणादेः, किन्तु विनीतत्येन सर्वगुणाधारतया सर्वत्र मुख्य एव क्रियते इति भावः, इति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ कथं पुनर्विनय एषयितव्य इत्याह णिसंते सिया अमुहरि, बुद्धाणमंतिए सया । अट्टजुत्ताणि सिक्खिजा, निरट्टाणि उ वज्जए ॥८॥ (सूत्रम्) व्याख्या - नितराम् - अतिशयेन शान्तः-उपशमवान् अन्तः क्रोधपरिहारेण बहिश्च प्रशान्ताकारतया निःशान्तः 'स्याद्' भवेत्, तथा 'अमुखारिः' प्राग्वत् अमुखरो वा सन् 'बुद्धानाम्' आचार्यादीनाम् 'अन्तिके' समीपे, न तु विनयभीत्याऽन्यथैव 'सदा' सर्वकालमर्यते - गम्यत इति अर्थः, अर्तेरीणादिकस्थन् ( उषिकुपिगाऽर्तिभ्यस्थन् उ० (२-४ ) स च हेय उपादेयश्वोभयस्याप्यर्यमाणत्वात् तेन युक्तानि - अन्वितानि अर्थयुक्तानि तानि च हेयोपादे१ पुत्रांश शिष्यांच समं विभज्य ( विधाय ). Education intimation For Parts at Use Only अध्ययनम् ~ 103~ ॥ ४६ ॥ www.ncbrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||८|| नियुक्ति: [६३...] प्रत सूत्रांक ||८|| याभिधायकानि, अर्थादागमवचांसि, यद्वा-मुमुक्षुभिरर्यमानत्वादों-मोक्षस्तत्र युक्तानि-उपायतया सतानि | अर्थ वा-अभिधेयमाश्रित्य युक्तानि यतिजनोचितानि 'शिक्षेत' अभ्यस्येत् , अपश्चितज्ञपिनेयानुग्रहाय व्यतिरेकत आह-निरर्थकानि' उक्तविपरीतानि डित्थडवित्थादीनि, यद्वा वैश्यिकवात्स्यायनादीनि स्वीकथादीनि या 'तुः। पुनरर्थे 'वर्जयेत्' परिहरेत् , इह च निशान्त इत्यनेन प्रशमादीनामुपलक्षितत्वात् तेषां च दर्शनाविनामावित्वाद् दर्शदिनस्य च जिनोक्तभाव श्रद्धानरूपत्वात् तस्यैव दर्शनविनयत्वात् अर्थतो दर्शनविनयो दर्शितः, उक्तं हि प्राक्-“दवाण सवभावा उवाइट्टा जे जहा जिणिंदेहिं । तं तह सद्दहइ णरो दंसणविणओ हवति तम्हां ॥१॥" शेषेण तु श्रुत-18 ज्ञानशिक्षाऽभिधायिना ज्ञानदर्शन(ज्ञान)विनय उक्तः, तत्खरूपमाह-"णाणं सिक्खदणाणं गुणेइ णाणेणे" ति द सूत्रार्थः॥८॥ कथं पुनरर्थयुक्तानि शिक्षेतेत्याह अणुसासिओ न कुप्पिजा, खंति सेवेज पंडिए। बालेहिं सह संसम्गि, हासं कीडं च वजए ॥९॥ (सूत्रम्) PI व्याख्या-'अनुशिष्ट' इति अर्थयुक्तानि शिक्ष्यमाणः कथञ्चित् स्खलितादिषु गुरुभिः परुषोक्त्याऽपि शिक्षितः 'न कुप्येत्' न कोपं गच्छेत् , किं तर्हि कुर्यादित्याह-क्षान्ति' परुषभाषणादिसहनात्मिका 'सेवेत' भजेत, पण्डादिबुद्धिः सा सखाताऽस्पेति पण्डितः, तथा 'क्षुद्रैः' पालैः शीलहीनैर्वा पार्थस्थादिभिः 'सह' समं 'संसम्गि' ति प्राकृ १ विनयव्याख्यानावसरे टीकायां नियुक्तेः गाथे क्रमेण सप्तमी अष्ठमी च. २ खुद्देहिं इति टीका. ३ पण्डा तत्त्वानुगा बुद्धिरित्युक्तेः. AE%ENCER-54 दीप अनुक्रम % पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~104 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||९|| दीप अनुक्रम [8] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ४७ ॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा || ९ || निर्युक्तिः [६३...] अध्ययनं [१], तत्वात्संसर्ग, हसनं हासस्तं, क्रीडां च अन्ताक्षरिकाप्रहेलिकादानादिजनितां च ' वर्जयेत्' परिहरेत् सर्वेषामप्येषां विशिष्टशिक्षाक्षितिहेतुत्वात् लोकागमविरुद्धत्वाचेति सूत्रार्थः ॥ ९ ॥ पुनरन्यथा विनयमाह - मा य चंडालियं कासी, बहुयं मा य आलवे । कालेण य अहिजित्ता, तत्तो झाइज इकओ ॥१०॥ (सूत्रम्) | व्याख्या- 'मा' निषेधे 'चः' समुचये, चण्डः क्रोधस्तद्वशादलीकम् - अनृतभाषणं चण्डालीकं, भयालीकाद्युपलक्षणमेतत् यद्वा चण्डेनाऽऽलमस्य चण्डेन वा कवितश्चण्डालः स चाति क्रूरत्वा चण्डालजातिस्तस्मिन् भयं चाण्डालिकं कर्मेति गम्यते, अथवा अचण्ड ! सौम्य ! अलीकम्-अन्यथात्वविधानादिभिरसत्यं, गुरुवचनमागमं चेति गम्यते, ' मा कार्षीः' मा विधाः, भगवदुद्दिष्टतिलोत्पाटकस्वेच्छालापिगोशालकवत्, बहेव बहुकम् - अपरिमित मालजालरूपं 'मा च' इति प्राग्वत्, आङिति रूयादिकथाऽभिव्याया लपेत्-भाषेत, बह्नालापनात् ध्यानाध्ययनक्षितिवातक्षोभादिसम्भवात् किं पुनः कुर्यादित्याह - कालः अध्ययनाद्यवसरः प्रथमपौरुष्यादिस्तेन, 'चः' पुनरर्थे, 'अधीत्य' पठित्वा, प्रच्छनायुपलक्षणमेतत्, 'ततः' अध्ययनात्, जनन्तरमिति गम्यते, 'ध्यायेत्' चिन्तयेत्, 'एकक' इति भावतो रागद्वेषादिसाहित्यरहितः, द्रव्यतस्तु विविक्तशय्यादिसंस्थः, इत्थं हि चाण्डालिककरणाद्यनुत्थानमधीतार्थस्थिरीकरणं च कृतं भवतीति भावः । इह च पादत्रयेण साक्षाद्वाग्गुप्तिरुक्ता, ध्यायेदित्यनेन मनोगुप्तिः, Education intemational For Pursat Use Only अध्ययनम् १ ~ 105~ ॥ ४७ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |१०|| दीप अनुक्रम [10] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||१०|| निर्युक्ति: [६३...] अध्ययनं [१], आद्यपादोत्तर व्याख्यानद्वयेन तु कायगुतिरपि एताश्च चारित्रान्तर्गता एव यदुक्तम्- "पणिहाणजोगजुतो पंचहि समितीहि तिहिं गुतीहिं । एस चरितायारो अट्टषिहो होइ णायवो ॥ १ ॥" न च चारित्राचारस्तत्त्वतश्चरित्र - विनयादतिरिच्यते इति देशतस्तस्याप्यनेनाभिधानमिति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ इत्थमकृत्य निषेधः कृत्यविधिश्चोपदिष्टः, कदाचिदेतद्विपर्ययसम्भवे च किं करणीयमित्याह आहञ्च चंडालियं कहु, न निण्हविज कण्डुइ । कडं कडंति भासिज्जा, अकडं नो कडंति ॥ ११॥ (सूत्रम्) व्याख्या- 'आहत्य' कदाचित् चण्डालीकं च चाण्डालिकं चोक्तरूपं यद्वा चण्डवालीकं च चण्डालीकं 'कृत्वा' विधाय 'न निन्दुबीत' न कृतमेवेति नापलपेत्, कदाचिदपि, यदा परैरुपलक्षितो यदा वा नोपलक्षितस्तदापीत्यर्थः, किं तर्हि कुर्यादित्याह 'कृतं' विहितं चाण्डालिकादि 'कृतमिति' इति कृतमेव, न भयलज्जादिभिरकृतमपि 'भाषेत' ब्रूयात्, 'अकृतं' तदेवाविहितं 'नो कृतमिति' अकृतमेव भाषेत, न तु मायोपरोधादिना कृतमपि, अन्यथा मृषावादादिदोपसम्भवात् उपलक्षणत्वाच्चास्य बढनालपनकालाध्ययनादिविपर्ययसम्भवेऽप्येतदेव कृत्यम्, इदं चात्राकूतं कथञ्चिदतिचारसम्भवे लज्जायकुर्वन् स्वयं गुरुसमीपमागत्य - 'जह बालो जंपतो कज्जम१ प्रणिधानयोगयुक्तः पञ्चभिः समितिभिस्तिसृभिर्गुप्तिभिः । एष चारित्राचारोऽष्टविधो भवति ज्ञातव्यः ॥ १ ॥ २ यथा बालो जल्पन कार्यमकार्य च ऋजुकं भणति । तत् तथाऽऽलोचयेत् मायामदविप्रमुक्तस्तु ॥ १ ॥ Jus Education intimatio For Fans Only www.janbay.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~ 106~ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||११|| नियुक्ति: [६३...] प्रत सूत्रांक ||११|| उत्तराध्य. कजं च उज्जुयं भणति । तं तह आलोएजा मायामयविप्पमुको उ॥१॥ इत्याचागममनुस्मरन् कथञ्चित् परेः अध्ययनम् बृहद्धृत्तिः प्रतीतमप्रतीतं वा मनःशल्यं यथावदालोचयेत्, ततश्चानेनान्तरतपोऽन्तर्गताऽऽलोचनाख्यप्रायश्चित्तभेदाभिधा-1|| नम् , अनेन च शेषतपोभेदानामप्युपलक्षितत्वात् तपोविनयमाह इति सूत्रार्थः ॥ ११॥ इहैवं पुनः पुनरुपदेशश्रव॥४८॥ दाणाद् यदेव गुरोरुपदेशस्तदैव प्रवर्तितव्यं निवर्तयितव्यं चेति स्यादाशङ्का, तदपनोदायाह मा गलियस्सेव कसं, वयणमिच्छे पुणो पुणो । कसं व दट्टमाइन्ने, पावगं परिवजए ॥१२॥ (सूत्रम्) व्याख्या-'मा' निषेधे, गलि:-अविनीतः, स चासावश्चश्च गल्यश्वः स इव, कशतीति कशस्तम् , उपलक्षणत्वात् कशमहारं, 'पचनं' प्रवृत्तिनिवृत्तिविषयमुपदेश, प्रस्तावाद्गुरूणाम्, 'इच्छेत्' अभिलपेत् , 'पुनः पुनः' वारं वारं, कोऽभिप्रायः ?-यथा गल्यश्वो दुर्विनीततया न पुनः पुनः कशप्रहारं विना प्रवर्तते निवर्तते वा, नैवं भवताऽपि प्रवृत्तिनिवृत्त्योः पुनः पुनर्गुरुवचनमपेक्षणीयं, किन्तु 'कसं व दट्टमाइण्णे'त्ति इयशब्दस्य भिन्नक्रमत्वात् कशं-चर्मयष्टिं दृष्ट्वाऽऽ-12 कीर्णो-विनीतः, स चेह प्रस्तावादश्वः स इव, सूचकत्वात् सूत्रस्य, सुशिष्यो गुरोराकारादि दृष्ट्वा, पापमेव दापापर्क, गम्यमानत्वादनष्ठानं 'परिवर्जयेत' सर्वप्रकारं परिहरेत् , उपलक्षणत्वादितरचानुतिष्ठेत्, पठन्ति च-पावगं|| ॥४८॥ पडियजद' त्ति तत्र च पुनातीति पावकं-शुभमनुष्ठानं 'प्रतिपद्येत' अङ्गीकुर्यात , इहापि प्राग्यदितरत् परिहरेत्, किमुक्तं भवति ?-यथाऽऽकीर्णोऽश्वः कशग्रहणादिनाऽऽरोहकाभिप्रायमुपलभ्य कशेनाताडित एव तदभिप्रायानुरूपं दीप अनुक्रम [११] LSCREENA wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~107~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१२|| ___ नियुक्ति: [६४] प्रत सूत्रांक ||१२|| प्रवर्तते निवर्तते वा, तथा सुशिष्येगा(प्योड)प्याकारादिभिराचार्याशयमवगम्य, वचनेनाप्रेरित एव प्रवर्तते, मा भूदन्यथाऽऽरोहकस्पेव गुरोरायास इति सूत्रार्थः ॥ १२॥ अत्र च नियुक्तिकृत् गल्याकीर्णों व्याचिण्यासुः 'तत्त्वमे४दपर्यायाख्या' इति तत्पर्यायानाह गंडी गली मराली अस्से गोणे य हुंति एगट्टा । आइन्ने य विणीए य भदए वावि एगद्रा ॥ ६ ॥ ___ व्याख्या गच्छति प्रेरितः प्रतिपथादिना डीयते च कूर्दमानो बिहायोगमनेनेति गण्डिा, गिलसेव केवलं न तु || वहति गच्छति येति गलिः, नियत इव शकटादौ योजितो राति च-ददाति लत्तादि लीयते च भुवि पतनेनेति |मरालिः, अमी च 'अथे' तुरगे 'गोणे च' बलीबई भवन्ति 'एकार्थाः' एकोऽर्थो-दुष्टतालक्षणः अनन्तरोक्तनीत्या प्रत्दातिनिमित्तभेदेऽप्यमीपामितिकृत्वा । 'आकीर्यते' व्याप्यते विनयादिभिर्गुणैरिति आकीर्णः 'चः' पूरणे, विशेषण नीतः-प्रापितः प्रेरकचित्तानुवर्तनादिभिः श्लाघादीति विनीतः, भाति-शोभते स्वगुणैर्ददाति च प्रेरयितुश्चित्तनिईतिमिति भद्रः स एव भद्रका, चशब्द इहाप्यचे गोणे चेति विषयानुवृत्त्यर्थः, अपिशब्द इह पूर्यत्र चानुक्तपर्यायान्तरसमुच्चयार्थः, 'एकार्था' इति प्राग्वदिति गाथार्थः ।। ६४ ॥न चैवं गल्याकीर्णतुल्यशिष्ययोर्गुरोरायासजननाजनने एवं गुणदोषी, किन्तु गलिसदृशस्थानाश्रयत्वादेराकीर्णतुल्यस्य चित्तानुगतत्वादेः सम्भव इति तद्वशतः कोपनप्रसादने अपि, अत एचाह दीप अनुक्रम [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~108~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं -]/ गाथा ||१३|| ___ नियुक्ति: [६४] उत्तराध्य. बृद्धृत्तिः ॥४९॥ प्रत सूत्रांक ||१३|| अध्ययनम् अणासवा थूलवया कुसीला मिउंपि चंडं पकरंति सीसा। चित्ताणुया लेहु दक्खोववेया पसायएते हु दुरासयपि ॥ १३ ॥ (सूत्रम्) व्याख्या-'अणासव' ति आ-समन्तात् शृण्वन्ति-गुरुवचनमाकर्णयन्तीत्याश्रवा न तथा प्रतिभासाविषयस्य 2 तस्याश्रवणादनाश्रवाः, पठ्यते च-'अणासुण' त्ति अस्यार्थः स एव, स्थूलम्-अनिपुणं यतस्ततो भाषितया वचो येषां|| ते स्थूलवचसः 'कुशीला' इति दुःशीलाः, 'मृदुमपि' अकोपनमपि कोमलालापिनमपि वा 'चण्डं' कोपनं परुषभा- पिणं वा 'प्रकुर्वन्ति' प्रकर्षेण विदधति 'शिष्याः' विनेयाः, सम्भवति येवंविधशिष्यानुशासनाय पुनः पुनर्वचनात्मक खेदमनुभवतो मृदोरपि गुरोः कोप इति । इत्थं गलितुल्यस्व दोषमभिधायेतरस्य गुणमाह-चित्तं-हृदयं प्रक्रमात् || प्रेरकस्यानुगच्छन्ति-कसपाताननपेक्ष्य जात्याश्चवदनुवर्तयन्तीति चित्तानुगाः 'लघु' शीममेव दक्षस्य भावो दाक्ष्यम्-IM अविलम्बितकारित्वं तेन 'उववेय' त्ति उपपेता-युक्ता दाक्ष्योपपेताः 'प्रसादयेयुः सप्रसादं कुर्युः 'ते' इति शिष्याः, I'दुः' पुनरः, दुःखेनाऽऽश्रयन्ति तमतिकोपनत्वादिभिरिति दुराश्रयस्तमपि, प्रक्रमादरूं, किं पुनरनुत्कटकषायमित्यपि-12 शब्दार्थः । अत्रोदाहरणं चण्डरुद्राचार्यशिष्यः, तत्र च सम्प्रदायः-अवंतीजणवए उजेणीणयरीए पहवणुज्जाणे | १ अवन्तीजनपदे उज्जयिनीनगर्या सपनोद्याने साधवः समवमृताः, तेषां सकाशे एको युवा उदात्तवेषो क्यस्यसहित उपागतः, स तान् | दीप अनुक्रम [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~109. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१३|| नियुक्ति : [६४...] प्रत सूत्रांक ||१३|| साहुणो समोसरिया, तेसिं सगासं एगो जुवा उदत्तबेसो वयंससहिओ उवागतो, सो ते वंदिऊण भणति-भयवं! दाअम्हे संसाराउ उत्तारेह, पथयामित्ति, एस एमेव पवंचेतित्ति काऊण 'घृष्यतां कलिना कलिरिति चंडरह आयरियं उपदिसंति, एस ते नित्थारेहित्ति, सोऽवि य सभावेणं फरुसो, तओ सो बंदिऊण भणइ-भगवं ! पवावेह | (हि)ममंति, तेण भणितो-छारं आणेहत्ति, आणिए लोयं काऊण पवाविओ, वयंसगा से अद्धीई काऊण पडिगया, तेऽवि उवस्सयं नियगं गया, विलंपिए सूरे पंथं पडिलेहेइ, परं पञ्चूसे बच्चामित्ति विसजिओ, पडिलेहिउमागओ, पचूसे निग्गया, पुरतो वचति(त्ति) भणितो, वचंतो पंथातो फिडितो चंडरुद्दो खाणुए पक्खलितो, रुसिएण हा दुट्टसेहत्ति दंडएण मत्थए आहतो, सिरं फोडितं, तहावि सम्मं सहइ, विमले पहाए चंडरुद्दण रुहिरोग्गलंतमुद्धाणो । १ वन्दित्वा भणति-भगवन्त: मां संसारादुत्तारयत, प्रव्रजामीति, एष एवमेव प्रवचयते इतिकृत्वा चण्डरुद्रमाचार्यमुपविशन्ति(उपदर्शयन्ति), दएष त्वां निस्तारयिष्यति, सोऽपि च स्वभावेन परुषः, ततः स वन्दित्वा भणति-भगवन् ! प्रत्राजय मामिति, तेन भणित:-क्षारं (भस्म) आनयेति, आनीते लोचं कृत्वा प्रत्राजितः, वयस्यकास्तस्याधृति कृत्वा प्रतिगताः, तेऽपि उपाश्रयं निजं गताः, विलम्बिते (किञ्चिच्छेपे) सूर्ये पन्धान प्रतिलेखय(खे)ति, परं प्रत्युषसि बजाव इति विसृष्टः, प्रतिलिस्थागतः, प्रत्युषसि निर्गतौ, पुरतो बजेति भणितः, व्रजन पथः स्फिटिततश्चण्डरुद्रः स्थाणी प्रस्खलितः, रुप्टेन हा दुष्टशैक्ष ! इति दण्डेन मस्तके आहतः, शिरः स्फोटितं, तथाऽपि सम्यक सहते, विमले प्रभाते है |चण्डरुद्रेण गलगुधिरमूर्धा दृष्टः, हा दुष्टं कृतमिति संवेगमापनेन क्षमितः । CookSCENERAL दीप अनुक्रम [१३] JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~110~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१४|| नियुक्ति: [६४...] बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१४|| उत्तराध्य. दिहो, हा! दुटु कयंति संवेगमावण्णेण खामिओ ॥ एवं गुरुप्रसादात् चण्डरुद्राचार्य शिष्यस्येवं सकलसमीहितावाप्ति- अध्ययनम् |रिति मत्रा मनोवाकायैर्गुरुचित्तानुवृत्तिपरैर्भाव्यमिति, अनेनानन्तरेण च सूत्रेण प्रतिरूपयोगयोजनात्मक औपचा-18| |रिको विनय उक्त इति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ कथं पुनर्गुरुचित्तमनुगमनीयमित्याह॥५०॥ | णापुट्ठो वागरे किंचि, पुट्टो वा नालियं वए। कोहं असच्चं कुविजा, धारिजा पियमप्पियं ॥१४॥(सूत्रम्) ___ व्याख्या-'नापृष्टः कथमिदम् ? इत्याद्यजल्पितः, गुरुणेति गम्यते, 'व्यागृणीयात् ' वदेत् , तथाविधं कारणं विना, 'किञ्चित् स्तोकमपि, पृष्टो वा न 'अलीकम्' अनृतं वदेत्' कारणान्तरेण च गुरुभिरतिनिर्भसितोऽपि न तावत् क्रुध्येत् , कथञ्चिदुत्पन्नं वा क्रोधम् 'असत्यं तदोत्पन्नकुविकल्पविफलीकरणेन 'कुर्वीत' विदध्यात् , कथम् ?'धारयेत्' स्थापयेत् , मनसीति शेपः, 'पियमप्पियं' ति इवाप्योर्गम्यमानत्वात् प्रियमिवेष्टमिव सदा गुणकारणतया अप्रियमपि कर्णकटुकतया तदाऽनिएमपि, गुरुवचनमिति गम्यते, अत्र श्लोकपूर्वार्धन वाचा यथा गुरुरनुवर्तनीयः दतथोक्तमुत्तरार्धेन तु मनसेति, अथवा नापृष्ट इति न गुरुणैव किन्तु येन केनचिदपीत्यादिक्रमेण पादत्रयं सामान्येन | माग्बन्नेयं, नवरं क्रोधम् उपलक्षणत्वान्मानादिकपायं चोत्पन्नमसत्सं कुति, क्रोधासत्यतायामुदाहरणसम्प्रदायःकस्सवि कुलपुत्तयस्स भाया घेरिएण वावाइओ, तओ सो जगणीए भण्णइ-पुत्त ! पुत्तघाययं घायसुत्ति, तओ सोर १ कस्यापि कुलपुत्रकस्य भ्राता वैरिणा व्यापादितः, ततः स जनन्या भण्यते-पुत्र ! पुत्रघातकं घातयेति, वतः स तेन जीवप्राई दीप अनुक्रम [१४] RXXX JAMERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~111 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१४|| नियुक्ति: [६४...] प्रत सूत्रांक ||१४|| तेण जीवग्गहो गिहिऊण जणणीसमीवमुवणीओ, भणिओ अणेण-भायघाययं ! कहिं ते आहणामित्ति, तेण 21 भणिओ-जहिं सरणागया आहम्मंति, तेण जणणी अवलोकिया, ताए भषणइ-ण पुत्त ! सरणागया आहम्मंति, तेण भण्णइ-कहं रोसं सफलं करेमित्ति, तेण भण्णइ-ण पुत्त! सवत्थ रोसो सफलो कजद, पच्छा सो तेण विस-1 जिओ॥ एवं क्रोधमसत्यं कुर्वीत, मानादिविफलीकरणे उदाहरणान्यागमादवधारणीयानि, इत्थमुदितानां क्रोधादीनां विफलीकरणमुपदिष्टं, सम्प्रति यथैषामुदय एव न स्यात् तथोपदेष्टुमाह-'धारयेत्' खरूपेणावधारयेत्, न तद्वदशतो राग द्वेपं या कुर्यात्, 'प्रिय' प्रीत्युत्पादक शेपजनापेक्षया स्तुत्यादि, 'अप्रियं' तद्विपरीतं निन्दादि, तत्रोदाहरणसम्प्रदाया-असियोबहुए जयरे तिनि भूयवाईया रायाणमुवगया भणंति-अम्हे असिव, उपसमेमोत्ति, राइणा भणियं-सुणिमो केणोबाएणंति, तत्थेगो भणइ-अस्थि महेगं भूयं, तं सुरूवं विऊ-4 गृहीत्वा जननीसमीपमुपनीता, भणितोऽनेन भातृघातक ! कुत्र त्वामाहत्मीति, तेन भणित:-यन्त्र शरणागता आहन्यन्ते, तेन जननी || अवलोकिता, तया भण्यते-पुत्र ! न शरणागता आहन्यन्ते, तेन भण्यते-कथं रोषं सफलं करोमीति, तया भण्यते-न पुत्र ! सर्वत्र रोषः | सफलः क्रियते, पश्चात्स तेन विसृष्टः।। १ अशिवोपछते नगरे त्रयो भूतवादिका राजानमुपगता भणन्ति-वयमशिवमुपशमयान इति, राज्ञा भणितं-शृणुमः केनोपायेनेति, तत्रैको भणति-अस्ति ममैको भूतः, स सुरूपं विकुयं गोपुररथ्यादिषु पर्यटति, सो न निभालयितव्यः, स निभालितो रुष्यति, यः पुनस्तं दीप अनुक्रम [१४] surajanmorary om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~112~ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१४|| नियुक्ति: [६४...] उत्तराध्य. बृहद्धृत्तिः ॥५१॥ प्रत सूत्रांक ||१४|| |विकणं गोपुररत्थाइसु परियडाइ, तं न णिहालेयचं, तं णिहालियं रुसइ, जो पुण तं निहालेति सो विणस्सइ, जो अध्ययनम् पुण पिच्छिऊण अहोमुहो ठाइ सो रोगाओ मुचइ, राया भणति-अलाहि एएण अइरोसणेणंति । विदओ भणति-४ महचयं भूयं महतिमहालयं रूवं विउचति, लंबोयरं विवृतकुक्षि पंचशिरं एगपादं विसिहं विस्सरुवं अट्टहास मुयंत गायतं पणचंतं, तं विकृतरूपं दवणं जो पहसति पवंचेति वा तस्स सत्तहा सिरं फुट्टइ, जो पुण तं सुहाहि वायाहिं । अभिणंदति धूवपुप्फाईहिं पूएइ सो सबहाऽऽमयातो मुचइ, राया भणइ-अलमेएणंपि । ततितो भणइ-ममवि | 21 एवंविहमेव णातिविसेसकरं भूयमस्थि, प्रियाप्रियकारिणं दरिसणादेव रोगेहितो मोचयति, एवं होउत्ति, तेण तहाकए असिवं उपसंत । एवं साधूवि असारूप्यत्वे सति शब्दादिप्रतिकूलत्वे च परेहिं परिभूयमाणो पवंचिजमाणो निभालयति स विनश्यति, यस प्रेक्ष्याधोमुखस्तिष्ठति स रोगान्मुच्यते, राजा भणति-अलमेवेनातिरोषणेनेति । द्वितीयो भणति-मामकीनो भूतो महातिमहालवं रूपं चिकुर्वति, लम्बोदरं विवृतकुक्षि पञ्चशिरस्कमेकपादं विशिखं विस्वरूपं (विश्वरूपम् ) अट्टाहासं मुञ्चत् गायत् प्रणत्यत् , तं विकृतरूपं दृष्ट्वा यः प्रहसति प्रवचयते वा तस्य सप्तधा शिरः स्फुटति, यः पुनस्तं शुभाभिर्याग्भिरभिनन्दति धूपपुष्पादिभिः पूजयति स सर्वथाऽऽमयात् मुच्यते, राजा भणति-अलमेतेनापि । तृतीयो भणति-ममा वेवविध एव, नातिविशेषकरः भूतोऽस्ति, प्रिया४ प्रियकारिणं दर्शनादेव रोगेभ्यो मोचयति, एवं भवत्विति, तेन तथा कृते अशिवमुपशान्तम् । एवं साधुरपि असारूप्यत्वे सति शब्दादिप्रतिकूलत्वे च परैः परिभूयमानः प्रवश्वयमानो हस्यमानो वा स्तूयमानो वा पूज्यमानो वा तत् प्रियाप्रियं सहेत १ दीप अनुक्रम [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~113 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१५|| नियुक्ति: [६४...] प्रत सूत्रांक ||१५|| मासिजमाणो वा तथा थुषमाणो वा पूइजमाणो वा तं प्रियाप्रियं सहेत । अनेन च मनोगुत्यभिधानाचारित्रविनय उक्त इति मन्त्रार्थः॥१४॥ आह-क्रोधासत्यताकरणादिमिरात्मदमनोपाय उक्तः, तत्र च बायेष्वपि दमनीयेष सत्सु किमिति तस्यैव दमनोपाय उद्दिश्यते ? किं वा तहमने फलमिति, अत्रोच्यतेहै| अप्पामेव दमेयबो,अप्पा हु खलु दुद्दमो।अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य॥१५॥ (सूत्रम्)। व्याख्या-अतति-सन्ततं गच्छति शुद्धिसङ्क्लेशात्मकपरिणामान्तराणीत्यात्मा तमेव 'दमयेत्' इन्द्रियनोइन्द्रिसायदमेन मनोज्ञेतरविषयेषु रागद्वेषवशतो दुष्टगजमिवोन्मार्गगामिनं वयं विवेकाहुशेनोपशमनं नयेत, पठन्ति च|| अप्पा चेव दमेयचोति स्पष्टं, किमेवमुपदिश्यत इत्याह-आत्मैव, हुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् 'खलु' इति यस्मात् | 'दुर्दमः' दुर्जयः, ततस्तहमने दमिता एव वाबदमनीया इति, न तहमनमुपदिश्यत इति भावः, उक्तं हि-"सबकामप्पे जिए जिय", का पुनरेवं गुण इत्साह-आत्मा 'दान्त' उपशममानीतः, मुखमस्यास्तीति सुखी, भवति, क-10 अखिन्' इत्यनुभूयमानायुषि पिनेयाध्यक्षे 'लोके' भवे 'परत्र च' इत्यागामिनि भवान्तरे, दान्ताऽऽत्मानो हि परम-18 र्षय इहैव सुरैरपि पूज्यन्ते, अदान्ताऽऽत्मानस्तु चौरपारदारिकादयो विनश्यन्ति, तथा-"संदेण मओ रूवेण पयंगो महुयरो (य) गंधेणं । आहारेण य मच्छो बज्झइ फरिसेण य गइंदो॥१॥" तद्विपर्ययतस्तु-इह परत्र च नन्दन्ति, तत्र १ सर्वमात्मनि जिते जितम् । २ शब्देन मृगो रूपेण पतङ्गो मधुकरश्च गन्धेन । आहारेण च मत्स्यो बध्यते स्पर्शेन च गजेन्द्रः॥१॥ दीप अनुक्रम [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~114~ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१५|| नियुक्ति : [६४...] अध्ययनम् प्रत सूत्रांक ||१५|| उत्तराध्य || चोदाहरणम्-दो भायरो चोरा, तेर्सि उवस्सए साहुणो वासावास उवागया, तेहिं वासारत्तपरिसमत्तीए गच्छंतेहिं बृहद्वृत्तिः तेसिं चोराणं अन्नं वयं किंचि अपडिवजमाणाणं रत्तिन भोत्तवति वयं दिण्णं । अन्नया तेहिं उद्दाइएहिं सुबहुयं गोमा-2 हिसं आणियं, तत्थ अन्ने महिसं मारेउं पइउमारद्धा, अन्ने मजस्स गया, मंसइत्ता संपहारेन्ति-अद्धगे मंसे विसं पक्खिवामो तो मजइत्ताणं दाहामो, तओ अम्हं सुबहुं गोमाहिसं भागेण आगमिस्सइ, मजइत्तावि एवं चेव । सामत्थेहिंति, एवं तेहिं विसं पक्खितं, आइचो य अत्थं गतो, ते भायरो न भुत्ता, इयरे परोप्परं विससंजुत्तेण मज-6 ४ मंसेण उवभुत्तेण मया, मरिऊण य कुगई गया, इयरे इह परलोए य सुहभागिणो जाया, एवं ताव जिभिदियदमे, १ौ भ्रातरौ चौरी, तयोरुपाश्रये साधवो वर्षावासमुपागताः, तैर्वा रात्रपरिसमाप्तौ गच्छद्भिस्तयोः चोरयोरन्यत् किश्चिद्तमप्रतिपद्य-: मानयो रात्रौ न भोक्तव्यमिति प्रतं दत्तम् । अन्यदा तैरुद्धावितैः सुबहुकं गोमाहिषमानीतं, तत्राम्ये महिषं भारयित्वा पक्तुमारब्धाः, अन्ये मद्याय गताः, मांसीयाः संप्रधारयन्ति-अर्धे मांसे विषं प्रक्षिपामः ततो मघीयेभ्यो दास्यामः, ततोऽस्माकं सुबहु गोमाहिषं भागेनागमिप्यति, मधीया अपि एवमेव संप्रधारयन्ति, एवं तैर्विषं प्रक्षिप्तम् , आदित्यश्चास्तं गतः, तौ भ्रातरौ न मुक्ती, इतरे परस्परं विषसंयुक्तेन मद्यमांसेनोपमुक्तेन मृताः, मृत्वा च कुगतिं गताः, इतरौ इह परलोके च सुखभागिनी जाती, एवं तावत् जिह्वेन्द्रियदमे, एवं शेषेष्वपीन्द्रियेषु, आत्मा दान्तः सुखी भवति अस्मिन् लोके परत्र च ।। दीप अनुक्रम [१५] ॥५२॥ JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~115 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [१६] Education [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा || १६ || निर्युक्तिः [६४...] अध्ययनं [१], एवं सेसेसुषि इंदिए, 'अप्पा दंतो सही होइ, अस्सि छोए परत्थ य' इति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ किं पुनः परिभावय-नात्मानं दमयेदित्याह - वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य । माऽहं परेहिं दम्मंतो, बंधणेहि वहेहि य ॥१६॥ (सूत्रम् ) व्याख्या- 'वरं' प्रधानं 'मे' मया 'आत्मा' अभिहितरूपस्तदाधाररूपो वा देहः, 'दान्त' इति दमं ग्राहितः असम असचेष्टा तो व्यावर्तितः, केन हेतुना ?- 'संयमेन' पञ्चाश्रवविरमणादिना, 'तपसा च' अनशनादिना चशब्दो द्वयोरप्यनपेक्षितायां मुक्तिहेतुताविरहात् परस्परसापेक्षतासूचनार्थः सम्यग्ज्ञानसमुचयार्थी वा विपर्यये दोषद| शेनायाह- 'मा' प्राग्वत्, 'अहम्' इत्यात्मनिर्देशः, 'परैः' आत्मव्यतिरिक्तः 'दम्मतो'त्ति आर्यत्वाहमितः, कैः १'बन्धन' वर्मादिविरचितैर्मयूरबन्धादिभिः 'वषैश्च' लतालकुटादिताडनेः, अत्रोदाहरणं सेवणओ गंधहत्थी अडवीए हत्थिजूहं महलं परिवसर, तत्थ जूहवती जाए जाए गयफलभए विणासेइ, तत्थेगा करिणी आवण्णसत्ता चिंते-ज कहंचि गयकलभतो जायर, सोऽवि एतेण विणासिजिहित्तिकाउं लंगंती ओसरइ, जूहाहिवेण जूहे छुम्भइ, पुणो १ सेचनको गन्धहस्ती, अटव्यां हस्तियूयं महत् परिवसति, तत्र यूथपतिर्जातान जातान, गजकलभकान् विनाशयति, तत्रैका करिणी आपद्मसत्त्वा चिन्तयति यदि कथञ्चिद् गजकलभको जायते (जनिष्यते) सोऽप्येतेन विनश्यते इतिकृत्वा शनैः शनैः खञ्जन्ती) अवसर्पति, यूथाधिपेन यूथे शिष्यते, पुनरपसर्पति, ततो द्वितीयतृतीय दिवसे यूथेन मिलति तत एकमृण्याश्रमपदं दृष्टं सा तत्राश्रिता, परिचिताञ्चानया | Forest Use Only www पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~ 116 ~ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१६|| नियुक्ति: [६४...] उत्तराध्य. प्रत सूत्रांक ॥ ५३॥ ||१६|| ओसरइ, ताहे वितियततियदिवसे जूहेण मिलइ, ताहे एगं रिसिआसमपयं दिटुं, सा तत्थ अल्लीणा संवणिया य अध्ययनम् अणाए रिसओ, सा पसूया गयकलहं, सो तेहिं रिसिकुमारहिं सहिओ पुप्फाराम सिंचइ, सेयणउत्ति से नाम कयं,श वयत्थो जातो, जूहं दवण जूहपतिं हेतूण जूहंण पडिवण्ण, गंतूण य अणेण सो आसमो विणासितो. 'नो अन्नावि कावि एवं काहितित्ति । ताहे ते रिसितो रुसिया, पुप्फफलगहियपाणी सेणियस्स रण्णो सयासं उवगया, कहियं चऽणेहि-एरिसो सवलक्षणसंपुण्णो गंधहत्थी सेयणतो णाम, सेणिओ हथिगहणाय गतो, सो य हत्थी देवयाए परिगहितो, ताहे(ए) ओहिणा आभोइयं-जहा अवस्स एसो घेप्पति, ताहे ताए सो भण्णइ-पुत्त ! बरं ते अप्पा दंतो, ण यऽसि परेहिं दंमतो बंधणेहिं वहेहि य, सो एवं भणिो सयमेव रत्तीए गंतण आलाणखभं अस्सितो।। १षयः, सा प्रसूता गजकलभ, स तैः कपिकुमारैः सहित: पुष्पारामं सिञ्चति, सेचनक इति तस्य नाम कतं, वयःस्थो जातः, यूथं रहा या यूथपति हत्वा यूथमनेन प्रतिपन्नं, गत्वा चानेन स आश्रमो विनाशितः, मा अन्याऽपि काऽप्येवं कार्थीदिति । ततस्ते ऋषयो रुष्टाः, पाणिगृहीतपुष्पफलाः श्रेणिकस्य राज्ञः सकाशमुपगताः, कथितं चैमिः-ईदृशः सर्वलक्षणसंपूर्णो गन्धहस्ती सेचनको नाम, श्रेणिको हस्तिग्रहणाय गतः, स च हस्ती देवतया परिगृहीतः, ततः (तया) अवधिना आभोगितं (अवलोकित)-यथा अवश्यमेपो प्रहीष्यते, ततस्तया स भण्यतेपुत्र ! वरं सव (वया) आत्मा दान्तः, न चासि परैर्दम्यमानो बन्धनैर्वधैश्च, स एवं भणितः स्वयमेव रात्रावागत्यालानस्तम्भमाश्रितः । दीप अनुक्रम [१६] ॥५३॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~117~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |१७|| दीप अनुक्रम [१७] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||१७|| निर्युक्ति: [६४...] अध्ययनं [१], यथा हि अस्य स्वयंदमनान्महागुणः तथा मुक्त्यर्थिनोऽपि विशिष्टनिर्जरातः, इतरथा त्वकामनिर्जरातो न तथेति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ गुर्वनुवृत्त्यात्मकं प्रतिरूपविनयमाह पडिणीयं च बुद्धाणं, वाया अदुव कम्मुणा । आवि वा जड़वा रहस्से, नेत्र कुज्जा कथाइवि ॥१७॥ (सूत्रम्) व्याख्या - 'प्रत्यनीकम्' इति प्रतिकूलं चः पूरणे, चेष्टितमित्युपस्कारः, भावप्रधानत्वाद्वा निर्देशस्य प्रत्यनीकत्वं, केषाम् ? - 'बुद्धानाम्' अवगतवस्तुतत्त्वानां गुरुणामितियावत् कया ? - वाचा, किं त्वमपि किञ्चिज्जानीपे ? |इत्येवंरूपया विपरीतप्ररूपणायां प्रेरितस्त्वयैवैतदित्थमस्माकं प्ररूपितमित्याद्यात्मिकया वा, अथवा 'कर्मणा' संस्ता|रकातिक्रमणकरचरणसंस्पर्शनादिना 'आविः' जनसमक्षं प्रकाशदेश इतियावत्, यदिवा 'रहस्ये' विविक्तोपाश्रयादौ 'न' इति निषेधे 'एवः' अवधारणे, स च 'शत्रोरपि गुणा ग्रायाः, दोषा वाच्या गुरोरपी'ति कुमतनिराकरणार्थः, 'कुर्यात् ' इति विदध्यात्, 'कदाचित् ' परुषभाषणादावपि इति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ पुनः शुश्रूषणात्मकं तमेवाह-ण पक्खओ ण पुरओ, णेव किच्चाण पिट्टओ । न जुंजे उरुणा ऊरुं, सयणे ण पडिस्सुणे ॥१८॥ (सूत्रम्) व्याख्या- 'न पक्षतः ' दक्षिणादिपक्षमाश्रित्य उपविशेदिति सर्वत्रोपस्कारः, तथोपवेशने तत्पङ्किसमावेशतः तत्साम्यापादनेनाविनयभावात्, गुरोरपि वक्रावलोकने स्कन्धकन्धरादिवावासम्भवात् न 'पुरतः' अग्रतः, तत्र Education Inational For Fast Use Only पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~118~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१८|| नियुक्ति: [६४...] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥५४॥ प्रत सूत्रांक ||१८|| चन्दकजनस्य गुरुवदनानयलोकनादिनाऽप्रीतिभावात् , 'नैव' इति पूर्ववत् , कृतिः-वन्दनकं तदर्हन्ति कृत्याः 'दण्डा- अध्ययनम् दित्वाद् यप्रत्ययः' ते चार्थादाचार्यादयस्तेषां 'पृष्ठतः' पृष्ठदेशमाश्रित्य, द्वयोरपि मुखादर्शने तथाविधरसवत्ताऽभावा|दिदोषसंभवात् , 'न युज्यात् ' न सङ्घट्टयेद् अत्यासन्नोपवेशादिभिः, 'उरुणा' आत्मीयेन, 'उरु' कृत्यसम्बन्धिन, 13/ तथाकरणेऽत्यन्ताविनयसम्भवात् , उपलक्षणं चैतत् शेषाङ्गस्पर्शपरिहारस्य, 'शयने' शय्यायां शयित आसीनो वेति शेषः, किमित्याह-न प्रतिशृणुयात् , किमुक्तं भवति ?-कदाचिच्छय्यागतो गुरुणाऽऽकारित उक्तो वा कृत्यं प्रति न तथास्थित एवायज्ञया कुर्म एवमित्यादिवचनतः प्रतिजानीयात् , किन्तु गुरुवचनसमनन्तरमेय सम्भ्रान्तचेता ४ विनयविरचितकराअलिः समीपमागत्य पादपतनपुरस्सरमनुगृहीतोऽहमिति मन्यमानो भगवनिच्छामोऽनुशिष्टिमिति वदेदिति सूत्रार्थः ॥ १८ ॥ पुनस्तमेवाहनेव पहस्थियं कुजा, पक्खपिंडं व संजए। पाए पसारिए वावि, न चिट्टे गुरुगंतिए ॥१९॥( सूत्रम्) व्याख्या-नैव 'पर्यस्तिका' जानुजङ्घोपरिवखवेष्टनाऽऽत्मिकां कुर्यात् , पक्षपिण्डं या' वाहुद्वयकायपिण्डात्मकं, संयतः साधुः, तथा पादौ प्रसारयेत् वाऽपि नैव, पा समुच्चयार्थः, अपिः किं पुनरित इतो विक्षिपेदिति निदर्श-MI नाङ्कः, अन्यच-'न तिष्ठेत् ' नाऽऽसीत, क-गुरूणामन्तिके इति, प्रक्रमादतिसन्निधी, किन्तूचितदेश एव, अन्य १ पसारे नो बाधि प्र०। दीप अनुक्रम [१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~119~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||१९|| नियुक्ति: [६४...] प्रत सूत्रांक ||१९|| थाऽविनयदोषसम्भवात् , अथवा 'पाए पसारिए वाबित्ति पाठात् पादौ प्रसारितौ वाऽपि, कृत्वेति शेषः, एकारस्यालाक्षणिकत्वात् प्रसार्य वा न तिष्ठेद्गुरूणामन्तिके उचितप्रदेशेऽपीति, उपलक्षणं चैतद्दण्डपादिकाऽवष्टम्भादीनामिति सत्रार्थः ॥ १९ ॥ पुनः प्रतिश्रवणविधिमेव सविशेषमाह आयरिएहिं वाहितो, तुसिणीओ ण कयाइवि। पसायट्टी नियागट्टी, उवचिट्ठ गुरुं सया॥२०॥(सूत्रम्) व्याख्या-'आचार्यैः उपलक्षणत्वादुपाध्यायादिभिः 'वाहितो ति व्याहृतः-शब्दितः 'तुसिणीओ'त्ति तूष्णीकः तूष्णीशीलः 'न कदाचिदपि' ग्लानाद्यवस्थायामपि, भवेदिति गम्यते, किन्तु-'धन्यस्योपरि निपतत्यहितसमाचरण-1& धर्मनिर्यापी । गुरुवदनमलयनिसृतो वचनरसश्चन्दनस्पर्शः॥१॥ इति प्रसादोऽयं यदन्यसद्भावेऽपि मामादिशन्ति | गुरव इति प्रेक्षितुम्-आलोचितुं शीलमस्येति प्रसादप्रेक्षी, पाठान्तरतः 'प्रसादार्थी' वा गुरुपरितोषाभिलाषी 'णियागट्ठी ति पूर्ववत् , 'उपतिष्ठेत' मस्तकेनाभिवन्द इत्यादि बदन् सविनयमुपसप्पेत् , गुरुं 'सदा' सर्वकालमिति सूत्रार्थः ॥ २० ॥ तथाआलवंते लवंते वा, ण णिसीजा कयाइवि। चइत्ता आसणं धीरो, जओ जत्तं पडिस्सुणे॥२१॥ (सूत्रम्) व्याख्या-आङिति ईपलपति-वदति 'लपति वा' वारं वारमनेकधा वाऽभिदधति 'न निषीदेत्' न निषण्णो दीप अनुक्रम [१९]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~120 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||२१|| नियुक्ति: [६४...] प्रत सूत्रांक ||२१|| उत्तराध्य. भवेत् , 'कदाचिदपि' व्याख्यानादिना व्याकुलतायामपि, किन्तु ?-'त्यक्त्वा' अपहाय 'आसनं पादपुञ्छनादि, धिया अध्ययनम् राजते धीरः, अक्षोभ्यो वा परीपहादिभिः, 'यत' इति यतो यत्नवान् 'जत्त' ति प्राकृतत्वाद्विन्दुलोपे तस्य च द्वित्वे बृहद्धृत्तिः यद्गुरव आदिशन्ति तत् 'प्रतिशृणुयात्' अवश्यविधेयतया अभ्युपगच्छेदितियावत् , यद्वा यत इति यत्र गुरवः, तत्र गत्वेति गम्यते, 'यात्रां' संयमयात्रां प्रस्तावादू गुरूपदिष्टां प्रतिशृणुयादिति सूत्रार्थः ॥ २१ ॥ पुनः प्रति-* रूपविनयमेवाऽऽहआसणगओ ण पुच्छिज्जा,णेव सिजागओकया। आगम्मुकुडुओ संतो, पुच्छिज्जा पंजलीगडे॥२॥(सूत्रम्) व्याख्या-आसनगतः' इति आसनासीनो न पृच्छेत् , सूत्रादिकमिति गम्यते, नैव शय्यागत' इति संस्तारकस्थितः, तथाविधावस्थां विनेत्युपस्कारः, 'कदाचिदपि बहुश्रुतत्वेऽपि, किमुक्तं भवति ?-बहुश्रुतेनापि संशये सति न न प्रष्टव्यं, पृच्छताऽपि नावज्ञया, सदा गुरुविनयस्यानतिक्रमणीयत्वात् , तथा चाऽऽगमः-"जहाँहिअग्गी जलणं नमसे, णाणाहुमंतपयाहिसित्तं । एवायरियं उबचिट्ठएज्जा, अणतणाणोवगओऽपि संतो ॥१॥" किं तर्हि कुर्या-12 ट्र दित्याह-'आगम्य' गुर्वन्तिकमेत्य 'उत्कुटुक' इति मुक्तासनः, कारणतो वा पादपुन्छनादिगतः सन् शान्तो वा 'पृच्छेत्' पर्यनुयुजीत, सूत्रादिकमितीहापि गम्यते, प्रकर्षण-अन्तःप्रीत्यात्मकेन कृतो-विहितोऽअलिः-उभयकरमी १ यथाऽऽहितामिज्वलनं नमस्यति नानाहुतिमन्नपदाभिषिक्तम् । एवमाचार्यमुपतिष्ठेतानन्तज्ञानोपगतोऽपि सन् ॥१॥ दीप अनुक्रम [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~121 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||२२|| नियुक्ति: [६४...] प्रत सूत्रांक ||२२|| लनात्मकोऽनेनेति प्रकृताञ्जलिः, प्राकृतत्वाच कृतशब्दस्य परनिपातः, 'पंजलिउड'त्ति पाठे च प्रकृष्टं-भावान्विततयाऽअलिपुटमस्येति प्राञ्जलिपुट इति सूत्रार्थः ।। २२ ॥ ईदृशस्य शिष्यस्य गुरुणा यत् कृत्यं तदाह एवं विणयजुत्तस्स,सुतं अत्थं तदुभयं । पुच्छमाणस्स सिस्सस्स, वागरिज जहासुयं ॥२३॥(सूत्रम्) व्याख्या-'एवम्' इत्युक्तप्रकारेण 'विनययुक्तस्य' विनयान्वितस्य 'सूत्र' कालिकोत्कालिकादि 'अर्थ च तस्यै1 वाभिधेयं तदुभयं' सूत्रार्थोभयं 'पृच्छतः' जीप्सतः 'शिष्यस्य' खयंदीक्षितस्योपसम्पन्नस्य वा 'व्यागृणीयात्' विवि धमभिव्याप्त्याऽभिदध्यात् व्याकुर्याद्वा प्रकटयेत्, यथा-येन प्रकारेण श्रुतम्-आकर्णितं, गुरुभ्य इति गम्यते, न तु खबुद्ध्यैवोत्प्रेक्षितमित्यभिप्रायः, अनेन च-'आयारे सुयविणए विक्खिवणे चेय होइ बोद्धचे । दोसस्स य निग्याए । जाविणए चउहेस पडिपत्ती ॥१॥" इत्यागमाभिहितचतुर्विधाचार्यविनयान्तर्गतस्य 'मुत्तं अस्थं च तहा हियकर णिहिस्सेसयं च बाएइ । एसो चउविहो खलु मुयविणओ होइ णायचो ॥ १॥ सुत्तं गाहेति उजुत्तो अत्थं च सुणा-II १ आचारे श्रुतविनये विक्षेपणे वैव भवति बोद्धव्यः । दोषस्य च निर्याते विनये चतुर्धेवा प्रतिपत्तिः ॥११॥२ सूत्रमर्थ च तथा हितकर निःशेषं च वाचयति । एष चतुर्विधः खलु श्रुतबिनयो भवति ज्ञातव्यः ॥ १॥ सूत्र बाहयत्युद्युक्तोऽर्थ च आवयति प्रयत्नेन । यद्यस्य भवति । योग्यं परिणाम्यादि (आभिय) तत्तु श्रुतम् ॥ २ ॥ निश्शेषमपरिशेषं यावत्समाप्त च तावद्वाचयति । एप श्रुतविनयः स्खलु निर्दिष्टः पूर्वसूरिभिः ॥ ३॥ दीप अनुक्रम [२२] wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~122 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||२३|| नियुक्ति: [६४...] प्रत सूत्रांक ||२३|| उत्तराध्य. बए पयत्तेणं । जं जस्स होइ जोगं परिणामगमाइ तं तु सुयं ॥२॥ निस्सेसमपरिसेसं जाव समत्तं च ताव अध्ययना बृहद्वृत्तिः वाएइ । एसो सुयविणओ खलु निहिटो पुच्चसूरीहिं ॥ ३॥' इत्याद्यागमाभिहितस्य श्रुतविनयस्य साक्षादभिधानं, दायच विनयं प्रादुष्करिष्यामीति प्रतिज्ञाय 'अन्भुट्ठाणं अंजलि' तथा 'दंसणणाणचरित्ते' इत्यादिना ग्रन्थेनेव न तस्यले ॥५६॥ शुद्धखरूपाभिधानं,किन्तु 'णिसंते सिया अमुहरी' इत्यादि लिङन्तादिपदैरुपदेशरूपतया, तदपि प्रसङ्गत एव यथायोग | माचार्यविनयोपदर्शनपरमिति भावनीयमिति सूत्रार्थः ॥ २३ ॥ पुनः शिष्यस्य वाग्विनयमाह मुसं परिहरे भिक्खू, न य ओहारिणीं वए।भासादोसं परिहरे, मायं च वजए सया॥२४॥(सूत्रम्) व्याख्या 'मृपा' इत्यसत्यं भूतनिलयादि परिहरेत् ' सर्वप्रकारमपि त्यजेत् , भिक्षः, 'न च' व 'अवधारणीं| |गम्यमानत्वाद् वाचं गमिष्याम एव वक्ष्याम एव इत्येवमाद्यवधारणात्मिका 'वदेत्' भाषेत, किंबहुना ? 'भाषादो-|| (पम्' अशेषमपि वागदूषणं सायद्यानुमोदनादिकं परिहरेत् , न च कारणोच्छेदं विना कार्योच्छेद इत्याह-मायां, चशब्दात् क्रोधादीच तद्धेतून् वर्जयेत् सदा' सर्वकालमिति सूत्रार्थः ॥ २४ ॥ किश्च ॥५६॥ स ण लविज पुट्ठो सावज, न निरट्रं न मम्मयं । अप्पणट्रा परट्रा वा, उभयस्संतरेण वा॥२५॥ (सूत्रम्) व्याख्या-'न लपेत् ' न वदेत् 'पृष्ट' इति पर्यनुयुक्तः 'सावयं सपाईं न 'निरर्थम्' अर्थविरहित दशदाडिमादि दीप अनुक्रम [२३] wjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~123 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||२५|| नियुक्ति: [६४...] प्रत सूत्रांक ||२३|| एष वन्ध्यामुतो यातीत्यादि वा 'न' नैव, म्रियतेऽनेन राजादिविरुद्धेनोचारितेनेति मर्म तद्गच्छति वाचकतयेति मर्मगं, वचन मिति सर्वत्र शेषः, अतिसक्लेशोत्पादकत्वात् तस्या , अत्राह च-"तहेवे काणं काणत्ति, पंडगं पंडगत्ति वा वाहियं वावि रोगित्ति, तेणं चोरोति नो वए ॥१॥ एएणऽपणेण अटेणं, परो जेणुवहम्मई । आयारभावदोसण्णू, ण तं भासेज पण्णचं ॥२॥" 'आत्मार्थम् ' आत्मप्रयोजनं 'पराध वा परप्रयोजनम् 'उभयस्स'त्ति आत्मनः परस्य च, प्रयोजनमिति गम्यते 'अंतरेण वत्ति विना या प्रयोजनमित्युपस्कारः, भाषादोष परिहरेदित्यनेनैव गते पृष्टविषइयत्वादस्यापोनरुक्त्यं, यद्वा भाषादोषो जकारमकारादिरेव तत्र गृह्यत इति न दोषः, सूत्रद्वयेन चानेन वारगुत्य मिधानतश्चारित्रविनय उक्त इति सूत्रार्थः ॥ २५ ॥ इत्थं खगतदोषपरिहारमभिधायोपाधिकृतदोपपरिहारमाहसमरेसु अगारेसुं, गिहसंधिसु अमहापहेसु । एगो एगित्थीए सद्धिं, नेव चिट्टेन संलवे ॥२६॥ (सूत्रम्) | व्याख्या-'समरेषु' खरकुटीपु, तथा च पूर्णिकृत्-'समैरं नाम जत्थ हेला लोयारा कम्मं करेंति' उपलक्षण वादस्यान्येप्यपि नीचास्पदेषु 'अगारेषु' गृहेषु 'गृहसन्धिषु च गृहद्वयान्तरालेषु च 'महापथेषु' राजमार्गादी, किमित्याह-'एकः' असहायः एका-असहाया सा चासौ खी च एकरी तया 'साई' सह 'नैव तिष्ठेत् ' असंल १ तथैव काणं काण इति, पण्डकं पण्डक इति वा । व्याधिमन्तं वाऽपि रोगी इति, सेनं चौर इति नो वदेत ॥शा एतेनान्येनार्थेन, पये दायेनोपहन्यते । आधारभावदोषज्ञो, न तद्भाषेत प्रज्ञावान् ॥ २ ॥२ समरं नाम थत्रावस्तात् लोहकाराः फर्म कुर्वन्ति । दीप अनुक्रम [२३] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~124 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२६|| दीप अनुक्रम [२६] उत्तराध्य. बृहद्वृत्ति: ॥ ५७ ॥ पन्नेव चोर्द्धस्थानस्थो न भवेत्, 'न संलपेत्' न तयैव सह संभाषं कुर्यात्, अत्यन्तदुष्टतोद्भावनपरं चैकग्रहणम्, अन्यथा ससहायस्यापि ससहायया अपि च स्त्रिया सहावस्थानं सम्भाषणं चैवंविधास्पदेषु दोषायैव, प्रवचनमालिन्यादिदोपसम्भवात्, अथवा सममरिभिर्वर्तन्त इति समरा द्रव्यतो जनसंहारकारिणः संग्रामाः भावात्तु स्त्रीणामरि8 भूतस्यात् ज्ञानादिजीवखतत्त्वघातिनः तासामेव या दृष्टिसम्बन्धाः, तत्रेह भावसमरैरधिकारः, सप्तमी चेयं, ततोऽयं भावार्थ:- द्रव्यसमरा हि न स्युरपि प्राणापहारिणः, भावसमरास्तु ज्ञानादिभावप्राणापहारिण एव, विशेषतस्त्वेका कितायां, तत एवमेतेष्वपि दारुणेषु भावसमरेषु सत्सु नैक एकत्रिया सार्द्धमगारादिषु तिष्ठेत् संलपेद्वा, अनेनापि चारित्रविनय एवोक्तः, उपदेशाधिकाराच न पौनरुक्त्यम् एवमन्यत्रापि भावनीयमिति सूत्रार्थः ॥ २६ ॥ कदाचित् स्खलिते च गुरुभिः शिक्षितो यत्कुर्यात् तदेवाह - जं मे बुद्धाणुसासंति, सीएण फरुसेण वा । मम लाभुत्ति पेहाए, पयओ य (तं) पडिस्सुणे ॥२७॥ (सूत्रम् ) व्याख्या -- यन्मां बुद्धा 'अनुशासन्ति' शिक्षां ग्राहयन्ति 'शीतेन' सोपचारवचसा, 'शीलेन वे'ति पाठः, तत्र शीलं महाव्रतादि उपचारात्तज्जनकं वचोऽपि शीलं तेन यद्वा 'शील समाधी' ततः शीलेन- समाधानकारिणा-भद्र ! भवादृशा मिदमनुचितमित्यादिना, 'परुषेण' कर्कशेन, उभयत्र वचसेति गम्यते, तत् 'प्रतिशृणुयात्' विधेयतया अशीकुर्यादित्युत्तरेण सम्बन्धः, किमभिसन्धायेत्याह-मम 'लाभः' अप्राप्तार्थप्राप्तिरूपः, यन्मामनाचारकारिणममी शास [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||२६|| निर्युक्ति: [६४...] अध्ययनं [१], Education Intamational For Pursat Use Only अध्ययनम् ~ 125 ~ ॥ ५७ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२७|| दीप अनुक्रम [२७] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||२७|| निर्युक्ति: [६४...] अध्ययनं [१], न्तीति 'पेहाएत्ति' एकारस्यालाक्षणिकत्वात् प्रेक्ष्य - आलोच्य प्रेक्षया वा एवंविधबुद्ध्या 'पयतो'त्ति प्रयतः - प्रयत्न - वान्, पदतो वा तथाविधानुस्मर्यमाणसूत्रालापकादिति सूत्रार्थः ॥ २७ ॥ किमिह परत्र चात्यन्तोपकारि गुरुवचनमपि कस्यचिदन्यथा सम्भवति ?, येनैवमुपदिश्यते इत्याह अणुसासणमोवायं, दुक्कडस्स य पेरणं । हियं तं मन्नए पन्नो, वेस्सं भवइ असाहुणो ॥ २८ ॥ (सूत्रम् ) व्याख्या- 'अनुशासनम्' उक्तरूपम् 'ओवायंति उपाये - मृदुपरुषभाषणादी भवमौपायं, यद्वा 'ओवायंति' सूत्रत्वात् उपपतनमुपपातः समीपभवनं तत्र भवमोपपातं - गुरुसंस्तारास्त रणविश्रामणादिकृत्यं 'दुष्कृतस्य च' कुत्सिताचरितस्य प्रेरणं हा ! किमिदमित्थमाचरितमित्याद्यात्मकं, गुरुविहितमिति गम्यते, 'हितम्' इहपरलोकोपकारि, 'तदित्यनुशासनादि मन्यते 'प्राज्ञः' प्रज्ञावान् द्वेष्यं' द्वेषोत्पादकं 'भवति' जायते, कस्य ? - 'असाधोः' अपगतभावसाधुत्वस्य तदनेनासाधोर्गुरुवचनस्याप्यन्यथात्वसम्भव उक्त इति सूत्रार्थः ॥ २८ ॥ अमुमेवार्थे व्यक्तीकर्तुमाहहियं विगयभया बुद्धा, फरुसमप्पणुसासणं । वेस्सं तं होइ मूढाणं, खंतिसुद्धिकरं पयं ॥ २९ ॥ (सूत्रम् ) व्याख्या- 'हितं' पथ्यं 'विगतभयाः' सप्तभयरहिताः 'बुद्धाः' अवगततस्थाः मन्यन्त इति शेषः, 'परुपमपि' कर्कशमपि, अनुशासनं शिष्याणां गुरुविहितमिति प्रक्रमः, 'द्वेष्यं' द्वेषोत्पादि 'तद्' इत्यनुशासनं भवति 'मूढानाम् ' Education intimatio For First Use Only पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~126~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||२९|| नियुक्ति: [६४...] प्रत सूत्रांक ||२९|| उत्तराध्य अज्ञानानां, क्षान्ति:-क्षमा शुद्धिः-आशयविशुद्धता सत्करणं, यद्वा-क्षान्तेः शुद्धिः-निर्मलता शान्तिशुद्धिसत्करम् , अध्ययनम् बृहद्वृत्तिः |अमुढानां विशेषतः क्षान्तिहेतुत्वाद् गुर्वनुशासनस्य, मार्दवादिशुद्धिकरत्वोपलक्षणं चैतद्, अत एव पद्यते-गम्यते । गुणैज्ञोनादिभिरिति पदं-ज्ञानादिगुणस्थानमित्यर्थः, अथवा-परुषमपीत्सपिशब्दो भिन्नक्रमः, ततश्च हितमप्यायत्यां। ॥५८॥ |विगतभयाद् 'बुद्धाद्' आचार्यादेः, उत्पन्नमिति शेषः, परुषं यच्छुत्यसुखदमनुशासनं, तत्किमित्याह-द्वेष्यं तद्भवति मूढानां, शेष प्राग्वदिति सूत्रार्थः ॥ २९ ॥ पुनर्विनयमेवाहआसणे उवचिट्ठिज्जा, अनुच्चेऽकुकुर थिरे । अप्पुत्थाई निरुत्थाई, निसीजा अप्पकुकुई ॥३०॥ (सूत्रम्) व्याख्या-आसन' पीठादि वर्षा ऋतुबद्धे तु पादपुग्छनं तत्र पीठादी 'उपतिष्ठेत्' उपविशेत् , 'अनुचे| द्रव्यतो नीचे भावतस्त्वल्पमूल्यादी, गुर्वासनात् इति गम्यते, 'अकुकचे' अस्पन्दमाने, न तु तिनिशफलकबत् कि|श्चिचलति, तस्य शृङ्गाराङ्गत्वात् , 'स्थिरे' समपादप्रतिष्ठिततया निश्चले, अन्यथा सत्त्वविराधनासम्भवात्, इदृश्यप्यासने अल्पमुत्थातुं शीलमस्येति अल्पोत्थायी, प्रयोजनेऽपि न पुनः पुनरुत्थानशीलः, 'निरुत्थायी' न निमित्तं ॥ ५८॥ दाविनोत्थानशीलः, उभयत्रान्यथाऽनवस्थितत्वसम्भवात् , एवंविधश्च किमित्याह-निपीदेत्' आसीत, 'अप्पकु- कुइ' त्ति अल्पस्पन्दनः, करादिभिरल्पमेव चलन् , यद्वा-अल्पशब्दोऽभावाभिधायी, ततश्चाल्पम्-असत्, कुक्कु दीप अनुक्रम [२९] SMS पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~127~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||३०|| नियुक्ति: [६४...] प्रत सूत्रांक ||३०|| य'ति कौत्कुचं-करचरणभूभ्रमणाद्यसचेष्टात्मकमस्येत्यल्पकौत्कुचः, अनेनाप्यौपचारिकविनयः प्रकारान्तरेणोक्त इति सूत्रार्थः ॥ ३०॥ सम्प्रति चरणकरणयिनयात्मिकामेषणासमितिमाह कालेण णिक्खमे भिक्खू,कालेण य पडिक्कमे। अकालं च विवजित्ता,काले कालं समायरे॥३१॥(सूत्रम्) | व्याख्या-'कालेण' ति सप्तम्यर्थे तृतीया, काले प्रस्ताये 'निष्क्रामेत्' गच्छेत् भिक्षुः, अकालनिर्गमे आत्मक्लाम नादिदोषसम्भवात् , तथा कालेन च 'प्रतिक्रामेत्' प्रतिनिवर्त्तत, भिक्षाटनादिति शेषः, इदमुक्तं भवति-अलाभेऽपि ४ 18!-अलाभोत्ति न सोइजा, तयोति अहियासए' इति समयमनुस्मरन् , अल्पं मया लब्धं न लब्धं वेति लाभार्थी || नाटन्नेव तिष्ठेत् , किमित्येवमत आह-'अकालं' तत्तरिक्रयाया असमयं चेति, यस्माद्विपर्ययकाले प्रस्तावे प्रत्युग्नेक्षणादिसम्बन्धिनि 'कालमिति तत्तत्कालोचितं क्रियाकाण्डं 'समाचरेत् ' कुर्यात् , अन्यथा कृषीवलकृषीक्रियाया इवाभिमतफलोपलम्भासम्भव इति गर्भार्थः, अनेन च कालनिष्क्रमणादौ हेतुरुक्तः, प्रसङ्गात् शेषक्रियाविषयतया काया नेयं, समुच्चयार्थश्च तदा चशब्द इति सूत्रार्थः ॥ ३१ ॥ निर्गतश्च यत्कुर्यात्तदाह परिवाडिए ण चिट्ठिज्जा,भिक्खू दत्तेसणं चरे। पडिरूवेण एसित्ता,मियं कालेण भक्खए॥३२॥(सूत्रम्) ६ व्याख्या-'परिपाटी गृहपतिः, तस्यां न तिष्ठेत् न पकिस्थगृहभिक्षोपादानायकत्रावस्थितो भवति, तत्र १ अलाभ इति न शोचेत् वप इत्यध्यासीत । दीप अनुक्रम [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~128~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||३२|| नियुक्ति: [६४...] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ५९॥ प्रत सूत्रांक ||३२|| दायकदोषाऽनवगमप्रसङ्गात् , यदा-पङ्क्त्यां -भोक्तुमुपविष्टपुरुषादिसम्बन्धिन्यां न तिष्ठेत् , अप्रीत्यरष्टकल्याणतादि- अध्ययनम् दोषसम्भवात् , किञ्च ? 'भिक्षुः' यतिः, दत्तं-दानं तस्मिन् गृहिणा दीयमाने 'एषणां' तद्गतदोषान्वेषणात्मिकांश 'चरेत् ' आसेवेत, 'चरतिः आसेवायामपि वर्चते' इति वचनात् , अनेन ग्रहणैषणोक्ता, किं विधाय दत्तषणां चरेत् ?-'प्रतिरूपेण' प्रधानेन रूपेणेति गम्यते, यद्वा-प्रतिप्रतिबिम्ब चिरन्तनमुनीनां यद्रूपं तेन, उभयत्र पतद्ग्रहादिधारणात्मकेन सकलान्यधार्मिकविलक्षणेन, न तु 'वखं छत्र छात्रं पात्रं यष्टिं च वर्जयेद् भिक्षुः । वेषेण परिक-18 रेण च कियताऽपि विना न भिक्षाऽपि ॥१॥' इत्यादिवचनाकर्णनाद् विभूषणात्मकेनैपयित्वा,अनेन च गवेषणाविधिरुक्तः, ग्रासैपणाविधिमाह-मितं' परिमितमतिभोजनात् खाध्यायविधातादिबहुदोषसंभवात् , 'कालेन' इति- णमोकारेण पारित्ता, करिता जिणसंथव। सज्झायं पट्टवित्ता णं, वीसमेज खणं मुणी ॥१॥' इत्याद्यागमोक्तप्रस्तावेनाद्रुताविलम्बितरूपेण वा 'भक्षयेत्' भुञ्जीतेति सूत्रार्थः ॥ ३२ ॥ यत्रान्यभिक्षुकासंभवस्तत्र बिधिरुक्तः, यत्र तु पुराऽऽयातान्यभिक्षुकसम्भवस्तत्र विधिमाह नाइदूरे अणासपणे,नन्नेसिं चक्खुफासओ। एगो चिट्रेज भत्तट्रलंबित्ता तं नइक्कमे॥३३॥(सूत्रम्) व्याख्या-'नातिदूरं' सुवव्यत्ययात् नातिदूरे-अतिविप्रकर्षवति देशे, तिष्ठेदिति सम्बन्धः, तत्र च तन्निर्गमावस्था-16 १ नमस्कारेण पारयित्वा कृत्वा (च) जिनसंस्तवम् । स्वाध्याय प्रस्थाप्य विश्राम्येन् क्षणं मुनिः ।। १ ॥ दीप अनुक्रम [३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~129~ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||33|| दीप अनुक्रम [33] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||३३|| निर्युक्ति: [६४...] अध्ययनं [१], नानवगमप्रसङ्गाद् एषणाशुद्धपसम्भवाथ, तथा 'अणासपणे 'त्ति प्रसज्यप्रतिषेधार्थत्वात् नञोऽनासन्ने प्रस्तावान्नातिनिकटवर्त्तिनि भूभागे तिष्ठेत्, तत्र पुराप्रविष्टापरभिक्षुकाप्रीतिप्रसक्तेः 'नान्येषां' भिक्षुकापेक्षया परेषां गृहस्थानां 'चक्षुः स्पर्शत' इति सप्तम्यर्थे तसिः, ततः चक्षुःस्पर्शे-दृग्गोचरे चक्षुःस्पर्शगो वा दृग्गोचरगतः 'तिष्ठेत्' आसीत | किन्तु विविक्तप्रदेशस्थो यथा न गृहिणो विदन्ति यदुत-एप भिक्षुको निष्क्रमणं प्रतीक्षत इति, तथा एगो' ति किममी मम पुरतः प्रविष्टा इति तदुपरि द्वेषरहितः 'भक्तार्थं' भोजननिमित्तं न च 'लंघित्त'त्ति उल्लङ्घ्य, 'तम्' इति भिक्षुकम्, 'अतिक्रामेत्' प्रविशेत्, तत्रापि तदप्रीत्यपवादादिसम्भवाद् । इह च मितं कालेन भक्षयेदिति भोजनमभिधाय यत्पुनर्भिक्षाटनाभिधानं तत् ग्लानादिनिमित्तं स्वयं वा बुभुक्षावेदनीयमसहिष्णोः पुनर्भ्रमणमपि न दोषायेति ज्ञापनार्थम् उक्तं च-- "जैइ तेण न संथरे । तओ कारणमुप्पण्णे, भत्तपाणं गवेस ॥१॥" इत्यादि, सूत्रार्थः ॥ ३३ ॥ पुनस्तद्गतविधिमेवाभिधित्सुराह नाइउच्चे नाइनीए, नासन्ने नाइदूरओ । फासूयं परकडं पिंडं, पडिगाहिज्ज संजए ॥३४॥ (सूत्रम् ) व्याख्या- 'नात्युचे' प्रासादोपरिभूमिकादौ नीचे या भूमिगृहादौ तत्र तदुत्क्षेपनिक्षेप निरीक्षणासम्भवाद् दायकापायसम्भवाच्च यद्वा 'नात्युच्च ः ' उच्चस्थानस्थितत्वेन ऊर्द्धकृतकन्धरतया वा द्रव्यतो भावतस्त्वहो ! अहं ११ यदि तेन न संस्तरेन्। ततः कारण उत्पन्ने, भक्तपानं गवेपयेत् ॥ १ ॥ Education intentional For Patenty पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~ 130~ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||३४|| नियुक्ति: [६४...] बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||३४|| उत्तराध्य. लब्धिमानिति मदाध्मातमानसः, नीचोऽसन्तावनतकन्धरो निम्नस्थानस्थितो वा द्रव्यतः भावतस्तु न मयाऽद्य कि- अध्ययनम् INIञ्चित् कुतोऽप्यवासमिति देन्यवान् , उभयत्र वा समुच्चये, तथा 'नासन्ने' समीपवर्तिनि 'नातिदूरे' अतिविप्रकर्षवति प्रदेशे, स्थित इति गम्यते, यथायोग जुगुप्साशकैषणाशुद्धयसम्भवादयो दोषाः, अथवा अत एव नासन्नो नातिदू-15 ॥६ ॥ रगः, प्रगता असव इति सूत्रत्वेन मतुवूलोपादसुमन्तः-सहजसंसक्तिजन्मानो यस्मात् तत् प्रामुकं, परेण-गृहिणा-12 हऽऽत्मार्थ परार्थ वा कृतं-निवर्तितं परकृतं, किं तत् ?-पिण्डम् आहारं 'प्रतिगृह्णीयात् ' स्वीकुर्यात्, 'संयतः' यतिरिति सूत्रार्थः ॥ ३४ ॥ इत्थं सूत्रद्वयन गवेषणाग्रहणैषणाविषयं विधिमुक्त्वा ग्रासैपणाविधिमाह अप्पपाणेऽप्पबीए वा,पडिच्छन्ने य संवुडे । समयं संजओ भुंजे,जयं अप्परिसाडिय॥३५॥(सूत्रम्) व्याख्या-अल्पशब्दोऽभावाभिधायी, तथेहापि सूत्रत्वेन मत्वर्थीयलोपात् प्राणा:-प्राणिनस्ततश्चाल्पा-अविद्यमानाः प्राणा:-प्राणिनो यस्मिंस्तदल्पप्राणं तस्मिन्-अवस्थितागन्तुकजन्तुविरहिते, उपाश्रयादाविति गम्यते, तथा अल्पानि-अविद्यमानानि वीजानि-शाल्यादीनि यस्मिंस्तदल्पबीजं तस्मिन् , उपलक्षणत्वाचास्य सकलैकेन्द्रियविरहिते, ननु चाल्पप्राण इत्युक्ते अल्पवीज इति गतार्थ, बीजानामपि प्राणत्वाद् , उच्यते, मुखनासिकाभ्यां यो निर्गच्छति | वायुः स एवेह लोके रूढितः प्राणो गृह्यते, अयं च द्वीन्द्रियादीनामेय संभवति, न बीजायेकेन्द्रियाणामिति कथं | गतार्थता ?, तत्रापि 'प्रतिच्छन्ने' उपरिप्रावरणान्विते, अन्यथा सम्पातिमसत्वसम्पातसम्भवात् , 'संवृते' पार्श्वतः | दीप अनुक्रम [३४] S पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~131 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||३५|| नियुक्ति: [६४...] प्रत सूत्रांक ||३५|| | कटकुट्यादिना सङ्कटद्वारे, अटव्यां कुडङ्गादिषु वा, अन्यथा दीनादियाचने दानादानयोः पुण्यवन्धप्रद्वेषादिदर्शनात् , संवृतो वा सकलाश्रयविरमणात् , 'समकम् ' अन्यैः सह, न त्वेकाक्येव रसलम्पटतया समूहासहिष्णुतया वा, अत्राह च-"साहवो तो चियत्तेणं, निमंतिज जहकर्म । जइ तत्थ कोइ इच्छेजा, तेहिं सद्धिं तु भुंजए ॥१॥'त्ति, ||४|| गच्छस्थितसामाचारी चेयं गच्छस्यैव जिनकल्पिकादीनामपि मूलत्वख्यापनायोक्ता, उक्तं हि-'गच्छे थिय निम्मा ओ' इत्यादि, यद्वा 'समय'ति सममेव समकं-सरसविरसादिष्वभिष्वङ्गादिविशेषरहितं, सम्यग् यतः संयतः यतिरित्यर्थः, 'भुञ्जीत' अश्नीयात् 'जय'ति यतमानः 'अप्परिसाडिय'ति परिसाटविरहितमिति सूत्रार्थः ॥ ३५ ॥ यदुक्तं 'यतमान इति, तत्र बाग्यतनामाहसुकडंति सुपक्कंति, सुछिन्नं सुहडे मडे । सुनिट्ठिए सुलवित्ति, सावजं वजए मुणी ॥ ३६॥ (सूत्रम्) | व्याख्या-'सुकृतं' सुष्टु निर्वर्तितमन्नादि 'सुपक्कं' घृतपूर्णादि, 'इतिः' उभयत्र प्रदर्शने, 'सुच्छिन्नं' शाकपत्रादि 'सुहत शाकपत्रादेतिक्तत्वादि घृतादि वा सूपविलेपिकादीनां, तथा 'मडे'त्ति प्रक्रमात् सुष्टु मृतं घृतायेव सक्तुदसूपादी, तथा सुष्टु निष्ठितमित्यतिशयेन निष्ठां-रसप्रकर्षपर्यन्तात्मिकां गतं, 'सुलहित्ति सर्वैरपि रसादिभिः प्रकारः शोभनमिति, 'इतिः' एवंप्रकारार्थः, एवंप्रकारमन्यदपि सावधं प्रक्रमाद्वचो, वर्जयेन्मुनिः। यद्वा-सुष्टु कृतं यदनेनारातः १ साधून ततः प्रीत्या निमन्वयेत् यथाक्रमम् । यदि तत्र कोऽपीच्छेत् तेन सार्ध तु भुजीत ॥ १ ॥ २ गच्छ एव निर्मातः. दीप अनुक्रम [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~132 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||३६|| नियुक्ति: [६४...] अध्ययनम् प्रत सूत्रांक ||३६|| उत्तराध्यप्रतिकृतं, सुठु पक्कं मांसाशनादि, सुच्छिन्नोऽयं न्यग्रोधपादपादिः, सुहृतं कदर्यादर्थजातं, सुहतो वा चौरादिः, सुमृतोऽयं दि प्रत्यनीकधिग्वर्णादिः, सुनिष्ठितोऽयंप्रासादकूपादिः, 'सुलट्ठि'त्ति शोभनोऽयं करितुरगादिरिति सामान्येनैव सायचं वचो वर्जयेन्मुनिः । निरवयं तु सुकृतमनेन धर्मध्यानादि, सुपक्कमस्य वचनविज्ञानादि, सुच्छिन्नं स्नेहनिगडादि, सुहृतमुप॥१॥ करणमशियोपशान्तये, सुहतं वा कर्मानीकादि, सुमृतमस्य पण्डितमरणमर्तुः, तथा सुनिष्ठितोऽसौ साध्याचारविषये, 'सुलढित्ति शोभनमस्य तपोऽनुष्ठानमित्यादिरूपं, कारणतो वा-"पयंत्तपक्केत्ति व पकमालवे, पयत्तछिन्नत्ति व छिन्नमालवे । पयत्तलद्वेत्ति व कम्महे उयं, पहारगाढेति व गाढमालवे ॥१॥" इत्याप्तोपदेशात् प्रयत्नकृतपक्कादिरूपं वदेदपीति, असिंच पक्षे प्रतिरूपयोगयोजनात्मको वाचिकविनय उक्त इति सूत्रार्थः ॥ ३६ ॥ विनय एवादरख्यापनाय सुविनीतेतरोपदेशदानतो यद्गुरोर्भवति तदुपदेशयितुमाहरमए पंडिए सासं, हयं भदं व वाहए । बालं सम्मइ सासंतो, गलिअस्समिव वाहए ॥३७॥(सूत्रम्) HI व्याख्या-'रमते' अभिरतिमान् भवति, 'पण्डितान्' विनीतविनेयान् , 'शासत्' इत्याज्ञापयन् कथञ्चित् प्रमा-1 दस्खलिते शिक्षयित्वा, गुरुरिति शेषः, कमिव कः ? इत्याह-'हयमिव' अश्वमिव, कीरशम् ?-भाति भन्दते वा १प्रयनपक इति या पकमालपेत् , प्रयत्नच्छिन्न इति वा छिन्नमालपेत् । प्रयत्नलष्ट इति वा कर्महेतुकं, प्रहारगाढ इति वा गाठमालपेत् ॥१॥ दीप अनुक्रम [३६] ॥६१॥ S पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~133 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||३७|| नियुक्ति: [६४...] ** प्रत सूत्रांक ||३७|| भद्रस्त-कल्याणावह 'वाहकः' अश्वन्दमः, 'बालम्' अज्ञं 'श्राम्यति' खिद्यते शासत् , स हि सकृदुक्त एव न कृत्येषु प्रवर्तते, तत इदं कुरु इदं च मा कार्षीरित्यादि पुनः पुनस्तमाज्ञापयन् शिक्षयित्वा, कमिय कः? इत्याह-'गलिम्' उक्तरूपमश्वमिव वाहक इति सूत्रार्थः ॥ ३७॥ गुरोः श्रमहेतुत्वमुद्भावयन् बालस्याभिसन्धिमाह खड्डयाहिं चवेडाहिं, अक्कोसेहि वहेहि य । कल्लाणमणुसासंतं, पावदिदित्ति मन्नइ ॥ ३८॥ (सूत्रम्) | व्याख्या-'खडकाभिः' टक्कराभिः 'चपेटाभिः' करतलाघातः 'आक्रोशैः' असत्यभाषणैः 'बधैश्च' दण्डिकादिघातैः, चशब्दादन्यैश्चैवंप्रकारैर्दुःखहेतुभिरनुशासनप्रकारस्तमाचार्य 'कल्याणम्' इहपरलोकहितम् 'अनुसासन्तं' शिक्षयन्तं, पापा दृष्टिः-बुद्धिरस्पेति पापदृष्टिः, अयमाचार्य इति मन्यते, यथा-पापोऽयं मां हन्ति निघृणत्वात् , चारकपालकवत्, पठन्ति च-खड्डया में' इत्यादि, अत्र व्यवच्छेदफलत्वाद् वाक्यस्य खड्कादय एव मम नापरं किञ्चित् समीहितमस्तीत्यभिसन्धिना कल्याणमनुशासन(त)माचार्य पापदृष्टिं मन्यते, यदा-वाग्भिरप्यनुशास्त्रमानोऽसौ ? खडकादिरूपा वाचो मन्यत इति सूत्रार्थः ॥ ३८॥ गुरोरतिहितत्वं प्रचिकाशयिपुर्विनीताभिसन्धिमाहपुत्तो मे भाय नाइत्ति, साहू कल्लाण मन्नइ। पावदिट्ठि उ अप्पाणं, सासंदासं व मन्नइ ॥३९॥(सूत्रम्)। व्याख्या-पुत्रो मे भ्राता ज्ञातिरिति, अत्रेवार्थस्य गम्यमानत्वात् पुत्र इवेत्यादिबुद्ध्याऽऽचार्यों मामनुशास्तीति ***** दीप अनुक्रम [३७]] * पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~134 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||३९|| नियुक्ति: [६४...] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥६२॥ प्रत सूत्रांक ||३९|| साधुः' सुशिष्यः 'कल्याणं' कल्याणहेतुमाचार्यमनुशासनं वा मन्यते, स हि विवेचयति शिष्यः-सौहार्दादसौ मां अध्ययन शास्ति, दुबिनीतत्वे हिमम किमस्य परिहीयते !, ममैव त्वर्थभ्रंश इति । बालोऽप्येवं किं न मन्यत इत्याह- 'पाप-18 दृष्टिस्तु' कुशिष्यः पुनरात्मानं 'सासंति प्राकृतत्वाद्धितानुशासनेनापि शास्त्रमानं दासमिव मन्यते, यथा असौ दासयन्मामाज्ञापयति, ततोऽस्य शास्तरि पापदृष्टिताऽभिसन्धिरेव सम्भवतीति सूत्रार्थः ॥ ३९ ॥ विनयसर्वखमुपदेष्टुमाहण कोवए आयरियं, अप्पाणंपिण कोवए । बुद्धोवघाई न सिया, न सिया तोत्तगवेसए॥४०॥ (सूत्रम्) व्याख्या-'न कोपयेत् ' न कोपोपेतं कुर्यात् , आचार्यम् , उपलक्षणत्वादपरमपि विनयाईम्, 'आत्मानमपि' गुरुभिरतिपरुषभाषणादिनाऽनुशिष्यमाणं न कोपयेत् , कथञ्चित् सकोपतायामपि 'बुद्धोपघाती' आचार्योपपातकृत 'न स्यात्' न भवेत् , तथा न स्यात् तुद्यते-व्यश्यतेऽनेनेति तोत्रं-द्रव्यतः प्राजनको भावतस्तु तद्दोषोद्भावकतया व्यथोपजनकं वचनमेव, तद् गवेषयति किमहममीपांजात्यादिदूषकं वच्मि? इत्यन्वेषयतीति तोत्रगवेषकः, प्रक्रमागुरूणां, न स्यादिति चादरख्यापनार्थत्वान्न पुनरुक्तं, यदुक्तं-बुद्धोपयातीन स्यात्तत्रोदाहरणं-कश्चिदाचार्यादिगणिगुण- २॥ सम्पत्समन्वितो युगप्रधानः प्रक्षीणप्रायकर्माऽऽचार्योऽनियतविहारितया विहर्तुमिच्छन्नपि परिक्षीणजङ्घाबलः क्वचिदेकस्थान एवावतस्थे, तत्रत्यश्रावकजनेन चैतेषु भगवत्सु सत्सु तीर्थ सनाथमिति विचिन्तयता तद्वयोऽवस्थासमुचितस्त्रि दीप अनुक्रम [३९] ॐ4%25345 wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~135 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||४०|| नियुक्ति: [६४...] *% प्रत सूत्रांक ||४०|| A4 ग्धमधुराहारादिभिः प्रतिदिवसमुपचर्यते स्म, तच्छिष्याच गुरुकर्मतया कदाचिदचिन्तयन् , यथा-कियचिरमयमजअमोऽस्माभिरनुपालनीयः, ततस्तमनशनमादापयितुमिच्छयोऽतिभक्तश्रावकजनानुदिनदीयमानमुचितमशनादि तस्मै न समर्पयामासुः, अन्तप्रान्तादि च समुपनीय सविषादमिव तत्पुरत उक्तवन्तः-किमिह कुर्मः १, यदीदृशामपि भवतामुचितमशनादि नामी विवेकविकलतया सदपि सम्पादयितुमीशते, श्राद्धानभिदधति च, यथा-अत्यन्तनिःस्पृह|तया शरीरयापनामपि प्रत्यनपेक्षिणः प्रणीतं भक्तपानमाचार्या नेच्छन्ति, किन्तु संलेखनामेव विधातुमध्ययस्यन्तीति। ततस्ते तद्वचनमाकार्य मन्युभरनिभृतचेतसस्तमुपसृत्य सगद्दं जगदुः-भगवन् ! भुवनभवभावखभावावभासिवर्हत्सु चिरतरातीतेष्वपि प्रतपत्सु भवत्सु भुवनमवभासवदिवाभाति, तरिकमयमत्र भवद्भिरकाल एव संलेखनाविधिरारब्धः?, न च वयममीषां निर्वेदहेतव इति मन्तव्यं, यतः-शिरःस्थिता अपि भवन्तो न भारमस्माकममीपां वा शिष्याणां कदाचिदादधति, ततस्तैरिक्तिहरवगतं-यथाऽस्मन्शियमतिविजृम्भितमेतत् , किममीपामप्रीतिहेतुना प्राणधारणेन ? न खलु धर्मार्थिनां कस्यचिदप्रीतिरुपादयितुमुचितेति चेतसि विचिन्त्य मुकुलितमेव तत्पुरत उक्तं-कियचिरमजजमैरस्माभिरुपरोधनीयास्तपखिनो भवन्तश्च, तद्वरमुत्तमाचरितमुत्तमार्थमेव च प्रतिपद्यामहे इति तानसी संस्थाप्य | भक्तमेव प्रत्याचचक्षे । इत्येवं बुद्धोपघाती न स्यादिति सूत्रार्थः ॥४०॥ एवं तापदाचार्य न कोपयेदित्युक्तं, कथञ्चित द कुपिते वा यत् कृत्यं तदाह दीप अनुक्रम [४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~136~ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||४१|| नियुक्ति: [६४...] प्रत सूत्रांक ||४१|| उत्तराध्य. आयरियं कुवियं नच्चा, पत्तिएणं पसायए । विज्झविजा पंजलिउडे, वएज्जा न पुणोत्ति य॥४१॥(सूत्रम्) अध्ययनम् बृहद्वृत्तिः ॥ व्याख्या-आचार्यम्' उक्तखरूपम् , उपलक्षणत्वादुपाध्यायादिकमपि 'कुपितम्' इति सकोपमनुशासनोदा-II सीनताभिः,-'पुरिसजाएवि तहा विणीयविणयम्मि णत्थि अभिओगो। सेसंमि उ अभिओगो जणवयजाए जहा आसे ॥१॥ इत्यागमात् , कृतबहिष्कोपं वा रट्यप्रदानादिना 'ज्ञात्वा' अवगम्य 'पत्तिएणं'ति आर्षत्वात् प्रतीतिः प्रयोजनमस्खेति प्रातीतिक-शपथादि, अपिशब्दस्य चेह लुप्तनिर्दिष्टत्वात् तेनापि प्रसादयेत् , इदमुक्तं भवति-गुरु कोपहेतुकमबोध्याशातनामुक्त्यभायादिकं विगणयन् यया तया गत्या तत्प्रसादनमेवोत्पादयेत्, सर्वमपि वा प्रती-13 दत्युत्पादकं वचः प्रातीतिकं तेन प्रसादयेत्, यद्वा 'पत्तिएणं'ति प्रीत्या साम्नव, न भेददण्डाद्युपदर्शनेन, एतदेवाह-- MI'विध्यापयेत्' कथञ्चिदुदीरितकोपानलानप्युपशमयेत्, प्रकर्षण-अन्तःप्रीत्यात्मकेन कृतो-विहितोऽअलि:-उभय करमीलनात्मकोऽनेनेति प्रकृताञ्जलिः, प्राकृतत्वाच कृतशब्दस्य परनिपातः, प्रकृष्ट वा-भावान्विततयाऽअलिपुटम-12 द्रा स्पेति प्राअलिपुटः, इत्थं कायिक मानसं च विध्यापनोपायमभिधाय वाचिकं वकुमाह-वदेत्' भूयात् न पुन-18 रिति, चशब्दो भिन्नक्रमः, षदेदित्यस्यानन्तरं द्रष्टव्यः, ततोऽयमर्थः-कयश्चित् कृतकोपानपि गुरून विध्यापयन् वदेत् १ पुरुषजातेऽपि तथा विनीतविनये नास्त्यभियोगः । शेषे त्वमियोगो जनपदजाते यथाऽने ॥ १॥ दीप अनुक्रम [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~137 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||४१|| नियुक्ति: [६४...] प्रत सूत्रांक ||४|| यथा-भगवन् । प्रमादाचरितमिदं मम क्षमितव्यं, न पुनरित्यमाचरिष्यामीति सूत्रार्थः ॥४१॥ साम्प्रतं यथा निर|पवादतयाऽऽचार्यकोप एव न स्यात् तथाऽऽहधम्मज्जियं च ववहारं, बुद्धेहाऽयरियं सया । तमायरंतो ववहारं, गरहं नाभिगच्छइ ॥४२॥ (सूत्रम्) व्याख्या-धर्मेण-क्षान्त्यादिरूपेणार्जितम्-उपार्जितं धर्मार्जितं, न हि क्षान्त्यादिधर्मविरहित इमं प्राप्नोतीति,'चः' पूरणे, विविधं विधिवद्वाऽवहरणमनेकार्थत्वादाचरणं व्यवहारस्तं-यतिकर्तव्यतारूपं, 'बुद्धैः' अवगततत्त्वैः आचरितं, 'सदा सर्वकालं, 'त'मिति सदावस्थिततया प्रतीतमेव 'आचरन्' व्यवहरन्, यद्वा-यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धात् सुव्यत्ययाच धर्मार्जितो बुद्धराचरितश्च यो व्यवहारस्तमाचरन् कुर्वन् , विशेषेणापहरति पापकर्मेति व्यवहारस्तं, व्यवहारविशे षणमेतत् , एवं च किमित्याह-'गर्हाम्' अविनीतोऽयमित्येवंविधां निन्दां 'नाभिगच्छति न प्राप्नोति, यतिरिति गम्यते। दायद्वा-आचार्यविनयमनेनाह, तत्र धर्मादनपेतो धम्र्यो-न धर्मातिक्रान्तः, 'जियं च ववहार'ति प्राकृतत्वाचस्व भिन्न क्रमवाजीतव्यवहारश्च, अनेन चागमादिव्यवहारव्यवच्छेदमाह, अत एव 'बुद्धः' आचाराचरितः सदा-सर्वकालं त्रिकालविषयत्वात् जीतन्यवहारस्य, य एवंविधो व्यवहारस्तं व्यवहारं-प्रमादात् स्खलितादी प्रायश्चित्तदानरूपमाच-18 रन् 'गही' दण्डरुचिरयं निघृणो वेत्येवंरूपां जुगुप्सां नाभिगच्छति, आचार्य इति शेषः, न चायं निजक उपकारी| दीप अनुक्रम [४१] wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~138~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||४२|| नियुक्ति: [६४...] उत्तराध्य. अध्ययनम् बृहद्वृत्तिः प्रत ॥ ६४॥ सूत्रांक ||४२|| CCESCORMSROSONASSCRICS या मम विनेय इति न दण्डनीय इति ज्ञापनार्थ च धर्म्यजीतविशेषणं, पठन्ति च-'तमायरंतो मेहावि'त्ति सुगममे- वेति सूत्रार्थः ॥४२॥ किंबहुना?मणोगयं वक्तगयं, जाणित्ताऽऽयरियस्स उ।तं परिगिज्झ वायाए, कम्मुणा उववायए॥४३॥(सूत्रम्)| व्याख्या-मनसि-चेतसि गत-स्थितं मनोगतं तथा वाक्य-वचनरचनात्मनि गतं वाक्यगतं, कृत्यमिति शेषः, वाक्यग्रहणं तु पदस्थापरिसमाप्ताभिधायित्वेन क्वचिदप्रयोजकत्वात् , 'ज्ञात्या' अवबुध्य 'आचार्यस्य' विनयाहस्य गुरोः, तुशब्दः कायगतकृत्यपरिग्रहार्थः, 'तत्' मनोगतादि 'परिगृह्य' अङ्गीकृत्य 'वाचा' वचसा इदमित्थं करोमीत्यात्मकेन 'कर्मणा' क्रियया तन्निर्वर्तनात्मिकया तदुपपादयेत्-विदधीत, पठन्ति च-'मणोरुई वक्करुई, जाणित्ताऽऽय-| रियस्स उ'अत्र च मनसि रुचि:-अभिलापस्तामाचार्यस्य ज्ञात्या-इदममीषां भगवतामभिमतमित्यवगम्य, वाक्ये रुचिःपर्यवसितकार्यवाञ्छा तां च, शेषं प्राग्वत् , अनेन सूक्ष्मो विनय उक्त इति सूत्रार्थः॥४३॥ स चैवं विनीतविनयतया यादृक् स्यात्तदाहवित्ते अचोइए निच्चं, खिप्पं हवइ सुचोयए । जहोवइटुं सुकडं, किच्चाई कुबई सया ॥४४॥ (सूत्रम् ___ व्याख्या-'वित्ते' इति विनीतविनयतयैव सकलगुणाश्रयतया प्रतीतः प्रसिद्ध इतियावत्, 'अचोइए'त्ति यथा हि दीप अनुक्रम [४२] ॥१४॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~139~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||४४|| नियुक्ति: [६४...] प्रत सूत्रांक ||४४|| हवलवद्विनीतधुर्यः प्रतोदोत्क्षेपमपि न सहते, कुतस्तनिपतनम् ?, एवमयमप्यचोदित एवं प्रतिप्रस्तावं गुरुकृत्येषु प्रव तत इति कुतः प्रेरितत्वमस्य ?, 'निलं' सदा, न कदाचिदेव, खयं प्रवर्तमानोऽपि प्रेरितोऽनुशयवानपि सादिति | कदाशङ्कापनोदायाह-'क्षिप्रम्' इति शीघं भवति 'सुचोयए' ति शोभने प्रेरयितरि, गुराविति गम्यते, सोपस्कारत्वाच क्षिप्रमेव प्रेरके सति कृत्येषु वर्तते, नानुशयतो विलम्बितमेव, पठ्यते च-वित्ते अचोइए खिप्पं, पसन्ने थाम करें' इति, अत्र च 'प्रसन्नः' प्रसत्तिमान् , नाहमाज्ञापित इत्यप्रसन्नो भवति, किन्तु ममायमनुग्रह इति मन्यते,R क्षिप्रमेव च तत्कुरुते, 'थामवंति स्थाम-बलं तद्वान् , किमुक्तं भवति ?-सति बले करोति, असति च सद्भावमेवाऽऽख्याति, यथाऽहमनेन कारणेन न शक्नोमीति । क्षिप्रमपि कुर्वन् कदाचिद्विपरीतमविहितं वा विदध्यात् तद्वयवच्छेदायाह-'यथोपदिष्टम्' उपदिष्टानतिक्रमण, 'सुकृतं' सुष्टु परिपूर्ण कृतं यथा भवत्येवं कृत्यानि 'करोति' निर्वर्तयति, सदा सता वा शोभनेन प्रकारेणेति सूत्रार्थः ॥ ४४ ॥ सम्प्रत्युपसंहर्तुमाहणच्चा णमइ मेहावी, लोए कित्ती य जायइ। किच्चाणं सरणं होई, भूयाणं जगई जहा ॥४५॥ (सूत्रम्) व्याख्या-'ज्ञात्वा' अनन्तरमखिलमध्ययनार्थमवगम्य 'नमति' तत्कृत्यकरणं प्रति प्रवीभवति 'मेधावी' एतदध्ययनार्थावधारणशक्तिमान् मर्यादावर्ती वा, तद्गुणं वक्तुमाह-लोके कीर्तिः-सुलब्धमस्य जन्म निस्तीर्णरूपो भवोदधिरनेनेत्यादिका श्लाघा चशब्द:-'एकदिग्व्यापिनी कीर्तिः, सर्वदिग्व्यापकं यशः' इति प्रसिद्धेर्यशश्चेति समुचि दीप अनुक्रम [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~140 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||४५|| नियुक्ति: [६४...] प्रत सूत्रांक ||४५|| मनोति, उभयमपि प्रक्रमानन्तुरेव 'जायते' प्रादुर्भवति, स एव भवति 'कृत्यानाम् ' उचितानुष्ठानाना कलुषान्तःकर-12 |गवृत्तिभिरविनीतपिनयैरतिदूरमुत्सादितानां 'शरणम्' आश्रय इत्यर्थः, केषां केव ?-'भूतानां' प्राणिनां 'जगती' वृद्धृत्तिः पृथ्वी यथेति सूत्रार्थः ॥ ४५ ॥ ननु विनयः पूज्यप्रसादनफलः, ततोऽपि च किमवाप्यत इत्याह पूजा जस्स पसीयंति, संबुद्धा पुवसंथुया । पसन्ना लंभइस्संति, विउलं अट्रियं सुयं ॥४६॥ (सूत्रम्) का व्याख्या-पूजयितुमौंः पूज्या-आचार्यादयः 'यस्य' इति विवक्षितशिष्योपदर्शकं सर्वनाम 'प्रसीदन्ति' तुष्य-12 ४न्ति 'सम्बुद्धवाः सम्यगवगतवस्तुतत्त्वाः, पूर्व-वाचनादिकालादारतो न तु वाचनादिकाल एव, तत्कालविनयस्य कृत-2 है प्रतिक्रियारूपत्वेन तथाविधप्रसादाजनकत्वात् , संस्तुता-विनयविषयत्वेन परिचिताः सम्यक्स्तुता वा सद्भूतगुणो कीर्तनादिभिः पूर्वसंस्तुताः, शेषविनयोपलक्षणमेतत् , 'प्रसन्ना' इति सप्रसादाः, पठ्यते च-सम्पन्नाः' ज्ञानादिगुण परिपूर्णाः सम्यग्-अविपरीता प्रज्ञा येषां ते सत्प्रज्ञा वा, 'लम्भयिष्यन्ति' प्रापयिष्यन्ति, किमिलाह-'विपुलं'विस्तीलम्, अर्यत इत्यर्थो-मोक्षः स प्रयोजनमवेत्यार्थिक, तदस्य "प्रयोजन" (पा०५-१-१०९) मिति ठकु, अथवा-3 अर्थः स एव प्रयोजनरूपोऽस्थास्तीत्वार्थिकः, अत इनिठना (पा०५-२-११५)विति ठन् , 'श्रुतम्' अङ्गोपाङ्गप्रकी कादिभेदमागम, न तु हरहरिहिरण्यगर्भादिवत् साक्षात् खर्गादिकम् , अनेन पूज्यप्रसादस्थानन्तरफलं श्रुतमुक्त, B म्यवहितकलं तु मुक्तिरिति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ सम्प्रति श्रुतावाप्ती तसैहिकफलमाह दीप अनुक्रम [४५] JAMERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~141 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४७॥ दीप अनुक्रम [४७] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||४७|| अध्ययनं [१], निर्युक्ति: [६४...] स जत्थे सुविनीयसंसए, मणोरुई चिट्ठइ कम्मसंपया । तवोसमायारीसमाहिसंबुडे, महज्जुई पंच वयाइँ पालिया ॥ ४७ ॥ (सूत्रम् ) व्याख्या- 'स' इति शिष्यः प्रसादितगुरोरधिगतश्रुतः पूज्यं सकलजनश्लाघादिना पूजाई शास्त्रमस्येति पूज्यशास्त्रः, विनीतस्य हि शाखं सर्वत्र विशेषेण पूज्यते, यदि वा प्राकृतत्वात्पूज्यः शास्ता गुरुरस्येति पूज्यशास्तृकः, विनीतो हि विनेयः शास्तारं पूज्यमपि विशेषतः पूजां प्रापयति, अथवा पूज्यश्वासौ शस्त्रश्च सर्वत्र प्रशंसास्पदत्वेन पूज्यशस्तः, सुष्ठु - अतिशयेन विनीत:- अपनीतः प्रसादितगुरुणैव शास्त्रपरमार्थसमर्पणेन संशयो - दोलायमानमानसात्मकोऽस्येति सुविनीतसंशयः, सुविनीता वा संसत्-परिषदस्येति सुविनीत संसत्कः, विनीतस्य हि स्वयमतिशय विनीतैव परिषद्धवति, 'मणोरुई 'त्ति मनसः - चेतसः प्रस्तावाद् गुरुसम्बन्धिनी रुचिः - प्रतिभासोऽस्मिन्निति मनोरुचिः, 'तिष्ठति' आस्ते, विनयाधिगतशास्त्रो हि न कथञ्चिदुरूणामप्रीतिहेतुरिति, तथा 'कम्मसंपय'त्ति कर्म - क्रिया दशविधचक्रवा|लसामाचारीप्रभृतिरितिकर्तव्यता तस्याः सम्पत्-सम्पन्नता तया, लक्षणे तृतीया, ततः कर्मसम्पदोपलक्षितस्तिष्ठतीति सम्बन्धः, हेतौ वा तृतीया, मनोरुचित्वापेक्षया च हेतुत्वम्, अथवा मनोरुचितेव मनोरुचिता तिष्ठति - जास्ते कर्मणां ज्ञानावरणादीनां सम्पद्-उदयोदीरणादिरूपा विभूतिः कर्मसम्पद्, अस्येति गम्यते, तदुच्छेदशक्तियुक्तत| याऽस्य प्रतिभासमानतयेव तत्स्थितेरुपलक्ष्यमाणत्वात्, पठ्यते च 'मणोरुह 'ति तत्र मनसो रुचिः - अभिलापो यमि Forsy warg पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~ 142~ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||४७|| नियुक्ति: [६४...] बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ॥४७|| उत्तराध्य. स्तन्मनोरुचि-खप्रतिभासानुरूपं यथा भवत्येवं तिष्ठति, कया ?-कर्मसम्पदा' यत्यनुष्ठानमाहात्म्यसमुत्पन्नपुला-ट्र अध्ययनम् - कादिलब्धिसम्पत्त्या, पठन्ति च-'मणोरुई चिट्ठइ कम्मसंपर्य' तत्र च मनोरुचितफलसम्पादकत्वेन मनोरुचितां । कर्मसम्पदं-शुभप्रकृतिरूपाम् , अनुभवन्निति शेषः, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-'मणिच्छियं संपयमुत्तमं गय'त्ति इह च ॥६६॥[सम्पदन्यथाख्यातचारित्रसम्पदं, अन्यत् सुगममेव, तपसः-अनशनाद्यात्मकस्य सामाचारीति-समाचरणं, यद्वा-तपश्च | सामाचारी च-यक्षतो वक्ष्यमाणखरूपा समाधिश्च-चेतसः खास्थ्यं तैः संवृतः-निरुद्धाश्रवः तपःसामाचारीसमाधिसंवृतः, यद्वा-तपःसामाचारीसमाधिभिः संवृतं-संवरणं यस्य स तथाविधः, महती युतिः-तपोदीप्तिस्तेजोलेश्या | वाऽस्येति महायुतिः, भवतीति गम्यते, किं कृत्वेत्साह-'पञ्च प्रतानि' प्राणातिपातविरमणादीनि, 'पालयित्वा'निर|तिचारं संस्पृश्येति सूत्रार्थः॥४७॥ पुनरस्वैहिकमामुष्मिकं च फलं विशेषेणाह स देवगंधवमणुस्सपूइए, चइत्तु देहं मलपंकपुवयं । सिद्धे वा हवइ सासए, देवे वाऽप्परए महिड्डिए ॥४८॥ तिबेमि॥ व्याख्या-'स' तार विनीतविनयः, देवैः-वैमानिकज्योतिष्कः गन्धर्वैश्व-गन्धर्वनिकायोपलक्षितैय॑न्तरभुवनपतिभिः मनुष्यैश्च-महाराजाधिराजप्रभृतिभिः पूजितः-अर्चितो देवगन्धर्वमनुष्यपूजितः, 'स्वक्त्वा' अपहाय 'देहं' शरीरं दीप अनुक्रम [४७] ॥६६॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~143 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||४८|| नियुक्ति: [६४...] प्रत सूत्रांक ||४८|| 'मलकपुषर्य'ति जीवशुद्धयपहारितया मलवन्मलः स चासौ 'पावे यजे वेरे पंके पणए यत्ति वचनात् पश्च कममलपङ्कः स पूर्व-कार्यात् प्रथमभावितया कारणमस्येति मलपकपूर्वक, यद्वा-'माओऽयं पिऊसुकंपत्ति वचनात् रक्तशुक्रे एव मलपक्की तत्पूर्वक, 'सिद्धो वा' निष्ठितार्थो वा 'भवति' जायते 'शाश्वतः' सर्वकालावस्थायी, न तु परपरिकल्पिततीर्थनिकारादिकारणतः पुनरिहागमवानशाश्वतः, सावशेषकर्मवांस्तु देवो वा भवति, अप्परए'ति अल्पमितिअविद्यमानं रतमिति-क्रीडितं मोहनीयकर्मोदयजनितमस्येति अल्परतो-लवसप्तमादिः, अल्परजा वा प्रतनुवध्यमानकर्मा, महती-महाप्रमाणा प्रशस्या वा ऋद्धिः-चक्रवर्तिनमपि योधयेत् इत्यादिका विकरणशक्तिः तृणाग्रादपि हिरण्यकोटिरित्यादिरूपा वा समृद्धिरस्वति महर्द्धिकः, देवविशेषणं वा, 'इतिः' परिसमाप्तावेवमर्थे का, एतावद्विन यश्रुतमनेन वा प्रकारेण 'ब्रवीमि' इति गणभूदादिगुरूपदेशतः, न तु खोप्रेक्षया इति ॥४८॥ उक्तोऽनुगमः, T8|| सम्प्रति चतुर्थमनुयोगद्वारं नया इति, नयति-अनेकांशात्मक वस्त्वेकांशावलम्बनेन प्रतीतिपथमारोपयति नीयते । दिवा तेन तस्मिंस्ततो वा नयनं वा नयः-प्रमाणप्रत्युत्तरकालभावी परामर्श इत्यर्थः, उक्तं च-"सै नयइ तेण तर्हि का ततोऽहवा बत्थुणो व जंणयणं । बहुहा पजायाण संभवओ सो णतो णामं ॥१॥" ननु सन्त्वमी नया:, एषां तु १ पापं वर्ष वैरं पङ्कः पनकच. २ मातुरातवं पितुः शुक्रम् . ३ स नयति तेन तत्र का ततोऽथवा वस्तुनो वा यन्नयनम् । बहुम पर्यायाणां संभवतः स नयो नाम ॥ १॥ %%25-5454645 दीप अनुक्रम [४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~144 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||४८|| नियुक्ति: [६४...] | उत्तराध्य. बृहद्भुत्तिः ॥६७॥ प्रत सूत्रांक ||४८|| -OCOCCASCLASSES क इहोपयोगः1, उच्यते, उपक्रमेणोपक्रान्तस्य निक्षेपेण च यथासम्भवं निक्षिप्तस्य अनुगमेनानुगतस्य चास्यैवाध्यय-12 अध्ययनम् नस्य विचारणा, उक्तं च-"संबंधोवक्कमतो समीवमाणीय णत्वणिक्खेवं । सत्थं तोऽणुगम्मइ णएहि जाणाविहाणेहिं ॥१॥" अस्तु नयैर्विचारणा, साऽपि प्रतिसूत्रं समस्ताध्ययनस्य वा ?, न तावत् प्रतिसूत्रं, प्रतिसूत्रं नयावतारनिषेधस्यात्रैवाभिधानात्, अथ समस्ताध्ययनस्य, तदपि न, सूत्रव्यतिरिक्तस्य तस्थासम्भवाद्, उच्यते, यदुक्तंप्रतिसूत्रं नयावतारनिषेध इति, तदित्यमेव, यत्तु सूत्रव्यतिरिक्तस्याध्ययनस्यैवासम्भव इति, तदसत्, कथञ्चित् समुदायस्य समुदायिभ्योऽन्यत्वात् , शिबिकावाहकपुरुषसमूहवत् , इतरथा प्रत्येकावस्थाविलक्षणकार्यानुदयप्रसाद, | अस्त्वेवं तथाऽपि किमस्य समस्तनयैर्विचार उत कियद्भिरेव ?, न तावत् समस्तैरिति पक्षः क्षमः, तेषामसङ्ख्यत्वेन तैर्विचारस्य कर्तुमशक्यत्वात् , तथाहि-यावन्तो वचनमार्गास्तावन्त एव नयाः, यथोक्तम्-"जावइया वयणपहा | तावइया चेव होंति नयवाया। जावइया नयवाया तावइया चेव परसमया ॥१॥" न च निजनिजामिप्रायविर| चितानां वचनमार्गाणां सङ्ख्याऽस्ति, प्रतिप्राणि भिन्नत्वादभिप्रायाणां, नापि कियद्भिरिति वक्तुं शक्यम् , अनवस्थाप्रसङ्गात् , सङ्ख्यातीतेषु हि तेषु यावदेभिर्विचारणा क्रियते तावदेभिरपि किं नेत्यनवस्थाप्रेरणायां न नैयत्याव १ संबन्धोपक्रमतः समीपमानीय न्यस्तनिक्षेपम् । शास्त्रं ततोऽनुगम्यते नयैर्नानाविधानैः ॥ १॥ २ यावन्तो वचनपथास्तावन्त एव भवन्ति नयवादाः । याचन्तो नयवादास्तावन्त एवं परसमयाः ॥ १॥ CIRCTCSCENER दीप अनुक्रम [४८] ॥६७॥ पा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~145 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||४८|| नियुक्ति: [६४...] प्रत SON सूत्रांक ||४८|| ४/स्थापकं हेतुमुत्पश्यामः, अघापि स्याद्-असञ्चयेयत्वेऽप्येषां सकलनयसङ्घाहिभिर्नयैर्विचारः, ननु तेषामप्यनेकविधत्वात् 31 पुनरनवस्थैव, तथाहि-पूर्वविद्भिः सकलनयसङ्ग्राहीणि सप्त नयशतानि विहितानि, यत् प्रतिबद्धं सप्तशतारं नयच-14 काध्ययनमासीत् , तत्सङ्ग्राहिणः पुनादश विध्यादयो, यत्रतिपादकमिदानीमपि नयचक्रमास्ते, तत्सङ्ग्राहिणोऽपि सप्त नैगमादयो, यावत् तत्सङ्ग्रहेऽपि द्वयमेवेति सङ्घाहिनयानामपि तेषामनेकविधत्वात् पूर्ववदनवस्थैव, अय संक्षिप्तरुचित्वादेर्दयुगीनजनानामनेकविधत्वेऽपि सङ्घाहिनयानां द्वयेनैव विचारोन शेषैरिति नानवस्था, ननु द्वयमपि3 द्रव्यपर्यायार्थशब्दव्यवहारनिश्चयज्ञान क्रियादिभेदेनानेकधैवेति तत्रापि स एवानवस्थालक्षणो दोष इति, अत्र प्रतिविधीयते-इहाध्ययने विनयो विचार्यते, स च मुक्तिफलः, ततो यदेवास्य मुक्तिप्राप्तिनिवन्धनं रूपं तदेव विचारणीयं, तच ज्ञानक्रियात्मकमेवेति ज्ञानक्रियानयाभ्यामेव विचारो न पुनरन्यैरिति । तत्र ज्ञाननय आह-ज्ञानमेव मुक्त्यवा-18 सिनिवन्धनं, तथा च तल्लक्षणाभिधायिनी नियुक्तिगाथा-"णायंमि गिव्हियत्वे अगिहियमि चेव अत्थंमि। जइयत्वमेव इह जो उपएसो सो णो नाम ॥१॥" अस्याश्चार्थः-'ज्ञाते' बुद्धे 'गिहियधि'त्ति गृह्यते-उपादीयते कार्यार्थिभिरिति ग्रहीतव्यः, कार्यसाधक इत्युक्तं भवति, उक्तं हि-गेज्झो सो कजसाहतो होइ' तस्मिन् , अग्रही-13 तव्यः-तद्विपरीतः, स च हेय उपेक्षणीयश्च, उभयोरपि कार्यासाधकत्वात् , तस्मिंश्च, 'चः' समुचये, 'एव' इति ट्र १ ग्राह्यः स (यः) कार्यसाधको भवति । BRECENTRE दीप अनुक्रम [४८] G RESS- पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~146~ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||४८|| नियुक्ति: [६४...] वृहदृत्तिः प्रत सूत्रांक ||४८|| पूरणे, कस्मिन् पुनीयेऽयाचे वैत्याह-'अत्यमिति अर्थ्यत इत्यर्थः तस्मिन्-द्रव्ये गुणे वा, यत आह-"अंत्यो दवं उत्तराध्य. गुणो बावि" 'यतितव्य'मिति यनः कार्यः, किमुक्तं भवति ?-ग्रायः ग्रहीतव्यः इतरश्च परिहर्तव्यः, 'एवः' अवधारणे, स च व्यवहितसम्बन्धः, ततोऽयमर्थः-ज्ञात एव ग्रहीतव्येऽग्रहीतव्ये वाऽर्थे यतितव्यम् , अन्यथा प्रवर्तमानस्य फलविसंवाददर्शनात्, तथा चान्यैरप्युच्यते-“सम्यगज्ञानपूर्विका सर्वपुरुषार्थसिद्धि"रिति, अज्ञानस्यैव च बहुदोषत्व-120 प्रदर्शनात् , यतो बालेरप्यु ष्यते-"अज्ञानं खलु कष्टं क्रोधादिभ्योऽपि सर्वपापेभ्यः । अर्थ हितमहितं वा न वेत्ति दायेनाऽऽवृतो लोकः ॥१॥" आगमोऽप्येवमेवावस्थितः, यतस्तत्र कर्मनिर्जरणाधीना मुक्तिरुक्ता, कर्मनिर्जरणे च ज्ञानPमेवाऽऽत्यन्तिको हेतुः, तद्विरहितानां तामलिप्रभृतीनां कष्टानुष्ठायिनामपि अल्पफलत्वाभिधानात्, उक्तं हि-जं अन्नाणी कम्म खवेद बहुयाहि वासकोडीहि । तं नाणी तिहिं गुत्तो खवेइ ऊसासमेत्तेणं ॥१॥” यदपि दर्शनसत्तायां चारित्ररहितस्यापि' सिझंति चरणरहिया दंसणरहिया न सिझंति' इत्यागमेन मुक्तिप्रतिपादनं, तदपि ज्ञानप्राधा-[2 न्यख्यापनपरं, दर्शनरहितस्य हि द्वादशाङ्गमप्यज्ञानमेवेति न तत्र कष्टक्रियासम्भवेऽपि मुक्तिः, दर्शनोत्पत्ती तु क्रियां विनाऽपि मरुदेव्यादीनामिव सम्यग्ज्ञानमात्रादेव मुक्त्यवासिरित्यर्थप्रतिपादकत्वादस्य, अत एव बहुश्रुतपूजाध्ययने min६८॥ १ अर्थो द्रव्यं गुणो वाऽपि । २ यदज्ञानी कर्म क्षपयति बहुकाभिर्वर्षकोटिमिः । तज्ज्ञानी त्रिभिर्गुप्तः क्षपयत्युच्यासमात्रेण ॥ १॥ १३ सिध्यन्ति चरणरहिता दर्शनरहिता न सिध्यन्ति । दीप अनुक्रम [४८] wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~147 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||४८|| नियुक्ति: [६४...] प्रत सूत्रांक ||४८|| बहुश्रुतस्यैव तथा तथा पूज्यताभिधानं, तथा च प्रयोगः-यद् येन विना न भवति तत् तन्निबन्धनमेव, यथा बीजाद्य8||विनाभावी तन्निवन्धन एवापुरः, ज्ञानाविनाभाविनीच मुक्त्यवाप्तिः, 'इती'स्येवं यः उपदेशः' सर्वस्य ज्ञाननिवन्धनत्वा-IX भिधानरूपः, स किमित्याह-'नय' इति प्रस्तावात् ज्ञाननयः, नामेति वाक्यालङ्कारे, उक्तं हि-'इंति जोत्ति एवमिह जो उपएसो जाणणाणतो सो ति । अयं च ज्ञानदर्शनचारित्रतपउपचारात्मनि पञ्चविधे विनये ज्ञानदर्शनविनयावेवेच्छति, चारित्रतपउपचारविनयांतु तत्कार्यत्वात् तदायत्तत्वाच गुणभूतानेवेति गाथार्थः ॥ क्रियानयस्त्वाह-"ससिपि नयाणं बहुविवत्तवयं निसामेत्ता । तं सवणयविसुद्धं चरणगुणट्टिओ साहू ॥१॥" 'सर्वेषामपी'ति नैगमादिन योत्तरोत्तरभेदानामविशुद्धानां विशुद्धानां च, किं पुनर्मूलनयानां विशुद्धानामेवेत्सपिशब्दार्थः, 'नयानाम्' उक्तरूपाणां काबहवो विधा:-प्रकारा यस्यां सा बहुविधा तां, 'वक्तव्यता सामान्यमेव विशेषा एव उभयनिरपेक्षं चो(यो)भयं, यदिवा द्रव्यं पर्यायाः प्रकृतिः पुरुषो विज्ञानं शून्यमित्यादिखखाभिप्रायानुरूपार्थप्रतिपादनपरां निशम्य-आकर्ण्य, किमित्याह'तदिति वक्ष्यमाणं सर्वे निरवशेषास्ते च ते नयाश्च सर्वनयास्तेषां, विशुद्धं-निर्दोषतया सम्मतं, यत् किमित्याह-चर्यत इति चरणं-चारित्रं, गुणः साधनमुपकारकमित्यनान्तरं, ततश्चरणं चासौ गुणश्च निर्वाणासन्तोपकारितया चरणगु-I गस्तस्मिन् स्थितः-तदासेषितया निविष्टः, 'साधु'रिति साधयति पौरुषेयीभिः क्रियाभिरपवर्गमित्यन्वर्थनामतयोच्य १ इति य इति-एवमिह व उपदेशो शाननयः सः । दीप अनुक्रम [४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~148~ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||४८|| नियुक्ति: [६४...] प्रत सूत्रांक उत्तराध्य. ते, अस्यायमाशयः-बहुविधायामपि वक्तव्यतायां क्रियात एव फलप्राप्तिः, तथाहि-तृत्त्यर्थी जलादिकमवलोकयन्नपि अध्ययनम् न यावत् पानादिक्रियायां प्रवृत्तस्तावत्तृप्तिलक्षणफलमवाप्नोति, अत एव सम्यग्ज्ञानमपि तदुपयोगितयैव विचार्यते, 4 बृत्तिः तथा च तद्विचारप्रवृत्तैरुक्तम्-"न ह्याभ्यामर्थ परिच्छिद्य प्रवर्तमानोऽर्थक्रियायां विसंवाद्यत" इति, आगमोऽप्ये॥१९॥ 5 वमेवावस्थितः, यतस्तत्रापि क्रियाविकलं विफलमेव ज्ञानम. उक्तं हि-"जहाँ खरो चंदणभारवाही, भारस्स भागी न हु चंदणस्स । एवं खु नाणी चरणेण हीणो, नाणस्स भागी न हु सुग्गईए ॥१॥" यदि च ज्ञानमेव मुक्तिसाधनं ज्ञानाविनाभाव्यनुत्तरदर्शनसम्पत्समन्वितानां दशाहसिंहादीनामपि स्यात्, अथ चाधोगतिगामिन एवैते धूयन्ते, यतल आह-"दसारसीहस्स य सेणियस्स, पेढालपुत्तस्स य सचइस्स । अणुत्तरा दसणसंपया तया, विणा चरिणहरं गई गया ॥ १॥" किञ्च-यदि ज्ञानमेव मुक्तिकारणमिप्यते, तदा यदुच्यते-विहरति मुहूर्तकालं, देशोनां पूर्वकोटिं च' दाइत्येतदपि विरुध्येत, ज्ञानेपु निखिलवस्तुविस्तरपरिच्छेदकरूपता विभ्रत् केवलज्ञानमेवोत्तममिति तत्समनन्तरमेव || मुक्त्यवाप्ती कथं विहरणसम्भवः ?, अतः सत्यपि ज्ञाने शैलेश्यवस्थाऽवासी सर्वसंवररूपक्रियाऽनन्तरमेव मुक्त्य| वाप्तिरिति क्रियाया एव मुक्तिकारणत्वं, प्रयोगश्चात्र-यद् यत्समनन्तरभावि तत् तत्कारणं, यथा पृथिव्यादिसामग्र्य १ यथा खरश्चन्दनभारवाही भारस्य भागी नैव चन्दनस्य । एवमेव ज्ञानी चरणेन हीनो ज्ञानस्य भागी नैव सद्गतेः॥१॥२ दशाई-18 | सिंहस्य च श्रेणिकस्य पेढालपुत्रस्य च सत्यकिनः । अनुत्तरा दर्शनसंपद् तदा विना चारित्रेणाधमां गतिं गताः ।। १॥ SACROSOCALSCRE KBARABANS ||४८|| दीप अनुक्रम [४८] ॥६९।। पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~149~ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||४८|| नियुक्ति: [६४...] प्रत सूत्रांक नन्तरभावी पृथिव्यादिकारणोऽङ्करः, क्रियाऽनन्तरभाविनी च मुक्तिरिति, अयं च पञ्चविधेऽपि विनये चारित्रतप-LI उपचारविनयानेवेच्छति, ज्ञानदर्शनविनयौ तु तत्कारणत्वाद् गुणभूतावेवेति । आह-एवं सति किं ज्ञानं तत्त्वमस्तु, 51 आहोखित् क्रिया ?, उच्यते, परस्परसव्यपेक्षमुभयमिदं मुक्तिकारणं, निरपेक्षं तुन कारणमिति तत्त्वम्, एतदर्थाभिधायिका चेयमेव गाथा 'सबेसिपि नयाणं' इत्यादि, इह च गुणशब्देन ज्ञानमुच्यते, 'बहुविधवक्तव्यताम्' उक्तरूपां नामादीनां कः कं साधुमिच्छतीसेवंरूपां वा, निशम्य-श्रुत्वा 'तत् सर्वनय विशुद्धं तत् सर्वनयसम्मत ५ यचरणगुणस्थितः साधुरिति, अयमभिप्रायः-यत्तावद् ज्ञानवादिनोक्तम्-यद् येन विना न भवति तत्तनिवन्धनमेव, ४ है यथा बीजाद्यविनाभावी तन्निवन्धन एवाकरः, ज्ञानाविनाभाविनी च मुक्तिरिति, अत्राविनाभावित्वमनैकान्तिको हैं हेतुः, तथाहि-यथाऽनेन ज्ञाननिवन्धनत्वं मुक्तेः साध्यते, तथा क्रियानिवन्धनत्वमपि, यथा हि ज्ञानं विना नास्ति मुक्तिरिति ज्ञानाविनाभाविनी एवं क्रियामपि विना नासौ भवतीति तदविनाभावित्वमपि समानमेवेति कथं 8 दानोभयनिवन्धनत्वसिद्धिः, तथा चाह-"णाणं सविसयनिययं ण णाणमिण कजनिष्फत्ती । मग्गण्णू दिटुंतो| PM होइ सचिट्ठो अचिट्ठो य ॥१॥ जाणतोऽवि य तरिउ काइयजोगं न जुजई जो उ । सो बुज्झइ सोएणं एवं नाणी की १ ज्ञान खविषयनियतं न ज्ञानमात्रेण कार्यनिष्पत्तिः । मार्गज्ञो दृष्टान्तो भवति सचेष्टोऽचेष्टश्च ॥ १॥ जानन्नपि तरीतुं कायिकयोगं डून युनक्ति यस्तु । स उहाते श्रोतसा एवं ज्ञानी चरणहीनः ॥ १ ॥ SACRACEBCACANCY ||४८|| SRRRRRAAG दीप अनुक्रम [४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~150 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||४८|| नियुक्ति: [६४...] अध्ययनम् % प्रत सूत्रांक ||४८|| % उत्तराध्या चरणहीणो ॥२॥" न च मरुदेव्यादीनामपि सर्वसंवररूपा क्रिया नास्ति, एवं क्रियावादिनाऽपि-'यद् यत्समन- ॐन्तरभावि तत् तत्कारणं, यथा पृथिव्यादिसामयनन्तरजन्मा तत्कारणोऽहरः, तथा च क्रियानन्तरभाविनी मुक्तिरिति बृहद्वृत्तिः कायो हेतुरुपन्यस्तः सोऽप्यनेकान्तिकः, यतः स एवं वाच्यः-पदा शैलेश्यवस्थायां सर्वसंवररूपा क्रिया यदनन्तरं ॥७॥मयमाथि मुक्त्यवाप्तिस्तदा ज्ञानमस्ति या न वेति ?, नास्ति चेच्छलेश्यवस्थाऽपि कथम् , न हीयं केवलज्ञानं विनाऽवाप्यते, अथास्त्येव तदा सकलभावस्खभाषावभासि केवलज्ञानम् , एवं च सति कथमुभयाविनाभाषित्वेऽपि नोभवफलत्वं मुक्तेः, उक्तं च-"सहचारित्तेऽवि कह कारणमेगं न उण एगं" आह-एवं ज्ञानक्रिययोः प्रत्येकं मुक्तेरवापिका शक्तिरसती कथं समुदायेऽपि भवति !, न हि यद् येषु प्रत्येकं नास्ति तत्तेषां समुदायेऽपि भवति, यथा प्रत्येकमसत् समुदिताखपि सिकतासु तैलं, प्रत्येकमसती च ज्ञानक्रिययोः मुक्तेरवापिका शक्तिः, तदुक्तम्-'पत्तेयेमभावाओ निवाणं समुदियासुविण जुत्तं । णाणकिरियासु बुलु सिकयासमुदाय तिलं व ॥१॥', उच्यते, स्यादेवं यदि सर्वथा प्रत्येक तयोर्मुक्त्यनुपकारितोच्येत, यदा तु तयोः प्रत्येक देशोपकारिता समुदाये तु सम्पूर्णहेतुतोच्यते तदा न कश्चिदोषः, आह च-“वीसुंण सबहु चिय सिकयातिलं व साहणाभावो । देसोषकारिया जा सा समवायमि संपुण्णा ॥१॥"| १ सहचारित्वेऽपि कथं कारणमेकं न पुनरेकम् । २ प्रत्येकमभावात् निर्वाणं समुदितयोरपि न युक्तम् । शानक्रिययोर्वक्तुं सिकतासमुदाये तैलमिव ।। १॥ ३ विष्वग् न सर्वथैव सिकतातैलवत्साधनाभावः । देशोपकारिता या सा समवाये संपूर्णा ॥१॥ %%% दीप अनुक्रम [४८] % ॥७०॥ +-5- पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~151 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [-]/ गाथा ||४८|| नियुक्ति: [६४...] प्रत अतः स्थितमेतत्-जानक्रिये समुदिते एव मुक्तिकारणं न तु प्रत्येक मिति तत्त्वं, तथा च पूज्या:-"णाणाहीणं सर्व तणाणणओ भणति किं च किरियाए । किरियाए चरणनओ तदुभयगाहो य सम्मत्तं ॥१॥" कचित् सौच्या शैल्या क्वचिदधिकृतप्राकृतभुवा, कचिच्चार्थापत्त्या कचिदपि समारोपविधिना। कचिचाध्याहारात् कचिदविकलप्रक्रमवलादियं व्याख्या ज्ञेया क्वचिदपि तथाऽऽसायवशतः ॥ १॥ इति श्रीशान्तिसूरिविरचितायां शिष्यहितायामुत्तराध्ययनटीकायां विनयभुतागय प्रथममध्ययनं समाप्त ॥ सूत्रांक ||४८|| प्रथममध्ययनं समाप्तम् ॥ दीप अनुक्रम [४८] १ज्ञानाधीनं सर्वमाननयो भणति किं च क्रियया ।। क्रियायाश्चरणनयः तदुभयमन सम्यक्त्वम् ॥४॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं - १ परिसमाप्तं ~152 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [-]/गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [६५] 1595%25645 प्रत सूत्रांक ||४८|| अध्ययन -२ ॥ श्रीजिनाय नमः नमः सर्वविदे । व्याख्यातं विनयश्रुताख्यं प्रथममध्ययनम्, इदानी द्वितीयं व्याण्यायते, अस्य ४चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययने विनयः सप्रपञ्चः पञ्चप्रकार उक्तः, स च कि खस्थावस्थैरेव समाचरितव्य उत| दीपरीषहमहासैन्यसमरसमाकुलितमनोभिरपि?, उभयावस्वैरपीति ब्रूमः । ननु तर्हि केऽमी परीपहाः, किंरूपाः, किश्चालम्बनमुररीकृत्यैतेषु सत्खपि न विनयविलचनमित्याशङ्कापोहाय परिपहास्ततखरूपादि चाभिषेयमित्यनेन | सम्बन्धेनायातस्थास्य महार्थस्य महापुरस्येव चतुरनुयोगद्वारखरूपमुपवर्णनीयं, तत्र च नामनिष्पन्ननिक्षेपस्य परीषह इति नाम, अतस्तन्निक्षेपदर्शनायाह भगवान्नियुक्तिकारःहोणासो परीसहाणं चउबिहो दुविहो य(उ)दबंमि । आगमनोआगमतो नोआगमओय सो तिविहो ॥६५॥ | व्याख्या-नियतं निश्चितं वाऽऽसनं-नामादिरचनात्मक क्षेपणं न्यासो-निक्षेप इत्यर्थः, अयं च केषामित्याह-परीति-समन्तात् खहेतुभिरुदीरिता मार्गाच्यवननिर्जरार्थ साध्वादिभिः सह्यन्त इति परीपहास्तेषां, चत्वारो विधा:प्रकारा अस्येति चतुर्विधो, नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात्, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे इत्यनारत्य द्रव्यपरीषहमाह'द्विविधो' द्विभेदः, तुः पूरणे, भवति 'द्रव्य' इति द्रव्यविषयः, प्रक्रमात्परिषहः, स च 'आगमणोआगमतो' त्ति आगमतो नोआगमतच, तत्र आगमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्त इत्यागमस्वरूपमतिपरिचितमिति परिहत्य नोआगमत १ अधिकार उपवर्णने वा इत्यध्याहार्यम् । RECAX दीप अनुक्रम [४८] -१० RECE - - JainEaurshininbimmatime पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४३] मूलसूत्रा४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: अथ अध्ययनं -२ “परिसह" आरभ्यते ~153 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [-]/ गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [६६] परिषहाध्ययनम् प्रत सूत्रांक 454-55 ||४८|| उत्तराध्य. आह-नोआगमतस्तु' नोआगमं पुनराश्रित्य 'स' इति परीषहः 'त्रिविधः' त्रिप्रकार इति गाथार्थः ॥ ६५ ॥ त्रैविध्यमेवाहबृहद्वृत्तिः जाणगसरीर भविए तत्वइरिने य से भवे दुविहे । कम्मे नोकम्मे या कम्ममि य अणुदओ भणिओ ॥६६॥ ॥७२॥ व्याख्या-जाणगसरीर' त्ति ज्ञायको ज्ञो वा तस्य शरीर ज्ञायकशरीरं ज्ञशरीरं वा जीवरहितं सिद्धशिलातलगता निपीधिकागतं वा अहो ! अमुना शरीरसमुच्छ्रयेणोपात्तेन परीपह इति पदं शिक्षितम् , अयं धृतघटोऽभूदितिवत्संभाव्यमानं, तथा भविय'त्ति शरीरशब्दस्य काकाक्षिगोलकन्यायेनोभयत्र संबन्धात् भव्यशरीरं, तत्र भविष्यति-तेन तेनावस्थात्मना सत्ता प्राप्स्यति यः स भव्यो जीवस्तस्य शरीरं यदद्यापि परीपह इति पदं न शिक्षते एष्यति तु शिदक्षिष्यते तदयं घृतघटो भविष्यतीतिवत्संभाव्यमानं नोआगमतो द्रव्यपरीपहा, 'तबतिरित्ते य'त्ति ताभ्यां-जशरीर भव्यशरीराभ्यां व्यतिरिक्त-पृथग्भूतः तयतिरिक्तः, सच प्रकृतत्वाद द्रव्यपरिपहो भवेत्, 'द्विविधः' द्विभेदः, कथमित्याह-क्रियते-मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगानुगतेनात्मना निवर्त्यत इति कर्म तत्र-ज्ञानावरणादिरूपे, 'नोकर्मणि च' तद्विपरीतरूपे, चः समुच्चये, दीर्घत्वं च 'हखदीघी मिथ' इति प्राकृतलक्षणात्, तत्राद्यमाह-कर्मणि विचार्य, चः पूरणे, द्रव्यपरीषहः 'अनुदयः' उदयाभावः, प्रक्रमात् परीषहवेदनीयकर्मणामेव, 'भणितः' उक्त इति गाथार्थः ॥६६॥ द्वितीयभेदमाह दीप अनुक्रम [४८] ॥७२॥ wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~154 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [-]/ गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [६७] प्रत सूत्रांक ||४८|| णोकम्ममि य तिविहो सच्चित्ताचित्तमीसओ चेव । भावे कम्मस्सुदओ तस्स उदाराणिमे हुँति ॥६७॥ | व्याख्या-नोकर्मणि पुनर्विचार्य, चस्य पुनरर्थत्याहव्यपरीपहः 'त्रिविधः'त्रिभेदः, सचित्ताचित्तमीसओ'त्ति लुप्सनिर्दिष्टत्वाद्विभक्तेः सचित्तोऽचित्तो मिश्रक इति, समाहारो वा सचित्ताचित्तमिश्रकमिति, प्राकृतत्वाय पुंलिङ्गता; चः खगतानेकभेदसमुच्चये, एवोऽवधारणे इयन्त एवामी भेदाः, तत्र नोकर्मणि सचित्तद्रव्यपरीषहो गिरिनिर्झरजलादिः अचित्तद्रव्यपरीषहचित्रकचूर्णादिर्मिश्रद्रव्यपरीषहो गुडाकादि, अयस्यापि कर्माभावरूपत्वात् क्षुत्परीपहजनकत्याच, इत्थं पिपासादिजनकं लवणजलाद्यप्यनेकधा नोकर्मद्रव्यपरीपह इति खधिया भावनीयं, भावपरीषह आगमतो ज्ञाता तत्र चोपयुक्तो, नोआगमतस्तु नोशब्दस्खैकदेशवाचित्वे आगमैकदेशभूतमिदमेवाध्ययनं, निषेधवाचित्वे तु तदभावरूपः परीषहवेदनीयस्य कर्मण उदयः, तथा चाह- भावे कम्मस्स उदओ' ति कर्मणइति परीपहवेदनीयकर्मणां बहुत्वेऽपि जात्यपेक्षयकवचननिर्देशः 'तस्य च' भावपरीषहस्य 'द्वाराणि' व्याख्यानमुखानि 'इमानि' अनन्तरवक्ष्यमाणानि भवन्तीति गाथार्थः ॥ ६७ ॥ तान्येवाह-. कत्तो कस्सै व देवेसमोऔर अहिआँस नए यवतणा कालो। खितुद्देसे पुच्छा निदेसे सुत्तफासे या॥१८॥ व्याख्या-'कुत' इति कुतोऽङ्गादेरिदमुद्धृतं १, 'कस्स' इति कस्य संयतादेरमी परीषहाः २,'द्रव्यम्' इति किममी %% A5 दीप अनुक्रम [४८] wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~155 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [-] / गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [६८] प्रत सूत्रांक 95% ||४८|| % उत्तराध्य.18षामुत्पादकं द्रव्यं ३, 'समवतार' इति क कर्मप्रकृतौ पुरुषविशेषे वाऽमीषां सम्भवः१४, 'अध्यास' इति कथममी-18परीषहाबृहद्वृत्तिः दापामध्यासना सहनात्मिका १५, 'नय' इति को नयः कं परीषहमिच्छति १.६चः समुचये, 'वर्तना' इतिट ध्ययनर कति क्षुदादयः एकदैकस्मिन् खामिनि वन्ते ७, 'काल' इति कियन्तं कालं यावत् परीषहास्तित्वं ८, 'खेत्ते' त्ति ॥७३॥ कतरस्मिन्कियति वा क्षेत्रे ९, 'उद्देशों गुरोः सामान्याभिधायि वचनं १०, 'पृच्छा' तजिज्ञासोः शिष्यस्य प्रश्नः ११, 'निर्देशः' गुरुणा पृष्टार्थविशेषभाषणं १२, 'सूत्रस्पर्शः' सूत्रसूचितार्थवचनं १३, 'चा' समुचये, इति गाथासमासाथैः ॥ ६८ ॥ तत्र कुत इति प्रश्नप्रतिवचनमाहकम्मप्पवायपुवे सत्तरसे पाहुडंमि जं सुत्तं । सणयं सोदाहरणं तं चेव इहंपि णायवं ॥ ६९ ॥ व्याख्या-कर्मणः प्रवादः-प्रकर्षण प्रतिपादनमस्मिन्निति कर्मप्रवादं तच्च तत् पूर्वं च तस्मिन् , तत्र बहूनि | प्राभृतानीति कतिथे प्राभृते इत्याह-सप्तदशे प्राभृते-प्रतिनियतार्थाधिकाराभिधायिनि, यत् 'सूत्र' गणधरप्रणीतश्रुतरूपं 'सनयं' नैगमादिनयान्वितं, 'सोदाहरणं' सदृष्टान्तं, 'तं चेच' ति चः पूरणे एवोऽवधारणे, ततस्तदेव ॥७३ ॥ रहापि' परीपहाध्ययने 'ज्ञातव्यम्' अवगन्तव्यं, न त्वधिकं, किमुक्तं भवति :-निरयशेषं तत एवेदमुदूतं न पुनर-| न्यत इति गाथार्थः ॥६५॥ कस्मेति यदुक्तं तदुत्तरमाह % %% दीप अनुक्रम [४८] * पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~156~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [-]/ गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [७०] प्रत सूत्रांक ||४८|| तिण्हपि णेगमणओ परीसहो जाव उज्जुसुत्ताओ। तिण्हं सद्दणयाणं परीसहो संजए होइ ॥७॥ LI व्याख्या-'त्रयाणामपि' अविरतविरताविरतविरतानां न तु विरतस्यैव नैगमनयः 'परीषहः क्षुदादिरिति, ट्रमन्यत इति शेषः, त्रयाणामपि परीपहवेदनीयासातादिकर्मोदयजनितस्य क्षुधादेस्तत्सहनस्य च यथायोगं सकामा कामनिर्जराहेतोः सम्भवाद् , अनेकगमत्वेन चास्य सर्वप्रकारसङ्घाहित्वात् , 'जाव उज्जुसुत्ताउ'त्ति सोपस्कारत्वादबास्सैवं यावजुसूत्रः, कोऽर्थः !-सङ्ग्रहव्यवहारऋजुसूत्रा अपि त्राणामपि परीषहं मन्यन्ते, एकैकनयस्य शतभेद-II दत्वेनैत दानामपि केषाञ्चित् परीषहं प्रति नैगमेन तुल्यमतत्वात् , 'त्रयाणां' त्रिसङ्ख्यानां, केषाम् :-शब्दप्रधाना नयाः शब्दनयाः, शाकपार्थिचादिवत् समासः, तेषां-शब्दसमभिरूढवम्भूतानां, मतेनेति शेषः, परीषहः 'संयते | विरते भवति “मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिपोढव्याः परीपहा" (तत्त्वा० अ०९ सू०८) इति लक्षणोपेतनिरुपचरित परीषहशम्दवृत्तेस्तत्रैव सम्भवादिति गाथार्थः ॥ ७० ॥ द्रव्यद्वारमधिकृत्य नयमतमाह& पढमंमि अट्ट भंगा संगहि जीवो व अहव नोजीवो । ववहारे नोजीवो जीवदवं तु सेसाणं ॥७॥ व्याख्या-'प्रथमे प्रक्रमानैगमनये अष्टौ भङ्गाः,सहि "णेगेहि माणेहिं मिणइत्ती णेगमस्स नेरुत्ती” इतिलक्षणादने१ नैकर्मानमिनोतीति नैगमस्य निरुक्तिः (आ. नि.) दीप अनुक्रम [४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~157. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४८॥ दीप अनुक्रम [४८] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ७४ ॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [ - ] / गाथा ||४८... || निर्युक्तिः [७१] कुधा कारणमिच्छन् यदैकेन पुरुषादिना चपेटादिना परीषह उदीर्यते तदा परीषहवेदनीयकर्मोदय निमित्तत्वेऽपि तस्य तदविवक्षया जीवेनासौ परीषह उदीरित इति वक्ति १, यदा बहुभिस्तदा जीवैः २, यदा अचेतनेनैकेन दृषदादिना | जीवप्रयोगरहितेन तदाऽजीवेन ३, यदा तैरेव बहुभिस्तदा अजीवैः ४ यदेकेन लुब्धकादिना वाणादिनैकेन तदा जीवेनाजीवेन च ५, यदा तेनैकेनैव बहुभिः वाणादिभिस्तदा जीवेनाजीवैश्च ६, यदा बहुभिः पुरुषादिभिरेकं शिलादिकमुत्क्षिप्य क्षिपद्भिस्तदा जीवैरजीवेन च ७, यदा तु तैरेव मुद्गरादीन् बहून् मुञ्चद्भिस्तदा जीवैश्वाजीवैश्वेति ८ 'सङ्ग्रहे' सङ्ग्रहनानि नये विचार्यमाणे जीवो 'वा' अथवा नोजीवो हेतुरिति प्रक्रमः किमुक्तं भवति ? - जीवद्रव्येणाजीवद्रव्येण वा परीषह उदीर्यते, स हि “संगहियपिंडियत्थं संगहवयणं समासतो बेंती" ति वचनात् सामान्यग्राहित्वेनैकत्वमेवेच्छति न पुनर्द्वित्ववहुत्वे, अस्यापि च शतभेदत्वाद्यदा चिद्रूपतया सर्वे गृह्णाति तदा जीवद्रव्येण यदा त्वचिद्रूपतया तदा अजीवद्रव्येण, 'व्यवहारे' व्यवहारनये 'नोजीव' इति अजीबो हेतुः कोऽर्थः १ - अजीवद्रव्येण परीषह उदीर्यत इत्येकमेव भङ्गमयमिच्छति, तथाहि--"वचंद विणिच्छियत्थं ववहारो सङ्घदवेसुं" इति तल्लक्षणं, तत्र च 'विनिश्चित' मित्यनेकरूपत्वेऽपि वस्तुनः सांव्यवहारिकजनप्रतीतमेव रूपमुच्यते, तद्ब्राहकोऽयम् उक्तं च१ संगृहीतपिण्डितार्थं संग्रहुवचनं समासतो ब्रुगते ( आ० नि० ) २ प्रजति विनिश्चितार्थ व्यवहारः सर्वद्रव्येषु । For Full परीषद्दा ध्ययनम् २ ~ 158~ ॥ ७४ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४८॥ दीप अनुक्रम [४८] Education [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||४८... || निर्युक्तिः [७१] अध्ययनं [२], “भमराइ पंचवण्णाई णिच्छिए जम्मि वा जणवयस्स । अत्थे विनिच्छओ जो विनिच्छियत्थुत्ति सो गेज्झो ॥ १ ॥ बहुयरउत्ति व तं चिय गमेर संतेऽवि सेसए मुयइ । संववहारपरतया बबहारो लोगमिच्छंतो ॥ २ ॥” त्ति, ततोऽयमाशयः- 'कालो सभाव नियई पुञ्चकयं पुरिसकारणेगंता । मिच्छत्तं ते चेच उ समासओ होंति सम्मतं ॥ १ ॥ इत्या | गमवचनतः सर्वस्यानेककारणत्येऽपि कर्म्मकृतं लोकवैचित्र्यमिति प्रायः प्रसिद्धेर्यत् कर्म कारयिष्यति तत्करिष्याम इत्युक्तेश्च कर्मैव कारणमित्याह तथाचेतनत्वेनाजीव एवेति । 'जीवदवं 'तुशब्दस्यैव कारार्थत्वात् जीवद्रव्यमेव 'शेषाणाम्' ऋजुसूत्रशब्दसमभिरूढैवम्भूतानां पर्यायनयानां मतेन हेतुरिति गम्यते, जयमर्थः- जीवद्रव्येण परीपह उदीर्यत इत्येष एवैषां भङ्गोऽभिमतः, ते हि पर्यायास्तिकत्वेन परीषद्यमाणमेव परीषहमिच्छन्ति, परीपहणं चोपयोगात्मकम्, उपयोगस्य च जीवस्वामाण्यात् जीवद्रव्यमेव सन्निहितमव्यभिचारि च कारणं, तद्विपरीतं तु अजीवद्रव्यं दण्डादीत्यकारणं, जीवद्रव्यमिति तु द्रव्यग्रहणं पर्यायनयस्यापि गुणर्संहतिरूपस्य द्रव्यस्येष्टत्वात्, तदुक्तम्- "पर्यायन| योऽपि द्रव्यमिच्छति गुणसन्तानरूप " मिति गाथार्थः ॥ ७१ ॥ सम्प्रति समवतारद्वारमाह १ भ्रमरादीन् पञ्चवर्णान् निश्चिते (नेच्छति) यस्मिन् वा जनपदस्य । अर्थे विनिश्चयो यो विनिश्चितार्थ इति स ग्राह्यः || १ || बहुतरक इति या तुमेव गमयति संतोऽपि शेषान्मुञ्चति । संव्यवहारपरतवा व्यवहारो लोकमिच्छन् ||२|| १ कालः स्वभावो नियतिः पूर्वकृतं पुरुषकारण मेकान्तात् । मिध्यात्वं त एव समासतो भवति सम्यक्त्वम् ॥ १ ॥ Forest पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~ 159~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [-]/ गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [७२] उत्तराध्य बृहबृत्तिः परीषहाध्ययनम् प्रत सूत्रांक ॥४८|| समोयारो खलु दुविहो पयडिपुरिसेसु चेव नायवो। एएसिं नाणत्तं वुच्छामि अहाणुपुवीए ॥७२॥ व्याख्या-'समवतारः खलु द्विविधः' इति खलुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् द्विविध एव, दैविध्यं च विषयभेदत इति तमाह-प्रकृतयश्च पुरुषाश्च प्रकृतिपुरुषास्तेषु, कोऽर्थः -प्रकृतिषु ज्ञानावरणादिरूपासु पुरुपेषु, चशब्दात् स्त्रीपण्डकेषु च, तत्तद्गुणस्थानविशेषवर्तिषु 'एवेति पूरणे, 'ज्ञातव्यः' अवबोद्धव्यः, 'एतेषा' प्रकृत्यादीनां 'नानात्वं' भेद वक्ष्ये 'अथ' अनन्तरम् 'आनुपूर्ध्या' क्रमेणेति गाथार्थः ॥ ७२ ॥ तत्र प्रकृतिनानात्वमाह-. णाणावरणे वेए मोहंमिय अंतराइए चेव । एएसुं बावीसं परीसहा इंति णायवा ॥७३॥ व्याख्या-ज्ञानावरणे वेद्ये मोहे चान्तरायिके चैव एतेषु चतुर्प कर्मसु वक्ष्यमाणखरूपेषु द्वाविंशतिः परीपहा भवन्ति ॥ ७३ ॥ अनेन प्रकृतिभेद उक्तः, सम्प्रति यस्य यत्रावतारस्तमाहपन्नान्नाणपरिसहा णाणावरणमि इंति दुन्नेए । इक्को य अंतराए अलाहपरीसहो होइ॥७४॥ व्याख्या-प्रज्ञा चाज्ञानं च प्रज्ञाज्ञाने ते एवोसेकवैलव्याकरणतः परीषयमाणे परीपही, 'ज्ञानावरणे कर्मणि भवतो 'ही' एती, तदुदयक्षयोपशमाभ्यामनयोः सद्भावाद्, एकश्च (ग्रन्थानम् २०००) 'अन्तराये' अन्तरायक-12 मण्यलाभपरीपहो भवति, तदुदयनिवन्धनवादलाभस्येति गाथार्थः ॥७४ ॥ मोहनीयं द्विधेति यत्र त दे वेदनीये च यत्परिषहावतारस्तमाह दीप अनुक्रम [४८] ॥७५॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~160 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४८॥ दीप अनुक्रम [४८] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||४८... || निर्युक्ति: [७५-७७] अध्ययनं [२], Education national अरई अचेल इत्थी निसीहिया जायणा य अक्कोसे । सक्कारपुरक्कारे चरित्तमोहंमि सत्तेए ॥ ७५ ॥ अरईइ दुछाए पुंवे भयस्स चैव माणस्स । कोहस्स य लोहस्स य उदयण परीसहा सत्त ॥ ७६ ॥ दंसणमोहे दंसणपरीसहो नियमसो भवे इक्को । सेसा परीसहा खलु इकारस वेयणीजंमि ॥ ७७ ॥ व्याख्या -- ' अरतिः' इति अरतिपरीषहः, एवमुत्तरेष्वपि परीषद्दशब्दः सम्बन्धनीयः, 'अचेल' ति प्राकृतत्वाद्विन्दुलोपः, अचेलं, 'स्त्री नैधिकी याचना चाक्रोशः सत्कारपुरस्कारः' सप्तैते वक्ष्यमाणरूपाः परीपहाः, 'चरित्रमोहे' | चरित्रमोहनानि मोहनीयभेदे, भवन्तीति गम्यते, तदुदय भावित्वादेषां ॥ चारित्रमोहनीयस्यापि बहुभेदत्वाद्यस्य तद्भेदस्योदयेन यत्परीपहसद्भाव स्तमाह – 'अरतेः' अरतिनामश्चारित्रमोहनीयभेदस्य, अचेलस्य जुगुप्सायाः, 'पुंवेय'त्ति सुपो लोपात् पुंवेदस्य, भयस्य चैवं मानस्य क्रोधस्य लोभस्य च उदयेन परीपहाः सप्त, इह चारत्युदयेनारतिपरीपहः जुगुप्सोदयेनाचेलपरीपह इत्यादि यथाक्रमं योजना कार्येति, तथा दर्शनमोहे 'दर्शनपरीषहः' वक्ष्यमाणरूपो, 'णियमसो'त्ति | आर्यत्वेन नियमात् भवेद 'एकः' अद्वितीयः, 'शेषाः' एतदुद्धरिताः, परीपहाः पुनः एकादश 'वेदनीये' वेदनीयनानि कर्मणि संभवन्तीति गाथात्रयार्थः ।। ७५-७६-७७ ॥ के पुनस्ते एकादशेलाह For Parts Only पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~ 161~ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४८॥ दीप अनुक्रम [४८] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ७६ ॥ *** [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||४८... || निर्युक्ति: [७८] अध्ययनं [२], पंचैव आणुनी चरिया सिज्जा वहे व (य) रोगे य । तणफासजलमेव य इकारस वेयणीजंमि ॥७८॥ व्याख्या - 'पञ्चैव' पञ्चसंख्या एव, ते च प्रकारान्तरेणापि स्युरित्याह- 'आनुपूर्व्या' परिपाठ्या, क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकाख्या इति भावः चर्य्या शय्या वधश्व रोगश्च तृणस्पर्शो जल एव च इत्यमी एकादश वेदनीयकर्म|ण्युदयवति परीषहा भवन्तीति शेष इति गाथार्थः ॥ ७८ ॥ सम्प्रति पुरुषसमवतारमाह बावीसं बायरसंपराए चउदस य सुडुमरागंमि । छउमत्थवीयराए चउदस इक्कारस जिणंमि ॥७९॥ व्याख्या – 'द्वाविंशतिः' द्वाविंशतिसङ्ख्याः प्रक्रमात्परपहाः 'बादरसंपराये' बादरसम्परायनानि गुणस्थाने, किमुक्तं भवति ? - वादरसम्परायं यावत्सर्वेऽपि परीषहाः सम्भवन्ति, 'चतुर्दश' चतुर्दशसङ्ख्याः, चः पूरणे, 'सूक्ष्मसंपराये' सूक्ष्मसम्परायनाम्नि गुणस्थाने, 'सप्तानां' चारित्रमोहनीयप्रतिबद्धानां दर्शनमोहनीयप्रतिबद्धस्य चैकस्य तत्रासम्भवादिति भावः, 'छद्मस्थवीतरागे' छद्मस्थवीतरागनाम्नि गुणस्थाने, 'चतुईश' उक्तरूपा एव, 'एकादश' एकादशसङ्खयाः 'जिने' केषलिनि, वेदनीयप्रतिबद्धानां क्षुदादीनामेव तत्र भावादिति गाथार्थः ॥ ७९ ॥ अधुना अध्यासनामाह सणसणीजं तिन्हं अग्गहणऽभोयण नयाणं । अहिआसण बोद्धवा फासुय सहुज्जुसुताणं ॥८०॥ Education intimation For Use Only परीषहाध्ययनम् ~ 162~ २ ।। ७६ ।। पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||28|| दीप अनुक्रम [४८] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||४८... || निर्युक्ति: [८०] अध्ययनं [२], व्याख्या - एष्यत इत्येषणम् - एषणाशुद्धं, अनेषणीयं तद्विपरीतं, सोपस्कारत्वाद्यदन्नादि तस्य यद्वा 'सुपां सुपो भवन्ती'ति न्यायादेपणीयस्य अनेषणीयस्य च, 'अग्गहणऽभोयण' ति अग्रहणम् - अनुपादानं, कथञ्चिद् ग्रहणे वा अभोजनम् - अपरिभोगात्मकं 'त्रयाणाम्' अर्थात्रैगमसङ्ग्रहव्यवहाराणां नयानां मतेनाध्यासना बोद्धव्येति सम्बन्धः, अमी हि स्थूलदर्शिनः बुभुक्षादिसहनमन्नादिपरिहारात्मक मेवेच्छन्ति, 'फायुग सहुजुत्ताणं' ति शब्दनयानां त्रयाणामृजुसूत्रस्य च मतेन प्रायुकमन्नादि उपलक्षणत्वात् कल्प्यं च गृहतो भुञ्जानस्याप्यध्यासनेति प्रक्रमः ते हि भावप्रधानतया भावाध्यासनामेव मन्यन्ते, सा च नाभुआनस्यैव, किन्तु शास्त्रानुसारिप्रवृत्त्या समतावस्थितस्य प्रासुकमेषणीयं च धर्म्मधूर्वहनार्थं भुञ्जानस्यापीति गाथार्थः ॥ ८० ॥ सम्प्रति नवद्वारमाह जं पप्प नेगमनओ परीसहो वेयणा य दुण्हं तु । वेयण पडुच्च जीवे उज्जुसुओ सदस्स पुण आया ॥ ८९॥ व्याख्या- 'यद्' वस्तु गिरिनिर्झरजलादि 'प्राप्य' आसाद्य क्षुदादिपरीपहा उत्पद्यन्ते नैगमो-नैगमनयो यत्तदोर्नियाभिसम्बन्धात् तत्परीषद इति वक्तीति शेषः, स येवं मन्यते यदि तत् क्षुदाद्युत्पादकं वस्तु न भवेत्तदा क्षुदादय एव स्युः, तदभावाच किं केन सह्यत इति परषहाभाव एव स्यात्, ततस्तद्भाषभावित्वात् परीषहस्य तत् प्रधानमिति । तदेव परपहः, प्रस्थकोत्पादककाष्ठप्रस्थकवत्, आह-नक्गमत्वान्नैगमस्य कथमेकरूपतेव परीषहाणामिहोता ?, उच्यते, शतशाखत्वादस्य न सर्वभेदाभिधानं शक्यमिति कश्चिदेव क्वचिदुच्यते, एवं शेषनयेध्वपि यथोक्ताशङ्कायां Forsy पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~163~ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [-]/ गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [८१] प्रत सूत्रांक ||४८|| उत्तराध्य. सवाच्यमिति । 'वेदना' क्षुदादिजनिता असातवेदना, चशब्दात्तदुत्पादकं च परीषहः, 'द्वयोस्तु' पारिशेष्यात् सङ्ग्रहव्य- परीषहा वहारयोः पुनर्मतेनेति गम्यते, अयं चानयोरभिप्रायः-यदि तावद्विरिनिर्झरजलादि क्षुदादिवेदनाजनकत्वेन परीषहः, वृहद्वृत्तिः ध्ययनम् कथमिव क्षुदादिवेदना न परीषहो, निरुपचरितं परीषद्यत इति परीपहलक्षणं वेदनाया एव सम्भवति, उपचरितं ॥ ७७॥ तु गिरिनिर्झरजलादी, तात्त्विकवस्तुनिवन्धनश्शोपचार इति तदभावे तस्याप्यभाव एव स्यात् , 'वेदनां' चुदाद्यनुभवाकात्मिकां 'प्रतीत्य' आश्रित्य जीवे परीषह इति ऋजुसूत्रः मन्यत इतीहापि गम्यते, अयमस्याशयः-सति हि निरुपच/रितलक्षणान्वितेऽपि परीषहे स एव परीपहोऽस्तु, किमुपचरितकल्पनया, ततो निरुपचरितलक्षणयोगाद्वेदनेव४ परीषहः, सा च जीवधर्मत्वाजीये नाजीव इति वेदनां प्रतीस जीवे परीषह उच्यते, न तु पूर्वेषामिवाजीवेऽपीति, 'शब्दस्य'ति शब्दाख्यनयस्य साम्प्रतसमभिरूढवम्भूतभेदतस्त्रिरूपस्य मतेनात्मा-जीवः, परीपह इति प्रक्रमः, पुनःशब्दो विशेष योतयति, विशेषश्च परीपहोपयुक्तत्वम् , अयं छुपयोगप्रधानः, उपयोगथात्मन एवेति परीपहोपयुक्त आत्मैव परीपह इति मन्यते इति गाथार्थः ॥ ८१ ॥ इदानीं वर्तनाद्वारमाहवीसं उक्कोसपए वदति जहन्नओ हवइ एगो। सीउसिण चरिर्य निसीहिया य जुगवं न वहति ॥ ८॥ ॥७७॥ | व्याख्या-विंशतिः उत्कृष्टपदे चिन्त्यमाने परीषहाः वर्तन्ते, युगपदेकत्र प्राणिनीति गम्यते, 'जघन्यतः' जघन्यपदमाश्रित्य भवेदेकः परीपहः, ननूत्कृष्टपदे द्वाविंशतिरपि किं नैकत्र वन्त इत्याह-'सीउसिण'त्ति शीतोष्णे चर्या दीप अनुक्रम [४८] wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~164 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [-]/ गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [८२] M ॐॐॐ4544 प्रत सूत्रांक ||४८|| |नषेधिक्यौ च 'युगपद्' एककालं 'न वर्त्तते' न भवतः, परस्परं परिहारस्थितिलक्षणत्वादमीषां, तथाहि-न शीतमुष्णे न चोष्णं शीते न चर्यायां नैषेधिकी नषेधिक्यां वा चर्येत्यतो योगपद्यनामीषामेकत्रासम्भवान्नोत्कृष्टतोऽपि तिरिति आह-नैपेधिकीयत्कथं शय्याऽपि न चर्यया विरुध्यते ?, उच्यते, निरोधवाधादितस्त्वनिफादेरपि । तत्र सम्भवापेधिकी तु खाध्यायादीनां भूमिः, ते च प्रायः स्थिरतायामेवानुज्ञाता इति तस्या एव चर्यया विरोध इति गाथार्थः ।। ८२ ।। कालद्वारमाहवासग्गसो अतिण्हं मुहुत्तमंतं च होइ उज्जुसुए । सदस्स एगसमयं परीसहो होइ नायवो ॥८३॥ व्याख्या-वासग्गसो यति आर्षत्वाद्वर्षाग्रतः, कोऽर्थः ?-वर्षलक्षणं कालपरिमाणमाश्रित्य, परीपहो भवति इति गम्यते, चः पूरणे, 'त्रयाणां नेगमसहव्यवहारनयानां मतेन, ते घनन्तरोक्तन्यायतस्तदुत्पादकं वस्त्वपि परी-|| पहमिच्छन्ति, तचैतावत्कालस्थितिकमपि सम्भवत्येवेति, 'मुत्तमंतं च' इति प्राकृतत्वादन्तर्मुहसे पुनर्भवति, प्रक्रमात्परीषदा, ऋजुसूत्रे ऋजुश्रुते वा-विचार्यमाणे, स हि प्रागुक्तनीतितो वेदना परीपह इति पक्ति, सा चोपयोगा-18 त्मिका, उपयोगश्च 'अंतुमुहुत्ताउ परं जोगुवओगा न संतीति वचनात् आन्तर्मुहूर्तिक एव, 'शब्दस्य' साम्प्रतादित्रिभेदस्य मतेनैकसमयं परीपहो भवति 'ज्ञातव्यः' अवबोद्धव्यः, स युक्तनीतितो वेदनोपयुक्तमात्मानमेव परीपई मनुते, १ अन्तर्मुहर्चात्परतो योगोपयोगा न सन्ति । दीप अनुक्रम [४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३) मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~165 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [-]/गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [८३] परीपहाध्ययनम् प्रत सूत्रांक ||४८|| उत्तराध्य. स चैतस्स पर्यायात्मकसवा प्रतिसमयमन्यान्य एव भवतीति समयमेवैतन्मतेन परीषहो युक्त इति गाथार्थः ॥ ८३॥ वर्षानतः त्रयाणां परीपह' इति यदुक्तं, तदेव दृष्टान्तेन दृढयितुमाहबृहद्वृत्तिः कंडू अभत्तच्छंदो अच्छीणं वेयणा तहा कुच्छी । कासं सासं च जरं अहिआसे सत्त वाससए ॥८४॥ ॥ ७८ ॥18 व्याख्या-'कंडू' कण्डूतिम् , 'अभक्तच्छन्द' भत्तारुचिरूपम् 'अक्ष्णोः' लोचनयोः, वेदनां दुःखानुभवं, सर्वत्र द्वितीयार्ये प्रथमा, 'तथेति समुच्चये, 'कुच्छित्ति सुव्यत्ययात् कुक्ष्योर्वेदनां-शूलादिरूपां 'काशं श्वासं च ज्वरं त्रयमपि प्रतीतमेव 'अध्यास्त इति अधिसहते, सप्त वर्षशतानि यावत् । अनेन तु सनत्कुमारचक्रवयुदाहरणं सूचित, स हि महात्मा सनत्कुमारचक्रवर्ती शक्रप्रशंसाऽसहनसमायातामरद्वयनिवेदितशरीरविकृतिरुत्पन्नवैराग्यवासनः पटप्रान्तावलमतृणपदखिलमपि राज्यमपहायाभ्युपगतदीक्षः प्रतिक्षणमभिनवाभिनवप्रवर्द्धमानसंवेगो मधुकरवृत्त्यैव यथोपलब्धानपानोपरचितप्राणवृत्तिरनन्तरोक्तसप्तोहण्डकण्डादिवेदनाविधरितशरीरोऽपि संयमान मनागपि सञ्चचाल, पुनस्तत्सत्त्वपरीक्षणायातभिषग्वेषामरोपदर्शितद्वादशांशुमालिसमानुल्यवयवश्च तत्पुरतः 'पुचि कडाणं कम्माणं बेहत्ता' द इत्यादि संवेगोत्पादकमागमवचः प्ररूपयन् स्वयमागत्य शक्रेणाभिवन्दित उपबृंहितश्चेति गाथार्थः ॥८४॥ सम्प्रति भक परीषह इति क्षेत्रविषयप्रश्नप्रतिवचनमाह १ पूर्व कृताना कर्मणां बेदयित्वा । दीप अनुक्रम [४८] ॥७८॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~166~ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [-] / गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [८५] प्रत सूत्रांक ||४८|| लोए संथारंमि य परीसहा जाव उज्जुसुत्ताओ। तिण्हं सदनयाणं परीसहा होइ अत्ताणे ॥५॥ | व्याख्या-लोके संस्तारके च परीषहाः 'जाय उज्जुसुत्ताउति सूत्रत्वात् ऋजुसूत्र यावद्, अस्य च पूर्वार्द्धस्य सूचकत्वादविशुद्धनैगमस्य मतेन लोके परीषहाः, तत्सहिष्णुयतिनिवासभूतक्षेत्रस्यापि चतुर्दशरज्ज्वात्मकलोकानर्थान्तरत्वात् , इत्थमपि च व्यवहारदर्शनाद्, एवमुत्तरोत्तरादिविशुद्धविशुद्धतरतझेदापेक्षया तिर्यग्लोकजम्बूद्वीपभरतदक्षिणार्द्धपाटलीपुत्रोपाश्रयादिपु भावनीयं, यावदत्वन्तविशुद्धतमनगमस्य यत्रोपाश्रयैकदेशे अमीषां सोढा यतिस्तत्रामी इति, एवं व्यवहारस्थापि, लोकव्यवहारपरत्वादस्य, लोके च नेह वसति प्रोषित इति व्यवहारदर्शनात्, सङ्ग्रहस्य संस्तारके परीपहाः, स हि संगृहातीति सङ्ग्रह इति निरुक्तिवशात् सङ्ग्रहोपलक्षितमेवाधारं मन्यते, संस्तारक एव चदा यतिशरीरप्रदेशः सञ्जयते न पुनरुपाश्रयैकदेशादिरिति संस्तारक एवास्य परीषहाः, ऋजुसूत्रस्य तु वेष्वाकाशप्रदेशेप्वात्माऽवगाढसेष्वेव परीपहाः, संस्तारकादिप्रदेशानां तदणुभिरेव व्याप्तत्वात् , तत्रावस्थानाभावात् , त्रयाणां शब्दनयामा परीपहो भवति आत्मनि, खात्मनि व्यवस्थितत्वात्सर्वस्थ, तथाहि-सर्व वस्तु खात्मनि व्यवतिष्ठते सत्वाद् यथा चैतन्यं जीये, आह-किमेवं नयाख्या ?, निषिद्धा बसौ, यदुक्तम्-'णत्धिं पुडुत्ते समोयारों'त्ति, उच्यते, दृष्टि१ नास्ति पृथक्त्वे समवतारः। दीप अनुक्रम [४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~167~ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [८६] परीषहाध्ययनम् प्रत उत्तराध्य वादोद्धृतत्वादस्य न दोषः, तथा च प्रागुक्तम्-'कम्मप्पवायपुछे' त्यादि, दृष्टिवादे हि नयैर्व्याख्येत्यत्रापि तथैवामि- ६ धानमिति गाथार्थः ॥ ८५ ॥ इदानीमुद्देशादिद्वारत्रयमल्पवक्तव्यमित्येकगाथया गदितुमाहबृहद्वृत्तिः + उद्देसो गुरुवयणं पुच्छा सीसस्स उ मुणेयवा । निद्देसो पुणिमे खलु बावीसं सुत्तफासे य॥८६॥ व्याख्या-उद्दिश्यत इति उद्देशः, क इत्याह-गुरुवचनं गुरोः विवक्षितार्थसामान्याभिधायक पचो, यथा प्रस्तुतमेव 'इह खलु बावीसं परीसहति 'पृच्छा शिष्यस्य तु गुरुद्दिष्टार्थविशेषजिज्ञासोर्विनेयस्थ, तुः पुनः प्रक्रमाद्वचनं । 'मुणितव्या ज्ञातव्या, यथा 'कयरे खलु ते बावीस परीसहा?' इति, निर्देशश्चेति निर्देशः-पुनः इमे खलु द्वाविंशतिः, परीषहा इति गम्यते, अनेन च शिष्यप्रश्नानन्तरं गुरोर्निर्वचनं निर्देश इत्यादुक्तं भवति, अत्र चैवमुदाहरणद्वारेणाभिधानं पूर्वयोरप्युक्तोदाहरणद्वयसूचनार्थ वैचित्र्यख्यापनार्थ चेति किञ्चिन्यूनगाथार्थः ॥८६॥ इत्थं 'कुत' इत्यादिद्वादशद्वारवर्णनादवसितो नामनिष्पन्ननिक्षेपः, सम्प्रति 'सूत्रस्पर्श' इति चरमद्वारस्य सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपस्य चावसरः, तचोभयं सूत्रे सति भवतीति सूत्रानुगमे सुत्रमुच्चारणीयं, तभेदम्है 'सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं-इह खल बावीसं परीसहा समणेण भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया जे भिक्खू सुच्चा नच्चा जिच्चा अभिभूय भिक्खायरियाए परिवयंतो पुट्टो नो विनिहन्नेजा। AAAAA सत्राक अनुक्रम [४९] GAR पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~168 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [४९] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||४८...|| निर्युक्ति: [८६] अध्ययनं [२], व्याख्या - श्रुतम् आकर्णितमवधारितमितियावत् 'मे' मया 'आयुष्मन्निति शिष्यामन्त्रणं, कः कमेवमाह ?, सुधर्मस्वामी जम्बूखामिनं, किं तत् श्रुतमित्याह- 'तेने 'ति त्रिजगत्प्रतीतेन 'भगवता' अष्टमहाप्रातिहार्यरूपसमग्रैश्वर्यादियुक्तेन, 'एव' मित्यमुना वक्ष्यमाणन्यायेन 'आख्यातं ' सकलजन्तु भाषाभिव्यात्या कथितम् उक्तं च- "देवा देवीं नूरा नारी, शबराश्चापि शाबरीम्। तिर्यञ्चोऽपि हि तैरश्रीं, मेनिरे भगवद्विरम् ॥ १ ॥” किमत आह- 'इहे'ति लोके प्रवचने वा 'खलुः' वाक्यालङ्कारे अवधारणे वा तत इहैव-जिनप्रवचन एव द्वाविंशतिः परीषदाः, सन्तीति गम्यते, अत्र च श्रुतमित्यनेनावधारणाभिधायिना स्वयमवधारितमेव अन्यस्मै प्रतिपादनीयमित्याह, अन्यथाऽभिधाने प्रत्युतापायसम्भवात् उक्तं च- "किं एत्तो पावयरं सम्मं अणहिगयधम्मसम्भावो । अन्नं कुदेसणाए कट्टतरायमि पाडेह ॥ १ ॥ त्ति, 'मयेत्यनेनार्थतोऽनन्तरागमत्वमाह, 'भगवते' त्यनेन च वक्तुः केवलज्ञानादिगुणवत्त्वसूचकेन प्रकृतवचसः प्रामाण्यं ख्यापयितुं वक्तुः प्रामाण्यमाह, वक्तृप्रामाण्यमेव हि वचनप्रामाण्ये निमित्तं यदुक्तम्- "पुरुषप्रामाण्यमेव शब्दे दर्पणसङ्कान्तं मुखमिवोपचारादभिधीयते" 'तेने 'ति च गुणवत्त्वप्रसिध्ध्यभिधानेन प्रस्तुताध्ययनस्य प्रामाण्यनिश्श्रयमाहू, संदिग्धे हि वक्तुर्गुणवत्त्वे वचसोऽपि प्रामाण्ये संदिद्येतेति, समुदायेन तु आत्मोद्धत्यपरिहारेण गुरुगुण| प्रभावनापरैरेव विनेयेभ्यो देशना विधेया, एतद्भक्तिपरिणामे च विद्यादेरपि फलसिद्धिः, यदुक्तम्- "आयरियभत्ति१ किमेतस्मात्पापकरे ? सम्यगनधिगतधर्मसद्भावः । अन्यं कुदेशनया कष्टतरागसि पातयति ॥ १ ॥ २ आचार्यभक्तिरागेण विद्या मचान सिध्यन्ति Education intimatio For at Use Only www.ncbrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~ 169~ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [८६] प्रत सत्रांक (१) उत्तराध्य-रपणात राएण विजा मन्ता य सिझंति" अथवा-आउसंतेणं'ति भगवद्विशेषणम् , आयुष्मता भगवता, चीरजीविनेत्यर्थो, परीषहा मङ्गलवचनमेतत् , यद्वा-'आयुष्मतेति परार्थप्रवृत्त्यादिना प्रशस्तमायुर्धारयता, न तु मुक्तिमवाप्यापि तीर्थनिकारादि- ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः दर्शनात्पुनरिहायातेन, यथोच्यते कैश्चित्-"ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य, कर्तारः परमं पदम् । गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि, meanभवं तीर्थनिकारतः ॥१॥" एवं हि अनुन्मूलितनिःशेपरागादिदोषत्वात्तद्वचसोऽप्रामाण्यमेव स्यात् , निःशेषोन्मूलने| हि रागादीनां कुतः पुनरिहागमनसम्भव इति। यदिवा-'आवसंतेणं'ति मयेत्यस्य विशेषणं, तत आङिति-मुरुदर्शितमदिया बसता, अनेन तत्त्वतो गुरुमर्यादायतित्वरूपत्वाद्गुरुकुलबासस्य तद्विधानमर्थत उक्तं, ज्ञानादिहेतुत्वात्तस्य, उक्तं च-"णाणस्स होइ भागी थिरयरतो दंसणे चरिते य । धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं न मुंचंति ॥१॥"अथवा 'आमुसंतेण' आमृशता भगवत्पादारविन्दं भक्तितः करतलयुगादिना स्पृशता, अनेनैतदाह-अधिगतसमस्तशास्त्रेणापि गुरुविधामणादिविनयकृत्यं न मोक्तव्यम् , उक्तं हि-"जहांहिअग्गी जलणं नमसे, णाणादुईमंतपयाहिसितं । एवाय-IM रियं उबचिठ्ठएज्जा, अणतणाणोयगतोऽपि संतो॥१॥"त्ति, यहा-'आउसंतेणं'ति प्राकृतत्वेन तिब्यत्ययादाजुपमाणेन-श्रवणविधिमर्यादया गुरून् सेवमानेन, अनेनाप्येतदाह-विधिनयोचितदेशस्थेन गुरुसकाशात् श्रोतव्यं, न १ज्ञानस्य भवति भागी स्थिरतरो दर्शने चारित्रे च । धन्या यावत्कथिकं गुरुकुलवासं न मुञ्चन्ति ॥१॥ २ यथाऽऽहिताग्निज्वलनं ४ नमस्यति नानाहुतिमन्नपदाभिषिक्तम् । एवमाचार्यमुपतिष्ठेतानन्तज्ञानोपगतोऽपि सन् ॥ १॥ दीप अनुक्रम [४९] * ॥८ ॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~170 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि"-मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [८६] प्रत सत्राक तु यथाकथञ्चिद् ,गुरुविनयभीत्या गुरुपर्षदुत्थितेभ्यो वा सकाशात् , यथोच्यते-"परिसुटियाण पासे सुणेइ सो विषयपरिभंसि"त्ति, यदुक्तं 'भगवता आख्यातं द्वाविंशतिः परीषहाः' सन्तीति, तत्र किं भगवता अन्यतः पुरुषविशेषाद-13. पौरुषेयागमात् खतो वा अमी अवगता इत्याह-श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन 'पवेइयत्ति सूत्रत्वात् प्रविदिताः, तत्र श्राम्यतीति श्रमण:-तपखी तेन, न तु 'ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः । ऐश्वर्य चैव धर्मश्च, सहसिद्धं चतुष्टयम् ॥१॥' इतिकणादादिपरिकल्पितसदाशिववदनादिसंसिद्धेन, तस्य देहादिविरहात् तथाविधप्रहै यत्नाभावेनाऽऽख्यानायोगाद् , उक्तं च-“वर्यणं न कायजोगाभावेण य सो अणादिसुद्धस्स । गहणम्मिय नो हेतू सत्थं अत्तागमो कह णु ॥१॥" 'भगवतेति च समग्रज्ञानेश्वर्यादिसूचकेन सर्वज्ञतागुणयोगित्वमाह, तथा च यत् कैश्चिदुच्यते-'हेयोपादेयतत्त्वस्य, साध्योपायस्य वेदकः । यः प्रमाणमसाविष्टो, न तु सर्वस्य वेदकः॥१॥' इति, तयुदस्तं भवति, असर्वज्ञो हि न यथावत्सोपायहेयोपादेयतत्त्वविद्भवति, प्रतिप्राणि भिन्ना हि भावानामुपयोगशक्तयः, तत्र कोऽपि कस्यापि कथमपि काप्युपयोगीति कथं सोपायहेयोपादेयतत्त्ववेदनं सर्वज्ञतां विना सम्भवतीति, 'महावीरेणे ति शक्रक|तनाना चरमतीर्थकरेण, 'काश्यपेन' काश्यपगोत्रेण, अनेन च नियतदेशकाल कुलाभिधायिना सकलदेशकालकला-14 १ पर्षदुत्थितानां पार्वे शृणोति स विनयपरिभ्रंशी । २ वचनं न काययोगाभावे न च सोऽनादिशुद्धस्य । पहणे न च हेतुः शास्त्रमात्मागमः कथं नु ॥१॥ दीप अनुक्रम [४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~171 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि"-मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४८...|| नियुक्ति: [८६] प्रत सत्राक उत्तराध्य. व्यापिपुरुषाद्वैतनिराकरणं कृतं भवति, तत्र हि सर्वस्यैकत्वादयमाख्याताऽस्मै व्याख्येयमित्यादिविभागाभावत परीपहाबृहद्वृत्तिः ति:18| आख्यानस्यैवासम्भव इति, 'प्रविदिताः' प्रकर्षण-खयंसाक्षात्कारित्वलक्षणेन ज्ञाताः, अनेन बुद्धिव्यवहितार्थप- ध्ययनम् रिच्छेदवादः परिक्षिप्तो भवति, खयमसाक्षात्कारी हि प्रदीपहस्तान्धपुरुषवद्वयतिरिक्तबुद्धियोगोऽपि कथं कञ्चनार्थ ॥८१॥ परिच्छेत्तुं क्षमः खाद , एवं चैतदुक्तं भवति-नान्यतः पुरुषविशेषादेतेऽवगताः, खयंसम्बुद्धत्वाद्भगवतः, नाप्यपी-3 रुषेयागमात् , तस्यैवासम्भवाद् , अपौरुषेयत्वं ह्यागमस्य स्वरूपापेक्षमर्थप्रत्यायनापेक्षं वा!, तत्र यदि स्वरूपापेक्षं । तदा ताल्चादिकरणच्यापार विनवास्थ सदोपलम्भप्रसङ्गः, न चावृतत्वात् नोपलम्भ इति वाच्यं, तस्य सर्वथा नित्यत्वे 3 आवरणस्याकिञ्चित्करत्वात् , किञ्चिरत्वे वा कथञ्चिदनित्यत्वप्रसाद , अथार्थप्रत्यायनापेक्षम् , एवं कृतसङ्केता बाला-II दयोऽपि ततोऽथ प्रतिपद्येरन्निति नापौरुषेयागमसम्भव इति । ते च कीदृशा इत्याह-'यानिति परीषहान् 'भिक्षुः' उक्तनिरुक्तः, 'श्रुत्वा' आकर्ण्य, गुर्वन्तिक इति गम्यते, 'ज्ञात्वा' यथावदवबुद्ध्य, 'जित्वा' पुनः पुनरभ्यासेन परि चितान् कृत्वा 'अभिभूय' सर्वथा तत्सामर्थ्यमुपहत्य, भिक्षोश्चर्या-विहितक्रियासेवनं भिक्षुचर्या तया 'परिव्रजन् | दिसमन्ताद्विहरन् 'स्पृष्टः' आश्लिष्टः, प्रक्रमात्परीषहरेव, 'नो' नैव 'विनिहन्येत' विविधैः प्रकारैः संयमशरीरोपघातेन | विनाशं प्राप्नुयात् , पठन्ति च 'भिक्खायरियाए परिवयंतो'त्ति भिक्षाचर्यायां-भिक्षाटने परिव्रजन् , उदीयन्ते हि दीप अनुक्रम [४९] ॥८१ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~172 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४८...|| ___ नियुक्ति: [८६...] प्रत सत्राक भिक्षाटने प्रायः परीपहाः, उक्तं हि-"भिक्खायरियाए वापीसं परीसहा उदीरिजंति"त्ति, शेष प्राग्वत् । इत्युक्तः उद्देशः, पृच्छामाह कयरे ते खलु बावीसं प० जे० व्याख्या-'कयरे' किंनामानः 'ते' अनन्तरसूत्रोद्दिष्टाः 'खलुः' वाक्यालङ्कारे, शेष प्राग्यदिति ॥ निर्देशमाह इमे खलु ते बावीसं प० जे० व्याख्या-'इमे' अनन्तरं वक्ष्यमाणत्वात् हृदि विपरिवर्तमानतया प्रत्यक्षाः इमे'ते' इति ये त्वया पृष्टाः,शेषं पूर्ववत् ॥ तंजहा-दिगिंछापरीसहे १ पिवासापरीसहे २ सीयपरीसहे ३ उसिणपरीसहे ४ दसमसगपरीसहे 2 ५ अचेलपरीसहे ६ अरइपरीसहे ७ इत्थीपरीसहे ८ चरियापरीसहे ९निसीहियापरीसहे १० सिज्जापरीसहे ११ अक्कोसपरीसहे. १२ वहपरीसहे १३ जायणापरीसहे १४ अलाभपरीसहे १५ रोगपरीसहे १६ तणफासपरीसहे १७ जल्लपरीसहे १८ सक्कारपुरकारपरीसहे १९ पपणापरीसहे २० अन्नाणपरीसहे । २१ सम्मत्तपरीसहे २२ १ भिक्षाचर्यायां द्वाविंशतिः परीषहा उदीर्यन्ते ॥१॥ दीप अनुक्रम [४९] ainatorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~173 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक [8] दीप अनुक्रम [४९] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ८२ ॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||४८...|| निर्युक्तिः [८६...] अध्ययनं [ २ ], व्याख्या- 'तय' खुदाहरणोपन्यासार्थः दिगिञ्छापरीषदः १, पिपासापरीषदः २, शीतपरीपहः ३, उष्णपरीपहः' ४, दंशमशकपरीपहः ५, अचेलपरीपहः ६, अरतिपरीपहः ७, स्त्रीपरीषहः ८, चर्यापरीषहः ९, नैषेधिकीपरीषदः १०, शय्यापरीषहः ११, आक्रोशपरीषहः १२, वधपरीषहः १३, याचनापरीषहः १४, अलाभपरीपहः १५५ रोमपरीपहः १६, तृणस्पर्शपरीपहः १७, जलपरीपहः १८, सत्कारपुरस्कारपरीपहः १९, प्रज्ञापरीपहः २०, अज्ञानवरीपहः २१, दर्शनपरीषहः २२ । इह च 'दिगिंङ' त्ति देशीवचनेन बुभुक्षोच्यते, सैवात्यन्तेव्याकुलत्वहेतुरप्य संयमभी| रुतया आहारपरिपाकादिवाञ्छाविनिवर्त्तनेन परीति-सर्वप्रकारं सद्यत इति परीपहः दिगिंछापरीषहः १ एवं पातुमिच्छा पिपासा सैव परीपहः पिपासापरीपहः २, 'श्यैङ् गतावि' यस्य मत्यर्थत्वात्कर्त्तरि क्तः, ततो द्रवमूर्तिस्पर्शयोः श्यः' ( पा० ६-१-२४) इति संप्रसारणे स्पर्शवाचित्वाच 'श्योऽस्पर्शे' ( पा० ८-२-७ ) इति नत्वाभावे शीतं - शिशिरः | स्पर्शस्तदेव परीषहः शीतपरपहः ३, 'उष दाह' इत्यस्योपादिकनकप्रत्ययान्तस्य उष्ण-निदाघादितापात्मकं तदेव परीषहः उष्णपरीषहः ४, दशन्तीति दंशाः पचादित्वादच्, मारयितुं शक्नुवैन्ति मशकाः, देशाश्च मशकाश्च दंशमशकाः, यूकायुपलक्षणं चैतत् त एव परीषहो दंशमशकपरीषहः ५, अचेल बेलाभावो जिनकल्पिकादीनाम् अन्येषां तु भिन्नमल्पमूल्यं च चेलमप्यचेलमेव, अवस्राशीलादिवत्, तदेव परीषहोऽचेलपरीषहः ६, रमणं रतिः - संयमविषया धृतिः तद्विपरीता त्वरतिः, सैव परीषहः अरतिषरीषहः ७, स्त्यायतेः स्तृणोतेर्वा त्रुटि दिल्याच ङीपि स्त्री सैव तद्र Education intemational For Patenty परीपहा ध्ययनम् ~ 174~ २ ॥ ८२ ॥ www.r पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४८...|| ___ नियुक्ति: [८६...] प्रत सत्राक Il तरागहेतुगतिविभ्रमेशिताकारविलोकनेऽपि-वगुरुधिरमांसमेदलायबस्थिशिराबणैः सुदुर्गन्धम् । कुचनयनजघनवदनोरुमूञ्छितो मन्यते रूपम् ॥१॥ तथा-निष्ठीवितं जुगुप्सत्यधरस्वं पिबति मोहितः प्रसभम् । कचजधनपरिश्रा नेच्छति तन्मोहितो भजते ॥२॥ इत्यादिभावनातोऽभिधास्थमाननीतितश्च परिषदमाणत्वात्परीपहः स्त्रीपरीपहः द, चरणं चर्या-ग्रामानुग्राम विहरणात्मिका सैव परीषहः चर्यापरीपहः ९, निषेधनं निषेधः पापकर्मणां गमनादिक्रियायाश्च स प्रयोजनमस्या नैपेधिकी-स्मशानादिका खाध्यायादिभूमिःनिषद्येतियावत् सैव परीषहो नैषेधिकीपरीपहः १०, तथा शेरतेऽस्यामिति शय्या-उपाश्रयः सैव परीषहः शय्यापरीषहः ११, आक्रोशनमाकोशः-असत्यभाषात्मकः स एव परीषहः आक्रोशपरीपहः १२, हननं वधः-ताडनं स एव परीपहो वधपरिषहः १३, याचनं याचा प्रार्थनेत्यर्थः, सैव परीषहो याचापरीपहो१४, लभनं लाभो न लाभोऽलाभः-अभिलषितविषयाप्राप्तिः स एव परीपहः अलाभपरी-14 |पहः १५, रोगः-कुष्ठादिरूपः स परीषहो रोगपरीषहः १६, तरन्तीति तृणानि, औणादिको नक् इखत्वं च, तेषां स्पर्शः तृणस्पर्शः स एव परीषहस्तृणस्पर्शपरीषहः १७, जल्ल इति मलः स एव परीषहो जलपरीषहः १८, सत्कारोवस्त्रादिभिः पूजन पुरस्कार:-अभ्युत्थानासनादिसम्पादनं, यद्वा सकलैवाभ्युत्थानाभिवादनदानादिरूपा प्रतिपत्तिरिह सत्कारस्तेन पुरस्करणं सत्कारपुरस्कारः, ततस्तावेव स एव वा परीपहः सत्कारपुरस्कारपरीषहः १९, प्रज्ञापरीषहः अज्ञानपरीपहथ प्राग्भाविताओं, नवरं प्रज्ञायतेऽनया वस्तुतत्त्वमिति प्रज्ञा-स्वयंविमर्शपूर्वको वस्तुपरिच्छेदः, तथा| दीप अनुक्रम [४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~175 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि"-मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१|| नियुक्ति : [८६...] प्रत ॥८ ॥ सूत्रांक उत्तराध्य. मज्ञायते वस्तुतत्त्वमनेनेति ज्ञानं-सामान्येन मत्यादि तदभावोऽज्ञानं २०-२१, दर्शनं-सम्यग्दर्शनं तदेव क्रियादिवा- परीपहाबृहद्वृत्तिः दिना विचित्रमतश्रवणेऽपि सम्यक् परिषयमाणं-निश्चलचित्ततया धार्यमाणं परीपहो दर्शनपरीषहः, यद्वा दर्शनशब्देन का ध्ययनम् दर्शनव्यामोहहेतुरैहिकामुष्मिकफलानुपलम्भादिरिह गृह्यते, ततः स एव परीपहो दर्शनपरीषहः २२॥ इत्थं नामतः परीषहानभिधाय तानेय खरूपतोऽभिधित्सुः संवन्धार्थमाहपरीसहाणं पविभत्ती, कासवेण पवेइया। तं भे उदाहरिस्सामि, आणुपुत्विं सुणेह मे ॥१॥ (सूत्रम्) व्याख्या-परीपहाणाम्' अनन्तरोक्तनाम्नां 'प्रविभक्तिः' प्रकर्षण-खरूपसम्मोहाभावलक्षणेन विभागः-पृथक्ता काश्यपेन' काश्यपगोत्रेण महावीरेणेतियावत् , 'प्रवेदिता' प्ररूपिता 'तामिति काश्यपप्ररूपितां परीपहनविभक्तिं भे' इति भवताम् ' 'उदाहरिष्यामि' प्रतिपादयिष्यामि' 'आनुपूा ' क्रमेण शृणुत 'मे' मम प्रक्रमाद्दाहरतः, शिष्यादरख्यापनार्थं च काश्यपेन प्रवेदितेति वचनमिति सूत्रार्थः॥ १ ॥ इह चाशेपपरीपहाणां क्षुत्परीपह एव। दुःसह इत्यादितस्तमाह ॥८३॥ दिगिछापरियावेण, तवस्सी भिक्खु थामवं । न छिंदे न छिंदावए, न पए न पयावए ॥२॥ (सूत्रम्) व्याख्या-दिगिन्छा-उक्तरूपा तया परितापः-सर्वाङ्गीणसन्तापो दिगिम्छापरितापस्तेन, छिदादिक्रियापेक्षा हेतौ दीप अनुक्रम [५०] wwwjandiarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~176~ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२|| नियुक्ति : [८६...] *** प्रत सूत्रांक 3 % ||२|| तृतीया, पाठान्तरं 'दिगिछापरिगते' बुभुक्षाव्याप्ते 'देहे' शरीरे सति, तपोऽस्यास्तीति अतिशायने विनिस्तपखीविकृष्टाष्टमादितपोऽनुष्ठानवान् , स च गृहस्थादिरपि स्यादत आह-'भिक्षुः' यतिः, सोऽपि कीरक्-स्थाम-बलं तदस्य संयमविषयमस्तीति स्थामवान् , भूनि प्रशंसायांवा मतुपप्रत्ययः, अयं च किमित्याह-न छिन्यात्' न द्विधा विदध्यात्, खयमिति गम्यते, न छेदयेद्वा अन्यैः, फलादिकमिति शेषः, तथा न पचेत् खयं, न चान्यैः पाचयेत् , उपलक्षणत्वाच नान्यं छिन्दन्तं वा पचन्तं वाऽनुमन्येत, तत एव च न खयं क्रीणीयात् नापि कापयेत् न च परं क्रीणन्तमनुमन्येत, छेदस्य हननोपलक्षणत्वात् क्षुत्पपीडितोऽपि न नवकोटीशुद्धिवाधां विधत्ते इति गाथार्थः ॥२॥ ___ कालीपत्वंगसंकासे, किसे धमणिसंतए । मत्तन्नोऽसणपाणस्स, अदीणमणसो चरे ॥३॥(सूत्रम्) व्याख्या-काली-काकजचा तस्याः पर्वाणि स्थूराणि मध्यानि च तनूनि भवन्ति ततः कालीपर्वाणीव पर्वाणिजानुकूपरादीनि येषु तानि कालीपर्वाणि, उष्ट्रमुखीवन्मध्यपदलोपी समासः, तथाविधैरोः-शरीरावयवैः सम्यका-II शते-तपःश्रिया दीप्यत इति कालीपर्वाङ्गसङ्काशः, यद्वा प्राकृते पूर्वापरनिपातस्थातत्रत्वादामो दग्ध इत्यादिवत् अवदियवधर्मेणाप्यवयविनि व्यपदेशदर्शनाचाङ्गसन्धीनामपि कालीपर्वसदृशतायां कालीभिः सकाशानि-सरशान्यङ्गानि यस्सा स तथा, स हि विकृष्टतपोऽनुष्ठानतोऽपचितपिशितशोणित इत्यस्थिचर्मावशेष एवंविध एव भवति, अत एव च 'कृशः' कृशशरीरः, धमनयः-शिरास्ताभिः सन्ततो-व्याप्तो धमनिसंततः, एवंविधावस्थोऽपि मात्रां-परिमाणरूपां जानाति % दीप अनुक्रम [५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~177 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३|| ____ नियुक्ति: [८७-८८] उत्तराध्य. ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः ॥८४॥ प्रत सूत्रांक ||३|| इति मात्राज्ञो-नातिलौल्यतोऽतिमात्रोपयोगी, कस्येत्याह-अश्यत इत्यशनम्-ओदनादि पीयत इति पान-सौवीरा-14 दि अनयोः समाहारेऽशमपानं तस्य, तथा 'अदीणमणसों' ति सूत्रत्वाददीनमनाः अदीनमानसो वा-अनाकुलचित्तः | 'चरेत्' संयमाध्वनि यायात् , किमुक्तं भवति -अतिवाधितोऽपि क्षुधा नवकोटीशुद्धमप्याहारमवाप्य न लौल्यतोऽतिमात्रोपयोगी तदप्राप्तौ वा दैन्यवान् इत्येवं श्रुत्परिषयमाणा क्षुत्परीपहः सोढो भवतीति सूत्रार्थः । सम्प्रति प्रायद्वारगाथोपक्षिप्तं सूत्रस्पर्श इति त्रयोदशद्वारं व्याचिख्यासुः सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिमाह'सुत्तफासे यत्ति । तथाकुमारए नई लेणे, 'सिला पंथे महल्लए । तावस पडिमा सीसे, अगणि निवेअ मुग्गरे ॥ ८७॥ वणे रामे पुरे भिक्खे, संथारे मल्लधारणं । अंगविजा सुए भोमे, सीसस्सागमणे इय ॥ ८८॥ व्याख्या-तत्र सूत्रस्पर्शश्चेति द्वारोषक्षेपः, कुमार इत्यादिना च तद्वर्णनं स्पष्टमेव, नवरं कुमारकादिभिः प्रत्येक द्वाविंशतेरपि परीपहाणामुदाहरणोपदर्शनं, तथाहि-'कुमारकः' क्षुल्लकः, 'लेणं ति लयनं गुहा महहए'त्ति आर्यरक्षितपिता, सूत्रस्पर्शित्वं चास्य सूत्रसूचितोदाहरणप्रदर्शकत्वादिति किश्चिदधिकगाथाद्वयार्थः ।। ८७-८८॥ इदानी नियुक्तिकार एव 'न छिन्दे'इत्यादिसूत्रावयवसूचितं कुमारकेत्यादिद्वारोपक्षिसं च श्रुत्परीषहोदाहरणमाह दीप अनुक्रम [५२ wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३) मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~178~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३|| नियुक्ति: [८९] % % % प्रत सूत्रांक ||३|| टू उजेणी हस्थिमित्तो भोगपुरे हत्थिभूइखुड्डो अ । अडवीइ वेयणहो पाओवगओ य सादिवं ॥ ८९॥ - व्याख्या-उज्जयिनी हस्तिमित्रो भोगकटकपुरं हस्तिभूतिक्षुलकचाटव्यां वेदनाः पादपोपगतश्च सादिव्यं-देवसनिधानमिति गाथाक्षरार्थः ॥ ८९ ॥ भावार्थो वृद्धसम्प्रदायादवसेयः, स चायम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं उजेणीए नगरीए हस्थिमित्तो नाम गाहाबई, सो मतभजिओ, तस्स पुत्तो हस्थिभूह नाम दारगो, सो तं गहाय पवइओ ते अन्नया कयाइ उजेणीओ भोगकडं पत्थिया, अडविमज्झे सो खंतो पाए खयकाए विद्धो, सो असमत्थो जातो, तेण *साहुणो बुत्ता-बचह तुन्भेऽवि ताव नित्थरह कतारं, अहं महया कट्टेण अभिभूतो, जद ममं तुम्भे वहह तो भजिहिह, ४ अहं भत्तं पचखामि, निबंधेण द्वितो एगपासे गिरिकंदराए भत्तं पञ्चकखाउं । साधू पट्ठिया, सो खुडतो भणति-अह-12 दापि इच्छामि, सो तेहिं चला नीती, जाहे दूरं गतो ताहे वीसंमेऊण पचइए नियत्तो, आगतो खंतस्स सगासं, खंत-IX । १ तस्मिन् काले तसिाम् समये उज्जयिन्यां नगर्या हस्तिमित्रो नाम गाधापतिः, स मृतभार्यः, तस्य पुत्रो हस्तिभूति म दारकः, स || गहीत्वा प्रबजितः । तौ अन्यदोजयिनीतो भोगकट प्रस्थियौ, अटवीमध्ये स वृद्धः पादे कीलकेन विद्धा, सोऽसमर्थों जातः, तेन साधव उक्ताः-व्रजत यूवमपि तावत् निस्सरत कान्तारम् , अहं महता कष्टेनामिभूतो, यदि मां यूर्य बहत तदा विनश्क्ष्यथ, अहं भक्तं प्रत्याख्यामि, निर्बन्धेन स्थितः एकपा गिरिकन्दरायां भक्तं प्रत्याख्याय । साधवः प्रस्थिताः, स क्षुल्लको भणति-अहमपीच्छामि (सार्धं स्थातुं तेन ) स तैलानीतः, यदा दूरं गतस्तदा विश्रभ्य प्रत्रजितान् निवृत्तः, आगतो घृद्धस्य ।। % दीप अनुक्रम [५२ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~179 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||3|| दीप अनुक्रम [५२] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३|| निर्युक्ति: [८९] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ८५ ॥। एण भणियं तुमं कीस आगओ ?, इहं मरिहिसि, सोऽवि थेरो वेयणत्तो तद्दिवसं चैव कालगतो, खुडगो न चैव परीपहाजाणइ जहा कालगतो। सो देवलोएसु उबवण्णो, पच्छा तेण ओही पत्ता- किं मया दत्तं तत्तं वा ?, जाव तं सरीरयं के ध्ययनम् पेच्छइ खुडगं च, सो तस्स खुड्डगस्स अणुकंपाए तहेव सरीरगं अणुवविसित्ता खुट्टएण सद्धिं उल्लाविंतो अच्छ, १ तेण भणिओ-वचह पुत्त ! भिक्खाए, सो भणइ कहिं ?, तेण भण्णइ एए धवणिग्गोहादी पायवा, एएसु तन्निवासी पागवंतो, जे तब भिक्खं देहिंति, तहत्ति भणिउं गतो, धम्मलाभेति रुक्खहेट्ठेसु, ततो सालंकारो हत्थो णिग्गच्छिउं भिक्खं देइ, एवं दिवसे दिवसे भिक्खं गिण्हंतो अच्छितो जाव ते साहुणो तंमि देसे दुब्भिक्खे जाए पुणोषि उज्जेणिगं देतं आगच्छंता तेणेव मम्गेण आगया वितिए संवच्छरे, जाब तं गया पएसं, खुडगं पेच्छति बरिसस्स २ सकाशं, वृद्धेन भणितम्--त्वं किमागतः, इह मरिष्यसि, सोऽपि स्थविरो वेदनार्त्तः तदिवस एव कालं गतः, शुद्धको नैव जानाति यथा कालगतः । स देवलोके उत्पन्नः पश्चात्तेनावधिः प्रयुक्तः किं मया दत्तं तप्तं वा १, यावत्तच्छरीरकं प्रेक्षते शुकं च स तस्य क्षुल्लकस्यानुकम्पया तथैव शरीरकमनुप्रविश्य क्षुद्धकेन सार्धं उल्लापयन् तिष्ठति, तेन भणित: - ब्रज पुत्र ! भिक्षाये, स भणलिक ?, तेन भण्यते एते धवन्यप्रोधादयः पादपाः, एतेषु तन्निवासिनः पाकवन्तः ये तुभ्यं भिक्षां दास्यन्ति, तथेति भणित्वा गतः, धर्मलाभयति वृक्षाणामधस्तात्, ततः | सालङ्कारो हस्तो निर्गत्य भिक्षां ददाति, एवं दिवसे दिवसे भिक्षां गृह्णन् स्थितः यावत्चे साधवस्तस्मिन् देशे दुर्भिक्षे जाते पुनरपि उज्जयिनी| देशमागच्छन्तः तेनैव मार्गेणागताः, द्वितीयस्मिन् संवत्सरे, यावत्तं प्रदेशं गताः, क्षुद्धकं प्रेक्षन्ते वर्षस्यान्ते । Education intemational For Furts the On ।। ८५ ।। ~ 180~ wrp पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||५|| ___ नियुक्ति: [८९] प्रत सूत्रांक ||४|| Kiअंते, पुच्छितो भणइ-खंतोऽवि अच्छइ, गया जाय सुकं सरीरयं पेच्छंति, तेहिं नायं-देवेण होऊणमणुकंपा कइलिया होहित्ति । खतेण अहियासितो परीसहो ण खुट्टएण, अहया खुडएणवि अहियासितो, ण तस्स एवं भावो भवइ-जहाऽहं न लभिस्सामि भिक्खं, पच्छा सो खुडगो साहूर्हि नीओ। यथा च ताभ्यामयं परीपहः सोढस्तथा साम्प्रतस्थमुनिभिरपि सोढव्य इत्यैदम्पर्यार्थः । उक्तः क्षुत्परीपहः, एवं चाधिसहमानस्य न्यूनकुक्षितयैषणीयाहारार्थ : दिवा पर्यटतः श्रमादिभिरवश्यंभाविनी पिपासा, सा च सम्यक सोढव्येति तत्परीषहमाह तओ पुटो पिवासाए, दुगुंछी लद्धसंजमे।सीओदगं ण सेवेज्जा, वियडस्सेसणं चरे ॥४॥(सूत्रम्) व्याख्या-तत' इति क्षुत्परीपहात् तको वा उक्तविशेषणो भिक्षुः 'स्पृष्टः' अभिद्रुतः 'पिपासया' अभिहितस्वरू-2 पिया 'दोगुंछी ति जुगुप्सी, सामर्थ्यादनाचारस्येति गम्यते, अत एव लन्धः-अवाप्तः संयमः-पञ्चाश्रवादिविरमणात्मको ४ येन स तथा, पाठान्तरं वा 'लजसंजमेत्ति' लजा-प्रतीता संयमः-उक्तरूपः एताभ्यां खभ्यस्ततया सात्मीभावसमु-11 पगताभ्यामनन्य इति स एव लज्जासंयमः, पठ्यते च 'लज्जासंजए'त्ति, तत्र लजया सम्यग्यतते-कृत्यं प्रत्यादृतो । भवतीति लज्जासंयतः, सर्वधातूनां पचादिषु दर्शनात् , स एवंविधः किमित्याह-शीतं-शीतलं, खरूपस्थतोयो १ पृष्टो भणति-वृद्धोऽपि तिष्ठति, गता यावत् शुष्कं शरीरक प्रेक्षन्ते, तैतिं-देवीभूयानुकम्पा कृताऽभविष्यत् इति । वृद्धेनाध्यासितः परी-2 पहो न क्षुलकेन, अथवा भुकेनापि अध्यासितः, न तस्यैवं भावोऽभूत्-यथाऽहं न लप्स्ये मिक्षा, पश्चात्स क्षुल्लकः साधुभिर्नीतः। 5536 दीप अनुक्रम [५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~181 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||५|| नियुक्ति: [८९...] प्रत सूत्रांक ||५|| उत्तराध्य पलक्षणमेतत् , ततः खकीयादिशस्त्रानुपहतम् , अप्रासुकमित्यर्थः, तच्च तदुदकं च शीतोदकं, 'न सेवेत' न पानादिना परीषहाभजेत, किन्तु 'वियडस्स'त्ति विकृतस्य-बड़वादिना विकार प्रापितस्य प्रासुकस्येतियावत् , प्रक्रमादुदकस्य 'एसणं' तिध्ययनम् बृहद्वृत्तिः चतुर्थ्य) द्वितीया, ततश्चैषणाय-गवेषणार्थ 'चरेत् , तथाविधकुलेषु पर्यटेत् , अथवा एषणाम्-एषणासमिति चरेत् , चरतेरासेवायामपि दर्शनात् पुनः पुनः सेवेत, किमुक्तं भवति ?-एकवारमेषणाया अशुद्धावपि न पिपासातिरेकतोऽनेषणीयमपि गृहंस्तामुल्लङ्घयेदिति सूत्रार्थः ॥४॥ कदाचिजनाकुल एव निकेतनादी लज्जातः खस्थ एव चैवं का व विदधीतेत्यत आह ___छिन्नावाएसु पंथेसुं, आउरे सुपिवासिए । परिसुक्कमुहे दीणे, तं तितिक्खे परीसह॥५॥(सूत्रम्) मा व्याख्या-छिन्न:-अपगतः आपातः-अन्यतोऽन्यत आगमनात्मकः अर्थाजनस्य येषु ते छिन्नापाताः, विविक्ता इत्यर्थः, तेषु, 'पथिषु' मार्गेषु, गच्छन्निति गम्यते. कीरशः सन्नित्याह- आतुरः' अत्यन्ताकुलतनुः, किमिति ?, यतः सुष्टु-अतिशयेन पिपासितः-तृषितः सुपिपासितः, अत एव च परिशुष्क-विगतनिष्ठीवनतयाऽनातामुपगतं मुखमस्येति परिशुष्कमुखः स चासौ अदीनश्च-दैन्याभावेन परिशुष्कमुखादीनः 'त'मिति तृट्परीषह 'तितिक्षेत' सहेत पठ्यते च-'सबतो य परिवएत्ति' सर्वत इति सर्वान-मनोयोगादीनाश्रित्य, चः पूरणे 'परिव्रजेत्' सर्वप्रकारसं-12 दायमाध्वनि यायात्, उभयत्रायमों-विविक्तदेशस्थोऽप्यत्यन्तं पिपासितोऽस्वास्थ्यमुपगतोऽपि च नोक्तविधि दीप अनुक्रम [५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~182 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||५|| ___ नियुक्ति: [९०] प्रत सूत्रांक ||५|| CROSSESSAGAR मुलवयेत् , ततः पिपासापरीपहोऽध्यासितो भवतीति सूत्रार्थः ॥ ५॥ इदानी नदीद्वारमनुसरन् 'सीओदगं न सेवेजा' इत्यादिसूत्रावयवसूचितं नियुक्तिकृत् दृष्टान्तमाहउज्जेणी धणमित्तो पुत्तो से खुडओ अधणसम्मो। तण्हाइत्तोऽपीओ कालगओ एलगच्छपहे ॥ ९॥ ___ व्याख्या-उजयिन्यां धनमित्रः 'से' इति तस्य पुत्रः क्षुल्लुकश्च धनपुत्रशर्मा 'तण्हाएत्तो'त्ति तृपितोऽपीतः कालजगत एडकाक्षपथ इत्यक्षरार्थः ॥ ९॥ भावार्थस्तु सम्प्रदायादवसेयः, स चायम् | एत्थ उदाहरणं किंचि पडिवक्खेण किंचि अणुलोमेण । उज्जेणी नाम नयरी, तत्थ धणमित्तो नाम वाणियतो, तस्स 3 है पुत्तो धणसम्मो नाम दारतो,सोधणमित्तो तेण पुत्तेण सह पवइओ। अन्नया ते साहू मज्झण्हवेलाए एलगच्छपहे पट्ठिया, सोऽवि खुडगो तण्हाइतो एति, सोऽवि से खन्तो सिणेहाणुरागेण पच्छओ एति, साहुणोऽपि पुरतो वचंति, अन्तरा/वि नदी समावडिया, पच्छा तेण बुचइ-एहि पुत्त ! इमं पाणियं पियाहि, सोऽवि खंतो नई उत्तिन्नो चिंतेति य-म-10 &ा १ अत्रोदाहरणं किञ्चित्प्रतिपक्षेण किञ्चिदनुलोमेन । उज्जयिनी नाम नगरी, तत्र धनमित्रो नाम वणिक, तस्य पुत्रो धनशर्मा नाम वारकः, है स धनमित्रसेन पुत्रेण सह प्रत्रजितः । अन्यदा ते साधवो मध्याह्नवेलायामेलकाक्षपथे प्रस्थिताः, सोऽपि क्षुल्लकस्तृषित एति, सोऽपि तस्य पिता नेहानुरागेण पश्चादायाति, साधवोऽपि पुरतो ब्रजन्ति, अन्तराऽपि नदी समापतिता, पश्वातेनोच्यते--एहि पुत्रेदं पानीयं पिव,8 सोऽपि वृद्धो नदीमुत्तीर्णचिन्तयति च-मनागपसरामि । दीप अनुक्रम [५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~183 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||५|| ___ नियुक्ति: [९०] प्रत सूत्रांक ||५|| उत्तराध्यणागं ओसरामि, जावेस खुडओ पाणियं पियइ, मा मे संकाए न पाहित्ति एगते पडिच्छइ, जाव खुडतो पत्तो ण ण परीषहापियति, केइ भणंति-अंजलीए उखित्ताए अह से चिंता जाया-पियामित्ति, पच्छा चिंतेइ-कहमहं एए हालाहले ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः जीवे पिविस्सं ?, ण पीयं, आसाए छिनाए कालगतो, देवेसु उववण्णो, ओहि पउत्तो, जाव खुड्डगसरीरं पासति, ॥ ८७॥ तहिं अणुपचिट्ठो, खंतं ओलग्गति, खंतोऽवि एतित्ति पत्थितो, पच्छा तेण तेर्सि देवेणं साहूणं गोउलाणि विउधि है याणि, साहूपि तासु बइयासु तकाईणि गिण्हन्ति, एवं वईयापरंपरेण जाव जणवयं संपत्ता, पच्छिलाए बईयाए तेण देवेण विटिया पम्हुसाविया जाणणनिमित्तं, एगो साहू णियचो, पेच्छति विटियं, पत्थि वइया, पच्छा तेहिं णायं-सादिति, पच्छा तेण देवेण साहुणो बंदिया, खंतो न बंदिजो, तो सर्व परिकहेइ, भणह-एएण|| १ यावदेष क्षुल्लकः पानीयं पिबति, मा मम शङ्कया न पास्वतीति एकान्ते प्रतीक्षते, यावत्क्षुल्लकः प्राप्तः नदी, न पिबति, केचिद्भणन्ति-अज-12 [लावुत्क्षिप्तायामथ तस्य चिन्ता जाता-पिबामीति, पश्चात् चिन्तयति-कथमहमेतान हालाहलान् जीवान् पास्ये?, न पीतम् , आशायां छिन्नायां कालगतः, देवेषूत्पन्नः, अवधिः प्रयुक्तः, यावत् क्षुल्लकशरीरं पश्यति, तत्रानुप्रविष्टः, वृद्धमवलगति, वृद्धोऽपि एतीति प्रस्थितः, पश्चात्तेन देवेन तेभ्यः साधुभ्यो गोकुलानि विकुर्वितानि, साधवोऽपि तासु प्रजिकासु तक्रादीनि गृहन्ति, एवं ब्रजिकापरम्परकेण यावज्जनपदं संप्राप्ताःne७॥ पश्चिमायां व्रजिकावां तेन देवेन विण्टिको विस्मारिता ज्ञाननिमित्तम् , एक साधुर्निवृत्तः, पश्यति विण्टिका, नास्ति जिका, पश्चात्तै-18 &ाति-सादिव्यमिति, पश्चात् तेन देवेन साधवो वन्दिताः, वृद्धो न वन्दितः, ततः सर्व परिकथयति, भणति-एतेनाई। 3595 दीप अनुक्रम [५४] JAMERatinintamational swaminary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~184 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं २], मूलं [१] / गाथा ||६|| ___ नियुक्ति: [९०] प्रत सूत्रांक ||६|| अहं परिचत्तो-तुम णं पाणियं पियाहित्ति, जदि मे तं पाणियं पियं होन्तं तो संसारं भमंतो, पडिगतो। एवं अहियासेयवं । इत्यवसितः पिपासापरीपहः, क्षुत्पिपासासहनकर्शितशरीरस्य च नितरां शीतकाले शीतसम्भव इति तत्परीषहमाहचरंतं विरयं लूह, सीयं फुसइ एगया। नाइवेलं विहन्निजा, पावदिट्टी विहन्नइ ॥६॥ (सूत्रम्) व्याख्या-'चरन्तम्' इति ग्रामानुग्राम मुक्तिपथे वा ब्रजन्तं, धर्ममासेवमानं वा, 'विरतम् ' अग्निसमारम्भादेनिवृत्तं विगतरतं वा 'लूह'ति स्नानस्निग्धभोजनादिपरिहारेण रूक्षं, किमित्याह-शृणाति इति शीतं, 'स्पृशति' | अभिद्रवति, चरदादिविशेषणविशिष्टो हि सुतरां शीतेन वाध्यते, 'एकदेति शीतकालादौ प्रतिमाप्रतिपत्त्यादौ वा, ततः किम् ?-'न' नैव वेला-सीमा मर्यादा सेतुरित्यनर्थान्तरं, ततश्चातीति शेषसमयेभ्यः स्थविरकल्पिकापेक्षया जिन18 कल्पिकापेक्षया च स्थविरकल्पाचातिशायिनी वेला शक्त्यपेक्षतया च सर्वधानपेक्षतया च शीतसहनलक्षणा मर्यादा दातां विहन्यात् , कोऽर्थः-अपध्यानस्थानान्तरसर्पणादिभिरतिक्रामेत् , किमेवमुपदिश्यत इत्याह-पासयति पातय-13 ति वा भवावर्त इति पापा तादृशी दृष्टि:-बुद्धिरस्पेति पापदृष्टिः 'विहन्नई' इति सूत्रत्वाद्विहन्ति-अतिक्रामत्यतिवेला १ परित्यक्तः त्वमिदं पानीयं पिवेति, यदि मया तत्पानीयं पीतमभविष्यत्तदा संसारमनमिष्यम् , प्रतिगतः, एवमध्यासितव्यम् । २ नेदं पदत्रयं प्रत्यन्तरे. दीप अनुक्रम [५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~185 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||७|| दीप अनुक्रम [ ५६ ] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||७|| निर्युक्तिः [९०...] अध्ययनं [२], उत्तराध्य. मिति प्रक्रमः, अयमत्र भावार्थ:- पापदृष्टिरेवोक्तरूपमर्यादातिक्रमकारी, ततः पापबुद्धिकृतत्वादस्य सद्बुद्धिभिः परिहारो विधेयः, पठ्यते च - 'नाइवेलं मुणी गच्छे, सुचा णं जिणसासणं' तत्र बेला-खाध्यायादिसमयात्मिका तामबृहद्वृत्तिः ॐ तिक्रम्य शीतेनाभिहतोऽहमिति 'मुनिः' तपखी' न 'गच्छेत्' स्थानान्तरमभिसर्पत्, 'सोचे 'ति श्रुत्वा णमिति वाक्यालङ्कारे 'जिनशासनं' जिनागमम्-अन्यो जीवोऽन्यश्च देहस्तीत्रतराश्च नरकादिषु शीतवेदनाः प्राणिभिरनुभूतपूर्वा इत्यादिकमिति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ अन्यच - ॥ ८८ ॥ ण मे णिवारणं अस्थि, छवित्ताणं न विज्जइ । अहं तु अग्गिं सेवामि, इइ भिक्खू न चिंतए ॥७॥ (सूत्रम् ) व्याख्यान 'मे' मम नितरां वार्यते निषिध्यतेऽनेन शीतवातादीति निवारणं-सोधादि 'अस्ति' विद्यते, तथा छविः - त्वक् त्रायते - शीतादिभ्यो रक्ष्यतेऽनेनेति छवित्राणं-वस्त्रकम्बलादि न विद्यते, वृद्धास्तु निवारणं-वस्त्रादि तथा छविः - विकू त्राणं न विद्यते न भवति, असौ हि शीतोष्णादीनां ग्राहिकेति व्याचक्षते, अतः 'अह'मित्यात्मनि|र्देशः तुः पुनरर्थः, तद्भावना च येषां निवारणं छवित्राणं वा समस्ति ते किमिति अग्निं सेवेयुः ?, अहं तु तदभावादत्राणः तत्किमन्यत्करोमीत्यग्निं सेवे 'इती' येवं 'भिक्षुः यतिः 'न चिन्तयेत्' न ध्यायेत्, चिन्तानिषेधे च सेवनं दूरापास्तमिति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ इदानीं लयनद्वारं, तत्र च नातिवेलं मुनिर्गच्छेदित्यादिसूत्रावयवसू|चितं दृष्टान्तमाह Education intimation For Fans Only परीषहाध्ययनम् २ ~ 186~ ॥ ८८ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||७|| दीप अनुक्रम [ ५६ ] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||७|| निर्युक्ति: [९१] अध्ययनं [२], Education intimation रायगिहंमि वयंसा सीसा चउरो उ भद्दबाहुस्स । वेभारगिरिगुहाए सीयपरिगया समाहिगया ॥९१॥ व्याख्या - राजगृहे नगरे वयस्याः शिष्याश्चत्वारस्तु भद्रवाहोर्वैभारगिरिगुहायां शीतपरिगताः समाधिगता इत्यक्षरार्थः ॥ ९१ ॥ भावार्थस्तु वृद्धविवरणादवसेयः, तञ्चेदम्- रायंगिहे णयरे चत्तारि वयंसा वाणियगा सहबहियया, ते भद्दवाहुस्स अंतिए धम्मं सोचा पद्मइया, ते सुयं बहुं अहिजित्ता अन्नया कयाइ एगलविहारपडिमं पडिवन्ना, ते समावतीए विहरंता पुणोवि रायगिहं नयर संपत्ता, हेमंतो य बदृति, ते य भिक्खं काउं तइयाए पोरिसीए पडिनियत्ता, तेसिं च वैभारगिरिंतेणं गंतवं, तत्थ पढमस्स गिरिगुहादारे चरिमा पोरिसी ओगाढा, सो तत्थेव टिओ, विययस्स उज्जाणे, ततियस्स उज्जाणसमीवे, चउत्थस्स नगरव्भासे चेव, तत्थ जो गिरिगुहन्भासे तस्स निरागं सीयं सो सम्मं सहंतो समंतो अ पढमजामे चैव कालगतो, एवं १ राजगृहे नगरे चत्वारो वयस्था वणिजः सहवृद्धाः, ते भद्रबाहोरन्तिके धर्मं श्रुत्वा प्रब्रजिताः, ते श्रुतं बधीय अन्यदा कदाचित् एकाकिविहारप्रतिमां प्रतिपन्नाः, ते समापत्त्या ( भवितव्यतया ) विहरन्तः पुनरपि राजगृहं नगरं संप्राप्ताः, हेमन्तञ्च वर्त्तते, ते च मिश्रां कृत्वा तृतीयायां पौरुष्यां प्रतिनिवृत्ताः तेषां च वैभारगिरिमार्गेण गन्तव्यं तत्र प्रथमस्य गिरिगुहाद्वारे चरमा पौरुण्यवगोंडा, स तत्रैव स्थितः, द्वितीयस्त्रोद्याने, तृतीयस्त्रोद्यानसमीपे चतुर्थस्य नगराभ्यासे चैव तत्र यो गिरिगुहाभ्यासे तस्य निरन्तरायं शीतं स सम्यकू सहमान: श्रममाणा प्रथमयाम एव कालगतः एवं. For Patenty ww पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~ 187 ~ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||८|| नियुक्ति: [९१...] बृहद्वृत्तिः । प्रत सूत्रांक ||८|| उत्तराध्य. जो नगरसमीवे सो चउत्थे जामे कालगतो, तेसिं जो नगरमासे तस्स नगरुण्हाए न तहा सीअं तेण पच्छा काल- परीपहा गतो, ते सम्मं कालगया, एवं सम्म अहियासियत्वं जहा तेहिं चरहिं अहियासियं ॥ इदानीं शीतविपक्षभूतमुष्ण || मिति यदिवा शीतकाले शीतं तदनन्तरं ग्रीष्मे उष्णमिति तत्परीषहमाह॥ ८॥ उसिणपरितावेण, परिदाहेण तजिओ। प्रिंसु वा परितावेणं, सायं ण परिदेवए॥८॥ (सूत्रम्) व्याख्या-उष्णम्-उष्णस्पर्शवत् भूशिलादि तेन परितापः तेन, तथा 'परिदाहेन' पहिः खेदमलाभ्यां वहिना | वा अन्तश्च तृष्णया जनितदाहखरूपेण 'तर्जितः' भसितोऽत्यन्तपीडित इतियावत् , तथा 'ग्रीष्मे वाशब्दात् शरदि दावा परितापेन' रविकिरणादिजनितेन तर्जित इति सम्बन्धः, किमित्याह-सात' सुखं, प्रतीति शेषः, न परिदेवेत . | किमुक्तं भवति ?-'नारीकुचोरुकरपल्लयोपगूढैः क्वचित्सुखं प्राप्ताः । क्वचिदङ्गारज्वलितैस्तीक्ष्णैः पक्काः स्म नरकेषु॥१॥ इत्यादि परिभावयन् हा ! कथं मम मन्दभाग्यस्य सुखं स्यादिति प्रलपेत् , यद्वा-'सात मिति सातहेतुं प्रति, यथा हाहा! कथं कदा वा शीतकालः शीतांशुकरकलापादयो वा मम सुखोत्पादकाः सम्पत्स्यन्त इति न परिदेवतेति सूत्रार्थः18 ॥८॥ उपदेशान्तरमाह ॥८९॥ यो मगरसमीपे स चतुर्थे यामे कालगतः, तेषां यो नगराभ्यासे तस्य नगरोमणा न तथा शीतं तेन पचात्कालगतः, ते सम्यक ४ कालगताः, एवं सम्यगध्यासितव्यं यथा तैश्चनुर्भिरप्यासितम् । दीप अनुक्रम [१७]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~188 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||९|| नियुक्ति: [१२] प्रत सूत्रांक ||९|| उपहाहितत्तो मेहावी,सिणाणं नाभिपत्थए । गायं न परिसिंचेजा,न विजिज्जा य अप्पयं॥९॥ (सूत्रम्) व्याख्या-'उष्णाभितप्तः' उष्णेनात्यन्तं पीडितो 'मेधावी' मर्यादानतिवर्ती 'सान' शौचं देशसर्वभेदभिन्नं 'ना-1 भिप्रार्थयेत् ' नैवाभिलपेत् , पठन्ति च-'णोऽवि पत्थए ति अपेर्भिन्नक्रमत्वात् प्रार्थयेदपि न, किं पुनः कुर्यादिति ?, तथा 'गात्रं' शरीरं 'न परिषिञ्चेत् ' न सूक्ष्मोदकविन्दुभिराद्रीकुर्यात् , 'न वीजयेच' तालवृन्तादिना 'अप्पर्य'ति आत्मानम् , अथवाऽल्पमेघाल्पकं, किं पुनर्वह्निति सूत्रार्थः ॥९॥ साम्प्रतं शिलाद्वारमनुस्मरन् 'उसिणपरितावेणे-' सादिसूत्रावयवसूचितमुदाहरणमाहतगराइ अरिहमित्तो दत्तो अरहन्नओ य भद्दा य । वणियमहिलं चइत्ता तत्तमि सिलायले विहरे ॥१२॥ व्याख्या-तगरायामर्हन्मित्रो दत्तोऽहनकश्च भद्रा च वणिग्महेला त्यक्त्वा तप्ते शिलातले 'विहरे'त्ति व्यहापीदिति गाथाक्षराथैः ॥ ९२ ।। भावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदायादवसेया, स चायम्तंगरा नयरी, तत्थ अरिहमित्तो नाम आयरिओ, तस्स समीवे दत्तो नाम याणियओ भद्दाए भारियाए पुत्तेण य १ तगरा नगरी, तत्राईन्मिन्ननामा आचार्यः, तस्य समीपे दत्तो नाम वणिकू भद्रया भार्यया पुत्रेण दीप अनुक्रम [५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~189 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||९|| दीप अनुक्रम [५८] उत्तराध्य. बृहद्धति: ॥ ९० ॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) निर्युक्तिः [९२] अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||९|| अरहन्नएंण सद्धिं पवइओ, सो तं खुड्डगं ण कयाइ भिक्खाए हिंडावेर, पढमालियाईहिं किमिच्छएहिं पोसेति, सो सुकुमालो, साहूण अप्पत्तियं, ण तरंति किंचि भणिउं । अन्नया सो खंतो कालगतो, साहूहिं दो तिन्नि वा दिवसे दाउ भिक्खस्स ओयारिओ, सो सुकुमालसरीरो गिम्हे उबरिं हिठ्ठा य उज्झति पासे य, तिण्हाभिभूतो छायाए बीसमंतो पउत्थवतियाए वणिय महिलाए दिट्ठो, ओरालसुकुमालसरीरोत्तिकाउं तीसे तर्हि अज्झोववाओ जाओ, चेडीए सद्दावितो, किं मग्गसि ?, भिक्खं, दिण्णा से मोयगा, पुच्छितो कीस तुमं धम्मं करेसि ?, भणइ -सुहनिमित्तं, सा भणइ तो मए चैव समं भोगे भुंजाहि, सो य उण्हेण तज्जिओ उवसग्गिजंतो य पडिभग्गो भोगे भुंजति । सो साहूहिं सबहिं मग्गितो ण दिट्ठो अप्पसागारियं पविट्टो, पच्छा से माया उम्मत्तिया जाया पुत्तसोगेण, णयरं परिभमंती १ चान्नकेन सार्धं प्रव्रजितः, स तं क्षुल्लकं न कदाचित् भिक्षायै हिण्डयति, प्रथमालिकादिभिः क्रिमिच्छकैः पोषयति, स सुकुमाल:, साधूनामप्रीतिकं, न तरन्ति किञ्चिद्भणिम् । अन्यदा स वृद्धः कालगतः, साधुभिः द्वौ श्रीन् वा दिवसान् दत्वा भिक्षावायघतारितः, स सुकुमालशरीरो ग्रीष्मे उपरि अधस्ताच दाते पार्श्ववोच, तृष्णाभिभूतश्छायायां विश्राम्यन् प्रोषितपतिकया वणिग्महेलया दृष्टः, उदारसुकुमालशरीर इतिकृत्वा तस्यास्तत्राभ्युपपातो जातः, चेटचा शब्दितः, किं मार्गयसि ?, भिक्षां, दत्तास्तस्मै मोदकाः, पृष्टः कथं स्वं धर्म करोषि ?, भणति| सुखनिमित्तं सा भणति तदा मयैव समं भोगान् भुङ्क्ष्व, स चोष्णेन तर्जितः उपसर्ग्यमाणञ्च प्रतिभग्नो भोगान् मुनक्ति । स साधुमिः सर्वत्र मार्गितः न दृष्टोऽल्पसागारिकं प्रविष्टः पश्चात्तस्य मातोन्मत्ता जाता पुत्रशोकेन, नगरं परिभ्राम्यन्ती अर्हन्नकं विलपन्ती यं यत्र पश्यति For Fasten परीपहा ध्ययनम् २ ~ 190 ~ ॥ ९० ॥ www.pincibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||९|| नियुक्ति: [१२] प्रत सूत्रांक ||९|| अरहन्नयं विलवंती जं जहिं पासइ 'तं तहिं सवं भणति-अत्थि ते कोइ अरहन्नओ दिहो ?, एवं विलवमाणी भमइ, जाव अन्नया तेण पुत्तेण ओलोयणगएण दिठ्ठा, पचभिन्नाया, तहेव ओयरित्ता पाएसु पडिओ, तं पिच्छिऊण तहेव सत्थचित्ता जाया, ताहे भण्णइ-पुत्त । पचयाहि, मा दुग्गइं जाहिसि, सो भणइ-न तरामि कार्ड संजमं. जदि पर। अणसणं करेमि, एवं करेहि, मा य असंजओ भवाहि, मा संसारं भमिहिसि, पच्छा सो तहेव तत्ताए सिलाए। सपाओवगमणं करेइ, मुटुत्तेण सुकुमालसरीरो उण्हेण चिलाओ, पुर्वि तेण नाहियासिओ पच्छा तेणऽहियासितो। एवं ४ अहियासियचं ॥ उष्णं च ग्रीष्मे तदनन्तरं वर्षासमयः, तत्र च दंशमशकसम्भव इति तत्परीषहमाह पुट्ठो य दंसमसएहिं, समरे व महामुणी। नागो संगामसीसे व, सूरे अभिभवे परं॥१०॥(सूत्रम्) व्याख्या-'स्पृष्टः' अभिद्रुतः 'चः' पूरणे दंशमशकैः, उपलक्षणत्वात् यूकादिभिश्च 'समरे वत्ति 'एदोदुरलोपा १ तं तत्र सर्व भणति-अस्ति स कोऽपि (येन) अन्नको दृष्टः, एवं विलपन्ती भ्राम्यति, यावदन्यदा तेन पुत्रेण अवलोकनगतेन दृष्टा, प्रत्यभिज्ञाता, तथैवोत्तीर्य पादयोः पतितः, तं प्रेक्ष्य तथैव स्वस्थचित्ता जाता, तदा भण्यते-पुत्र ! प्रब्रज, मा दुर्गतिं यासीः, सभणति-न शक्रोमि || कर्तुं संयम, यदि परमनशनं करोमि, एवं कुरु, मा चासंयतो भूः, मा संसारं भ्रमीः, पञ्चास्स तथैव तप्तायां शिलायां पादपोपगमनं करोति, मुहूर्तेन सुकुमालशरीर उष्णेन विलीनः, पूर्व तेन माध्यासितः पश्चात्तेनाध्यासितः । एवमध्यासितव्यम् । दीप अनुक्रम [५८] wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~191~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |१०|| दीप अनुक्रम [ ५९ ] उत्तराध्य. वृहद्वृत्तिः ॥ ९१ ॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||१०|| निर्युक्तिः [९२...] अध्ययनं [२], विसर्जनीयस्येति रेफात् ततः सम एव तदगणनया स्पृष्टास्पृष्टावस्थयोस्तुल्य एव यद्वा समन्तादरयः - शत्रवो यस्मिंस्तत्समरं तस्मिन्निति संग्रामशिरोविशेषणं, वेति पूरणे, 'महामुनिः' प्रशस्तयतिः किमित्याह-- 'जागो संगामसीसे वे 'ति इवार्थस्य वाशब्दस्य भिन्नक्रमत्वान्नाग इव-हस्तीव संग्रामस्य शिर इव शिरः- प्रकर्षावस्था संग्रामशिरस्तस्मिन् 'शूरः' पराक्रमवान्, यद्वा शूरो-योधः, ततोऽन्तर्भावितोपमार्थत्वाद्वाशब्दस्य च गम्यमानत्वात् शूरवद्वाऽभिहन्यात् कोऽर्थः ? - अभिभवेत् 'परं' शत्रुम्, अयमभिप्रायः - यथा शूरः करी यद्वा यथा वा योधः शरस्तुद्यमानोऽपि तदगणनया रणशिरसि शत्रून् जयति एवमयमपि दंशादिभिरभिद्र्यमानोऽपि भावशत्रुं क्रोधादिकं जयेदिति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ यथा च भावशत्रुर्जेतव्यस्तथोपदेष्टुमाह- ण संतसेण वारिजा, मणंपिणो पउस्सए । उवेहे नो हणे पाणे, भुंजंते मंससोणिए ॥११॥ (सूत्रम्) व्याख्या- 'न संत्रसेत्' नोद्विजेत्, दंशादिभ्य इति गम्यते, यद्वाऽनेकार्थत्वाद्धातूनां न कम्पयेत्तैस्तुद्यमानोऽपि, अज्ञानीति शेषः, 'न निवारयेत्' न निषेधयेत् प्रक्रमाद्देशादीनेव तुदतो, मा भूदन्तराय इति, मनः- चित्तं तदपि, आस्तां वचनादि, 'न प्रदूषयेत्' न प्रदुष्टं कुर्यात्, किन्तु 'उवेहे 'त्ति उपेक्षेत- औदासीन्येन पश्येद्, अत एव न हन्यात् 'प्राणान् प्राणिनी 'भुआनान्' आहारयतो मांसशोणितम्, जयमिहाशयः - अत्यन्तबाधकेष्वपि दंशका Education intimational For Fans at Use Only परीषहाध्ययनम् २ ~ 192 ~ ॥ ९१ ॥ www.janbay.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||११|| ___ नियुक्ति: [९३] प्रत सूत्रांक ||११|| दिषु-शृगालवृकरूपैश्च, नदधिोरनिष्ठुरम् । आक्षेपत्रोटितस्त्रायु, भक्ष्यन्ते रुधिरोक्षिताः॥१॥ खरूपैः श्यामशव लालपुच्छैर्भयान्वितैः । परस्परं विरुध्यद्भिर्विलुप्यन्ते दिशोदिशम् ॥२॥ काकरामादिरूपैश्व, लोहतुण्डैबलान्विहै तैः । विनिकृष्टाक्षिजिह्वात्रा, विचेष्टन्ते महीतले ॥३॥ प्राणोपक्रमणेोरैर्दुःखैरेवंविधैरपि । आयुष्यक्षपिते नैव, नि यन्ते दुःखभागिनः॥४॥ इत्यादि, तथा असंज्ञिन एते आहारार्थिनश्च भोज्यमेतेषां मच्छरीरं बहुसाधारणं च यदि | भक्षयन्ति किमत्र प्रद्वेषेणेति च विचिन्तयन् तदुपेक्षणपरो न तदुपघातं विदध्यादिति सूत्रार्थः॥११॥ इदानीं पथिद्वारं, तत्र 'स्पृष्टो दंशमशकै रित्यादिसूत्रसूचितमुदाहरणमाहचंपाए सुमणुभदो जुवराया धम्मघोससीसोय पंथंमि मसगपरिपीयसोणिओ सोऽवि कालगओ ॥१३॥ व्याख्या-चम्पायां सुमनोभद्रो युवराजो धर्मघोपशिष्यश्च पथि मशकपरिपीतशोणितः सोऽपि कालगत इति गाथाक्षराथेंः ॥ ९३ ॥ भावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदायादवसेयः, स चायम्ती चंपाए नयरीए जियसनुस्स रपणो पुत्तो सुमणभद्दो जुवराया, धम्मपोसस्स अन्तिए धर्म सोऊण निषिपणका मभोगो पषइतो, ताहे चेव एगल्लविहारपडिमं पडिवन्नो, पच्छा हेट्ठाभूमीए बिहरन्तो सरयकाले अडवीए पडिमागतो RI १ चम्पायां नगर्या जितशत्रो राज्ञः पुत्रः सुमनोभद्रो युवराजः, धर्मधोषस्यान्तिके धर्म श्रुत्वा निर्विष्णकामभोगः प्रनजितः, तदैव एकाकि-31 विहारप्रतिगां प्रतिपन्नः, पश्चाधोभूमौ बिहरन शरत्कालेऽटव्या प्रतिमागतः दीप अनुक्रम [६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~193 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१२|| _ नियुक्ति: [९३] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥९२॥ परीषहाध्ययनम् प्रत सूत्रांक ||१२|| रतिं मसएहिं खजइ, सो ते ण पमजइ, सम्म सहइ, रत्तीए पीयसोणितो कालगतो । एवं अहियासेयव्यं ॥ इत्यवसितो दंशमशकपरीपहः। अधुना अचेलः संस्तैस्तुद्यमानो यत्र कम्बलाद्यन्वेषणपरोन स्थादित्यचेलपरीपहमाह- परिजुन्नेहि वत्थेहि, होक्खामित्ति अचेलए। अदुवा सचेलए होक्खं, इइ भिक्खु न चिंतए॥१२॥(सूत्रम्) व्याख्या-परिजीर्णैः समन्तात् हानिमुपगतैः 'वस्वैः' शाटकादिभिः 'होक्खामित्ति' इतिर्भिन्नक्रमः ततो भविष्यामि 'अचेलका' चेलविकलः अल्पदिनभाषित्वादेषामिति भिक्षुर्न विचिन्तयेत्, अथवा 'सचेलकः' चेलान्वितो। भविष्यामि, परिजीर्णवखं हि मां दृष्ट्वा कश्चित् श्राद्धः सुन्दरतराणि वखाणि दास्यतीति भिक्षुर्न चिन्तयेत् , इदमुक्त भवति-जीर्णवस्त्रः सन्न मम प्राक्परिगृहीतमपरं वस्त्रमस्ति न च तथाविधो दातेति न दैन्यं गच्छेत् , न चान्यलाभसम्भावनया प्रमुदितमानसो भवेदिति सूत्रार्थः ।।१२।। इत्थं जीर्णादिवत्रतया अचेलं स्थविरकल्पिकमाश्रित्याचेलपरीषह उक्तः, सम्प्रति तमेव सामान्येनाह एगया अचेलए होइ, सचेले यावि एगया। एयं धम्महियं णच्चा, नाणी णो परिदेवए॥१३॥(सूत्रम्) व्याख्या-'एकदा' एकस्मिन् काले जिनकल्पप्रतिपत्तौ स्थविरकल्पेऽपि दुर्लभववादौ वा सर्वथा चेलाभावेन स १ रानी मशकैः खाद्यते, स तान् न प्रमार्जयति, सम्यक् सहते, रात्रौ पीतशोणितः कालगतः। एवमध्यासितव्यम् । दीप SAGARLSSC- 29589 अनुक्रम [६१] C ॥१२॥ JABERatinintamational wwwjandiarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~194 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१३|| ___ नियुक्ति: [९३] प्रत सूत्रांक ||१३|| ति वा चेले विना वर्षादिनिमित्तमप्रावरणेन जीर्णादिवस्त्रतया वा 'अचेलक' इति अवस्त्रोऽपि भवति, पठ्यते च अचेलए सयं होइ'त्ति तत्र खयम्-आत्मनैव न पराभियोगतः, 'सचेलः' सवस्त्रश्चाप्येकदा स्थविरकल्पिकत्वे तथा-14 विधालम्बनेनावरणे सति, यद्येवं ततः किमित्याह-एतदि'त्यवस्थौचित्सेन सचेलत्वमचेलत्वं च धर्मो-यतिधर्मः तस्मै हितम्-उपकारकं धर्महितं 'ज्ञात्वा' अबबुद्धय, तत्राचेलकत्वस्य धर्महितत्वमल्पप्रत्युपेक्षादिभिः, यथोक्तम्-"पंचहि ठाणेहिं पुरिमपच्छिमाणं अरहन्ताणं भगवंताणं अचेलए पसत्थे भवइ, तं जहा-अप्पा पडिलेहा१,। वेसासिए रूबे २, तवे अणुमए ३, लाघवे पसत्थे४, विउले इंदियनिग्गहे ५"त्ति, सचेलत्वस्य तु धर्मोपकारित्वमग्याप्रचारम्भनिवारकत्वेन संयमफलत्वात् , 'ज्ञानी' नमा एवं प्रायस्तियनारकाः तद्भवभयादेव च मया सन्त्यपि वासांस्यपा स्यन्त इत्येवं बोधवानो परिदेवयेत् , किमुक्तं भवति ?-अचेलः सन् किमिदानीं शीतादिपीडितस्य मम शरणमिति न | दैन्यमालम्बेत इति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ इह च केचिन्मिथ्यात्वाकुलितचेतस इदमित्थं महार्थकर्मप्रवादपूर्वोद्धृतहै प्रस्तुताध्ययनाधीतमपि सचेलत्वं तथा-सम्यक्त्वज्ञानशीलानि, तपश्चेतीह सिद्धये । तेषामुपग्रहार्थाय, स्मृतं चीव|रधारणम् ॥ १ ॥ जटी कूर्ची शिखी मुण्डी, चीवरी नग्न एव च । तप्यन्नपि तपः कष्ट, मौल्याद्धिस्रो न सिद्धयति ४. १ पञ्चभिः स्थानैः पूर्वपश्चिमयोरहतोभगवतोरचेलकत्वं प्रशस्तं भवति, तद्यथा--अरूपा प्रत्युपेक्षा १ वैश्वासिकं रूपं २ तपोऽनुमतं ३ लाघवं प्रशस्त ४ विपुल इन्द्रियनिग्रहः ५ दीप अनुक्रम [६२]] wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~195 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१३|| _ नियुक्ति: [९३] ध्ययनम् प्रत सूत्रांक ॥१३॥ ||१३|| उत्तराध्य. ॥२॥ सम्यगज्ञानी दयावांस्तु, ध्यानी यस्तप्यते तपः । नग्नश्चीवरधारी वा, स सिद्धयति महामुनिः॥ ३॥ इति परीषहाबृहदृत्तिः वाचकवचनानूदितं चानुचितमित्याहुः, तान् प्रति वक्तुमुपक्रम्यते-इह यो यदर्थी न स तन्निमित्तोपादानं प्रत्यनारतो, यथा घटार्थी मृत्पिण्डोपादानं प्रति, चारित्रार्थिनश्च यतयस्तन्निमित्तं च चीवरमिति, न चास्यासिद्धत्वं, तद्धि तस्य । तदनिमित्ततया स्यात् , सा च तत्रास्य वाधाविधायितयौदासीन्येन वा ?, न तावद्वाधाविधायितया, यतोऽसौ पचमप्रतविघातकत्वेन संसक्तिविषयतया कषायकारणत्वेन वा ?, यदि पञ्चमव्रतविघातकत्वेन, तदपि कुतः?, युक्तित इति चेत् , नन्वियं खतन्त्रा सिद्धान्ताधीना वा ?, यदि खतत्रा ततः सलोमा मण्डूकश्चतुष्पात्त्वे सत्युत्प्लुत्य गमनात्, ६ मृगवत् , अलोमा वा हरिणः, चतुष्पात्त्वे सत्युप्लुत्य गमनात्, मण्डूकवदित्यादिवन निर्मूलयुक्तेः साध्यसाधकहै| त्वम् , उक्तं हि-“यत्नेनानुमितोऽप्यर्थः, कुशलैरनुमातृभिः। अभियुक्ततरैरन्यैरन्यथैवोपपाद्यते ॥ १॥" सिद्धान्ता धीनयुक्तिस्तु तथाविधसिद्धान्ताभावादसम्भविनी, अथास्त्यसौ 'गामे वा नगरे वा अप्पं या बहुं वा जाव नो परिगिण्हेजा' इत्यादिः, तदनुगृहीता युक्तिश्च-यद्यत्परिग्रहखरूपं तत्तदुपादीयमानं पञ्चमत्रतविधाति, यथा धनधान्यादि, परिग्रहखरूपं च चीवरमिति, नन्वसिद्धोऽयं हेतुः, तथाहि-परिग्रहखरूपत्वमस्य किं मूर्छाहेतुत्वेन धारणादिमात्रेण या ?, यदि मूर्छाहेतुत्वेन, शरीरमपि मूर्छाया हेतुर्न वा ?, न तावदहेतुः, तस्वान्तरङ्गत्वेन दुर्लभतरतया दीप अनुक्रम [६२]] ॥ ९३॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~196~ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१३|| नियुक्ति: [९३] प्रत सूत्रांक 1 % ||१३|| च विशेषतस्तद्धेतुत्वाद्, उक्तं च-"अह कुणसि थुलवत्थाइएसु मुच्छ धुवं सरीरे ऽवि । अकेजदुलभतरे काहिसि मुच्छ विसेसेण ॥१॥" अथास्तु तन्निमित्तमेतत्, तर्हि चीवरवत्तस्यापि किं दुस्त्यजत्वेन मुक्त्यतया पान प्रथमत एवं परिहारः १, दुस्त्यजत्वेन चेत् तदपि किमशेषपुरुषाणामुत केषाश्चिदेव ?, न तावदशेषपुरुषाणां, रश्यन्ते हि बहवो वहिप्रवेशादिभिः शरीरं परित्यजन्तः, अथ केपाश्चित् , तदा वस्त्रमपि केषाञ्चित् दुस्त्यजमिति तदपि न परिहार्य, मुक्त्यङ्गतापक्षाश्रयणे च किंचीवरेणापराद्धम् ?, तस्यापि तथाविधशक्तिविकलानां शीतकालादिषु खाध्यायाधुपष्टम्भकत्वेन मुक्त्यङ्गत्वाद् , अभ्युपगम्य च मूर्छाहेतुत्वमुच्यते-न हि निगृहीतात्मनां क्वचिन्मूर्छाऽस्ति, तदुक्तम्-"सर्वत्थुवहिणा युद्धा, संरक्षणपरिग्गहे। अवि अप्पणोऽपि देहम्मि, णायरंति ममाइउं (यं)॥१॥" ति, नापि धारणादिमात्रेण, एवं हि शीतकालादौ प्रतिमाप्रतिपत्त्यादिषु केनचिद्भक्त्यादिनोपरि क्षिप्तस्यापि चीवरस्य परिग्रहताप्रसङ्गः, अथ तत्र स्वयंग्रहाभावाददोषः, तर्हि खयंग्रहः परिग्रहत्वे हेतुः, तथा च कुण्डिकायपि नोपादेयं, दृष्टेष्टविरोधि चेदम् , अथ तंत्र मूर्छाया अभावादपरिग्रहत्वम् , एवं सति संयमरक्षणायोपादीयमाने चीवरे तदभावात्तदस्तु, ___ १ अथ करोषि स्थूलवस्त्रादिषु मूर्छा भुवं शरीरेऽपि । अकेयदुर्लभतरे करिष्यसि मूळ विशेषेण ॥ १॥ २ मू हेतुः शरीरं ४३ सर्वत्रोपधिना बुद्धाः, संरक्षणपरिग्रहे । अपिचात्मनोऽपि देहे नाचरन्ति ममायितुम् (तम् ) ॥ १॥ % दीप अनुक्रम [६२]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~197 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१३|| _ नियुक्ति: [९३] प्रत सूत्रांक ||१३|| उत्तराध्य. उक्तं च-“पि यत् व पाय वा, कवल पायपुसणं । तंपि संजमलजट्टा, धरति परिहरंति य ॥११॥" । अथ संस-18 परीपहाबृहद्वृत्तिः ध्ययनम् तिविषयतया, यद्येवमाहारेऽपि सा किमस्ति नास्ति का?, न तायन्नास्ति, कृमिकण्डूपदाधुत्पातस्य तत्र प्रतिप्राणि | प्रतीतत्वात् , अथास्ति परं यतनया न दोषः, तदितरत्रापि तुल्यं । कपायकारणत्वेन चेत् , तत्किमात्मनः परेषां | ॥९४॥ वा?, यद्यात्मनस्तदा श्रुतमपि केषाञ्चिदहङ्कारहेतुत्वेन कपायकारणमिति तदपि नोपादेयं स्यात् , अथ विवे किनार न तदहतिहेतुः, "प्रथमं ज्ञानं ततो दये"ति नीतितो धर्मोपकारि चेति तदुपादानं, चीवरेऽपि समानमेतत् , अथ चीवरख धर्मानुपकारित्वादतुल्यता, ननु कुत एतदवसितं, किमचीवरास्तीर्थकृत इति श्रुतेरुत जिनकल्पाकर्ण-14 सनात् 'जिताचेलपरीपहो मुनि' रिति वचनतो वा?, न तावदायो विकल्पः, सूत्रे हि तीर्थकृतामचीवरत्वं कदाचि-|| तत्सर्वदा वा ?, कदाचिचेको वा किमाह , कदाचिदस्माकमप्यस्याभिमतत्वात् , अथ सर्वदा, तन्न, 'सवेऽवि एगदू सेण निग्गया जिणवरा उ चउवीस' मिति वचनात् , अथ तत्र 'एगदोसेणं' तिपाठः, सर्वेऽपि संसारदोषण एकेन । निगेता इतिकृत्वा, नन्वेवमनवस्था, सर्वत्र सर्वैरपि खेच्छारचितपाठानां सुकरत्वात् , किं च-तीर्थकृतामचीवरत्वे | तेषामेव तद्धर्मोपकारीति निश्चयोऽस्तु, नापरेषां, न हि यदेव तेषां धर्मोपकारि तदेवेतरेषामपि, अन्यथा यथा न ९४ ॥ बा १ यदपि वस्त्रं वा पात्रं वा, कम्बलं पादप्रोच्छनम् । तदपि संयमलज्जार्थ, धारयन्ति परिभुजन्ति च ॥१॥ २ सर्वेऽन्येकदूप्येण निर्गता| जिनवरास्तु चतुर्विंशतिः। दीप अनुक्रम [६२]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~198~ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१३|| ___ नियुक्ति: [९३] प्रत सूत्रांक ||१३|| ते परोपदेशतः प्रवर्त्तन्ते यथा च छद्मस्थावस्थायां परोपदेशं दीक्षां वा न प्रयच्छन्ति, तथाऽन्यैरपि विधेयमिति मूलदच्छेद एव तीर्थस्य, उक्तं च-"न परोवएसविसया ण य छउमत्था परोवएसपि । देति न य सिस्सवग्गं दिक्खंति जि णा जहा सचे॥१॥ तह सेसेहि य सव्वं कर्ज जइ तेहिं सवसाहम्मं । एवं च को तित्थं ?ण चेदचेलत्ति को गाहो', ॥२॥" अथ जिनकल्पाकर्णनात् , तत्र हि न किञ्चिदुपकरणमिति चीवरस्याप्यभावः, तथा च न तस्य धदोपकारिता, ननु जिनकल्पिकानामुपकरणाभावः प्रवादतः आगमतो वा?, न तावदाद्यपक्षो, न हि वसति किलात्र वटवृक्षे रक्ष इत्यादिनिर्मूलप्रपादानां प्रमाणता, नाप्यागमतः, तेषामपि तत्र शक्त्यपेक्षयोपकरणप्रतिपादनात् , तदुक्तम्-"जिणप्पियादओ पुण सोबहओ सबकालमेगंतो। उवगरणमाणमेसिं पुरिसावेक्खाएँ बहुभेयं ॥१॥" अथवा अस्तु जिनकल्पिकानामुपकरणाभावः, तथापि धृतिशक्तिसंहननश्रुतातिशययुक्तानामेव तत्रतिपत्तिः अथ रथ्यापुरुदोषाणामपि ', यद्याधो विकल्पस्तत्किमेवंविधाः सम्प्रत्यपि सन्ति न वा ?, सन्ति चेदुपलब्धिलक्षणप्राप्सा उपलभ्ये रन् , अनुपलब्धिलक्षणप्राप्ताश्च कुतः सत्त्वेन निश्चीयन्ते ?, अथ न सन्ति, तादृशामेव जिनकल्पप्रतिपत्तिः, तहि || | १ न परोपदेशविषया न प छन्दास्थाः परोपवेशमपि । ददति न च शिष्यवर्ग दीक्षयन्ति जिना यथा सर्वे ।।१।। तथा शेषरपि सर्व कार्य दायदि तैः सर्वसाधर्म्यम् । एवं च कुतस्तीर्थ ? न चेदचेला इति क आग्रहः । ॥१॥ २ जिनकल्पिकादयः पुनः सोपधयः सर्वकालमेका तः । उपकरणमानमेतेषां पुरुषापेक्षया बहुभेदम् ॥१॥ दीप अनुक्रम [६२]] CAT पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~199~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||23|| दीप अनुक्रम [६२] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ।। ९५ ।। [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं+निर्युक्ति:+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||१३|| निर्युक्ति: [९३] अध्ययनं [२], वृथैव "मर्णपरमोहिपुलाए आहारग खवग उसमे कप्पे । संजमतिय केवलि सिज्झणा य जंबुम्मि वोच्छिन्ना ॥ १ ॥” इत्यासवचनानाश्रयणं, यदि तु रथ्यापुरुषाणामपीति कल्प्यते, तिरश्चामपि तत्कल्पनाऽस्तु, अथ देशविरतिभाज एव त इति न तेषां तत्प्रतिपत्तिः, तर्हि सर्वविरतिस्तत्कारणं, तथा च तद्वता एकेन यत्कृतं तत्किमखिलैरपि तद्वद्भिराच| रणीयमथ तथाविधशक्तियुक्तैरेव ?, यद्याद्यो विकल्पस्तदैकस्मिन् मासपण्मासादिकं तपञ्चरत्यन्यैरपि तचरणीयं स्याद्, | अथ द्वितीयः पक्षस्तर्हि जिनकल्पोऽपि तथाविधशक्तियुक्तैरेव प्रतिपत्तव्यः, अथ तथाविधशक्तिविकलानां तत्तपश्चरतां बहुतरदोषसम्भव इति न तचरणं, तदिहापि तुल्यं, तथाहि —सम्भवत्येवेदानीन्तनयतीनां तथाविधशक्तिसंहननचिकलतया हिमकणानुषक्तशीतादिषु बहुत र दोषहेतु कमभ्यारम्भादिकं तथा तथाविधाच्छादनाभावतः शीतादिखेदितानां शुभध्यानाभावेन सम्यक्त्वादिविचलनम् उक्तं च वाचकैः - "शीतवातातपैर्देशैर्मश कैश्चापि खेदितः । मा सम्यक्त्वादिषु ध्यानं, न सम्यक् संविधास्यति ॥ १ ॥" यच 'जिताचेलपरीपहो मुनि' रिति वचनतो न चीवरं ध मंपिकारीति, तत्र जिताचेलपरीषहत्वं चेलाभावेनैवाहोश्चिदेषणाशुद्धतत्परिभोगेनापि १, यदि चेलाभावेनैव ततः क्षुत्परीषह जयनमप्याहाराभावेनैवेति व्रतग्रहणकाल एवानशनमायातम्, एतच भवतोऽपि नाभिमतं, ततः परिशुद्धोपभोगितया जिताचेलपरीषहत्वमिति द्वितीय एव पक्षः, स चास्मत्पथवत्त्यैवेति न कुतोऽपि चीवरस्य धर्मानु१ मनः (पर्यायः) परमावधिः पुलाक आहारकः क्षपक उपशमकः (जिन) कल्पः । संयमत्रिकं केवलित्वं सिद्धिय जम्बो व्युच्छिशाः॥१॥ Education intol For Fans Only परीपहाध्ययनम् २ ~200~ ॥ ९५ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||23|| दीप अनुक्रम [६२] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं निर्युक्तिः+वृत्तिः) निर्युक्तिः [९३] अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१३|| उपकारित्वनिश्चयः, अथ परेषां कपायकारणत्वेन चारित्रबाधकत्वं चीवरस्य, तर्हि धर्मादयोऽपि कस्यचित् कषायकारणं न वा ?, न तावन्न, तेऽपि कस्यचित्कषायहेतव इति चीबरवत्तेऽपि हातव्याः, आह च-"अंत्थि य किं किंचिजए जस्स व कस्स व कसायबीजं तं । वत्युं ण होज ? एवं धम्मोऽवि तुमे ण घेतो ॥ १ ॥ जेण कसायणिमित्तं जिणोऽवि गोसालसंगमाईणं । धम्मो धम्मपरावि य पडिणीयागं जिणमयं च ॥ २॥ अथैषां मुक्त्यङ्गतया कपायहेतुत्वेऽपि न हेयता, तदिहापि समानम् उक्तं च वाचकसिद्धसेनेन - "मोक्षाय धर्मसिद्धयर्थं शरीरं धार्यते यथा । शरीरधारणार्थ च, भैक्षग्रहणमिष्यते ॥ १ ॥ तथैवोपग्रहार्थाय पात्रं चीवरमिष्यते । जिनैरुपग्रहः साधोरिष्यते न * परिग्रहः ॥ २ ॥ " इत्यादि । औदासीन्येनापि न चीवरस्य चारित्रं प्रत्यनिमित्तता, तस्य तदुपकारित्वात् यच यत्रोपकारि न तत्तस्मिन्नुदासीनं यथा तन्त्वादयः पटे, चारित्रोपकारि च चीवरं, तथाहि-संयमात्मकं चारित्रं, न च तस्य तत्परिहारेण शुद्धिरस्ति, आगमश्च - "किं सअमोवयारं करेइ वत्थाह जह मई सुणसु। सीयत्ताणं ताणं जलणतणग १ अस्ति च किं किञ्चित् जगति यस्य वा कस्य वा कषायवीजं तत् । वस्तु न भवेत् ? एवं धर्मोऽपि त्वया न प्रहीतव्यः ॥ १ ॥ येन कषायनिमित्तं जिनोऽपि गोशालसंगमकादीनाम् । धर्मो धर्मपरा अपिच प्रत्यनीकानां जिनमतं च ||२|| २ किं संयमोपकारं करोति वस्त्रादि यदि मतिः शृणु । शीतत्राणं त्राणं ज्वलनतृणगतानां सवानाम् ॥ १॥ तथा निशि चतुष्कालं स्वाध्यायभ्यानसाधनसृषीणाम् । हिममहिकावर्षाऽवश्यायरजआदिरक्षानिमित्तं तु ॥ २ ॥ Education intol Forest Use Only www.ncbrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~ 201~ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१३|| नियुक्ति: [९४-९७] प्रत सूत्रांक ||१३|| उत्तराध्य. याण सत्ताणं ॥१॥ तह निसि चाउकालं सज्झायज्झाणसाहणमिसीणं । हिममहियावासोसारयाइरक्खाणिमित्तं | परीपहा तु ॥२॥" इत्यतः स्थितमेतत्-चारित्रनिमित्तं चीवरमिति नासिद्धता हेतोः, विरुद्धत्वानकान्तिकत्वे तूक्तानुसारतः ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः " परिहत्तेव्ये । ततश्च 'निग्रन्थानामगलज्ञानयुतैस्तीर्थकृद्विरुक्तानि। सम्यगनतानि यस्मान्नग्रन्थ्यमतः प्रशंसन्ति ॥१॥ रागाद्यपचयहेतुं नैर्ग्रन्ध्यं खप्रवृत्तितस्तेषाम् । तदृद्धिरतोऽवश्यं वखादिपरिग्रहयुतानाम् ॥२॥' इत्यादि दुर्मतिपरिस्प-18 टन्दितमपकर्णनीयम् ॥ सम्प्रति 'महलेत्तिद्वारं, तत्र च 'एयं धम्महियं न.' त्यादिसूत्रसचितं दृष्टान्तमाह वीयभय देवदत्ता गंधारं सावयं पडियरित्ता । लहइ सयं गुलियाणं पज्जोएण णी(णाणि)ओजेणिं॥९॥ दहण चेडिमरणं पभावई पवइत्तु कालगया । पुक्खरकरणं गहणं दसउरपजोयमुयणं च ॥ ९५॥ माया य रुदसोमा पिया य नामेण सोमदेवत्ति ।भाया य फग्गुरक्खिय तोसलिपुत्ता य आयरिया ॥९६|| सिंहगिरि भद्दगुत्ते वयरक्खमणा पढित्तु पुवगयं । पवाविओ य भाया रक्खियखमणेहि जनओ य॥१७॥ | व्याख्या-वीतभये देवदत्ता गन्धारं श्रावकं प्रतिजागर्य लभते शतं गुलिकानां प्रद्योतेनानीतोजयिनी, दृष्ट्वा | चेटीमरणं प्रभावती प्राज्य कालगता पुष्करकरणं ग्रहणं दशपुरप्रद्योतमोचनं च, माता च रुद्रसोमा पिता च नाना दीप अनुक्रम [६२]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~202 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१३|| नियुक्ति: [९४-९७] 4 - 0 6 0- प्रत -- सूत्रांक - ||१३|| - - सोमदेव इति भ्राता च फल्गुरक्षितः तोसलिपुत्राश्चाचार्याः सिंहगिरिभद्रगुप्ताभ्यां च वज्रक्षमणात्पठित्वा पूर्वगतं प्रत्राजितश्च भ्राता रक्षितक्षमणैर्जनकश्चेति गाथाचतुष्टयाक्षरार्थः ॥९४-९५-९६-९७ ॥ भावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदाया18दवसेयः, स चायम्-जीवसामिपडिमायत्तवयं दसपुरुष्पत्तिं च माणिऊणं ताव भाणियचं जाव अजवयरसामिणो स यासे णव पुवाणि दसमस्स य पुवस्स किंचि अहिजिऊण अज्जरकृखिया दसपुरमेव गया, तत्थ सबो सयणवग्गो पचापितो-माया भाया भगिणी,जो सो तस्स खंतो सोऽवि तेसिं अणुरागेणं तेहिं चेव सम्मं अच्छद, णो पुण लिंगंग |गण्हइ लजाए, किह समणतो पवइस्सं १, इत्थं मम धूयातो सुण्हातो णतुगीतो, तार्सि पुरतो ण तरामि णग्यो अच्छिउँ, एवं सो तत्थ अच्छइ, बहुसो आयरिया भणंति, ताहे सो भणति-जह मम जुवलएणं कुंडियाए छत्तेणं उवणाहि जन्नोबइएण य समं पधावेह तो पघयामि,पचइतो सो पुण चरणकरणसज्झायं अणुयत्तेहि गिहाविय १ जीवत्स्वामिप्रतिमावक्तव्यतां दशपुरोत्पत्ति च भणित्वा तावद्भणितव्यं यावदार्यवस्वामिनः सकाशे नव पूर्वाणि दशमस्य च पूर्वस्य | | किञ्चिदधीत्यार्यरक्षिता दशपुरमेव गताः, तत्र सर्वः खजनवर्ग:प्रवाजित:--माता भ्राता भगिनी, यः स तेषां पिता सोऽपि तेषामनुरागेण|| | तत्रव सम्यक् तिष्ठति, न पुनर्लिङ्गं गृहाति लजया, कथं श्रमणकः प्रब्रजिष्यागि, अत्र मम दुहितर: स्नुषा नतारः, तास पुरतो न शकोमि| नम्नः स्थातुम् , एवं स तत्र तिष्ठति,बहुश आचार्या भणन्ति, तदा स भणति-यदि मां युगलकेन कुण्डिकया छत्रेण उपानद्यां यज्ञोपवीवेन । |प समं प्रत्राजयत तदा प्रजामि, प्रबजितः स पुनश्चरणकरणस्वाध्यायमनुवर्तयद्धिप्राहयितव्यः, --- % दीप अनुक्रम [६२]] % - E wwwjaindiarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~203 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||23|| दीप अनुक्रम [६२] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ९७ ॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||१३|| निर्युक्ति: [९४-९७] अध्ययनं [२], वो, ताहे ते भणति -अच्छह तुम्भे कडिपट्टएणं, सोऽवि थेरो भणइ छत्तणं विणा ण तरामि अच्छिउं छत्तर्यपि, करगेण विणा दुक्खं उच्चारपासवर्ण वोसिरिउ, बंभसुत्तगंपि अच्छउत्ति, अवसेसं सवं परिहरइ । अन्नया य चेहयाई वंदिउं गया, आयरिया वेडगरुवाणि गाहंति, भणह-सवे वंदामो एवं छत्तइलं मोतुं, एवं भणितो, ताहे सो जाणति - इमे मम पुत्ता सुया य वन्दिजंति, अहं कीस न वंदिज्जामि १, ताहे भणति - किमहं अपवइओत्ति ?, ताणि भांति किं पचइयगाणोवाणह करगबंभसुत्तछत्तगाणि भवंति ?, ताहे सो जाणति एयाणिवि ममं पडिचोएंति, ता छड्डेमि, ताहे पुत्तं भणति अलाहि पुत्तगा! छत्तेणं, ताहे ते भांति अलाहि, जाहे उन्हं होहिति ताहे कप्पो उबरिं करेहत्ति, एवं ताणि मोतुं करइलं, तत्थ से पुत्तो भणति मत्तणं चैव सन्नाभूमिं गम्मद, एवं जन्नोवइयं च मुयह, १ तदा ते भगन्ति तिष्ठत यूयं कटीपट्टकेन, सोऽपि स्थविरो भणति-छत्रेण विना न शक्नोमि स्थातुं, छत्रमपि करकेण विना दु:खमुच्चारप्रभवणं व्युत्त्रष्टुं ब्रह्मसूत्रमपि तिष्ठत्विति, अवशेषं सर्व परिहरति । अन्यदा च चैत्यानि वन्दितुं गताः, आचार्याश्चेट (डिम्भ) रूपाणि ग्राहयन्ति, भणत- सर्वान् बन्दामहे एकं छत्रिणं मुक्त्वा, एवं भणितस्तदा स जानाति इमे मम पुत्रा नप्तारश्च वन्यन्ते, अहं कथं न बन्धे १, तदा भणति किमहमप्रब्रजित इति ?, तानि भणन्ति किं प्रत्रजितानामुपानत्करकजह्मसूत्रण्त्राणि भवन्ति ?, तदा स जानाति एतान्यपि मां प्रतिचोदयन्ति तत् यजामि, तदा पुत्रं भणति - अछे पुत्र ! छत्रेण तदा ते भणन्ति अलं, यदोष्णं भविष्यति तदा कल्पं उपरि कुर्या इति, एवं तानि मुक्त्वा करकवन्तं तत्र तस्य पुत्रो भणति मात्रकेणैव संज्ञाभूमिः गम्यते, एवं यज्ञोपवीतं च मुञ्चति, Education intol For any परीषहा ध्ययनम् २ ~204~ ॥ ९७ ॥ www.janbay.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१३|| नियुक्ति: [९४-९७] प्रत सूत्रांक ||१३|| ताहे आयरिया भणंति-को चा अम्हे न जाणइ जहा बंभणा, एवं ताणि तेण मुक्काणि, पच्छा ताणि पुणो भणंतिसचे चंदामो मोत्तूण कडिपट्टइलं, ताहे सो रुटो भणति-सह अज्जयपज्जएहिं मा बन्दह, अन्ने बंदिहति ममं, एवं कडिपट्टयं न छडेमि, तत्थ य साहू भत्तपच्चक्खायतो, ताहे तस्स निमित्तं कडिपट्टबोसिरणठ्याए आयरिया भणंति -एयं महाफलं हवइ जो साधु वहइ, तत्थ य पढमपबइया सन्निया-तुमे भणिजह-अम्हे एवं वहामो, एवं ते उब ट्टिया, तत्थ य आयरिया भणंति-अम्हं सयणवग्गो मा णिज्जरं पावउ ?, भो तुम्भे चेव सवे भणह अम्हे चेव वहामो, हताहे सो थेरो भणति-किं पुत्ता! एत्थ बहुतरया णिज्जरा, आयरिया भणंति-बाद, किं एत्य भणियचं ?, ताहे आसो भणति-तो खाइ अहंपि वहामि, आयरिया भणंति-एत्थ उवसग्गा उप्पजंति, चेडरूवाणि लग्गति, १ तदा आचार्या भणन्ति-को बाऽस्मान् न जानाति यथा ब्राह्मणाः, एवं तानि तेन मुक्कानि, पश्चात्तानि पुनर्भणन्ति-सर्वान् वन्दामहे | मुक्त्वा कटीपट्टकवन्तं, तक्षा स रुष्टो भणति-सह आर्यकार्यकैः (पितृपितामहै:) मा वन्दिध्वम् , अन्ये वन्दिष्यन्ते मह्यम् , एतं कटीपट्टकं न छर्दयामि, तन्त्र च साधुः प्रत्याख्यातभक्तः, तदा तन्निमित्तं कटीपट्टकव्युत्सर्जनार्थाय आचार्या भणन्ति-एतत् महाफलं भवति यस्साधुं वहति, तत्र च प्रथमप्रबजिताः संज्ञिताः (संकेतिताः)-यूयं भणेत-वयं वहाम एनम् , एवं ते उपस्थिताः, तत्र चाचार्या भणन्ति-अस्माकं खजन-1 वर्गो मा निर्जरां प्रापत् ततो यूयं सर्वे भणथ-वयमेव वहामः, तदा स स्थविरो भणति-किं पुत्र ! अत्र बहुतरा निर्जरा, आचार्या भणन्ति-बाद, किमत्र भणितव्यं , तदा स भणति-तत् कथयामपि वहामि, आचार्या भणन्ति-अत्रोपसर्गा उत्पद्यन्ते, चेटरूपाणि लगन्ति दीप अनुक्रम [६२]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~205 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१३|| नियुक्ति: [९४-९७] * * उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥९८॥ * प्रत सूत्रांक ||१३|| % % यदि तरसि अहियासिउँ वहाहि,अह णाहियासेसि ताहे अम्हं न सुंदरं भवति, एवं सो थिरो कओ, जाहे सो उक्खित्तो परीषडासाहू मग्गओ वचइ, पच्छओ संजईओ ठिआतो, ताहे खुड्डगा भणिआ-एताहे कडिपट्टयं मुयह, ताहे सो मुत्तुमारद्धो, ध्ययनम् ताहे अन्नेहिं भणिओ-मा मोचिहि,तत्थ से अन्नेण कडिपट्टओ पुरओ काऊण दोरेण बद्धो,ताहे सो लजिओ तं वहइ, मग्गओ मम पिच्छंति सुण्हाओ अ, एवं तेणवि उपसग्गो उडिओत्तिकाऊण चूर्ट, पच्छा आगतो तहेब, ताहे आयरिया भणति-किं अज खंता! इमं, ताहे सो भणइ-सोएस अब्ज पुत्त ! उवसग्गो उवडिओ, आणेह साडयं, ताहे भणइ |-किं व साडएणंति ?, जं दट्ठवं तं दिटुं, चोलपट्टओ चेव मे भवउ, एवं ता सो चोलपटुंपि गिहाविओ। तेण पुर्व अचेलपरीसहो नाहियासितो पच्छाऽहियासिओत्ति ॥ अचेलस्य चाप्रतिबद्धविहारिणः शीतादिभिरभिभूयमानत्वेनारतिरप्युत्पद्येतातस्तत्परीपहमाह १ यदि शतोष्यधिसोढुं वह, अथ नाघिसहसे तदाऽस्माकं न सुन्दरं भवति, एवं स स्थिरः कृतः, यदा स उरिक्षप्तः साधुर्मार्गतः प्रजाति, पश्चात् संवत्यः स्थिताः,तवा क्षुलका भणिताः-अधुना कटीपट्टकं मुञ्चत, तदा स मोक्तुमारब्धः, तदाऽन्यैर्भणित:-मा मुचः, तत्र तस्यान्येन कटी-1 पट्टकः पुरतः कृत्वा दवरकेण बद्धः तदा स लत्रिततं वहति, पृष्ठतो मम पश्यन्ति स्नुषाश्च,एवं वेनापि उपसर्ग उस्थित इतिकत्वा व्यूह, पश्चादाग-14॥१८॥ तस्तथैव, तदाऽऽचार्या भणन्ति-किमद्य पितरिदम् , तदा स भणति-स एषोऽद्य पुत्र ! उपसर्ग उत्थितः, आनयत शाटक, तदा भणति-कि का शाटकेनेति, यइष्टव्यं तदृष्ट,चोलपट्टक एव में भवतु,एवं तावत्स चोलपट्टकमपि माहितः। तेन पूर्वमचेलपरीषहो नाध्यासितः, पश्चाध्यासितः ।। * दीप अनुक्रम [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~206~ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१४|| नियुक्ति: [९४-९७] प्रत सूत्रांक ||१४|| गामाणुगामं रीयंतं, अणगारमकिंचणं । अरई अणुप्पविसे, तं तितिक्खे परीसहं ॥१४॥ (सूत्रम्) व्याख्या-प्रसते बुद्धादीन् गुणान् इति ग्रामः स च जिगमिषितः अनुग्रामश्च-तन्मार्गानुकूलः अननुकूलगमने । प्रयोजनाभावाद् प्रामानुग्रामं, यद्वा ग्रामश्च महान् अणुग्रामश्च स एव लघुामाणुग्रामम् , अथवा-ग्राममिति रूढिशब्दत्वादेकस्मादामादन्यो ग्रामः ततोऽपि चान्यो ग्रामानुग्राममुच्यते, नगरोपलक्षणमेतत् , ततो नगरादींश्च, किमि-ल त्याह-रीयंत ति तिब्यत्ययाद्रीयमाणं-विहरन्तम् 'अनगारम्' उक्तस्वरूपम् 'अकिञ्चनं' नास्य किञ्चन प्रतिबन्धा स्पदं धनकनकावस्तीत्यकिञ्चनो-निष्परिग्रहः, तथाभूतम् 'अरतिः' उक्तरूपा 'अनुप्रपिशेत्' मनसि लब्धास्पदा द् भवेत् , 'त'मित्यरतिस्वरूपं तितिक्षेत' सहेत परीषह मिति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ तत्सहनोपायमेवाह-- अरई पिटुओ किच्चा,विरओ आयरक्खिए। धम्मारामे निरारंभे,उवसंते मुणी चरे ॥१५॥ (सूत्रम्) व्याख्या-'अरति' संयमविषयां मोहनीयकर्मप्रकृतिरूपां पृष्ठतः कृत्वा कोऽर्थः १-धर्मविघ्नहेतुरियमितिमत्या तिरस्कृत्य, किमित्याह-'विरतः' हिंसादिभ्य उपरतः, आत्मा रक्षितः दुर्गतिहेतोरपध्यानादेरनेनेत्यात्मरक्षितः, 18 आहिताम्यादिषु दर्शनात् क्तान्तस्य परनिपातः, आयो वा-जानादिलामो रक्षितोऽनेनेत्यायरक्षितः, धर्म-श्रुतध-3] दौ आङित्यभिव्याप्त्या रमते-रतिमान् भवतीति धर्मारामः, वद्वा-धर्म एव सततमानन्दहेतुतया प्रतिपाल्यतया दीप अनुक्रम [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~207~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१५|| नियुक्ति: [९८-९९] प्रत सूत्रांक उत्तराध्य. वा आरामो धर्मारामस्तत्र, स्थित इति गम्यते, निर्गत आरम्भाद्-असत्क्रियाप्रवर्तनलक्षणात् निरारम्भः 'उपशान्तःपरीषहाक्रोधाद्युपशमात् 'मुनिः' सर्वविरतिप्रतिज्ञाता चरेत्, 'पंलिओचमं झिजइ सागरोवमं, किमंग पुण मन्झ इम | ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः मणोदुई ति विचिन्तयन्संयमाध्यनि यायात्, न पुनरुत्पन्नारतिरपि अवधावनानुप्रेक्षी भवेद् । इह च विरतादि-ट्रि ॥ ९९ ॥ विशेषणानि अरतितिरस्करणफलतया, यद्वा यत एव विरतोऽत एवात्मरक्षित इत्यादिहेतुफलतया नेयानीति सूत्रार्थः ४॥ १५ ॥ इदानीं तापसद्वारमनुस्मरन् 'अरई अणुप्पवेसे' इत्यादिसूत्रसूचितमुदाहरणमाह। अयलपुरे जुवराया सीसो राहस्स नगरीमुजेणिं । अज्जा राहखमणा पुरोहिए रायपुत्तो य ॥ ९८॥ कोसंबीए सिट्ठी आसी नामेण तावसो तहियं । मरिऊण सूयरोरग जाओ पुत्तस्स पुत्तोत्ति ॥ ९९ ॥ ___ व्याख्या-अचलपुरे युवराजः शिष्यो राधस्य नगरीमुज्जयिनीम् आर्या राधक्षमणाः पुरोहितो राजपुत्रश्च कौशाम्ब्यां |श्रेष्ठी आसीन्नाम्ना तापसः तत्र मृत्वा 'सूयरोरगो' चि सुपो लोपः शूकर उरगो जातः पुत्रस्य पुत्र इति गाथाद्वया ॥९९॥ क्षरार्थः ॥ ९८-९९॥ एतदर्थस्तु सम्प्रदायादवसेयः, स चायम्१ पल्योपमं क्षीयते सागरोपमं किमङ्ग पुनर्ममेदं मनोदुःखमिति । *-*-5255**625*** ||१५|| दीप अनुक्रम [६४] wwwjandiarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~208~ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं २], मूलं [१] / गाथा ||१५|| नियुक्ति: [९८-९९] प्रत सूत्रांक ||१५|| | अचलपुरं नाम पतिवाणं, तत्थ जियसत्तू राया, तस्स पुत्तो जुवराया, सो राहायरियाण अंतिए पञ्चइओ। सोय अन्नया विहरंतो गतो तगरं नगरिं, तस्स य राहायरियस्स सझंतेवासी अजराहखमणा णाम उजेणीए विहरंति, दतओ आगया साहुणो तगरं, गयाराहसमीवं, ते पुच्छिया-निरुवसग्गति, भणंति-रायपुत्तो पुरोहियपुत्तो य पाहिति,* है तस्स जुवरायपवतियगस्स सो रायपुत्तो भत्तिजतो, मा संसारं भमिहितित्ति आपुच्छिऊण आयरिए गओ उजेणिं, भिक्खवेलाए उग्गाहेऊण पडितो, आयरिएहिं भणिओ-अच्छाहि, सो भणइ-न अच्छामि. नवरं दाएह तं पडणीय-12 घरं, चेलगो भणिओ-वच दाएहि, तेण दाइयं, सो तत्थ गतो, वीसत्यो पविठ्ठो, तत्थ ते दोऽवि अच्छंति, ते तं पिच्छिऊण उठ्ठिया, तेणयि महया सद्देणं धम्मलाभियं, ते भणंति-अहो! लटुं पचायगो अम्हंतेण गतो, वंदामोत्ति, १ अचलपुरं नाम प्रतिष्ठान, तत्र जितशत्रू राजा, तस्य पुत्री युवराजः, स राधाचार्याणामन्तिके प्रबजितः । स चान्यदा बिहरन गतसागरां नगरी, तस्य च राधाचार्यस्य सद्योऽन्तेवासिनः आर्यराधक्षमणा नामोज्जयिन्यां विहरन्ति तत आगताः साधवस्तगरां,गता राघसमीपं, ते पृष्टा निरुपसर्गमिति, भणन्ति-राजपुत्रः पुरोहितपुत्रश्च बाधेते, तस्य युवराजपत्रजितस्य स राजपुत्रो भातृव्यः, मा संसार भ्रमीदित्यापृच्छयाचार्यान् गव उज्जयिनी, भिक्षावेलायामुद्राय प्रस्थितः, आचार्य णित:-तिष्ठ, स भणति-न तिष्ठामि, परं दर्शयत्त तदू प्रत्यनी कगृहं, क्षुल्लको भणित:-प्रज दर्शय, तेन दर्शितं, स तत्र गतः, विश्वस्तः प्रविष्टः, तत्र तौ द्वाबपि तिष्ठतः, तौ तं प्रेक्ष्योत्थिती, तेनापि || महता शब्देन धर्मलामितं, सौ भणतः-अहो लष्टं प्रप्रजितोऽस्माकं मार्गेणागतः, वन्दावह इति, दीप अनुक्रम [६४] % % % JAREutarunintamatumad Foto wwwjanmitrary.org पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३], मलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मुलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~209 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१५|| नियुक्ति: [९८-९९] प्रत सूत्रांक ||१५|| उत्तराध्या भणति ते-आयरिया ! सुन्भे गाइउं जाणह ?,तेण भणियं-आमं जाणामो, तुम्भे वाएह,ते आढत्ता, जाय ण जाणंति, परीषहा दातेण भण्णइ-एरिसगा चेव तुम्भे कोलियगा, ण किंचि जाणह, ते रुट्टा उद्धाइया, तेण घेत्तुं तेसिं णिजद्धं जाणत- ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः एण सबे संधी खोइया, पढम ताव पिट्टिया, ते हम्मंता राडि करेंति, परियणो जाणइ-सो एस पबइओ हम्मतोला ॥१०॥ राडि करेइ, सोऽवि गतो, पच्छा तेहिं दिवा, णवि जीवंति, णवि मरति, णवरं णिरिकुखंति एकेक दिट्टीए, पच्छा रण्णो सिटुं पुरोहियस्स य-जहा कोऽवि पवइयगो,तेण दोऽवि जणा संखलेतूण मुक्का, पच्छा राया सबबलेणागतो प-11 बइगाण भूले, सोऽवि साहू एकपासे अच्छा परियटुंतो, राया आयरियाणं पाए पडिओ, पसायमावजह, आयरिओ मणइ-अहं न याणामि, महाराय ! इत्य एगो साहू पाहुणो, जइ परं तेण होजा, राया तस्स मूलमागतो, पचभि १ भणतस्ती-आचार्या ! यूयं गातुं जानीथ, तेन भणितम्-ओम् जानीमः, युवा वादयतं, तावाटतो, यावन्न जानीतः, तेन भण्येतेएतादृशावेव युवां कोलिकी, न किश्चिजानीयः, तौ रुष्टौ उद्धावितो, तेन गृहीत्वा तयोः नियुद्धं जानता सर्वे सन्धयो विसंयोजिताः, प्रथमं तावत्पिट्टितौ, तौ हन्यमानौ राटी कुरुतः, परिजनो जानाति स एष प्रबजितो हन्यमानो राटी करोति, सोऽपि गतः, पञ्चात्तैदृष्टी, नैव जीवतो नैव नियेते, पर निरीक्षेते एकैकं दृष्ट्या, पश्चाद् राजे शिष्टं पुरोहिताय च-यथा कोऽपि प्रबजितः, तेन द्वावपि जनौ विश्व- ॥१०॥ हलय्य मुक्ती, पश्चाद् राजा सर्वबलेनागतः प्रत्रजितानां मूले, सोऽपि साधुरेकपाचे तिष्ठति परावर्त्तमानः, राजा आचार्याणां पादयोः पतितः, प्रसादमापयध्वं, आचार्यों भणति-अहं न जानामि, महाराज! अत्रैकः साधुः प्राधूणकः, यदि परं तेन भवेत् , राजा तस्म मूलमागतः, प्रत्यभि दीप अनुक्रम [६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~210~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं २], मूलं [१] / गाथा ||१५|| नियुक्ति: [९८-९९] प्रत सूत्रांक ||१५|| नाओ य, ततो तेण साहुणा भणितो-धिरत्थु ते रायत्तणस्स, जो तुम अपणो पुत्तभंडाणवि निग्गहं न करेसि, पच्छा राया भणइ-पसायं करेह, भणइ-जइ परं पचयंति तो णं मोक्खो, अन्नहा नत्थि, राइणा पुरोहिएण य भण्णइ-एवं होउ, पत्यंतु, पुच्छिा भणंति-पबयामो, पुवं लोओ कतो, पच्छा मुक्का, पवइया । सो य रायपुत्तो निस्संकिओ चेव धम्मं करेइ, पुरोहियपुत्तस्स पुण जाइमओ, अम्हे महाए पवाविया, एवं ते दोऽवि कालं ४ काऊण देवलोगेसु उववना । इओ य कोसंबीए नयरीए तावसो णाम सेट्ठी, सो मरिऊण नियघरे सूयरो जाओ, जातिस्सरो, ततो तस्स चेव दिवसगे पुत्तेहिं मारितो, पच्छा तर्हि चेष घरे उरगो जाओ, तहिपि जाइस्सरो जातो, तत्थवि अंतो घरे मा खाहितित्ति मारितो, पच्छा पुणोऽवि पुत्तस्स पुत्तो जातो, तत्थवि जाई सरमाणो चिंतेइ १-ज्ञातव, ततस्तेन साधुना भणित:-धिगस्तु तब राजत्वं, यस्त्वमात्मनः पुत्रभाण्डानामपि निग्रहं न करोषि, पश्चाद् राजा भणति-प्रसादं | कुरु, भणति-यदि परं प्रव्रजतः तदाऽनयोमोक्षः, अन्यथा नास्ति, राज्ञा पुरोहितेन च भण्यते--- एवं भवतु, प्रव्रजतां, पृष्टौ भणतः-प्रबजावः, | पूर्व लोचः कृतः, पश्चान्मुक्ती, प्रत्रजितौ । स च राजपुत्रो निश्शङ्कित एवं धर्म करोति, पुरोहितपुत्रस्य पुनर्जातिमदः, आवां बलात्मत्राजितौ, एवं तौ द्वावपि कालं कृत्वा देवलोकेपूत्पन्नौ । इतश्न कौशाम्च्यां नगर्या तापसो नाम श्रेष्ठी, स मृत्वा निजगृहे शूकरो जातः, जातिस्परः, ततस्तस्यैव दिवसे पुत्रैर्मारितः, पश्चात्तत्रैव गृहे उरगो जातः, तत्रापि जातिस्मरो जातः, तत्रापि अन्तर्गृहे मा खादीदिति मारितः, पश्चासुनरपि पुत्रस्य पुत्रो जातः, तत्रापि जाति स्मरश्चिन्तयति-कथमहमात्मनः सुषामम्बामिति ध्याहरागि, पुत्रं या सातमिति 20-%A4%A5% 82-%2523 दीप अनुक्रम [६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~211 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |१५|| दीप अनुक्रम [ ६४ ] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१०१॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||१५|| निर्युक्ति: [९८-९९] अध्ययनं [२], किमहं अपणो सुन्हं अमंति बाहरिहामि पुत्तं वा तायंति, पच्छा मूयत्तणं करेइ, पच्छा महंतीभूओ साहूणं अलीगो, धम्मोऽणेण सुतो । इतो य सो विज्जाइयदेवो महाविदेहे तित्थयरं पुच्छइ - किमहं सुलहबोहिओ दुलभवोहिओत्ति ?, ततो सामिणा भणितो- दुल्लभबोहिओऽसि, पुणोऽवि पुच्छइ कत्थऽहं उपवज्जिकामो ?, भगवया भाइ - कोसंबीए मूयस्स भाया भविस्ससि, सो य मूओ पवइस्सर, सो देवो भगवंतं चंदिऊण गओ मृयगस्सगासं, तस्स सो बहुयं दवजायं दाऊण भणइ- अहं तुज्झ पिउघरे उबवज्जिस्सामि, तीसे य दोहलओ अंव एहिं भविस्सह, अभुगे पचए अंबगो सयापुष्पफलो कओ मए, तुमं ताए पुरओ णामगं लिहिजासि, जहा तुन्भं पुत्तो भविस्सद, जइ तं मम देसि तो ते आणेमि अंबफलाणित्ति, तओ ममं जायं संतं तहा करिज्जासि जहा धम्मे संबु १ पश्चान्मूकत्वं करोति पश्चात् महद्भूतः साधूनाश्रितः, धर्मोऽनेन श्रुतः । इव स धिग्जातीयदेवो महाविदेहे तीर्थकरं पृच्छति किमहं सुलभबोधिको दुर्लभबोधिक इति ?, ततः स्वामिना भणितः – दुर्लभबोधिकोऽसि, पुनरपि पृच्छति - कुत्राहमुत्पत्तुकामो ?, भगवता भण्यतेकौशाम्त्र्यां मूकस्य भ्राता भविष्यसि, स च मूकः प्रवजिष्यति, स देवो भगवन्तं वन्दित्वा गतो मूकसकाशं, तस्मै स बहु द्रव्यजातं दरवा भणति — अहं तव पितृगृहे उत्पत्स्ये, तस्याञ्च दोहदः आम्रैर्भविष्यति, अमुकस्मिन् पर्वते आम्रः सदापुष्पफलः कृतो मया त्वं तस्याः पुरतो नामकं लिखे:, यथा तव पुत्रो भविष्यति, यदि तं मां ददासि तदा तुभ्यमानयामि आम्रफलानीति, ततो मां जावं सन्तं तथा कुर्याः यथा धर्म संभोत्स्य Education intimational For Fans Only परीषहाध्ययनम् २ ~212~ ॥१०१॥ www.janbay.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१५|| नियुक्ति: [९८-९९] प्रत सूत्रांक ||१५|| झामित्ति, तेण पडिवण्णे गतो देवो । अन्नया कतिवयदिवसेसु चइऊण तीए गम्भे उववण्णो, अकाले अंबदोहलो जाओ, स मूयगो णामगं लिहति-जइ मम गम्भं देसि ता आणेमि अंबगाणि, ताए भण्णइ-दिज्जत्ति, तेण आणिआणि अंबफलाणि, अवणीओ दोहलो, कालेण दारगो जाओ, सो तं खुड्डगं चेच होतं साहूण पाएसु पाडेइ, सो धाहातो करेति, ण य वंदति, पच्छा संतपरितंतो मूगो पवइतो, सामण्णं काऊण देवलोगं गतो, तेण ओही पउत्ता, जाव णेण सो दिट्टो, पच्छा णेण तस्स जलोयरं कयं, जेण ण सक्केति उहिउं, सबवेजेहिं पचखातो, सो । देवो डोंबरूवं काऊण घोसंतो हिंडइ-अहं वेजो सबवाही उसमेमि, सो भणइ-मझं पोट्टं सजवेहि, तेण भणियं-तुभ असज्झो वाही, यदि परं तुमं ममं चेव ओलग्गसि तो ते सिज्झामि, सो भणति-बच्चामि, तेण सज्झ १ इति, तेन प्रतिपन्ने गतो देवः । अन्यदा कतिपयेषु दिवसेषु कयुत्वा तस्या गर्भे उत्पन्नः, अकाले आनदोहदो जातः, स मूको नामकं| लिखति-यदि मह्यं गर्भ ददासि तदानयाम्याम्रान , तया भण्यते-दास्य इति, तेनानीतान्याम्रफलानि, अपनीतो दोहवः, कालेन दारको जातः, स तं बालकमेव सन्तं साधूनां पादयोः पातयति, स धावनं करोति, न च वन्दते, पश्चात् प्रान्तपरिक्षान्तो मूकः प्रत्रजितः, आमण्यं कृत्वा देवलोकं गतः, तेनावधिः प्रयुक्तः, यावदनेन स दृष्टः, पश्चादनेन तस्प जलोदरं कृतं, येन न शाशोत्युत्था, सर्ववैद्यैः प्रत्याख्यातः, स | देवो डोम्बरूपं कृत्वा घोषयन हिण्डते-अहं वैद्यः सर्वव्याधीन उपशमयामि, स भणति-मम उदरं नीरोगय, तेन भणित-तवासाध्यो |व्याधिः, यदि परं वं मामेवावलगसि तदा तब साधवामि, स भणति-प्रजिष्यामि, सेन साथितः, दीप अनुक्रम [६४] दमक%E4 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~2134 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१५|| नियुक्ति: [९८-९९] उत्तराध्य. प्रत सूत्रांक ||१५|| वितो, गतो तेण सद्धिं, तेण तस्स सत्यकोसगो अल्लवितो, सो ताए देवमायाए अतीव भारितो, जाच पवइया । परीषहा एगंमि पएसे पढ़ति, विजेण भण्णाइ-जइ पचयसि तो मुयामि, सो तेण भारेण अतीव परिताविजंतो चिंतेइ-वर- ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः मे पवइउं, भणइ-पचयामि, पबइओ, देवे गतेणाचिरस्स उपचाओ, तेण देवेण ओहिणा पिच्छिऊण सो चेव २ ॥१०२॥ से पुणोऽवि वाही कओ, तेणेव उवाएण पुणोऽवि पवाविओ, एवं एकसिं दो तिन्नि वारा उप्पबइतो, तइया हैवाराए गच्छइ देवोऽपि तेणेव समं, तणभारं गहाय पलित्तयं गामं पविसति, तेण भण्णइ-किं तणभारएण पलित्तं गामं पविससि ?, तेण भण्णइ-कहं तुम कोहमाणमायालोभसंपलितं गिहिवासं पविससि', तहावि न संबुज्झइ, पच्छा दोऽवि गच्छन्ति, नवरं देवो अडवीए उप्पहेणं संपट्टितो, तेण भण्णइ-कहं एत्तो तं पंथं मोतूण पविससि ?, । १ गतसेन सार्ध, तेन तस्मिन शस्त्रकोषक: आपवितः, स तया देवमायया अतीव भारितः, यावत् प्रनजिता एकस्मिन् प्रदेशे पठन्ति, वैयेन भण्यते-यदि प्रजजसि तदा मुञ्चामि, स तेन भारेण अतीव परिताप्यमानश्चिन्तयति-वर मे प्रवजितुं, भणति-अनजामि, प्रवजितो, देवे गतेऽचिरेणोत्मत्रजितः, तेन देवेनावधिना ट्वा स एव तस्य पुनरपि व्याधिः कृतः, तेनैवोपायेन पुनरपि प्रनाजितः, एवं सकृत् द्वौ बीन बारान् उरमब्रजितः, तृतीये वारे गच्छति देवोऽपि तेनैव समं, तृणभारं गृहीत्वा प्रदीप्तं ग्राम प्रविशति, तेन भण्यते-किं तृणभारेण ॥१०२॥ प्रदीप्तं ग्राम प्रविशसि १, तेन भण्यते-कथं वं क्रोधमानमायालोमसंप्रदीप्तं गृहिवासं प्रविशसि ?, तथापि न संधुभ्यते, पश्चात् द्वावपि गच्छतः, नवरं देवोऽढल्यामुत्पथेन संप्रस्थितः, तेन भण्यते-कथमितस्त्वं पन्थानं मुक्त्वा प्रविशसि ?, दीप अनुक्रम [६४] wwwjandiarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~2144 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१५|| नियुक्ति: [९८-९९] प्रत सूत्रांक ||१५|| देवेणे भण्णइ-कहं तुम मोक्खपहं मोत्तूर्ण संसाराडविं पविससि ?, तहावि न संबुज्झइ, पुणो एगंमि देवकुले वाण मंतरो अचितो हिहाहुत्तो पडइ, सो भणइ-अहो वाणमंतरो ! अधण्णो अपुण्णो य जो उबरिहुत्तो को अच्चियो जय हेटाहुत्तो पडइ, तेण देवेण भषणइ-अहो! तुमंपि अधण्णो जो उप्पराहुत्तो ठविओ अचणिज्जे य ठाणे पुणो पुणो । & उप्पवयसि, तेण भण्णइ-कोऽसि तुम, तेण मूयगरूवं दंसियं, पुचभयो से कहितो, तो सो भणइ-को पचओ ?, जहाऽहं देवो आसि, पच्छा सो देवो तं गहाय गओ वेयपच्चयं, सिद्धाययणं कूडं च, तत्थ तेण पुर्व चेव संगारो कतिलओ जहा-यदि अहं न संबुज्झेज तो एयं ममश्चयं कुंडलजुयलं णामयंकियं सिद्धाययणपुक्खरिणीए दरि|सिज्जासि, तेण से दंसियं, सो त कुंडलं सनामंकियं पिच्छिऊण जाइस्सरो जातो, संबुद्धो पचहतो जाओ, संजमे // १ देवेन भण्यते-कथं त्वं मोक्षपथं मुक्त्वा संसाराटवीं प्रविशसि ?, तथापि न संबुध्यते, पुनरेकस्मिन् देवकुले व्यन्तरोऽर्चितोऽवस्तापतति, स भणति-अहो व्यन्तरोऽधन्योऽपुण्या य उपरि कृतोऽचिंतच अधः पतति, तेन देवेन भण्यते-अहो त्वमप्यधन्यो य उपरि | स्थापितोऽर्चनीये च स्थाने पुनः पुनरुत्प्रव्रजसि, तेन भण्यते-कोऽसि त्वं ?, तेन मूकरूपं दर्शितं, पूर्वभवश्च तस्मै कथितः, ततः स भणति का प्रत्ययः ।, यथाऽहं देव आसं, पश्चात्स देवसं गृहीत्वा गतो वैतात्यपर्वतं, सिद्धायतनकूट च, तत्र तेन पूर्व चैव संकेस: कतो यथा Kil-ययहं न संबुध्येय तदेतत् मामकीनं कुण्डलयुगलं नामादितं सिद्धायतनपुष्करिण्यां दर्शयेः, तेन तस्मै दर्शितं, स तत् कुण्डलं खनामाकितं ।। प्रेक्ष्य जातिस्मरो जातः, संबुद्धः प्रबजितो जातः, संयमे च दीप अनुक्रम [६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~215 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [ ६५ ] उत्तराध्य. वृहद्वृत्तिः ॥१०३॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||१६|| अध्ययनं [२], निर्युक्ति: [९८-९९] यं से रती जाया, पुवं अरती आसि, पच्छा रती जाया || उत्पन्नसंयमारतेश्व स्त्रीभिरुपनिमयमाणस्य तदभिलाप प्रादुःष्यादतस्तत्परीषहमाह संगो एस मणुस्साणं, जाओ लोगंसि इत्थिओ । जस्स एया परिण्णाया, सुकडें तस्स सामपणं १६ (सूत्रम्) व्याख्या - सजन्ति - आसक्तिमनुभवन्ति रागादिवशगा जन्तवोऽत्रेति सङ्गः 'एषः' अनन्तरं वक्ष्यमाणो 'मनुष्याणां' पुरुषाणां, तमेवाह - 'या' इत्यविशेषाभिधानं ततो याः काश्चन मानुष्यो देव्यस्तिरश्यो वा, 'लोगंसि'त्ति लोके | तिर्यग्लोकादी 'खियो' नार्यश्च, एताश्च हावभावादिभिः अत्यन्तमासक्तिहेतवो मनुष्याणामित्येवमुक्तम्, अन्यथा हि गीतादिष्वपि सजन्त्येव मनुष्याः, मनुष्योपादानं च तेषामेव मैथुनसंज्ञातिरेकः प्रज्ञापनादौ प्ररूपित इति, अतः किमित्याह - 'यस' इति यतेः 'एताः' स्त्रियः परीति- सर्वप्रकारं ज्ञाताः परिज्ञाताः, तत्र ज्ञपरिज्ञयेह परत्र च महानर्थहेतुतया विदिताः, तथा चागमः – “विभूसा इत्थिसंसग्गी, पणीयं रसभोवणं । णरस्सऽत्तगबेसिस्स, बिसं तालउड जहा ॥१॥" प्रत्याख्यानपरिज्ञया च तत एव च प्रत्याख्याताः, 'सुकर्ड' ति सुकृतं सुष्वनुष्टितं, पाठान्तरतः - 'सुकरं' वा सुखेनैवानुष्टातुं शक्यं 'तस्स' त्ति सुव्यत्ययात्तेन 'सामण्णं'ति श्रामण्यं व्रतं, किमुक्तं भवति ? - १ तस्य रतिर्जाता, पूर्वमरतिरासीत्, पश्चाद्रतिजीता । २ विभूषा स्त्रीसंसर्गः प्रणीवरसभोजनम् । नरस्यात्मगवेषिणो विषं तालपुटं यथा ।। १ ।। Education intemational For Patenty परीषहाध्ययनम् २ ~216~ ॥१०३॥ www.ncbrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१६|| दीप अनुक्रम [ ६५ ] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||१६|| निर्युक्ति: [९८-९९] अध्ययनं [२], अवधहेतुत्यागो हि व्रतं रागद्वेषावेव च तत्त्वतस्तद्धेतू, उक्तनीतितश्च न स्त्रीभ्यः परं तन्मूलमिति तत्प्रत्याख्यानत एव सुकृतत्वं श्रामण्यस्य यथोक्तनीतितः स्त्रिय एव दुस्त्यजाः, ततस्तत्त्यागे त्यक्तमेवापरमिति तत्प्रत्याख्यानतः सुकृतत्वं श्रामण्यस्योच्यते, वक्ष्यति हि - "एएं उ संगे समइकमित्ता, सुहुत्तरा चेव हवंति सेसा । जहा महासागरमुत्तरिता, पई भवे अवि गंगासमाणा ॥ १ ॥” इति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ अतः किं विधेयमित्याह-एवमाणाय मेहावी, पंकभूयाउ इत्थीओ। नो ताहिं विणिहण्णिजा, चरे अन्तगवेसए ॥१७॥ (सूत्रम्) व्याख्या- 'एवम्' इत्यनन्तरोक्तेन प्रकारेणात्यन्तासक्तिहेतुत्वलक्षणेन 'आज्ञाय' स्वरूपाभिव्याप्ता अवगम्य 'मेधावी' अवधारणशक्तिमान् पङ्कः - कर्दमः तद्भूताः - मुक्तिपथप्रवृत्तानां विबन्धकत्वेन मालिन्यहेतुत्वेन तदुपमाः, तुरवधारणार्थः, ततः पङ्कभूता एवं स्त्रियः, पठ्यते च- 'एवमादाय मेहावी जहा एया लहुस्सग ति 'एवम्', अनन्तर एव वक्ष्यमाणमर्थम् 'आदाय' बुद्ध्या गृहीत्वा मेघावी, तमेवाह - 'यथेत्युपदर्शने, 'एताः ' स्त्रियः 'लहुस्सग 'ति तुच्छाशयत्वादिना लच्यः, ततः किमित्याह - 'नो' नैव 'ताभिः' 'स्त्रीभिः' 'विनिहन्यात्' विशेषेणसंयमजीवितव्यपरोपणात्मकेनातिशयेन च सामस्त्यतदुच्छेद रूपेणातिपातयेत्, आत्मानमिति गम्यते, कृत्यमाह'चरेत्' धर्मानुष्ठानमासेवेत, आत्मानं गवेषयते कथं मयाऽऽत्मा भवान्निस्तारणीय इत्यन्वेषयते आत्मगवेषकः, १ एतांस्तु सङ्गान् समतिक्रम्य सुखोत्तारा एव भवन्ति शेषाः । यथा महासागरमुत्तीर्य नदी भवेदपि गङ्गासमाना ॥ १ ॥ Education intemational Forsy www.incibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~217~ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१७|| नियुक्ति: [१००-१०५] प्रत सूत्रांक बृहद्वृत्तिः ॥१०॥ ||१७|| उत्तराध्य. 'सिद्धिः खरूपापत्ति'रिति वचनात् सिद्धि; आत्मा, ततः कथं ममासौ स्थादित्यन्येपकः आत्मगवेपको, यद्वा है। परीषहाआत्मानमेव गवेषयते इत्यात्मगवेषकः, किमुक्तं भवति ?-चित्रालङ्कारशालिनीरपि खियोऽवलोक्य तदृष्टिन्यासस्य ध्ययनम् 14 दुष्टतावगमात् झगिति ताभ्यो गुपसंहारत आत्माऽन्वेष्टेव भवति, उक्तं हि-"चित्तभित्तिं ण णिज्झाए, नारिं वा सुअलंकियं । भक्खरंपिव दट्टणं, दिहि पडिसमाहरे ॥१॥” इति सूत्रार्थः ॥ १७॥ सम्प्रति प्रतिमाद्वारं विवृण्यन् 'यस्यैताः परिज्ञाता' इत्यादिसूत्रसूचितं चैदंयुगीनजनदाढ्योत्पादकं दृष्टान्तमाह- . उसभपुरं रायगिहं पाडलिपुत्तस्स होइ उप्पत्ती । नंदे सगडाले थूलभद्द सिरिए वररुई य ॥ १०॥ तिण्हं अणगाराणं अभिग्गहो आसि चउण्ह मासाणं वसहीमित्तनिमित्तं को कहि वुत्थो ? निसामेह १०१ गणियाघरम्मि इको वुत्थो बीओ उ वग्धवसहीए । सप्पवसहीइ तइओ को दुकरकारओ इत्थं ? १०२ वग्यो वासप्पो वा सरीरपीडाकरा उ भइयत्वा । नाणं व दसणं वा चरितं(य) व न पच्चला भित्तुं ॥१०३॥ भयवंपिथूलभद्दो तिखे चंकम्मिओन उण छिन्नो। अग्गिसिहाए वुत्थो चाउम्मासे न उण दहो १०४ अन्नोऽवि य अणगारोभणमाणोऽहंपि थूलभद्दसमो। कंबलओ चंदणयाइ मइलिओ एगराईए ॥१०॥ १ भित्तिचित्रं न निध्यायेत् , नारी वा स्वलकृताम् । भास्करमिव दृष्ट्वा दृष्टिं प्रविसमाहरेत् ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [६६] ॥१०४॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~218~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१७|| नियुक्ति: [१००-१०५] प्रत सूत्रांक ||१७|| व्याख्या-पभपुरं राजगृहं पाटलिपुत्रस्य भवत्युत्पत्तिः, नन्दः शकडालः स्थूलभद्रः सिरियको वररुचिश्व, त्रयाणामनगाराणां अभिग्रह आसीत् 'चउण्डं मासाणं' सुब्व्यत्ययाचतुर्प मासेषु वसतिमात्रनिमित्तं, का कुत्रोषितः ? निशामयत-गणिकागृह एको, द्वितीय उपितस्तु व्यावसती, सर्पवसतौ तृतीयः, को दुष्करकारकोऽत्र ?, तेषु मध्ये व्यानो वा सो वा शरीरपीडाकरौ तु भक्तव्यौ, ज्ञानं वा दर्शनं वा चारित्रं वा न प्रत्यलो भेगें, भगवानपि स्थूलभद्रः तीक्ष्णे-निशितासिधारादौ चऋमितो न पुनश्छिन्नः, अग्निशिखायामुषितश्चातुर्मास्यां न पुनर्दग्धः, अन्योऽपि चानगारो भणन्नहमपि स्थूलभद्रसमः कम्बलकश्चन्दनिकायाम्-उच्चारभूमौ मलिनित इति गाथाषट्कार्थः ॥ १००१०५ ॥ एतदर्थस्तु वृद्धसम्प्रदायादवसेयः, स चायम् पुति खिइप्पइट्ठियं णाम नयरं, तत्थ वत्थुमि खीणे चणगपुरं णिविडं, ततो उसहपुरं, ततो रायगिह, ततो चंपा, ततो पाडलिपुत्तं इचाइ भाणियावं जाव सगडाले पंचत्तमुवगते गंदेण सिरितो भणितो-कुमारामच्चत्तणं पडिवजाहि, दसोभणइ-मम भाया जेट्टो थूलभदो बारसमं परिसं गणियाघरं पविट्टस्स, सोसहावितो भणइ-चिंतेमि, राया भणइदा १ पूर्व क्षितिप्रतिष्ठितं नाम नगरं, तत्र वस्तुनि क्षीणे घणकपुरं निविष्टं, तत कपभपुरं, ततो राजगदं, ततश्चम्पा, ततः पाटलीपुत्रमि-10 त्यादि भणितव्यं यावत् शकटाले पञ्चत्वमुपगते नन्दन श्रीयको भणितः-कुमारामात्यत्वं प्रतिपयस्व, स भणति-मम भ्राता ज्येष्ठः स्थूल६ भद्रो द्वादशं वर्ष गणिकागृह प्रविष्टस्य, स शब्दितो भणति-चिन्तयामि, राजा भणति दीप अनुक्रम [६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~219~ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१७|| नियुक्ति : [१००-१०५] प्रत सूत्रांक 60KE ||१७|| उत्तराध्य. असोगवणियाए चिंतेहि,सो तत्थ अतिगतो चिंतेति-केरिसंभोगकजं वखित्ताणं?,पुणरविणरगं जातियब होहित्ति,परीषहा है एए णाम परिणामदुस्सहा भोगत्ति पंचमुष्ट्रिय लोयं काऊण पाऊयं कंबलरयणं छिंदिचा रओहरणं काउंरण्णो मूलं गतो, ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः एयं चिंतियं, राया भणइ-सुचिंतियं, विणिग्गतो, राया चिंतेइ-पिच्छामि किं कवडत्तण गणियाघरं पविस्सइ ण ॥१०५॥ यत्ति? पासायतलगओ पेच्छइ, नवरं मयगकलेवरस्स जणो ओसरइ, मुहाणि य ठएइ, सो मज्झेण गतो, राया भणइ |णिविणकामभोगो भगवंति सिरिओ ठावितो। सो संभूयमविजयस्स मूले पवतितो, थूलभद्दसामीवि संभूयविजयाणं मूले घोरागारं तवं करेइ, विहरंता पाडलिपुत्तं आगया, तिण्णि अणगारा अभिग्गहे गिण्हंति-एको सीहगु १ अशोकवनिकायां चिन्तय, स तत्रातिगतश्चिन्तयतिकीदृशं भोगकार्य व्याक्षिप्तान, पुनरपि नरके यातव्य भविष्यतीति, एते नाम परिणामदुस्सहा भोगा इति पञ्चमौष्टिकं लोचं कृत्वा प्रावृतं कम्बलरत्नं छित्त्वा रजोहरणं कृत्वा राज्ञो मूलं गतः, एतचिन्तितं, राजा भणतिसुचिन्तितं, विनिर्गतः, राजा चिन्तयति-पश्यामि किं कपटेन गणिकागृहं प्रविशति न घेति ?, प्रासादतलगतः प्रेक्षते, नवरं-- मृतककलेवरात् जनोऽपसरति, मुखानि च स्थगयति, स मध्येन गतः, राजा भणति-निविणकामभोगो भगवानिति श्रीयकः स्थापितः । स १०५॥ |संभूतविजयस्य मूले प्रबजितः, स्थूलभद्रस्वाम्यपि संभूतविजयानां मूले घोराकारं तपः करोति, विहरन्तः पाटलीपुत्रमागताः, त्रयोऽनगारा अभिग्रहान गृहन्ति-एक: सिंहगुहायां, दीप अनुक्रम [६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~220 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१७|| नियुक्ति: [१००-१०५] SAXA4%X प्रत सूत्रांक ||१७|| हाए, 'तं पेहंतओ सीहो उवसंतो, अन्नो सप्पगुहाए, सोऽवि दिट्ठीविसो उवसंतो, थूलभद्दो कोसाघरे, सा तुट्टा, परीसहपराजिओ आगओत्ति, भणइ-किं करेमि ?, उज्जाणघरे ठाणं देहि, दिन्नं, रत्तिं सन्चालङ्कारविभूसिया आगया, चाडुयं पकया, सो मंदरोपमो अकंपो, ताहे सम्भावेण पडिसुणेइ, धम्मो कहितो, साविगा जाया, भणति-जति रायसेणं अन्नेणं समं वसेजा, इयरहा बंभचारिणीवयं गिण्हति । ताहे सीहगुहाओ आगओ चत्तारि मासे उपवास है। काऊणं, आइरिएहिं ईसत्ति अम्भुट्टिओ, भणिओ य-सागयं दुकरकारगस्सत्ति, एवं सप्पईत्तोऽवि, थूलभद्दसामी तत्थेव गणियाघरे भिक्खं गिण्हइ, सोऽपि चउमासेसु पुषणेसु आगतो, आयरिया संभमेण उठ्ठिया, भणिओ य-सागय ते अइदुक्करदुक्करकारगस्सत्ति, ते भणंति दोण्णिवि-पेच्छह आयरिया रागं वहति अमचपुत्तोत्ति, वितियए वरिसारत्ते | १ तं प्रेक्षमाणः सिंह उपशान्त:, अन्यः सर्पविले, सोऽपि दृष्टिविष उपशान्त:, स्थूलभद्रः कोशागृहे, सा तुष्टा, परीधहपराजित आगत इति, भणति-किं करोमि ?, उद्यानगृहे, स्वानं देहि, दत्त, रात्रौ सर्वालङ्कारविभूषिता आगता, चाटु प्रकृता, स मन्दरोपमोऽकम्प्रः, तदा सद्भावेन प्रतिशृणोति, धर्मः कथितः, आविका जाता, भणति-यदि राजवशेनान्येन समं वसेयम् , इतरथा ब्रह्मचारिणीत्रतं गृह्णाति । तदा सिंहगुहाया आगतश्चतुरो भासान् उपवासं कृत्वा, आचारीपदित्यभ्युत्थितः, भणितश्च-स्वागतं दुष्करकारकस्येति, एवं सर्पविलसत्कोऽपि, ४ स्थूलभद्रस्वामी तत्रैव गणिकागृहे भिक्षां गृह्णाति, सोऽपि चतुर्यु मासेषु पूर्णषु आगतः, आचार्याः संभ्रमेणोत्थिताः, भणितश्च-स्वागतं तेऽतिदुष्करदुष्करकारकस्येति, तौ भणतो द्वावपि-पश्यत आचार्या रागं वहन्ति अमात्यपुत्र इति, द्वितीये वर्षाराने दीप अनुक्रम [६६] RSS RSS पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~221 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१७|| नियुक्ति: [१००-१०५] प्रत सूत्रांक ||१७|| उत्तराध्य. 18| सीहगुहाखमणो भणति-पणियाघरं वचामित्ति अभिग्गहं गिण्हइ, आयरिया उवउत्ता, वारिओ, अप्पडि-2 परीषहा सुणंतो गतो, वसही मग्गिया, दिण्णा, सा सम्भावेण ओरालियसरीरा विभूसिया अविभूसिया वा, सुणति धम्म, ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः सो तीसे सरीरे अज्झोववन्नो, ओभासइ, सा ण इच्छति, भणति-जति नबरि किंचि देसि, किं देमि, सयसहस्सं, ॥१०६॥ सो मम्गिउमारद्धो, वालविसये सावतो, जो तहिं जाइ तस्स सयसहस्समुलं कंबलं देह, तहिं गतो, तेण दिणं | सहरायाणएणत्ति, एगत्थ चोरेहिं पंथो बद्धो, सउणो वासति-सयसहस्संति, चोरसेणावई जाणइ, नवरि संजय पेच्छइ, बोलीणो, पुणो वासति-सयसहस्सं गतं, तेण सेणावइणा गंतूण पलोइओ, सम्भावं पुच्छिओ भणतिअस्थि कंवलो, गणिकाए णेमि, मुको गतो, तीसे दिण्णो, ताए चंदणिकाए छूढो, सो भणइ-मा विणासेहि, सा1 १ सिंहगुहाक्षपणो भणति-गणिकागृहं व्रजामीति अभिग्रहं गृह्णाति, आचार्या उपयुक्ताः, वारितः, अप्रतिशृण्वन् गतः, वसतिर्मागिता, दत्ता, सा सद्भावनोदारशरीरा विभूषिता अविभूपिता वा, शृणोति धर्म, स तस्याः शरीरेऽभ्युपपन्नः, अवभासयति (याचते), सा नेच्छति, भणति-यदि नवरं किञ्चिददासि, किं ददामि ?, शतसहनं, स मार्गयितुमारब्धः, नेपाल विषये श्रावकः यतत्र याति तस्मै शतसहस्रमूल्य कम्बलं ददाति, तत्र गतः, तेन दत्तं श्राद्धेन राज्ञेति, एकत्र चौरैः पन्था बद्धः, शकुनो वासयति-शतसहसमिति, चौरसेनापतिर्जानाति, नवरं संयतं प्रेक्षते, वलित:, पुनर्वासयति-शतसहस्रं गतं, तेन सेनापतिना गत्वा प्रलोकितः, सद्भावः पृष्टो भणति-अस्ति कम्बलः, गणिकायै है नयामि, मुक्तो गतः, तस्यै दत्तः, तथा धन्दनिकायां (व!गृहे) निक्षिप्तः, स भणति-मा विनिनेशः, सा दीप अनुक्रम [६६] ॥१०६॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~222 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१७|| नियुक्ति: [१००-१०५] प्रत सूत्रांक ||१७|| भणई-तुमंपि एरिसओ चेव होहिसि, उवसामेति लद्धबुद्धी, इच्छामि अणुसडिं, गतो, पुणो आलोएत्ता विहरह। आयरिएणं भणिओ-एवं दुकरदुकरकारओ थूलभद्दो पुर्षि खरिका (दुअक्सरिया) इच्छद, इदाणी सही जाया, अदिठ्ठ-M दोसा तुमे पत्थियत्ति उवालद्धो, एवं चेव विहरंति। सा गणिका रहियस्स रण्णा दिण्णा, तं अक्खाणं जहा णमोकारे। जहा थूलभद्देणित्थीपरीसहो अहियासितो तहा अहियासियचो, ण उ जहा तेण णो अहियासितोत्ति । अयं चैकत्र । ६ वसतस्तथा स्त्रीजनसंसर्गतो मन्दसत्त्वस्य भवति अतो नैकस्थेन भाव्यं, किन्तु चर्यापरीपहः सोढव्य इति तमाह एग एव चरे लाढे, अभिभूय परीसहे। गामे वा नगरे वावि, णिगमे वा रायहाणीए ॥ १८ ॥(सूत्रम्) | व्याख्या-'एक एवं' ति रागद्वेषविरहितः 'चरेत्' अप्रतिबद्धविहारेण विहरेत्, सहायवैकल्यतो बैकस्तथाविधगीतार्थो, यथोक्तम्-"ण यो लभिजा णिउणं सहायं, गुणाहियं वा गुणतो समं वा । एकोऽवि पावाई विवजयंतो, विहरेज कामे असज्जमाणो ॥१॥" 'लाढे' ति लाढयति प्रासुकैपणीयाहारेण साधुगुणैर्वाऽऽत्मानं यापयतीति १ भणतित्वमप्येतादृश एव भविष्यसि, उपशाम्यति लब्धबुद्धिः, इच्छागि अनुशास्ति, गतः, पुनरालोच्य विहरति । आचार्येण भणित:एवं दुष्करदुष्करकारकः स्थूलभद्रः पूर्व ब्यक्षरिका इच्छति, इदानीं भारी जाता, अदृष्टदोषा त्वया प्रार्थितेति उपालब्धः, एवमेव विहरन्ति । सा गणिका रथिकाय राज्ञा दत्ता, तदास्थानक यथा नमस्कारे (आवश्यकवृत्तौ)। यथा स्थूलभद्रेण स्त्रीपरिषहोऽध्यासितस्तथाऽध्यासितव्यः, न तु यथा है तेन नाध्यासित इति।२ न चापि लभेत निपुर्ण सहाय, गुणाधिकं वा गुणत: समं वा । एकोऽपि पापानि विवर्जयन्, विहरेत् कामेषु असजन १ दीप अनुक्रम [६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~223 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१८|| नियुक्ति: [१००-१०५] उत्तराध्य. बृहबृत्तिः प्रत ॥१०७|| सूत्रांक ||१८|| लाढः, प्रशंसाभिधायि वा देशीपदमेतत् , पठ्यते च-'एग एगे चरे लाद' ति, तत्र चैकः-असहायः प्रतिमाप्रतिपन्नादिः परीषहास चैको रागादिवैकल्याद्' 'अभिभूय' निर्जित्य 'परीषहान् क्षुदादीन् , क पुनश्चरेदित्याह-'ग्राम' चोक्तरूपे 'नगरे वा'|| करविरहितसन्निवेशे 'अपिः' पूरणे निगमे वा' वणिग्निवासे 'राजधान्यां' वा प्रसिद्धायाम् , उभयत्र वाशब्दानुवृत्तः, कामडम्बायुपलक्षणं चैतद्, आग्रहाभावं चानेनाहेति सूत्रार्थः ॥ १८ ॥ पुनः प्रस्तुतमेवाह असमाणो चरे भिक्खू, नेव कुज्जा परिग्गहं । असंसत्तो गिहत्थेहिं, अनिकेओ परिवए ॥१९॥ (सूत्रम्) F व्याख्या-न विद्यते समानोऽस्य गृहिण्याश्रयामूञ्छितत्वेन अन्यतीर्थिकेषु वाऽनियतविहारादिनेससमानः असदृशो, यद्वा समानः-साहङ्कारो न त त्यसमानः, अथवा '(अ)समाणों' त्ति प्राकृतत्वादसन्निवासन् , यत्रास्ते तत्राप्यसंनिहित एवेति हृदयं, सन्निहितो हि सर्वः खाश्रयस्योदन्तमावहति अयं तु न तथेत्येवंविधः सन् 'चरेत् , अप्रतिव बद्धविहारतया विहरेत् 'भिक्षुः' यतिः, कथमेतत् स्यादित्याह-नैव कुर्यात् 'परिग्रह' प्रामादिषु ममत्वबुद्ध्यात्म-18 कम् , अत्राह च-"गामे कुले वा नगरे व देसे, ममत्तभावं ण कर्हिचि कुज्जा", इदमपि यथा स्यात्तथाह-'असंसक्तः' असम्बद्धो 'गृहस्थैः' गृहिभिः 'अनिकेतः' अविद्यमानगृहो, नैकत्र बद्धास्पदः, 'परिव्रजेत्' सर्वतो विहरेत् , न ॥१०॥ (ना) नियतदेशादौ गृहिसम्पर्कः, एकत्र बद्धास्पदत्वे नियतदेशादिविहारितायां वा स्यादपि ममत्वबुद्धिः, तदभावे १ प्रामे कुले वा नगरे वा देशे, ममत्वभाव न कुत्रचित्कुर्यात् । दीप अनुक्रम [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~224 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१९|| दीप अनुक्रम [६] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||१९|| निर्युक्ति: [१०६] अध्ययनं [२], तु निरवकाशैवेयमिति भाव इति सूत्रार्थः ॥ १९ ॥ अत्र च शिष्यद्वारमनुसरन् 'असमाणो घरे' इत्यादिसूत्रसूचि तमुदाहरणमाह कोयरे वत्थवो दत्तो सीसो अ हिंडओ तस्स । उवहरइ धाइपिंडं अंगुलिजलणा य सादिव्वं ॥ १०६ ॥ व्याख्या- 'फोलयरे' कुलयरनाम्नि नगरे वास्तव्यः, आचार्य इति शेषः, दत्तः शिष्यथ हिण्डकः तस्य उपहरति धात्री पिण्डमङ्गुलिज्वलनाच सादेव्यमिति गाथाक्षरार्थः ॥ १०६ ॥ भावार्थस्तु बृद्धसम्प्रदायादवसेयः, स चायम्कोलयरे नयरे वत्थवा सङ्गमधेरा आयरिया, दुब्भिक्खे तेहिं संजया विसजिया, तं नगरं गवभागे काऊण जंघावलपरिहीणा विहरन्ति, णगरदेवया य तेसिं फिर उवसंता, तेसिं सीसो दत्तो नामं आहिंडितो, चिरेण कालेणं उदंतवाहतो आगतो, सो तेसिं पडिस्सयं ण पविट्ठो णिययावासत्ति, भिकूखवेलाए उबग्गाहियं हिंडताणं संकिलिस्सति, कुंढो सहकुलाई ण दावेइति, तेहिं णायं, एगत्थ सिट्टिकुले रेवतियाए गहियतो दारतो, छम्मासा रोवंतस्स, आइरिएहिं चप्पुडिया १ कोडकर नगरे वास्तव्याः संगमस्थविरा आचार्याः, दुर्भिक्षे तैः संयता विसृष्टाः, तन्नगरं नव भागान् कृत्वा परिक्षीणजङ्घाबला विहरन्ति, नगरदेवता च तेषु किलोपशान्ता तेषां शिष्यो दत्तो नामाहिण्डकः, चिरेण कालेनोदन्तवाहक आगतः, स तेषां प्रतिश्रयं न प्रविष्टो नित्यवास इति, भिक्षावेलायामीपमधिकं हिण्डमानयोः संश्यिति, कुण्टः श्राद्धकुलानि न दर्शयतीति, तैज्ञतम् एकत्र श्रेष्ठिकुले रेवतिकया गृहीतो दारकः, षण्मासा रुदतः, आचार्यैचप्पुटिका Education intimational For Patenty www.ncbrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~ 225~ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||१९|| नियुक्ति: [१०६] प्रत सूत्रांक ||१९|| किया, मा रोवत्ति, वाणमंतरीए मुक्को, तेहिं तुटेहि पडिलाहिया जहिच्छिएणं, सो विसजितो, एयाणि कुलाणित्ति, परीषहा आयरिया सुचिरं हिंडिऊण अंतपंतं गहाय आगया, समुद्दिट्टा, आवस्सए आलोयणाए आलोएहि, भणति-तुम्भेहिं बृहद्वृत्ति ध्ययनम् " सम हिंडिओ मि, धाईपिंडो ते भुत्तो, भणति-अह सुहमाई पिच्छहत्ति पदुट्ठो, देवयाए अवरत्ते वासं अंधकारो या ॥१०॥ | विगुवितो, एसो हीलेइत्ति, आयरिएहि भणिओ-अतीहित्ति, सो भणइ-अंधकारोत्ति, आयरिएहिं अंगुली दाइया,[६] सा पजलिया, आउट्टो आलोएइ, आयरियावि से णवभागे कहेंति ॥ ततश्च यथा महात्मभिरमीभिः सङ्गमस्थविरश्वर्यापरीपहोऽध्यासितः तथान्यैरपि अध्यासितव्य इति ॥ यथा चायं ग्रामादिश्वप्रतिबद्धेनाधिसह्यते एवं नैपेधिकीपरीषहोऽपि शरीरादिष्वप्रतिबद्धेनाधिसहनीय इति तमाहसुसाणे सुन्नगारे वा, रुक्खमूले य एगओ। अकुकुए निसीएज्जा, न य वित्तासए परं ॥२०॥ (सूत्रम्) I व्याख्या-शबानां शयनमस्मिन्निति श्मशानं तस्मिन्-पितृवने, (पा०५-१-२) श्वभ्यो हितमिति वाक्ये | १ कृता-मा रोविहीति, व्यन्तर्या मुक्तः, तैस्तुष्टैः प्रतिलम्भिता यथेप्सिसेन, स विसृष्टः, एतानि कुलानीति, आचार्याः सुचिरं हिण्डित्वाऽन्तप्रान्तं गृहीत्वा आगताः, भुक्ताः, आवश्यके आलोचनायामालोचय, भणति-युष्माभिः समं हिण्डितोऽसिस, धात्रीपिण्डस्त्वया भुक्तः, भणति-अध सूक्ष्माणि प्रेक्षध्वमिति प्रद्विष्टः, देवतया अर्धरात्रे वर्षा अन्धकार च विकुर्विते, एष हीलतीति, आचार्भणितः-आयाहीति, स भणति-अन्धकारमिति, आचार्यैरङ्गुलिदर्शिता, सा प्रज्वलिता, आवृत्त आलोचयति, आचार्या अपि तस्मै नव भागान् कथयन्ति दीप अनुक्रम [६८] wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~226 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२०|| नियुक्ति: [१०६] प्रत सूत्रांक ||२०|| 'उगवादिभ्यो यदि'त्यत्र (पा०५-१-२) 'शुनः संप्रसारणं वा दीर्घत्व'मिति (वार्तिकं ५-१-२) वचनतो यति संप्रसारणे दीर्घत्वे च शून्यम्-उद्वसं तच तत् अगारं च शून्यागारं तस्मिन्वा, वृश्यत इति. वृक्षः तस्य मूलं-अधोभूभागो वृक्षमूलं तस्मिन्वा, 'एकः' उक्तरूपः स एवैककः, एको वा प्रतिमाप्रतिपत्त्यादौ गच्छतीत्येकगः, एकं वा कर्मसाहित्य| विगमतो मोक्षं गच्छति-तत्प्राप्तियोग्यानुष्टानप्रवृत्तेर्यातीत्येकगः, 'अकुक्कुचः' अशिष्टचेष्टारहितो 'निषीदेत् तिष्ठेत् , 'न च' नैव वित्रासयेत् 'परम्' अन्यं, किमुक्तं भवति ?-पंडिमं पडिवजिया मसाणे, णो भायए भयभेरवाई दिस्स । विविहगुणतयोरए य णिचं, ण सरीरं चाभिकंखए सभिक्खू ॥ १॥ इत्यागममनुस्मरन् श्मशानादावप्येककोऽप्यनेकभयानकोपलम्भेऽपि न स्वयं संविभीयात्, न च विकृतस्वरमुखविकारादिभिरन्येषां भयमुत्पादयेत, यद्वा 'अकु-|| कुए' त्ति अकुत्कुचः कुन्थ्वादिविराधनाभयारकर्मबन्धहेतुत्वेन कुत्सितं हस्तपादादिभिरस्पन्दमानो निपीदेत् , न च वित्रासयेत्' विक्षोभयेत् 'परम् ' उन्दूरादि, मा भूदसंयम इति सूत्रार्थः ॥२०॥ तत्र च तिष्ठतः कदाचिदुपसम्र्गोत्पत्तौ यत् कृत्यं तदाहतत्थ से चिट्ठमाणस्स, उवसग्गेऽभिधारए । संकाभीओन गच्छेज्जा. उद्वित्ता अपणमासणं ॥२१॥(सूत्रम्) व्याख्या--'तत्र' इति श्मशानादौ 'से' तस्य तिष्ठतः, पठ्यते च-'अच्छमाणस्स' त्ति आसीनस्य उप-सामीप्येन १ प्रतिमा प्रतिपद्य श्मशाने न विभेति भवभैरवाणि दृष्ट्वा । विविधगुणतपोरतश्च नित्यं न शरीरं चाभिकासने स भिक्षुः ॥ १॥ RAMESCR दीप अनुक्रम [६९]] wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~227 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२१|| नियुक्ति: [१०७] बृहद्वृत्तिः - प्रत सूत्रांक ||२१|| - उत्तराध्य. हा सुज्यन्ते-तिर्यग्मनुष्यामरैः कर्मवशगेनात्मना क्रियन्त इत्युपसर्गाः ते 'अभिधारयेयुः' अन्तर्भावितेवार्थत्यादभिधार-1 परीपहा. येयुरिख, कोऽर्थः ?-उत्कटतयाऽत्यन्तोत्सितरिपुवत् अभिमुखीकुर्युरिब, यथते सजा वयं तत् प्रगुणीभूयाभिमुखैः स ध्ययनम् स्थेयमिति, यद्वा सोपस्कारत्वात् सूत्राणामुपसग्गाः सम्भवेयुः ततस्तानभिधारयेत्-किमते ममाचलितचेतसः कर्तु- २ ॥१०॥ मलमिति चिन्तयेत्, पठ्यते च-'उबसग्गभयं भये' इति सुगम, 'शङ्काभीत इति' तत्कृतापकारशकातो भीतः-12 त्रस्तो 'न गच्छेत्' न यायादुत्थाय, कोऽर्थः -तत् स्थानमपहाय अन्यदपरं आस्यते अस्मिन्निति आसन-स्थानमिति सूत्रार्थः ॥ २१ ॥ अग्निद्वारमधुना, तत्र च 'शङ्काभीतो न गच्छेजत्ति सूत्रावयवमर्थतः स्पृशन् उदाहरणमाहनिक्खंतो गयउराओ कुरुदत्तसुओ गओ य साकेयं पडिमाट्रियस्स कुडिया आगया अग्गि जालिंति १०७ 2 व्याख्या-'निष्क्रान्तः' प्रत्रजितो गजपुरात् कुरुदत्तसुतो गतश्च साकेतं प्रतिमास्थितस्य 'कुडिय' ति हतगवेषका (आगता) अग्निं शिरसि ज्यालयन्ति इति गाधाक्षरार्थः ॥ १०७ ।। भावार्थस्तु बृद्धसम्प्रदायादवसेयः, स चायम्हत्थिणाउरे णयरे कुरुदत्तसुत्तो णाम इभपुत्तो तहारूवाणं थेराणमंतिए पबतितो, सो कयाइ एगल्लविहारप-| C ॥१०९|| डिम पडियण्णो, साएयस्स णयरस्स अदूरसामंते चरिमा ओगाढा, तत्व पडिमं ठिओ चचरे, तओ एगातो १ हस्तिनापुरे नगरे कुरुदत्तमुतो नामेभ्यपुत्रमाथारूपाणां स्थविराणामन्ति के प्रबजितः, स कदाचित् एकाकिविहारप्रतिमा प्रतिपन्नः, साकेतस्थ नगरस्यादूरसमीपे घरमा (पौरुषी) अवगाढा, तत्रैव प्रतिमा स्थितश्चवरे, तत एकस्मात् दीप अनुक्रम [७०] 22-%25 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~228 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [१] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||२२|| निर्युक्तिः [१०७] अध्ययनं [२], गामातो गावितो हिरियातो, तेण ओगासेण णीयातो, जाव भग्गमाणा कुढिया आगया, जाव साहू दिट्ठो, तत्थ दुबे पंथा, पच्छा ते ण जाणंति-कयरेण मग्गेण णीयातो ?, ते साहुं पुच्छंति-कयरेण मग्गेण णीयाओ ?, ताहे सो भगवं न वाहरति, तेहिं रुद्वेहिं न वाहरतित्तिकाऊण तस्स सीसे मट्टियाए पार्लि बंधिऊण चियागते अंगारे घेतूण सीसे छूढा, गया य, सो भगवं सम्मं सहइ ॥ तेन स यथा सम्यक् सोढो नैषिधिकीपरीषहः तथाऽन्यैरपि साधुभिः सहनीय इति ।। नैषेधिकीतश्च स्वाध्यायादि कृत्वा शय्यां प्रति निवर्त्तेतातस्तत्परीषहमाह - उच्चावयाहिं सिजाहिं, तवस्सी भिक्खू थामवं । णाइवेलं विहणिज्जा, पावदिट्ठी विहरणइ ॥ २२॥ (सूत्रम् ) व्याख्या -- ऊर्द्ध चिता उच्चा, उपलिप्सतलाद्युपलक्षणमेतत्, यद्वा शीतातपनिवारकत्वादिगुणैः शय्यान्तरोपरिस्थितत्वेनोचाः, तद्विपरीतास्त्वैवचाः, अनयोर्द्वन्द्वे उच्चावचाः, नानाप्रकारा बोच्चावचास्ताभिः 'शय्याभिः' वसतिभिः 'तपखी' प्रशस्यतपोऽन्वितो, भिक्षुः प्राग्वत्, 'स्थामवान्' शीतातपादिसहनं प्रति सामर्थ्यवान् 'नातिवेल' स्वाध्यायादिवेलातिक्रमेण 'विहन्यात्' हनेर्गतावपि वृत्तेरत्राहं शीतादिभिरभिभूत इति स्थानान्तरं गच्छेत्, यद्वा 'अतिवेलाम्' १ श्रामात् गावो हृताः, तेनावकाशेन नीताः, यावन्मार्गयमाणा हृतगवेषका आगताः, यावत्साधुर्दृष्टः, तत्र द्वौ पन्थानौ, पश्चात्ते न जानन्ति - कतरेण मार्गेण नीताः, ते साधुं पृच्छन्ति- कतरेण मार्गेण नीताः ?, तदा स भगवान् न व्याहरति, सैरुलैर्न व्याहरतीतिकृत्वा तस्य शीर्षे मृत्तिकया पार्ली बद्धा चितागतानङ्गारान् गृहीत्वा (ते) शीर्षे क्षिप्ताः, गवाञ्च स भगवान् सम्यक् सहते Education intemational For Patenty www.pincibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~229~ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२३|| नियुक्ति: [१०७] प्रत सूत्रांक ||२३|| उत्तराध्य. अन्यसमयातिशायिनी मर्यादा-समतारूपामुच्चा शय्यामवाप्याहो ! सभाग्योऽहं यस्येदृशी सकलसुखोत्पादिनी मम शय्येति अवचावाप्तौ वा अहो ! मम मन्दभाग्यता येन शय्यामपि शीतादिनिवारिकां न लभे इति हर्षविषादा- | ध्ययनम् दिना 'न विहन्यात्' नोलक्येत् , किमित्येवमुपदिश्यत इत्याह-'पावदिट्ठी विहन्नइ' त्ति प्राग्वदिति सूत्रार्थः ॥ २२ ॥ ॥११॥ किं पुनः कुर्यादित्याह पइरिक्कमुवस्सयं लहूं, कल्लाणं अदुव पावगं। किमेगरायं करिस्सइ ?, एवं तत्थहियासए ॥२३॥(सूत्रम्) 4] व्याख्या-'पइरिक' ख्यादिविरहितत्वेन विविक्तमयावाचं वा 'उपाश्रयं' वसतिं 'लब्ध्वा' प्राप्य 'कल्याण' दशोभनम् 'अदुव'त्ति अथवा 'पापं पांशूत्कराकीर्णत्वादिभिरशोभनं, किं ?, न किञ्चित् , सुखं दुःखं चेति गम्यते, एका रात्रिर्यत्र तदेकरात्रं 'करिष्यति' विधास्यति ! कल्याणः पापको वोपाश्रय इति प्रक्रमः, कोऽभिप्रायः ?-केचित् पुरोपचितसुकृता विविधमणिकिरणोद्योतितासु महाधनसमृद्धासु महारजतरजतोपचितमित्तिषु मणिनिर्मितोरुस्तम्भासुर (तदितरे तु जीर्णविशीर्णभन्नकटकस्थूणापटलसंवृतद्वारासु तृणकचवरतुषमूषकोत्करपांशुबुसभस्मविणमूत्रावसङ्कीर्णासु वनकुलमार्जारमूत्रप्रसेकदुर्गन्धिष्वाजन्म वसतिषु वसन्ति, मम त्वद्यैवेयमीरशी श्रोऽन्या भविष्यतीति किमत्र हर्पण | विषादेन वा ?, मया हि धर्मनिहाय विविक्तत्वमेवाश्रयस्यान्वेष्यं, किमपरेण !, 'एवमि'स्यमुना प्रकारेण 'तत्रे' ति|| कल्याणे पापके वाऽऽश्रये 'अध्यासीत' सुखं दुःखं वाऽधिसहेत, प्रतिमाकल्पिकापेक्षं चैकरात्रमिति, स्थविरकल्पिका-M. दीप अनुक्रम [७२] wwwjandiarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~230 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२३|| नियुक्ति: [१०८-१०९] प्रत सूत्रांक ||२३|| पेक्षया तु कतिपया रात्रयः, दिवसोपलक्षणं च रात्रिग्रहणमिति सूत्रार्थः ॥२३॥ अत्र निर्वेदद्वारम्, इह च अदुव पावर्ग' इति सूत्रावयवमर्थतः स्पृशन् उदाहरणमाह नियुक्तिकारः- . कोसंबी जण्णदत्तो सोमदत्तो य सोमदेवो य । आयरिय सोमभूई दुण्हपि य होइ णायवं ॥१०८॥ सन्नाइगमण वियडवेरग्गा दोवि ते नईतीरे । पाओवगया नईपूरएण उदहिं तु उवणीया ॥ १०९ ॥ व्याख्या-कौशाम्बी यज्ञदत्तः सोमदत्तश्च सोमदेवश्च आचार्यः सोमभूतियोरपि च भवति ज्ञातव्यः, खज्ञातिगमनं विकटवैराग्यात् द्वावपि तौ नदीतीरे पादपोपगतौ नदीपूरकेणोदधि तूपनीतौ इति गाथाद्वयाक्षरार्थः॥ १०८ 4-१०९ ॥ भावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदायादवसे यः, स चायम्| कोसंबीए णयरीए जण्णदत्तो धिज्जाइओ, तस्स दो पुत्ता-सोमदत्तो सोमदेवो य, ते दोऽपि निविण्णकामभोगा पछतिया सोमभूई अणगारस्स अंतिए, बहुस्सुथा बहुआगमा य जाया, ते अन्नया य सन्नायपल्लिमागया, तेसिं मायापियरो उज्जेणि गतेलिया, तहिं च विसए धिजाइणो वियर्ड आवियंति, तेहिं तेसि वियर्ड अन्नेण दवेण मेलेऊण १ कौशाम्ब्यां नगर्या यज्ञदत्तो विजातीयः, तस्य द्वौ पुत्री-सोमदत्तः सोमदेवश्च, ती द्वावपि निविणकामभोगी प्रनजितौ सोमभूते| रनगारस्य अन्तिके, बहुश्रुतौ बह्वागमौ च जातो, चौ अन्यदा च संज्ञातपल्लीमागतो, तयोर्मातापितराबुञ्जयिनीं गतौ, तत्र च विषये धिग्जातीया विकटमापिबन्ति, तैस्ताभ्यां विकटमन्येन द्रव्येण मेलयित्वा XXXXXX 处女外交织多次多次 CA दीप अनुक्रम [७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~231 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२४|| नियुक्ति: [१०८-१०९] प्रत सूत्रांक ||२४|| उत्तराध्य. दिणं, केवि भणति-वियर्ड चेव अयाणताण दिण्णं, तेहिवि य तं विसेसं अयाणमाणेहिं पीयं, पच्छा वियडत्ता ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः जाया, ते चिंतेति-अम्हहिं अजुत्तं कयं, पमाओ एस, वरं भत्तं पचक्खायंति ते एमाए णदीए तीरे तीसे कट्ठाण उरि पाओवगया, तत्थ अकाले वरिसं जायं, पूरो य आगतो, हरिया, बुज्झमाणा य उदएण समुदं णीया । तेहिं ॥११॥ समं अहियासियं, अहाउयं पालियं, सेजापरीसहो अहियासितो समविसमाहि सेजाहिं । एवं एसो अहियासिय-121 बोत्ति ॥ शय्यास्थितस्य तदुपद्रवेऽप्युदासीनस्य तथाविधशय्यातरोऽन्यो वा कश्चिदाकोशेदतस्तत्परीषहमाह-- अकोसेज परो भिक्, न तेसिं पइ संजले। सरिसो होई बालाणं, तम्हा भिक्खून संजले ॥२४॥(सूत्रम्) • व्याख्या-'अकोसेज' ति आक्रोशेत्-तिरस्कुर्यात् 'परः' अन्यो धर्मापेक्षया धर्मवाब आत्मव्यतिरिक्तो वा 'भिक्षु' यति, यथा घिग्मुण्ड ! किमिह त्वमागतोऽसीति ?, 'न तेसिं' ति सुपो वचनस्य च व्यत्ययान्न तस्मै 'प्रतिसबलेत्' निर्यातने प्रतिभूतश्चाक्रोशदानतः सवलते, तन्निर्यातनाथ देहदाहलौहित्यप्रत्याक्रोशाभिघातादिभिरग्नि&ा १ दत्तं, केचिदणन्ति-विकटमेव अानानाभ्यां दत्तं, ताभ्यामपि च तद्विशेषमजानानाभ्यां पीतं, पश्चाद्विकटातौं आती, सौ चिन्तयतः -आवाभ्यामयुक्तं कृतं, प्रमाद एषः, वरं भक्तं प्रत्याख्यातमिति ताबेकस्या नद्यास्तीरे तस्याः काष्ठानामुपरि पादपोपगतो, तत्राकाले वर्षा जाता, ॥११॥ ४. पूरश्चागतः, हतौ उपमानौ चोदकेन समुद्रं नीती । ताभ्यां सम्बगध्यासितं, यथायुष्क पालितं, शथ्यापरीषहोऽध्यासितः समविषमामिः शय्याभिः, एवमेषोऽध्यासितव्य इति । दीप अनुक्रम [७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~232 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२४|| नियुक्ति: [१०८-१०९] प्रत सूत्रांक ||२४|| वन दीप्येत, सज्वलनकोपमपि न कुर्यादिति सज्वलेदित्युपादानं, किमेवमुपदिश्यत इत्याह-सदृशः' समानो भवति, सवलन्निति प्रक्रमः, केषां !-'वालानाम्' अज्ञाना, तथाविधक्षपकवत् , यथा-कश्चित् क्षपको देवतया गुणैरावर्जितया दासततमभिवन्धते, उच्यते च-मम कार्यमावेदनीयम् , अन्यदैकेन धिरजातिना सह योद्धमारब्धः, तेन च बलवतार क्षुत्क्षामशरीरो भुवि पातितः ताडितश्च, रात्री देवता वन्दितुमायाता, क्षपकस्तूष्णीमास्ते, ततवासी देवतयाऽभिहितो-भगवन् । किं मयाऽपराद्धं, स प्राह-न तस्य त्वया दुरात्मनो ममापकारिणः किञ्चित्कृतं, सा चावादीत्-न मया विशेषः कोऽप्युपलब्धो यथाऽयं श्रमणोऽयं च धिग्जातिरिति, यतः कोपाविष्टौ द्वावपि समानी सम्पन्नाविति, ततः सती प्रेरणेति प्रतिपन्नं क्षपकेणेति । उक्तमेवार्थ निगमयितुमाह-'तम्ह' ति यस्मात्सरशो भवति वालानां तस्मा|द्भिक्षुने सवलेदिति सूत्रार्थः ॥ २४ ॥ कृत्योपदेशमाह सोच्चा णं फरुसा भासा,दारुणे गामकंटए।तुसिणीओ उवेक्खिज्जा, ण ताओ मणसी करे॥२५॥(सूत्रम्) ___ व्याख्या-'श्रुत्वा' आकर्ण्य, णमिति वाक्यालङ्कारे 'परुषाः' कर्कशाः 'भाषा' गिरो दारयन्ति मन्दसत्त्यानां संयमविषयां धृतिमिति दारणाः ताः, ग्रामः-इन्द्रियग्रामस्तस्य कण्टका इव प्रामकण्टका:-प्रतिकूलशब्दादयः, कण्टकत्वं चैषां दुःखोत्पादकत्वेन मुक्तिमार्गप्रवृत्तिविघ्नहेतुतया च, तदेकदेशत्वेन परुषभाषा अपि तथोक्ताः, भाषाविशेषणत्वेऽपि चात्राविष्टलिङ्गत्वात् लिङ्गता, 'तूष्णीकः' तूष्णीशीलो न कोपात् प्रतिपरुषभाषी, एवंविधश्च ka - - दीप अनुक्रम [७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~233 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२५|| दीप अनुक्रम [७४] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥११२॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||२५|| अध्ययनं [२], निर्युक्ति: [१०८-१०९] 'जो सहद्द हु गामर्केटए अकोसपहारत अणाओ यत्ति इत्यागमं परिभावयन् 'उपेक्षेत' अवधीरयेत् प्रक्रमात्परुषभाषा एव, कथमित्याह-न ता मनसि कुर्यात्, तद्भाषिणि द्वेषाकरणेनेति भाव इति सूत्रार्थः ॥ २५ ॥ इदानीं मुद्गरद्वारं व्याचिख्यासुः 'सुच्चा णन्ति सूत्रसूचितमुदाहरणमाह | रायगिहि मालगारो अज्जुणओ तस्स भज्ज खंदसिरी । मुग्गरपाणी गोट्टी सुदंसणो वंदओ णीइ ॥ ११० ॥ व्याख्या - राजगृहे मालाकारोऽर्जुनकस्तस्य भार्या स्कन्द श्रीः मुहरपाणिर्यक्षो गोष्ठी सुदर्शनो वन्दको 'निरेति'वन्दनार्थं निर्गच्छतीति गाथाक्षरार्थः ॥ ११० ॥ भावार्थस्तु सम्प्रदायादवगम्यः, स चायम् - iti ret अजुणगो नाम मालागारो परिवसति, तस्स भज्जा खंदसिरी णामा, तस्स रायगिहस्स णयरस्स चहिया मोग्गरपाणी नाम जक्खे अज्जुणगस्स कुलदेवयं, तस्स मालागारस्स आरामस्स पन्थे चैव जक्खो । अन्नया खंदसिरी भत्तं तस्स भत्तारस्त गेउं गया, अग्गाई पुप्फाई धेनुं घरं गच्छति, मोग्गरपाणिघरए य ट्टियाए दुल्हलि १ यः सहते ग्रामकण्टकान् आक्रोशप्रहारान तर्जनाश्च । २ राजगृहे नगरे अर्जुनो नाम मालाकारः परिवसति, तस्य भार्या स्कन्दश्रीर्नानी, तस्माद्राजगृहान्नगराद्वहिर्मुद्रपाणिर्नाम यक्ष: अर्जुनस्य कुलदेवता, तस्य मालाकारस्य आरामस्य पथि चैव यक्षः । अन्यदा स्कन्दश्री: भक्तं तस्मै भत्रे नेतुं गता, अम्नाणि पुष्पाणि गृहीत्वा गृहं गच्छति, मुहरपाणिगृहे च स्थितायां दुर्ललितायां Education intimational For Past Only परीषहाध्ययनम् २ ~234~ | ॥ ११२ ॥ www.brary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२५|| ___ नियुक्ति: [११०] प्रत सूत्रांक ||२५|| याए गोट्ठीएहिं छहिं जणेहिं दिवा, ते भणंति-एसा अजुणमालागारस्स भजाऽपडिरूवा, गिण्हामो णं, तेहिं सा गहिया, छवि जणा तस्स जक्खस्स पुरतो भोगे भुंजंति, सोऽवि मालागारो णिचकालमेव अग्गेहिं वरहिं पुप्फेहिं जक्वं अचेइ, अचिउकामो ततो आगच्छइ, ताए ते भणिया-एसो मालागारो आगच्छति तो तुम्भे मए किं विसज्जेहिह ,तेहिं । भणायं-एयाए पियं, तेहि भणियं-मालागारं बंधामो, तेहिं सो बद्धो अबहोडेण, जक्खस्स पुरतो बंधिऊण पुरतो चेव से x भारियं भुजंति, सा य तस्स भत्तारस्स मोहुप्पाइयाई इत्थिसहाई करेइ, पच्छा सो मालागारो चितेति एवं अहं जक्खं पणिचकालमेव अग्गेहिं बरहिं पुप्फेहि अचेमि, तहावि अहं एयस्स पुरतो चेव एवं कीरामि, जइ एत्थ कोइ जक्खो होतो तो अहं न कीरतो, एवं सुबत्तं एवं कर्ट णत्यि एत्थ कोइ मोग्गरपाणी जक्खो, ताहे सो जक्खो अणुकंपंतो १ गोष्ठीकैः पर्जिनदृष्टा, ते भणन्ति-एषाऽर्जुनमालाकारस्य भार्याऽप्रतिरूपा, गृह्णीम एतां, तैः सा गृहीता, पडपि जनास्तस्य यक्षस्य १ पुरतो भोगान मुखन्ति, सोऽपि मालाकारो नित्यकालमेवानवरैः पुष्पैर्यक्षमर्चति, अर्चितुकामस्तत आगच्छति, तया ते भणिताः-एष मालाकार आगच्छति तत् यूयं मां किं विसृजत, तैतिम्-एतस्याः प्रियं, तैर्भणित-मालाकार बनीमः, तैः स बद्धोऽवखोटकेन, यक्षस्य पुरतो बद्धा पुरत एव तस्य भार्या भुञ्जन्ति, सा च तस्य भर्तुर्मोहोत्पादकानि स्त्रीशब्दानि करोति, पश्चात् स मालाकारश्चिन्तयति-एनमहं वक्षं नित्यकालमेव अवरैः पुष्पैरर्चयामि, तथाप्यहमेतस्य पुरत एवं क्लाम्यामि, यवत्र कोऽपि यक्षोऽभविष्यत्तदाऽहं नाक-४ | मिष्यम् , एवं मुख्यतमेतत् काष्ठं, नास्यत्र कोऽपि मुद्रपाणिर्यक्षः, तदा स यक्षोऽ नुकम्पयन् दीप अनुक्रम [७४] JABERatinintamational wwsaneiorary om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~235 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२५|| दीप अनुक्रम [७४] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ ११३ ॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) निर्युक्ति: [११०] अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२५|| मालागारस्स सरीरमणुपविट्टो, तडतडस्स बंधे छेत्तूण लोहमयं पलसहस्सनिष्पन्नं मोग्गरं गहाय अण्णाइट्ठो समाणो ते छप्पि इत्थिसत्तमे पुरिसे घायति, एवं दिने दिने छ इत्थिसत्तमे पुरिसे घाएमाणे विहरह, जणवतोऽवि रायगिहातो णगरातो ण ताव णिग्गच्छइ जाव सत्त घातियाई । तेणं कालेणं तेणं समर्पणं भगवं महावीरे समोसरिए, जाव सुदंसणो सेट्ठी बंदतो णीह, अजुणपण दिट्ठो, सागारपडिमं ठिओ, न तरह अकमिउं, परिपेरतेहि भमित्ता परिसंतो, अज्जुणतो सुदंसणं अणमिसाए दिट्ठीए अवलोएद, जक्खोऽवि मोग्गरं गहाय पडिगओ, पडितो अज्जुणतो, उडिओ य तं पुच्छर-कहिं गच्छसि ?, भणइ-सामिं बंदिउं, सोऽवि गतो, धम्मं सोचा पचतितो । रायगिहे १ मालाकारस्य शरीरमनुप्रविष्टः, त्रटनटदितिवन्धान् हिरवा लोहमयं सहस्रपलनिष्पन्नं मुद्ररं गृहीत्वा अन्याविष्टः ( परायत्तः ) सन् तान् पढपि स्त्रीसप्तमान् पुरुषान् घातयति, एवं दिने दिने पट् स्त्रीसप्तमान् पुरुषान् घातयन् विचरति, जनपदोऽपि राजगृहात् नगरान्न तावन्निर्गच्छति यावत्सप्त घातितानि । तस्मिन् काले तस्मिन् समये भगवान् महावीरः समवसृतः यावत् सुदर्शनः श्रेष्ठी बन्दको निरेति, अर्जुनेन दृष्टः, साकारप्रतिमां स्थितः, न शक्नोत्याक्रमितुं परिपर्यन्तेषु भ्रान्त्वा परिश्रान्तः, अर्जुनः सुदर्शनमनिमेषया दृष्ट्या अवलो कयति, यक्षोऽपि मुङ्गरं गृहीत्वा प्रतिगतः पतितोऽर्जुनः, उत्थितश्च तं पृच्छति क गच्छसि १, भगति स्वामिनं वन्दितुं सोऽपि गतः, धर्म श्रुत्वा प्रब्रजितः, राजगृहे Education intimational Forest Use Only परीपहाध्ययनम् २ ~236~ ॥११३॥ www.ncbrary.org v पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२६|| नियुक्ति: [११०] प्रत सूत्रांक ||२६|| भिक्खं हिंडतो सयणमारगोत्ति लोएणं अकोसिजइ णाणापगारेहिं अकोसेहिं, सो सम्म सहइ, सइंतस्स केवललोणाणं समुप्पणं ॥ एवमन्यैरपि साधुभिः आक्रोशपरीषहः सोढव्यः ॥ कश्चिदाक्रोशमात्रेणातुप्यन्नधमाधमो वधमपि ४ विदध्यादिति बधपरीपहमाह हओण संजले भिक्खू, मणंपिणो पउस्सए।तितिक्खं परमंणच्चा, भिक्खुधम्ममि चिंतए॥२६॥(सूत्रम्) KI व्याख्या-हतः' यष्ट्यादिभिः ताडितो 'न सवलेत कायतः कम्पनप्रत्याहननादिना वचनतश्च प्रत्याक्रोशदा नादिना भृशं ज्वलन्तमिवात्मानं नोपदर्शयेत्, भिक्षुः 'मनः' चित्तं तदपि न प्रदूषयेत्' न कोपतो विकृतं कुर्वीत, किन्तु 'तितिक्षा क्षमा-धर्मस्य दया मूलं न चाक्षमावान् दयां समाधत्ते । तस्माद्यः क्षान्तिपरः स साधयत्युत्तमं की धर्मम् ॥१॥ इत्यादिवचनतः 'परमां धर्मसाधनं प्रति प्रकर्षवती 'ज्ञात्वा' अवगम्य 'भिक्षुधर्मे' यतिधर्म, यद्वा भिक्षुधर्म क्षान्त्यादिकं वस्तुखरूपं वा चिन्तयेत् , यथा-क्षमामूल एव मुनिधर्मः, अयं चास्मन्निमित्तं कर्मोपचिनोति, अस्मदोष एवायम् , अतो नेम प्रति कोप उचित इति सूत्रार्थः ॥२६ ।। अमुमेव प्रकारान्तरेणाहसमणं संजयं दंतं, हपिणज्जा कोऽवि कत्थवि।नस्थि जीवस्स नासत्ति,ण तं पेहे असाहवं ॥२७॥(सूत्रम्)/X दीप अनुक्रम [७५] १ मिक्षा हिण्डमान: स्वजनमारक इति लोकेनाकोश्यते नानाप्रकारैराकोशैः स सम्यक् सहते, सहमानस्य केवलज्ञानं समुत्पन्नम् । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~237 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२७|| ___ नियुक्ति: [११०] प्रत सूत्रांक ||२७|| उत्तराध्य. व्याख्या-'समर्ण' श्रमणं सममनसं वा-तथाविधवधेऽपि धर्म प्रति प्रहितचेतसं, श्रमणश्च शाक्यादिरपि स्वादि-18 परीषहा है त्याह-संयत' पृथ्व्यादिच्यापादननिवृत्तं, सोऽपि कदाचिल्लाभादिनिमित्तं बाह्यवृत्त्यैव सम्भवेदत आह-'दान्तम्'दा ध्ययनम् इन्द्रियनोइन्द्रियदमेन 'हन्यात्' ताडयेत्, 'कोऽपि' इति तथाविधोऽनार्यः 'कुत्रापि' प्रामादौ, तत्र किं विधेयमित्याह॥११॥ नास्ति 'जीवस्य' आत्मन उपयोगरूपस्य 'नाशः' अभावः, तत्पर्यायविनाशरूपत्वेन हिंसाया अपि तत्र तत्राभिधानाद्, 'इती'त्यस्माद्धेतोः न 'त'मिति घातकं प्रेक्षेत असाधुमर्हति यत्प्रेक्षणं भ्रुकुटिभङ्गादियुक्तं तदसाधुबत्, किन्तु हरिपुजयं प्रति सहायोऽयमितिधिया साधुवदेव प्रेक्षतेति भावः, अथवा अर्गम्यमानत्वान्न तं प्रेक्षेतापि असाधुना तुल्यं वत्तेते इति असाधुवत्, किं पुनरपकारायोपतिष्ठेत् संक्लिश्नाति वा ?, असाधुर्हि सत्यां शक्ती प्रत्यपकारायोपतिष्ठते असत्यां तु विकृतया हशा पश्यति सङ्क्लेशं वा कुरुत इत्येवमभिधानं, पठ्यते च-'न य पेहे असाधुयं ति चकारस्थापिशब्दार्थस्य भिन्नक्रमत्वात् प्रेक्षेतापि न-चिन्तयेदपि न, काम् ?-'असाधुता' तदुपरि द्रोहखभावतां, पठन्ति च-एवं पेहिज संजतो' इति सूत्रार्थः ॥ २७॥ अधुना वणेत्ति द्वारं, तत्र 'हतो न सत्यलेदि' त्यादि सूत्रम-15 दार्थतः स्पृशन्नुदाहरणमाह | ॥११४॥ सावत्थी जियसत्तू धारणि देवी य खंदओ पुत्तो। धूआ पुरंदरजसा दत्ता सा दंडईरण्णो ॥ १११ ॥ मुणिसुव्वयंतेवासी खंदगपमुहा य कुंभकारकडे । देवी पुरंदरजसा दंडइ पालग मरूए य ॥ ११२ ॥ दीप अनुक्रम [७६] wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~238~ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२७|| नियुक्ति: [१११-११३] AA% * प्रत सूत्रांक ||२७|| पंचसया जंतेणं वहिआ उ पुरोहिएण रुटेणं । रागदोसतुलग्गं समकरणं चिंतयंतेहिं ॥ ११३ ॥ | व्याख्या-श्रावस्ती जितशत्रुर्धारिणी देवी च स्कन्दकः पुत्रो दुहिता पुरन्दरयशा दत्ता सा दण्डकिराजाय, मुनिसुव्रतान्तेवासिनः स्कन्दकप्रमुखाश्च कुम्भकारकटे देवी पुरन्दरयशा दण्डकिः पालकः मरुकश्च पञ्च शतानि यत्रेण घातितानि तुः पूरणे पुरोहितेन रुप्टेन पालकेन रागद्वेषयोस्तुलाप्रमिव-तदनभिभाव्यत्वेन रागद्वेषतुलानं 'समकरणं माध्यस्थ्यपरिणामं भावयद्भिः, खकार्य साधितमिति शेषः, इति गाथात्रयाक्षरार्थः ॥१११-११२-११३॥ भावार्थस्तु । सम्प्रदायादवसेयः, स चायम् सावत्थीए नयरीए जियसत्तू राया, धारिणी देवी, तीसे पुत्तो खंदओ णाम कुमारो, तस्स भगिणी पुरंदरजसा, सा लाकुंभकारकडे नयरे दंडगी नाम राया तस्स दिना, तस्स य दंडकिस्स रण्णो पालगो णाम मरुतो पुरोहितो। अन्नया| सावत्थीए मुणिसुव्वयसामी तित्थयरो समोसरिओ, परिसा निग्गया. खंदतोऽपि निग्गतो, धम्म सोचा सावगो जाओ। | १ श्रावस्त्यां नगर्चा जितशत्रू राजा, धारिणी देवी, तस्याः पुत्रः स्कन्दको नाम कुमारः, तस्य भगिनी पुरन्दरयशाः, सा कुम्भकारकटे नगरे दण्डकी नाम राजा तस्मै दत्ता, तस्य च दण्डकिनो राज्ञः पालको नाम ब्राह्मणः पुरोहितः । अन्यदा श्रावस्त्यां मुनिसुव्रतस्वामी तीथेकरः समवसृतः, पर्षन्निर्गता, स्कन्दकोऽपि निर्गतः, धर्म श्रुत्वा श्रावको जातः । ER दीप अनुक्रम [७६] -54-- wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~239~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२७|| नियुक्ति: [१११-११३] बृहदृत्तिः प्रत सूत्रांक ||२७|| उत्तराध्य. अन्नयाँ सो पालकमरुतो दूयत्ताए आगतो सावधि नयरिं, अत्थाणिमज्झे साहूणं अवपणं वयमाणो खंदएणं परीषहानिष्पिट्टपसिणयागरणो कतो, पतोसमावण्णो, तप्पभिई चेव खंदगस्स छिद्दाणि चारपुरिसेहिं मग्गावितो बिहरह, ध्ययनम् जाव खंदगो पंचजणसएहिं कुमारोलग्गएहि सद्धिं मुणिसुव्वयसामिसगासे पधतितो, बहुसुतो जातो, ताणि चेव ॥११५॥ से पंच सयाणि सीसत्ताए अणुण्णायाणि । अन्नया खंदओ सामिमापुच्छइ-पचामि भगिणीसगासं, सामिणा भणि आय-उवसग्गो मारणंतितो, भणइ-आराहगा विराहगा वा ?, सामिणा भणियं-सबे आराहगा तुम मोत्तुं, सो भणहै।इ-लहूं, जदि एत्तिया आराहगा, गओ कुंभकारकडं, मरुपण जहिं उज्जाणे ठिो तहि आउहाणि मियाणि, राया। बुग्गाहिओ-जहा एस कुमारो परीसहपराइतो एएण उवाएण तुमं मारित्ता रजं गिहिहित्ति, जदि ते विपचतो[R __१ अन्यदा स पालको ब्राह्मणो दूततायै आगतः श्रावस्ती नगरीम् , आस्थानिकामध्ये साधूनामवर्ण वदन स्कन्दकेन निष्पृष्टप्रभव्याकरणः वः, प्रद्वेषमापन्नः, तरप्रभृत्येष स्कन्दकस्य छिद्राणि चारपुरुषैर्मार्गयन विहरति, यावत्स्कन्दकः पञ्चमिर्जनशतैः कुमारावलगकैः सार्ध मुनिहै सुव्रतस्थामिसकाशे प्रबजितः, बहुक्षुतो जातः, तान्येव पञ्च शतानि तस्मै शिष्यतयाऽनुज्ञातानि । अन्यदा स्फन्दकः स्वामिनमापृच्छति वजामि भगिनीसकाशं, स्वामिना भणितम्-उपसर्गों मारणान्तिकः, भणति-आराधका विराधका बा ?, स्वामिना भणितं सर्वे आराधकास्त्वां मुक्त्वा, स भणति-लष्टं, ययेतावन्त आराधकाः, गतः कुम्भकारकट, मरकेण यत्रोधाने स्थितः तत्रायुधानि गोपितानि, राजा | युदाहित:-यथेष कुमारः परीषहपराजित एतेनोपायेन त्वां मारयित्वा राज्यं प्रहीष्यतीति, यदि तब विप्रत्ययः दीप अनुक्रम ॥११५॥ [७६] JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~240 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२७|| नियुक्ति: [१११-११३] प्रत सूत्रांक ||२७|| उजाणं पलोएहि, आउहाणि ओलइयाणि दिवाणि, ते बंधिऊण तस्स चेव पुरोहियस्स समप्पिया, तेण सवे पुरि सजंतेण पीलिया, तेहिं सम्मं अहियासियं, तेसिं केवलणाणं उप्पणं सिद्धा य । खंदतोऽवि पासे धरिओ, लोहियचि8/रिकाहिं भरिजंतो सबतो पच्छा जंते पीलितो णिदाणं काऊण अग्गिकुमारेसु उबवण्णो। तंपि से रयहरणं रुहिरलितं पुरिसहत्थोत्ति काउं गिद्धेहिं पुरंदरजसाते पुरतो पाडियं, सावितदिवस अधिर्ति करेइ जहा साधू ण दीसंति, तं च णाए दिलु, पचभिन्नाओ य कंबलो, णिसिजातो छिण्णातो, ताए चेव दिण्णो, ताए नायं-जहा ते मारिया, ताए खिंसितो राया-पाव ! विणट्ठोऽसि,ताए चिंतियं-पपयामि, देवेहिं मुणिसुच्चयसगास नीया, तेणवि देवेण णगरं दहूं सजणवयं, अजवि दंडगारण्णंति भण्णइ । अरण्णस्स य वणाख्या भवति, तेन द्वारगाथायां वनमित्युक्तम् । एत्थ तेहिं साहहिं ।। १ उद्यानं प्रलोकय, आयुधान्यवलगितानि (गोपितानि ) दृष्टानि, ते बध्वा तस्मायेव पुरोहिताय समर्पिताः, तेन सर्वे पुरुषयरेण पीलिताः, तैः सम्यगध्यासितं, तेषां केवलज्ञानमुत्पन्न सिद्धाध । स्कन्दकोऽपि पावे धृतः, रुधिरच्छटामिनियमाणः सर्वतः पश्चात् यत्रे पी लितो निदानं कृत्वाऽमिकुमारेपूत्पन्नः । तदपि तस्य रजोहरणं रुधिरलिप्तं पुरुषहस्त इतिकृत्वा गृ]ः पुरन्दरयशसः पुरतः पातितं, साऽपि दतद्दिवसेऽधृति करोति यथा साधवो न दृश्यन्ते, तच्चानया दृष्ट, प्रत्यभिज्ञातच कम्बलः, निषद्याश्छिन्नाः, तथैव दत्तः, तया ज्ञातं यथा ते मासरिताः, तया खिसितो राजा-पाप ! विनष्टोऽसि, तथा चिन्तितं-प्रवजामि, देवैर्मुनिसुव्रतसकाशं नीता, तेनापि देवेन नगर दग्धं सजनवजम् । ४ अद्यापि दण्डकारण्यमिति भण्यते । अरण्यस्य च चनाख्या भवति । अत्र तैः साधुभि दीप अनुक्रम [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~241 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२८|| नियुक्ति: [१११-११३] - प्रत सूत्रांक ||२८|| उत्तराध्य. वहपरीसहो अहियासितो सम्मं, एवं अहियासेयचं, ण जहा खंधएण णाहियासियं ॥ परैरमिहतस्य च तथाषिधी-1 परीषहा पधादि प्रासादि च सदोपयोगि यतेर्याचितमेव भवतीति यायापरीषहमाहबृहद्वृत्तिः ध्ययनम् दुकरं खलु भो ! णिचं, अणगारस्स भिक्खुणो। सव से जाइयं होइ, नत्थि किंचि अजाइयं ॥२८॥ (सूत्रम्) ॥११॥ M ब्याख्या-दुःखेन क्रियत इति दुष्कर-दुरनुष्ठानं, खलुर्विशेषणे निरुपकारिण इति विशेष द्योतयति, 'भो' इसूत्यामवणे 'नियं' सर्वकालं, यावजीवमित्यर्थः, अनगारस्य भिक्षोरिति च प्राग्वत्, किं तत् दुष्करमित्याह-यत् 'स-18 म्' आहारोपकरणादि 'से' तस्य याचितं भवति, नास्ति 'किञ्चिद्' दन्तशोधनाद्यपि अयाचितं, ततः सर्वस्यापि है वस्तुनो याचनमिति गम्यमानेन विशेष्येण दुष्करमित्यस्य सम्बन्ध इति सूत्रार्थः ॥ २८ ॥ ततश्च गोयरग्गपविट्ठस्स, हत्थे नो सुप्पसारए । सेओ अगारवासोत्ति, इइ भिक्खू न चिंतए ॥२९॥(सूत्रम्) टू व्याख्या-गोरिव चरणं गोचरो, यथाऽसौ परिचितापरिचितविशेषमपहायैव प्रवर्त्तते तथा साधुरपि भिक्षार्थ, तस्यायं-प्रधानं यतोऽसौ एषणायुक्तो गृह्णाति न पुनगौरिख यथा कथञ्चित् , तस्मिन् प्रविष्टो गोचरायप्रविष्टः तस्य, जापाणिः' हस्तो 'नो' नैव सुखेन प्रसार्यते पिण्डादिग्रहणार्थ प्रवर्त्यत इति सप्रसारः स एव सुप्रसारकः, कथं हि नि-IN ॥११६॥ १बंधपरीषहोऽध्यासितः सम्यक, एवमध्यासितव्यं, न यथा स्कन्दकेन नाध्यासितम् । %* दीप अनुक्रम [७७]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~242 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||२९|| नियुक्ति: [११३...] C प्रत सूत्रांक ||२९|| रुपकारिणा परः प्रतिदिन प्रणयितुं शक्यः, उत्तरतिशब्दस्य भिन्नक्रमत्वाद् 'इती'त्यस्माद्धेतोः 'श्रेयान्' अतिशयप्रशस्यः 'अगारवासो' गार्हस्थ्यं, तत्र हि न कश्चिद्याच्यते, खभुजार्जितं च दीनादिभ्यः संविभज्य भुज्यते, 'इतीखेतद्भिक्षुःन चिन्तयेद् , यतो गृहवासो वहुसावधो निरवयवृत्त्यर्थं च तत्परित्यागः, ततः खयंपचनादिप्रवृत्तेभ्यो। गृहिभ्यः पिण्डादिग्रहणं न्याय्यमिति भाव इति सूत्रार्थः ॥२९॥ साम्प्रतं रामद्वारं, तत्र 'दुकरं खलु भो ! णिचं' इति । सूत्रमर्थतः स्पृशन्नुदाहरणमाह - जायणपरीसहमि बलदेवो इत्थ होइ आहरणं । व्याख्या-याचापरीषहे बलदेवोऽत्र भवत्याहरणम्-उदाहरणम् । अत्र सम्प्रदाय: जया सो वासुदेवसवं वहतो सिद्धत्येणं पडिबोहिओ कण्हस्स सरीरगं सकारेउं कयसामातितो लिंग पडिवजिउ तुंगीसिहरे तवं तप्पमाणो माणेण-कहि भिवाण भिक्खडं अल्लीसं ?, तेण कट्ठाहाराईण भिक्खं गिण्हइ, न गामं नयरं वा अल्लियति । तेण सोणाहियासितो जायणापरीसहो, एवं न कायब्वं, अन्ने भणंति-बलदेवस्स भिक्खं | १णोऽपरतः .... क्यम् २ यदा स वासुदेवशव वहन सिद्धार्थेन प्रतियोधितः कृष्णस्य शरीरकं सत्कार्य (संस्कृत्य ) कुवसामायिको लिङ्गं प्रतिपद्य तुङ्गिशिखरे तपः तपम् मानेन-क भृत्यान् भिक्षार्थमाश्रयिष्ये ?, तेन काष्ठाहारकादिभ्यो भिक्षा गृहाति, न प्रामं नगरं वाऽऽभयते । तेन स नाध्यासितो याचनापरीपहः, एवं न कर्तव्यम् । अन्ये भणन्ति-बलदेवस्य भिक्षा 5625 25-% ONTACRORGANGANGA दीप अनुक्रम [७८] EXX JAMERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~2434 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३०|| नियुक्ति: [११३...] प्रत सूत्रांक ||३०|| उत्तराध्य. भिमंतस्स बहुओ जणो तस्स रूवेणावक्खित्तो ण किंचि अन्नं जाणइ, तचित्तो चेव चिट्ठद, तेण सो न हिंडड गामा परीपहाबृहद्वृत्तिः गरादि, जहागयपहियाहिंतो चेव भिक्खं जायतित्ति, एस जायणापरीसहो पसत्थो ॥ एवं शेषसाधुभिरपि याया- ध्ययनम् परीपहः सोढव्यः ॥ याचाप्रवृत्तश्च कदाचिल्लाभान्तरायदोपतो न लभेतापीत्यलाभपरीषहमाह॥११७॥ परेसु गासमेसिज्जा, भोयणे परिणिट्टिए । लद्धे पिंडे आहरिज्जा, अलद्धे नाणुतप्पए ॥३०॥ (सूत्रम्) | व्याख्या-'परेषु' इति गृहस्थेषु 'पास' कवलम्, अनेन च मधुकरवृत्तिमाह, 'एपयेद्' गवेषयेत् , भुज्यत इति | भोजनम्-ओदनादि तस्मिन् 'परिनिष्ठिते' सिद्धे, मा भूत्प्रथमगमनात्तदर्थे पाकादिप्रवृत्तिः, सतच 'लब्धे' गृहिभ्यः | प्राप्ते 'पिण्डे' आहारे 'अलब्धे वा अप्राप्ते वा नानुतप्येत संयतः, तद्यथा-अहो! ममाधन्यता यदहं न किञ्चिलमे, ६ उपलक्षणत्वालब्धे वा लब्धिमानहमिति न दृष्येत्, यद्वा लब्धेऽप्यल्पेऽनिष्टे वा सम्भवत्येवानुताप इति सूत्रार्थः॥३०॥ किमालम्बनमालम्च्य नानुतप्यतेत्साहअजेवाहण लब्भामि, अवि लाभो सुए सिया। जो एवं पडिसंविक्खे, अलाभोतं न तज्जए॥३१॥(सूत्रम्) ॥११७॥ WI १भ्राम्यतो वहुर्जनसस्य रूपेणाक्षिणः न किचिदन्यत् जानाति, तचित्तश्चैव तिष्ठति, तेन स न हिण्डते प्रामाकरादिषु, यथागतपथिकादिभ्या नाए भिक्षा याचते इति, एप याचनापरीपहः प्रशस्तः । २ अलद्धे वा नाणुतप्पेज संजए (टीका) दीप अनुक्रम [७९] - * पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~244 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३१|| नियुक्ति: [११३...] प्रत सूत्रांक ||३१|| व्याख्या-'अद्यच' अस्मिन्नेवाहन्यहं 'न लभे' न प्राप्नोमि, 'अपिः' सम्भावने, सम्भाव्यत एतत् 'लाभः' प्राप्तिः 'ब' आगामिनि दिने 'स्याद् भवेत् , उपलक्षणं श्व इत्यन्येधुरन्यतरेधुर्वा मा वा भूदित्यनास्थामाह, य एवम्' उक्तप्रका-18 रेण 'पडिसंविक्खें ति प्रतिसमीक्षतेऽदीनमनाः अलाभमाश्रित्यालोचयति, 'अलाभः' अलाभपरीषहः तं 'न तर्ज-1& यति' नाभिभवति, अन्यथाभूतस्त्वभिभूयत इति भावः ॥ ३१ ॥ अत्र लौकिकमुदाहरणम् वासुदेवपलदेवसबगदारुगा अस्सबहिया अडवीए नग्गोहपायवस्स अहे रतिं वासोक्गया, जामग्गहणं, दारुगस्स पढमो जामो, कोहो पिसायरूवं काऊण आगतो, दारुगं भणइ-आहारत्थीऽहं उवागओ, एए सुत्ते भक्खयामि, युद्धं वा देहि, दारुगेण भणियं-बाद, तेण सह संपलग्गो, दारुगो य तं पिसायं जहा जहा न सकेइ णिहणिउं तहा। |तहा रुस्सति, जहा जहा रस्सद तहा तहा सो कोहो बहुति, एवं सो दारुगो किच्छपाणो तं जामगं निचाहेइ, प-21 च्छा सचगं उहावेइ, सचगोऽवि तहेव पिसाएण किच्छपाणो कतो, ततिए जामे बलदेवं उहवेइ, एवं बलदेवोऽपि १ वासुदेवबलदेवसत्यकदारुका अश्वापहृता अटल्या न्यग्रोधपादपस्वाधो रात्री वासभुपागताः, यामग्रहणं, दारुकस्य प्रथमो यामः, क्रोधः | |पिशाचरूपं कृत्वाऽऽगतः, दारुकं भणति-आहारार्थ्यहमुपागतः, एतान् सुप्रान् भक्षयामि, युद्धं वा देहि, दारुकेण भणितं-बाह, तेन सह | संप्रलग्नः, दारुकश्च तं पिशाचं यथा यथा न शक्नोति निहन्तुं तथा तथा रुष्यति, यथा यथा रुष्यति तथा तथा स क्रोधो वर्धते, एवं स दारुकः कृच्छ्रप्राणस्तयामं निर्वहति, पश्चात्सत्यकमुत्थापयति, सत्यकोऽपि तथैव पिशाचेन कृच्छ्रप्राणः कृतः, तृतीये यामे बलदेवमुत्थापयति, एवं बलदेवोऽपि 552525-25***** 20 दीप अनुक्रम [८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~245 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३१|| नियुक्ति: [११४] बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||३१|| उत्तराध्य चउत्थे जामे वासुदेवं उट्ठवेइ, वासुदेवो तेण पिसाएण सहेव भणितो, वासुदेवो भणति-मं अणिजिउं कहं मम स-II | परीपहा हाए खाहिसि', जुद्धं लग्गं, जहा जहा जुज्झइ पिसाओ तहा तहा वासुदेवो अहो बलसंपुण्णो अयं मल्लो इति|| ध्ययनम् हतूसए, जहा जहा तूसए तहा तहा पिसाओ परिहायति, सो तेण एवं खविओ जेण घेत्तुं उयट्टीए छूढो, पभाए ॥११॥ पस्सए ते भिन्नजाणुकोप्परे, केणंति पुठ्ठा भणति-पिसाएण, वासुदेवो भणति-स एस कोवो पिसायरूपधारी मया पसंतयाए जितो, उयहिणीए णीणेऊण दरिसिओ । इति सूत्रार्थः ॥ सम्प्रति 'पुरे'तिद्वारं, 'पुरा' इति पूर्वस्मिन् काले कृतं कर्मेति गम्यते, तत्र च 'णाणुतप्पेज संजएत्ति' सूत्रावयवमर्थतः स्पृशनुदाहरणमाह-- किसिपारासरढंढो अलाभए होइ आहरणं ॥ ११४ ॥ व्याख्या-कृषिप्रधानः पारासरः कृषिपारासरो जन्मान्तरनाम्ना 'ढण्ढ' इति ढण्ढणकुमारः 'अलाभके' अलाभ| परीषहे भवत्याहरणमिति गाथापश्चार्धाक्षरार्थः । भावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदायादवसेयः, स चायम् चतुर्थे यामे वासुदेवमुत्यापयति, वासुदेवस्तेन पिशाचेन तथैव भणितः, वासदेवो भणति-मामनिर्जित्य कथं भग सहायान भक्षयिष्यसि ? युद्ध लमं, यथा यथा युध्यते पिशाचसथा तथा वासुदेवः अहो बलसंपन्नोऽयं मल्ल इति तुष्यति, यथा यथा तुष्यति तथा तथा पिशाचः परि-II काहीयते, स तेनैवं अपितः वेन गृहीत्वा कट्यां (जवायां) क्षिप्तः, प्रभाते तान् भिन्नजानुकूपरान् पश्यति, केनेति पृष्टा भणन्ति-पिशाचेन, | दवासुदेवो भणति-स एप कोपः पिशाचरूपधारी मया प्रशान्ततया जितः, जवाया निष्काश्य दर्शितः । दीप अनुक्रम [८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~246 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३१|| नियुक्ति: [११४] % % प्रत सूत्रांक ||३१|| % एगंमि गामे एगो पारासरो नाम, तम्मि य अन्ने पारासरा अत्थि, सो पुण किसीए कुसलो अहवा सरीरेण किसो तेणं किसिपारासरो, सो य तम्मि गामे आउत्तियं राउलियं चरिं वाहेइ, ते य गोणादी दिवसं छापल्लया भत्तवेलं पडिच्छंति, पच्छा ते भत्तेवि आणीए मोएउकामे भणइ-एकेक हलबंभं देह, तो पच्छा भुंजह, तेहिं छहिंवि हलसएहि बहुयं वाहियं, तेण तहिं बहुयं अंतराइयं बद्धं, मरिऊण य सो संसारं भमिऊण अनेण सुकयविसेसेण वासुदेवस्स। पुत्तो जातो ढंढोत्ति, अरिहनेमिसयासे पचइतो, (ग्रन्थानम् ३०००) अंतरायं कम उदिन्नं, फीयाए बारवईए हिंडतो र न लभति, कहिचिवि जया लभति तदा जंवा तं वा, तेण सामी पुच्छितो, तेहिं कहियं जहावत्तं, पच्छा तेण अभिग्गहो गहितो, जहा-परस्स लाभो न गिण्हियन्यो । अन्नया वासुदेवो पुच्छइ तित्थयरं-एएसिं अट्ठारसण्हं समणसाह १ एकस्मिन् प्रामे एका पाराशरो नाम, तस्मिंश्चान्ये पाराशराः सन्ति, स पुनः कृषौ कुशलोऽथवा शरीरेण कृशस्तेन कृषिपाराशरः। सा(कशपाराशरः), स च तस्मिन प्रामे युक्तिकं राजकुलिक चारिं वाहयति, ते च गवादयो विषसे छायार्थिनः भक्तवेला प्रतीच्छन्ति, पश्चातान भक्तेऽपि आनीते मोक्तुकामान भणति-एकैक हलकर्ष दत्त ततः पश्चात भुवं, तैः पतिरपि हलशरीर्षहु वाहितं, तेन बहु तत्रान्तराविकं | बद्धं, मृत्वा च स संसार भ्रान्त्वा अन्येन सुकृतविशेषेण वासुदेवस्य पुत्रो जातो डण्ड इति, अरिष्टनेमिनः सकाशे प्रबजितः, अन्तरायं कर्मोदीर्ण, स्फीतायां द्वारिकायां हिण्डमानो न लभते, कचिदपि यदा लभते तदा यद्वा तद्वा, तेन स्वामी पृष्टः, वैः कथितं यथावृत्तं, पश्चात् तेनाभिग्रहो || गृहीतः, यथा-परस्य लाभो न ग्रहीतव्यः । अन्यदा वासुदेवः पृच्छति तीर्थकरम्-एतस्यामष्टादशश्रमणसाहस्या % दीप अनुक्रम [८०] % पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~2474 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३१|| नियुक्ति: [११४] प्रत सूत्रांक ||३१|| उत्तराध्य. स्सीणं को दुकरकारतो?, तेहिं भणियं, जहा-ढंढो अणगारो, अलाभपरीसहो कहिओ, सो कहिं?, सामी भणइ-णगरि परीपहा पविसंतो पेच्छिहिसि, दिठ्ठो पविसंतेणं, हत्धिखंधाओ ओवरिऊण बंदिओ, सो य इकेण इभेण दिट्ठो, जहा महप्पा | ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः एस जो वासुदेवेण वंदितो, सो य तं चेव घरं पविट्ठो, तेण परमाए सद्धाए मोयगेहि पडिलाभितो, भमिऊण सा॥११९॥ मिस्स दावइ पुच्छइ य-जहा मम अलाभपरीसहो खीणो, पच्छा सामिणा भण्णति-ण खीणो, एस वासुदेवस्स लाभो, तेण परलाभ न उवजीवामित्तिकाउं अमुच्छियस्स परिठ्ठवितस्स केवलणाणं समुप्पण्णं । एवं अहियासियब्यो अलाभपरीसहो जहा ढंढेण अणगारेण ॥ अलाभाचान्तप्रान्ताशिनां कदाचिद्रोगाः समुत्पद्येरनिति रोगपरीषहमाहणच्चा उप्पइयं दुक्खं, वेदणाए दुहट्टिए । अदीणो ठावए पण्णं, पुटो तत्थऽहियासए ॥३२॥(सूत्रम्) ___ व्याख्या-'ज्ञात्या' अधिगम्य 'उत्पत्तिकम् ' उद्भूतं, दुःखयति इति दुःखः प्रस्तावात् ज्वरादिरोगस्तं 'वेदनया' |१को दुष्करकारकः!, तैणितं यथा-ढवणोऽनगारः, अलाभपरीषहः कथितः, स क ?, स्वामी भणति-नगरी प्रविशन प्रेक्षयिष्यसे, दृष्टः | दप्रविशता, इस्तिस्कन्धाववतीय वन्दितः, स चैकेनेभ्येन दृष्टो, यथा महात्मैष यो वासुदेवेन बन्दितः, स च तदेव गृहं प्रविष्टः, तेन परमया ४ श्रद्धया मोदकैः प्रतिलम्भितः, भ्रान्त्वा खामिने दर्शयति, पृच्छति च-यथा ममालाभपरीषहः क्षीणः १, पश्चात् स्वामिना भण्यते-न क्षीणः ॥११॥ एष वासुदेवस्य लाभः, तेन परलाभं नोपजीवामीतिकृत्वाऽमूर्छितस्य परिष्ठापयतः केवलज्ञानं समुत्पन्नम् । एवमध्यासितव्योऽलाभपरीषहो यथा उण्टेनानगारेण दीप अनुक्रम [८०] २ wwwjandiarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~248 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३२|| __ नियुक्ति: [११४] 68-54--05 प्रत सूत्रांक ||३२|| स्फोटपृष्ठग्रहाधनुभयरूपया दुःखेनातः-पीडितः क्रियते स्म दुःखार्तितः, एवंविधोऽपि 'अदीनः' अविलवः 'स्थापहायेत् ' दुःखार्तितत्वेन चलन्ती स्थिरीकुर्यात् 'प्रज्ञां' खकर्मफलमेयैतदिति तत्त्वधियं, 'स्पृष्ट' इत्यपेलप्तनिर्दिष्टत्वात् । व्याप्तोऽपि राजमन्दादिभिः, यद्वा पुष्ट इव पुष्टोव्याधिभिरविक्लवतया 'तत्रेति' प्रज्ञास्थापने सति रोगोत्पाते वा अध्यासीत' अधिसहेत, प्रक्रमाद्रोगजनितदुःखमिति सूत्रार्थः ॥ ३२ ॥ यादेतत्-चिकित्सया किं न तदपनोदः क्रियते ? इत्याहतेगिच्छं नाभिनंदिजा, संचिक्खऽत्तगबेसए। एयं खु तस्स सामण्णं, जं न कुज्जा न कारवे ॥३३॥(सूत्रम्) व्याख्या-'चिकित्सा' रोगप्रतिकाररूपां 'नाभिनन्देत् ' नानुमन्येत, अनुमतिनिषेधाच्च दूरापास्ते करणकारणे, ||समीक्ष्य' खकर्मफलमेवैतत् भुज्यत इति पर्यालोच्य, यद्वा 'संचिक्ख'त्ति 'अचां सन्धि लोपी बहुलमि'सेकारलोपे संचिक्खे' समाधिना तिष्ठेत, न कूजनकरायतादि कुर्यात् , आत्मानं-चारित्रात्मानं गवेषयति-मार्गयति कथमयं मम स्थादित्यात्मगवेषकः, किमित्येवमत आह-'एतद्' अनन्तरमभिधास्थमानं 'खुति खलु, स च यस्मादर्थः, ततो यस्मादेतत् 'तस्य' श्रमणस्य 'श्रामण्यं श्रमणभावो यन्न कुन्नि कारयेत् , उपलक्षणत्वान्नानुमन्येत, प्रक्रमात् चिकित्सां, जिनकल्पिकाद्यपेक्षं चैतत् , स्थविरकल्पापेक्षया तु 'जं न कुजा' इत्यादी सावद्यमिति गम्यते, अयमत्र RELATARA दीप अनुक्रम [८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~249~ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||33|| दीप अनुक्रम [८२] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१२०॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||३३|| निर्युक्तिः [११५] अध्ययनं [२], भावः - यस्मात्करणादिभिः सावयपरिहार एव श्रामण्यं, सावद्या च प्रायश्चिकित्सा, ततस्तां नाभिनन्देद्, एतदप्यौ उत्सर्गिकम्, अपवादतस्तु सावद्याऽप्येषामियमनुमतैव यदुक्तम्- "काहं अछित्तिं अदुवा अहीहं, तवोविहाणेण य | उज्जमिस्सं । गणं व णीतीइ वि सारविस्सं, सालंयसेवी समुबेति मोक्खं ॥ १ ॥” इति सूत्रार्थः ॥ ३३ ॥ इदानीं भिक्षेति द्वारं, तत्र च 'तिगिच्छं णाहिणंदिजा' इति सूत्रावयवमर्थतः स्पृशन्नुदाहरणमाह महुराइ कालवेसिय जंबु अहिउत्थ मुग्गसेलपुरं । राया पडिसेहेइ जंबुयरुवेण उवसग्गं ॥ ११५ ॥ व्याख्या - मथुरायां कालबेसिको जम्बुकोऽभ्युषितो मुझसेलं पुरं राजा प्रतिषेधयति जम्बुकरूपेण उपसर्गमिति गाथाक्षरार्थः । भावार्थस्तु सम्प्रदायावगम्यः, स चायम् मंडराए जियसारण्णा काला नाम वेसाऽपडिरूवंति काउं ओरोहे छूढा, तीसे पुतो कालाए कालबेसिओ कुमारो, सो तहारूवाणं थेराणं अंतिए धम्मं सोऊण पञ्चतितो, एगलविहारपडिमं पडिवण्णो, गतो मुग्गसेलपुरं, १ करिष्याम्यच्छित्तिमथवाऽभ्येष्ये तपोवि (पउप) धानेषु चोयंस्यामि गणं वा नीत्या अपि सारयिष्यामि, सालम्यसेवी समुपैति मोक्षम् ( शुद्धिम् ) ॥ १ ॥ २ मथुरायां जितशत्रुणा राज्ञा कालानानी वेश्याऽप्रतिरूपेतिकृत्वाऽवरोपे क्षिप्ता, तस्याः पुत्रः कालायाः कालवेशिकः कुमारः, स तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके प्रत्रजितः, एकाकिविहारप्रतिमां प्रतिपन्नः, गतो मुद्रशैलपुरं, uttarattond For Parent परीपहाध्ययनम् ~250~ २ ॥१२०॥ www.incibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४३ ], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||33|| दीप अनुक्रम [८२] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||३३|| निर्युक्ति: [११५] अध्ययनं [२], तहिं तस्स भगिणी हयसन्तुस्स रण्णो महिला, तस्स साहुस्स अरसिया, ततो तीए भिक्खाए सह ओसई दिन्नं, सो य अहिगरणंति मत्तं पञ्चखाति । तेण य कुमारचे सियालाणं सद्दं सोऊण पुच्छिया ओलग्गिया केसिं एस सदो सुचतिं १, ते भति-एए सियाला अडविवासिणो, तेण भण्णति एए बंधिऊण मम आणेह, तेहिं सियालो बंधिऊण आणितो, सो तं हणइ, सो हम्मतो खिंखिएइ, ततो सो रतिं विंदर, सो सियालो हम्मतो मतो, अकामणिजराए वाणमंतरो जाओ, तेण वाणमंतरेण सो भत्तपञ्चक्खातो दिट्ठो, ओहिणा आभोइओ, इमो सोत्ति आगंतूण सपिलियं सियालिं विरचिऊण खिंखियंतो खाद, राया तं साधुं मत्पचक्याययंतिकाउं रक्खावेति पुरिसेहिंति, मा कोइ से उवसग्गं करिस्सइत्ति, जाव ते पुरिसा तं थाणं ऐति ताव तीए सीआलीए खइतो, जाहे ते पुरिसा १ तत्र तस्य भगिनी हतशत्रो राज्ञो महिला, तस्य साधोरर्शासि, ततस्तया भिक्षया सहीषधं दत्तं स चाधिकरणमित्ति भक्तं प्रत्याख्याति तेन च कुमारत्वे शृगालानां शं श्रुत्वा पृष्टा अवलगकाः केषामेष शब्दः श्रूयते ?, ते भणन्ति एते शृगाला अटवीवासिनः, तेन भण्यतेएतान् बद्धा मम (पार्श्वे ) आनयत, तैः शृगालो बढाऽऽनीतः स तं हन्ति, स हन्यमानः सिद्धिङ्करोति, ततः स रतिं विन्दति, स शृगालो हन्यमानो मृतः, अकामनिर्जरया व्यन्तरो जात:, तेन व्यन्तरेण स प्रत्याख्यातभक्तो दृष्टः, अवधिनाऽऽभोगितः, अयं स इत्यागल्य सबालकां शृगाली विकुर्व्य (विरच्य खिद्धिदुर्वन् खादति, राजा साधुं प्रत्याख्यात इतिकृत्वा रक्षयति पुरुषैः, मा कचित्तत्रोपसर्ग करिष्यतीति (कार्षीदिति ), यावत्ते पुरुषास्तत् स्थानमायान्ति तावत्तया शृगास्या खादितः, यदा ते पुरुषाः For Party www.incibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~ 251~ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३४|| नियुक्ति: [११५...] उत्तराध्य. बृहद्धृत्तिः ॥१२॥ प्रत सूत्रांक ||३४|| ओस्सरिआ ताहे सई करेंती खाति, जाहे आगया ताहे न दीसति, सोऽपि उवसग्गं सम्म सहति खमति, एवं परीपहाअहियासेयव्वं ॥ रोगपीडितस्य शयनादिषु दुःसहतर(तृणस्पर्श इत्येतदनन्तरं तत्परीपहमाह ध्ययनम् अचेलगस्स लूहस्स, संजयस्स तवस्सिणो । तणेसु सुयमाणस्स, हुजा गायविराहणा ॥३४॥(सूत्रम्) व्याख्या- अचेलकस्य रूक्षस्य संयतस्य तपखिन इति प्राग्बत् , तरन्तीति तृणानि-दर्भादीनि तेषु शयानस्योपलक्षणत्वात् आसीनस्य वा भवेत् गात्रस्य-शरीरस्य विराधना-विदारणा गात्रविराधना, अचेलकत्वादीनि तु तप-12 खिविशेषणानि मा भूत्सचेलस्य तृणस्पर्शासम्भवेनारूक्षस्य तत्सम्भवेऽपि स्निग्धत्वेनासंयतस्य च शुपिरहरिततृणोपादानेन तथाविधगात्रविराधनाया असम्भव इति ॥ ३४ ॥ ततः किमित्याहआयवस्स निवाएणं, तिदुला हवइ वेयणा। एयं णच्चा न सेवंति, तंतुजं तणतजिया ॥३५॥(सूत्रम्) व्याख्या-'आतपस्य' धर्मस्य नितरां पातो निपातस्तेन 'तिउल' ति सूत्रत्वात्तौदिका, यद्वा श्रीन्-प्रस्तावात् मनोवाकायान् विभाषितण्यन्तत्वात् चुरादीनां दोलतीव स्वरूपचलनेन त्रिदुला, पाठान्तरस्तु-अतुला विपुला वा M ॥१२॥ भवति वेदना, एवं च किमित्याह-'एतद्' अनन्तरोकं पाठान्तरतः 'एवं' ज्ञात्वा 'न सेवन्ते' न भजन्ते, आस्तर१ अपसूतास्तदा शब्दं कुर्वती खादति, यदा आगताः तदा न दृश्यते, सोऽप्युपसर्ग सम्यक् सहते क्षमते, एवमध्यासितव्यम् । दीप अनुक्रम [८३] 461 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~252 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३५|| दीप अनुक्रम [४] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||३५|| निर्युक्ति: [११६] अध्ययनं [२], णायेति गम्यते, तन्तुभ्यो जातं तन्तुजं, पठ्यते च ' तंतयं'ति तत्र तत्र - वेमविलेखन्यच्छनिकादि तस्माज्जातं तव्रजम् उभयत्र वखं कम्बलो वा, तृणैस्तर्जिताः-निर्भत्सिताः तृणतर्जिताः, किमुक्तं भवति :-यद्यपि तृणैरत्यन्तविलिखितशरीरस्य रविकिरणसम्पर्कसमुत्पन्नखेदवशतः क्षतक्षारनिक्षेपरूपैव पीडोपजायते तथाऽपि - 'प्रदीप्ताङ्गारकल्पेषु, वज्रकुण्डेष्वसन्धिषु । कूजन्तः करुणं केचित् दन्ते नरकाग्निना ॥१॥ अग्निभीताः प्रधावन्तो, गत्वा वैतरणीं नदीम् । शीततोयामिमां ज्ञात्वा, क्षाराम्भसि पतन्ति ते ॥ २ ॥ क्षारदग्धशरीराश्च, मृगवेगोत्थिताः पुनः । असिपत्रवनं यान्ति च्छायायां कृतबुद्धयः ॥ ३ ॥ शक्त्यष्टिप्रासकुन्तैश्च खङ्गतोमरपट्टिशैः । छिद्यन्ते कृपणास्त्र, पत|द्धितकम्पितैः ॥ ४ ॥ इत्यादिका रौद्रतरा नरकेषु परवशेन मयाऽनुभूता वेदनास्तत्कियतीयं १, भूयांश्च लाभः स्ववशस्य सम्यक् सहन इति परिभावनातो न तत्परिजिहीर्षया वस्त्रं कम्बलादिकमुपाददते, जिनकल्पिकापेक्षं चैतत्, स्थविरकल्पिकाश्च सापेक्षसंयमत्वात्सेवन्तेऽपीति सूत्रार्थः ॥ ३५ ॥ अत्र संस्तारद्वारमनुसरन् 'तिउला हवइ वेयण' त्ति सूत्रसूचितमुदाहरणमाह सावत्थीइ कुमारो भो सो चारिओत्ति वेरजे । खारेण तच्छियंगो तणफासपरसहं विसहे ॥ ११६ ॥ | व्याख्या- श्रावस्त्यां कुमारो भद्रः स 'चारिकः' चर इति वैराज्ये क्षारेण तक्षिताङ्गः तृणस्पर्शपरीपहं 'विसहे' त्ति विषहते, स्प्रेति विशेष इति गाथार्थः ॥ ११७ ॥ भावार्थस्तु सम्प्रदायावसेयः, स चायम्- Education intmational Forsy पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [ ४३ ], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः अत्र सूत्रान्ते यत् ||११७ || मुद्रितं तत् मुद्रणदोष:, अत्र ||११६ || एव वर्तते ~253~ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], ____मूलं [१] / गाथा ||३५|| नियुक्ति: [११६] प्रत सूत्रांक ||३५|| उत्तराध्य. सावत्थीए नयरीए जियसत्तू रपणो पुत्तो भद्दो नाम, सो निविष्णकामभोगो तहारूवाणं थेराणमंतिते पबतितो, परीपहाकालेण य एगलविहारपडिमं पडिवण्णो, सो विहरतो वेरजे चारिउत्तिकाऊण गहिओ, सो य पंतायेऊण खारेण ध्ययनम् बृहद्वृत्तिःट तच्छिओ, सो दम्भेहि बेढिऊण मुको, सो दम्भेहिं लोहियसंमीलिएहिं दुक्खाविजंतो सम्म सहइ ॥ एवं शेषसाधु-12 ॥१२॥ भिरपि सम्यक् सोढग्यः तृणस्पर्शपरीपहः ॥ तृणानि च मलिनान्यपि कानिचित् स्युरिति तत्सम्पकोत् खेदतो I विशेषेण जलसम्भव इत्यनन्तरं तत्परीषहमाहकिलिन्नगाए पंकेणे, मेहावी व रएण वा। प्रिंसु वा परितावेणं, सायं नो परिदेवए ॥३६॥ (सूत्रम्) व्याख्या-क्लिन्नमनेकार्थत्वाद्धातूनां निचितं पाठान्तरतः क्लिष्टं वा-बाधितं गात्रं-शरीरमस्येति क्लिन्नगात्रः क्लिएगात्रो वा, मेधावी-बाहितो वा अरोगी वा, सिणाणं जो उ पत्थइ । वोकतो होइ आयारो, जढो हवाइ संज-| ४ मो॥१॥' इत्यागममनुस्मरन्न स्नानरूपमर्यादानतिवर्ती, केन पुनः क्लिन्नगात्रः क्लिष्टगात्रो बेत्याह-पकेन' ।१ श्रावस्त्यां नगर्या जितशत्रो राज्ञः पुत्रो भद्रो नाम, स निर्विण्णकामभोगः तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके प्रत्रजितः, कालेन चैकाकि- 11 [विहारप्रतिमा पतिपन्नः, स विहरन वैराग्य चारिक इतिकृत्वा गृहीतः स च पीडयित्वा (पियित्वा) तक्षितः (सिक्तः) क्षारण, स दवेष्टयित्वासा मुक्तः, सदमैं रुधिरसंमिलितैर्दुःश्यमानः सम्यक् सहते । २ ब्याधिमान् वाऽरोगो वा सानं यस्तु प्रार्थयते । व्युत्क्रान्तो भवत्याचारस्त्यक्तो | भवति संयमः ॥ २॥ -2C दीप अनुक्रम [८४] % %% 940 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~254 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३६|| दीप अनुक्रम [८५] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||३६|| निर्युक्तिः [११६] अध्ययनं [२], वा खेदाईमलरूपेण 'रजसा' या तेनैव काठिन्यं गतेन पांशुना वा, भिन्नकालत्वाच्चानयोर्वा ग्रहणं, 'धिंसु व 'ति ग्रीष्मे, वाशब्दाच्छरदि वा परि:- समन्तात्तापः परितापस्तेन, हेतौ तृतीया, किमुक्तं भवति ? - परितापायस्वेदः प्र| स्वेदाच पङ्करजसी ततः क्लिन्नगात्रता क्लिष्टगात्रता वा भवति, एवंविधश्च किमित्याह - 'सातं' सुखम् आश्रित्येति शेषः 'नो परिदेवेत्' न प्रलपेत्-कथं कदा वा ममैवं मलदिग्धदेहस्य सुखानुभवः स्यात् १, इति सूत्रार्थः ॥ ३६ ॥ किं तर्हि कुर्यादित्याह - वेज निज्जरापेही, आरियं धम्मणुत्तरं । जाव सरीरभेओत्ति, जलं कारण धारए ॥ ३७ ॥ (सूत्रम् ) व्याख्या- 'वेदयेत्' सहेत, जलजनितं दुःखमिति प्रक्रमः कीदृशः सन् इत्याह-निर्जरणं निर्जरा-कर्मणामात्यन्तिकः क्षयस्तामपेक्षते - कथं ममासौ स्यादित्यभिलपतीति निर्जरापेक्षी, क एवं कुर्यादित्याह - आराद्धेयधर्मेभ्यो यात इत्यार्यस्तं 'धर्म' श्रुतचारित्ररूपं नास्त्युत्तरं प्रधानमन्यदस्मादित्यनुत्तरस्तं गम्यमानत्वात् प्रसन्नो-भावभिक्षुरित्यर्थः सम्प्रति सामथ्र्यक्तमध्यर्थमादरख्यापनाय निगमनव्याजेन पुनराह - 'जाब सरीरभेओ' ति सूत्रत्वात् 'यावत्' इति मर्यादायां शरीरस्य भेदो - विनाशस्तं मर्यादी कृत्य, किमित्याह-'जल' कठिनतापन्नं मलम् उपलक्षणत्वात् पङ्करजसी च 'कायेन' शरीरेण धारयेत, दृश्यन्ते हि केचिदिन्द्राग्निदग्धानीय गिरिशिखराणि विच्छाय कृष्ण देहाः शीतोष्णवातातपादिभिः परिशोषितपरिदग्धोपहतशरीराः रजोऽवगुण्डितमलदिग्धदेहाः, अकामनिर्जरातश्च न कश्चित्तेषां Education intimation Forsy पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४३ ], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~255~ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३७|| _ नियुक्ति: [११७] प्रत सूत्रांक ||३७|| उत्तराध्य. गुणो, मम तु सम्यक् सहमानस्य महान् गुण इति मत्वा न तदपनयनाय लानादि कुर्यात् , यतः-"न शक्यं परीषहा निर्मलीकर्तु, गात्रं खानशतैरपि । अश्रान्तमेव श्रोतोभिरुहिरनवभिर्मलम् ॥१॥" पठ्यते च-बेइंतो निजरापे-४ बृहद्वृत्तिः हित्ति वेदयमानः-सहमानः, शेषं प्राग्वद्, अत्र केचिच्चतुर्थपादमधीयते, 'जलं काए पा उबटे ति अत्रोद्वर्त्तनग्रहण॥१२३॥ मुद्वर्तयेदपि न, किं पुनः लायात् ?, यद्वा-वेइजत्ति विद्यात्-जानीयाद्धर्ममाचारम्, अर्थाद्यतीनां, ज्ञात्वा च । हज्ञानस फलं विरतिरिति जलं कायेन धारयेत् , तथा 'वेयंतो'त्ति विदन्-जानानोऽन्यत्तथैवेति सूत्रार्थः ॥ ३७॥ अत्र 'मलधारिणो'त्ति द्वारमनुसरन् ‘सायं णो परिदेवए' इति सूत्रावयवमर्थतः स्पृशन्नुदाहरणमाह चंपाएँ सुनंदो नाम सावओ जल्लधारणदुगुंछी । कोसंबीइ दुगंधी उप्पण्णो तस्स सादित्वं ।। ११७॥ KI व्याख्या-चंपायां सुनन्दो नाम श्रावको जलधारणजुगुप्सी कौशाम्च्यां दुर्गन्धिरुत्पन्नः, तस्य सादिव्यं-सदेवत्वदामित्यक्षरार्थः ॥ ११८ ॥ भावार्थस्तु सम्प्रदायादवसेयः, स चायम् चंपाए नयरीए सुनन्दो नाम वाणियगो साबगो, अवण्णाए चेव जो जं मग्गेइ साहू तस्स तं चेव देह ओसहभे४॥ सज्जाइयं सत्तुगाइयं च, सबभडिओ सो, तस्स अन्नया गिम्हे सुसाहूणो जलपरिदिद्धंगा आवर्ण आगया, तेर्सि ॥१२३॥ १ चम्पायां नगर्या सुनन्दो नाम वणिक पावकः, अवज्ञयैव यो यन्मार्गयति साधुस्तस्मै तदेव ददाति औषधभैषज्यादिकं सक्तुकादिक च, सर्वभाण्डिकः सः, तस्थान्यदा ग्रीष्मे सुसाधबो जलपरिदिग्धाना आपणमागताः, तेषां दीप अनुक्रम [८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: अत्र सूत्रान्ते यत् ||११८||” मुद्रितं तत् मुद्रणदोषः, अत्र ||११७|| एव वर्तते ~256 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||36|| दीप अनुक्रम [६] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||३७|| निर्युक्तिः [११७] अध्ययनं [२], गंधो जलस्स ताण ओसहाणं गंधमभिभविडं उक्कलति, तेण सुगंधदषभाविएण चिंतियं सवं लठ्ठे साहूण जदिणाम जलं उबहिंता तो सुंदरं होतं, एवं सो तस्स ठाणस्स अणालोहयपडिकंतो कालगतो कोसंबीए नयरीए इन्भ| कुले पुत्तत्ताए आगतो, सो निविण्णकामभोगो धम्मं सोऊण पञ्चतितो, तस्स तं कम्ममुदिन्नं, दुरभिगंधो जातो, तओ जतो जतो वच्चति तज तओ उड्डाहो, पच्छा साहूहिं भणितो- तुमं मा णिग्गच्छ उड्डाहो, पडिस्सए अच्छाहि, | रतिं देवयाए सो काउस्सग्गं करेइ, पच्छा देवयाए सुगंधी कतो, सो जहा नाम कोपुडाण वा अन्नेसिं या विसिद्धदवाण जारिसो गंधो तारिसी गंधो जातो, पुणोऽवि उड्डाहो, पुणोऽवि देवयाराहणं, साभावियगंधो जातो। तेण १ गन्धो जलस्य तेषामौषधानां गन्धमभिभूवोच्छति, तेन सुगन्धद्रव्यभावितेन चिन्तितं सर्व लष्टं साधूनां यदि नाम जलमुदवर्त्तिप्यन्त तदा सुन्दरमभविष्यत् एवं स तस्मात् स्थानादनालोचितप्रतिक्रान्तः कालगतः कौशाम्च्यां नगर्यामिभ्यकुले पुत्रतया आगतः, स | निर्विण्णकामभोगो धर्म श्रुत्वा प्रब्रजितः, तस्य तत्कर्मोदीर्ण, दुरभिगन्धो जातः, ततो यतो यतो व्रजति ततस्तत उड्डाहः ( अपभ्राजना ), पश्चात् साधुभिर्भणित: त्वं मा यासीः उडाहः, प्रतिश्रये तिष्ठ, रात्रौ देवतायाः स कायोत्सर्ग करोति, पश्चाद्देवतया सुगन्धीकृतः, स यथा नाम कोष्ठपुटानां वा अन्येषां वा विशिष्टद्रव्याणां यादृशो गन्धस्तादृशो गन्धो जातः पुनरप्युड्डाह, पुनरपि देवताराधनं, स्वाभाविकगन्धो जातः । तेन Education intemational For Fasten www.janbay.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~257~ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३८|| दीप अनुक्रम [७] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ १२४॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||३८|| अध्ययनं [२], निर्युक्तिः [११७] | गाहियासिओ जलपरीसहो । एवं शेषसाधुभिर्न करणीयम् ॥ जलोपलिप्तश्च शुचीन् सत्क्रियमाणान् पुरस्क्रियमाणांश्चापरानुपलभ्य सत्कारपुरस्काराभ्यां स्पृहयेदतस्तत्परीषहमाह अभिवादन अब्भुट्टाणं, सामी कुज्जा निमंतणं । जे ताई पडिसेवंति, न तेसिं पीहए मुणी ||३८| (सूत्रम्) व्याख्या- 'अभिवादनं ' शिरोनमन चरणस्पर्शनादि पूर्वमभिवादये इत्यादिवचनं 'अभ्युत्थानं' ससम्भ्रममासनमोचनं 'स्वामी' राजादिः 'कुर्यात् ' विदधीत 'निमन्त्रणम्' अय भवद्भिर्भिक्षा मदीयगृहे ग्रहीतव्येत्यादिरूपं, 'ये' | इति स्वयूथ्याः परतीर्थिका वा 'तानि' अभिवादनादीनि 'प्रतिसेवन्ते' आगमनिषिद्धान्यपि भजन्ते न तेभ्यः स्पृहयेत् -- यथा सुलब्धजन्मानोऽमी य एवमेवंविधैरभिवादनादिभिः सत्क्रियन्त इति 'मुनिः ' अनगार इति सूत्रार्थः ॥ ३८ ॥ किंच अणुक्कसाई अप्पिच्छे, अण्णाएसि अलोलुए। रसेसु नाणुगिज्झिज्जा, नाणुतप्पिज्ज पण्णवं ॥३९॥ (सूत्रम्) व्याख्या - उत्कण्ठितः सत्कारादिषु शेत इत्येवं शील उत्कशायी न तथा अनुत्कशायी, यद्वा प्राकृतत्वादणुकपायी सर्वधनादित्वादिनि, कोऽर्थः १-न सत्कारादिकमकुर्वते कुप्यति, तत्सम्पत्तौ वा नाहङ्कारवान् भवति, यत १ नाध्यासितो जलपरीषहः । Education intimatio For Funny परीषहा ध्ययनम् ~258~ २ ॥ १२४॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३९|| नियुक्ति: [११७] II प्रत सूत्रांक ||३९|| उक्तम्-"पलिमंथ महं वियाणिया, जावि य बंदण पूयणा इह । सुहुमे सले दुरुद्धरे, इति संखाइ मुणी ण मजइ ॥१॥" न वा तदर्थं छद्म तत्र वा गृद्धिं विधत्ते, अत एवाल्पा-स्तोका धर्मोपकरणप्राप्तिमात्रविषयत्वेन न तु सत्कारादिकामिसतया महती अल्पशब्द स्थाभाववादित्वेनाविद्यमाना वा इच्छा-वाञ्छा वा यस्येति अल्पेच्छः, इच्छायाश्च कषायान्त-14 गतत्वेऽपि पुनरल्पत्वाभिधानं बहुतरदोषत्वोपदर्शनार्थम् , अत एव च अज्ञातो जातिथुतादिभिः एषति-उञ्छति अर्थात् पिण्डादीत्यज्ञातैषी, कुतः पुनरेवम् ?, यतः 'अलोलुपः' सरसौदनादिपु न लाम्पठ्यवान् , एवंविधोऽपि सरसाहारभोजिनोऽपरान् वीक्ष्य कदाचिदन्यथा स्यात् अत आह-सरसेपु-रसवत्खोदनादिपु, पाठान्तरतो-रसेषु वा' मधुरादिषु 'नानुगृध्येत् नाभिकाहां कुर्वीत, रसद्धियर्जनोपदेशश्च तद्गृद्धित एव बालिशानामभिवादनादिस्पृहासम्भवात्, तथा न 'तेभ्यो' रसगृद्धेभ्यः स्पृहयेन्मुनिः, पाठान्तरतच नानुतप्येत् तीर्थान्तरीयानपत्यादिभिः || सक्रियमाणानवेक्ष्य, किमेतत्परित्यागेनाहमत्र प्रनजितः ? इति, प्रज्ञा-हेयोपादेयविवेचनात्मिका मतिस्तद्वान् । अनेन सत्कारकारिणि तोपं न्यत्कारकारिणि च द्वेषमकुर्वताऽयं परीषहोऽध्यासितव्य इत्युक्तं भवतीति सूत्राथैः || &|॥ ३९ ॥ अत्र 'अङ्गविद्येति द्वारमनुसरन् सूत्रोक्तमर्थ व्यतिरेकोदाहरणेन स्पष्टयन्नाह महुराइ इंददत्तो पुरोहिओसाहुसेवओ सिट्री। पासायविजपाडण पायच्छिज्जेंदकीले य ॥ ११८ ॥ १ विघ्नं महत् विजानीयात् याऽपि च वन्दना पूजनेह । सूक्ष्मं शल्यं दुरुद्धरमिति संख्याय मुनि माद्यति ॥ १॥ AS AL-स दीप अनुक्रम [८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~259~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||३९|| दीप अनुक्रम [ce] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ १२५॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||३९|| अध्ययनं [२], निर्युक्ति: [११८] मथुरायामिन्द्रदत्तः पुरोहितः साधुसेवकः श्रेष्टी प्रासादविद्या पातनं पादच्छेदश्वेन्द्रकीले चस्य भिन्नक्रमत्वादिति गाथासंस्कारः ॥ ११९ ॥ एतदर्थश्च सम्प्रदायादवसेयः, स चायम् चिरकालपट्टियाए महुराए इंददतेणं पुरोहिएणं पासायगएणं हेहेणं साधुस्स व चंतस्स पाओ ओलंबितो सीसे कतोत्तिकाउं, सो य सावएण सिट्टिणा दिट्ठो, तस्सामरिसो जाओ, दिहं भो ! एएण पावेणं साहुस्स उवरिं पादो | कतोत्ति, तेण पइण्णा कया-अवस्स मए एयस्स पादो छिंदेयचो, तस्स छिद्राणि मग्गर, अलभमानो अन्नया आयरिआण सगासे गंतूण वंदिता परिकहेइ, तेहिं भण्णइ का पुच्छा १, अहियासेयचो सकारपुरकारपरीसहो, तेण | भणियं-मए पइण्णा कएलिया, आयरिएहिं भण्णइ एयस्स पुरोहियस्स किं घरे बइ ?, तेण भण्णइ एयस्स | पुरोहियस्स पासाओ कपलतो, तस्स पवेसणे रण्णो भत्तं करेहित्ति, तेहिं भण्णइ - जाहे राया पविसह तं पासायं १ चिरकालप्रतिष्ठितायां मथुरायामिन्द्रदत्तेन पुरोहितेन प्रासादगतेन अधस्तात् साधोर्गच्छतः (उपरि) पादोऽवलम्बितः, शीर्षे कृत इतिकृत्वा स च आवकेण श्रेष्ठिना दृष्टः, तस्यामयों जातः दृष्टं भो! एतेन पापेन साधोरुपरि पादः कृत इति, तेन प्रतिज्ञा कृता अवश्यं मया एतस्य पादश्छेत्तव्यः, तस्य छिद्राणि मार्गयति, अलभमानोऽन्यदा आचार्याणां सकाशे गत्वा वन्दित्वा परिकथयति, तैर्भण्यते का पृच्छा १, अभ्यासितव्यः सत्कारपुरस्कारपरीषहः, तेन भणितं मया प्रतिज्ञा कृता, आचार्यैर्मण्यते एतस्य पुरोहितस्य किं गृहे वर्त्तते १ तेन भण्यतेएतेन पुरोहितेन प्रासादः कारितः, तस्य प्रवेशने राज्ञो भक्तं करिष्यतीति, तैर्भण्यते यदा राजा प्रविशति तं प्रासादं Education intimational For Purs at Use Only परीपहाध्ययनम् २ ~260~ ॥ १२५ ॥ www.incibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः अत्र सूत्रान्ते यत् “||११९|| मुद्रितं तत् मुद्रणदोष:, अत्र ||११८ || एव वर्तते Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||३९|| नियुक्ति: [११८] प्रत सूत्रांक ||३९|| हताहे तुर्म रायं हत्थेण गहेऊण अवसारिजासि जहा-पासाओ पडति, ताहेऽहं पासाय विजाए पाडिस्सं, तेण तहाला कयं, सेटिणा राया भणितो-एएण तुम्भे मारिया आसि, रुटेण रण्णा पुरोहितो सावगस्स अप्पितो, तेण तस्सा इंदकीले पादो कतो, पच्छा छिन्न(नो), एवं काउं ईयरो विसजितो। तेण णाहियासितो सकारपुरकारपरीसहो इति॥ यथा तेन श्राद्धनासौ न सोढो न तथा विधेयं, किन्तु साधुवत्सोढव्यः, इह पूर्वत्र च श्रावकपरीपहाभिधानमायन-14 है यचतुष्टय मतेनेति भावनीयम् , उक्तं हि प्राक्-"तिण्हपि णेगमनतो परीसहो जाव उज्जसुत्तातो"त्ति, अङ्गं चात्र पादो, विद्या च प्रासादपातनविद्या ॥ साम्प्रतमनन्तरोक्तपरीषहान् जयतोऽपि कस्यचिज्ज्ञानावरणापगमात् प्रज्ञाया उत्कर्षे अपरस्य तु तदुदयादपकर्षे उत्सेकवैक्लव्यसम्भव इति प्रज्ञापरीपहमाह__ से नूणं मए पुवं, कम्माऽणाणफला कडा । जेणाहं नाभिजाणामि, पुट्रो केणइ कण्हुई ॥४॥ अह पच्छा उइजंति, कम्माऽणाणफलाकडा। एवमासासि अप्पाणं, णच्चा कम्मविवागयं ॥४१॥(सूत्रम्)। | १ तदा त्वं राजानं हस्तेन गृहीत्वाऽपसारयः यथा-प्रासादः पतति, तदाऽहं प्रासाई विद्यया पातयिष्यामि, तेन तथा कृतं, श्रेष्ठिना राजा भणित:-एतेन यूयं मारिवा अभविष्यन् , रुष्टेन राज्ञा पुरोहितः श्रावकायार्पितः, तेन तस्येन्द्रकीले पादः कृतः, पश्चात् छिन्नः, एवं कत्वेवरी विसृष्टः । तेन नाध्यासितः सस्कारपुरस्कारपरीषह इति । २लोहमओ काऊण सो छिनो प० अधिकम् । ३ त्रयाणामपि । नैगमनयः परीषदो बावजुसूत्रात् ॥ १॥ दीप अनुक्रम [८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~261 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४०-४१|| नियुक्ति: [११८] प्रत सूत्रांक ॥४०-४१|| उत्तराध्य. व्याख्या-सेशब्दो मागधप्रसिद्धयाऽथशब्दार्थ उपन्यासे, 'नून' निश्चितं 'मये ति आत्मनिर्देशः 'पूर्व' प्राक् || परीषहा *क्रियन्त इति कर्माणि तानि च मोहनीयादीन्यपि सम्भवन्त्यत आह-अज्ञानम्-अनवबोधस्तत्फलानि ज्ञानाव-ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः रणरूपाणीत्यर्थः 'कृतानि' ज्ञाननिन्दादिभिरुपार्जितानि, यदुक्तम्-ज्ञानस्य ज्ञानिनां चैव, निन्दाप्रद्वेषमत्सरैः । उप॥१२६॥ घातैश्च विघ्नश्च, ज्ञानघ्नं कर्म बध्यते ॥१॥ 'मयेत्यभिधानं च खयमकृतस्योपभोगासम्भवाद् , उक्तं च-"शुभाशु भानि कर्माणि, स्वयं कुर्वन्ति देहिनः । खयमेवोपभुज्यन्ते, दुःखानि च सुखानि च ॥१॥" कुत एतदित्याह-येन हेतुना अहं 'नाभिजानामि' नाभिमुख्येनावबुद्धये पृष्टः केनचित् स्वयमजानता जानता वा 'कण्हुईत्ति सूत्रत्वात् | कस्मिंश्चित् सूत्रादौ वस्तुनि वा, प्रगुणेऽपीत्यभिप्रायः। न हि स्वयं खच्छस्फटिकवदतिनिर्मलस्य प्रकाशरूपस्यात्मनोप्रकाशकत्वं किन्तु ज्ञानावृतियशत एव, उक्तं हि-तत्र ज्ञानावरणीयं नाम कर्म भवति येनास्य । तत्पञ्चविधं ज्ञानमावृतं रविवि में धैस्तथा ॥१॥" अथवा 'से नूण ति सेशन्दः प्रतिवचनवाचिनोऽथशब्दस्यार्थे, स हि केनक्कि-IA |श्चित्पर्यनुयुक्तः तथाविधविमर्शाभावेन खयमजानन् कुत एतन्ममाज्ञानमिति चिन्तयन् गुरुवचनमनुसृत्यात्मानमात्मदानव प्रति वक्ति, 'से' इत्यथ 'नूनं' निश्चितमेतत् , शेष प्राग्वत् । आह-यदि पूर्व कृतानि कर्माणि किं न तदेय वेदि-I ॥१२॥ तानि, उच्यते, अथेति वक्तव्यान्तरोपन्यासे 'पश्चाद' अवाधोत्तरकालम् 'उदीयन्ते' विपश्यन्ते कर्माण्यज्ञानफलानि । कृतानि, अलर्कमूषिकविषविकारवत् तथाविधद्रव्यसाचिव्यादेव तेषां विपाकदानात् , ततस्तद्विघातायैव यलो विधेयो। दीप अनुक्रम [८९-९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~262 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि"-मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४०-४१|| नियुक्ति: [११८] प्रत सूत्रांक ॥४०-४१|| न तु विषादः, 'एवम्' अमुना प्रकारेण 'आश्वासय' खस्थीकुरु, कम् ?-आत्मानं, मा वैक्लण्यं कृथा इत्यर्थः, उक्तमेवर हेतुं निगमयन्नाह-ज्ञात्वा कर्मविपाकं, कर्मणां कुत्सितविपाकम् । इत्थं प्रज्ञाऽपकर्षमाश्रित्य सूत्रद्वयं व्याख्यातम् , एतदेव तदुत्कर्षपक्ष एवं व्याख्यायते-प्रशोत्कर्षवतैवं परिभावनीयं-से' इत्युपन्यासे नूनं मया पूर्व 'कर्माणि' अनुष्ठानानि ज्ञानप्रशंसादीनि, ज्ञानमिह विमर्शपूर्वको बोधः, तत्फलानि कृतानि येनाहं ना अपिशब्दस्य लुप्तनिर्दिष्टत्यान्नाऽपि-पुरु-र सापोऽप्यभिजानामि 'पृष्टः' पर्यनुयुक्तः 'केनापि' अविवक्षितविशेपेण, सर्वेणापीत्यर्थः, 'कस्मिंश्चिद्'यत्र तत्रापि वस्तुनि, अथे'त्युत्कर्षानन्तरम् 'अपत्य'त्ति अपथ्यानि आयतिकटुकानि कर्माण्यज्ञानफलानि 'उदिति'त्ति सूत्रत्वात्तिसाव्यत्ययेनोदेष्यन्ति, वर्तमानसामीप्ये वर्तमानबद्वा(पा.३-३-१३१)इत्यनेन वर्तमानसामीप्ये या लटि उदी-11 Xयन्ते, सनिहितकाल एवोदेष्यन्तीत्यर्थः, अयं चाशयः-उत्सेको हि ज्ञानावरणकारणमवश्यवेयं च तत, तददये च कुतो ज्ञानम् ?, अनियते बाऽस्मिन्क उत्सेकः?, इत्येषमालोचयन्नाश्वासय-प्रज्ञावलेपावलुप्सचेतनमात्मानं स्वस्थीकुरु ज्ञात्वा कर्मविपाकम् , इह च तत्रन्यायन युगपदर्थद्वयसम्भवः, तत्रं च दैयप्रसारिताः तन्तवः, ततो यथा तदेकमनेकस्य तिरश्चीनस्थ तन्तोः सङ्घाहि तथा यदेकेनानेकार्थस्याभिधानं स तनन्याय इति सूत्रद्वयार्थः ॥४०-४१॥ अत्र सूत्रद्वारं, सूत्रं चागमः, अस्मिंश्च प्रस्तुतसूत्रसचितमुदाहरणमाहउजेणी कालखमणा सागरखमणा सुवण्णभूमीए । इंदो आउयसेसं पुच्छइ सादिवकरणं च ॥१२॥ दीप अनुक्रम [८९-९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: अत्र नियुक्ति-क्रमे एक क्रमांकस्य मुद्रणदोषात् क्रमांकस्य परिवर्तनं दृश्यते ~263 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४०-४१|| नियुक्ति: [१२०] प्रत उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१२७॥ है सूत्रांक ॥४०-४१|| व्याख्या-उज्जयणी कालक्षपणाः सागरक्षपणाः सुवर्णभूमौ इन्द्रः आयुष्कशेषं पृच्छति सादिव्यकरणं चेति गाथा-परीषडा. क्षराथः॥१२०॥ भावास्तु सम्प्रदायात् ज्ञातव्यः, स चायम् ध्ययनम् उजेणीए कालगायरिया बहुसुया, तेसिं सीसो न कोई इच्छइ पढिउं, तस्स सीसस्स सीसो बहुसुओ सागर-12 खमणो णाम सुवण्णभूमीए गच्छेणं विहरह, पच्छा आयरिआ तत्थ पलाइउं गया सुवण्णभूमि, सो य सागरखमणो अणुओगं कहइ, पण्णापरीसहं न सहइ, भणइ-खंता! गयं एवं तुम्भ सुयखंधं, तेण भण्णइ-गयंति, तो सुण, सो सुणावेउं पयत्तो । ते य सेजायरणिबंधे कहिए तस्सिस्सा सुवण्णभूमि जतो चलिया, लोगो पुच्छति विंदं गच्छंतं-13 को एस आयरिओ गच्छद, तेण भण्णइ-कालगा आयरिया, तं जणपरंपरएण फुसंतं कोई सागरसमणस्स|| संपत्तं, जहा-कालगा आयरिआ आगच्छंति, सागरखमणो भणइ-खंतग ! सर्च मम पितामहो आगच्छति ?, तेण| १ उज्जयिन्यां कालकाचार्या बहुश्रुताः, तेषां शिष्यो न कोऽपि इच्छति पठितुं, तस्य शिष्यस्य शिष्यो बहुश्रुतः सागरक्षपणो नाम सुवर्णभूमौ गल्छेन विहरति, पश्चादाचार्यास्तत्र पलाय्य गताः सुवर्णभूमौ, स च सागरक्षपणोऽनुयोग कथयति, प्रज्ञापरीपदं न सहते, भणति-वृद्ध! गत एष तब तस्कन्धः ?, सेन भण्यतेनात इति, ततः शृणु, स भाववितुं प्रवृत्तः । ते च शच्यातरेण निर्वन्धेन कथित तच्छिष्याः सुवर्ण- रा भूमियत:(ततः)चलिताः, लोकः पृच्छति वृन्दं गच्छन्तं-क एष आचार्यों गच्छति , तेन भण्यते-कालकाचार्याः, तत् जनपरम्परकेण स्पृशत् कर्णयोः(वृत्तान्त) सागरश्रमणस्य संप्राप्तं, यथा-कालकाचार्या आगच्छन्ति, सागरक्षपणो भणति-वृद्ध! सत्यं (श्रुत) मम पितामह आगच्छति?, तेन दीप अनुक्रम [८९-९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~264 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि"-मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४०-४१|| नियुक्ति: [१२०] प्रत सूत्रांक *** ॥४०-४१|| KXERCESS द भण्णंति-ण जाणं, मयावि सुर्य, आगया य साहुणो, सो अन्भुडिओ, सो तेहिं साधूहि भण्णति-खमासमणा केर इहागया , पच्छा सो संकिओ भणइ-खंतो परं इको आगओ, न उण जाणामि खमासमणा, सो पच्छा। खामेति, भणति-मिच्छामिदुकडं जं एत्थ मए आसादिया, पच्छा भणति-खमासमणा! केरिसं अहं वक्खाणेमि?, खमासमणेण भण्णति-लटुं, किन्तु मा गचं करेहि, को जाणति !, कस्स को आगमोत्ति ?, पच्छा धूलिणाएण चिक्खिलपिंडएण य आहरणं करेंति । न तहा कायचं जहा सागरखमणेण कयं । ताण अजकालगाण समीयं सको य आगंतु णिओयजीवे पुच्छति, जहा अजरक्खियाणं तहेब जाच सादिवकरणं च ॥ इदं च प्रज्ञासद्भावमङ्गीकृत्यो-12 दाहरणमुक्तं, तदभावे तु खयमभ्यूबमिति ॥ इदानी प्रज्ञाया ज्ञानविशेषरूपत्वात्तद्विपक्षभूतत्वादज्ञानस्य तत्परीषह-13 माह, सोऽप्यज्ञानभावाभावाभ्यां द्विधैव, तत्र भावपक्षमङ्गीकृत्येदमुच्यते १ भण्यते-न जाने, गयाऽपि श्रुतम् , आगताच साधवः, सोऽभ्युत्थितः, स तैः साधुभिर्मण्यते-क्षमागणाः केचिदिहागताः, पाधान सशङ्कितो भणति-युद्धः परमेक आगतः, न पुनर्जानामि क्षमाश्रमणा (इति), स पश्चात् क्षमयति, भणति-मिथ्या मे दुष्कृतं यदत्र मया आशातिताः, पश्चात् भणति-अमाश्रमणाः ! कीदृशमहं व्याख्यानयामि !, क्षमाश्रमणेन भव्यते-लष्ट, किन्तु मा गर्व कार्षीः, को जानाति ? कस्य क आगम इति, पश्चालिशातेन कर्दमपिण्डेन च दृष्टान्तं कुर्वन्ति । न तथा कर्तव्यं यया सागरक्षपणेन कृतं । तेषामार्यकालकानां समीपे शकच आगल्य निगोदजीवान् पृच्छति, यथा आरक्षितानां तथैव यावत् सादिव्यकरणं च ।। दीप अनुक्रम [८९-९०] **** पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~265 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि"-मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४२-४३|| नियुक्ति: [१२०] प्रत सूत्रांक ॥४२-४३|| उत्तराध्य.||निस्ट्रगमि विरओ, मेहुणाओ सुसंवुडो। जो सक्खं नाभिजाणामि, धम्मं कल्लाण पावगं ॥४२॥(सूत्रम्)11 ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः है तोवहाणमायाय, पडिमं पडिवजओ । एवंपि मे विहरओ, छउमण णियद्दति ॥ ४३॥ (सूत्रम् ) ॥१२८॥ व्याख्या-णिरटुगंमि'त्ति अर्थः-प्रयोजनं तदभावो निरर्थं तदेव निरर्थकं तस्मिन् सति, 'विरतः' निवृत्तः, है कस्मात् -मिथुनस्य भावः कर्म वा मैथुनम्-अग्रल तस्मात् , आश्रयान्तरविरतावपि यदस्योपादानं तदस्यैवातिगृद्धिहेतुतया दुस्त्यजत्वात् , उक्तं हि-"दुपंचया इमे कामा' इत्यादि, सुष्टु संवृतः सुसंवृतः-इन्द्रियनोइन्द्रियसंवरणेन, यः साक्षात्' इति परिस्फुटं नाभिजानामि 'धर्म' वस्तुस्वभावं 'कलाण'त्ति विन्दुलोपाकल्याणं शुभं 'पापकं' वा तद्विपरीतं, वेत्यस्य गम्यमानत्वात् , यद्वा धर्मम्-आचारं कल्यः-अत्यन्तनीरुक्तया मोक्षस्तमानयति(अणति)-प्रज्ञापयतीति कल्याणो-मुक्तिहेतुसं, पापकं वा नरकादिहेतुम् , अयमाशयः-यदि विरती कश्चिदर्थः सिधेन्नैयं ममाज्ञानं भवेत्।। कदाचित् सामान्यचर्ययय न फलावाप्सिरत आह-तपो-भद्रमहाभद्रादि उपधानम्-आगमोपचाररूपमाचाम्लादि 'आदाय' स्वीकृत्य चरित्वेतियावत् 'प्रतिमा' मासिक्यादिभिक्षप्रतिमा 'पडिजिय'त्ति प्रतिपद्याजीकृल्प, पठ्यते च- १२८॥ 'पडिमं पडिवजओ'ति प्रतिपद्यमानस्य-अभ्युपगच्छतः, 'एवमपि' विशेषचर्ययाऽपि, आस्तां सामान्यचर्ययेत्यपि १ दुष्पत्यजा इमे कामाः । दीप अनुक्रम [९१-९२ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~266~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि"-मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४२-४३|| नियुक्ति: [१२०] प्रत सूत्रांक ॥४२-४३|| दशब्दार्थः 'बिहरतोत्ति निष्प्रतिबन्धत्वेनानियतं विचरतः छादयतीति छद्म-ज्ञानावरणादिकर्म 'न निवर्तते' नापतीति |भिक्षुःन चिन्तयेदित्युत्तरेण सम्बन्धः । अज्ञानाभावपक्षे तु समस्तशास्त्रार्थनिष्कनिकपोपलकल्पना(ता यामपि न दपाध्मातमानसो भवेत् , किन्तु-'पूर्वपुरुषसिंहानां विज्ञानातिशयसागरीनन्त्यम् । श्रुत्वा साम्प्रतपुरुषाः कथं व. बुद्धया मदं यान्ति !, ॥१॥' इति परिभावयन् विगलितावलेपः सनेवं भावयेत्-'णिरट्टयं सूत्रद्वयम् , अक्षरगमनिका सैव, गवरं 'निरहयंमिऽवि' निरर्थकेऽपि प्रक्रमात् प्रज्ञावलेपे रतो, मैथुनात् सुसंवृतः सन्निरुद्धात्मा सन् योऽहं 'साक्षात् ' समक्षं नाभिजानामि धर्म कल्याणं पापकं वा, अयमभिप्राय:-'जे एग जाणति से सच जाणति (जे सर्व जाणति) से एगं जाणति'इत्यागमात् छद्मस्थोऽहमेकमपि धम्म वस्तुखरूपं न तत्वतो वेद्मि, ततः साक्षाद्भावखभावायभासि चेन्न विज्ञानमस्ति किमितोऽपि मुकुलितवस्तुखरूपपरिज्ञानतोऽवलेपनेति भावः, तथा तपउपधानादि भिरप्युपक्रमणहेतुभिः उपक्रमयितुमशक्ये छद्मनि दारुणे बैरिणि प्रतपति कः किल ममाहङ्कारावसर इति सूत्रद्वयार्थः । 18|॥४२-४३ ।। साम्प्रतमावृत्त्या पुनः सूत्रद्वारमङ्गीकृत्य प्रकृतसूत्रोपक्षिप्तमज्ञानसद्धाय उदाहरणमाह परितंतो वायणाए गंगाकूले पिया असगडाए । संवच्छरेहाहिज्जइ बारसहि असंखयज्झयणं ॥ १२१ ॥ दीप अनुक्रम [९१-९२] १ य एकं जानाति स सर्व जानाति वः सर्व जानाति स एक जानाति । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~267 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४३|| नियुक्ति: [१२१] प्रत CE% सूत्रांक ||४२ -४३|| उत्तराध्य व्याख्या-'परितान्तः' खिन्नो याचनया गङ्गाकूले पिताऽशकटायाः संवत्सरेरधीते द्वादशभिरसंस्कृताध्ययनमिति परीषहा||गाथाक्षरार्थः ॥ १२१ ।। भावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदायादवसेयः, स चायम् ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः | गंगाकूले दोन्नि साहू पवइया भायरो, तत्थ एगो बदुसुतो एगो अप्पसुतो, तत्थ जो सो वहुसुतो सो सीसेहिं ॥१२॥ सुत्तत्थनिमित्तमुवसप्पंतेहिं दिवसतो विरेगो नस्थि, रतिपि पडिपुच्छणसिक्खगाईहि सुइयं न लहइ, जो सो अप्प सुतो सो रतिं सर्व सुयइ । अन्नया कयाई सो आयरिओ णिहापरिखेतितो चिंतेति-अहो मे भाया पुण्णवंतो जो सुयइ, अम्हं पुण मंदपुण्णाणं सुइउंपि ण लब्भइ, तेण णाणावरणिज कम्मं बद्धं, सो तस्स ठाणस्स अणालोइयप-है। डिकतो कालमासे कालं किच्चा देवलोएसु उववण्णो । तओ चुतो इहेब भारहे वासे आहीरघरे दारतो जातो, कमेण | दिवहितो जोवणत्थो वीवाहितो, दारिया जाया, अतीव रूववती, सा य भद्दकन्नया । कयाइ ताणि पियापुत्ताणि | १ गडाकूले द्वौ साधू प्रमजितौ भ्रातरौ, तत्रैको बहुश्रुत एकोऽल्पश्रुतः, तत्र यः स बहुश्रुतः स शिष्यैः सूत्रार्थनिमित्तमुपसर्पद्भिर्दिवसतः || क्षणो नास्ति, रात्रावपि प्रतिप्रशाछनाशिक्षणादिभिः स्वपितुं न लभते, यः सोऽल्पधुतः स राधी सर्वा स्वपिति । अन्यदा कदाचित्स आचार्यों है निद्रापरिखेदितश्चिन्तयति-अहो मम भ्राता पुण्यवान् यः स्वपिति, अस्माभिः पुनर्मन्दपुण्यैः स्वपितुमपि न लभ्यते, तेन ज्ञानावरणीय कर्म बद्धं, स तस्मात् स्थानात् अनालोचितप्रतिक्रान्त: कालमासे कालं कृत्वा देवलोकेधूत्पन्नः । ततघ्युतः इहैव भारते वर्षे आभीरगृहे दारको जातः, क्रमेण वृद्धो यौवनस्थो विवाहितः, दारिका जाता, अतीव रूपवती, सा च भद्रकन्यका । कदाचित् ते पितापुत्र्यौ CAC% दीप अनुक्रम [९१-९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~268~ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४|| नियुक्ति: [१२१] प्रत सूत्रांक ॥४२-४३|| ४ अन्नहिं आहीरेहिं समं सगडं घयस्स भरेऊण णगरि विकिणणट्ठा पत्थिआणि, साय कण्णया सारत्थं तस्स सगडस्स करेइ, ततो ते गोवदारया तीए रूवेणाक्खित्ता तीसे सगडस्स अब्भासयाई सगडाई खेडंति तं पलोइंता, ताई सवाति सगडार्ति उप्पहेणं भग्गाई, तओ तीए नामं कयं-असगडत्ति, असगडाए पिया असगडपिया। तस्स तं चेव वरग्गं जायं, तं दारियं परिणावेउं सर्व च घरसारं दाऊण पचतितो। तेण तिण्णि उत्तरज्झयणाणि जाव अहीयाणि, ताब असंखे उदितु तं णाणावरणं कम्ममुदिन्नं, गया दो दिवसा अंबिलछटेण, न एगो सिलोगो ठाति, आयरिएहि भण्णति-उद्देहि जा एयमज्झयणमसंखयमणुण्णविजति, सो भणति-एयस्स केरिसो जोगो ?, आयरिया भणति-14 जाव न उठेति ताय आयंबिलं, सो भणति-अलाहि मे अणुण्णाए णं, एवं तेण अदीणेण आयंबिलाहारेणं वारसहि १ अन्वैराभीरैः समं शकटं धृतेन भृत्वा नगरी विक्रयणाय प्रस्थिते, सा च कन्यका सारधित्वं तस्य शकटस्य करोति, ततस्ते गोपदारकाः | तस्या रूपेणाक्षिप्ताः तस्याः शकटस्वाभ्यासे शकटानि खेटयन्ति तां प्रलोकयन्तः, तानि सर्वाणि शकटानि उत्पथेन भानि, ततस्तस्या नाम | कृतम्-अशकटेति, अशकटायाः पिता अशकटापिता । तस्य तदेव वैराग्योत्पादकं जातं, तो दारिको परिणाय्य सर्व च गृहसारं दवा प्रवजितः । तेन त्रीणि उत्तराध्ययनानि यावधीतानि, तावद् असंख्येय उदिष्टे तज् ज्ञानावरणं कर्मोदीर्ण, गतौ द्वौ दिवसौ आचाम्लषष्ठेन (युग्मेन), १ नैकः श्लोकस्तिष्ठति, आचार्भण्यते-उत्तिष्ठ यायदेतदध्ययनमसंख्येयकमनुज्ञायते, स भणति-एतस्य कीदृशो योगः ?, आचार्या भणन्ति यावन्नोत्तिष्ठते तावदाचाग्लं, स भणति-अलं ममानुज्ञया, एवं तेनादीनेनाचामाम्लाहारेण द्वादशभिः । १०गोऽवि आलायगो प्र०। दीप अनुक्रम [९१-९२] 89% पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~269 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४३|| नियुक्ति: [१२२] XSE परीषहाध्ययनम् प्रत सूत्रांक ||४२ % -४३|| उत्तराध्य. संवच्छरेहिमहिझियमज्झयणमसंखयं, खवियं तं कम्म, सेसं लहुं चेव अहिजियं ॥ एवमज्ञानपरीषहः सोढव्यः, बृहद्वृत्तिः प्रतिपक्षे च भीमद्वारं, तत्राप्येतत्सूत्रसूचितमिदमुदाहरणं इमं च एरिसं तं च तारिस पिच्छ केरिसं जायं?। इय भणइ थूलभद्दो सन्नाइघरं गओ संतो ॥१२॥ ॥१३० व्याख्या-'इदं चेति द्रव्यम् 'ईदृशमिति स्तम्भमूलस्थितमतिप्रभूतं च, अतिशयज्ञानित्येन तस्य हदि विपरिवर्त जमानतया द्रव्यस्वेदमा निर्देशः, 'तचेति तस्याज्ञानतः परिभ्रमणं 'तादृशमिति विप्रकृष्टदुर्गदेशान्तरविपर्य, पश्य की18 दृशं ? केन सदृशं ? जातं, न केनापि, कश्चिद्गृहे सति द्रव्ये द्रव्यार्थी बहिौम्यति ?, इति भावः, 'इती'त्येवं भणति द स्थूलभद्रः 'स्वज्ञातिः' अत्यन्तसुहृत्तद्हं गतः सन्निति गाथार्थः ॥ १२२ ॥ सम्प्रदायश्चात्रPा थूलभद्दो आयरिओ बहुसुतो, तस्स एगो पुचिं मित्तो होत्था, सन्नायगोऽवि य । सो सूरी विहरतो तस्स घरं गतो महिलं पुच्छति-सो अमुको कहिं गतोत्ति ?, सा भणइ-वाणिजेणं, तं च घरं पुर्षि लटुं आसि, पच्छा सडियपडियं, जायं, तस्स पुविल एहिं एगस्स खंभस्स हेट्ठा भूमीए दवं निहेलयं, तं सो आयरितो णाणेण जाणति, पच्छा तेणं १ संवत्सरैरधीतमध्ययनमसंख्यक, अपितं तत् कर्म, शेष लष्वेवाधीतम् । २ स्थूलभद्र आचायों बहुभुतः, तस्यैकः पूर्वमित्रमभूत् , सज्ञातीयोऽपि च । स सूरिविहरन तस्य गृहं गतो महेलां पृच्छति-सोऽमुकः क गत इति, सा भणति-वाणिज्याय, तत्र गृहं पूर्व लष्टमासीत्, पश्चाच्छटितपतितं जातं, तस्य पूर्वजैः एकस्य स्तम्भस्याधस्ताद् भूमौ द्रव्यं निहितं, तत्स आचार्यों मानेन जानाति, पश्चात्तेन % दीप अनुक्रम [९१-९२] ॥१३०॥ SCCESC456* पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~270 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४३|| नियुक्ति: [१२२] - प्रत - सूत्रांक ओहुतं हत्थं काउं भषणति-'इमं च एरिसं तं च तारिसमित्यादिगाथा' इमं च एरिसं दबजायं, सो अण्णाणेणं ममइ, एवं च भणमाणे जणो जाणति, जहा-घरमेव पुचि लट्ठ इयाणिं तु सडियपडियं दटुं अणिच्चयाणिरुवणत्थं भयवं दंसेइ । सो य आगतो, महिलाए सिटुं-जहा थूलभद्दो आगतो आसि, सो भणति-थूलभद्देण किंचि भणियं?, ण किंचि, णवरं खंभहुत्तं हत्थं दायतो भणियाइओ-'इमं च एरिसमित्यादि, तेण पंडिएण णायं-जहा एत्थ अवस्स। किंचि अत्थि, तेण खाणियं जाव णाणापगाररयणाण भरियं कलसं पेच्छइ । तेण णाणपरीसहो णाहियासिओ ॥ नैवं| दोशेषसाधुभिः कर्तव्यम् । इह च प्रज्ञाज्ञानयोर्भावाभावाभ्यां सूत्रे परीपहत्वेनोपयर्णनं नियुक्ती चाज्ञानपरीपहे तथै बोदाहरणद्वयोपवर्णनमन्यत्रापि यथासम्भवमेवं भावनीयमिति ज्ञापनार्थ ॥ साम्प्रतमज्ञानाद्दर्शनेऽपि संशयीत कश्चि-2 दिति तत्परीपहमाह १ सत्संमुखं हस्तं कृत्वा भण्यते-इदं चेदृशं तच्च तादृशमित्याविगाथा, इदं पेशं द्रव्य जातं, सोऽज्ञानेन भ्राम्यति, एवं च भणति जनो जानाति, यथा-गृहमेच पूर्व छष्टमिधानी तु शटितपतितं दृष्ट्वा अनित्यतानिरूपणार्थ भगवान दर्शयति । स चागतः, महेलया शिष्ट| यथा स्थूलभद्र आगत आसीत् , स भणति-स्थूलभद्रेण किश्चित् भणितं !, न किञ्चित् , नवरं स्तम्भसंमुखं हस्तं दर्शयन् भणित१ वान्-इदं चेदृशमित्यादि, तेन पण्डितेन शातं--यथाऽत्रावश्यं किञ्चिदस्ति, तेन खानितं यावन्नानाप्रकाररभृतं कलशं पश्यति । तेन ज्ञानपरीषहो नाध्यासितः । । ॥४२-४३|| दीप अनुक्रम [९१-९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~271 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४४|| नियुक्ति: [१२२] बृहद्धत्तिः प्रत सूत्रांक ||४४|| उत्तराध्य. णत्थि णूणं परे लोए, इवी वावि तवस्सिणो। अदुवा वंचिओमित्ति, इइ भिक्खूण चिंतए॥४४॥(सूत्रम्) व्याख्या-नास्ति' न विद्यते 'नून' निश्चितं 'परलोको' जन्मान्तरमित्यर्थः, भूतचतुष्टयात्मकत्वाच्छरीरस्य, तस्य सध्ययनम् चहैव पातातू, चैतन्यस्य च भूतधर्मभूतत्वात् , तदतिरिक्तख चात्मनः प्रत्यक्षतोऽनुपलभ्यमानत्वाद्, 'ऋद्धिा ' तपो-18 ॥१३शा * माहात्म्यरूपा, अपिः पूरणे, कस्य-तपखिनः, सा च आमशीपध्यादिः-'पादरजसा प्रशमनं सर्वरुजां साधयः क्षणा स्कुर्युः । त्रिभुवन विस्मयजननान् दद्युः कामांस्तृणाग्राद्वा ॥१॥ धर्माद्रलोमिश्रितकाञ्चनवर्षादिसर्गसामर्थ्यम् । ६ अद्भुतभीमोरुशिलासहस्रसम्पातशक्तिश्च ॥२॥ इत्यादिका च, तस्या अप्यनुपलभ्यमानत्वादिति भावः, 'अदुव'त्ति अथवा, किंबहुना?-वञ्चितोऽस्मि भोगानामिति गम्यते 'इती'त्यमुना शिरस्तुण्डेनोपवासादिना यातनात्मकेन धर्मानुष्ठानेन, उक्तंच-"तपांसि यातनाचित्राः, संयमो भोगवञ्चना" इत्यादि, 'इती'सनन्तरमुपदर्शितं भिक्षुः 'न चिन्त-है येत्' न ध्यायेत् , परिफल्गुरूपत्वादस्य, तथाहि-यत्ताबदुक्तं-'भूतचतुष्टयात्मकत्वाच्छरीरस्य जन्मान्तराभाव' इति, दातदसत्, न हि शरीरस्य जन्मान्तरानुयायित्वमस्माभिरुच्यते, किन्त्वात्मनः, न च भूतधर्म एव चैतन्ये आत्मव्यपदेशः, तस्य तद्धमत्वेनोत्तरत्र निषेत्स्यमानत्वात् , यदपि ऋद्धिर्वा तपखिनो नास्ति, तदपि वचनमात्रमेव, अथात्मन || ॥१३॥ ऋद्धीनां चाभावे अनुपलम्भो हेतुरुक्तः, सोऽपि खसम्बन्धी सर्वसम्बन्धी वा?, तत्र न तावदात्मनोऽभावे खसम्बन्ध्यनुपलम्भो हेतुः, खयं तस्य घटादिबदुपलभ्यमानत्वात् , यथैव हि घटादिगता रूपादय उपलभ्यन्ते, तथा आत्म दीप अनुक्रम [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~272 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४४|| नियुक्ति: [१२२] प्रत सूत्रांक ||४४|| गता अपि ज्ञानमुखादय इति नात्र महदन्तरमुत्पश्यामः, उक्तं चाश्वसेनवाचकेन-"आत्मप्रत्यक्ष आत्माऽय"मित्यादि, अथायं न दृग्गोचर इति नास्तीत्युच्यते, नायमप्येकान्तो, यतस्तेनैवोक्तम्-"न च नास्तीह तत् सर्व चक्षुषा यन्न गृह्यते," अन्यथा चैतन्यमपि न दृग्गोचर इति तस्याप्यसत्त्वं स्यात् , अथ तत् खसंविदितमिति सदुच्यते, अयमपि तथाभूत एवेति सन्नस्तु, उक्तं हि-"अस्त्येव चात्मा प्रत्यक्षो, जीवो यात्मानमात्मना । अहमस्मीति संवेत्ति, रूपादीनि यथेन्द्रियैः ॥१॥" इति, किंबहुना ?, यथा चैतन्यमस्तीत्यभ्युपगम्यते तथाऽऽत्माप्यभ्युपगन्तव्यः, तथा चाह-"ज्ञानं स्वस्थं परस्थं वा, यथा ज्ञानेन गृह्यते । ज्ञाता खस्थः परस्थो वा, तथा ज्ञानेन गृह्यताम् ॥१॥” इति । अथ सर्वसम्बन्ध्यनुपलम्भ आत्माभावे हेतुः, अयमप्यसिद्धः, अहमस्मीति प्रत्ययेन प्रतिप्राणि खात्मनः केवलिनां च । सर्वात्मनामुपलम्भस्य प्रतिषेदुमशक्यत्वात् । एवमृद्धीनामप्यभावे सर्वसम्बन्ध्यनुपलम्भोऽसिद्धः, स्वसम्बन्धी तु नियतदेशकालापेक्षोऽन्यथा वा?, प्रथमपक्षे को वा किमाह?, कचित्कदाचित्तासामनुपलम्भस्य (उपलम्भस) चास्माकमपि संमतत्वात् , द्वितीयपक्षे पुनरनैकान्तिकता, देशादिविप्रकष्टानामनुपलम्भेऽपि सत्त्वात् , दृश्यते च कचित् कदाचित् चरणरेणुस्पर्शादितो रोगोपशमादि, ततश्चेहापि कालान्तरे महाविदेहादिषु सर्वकालमृद्ध्यन्तराणामपि सम्भवस्थानुमीयमानत्वात् , यदपि-वञ्चितोऽस्मीति भोगसुखानामनेन शिरस्तुण्डमुण्डनोपवासादिना यातनात्मकेन धर्मानुष्ठानेनेति, तदप्यसमीक्षिताभिधानं, भोगसुखाना दुःखानुषक्तत्वेन तत्त्ववेदिनामनादेयत्वात् , तथा च वात्स्यायनोऽप्याह दीप अनुक्रम [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~273~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४४|| नियुक्ति: [१२२] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः प्रत ॥१३२॥ सूत्रांक ||४४|| "तद्यथा-विपसम्पृक्तमन्नमनादेयमेवं दुःखानुषक्तं सुखमनादेय"मिति, प्रयोगश्च-यद्विपक्षानुषिद्धं न तत्तत्त्वतस्तदेव, परीषहायथा विषव्यामिश्रमन्नम् , अतृप्सिकाङ्क्षाशोकादिनिमित्तं च वैषयिकं सुखं, न चास्यासिद्धता, कालत्रये यथायोगम | ध्ययनम् तृत्यादीनां प्रतिप्राणि खसंविदितत्वात् , नापि तपसो यातनात्मकत्वं, मनइन्द्रिययोगानामहान्येव तत्प्रतिपादनात्, II उक्तं हि-"मनइन्द्रिययोगानामहानिचोदिता जिनैः । यतोऽत्र तत्कथं तस्य, युक्ता स्यात् दुःखरूपता!॥१॥" शिरस्तुण्डमुण्डनादेश्च किञ्चित्पीडात्मकत्वेऽपि समीहितार्थसम्पादकत्वेन न दुःखदायकता, यदुक्तम्-"दृष्टा चेष्टार्थसंसिद्धौ, कायपीडाऽप्यदुःखदा । रत्नादिवणिगादीनां, तद्वदत्रापि भाव्यताम् ॥१॥” प्रयोगश्च-यदिष्टार्थप्रसाधकं न तत्कायपीडात्मकत्वेऽपि दुःखदायि, यथा रत्नवणिजामध्वश्रमादि, इष्टार्थप्रसाधकं च तपः, न चास्याप्यसिद्धता, प्रशमहेतुत्वेन तपसस्तत्परिपक्तितारतम्यात्परमानन्दतारतम्यस्यानुभूयमानत्वेन तत्प्रकर्षे तस्यापि प्रकर्षानुमानात्, प्रयोगश्च-यत्तारतम्येन यस्य तारतम्यं तस्य प्रकर्षे तत्प्रकर्षों, यथाऽग्नितापप्रकर्षे तपनीयविशुद्धिप्रकर्षः, अनुभूयते च | प्रशमतारतम्येन परमानन्दतारतम्यं, लोकप्रतीतत्वाचेति सूत्रार्थः॥४४॥ तथा अभू जिणा अस्थि जिणा, अदुवावि भविस्सइ।मुसं तेएवमाहंसु, इति भिक्खून चिंतए॥४५॥(सूत्रम् ॥१३२॥ है व्याख्या-'अभूवन्' आसन् 'जिनाः' रागादिजेतारः, अस्तीति विभक्तिप्रतिरूपको निपातः, ततश्च विद्यन्ते जिनाः, अस्य कर्मप्रवादपूर्वसप्तदशप्राभृतोद्भुततया वस्तुतः सुधर्मखामिनैव जम्बुखामिन प्रति प्रणीतत्वात् , तत्काले च 4 दीप अनुक्रम [९३] + wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~2744 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४५|| नियुक्ति: [१२२] 2% % % प्रत सूत्रांक ||४५|| जिनसम्भवादित्थमुक्तं, विदेहादिक्षेत्रान्तरापेक्षया वेति भावनीयं, 'अदुवे ति अथवा, अपिः भिन्नक्रमो 'भविस्सइ'त्ति वचनव्यत्ययाद्भविष्यन्ति, जिना इत्यपि 'भूषा' अलीकं, 'ते' जिनास्तित्ववादिनः, 'एवम्' अनन्तरोक्तन्यायेन 'आहंसुत्ति आहुः ब्रुवत इति भिक्षुर्न चिन्तयेत् , जिनस्य सर्वाधिक्षेपप्रतिक्षेपादिषु प्रमाणोपपन्नतया प्रतिपादनात् तदुपदेश मूलत्वाच सकलैहिकामुष्मिकव्यवहाराणामिति सूत्रार्थः ॥४५॥ इदानी शिष्यागमनद्वारं, तत्र च 'नस्थि नृणं | परे लोए' इति सूत्रावयवसूचितमुदाहरणमाह ओहाविउकामोऽवि य अज्जासाढो उ पणीयभूमीए । काऊण रायरूवं पच्छा सीसेण अणुसिट्टो ॥१२३॥ ___ व्याख्या-'अवधावितुकामोऽपि' उन्निष्क्रमितुकामोऽपि, चः पूरणे, आर्यापाढस्तु 'पणितभूमौ' व्यवहारभूमौ हट्टमध्य इत्यर्थः, कृत्वा राजरूपं पश्चाच्छिष्येणानुशिष्ट इति गाथाक्षरार्थः ॥ १२३॥ भावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदायाद-18 वसेयः, स चायम्है अत्थि वच्छाभूमीए अजासाढा णामायरिया बहुस्सुया बहुसीसपरिवारा य, तत्थ गच्छे जो कालं करेइतं निजा-12 यति भत्तपचखाणाइणा, तो वहयो णिजामिया । अन्नया एगो अप्पणतो सीसो आयरतरेण भणितो-देवलो-४ | १ अस्ति वत्सभूमौ आर्याषाढा नामाचार्या बहुश्रुता बहुशिष्यपरीवाराश्च, तत्र गच्छे यः कालं करोति तं निर्यामयन्ति भक्तप्रत्याख्याना|दिना, ततो बहवो नियामिताः । अन्यदा एक आत्मीयः शिष्य आदरतरेण भणित:-देवलो दीप अनुक्रम [९४]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~275 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४५|| नियुक्ति: [१२३] * प्रत सूत्रांक ||४५|| * उत्तराध्य. गांतो आगंतूण मम दरिसणं देज्जासु, ण य सो आगतो बक्खित्तचित्तत्तणओ, पच्छा सो चिंतेइ-सुबहुं कालं किलि- परीषहा होऽई, सलिंगणं चेच ओहावइ, पच्छा तेण सीसेण देवलोगगएण आभोईतो, पेच्छइ-ओहायेंत, पच्छा तेण तस्स बृहद्वृत्तिः |पहे गामो विउचितो णडपेच्छा य,सो तत्थ छम्मासे पेक्खंतो अच्छितो, ण छुहं ण तण्डं कालं या दिवप्पभावेण || २ ॥१३॥ एति, पच्छा तं संहरिउं गामस्स बर्हि विजणे उजाणे छद्दारए सवालंकारविभूसिए विउचति संजमपरिक्खत्थं, दिट्टा तेण ते, गिण्हामि एसिमाहरणगाणि, बरं सुहं जीवंतोत्ति, सो एग पुढविदारय भणइ-आणेहि आभरणगाणि, सो भणइ-भगवं! एग ताव मे अक्खाणयं सुणेहि, तओ पच्छा गिहिज्जासि, भणइ-मुणेमि, सो भणइ-एगो कुंभकारो, सो मट्टियं खर्णतो तडीए अर्कतो, सो भणइ १० कादागत्य मह्यं दर्शनं दद्याः, न च स आगतो ब्याक्षिप्तचित्तत्वात् , पश्चात्स चिन्तयति-सुबहुकालं क्लिष्टोऽहं, स्खलिङ्गेनैवावधावति, पश्चात्तेन शिष्येण देवलोकगतेनाभोगितः, पश्यति-अवधावन्तं, पश्चात्तेन तस्य पथि प्रामो विकुर्षितः नटप्रेक्षणकं च, स तत्र पग्नासान प्रेक्षमाणः स्थितः, न क्षुध न तृष्णां कालं वा दिव्यप्रभावेण वेदयति, पश्चात्तन् संहत्य प्रामाहिर्विजने उद्याने षड् दारफान | |१३३॥ सर्वालङ्कारविभूषितान विकुर्वति संयमपरीक्षार्थ, दृष्टास्तेन ते, गृह्णाम्येषामाभरणानि, वरं सुखं जीवन्निति, स एकं पृथ्वीदारक भणति-आनय * आभरणानि, स भणति-भगवन् ! एकं तावन्ममाख्यानक शृणु, ततः पश्चात् गृहीयाः, भणति-शृणोमि, स भणति-एकः कुम्भकारः, दस मृत्तिका खनन तथ्याऽऽक्रान्तः, स भणति-: * दीप अनुक्रम [९४]] JABERatinintamathone पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~276 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||४५ || दीप अनुक्रम [४] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||४५ || निर्युक्तिः [१२४] अध्ययनं [२], जेण भिक्खं बलिं देमि, जेण पोसेमि नायए । सा मे मही अक्कमइ, जायं सरणओ भयं ॥ १२४ ॥ व्याख्या – 'जेण 'त्ति प्राकृतशैल्या यया भिक्षां बलिं ददामि यथाक्रमं भिक्षुदेवेभ्य इति गम्यते, 'जेण'ति यया पोषयामि 'नायए' ति ज्ञातीन्, सा 'मे'त्ति मां मही 'आक्रामति' अवष्टनाति 'जातम्' उत्पन्नं, शरणतो भयम् इति श्लोकार्थः ॥ १२४ ॥ अथमिहोपनयः - चौरभयादहं भवन्तं शरणमागतः त्वं च एवं विलुम्पसि, ततो ममापि जातं शरणतो भयम्, एवमुत्तरत्राप्युपनया भावनीयाः, तेणं भण्णइ अइपंडियवाइतोऽसित्ति घेतूण आभरणगाणि पडिगहे छूढाणि । गओ पुढविकारतो, इयाणि आउकाओ बीओ, सोऽवि अक्खाणयं कहेइ जहा एगो तालायरो कहाकहओ पाडलओ णाम, सो अन्नया गंगं उत्तरंतो उवरि बुट्टोदएण हीरति, तं पासिऊण जणो भगह बहुस्सुयं चित्तकहं, गंगा वहइ पाडलं । वुज्झमाणग ! भदं ते, लव ता किंचि सुहासियं ॥ १२५ ॥ व्याख्या -'बहुश्रुतं' बहुविद्यं 'चित्रकथं' नानाकथाकथकं गङ्गा वहति 'पाडलं' पाटलनामकम्, उखमानक ! १ तेन भण्यते--अतिपण्डितबादिकोऽसीति गृहीत्वाऽऽभरणानि प्रतिग्रहे क्षिप्तानि । गतः पृथ्वीकायिकः, इदानीमप्कायो द्वितीयः, | सोऽप्याख्यानकं कथयति - यथैकस्तालाचरः कथाकथकः पाटलो नाम, सोऽन्यदा गङ्गामुत्तरन् उपरि पृष्टोदकेन हियते, तं दृष्ट्वा जनो भणति Education intimation For Parts at Use Only www पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~277~ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४५|| दीप अनुक्रम [४] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१३४॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||४५|| अध्ययनं [२], निर्युक्ति: [ १२५] भद्रं ते, 'लप' ब्रूहि 'ता' इति तावद्यावदद्यापि दूरं न नीयस इति भावः, 'किञ्चित्' अत्यल्पं 'सुभाषितं' सूक्तमिति श्लोकार्थः ॥ १२५ ॥ सोऽवादीत् जेण रोहति बीयाणि, जेण जीयंति कासया । तस्स मज्झे विवज्जामि, जा० ॥ १२६ ॥ व्याख्या- 'येन' जलेन 'रोहन्ति' प्रादुर्भवन्ति बीजानि येन 'जीवन्ति' प्राणधारणं कुर्वन्ति 'कर्षकाः' कृषीवलाः तस्य मध्ये 'विवज्जामि'त्ति विपद्ये म्रिये, जातं शरणतो भयमिति श्लोकार्थः ॥ १२६ ॥ तैस्सवि तहेव गिण्हति । एस आउक्कातो गतो, इयाणिं तेडक्कातो तइतो, तहेब अक्खाणयं कहेइ एगस्स तावसस्स अग्गिणा उडओ दहो, पच्छा सो भणति जमहं दिया य राओ य, तप्पेमि महुसप्पिसा । तेण मे उडओ दडो, जा० ॥ १२७ ॥ व्याख्या - यमहं दिवा च रात्रौ च 'तर्पयामि' प्रीणयामि मधुसर्पिषा, तेनार्थादशिना मे 'ओटजः' तापसाश्रमो दग्धो, जातं शरणतो भयमिति श्लोकार्थः ॥ १२७ ॥ अथवा १ तस्यापि तथैव गृह्णाति । एषोऽकायो गतः, इदानीं तेजस्कायस्तृतीयः, तथैव आख्यानकं कथयति एकस्य तापसस्य अमिना उटजी दुग्धः, पश्चात् स भणति Education Intimation Forest परीपहाध्ययनम् २ ~278~ ॥ १३४॥ www.pinbrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४५|| नियुक्ति: [१२८] प्रत सूत्रांक ||४५|| वग्घस्स मए भीएणं, पावगो सरणं कओ। तेण दई ममं अंगं, जा०॥ १२८ ॥ व्याख्या-'बग्घस्स'त्ति सुव्यत्ययात् 'ब्यामात् ' पुण्डरीकात् मया भीतेन 'पावकः' अग्भिः शरणीकृतः, तेनाझं- शरीरं मम दग्धं, जातं शरणतो भयमिति श्लोकार्थः ॥ १२८॥ तस्संवि तहेव गिण्हइ। एस तेउकाओ, इयार्णिक ६ वाउकाओ चउत्यो, तहेव अक्खाणयं कहेति-जहा एगो जुवाणो घणनिचियसरीरो, सो पच्छा वाएहिं गहितो, अन्नेण भण्णतिलंघणपवणसमत्थो पुवं होऊण संपई कीस ? दंडयगहियग्गहत्थो वयंस! को नामओवाही ? ॥१२९॥ __व्याख्या-लचनम्-उतमुत्य गमनं प्लवनं-धावन तत्समर्थः पूर्व भूत्वा साम्प्रतं 'कीस'त्ति कस्मात् 'दण्डयगहि यग्गहत्योति प्राकृतत्वात् गृहीतदण्डाग्रहस्तो, गच्छसीति गम्यते, तदयं ते वयस्य ! किनामको व्याधिरिति दगाथार्थः ॥ १२९॥ स प्राह जिट्ठासाढेसु मासेसु, जो सुहो वाइ मारुओ। तेण मे भज्जए अंगं, जा० ॥ १३०॥ है। १ तस्यापि तथैव गृह्णाति । एष तेजस्कायः, इदानी वायुकायश्चतुर्थः, तथैव आख्यानकं कथयति-यथैको युवा धननिचितशरीरः, स पश्चाद्वातेन गृहीतः, अन्येन भण्यते CACACASSACSALA दीप अनुक्रम [९४]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~279 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४५|| दीप अनुक्रम [९४] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ।। १३५ ।। [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||४५|| निर्युक्ति: [१३०] अध्ययनं [२], व्याख्या -- ज्येष्ठा पाढयोर्मासयोर्यः शुभ्रंशैत्यादिगुणान्वितत्वेन शोभनो याति 'मारुतो' वायुः, तेन ( मे मम ) भज्यतेऽङ्ग, तस्य मेघोन्नतिसम्भवत्वेन वातप्रकोपादिति भावः एवं च जातं शरणतो भयं घर्म्मार्द्दितानां हि शरणमयमिति श्लोकार्थः ॥ १३० ॥ अथवा जेण जीवंति सत्ताणि, निरोहंमि अनंतए । तेण मे भजए अंगं, जायं० ॥ १३१ ॥ व्याख्या- 'जेण' इत्यादि, येन वातेन जीवन्ति सत्त्वानि 'निरोधे' प्रक्रमाद्वातस्य 'अनन्त' अपरिमिते, तेन मे भज्यतेऽङ्गं जातं शरणतो भयमिति श्लोकार्थः ॥ १३१ ॥ तस्संवि तहेव गिण्हइ । एस चाउक्काओ गतो, इयाणिं वणस्सइकाइतो पंचमो तहेव अक्खाणं कहेति, जहा एगंमि रुक्खे केसिंपि सउणाण आवासो, तहियं पिलगाणि जायाणि, पच्छा रुक्खन्भासाओ वल्ली उट्टिया, रुक्खं वेदंती उवरिं विलग्गा, बेल्लीअणुसारेण सध्पेण विलग्गिऊण ते पिलगा खइया, पच्छा सेसगा भणन्ति जाव बुच्छं सुहं बुच्छं, पादवे निरुवद्दवे । मूलाउ उट्टिया वल्ली, जा० ॥ १३२ ॥ १ तस्यापि तथैव गृह्णाति । एष वायुकायो गतः, इदानीं वनस्पतिकायिकः पश्चमः, तथैवाख्यानं कथयति-यथा एकस्मिन् वृक्षे केषाचिदपि शकुनानामावासः, तत्रापत्यानि जातानि पश्चात् वृक्षाभ्यासात् वही उत्थिता, वृक्षं येष्टयन्ती उपरि विलग्ना, वायनुसारेण सर्पेण विलग्य तान्यपत्यानि खादितानि पश्चात् शेषा भणन्ति Education intimation For Party परीपहा ध्ययनम् २ ~280~ ॥१३५॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४५|| नयुक्ति : [१३२] प्रत सूत्रांक ||४५|| 3. व्याख्या-यावदुषितं सुखमुषितं पादपे निरुपद्रवे, इदानीं मूलादुत्थिता वल्ली ततो वृक्षादेव तत्त्वतो भयं, स चोतनीत्या शरणमिति जातं शरणतो भयमिति श्लोकार्थः॥१३२॥ तस्सैयि तहेव गिर्षणइ । एस वणस्सतिकातो गतो, इयाणि तसकाओ छट्ठो, तहेव अक्खाणयं कहेइ-जहा Kाएकं नगरं परचक्केण रोहियं, तत्थ व बाहरियाए मायंगा, ते अम्भितरएहिं णीण्णिजंति, बाहिं परचकेण घेप्पति, पच्छा केणवि अन्नण भषणति| अभितरया खुभिया, पिल्लंति (य) बाहिरा जणा। दिसं भयह मायंगा !, जा०॥ १३३ ॥ | व्याख्या-'अभ्यन्तरकाः' नगरमध्यवर्तिनः 'क्षुभिताः' परचक्रात्रस्ताः 'प्रेरयन्ति' निष्काशयन्ति, मा भूद-2 नादिक्षय एभ्यो वा भेदः, चशब्दो भिन्नक्रमः, ततो 'बाह्याश्च' परचक्रलोका उपद्रवन्ति, भवत इति गम्यते, नगरसत्का एत इति, अतो दिशं भजत माताः !, यतो जातं शरणतो भयं, नगरं हि भवतां शरणं, तत एव । भयमिति श्लोकार्थः ॥१३३ ॥ अथवा-एगव नयरे सयमेव राया चोरो पुरोहिओ भंडिति (डोत्ति), ततो दोषि विहरंति, पच्छा लोओ अन्नमन्नं भणति १ तस्यापि तथैव गृहाति । एष वनस्पतिकायिको गतः, इदानीं त्रसकायः षष्ठः, तथैवाख्यानकं कथयति-यथैकं नगरं परचक्रेण रुळ, तत्र च बाहिरिकायां मातकाः, तेऽभ्यन्तनिष्काश्यन्वे, बहिः परचक्रेण गृह्यन्ते, पश्चात्केनाप्यन्येन भण्यन्ते- २ एकत्र नगरे स्वयमेव राजा चौरः पुरोहितो भण्डकः, ततो द्वावपि विहरतः, पचालोकोऽन्योऽन्य भणति दीप अनुक्रम [९४]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~281 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४५|| दीप अनुक्रम [९४] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१३६॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||४५ || अध्ययनं [२], निर्युक्तिः [१३४] जत्थ राया सयं चोरो, भंडिओ य पुरोहिओ । दिसं भयह नायरिया !, जायं० ॥ १३४ ॥ ब्याख्या --यत्र राजा खयं चौरः खपुरं मुष्णाति, भण्डकश्च पुरोहितः, अतो दिशं भजत नागरका ! जातं शरणतो भयमिति श्लोकार्थः ॥ १३४ ॥ अहवां एगस्स धिज्जातियस्स धूया, सा य जोवणत्था, पडिरुवदंसणिज्जा, सो धिजातितो तं पासिऊण अज्झोववण्णो, तीसे करण अतीव दुब्वलीभूतो, बंभणीए पुच्छितो णिच्बंधे कए कहियं, ताए भण्णति-मा अधि करेसु, तहा करेमि जहा केणइ पओएण संपत्ती हवति, पच्छा धूयं भणइ-अम्ह पुत्रिं दारियं जक्खा भुंजंति, पच्छा वरस्स दिजइ, तो तव कालपक्खच उद्दसीए जक्खो एही, मा तं विमाणेसु मा य तत्थ तुमं उज्जोयं काहिसि, तीएवि जक्खको उहलेण दीवओ सरावेण ठवितो नीतो, सो य आगतो, सो तं परिभुंजिऊण रतिं किलंतो पासुतो, १ अथवा एकस्य धिग्जातीयस्य दुहिता, सा च यौवनस्था, अप्रतिरूपदर्शनीया, स धिग्जातीयतां दृष्ट्वाऽभ्युपपन्नः, तस्याः कृते अतीव दुर्बलीभूतः, ब्राह्मण्या पृष्ठः-निर्बन्धे कृते कथितं तया भण्यते माऽवृति कार्षीः, तथा करिष्यामि यथा केनचित्प्रयोजनेन संपत्तिर्भविष्यति, पञ्चाद्दुहितरं भणति अस्माकं पूर्व दारिकां यक्षा मुखते, पश्चाद्वराय दीयते, ततस्त्वां कृष्णपक्षचतुर्दश्यां यक्ष एष्यति, मातं विमंस्थाः, मा च तत्र त्वमुद्योतं कार्षीः, तयाऽपि यक्षकौतूहलेन दीपः शरावेण स्थगितो नीतः स चागतः स तां परिभुज्य रात्रौ हान्तः प्रसुप्तः, Education intemational For P परीषहाध्ययनम् ~282~ ॥१३६॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [ ४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४५|| नियुक्ति: [१३५] प्रत सूत्रांक ||४५|| 91-96 इमाए कोउएण सरावं फेडियं, नवरं पेच्छइ पियरं, ताए नायं-जं होइ तं होउ, इच्छाए भुंजामि भोए, पच्छा ताई रइकिलंताई उग्गए सूरे न पडिबुझंति, पच्छा बंभणी मागहियं भणइ-- अइरुग्गयए य सूरिए, चेइयथूभगए य वायसे। भित्तीगयए य आयवे, सहि ! सुहिओहुजणो न बुज्झइ॥ व्याख्या-अचिरोद्गतके च सूर्ये, कोऽभिप्रायः ?-प्रथमोदिते रखौ, चैत्यस्तूपगते च यायसे, अनेनोचे विवखतीत्साह, भित्तिगते चातपे, अनेन चोचतर इति, सखि ! सुखितोहुर्वाक्यालङ्कारे जनो'न बुध्यते' न निद्रां जहाति, अनेनात्मनो दुःखितत्वं प्रकटयति, सा हि भर्तृविरहदुःखिता रात्री न निद्रा लब्धवतीति मागधिकार्थः ॥ १३५॥ पच्छा सा तीसे धूया पडिसुणित्ता पडिभणति मागहियंतुम एव य अम्म हे! लवे,मा हु विमाणय जक्खमागयोजक्खहडए हुतायए,अन्निं दाणि विमग्ग ताययं॥ व्याख्या-त्वमेव चाम्ब !-मातः हे इत्यामत्रणे 'अलापीः उक्तवती शिक्षासमये यथा-'मा हुत्ति मैव 'विमाणय'त्ति १ अनया कौतुकेन शरावं स्फेटितं, नवरं पश्यति वातं, तया ज्ञात-यद्भवति तद्भवतु, इच्छया भुजे भोगान , पश्चात्ती रतिक्वान्ती उगते सूर्ये (अपि) न प्रतिबुध्येते, पश्चाद् ब्राह्मणी मागधिका भणति- २ पश्चात्तस्याः सा दुहिता प्रतिभुत्य प्रतिभणति मागधिकाम् + दीप अनुक्रम [९४]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~283 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४५|| दीप अनुक्रम [९४] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१३७॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||४५|| अध्ययनं [२], निर्युक्तिः [१३७] | विमंस्था विमुखं कृथा यक्षमागतं, यक्षाहतको 'हु'त्ति खलु तातकोऽन्यमिदानीं 'विमार्गय' अन्वेषय तातकमिति माग|धिकार्थः ॥ १३६ ॥ पंच्छा सा धिजाइणी भणइ- नत्रमास कुच्छीइ घालिया, पासवणे पुलिसे य मद्दिए । धूया मे गेहिए हडे, सलणए असलणए य मे जायए ॥ १३७ ॥ व्याख्या -नव मासान् कुक्षौ धारिता या प्रश्रवणं पुरीषं च मर्दितं यस्या इति गम्यते, 'धूयति दुहिता च, गम्यमानत्वात्तया, 'मे' मम 'गेहको' भर्त्ता 'हृतः' चौरितोऽतो हेतोः, शरणकमशरणकम्, अपकारित्वान्मे जातमिति मागधिकार्थः ॥ १३७ ॥ अहंवा एगेण धिजाइएण तठायं खणावियं, तत्थेव पालीए देसे देउलमारामो कतो, तत्थ तेण जन्नो पवत्तिओ, छगलका जत्थ मारिजंति । अन्नया कयाइ सो विजाइतो मरिऊण छगलको चेवायाओ, सो य धित्तूण अप्पणिजेहिं पुत्तेहिं तस्स चैव तलाए जन्ने मारिउं णिज्जति, सो य जाईस्सरो णिजमाणो अप्पणिज्जियाए Education intimational ११ पश्चात् सा धिग्जातीया भणति । २ अथवैकेन धिरजातीयेन तटाकं स्वानितं, तत्रैव पाल्यां देशे देवकुलमारामः (च) कृतः, तत्र तेन यक्षः प्रवर्त्तितः, अजा यत्र मार्यन्ते । अन्यदा कदाचित् स धिग्जातीयो मृत्वा छगलकश्चैवायातः, स च गृहीत्वाऽऽत्मीयैः पुत्रैः तस्यैव तटाके यज्ञे मारयितुं नीयते स च जातिस्मरो नीयमान आत्मीयया For Parts Only परीपहाध्ययनम् २ ~284~ ॥१३७॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४५|| नियुक्ति: [१३८] प्रत सूत्रांक ||४५|| मासाए खुषुयइ अप्पणा चेव सोयमाणो, जहा मम चेव मए पवत्तियं, एवं सो वेवमाणो साहुणा अतिसयणाणिणा एगेण दीसति, तेण भणियं सयमेव य लुक्ख लोविया, अप्पणिआ य वियड्डि खाणिया। ओवाइयलद्धओ य सि, किं छेला ! वेवेति वाससी ? ॥ १३८ ॥ ध्याख्या-खयमेव च-आत्मनैव च 'रुक्ख'त्ति सुब्लोपादृक्षा रोपिताः, भवतेति गम्यते, आत्मीया च 'वियहित्ति देशीवचनतः तडागिका खानिता, याचितस्य-प्रार्थितस्य प्राप्तरुपरि देवेभ्यो देयमुपयाचितं तेनैव लब्धः-अवसरः ते दुरापत्वेनोपयाचितलब्धः स एवोपयाचितलब्धकोऽसि त्वमिति, किं छगलक ! 'वेवेति वाससि ?-आरससीति । मागधिकार्थः॥१३८॥ततो सो छगलको तेण पढिएणं तुण्हिक्को ठिओ, तेण घिजाइएण चिंतियं-किंपि पवइयगेण पढियं, तेण एस तुहिको ठिओ, तओ सो तवस्सि भणति-किं भगवं! एस छगलको तुम्भेहिं पढियमेत्ते चेव तुहिको १ भाषया बुवुत्करोति आत्मनैव शोचन , यथा ममैव मया प्रवर्तितम् , एवं स वेपमानः साधुना अतिशयज्ञानिना एकेन दृश्यते, तेन भणितं-- २ ततः स छगलकस्तेन पठिवेन तूष्णीकः स्थितः, तेन घिग्जातीयेन चिन्तितं-किमपि प्रत्रजितकेन पठितं, तेनैष तूष्णीकः स्थितः, ततः स तपस्विनं भणति-किं भगवन् ! एष छगलको युष्माभिः पठितमात्रे एव सूष्णीकः दीप अनुक्रम [९४]] RECO-CR पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~285 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४५|| नियुक्ति: [१३८] प्रत सूत्रांक ||४५|| उत्तराध्य. ठिओ, तेण साहुणा तस्स कहियं-जहा एस तुम्भ पिया, किमभिण्णाणं ?, तेण भणियं-अहंपि जाणामि, किं पुण, परीषहाबृहद्वृत्तिः एसो कहिहिइ, तेण छगलगेण पुत्वभवे पुत्तेण समं निहाणगं निहियं, तं गंतूण पाएहिं खडखडेइ, एयमभिन्नाणं, ध्ययनम् पच्छा तेण मुको, साहुसमीवे धम्मं सोउण भत्तं पञ्चक्खाएऊण देवलोयं गतो। एवं तेण सरणमिति काउं तडागारामे ॥१३८ जण्णो य पवत्तिओ, तमेव असरणं जायं । एवंविधोऽत्र समवतार:-एवं तुम्हं अम्हे गया सरणं । इह च पूर्वक है मनुष्यजातेस्रसस्य स्मरणार्थमुदाहरणत्रयमिदं तु तिर्यग्जातेरिति भावनीयम् । सो तहेव तस्स आहरणगाणि |चित्तूण सिग्घं गंतुं समाढत्तो पंथे, णवरि संजई पासति मंडियंटिबिडिफियं, तेण सा भण्णइ कडए ते कुंडले य ते, अंजियक्खि ! तिलयते य ते । पवयणस्स उड्डाहकारिए! दुट्टा सेहि ! कतोऽसि आगया? ॥ १३९ ॥ स्थितः, तेन साधुना तस्मै कथितं-यथैप तब पिता, किरमिज्ञानम् ?, तेन भणितम्-अहमपि जानामि, किं पुनरेष कथयिष्यति, ४ तेन उगलकेन पूर्वभवे पुत्रेण समं निधानं निहितं, तद्गता पादाभ्यां खटत्कारयति, एतदभिज्ञान, पश्चात् तेन मुक्तः, साधुसमीपे धर्म श्रुत्वा | भक्तं प्रत्याख्याय देवलोकं गतः । एवं तेन शरणमितिकृत्वा तटाकारामो यज्ञश्च प्रवर्तितौ, त एवाशरणं जातम् । एवं युष्मान वयं गताः शरणं । स तथैव तस्याभरणानि गृहीत्वा शीघ्रं गन्तुं समारतः पथि, नवरं संयती पश्यति अलङ्कारोङ्कटा, तेन सा भण्यते दीप अनुक्रम [९४]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~286 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४५|| दीप अनुक्रम [४] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [१] / गाथा ||४५ || निर्युक्ति: [१३९] अध्ययनं [२], व्याख्या -- कटके च 'ते' तब कुण्डले च ते अञ्जिताक्षि । तिलकञ्च 'ते' त्वया कृतः, प्रवचनस्य उड्डाहकारिके ! दुष्टशिक्षिते कुतोऽस्यागतेति मागधिकार्यः ॥ १३९ ॥ दर्शनपरीक्षार्थी च साध्वीविकरणं । सैवमुक्ता सतीदमाह - राईसरिसवमित्ताणि, परछिदाणि पाससि । अप्पणो बिल्लमित्ताणि, पासंतोऽवि न पाससि ॥ १४० ॥ व्याख्या - राजिकासर्षपमात्राणि परच्छिद्राणि पश्यस्यात्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यसीति श्लोकार्थः ॥ १४० ॥ तथा समणोऽसि संजओ असि, बंभयारी समलेहुकंचणे । वेहारियवाअओ य ते, जिटुज! किं ते पडिग्गहे ? १४९ व्याख्या -- श्रमणोऽसि संयतोऽसि बहिर्वृच्या ब्रह्मचारी समलोष्ठकाञ्चनो विहारिकवातकश्च ते - यथाऽहं वैहारिक इत्यादिरूपो ज्येष्ठार्य ! किं 'ते' तब पतद्ग्रहक इति श्लोकार्थः ॥ १४१ ॥ एवं ताए उढाहितो समाणो पुणोऽवि गच्छति, णवरं पेच्छति खंधावारभिंतं, तस्स किर णीवट्टमाणो दंडियस्सेव सवडहुत्तो गतो, तेण हत्थिखंधा ओरुहित्ता वंदितो भणिओ य-भयवं ! अहो परमं मंगलं निमित्तं च जं साहू अज्ज मए दिट्ठो, भययं ! ममाणुग्गहत्थं १ एवं तया निर्भत्सितः सन् पुनरपि गच्छति, नवरं पश्यति स्कन्धावारमायान्तं, तस्मात् किल निवर्तमानो दण्डिकस्यैव सपक्षं गतः, तेन हस्तिस्कन्धादवतीर्य वन्दितः भणितश्च भगवन् ! अहो परमं मङ्गलं निमित्तं च यत्साधुरथ मया दृष्टः, भगवन् ! मभानुमद्दार्थ Education national For www.janbay.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४३ ], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~ 287 ~ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४५|| नियुक्ति: [१४१] उत्तराध्य बृहदृत्तिः ॥१३॥ प्रत सूत्रांक ||४५|| फोसुयएसणिजं इमं मोयगादि संबलो घेप्पति, सो णिच्छइ, भायणे आभरणगाणि छूढाणि मा दीसिहिति, तेण परीषडादंडिएण बला मोडिऊण पडिग्गहो गहिओ, जाव मोयगे छुहति ताव पेच्छइ आभरणयाणि, तेण सो खरंटिओध्ययनम् उवालद्धो य, पुणोऽवि संबोहिओ-जहा न जुज्जर तुम्हं एवं विपरिणामो, मज्झं च अणागमणकारणं सुणेसु-संकेतदिवपेमा बिसयपसत्ताऽसमत्तकत्तबा । अणहीणमणुयकज्जा नरभवमसुहं न इंति सुरा ॥१॥ पच्छा दिवं देवरूवं काऊण पडिगतो। तेण पुर्षि दसणपरीसहो नाहियासितो, पच्छा अहियासितो॥ एवं शेषसाधुभिरपि सहनीयो दर्शनपरीपहः ॥ इहोदाहरणोपदर्शकत्वात् प्रकृतनियुक्तेः कथं सूत्रस्पर्शकत्वमिति यत्कैश्चिदुच्यते, तदयुक्तं, सूत्रसूचितार्थाभिधायित्वात् तस्याः, तदभिधानस्य तत्त्वतः सूत्रव्याख्यानरूपत्वेन सूत्रस्पर्शकत्वादिति । किंच-कालीपवंगसंकासे'इत्यादिना क्षुदादिभिरत्यन्तपीडितस्यापि यत्परीषहणमुक्तं, तत्र मन्दसत्वस्य कस्यचिदश्रद्धानात् सम्य-14 क्वविचलितमपि सम्भवेदिति तदृढीकारार्थ दृष्टान्ताभिधानमर्थतः सूत्रस्पर्शकमिति व्यक्तमेवैतत्, न च केषाश्चि १ प्रासुकैषणीयमिदं मोदकादि शम्बलो गृह्यता, स नेच्छति, भाजने आभरणानि क्षिप्तानि मा दशाँति, तेन दण्डिकेन बलादामोट्य प्रतिग्रहो गृहीतः, यावन्मोदकान् क्षिपति तावत्पश्यति आभरणानि, तेन स तिरस्कृतः उपालब्धाच, पुनरपि संबोधितः-यथा न युज्यते | ॥१३९॥ युष्माकमेवं विपरिणामः, मम चानागमनकारणं शृणु-संक्रान्तदिव्यप्रेमाणो विषयप्रसक्ताः असमाप्तकर्त्तव्याः । अनधीनमनुजकार्या नरभव-4 मशुभं नायान्ति मुराः ॥ १॥ पश्चादिव्यं देवरूपं कृत्वा प्रतिगतः । तेन पूर्व दर्शनपरीषहो नाभ्यासितः पश्चात् अभ्यासितः ॥ दीप अनुक्रम [९४]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~288 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [२], मूलं [१] / गाथा ||४६|| नियुक्ति: [१४१] प्रत सूत्रांक ||४६|| दिहोदाहरणानां नियुक्तिकालादर्वाकालभावितेत्यन्योकत्वमाशङ्कनीयं, स हि भगवांश्चतुर्दशपूर्ववित् श्रुतकेवली काल-11 प्रयविषयं वस्तु पश्यत्येवेति कथमन्यकृतत्वाशङ्केति ॥ सम्प्रत्यध्ययनार्थोपसंहारमाह एए परीसहा सत्वे, कासवेण पवेइया।जे भिक्खू ण विहपिणजा, पुट्ठो केणइ कण्हुइ ॥ ४६॥(सूत्रम्) KI व्याख्या-'एते' अनन्तरमुपदर्शितखरूपाः, 'परीषहाः' क्षुदादयः 'सर्वे' द्वाविंशतिसंख्या अपि न तु कियन्त : लाएव 'काश्यपेन' श्रीमन्महावीरेण 'प्रवेदिताः' प्ररूपिता, 'जे'चि यानुक्तन्यायेन ज्ञात्वेति शेषः, 'मिक्षुः' यतिन चैव 'विहन्येत' पराजीयेत, कोऽर्थः -संयमात्पात्येत, 'स्पृष्टो' बाधितः केनापि प्रक्रमाद्वाविंशतेरेकतरेण दुर्जयेनापि परीषहेण 'कण्हुइ'त्ति कुत्रचित् देशे काले वा इति सूत्रार्थः ॥ ४६॥ इतिः परिसमाप्ती, ब्रवीमीति सुधर्मखामी जम्बूखामिनमाह । नयाः पूर्ववत् । इति श्रीशान्तिसूरिविरचितायां शिष्यहितायामुत्तराध्ययनटीकायां द्वितीयमध्ययनं समाप्तमिति ॥ दीप अनुक्रम [९५]] द्वितीयमध्ययनं समाप्तम् ॥ atanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: अथ अध्ययनं - २ परिसमाप्तं ~289~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१४१] प्रत सूत्रांक ||४६|| RECCANCSCR4 नमः श्रुतदेवतायै ।। उक्तं परिपहाध्ययनं, सम्प्रति चतुरङ्गीयमारभ्यते, अस्स चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययने परीषहसहनमुक्तं, तच किमालम्बनमुररीकृत्य कर्त्तव्यमिति प्रश्नसम्भवे मानुषत्वादिचतुरङ्गदुर्लभत्वं तदालम्ब नमनेनोच्यते इत्यनेन सम्बन्धेनायातमिदमध्ययनम् , अस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि व्यावर्णनीयानि तावद्यावन्नामनि-2 द पन्नो निक्षेपः, तत्र च चतुरङ्गीयमिति द्विपदं नाम, अतश्चत्वारो निक्षेप्तव्याः अहं च, न चैकं विना चत्वार इलेक एव तापन्निक्षेपमहतीति मन्वान आह नियुक्तिकृत् णामंठवणादविए माउयपय संगहिकए चेव । पज्जव भावे य तहा सत्तेए इक्कगा इंति ॥ १४२॥ ६ व्याख्या-इहैककशब्दस्सैकत्र निर्दिष्टस्वापि प्रक्रान्तत्वेन सर्वत्र सम्बन्धात्, नामैककः स्थापनैकको द्रव्यैककः, 'मा है उयपय'त्ति सुपो लोपान्मातृकापदैकका सङ्ग्रहैकका, 'चः' समुच्चये, एवेति पूरणे, 'पजवति प्राग्वत् पर्यवैकका 'भावे' भावकका, 'चः' पूर्ववत् , तथेति शेषाणामपि निरूपचरितवृत्तितया तुल्यत्वमाह, उपसंहर्तुमाह-'सप्तैते' अनन्तरोक्ता एकका भवन्ति, एतद्व्याख्या च दशवकालिकनियुक्तावेव नियुक्तिकृता कृतेत्यत्रोदासितं, स्थानाशून्याय तु तदुक्तमेव किश्चिदुच्यते-तत्र नामैकको यस्यैकक इति नाम, स्थापनैकका पुस्तकादिन्यस्त एककाकः, द्रन्यै-18 ककः सचित्तादिनिधा-तत्र सचित्त एककः पुरुषादिरर्थः, अचित्तः फलकादिः, मिश्रो वनादिविभूषितः पुरुषादिरेक, & मातृकापदैककः 'उप्पण्णे इ वा विममे इ वा धुवे इ वा इति, एषां मातृकावत्सकलवाआयमूलतयाऽवस्थिताना दीप अनुक्रम [९५]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३], मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: अथ अध्ययनं - ३ “चतुरंगिय" आरभ्यते ~290 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [५] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ १४१ ॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) निर्युक्ति: [१४२] अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| मन्यतरद्विवक्षितम्, अकाराद्यक्षरात्मिकाया वा मातृकाया एकतरोऽकारादिः, सङ्ग्रहैककः येनैकेनापि ध्वनिना बहवः संगृह्यन्ते, यथा जातिप्राधान्ये श्रीहिरिति, पर्यायैककः शिवकादिरेककः पर्यायो, भावेककः औदधिकादिभावानामन्यतमो भाव इति गाथार्थः ॥ १४२ ॥ इत्थमविनाभाविताऽऽक्षिप्तमेककं निक्षिप्य प्रस्तुतमेव चतुष्कं निक्षेमुमाह णामं ठवणा दविए खित्ते काले य गणण भावे य। निक्खेवो य चउण्हं गणणसंखाइ अहिगारो ॥१४३॥ व्याख्या - तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, 'द्रव्ये' विचार्ये सचित्ताचित्तमिश्राणि द्रव्याणि चतुःसङ्ख्यतया विवक्षितानि, 'क्षेत्रे' चतुःसङ्ख्या परिच्छिन्ना आकाशप्रदेशा यत्र वा चत्वारो विचार्यन्ते, 'काले च' चत्वारः समयावलिकादयः | कालभेदाः यदा वा अमी व्याख्यायन्ते, गणनायां चत्वार एको द्वौ त्रयश्चत्वार इत्यादिगणनान्तःपातिनो भावे च चत्वारो मानुषत्वादयोऽभिधास्यमाना भावाः, एषां मध्ये केनाधिकारः १, उच्यते, गणनासङ्ख्वयाऽधिकारः, किमुक्तं | भवति ? - गणनाचतुर्भिरधिकारः, तैरेव वक्ष्यमाणानामङ्गानां गण्यमानतया तेषामेवोपयोगित्वादिति गाथार्थः ॥ १४३ ॥ | इदानीमङ्गनिक्षेपमाह- मंगं ठेवणंगं दबंगं चैव होइ भावंगं । एसो खल्लु अंगस्सा णिक्खेवो चउब्बिहो होइ ॥ १४४ ॥ Education intol Forsy चतुरङ्गीया ध्ययनम् ३ ~ 291~ ॥ १४१ ॥ www.r पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४३ ], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१४४] प्रत सूत्रांक ||४६|| - व्याख्या-नामाकं स्थापना द्रव्याङ्गं चैव भवति भावाङ्गम् , एतत् खलु 'अङ्गस्सा' इति प्राकृतत्वात् अङ्गस्य है निक्षेपश्चतुर्विधो भवतीति गाथासमासार्थः ॥ १४४ ॥ अत्र च नामस्थापने प्रसिद्धत्वादनाश्त्य द्रव्याजमभिधित्सुराह गंधंगमोसहंगं मजाउजसरीरजुद्धंगं । एत्तो इक्विकपि य णेगविहं होइ णायत्वं ॥१४५॥ व्याख्या-गन्धानम् ' औषधानम् , 'मजाउजंसरीरजुद्धंग'ति बिन्दोरलाक्षणिकत्वादनशब्दस्य च प्रत्येकमभिसम्बन्धात् मद्याक्रमातोद्यानं शरीराङ्गं युद्धाङ्गमिति पविधं द्रव्याङ्गम् , 'एत्तो'त्ति सुव्यत्ययादेषु-गन्धाकादिषु ६ मध्ये एकैकमपि च अनेकविधं भवति ज्ञातव्यमिति गाथाक्षरार्थः ॥ १४५ ॥ भावार्थ तु विवक्षुराचार्यों 'यथोद्देश ४ निर्देश' इति न्यायमाश्रित्य गन्धाङ्गं प्रतिपादयन्नाहजमदग्गिजडा हरेणुअ सबरनियंसणियं सपिणियं । रुक्खस्स य बाहितया मल्लियवासिय कोडी अग्घई ओसीरहरिबेराणं पलं पलं भद्ददारुणो करिसो। सयपुष्फाणं भागो भागो य तमालपत्तस्स ॥१४७॥ एयं पहाणं एवं विलेवणं एस चेव पडवासो । वासवदत्ताइ कओ उदयणमभिधारयंतीए ॥१४८॥ दीप अनुक्रम [९५]] ainatorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~292 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१४६-१४८] उत्तराभ्य प्रत सूत्रांक ||४६|| CLIC व्याख्या-तत्र 'जमदनिजटा' बालकः 'हरेणुका' प्रियङ्गुः 'शवरनिवसनकं' तमालपत्रं, 'सपिपिय'ति पिन्नि-पि- चतुरङ्गीया 18||निका ध्यामकाख्यं गन्धद्रव्यं तया सह सपिन्निक, वृक्ष्यस्य च बाझा त्वक् चातुर्जातकाचं प्रतीतैव 'मल्लियवासिय'ति अध्ययनम् वृत्तिः मल्लिका जातिस्तद्वासितमनन्तरोक्तद्रव्यजातं, चूर्णीकृतमिति गम्यते, कोटिम् 'अग्घेई'त्ति अर्हति, कोटिमूल्याइभवति,| ॥१४॥IPमहार्धतोपलक्षणं चैतत् ॥ १४६ ॥ तथा 'ओसीरं प्रसिद्धं, 'हीबेरो' वालकः, पलं पलेमनयोः, तथा 'भद्रदारो'। ७/देवदारोः कर्षः, 'सबपुष्फार्ण'ति वचनव्यत्ययात् शतपुष्पाया भागो, भागश्च तमालपत्रस्य, भाग इह पलिका मात्रम् ॥ १४७ ॥ अस माहात्म्यमाह-एतत् स्नानमेतद्विलेपनमेष चैव पटवासः 'वासवदत्तया' चण्डप्रद्योतदुहित्रा 'कृतो' विहितः 'उदयनं' वीणावत्सराजम् 'अभिधारयन्त्या' चेतसि बहन्त्या, जनेन परचित्ताक्षेपकत्वमस्य माहा-18 म्यमुक्तमिति सूत्रार्थः ॥ १४८ ॥ औषधाङ्गमाहदुन्नि य रयणी माहिंदफलं च तिण्णि य समूसणंगाई। सरसं च कणयमूलं एसा उदगढमा गुलिआ॥ एसा उ हरइ कंडं तिमिरं अवहेडयं सिरोरोगं । तेइज्जगचाउस्थिग मूसगसप्पावरद्धं च ॥ १५०॥ । व्याख्या-द्वे रजन्यौ' पिण्डदारुहरिने 'माहेन्द्रफलं च' इन्द्रयवाः, त्रीणि च समूषणं-त्रिकटुकं तस्वाहानि-17 सुण्ठीपिप्पलीमरिचद्रव्याणि, 'सरसं च' आई 'कनकमूलं' बिल्वमूलमेषा 'उदकाष्टमे'त्युदकमष्टमं वखां सा तथा दीप अनुक्रम [९५]] AESECCALS i+ ॥१४॥ wwwjandiarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~293 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१४९-१५०] प्रत सूत्रांक ||४६|| 18 'गुटिका' चटिका, अस्याः फलमाह-एपा तु हन्ति कण्डं तिमिरम् 'अवहेडयन्ति अर्द्धशिरोरोगं समस्तशिरोव्यर्थ, तेइज्जगचाउत्थिग'त्ति सुब्लोपे तार्तीयीकचातुर्थिकी, रूढ्या ज्वरो, 'मूषकसापराद्धम्' उन्दरादिदष्टं, चः समुच्चय : त इति गाथाद्वयार्थः ॥ १४९-१५० ॥ मद्यानमाहसोलस दक्खा भागा चउरो भागा य धाउगीपुप्फे । आढगमो उच्छरसे मागहमाणेण मजंग ॥१५॥12 व्याख्या-षोडश द्राक्षा भागाश्चत्वारो भागाश्च धातकीपुष्पे' धातकीपुष्पविषयाः 'आढगमोत्ति आपत्वादाऽ5-13 ढककः 'इक्षुरसे' इक्षुरसविषये, आढकः इह केन मानेनेत्याह-'मागधमानेन' दो असती पसती उ' इत्यादिरूपेण | 'मद्याझं' मदिराकारणं भवतीति गाथार्थः ॥ १५१ ।। आतोयाङ्गमाह एग मुगुंदा तूरं एग अहिमारुदारुयं अग्गी । एगं सामलीपुंडं बद्धं आमेलओ होइ ॥ १५२ ॥ व्याख्या-'एकमुकुन्दा तूर्यम्' इति एकैव मुकुन्दा वादिनविशेषो गम्भीरखरत्वादिना तूर्यकार्यकारित्वात् तूर्यम् , अनेनास्याविशिष्टमातोद्याङ्गत्वमेवाह, किमेवैकैव मुकुन्दा तूर्यम् ?, सोपस्कारत्वाबधैकमभिमारस्य वृक्षविशेषस्य दारुकंकाष्ठमभिमारदारुकम् 'अग्निः' विशेषतोऽग्निजनकत्वाद्, यथा वा 'एकं शाल्मलीपोण्ड' शाल्मलीपुष्पं बद्धमामोडको : १वे असत्यौ प्रसृतिस्तु OMSASSACHERSALKAE -१ दीप अनुक्रम [९५]] १४ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~294 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [५] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१४३॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) निर्युक्ति: [१५२] अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| भवति, आमोडकः पुष्पोन्मिश्रो वालबन्धविशेषः, स्फारत्वादस्य, इत्थं दृष्टान्ताभिधायितयेदं व्याख्यायते, प्रसङ्गतो | वाऽऽयङ्गामोडकाङ्गयोरप्यभिधानमिति सूत्रार्थः ॥ १५२ ॥ शरीराङ्गमाह सीसं उरो य उदरं पिट्ठी बाहा य दुन्नि ऊरू य । एए खलु अटुंगा अंगोवंगाइ सेसाई ॥ १५३ ॥ व्याख्या—'शिरश्च उरः, चः प्राखद्र, उदरं 'पिट्ठि'त्ति प्राकृतत्वात्पृष्ठं वाहू द्वौ उरू च एतान्यष्टाङ्गानि, प्राग्वहिनव्यत्ययः, 'खलुः' अवधारणे, एतान्येवाङ्गानि, अङ्गोपाङ्गानि 'शेषाणि' नखादीनि उपलक्षणत्वादुपाङ्गानि च कर्णादीनि, यत उक्तम् - " होंति उवंगा कृष्णा णासच्छी जंघ हत्थ पाया य । गह केस मंसु अंगुलि ओट्ठा खलु अंगुवं गाई ॥ १ ॥” इति गाथार्थः ॥ १५३ ॥ साम्प्रतं युद्धाङ्गमाह जाणावरणपहरणे जुड़े कुसलत्तणं च नीई अ । दक्खत्तं ववसाओ सरीरमारोग्गया चेव ॥ १५४ ॥ व्याख्या--' जाणावरणपहरणे'त्ति यानं च-हस्त्यादि, तत्र सत्यपि न शक्नोत्यभिभवितुं शत्रुम् अत आवरणं-कवचादि, सत्यप्यावरणे प्रहरणं विना किं करोतीति प्रहरणं च-खगादि, यानावरणप्रहरणानि, यदि युद्धे कुशलत्वं नास्ति किं यानादिना ? इति 'युद्धे' सङ्ग्रामे 'कुशलत्वं च' प्रावीण्यरूपं, सत्यप्यस्मिन्नीतिं विना न शत्रुजयनम् १ भवन्त्युपाङ्गानि कर्णौ नासाऽक्षिणी जो हस्तौ पादौ च । नखाः केशाः श्मश्रूणि अलय ओष्ठौ खल्वङ्गोपाङ्गानि ॥ १ ॥ For at Use Only चतुरङ्गीया ध्ययनम् ३ ~ 295~ ॥१४३॥ www.incibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [ ४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१५४] प्रत सूत्रांक ||४६|| अतो 'नीतिश्च' अपक्रमादिलक्षणा, सत्यामपि चास्यां दक्षत्वाधीनो जयः ततो 'दक्षत्वम्' आशुकारित्वं, सत्यप्यस्सि|निर्व्यवसायस्य कुतो जय इति 'व्यवसायो' व्यापारः, तत्रापि यदि न शरीरमहीनाझं ततो न जय इति शरीरम्अर्थात् परिपूर्णाङ्ग, तत्राप्यारोग्यमेव जयायेति 'आरोग्गय'त्ति अरोगता, चः समुच्चये, एवोऽवधारणे, ततः समुदितानामेवैषां युद्धाङ्गत्वमिति सूत्रार्थः ॥ १५४ ॥ भावाङ्गमाह| भावंगंपि य दुविहं सुअमंगं चेव नोसुयंगं च । सुयमंगं बारसहा चउविहं नोसुअंगं च ॥ १५५॥ || व्याख्या-भावाङ्गमपि च द्विविध 'सुयमङ्गं चेव'त्ति श्रुताङ्गं चैव नोश्रुताच, श्रुताङ्गं द्वादशधा-आचारादि, भावाङ्गता चास्य क्षायोपशमिकभावान्तर्गतत्वात् , उक्तं-हि-"भावे खओवसमिए दुवालसंगपि होइ सुयणाणं'ति, चतुर्विधम्' चतुष्प्रकारं नोश्रुताङ्गं तु, नोशब्दस्य सर्वनिषेधार्थत्वात् अश्रुताचं पुनः, मकारश्च सर्वत्रालाक्षणिक इति गाधार्थः ॥ १५५ ॥ एतदेवाहमाणुस्सं धम्मसुई सद्धा तवसंजमंमि विरिअंच। एए भावंगा खलु दुल्लभगा हुंति संसारे ॥१५६ ॥ व्याख्या-'मानुष्यम् ' मनुजत्वम् , अस्य चादाबुपन्यास एतद्भाव एव शेषाङ्गभाषात् , 'धर्मश्रुतिः' अईत्प्रणीत१ भावे क्षायोपशमिके द्वादशाङ्गमपि भवति श्रुतज्ञानमिति * * दीप अनुक्रम [९५]] * पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~296~ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१५६] उत्तराध्य. बृत्तिः प्रत सूत्रांक ||४६|| 4 ॥१४॥ 50 धर्माकर्णनं, 'श्रद्धा' धर्मकरणामिलापः, तपः-अनशनादिः तत्प्रधानः संयमः-पञ्चाश्रवविरमणादिस्तपःसंयमः, मध्य- चतुरङ्गीया पदलोपी समासः, तपश्च संयमश्च तपःसंयममिति समाहारो वा तस्मिन् , 'वीर्य च' वीर्यान्तरायक्षयोपशमसमुत्था ध्ययनम् शक्तिः, अस्य च द्विष्ठस्याप्येकत्वेन विक्षितत्वान्नोक्तसङ्ख्याविरोधः, एतानि भावाङ्गानि, 'खलु' निश्चितम् दुर्लभकानि भवन्ति संसारे, लिङ्गव्यत्ययश्च प्राकृतत्वाद् , एतच्चानुक्तावपि सर्वत्र भावनीयमिति गाथार्थः ॥१५६॥ इह द्रव्याङ्गेषु शरीराचं भावानेषु च संयमः प्रधानमिति तदेकार्थिकान्याहअंग दसभाग भेए अवयवाऽसगल चुण्ण खंडे अ।देस पएसे पवे साह पडल पजवखिले अ॥१५७ ॥ दया य संजमे लज्जा, दुगुञ्छाऽछलणा इअ । तितिक्खा य अहिंसा य, हिरि एगट्ठिया पया ॥१५८॥ व्याख्या-अहं दशभागो भेदोऽवयवोऽसकलसूर्णः खण्डो देशःप्रदेशः पर्व शाखा पटलं पर्यवखिलं चेति शरीराग-IIX पर्याया इति वृद्धाः। ब्याख्यानिकस्तु अविशेषतोऽमी अङ्गपर्यायाः, तथा दशभाग इति दशा भाग इति च मिन्नादेव |पयोयाचित्याह । चः समुचये, सूत्रत्वाच सुपः क्वचिदश्रवणमिति ॥ संयमपर्यायानाह-दया च संयमो लज्जा जुगु-1 प्साऽछलना, इतिशब्दः खरूपपरामर्शकः पर्यन्ते योक्ष्यते, तितिक्षा चाहिंसा च हीओसेकार्थिकानि-अभिन्नाभिधे-18 यानि पदानि सुबन्तशब्दरूपाणि, पर्यायाभिधानं च नानादेशजविनेयानुग्रहार्थमिति गाथाद्वयार्थः ॥१५७-१५८॥ क्षेत्रादिदुर्लभत्वोपलक्षणं चेह मानुष्यत्वादिदुर्लभत्वाभिधानमित्यभिप्रायेणाह दीप अनुक्रम [९५]] JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~297 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१५९] प्रत सूत्रांक ||४६|| माणुस्स खित्त जाई कुल रूवारोग्ग आउयं बुद्धी। सवणुग्गह सद्धा संजमो अ लोगंमि दुलहाई ॥१५९०|| व्याख्या-'मानुष्यम्' मनुष्यभावः 'क्षेत्रम्' आर्य जातिः' मातृसमुत्था 'कुल' पितृसमुत्थम् 'रूपम् ' अन्यूनाङ्गता 'आरोग्य' रोगाभावः 'आयुष्यं' जीवितं 'बुद्धिः' परलोकप्रवणा 'श्रवणं' धर्मसम्बद्धम् 'अवग्रहः' तदवधारणम् , अथवा श्रवणा:-तपखिनः तेषामवग्रहः-मुन्दरा एत इत्यवधारणं श्रवणावग्रहः, श्रद्धा संयमश्च प्राग्वत् , एतानि लोके दुर्लभानि, प्राक् चतुर्णा दुर्लभत्वमुक्तम् , इह तु मानुषत्वं क्षेत्रादीनामायुष्कपर्यन्तानामुपलक्षणं, श्रवणं |च बुद्ध्यवग्रहयोः, पुनश्च मानुषत्वादीनामिहाभिधानं विशिष्टक्षेत्रादियुक्तानामेवेषां मुक्त्यात्वमिति ख्यापनार्थम् . दाचिदेतत्स्थाने पठन्ति "इन्दियलद्धी निवत्तणा य पजत्ति निरुवहय खेमं । धाणारोग्गं सद्धा गाहग उवओगी अटो य ॥१॥" 'इन्द्रियलब्धिः' पञ्चेन्द्रियप्राप्सिः 'निवर्त्तना च' इन्द्रियाणामेव निष्पादना 'पर्याप्सिः' समस्तपर्या-1 सिता 'णिरुबय'त्ति निरुपहतम् , उपहतेरभावात् , सा च गर्भस्थस्य कुजत्वादिभिर्जातस्य च भित्त्यादिभिः, 'क्षेमम्' देशसौस्थ्यम् 'भ्राणम्' सुभिक्षं विभयो वा आरोग्यम् नीरोगता 'श्रद्धा' उक्तरूपा 'ग्राहकः' शिक्षयिता गुरुः 'उपयोगः' खाध्यायाधुपयुक्तता 'अर्थः' धर्मविषयमर्थित्वम् , एतानि दुर्लभानीति गम्यते, इह च पुनः श्रद्धाग्रहणं तन्मूलत्वादशेषकल्याणानां तस्या दुर्लभतरत्वख्यापनार्थमिति गाथार्थः ॥ १५९ ॥ यदुक्तं-'मनुष्यादि-1 भावाङ्गानि दुर्लभानि' इति, तत्र मानुष्याङ्गदुर्लभत्वसमर्थनाय दृष्टान्तमा(ताना)ह दीप अनुक्रम [९५]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~298~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६०] प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. चुल्लग पासग धन्ने जूए रयणे असुमिण चक्के य । चम्म जुगे परमाणू दस दिहता मणुअलंभे ॥१६०॥ चतुरङ्गीया बृहद्वृत्तिः हा व्याख्या-चोल्लगे' परिपाटीभोजनम् , पाशको धान्य द्यूतं रत्वं च 'समिण'त्ति खप्नः चक्रं च चर्म युगं परमा- ध्ययनम् |णुर्दश दृष्टान्ता 'मणुयलम्भे'त्ति भावप्रधानत्वानिर्देशस्य मनुजत्वप्राप्ताविति गाथासमासार्थः ॥ १६० ॥ व्यासार्थस्तु ॥१४५॥ वृद्धसम्प्रदायादवसेयः, स चायम् | "बभदत्तस्स एगो कप्पडितो ओल [य] ग्गतो बहुसु आवईसु अवत्यासु य सचत्य सहातो आसि, सो व रज पत्तो, बारससंबच्छरितो अहिसेतो, कप्पडिओ तत्थ अलियापि न लहइ, ततो अणेण उवातो चिंतितो-उवाहणाउ पर्वघेऊण धयवाहेहि समं पहावितो, रण्णा दिहो, उइण्णेणं अवगूहितो, अन्ने भणंति-तेण दारपाल सेवमाणेण बार-41 समे संवच्छरे राया दिहो, ताहे राया तं दट्टणं संभंतो, इमो सो बरातो मम सुहदुक्खसहायगो, एताहे करेमि वित्ति, ताहे भणइ-किं देमिति, सोऽपि भणति-देहि करचोल्लए घरे घरे जाव सर्वमि भरहे णिढियं, ताहे पुणोऽपि हा १ ब्रह्मदत्तस्यैकः कार्पटिकोऽवलगको बहीष्वापत्सु अवस्थासु च सर्वत्र सहाय आसीत् , स च राज्यं प्राप्तः, द्वादशसांवत्सरिकोऽभिषेकः, कार्पटिकस्तत्राश्रयणमपि न लभते, ततोऽनेनोपायश्चिन्तितः-उपानहः प्रबध्य ध्वजवाहकैः समं प्रधावितः, राज्ञा दृष्टः, अवतीर्णेनावगूढः | १४५॥ अन्ये भणन्ति-तेन द्वारपाल सेवमानेन द्वादशे वर्षे राजा दृष्टः, तदा राजा तं दृष्ट्वा संभ्रान्तः, अयं स वराकः मम सुखदुःखसहायः, अधुनार करोमि वृत्ति, तदा भणति-किं ददामीति , सोऽपि भणति-देहि करभोजनं गृहे गृहे यावत्सर्वस्मिन् भरते निष्ठितं (भवति), तदा पुनरपि दीप अनुक्रम [९५]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~299 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६०] 2 प्रत सूत्रांक ||४६|| तुम्ह घरे आढवेऊण मुंजामि, राया भणइ-किं ते एएण!, देसं ते देमि, तो सुहं छत्तच्छायाए हत्थिखंधवरगतो , KIहिंडिहिसि, सो भणइ-किं मम एहहेण आउट्टेण ?, ताहे से दिण्णो चोल्छगो. तो पढमदिवसे रायाणो घरे जिमितो.15 तेण से जुवलयं दीणारो य दिण्णो, एवं सो परिवाडीए सुसजेसु राउलेसु बत्तीसाए रायवरसहस्सेसु, तेसिं खद्धा भोइया, तत्थ य णयरीए अणेगाओ कुलकोडीओ, णगरस्स चेव सो कया अंतं काही?, ताहे गामेसु, ताहे पुणो । भारहवासस्स । अवि सो वषेज अंतं, ण य माणुसत्तणाओ भट्टो पुणो माणसत्तर्ण लहा ॥ 'पासगसि चाणकस्स सुवण्णं णत्थि, ताहे केणवि उवाएण विढविजा सुवण्णं, ताहे जंतपासया कया, केई भणंति-वरदिग्णया, ततो एगो दुक्खो पुरिसो सिक्खवितो, दीणारथालं भरियं, सो भणइ-यदि ममं कोइ जिण । १ तब गृहादारभ्य भुजे, राजा भणति-किं ते एतेन ?, देश तुभ्यं ददामि, ततः सुखं छनच्छायया हविवरस्कन्धगतो हिण्डिष्यसे, स भणति-किं ममैतावताऽऽकुठून , तदा तस्मै दत्तं करभोजनं, ततः प्रथमदिवसे राज्ञो गृहे जिमितः, तेन तस्मै युगलक बत्तं धीनारश्च, एवं स परिपाट्या सुसजेषु राजकुलेषु द्वात्रिंशति वरराजसहस्रेषु, तैरतिशयेन भोजितः, तत्र च नगर्यामनेकाः कुलकोट्यः, नगरस्यैव स कदा IN अन्तं करिष्यति', तदा प्रामेषु, तदा पुनर्भरतवर्षस्य । अपि स बजेदन्तं, न च मानुष्यासृष्टः पुनर्मानुष्यं लभते १॥ पाशका इति, चाण क्यस्य सुवर्ण नास्ति, तदा केनाप्युपायेन अर्जनीयं सुवर्ण, तदा यत्रपाशकाः कृताः, केचिद्भणन्ति-परबत्ताः, तत एको दक्षः पुरुषः ट्र शिक्षितः, दीनारस्थालः भृतः, स भणति-यदि मां कोऽपि जयति दीप अनुक्रम [९५]] 4-%2525-25% पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~300 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६०] प्रत सूत्रांक ||४६|| % % उत्तराध्य. तो थाल गिपहउ, तो अह अहं जिणामि तो एग दीणारं जिणामि, तस्स इच्छाए जंतं पडति अतोन तीरद जिणि, चतुरङ्गीया बृहद्धृत्तिः 18जह सो ण जिप्पइ एवं माणुसलंभोऽपि । अवि णाम सो जिप्पेज ण य माणुसाओ भट्ठो पुणो माणुसत्तणं २॥ ध्ययनम् 'धणे'त्ति जत्तियाणि भरहे धण्णाणि ताणि सवाणि पिडियाणि, एत्थ पत्थो सरिसयाण छूढो, ताणि सवाणि ॥१४६॥ अयालियाणि, तत्थेगा जुषणा थेरी सुप्पं गहाय ते विणेजा, पुणोऽवि पत्थं पूरेज्जा ?, अवि सा दिवपसाएण पूरेज, न वि माणुसत्तणं ३॥ 'जूए' जहा एगोराया, तस्स सभा अट्ठोत्तरखंभसयसन्निविट्ठा, जत्थ अत्याणियं देइ, एकेको य खंभो अट्ठसयंसितो, तस्स रण्णो पुत्तो रजकंखी चिंतेइ-थेरो राया, मारेऊणं रजं गेण्हामि, तं चामचेण णायं, तेण रण्णो सिटुं, तओ 12 १ तदा स्थालं गृहातु, अथ अहं जयामि तदा दीनारमेकं जयामि, तस्वेच्छया यवं पतति, अतो न शक्यते जेतुं, यथा स न जीयते एवं मानुष्यलाभोऽपि । अपि नाम स जीयेत न च मानुष्याष्टः पुनर्मानुष्यम् २॥ धान्यानीति, थावन्ति भरते धान्यानि तानि सर्वाणि पिण्डितानि, अत्र प्रस्थः सर्षपाणां निक्षिप्तः, तानि सर्वाणि मिश्रितानि, तत्रैका वृद्धा स्थविरा सूर्प गृहीत्वा तानि पृथकुर्यात् , पुनरपि प्रखं पूरयेत् ?, अपि सा दिध्यप्रसादेन पूरयेत् नैव मानुभ्यम् ३ ।। द्यूतम्-यधैको राजा, तस्य सभा अष्टोत्तरस्तम्भशतसन्निविष्टा, यत्र आस्थानिकां करोति, १४६॥ | एकैकश्च स्तम्भोऽष्टशांत्रिकः, तस्य राज्ञः पुत्रो राज्यकाडी चिन्तयति-स्थविरो राजा, मारयित्वा राज्यं गृहामि, तथामात्येन ज्ञातं, तेन | राज्ञे शिष्टं, ततो * x दीप अनुक्रम [९५]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३], मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~ 301 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६०] प्रत सूत्रांक ||४६|| रायो तं पुतं भणति-अम्हंजो ण सहइ अणुकर्म सो जूयं खेलइ, जो जिणइ रजं से दिजइ, कह पुण जिणियचं ?, उभं एगो आतो, अवसेसा अम्हं आया, जइ तुर्म एगेण आएण अट्ठसयस्स खंभार्ण एकेक अंसियं अट्ठसयवारा जिणसि तो तुज्ज्ञ रज, अवि देवया विभासा ४॥ । 'रयणे' जहा एगो बाणियो वुहो, रयणाणि से अत्धि, तत्थ य महे अन्ने वाणियया कोडिपडागातो उन्भेति, सो| ण उन्भवेति, तस्स पुत्तेहिं थेरे पउत्थे ताणि रयणाणि विदेसीवणियाण हत्थे विकीयाणि, वरं अम्हेऽवि कोडिपडागाद ओ उम्भवेंता, तेऽवि वाणियगा समंततो पडिगया पारसकूलाईणि, थेरो आगतो, सुयं जहा विक्कीयाणि, ते अंबाडे इ, लहुं रयणाणि आणेह, ताहे ते सवतो हिंडिउमाढत्ता, किं ते सघरयणाणि पिंडिजा?, अवि य देवप्पभावेणऽपि य विभासा ५॥ १ राजा तं पुत्रं भणति-अस्माकं (यंशे) योन सहते अनुक्रम स यूतं क्रीडति, यो जयति राज्यं तस्मै दीयते, कथं पुनर्जेतव्यं , तवैक आयः अवशेषा अस्माकं आयाः, यदि त्वमेकेनायेन अष्टशतस्य स्तम्भानामेकैकमनिमष्टशतकारान् जयसि ततस्तव राज्यम् । अपि देवता विभाषा ४॥ रानीति, यथैको वणिक् वृद्धः, रत्नानि तस्य सन्ति, तत्र च महे अन्ये वणिज: कोटीपताका ऊर्ध्वयन्ति, स नोर्थयति, तस्य पुत्रैः | स्थविरे प्रोषिते तानि रत्नानि विदेशवाणिजा हस्ते विक्रीतानि, बरं वयमपि कोटीपताका ऊययन्तः, तेऽपि वणिजः समन्ततः प्रतिगताः पारसकूलादीनि, खविर आगतः, श्रुतं यथा विक्रीतानि, तान् तिरस्कुरुते लघु रत्नानि आनयत, तदा ते सर्वतो हिण्डितुमारब्धाः, किं ते सर्वरनानि पिण्डयेयुः अपि च देवप्रभावेणापि च विभाषा ५॥ दीप अनुक्रम [९५]] SACRE पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~302 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [५] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ १४७॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) निर्युक्ति: [१६०] अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| 'सुविए'ति एयेण कप्पडिएण सुविणते चंदो गिलितो, कप्पडियाण य कहियं, ते भ्रणंति-संपुण्णचंद मंडलसरिसं पोलियं लहेसि, लद्धा घरछाइणियाए, अण्णेणावि दिट्ठो, सो पहाऊण पुप्फफलाणि गहाय सुविणयपाढयस्स कहेइ, तेण भणियं-राया भविस्ससि । इओ य सत्तमे दिवसे तत्थ राया मतो अपुत्तो, सो य निविष्णो अच्छ | जाव आसो अहिवासितो आगतो, तेण तं दहूणं हिसियं पयक्खिणीतो य, तओ य बिलहओ पट्टे, एवं सो *राया जातो। ताहे सो कप्पडिओ सुणेइ, जहा तेणवि दिट्ठो एरिसो सुविणतो, सो आएसफलेण किर राया जातो, सो चिंतेइ वश्चामि जत्थ गोरसो, तं पिवेत्ता सुयामि, जाव पुणोऽवि तं सुमिणं पेच्छामि, अवि पुणो सो पच्छेजा ण माणुसातो ६ ॥ १ स्वन इति, एकेन कार्पोटिकेन वप्रे चन्द्रो गिलितः, कार्यटिकेभ्यश्च कथितं, ते भणन्ति संपूर्णचन्द्रमण्डलसदृशीं पोलिकां उप्स्यसे, लब्धा गृहच्छादनिकया, अन्येनापि दृष्टः, स स्रात्वा पुष्पफलानि गृहीत्वा स्वप्नपाठकाय कथयति तेन भणितं- राजा भविष्यसि । इतश्च सप्तमे दिवसे तत्र राजा मृतोऽपुत्रः, स च निर्विण्णस्तिष्ठति यावदवोऽधिवासित आगतः तेन तं दृष्ट्वा हेषितं प्रदक्षिणीकृतच, ततश्च विलगितः पृष्ठे एवं स राजा जातः । तदा स कार्यटिकः शृणोति, यथा तेनापि दृष्ट ईदृशः स्वप्नः, स आदेशफलेन किल राजा जातः, स चिन्तयति-प्रजामि यत्र गोरसम्, तत् पीत्वा स्वपिमि यावत्पुनरपि स्वयं तं पश्यामि अपि पुनः स पश्येत् न मानुषात् ६ ॥ Education intol For Parts Only चतुरङ्गीया ध्ययनम् ~303~ ॥ १४७॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४३ ], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६०] प्रत सूत्रांक ||४६|| चिकति दारं, इंदपुरं नाम नयरं, इंददचो नाम राया, तस्त इट्टाणं वराणं देवीर्ष बावीस पुत्ता, अन्ने भणंतिएकाए चेव देवीए पुत्ता, राइणो पाणसमा, अन्ना एका अमञ्चधूपा, सा परं परिणेतेण दिहिल्लिया, अन्नया कयाति रिउण्हाया समाणी अच्छद, रायवा दिठ्ठा, कस्स एसत्ति, तेहि भणियं-तुम्ह देवी एसा, ताहे सो ताए समं एक-13 रति बसितो, सा य रिउपहाया, तीसे गम्भो लग्गो, सा य अमञ्चेण भणिलिया-जया तुमे गम्भो आहतो होइ तया मम साहेजसु, ताहे तस्स कहियं, दिवसो मुहुत्तो जं च राएण उल्लविओ सायंकारो, तेण तं पत्तए लिहियं, सो ४सारखेइ, णवण्हं मासाणं दारतो जातो, तस्स दासचेडाणि तहिवसं जायाणि, तंजहा-अग्गियतो पवहतो बहलिया|| सागरो य, तेण सहजायगाणि, तेण कलाइरियस्स उवणीतो, तेण लेहाइयातो गणियप्पहाणातो कलाओ गाहि-18 १ पक्रमिति द्वारम् , इन्द्रपुर नाम नगरम् , इन्द्रदत्तो नाम राजा, तस्बेष्टानां वराणां देवीनां द्वाविंशतिः पुत्राः, अन्ये भणन्तिएकस्या एव देव्याः पुत्राः, राज्ञः प्राणसमाः, अन्यकाऽमात्यदुहिता, सा परं परिणयता दृष्टा, अन्यदा कदाचितुलाता सती तिष्ठति, राज्ञा दृष्टा, कस्यैषेति, तैर्भणितं-तब देव्येषा, तदा स तया सममेकरात्रमुषितः, सा च ऋतुनाता, तस्या गर्भो लग्नः, सा चामात्येन भणिताऽऽसीत्र | यदा तव गर्भ उत्पन्नो भवति, तदा मां कथयेः, तदा तस्मै कवित्तं, दिवसो मुहूर्तश्च यच्च राज्ञाऽऽलप्तः सत्यङ्कारः, तेन सत् पत्रके लिखितं, स गोपयति, नवसु मासेषु दारको जातः, तस्स दासचेटास्तहिवसे जाताः, तद्यथा-अग्निकः पर्वतो बाहुल: सागरश्च, तेन सहजाताः, तेन कलाचार्यायोपनीतः, तेन लेखादिका गणितप्रधानाः कला साहितः, दीप अनुक्रम [९५]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~304 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६०] चतुरङ्गीया ध्ययनम् प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. तो, जाहे ताओ गाहेति आयरिया ताहे ताणि कहिति विउलति य, पुवपरिचएणं ताणि रोलिंति, तेण ताणि चेव हण गणियाणि, गहियातो कलातो। ते अन्ने बाबीसं कुमारा गाहिजंता आयरियं पिटुंति, अवयणाणि य भणंति, वृहात्तः जति सो आइरितो पिट्टेति ताहे गंतूण माऊणं साहिति, ताहे ताओ आयरियं खिंसंति-कीस आणसि!, किं सुल॥१८॥ भाणि पुत्तजम्माणि ?, अतो ते ण सिक्खिया। इओय महुराए जियसनू राया, तस्स सुया निब्बुईनाम दारिया, सा| रणो अलंकिया उवणीया, राया भणइ-जो ते रोयइ भत्तारो, तोताए णायं-जो सूरो वीरो विकतो सो मम भत्तारो होइ, सो पुण रजं दिजा, ताहे सा बलं वाहणं गहाय गया इंदपुरं नयरं, तस्स इंददत्तस्स रपणो बहवे पुत्ता, इंददत्तो तुट्टो चिंतेइ-णूणं अन्नहितो राइहि लट्टयरो, आगया, ततो तेण ऊसियपडायं नयरं कारियं, तत्थ एगमि १ यदा तान् ग्राहयति आचार्यस्तदा ते कर्पयन्ति व्याकुलयन्ति च, पूर्वपरिचयेन ते लुठन्ति, तेन ते नैव गणिताः, (न) गृहीताः कलाः । तेऽन्ये द्वाविंशतिः कुमारा प्राममाणा आचार्य पिट्टयन्ति, अवचनानि च भणन्ति, यदि स आचार्यः पिट्टयति तदा गत्वा मातृभ्यः || कथयन्ति, तदा ता आचार्य खिसन्ति-कथमाहंसि ?, किं पुत्रजन्मानि सुलभानि !, अतस्ते न शिक्षिताः । इतश्च मथुरायां जितशत्रू राजा, तस्य सुता नितिनानी दारिका, सा राज्ञोऽलङ्कतोपनीता, राजा भणति-यस्तुभ्यं रोचते (स) भर्ता, ततस्तया ज्ञापितं-यः शूरो वीरो विक्रान्तः स मम भ" भवति, स पुना राज्यं दद्यात् , तदा सा बलं बाहनं (च) गृहीत्वा गता इन्द्रपुर नगरं, तस्येन्द्रदत्तस्य राज्ञो बहवः पुत्राः, इन्द्रदत्तस्तुष्टश्चिन्तयति-नूनमन्येभ्यो राजभ्यो लष्टतरः, आगता, ततस्तेनोकिकृतपताकं नगर कारितं । तत्रैकस्मि दीप अनुक्रम [९५]] १४८॥ JAMERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~305 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६०] - *% AEC --- प्रत - सूत्रांक ||४६|| IN अक्खे अट्ठ चकाणि, तेसिं पुरओ ठिया धीउल्लिया, सा अञ्छिमि विधियचा, तओ इंददत्तो राया संनद्धो निग्गओ सह पुत्तेहि, सापि कण्णा सबालंकारविभूसिया एगमि पासे अच्छइ, सो रंगो रायाणो ते य दंडभडभोइया जारिसो दोवईए, तत्थ रणो जेट्टपुत्तो सिरिमाली नाम कुमारो, सोभणिओ-पुत्त ! एसा दारिया रजं च घेतचं, अतो विधेहि पुतलियंति, ताहे सो अकयकरणो तस्स समूहस्स मज्झे धणुं चेव गिहिउंन तरह, कहविणेण गहियं. तेण जओ बच्चउ तओ वचउ ति मुको सरो, सो चक्के अन्भिडिऊण भग्गो, एवं कस्सति एगं अरगं बोलीणो कस्सति दोषिण, दो अन्नेसि बाहिरेण चेव णीइ, ताहे राया अद्धिर्ति पकतो-अहो! अहं एएहि धरिसितोत्ति, ततो अमचेण भणितो-कीस अधिई करेसि',राया भणइ-एएहिं अहं अप्पहाणो कतो, अमचो भणइ-अस्थि अन्नो तुम्ह पुत्तो मम घूयाए १. अक्षेऽष्ट चक्राणि, तेषां पुरतः स्थिता शालभजिका, सा अक्ष्णि बेधच्या, तत इन्द्रदत्तो राजा सन्नदो निर्गतः सह पुत्रैः, साऽपि कन्या सर्वालङ्कारविभूषिता एकस्मिन पावे तिष्ठति, स रङ्गो राजानः ते च दण्डभटभोजिका यादृशो द्रौपद्याः, तत्र राज्ञो ज्येप्नपुत्रः श्रीमाली नाम | |कुमारः, स भणित:--पुत्र ! एपा दारिका राज्यं च प्रहितव्यम् , अतो विध्य पुत्तलिकामिति, तदा सोऽकृतकरणस्तस्य समूहस्य मध्ये धनुरेव ग्रहीतुं न शक्नोति, कथमपि अनेन गृहीतं, तेन यतो ब्रजतु ततो ब्रजत्विति मुक्तः शरः, स चक्रे आस्फाल्य भग्नः, एवं कस्यचित् एकमरकं व्यतिक्रान्तः, कस्यचिहौ, अन्येषां बाह्य एव निरेति, तदा राजाऽधृति प्रगतः-अहो अहमेतैः धर्षित इति, ततोऽमाल्येन भणित:कथमचतिं करोपि ?, राजा भणति- एतैरहं अप्रधानः कृतः, अमायो भणति-अस्ति अन्यस्तव पुत्रो मम दुहितु दीप अनुक्रम [९५]] SCARSCORCH पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~306~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६०] चतुरङ्गीया ध्ययनम् प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्यतणतो, सुरिंददत्तो नाम, सो समत्थो विधिलं, अभिण्णाणाणि य से कहियाणि, कहिं !, सो दरसितो, ततो राइणा बृहद्वृत्तिः । अवगृहितो भण्णति-जुत्तं तब अट्ठ रहचके भेत्तूण पुत्तलिय अञ्छिमि विंधेता रजं सुकलत्तं निव्वुई दारियं संपावित्तए. तओ कुमारो जहा आणवेहित्ति भणिऊण ठाणं ठाइऊणं घणुं गेण्हति, ताणिवि दासरूवाणि चाउदिसि ठियाणि| ॥१४॥ रोडंति, अन्ने य उभयपासिं गहियखग्गा दो जणा, जइ कहवि लक्खस्स चुकइ ततो सीसं छिंदेयचंति, सोऽपि उज्झातो पासे ठितो भयं देइ-मारिजसि जइ चुकसि, ते बाबीसंपि कुमारा मा एसो विधिस्सइत्ति ते विसेसलुंठणाणि विग्याणि करेंति, तओ ताणि चत्तारि ते य दो पुरिसे बावीसं च कुमारे अगणितो ताणं अट्टह रहच-1 काणं अंतरं जाणिऊण तंमि लक्खे निरुद्धाए दिट्ठीए अन्नं मयं अकुणमाणेण सा धीउलिया पामे अछिमि विद्धा, १. स्तनयः सुरेन्द्रदत्तो नाम, स समर्थो व्यद्धम् , अभिज्ञानानि च तस्मै कवितानि, क', स दर्शितः, ततो राज्ञाऽवगूढो भण्यते-- | युक्तं तवाष्ट रथचक्राणि भित्त्वा पुत्तलिकामक्ष्णि विद्धा राज्यं सुकलत्रं निर्वृति दारिका संप्राप्तुं, ततः कुमारो यथाऽऽज्ञापयतीति भणित्वा स्थानं स्थित्वा धनुहाति, तेऽपि दासाश्चतसृषु दिक्षु स्थिता विघ्नं कुर्वन्ति, अन्यौ चोभयपार्श्वयोः गृहीतखको द्वौ जनौ, यदि कथमपि लक्षात् स्वलति ततः शीर्ष छेत्तव्यमिति, सोऽप्युपाध्यायः पार्थे स्थितो भयं ददाति-मारयिष्यसे यदि स्खलसि, ते द्वाविंशतिरपि कुमारा मा एष व्यत्स्यतीति ते विशेषलुण्ठनानि विज्ञान (च) कुर्वन्ति, ततस्ते चत्वारः तौ च द्वौ पुरुषौ द्वाविंशतिं च कुमारानगणयन् तेषामष्टानां रथच|काणामन्तरं ज्ञात्वा तस्मिन् लक्ष निरुद्धया दृष्टया अन्यत् मतं (मनः) अकुर्वता सा पुत्तलिका वामेऽक्षिण विद्धा, दीप अनुक्रम [९५]] ॥१४९॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~307~ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६०] प्रत सूत्रांक ||४६|| तो लोगेण ओक्किटिकलणायकलयलोम्मिस्सो साहुक्कारो कतो, जहा तं चक्कं दुक्खं भेत्तुं एवं माणुस्सत्तर्णति ॥ - 'चम्मे'त्ति एगो दहो जोयणसयसहस्सविच्छिन्नो चम्मावणद्धो, एग से मज्झे छिई, जत्थ कच्छभस्स गीवा मायइ, तत्थ कच्छभो वाससए गए गीवं पसारेइ, तेण कहवि गीवा पसारिया, जाव तेण छिड्डेण गीवा निग्गया, तेण जोइस दिहें कोमुईए पुप्फफलाणि य, सो गतो, सयणिजगाणं दाएमि, आणित्ता सहओ घुलति, णवि पेच्छति, अवि सो माणुसातो ८॥ 'जुगे'त्ति पुर्वते होज जुर्ग अवरते तस्स होज समिला उ। जुगछिडंमि पवेसो इय संसइओ मणुयलंभो ॥१॥ १ ततो लोकेनोत्कृष्टिकलनादकलकलोन्मिनः साधुकारः कृतः । यथा तच्चक्रं दुःखं भेत्तुमेवं मानुषत्वमिति ७ ॥ चर्मेति, एको दो योजनशतसहस्रविस्तीर्णश्चीवनद्धः, एकं तस्य मध्ये छिद्रं, यत्र कच्छपस्थ ग्रीवा माति, तत्र कच्छपो वर्षशते गते प्रीवा प्रसारयति, तेन कथमपि ग्रीवा प्रसारिता, यावत्तेन छिद्रेण श्रीवा निर्गता, तेन ज्योतिर्दष्टं कौमुद्यां पुष्पफलानि च, स गतः, खजनान् दर्शयामि, आनीय सर्वतो भ्राम्यति, नैव प्रेक्षते, अपि स मानुषात् ८॥ युगमिति, पूर्वान्ते भवेद् युगमपरान्ते तस्य भवेत् समिला तु । युगच्छिद्रे प्रवेश इति ४ संशयितो मानुष्यलाभः ॥ १॥ दीप अनुक्रम [९५]] REC2% -% -2-% LIRaniparoo पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~308~ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [५] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ १५०॥ 8 [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| निर्युक्ति: [१६०] | जंहि समिला पन्भट्ठा सागरसलिले अणोरपारंमि । पविसेजा जुगछि कहवि भ्रमंती भमंतम्मि ॥ २ ॥ सा चंडवायबीईपणोलिया अवि लभेज जुगछिङ्कं । ण य माणुसाउ भट्ठो जीवो पडिमाणुसं लहइ ॥ ३ ॥ इति गाथाभ्यो जुगोदाहरणमवसेयम् ॥ इयाणं परमाणू जहा एगो खंभो महत्यमाणो, सो देवेण चुण्णेऊणं अविभागिमाणि खंडाणि काऊण णलियाए पक्खित्तो, पच्छा मंदरचूलियाए ठाऊण फूमितो, ताणि णट्टाणि, अस्थि कोऽवि ?, तेहिं चैव पुग्गलेहिं तमेव खंभं णिवत्तेज्ज ? णो इणमट्ठे समट्ठे, एस अभावो, एवं भट्ठो माणुसातो ण पुणो । अहवा सभा अणेगखंभसयसंनिविद्या, सा कालंतरेण झामिया पडिया, अस्थि पुण कोऽषि ?, तेहिं चैव पोग्गलेहिं करेज्जा १, गोत्ति, एवं माणुस्तं दुल्लभं || लद्धेऽवि मानुष्यत्वै श्रुतिरपि दुर्लभेति दर्शयन्नाह Education intimational १ यत्र (दि) समिला प्रभ्रष्टा सागरसलिलेऽनवक्पारे । प्रविशेयुगच्छिद्रं कथमपि भ्राम्यति भ्राम्यन्ती ॥२॥ सा चण्डवातवीचित्रणोदिताऽपि लभेत युगच्छिद्रम् । न च मानुषाद्धष्टो जीवः प्रतिमानुषं लभते ॥ ३ ॥ इदानीं परमाणुः यथैकः स्तम्भो महाप्रमाणः, स देवेन चूर्णयित्वा अविभागान् खण्डान् कृत्वा नलिकायां प्रक्षिप्तः, पञ्चान्मन्दर चूलिकायां खित्वा फूत्कृतः, ते नष्टाः, अस्ति कोऽपि १, २ ॥ १५० ॥ तैरेव पुट्रलैस्तमेव स्तम्भं निर्वर्त्तयेत् न एषोऽर्थः समर्थः, एषोऽभावः, एवं भ्रष्टो मानुषान्न पुनः। अथवा सभा अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टा, सा कालान्तरे ध्माता पतिता (च), अस्ति पुनः कोऽपि १, तैरेव पुद्रलैः कुर्यात् ? नेति, एवं मानुषं दुर्लभं ॥ लब्धेऽपि For Parts Use चतुरङ्गीया ध्ययनम् ३ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४३ ], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~309~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६०२-१६१] प्रत सूत्रांक ||४६|| आलस्स मोहऽवन्ना थंभा कोहा पमाय किविणत्ता। भय सोगा अन्नाणा वक्खेव कुऊहला रमणा॥१६०॥ एएहिं कारणेहिं लडूण सुदुल्लहपि माणुस्सं न लहइ सुई हिअरिं संसारुत्तारिणिं जीवो ॥ १६१ ॥ व्याख्या-आलस्यात्' अनुद्यमखरूपात्, न धर्माचार्यसकाशं गच्छति न शृणोति च इति सर्वत्र शेषः, 'मोहात्' गृहकर्त्तव्यताजनितवैचित्यात्मकात् हेयोपादेयविवेकाभावात्मकाढा, 'अवज्ञातो यथा किममी मुण्डश्रमणा जान|न्ति ? इति, 'अवर्णाद्वा' साध्वश्लाघात्मकात् यथाऽमी मलदिग्धदेहाः सकलसंस्काररहिताः प्राकृतप्रायवयस इत्या-2 |दिरूपात् , 'स्तम्भात्' जात्यादिसमुत्थादहकारात् कथमहं प्रकृष्टतरजातिरेनमुपसप्पोमीत्यादिरूपात् , 'क्रोधाद् अप्रीतिरूपात् आचार्यादिविषयात् , महामोहोपहतो हि कश्चिदाचार्यादिभ्योऽपि कुप्यति, 'प्रमादात्' निद्रादिरूपात् , कधिद्धि निद्रादिप्रमत्त एवाऽऽस्ते, 'कृपणत्वात्' द्रव्यन्ययासहिष्णुत्वलक्षणात् , यद्यहममीषामन्ति के गमिष्या-|| म्यवश्यंभावी द्रव्यव्यय इति वरं दूरत एषां परिहार इति, 'भयात्' कदाचिन्नरकादिवेदनाश्रवणोत्पन्नसाध्वसात्, निःसत्त्वो हि नरकादिभयमावेदयन्तीत्यमी इति भयान्न पुनः श्रोतुमिच्छति, 'शोकाद्' इष्टवियोगोत्थदुःखात् , कश्चिद्धि प्रियप्रणयिनीमरणादौ शोचन्नेवास्ते, 'अज्ञानात्' मियाज्ञानात्-'न मांसभक्षणे दोषो, न मये न च मैथुने' इत्यादिरूपात्, 'ब्याक्षेपादू' इदमिदानी कृत्यमिदं च इदानीमिति बटुकृत्यव्याकुलतात्मकात् , 'कुतूहलादू' इन्द्रजा दीप अनुक्रम [९५]] CISCES सा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३], मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: मूल संपादने अत्र मुद्रण अशुद्धित्वात् नियुक्ति-क्रम “१६०" द्वीवारान् लिखितं ~310~ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| ____ नियुक्ति: [१६०R-१६१] चतुरङ्गीया प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. लायवलोकनगोचरात् , 'रमणात्' कुर्कुटादिक्रीडात्मकात्, कचित्सुपोऽश्रवणं प्राग्वत्, प्रक्रान्तार्थनिगमनायाह 'एभिः'अनन्तरोक्तखरूपैः 'कारणैः' आलस्यादिहेतुभिः 'लदण सुदुल्लहंपि' ति अपेभिन्नक्रमत्वालन्ध्याऽपि 'सुदुर्लभम्' ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः राधा अतिशयदुरापं 'मानुष्यं' मनुजत्वं 'न लभते' न प्राप्नोति श्रुति' धर्माकर्णनात्मिकां, कीदृशीम् !- हितकरीम् | ॥१५॥ दाइह परत्र च तध्यपथ्यविधायिनीम् , अत एव संसारादुत्तारयति-मुक्तिप्रापकत्वेन निस्तारयति इति संसारोत्तारणी|| तां 'जीव' जन्तुः इति गाथार्थः ॥१६०-१६१॥ इत्थं धर्मश्रुतिदुर्लभत्वमभिधाय तल्लाभेऽपि श्रद्धादुर्लभत्वमाहमिच्छादिट्टी जीवो उवइटुं पवयणं न सहइ । सद्दहइ असब्भावं उवइटुं वा अणुवइटुं ॥ १६२ ॥ सम्मदिट्ठी जीवो उवइटुं पवयणं तु सद्दहइ । सद्दहइ असब्भावं अणभोगा गुरुनिओगा वा ॥१६३|| टी व्याख्या-मिथ्या इति-विपरीता दृष्टि:-बुद्धिरस्पति मिथ्याष्टिः, जीवः 'उपदिष्टं' गुरुभिराख्यातं 'प्रवच नम् आगमं 'न श्रद्ध' इदमित्यमिति न प्रतिपद्यते, कदाचित्तद्विपरीतमपि न श्रद्दधातीत्याह-श्रद्धत्ते' तथेति । प्रतिपद्यते, किं तदित्याह-अविद्यमानाः सन्तः-परमार्थसन्तो भावा-जीवादयोऽभिधेयभूता यस्मिन् तदसद्भावम् , सर्वव्याप्यादिरूपात्मादिप्रतिपादकं कुप्रवचनमिति गम्यते, 'उपदिष्ट परेण कथितं, वाशब्दस्य भिन्नक्रमत्वात् || ॥१५॥ अनुपदिष्टं वा-खयमभ्यूहितमिति गाथार्थः ॥ १६२ ॥ इत्थं श्रद्धादुर्लभत्वमभिधाय साम्प्रतं लब्धाया अप्युप४ घातसम्भवमाह-संम' गाहा, तथा सम्यक् इति-प्रशंसार्थोऽपि निपातः, यद्वा समञ्चति-जीवादीनवैपरीत्येनाव ASSET दीप अनुक्रम [९५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~311 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६२-१६३] प्रत सूत्रांक ||४६|| गच्छत्ति इति सम्यक् तथा दृष्टिः अस्पेति सम्यगदृष्टिः जीव उपदिष्टं प्रवचनं, तुशब्दो मिथ्यारष्टितः सम्यग-1 दृष्टेविशेषमाह, श्रद्धत्ते' निःशवं प्रतिपद्यते, तत्किमसौ प्रवचनमेव श्रद्धत्ते इत्याह-श्रद्धत्ते 'असद्भावम्' उक्तस्वरूपम् 'अनाभोगात्' अज्ञानात् , तथा 'गुरवः' धर्माचार्यास्तेषां नियोगः-व्यापारणं गुरुनियोगस्तस्माद्वा, कश्चिद्धि सम्यग्दृष्टिविशेषतो जीवादिस्वरूपानवगमाद् गुरुप्रत्ययाचातत्त्वमपि तत्त्वमिति प्रतिपद्यते । तदेवं प्रथम|| गाथया मिथ्यात्वहेतुकत्वमश्रद्धानस्योक्तम्, द्वितीयगाथया पुनस्तदभावेऽप्यनाभोगगुरुनियोगहेतुकत्वं, तथा चला मिथ्यात्वादितद्धेतूनां व्यापित्वादश्रद्धानभूयस्त्वेन श्रद्धानदुर्लभतोक्ता भवतीति गाथाद्वयपरमार्थः ॥१६३ ॥ ननु किमेवंविधा अपि केचिदत्यन्तमृजवः सम्भवेयुः १ ये खयमागमानुसारिमतयोऽपि गुरूपदेशतोऽन्यथापि प्रतिपद्येरन् , एवमेतत् , तथाहि-जमालिप्रभृतीनां निवानां शिष्यास्तद्भक्तियुक्ततया खयमागमानुसारिमतयोऽपि गुरुप्रत्ययाद्विपरीतमर्थ प्रतिपन्नाः, उक्तं हि-"तए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स एवमाइक्खमाणस्स एवं भासंतस्स एवं पण्णवेमाणस्स एवं परूवेमाणस्स अस्थि एगयया समणा णिग्गंधा एयममु सद्दहति पत्तियति रोयंति" इत्यादि। के पुनरमी असद्भाव प्रतिपन्ना इत्याह १ वतस्तस्य जमालेरनगारस्य एवमाख्यायत एवं भाषमाणस्य एवं प्रज्ञापयत एवं प्ररूपयतः सन्त्येके श्रमणा निर्मन्थाः (ये) एनमर्थे | श्रदधति प्रतियन्ति रोचन्ते । दीप अनुक्रम [९५]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~312 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६४] प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. बहुरयपएसअवत्तसमुच्छ दुगतिगअबद्धिगा चेव । एएसिं निग्गमणं वुच्छामि अहाणुपुत्वीए ॥१६॥ चतुरङ्गीया बृहद्धतिः व्याख्या-व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः' इति न्यायात् बहुषु-क्रियानिष्पत्तिविषयसमयेषु रताः, कोऽर्थः ?- ध्ययनम् बहुषु एव समयेषु क्रियानिष्पत्तिरित्यसद्भाव प्रतिपन्नाः १, 'पएसि' चि सूचकत्वादस्य अन्त्यप्रदेशजीववादिनः अन्त्य ॥१५२॥ एव प्रदेशो जीव इत्यभ्युपगताः २, अव्यक्ताः-'सत्या सत्यभामे'तिवत् अव्यक्तवादिनः, न अत्र व्यक्त्या यतिस्यमयतिर्वा इत्यादिरूपतया वस्तु विज्ञातुं शक्यं, ततः सर्वमव्यक्तमेवेति प्रतिज्ञावन्तः ३, 'समुच्छ' ति सूत्र-|| त्वात् सामुच्छेदाः, तत्र समिति-सामस्त्येन निरन्वयात् उदिति-ऊर्च क्षणादुपरि भवनात् छेदो-नाशः समुच्छे दस्तं विदन्ति तत्त्वधिया सामुच्छेदाः, एषां द्वन्द्वे बहुरतप्रदेशाध्यक्तसामुच्छेदाः, द्विकं-क्रियाविषयमेकसमयम-13 दानुभूयमानमिह गृह्यते, तत्प्रतिज्ञातारोऽप्युपचारात् द्विकाः, एवं त्रिक-जीवाजीयनोजीवराशिवयं तदभ्युपगन्ता रोऽपि तथैव त्रिकाः, बद्धं-जीवप्रदेशैरन्योऽन्याविभागेन संपृक्तं न बद्धम्-अवद्धम् , अर्थात्कर्म, तदभ्युपगमविपयमेषामस्तीति अवद्धिकाः, एषां द्वन्द्वे विकत्रिकावद्धिकाः, चः समुच्चये, एवेति पूरणे । अत्र कः कस्य शिष्य द इत्याशङ्कापोहाथमेतन्निर्गमाभिधित्सया सम्बन्धमाह-एएसि' एतेषामनन्तरमुपदर्शितानां, निर्गमनं-यस्य यत उत्पत्तिः तदात्मकं 'वक्ष्यामि' परिभाषिष्ये, 'अथे'सानन्तर्ये 'आनुपूर्व्या क्रमेणेति गाथार्थः ॥ १६४ ॥R प्रतिज्ञातमेवाह दीप अनुक्रम [९५]] wwwjandiarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~313 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६५-१६६] प्रत सूत्रांक ||४६|| बहुरय जमालिपभवा जीवपएसा य तीसगुत्ताओ। अव्वत्ताऽऽसाढाओ सामुच्छेयाऽऽसमित्ताओ ॥१६५॥ गंगाए दोकिरिया छलुगा तेरासिआण उप्पत्ती । थेरा य गुटुमाहिल पुटुमबद्धं परूविति ॥ १६६ ॥2 Fol व्याख्या-'बहुरताः' उक्तरूपाः, जमालेः प्रभवः-एतत्तीर्थापेक्षया प्रथमतः उपलब्धिरेषां, न पुनः सर्वथोत्पत्तिदरव, प्रागप्येवंविधाभिधायिसम्भयात् , ते अमी जमालिप्रभवाः, 'जीवपएसा य' त्ति प्रस्तावात्प्रदेश इत्यन्त्यप्रदेशो जीवो येषां ते प्रदेशजीवाः, प्राकृतत्वाच व्यत्ययः, ते च तिष्यगुप्तात्, 'अव्यक्ताः' अव्यक्तवादिनः आषाढात् , सामुच्छेदा अश्वमित्रात्, 'गङ्गात्' इति गङ्गाचार्यात्, द्वे क्रिये बदन्ति द्वेक्रियाः, 'छलुग' ति षट्पदार्थप्रणयनादुलूक गोत्रत्वाच पडुलूकस्तस्मात् , त्रिभी राशिभिर्दीव्यन्ति-जिगीषन्तीति त्रैराशिकास्तेषामुत्पत्तिः, 'स्थविराश्च' स्थिरीद करणकारिणः 'गोहामाहिल'त्ति गोष्ठमाहिलाः 'स्पृष्टम्' कक्षुकवत् छुसम् 'अबद्धम्' न क्षीरनीरवदन्योऽन्यानुगतं, कर्मेति गम्यते, 'परूपयन्ति' प्रज्ञापयन्ति, तत्कालापेक्षया लट्, बहुवचनं च पूज्यत्वात् , तच स्थविरत्वं च पूर्वपर्यायापेक्षया, अनेन च गोष्ठमाहिलादबद्धिकानामुत्पत्तिरित्युक्तं भवति इति गाथाद्वयार्थः ॥ १६५-१६६ ॥ यथा बहुरता जमालिप्रभवाः तथा चाहजिट्टा सुदंसण जमालि अणुज सावत्थि तिंदुगुजाणे।पंच सया य सहस्सं ढंकेण जमालि मुत्तूणं ॥१६७॥ व्याख्या-अक्षरार्थः सुगमः, नवरम् , 'अणुजत्ति अनवद्याङ्गी॥१६७॥ भावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदायादवसेयः, स चायम् 549-% दीप अनुक्रम [९५]] % 4 % 2 wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~3144 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [५] उत्तराध्य. बृहद्वृत्ति: ॥१५३॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) निर्युक्ति: [१६७] अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| तेणं' काणं तेणं समएवं कुंडपुरं नयरं, तत्थ सामिस्स जेट्ठा भगिणी सुदंसणा नाम, तीए पुत्तो जमाली, सो | सामिस्स मूले पचइओ पंचहिं सएहिं समं, तस्स य भज्जा सामिणो घूया अणुजंगीनामा बीयं णामं पियदंसणा, सावि तमणु पचतिया सहस्वपरिवारा, तहा भाणियवं जहा पण्णत्तीए, एकारस अंगा अहीया, सामिणा अणुण्णातो सावत्थि गतो पंचसय परिवारो, तत्थ य तिंदुगुज्जाणे कोट्टगे चेतिते समोसढो, तत्थ से अंतपंतेहिं रोगो उप्पण्णो, ण तरह बट्टतो अच्छिउं, ताहे सो समणे भणइ-मम सेज्जासंथारगं करेह, तेहिं काउमारद्धो, पुणो अधरो भणति-कतो ? कज्जति १, ते भति-न कओ, अज्जवि कज्जति, ताहे तस्स चिंता जाया-जण्णं समणे भगवं० आइक्खति 'चलमाणे चलिए उदीरिजमाणे उदीरिए जाव निजरिज्जमाणे निजिणे' तं च मिच्छा, १ तस्मिन् काले तस्मिन् समये कुण्डपुरं नगरं तत्र स्वामिनो ज्येष्ठा भगिनी सुदर्शना नाम, तस्याः पुत्रो जमालिः, स स्वामिनो मूले प्रब्रजितः पञ्चभिः शतैः समं, तस्व च भार्या स्वामिनो दुहिताऽनवद्याङ्गीनानी द्वितीयं नाम प्रियदर्शना, साऽपि तमनु प्रब्रजिता सहस्रपरिवारा, तथा भणितव्यं यथा प्रशप्तौ, एकादशाङ्गान्यधीतानि, स्वामिनाऽनुज्ञातः श्रावस्ती गतः पञ्चशतपरीवारः, तत्र च विन्दुकोधाने कोष्टके चैत्ये समवसृतः, तत्र तस्य अन्तप्रान्तै रोग उत्पन्नः, न शक्नोति उपविष्टः स्थातुं, तदा स श्रमणाम् भणति मम शय्यासंस्तारकं कुरुत, तैः कर्त्तुमारब्धः, पुनरधीरो भणति कृतः ? क्रियते ?, ते मणन्ति न कृतः, अद्यापि क्रियते, तदा तस्य चिन्ता जाता यत् श्रमणो भगवान् आख्याति चलत् चलितमुदीर्यमाणमुदीर्ण यावन्निर्जीर्यमाणं निर्जीण, तब मिथ्या, uttarattond For Party चतुरङ्गीया ध्ययनम् ~315~ ★ ॥१५३॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [५] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [...] / गाथा ||४६...|| निर्युक्ति: [१६७] इमं पथक्खमेव दीसति - सेजासंधारए कज्जमाणे अकडे, संथरिजमाणे असंथरिए, जम्हा णं एवं तम्हा चलणमाणेऽवि अचलिए उदीरिजमाणेवि अणुदीरिए णिज्जरिज्जमाणेवि अणिजिण्णे, एवं संपेहेइ, एवं संपेहित्ता निग्गंथे सदावेद, सद्दावित्ता एवं वयासी जंणं समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खर - चलमाणे चलिए, उदीरिजमाणे उदीरिए, जाव णिजरिजमाणे णिज्जरिए, तं णं मिच्छा, इमं पचक्खमेव दीसह - सिज्जासंधारए कज्जमाणे अकडे, जाव तम्हा णं अणिजिण्णे । तए णं जमालिस्स एवमाइक्खमाणस्स अत्थेगतिया बिग्गंथा एयमहं सहंति, अत्येगइया नो सहंति, जे सहहंति ते णं जमालिं चैव अणगारं उपसंपज्जित्ता णं विहरंति, तत्र ये न श्रद्दधति ते एवमाहुः - भगचन् ! भवतोऽयमाशयः - यथा घटः पटो नैव, पटो वा न घटो यथा । क्रियमाणं कृतं नैव कृतं न क्रियमाणकम् ॥ १॥ प्रयोगश्थ-यो निश्चितभेदौ न तयोरैक्यं, यथा घटपटयोः, निश्चितभेदे च कृतक्रियमाथके, अत्र चासिद्धो हेतुः, १ इदं प्रत्यक्षमेव दृश्यते - शय्यासंस्तारकः क्रियमाणोऽकृतः, संस्तीर्यमाणोऽसंस्तीर्णः, थस्मादेवं तस्मात् चलदपि अचलितमुदीर्यमाणमपि अनुदीर्ण निर्जीर्यमाणमध्यनिर्जीणम् एवं संप्रेक्षते ( विचारयति ), एवं संप्रेक्ष्य निर्मन्थाम् शब्दयति, शब्दयित्वा एक्मवादीत्-यद् श्रमणो भगवान् महावीर एवमाख्याति चलत् चलितमुदीर्यमाणमुदीर्ण यावत् निर्जीर्यमाणं निजर्थ, तत् मिथ्या, इदं serie दृश्यते - शय्यासंस्तारकः क्रियमाणोऽकृतः, याक्त्तस्मात् अनिर्णम् । ततो जमालेदेवमाख्यायतः सन्त्येकका निर्मन्था एनमर्थ अथति, सन्त्येकका न श्रद्दधति, ये अद्दधति से जमालिमेवानागारमुपसम्पद विहरन्ति, Education Intol For Parts Only nary पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~316~ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६७] प्रत सूत्रांक ||४६|| मत्सराध्य. तथाहि-कृतक्रियमाणके किमेकान्तेन निश्चितभेदे ? अथ कथञ्चिद् !, यद्येकान्तेन तत्किं तदैक्ये सतोऽपि करणप्र-चतुरङ्गीचा बृहद्धृत्तिः 1 सङ्गतः १ उत क्रियानुपरमप्रासे २ राहोखित् प्रथमादिसमयेष्वपि कार्योपलम्भप्रसक्ते ३ रथ क्रियावैफल्याऽऽप-1|| दितितो ४ दीर्घक्रियाकालदर्शनानुपपत्तेर्वा ५१, तत्र न तावत्सतोऽपि करणप्रसङ्गत इति युक्तम् , असत्करणे हि . ॥१५॥ खपुष्पादेरेव करणमापद्यत इति कथञ्चित्सत एव करणमस्माभिरभ्युपगतं, न चाभ्युपगतार्थस्य प्रसअनं युज्यते १, नापि क्रियानुपरमप्राप्तः, यत इह क्रिया किमेकविषया भिन्नविषया बा?, यद्येक विषया न कश्चिद्दोषः, तत्र हि यदि द कृतं क्रियमाणमुच्यते तदा तन्मतेन निष्पन्नमेव कृतमिति तस्यापि क्रियमाणतया क्रियानुपरमप्राप्सिलक्षणो दोषः। * स्यात् , न तु क्रियमाणं कृतमित्युक्ती, तत्र क्रियाऽऽवेशसमय एव कृतत्वाभिधानात् , उक्तं हि-"क्रियाकालनिष्ठाSकालयोरक्य"मिति, अर्थवमपि कृतक्रियमाणयोरैक्ये कृतस्य सत्त्वात् सतोऽपि करणे तदवस्थः प्रसङ्गा, तदसत् , x पूर्व हि लब्धसत्ताकस्य क्रियायामयं प्रसङ्गः स्यात् , न तु क्रियासमकालसत्तावासी, अथ भिन्नविषया क्रिया तदादा |सिद्धसाधनं, प्रतिसमयमन्यान्यकारणतया बस्तुनोऽभ्युपगमेन भिन्नविषयक्रियानुपरमस्यास्माकं सिद्धत्वात् २, अथ प्रथमादिसमयेष्वपि कार्योपलम्भप्रसक्तेरिति पक्षः, क्रियमाणस्य हि कृतत्वे प्रथमादिसमयेष्यपि सवादुपलम्भः प्रसज्यत इति, तदपि न, तदा हि शिवकादीनामेव क्रियमाणता, ते चोपलभ्यन्ते एव, उक्तं च-"अन्नारम्भे अन्नं १ अन्यारम्भेऽन्यत् कथं दृश्यतां यथा घटः पटारम्भे? | शिवकादयो न कुम्भः कथं श्यतां स तदतायाम् ॥१॥ दीप अनुक्रम [९५]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~317~ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६७] S प्रत सूत्रांक ||४६|| कह दीसउ ? जह घडो पडारम्भे । सिक्कादतो ण कुम्भो कह दीसउ सो तदद्धाए ॥१॥" घटगताभिलापतया च मूढः शिवकादिकरणेऽपि घटमहं करोमीति मन्यते, तथा चाह-"पईसमयकजकोडीनिरवेक्खो घडगयाभिलात सोऽसि । पइसमयकजकालं थूलमइ घडं मिलाएसि ॥१॥" ३, नापि क्रियावफल्याऽऽपत्तितो, यतः प्रागेव प्राप्त-14 सत्ताकस्स करणे क्रियावैफल्यं स्यात्, न तु क्रियमाणकृतत्वे, तत्र हि क्रियमाणं क्रियापेक्षमिति तस्याः साफल्यमेव, अनेकान्तवादिनां च केनचिद्रूपेण प्रारू सत्त्वेऽपि रूपान्तरेण करणं न दोपाय ४, दीक्रियाकालदर्शनानुपप-18 रित्यपि न युक्तं, यतः शिवकायुत्तरोत्तरपरिणामविशेषविषय एव दीर्घ क्रियाकालोपलम्भो न तु घटक्रियाविषयः, उक्तं हि- “पईसमउप्पण्णाणं परोप्परविलक्षणाण सुबहणं । दीहो किरियाकालो जइ दीसइ किंथ कुंभस्स? ॥१॥" ५। अथ कथञ्चिनिश्चितभेदे कृतक्रियमाणे, तत्तीर्थकदुक्तमेव, निश्चयव्यवहारानुगतत्वात् तहचसः, तत्र ४च निश्चयनयाऽऽश्रयेण कृतक्रियमाणयोरभेदो, यदुक्तम्-"क्रियमाणं कृतं दग्धं, दद्यमानं स्थितं गतम् । तिष्ठच : गम्यमानं च, निष्ठितत्वात् प्रतिक्षणम् ॥१॥" व्यवहारनयमतेन तु नानात्वमप्यनयोः, तथा च क्रियमाणं १ प्रतिसमयकार्यकोटीनिरपेक्षो घटगवामिलापोऽसि । प्रतिसमयकार्यकालं स्थूलमतिर्घटं मेलयसि (पटे गृह्णासि ) ॥११॥ २ प्रतिसमयोहै पन्नानां परस्परविलक्षणानां सुबहूनाम् । दीर्घः क्रियाकालो यदि दृश्यते किमय कुम्भस्य ॥१॥ दीप अनुक्रम [९५]] ANGAL पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~318~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६७] बृहवत्तिः प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्यकृतमेव, कृतं तु स्वास्क्रियमाणं क्रियाशसमये, क्रियोपरमे पुनरक्रियमाणमिति उक्त, च-तेणेहं कजमाणं नियमेण चतुरङ्गीया कयं कयं तु भवणिज । किञ्चिदिह कजमाणं उबरवकिरियं व होजाहि ॥१॥ किश्च भवतो मतिः-क्रिया- ध्ययनम् त्यसमय एवाभिमतकार्यभवनं, तत्रापि प्रथमसमयादारभ्य कार्यस कियत्यपि निष्पत्तिरेष्टव्या, अन्यथा कथ-18 ॥१५५॥ मकस्मादन्त्यसमये सा भवेद् ?, उक्तं च-आद्यतन्तुप्रवेशे च, नोतं किश्चिद्यदा पटे । अन्त्यतन्तुप्रवेशे च, नोतं ४ स्थान पटोदयः॥ १॥ तस्मादाद्यद्वितीयाऽऽदितन्तुयोगात्प्रतिक्षणम् । किञ्चित्किञ्चिदुतं तस्य, यदुतं तदुतं ननु । ॥२॥" इह प्रयोगः-यद्यस्याः क्रियायाः आघसमये न भवति तत्तस्या अन्त्यसमयेऽपि न भाचि, यथा घटक्रिया-2 दिसमयेऽभवन्पटः, न भवति च कृतक्रियमाणयोर्भेदे क्रियादिसमये कार्यम् , अन्यथा घटान्त्यसमयेऽपि पटोत्पत्तिः स्थात् , एवं च-'यथा वृक्षो धवति, न विरुद्धं मियो द्वयम् । क्रियमाणं कृतं चेति, न विरुद्धं तथोभयम् ॥१॥ प्रयोगवन्ययेनाविनाभूतं न तत्तत एकान्तेन भिद्यते, यथा वृक्षत्वाद्धवत्वं, कृतत्वाविनाभूतं च क्रियमाद्राणत्वमिति । सकललोकप्रसिद्धत्वाच घटपटयोः तदाश्रयेणैवमुक्तं संस्तारकादावपि योज्य, तत् प्रतिपद्यख भगवन् !" 'चलमाणे चलिए' इत्यादि तीर्थकृद्धचोऽत्यन्तमवितथमिति । स चैवमुच्यमानोऽपि न प्रतिपन्नवान् , ततश्च- १५५॥ १ तेनेह क्रियमाणं नियमेन कृतं कृतं तु भजनीयम् । किश्चिदिह क्रियमाणमुपरतक्रियं वा भवेत् ॥ १॥ %EC%ACTICS CRG दीप अनुक्रम [९५]] JAMERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~319~ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६७] प्रत सूत्रांक ||४६|| जाहेण द्वाति ताहे ते णिग्गंथा जमालिस्स अंतिआतो जहा पण्णत्तीए जाव सामि उपसंपज्जित्ता णं विहरंति। साऽवि य णं पियदसणा ढंकस्स कुम्भकारस्स घरे ठिया, सा आगया चेइयचंदिया ताहे पर्वदिया, तंपि पण्णवेइ, ४|सावि विप्पडिवण्णा तस्स नेहाणुरागेण, पच्छा आगया अजाणं परिकहेइ, तं च ढंक भणति, सो जाणइ-जहा| एसा विप्पडिवना नाहचतेणं, ताधे सो भणति-अहं ण याणामि एवं विसेसयरं, एवं तीसे अन्नया कयाइ सज्झायपोरिसिं करेंतीए तेणं भायणाणि उद्यत्तंतेणं ततो हुत्तो इंगालो ठूढो, जहा तीसे संघाडी एगदेसंमि दहा, सा भणइ-इमा अज! संघाडी दहा, ताहे सो भणति-तुम्भे चेव पण्णवेह-जह उज्झमाणमडझं, केण तुझं संघाडी|| दहा ?, जतो उज्जुसुयणयमयातो पीरजिर्णिदवयणावलंबीणं जुज्जेज इज्झमाणं डझं बोतुं ण तुझंति, ततो तहत्ति १ यदा न तिष्ठति तदा ते निर्मन्या जमालेरन्तिकात् यथा प्रज्ञप्ती यावत् स्वामिनमुपसंपय विहरन्ति । साऽपि च प्रियदर्शना ढकस्य ४ कुम्भकारस्य गृहे स्थिता, सा आगवा चैत्यमन्दिका वदा प्रवन्दिका, तामपि प्रज्ञापयति, साऽपि विप्रतिपन्ना तस्य स्नेहानुरागेण, पश्चादागता आर्याभ्यः परिकथयति, तं च दक्षं भणति, स जानाति-यथैषा विप्रतिपन्ना नाथत्वेन, तदा स भणति-अहं न जानामि एनं विशेघव्यतिकरम् , एवं तस्या अन्यदा कदाचित् स्वाध्यायपौरुषी कुर्वन्यासन भाजनान्युदर्तयता ततः सकाशात् अङ्गारः क्षिप्तः, यथा तस्याः संघाटी एकदेशे दग्धा, सा भणति-इयमार्य! संघाटी दग्धा, तदा स भणति-यूयमेव प्रज्ञापयत-अथ दयमानमदग्धं, केन युध्माकं संघाटी । दग्धा, यत जुसूत्रनवमतात् वीरजिनेन्द्रवचनावलम्बिना युज्येत दयमानं दुग्धं वक्तुं न युष्माकमिति, ततस्तथेति दीप अनुक्रम [९५]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~320 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६७] बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. पिडिसुणेति, इच्छामो अजो! सम्म पडिचोयणा, ताहे सा गंतूण जमालिं पण्णवेति, सो जाहे ण गिण्हति, ताहे सह- चतुरक्रीया "स्सपरिवारा सामि उपसंपजित्ता णं विहरह। इमोऽपि ततो लहुंचेव गतो चंपं णयरिं, सामिस्स अदूरसामंते ठिबाध्ययनम् सामि भणति-जहा णं देवाणुप्पियाणं बहवे अंतेवासी समणा णिग्गंथा छउमत्था भवित्ता छउमत्थावकमणेणं ॥१५६॥ अवकता, णो खलु अहं तहा छउमत्थो भविता छउमस्थायकमणेणं अवकते, अहं णं उप्पण्णणाणदसणधरे अरहा हाजिणे केवली भवित्ता केवलिअवकमणेणं अवकते, तए णं भगवं गोयमो जमालिं एवं वयासी-णो खलु जमाली ! केवशलिस्स णाणे वा दंसणे वा सेलेसिया भसि वा जाव कर्हिसि आवरिजद वा निवारिजति बा, जदि णं तुम जमाली! उप्पण्णणाणदंसणधरे तो णं इमाई दो वागरणई वागरेहि-सासए लोए ? असासए?, सासए जीवे असासए ?, तए णं १ प्रतिशृणोति, इच्छाम आर्य ! सम्यक् प्रतिचोदना, तदा सा गत्वा जमालि प्रज्ञापयति, स यदा न गृह्णाति तथा सहसपरिवारा खामिनमुपसंपद्य विहरति । अयमपि ततो लम्वेव गतश्चम्पा नगरी, स्वामिनोऽदूरसमीपे खित्वा स्वामिनं भणति-यथा देवानुप्रियाणां बह्वोऽन्तेवासिनः श्रमणा निर्मन्थाः छाथा भूत्वा छद्मस्थावक्रमणेनावक्रान्ताः, नो खल्वहं तथा उद्यस्थो भूत्वा छद्मस्थावक्रमणेनावकान्तः, अहमुत्पन्नज्ञानदर्शनधरोऽनि जिनः केवली भूखा फेवल्यवक्रमणेनावक्रान्तः, ततो भगवान् गौतमो जमालिभेवमवादी-नो खलु जमाले !|४|॥१५॥ केवलिनो ज्ञानं वा दर्शनं वा शैले (न) वा स्तम्भे (न)वा यावत्कचिदपि आत्रियते वा निवार्यते वा, यदि जमाले! त्वमुत्पन्नज्ञानदर्शनधरस्तदा इमे द्वे व्याकरणे व्याकुरु-शाश्वतो लोकोऽशाश्वतः ?, शाश्वतो जीवोऽशाश्वतः १, ततः दीप अनुक्रम [९५]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~321 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [५] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) निर्युक्ति: [१६७] अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| से जमाली भगवया गोयमेणं एवं वृत्ते समाणे संकिए कंखिए जाव णो संचाएति भगवतो गोयमस्स किंचिवि पमोक्खमक्खाइत्तएसि तुसिणीए संचिट्ठति, जमालित्ति समणे भगवं महावीरे जमालिं एवं बयासी-अत्थि णं जमाली ! मम बहवे अंतेवासी छउमत्था जे णं पहू एयं वागरणं बागरित्तए, जहा णं अहं, नो चेव णं एयप्पयारं भासं भासितए, जहा णं तुमं, सासए लोए जमाली !, जन्न कयाइ णासी न कयाइ ण भवइ न कयाइ न भविस्सइ भुवं च भवइ भविस्सइ य धुवे जाव णिचे, असासए लोए जमाली !, जं णं उस्सप्पिणी भवित्ता ओसप्पिणी भवइ ओसप्पिणी भवित्ता उस्सप्पिणी भवइ, सासए जीवे जमाली !, जंण कयाइ नासी जाव णिचे, असासए, जण्णं | गेरतिते भवित्ता तिरिक्खजोणिए भवति, तिरिक्खजोणिए भवित्ता मणुस्से भवति, मणुस्से भवित्ता जोणीए देवे १ स जमालिर्भगवता गौतमेनैवमुक्तः सन् शङ्कितः काङ्क्षितो यावन्न शक्नोति भगवतो गौतमस्य किश्चिदपि प्रमोक्षमाख्यातुमिति तूष्णीकः संतिष्ठते, जमाले ! इति श्रमणो भगवान् महावीरो जमालिमेवमवादीत् सन्ति जमाले ! मम बहवोऽन्तेवासिनश्छद्मस्था ये प्रभव एवव्याकरणं व्याकर्तु यथाऽहूं, नो चैव एतत्प्रकारां भाषां भाषितुं यथा त्वं, शाश्वतो लोको जमाले !, यत् न कदाचिन्नासीत् न कदाचिन्न भवति न कदाचिन्न भविष्यति, बभूव च भवति भविष्यति च ध्रुवो यावन्नित्यः, अशाश्वतो लोको जमाले !, यत् उत्सर्पिणी भूत्वा अवसर्पिणी भवति अवसर्पिणी भूत्वा उत्सर्पिणी भवति, शाश्वतो जीवो जमाले !, यत् न कदाचिन्नासीत् यावन्नित्यः, अशाश्वतो, यत् नैरथिको भूत्वा तिर्यग्योनिको भवति, तिर्यग्योनिको भूत्या मनुष्यो भवति, मनुष्यो भूत्वा योन्या देवो Education Inational For at Use Only www.ncbrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [ ४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~322~ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६७] बृहदृत्तिः ॥१५७॥ प्रत सूत्रांक ||४६|| भवति, तते णं से जमाली सामिस्स एवं आइक्खमाणस्स एयम8 णो सद्दहति, असद्दहते सामिस्स अंतियातो चतुरङ्गीया अवकमति, अवकमेत्ता बहूहि असम्भावुभावणाहि मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च चुग्गाहेमाणेध्ययनम् उप्पाएमाणे बहूई वासाई सामण्णपरियायं पाउणति, बहुहिं छहमादीहिं भावेति, भाविता अद्धमासियाए संलेदाहणाए अप्पाणं झोसेइ, झोसित्ता तीसं भत्ताई अणसणयाए छेदेति, छेदित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकतो कालमासे कालं किचा लंतए कप्पे तेरससागरोवमद्वितिकेमु देवेसु देवकिब्धिसेसु देवेसु देवताए उबवणे । एवं |जहा पण्णत्तीए, जाव अंतं काहिति । एयाए दिट्टीए बहुए जीवे रया तेण बहुरयत्ति भण्णति, अहवा बहुसु समयेसु । कजसिद्धिं पडुब रया-सत्ता बहुरया इति । यथा जीवप्रदेशास्तिष्यगुप्तात् तथाऽऽह १ भवति, ततः स जमालिः खामिन एवमाख्यायत्त एनमर्थ न अद्धत्ते, अश्रद्दधन स्वामिनोऽन्तिकात् अपक्राम्यति, अपम्प बहुमिरसद्भावोद्भावनाभिर्मिध्यात्वाभिनिवेशैवात्मानं च परं च तद्भयं च व्युवाहयन् व्युत्पादयन् पनि वर्षाणि भामण्यपर्यायं पाल-1 यति, बहुभिः षष्पाष्ठमादिभिर्भावयति, भावयित्वा अर्धमासिक्या संलेखनया आत्मानं क्षपयति, क्षपयित्वा विंशतं भक्तानि अनशनितया हाछेदयति, छित्त्वा तस्य स्थानस्य अनालोचिताप्रतिक्रान्तः कालमासे कालं कृत्वा लान्तके कल्पे त्रयोदशसागरोपमस्थितिकेषु देवेषु देवकि-1 बिकेषु देवेषु देवतयोत्पन्नः । एवं यथा प्रज्ञप्ती यावदन्त करिष्यति । एतस्यां दृष्टौ बहयो जीवा रतास्तेन बहुरत इति भण्यते, अथवार ४ बहुषु समयेषु कार्यसिद्धि प्रतीत्य रताः-सक्ता बहुरता इति । दीप अनुक्रम [९५]] wwwjanataram.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~323 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६८] प्रत सूत्रांक ||४६|| CLICROSTStockS रायगिहे गुणसिलए वसु चउदसपुवि तीसगुत्ताओ। आमलकप्पा नयरि मित्तसिरी कूरपिंडादि ॥१६॥ व्याख्या-अक्षरार्थः क्षुण्णो ॥१६८ ॥ भावाऽर्थस्तु सम्प्रदायादवसेयः, स चायम् बीतो सामिणो सोलसवासातिं उपाडियणाणस्स तो उप्पण्णो । तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे गुणसिले चेतिए वसू णाम भगवंतो आयरिया चोहस्सपुषी समोसढा, तस्स सीसो तीसगुत्तो णाम, सो आयप्पयायपुचे इम आलायगं अज्झाएइ-'एगे भंते ! जीवपएसे जीवेत्ति वत्तवं सिया ,णो इणमटे समट्टे, एवं दो जीवप्पएसा तिपिण संखेजा असंखेजा वा जाव एगपएसूणेऽपि य णं जीवे णो जीवेत्ति बत्तवं सिया, जम्हा कसिणे पडिपुण्णलोगागा-1 सप्पएससमतल्लप्पएसे जीवेत्ति वत्तव'मित्यादि, एत्थ सो विपडिवनो, जदि सवे जीवप्पएसा एगप्पएसहीणा जीवववएसं ण लहंति तो णं सो चेच एगे जीवप्पएसे जीवत्ति, तद्भावभायित्वात् जीवववएसस्सत्ति, स चैवं विषदमानः १ द्वितीयः स्वामिन उत्पाटितज्ञानात् षोडशवर्षाणि सदोत्पन्नः । तसिमन् काले तस्मिन समये राजगृहे गुणशीले चैये बसवो नाम | भगवन्त आचार्याश्चतुर्दशपूर्षिणः सभवमृताः, तेषां शिष्यस्तिष्यगुप्तो नाम, स आत्मप्रवादपूर्वे इममालापकमध्येति ‘एको भदन्त ! जीवप्रदेशो जीव इति वक्तव्यं स्यात् ?, नैषोऽर्थः समर्थः, एवं द्वौ जीवप्रदेशौ त्रयः संख्येया असंख्येया वा, यावदेकप्रदेशोनोऽपि च जीयो नो जीव | इति वक्तव्यं स्थान , यस्मात् कृत्स्नः प्रतिपूर्णलोकाकाशप्रदेशसमतुल्यप्रदेशो जीव इति वक्तव्यमित्यादि, अत्र स विप्रतिपन्नः, यदि सर्वे |जीवप्रदेशा एकप्रदेशहीना जीवन्यपदेशं न लभन्ते तदा स चैव एको जीवप्रदेशो जीव इति, जीवव्यपदेशस्वेति दीप अनुक्रम [९५]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~324 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६८] प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. स्थविरैरभाणि-भद्र ! भवतोऽयमाशयः-यथा संस्थान एवास्ति, घटस्तेन तदात्मकः । तदन्त्यदेश एवास्ति, जीवस्तेन ॥ चतुरङ्गीया तदात्मकः ॥१॥ प्रयोगश्च-यस्मिन्नेव सति यद्भवति तत्तदात्मक, यथा संस्थान एव सति भवन् घटतदात्मकः, मध्ययनम बृहद्वृत्तिः अन्त्यदेश एव च सति भवत्यात्मा, अत्रासिद्धो हेतुः, तथाहि-कधमात्मनोऽन्त्यप्रदेशे एव सति भावः ?, अथ शेषप्रदे॥१५८शेषु सत्सु अप्यसौ नास्तीति, तत्किमस्य शेषप्रदेशानां च कश्चिद्विशेषोऽस्ति न वा १, नास्ति चेकिंन शेषप्रदेशभावे ऽप्यस्य सद्भावः, अथास्ति चेत् , स किं पूरणत्व १ मुपकारित्व २ मागमाभिहितत्वं ३वा?, यदि पूरणत्वं तत्किं वस्तुतो| विवक्षातो वा ?, वस्तुतश्चेत्किमस्यैव पूरणत्वं ? न शेषप्रदेशानाम् । अथास्यैव अन्त्यत्वाद् , अन्त्यत्वमप्यात्मप्रदेशापेक्षं दातदवष्टधाकाशप्रदेशापेक्षं वा', न तावदात्मप्रदेशापेक्षम्, आत्मप्रदेशानां कथञ्चित्पाथोवदावत्तेमानत्वेनानवस्थिता-18 नामयमन्त्योऽनन्त्यश्चायमिति विभागाभावात् , ये पुनरष्टौ स्थिराः ते मध्यवर्तिन एव, नापि तदवष्टब्धाकाशप्रदेशापेक्षं, जातपामशेषदिक्षु पर्यन्तसम्भवेनैकस्यैवान्त्यत्वाभावात् , देशान्तरसंचारे चानवस्थितत्वात्, न च वस्तुतोऽन्त्यस्यैव पूरणत्वं, द्वितीयादीनामपि पूरणवाद्, अन्यथा तथा तथा व्यपदेशानपपत्तेः, विवक्षातोऽपि न, यतोऽसौ खस्याशेषपुरुषाणां वा?, यद्यशेषपुरुषाणां नेय नियता, न हि.सर्व एव भवदभिमतमेकं प्ररणमाचक्षते, नापि खस, यतोऽस्या अपि कुतो | |१५८॥ सानियतत्वम् ?, अथान्त्यत्वाद् एतदपि कुतो नियतम् ?, 'एगे भन्ते ! जीवप्पएसे जीवत्ति वत्तवं सिया ! इत्यादिनिरूप-12 ४ाणायां पर्यन्तभवनात् , तन्नियमोऽपि कुतो?, विवक्षानियमात , एवं सति चक्रकाख्यो दोषः, तथाहि-विवक्षानयत्य- दीप अनुक्रम [९५]] wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~325 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६८] प्रत 2 सूत्रांक ||४६|| % मन्त्यत्वात् , तरैयत्वं च निरूपणायां पर्यन्तभवनात् , तन्नियमोऽपि विवक्षानियमादिति, एवं सति चक्रवत् पुनः पुनरावर्त्तते इति, यदि च पूरणत्वमन्त्यस्य विशेषः तदा तच्छेषप्रदेशापेक्षमेवेत्यन्त्याविनाभावित्वे तदपिनाभाबित्वमपि । बलादापततीति सकलप्रदेशाविनाभावित्वात्तद्वात्मकत्वसिद्धिः, नाप्युपकारित्वं विशेषः, यतस्तदन्येषामपि कथं न ?, किमात्मप्रदेशा एव न ते , यद्वाऽऽत्मप्रदेशत्वेऽप्येकका इति, न तावदाद्यः पक्षः, अशेषाणामात्मप्रदेशत्वेन वादिनतिवादिनोरिष्टत्वात् , अथात्मप्रदेशत्वेऽप्येकका इति, एकत्वं त्वन्मतान्त्यप्रदेशसहायकाभावात् परस्परसाहायकविरहतो वा', यदि त्वन्मतान्त्यप्रदेशसहायकाभावात् शेषप्रदेशानामनुपकारित्वं, त्वन्मतस्यान्त्यस्यापि तत्साहायका सत्त्वात् तदस्तु, युक्तं च बहूनामुपकारित्वम् , एकस्य तु तदभावो, यदुक्तम्-"जुत्तो य तदुवयारो देसूणे ण उ पएस-1 कामेत्तमि । जह तंतूणमि पडे पडोवयारो न तंतुंमि ॥१॥" नापि परस्परसहायकासच्चात् , यतस्त किं त्वत्कल्पितान्त्य प्रदेशतो न्यूनत्वे तदभावे वा ?, यदि न्यूनत्वे तत्किं शक्तितोऽवगाहनातो वा न तावच्छक्तितः, एकपटतन्तूनामिवैदाकात्मप्रदेशानां तब्यूनत्यायोगात्, नाप्यवगाहनातः, सर्वेषामप्यमीषामेकैकाकाशप्रदेशावगाहित्वेन तुल्यत्वात् , तद भावपक्षे चान्त्यप्रदेशस्येव शेषप्रदेशानामप्यात्मोपकारित्वं सिद्धमेव, आगमाभिहितत्वं च विशेषकमुच्यमानं तदन्यतामेव सूचयति, यतः स्फुटमेवागमवचनं "कसिणे पडिपुण्णे लोगागासपएसतुल्लपएसे जीवत्ति बत्तयं सिय" त्ति, ततश्च१ युक्तश्च तदुपधारो देशोने न तु प्रदेशमात्रे । यथा तन्तूने पटे पटोपचारो न तन्तौ ॥१॥ %-8 दीप अनुक्रम [९५]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~326 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६८] प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. 1 भवन्सर्वखदेशेषु, पटो यद्वत्तदात्मकः । भवन्सर्वखदेशेषु, तद्वदात्मा तदात्मकः ॥१॥ प्रयोगश्च-यो यावत्खप्रदेशा- चतुरङ्गीया बृहद्वृत्तिः विनाभावी स तदात्मको, यथा घटः, सकलखप्रदेशाविनाभावी च जीव इति, एवं च प्रज्ञाप्यमानोऽपि जाहे न|४|| ठाइ, ताहे से काउस्सग्गो कतो, एवं सो बहूहिं असम्भावभावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य अप्पाणं परं उभयं ॥१५९॥ च बुग्गाहेमाणो गतो आमलकप्पं नयरिं, तत्थ अंबसालवणे ठितो, तस्य मित्तसिरीनाम समणोबासतो, तप्पमुहा |य अण्णेऽवि णिग्गया आगया साहुणोति, सोऽपि जाणति-जहा एए णिण्हगत्ति, पच्छा सो पण्णवेति, सोऽवि जाणति, तथावि माइहाणेणं गतो धम्म सुणति, सो ते ण विरोहेति पण्णवेहामि णं, एवं सो कम्म पडिच्छंतो जाव तस्स संखडी विउला विच्छिण्णा जाया, ताहे ते निमंतिया, तुम्भे चेव मम घरे पादाद्याक्रमणं करेह, एवं ते आगया, ताहे तस्स णिविट्ठस्स तं विउलं खजयं णीणियं, ताहे सो एकेकातो खंडं खंडं च देति, कूरस्स पा १ यदा न तिष्ठति, तदा तस्य कायोत्सर्गः कृतः, एवं स बहुभिरसद्भावभावनाभिनिध्यात्वाभिनिवेशवात्मानं परमुभयं च घ्युद्वाहयन ४ गत आमलकरपा नगरी, तत्राप्रशालबने खितः, तत्र मित्रश्रीनाम श्रमणोपासका, तत्प्रमुखाश्चान्येऽपि निर्गता आगताः साधव इति, सोऽपि जानाति- यथा एते निहवा इति, पचास प्रज्ञापयति, सोऽपि आनाति, तथापि मातृस्थानेन (मायया) गतो धर्म शृणोति, स तान न विरो-I ॥१५॥ 8 धयति प्रज्ञापयिष्यामि एतान् , एवं स कर्म प्रतीच्छन् यावत्तस्य संखण्डी विपुला विस्तीर्णा जाता, तदा ते निमश्रिताः, यूयमेव मम गृहे पादावधारणं कुरुत, एवं ते आगताः, तदा तेभ्यो निविष्टेभ्यः तद्विपुलं खाद्यमानीतं, तदा स एकैकस्मात् खण्डं खण्डं च ददाति, कूरस्य kkcX दीप अनुक्रम [९५]] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~327 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६८] प्रत 25 सूत्रांक ||४६|| ISIकुसणस्स वत्थस्स, ते जाणंति-एस पच्छा पुणो दाहिति, पच्छा पाएसु पडितो, सयणं च भणति-पंदेह, साहू पडिलाभिया, अहो अहं धन्नो! जं तुम्भे ममं व घरमागया, ताहे भणति-किह धरिसिया ? अम्हे, ताहे सो तभणति-पणु तुम्भं सिद्धूतो पजंतवयवमेत्ततोऽवयवी, यदि सच्चमिणं तो का विहंसणा ? मिच्छमिहरा उ, तुम्भे मएर ससिद्धतेण पडिलाभिया, जदि गवरि वद्धमाणसामिस्स तणएण सिद्धतेण तो पडिलामि, एत्थ संबुद्धा, इच्छामो अज्जो ! संमं पडिचोयणा, ताहे पच्छा सावरण पडिलाभिया, मिच्छादुकडं च णं कयं, एवं ते सवे संबोहिया आलोइयपडिकंता विहरंति ॥ यथा अव्यक्ता आषाढात्तथाऽऽहसियवियपोलासाढे जोगे तदिवसहिययसूले य । सोहम्मि नलिणगुम्मे रायगिहे पुरि य बलभद्दे १६९/४ ___ व्याख्या-अक्षरार्थः सुगमः ॥ १६९ । भावार्थस्तु सम्प्रदायादवसेयः, स चायम् १ सूपस्य वस्त्रस्य, ते जानन्ति-एष पश्चात् पुनस्पति, पश्चात् पादयोः पतितः, स्वजनं च भणति-वन्दध्वं, साधवः प्रतिलम्भिताः, अहो अहं धन्यो ययूयं ममैव गृहमागताः, तथा भणन्ति-किं धर्षिता वयं , तदा स भणति-ननु युष्माकं सिद्धान्तः पर्यन्तावयवमात्रोऽवयवी, यदि सत्यमिदं तदा का विधर्षणा ?, मिध्यादुष्कृतमितरथा तु, यूयं मया स्वसिद्धान्तेन प्रविलम्भिताः, यदि नवरं वर्धमानखामिनः सत्केन सिद्धान्तेन तदा (युष्मान्) प्रतिलम्भवामि, अत्र संबुद्धाः, इच्छाम आर्य! सम्यक् प्रतिचोदना, तदा पश्चात् श्रावकेण प्रतिलम्भिताः, मिथ्यादुष्कृतं च कृतम्, एवं ते सर्वे संबोधिता आलोचितप्रतिक्रान्ता विहरन्ति । दीप अनुक्रम [९५]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~328~ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६९] उत्तराध्य बृहद्वृत्तिः ॥१०॥ प्रत सूत्रांक ||४६|| | तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवतो दो बाससयाणि चोइसुत्तराणि सिद्धिं गयस्स, ततो ततितो उप्पन्नो। चतुरङ्गीया सेयविया णयरी, पोलासं उज्जाणं, तत्थ अज्जासाढा णाम आयरिया वायणायरिया य, तेर्सि च बहवे सीसा आगा- ध्ययनम् ढजोगपडिवन्नया अज्झायंति, तेर्सि रतिं विसूइया जाया, णिरुद्धा वाएण, ण दे(चे)व कोइ उबढवितो जाव कालगया, सोहम्मे णलिणिगुम्मे विमाणे उबवण्णा, ओहि पउंजंति, जाव पेच्छंति तं सरीरगं, ते य साहुणो आगाढजोगपडिवण्णगा, एएऽविण जाणंति, ताहे तं चेव सरीरं अणुपविट्ठो, पच्छा उट्ठवेन्ति, रत्तियं पकरेह, एवं तेणY तेसिं दिवप्पभावेणं लहुं व समाणिय, पच्छा णिप्फण्णेसु तेसु भणंति-खमह भंते ! जमेत्थ मए असंजएण वंदा|विया, अई अमुगदिवसं कालगतिलतो, एवं सो खामेत्ता गतो. तेऽपि तं सरीरगं छद्देऊण इमे एयारूवे अभत्थिए | १ तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणाद्भगवतः वे वर्षशते चतुर्दशोत्तरे सिद्धिं गतात् , तदा तृतीय उत्पन्नः । श्वेताम्बी नगरी, पोलासमुचान, तत्र आर्यापाढा नाम आचार्या वाचनाचार्याश्व, तेषां च बहवः शिष्या आगाढयोगप्रतिपन्ना अधीयन्ते, तेषां रात्री विसूचिका जाता, निरुद्धा (निरुद्धचेष्टा) बातेन, नैव कोऽप्युत्थापितः यावत्कालगताः, सौधर्मे नलिनीगुल्मे विमाने उत्पन्नाः, अवधि प्रयु जन्ति, यावत्प्रेक्षन्ते तच्छरीरक, तांश्च साधून आगाढयोगप्रतिपन्नान , एतेऽपि न जानन्ति, तदा तदेव शरीरमनुप्रविष्टाः, पश्चादुत्थापयन्ति, वैरात्रिकं प्रकुरुत, ॥१६॥ एवं तेन तेषां दिव्यप्रभावेण लम्वेव समापित, पश्चात् निष्पन्नेषु वेषु भणन्ति-क्षमध्वं भगवन्तः ! बदन मयाऽसंयतेन वन्दनं दापिताः, अह|| ममुकस्मिन् दिने कालगतः (आसीत् ), एवं स क्षगयित्वा गतः, तेऽपि कच्छीरकं त्यक्त्वा इमान् एतद्रपान अभ्यर्थिवान (संकल्पान ) दीप अनुक्रम [९५]] wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~329~ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६९] प्रत सूत्रांक ||४६|| सवेवि पडिवन्ना-एचिरं कालं असंजतो वंदिओत्ति, ताहे अश्वत्तभावं भाति, जहा सर्व अवत्तं भणेजाह, संजतोऽपि वा देवोऽवि वा, मा मुसावाओ भयेजा असंजयवंदणं च, जहा तुम मम ण पत्तियसि. जह संजतो ण वा, तुमंपि एवं भाणियचो, एवं संजती देवी वा, एवं विभासा । एवं ते असम्भावेणं अप्पाणं परं उभयं च बुग्गा-4 हेमाणा विहरंति । अनुशासितुमारब्धाश्च स्थविरैः-यथा देवानांप्रिया । इदं युष्माकमाकूर्त-यस्मान्न शक्यते का, कचिज्ज्ञानेन निश्चयः। तस्मादब्यक्तमेवास्तु, वस्तुतत्त्वाविनिश्चयात् ॥१॥ प्रयोगश्च यत् ज्ञानं न तनिश्चयकारि, यथेद-18 माचार्यगोचरं ज्ञानं, ज्ञानं चेदं यत्यादिविषयं वेदनम् , अनिश्चयकारित्वे च ज्ञानस्य निश्चयाधीनत्वात् वस्तुव्यक्तेरव्यक्तत्वसिद्धिः, ननु चेदमनुमानं ज्ञानमेव, ततश्चैतदपि निश्चयकारि न वा', यदि निश्चयकारि तर्हि यथाऽस्य ज्ञानत्वेऽपि निश्चयकारिता तथा ज्ञानान्तराणामपीति विपर्ययसाधनात् विरुद्धो हेतुः, अथ न निश्चयकारि वृथाऽस्य प्रयोगः, खसाध्यनिश्चयाकरणात् , शेषज्ञानानां चानिषिद्धव निश्चयकारिता, किश्च-यज्ज्ञानं न तन्निश्चयकारीति प्रतिज्ञायां सर्वथा निश्चयकारित्वाभावः साध्यते कथञ्चिद्वा ?, यदि सर्वथा तदा श्रुतज्ञानस्यापि ज्ञानत्वादनिश्चयकारित्वे खर्गा १ सर्वेऽपि प्रतिपन्नाः, इयचिरं कालमसंयतो वन्दित इति, तदाऽव्यक्तभावं भावयन्ति, यथा सर्वमव्यक्तं भणेत, संयतोऽपि वा देवोऽपि दबा, मा मृपावादो भवेत् असंयतवन्दनं च, यथा ख मा न प्रत्येषि-यथा संयतो न वा ?, त्वमप्येवं भणितब्यः, एवं संयती देवी वा, एवं || विभाषा, एवं ते असावेनात्मानं परमुभयं च ब्युद्बाहयन्तो विहरन्ति दीप अनुक्रम [९५]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~330 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१६९] उत्तराध्य. बृहदत्तिः प्रत सूत्रांक ||४६|| पवर्गसाधकत्वेन तदुपदर्शितेषु तपःप्रभृतिष्वप्यनिश्चयात् कथं न शिरोलुचनादेरानर्थक्यम् ?, अथ तस्य खयमनिश्चय- चतुरङ्गीया कारित्वेऽपि तद्वक्तरि तीर्थकृति प्रत्ययात्तस्यापि निश्चयकारितेति न दोषः, तर्हि किं न तत एवालयविहारादिदर्शनेन ध्ययनम् यत्यादिष्वपि तद्भावनिश्चयावन्दनाविधिः, उक्तं च-"जई जिणमयं पमाणं मुणित्ति ता बज्झकरणसंसुद्धं । देवपि वंदमाणो विमुद्धभावो विमुद्धो उ॥१॥" सर्वथा निश्चयकारित्वाभावे च ज्ञानस्य प्रतिदिनोपयोगिनि भक्तपाना-18 दावपि भक्ष्याभक्ष्यादिविभागाभाव एव प्राप्तो, यत उक्तम्-'को जाणइ किं भत्तं किमतो किं पाणयं जलं मजं?112 किमलावू माणिकं किं सप्पो चीवरं हारो?' ॥१॥ को जाणति किं सुद्धं किमसुद्धं किं सजीवमजीवं। किं भक्खं किमभक्खं ? पत्तमभक्खं ततो सत्रं ॥ २॥" अथ कथञ्चिदेव निश्चयकारित्याभावः साध्यते, यतः प्रतिसमयमन्याकान्यसक्ष्मपरिणामरूपेण भक्तादिन नितुं शक्यं, स्थिरस्थूलरूपतया च निधीयत एवेति नोक्तदोपः, एवं सति यत्यादिष्वप्यान्तरपरिणामरूपेणानिश्चयो बहिर्वेषादिरूपेण तु निश्चय एवास्तु, अथ यत्यादिषु प्रकृताचार्यवत् अन्यथास्वमपि सम्भवति, एतदरिष्टाऽऽदिवशतो भक्तादिष्वपि समानम् , यदि च निश्चयनयेन निश्चयस्य कर्तुमशक्यत्वाद १ यदि जिनमतं प्रमाणं मुनि रिति ताद्वााकरणसंशुद्धम् । देवमपि वन्दमानो विशुद्धभावो विशुद्ध एव ॥शार को जानाति किं भक्तं कृमयः । किं जलं पानक मद्यम् । किमलाबु माणिस्यं किं सर्पश्चीवरं हारः ॥१॥ को जानाति किं शुद्धं किमशुद्धं कि सजीवमजीवम् । किं भक्ष्य किमभक्ष्य ! प्राप्तमभक्ष्यं ततः सर्वम् ॥ २ ॥ दीप अनुक्रम [९५ 4%95-4545 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~331 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [५] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [...] / गाथा ||४६...|| निर्युक्ति: [१६९] अध्ययनं [३], हुशो दृष्टिसंवादं भक्तादिज्ञानं व्यवहारतो निश्चयकारि, तर्हि यत्यादिज्ञानमपि तत एव तथाऽस्तु, युक्तं चैतत् छद्मस्थावस्थायां व्यवहारनयाश्रयत्वात् सर्वश्रेष्ठानाम्, अन्यथा हि तीर्थोच्छेदप्रसङ्गः, तदुक्तम् — “छेउमत्थसमयचज्जा ववहारणयाणुसारिणी सचा । तं तह समायरंतो मुज्झइ सोवि सुद्धमई (मणो ॥ १ ॥ जह जिणमयं पवज्जह ता मा विवहारणिच्छए सुयह । ववहारणउच्छेष तित्थुच्छेओ जतोऽवस्सं ॥ २ ॥ ततश्थ - बहुशो दृष्टिसंवादं सत्यं संव्यविहारतः । भक्तादिष्विव विज्ञानं, वस्तु व्यक्तं तदिष्यताम् ॥ १ ॥ प्रयोगश्च यत् ज्ञानं बहुशो दृष्टिसंवादं तत्सत्यं, यथा भक्तादिज्ञानं, बहुशो दृष्टिसंवादं च यत्यादिज्ञानम्, इत्याद्यनुशिष्यमाणा अपि यदा तु न गुरुवचनमिष्टवन्तः | तो अणिच्छन्ता य बारसविणं काउस्सग्गेणं उग्घाडिया, जाहे रायगिहं णयरिं गया, तत्थ मोरियवंसप्पसूतो बलभदो नाम राया समणोवासतो, तेण ते आगमिया- जहा इहं आगभियत्ति, ताहे तेणं गोहा आणत्ता वच्चह गुण १ छद्मस्थसमयचर्या व्यवहारनयानुसारिणी सर्वा । तां तथा समाचरन् शुभ्यति सर्वोऽपि शुद्धमतिः ( विशुद्धमनाः ) ॥१॥ यदि जिनमतं प्रपद्यध्वं तदा मा व्यवहारनिश्चयौ मुभ्वत । व्यवहारनयोच्छेदे तीर्थोच्छेदो यतोऽवश्यम् । २ तदा अनिच्छन्तश्च द्वादशविधेन कायोत्सर्गेण उद्घाटिताः, यदा राजगृहं नगरं गताः, तत्र मौर्यवंशप्रसूतो बलभद्रो नाम राजा श्रमणोपासकः तेन ते ज्ञाताः यथेहागता इति तदा तेनारक्षका आज्ञप्ताः, -व्रजत गुण Education Intational For Parts Only www.laincibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~332~ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [५] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ १६२॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) निर्युक्ति: [१६९] अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| सिलए पञ्चतियगा, ते इहं आणेह, ता तेहिं आणीया भणिया य-लडं कडगमद्देण मद्दह, ताहे हत्थीहिं कडपहि य आणिएहिं भणति अम्हे जाणामो जहा तुमं सावतो, सो भणति-कहिंथ सावतो ?, तुब्भेत्थ केऽवि चोरा णु चारिगा णु अभिमरा णु ?, ते मणंति-अम्हे समणा निग्गंधा, सो भणति-किह तुग्भे समणा ?, तुम्मे अवत्ता, तुन्भे समणा वा चारिगा वा अपि समणोवासतो वा ण या, तम्हा पडिवजह वबहारणयं, ततो ते संबुद्धा लज्जिया पडिवण्णा णिस्संकिया समणा णिग्गंथा मोति, ताहे अंबाडिया, खरेहि य मउएहि य मए तुम्ह संबोहणा कर्य, मुक्का खामिया य ॥ यथा सामुच्छेदा अश्वमित्रात्तथाऽऽह Education Intol मिहिलाए लच्छिघरे महागिरि कोडिन्न आसमित्तो अ । उणमणुप्पवाए रायगिहे खंडरक्खा य ॥ १७० ॥ व्याख्या -- सुगमा ॥ १७० ॥ एतद्भावार्थाभिव्यञ्जकस्तु सम्प्रदायोऽयम् -- ' सामिस्से दो वाससयाणि वीसुत्तराणि १शीले प्रजिताः, तानिहानयत, ततस्तैरानीता भणिताञ्च - लघु कदकमन मर्दयत, तदा हस्तिषु कटकेषु चानीतेषु भणन्ति-वयं जानीमो यथा त्वं श्रावकः, स भणति - कुत्रान श्रावकः ?, यूयमत्र केऽपि चौरा नु चारिका नु अभिमरा नु ?, ते भणन्ति-वयं श्रमणा निर्मन्थाः, स भणति कथं यूयं श्रमणाः ?, यूयमव्यक्ताः, यूयं श्रमणा वा चारिका वा ?, अहमपि श्रमणोपासको वा न वा, तस्मात् ७४ ॥ १६२॥ प्रतिपद्यध्वं व्यवहारनयं, ततस्ते संबुद्धा लज्जिताः प्रतिपन्नाः - निश्शङ्किताः श्रमणा निर्मन्थाः स्म इति, तदा तिरस्कृताः, खरैश्च मृदुभिश्च मया युष्माकं संबोधनार्थाय कृतं मुक्ताः क्षानिवाश २- स्वामिनः द्वे वर्षशते विंशत्युत्तरे Forsy चतुरङ्गीया ध्ययनम् ३ ~333~ www.ncbrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७०] प्रत सूत्रांक ||४६|| सिद्धिं गयस्स, तो चउत्थो उप्पण्णो, मिहिलानयरीए लच्छीगिह चेइयं, महागिरी आयरिया, तत्व तेसिं सीसो कोडिन्नो, तस्सवि आसमित्तो सीसो, सो पुण अणुप्पवाए पुवे उणियवत्थु, तत्व छिण्णछेयणयवत्तवयाए आलावतो जहा—सधे पडुप्पन्नसमयणेरइया वोच्छिजिस्संति, एवं जाव चेमाणियत्ति,' एवं तस्स तंमि वितिगिफ्छा जाया-जहा सबे संजया वोच्छिजिस्संति, एवं सचेसि समुच्छेदो भविस्सइत्ति, ताहे तस्स तत्थ थिरं चित्तं जायं, दाभण्यते चाचार्ययथा-भद्र! तवायमाशयः अस्ति कारणमुत्पादे, विनाशे नास्ति कारणम् । उत्पत्तिमन्तः सर्वेऽपि, विनाशे नियतास्ततः ॥१॥ प्रयोगश्च-ये यद्भाव प्रत्यनपेक्षास्ते तद्भावनियताः, यथा अन्त्या कारण||सामग्री खकायेंजनने, अनपेक्षाश्च विनाशं प्रति भावाः, अत्र च विनाशनयत्यं भावानां किं वैश्रसिकं विनाशमाश्रित्य || नसाध्यते प्रायोगिकं वा ?, यदि वैश्रसिकं किं सर्वथा कथञ्चिद्वार, कथञ्चित्पक्षे सिद्धसाधनं, सरस्तरङ्गवत्सततमुदय व्ययवत्त्वेन केषाश्चित्पर्यायाणां तद्रूपेण वस्तुषु वैश्रसिकविनाशनयत्यस्य सिद्धत्वाद्, अथ सर्वथा विनाशः साध्यते । | १ सिद्धिगतात् , तदा चतुर्थ उत्पन्नः, मिथिलानगर्या लक्ष्मीगृहं चैत्यं, महागिरय आचार्याः, तत्र तेषां शिष्यः कोण्डिन्यः, तस्याप्यश्वकामित्र: शिष्यः, स पुनरनुपवादे पूर्व निपुर्ण वस्तु, तत्र छिन्नच्छेदनकवक्तव्यताया आलापको यथा-सर्वे प्रत्युत्पन्नसमयनैरयिका व्युच्छेत्स्यन्ति, टाएवं यावद्वैमानिका इति, एवं तस्य तस्मिन् विचिकित्सा जाता-यथा सर्वे संयता व्युन्छेत्स्यन्ति, एवं सर्वेषां समुच्छेदो भविष्यतीति, तदा तस्य तत्र स्थिरं चि जातं, दीप अनुक्रम [९५]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~3344 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७०] प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. तर्हि प्रत्यक्षनिराकृतः पक्षो, द्रव्यरूपेणावस्थितस्यैव वस्तुनो दर्शनात्, अन्यथा द्वितीयादिसमयेषु वस्तुनोऽभावप्रसङ्गःचतुरङ्गीया वस्त्वन्तरोत्पत्तेरदोष इति चेत् किं न तद्भेदेन प्रतिभाति १, अथ मायागोलकवत्सारश्यात्, तन्न, प्रत्यक्षेणकत्वग्रहा- ध्ययन बृहद्वृत्तिः दिदेव भेदाप्रतिभासात्, अथ भ्रान्तमेवैकत्वग्राहि प्रत्यक्षम्, एवं च सति चक्रकाख्यो दोषः, एकत्वग्राहिणो हि प्रत्यक्षस्य ३ भ्रान्तत्वं प्रकृतानुमानप्रामाण्ये, तब सादृश्यानेदाप्रतिभासे, स चैकत्वग्राहिणः प्रत्यक्षस्य भ्रान्तत्वे, तदपि प्रकृतानमानप्रामाण्ये इति तदेवावर्तते, ऐहिकामुष्मिकव्यवहारविलुप्तिश्च सर्वथा नाशे, तथा चाह-"तित्ती समो किलामो सारिक्ख विपक्खपच्चयाईणि । अज्शयणं झाणं भावणा य का सबणासम्मि? ॥शा अन्नन्नो पइगासं भोत्ता अन्नोन्नंसोदिवि का तित्ती ? । गन्तादओपि एवं इय संवबहारवोच्छित्ती ॥२॥" अथ सन्तानाश्रयो व्यवहारः, सन्तानोऽपि सन्ता निभ्यः किं भिन्नो नवा?, यदि भिन्नो वस्तुसन्न वा ?, यदि न वस्तुसन्, किं तेन शशविषाणेनेव कल्पितेन ?, वस्तुसत्त्वेऽपि क्षणिकोऽक्षणिको वा?, यद्यक्षणिकरतेनैव प्रकृतानुमानन्यभिचारः, क्षणिकत्वे च तदयस्थैव व्यवहारविलुप्तिः, अथाभिन्नः, तथाहि-सदृशापरापरक्षणप्रबन्धः सन्तानः, स च सन्तानिन एव, तदसत्, यतः सर्वथोच्छेदे प्राम्भावित्वमेव कारणस्य कारणत्वं, तच विसदृशक्षणापेक्षयाऽपि समानमिति कथं सदृशक्षणस्यैवोत्पत्तिः ? येन तत्प्रवन्धः ॥१६॥ १ तृप्तिः श्रमः रामः सादृश्यं विपक्षः प्रत्ययादीनि । अध्ययनं ध्यानं भावना च का सर्वनाशे? ॥१॥ अन्योऽन्यः प्रतिप्रासं भोक्ताऽन्योज्य: का तृप्तिः । गन्नादयोऽप्येवमिति संव्यवहारव्युच्छित्तिः ॥ २ ॥२ अन्ते न सोऽपि (वि०) दीप अनुक्रम [९५]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~335. Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७०] प्रत सूत्रांक ||४६|| सन्तान उच्यते, अथ सदृशक्षणस्यैवोत्पत्तिदृष्टा, तर्हि वस्तु कथंचित् स्थितिमदपि दृष्टमिति तथैवास्तु, सजातीयेत-RAM रव्यावृत्तवस्तुवादिनां च न किञ्चित्तात्त्विकं सादृश्यम् , अतात्त्विकं च खपुष्पमिव न तत्त्वविचारोपयोगि, पूर्वापरविनि ठितकक्षणाभ्युपगमे च सन्तानिनोऽप्यसन्त एवेत्ययुक्तस्ततो भेदाभेदविचारः, अथ प्रायोगिकं विनाशमाश्रित्य भावानां विनाशनयत्यं साध्यते, तर्हि तस्य हेत्वन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वेनानपेक्षत्वमसिद्धम् , तथाहितक्किं विनाशहेतूनामसामर्थ्यादथ, पैवात्कृतकत्वे विनाशस्थापि विनाशप्रसङ्गतो वा ?, यद्यसामर्थ्यात्तत्ति विनाशस्य तुच्छरूपतया कर्तुमशक्यत्वेन वस्त्वन्तरोत्पादव्यापृतत्वेन वा ?, तत्राद्यपक्षे विनाशस्य तुच्छरूपत्वमसिद्ध, यतो जनानामुत्तरावस्थोत्पाद एवं पूर्वावस्थाप्रच्युतिर्नान्या, यदुक्तम्- "कपालानां तु उ(समु)त्पादः, स एव च घटव्ययः । अन्यो न दृश्यते नाशो, मध्ये कुम्भकपालयोः॥१॥" न चानयोरेकत्वे विरोधो, निमित्तभेदोदयत्वाद् , यदुक्तम्-"एकत्वेऽपि बिरुद्धत्वं, न चोत्पादविनाशयोः । निमित्तभेदभूतत्वान्नप्तृपुत्रपितृत्ववत् ॥ १॥" सिद्धे चैकत्वे |पूर्वविनाशाभूत एपोत्तरोत्पाद इत्यनयोस्तुल्य एव हेतुव्यापारः, ततो भावान्तरोत्पादच्यावृतत्वेनेसपि प्रत्युक्तम् , |उक्तं च-"अन्यदुत्तरसम्भूतिः, पूर्वनाशाविनाकृता । नाविनाश्य ततः पूर्व, प्रकुर्याद्धे तुरुत्तरम् ॥१॥" अथ वैय यत् खयं हि विनश्चरखभावो भाव इति किं तस्य विनाशहेतुना ?, नन्वेवं नाशखभावत्वाद्वस्तुन उत्पाद एव न|| स्यात् , नाशोत्पादयोर्विरुद्धत्वेन त्वयाऽभ्युपगतत्वाद् , अविरुद्धताभ्युपगमे वा जैनमतानुप्रवेशः, यदपि-कृत दीप अनुक्रम [९५]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~336~ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७०] प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. कत्वे विनाशस्थापि विनाशप्रसङ्ग इति, तदप्यत एव न दोपाय, तथाहि-कपालोत्पादस्यैव कपालत्वं, कपालोत्पा-चतरडीया दश्च कपालेभ्यो नान्य इति तेषामेव विनाशः, स चोभयसम्मत एव, न च कृतकेनावश्यं विनष्टव्यं, सम्यग्दर्शना- ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः । दिकृतत्वे सिद्धत्वादिपर्यायाणामविनाशित्वाद् , अविनाशित्वं च साद्यपर्यवसितत्वात्तेषाम् , उभये हि पर्यायाः-४ ॥१६॥ स्थिरा अस्थिराश्च, यदुक्तम्-"स्थिरः कालान्तरस्थायी, पर्यायोऽक्षणभङ्गुरः । क्षणिकश्च क्षणादूर्द्धमतिष्ठन्नस्थिरो मतः ॥१॥" ततश्च-यस्मान्नाशोऽपि जन्मेव, कादाचित्कः सहेतुकः। तस्मान्न सर्वथैवामी, भायाः क्षणविनश्वराः 5॥१॥ प्रयोगश्च-यत्कादाचित तत्सहेतुकं, यथोत्पादः, कादाचिकत्वं च विनाशस्य उत्पत्तिक्षणानन्तरमेव भावात् , समकालभावित्वे च विनाशामातत्वेनोत्पादाभावे सर्वशून्यतापत्तेः, इह विनाशस्य कादाचित्कत्वमापाद्य है तबलेन सहेतुकत्वमापादितं, तच्च परप्रसिद्धानेव हेतूनपेक्ष्य, खप्रसिद्ध्या तु न किञ्चिदहेतुकं नाम, द्रव्यादिचतुष्ट यापेक्षत्वेन सर्वस्य तद्धेतुकत्वात् , तत् प्रतिपद्यख पर्यायनयाजीकारतः कथञ्चिदुच्छेदि वस्तु, द्रव्यार्थिकनयाश्रय-14 पणाच कथञ्चिन्नित्यमिति, तथा च पूज्या:-"जमणंतपज्जवमयं वत्थं भवणं च चित्तपरिणामं । ठीतिभवभंगरूवं & णिचाणियाई तोऽभिमतं ॥१॥ सुखदुक्खवंधमोक्खा उभयनयमयाणुवतिणो जुत्ता। एगयरपरिचाए इय (ह) संवच १ यदनन्तपर्यायमयं वस्तु भवनं च चित्रपरिणामम् । स्थितिभवभङ्गरूपं नित्यानित्यानि ततोऽभिमतानि ॥ १॥ सुखदुःखबन्धमोक्षा उभयनयमतानुवृत्तेयुक्ताः । एकतरपरित्यागे इति (ह) संग्यवहारव्युच्छित्तिः ॥ २॥ दीप अनुक्रम [९५]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~337 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [५] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) निर्युक्ति: [१७०] अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| हारवोच्छिन्ती ॥ २ ॥ एवं प्रज्ञाप्यमानोऽपि यतो नेच्छति ततोऽसौ निहंबोत्ति णाऊण उग्घाडितो, सो समुच्छेयणवायं वागरंतो हिंडेति जहा- सुष्णो लोगो भविस्सति असम्भावभावणाहिं भाविंतो रायगिहं गतो, तत्थ | खंडरक्खा आरक्खिया समणोवासया, ते य सुंकवाला, ते य आगमिलिया, तेहिं मारिउमारद्धा, ताहे ते भीया भणंति-अम्देहिं सुयं जहा तुम्मे सहा तहावि एत्तिए असंजए संजए मारेह, ते भति-जे ते पञ्चइगा ते वोच्छिष्णा अन्ने चोरा या चारिया वा जाव सयमेव विणस्सिहिह, को तुम्मे विणासेति ?, तुब्भं चैव सिद्धंतो, जइ परं सामिस्स सिद्धतेण ते चैव तुम्भे, तेहिं चैव अम्हेहिं विणासेजह, जतो तं चैव वत्थु कालादिसामग्गिं पप्प पढमसमयिकत्तेण वोच्छिजइ दुसमयकत्तेण उप्पज्जति, एवमाइ, तिसमयणेरड्या बोच्छिज्जंति चउसमया उप्पज्जंति, एवं पंचसमयग १ निह्रव इति ज्ञात्वोद्घाटितः, स सामुच्छेदनवादं व्याकुर्बन हिण्डते, यथा-शून्यो लोको भविष्यति, असद्भावभावनाभिर्भावयन् राजगृहं गतः, तत्र खण्डरक्षा आरक्षकाः श्रमणोपासकाः, ते च शुल्कपालाः, ते च ज्ञातवन्तः तैर्मारयितुमारब्धाः, तदा ते भीता भणन्तिअस्माभिः श्रुतं यथा यूयं श्राद्धास्तथापीयतः असंयतान् ( इव) संतान मारयत, भणन्ति ये ते प्रब्रजितास्ते व्युच्छिन्ना अन्ये चौरा वा चारिका वा यावत् स्वयमेव चिनक्ष्यय को युष्मान् विनाशयति ?, युष्माकमेव सिद्धान्तः, यदि परं स्वामिन: सिद्धान्तेन त एव यूयं तैथे| वास्माभिर्विनाश्यन्ते यतस्तदेव वस्तु कालादिसामग्रीं प्राप्य प्रथमसामयिकत्वेन व्युच्छियते द्वितीयसामयित्वेनोत्पद्यते, एवमादि, त्रिसमयनै. रयिका व्युच्छिद्यन्ते चतुःसामयिका उत्पद्यन्ते, एवं पञ्चसमयगता Education intemational For Fans Only rg पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~338~ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [५] उत्तराध्य. बृहद्वृत्ति: ॥१६५॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) निर्युक्तिः [१७१] अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| यांवि, एत्थं सो वितिगिच्छंतो खणिगवायं पण्णवेइ, एत्थ ते संबुद्धा भणंति-इच्छामो अजो ! सम्मं पडिचोयणा एवमेवं तदृत्ति, एवं ते संवोहिया मुका खामिया पडिवण्णा य ॥ यथा गङ्गाद् द्विक्रियास्तथा चाहनइखेडजणव उल्लग महगिरि घणगुत्त अजगंगे य। किरिया दो रायगिहे महातवो तीरमणिनाप ॥ १७१ ॥ व्याख्या -क्षुण्णा ॥ १७१ ॥ सम्प्रदायश्चायम् सांमिस्स अट्ठवीसाई दोवाससयाई सिद्धिं गयस्स तो पंचमतो उप्पण्णो, उलुगा नाम गई, तीसे तीरे उल्लुगतीरं नगरं, बीए तीरे खेडत्थाम, (ग्रन्थाग्रम् ४०००) तत्थ महागिरीणं आयरियाणं सीसो धणगुत्तो नाम, तस्स सीसो गंगदेवो णाम आयरितो, सो पुषिमे तडे उल्लुगतीरे णयरे, आयरिया से अवरिमे तडे, ताहे सो सरदकाले आयरियं बंदतो उच्चलितो, सो य उवरितो खलीडो, तस्स उल्लुगं गई उत्तरंतस्स सा खली उण्हेण डज्झति, हेट्ठा य सीयलेण पाणिएण १ अपि अन स विचिकित्सयन् क्षणिकवाद प्रज्ञापयति, अत्र ते संबुद्धा भणन्ति - इच्छाम आर्य ! सम्यक् प्रतिचोदना, एवमेवं तथेति, एवं ते संबुद्धा मुक्ताः क्षामिताः प्रतिपन्नाञ्च । २ स्वामिनोऽष्टाविंशतिद्वे वर्षशते च सिद्धिगतात् वदा पञ्चम उत्पन्नः, उल्लूकानान्नी नदी, तस्यास्तीर उल्लुकतीरं नगरं, द्वितीये वीरे खेटस्थाम, तत्र महागिरीणामाचार्याणां शिष्यो धनगुप्तो नाम, तस्य शिष्यो गङ्गदेवो नामाचार्यः, स पौरस्त्ये तटे उल्लुकतीरे नगरे, आचार्यास्तस्य पाश्चात्ये तटे, तदा स शरत्काले आचार्याणां वन्दनाय उच्चलितः, स चोपरि खल्वाटः, तस्योल्लुकनदीमुत्तरतः सा खलतिरुष्णेन दृह्यते, अधस्ताच शीतलेन पानीयेन Education intemational For Fast Use Only चतुरङ्गीया ध्ययनम् ‍ ~339~ ॥१६५॥ ww पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [५] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [...] / गाथा ||४६...|| निर्युक्ति: [१७१] सीयं, ताहे सो चिंतेति- जहा सुत्ते भणियं-एगा किरिया बेइज्जति-सीया उसिणा वा, अहं दो किरियातो वेएमि, तो दो किरिथाओ एगसमएण वेहजंति, ताहे आयरियाण साह, तेहिं भणियं मा अजो ! पण्णवेहि, णत्थि एवं जं | एगसमएण दो किरिआओ बेइज्जंति, तथाहि तवाशयः -- तथा प्रतीयमानत्वात्तं श्वेततया यथा । यौगपद्येन किं नेष्टभुपयोगद्वयं तथा १ ॥ १॥ प्रयोगश्च -- यद्यथा प्रतीयते तत्तथाऽस्ति, यथा श्वेतं श्वेततया, प्रतीयते च यौगपद्येनोपयोगद्वयं नम्बत्र यौगपद्येनोपयोगद्वयप्रतीतिः किं क्रमानुपलक्षणमात्रेण यद्वैकत्रोपयुक्तस्यान्यत्राप्युपयोगनिश्चयेन ?, यदि क्रमानुपलक्षणमात्रेण, तदाऽनैकान्तिको हेतुः, उत्पलपत्र तथ्यतिभेदादिषु प्रतीयमानस्यापि यौगपद्यस्याभावात्, अथ तत्र सूच्याः सूक्ष्मत्वेनाशु सञ्चारित्वेन च समयादिगत एवं क्रमः, स च समयादिसौक्ष्म्यान लक्ष्यत इति यौगपद्याभिमानः, एवं सत्यत्रापि मनसोऽतीन्द्रियत्वेन सूक्ष्मत्वादत्यन्तास्थिरतयाऽऽशुसञ्चारित्वाच शिरश्चरणगतत्वगिन्द्रियदेशयोः | सञ्चरणक्रमः समयादिसौक्ष्म्यान्न लक्ष्यते, तत उपयोगयौगपद्याभिमान इत्यस्तु, उक्तं च- "सुईमासुचलं चित्तं "ति, तथा "समयादिसुद्दुमयातो मन्नसि जुगवपि भिण्णकालंपि । उप्पलदलसयबेहं व जह व तमलायचकंति ॥ १ ॥” १ शीतं, तदा स चिन्तयति यथा सूत्रे भणितम् एका क्रिया वेद्यते शीवा उष्णा वा, अहं द्वे क्रिये वेदयामि ततो द्वे क्रिये एकसमयेन वेयेते, तदा आचार्यान् कथयति, तैर्भणितं मा आर्य प्रज्ञापय, नास्त्येतत् यत् एकसमयेन द्वे क्रिये वेयेते । २ सूक्ष्ममाशुचलं चित्तमिति । ३ समयादिसौक्ष्म्यात् मन्यसे युगपदपि भिन्नकालमपि । उत्पलदलशतवेधमिव यथा वा तदलातचक्रमिति ॥ १ ॥ Education Intimational For Patenty www.janbay.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~340~ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७१] प्रत सूत्रांक ||४६|| % + उत्तराध्य.| किञ्च-यत्रेन्द्रियपञ्चकमपि सञ्चरन्मनोदुर्लक्षं, अत एव दीर्घा शुष्कां तिलशष्कुलिका भक्षयतो बुद्धस्य पञ्च ज्ञानानि चतुरङ्गीया समुत्पन्नानीति कैश्चिदुच्यते, तत्रैकेन्द्रियस्य देशान्मनः सञ्चरलक्षिष्यत इति दुराशयम् , इह च सञ्चरणमुपयोगगमनम् , ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः से अन्यथा शरीरव्यापिनः तस्य सञ्चारायोगात् , अथात्रानुमानसिद्धः क्रम इति योगपद्याभावः, तथाहि यत् क्रियावत् । ॥१६॥ तत् क्रमेणैव देशान्तरस्कन्दि, यथाऽऽदित्यः, क्रियावच सूच्यादि, इदमपि समानमत्रापि, यी दूरदेशी न तयोर्युगपदेकस्ख सञ्चारो यथा हिमवद्विन्ध्यशिखरयोदेवदत्तस्य, दूरदेशी च शिरश्चरणगतत्वगिन्द्रियदेशावित्यनुमानेन मनसःक्रमस-13 चारसिद्धेः, स्यादेतद्-आगमसिद्धमुपयोगयोगपचं, न'च सद् युगपन्मनसः सञ्चारं विनेति न मनसः क्रमसञ्चारसाधKI कानमानोत्थानम् , आगमसिद्धता चास्य बहुबहुविधादिग्राहित्वाभिधानेनावग्रहादीनामनेकग्रहणस्य तत्रोक्तत्वात् , तदभिधानाच युगपदनेकोपयोगताऽप्युक्तयेति, नन्बत्रानेकग्रहणं किं सामान्य विशेषाणां ग्रहणमपेक्ष्य केवलविशेषाणां वा?, न तावदाद्यः पक्षो यतोऽनुवृत्तिव्यावृत्तिरूपेण विलक्षणत्वं सामान्यविशेषाणां, तथा चाह-'य एकत्र ग्रहणपरिणामः स नान्यत्रे'ति कथं युगपत्सामान्यविशेषग्रहणम् ?, अथ द्वितीयः पक्षः, उक्तं हि-"विशेषाणां व्यावृत्तिरूपेणाविलक्षणत्वात युगपद्धहनामपि ग्रहणम् ,'तन्न, विरुद्धत्वादख, तथाहि-विशेषाश्चाविलक्षणाचेति परस्परविरुद्धं वचः अथ भिन्नेष्वपि विशेषेष्वभिन्न सामान्यमिति तद्रूपेण तेषां ग्रहणम् , इदमस्मदिष्टमेव, उक्तं च-"उसिणेयं सीयेयं ण ॥१६ विभागेणोवओगदुगमिटुं । होजा समदुगगहणं सामन्नं वेयणामेत्तं ॥१॥" न चैवमनेकग्रहणं युगपदनेकोपयो-1 १ उरुणेयं शीतेयं न विभागेनोपयोगद्वयमिष्टम् । भवेत् समकं द्विकाहणं सामान्य वेदनामात्रम् ॥ १॥ दीप अनुक्रम [९५]] wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~341 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७१] ॐ प्रत सूत्रांक ||४६|| गित्वाविनाभावि येन तदभिधानात्तदप्युक्तं भवेत् , तथा च पूज्या:-"बहुबहुविहाइगहणे णणूवओगबहुआ सुएऽभिFilहिया । तमणेगग्गहणं चिय उवओगाणेगया णत्थि ॥१॥” अथैकत्रोपयुक्तस्थान्यत्राप्युपयोगनिश्चयेनेति पक्षः, सो ऽपि न, यस्माद्यधन्यत्रोपयुक्तमपि मनोऽन्यत्राप्युपयुज्यमानं निश्चीयेत तदा क्वचित् व्याक्षिसमनाः पुरः सन्निहितप-14 दार्थान्तरेऽप्युपयोग लक्षयेत् , न चैवं, तदुक्तम्-"अन्नविणिउत्तमन्नं विणितोगं लहति जइ मणो तेणं । हत्यि ठियपि || पुरतो किमन्नचित्तो न लक्खेइ ? ॥१॥" ततश्च स्थितमेतत्-गोवहितचित्तस्य, नोपयोगो यथा गजे । शीतोपयुक्तचित्तस्य, नोपयोगस्तथाऽऽतपे॥१॥प्रयोगश्च-य एकत्रावहितचित्तो न सोऽन्यस्य ग्राहको, यथा गवाहितचित्तो हस्तिनः, शीतावहितचित्तश्च शीतवेदनाकाले जीवः, इत्थं संयुपयोगमाश्रित्योक्तं, सामान्येन तु-कारणं परिणाम्ये कोपयुक्तनिजशक्तिकम् । तदैवाशक्तमन्यस्मिन्नुपयुक्तं(योक्तुं) मृदादिवत् ॥१॥ प्रयोगश्च-यत्परिणामि कारणमेकत्रोपयुCक्तशक्तिकं न तदेव तदन्यत्रोपयुज्यते, यथा घटोपयुक्ता मृत् शरावादिष, शीतवेदनोपयुक्तश्च तत्काले जीवः, उक्तं च-४ "उवओगमतो जीवो उपउज्जइ जेण मि तं कालं । सो तम्मओपओगो होइ जहिंदोवओगम्मि ॥१॥ सो तदुका बहुबहुविधादिग्रहणे ननूपयोगबहुता श्रुतेऽभिहिता । तदनेकग्रहणमेव उपयोगानेकता नास्ति ॥ १ ॥ २ अन्यविनियुक्तमन्य विनियोग ४ लभते यदि मनसेन । हस्तिनं स्थितमपि पुरतः किमन्यचित्तो न लक्षयति ॥ १॥ ३ उपयोगमयो जीव उपयुज्यते येन यस्मिन् तस्मिन् । है काले । स तन्मयोपयोगो भवति ययेन्द्रोपयोगे ॥ १॥ स तदु 20 दीप अनुक्रम [९५]] * * पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~342 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७१] बृहदृत्तिः प्रत सूत्रांक ||४६|| . उत्तराध्य- ओगमेत्तोवउत्तसत्तित्ति तस्समंत्तो य । अत्यंतरोवओगं जाउ कहं केण वंसेण ? ॥२॥" एवं प्रज्ञाप्यमानोऽपि असह- चतुरङ्गीया हतो असम्भावभावणाए अप्पाणं परं उभयं च बुग्गाहेति, साहुणो पण्णवेति, परंपरेण सुर्य आयरिएहिं, वारिओ, ध्ययनम् हजाहे ण हाइ ताहे उग्घाडितो, सो हिंडतो रायगिहं गतो, महातकोतीरप्पभे पासवणे, तत्थ मणिणागो णाम ॥१६७॥ दाणागो, तस्स चेइए ठाइ सो, तत्थ य परिसामज्झे कहेति-जहा एवं खलु जीवा एगसमएण दो किरिया एंति, ताहे तेण णागेण तीसे चेव परिसाए मज्झे भणितो-मा एयं पण्णवणं पण्णवेहि, ण एसा पण्णवणा सुट्ट दुहुसेहा !, अहं एचिरं कालं वद्धमाणसामिस्स मूले सुणामि-जहा एगा किरिया वेदिजइ, तुमं विसिट्टतरातो जातो?, १. पयोगमात्रोपयुक्तशक्तिरिति तत्समाप्तश्च । अर्थान्तरोपयोग यातु कयं केन वांऽशेन ? ॥२॥२ तस्समं चेव (वि) । ३ अभधन | असद्भावभावनया आत्मानं परमुभयं च व्युदाहयति, साधून प्रज्ञापयति, परम्परकेण श्रुतमाचार्य:, वारितः, यदा न विष्वति तदो-18 द्घाटितः, स हिण्डमानो राजगृहं गतः, महातपस्तीरप्रभ प्रस्रवणं, तत्र मणिनागो नाम नागः, तरूप चैये तिष्ठति सः, तत्र च पर्षमध्ये कथयति-यवैवं खलु जीवा एकसमयेन द्वे किये वेदयन्ति, तदा तेन नागेन तस्या एव पैषदो मध्ये भणित:-मा एतां प्रज्ञापनां| ॥१६॥ प्रजिज्ञपः, नैषा प्रज्ञापना सुन्दरा दुष्टशैक्ष!, अहमियचिरं कालं वर्धमानस्वामिनः मूलेऽशृणव-यथैका किया वेचते, त्वं विशिष्टतरको जात: दीप अनुक्रम [९५]] %A4-%A54646 JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३], मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~343 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७२] प्रत सूत्रांक ||४६|| तो छह एवं वायं, मा ते दोसेण सेहामि, एयं ते ण सुंदर, भगवया एत्य चेव समोसरिएण यागरियं, एवं सो / पण्णवितो अभुवगतो, उवढिओ भणति-मिच्छामि दुक्कडं ॥ यथा षडुलूकात् त्रैराशिकानामुत्पत्तिस्तथाऽऽहपुरिमंतरंजि भुयगुह बलसिरि सिरिगुत्त रोहगुत्ते य । परिवाय पुट्टसाले घोसण पडिसेहगा वाए ॥१७॥ व्याख्या-स्पष्टा ॥ १७२ ॥ सम्प्रदायस्त्वयम्पंचसया चोयाला सिद्धिं गतस्स बीरस्स तो तेरासियदिट्ठी उप्पण्णा, अंतरंजिया णाम णयरी, तत्थ भूयगुहं णाम इयं, तत्थ सिरिगुत्ता नाम आयरिया ठिया, तत्थ बलसिरीणाम राया, तेसिं पुण सिरिगुत्ताणं थेराणं सही (सेहो)। य रोहगुत्तो नाम, सो पुण अन्नगामे ठियलतो, पच्छा तत्तो एति । तत्थ य एगो परिवायगो पोट्टं लोहपट्टेण बंधे-सी ऊण जंबुसाहं च गहाय हिंडति, पुच्छिओ भणति-णाणेणं पोट्टे फुट्टति, तो लोहपट्टेण बद्धं, जंबूसाला य जहा। | १ ततस्त्यजैनं वाद, मा तव दोषेण शिक्षयामि, एतत्तव न सुन्दरं, भगवताऽत्रैव समवसृतेन व्याकृतम्, एवं स प्रज्ञापितोऽभ्युपगतवान , उपस्थितो भणति-मिच्या मे दुष्कृतम् । २ पञ्चसु शतेषु चतुश्चत्वारिंशदधिकेषु सिद्धिं गताद्वीरान् तदा त्रैराशिकरष्टिरुत्पन्ना, अन्तरञ्जिका नाम नगरी, तत्र भूतगुह नाम चैत्यं, तत्र श्रीगुप्ता नाम आचार्याः स्थिताः, तत्र बलश्रीनाम राजा, तेषां पुनः श्रीगुप्तानां स्थविराणां शैक्षश्च रोहगुप्तो नाम, स पुनरन्यनामे स्थितः, पश्चात् तत आयाति । तत्र चैकः परिश्राद् उदरं लोहपटेन बदा जम्बूशाखां च गृहीत्वा हिण्डते, पृष्टो। भणति--ज्ञानेनोदरं स्फुटति, पत्तो लोहपट्टेन यज्ञ, जम्बूशाला च यथाऽत्र दीप अनुक्रम [९५]] Gaindiorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~3444 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७२] प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. एत्थं जंबूंदीचे णत्थि मम पडिवादी, ताहे तेण पडहतो णीणावितो, जहा सुण्णा परप्पवाया, तस्स य लोगेणं पोट- चतुरङ्गीया सालो णामं कयं, पच्छा तेण रोहगुत्तेण वारियं-मा पाएह पडहयं, अहं से वायं देमि, एवं सो पडिसेहिता गतोशाध्ययनम् बृहदृत्तिः आयरियाणं आलोएति, एवं मे पडहगो खोभितो, आयरिया भणंति-दुडु कयं, सो विजावलिओ वाए पराजिओ-12 ॥१६॥ |ऽवि विजाहि उट्टेति, आह च विच्छुय सप्पे मूसग मिगी वराही य कागि पोयाई। एयाहिं विजाहिं सो उ परिवायगो कुसलो ॥१७॥ प्र व्याख्या-मुगमा ॥ १७३॥ सो भणइ-किं सका एत्ताहे णिलोकिउं, ताहे तस्स आयरिया मातो विजातो सिद्धिलियातो दिति तस्स पडिवक्खामोरिय नउलि बिराली वग्घी सीही य उल्लुगि ओवाइ । एयाओ विजाओ गिण्ह परिवायमहणीओ॥१७॥ १ जम्बूद्वीपे नास्ति मम प्रतिवादी, तदा तेन पटहो दापितः यथा शून्याः परप्रवादाः, तस्य च लोकेन पोशालो नाम कृतं, पञ्चात्तेन || रोहगुप्तेन वारितं, मा वीवदः पटहम् , अहमेतस्मै वादं ददामि, एवं स प्रतिषिध्य गत आचार्वेभ्य आलोचयति, एवं मया पटहः क्षोभितः ॥१६॥ |आचार्या भणन्ति-दुष्ठ कृतं, स विद्यावलिको वादे पराजितोऽपि विद्याभिरुत्तिष्ठते, स भणति-किं शक्यमधुना निलातुं, तदा तस्मै आचार्या इमा विद्याः सिद्धा ददति तस्य प्रतिपक्षाः, दीप अनुक्रम [९५]] CHOO पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~345 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७४] प्रत SRDSRK- K सूत्रांक ||४६|| 4% व्याख्या-सुगमा ॥ १७४ ॥रयहरणं च से अभिमंतिऊण दिन्नं, जइ अन्नपि उठेति ततो रयहरणं भमाडेजाहि, अजज्जो होहि सि, इंदेणऽपि ण सक्का जेउं, तो एयातो विज्जातो गहाय गतो समं, भाणियं चणेणं-एस किं जाणति ?, एयस्सेच पुवपक्खो होउ, परिवायतो चिंतेति-एए णिउणा, अतो एयाण चेव सिद्धतं गेण्हामि, जहा मम दो रासी-जीवरासी अजीवरासी य, ताहे इयरेण तिन्नि रासी कया, सो जाणइ-जहा एएण मम सिद्धंतो गहितो, तेण तस्स बुद्धिं परिभूय तिन्नि रासी ठविया-जीवा अजीवा णोजीवा य, जीवा-संसारत्थाई अजीवा |-घडाई णोजीवा-घरकोलियाच्छिन्नपुच्छाई, दिटुंतो दंडो, जहा दंडस्स आदि मज्झो अगं च, एवं सवभावावि तिविहा, एवं सो तेण णिप्पिट्ठपसिणवागरणो कतो, ताहे सो परिवायगो रुहो विच्छुए मुयति, ताहे पडिमले मोरे | १ रजोहरणं च तस्मै अभिमन्य दत्तं, यद्यन्यदप्युत्तिष्ठते तवो रजोहरणं भ्रामयः, अजय्यो भविष्यसि, इन्द्रेणापि न शक्यो जेतुं, तत एता विद्या गृहीत्वा गतः सभा, भाणितं चानेन-एष किं जानाति ?, एतस्यैव पूर्वपक्षो भवतु, परित्राट् चिन्तयति-एते निपुणाः, अत एतेषामेव सिद्धान्तं गृहामि, यथा मम द्वौ राशी-जीवराशिरजीवराशिश्च, तदा इतरेण त्रयो राशयः कृताः, म जानाति-यथैतेन मम सिद्धान्तो गृहीतः, तेन तस्य बुद्धि परिभूय त्रयो राशयः स्थापिता:-जीवा अजीवा नोजीवान, जीवा:-संसारस्थादयः अजीवाः--घटादयः नोजीवाः गृहकोकिलाच्छिन्नपुच्छादयः, दृष्टान्तो दण्डो, यथा दण्डस्य आदिमध्यममं च, एवं सर्वभाषा अपि त्रिविधाः, एवं स तेन निष्पृष्टप्रश्नव्याककारणः कृतः, तदा स परिवाद रुष्टो वृश्चिकान मुञ्चति, तदा प्रतिमल्लान् मयूरान् %*5 O दीप अनुक्रम [९५]] 57% -Ste : % e पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~346 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७४] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||४६|| 4%CARXNE मुर्यद, तेहिं विच्छुएहिं हएहिं पच्छा सप्पे मुयइ, ताहे तेर्सि पडिघायए णउले मुयति, ताहे उंदरे तेसिं मजारे, चतुरङ्गीया ध्ययनम् ताहे मिगे तेसिं वग्घे, ताहे सूयरे तेर्सि सिंहे, ताहे कागे तेसिं उलूगे, ताहे पोयार्गि, पोयागी सउलिया, तीसे | संपाती-ओलावी, एवं जाहे ण तरइ ताहे गद्दभी मुका, तेण य सा रयहरणेण आहया, ताहे तस्सेब परिवायगस्सा ३ उरि छरित्ता गया, ताहे सो परिचायगो हीलिजंतो णिच्छूढो, एवं सो तेणं परिवायगो पराजितो, ताहे आगतो आयरियस्स सगासे, आलोएइ, ताहे आयरिएहिं भणियं-कीस ते उहिएण ण भणियं –णस्थि तिन्नि रासी, एयस्स बुद्धिं परिभूय मए पण्णविया, ता इयाणिपि गंतु भणादि, सो णेच्छति, मा उम्भावणा होहित्ति ण पडिसुणेइ, पुणो पुणो भणिओ भणइ-को व एत्थ दोसो, किं च जायं? जद तिण्णि रासी भणिया, अस्थि चेव तिन्नि १ मुथति, श्चिकेषु हतेषु पश्चात् सर्पान मुञ्चति, तवा तेषां प्रतिघाताय नकुलान् मुञ्चति, तदा मूषकान तेषां मार्जारान , तदा मगान् तेषां व्याघ्रान , तदा शुकरान तेषां सिंहान , तदा काकान् तेषामुलूकान , तदा शकुनिकाः, (पोताक्यः शकुनिकाः ) तास उल्ला(उला)वकान् , एवं यदा न शक्रोति तदा गर्दभी मुक्ता, तेन च सा रजोहरणेनाहता, तदा तस्यैव परिव्राजकस्योपरि हदित्वा गता, तदा स परित्राट् हील्यमानो निष्काशितः, एवं स तेन परिवाद पराजितः, तदा आगत आचार्यस्य सकाशे, आलोचयति, सदा आचार्यभणितं- ॥१६५ कथं त्वयोत्तिष्ठता न भणितं-न सन्ति त्रयो राशयः, एतस्य बुद्धिं परिभूय मया प्रज्ञापिताः, तत् इदानीमपि गत्वा भण, स नेच्छति, मा अपभ्राजना भूदिति न प्रतिशृणोति, पुनः पुनर्भणितो भणति-को वाऽत्र दोषः १, किं च जातं? यदि त्रयो राशयो भणिताः, सन्त्येव त्रयो दीप अनुक्रम [९५]] wwwjandiarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~347 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [५] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) निर्युक्ति: [१७४] अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| रासी, अज्जो ! असम्भावो तित्थयराण य आसायणा, तहावि ण पडिवज्जति, एवं सो आयरिएहिं समं संपलग्गो, ताहे आयरिया रायडलं गया, भांति - तेण मम सीसेण अवसिद्धंतो भणितो, अम्हं दुवे चेव रासी, इयाणिं सो विपडिवण्णो, तो तुन्भे अम्हं वायं सुणेज्जाह, तं पडिसुणंति, तत्थ रायसभाए मज्झे रण्णो पुरतो आवडियं ॥ ततस्तं श्रीगुप्तगुरुरवोचत् - भद्राभिधत्व, प्रत्युवाच - 'यस्मादजीववज्जीवान्नोजीवोऽपि विभिद्यते । तथैवाध्यक्षगम्यत्वादस्तु राशिश्रयं ततः ॥ १ ॥ प्रयोगश्च - यद्यतो विलक्षणं तत्ततो भिन्नं, यथा जीवादजीयो, विलक्षणश्च जीवान्नोजीवः, ततश्च जीवाजीवौ द्वौ नोजीवश्चेति राशित्रयसिद्धिः, गुरुराह— असिद्धोऽयं हेतुः, यस्माज्जीवन्नोजीवस्य वैलक्षण्यं लक्षणभेदेन देशभेदेन वा १, न तावलक्षणभेदेन जीवलक्षणानां स्फुरणादीनां त्वदभिमते नोजीवेऽपि जीवदेशे गृहलोकि (कोलि) कात्रुटितपुच्छा दावभेदेन दर्शनात्, नापि देशभेदेन स हि जीवात् पृथग्भावे भवेदन्यथा वा १, यदि पृथग्भावे स किं विश्रसातः प्रयोगतो वा १, विश्रसातश्चेत् पुद्गलानामिव नोजीवानां स्वतबटनविचन धर्मत्वेनान्यसम्बन्धि १ राशयः, आर्य ! असद्भावः तीर्थकराणां पाशातना, तथापि न प्रतिपद्यते, एवं स आचार्यैः समं संप्रलनः, तदा आचार्या राजकुलं गताः, भणन्ति तेन मम शिष्येणापसिद्धान्तो भणितः अस्माकं द्वावेव राशी, इदानीं स विप्रतिपन्नः, ततो यूयमस्माकं वादं शृणुव, तत् प्रतिशृणोति तत्र राजसभाया मध्ये राज्ञः पुरत आपतितं Education intol For Fans Only पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~348~ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७४] चतुरङ्गीया प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. नामन्यत्र सञ्चारतः सुखदुःखाद्यात्मधर्मसङ्कीर्णतापत्तिः, तदुक्तम्-"अह खंघो इव संघायभेयधम्मा स तोऽवि सबेसि । अवरोप्परसंचारे सुहाइगुणसंकरो पत्तो॥१॥" तथात्वे च कृतनाशाकृताभ्यागमो, अथ प्रयोगतस्तन्न, ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः KIअमर्त्तद्रव्यत्वादिभिर्नेभस इव जीवस्य खण्डशो विनाशयितुमशक्यत्वात् , तथात्वे वा सर्वेनाशादिदोषप्रसङ्गः, उक्तं च-[ ॥१७॥ "देवामुत्तत्ता कयभावादविकारदरिसणातो य । अविणासकारणेहि नभसोच न खंडसो णासो ॥१॥णासे य सबनासो जीवस्स ण सो य जिणमयचातो। तत्तो य अणिम्मोक्खो दिक्खावेफलदोसोय ॥२॥" किञ्च-अयं कुतो निश्चीयते ?, अथ गृहकोलिकाच्छिन्नपुळशरीरान्तराले जीवस्यासत्त्वात् , तदसत्त्वं च तदग्रहणात् , तर्हि तत्तदग्रहणमौदारिकशरी-|| दररूपेण सर्वथा वा ?, न तावदाद्यः पक्षो, यतो न जीवस्यौदारिकमेवैकं शरीरं येन तदग्रहणेन तदसत्त्वनिश्चयः स्यात् , द्वितीयपक्षे पुनरनैकान्तिकमग्रहण, दीपरश्मीनामिव मित्त्यादिकमन्तरेण विनौदारिकशरीरमशरीरस्य सूक्ष्मशरीरस्य वा सतोऽपि जीवस्याग्रहणात् , तथा चोक्तम्-"गज्झामोत्तिगयातो णागासे जह पदीवरस्सीतो। तह जीवलक्ख-4 दीप अनुक्रम [९५]] C4X4 ॥१७॥ क | १ अथ स्कन्ध इव संघातभेदधर्मा स तदापि सर्वेषाम् । अपरापरसंचारे सुखादिगुणसांकर्य प्राप्तम् ॥ १ ॥ २ अमूर्तद्रव्यत्वात् अक तकत्वात् अविकारदर्शनाच । अविनाशकारणत्वास नभस इव न खण्डशो नाशः ॥ १॥ नाशे च सर्वनाशो जीवस्य न स च जिनमतत्यागः । 18 ततश्चानिर्मोक्षो दीक्षावैफल्यदोषश्च ॥ २॥ ३ ग्राह्या मूर्तिगतत्वात् न आकाशे यथा प्रदीपरश्मयः । तथा जीवलक्ष पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~349 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [५] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) निर्युक्ति: [१७४] अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| णाई देहे ण तयंतरालंमि ॥ १ ॥ देहरहियं न गिण्हइ णिरतिसतो णातिसुडुमदेहं च । ण य से होइ विवाहा जीवस्स भवंतराले च ॥ २ ॥” अर्थान्यिथेति पक्षः, तत्र चापृथग्भूतोऽपि भिन्नदेश इति पुच्छादि नोजीवो जीवाद्विलक्षणः, उच्यते, इहापि पुच्छादेनोंजीवत्वं स्वल्पतरप्रदेशत्वेन समभिरूढन्याश्रयणेन वा ?, यद्यल्पतरप्रदेशत्वेन तदा पुच्छवत् शेषावयवानामेकैकशो नोजीवता अजीवावयवानां च नोअजीवतेति राशिवहुत्वम्, अथ यथा जीवाजीवानां बहुत्वेऽपि जात्याश्रयणात् न राशिबहुत्वं तथा तदेकदेशानामपि तथापि राशिचतुष्टयापत्तिः, उक्तं च- "एवं च रासतो ते ण तिष्णि चत्तारि संपसजंति । जीवा तहा अजीवा णोजीवा णोअजीवा य ॥ १॥" अथाभिन्नलक्षणत्वादजीवान्नोअजीवो न भिद्यते इति न दोषः, तर्हि तद्वदेव जीवान्नोजीवोऽपि न भेत्स्यतीति राशिद्वयसिद्धिः, यत्तु समभिरूढनया श्रयणेनेति तत्तन्मतानभिज्ञेनोक्तं, स हि जीवदेशं नोजीवमिच्छन्नपि न राशिभेदमिच्छति, सर्वन यानामपि चैकमत्य मन्त्रार्थे, सर्वनयमतत्वे च जिनमतस्य किमेकतरनयमतेन ?, तदुक्तम्, “ य रासिभेयमिच्छति तुमं व णोजीवमिच्छमाणोऽवि । अन्नोवि णतो णेच्छइ जीवाजीवाहियं किंचि ॥ १॥ इच्छउ व समभिरूढो देतं णोजीच मेगण १ णानि देहे न तदन्तराले || १ || देहरहितं न गृह्णाति निरतिशयः नातिसूक्ष्मदेहं च । न च तस्य भवति विबाधा जीवस्य भवान्तराल इव ||२|| २ एवं च राशयस्ते न त्रयश्चत्वारः संप्रसज्यन्ते । जीवास्तथा अजीवा नोजीवा नोअजीवाश्च ॥ १ ॥ ३ न च राशिभेदमिच्छति त्वमिव नोजीवमिच्छन्नपि । अन्योऽपि नयो नेच्छति जीवाजीवाधिकं किञ्चित् ॥ १ ॥ इच्छतु वा समभिरूढो देशं नोजीवमेकन For Funny janibrary org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~350~ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७४] प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. दि इयं तु । मिच्छत्तं संमत्तं सबनयमयावरोहेणं ॥२॥" ततश्च-सहाजीवेन तद्देशो, यथैको लक्षणक्यतः । सह जीवेनाचतुरङ्गाया ध्ययनम् बृहद्धृत्तिः तद्देशः, तथैको लक्षणैक्यतः॥१॥ प्रयोगश्च-यद्येनैकलक्षणं न तत्ततो भिन्नं, यथा अजीवानोअजीवः, एकलक्षणच नोजीवो जीवेनेति, एवं सम्यग् गुरुभिः सहोक्तिप्रत्युक्तिकया, जहा एगदिवसं तहा छम्मासा गया, ताहे राया भणइ ॥१७॥ ४-मम रज सीयति, ताहे आयरिएहि भणियं-इच्छाए मए एचिरं कालं धरितो, इताहे णं पासह कलं दिवसे आगते । समाणे णिग्गहामि, ताहे पभाए भणइ-कुत्तियायणे परिक्खिजउ, तत्थ सबदवाणि अस्थि, आणेह-जीवे अजीवे नोजीवेताहे देवयाए जीवा अजीवा दिन्ना, नोजीवे णस्थित्ति भणति, अजीवे वा पुणो देति, एवमादिगाणं चोयालसएण पुच्छाण णिग्गहितो, णयरे य घोसियं-जयइ महइ महा बद्धमाणसामित्ति, सो य निविसओ कओ.11 पच्छा णिण्हतोत्ति काऊण उग्घाडितो, छट्टतो एसो, तेण वेसेसियसुत्ता कया, छैउलूगो य गोत्तेणं, तेण छलूओत्ति १ विकं तु। मिध्यावं सम्यक्त्वं सर्वनयमतावरोधेन ||२|| २ यथैको दिवसस्तथा षण्मासा गताः, तदा राजा भणति-मम राज्यं सीदति, * तदाऽऽचार्भणितम्-इच्छया मयैतावचिरं कालं धृतः, अधुना पश्यत कल्ये दिवस आगते सति निगृहामि, तदा प्रभाते भणति-कुत्रिकापणे परीक्ष्यता, तत्र सर्वद्रव्याणि सन्ति, आनय-जीवान् अजीवान नोजीवान् , तदा देवतया जीवा अजीवा दत्ताः, नोजीवा न सन्तीति भणंति, अजीबान्वा पुनर्ददाति, एवमादिभिधतुश्चत्वारिंशदधिकशतेन पृच्छाभिनिगृहीत्तः, नगरे च घोषितं-जयति महातिमहान वर्धमानस्वामीति, स च निर्विषयः कृतः, पश्चान्निहव इतिकृत्वा उद्घाटितः, षष्ठ एषः, तेन वैशेषिकसूत्राणि कृतानि, षडुलूकश्च गोत्रेण, वेन षडुलक इति दीप अनुक्रम [९५]] 1 ॥१७॥ JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~351 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७४] प्रत सूत्रांक ||४६|| kokGESCORR" जातो, चोयालसयं पुण इम-तेण छ मूलपयत्था गहिया, तंजहा-दवगुणकम्मसामण्णविसेससमवाया, तत्थ दचं का Kाणवहा, तंजहा-पुढवी आऊ तेऊ वाऊ आगासं कालो दिसा जीवो मण, गुणा सत्तरस, तंजहा-रूवं रसो गंधो| फासो संखा परिमाणं पुहुत्तं संजोगो विभागो परतं अपरत्तं बुद्धी सुहं दुक्खं इच्छा दोसो पयत्तो, कम्मं पंचहाउक्खेवणं वक्खेवणं आउंदणं पसारणं गमणं च, सामण्णं तियिहं -महासामन्नं सत्तासामन्नं, सामन्नविसेससामण्णं । तत्र महासामान्यं षट्खपि पदार्थेषु पदार्थत्वबुद्धिकारि, सत्ता सामान्यं त्रिपदार्थसहुद्धिविधायि, सामान्यविशेषसामान्यं द्रव्यत्वादि, अन्ये तु ब्याचक्षते-त्रिपदार्थसत्करी सत्ता, सामान्यं द्रव्यत्यादि, सामान्यविशेषः पृथिवीत्वादिः, विसेसो एगविहो, एवं समवाओऽवि, अन्ने भणंति-सामन्नं दुविहं-परमपरं च, विसेसो दुविहो-अंतबिसेसो | १ जातः, चतुश्चत्वारिंशदधिकं शतं पुनरिदम्-तेन पट् मूलपदार्था गृहीताः, तद्यथा-द्रव्यं गुणः कर्म सामान्य विशेषाः समवायः, तत्र द्रव्यं नवधा, तद्यथा-पृथ्वी आपः वेजो वायुराकाशं कालो दिन जीवो मनः, गुणाः सप्तदश, तद्यथा-रूपं रसो गन्धः | स्पर्शः सङ्घया परिमाणं पृथक्त्वं संयोग विभागः परत्वमपरत्वं बुद्धिः सुखं दुःखमिच्छा द्वेषः प्रयत्नः, कर्म पञ्चधा-तत्क्षेपणमपक्षेपणमाकुधनं प्रसारणं गमनं च, सामान्य विविध महासामान्य सत्तासामान्य सामान्यविशेषसामान्य (च), विशेष एकविधः, एवं समवायोऽपि । | अन्ये भणन्ति-सामान्य द्विविध-परमपरं च, विशेषों द्विविध:--- अन्त्यविशेषश्च दीप अनुक्रम [९५]] JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~352 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| _ नियुक्ति: [१७४] प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्यय अणंतविसेसो य, एते छत्तीसं, एककमि चत्तारि विगप्पा, पुढवी अपुढवी नोपुढवी णोअपुढवी, एवमवादिष्वपि, चतुरङ्गीया तत्थ पुढविं देहत्ति मट्टिया देति, अपुढविं देहत्ति तोआइ, गोपुढबी देहति न किंचि देति, पुढविवइरित्तं वा पुणोध्ययनम् बृहद्वृत्तिः देह, नो अपुढर्षि देहित्ति न किंचि देति, एवं जहासंभवं विभासा ॥ स्थविराम गोष्ठमाहिलाः स्पृष्टमवद्धं प्ररूप॥१७२॥ यन्ति यथा तथाऽऽह दसपुरनगरुच्छुघरे अजरक्खिय पुसमित्ततियगं च । गुट्टामाहिल नव अट्ट सेसपुच्छा य विंझस्स १७५ व्याख्या-अस्याः संस्कारः सुकरः ॥ १७५ ॥ अर्थस्तु सम्प्रदायादवसेयः, स चावश्यकचूर्णिणतोऽवगन्तव्यः, नवरमिहोपयोगि किश्चिदुच्यते पंचसया चुलसीया तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स । अबद्धियाण दिट्टी, दसपुरनयरे समुप्पण्णा ॥१॥ ते देवि १ अनन्त्यविशेषश्च, एते पत्रिंशत् , एकैकस्मिंश्चत्वारों विकल्पा:-पृथ्वी अपृथ्वी नोटथ्वी नोअपृथ्वी, ततः पृथ्वी देहीति मृत्तिका * ददाति, अपृथ्वी देहीति सोयादि, नोपृथ्वी देहीति न किश्चिददाति, पृथ्वीव्यतिरिक्त का पुनर्ददाति, नोअपूथ्वी देहीति न किञ्चिरदाति, एवं यथासंभवं विभाषा ।२ पञ्च शतानि चतुरशीत्यधिकानि वदा सिद्धिगतात् वीरात् । अवद्धिकानां दृष्टिदशपुरनगरे समुत्पन्ना C ॥१॥ ते देवे दीप अनुक्रम [९५]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३], मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~353 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७५] 45 प्रत सूत्रांक ||४६|| देवंदिया रक्खिज्जा दसपुरं गया, महुराए अकिरियवाई उहितो, जहा पत्थि माया णस्थि पिया एवमादिणाहि यवादी, तत्थ संघसमयातो कतो, तत्थ पुण वादी णस्थि, ताहे इमेसि पयट्टियं, इमे य जुगप्पहाणा, ताहे आगया, ८ तेर्सि साहेति, ते य महल्ला, ताहे तेहिं गोठ्ठामाहिलो पयट्टिओ, तस्स य वायलद्धी अस्थि, सो गतो, सो तेण वाए पराजितो, सोऽपि ताव तत्थ सहेहिं आभट्ठो वरिसारते ठितो अच्छति, ततो आयरिया समिक्खंति, को ४ गणहरो हवेज्जा, ताहे दुब्बलियापूस्समित्तो समिक्खितो, जो पुण तेसिं सयणवग्गो सो बहुओ, तेसिं गोठामा-४ पहिलो वा फग्गुरक्खितो वा अणुमतो, गोटामाहिलो आयरियाण माउलओ, तत्थ आयरिया सबे सद्दाबित्ता दिट्टतं करेंति-णिप्फावकुडो तेलकुडो घयकुडो य, ते पुण हेट्टाहोसा कया णिप्फाचा सधे णेति, तेलमवि णेति १न्द्रवन्दिता रक्षितार्या दशपुरं गताः, मधुरायामक्रियावादी उत्थितः-यथा नास्ति माता नास्ति पिता एवमादिनास्तिकवादी, तत्र सङ्कसमवायः कृतः, तत्र पुनर्वादी नास्ति, तदाऽमीभ्यः प्रवर्तितम् , इमे च युगप्रधानाः, तदा आगताः, तेभ्यः कथयति, ते प महान्तः, तदा तैर्गोष्ठमाहिल: प्रेषितः, तस्य च वादलब्धिरस्ति, स गतः, तेन स वादे पराजितः, सोऽपि तावत्तत्र श्राद्धविज्ञप्तः वर्षाराने स्थितोऽभूत् , तत आचार्याः समीक्षन्ते--को गणधरो भवेत् ?, तदा दुर्बलिकापुष्पमित्रः समीक्षितः, यः पुनस्तेषां खजनवर्गः स बहुः, तेषां गोष्ठमाहिलो वा फल्गुरक्षिसो वाऽनुमतः, गोष्टमाहिल आचार्याणां मातुलः, तत्राचार्याः सर्वान् शब्दयित्वा दृष्टान्तं कुर्वन्ति-निष्पावकुटा तेलकुटो घृतकुटन, वे पुनरवारमुखीकता निष्पावाः सर्वे नियन्ति, तैलमपि निरेति 4%25582-% -15%258 दीप अनुक्रम [९५]] wajandiarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~354 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७५] ध्ययनम् प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. तत्थ पुण अवयवा लग्गति, घयकुडे बहुंचेव लग्गति, एवमेवाहमजो! दुबलियापूस मित्रं पइ सुत्तत्थतदुभएसुचतुरशीया बृद्धृत्तिः 1 णिप्फावकुडसमाणो जातो, फग्गुरक्खियं पति तेखकुडसमाणो, गोहामाहिलं पद घयकुडसमाणो, एवमेसी सुत्तेण अत्थेण य उववेतो तुम्भं आयरितो होउ, तेहिं सवं पडिच्छियं, इयरोऽपि भणितो-जहाऽहं वट्टितो ॥१७॥ फग्गुरक्खियस्स गोट्ठामाहिलस्स तहा तुम्भेहि वि वट्टियबं, ताणिवि भणियाणि-जहा तुम्मे ममं पट्टियाइंतहा एयस्सवि बट्टेजाह, अषिय-अहं कए वा अकए या ण रूसामि एस ण खमिहित्ति, एवं दोषि वग्गे अप्पाहेत्ता भत्तं पचक्खाय कालगया देवलोगं गया, इयरेणऽपि सुयं-जहा आयरिया कालगया, ताहे आगतो पुच्छइ-कोसी गणहरो ठवितो ?, कुडगदिदंतो य सुतो, ताहे वीसु पडिस्सए ठाइऊण पच्छा आगतो, ताहे तेहिं सोहि अभु १ तत्र पुनरवयवा लगन्ति, धृतकुटे बव लगति, एवमेवाहमार्या ! दुर्बलिकापुष्पमित्रं प्रति सूत्रार्थतदुभयेषु निष्पावकुटसमानो जातःल. फल्गुरक्षितं प्रति तैलकुटसमानः, गोष्ठमाहिलं प्रति घृतकुटसमानः, एवमेष सूत्रेणार्थेन चोपपेतो युष्माकमाचार्यों भवतु, तैः सर्व प्रती| सितम् , इतरोऽपि भणितो-यथाऽहं वृत्तः फल्गुरक्षिते गोधमाहिले तथा युष्माभिरपि वर्तितव्यं, तेऽपि च भणिताः-यथा यूयं मयि | ॥१७॥ वृत्तास्तथैतस्मिन्नपि वर्तयेत, अपि च-अहं कृते वा अकृते वा नारुपमेष न क्षमिष्यते इति, एवं द्वावपि वौँ संदिश्य भक्तं प्रत्याख्याय कालगता | देवलोकं गताः, इतरेणापि श्रुतं-यथाऽऽचार्थाः कालगताः, तदाऽऽगतः पृच्छति-को गणधरः स्थापितः ।,कुटदृष्टान्तश्च श्रुतः, तदा विष्वक्प्रतिभये |स्थित्वा पश्चादागतः, सदा वैः सर्वैरभ्यु दीप अनुक्रम [९५]] JAMERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~355 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७५] प्रत सूत्रांक ||४६|| द्वितो, इह चेव ठाह, ताहे णेच्छद, सोऽवि बाहिं ठितो अन्नाणि बुग्गाहेति, ताणि न सके । इतो य आयरिया अत्य-IN पोरिसिं करेंति, सोण सुणइ, भणइ-तुम्भेत्थ णिप्फावकुडा कहेह, तेसु उहितेस विंझो अणुभासति, अहमे कम्मप्पप्रवाए पुवे कम्म पण्णविजति, जीवस्स य कम्मस्स य कहं बंधो , तत्थ ते भणति-बद्धं पुढे णिकाईयं, बद्धं जहार सुइकलाबो, पुढे जहा घणणिरंतरातो कयाओ, णिकाईयं जहा तावेऊण पिट्टिया, एवं कम्मं रागदोसेहिं जीवो पढम बंधइ, पच्छा तं परिणाम अमुचंतो पुढे करेति, तेणेच संकिलिट्ठपरिणामेण तं अमुचंतो किंचि णिकाएति, णिकाईयं |णिरुवक्कम, उदएण णवरि वेइजइ, अनहा तंण घेइजति, ताहे सो गोहामाहिलो वारेति, एत्तियं ण भवति, अण्णयावि अम्हेहिं सुयं-जह एत्तियं कम्मं बद्धं पुढे णिकाचियं एवं भो मोक्खो ण भविस्सति, तो खाइ किह बज्झइ १, भणइ-सुणेह १त्थितः, इह चैव तिष्ठत्त, तदा नेच्छति, सोऽपि बहिःस्थितोऽन्यान व्युद्बाहयति, तान्न शक्नोति । इतश्चाचार्या अर्थपौरुषी कुर्वन्ति, स न शृणोति, भणति-यूयमत्र निष्पावकुटाः कथयत, तेपूस्थितेषु विन्भ्योऽनुभाषते, अष्टमे कर्मप्रवादे पूर्वे कर्म प्रज्ञाप्यते, जीवस्य च कर्मणश्च कथं बन्धः १, तत्र ते भणन्तिबद्धं स्पृष्टं निकाचित, बर्च यथा सूचीकलापः, स्पृष्ट यथा धनेन निरन्तराः कृताः, निकाचितं यथा तापयित्वा पिट्टिताः, एवं कर्मापि रागद्वेषाभ्यां जीवः प्रथमं बनाति, पश्चात्तं परिणामममुञ्चन् स्पृष्टं करोति, तेनैव संक्लिष्टपरिणामेन तममुञ्चन् किचिनिकाचयति, निकाचितं निरुपकमम् , उदयेन नवरे वेद्यते, अन्यथा तन्न वेद्यते, तदा स गोष्ठमाहिलो वारयति, एतावत् न भवति, अन्यदाऽप्यस्माभिः चर्त-ययेतावत् कर्म बद्धं स्पृष्टं निकाचितम् एवं भो मोक्षो न भविष्यति, तदा कथय कथं बध्यते, भणति-शृणुत *222-RAM दीप अनुक्रम [९५]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~356 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७६] बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. पुट्ठो जहा अबद्धो कंचुइणं कंचुओ समन्नेइ। एवं पुटुमबद्धं जीवं कम्मं समन्नेइ ॥ १७६ ॥ चतुरङ्गीया ध्ययनम् | व्याख्या-जहा सो कंचुकिणं पुरिस फुसति, ण उण सो कंचुओ सरीरेण समं बद्धो, एवं चेव कम्मपि पुटुं, णटू उण बद्धं जीवपएसेहिं समं, जस्स बद्धं तस्स कम्मसंसारवुच्छित्तीण भविस्सति, ताहे सो भणति-एत्तियं आय- ३ ॥१७॥ रिएहिं अम्हं भणियं, एसो ण याणति, ताहे सो संकितो समाणो पुच्छतो गतो, मा भए अन्नहा गहियं हवेज्जा, ताहे पुच्छिया आयरिया, तैरुक्तम्-यथा तस्यायमाशयः-यतो यद्धेत्स्यते तेन, स्पृष्टमात्रं तदिथ्यताम् । कञ्चकी कञ्चुकेनेव, दि कर्म भेत्स्यति चात्मनः ॥१॥ प्रयोगः-यद्येन भविष्यत्पृथग्भावं तत्तेन स्पृष्टमात्र, यथा कचुकः कथुकिना, भविष्यत्पृथ ग्भावं च कर्म जीवेन, अत्र प्रष्टव्योऽयम्-कञ्चुकवत्स्पृष्टमात्रता कर्मणः किमेकैकजीवप्रदेशपरिवेष्टनेन सकलजी|वप्रदेशप्रचयपरिवेष्टनेन वा ?, यद्येकैकजीवनदेशपरिवेष्टनेन तत्किमिदं परिवेष्टनं मुख्यमौपचारिकं वा ?, यदि मुख्य सिद्धान्तविरोधः, मुख्यं हि परिक्षेपणमेव परिवेष्टनम् , एवं च भिन्नदेशस्य कर्मणो ग्रहणं, सिद्धान्ते तु यत्राकाशदेशे | १ यथा स कथुकिन पुरुष स्पृशति, न पुनः स कञ्चकः शरीरेण समं बद्धः, एवमेव कर्मापि स्पृष्टं न पुनर्बद्धं जीवप्रदेशैः समं, यस्य | ॥१७॥ Kाबद्धं तस्य कर्मसंसारन्युनिकत्ती न भविष्यतः, तदा स भणति-एतावदाचारस्मभ्यं भणितम् , एष न जानाति, तदा स शङ्कितः सन्ला प्रच्छको गता, मा मयाऽन्यथा गृहीतमभविष्यत् (भूत), तदा पृष्ठा आचार्याः दीप अनुक्रम [९५]] JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~357 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७६] प्रत सूत्रांक ||४६|| व आत्मप्रदेशोऽवगाढः तेन तत्रैवावगाढं कर्म गृह्यते इत्युक्तम् , अत एवाह शिवशर्माचार्यः-"एगपएसोगाढं| ||सषपएसेहि कम्मुणो जोगं । गेण्डा जहुत्तहेऊ साईयमणाइयं वावि ॥ १॥" अथौपचारिकं यथा हि काकी कचद केनेवावष्टब्धवावृतश्च, एवं जीवप्रदेशा अपि कर्मप्रदेशरिति मुख्यपरिवेष्टनाभावेऽपि तेषां तत्परिवेष्टनमुच्यते, तर्हि स्फुटैवासादिष्टबन्धसिद्धिः, अस्माकमप्यनन्तकर्माणुवर्गणाभिरात्मप्रदेशानामुक्तरूपपरिवेष्टनस्यैव बन्धत्वेनेष्टत्वात्, आगमधात्र-“एगेमेगे आयपएसे अणंताणताहिं कम्मवग्गृहिं आवेढियपरिवेढियत्ति,' ततश्च विपर्ययसाधनाद्विरुद्धो हेतुः। सकलजीवप्रदेशप्रचयपरिवेष्टनेनेत्यस्मिन्नपि पक्षे भिन्नदेशकर्मग्रहणेन तथैव सिद्धान्तविरोधः, तथा तत्र बहिः प्रदेशबन्ध एवं कर्मणः सम्भवति, ततश्च मलस्खेव न तस्य भवान्तरानुवृत्तिः, एवं च पुनर्भवाभावः, सिद्धानां | वा पुनर्भवाऽऽपत्तिः, न च मलस्य शरीरेण स्पृष्टतया दृष्टान्तवैषम्यं, शरीरात्मप्रदेशानामन्योऽन्यमविभागेनावस्थाना , अन्यथा हि मृणालस्पर्शायनुभवाभावप्रसङ्गः, किश्च-इयं देहान्तः सातादिवेदना सनिबन्धना निर्निबन्धना वा १, निर्निवन्धना चेकिन सिद्धानामपि , सनिबन्धनत्वे च किं पयःपानादिष्टहेत कैव यद्वा कर्मनिवन्ध-18 नापि, यदाऽऽधः पक्षस्तर्हि बहिर्वेदनापि दृष्टा बाह्यहेतु कैवेति किं कर्मकल्पनया ?, अथ कर्महेतुकाऽपि तर्हि १ एकप्रदेशावगाढं सर्वप्रदेशैः कर्मणो योग्यम् । गृहाति यथोक्तहेतोः सादिकमनादिकं वाऽपि ॥१॥२ एकैक आत्मप्रदेशोऽन्तानन्ताभिः कर्मवर्गणाभिरावेष्टिवपरिवेष्टित इति ।। दीप अनुक्रम [९५]] wwjanmitrary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~358~ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७६] *% x प्रत सूत्रांक ||४६|| - %* -१० उत्तराध्य. तत्किं यत्रैव स्थितं तत्रैव वेदनानिवन्धनमुतान्यत्रापि ?, यदि तत्रैव तर्हि त्वन्मतेन बहिरेवैतदयस्थितमित्यन्तः साता-पितु बृहद्वृत्तिः दिवेदनोच्छेदप्रसङ्गः, अथान्यत्रापि तद्वेदनानिबन्धनं तर्हि किं नैकात्मस्थितं सर्वात्मखपि!, उक्तं च-"जइ वापिस विभिन्नदेसंपि वेयणं कुणइ कम्ममेवं ते । कह अन्नसरीरगयं ण वेयणं कुणति अन्नस्स? ॥१॥" तथा च कृतनाशाक॥१७५॥ ताभ्यागमप्रसङ्गः, अथ येनैव कृतं तस्यैव तन्निबन्धनं, तथापि पादवेदनायां शिरोवेदनाऽऽपत्तिः, अथ सञ्चारित्वातस्यान्तरप्यवस्थानमिति नान्तः सातादिवेदनोच्छेदप्रसङ्गः, एवं तर्हि न कशकतुल्यता, तस्य बहिरेव नियतत्वात् , युगपदुभयत्र वेदनाऽभावप्रसङ्गश्च, यथा च बहिःस्थमन्तःसञ्चारितया वेदनाहेतुरेवमन्तःस्थितं बहिःसञ्चारितया तद्धेतुरिति विपर्ययकल्पनाऽपि किं न ?, नियामकाभावात् , सञ्चारित्वे च कर्मणो वायोरिव न भवान्तरा-४ नुवृत्तिः, तदुक्तम्-"णे भवंतरमण्णेई सरीरसंचारतो तदणिलो च"त्ति, किञ्च-काञ्चनोपलयोरपि पृथग्भायोऽस्ति । ६वा न था ?, न तावन्नास्ति प्रत्यक्षतस्तद्दर्शनात्, अस्तित्वे च यथा भविष्यत्पृथग्भावित्वेऽपि तयोरविभागावस्थानेन स्पृष्टमात्रता तथा जीवकर्मणोरपि स्यात्, न च काञ्चनसत्व तत्र पूर्व नास्ति, चाकचिक्यदर्शनात्प्रत्यक्षतः, तथा यत्र यन्नास्ति न तस्य तत उत्पादः, सिकताभ्य इव तैलस्पेत्यनुमानतश्च तत्सिद्धेः, ततश्च–'यत्र यवेदनाहेतुः, कर्म ॥१७५।। १ यदि वाऽपि भिन्नदेशमपि वेदनां करोति कर्म एवं ते । कथमन्वशरीरगतं न वेदनां करोयन्यस्य ? ॥ १ ॥२ न भवान्तरमन्वेति द शरीरसञ्चारतस्तदनिल इव । 6 4- ***% दीप अनुक्रम [९५]] % पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~359 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७६] प्रत सूत्रांक ||४६|| तत्रस्थमेव तत् । सर्वत्र वेदनाहेतुः, कर्म सर्वत्रगं ततः ॥ १॥ प्रयोगच-यत्र यद्वेदनानिमित्तं कर्म तत्रस्थमेव तद् , अन्यथा दर्शितन्यायेनातिप्रसाद, वेदनाहेतुश्च सर्वत्रात्मप्रदेशेषु कर्म इत्याद्याचार्योकं तेणे गंतूण सिहं, एत्तिय भणियं आयरिएहि, एवं पुणरवि सो संलीणो अच्छइ, समप्पर ततो खोभेहामि । अन्नया णवमे पुबे पञ्चक्खाणे साहूणं जावजीवाए तिविहं तिविहेण पाणातिवायं पञ्चक्खामि, एवं पञ्चक्खाणं वणिज्जइ, ताहे सो भणति|अवसिद्धंतो, ण होति एवं पुण, कहं कायचं ?, सुणेह-. | पच्चक्खाणं सेयं अपरिमाणेण होइ कायवं । जेसिं तु परीमाणं तं दुद्रं होई आसंसा ॥ १७७॥ व्याख्या-सवं पञ्चक्खामि पाणाइवायं अपरिमाणाए तिविहं तिविहेणं, एवं सवं आवकहियं, किं निमित्तं परिमाणं न कीरति !, जो सो आसंसादोसो सो णियत्तितो भवति, जावजीवाए पुण भणतेण परिमाणेण अभुवगयं भवति, जहाऽहं हणिस्सामि पाणाई, एतनिमित्तं अपरिमाणाए काय ॥ स चैवं वदन्विन्ध्येनाभिदधे-यथाऽयं तेन गत्वा शिष्टम्-एतावत् भणितमाचाथैः, एवं पुनरपि स सलीनस्तिष्ठति, समाप्यतां ततः क्षोभयिष्यामि । अन्यदा नवमे पूर्वे प्रत्याख्याने साधूनां यावनीवतया त्रिविधं त्रिविधेन प्राणातिपातं प्रत्याख्यामि, एतत् प्रत्याख्यानं वर्ण्यते, तदा सभणति-अपसिद्धान्तः, न भवत्येवं पुनः, कथं कर्तव्यं ?, Nणुत । सर्व प्रत्याख्यामि प्राणातिपातमपरिमाणतया त्रिविधं त्रिविधेन, एवं सर्व चावकथिकं, किं निमित्तं परिमाणं न क्रियते', यः स आशंसादोषः स निवत्तितो भवति, यावनीवतया पुनर्भणता परिमाणेनाभ्युपगतं भवति, यथाऽहं हानिच्यामि प्राणादीन् , एतन्निमित्तमपरिमाणेन कर्त्तव्य SAXAXESS दीप अनुक्रम [९५]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~360 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [५] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१७६॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| निर्युक्ति: [१७७] | भवदाशयः -- सावधि स्यादभिष्वनि, रहिणामित्वरं यथा । प्रत्याख्यानं तथा चेदं यावज्जीवं यतेरपि ॥ १ ॥ प्रयोगः- यत्परिमाणवत् प्रत्याख्यानं तत्साभिष्वङ्गं यथा गृहिणामित्वरप्रत्याख्यानं, परिमाणवच यतेरपि यावज्जीवं सर्वसावद्यप्रत्याख्यानमित्ययमनैकान्तिको हेतुः, तथाहि -किमत्र परिमाणवत्त्वमात्रेण साभिष्वङ्गता साध्यते उत आशंसयाऽपि १, प्रथमपक्षे किं यतेरद्धाप्रत्याख्यानमस्ति न वा १, यद्यस्ति किं पौरुष्यादिपदोपेतमितरथा वा १, यदि पौरुष्यादिपदोपेतं किं न परिणामवत्त्वेन साभिष्वङ्गता ?, अथ न समतास्थितत्वात् तर्हि परिमाणवत्त्वमनैकान्तिकम्, अथानभिमतमेव तत्र पौरुष्यादिपदोपादानम्, एवं सति प्रत्रज्यादिन एवानशनापत्तिः तथा च "गिप्फादिया य सीसा दीदो परिवालितो य परियातो' इत्याद्यागमविरोधः, न चाद्धाप्रत्याख्यानं नास्त्येव यतेरिति पक्षः, 'अणोगतमइकंत' इत्यागमेन तस्याभिधानात् द्वितीयपक्षे तु नैवमस्याशंसा – यथा भवान्तरे सावद्यमहं सेविष्ये, येन साभिष्वङ्गता स्यात्, यदपि यावज्जीवेति पदोचारणं तदपि व्रतभङ्गभयादेव तदुक्तम् - "वयंभंगभयाउ थिय जावजीवंति णिहिं" किञ्च परिणामवत्त्वेन साभिष्वङ्गतां साधयतस्तवाकूतमपरिमाणं प्रत्याख्यानमिति, तत्र च नत्रा परिमाणाभावमात्रमुच्यते वस्त्वन्तरविधिर्वा ?, यदि परिमाणाभावमात्रं तदा तस्याभिष्वङ्गहेतुत्वेनैव निषेधः, तद्धेतुत्वं १ निष्पादिताश शिष्याः दीर्घः परिपालिता पर्यायः २ अनागतमतिक्रान्तं । ३ प्रतभङ्गभयादेव यावज्जीवमिति निर्दिष्टम् ॥ Education intimatio For Fans Only चतुरङ्गीया ध्ययनम् ~361~ ॥१७६॥ www.ncbrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४३ ], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७७] प्रत सूत्रांक ||४६|| च तस्यानकान्तिकमनन्तरमेवोक्तमिति किं तनिषेधेन', अब वस्त्वन्तरविधिस्तत्र वस्त्वन्तरं शक्तिरनागताद्धा वा?, यदि शक्तिस्तत्र किं यावच्छक्तिस्तावन्मम प्रत्याख्यानम् अथ यावति विषये शक्तिस्तावतीति ?, प्रथमपक्षे शकनक्रियापरिमाणपरिमितत्वात् प्रत्याख्यानस्य परिमाणवत्वमेवोक्तं भवतीति खवचनविरोधः, प्रत्याख्यानानवस्था चैवं, शक्तेरनियतत्वात् , तथा चातीचारासत्त्वं, तदसत्त्वे च प्रायश्चित्ताभावः, द्वितीयपक्षे तु प्राणवधाद्यन्यतरविरतावपि दिसंयतत्वापत्तिः, शक्त्यपेक्षत्वात्तद्धेतुप्रत्याख्यानस्य, उक्तं च-"एत्तियमेची सत्तित्ति णातियारो ण यावि पच्छित्तं । ण|| य सन्वव्वयनियमो एगेण य संजयत्तन्ति ॥१॥" अथानागताद्धा तत्रापि किं भावः प्रस्थाण्यानं ग्यजन या,न तावद् व्यजन खनादावपि तदुबारणे प्रत्याख्यानप्रसङ्गात् प्रमादतः शक्तिवैकल्यतो वा व्यञ्जनस्खलने तदभावाप-12 दत्तेच, ततः प्रथमपक्ष एवावशिष्यते, तत्र च सदा सावधमहंन सेविष्ये इति तस्य भाव उत कदाचिदिति ?, यदि आद्यपक्षस्तदा मृतस्यापि तत्सेवायामपरिपूर्णप्रतिज्ञत्वेन प्रतभङ्गप्रसङ्गः, तथा सिद्धानामपि संयतत्वापत्तिः, सकला-IN नागताद्धाप्रत्याख्यानधारित्वात् । एवं च 'सिद्धे नो चारित्ती नो अचारित्ती' इत्यागमविरोधः, अथ द्वितीयपक्षस्तत्र किं यथा भावस्तथा व्यअनमथान्यथा ?, यदि यथा भावस्तथा व्यञ्जनम् एवं सति विज्ञातविषयादेरेव प्रसाख्यान १ एतावन्मात्रा शक्तिरिति नातीचारो न चापि प्रायश्चित्तम् । न च सर्वव्रतनियम एकेनापि संयतत्वमिति ॥१॥२ सिद्धा नो चारित्रिणो नो अचारित्रिणः ॥ . . . Rock-969SADSSSkOSTS दीप अनुक्रम [९५]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~362 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [५] उत्तराध्य. वृहद्वृत्तिः ॥ १७७॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [...] / गाथा ||४६...|| निर्युक्ति: [१७७] मन्यथा तद्भङ्गप्रसङ्गः, ततश्च जीवन्नहं सावद्यं न सेविष्ये मृतस्य तु कर्मोदयखाभाव्यादवश्यं भाविन्यविरतिरित्ययमेव तस्य भावः तथा च यथाभावं व्यञ्जनोचारणे बलादापतितं यावज्जीवेति, तथा च जीवनावधित्वादपरिमाणत्वहानिः, अन्यथा व्यञ्जनोचारणमिति पक्षे च परिस्फुटैव मृषाभाषिता, ज्ञात्वा अन्यथाभिधानात् उक्तं च- "जो पुण अव्ययभावं मुणमाणोऽवस्सभाविणं भणति । वयमपरिमाणमेवं पथक्खं सो मुसाबाई ॥ १ ॥ " ततश्च- 'नाशंसातो यतस्तस्य, यावज्जीवेति पठ्यते । किन्तु भङ्गभयादेव, तस्मादस्तु यथास्थितम् ॥ १ ॥ प्रयोगश्च यत्र नाशंसा न | तत्सावधित्वेऽपि साभिष्वङ्गं, यथा कायोत्सर्गो, न विद्यते च यतिप्रत्याख्याने यावज्जीवेति पदेऽप्याशंसेति, इत्यादि जहां आयरिएहिं भणियं तहा सबै भणति, जहा एत्तियं भणियं आयरिएहिं जेऽवि अन्ने थेरा बहुस्सुया अन्नगच्छेला तेऽवि पुच्छिया, एत्तियं चैव भणंति, ताहे भणति-तुम्भे किं जाणह ?, तित्थयरेहिं एत्तियं भणियं, तेहिं भणियं-तुमं न जाणसि, जाहे ण ट्ठाइ ताहे संघसमवातो कतो, देवयाए काउस्सग्गो कतो, जा सहिया सा १ यः पुनरव्रतभावं गुणम् अवश्यभाविनं भणति । व्रतमपरिमाणमेवं प्रत्यक्षं स मृषावादी ॥ १ ॥ २ यथा आचार्यैमेणितं तथा सर्वे भणन्ति, यथैतावद्भणितमाचार्यै:, येऽपि अन्ये स्थावरा बहुश्रुता अन्यगच्छीयास्तेऽपि पृष्टाः, एतावदेव भणन्ति, तदा भणति-यूयं किं जानीथ ?, तीर्थकरैरेतावत् भणितं, तैर्भणितं त्वं न जानीषे यदा न तिष्ठति तदा संघसमवायः कृतः, देवतायै कायोत्सर्गः कृतः, या श्राद्धा सा Education Intimation For Use Only चतुरङ्गीया ध्ययनम् ३ ~ 363~ ॥ १७७॥ www.ncbrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४३ ], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७७] प्रत सूत्रांक ||४६|| || आगया, भणइ-संदिसहत्ति, ताहे भणिया-वच तित्थयरं पुच्छ, किं ?, जं गोठ्ठामाहिलो भणइ तं सचं ?, दुचनालियाप्पमुहो संघो ज भणइ तं सचं, ताहे सा भणति-मम अणुबलं देह, काउस्सग्गो दिनो. ताहे सा गया.IN तित्थयरो पुच्छितो, तेहिं बागरियं-जहा संघो सम्मावाई, इयरो मिच्छावादी, निण्हवो एस सत्तमो, ताहेक आगया, भणिो -ओस्सारेह, संघो सम्मावादी, एस मिच्छावादी निण्हवो, ताहे सो भणति-एसा अप्पिहिया वराई, का एयाए सत्ती गंतूण १,तीसेऽपि ण सद्दहति, ताहे पूसमित्ता भणंति-जहा अज्जो। पडिवजउ, मा उग्घाडिजिहिसि, णेच्छति, ताहे सो संघेणं बज्झोकतो बारसविहेणं संभोएणं, तंजहा-'उबहि १ सुय २ || भत्तपाणे ३ अंजलीपग्गहे ति य ४। दायणा य ५ णिकाए य ६ अब्भुट्ठाणेत्ति आवरे ७॥१॥ किकम्मस्स य १ आगता, भणति-संदिशतेति, तदा भणिता गच्छ तीर्थकरं पृच्छ, किम् !, यगोष्ठमाहिलो भणति तत्सत्यम् । दुईलिकाप्रमुखः संघो यद्भणति तत्सत्यम् ?, तदा सा भणति–मानुबलं दत्त, कायोत्सगों दत्तः, तदा सा गता, तीर्थकरः पृष्टः, ताकृतं-यथा सङ्घः ६ सम्यग्वादी, इतरो मिथ्यावादी, निद्वव एष सप्तमः, तत आगता, भणित:-उत्सारयत, संघः सम्यग्वादी, एष मिथ्यावादी निहवः, तदा स भणति-एषाऽल्पर्द्धिका बराकी, कैतस्याः शक्तिर्गन्तुं ?, तस्या अपि न श्रद्दधाति, तदा पुष्पमित्रा भणन्ति-यथा आर्य ! प्रतिपद्यता, मा उघाटिप्ताः, नेच्छति, तदा स संघेन बायः कृतो द्वादशविधात् संभोगात्, तद्यथा-उपधिःश्रुतं भक्तपाने अञलिपग्रह इति च । दानं च। |निकाचना च अभ्युत्थानमिति चापरम् ॥ १॥ कृतिकर्मणश्च करणे दीप अनुक्रम [९५]] NCR x पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~364 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥४६॥ दीप अनुक्रम [५] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१७८॥ * [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| निर्युक्ति: [१७८] करणे ८ बेयवचकरणे इय ९ । समोसरणसन्निसेवा १० कहाए य ११ निमंतणा १२ ॥ २ ॥ एस वारसविहो, सत्तरमेतो जहा पंचकप्पे ॥ इत्युक्ता अल्पतरविसंवादिनो निहवाः, प्रसङ्गत एव बहुतरविसंवादिनं वोटिकमाह - रहवीरपुरं नयरं दीवगमुजाण अज्जकण्हे अ । सिवभूइस्सुवहिंमि पुच्छा थेराण कहणा य ॥ १७८ ॥ व्याख्या - अक्षरार्थः सुगमः ॥ १७८ ॥ भावार्थस्तु सम्प्रदायादवसेयः, स चायम्- एहिं णवोत्तरेहिं सिद्धिं गयस्स वीरस्स । तो बोडियाण दिट्ठी रहवीरपुरे समुप्पन्ना ॥ १ ॥ तेणं कालेणं तेणं समयेणं रहवीरपुरं कञ्वडं, तत्थ दीवगं णाम उज्जाणं, तत्थ अज्जकण्हा आयरिया समोसढा । तत्थ एगो सिवभूई णाम साहस्सिमलो, सो रायाणं उबगतो, तुमं ओलग्गामित्ति, जा परिक्खामित्ति, रायाए अन्नया भणितो वच माइघरे सुसाणे किण्हचउद्दसीए बलिं देहि, सुरा पसुतो दिन्नो, अन्ने य पुरिसा भणिया- एयं बीहाविज्जाह, १ वैयावृत्यकरण इति । समवसरणसन्निपया कथा च निमत्रणा ||२|| एष द्वादशविधः, सप्तदशभेदो यथा पञ्चकल्पे । २ पट्सु वर्षशतेषु नवोत्तरेषु सिद्धिं गत्तात् वीरात् । तदा बोटिकानां दृष्टी रथवीरपुरे समुत्पन्ना ||१|| तस्मिन् काले तस्मिन् समये रथवीरपुरं कर्बटं, तत्र दीपकं नामोद्यानं, तत्र आर्यकृष्णा आचार्याः समवसृताः । तत्रैकः शिवभूतिनामा सहस्रमलः, स राजानमुपगतः, स्वामवलगामीति यावत्परीक्ष इति, राज्ञाऽन्यदा भणित:- वज मातृगृहे श्मशाने कृष्णचतुर्दश्यां बलिं देहि, सुरा पशुच दत्तौ, अन्ये च पुरुषा भणिताः - एनं भापयध्यं, Education intimational For Fre चतुरङ्गीया ध्ययनम् ३ ~365~ ॥१७८॥ g पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति : [१७८] प्रत सूत्रांक ||४६|| सो गंतूण माइबलिं दाऊण छुहिओमित्ति तत्थेव सुसाणे तं पसुं पओलित्ता खाइ, ते य गोहा सिवारसिपहि समंता भैरवं रवं करेंति, तस्स रोमुम्भेओऽवि न कज्जा, तआ अभुडिओ गतो, तेहिं सिटुं, वित्ती दिन्ना । अन्नया सो राया दंडे आणवेति-जहा मडुरं गेण्हह, ते सबबलेणं उद्धाईया, ततो अदूरसामंतेणं गंतूण भणंति-अम्हे ण पुच्छियं-कयरं महुरं वचामो, राया व अविण्णवणिजो, ते गुंगुयंता अच्छंति, सियभूई आगतो भणति कि भो ! अच्छह ?, तेहिं सिटुं, तो भणति-दोऽवि गिण्हामो समं चेच, ते भणंति-ण सका, दो भागिएहिं एकेतुकाए बहू कालो होतित्ति, सो भणति-जं दुज्जयं तं मम देह, भणितो जा णिजाइ, भणइ-सूरे त्यागिनि विदुषि च बसति जनः स च जनाद्गुणी भवति । गुणवति धनं धनाच्छी श्रीमत्याज्ञा ततो राज्यम् ॥१॥ एवं भणित्ता १ स गत्वा मातृबलि दत्त्वा बुभुक्षितोऽस्मीति तत्रैव श्मशाने तं पशु पक्त्वा खादति, ते च पुरुषाः शिवारसितैः समन्ताद्धैरवं वं कुर्वन्ति, तस्य रोमोद्भेदोऽपि न क्रियते, तदाऽभ्युत्थितो गतः, तैः शिष्टं, वृत्तिर्दत्ता । अन्यदा स राजा दण्डिकान् आशापयति-यथा|| 18मधुरां गृहीत, ते सर्वचलेनोवाषिताः, ततोऽदूरसामन्ते गत्वा भणन्ति-अस्माभिर्न पृष्टं-कतरां मथुरां प्रजामः, राजा चाविज्ञप्यः, ते ४ ८ कान्दिशीकास्तिष्ठन्ति, शिवभूतिरागतो भणति-कि भोस्तिष्ठत ?, तैः शिष्टं, ततो भणति-रे अपि गृहीमः समकमेव, ते भणन्ति-न शक्ये, द्विभागिकैः एकैकस्याः (महणे) बहुः कालो भवतीति, स भणति-या दुर्जया तो मह्यं दत्त, भणितो यावनिर्याति, भणति-एवं भणित्वा दीप अनुक्रम [९५]] KC पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~366~ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७८] बृहद्भुत्तिः प्रत सूत्रांक ||४६|| उत्तराध्य. पहावितो पंडुमहुरंतेणं, तत्व पञ्चंताणि ताविउमारद्धो, दुग्गे ठितो, एवं ताव जाव णगरसेसं जायं, पच्छा णग- चतुरङ्गीया रमवि गहियं ओवइत्ता, ततो णिवेइयं तेण रण्णो, तुटेण भणियं-किं देमि?, सो चिंतियं भणति-जं मए ध्ययनम् गहियं तं सुगहिय, जहिच्छतो भविस्सामि, एवं होउत्ति । एवं सो य बाहिं चेय हिंडतो अडरत्ते आगच्छति । ॥१७९॥ वाण वा, तस्स भज्जा ताव ण जेमेइ सुयति या जाव णागतो भवति, सावि णिविण्णा । अन्नया मायरं सा वडे ति-तुम्ह पुत्तो दिवसे २ अहुरत्ते एति, अहं जग्गामि, छुहातिया अच्छामि, ताहे ताए भणइ-मा दारं देजाहि, अहं अज जग्गामि, सो दारं मम्गति, इयरीय अंबाडितो, भणितो य-जत्थ इमाए बेलाए उग्घाडियाणि तत्थ वच, तस्स भवियवयाए तेण मग्गंतेण उग्घाडितो साहुपडिस्सतो दिवो, तत्थ गतो, वंदति, भणइ-पवावेह मए,४ । १ प्रधावितः पाण्डुमधुराध्वना, तत्र प्रत्यन्तांस्तापयितुमारब्धः, दुर्गे स्थितः, एवं तावद्यावत् नगरशेषं जातं, पश्चान्नगरमपि गृहीतमवतीर्व, ततो निवेदितं तेन राज्ञे, तुष्टुन भणितं- किं ददामि ?, स चिन्तितं (चिन्तयित्वा) भणति-यन्मया गृहीतं तत्सुगृहीतं, यादृच्छिको भविहयामि, एवं भवत्विति । एवं स च बहिरेव हिण्डमानोऽर्धरात्र आगच्छति वा न वा, तस्य भार्या तावन्न जेमति स्वपिति वा यावन्नागतो भवति,४ साऽपि निर्विण्णा । अन्यदा मातरं सा कलहयति-युष्माकं पुत्रो दिवसे दिवसे अर्धरात्रे आयाति, अहं जागर्मि, क्षुधा" तिष्ठामि, तदा तया भण्यते-मा द्वारं दाः, अहमद्य जागर्मि, स द्वारं मार्गयति, इतरया निर्भसितः, भणितश्च-यत्रास्यां वेलायामुद्घाटितानि (द्वाराणि)* तत्र व्रज, तस्य भवितव्यतया तेन मार्गयता उद्घाटितः साधुप्रतिश्रयो दृष्टः, तत्र गतो, वन्दते, भणति-प्रप्राजयत मां, दीप अनुक्रम [९५]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~367~ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७८] प्रत सूत्रांक ||४६|| नेच्छंति, सयं लोओ कतो, ताहे से लिंग दिन्नं, ते विहरिया । पुणोऽवि आगयाणं रण्णा कंबलरयणं से दिन्नं, आय-13 INIरिएण-किं एएग जईणं, किंगहियंति भणिऊण तस्स अणापुच्छाए फालियं, णिसेजातो कयातो, ततो स कसा इतो । अण्णया जिणकप्पिया वण्णिजंति जहा-जिणकप्पिया य दुबिहा पाणीपाया पडिग्गहधरा या पाउरणम-12 पाउरणा एकेका ते भवे दुविहा ॥१॥ इत्यादि, सो भणइ-किं एस एवं ण कीरद, तेहिं भणियं-एस वोविच्छिन्नो, ममं ण वोच्छिज्जइत्ति सो चेव परलोगस्थिणा काययो । तत्रापि सर्वथा निष्परिग्रहत्वमेव श्रेयः, सूरिमिरु तम्-धर्मोपकरणमेवैतत्, न तु परिग्रहस्तथा ॥ जन्तवो बहवस्सन्ति, दुर्दर्शा मांसचक्षुषाम् । तेभ्यः स्मृतं दयार्थ तु, रजोहरणधारणम् ॥१॥ आसने शयने स्थाने, निक्षेपे ग्रहणे तथा । गात्रसङ्कुचने चेष्टं, तेन पूर्व प्रमार्जनम् ॥२॥ तथा-सन्ति सम्पातिमाः सत्त्वाः, सूक्ष्माश्च व्यापिनोऽपरे । तेषां रक्षानिमित्तं च, विज्ञेया मुखवत्रिका ॥३॥ किंच-भवन्ति जन्तवो यस्मादन्नपानेषु केचित् । तस्मात्तेषां परीक्षार्थ, पात्रग्रहणमिप्यते ॥४॥ अपरं| १ नेच्छन्ति, स्वयं लोचः कृतः, तदा तस्मै लिङ्गं दत्तं, ते विहृताः । पुनरप्यागतेषु राज्ञा कम्बलरनं तस्मै दत्तं, आचार्येण-किमेतेन यतीनां ?, किं गृहीतमिति भणित्वा तमनापृच्छय स्फाटितं, निषद्याः कृताः, ततः स कथायितः । अन्यदा जिनकल्पिका वर्ण्यन्ते, यथा जिनकल्पिकाध द्विविधाः पात्रपाणयः प्रतिमहधराश्च । सप्रावरणा अधावरणा एकैकास्ते भवेयुविधाः ॥ १॥ स भणति-किमेष एवं न। सक्रियते ?, तैर्भणितम् एष व्युच्छिन्ना, मम न ब्युच्छिद्यते इति स एव परलोकार्थिना कर्तव्यः । दीप अनुक्रम [९५]] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~368 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७८] उत्तराध्य- बृहद्वृत्तिः चतुरङ्गीया ध्ययनम् प्रत सूत्रांक ||४६|| % च-सम्यक्त्वज्ञानशीलानि, तपश्वेतीह सिद्धये । तेषामुपग्रहार्थाय, स्मृतं चीवरधारणम् ॥५॥ शीतवातातपै- दशैमेशकैश्वापि खेदितः । मा सम्यक्त्वादिषु ध्यानं, न सम्यक् संविधास्यति ॥ ६॥ तस्य त्वग्रहणे यत् स्यात् , क्षुद्रप्राणिविनाशनम् । ज्ञानध्यानोपघातो वा, महान् दोषस्तदैव तु ॥ ७॥ यः पुनरतिसहिष्णुतयैतदन्तरेणापि न धर्मवाधकस्तस्य नैतदस्ति, तथा चाह-“य एतान् वर्जयेद्दोपान्, धर्मोपकरणारते । तस्य त्वग्रहणं युक्तं, यः स्याहै जिन इव प्रभुः॥१॥" स च प्रथमसंहनन एव, न चेदानीं तदस्तीत्यादिकया प्रागुक्तया च युक्त्योच्यमानोऽसौ कम्मोदयेण चीवराइयं छहेत्ता गतो, तस्स उत्तरा भइणी, उजाणे ठियस्स दिया गया, तं च दट्टण तीएवि चीवरातियं सर्व छड़ियं, ताहे भिक्खाए पविठ्ठा, गणियाए दिट्ठा, मा अम्ह लोगो विरजिहित्ति उरे से पोत्ती बद्धा, सा णेच्छति, तेण भणियं-अच्छउ एसा तब देवयादिना । तेण य दो सीसा पचाबिया-कोडिण्णो कोट्टवीरो य, तो सीसाण परंपरफासो जातो॥ एतदर्थोपसंहारिके भाष्यगाथे १ कर्मोदयेन चीवरादिकं त्यक्त्वा गतः, तस्योत्तरा भगिनी, उद्याने स्थितं वन्दिका गता,तच दृष्ट्वा तयाऽपि चीवरादिकं सर्व त्यक्तं, तदा भिक्षायै प्रविष्टा, गणिकया दृष्टा, माऽस्मासु लोको विरहीत् इति उरसि तस्याः पोतिका बद्धा, सा नेण्छति, तेन भणित-तिष्ठतु पपा तव है का देवतादत्ता । तेन च द्वौ शिष्यी प्रवाजितौ-कौण्डिन्यः कोट्टवीरश्न, ततः शिष्याणां परम्परास्पों जातः ।। 40-% दीप अनुक्रम [९५]] 4+बर ॥१८॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~369~ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [3], मूलं [१...] / गाथा ||४६...|| नियुक्ति: [१७८], भाष्यं [१,२] * % प्रत सूत्रांक ||४६|| % ऊहाए पन्नत्तं बोडियसिवभूइउत्तराहि इमं । मिच्छादसणमिणमो रहवीरपुरे समुप्पन्नं ॥१॥ बोडियसिवभूईओ बोडियलिंगस्स होइ उप्पत्ती । कोडिण्णकोट्टवीरा परंपराफासमुप्पन्ना ॥२॥ व्याख्या-'ऊहया' खवितकात्मिकया 'प्रज्ञत' प्ररूपित, बोटिकश्चासौ चारित्रविकलतया मुण्डमात्रत्वेन शिवभूतिश्च बोटिकशिवभूतिः स चोत्तरा च तद्भगिनी बोटिकशिवभूत्युत्तरे ताभ्याम् 'इदम्' अनन्तरोक्तं, यत्रास्योत्पत्तिसदाह-मिथ्यादर्शनम् 'इणमोति आपत्वादिदं रथवीरपुरे समुत्पन्नम् ॥ बोटिकशिवभूतेबोटिकलिङ्गस्य | ४ भवत्युत्पत्तिः, पठ्यते च-'बोडियलिङ्गस्स आसि उप्पत्ती, तत्र च कौण्डिन्यकोट्टवीरी परम्परा-अव्यवच्छिन्नशिप्यपशिष्यसंतानलक्षणा तस्याः स्पर्शो यत्र तत्परम्परास्पर्श यथा भवत्येवमुत्पन्नौ, अनेन कौण्डिन्यकोट्टवीराभ्यां बोटिकसन्तानस्योत्पत्तिरुक्ता भवतीति गाथाद्वयार्थः ॥ १-२॥ इयता ग्रन्थेन श्रद्धादुर्लभत्वमुक्तम् , अस्थाथ सम्यक्यरूपत्वात् सम्यक्त्वपूर्वकत्वाच संयमस्य तस्याप्यनेनैव दुर्लभत्वमुक्तमेयेति भावनीयं । तथा चत्वारीत्यङ्गमित्यस्य च व्याख्याने चतुरशेभ्यो हितं तत्खरूपव्यावर्णनेन चतुरङ्गीयमिति व्युत्पत्तिः सुज्ञानवेति नियुक्तिकृता नोपद-18 सर्शिता । गतो नामनिष्पन्न निक्षेपः, सम्प्रति सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तबचत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणिह जंतुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमंमि य वीरियं ॥१॥ (सूत्रम्) व्याख्या-'चत्वारि चतुःसङ्ख्यानि परमाणि च तानि प्रत्यासन्नोपकारित्वेन अङ्गानि च मुक्तिकारणत्वेन परमाझा % दीप अनुक्रम [९५]] % :0 -7 wwwjandiarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~370 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति : [१७८...] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१८॥ प्रत सुत्रांक ||१|| CHAKSCHEKAX नि 'दुर्लभानि' दुःखेन लभ्यन्त इतिकृत्वा दुष्प्रापाणि 'इह' अस्मिन्संसारे, कस्य ?-जायत इति जन्तुस्तस्य देहिन । चतुरङ्गीया ध्ययनम् | इत्यर्थः, पठ्यते च-'देहिन' इति, कानि पुनस्तानि ?-मनसि शेते मानुषः, अथवा मनोरपत्यमिति वाक्ये “मनोर्जातायभूयती पुक् च" (पा०४-१-१६१) इत्यजि प्रत्यये पुगागमे च मानुषस्सद्भायः मानुषत्वं-मनुजभावः, 'श्रवणं' श्रुतिः, सा च 'अर्थप्रकरणादिभ्यः सामान्यशब्दा अपि विशेषेऽवतिष्ठन्ते' इति न्यायाधर्मविषया, श्रद्धाऽपि तत एव धर्मविषया, 'संयमे आश्रयविरमणाद्यात्मनि, चः समुच्चये भिन्नक्रमः, ततो विशेषेणेरयति-प्रवर्त्तयति आत्मानं तासु तासु क्रियाखिति वीर्य च-सामर्थ्य विशेष इति सूत्रार्थः ॥१॥ तत्र यथा मानुषत्वं दुर्लभं तथा दर्शयितुमाहसमावपणाणं संसारे, णाणागोत्तासु जाइसु। कम्मा णाणाविहा कटु, पुढो विस्संभिया पया ॥२॥(सूत्रम्) व्याख्या-'सम्' इति समन्तात् आपन्नाः-प्राप्ताः समापन्ना णं इति वाक्यालङ्कारे, केत्याह-संसारे, तत्रापि क?-नाना इत्यनेकार्थः, गोत्रशब्दश्च नामपर्यायः, ततो नानागोत्रासु-अनेकाभिधानासु जायन्ते जन्तव आस्थिति जातयः-क्षत्रियाद्याः तासु, अथवा जननानि जातयः ततो जातिषु-क्षत्रियादिजन्मसु नाना-हीनमध्यमोत्तमभेदे-|| नानक गोत्रं यासु तासथा तासु, अत्र हेतुमाह-क्रियन्त इति कर्माणि-ज्ञानावरणीयादीनि 'नानाविधानि' अनेक-1 प्रकाराणि 'कृत्वा' निर्वर्त्य 'पुढो'त्ति पृथग भेदेन, किमुक्तं भवति ?-एकैकशः, 'विस्संभिय'त्ति विन्दोरलाक्षणिकत्वाद दीप अनुक्रम [९६] मा॥१८शा SAKAL RRC पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~371 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [-1 / गाथा ||२|| __ नियुक्ति : [१७८...] प्रत सूत्रांक ||२|| विश्व-जगद् विभूति-पूरयन्ति कचित्कदादिदुत्पत्त्या सर्वजगद्व्यापनेन विश्वभृतः, उक्तं च-“कत्थि किर सो पएसो लोए वालग्गकोडिमित्तोऽपि । जम्मणमरणाबाहा जत्थ जिएहि न संपत्ता ॥१॥" इदमुक्तं भवति-अवाप्यापि मानुदापत्यं वकृतविचित्रकर्मानुभावतः पृथगजातिभागिन्य एव भवन्ति, का:-'प्रजाः' जनसमूहरूपाः, तदनेन प्रासमानु- पत्वानामपि कर्मवशाद्विविधगतिगमनं मनुषत्वदुर्लभत्वे हेतुरुक्तः, यद्वा संसारे कर्माणि नानाविधानि कृत्वा पृथगिति भिनासु नानागोत्रासु-अनेककुलकोयुदपलक्षितासु जातिपु-देवाद्युत्पत्तिरूपासु समापना:-सम्प्राप्ता वत्तेन्त | द इति गम्यते, णेति प्राग्वत्, 'विश्रम्भिताः' सजातविश्रम्भाः सत्यः प्रक्रमाकर्मखेव तद्विपाकदारुणत्वापरिज्ञानात् | काः -प्रजायन्ते इति प्रजा:-प्राणिन इति सम्बन्धः, तदनेन प्राणिनां विविधदेवादिभवभवनं मूलत एव मनुज-II त्वदुर्लभत्वे कारणमुक्तमिति सूत्रार्थः ॥२॥ अमुमेवार्थ भावयितुमाह एगया देवलोएसु, नरएसुवि एगया। एगया आसुरे काय, आहाकम्मेहि गच्छद॥३॥ (सूत्रम्) cा व्याख्या-'एकदा' इत्येकस्मिन् शुभकर्मानुभवकाले दीयन्तीति देवाः तेषां लोकाः-उत्पत्तिस्थानानि देवगत्या-13 दिपुण्यप्रकृत्युदयविषयतया लोक्यन्त इति कृत्वा तेषु देवलोकेषु, नरान कायन्ति-योग्यतयाऽऽयन्तीति नरकाः तेषु । रत्नप्रभादिषु नारकोत्पत्तिस्थानेषु, अपिशब्दस्य चार्थत्वात्तेषु च, 'एकदा' अशुभानुभवकाले, तथा 'एकदा' तथावि १ नास्ति किल स प्रदेशो लोके वालापकोटीमात्रोऽपि । अन्ममरणाबाधा यत्र जीवैर्न संप्राप्ताः ।।१।। दीप अनुक्रम [९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~372 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [-1 / गाथा ||३|| नियुक्ति: [१७८...] वृहदृत्तिः ॥१८२॥ प्रत सूत्रांक ||३|| धभावनाभाषितान्तःकरणावसरे, असुराणामयमासुरस्तम्-असुरसम्बन्धिनं, चीयत इति कायस्तं, निकायमित्यर्थः, चतुरङ्गीया बालतपःप्रभृतिभिरपि तत्प्राप्तिरिति दर्शनार्थं देवलोकोपादानेऽपि पुनरासुरकायग्रहणम् , अथया देवलोकशब्दस्य ध्ययनम् सौधर्मादिषु रूढत्वात्तदुपादानमुपरितनदेवोपलक्षणम् , इदं चाधस्तनदेवोपलक्षणमिति न पौनरुक्त्यम्, 'आहाकम्मेहिंति आधानम्-आधाकरणमित्यर्थः, तदुपलक्षितानि कर्माण्याधाकर्माणि तैः, किमुक्तं भवति ?-स्वयंविहितैरेय सरागसंयममहारम्भासुरभावनादिभिर्देवनारकासुरगतिहेतुभिः क्रियाविशेषः यथाकर्मभिर्वा-तत्तद्गत्यनुरूपचेष्टितैः|४ 'गच्छति' याति, इति सूत्रार्थः ॥ ३॥ तथाएगया खत्तिओ होइ, तओ चंडालबुक्कसो । तओ कीडपयंगों य, तओ कुंथ पिवीलिया॥४॥(सूत्रम् ) व्याख्या-'एकदेति मनुष्यजन्मानुरूपकर्मप्रकृत्युदयकाले 'खत्तियत्ति 'क्षण हिंसायां' क्षणनानि क्षतानि तेभ्यस्वायत इति क्षत्रियो-राजा भवति, 'तत' इति तदनन्तरं तको वा प्राणी 'चण्डालः' प्रतीतः, यदि वा शूद्रेण ब्रामण्यां जातश्चण्डालः, 'वोकसो' वर्णान्तरभेदः, तथा च वृद्धाः-"भणेण सुद्दीओ जातो णिसाउत्ति वुचति, बंभणेण वेसीए । जातो अंबटोत्ति वुचति, तत्थ णिसाएणं जो अंबट्ठीते जातो सो बुक्कसो भण्णति" इह च क्षत्रियग्रहणादुत्तमजातयः ॥१८॥ १ ब्राह्मणेन शूद्रयां जातो निषाद इत्युच्यते, ब्राह्मणेन वैश्यायां जातोऽम्वष्ठ इति उच्यते, तत्र निषादेन योऽम्बष्ठ्यां जातः स बुकसो 5 दीप अनुक्रम [९८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~3730 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [-] / गाथा ||४|| नियुक्ति : [१७८...] CAROO प्रत सूत्रांक ||४|| चण्डालग्रहणान्नीचजातयो बुक्सग्रहणाञ्च सङ्कीर्णजातय उपलक्षिताः, 'ततो' मानुषत्वादुद्धृत्येति शेषः, 'कीट' प्रतीतः पतङ्गः' शलभः, चः समुच्चये, ततस्तको वा 'कुन्थू पिपीलिकत्ति, चशब्दस्य लुप्तनिर्दिष्टत्वात् कुन्थुः पिपीलिका च, भवतीति सर्वत्र सम्बध्यते, शेषतिर्यग्भेदोपलक्षणं चैतदिति सूत्रार्थः ॥४॥ किमित्थं पर्यटन्तस्ते निर्विद्यन्ते न वेत्याहएवमाबद्दजोणीसुं, पाणिणो कम्मकिविसा । ण णिविजंति संसारे, सबढेसु व खत्तिया ॥५॥(सूत्रम्) कम्मसंगेहि संमूढा, दुक्खिया बहुवेयणा । अमाणुसासु जोणीसु, विणिहम्मति पाणिणो ॥६॥(सूत्रम्) | व्याख्या एवम्' अमुनोक्तन्यायेन आवर्त्तनम् आवतः-परिवर्त इति योऽर्थो, युवन्ति-मिश्रीभवन्ति कार्मणशरीरिण औदारिकादिशरीरैरासु जन्तवो जुषन्ते सेवन्ते ता इति वा योनयः, आवर्तोपलक्षिता योनयः आवर्तयोनयः तासु, 'प्राणिनः' जन्तवः, कर्मणा-उक्तरूपेण किल्बिषाः-अधमाः कर्मकिल्विषाः, प्राकृतत्वाद्वा पूर्वापरनिपातः, किल्लिपाणि-क्लिष्टतया निकृष्टान्यशभानुवन्धीनि कर्माणि येषां ते किल्बिषकर्माणः, 'न निर्षियन्ते' कदैतद्विमुक्तिरिति नोद्विजन्ते, क या आवर्तयोनयः ? इत्याह-संसारे' भवे, केष्विव के न निर्षियन्ते ? इत्याह-सर्वे च ते अर्थ्यन्त द इत्यर्थाश्च-मनोज्ञशब्दादयो धनकनकादयो वा सर्वार्थास्तेष्विव 'क्षत्रियाः' राजानः, किमुक्तं भवति ?-यथा मनोज्ञान || शब्दादीन् मुआनानां तेषां तर्षोऽभिवर्धते, एवं तासु तासुः योनिषु पुनः पुनरुत्पत्त्यां सस्यां कलंफलीभावमनुभव दीप अनुक्रम [९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~374 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [--] / गाथा ||५-६|| नियुक्ति : [१७८...] उत्तराध्य. प्रत बृहद्वृत्तिः सूत्रांक ॥१८३॥ ॥५-६|| तामपि भवाभिनन्दिना प्राणिनामिति, कथमन्यथा न तत्प्रतिघातार्थमुद्यच्छेयुरिति भावः । पाठान्तरं या-'सघहर इस खत्तिय'त्ति इवो भिन्नक्रमः, ततः सर्वैः शयनादिभिरर्थः-प्रयोजनमस्खेति सर्वार्थः क्षत्रियः, स चार्थाद्धष्टराज्यः तद्वत् , ततो यथाऽसौ न निर्विद्यते, अर्थात्सर्वार्थान् प्रार्थयमानः, तथैतेऽपि प्राणिनः सुखान्यभिलषन्तोऽनिर्विद्यमानाच, कम्मभिः-ज्ञानावरणीयादिभिः सनाः-सम्बन्धाः कर्मसङ्गास्तैः, यद्वा कर्माणि-उक्तरूपाणि तत्तक्रियाविशेपात्मकानि वा, तथा सज्यन्तेऽमीषु जन्तव इति सङ्गाः-शब्दादयोऽभिष्वङ्गविषयाः, ततश्च कर्माणि च साश्च कर्मसङ्गाः तः सम् इति भृशं मूढाः-वैचित्यमुपागताः सम्मूढाः, 'दुःखम्' असातात्मकं जातमेपामिति दुखिताः, कदाचित्तन्मानसमेव स्थादत आह-बहुवेदनाः' बह्वयो वेदनाः-शरीरब्यथा येषां ते तथा, मनुष्याणामिमा मानुष्या न तथाऽमानुष्याः, तासु-नरकतिर्यगाभियोग्यादिदेवदुर्गतिसम्बन्धिनीपु 'योनिषु' अभिहितरूपासु 'बिनिहन्यन्ते' विशेषेण निपात्यन्ते, अर्थात्कर्मभिः, कोऽर्थः-न तत उत्तारं लभन्ते 'प्राणिनः' जन्तवः, तदनेन सत्यप्यावृत्त निर्वेदाभावात् कर्म संगसंमूढाः दुःखहेतुनरकादिगत्यनुत्तरणेन प्राणिनो मनुजत्वं न लभन्त इत्युक्तमिति सूत्रद्वयार्थः ॥५-६॥ कथं तर्हि तदवाप्तिः ? इत्याह A ॥१८॥ कम्माणं तु पहाणाए, आणुपुवी कयाइ उ।जीवा सोहिमणुप्पत्ता, आययंति मणुस्सयं ॥७॥(सूत्रम्) व्याख्या-'कर्मणां' मनुजगतिविबन्धकानाम् 'तुः' पूर्वस्माद्विशेषद्योतकः 'पहाणाए'त्ति प्रकृष्ट हानम्-अपगमः दीप अनुक्रम [१०० -१०१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~375 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [-1 / गाथा ||७|| ____ नियुक्ति: [१७८...] कर प्रत सूत्रांक ||७|| प्रहाणं तस्यायो-लाभः प्रहाणायः तस्मिन् , यद्वा सूत्रत्वात् प्रहाणौ प्रहान्या वा तद्विबन्धकानन्तानुबन्ध्यादिकर्मसु ग्रहीणेषु, कुतश्चिदीश्वरानुग्रहादेस्तदप्राप्तेः, अन्यथा हि तद्वैफल्यापत्तिः, एतेन-'अन्यो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् , श्वभ्रं वा वर्गमेव वा ॥१॥' इत्यपास्तं भवति, अर्थ कथं पुनस्तेषां ग्रहाणिरित्याह-४ 'आनुपूया' क्रमेण न तु शगिरसेव, तयापि 'कयाइ उत्ति तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात्कदाचिदेव न सर्वदा, 'जीवा' प्राणिनः 'शुद्धिम्' क्लिष्टकर्मविगमात्मिकाम् अनु-तद्विघातिक पगमस्य पश्चात्प्राप्ताः 'आददते' खीकुर्वन्ति मनुष्यतां, पाठान्तरतश्च जायन्ते मणुस्सयंति सुव्यत्ययान्मनुष्यतायां, तदैव तन्निर्वर्तकमनुजगत्यादिकर्मोदयादिति दभावः, अनेन मनुजत्वविवन्धककर्मापगमस्य तथाविधकालादिसव्यपेक्षत्वेन दुरापतया मनुषत्वदुर्लभत्वमुक्तमिति |सूत्रार्थः ॥७॥ कदाचिदेतदवाप्सौ श्रुतिः सुलभैव स्यादत आह माणुस्सं विग्गहं लड़े, सुती धम्मस्स दुल्लहा। जं सोचा पडिवजंति, तवं खंतिमहिंसयं ॥८॥(सूत्रम्) | व्याख्या-'माणुस्सं'ति सूत्रत्वान्मानुष्यकं मनुष्यसम्बन्धिनं विशेषेण गृह्यते आत्मना कर्मपरतन्त्रेणेति विग्रहस्तं | ४ मनुजगत्याधुपलक्षितमौदारिकशरीरं 'लढुंति अपेर्गम्यमानत्वात् लब्ध्वापि, 'श्रुतिः' आकर्णनं, कस्स ?-धारयति दुर्गती निपततो जीवानिति धर्मः, तथा च वाचकः-"प्राग्लोबिन्दुसारे सर्वाक्षरसन्निपातपरिपठितः। धून धरप्रणाऽर्थों धातुस्तदर्थयोगाद्भवति धर्मः॥१॥ दुर्गतिभयप्रपाते पतन्तमभयकरदुर्लभत्राणे । सम्यक् चरितो यस्मा दीप अनुक्रम [१०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~376 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [-1 / गाथा ||८|| नियुक्ति: [१७८...] प्रत सूत्रांक ||८|| उत्तराध्य. ६ द्धारयति ततः स्मृतो धर्मः॥२॥” तस्य-एवमन्वर्थनासो धर्मस्य 'दुर्लभा दुरापा प्रागुक्तालस्वादिहेतुतः, सच- चतुरङ्गीया 'मृद्वी शय्या प्रातरुत्थाय पेया, भक्तं मध्ये पानक चापराह्ने । द्राक्षाखण्डं शर्करा चार्धरात्रे, मोक्षश्चान्ते शाक्यपुत्रेण ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः दृष्टः ॥१॥' इत्यादिसुगतादिकल्पितोऽपि स्याद् अप्तस्तदपोहायाह-यं धर्म श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते' अङ्गीकुर्वन्ति तपः ॥१८॥ अनशनादि द्वादशविधम् 'क्षान्ति' क्रोधजयलक्षणां मानादिजयोपलक्षणं चैपा, 'अहिंसयन्ति' अहिंस्रताम्-अहिंसन-18 शीलताम् , अनेन च प्रथमत्रतमुक्तम् , एतच शेषप्रतोपलक्षणम् , एतत्प्रधानत्वात्तेषाम् , एतद्वृत्तितुल्यानि हिं शेषतानि, एवं च तपसः क्षान्त्यादिचतुष्कस्य महाव्रतपञ्चकस्य चाभिधानाद्दशविधस्थापि यतिधर्मास्याभिधानम् , इह च यद्यपि श्रुतेः शान्दं प्राधान्यं तथापि तत्त्वतो धर्म एव प्रधान, तस्या अपि तदर्थत्वादिति, स एव यच्छब्देन है परामृश्यते, अथवा काका नीयते-'यद्' यस्मात् श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते तपःप्रभृति नाश्रुत्वा 'सुच्चा जाणति कलाएं, सोचा जाणति पावगं' इत्याचागमात् , तत एवमतिमहार्थतया दुरापेयमिति सूत्रार्थः ॥८॥ श्रुत्सवाप्तावपि श्रद्धादुल्लेभतामाहआहश्च सवणं लड़े, सद्धा परमदुल्लहा । सोच्चा णेयाउयं मग्गं, बहवे परिभस्सइ ॥९॥ (सूत्रम्) | ॥१८॥ | व्याख्या-'आह' इति कदाचित् 'श्रवणम्' प्रक्रमाद्धाकर्णनम्, उपलक्षणत्वान्मनुष्यत्वं च लब्ध्वेति, अपि १ श्रुत्वा जानाति कल्याणं श्रुत्वा जानाति पापकम् दीप अनुक्रम [१०३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~377 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||९|| दीप अनुक्रम [१०४] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [--] / गाथा ||९|| निर्युक्तिः [१७८...] शब्दस्य गम्यमानत्वात् लब्ध्वापि - अवाप्यापि 'श्रद्धा' रुचिरूपा प्रक्रमाद्धर्म्मविषयैव 'परमदुर्लभा' अतिशयदुरापा कुतः पुनः परमदुर्लभत्वमस्या इत्याह- 'श्रुत्वा' आकर्ण्य न्यायेन चरति प्रवर्त्तते नैयायिकः, न्यायोपपन्न इत्यर्थः, तं 'मार्गम्' सम्यग्दर्शनाद्यात्मकं मुक्तिपथं बहवः नैक एव, परि इति सर्वप्रकारं 'भस्स' ति भ्रश्यन्ति - च्यवन्ते प्रक्रमान्नैयायिकमार्गादेव, यथा जमालिप्रभृतयो, यच्च प्राप्तमप्यपैति तचिन्तामणिवत् परमदुर्लभमेवेति भावः । इहैव केचिन्निवक्तव्यतां व्याख्यातवन्तः, उचितं चैतदप्यास्त (प्यस्ति ) इति सूत्रार्थः ॥ ९ ॥ एतत्त्रया वातावपि संयमवीर्यदुर्लभत्वमाह सुई च लङ्कं सद्धं च वीरियं पुण दुलहं । बहवे रोयमाणाऽवि, णो य णं पडिवज्जइ ॥ १० ॥ (सूत्रम् ) व्याख्या - श्रुतिं चशब्दान्मनुष्यत्वं च 'लदुंति प्राग्वलच्ध्यापि श्रद्धां च वीर्य प्रक्रमात् संयमविपर्य, पुनःशच्द्रस्य विशेषकत्वाद्विशेषेण दुर्लभं यतः बहवः नैक एव रोचमाना अपि न केवलं प्राप्तमनुष्यत्वाः शृण्वन्तो वेलपिशब्दार्थः, श्रद्दधाना अपि, नो चेति चशब्दस्यैवकारार्थत्वान्नैव 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे अथवा 'णो य ण'न्ति सूत्रत्वान्नो एतं 'पडिवजति'त्ति तत एव प्रतिपद्यन्ते चारित्रमोहनीय कम्र्मोदयतः, सत्यकिश्रेणिकादिवन्न कर्तुमभ्युपगच्छन्तीति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ सम्प्रति दुर्लभस्यास्य चतुरङ्गस्य फलमाह Education Intational For Patenty www.lincibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~378~ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [-1 / गाथा ||११|| नियुक्ति: [१७८...] fr प्रत सूत्रांक ||१०|| उत्तराध्य. माणुसत्तमि आयाओ, जो धम्म सोच्च सरहे । तवस्सी वीरियं लहूं, संवुडो निद्धणे रयं ॥११॥(सूत्रम्) चतुरङ्गीया का ध्ययनम् बृहद्वृत्तिः 17 व्याख्या-'मानुषत्वे' मनुजत्वे 'आयातः' आगतः, किमुक्तं भवति ?--मानुषत्वं प्राप्तो, य इत्यनिर्दिष्टखरूपो|| ॥१८५| य एवं कश्चिद्धम॑ श्रुत्वा 'सद्दहे'त्ति श्रद्धत्ते-रोचयते 'तपखी' निदानादिविरहितया प्रशस्थतपोऽन्वितः, कथं ?'वीर्य' संयमोद्योगं लब्ध्या 'संवृतः' स्थगितसमस्ताश्रयः, स किमित्याह-णिभुणे'त्ति निर्धनोति-नितरामपनयति रज्यते अनेन स्वच्छस्फटिकवच्छुद्धखभावोऽप्यात्माऽन्यथात्वमापाद्यत इति रजः-कर्म बध्यमानक बद्धं च, तदपनयनाच मुक्तिं प्राप्नोतीति भावः, उभयत्र लिप्स्यमानसिद्धी चे (पा. ३-३-७) ति लट्, इह च श्रद्धानेन सम्यक्त्वमुक्तं, तेन च ज्ञानमाक्षिसं, प्रदीपप्रकाशयोरिव युगपदुत्पादात्तयोः, तथा च 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' (तत्त्वा० अ. १-स. १) इति न विरुध्यत इति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ इत्यमांमुष्मिकं मुक्तिफलमुक्तम् , इदानीमिहय फलमाहसोही उजुभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठति । णिव्वाणं परमं जाइ, घयसित्तेव पावए ॥ १२ ॥ (सूत्रम्)|| व्याख्या-'शुद्धिः कपायकालुष्यापगमो, भवतीति गम्यते, 'ऋजुभूतस्य' चतुरङ्गप्राप्त्या मुक्ति प्रति प्रगुणीभूतस्य, तथा च 'धर्मः' क्षान्त्यादिः 'शुद्धस्य' शुद्धिप्राप्तस्य तिष्ठति' अविचलिततयाऽऽस्ते इति, अशुद्धस्य तु कदाचित्कपायोदयात्तद्विचलनमपि स्यादित्याशयः, तदवस्थितौ च 'निर्वाणं' नितिनिर्वाणं खास्थ्यमित्यर्थः 'परमं प्रकृष्टम् दीप अनुक्रम [१०५] ॥१८५॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~379 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [-] / गाथा ||१२|| नियुक्ति: [१७८...] प्रत सूत्रांक ||१२|| Kएगमासपरियाए समणे वतरियाणं तेयल्लेसं बीईवयति' इत्याद्यागमेनोक्तं 'नवास्ति राजराजस्य तत्सुख'मित्यादिना च वाचकवचनेनानूदितं 'याति प्राप्नोति, क इव ?-'घयसित्तेव'त्ति इवस्य भिन्नक्रमत्वात् घृतेन सिक्तो घृतसिक्तः पुनातीति पावकः-अग्निः, लोकप्रसिद्ध्या, समयप्रसिद्ध्या तु पापहेतुत्वात्पापकः तद्वत् , स च न तथा तृणादिभिदीप्यते यथा घृतेनेत्यस्य घृतसिक्तस्य निर्देतिरनुगीयते, ततो विशेषेणास्य दृष्टान्तत्वेनाभिधानमिति भावनीयं, यद्वानिर्वाणमिति जीवन्मुक्तिं याति,-निर्जितमदमदनानां वाक्कायमनोविकाररहितानाम्। विनिवृत्तपराशानामिहैव मोक्षः सुविहितानाम् ॥ १॥ इति वचनात् , कथंभूतः सन् ?-घृतसिक्तपावक इव-तपस्तेजसा ज्वलितत्वेन घृततपिता-1 निसमान इति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ पठन्ति च नागार्जुनीयाः-"चउद्धा संपयं लबुं, इहेव ताव भायते । तेयते तेज-18 संपन्ने, घयसित्तेव पावए ॥१॥ ति" तत्र चतुर्धा-चतुष्प्रकारां संपदा-सम्पत्तिं प्रक्रमान्मनुष्यत्वादिविषयां लब्ध्वा 0 xइहैव लोके तावद् , आस्तां परत्र, 'भ्राजते' ज्ञानधिया शोभते, 'तेजते' दीप्यते तेजसा-अर्थात्तपोजनितेन सम्प-13 नो-युक्तस्तेजःसम्पन्नः, शेषं प्राग्वदिति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ इत्थमामुष्मिकमैहिकं च फलमुपदर्य शिष्योपदेशमाहविगिंच कम्मुणो हेडं, जसं संचिणु खंतिए । पाढवं सरीरं हिच्चा, उड्डे पक्कमती दिसं ॥१३॥ (सूत्रम्) व्याख्या-'विगिचत्ति वेथिग्धि पृथक् कुरु 'कर्मणः' प्रस्तावान्मानुषत्वादिविवन्धकस्य 'हेतुम्' उपादानका१ एकमासपर्यायः श्रमणी व्यन्तराणां तेजोलेश्या व्यतित्रजति ।। दीप अनुक्रम [१०७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~380 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [-] / गाथा ||१३|| नियुक्ति: [१७८...] प्रत सूत्रांक %EX ||१३|| उत्तराध्य. रण-मिथ्यात्वाविरत्यादिकं, तथा यशोहेतुत्वाद्यशः-संयमो विनयो वा, यदुक्तम्-"एवं धम्मस्स विणओ, मूलं पर- चतुरङ्गीया INमो से मोक्खो। जेण किति सुयं सिघं, णीस्सेसं चाभिगच्छद ॥१॥” इति, तत् 'सचिन' भृशमुपचितं कुरुध्ययनम् बृहद्वृत्तिः किया ?-क्षान्त्या, उपलक्षणत्वान्मार्दवादिभिश्च, ततः किं स्थादित्याह-पाढवं' ति पार्थिवमिव पार्थिव शीतोष्णादि॥१८६॥ परिपहसहिष्णुतया समदुःखसुखतया च पृथिव्यामिव भवं, पृथिवी हि सर्वसहा, कारणानुरूपं च कार्यमिति भायो, यदि वा पृथिव्या विकारः पार्थिवः, स चेह शैलः, ततश्च शैलेशीप्राप्त्यपेक्षयातिनिश्चलतया शैलोपमत्वात्परप्रसि या वा पार्थिव शरीरंतनं हित्वा' सक्त्वा ऊर्च दिशमिति सम्बन्धः, 'प्रक्रामति' प्रकर्षण गच्छति येन भवानिति उपस्कारो, यद्वा सोपस्कारत्वात् सूत्राणामेवं नीयते-यत एवं कुर्वन् भव्यजन्तुरूर्व दिशं प्रक्रामति दततस्त्वमतिढचेता इत्थमित्थं च कुर्वित्युपदिश्यते, प्रकामतीति वर्तमानसामीप्ये वर्तमान निर्देश आसन्नकलावाप्ति-10 सूचक इति सूत्रार्थः ॥ १३॥ इत्थं येषां तद्भव एव मुक्त्यवाप्तिस्तान् प्रत्युक्तं, येषां तु न तथा तान्प्रत्याहविसालिसेहिं सीलेहिं, जक्खा उत्तर उत्तरा। महासुक्का व दिप्पंता, मन्नंता अपुणोच्चयं ॥१४॥(सूत्रम्) अप्पिया देवकामाणं, कामरूवविउविणो । उद्धं कप्पेसु चिटुंति, पुवा वाससया बहू ॥ १५ ॥ (सूत्रम्) ||१८६॥ हा १. एवं धर्मस्य विनयो मूलं परमोऽसौ मोक्षः । येन कीर्ति श्रुतं शीनं निःश्रेयसं बाधिगच्छति ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [१०८] स पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~381 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [-1 / गाथा ||१४-१५|| नियुक्ति : [१७८...] ***** प्रत सूत्रांक ||१४ * -१५|| व्याख्या-'बिसालिसेहिति मागधदेशीयभाषया विसदशैः-खस्वचारित्रमोहनीयकर्मक्षयोपशमापेक्षया विभिन्नैः 'शीलैः' प्रतपालनात्मकैरनुष्ठानविशेषैः, किम् ?-इज्यन्ते पूज्यन्त इति यक्षाः, यान्ति वा तथाविधर्द्धिसमुदयेऽपि क्षयमिति यक्षाः, ऊर्ध्वं कल्पेषु तिष्ठन्तीति उत्तरेण सम्बन्धः, 'उत्तरोत्तरा' उत्तरोत्तरविमानवासिनः, उत्तरो वा उप-IM रितनस्थानवर्युत्तरः-प्रधानो येषु तेऽमी उत्तरोत्तराः 'महाशुक्ला' अतिशयोज्वलतया चन्द्रादित्यादयः, त इव 'दीप्यमानाः' प्रकाशमानाः, अनेन शरीरसम्पदुक्ता, सुखसम्पदमाह-'मन्यमाना' मनसि अवधारयन्तः शब्दादिविषयावाप्तिसमुत्पनरतिसागरावगाढतयाऽतिदीर्घस्थितितया बा, किम् ?-न पुनश्चवनम् अपुनध्यवस्तम्-अधस्तिर्यगादिघूत्पत्त्यभावं, यदुक्तं 'मन्यमाना अपुनध्यव'मिति, तत्रोक्तमेव हेतुं सूत्रकृदाह-'अप्पिया' इत्यादिना, 'अप्पिताः' प्राकृतसुकतेन ढौकिता इव, केषाम् १-काम्यन्ते-अभिलप्यन्ते इति कामा देवानां कामा देवकामा:-दिव्याङ्ग-12 नाङ्गस्पर्शादयः, 'कामरूवविउविणोत्ति सूत्रत्वात्कामरूपचिकरणा-यथेष्टरूपाभिनिवर्तनशक्तिसमन्विताः, कुर्वन्ति हि ते उत्तरवैक्रियाणि समवसरणागमनादिषु तथा तथेति, येऽपि प्रयोजनाभावान्न कुर्वन्ति तेषामपि शक्तिरस्त्ये|वेत्येवमुच्यते, 'ऊर्च' कल्पोपरिवर्तिषु वेयकेष्वनुत्तरविमानकेषु च कल्पेषु सौधर्मादिषु यदि वा-ऊर्ध्वम्-उपरि कल्प्यन्ते विशिष्टपुण्यभाजामयस्थितिविषयतयेति सौधर्मादयो अवेयकादयश्च सर्वेऽपि कल्पा एव तेषु 'तिष्ठन्ति' हा आयु:स्थितिमनुपालयन्ति पूर्वाणि-वर्षसमतिकोटि लक्षषपञ्चाशत्कोटिसहस्रपरिमितानि बहूनि, जघन्यतोऽपि पल्यो-11 * दीप अनुक्रम [१०९-११०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~382 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [३], मूलं [-1 / गाथा ||१४-१५|| नियुक्ति: [१७८...] C प्रत सूत्रांक ||१४ -१५|| उत्तराध्य. पमस्थितित्वात् , तत्रापि च तेषामसङ्खयेयानामेव सम्भवात् , एवं वर्षशतान्यपि बहूनि, पूर्ववर्षशतायुषामेव चरण-18 चतुरङ्गीया बृहहृत्तिः योग्यत्वेन विशेषतो देशनीचिसमिति ख्यापनार्थमित्थमुपन्यास इति सूत्रार्थः ॥ १४-१५ ॥ तत्किमेषामेतावदेव ध्ययनम् फलमित्याशङ्कयाह॥१८७॥ तत्थ ठिच्चा जहाठाणं, जक्खा आउक्खए चुया। उति माणुसंजोणिं, से दसंगेऽभिजायइ॥१६॥(सूत्रम्) ४ व्याख्या-तत्र' तेषूक्तरूपोत्पत्तिस्थानेषु स्थित्वा' इत्यासित्वा 'यथास्थानम्' इति यद्यस्य खानुष्ठानानुरूपं दायदिन्द्रादिपदं तस्मिन् यक्षाः 'आयुःक्षये' खजीवितावसाने 'च्युताः' भ्रष्टाः 'उबेन्ति'त्ति उपयन्ति मनुषाणामियं , मानुषी तां योनिम्' उत्पत्तिस्थानं, तत्र च 'से' इति स सावशेषकुशलकर्मा कधिजन्तुः दशाङ्गानि भोगोपक-12 रणानि वक्ष्यमाणान्यस्येति दशाङ्गः अभिजायते, एकवचननिर्देशस्तु विसदृशशीलतया कश्चिदशाः कश्चिन्नवाहादिदूरपि जायत इति वैचित्र्यसूचनार्थः, यद्वा 'से' इति सूत्रत्वात् तेषां दशानामझानां समाहारो दशाङ्गी, प्राकृतत्वाच पुंसा निर्देशः, 'अभिजायते' उपभोग्यतयाऽऽभिमुख्येनोत्पद्यत इति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ कानि पुनर्दशाज्ञानीत्याहखित्तं वत्थु हिरपणं च, पसवो दासपोरुसं। चत्तारि कामखंधाणि, तत्थ से उववजह ॥१७॥ मित्तवं नाइवं होइ, उच्चागोत्ते य वणवं । अप्पायके महापन्ने, अभिजाय जसो बले ॥१८॥ (सूत्रम्)|॥ १८७॥ दीप अनुक्रम [१०९-११०] CESCROSECRECRUCACY wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~3830 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥१७ -१८|| दीप अनुक्रम [११२ -११३] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [--] / गाथा ||१७-१८|| निर्युक्ति: [१७८...] व्याख्या- 'क्षि निवासगत्योः' क्षियन्ति निवसन्त्यस्मिन्निति क्षेत्रं ग्रामारामादि सेतुकेतूभयात्मकं वा, तथा वसन्त्यस्मिन्निति चालु खातोच्छ्रितोभयात्मकं 'हिरण्यं' सुवर्णम् उपलक्षणत्वात् रूप्यादि च, 'पशवः' अश्वादयः, दास्यते दीयते एभ्य इति दासाः - पोष्यवर्गरूपास्ते च पोरुसंति-सूत्रत्वात्पौरुषेयं च पदातिसमूहः दासपौरुषेयं, 'चत्वारः' चतुःसङ्ख्याः, अत्र हि क्षेत्रं वास्त्विति चैको हिरण्यमिति द्वितीयः पशव इति तृतीयो दास पौरुषेयमिति चतुर्थः, एते किमित्याह- काम्यत्वात् कामाः - मनोज्ञशब्दादयः, तद्धेतवः स्कन्धाः पुगलसमूहाः ततः कामस्कन्धाः, यत्र भवन्तीति गम्यते, प्राकृतत्वाश्च नपुंसकनिर्देशः, 'तत्र' तेषु कुलेषु 'से' इति स 'उपपद्यते' जायते । अनेन चैकमङ्गमुक्तं, शेषाणि तु नवाङ्गान्याह -- मित्राणि - सहपांशु क्रीडितादीनि सन्त्यस्येति मित्रवान् ज्ञातयः खजनाः सन्त्यस्येति ज्ञातिमान् भवति, उच्चैः - लक्ष्म्यादिक्षयेऽपि पूज्यतया गोत्रं - कुलमस्येत्युचैर्गोत्रः, चः समुचये, वर्ण:श्यामादिः स्निग्धत्वादिगुणैः प्रशस्योऽस्येति वर्णवान्, 'अल्पातङ्कः' आतङ्कविरहितो नीरोग इत्यर्थः, महती प्रज्ञाऽस्येति महाप्रज्ञः - पण्डितः, 'अभिजात' विनीतः, स हि सर्वजनाभिगमनीयो भवति, दुर्विनीतस्तु शेषगुणान्वितोऽपि न तथेति, अत एव च 'जसो'त्ति यशस्वी, तथा च सति 'बले'त्ति वली कार्यकरणं प्रति सामर्थ्यवान्, उभयत्र सूत्रत्वान्मत्वर्थीयलोपः, एकैकोऽपि हि मित्रत्वादिगुणस्तत्तत्कार्याभिनिर्वर्त्तनक्षमः, किं पुनरमी समुदिताः ?, | शरीरसामर्थ्याचेह वलीति ॥ १७-१८ ॥ तत्किमेवंविधगुणसम्पत्समन्वितं मानुषत्यमेव तत्फलमित्याह - Education Intational Forsy www.janbay.org vपूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३ ], मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~384~ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१९|| दीप अनुक्रम [११४] उत्तराध्य. वृत्तिः !!! [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [३], मूलं [--] / गाथा ||१९|| निर्युक्तिः [१७८...] भोच्चा माणुस्सए भोष, अप्पडिरूवे अहाउयं । पुद्धिं विसुद्धसद्धम्मे, केवलं बोहि बुज्झिया ॥ १९ ॥ (सूत्रम्) व्याख्या -' भुक्त्वा ' आसेव्य 'मानुष्यकानू' मनुष्यसम्बन्धिनः भुज्यन्त इति भोगाः मनोज्ञशब्दादयस्तान्, | अविद्यमानं प्रतिरूपमतिप्रकर्षवत्त्वेनानन्यतुल्य मे पामित्यप्रतिरूपाः तान्, 'यथायुः' आयुषोऽनतिक्रमेण पूर्व-पूर्वजजन्मविशुद्धो निदानादिरहितत्वेन 'सद्धर्मः (र्मा)' शोभनो धर्मोऽस्येति विशुद्धसद्धर्मा, केवलत्वाच्च 'धर्मादनिच् केवलादिति ( पा० ५-४-१२४ ) इत्यनिच् भवति, 'केवलाम्' अकलङ्कां 'बोधिं' जिनप्रणीतधर्म्मप्राप्तिलक्षणां 'बुद्धा' | अनुभूय प्राप्येतियावत् ॥ १९ ॥ ततोऽपि किमित्याह--- चउरंगं दुल्लभं मच्चा, संजमं पडिवज्जिया । तवसा धुतकम्मंसे, सिद्धे भवति सासए ॥२०॥ तिबेमि (सूत्रम्) व्याख्या - चतुर्णामङ्गानां समाहारश्चतुरङ्गी तामभिहितस्वरूपां 'दुर्लभ' दुष्प्रापां 'मत्वा' ज्ञात्वा 'संयम' सर्वसावद्ययोगविरतिरूपं 'प्रतिपद्य' आसेव्य, 'तपसा' बाह्येनान्तरेण च धुतम्- अपनीतं, कम्मंसित्ति - कार्म्मरन्थिकपरिभाषया सत्कर्मानेनेति धुतकर्माशः, तदपनयनाच बन्धादीनामप्यर्थतोऽपनयनमुक्तमेव यद्वा धुताः कर्म्मणोऽंशा-भागा येन स तथाविधः किमित्याह - सिद्धो भवति, स च किमाजीविकमत परिकल्पितसिद्धवत् पुनरिति उत नेत्यत आह- 'शाश्वतः शश्रद्भवनात् शश्रद्भवनं च पुनर्भवनिबन्धनकर्म्मबीजात्यन्तिकोच्छेदात्, तथा चाह - "दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाङ्कुरः । कर्म्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्कुरः ॥ १ ॥ " Education Inational For Party चतुरङ्गीया ध्ययनम् ३ ~385~ ॥१८८॥ www.incibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [३], मूलं [-] / गाथा ||२०|| नियुक्ति: [१७८...] इति, इह पुनस्तस्येहागमनकल्पनमतिमोहविलसितं, तथा च स्तुतिकृत्-"दग्धेन्धनः पुनरुपैति भवं प्रमथ्य, निर्वाणमप्यनवधारितभीरुनिष्ठः । मुक्तः खयंकृतभवश्च परार्थशूरस्त्वच्छासनप्रतिहतेष्विह मोहराज्यम् ॥१॥" इति सूत्रार्यः |॥ २०॥ इतिः परिसमासौ, ब्रवीमि प्राग्वदिति । उक्तोऽनुगमः, सम्प्रति नयाः, तेऽपि प्राग्वदेव । इति श्रीशान्त्याचार्यविरचितायां शिष्यहितायामुत्तराध्ययनटीकायां तृतीयमध्ययनं समाप्तमिति ॥ प्रत सूत्रांक ||२०|| दीप अनुक्रम [११५] तृतीयमध्ययनं समासम् ।। पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३], मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं- ३ परिसमाप्तं ~386 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||२०,,|| नियुक्ति: [१७९] प्रत सूत्रांक +RREEPECIAL ||२०|| ॥ ॐ नमः ॥ उक्तं तृतीयमध्ययनम् , अधुना चतुर्थावसरः, तस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तराध्ययने | चत्वारि मनुष्यत्वादीन्यङ्गानि दुर्लभान्युक्तानि, इह तु तत्प्राप्तावपि महते दोपाय प्रमादो महते च गुणायाप्रमाद इति | मन्यमानः प्रमादाप्रमादी हेयोपादेयतयाऽऽह । इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि || प्राग्वद् न्यावर्णनीयानि तावद् यावन्नामनिष्पन्ने निक्षेपे प्रमादाप्रमादमिति नाम, ततश्च प्रमाद इत्यप्रमाद इति च ॥ निक्षेप्तव्यमित्युभयनिक्षेपप्रतिपिपादयिषयाऽऽद्द नियुक्तिकृत् नामंठवणपमाओ दवे भावे य होइ नायवो । एमेव अप्पमाओ चउबिहो होइ नायवो ॥ १७९॥ व्याख्या-'णामंठवणपमाए'त्ति, प्रमादशब्द उभयत्र सम्बध्यते, ततश्च नामप्रमादः स्थापनाप्रमादः, 'दवे'इति । द्रव्यप्रमादः 'भावे यत्ति भावप्रमादश्च भवति ज्ञातव्यः, 'एवमेवेति नामस्थापनाद्रव्यभावभेदत एव अप्रमादश्चतुविधो भवति ज्ञातव्य इति गाथार्थः ॥१७९॥ इह च नामस्थापने प्रतीते इत्यनादृत्य द्रव्यभावप्रमादावभिधित्सुराह मज्ज विसय कसाया निदा विगहा य पंचमी भणिया। इअपंचविहो एसो होइ पमाओ य अपमाओ १८० द व्याख्या--माद्यन्ति येन तत् मद्य, यशाद्गम्यागम्यवाच्यावाच्यादिविभाग जनो न जानाति, अत एवाह “कार्याकार्ये न जानीते, वाच्यावाच्ये तथैव च । गम्यागम्ये च यन्मूढो, न पेयं मद्यमित्यतः॥१॥" विषीदन्ति-धर्म प्रति 94546456*6*64 दीप अनुक्रम [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३], मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: अथ अध्ययनं -४ "प्रमादाप्रमाद" आरभ्यते ~387 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||२०,,|| नियुक्ति: [१८०] उत्तराध्या बृहद्धृत्तिः ॥१९॥ NCCC प्रत सूत्रांक ||२०|| नोत्सहन्त एतेष्विति विषयाः, यद्वाऽऽसेवनकाले मधुरत्वेन परिणामे चातिकटुकत्वेन विषस्योपमा यान्तीति विषयाः, असंस्कृता. अत एवाविवेकिलोकाऽऽसेविता विवेकिलोकपरित्यक्ताच, तदुक्तम्-"आपातमात्रमधुरा विपाककटवो वियोषमा विषयाः। अविवेकिजनाऽऽचरिता विवेकिजनवर्जिताः पापाः ॥१॥" कथ्यतेऽस्मिन् प्राणी पुनः पुनरावृत्तिभावमनुभवति कषोपलकष्यमाणकनकवदिति कषः-संसारस्तस्मिन् आ-समन्तादयन्ते-गच्छन्त्येभिरसुमन्त इति कषायाः, यद्वा कषाया इव कषायाः, यथा हि तुवरिकादिकषायकलुषिते वाससि मजिष्ठादिरागः श्लिष्यति चिरं चायतिष्ठते तथैतत्कलुषित आत्मनि कर्म सम्बध्यते चिरतरस्थिति के च जायते, तदायत्तत्वात् तस्थितः, उकं हि शिवशर्मणा"जोगा पयडिपएसं ठितिअणुभागं कसायओ कुणइ" इत्यादि, एतहुष्टता च निरुक्त्यैव भाविता, "णिद्दति नितरां द्रान्ति-गच्छन्ति कुत्सितामवस्थामिहामुत्र चानयेति निद्रा, तद्वशाद्धि प्रदीपनकादिषु विनाशमिहैवानुभवन्ति, |धर्मकार्येष्वपि शून्यमानसत्वान्न प्रवर्तन्ते, तथा चाह-"जांगरिया धम्मीणं अहमीणं च सुत्तया सेया । वच्छाहिवभ-18 गिणीए अकहिंसु जिणो जयंतीए ॥१॥" विरूपा स्त्रीभक्तचौरजनपदविषयतयाऽसम्बद्धभाषितया च कथा विकथा, तत्प्रसको हि-सरगुणदोषोदीरणादिभिः पापमेवोपार्जयति, अत एवाह वाचक:-"यावत् परगुणदोषपरिकीतेने ॥१९॥ १ योगात् प्रकृतिप्रदेशौ स्थित्यनुभागौ कषायतः करोति । २ जापत्ता धर्मिणामधर्मिणां च सुप्तता श्रेयसी । बत्साधिपभगिन्यै अचकथत् जिनो जयन्तौ ॥ १॥ 253%20%25555 दीप अनुक्रम [११५] +RS. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~388 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||२०,,,|| नियुक्ति: [१८०] *** प्रत सूत्रांक ||२०|| व्यापृतं मनो भवति । तावद्वरं विशुद्धे घ्याने व्यग्रं मनः कर्तुम् ॥१॥" इह च चूर्णिकृतेन्द्रियाण्येव पञ्चमप्रमादतया व्याख्यातानि, तत्र च विषयग्रहणेऽपि पुनरिन्द्रियग्रहणं विषयेष्वपीन्द्रियवशत एव प्रवर्सन्त इति तेषामेवातिदुष्टता* ख्यापक, महासामो अपि खेतद्वशादुपघातमानुवन्ति, आह च याचकः-"इह चेन्द्रियप्रसक्ता निधनमुपजग्मुः, तद्यथा-गायः सत्यकि कर्द्धिगुणं प्राप्तोऽनेकशास्त्रकुशलोऽनेकविद्याबलसम्पन्नोऽपी"त्यादि । एते च तत्तत्पुद्गलोपचितद्रव्यरूपतया विवक्ष्यमाणा द्रव्यप्रमाद आत्मनि च रागद्वेषपरिणतिरूपतया विवक्षिता भावप्रमाद इति हृदयम् , अत एव न भावप्रमादः पृथगुक्तः । उपसंहारमाह-'इती'त्यनन्तरमुपदर्शितः पञ्चविधः-पश्चप्रकारः 'एष' इति जाइहवोच्यमानतया प्रत्यक्षत उपलभ्यमानो 'भवति' विद्यते प्रकर्षेण माद्यन्त्यनेनेति प्रमादः अप्रमादय तदभावरूपः पञ्चविधो, भावस्य चैकत्वेऽपि प्रतिषेध्यापेक्षया पञ्चविधत्वमिति गाथार्थः ॥ १८० ॥ प्रस्तुतयोजनामाह६ पंचविहो अपमाओ इहमज्झयणमि अप्पमाओ यावणिजए उ जम्हा तेण पमायप्पमायति ॥ १८१॥ व्याख्या-पञ्चविधः चशब्दस्तद्गतभेदसूचकः प्रमादः 'इह'अस्मिन्नध्ययने अप्रमादश्च पञ्चविधो पर्यते, तुशब्दोऽन्याध्ययनेभ्यो विशेष द्योतयति, यस्माद्धेतोस्तेन प्रमादाप्रमादमित्येतदुच्यत इति गाथार्थः ॥ १८१॥ भइत्यवसितो नामनिष्पन्ननिक्षेपः, सम्प्रति सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपावसरः, स च सूत्रे सति भवति, तदम् दीप अनुक्रम [११५] * SEXXX पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~389~ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१८१] असंस्कृत प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य. असंखयं जीविय मा पमायए, जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं । बृहद्वृत्तिः एवं वियाणाहि जणे पमत्ते, कन्नू विहिंसा अजया गर्हिति ?॥ १॥ (सूत्रम्) ॥१९॥ व्याख्या-संस्क्रियत इति संस्कृतं न तथा शक्रशतैरपि सतो बर्द्धयितुं त्रुटितस्य वा कर्णपाशवदस्य सन्धातुम| शक्यत्वात् , किं तत् ?--जीवितं' प्राणधारणरूपं, ततः किमित्याह-मा प्रमादीः, किमुक्तं भवति -यदीदं कथञ्चित् संस्कर्तुं शक्यं स्यात् चतुरन्यवातावपि न प्रमादो दोषायैव स्यात् , यदा त्विदमसंस्कृतं तदैतत्परिक्षये प्रमादिनस्तदतिदुर्लभमिति मा प्रमादं कृथाः, कुतः पुनरसंस्कृतम् ?-जरया-वयोहानिरूपया उपनीतस्य-प्रक्रमा18|मृत्युसमीपं प्रापितस्य, प्रायो हि जरानन्तरमेव मृत्युरित्येवमुपदिश्यते, हुर्हेती, यस्मान्न अस्ति-विद्यते त्राण-शरणं येन मृत्युतो रक्षा स्यात् , उक्तं च वाचकः-"मङ्गलैः कौतुकर्योगैर्विद्यामन्त्रैस्तथौषधैः । न शक्ता मरणात् त्रातुं, | सेन्द्रा देवगणा अपि ॥१॥" यद्वा स्यादेतत्-वार्द्धके धर्म विधास्वामीत्याशङ्कयाह-जरामुपनीत:-प्रापितो गम्य मानत्वात् खकर्मभिर्जरोपनीतस्तस्य नास्ति त्राणं, पुत्रादयोऽपि हि न तदा पालयन्ति, तथा चात्यन्तमबधीरणा| स्पदस्य न धम्म प्रति शक्तिः श्रद्धा या भाविनी, यदा त्राणं येनासावपनीयते पुनर्योवनमानीयते न तारकरणमस्ति, ततो यावदसौ (त्वां) नासादयति तावद्धर्मे मा प्रमादी, उक्तं हि-“तयावदिन्द्रियबलं जरया रोमैने बाध्यते दीप अनुक्रम [११६] ★ ॥१९॥ JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~390 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||||| दीप अनुक्रम [११६] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||१|| अध्ययनं [४], निर्युक्तिः [१८१...] प्रसभम् । तावच्छरीरमूर्च्छा त्यक्त्वा धर्मे कुरुष्व मतिम् ॥ १ ॥” जरोपनीतस्य च त्राणं नास्तीत्यत्राट्टणो दृष्टान्तः, तत्र च सम्प्रदायः--- • उणी नयरी जियसत्तू राया, तस्स अट्टणो महो, सबरबेस अजेतो । इतो य समुद्दतडे सोपारयं जयरं, तत्थ सिंहगिरी राया, सो य महाणं जो जिणति तस्स बहुं दबं देति, सो य अट्टणो तत्थ गंतूण वरिसे बरिसे पडागं हरति, राया चिंतेइ एस अन्नाओ रजाओ आगंतॄण पडागं हरति, एसा ममं ओहावणचि पडिमलं मग्गति, तेण मच्छितो एगो दिट्ठो वसं पियँतो, बलं च से विन्नासियं, पाऊण पोसितो, पुणरवि अट्टणो आगतो, सो य किर मलजुद्धं हो| हितित्ति अणागते चेव सगातो जयरातो अप्पणो पत्थयणस्स वयलं भरेऊणं अधाबाहेणं एति, संपत्तो सोपारयं, जुद्धे पराजिओ मच्छियमलेणं, गतो सयं आवासं चिंतेइ - एयस्स बुढी तरुणस्स मम हाणी, अन्नं मग्गइ मलं, १ विनी नगरी जितशत्रू राजा, तस्याट्टनो महः सर्वराज्येषु अज्ञेयः । इतञ्च समुद्रतटे सोपारकं नगरं तत्र सिंहगिरी राजा, सच महानां यो जयति तस्मै बहु द्रव्यं ददाति स चाट्टनस्तत्र गत्वा वर्षे वर्षे पताकां हरति राजा चिन्तयति - एपोऽन्यस्मात् राज्यादागत्य पताकां हरति, एषा ममापभ्राजनेति प्रतिम मार्गवति, तेन मात्स्यिक एको दृष्टः वसां पिवन, बलं च तस्य जिज्ञासितं ज्ञात्वा पोषितः, पुनरप्यट्टनः आगतः, स च किल मल्लयुद्धं भविष्यतीति अनागत एव स्वस्मात् नगरात् आत्मनः पश्यदनस्य बलीवर्द भृत्वा अन्यायाधेनायाति, संप्राप्तः सोपारकं, युद्धे पराजितो मात्स्यिकमल्लेन, गतः स्वकमावासं चिन्तयति - एतस्य वृद्धिस्तरुणस्य मम हानिः, अन्यं मार्गयति महं, For Parent पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~391~ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति : [१८१...] बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य. सुणेति सुरठाए अस्थित्ति, एतेणं भरुकच्छहरणीगामे दूरेलकूवियाए करिसतो दिट्ठो, एकेणं हत्थेणं हलं वाहेइ, असंस्कृता. एक्कणं फलहीतो उप्पाडेति, तं दट्टण ठितो, पेच्छामि ताव से आहारेति, आपला मुक्का, मजा य से भत्तं गहाय । आगया, पत्थिया, कूरस्स उभजिय घडतो पेच्छति, जिमितो सण्णाभूमि गतो, तत्थ परिक्खइ, सर्व संबंहि, स चेया-1४॥ ॥१९॥ |लियंमि वसहि तस्स घरे मग्गति, दिजा। इतो य संकहा य, पुच्छइ-का जीविका १, तेण कहिए भणति-अहं अट्टणो तुम इस्सरं करेमित्ति, तीसे महिलाए कप्पासमोलं दिन्नं, सा य उवलेद्दा, उजेणिए गया, तेणवि वमणविरेयणाणि कयाणि, पोसितो णिजुद्धं सिक्वावितो, पुणरवि महिमाकाले तेणेव विहिणा आगतो, पढमदिवसे दाफलहियमलो, मच्छियमलोचि, जुद्धे एको अजितो एको अपराजितो, रायायि बीयदिवसे होहिइति अतिगतो १ शृणोति सुराष्ट्रायामस्तीति, एतेन भगुकच्छधरणीपामे दूर कूपिकायाः कर्षको दृष्टः, एकेन हस्तेन हलं वाहयति, एकेन कर्पासानुत्पादय-III ति, तं दृष्ट्वा स्थितः, प्रेक्षे तावदस्याहारमिति, बलीवदौं मुक्ती, भार्या च तस्य भक्तं गृहीत्वाऽऽगता, प्रस्थिता, फरस्म संपूर्ण(उद्भिद्य) घटं प्रेक्षते | जिमितः संशाभूमि गतः, तत्र परीक्षते, सर्व संवृतं, सवैकालिके वसति तस्य गृहे मार्गयति, दत्ता। इतश्च संकथा च, पृच्छति-का जीविका ! तेन कथिते भणति-भहमनस्त्वामीश्वरं करोमीति, तस्यै महिलायै कर्पासमूल्यं दत्तं, सा च संतुष्टा, उज्जयिन्यां गता (सा बलीवदोन | प्रगुणम्योजयिनी गता ), तेनापि वमनविरेचनानि कृतानि, पोषितो निबुद्ध शिक्षितः, पुनरपि महिमकाले तेनैव विधिना आगतः, प्रथमदिवसे कर्पास (फलही) मलो, मात्स्यिकमलोऽपि, युद्धे एकोऽजितः एकोऽपराजितः, राजाऽपि द्वितीयदिवसे भविष्यतीति अतिगतः २ हरेल. ३. हिअवही । ४ उबल्ला सबछेदा । उबलद्धा। k%CX दीप अनुक्रम [११६] - ९२॥ C % * * * पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~392 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१८१...] * *** * प्रत सूत्रांक ||१|| * | इमेवि सए २ आलए गया, अट्टणेण फलहियमल्लो भणितो-कहेहि पुत्ता ! जंते दुक्खावियं, तेण फहिय, मक्खित्ता मलितो सेएणं पुणण्णवीकतो, मच्छियस्सवि राणा संमद्दगा विसज्जिया, भणइ-अहं तस्स पिउणोऽपि ण वीहमि, सो को पराओ ?, बीयदिवसे समजुद्धा, तईयदिवसे अंबप्पहारो णीसहो पइसाहं ठितो मच्छितो, अट्टणेण|| भणितो-फलहित्ति, तेण फलिहग्गहेण कहितो सीसे कुंडिकागाहेण, सकारितो गतो उजेणिं । तत्थ य विमुकजुज्झवावारो अच्छति, सो य महल्लोत्तिकाउं परिभूयए सयणवम्गेणं, जहा-अयं संपयं ण कस्सइ कजस्स खमोत्ति, पच्छा से सो माणेणं तेसिं अणाउच्छाए कोसंबिए णयरिए गतो, तत्थ वरसमेत्तं उवरेगमतिगतो रसायणं उवजीवेति, सो ? बलिट्ठो जातो, जुद्धमहे पवत्तेति, रायमलो पिरंगणो णाम, तं णिहणति, पच्छा राया मण्णुइतो-मम मलो| १ इमावपि स्वस्मिन् स्वस्मिन् आलये गतौ, अट्टनेन फलहिमलो भणित:-कथय पुत्र ! यत्ते दुःखितं, तेन कथितं, म्रक्षित्वा मर्दितः सेकेन पुनर्नवीकृतः, मात्स्यिकायापि राज्ञा संमईका विसृष्टाः, भगति-अहं तस्य पितुरपि न विभेमि, स को वराकः ?, द्वितीय दिवसे समयुद्धौ, तृतीयदिवसे प्रहारातों निस्सहः वैशासं स्थितो मात्स्यिकः, अट्टनेन भणित:-फलहिरिति, तेन पाणिपादेण कृष्टः शीर्षे कुण्डिकाप्राहेण, सत्कृतो गत उज्जयिनी । तत्र च विमुक्त युद्धव्यापारस्तिष्ठति, स च वृद्ध इतिकृता परिभूयते खजनवर्गेण, यथाऽयं साम्प्रतं न कस्मैचित् कार्याय क्षम इति, पचास मानेन ताननाछच कौशाम्न्यां नगर्या गतः, तत्र वर्षमात्रमुपरेक(नियापारता )मतिगतो रसायनमुपजीवति, स| बलियो जातः, युद्धमहे प्रवर्तते, राजमहो निरजनो नाम, तं निहन्ति, पश्चाद् राजा मन्युवित्तो मम मझ * दीप *** अनुक्रम [११६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~393 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [११६] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥१९३॥ Jus Educator [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||१|| अध्ययनं [४], निर्युक्तिः [१८१...] | आगंतॄणा विहणितोति ण पसंसई, रायाणे य अपसंसंते सदो रंगो तुण्डिको अच्छति, इतो य अट्टणेण राइणो जाणण| णिमित्तं भण्णति-'साइद वण ! सउणाणं साहह भो सउणिगा सउणिगाणं णिहतो गिरंगणो अट्टगेण णिक्खित्तसत्थेणं | ॥ १ ॥ एवं भणियमेत्ते राइणा एस अट्टणोत्तिकाउं तुट्टेण पूजितो, दबं च से पज्जत्तियं आमरणंतियं दिण्णं, सयणवग्गो य से तं सोउं तस्स सगासमुवगतो, पायवडणमाईहिं पत्तियावेउं दवलोभेणं अल्लियावितो, पच्छा सो चिंतेइ-ममं एते दबलोभेण अछियावेंति, पुणोऽवि मम परिभविस्संतित्ति, जरापरिगतो अहं ण पुणो सुमहल्लेणावि पयत्तेण सकिस्सं जुवत्तं काउं, तं जावऽज्जवि सचेट्टो ताव पचयामित्ति संपहारेउं पञ्चतितो ॥ एवं जरोपनीतस्याट्टनस्येवान्यस्यापि न त्राणं- बन्धुभिः पालनं जरातो वा रक्षणम्, 'एव' मित्येवं प्रकारं पाठान्तरतः - एनं वा- अनन्तरोक्तमर्थ 'विजानीहि' विशेषेण विविधं वा अवबुध्यस्व तथैतच्च वक्ष्यमाणं जानीहि यथा 'जनाः' लोकाः 'प्रमत्ताः प्रमादपराः, १ आगन्तुकेन विहृत इति न प्रशंसति, राशि चाप्रशंसति सर्वो रङ्गस्तूष्णीकस्तिष्ठति, इतश्चाट्टनेन राज्ञो ज्ञापननिमित्तं भण्यते— कथय वन ! शकुनेभ्यः कथयत भोः शकुनिकाः ! शकुनिकान् । निहतो निरञ्जनोऽट्टनेन निक्षिप्तशस्त्रेण १ ॥ एवं भणितमात्रे राज्ञा एषोऽहन इतिकृत्वा तुष्टेन पूजितः, द्रव्यं च तस्मै पर्याप्तमामरणान्तिकं दत्तं स्वजनवर्गंध तस्य तत् श्रुत्वा तस्य सकाशमुपगतः पादपतनादिभिः प्रत्याय्य द्रव्यलोभेनाश्रितः, पश्चात्स चिन्तयति मामेते द्रव्यलोभेनाश्रयन्ति, पुनरपि मां पराभविष्यन्तीति, जरापरिगतोऽहं न पुनः सुमहताऽपि प्रयत्नेन शक्ष्यामि यौवनं कर्तु तद्यावदद्यापि सचेष्टस्तावत्प्रव्रजामीति संप्रधार्य प्रवजितः । For Patenty असंस्कृता. ~394~ ४ ॥१९३॥ www.janbay.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४३ ], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१८१...] प्रत सूत्रांक ||१|| उभयत्र सूत्रत्वादेकवचनं, 'कम्' अर्थ प्रक्रमात् त्राणं, नु इति वितर्के, विविधम्-अनेकधा हिंसा-हिंसनशीलाः,13 आर्यत्वाद्वा वीति-विश्रब्धान् खेषु खेपूत्पत्तिस्थानेष्वनाकुलमवस्थितान् जन्तून् हिंसन्तीति विहिंसाः, तथा अयता:तत्तत्पापस्थानेभ्योऽनुपरताः 'गहिन्ति त्ति सूत्रत्वाद् गमिष्यन्ति, ग्रहीष्यन्ति वा-खीकरिष्यन्ति, किमुक्तं भवति?टू एवमेतेप्रमत्तादिविशेषणान्विता जनाः स्वकृतैरीदग्भिः कर्मभिर्नरकादिकमेव यातनास्थानं गमिष्यन्ति ग्रहीष्यन्ति वा. दयद्वैवं नीयते-असंस्कृतं जीवितमिति मा प्रमादीरित्यादि (दौ) गुरुणोक्त कदाचिच्छिष्यो वदेत्-बहुरयं जनः प्रमत्तः, तद्वदहमपि भविष्यामीत्याशय गुरुराह-भद्र ! एवं जानीहि जनः प्रमत्तो विहिंस्रोऽयतः 'कन्नु'त्ति कामप्यवक्तव्यां नरकादिगतिमसौ गमिष्यति ग्रहीष्यति वा, अतः किं तव विवेकिन एवंविधजनव्यवहाराश्रयणेन ?, सूत्रत्वाच्चैकत्वेऽपि बहुवचनमिति सूत्रार्थः ॥ १॥ असंस्कृतं जीवितमित्युक्तम् , अतस्तद् व्याचिख्यासुराह नियुक्तिकृत् उत्तरकरणेण कयं जं किंची संखयं तु नायवं । सेसं असंखयं खलु असंखयस्सेस निज्जुत्ती ॥ १८२॥ MI व्याख्या-मूलतः खहेतुभ्य उत्पन्नस्य पुनरुत्तरकालं विशेषाधानात्मक करणमुत्तरकरणं तेन कृतं-निर्वर्तितं, 'यत्किञ्चिदि'त्यविवक्षितघटादि, यत्तदोर्नित्यमभिसम्बन्धात् तत् संस्कृत, तुः अवधारणे, स चैवं योज्यते-यदुत्तरकरणकृतं तदेव संस्कृतं ज्ञातव्यं, 'शेषम्' अतोऽन्यत्संस्कारानुचितं विदीर्णमुक्ताफलोपममसंस्कृतमेव, खलुशब्द| स्यैवकारार्थत्वात् , असंस्कृतमित्यस्य सूत्रावयवस्य 'एषा' वक्ष्यमाणलक्षणा नियुक्तिः, बहुवक्तव्यतया च प्रतिज्ञानम् , CARRIERRORSRAECE 25-355442 दीप अनुक्रम [११६] inatandinrayom पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~395 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१८२] प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य. अथवा यथाऽऽचारपञ्चमाध्ययनस्य 'आवन्ती'त्यादानपदेन नाम तथा अस्याप्यसंस्कृतमिति नाम, ततश्चासंस्कृतना-असंस्कृता. बृहद्वृत्तिः मोऽस्यैवाध्ययनस्यैषा नामनिष्पन्ननिक्षेपनियुक्तिस्तत्प्रस्ताव एव ब्याख्यातव्येति गाथार्थः ॥१८२॥ सम्प्रति संस्कृत-N प्रतिषेधादसंस्कृतं विज्ञायत इति संस्कृतशब्दस्य निक्षेपो वाच्यः, तत्र च यद्यपि समित्युपसर्गोऽप्यस्ति तथाऽपि ॥१९४॥ [ धात्वर्थद्योतकत्यात्तस्य करणस्यैव चात्र धात्वर्थात्तदेव निक्षेमुमाह नियुक्तिकृत् नामंठवणार्करणं खित्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु करणंमी णिक्खेवो छबिहो होइ ॥१८३ ।। व्याख्या-नाम स्थापना द्रव्यं क्षेत्रं कालः 'तथैवेति तेनैव वस्तुरूपतालक्षणेन प्रकारेण 'भावे य'त्ति भावश्च, एष एव-अनन्तरोक्तः, खलुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् 'करणे' करणविषये 'निक्षेपों न्यासः पविधो भवति, किमुक्त भवति ?-नामकरणादिभेदेन निक्षिप्यमाणं षड्विधमेव करणं भवतीति गाथार्थः ॥ १८३ ॥ तत्र च नामकरणं करणमिति नामैव नानो वा करणं नामकरणं-प्रियङ्करशुभङ्करायभिधानाधानं, यदिवा नामतः करणं नामकरणं, यत्पूज्यनामापेक्षया पूजादिविधानं, स्थापनाकरणम्-अक्षनिक्षेपादि, यो वा यस्य करणस्याकारः, तथा च भाष्यकृत् Ti| | | "णाम णामस्स व णामतो य करणंति णामकरणंति । ठवणाकरणं नासो करणागारो य जो जस्स ॥१॥" द्रव्यकरणं तु द्रव्यमेव क्रियत इति करणं, कृत्यल्युटोऽप्यन्यत्रापीति (कृत्यल्युटो बहुलम् पा०३-३-१३३) कर्मण्यपि १ नाम नाम्रो वा नामराश्च करणमिति नामकरणमिति । स्थापनाकरणं न्यासः करणाकारण यो यथा ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [११६] CSC JAMERatinintamational vपूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३], मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~396 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||||| दीप अनुक्रम [११६] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||१|| अध्ययनं [४], निर्युक्तिः [१८३] ल्युटो दर्शनात्, भावसाधनपक्षे तु द्रव्येण द्रव्यस्य द्रव्ये वा यथासम्भवं क्रियात्मकं करणं, तथा चाह -" "तं तेणं तस्स तंमि व संभवतो उ किरिया मया करणं । दवस्स व दद्वेण व दबंमि व दकरणंति ॥ १ ॥ " तचागमनोआगमभेदतो द्विधा, तत्रागमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तो, नोआगमतस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तभेदात्त्रिधा, तत्र ज्ञशरीर भव्य शरीरद्रव्यकरणे प्रतीते एवेत्यनादृत्य तद्व्यतिरिक्तमाह |दवकरणं तु दुविहं सन्नाकरणं च नोय सन्नाए । कडकरणमटुकरणं वेलूकरणं च सन्नाए ॥ १८४ ॥ व्याख्या- द्रव्यकरणं, तुशब्दो नोआगमत इदमिति विशेषद्योतकः, 'द्विविधं द्विप्रकारं संज्ञाकरणं च 'णो य सण्णाए'ति करणमिति प्रक्रमात् चशब्दो भिन्नक्रमः, ततश्च नोसंज्ञाकरणं च । तत्र संज्ञाकरणमाह' कटकरणं कटनिर्वर्त्तकं चित्राकारमयोमयं पाइलगादि, 'अर्थकरणम्' अर्थाभिनिर्वर्त्तक मधिकरण्यादि येन द्रम्मादि निष्पाद्यते, अर्थार्थ वा करणमर्थकरणं यत्र राज्ञोऽर्थाश्विन्त्यन्ते, अर्थ एव वा तैस्तैरुपायैः क्रियत इत्यर्थकरणं, बेलुकरणं च रुतपूणिकानिर्वर्त्तकं चित्राकारमयं वेणुशलाकादि, 'संज्ञायां' संज्ञाकरणे, आह— नामकरणसंज्ञाकरणयोः कः प्रतिविशेषो ?, न हि नामसंज्ञाशब्दयोरर्थान्तरविषयत्वमुत्पश्यामः, उच्यते, इह नामकरणं करणमित्यभिधानमात्रं, संज्ञाकरणं तु यत्रान्वर्थोऽस्ति, संज्ञाकरणेषु हि कटकरणादिषु क्रियतेऽनेनेति करणमि१ तचेन तस्य तस्मिन्वा संभवतस्तु क्रिया मता करणम् । द्रव्यस्य वा द्रव्येण वा द्रव्ये वा द्रव्यकरणमिति ॥ १ ॥ uttaration For at Use Only www पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४३ ], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~397~ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||||| दीप अनुक्रम [११६] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||१|| निर्युक्तिः [१८४] अध्ययनं [४], उत्तराध्य. ५ यनुगतोऽर्थः प्रतीयते, द्रव्यरूपाणि चैतानि, करणमितिरूढ्या तु संज्ञाकरणान्युच्यन्ते, आह च भाष्यकृत् - “सन्ना नामंति मई तण्णो णामं जमहिहाणं ॥ जं वा तयत्थवियले कीरति दवं तु दवणपरिणामं । पेलुकरणादि बृहद्वत्ति: न हि तं तयत्थसुन्नं ण वा सहो ॥ १ ॥ ज ण तदत्यविहीणं तो किं दबकरणं १. जतो तेणं । दक्षं कीरति सन्नाकरणंति य करणरूढीओ ॥ २ ॥” नोसंज्ञाकरणं तु यत्करणमपि सन्न तत् संज्ञया रूढं, उक्तं हि-पोसन्नाकरणं पुण |दवस्सारूढ करणसन्नंपी" ति गाथार्थः ॥ १८४ ॥ एतदेव भेदतोऽभिधातुमाह ॥ १९५॥ नोसन्ना करणं पुण पओगसा वीससा य बोद्धवं । साईअमणाईअं दुविहं पुण विस्ससाकरणं ॥ १८५ ॥ व्याख्या - नोसंज्ञाकरणं पुनः 'पओगसा वीससा यति सूत्रत्वात् प्रयोगतो विश्रसातश्च बोद्धव्यं तत्र प्रयोगःजीवव्यापारः तद्धेतुकं करणं प्रयोगकरणं, उक्तं च- "होई पओगो जीववावारो तेण जं विणिम्माणं । सज्जीवमजीवं वा पओगकरणं तयं बहुहा ॥ १ ॥” एतद्विपरीतं तु विश्रसाकरणं, तत्र पश्चादुक्तमप्यल्पवक्तव्यमिति विश्रसाकरण १ संज्ञा नामेति मतिस्तन्नो नाम यदभिधानम् ।। यद्वा तदर्थविकले क्रियते द्रव्यं तु द्रवणपरिणामम् । बेणुकरणादि नैव तत् तदर्थशून्यं न वा शब्दः ॥ १ ॥ यदि न तदर्थविहीनं तदा किं द्रव्यकरणं १ यतस्तेन । द्रव्यं क्रियते संज्ञाकरणमिति च करणरूढितः ॥ २ ॥ २ नोसंज्ञाकरणं पुनर्द्रव्यस्यारूढकरणसंज्ञमपि । ३ भवति प्रयोगो जीवव्यापारः तेन यद्विनिर्माणम् । सजीवमजीवं या प्रयोगकरणं तकत् बहुधा ।। १ ।। aurat namation For P असंस्कृता. ~398~ ४ ॥ १९५॥ www.janbay.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४३], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||||| दीप अनुक्रम [११६] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||१|| अध्ययनं [४], निर्युक्तिः [१८६] माह-सहादिना वर्त्तते सादिकं ततोऽन्यत्त्वनादिकमिति भेदतो द्विविधं पुनरिति मूलभेदापेक्षया, विश्रसाकरणम्उक्तरूपमिति गाथार्थः ॥ १८५ ॥ तत्रानादिकं वक्तुमाह- धम्माधम्मागासा एवं तिविहं भवे अणाईयं । चक्खुअचक्खुप्फासे एयं दुविहं तु साईयं ॥ १८६ ॥ व्याख्या - धर्माधर्माकाशानामन्योऽन्य संवलनेन सदाऽवस्थानमनादिकरणं, न हि तत्कदाचिन्नासीन्नास्ति न भविष्यति वा, उक्तं हि "धम्माधम्मणहाणं अणाइसंहायणाकरण" न च करणमनादि च विरुद्धमिति वाच्यं यतोऽत्रान्योऽन्यसमाधानं करणमभिप्रेतं, न त्वन्योऽन्यनिर्वत्र्त्तनम् आह च- "अन्नोऽन्नसमाहाणं जमिहं करणं ण वित्ती", इह च धर्माधर्माकाशानां करणमिति वक्तव्ये कथञ्चित्क्रियाक्रियावतोरभेददर्शनार्थमनुकूलित क्रियत्वख्यापनार्थ वा धर्माधर्माकाशाः करणमित्युक्तम्, 'एतद्' अनन्तरोक्तं 'त्रिविधं त्रिप्रकारं 'भवेत्' स्यात् अनादिकं, करणमिति प्रक्रमः इत्थमनादिकं पश्चान्निर्दिष्टमपि पश्चानुपूर्व्यपि व्याख्याङ्गमिति ख्यापनाय उक्त, सम्प्रति तु सादिकमाह- 'चक्खुमचक्खुप्फासे' त्ति स्पर्शशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, ततश्चक्षुषा स्पृश्यते-गृद्यमाणतया युज्यत इति चक्षुःस्पर्श-स्थूलपरि गतिमत्पुद्गलद्रव्यम् अतोऽन्यदचक्षुःस्पर्शम्, 'एयं दुविहं तुति एतद्विविधमेव, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् सादिकमिति गाथार्थः || १८६ ।। इदमेव द्वितयं व्यक्तीकर्तुमाह १ धर्माधर्मेनमसामनादिसंघातनाकरणम् । २ अन्योऽन्य समाधानं यदिह (तत्) करणं न निर्वृत्तिः ॥ Education intimation For Parts Only by org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४३ ], मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~399~ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१८७] बृहद्वृत्तिः 5 प्रत सूत्रांक ||१|| मा उत्तराध्या खंधेसु अ दुपएसाइपसु अब्भेसु अब्भरुक्खेसुं। णिप्फण्णगाणि दवाणि जाणि तंवीससाकरणं ॥१८७॥ असंस्कृता 8. ब्याख्या- स्कन्धेषु च' परमाणुसञ्चयात्मकेषु द्विप्रदेशादिकेषु आदिशब्दात्त्रिप्रदेशादिपरिग्रहः, परमाणपश्चा दिनेनैवोपलक्षिताः, 'अभ्रेषु' प्रतीतेपु 'अभ्रवृक्षेषु' तद्विशेषेष्वेव वृक्षाकारेषु, उपलक्षणं चैतदिन्द्रधनुरादीनां, तथा च ॥१९॥ सम्प्रदाया-चक्खुप्फासियं जं चक्खुसा दीसइ, तं पुण अभा अन्भरुक्खा एवमाई'। श्यते च 'अम्मेसु बिजमा दीसुत्ति, तत्र च यदि विद्युत्प्रतीतैव गृह्यते तदा तस्याः सजीवत्वात्तच्छरीरस्य चौदारिकशरीरकरणाख्यप्रयोगकर-2 णत्वप्रसक्तिः, अथ विद्योतन्त इति विद्युन्ति तानि आदिर्येषां तानि विद्युदादीन्यभ्राणि तेष्वित्यभ्रविशेषणतया व्याख्यायते, आदिशब्दाच धूम्रादिपरिग्रह इति, तदा नोक्तदोषः, परमप्रातीतिक, सामायिकनियुक्तौ चाभ्रादीन्येव विश्रसाकरणमुक्तं, तद्यथा-"चक्खुसमचक्खुसंपि य सादियं रूविवीससाकरणं । अभाणुप्पमितीणं बहुहा संघायभेयकयं ॥१॥"ति, नेह तत्त्वनिश्चयः, तेषु द्विप्रदेशादिष्वभ्रादिषु वा किमित्याह-निष्पन्नान्येव निष्पन्नकानि, जीवव्यापार विनैव भेदसङ्घाताभ्यां लब्धसत्ताकानि द्रव्याणि तद्विश्रसाकरणं सादि, चाक्षुषमचाक्षुषं वेति प्रक्रमः, द्विप्रदेशादिकरणानि हि सदाता भेदात् सखातभेदाभ्यां च विनाऽपि जीवप्रयोगं निष्पद्यन्ते. निष्पन्नान्यपि च न चक्षपा ॥१९६॥ | १ चक्षुःस्पर्श यचक्षुषा दृश्यते, तत्पुनरभ्राणि अभ्रवृक्षा एवमाद्याः।२ चाक्षुषमचाक्षुषमपि च सादिकं रुपिवित्रसाकरणम् । अभ्राणुप्रभृतीनां बहुधा संघातभेदकृतम् ॥ १॥ %% % दीप % अनुक्रम [११६] %%252-5* JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~400 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१८७] % प्रत सूत्रांक ||१|| वीक्ष्यन्ते इत्यचाक्षुषं विश्रसाकरणम् , अभ्रादिकरणानि तु खयं निष्पद्यन्ते चक्षुषा च वीक्ष्यन्त इति चाक्षुषं विश्रसाकरणम् , अत्र च पश्चादुद्दिष्टस्यापि यदचाक्षुषस्व प्रथममभिधानं तत्प्राग्वत्पश्चानुपूर्येति गाथार्थः ॥ १८७ ॥ सम्प्रति प्रयोगकरणमाह-. दुविहं पओगकरणं जीवेतर मूल उत्तरं जीवे । मूले पंचसरीरा तिसु अंगोवंगणामं च ॥१८८॥ व्याख्या-द्विविधं' द्विभेद-प्रयोगकरणं 'जीवत्ति' जीवप्रयोगकरणम् 'इयरे'त्ति अजीवप्रयोगकरणं, तत्र जीवनउपयोगलक्षणेन यदीदारिकादिशरीरमभिनिर्वयेते तजीवप्रयोगकरणं, तब द्विधा-मूलकरणमुत्तरकरणं च, तत्र 'मूल' इति मूलकरणे विचार्यमाणे 'पञ्च' इति पञ्चसङ्ख्यावच्छिन्नानि विशीयन्ते-उत्पत्तिसमयतःप्रभृति पुद्गलविचटनाद्विनश्य-18 ६न्तीति शरीराणि-औदारिकवैक्रियाहारकतैजसकार्मणानि, इह च विषयविषयिणोरभेदोपचारेण करणविषयत्वाच्छरी-|| राण्यपि करणमुक्तं, मूलत्वं चोत्तरोत्तरावयवब्यक्त्यपेक्षया, ततश्च यदवययविभागविरहितमौदारिकॅशरीराणां प्रथमम-|| |भिनिर्वर्तनं तत् मूलकरणं, 'तिम अंगोवंगणामं चेति, चशब्दः प्रकृतमनुकर्षति, तचेह प्रक्रमादुत्तरकरणमेवानुकृष्यते, ततश्च त्रिघु-औदारिकवैक्रियाहारेषु तैजसकार्मणयोस्तदसम्भवादशोपाङ्गनामैवोत्तरकरणमिति सम्बन्धः, अत्र चागोपाङ्गनामशब्देनाङ्गोपाङ्गनामकर्मनिवर्तितान्यङ्गोपाङ्गानि गृह्यन्ते, कार्य कारणोपचारात्, आह च भाष्यकृत्-“सजीवं १ सजीवं मूलोत्तरकरणं मूलकरणं यदादौ । पञ्चाना देहानामुत्तरमावित्रिकस्यैव ॥ १ ॥ दीप ER-058 अनुक्रम [११६] binataram.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~401 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि"-मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१८९-१९०] ला उत्तराध्य. बृहदृत्तिः A प्रत ॥१९७॥ सूत्रांक 6-645 ||१|| मूलुत्तरकरणं मूलकरणं जमादीए । पंचण्हं देहाणं उत्तरमादीतियस्सेव ॥ १॥” इति गाथार्थः ॥ १८८ ॥ कानि असंस्कृता. पुनस्तान्यज्ञानीत्याह सीसमुरोयरपिट्टी दो बाहू अ हुंति ऊरू अ। एए अटुंगा खलु अंगोवंगाइँ सेसाइँ ॥ १८९॥ हुँति उवंगा कण्णा नासऽच्छी जंघ हत्थ पाया या अंगोवंगा अंगुलिनहकेसामंसु एमाइ ॥१९०॥ व्याख्या-तत्राद्या प्राग्वत् , नवरम् अङ्गोपाङ्गानि उपलक्षणत्वादुपाङ्गानि च शेषाणि, तानि वक्ष्यन्त इति शेषः, तत्रोपाङ्गानि कौँ नासे अक्षिणी जके हस्तौ पादौ च, अङ्गोपाङ्गानि अङ्गुलयो नखाः केशाः स्मश्रु 'एवमादीनि' एवं-18 प्रकाराण्युत्तरकरणं, वृद्धास्त्वङ्गान्यपि मूलकरणमिति मन्यन्ते, आपेक्षिकत्वाच मूलोत्तरत्वयोरुभयथाऽप्यविरोध इति । गाथाद्वयार्थः ॥ १८९-१९० ॥ इदमेवान्यथाऽऽहतेसिं उत्तरकरणं बोद्धवं कण्णखंधमाईयं । इंदियकरणा ताणि य उवधायविसोहिओ हुंति ॥ १९१॥ व्याख्या-'तेषाम् ' आद्यानां त्रयाणां शरीराणामुत्तरकरणं 'बोद्धव्यम्' अवगन्तव्यं, 'कण्णखंधमादीय'ति । तत्रौदारिकस्य कर्णयोध्यापादनं स्कन्धस्य च मर्दनादिना दृढीकरणम् , आदिशब्दाद्दन्तरागादिकरणपरिग्रहः, एवं वैक्रियस्थापि, आहारकख तु नास्त्येव, गमनादिना वा तस्याप्युत्तरकरणमिति प्राचं । तथा इन्द्रियाणां-चक्षुरादीनां दीप अनुक्रम [११६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~402 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१९१] प्रत सूत्रांक ||१|| करणानि-अवस्थान्तरापादनानि इन्द्रियकरणानि, तानि च 'उपघातविशुद्धितः' उपघातात् विशुद्धेव भवन्ति, तत्रोपघाताद्विषाद्यभ्यवहारतोऽन्धवधिरताचापादनानि विशुद्धितच ब्राह्मीसमीराअनादिना स्पष्टताद्यापादनान्य-II त्तरकरणं भवति, पठ्यते च-इंदियकरणं च तह'त्ति अत्र चैकवचनान्ततया सर्व व्याख्येयमिति गाथार्थः ॥ १९१॥ अथवाऽन्यथा करणमुच्यतेसंघायणपरिसाडणउभयं तिसु. दोसु नस्थि संघाओ। कालंतराइ तिण्हं जहेव सुत्तमि निविद्रं ॥१९॥ व्याख्या-'संघायणे ति संहन्यमानानां-संयुज्यमानानामौदारिकादिपुद्गलानां तैजसकार्मणपुद्गलैः सह यदापात्मनस्तत्तत्पुद्गलग्रहणात्मिकासु तदनुकूलक्रियासु वत्तेनात्मकं प्रयोजकत्वं सा सङ्घातना, तथा परि:-समन्ताच्छटता-४ पृथग्भवतामौदारिकादिपुद्गलानां यदात्मनस्तान्प्रति तत्चच्छरीरविमोक्षात्मकं प्रयोजकभवनं सा परिशाटना, उभावभिहितायवयवावस्येति उभयं-सङ्घातनापरिशाटनाकरणं । किमिदं त्रयमपि पञ्चखप्यौदारिकादिषु अथान्यथेत्याहत्रिष्वाधेपु, किमुक्तं भवति ?-औदारिकवैक्रियाहारकेपु, 'द्वयोः' तैजसकार्मणयोः, किमित्याह-'नास्ति' न विद्यते, द कोऽसौ ?-सङ्घातः, तदभावाच सङ्घातनापि नास्तीति भावः, सा हि प्रथमत उत्पद्यमानस्य जीवस्य तैलभृततसतापिकाप्र क्षिप्तापूपवत् तैलसरशानौदारिकादिपुद्गलानाददानस्यैवौदारिकादिष्वपि वर्ण्यते न च तैजसकार्मणयोः प्रथमत उपादानसम्भवः, अनादिसंहतिमत्वात्तयोः, परिशाटना तु शैलेशीचरमसमये, प्रतिसमयं सचातनापरिशाटनोभयं च सम्भ दीप S अनुक्रम [११६] Palanmiorary om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~4030 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१९२] प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य. वत्सेव, कालान्तरादि त्रयाणामित्यस्यायमर्थः-त्रयाणां सहातनापरिशाटनोभयेषां काल:-कियत्काल सखातना परि- असंस्कृता. शाटनोभयं चेत्येवमात्मकः अन्तरं च सवातनायाः सकृदबासौ पुनः कियता कालेनावासिरेवंरूपम् , एवं परिशाटनाया बृहद्वृत्तिः उभयस्य च, आदिशब्दात सादित्वानादित्वे च. किमित्याह-'यथैवेति येनैव प्रकारेण 'सूत्रे' सामायिकाध्ययने ॥१९॥ निर्दिष्टा' इति आपत्वात् निर्दिष्ट प्रतिपादितमिति गाथार्थः ॥ १९२ ॥ एतचातिदिष्टमपि नियुक्तिकृता विनेया नुग्रहार्थं सम्प्रदायत उच्यते, स चायम्एयोणि तिन्निवि करणाणि कालतो मग्गिजंति-तत्थोरालियसंघायकरणं एगसमइयं, जं पढमसमओववन्नगस्स, जहा तेल्ले ओगाहिमतो छूढो तप्पढमयाए आइयति, एवं जीवोऽवि उबवजंतो पढमे समये गेण्हति ओरालियसरीतपाओग्गाई दबाई, न पुण मुंचति किंचियि, परिसाडणावि समओ, मरणकालसमए एगंततो मुंचति न गिण्हति, मज्झिमकाले किंचि गेण्हड किंचि मुंचति, जहणणेणं खुडागं भवग्गहणं तिसमऊणं, उकोसेणं तिन्नि पलिओवभाई | १ एतानि श्रीण्यपि करणानि कालतो मृग्यन्ते-तत्रौदारिकसंघातकरणमेकसामयिकं, यत्प्रथमसमयोत्पन्नस्य, यथा सैलेऽवगाहकः क्षिप्तस्त- ॥१९॥ है प्रथमतयाऽऽदत्ते, एवं जीवोऽपि उत्पद्यमानः प्रथमे समये गृह्णाति औदारिकशरीरप्रायोग्याणि द्रव्याणि, न पुनर्मुश्चति किञ्चिदपि । परिशाटनाऽपि समयः(म्), मरणकालसमये एकान्ततो मुञ्चति न गृहाति, मध्यकाले किञ्चिद्हाति किश्चिन्मुञ्चति, जघन्येन क्षुहकभवग्रणं त्रिसमयोनम् , उत्कृष्टेन त्रीणि पल्योपमानि दीप अनुक्रम [११६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~404 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१९२] प्रत सूत्रांक ||१|| समऊणाणि,-दो विग्गहमि समया समओ संघायणाय तेहूर्ण । खुड्डागभवग्गहणं सचजहन्नो ठितीकालो ॥१॥ उकोसो समऊणो जो सो संघयणासमयहीणो। किह ण दुसमयविहीणो साडणसमए विहीणंमि ! ॥२॥ भण्णति । जाभवचरिमंमिवि समए संघायसाडणा चेव । परभवपढमे साडणमतो तदूणो ण कालोत्ति ॥३॥ जइ पुरपढमे साडोर णिबिग्गहतो य तंमि संघातो। णणु सन्चसाडसंघायणातो समए विरुद्धातो ॥ ४ ॥ आचार्य आह-जम्हा विगच्छमाणं विगयं उप्पजमाणमुप्पन्नं । तो परभवादिसमए मोक्खादाणाण ण विरोहो ॥५॥ चुतिसमए णेहभवो इहदेहविमोक्खतो जहातीतो। जद परभवोविण तर्हि तो सो को होउ संसारी ॥६॥णणु जह विग्गहकाले 2 देहाभावेऽपि परभवग्गहणं । तह देहाभामिवि होजेहभवोऽपि को दोसो ? ॥७॥ चिय विग्गहकालो १ समयोनानि-द्वौ विप्रहे समयौ समयः संघातनायाः तैरूनम् । क्षुल्लकभवग्रहणं सर्वजघन्यः स्थितिकालः ॥ १॥ उत्कृष्टः समयोनः यः स संघातनासमयहीनः । कथं न द्विसमयविहीनः शाटनसमये विहीने ॥२॥ भण्यते भवचरमेऽपि समये संघातशाटने एव । परभवप्रथमे शाटनमतस्तवूनो न काल इति ॥ ३ ॥ यदि परभवप्रथमे शाटो निर्षिमहत्तश्च तस्मिन् संघातः । ननु सर्वशाटसंघातने समये विरुद्धे ॥ ४ ॥ यस्माद्विगच्छद्विगतमुत्पद्यमानमुत्पन्नम् । सतः परभवादिसमये मोक्षादानयोने विरोधः ॥ ५॥ च्युतिसमये नेहभव |इहदेहविमोक्षतो यथाऽतीतः । यदि परभवोऽपि न तत्र ततः स को भवतु संसारी ॥६॥ ननु यथा विग्रहकाले देहाभावेऽपि परभवग्रहणम् । तथा देहाभावेऽपि भवेदिहभवोऽपि को दोषः ॥ ७॥ यत एव विग्रहकाल: दीप अनुक्रम [११६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~405 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१९२] बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य देहाभावेऽवि तो परभवो सो । चुतिसमए उण देहो न विग्गहो जइ स को होउ ॥८॥ इदाणि अंतरं- असंस्कृता. संघायंतरकालो जहण्णयं खुड्यं तिसमऊणं । दो विग्गइंमि समया तइयो संघायणासमओ ॥९॥ तेहूर्ण खुडभव है। परिउ परभवमविग्गहेणं वा । गंतूण पढमसमए संघाययतो स विण्णेओ ॥१०॥ इदाणि संघायपरिसार्डतरं-उम-12I ॥१९॥ सयंतरं जहणं समओ णिबिग्गहेण संघाए । परमं सतिसमयातिं तेत्तीसं उदहिणामाई॥११॥ अणुभविउं देवा दिसु तेत्तीसमिहागयस्स ततियंमि। समए संघाययतो दुविहं साडतरं वोच्छं ॥ १२॥ खुड(डा)गभवग्गहणं जहण्णमु कोसयं च तेत्तीसं । तं सागरोवमाई संपुण्णा पुषकोडी य॥१३॥ आह-इह क्षुल्लकमवग्रहणं पूर्णमौदारिकसवेंशा-1 टियोर्जघन्यमन्तरमुक्तं, तब 'परभवपढमे साडो' इति वचनात्समयोनमेव प्राप्नोतीति कथं न विरोधः १, उच्यते, निश्चयनयमतमिदं 'परभवपढमे साडोंति, स शुत्तरपर्यायोत्पादमेव पूर्वस्य विनाशमेवाह विगच्छदेव च विगतमुत्प १ देहाभावेऽपि ततः परभवः सः । च्युतिसमये तु न देहो न विग्रहो यदि स को भवतु ॥ ८॥ इदानीमन्तर-संघातान्तरकालो बाजधन्यं शुल्कस्त्रिसमयोनः । द्वौ विमहे समयौ तृतीयः संघातनासमयः ॥९॥ तैरूनं श्रुतकभवं धृत्वा परभवमविप्रहेण वा । गत्या ॥१९९॥ प्रथमसमये संघातयतः स विशेयः॥१०॥ इदानी संघातपरिशाटान्तरम्-उभयान्तर जघन्य समयो निर्विग्रहेण संधाते । परमं सत्रिसमयास्त्रयस्त्रिंशदुधयः ॥ ११ ॥ अनुभूय देवादिषु त्रयस्त्रिंशतमिहागतस्य तृतीये । समये संघातयतो द्विविधं शाटान्तरं वक्ष्ये ॥ १२ ॥ MIक्षुलकभवग्रहणं जघन्यमुत्कृष्टं च त्रयविंशत् । तत् सागरोपमाणि संपूर्णानि पूर्वकोटी च ॥ १३ ॥ दीप अनुक्रम [११६] JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~406 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||||| दीप अनुक्रम [११६] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [४], मूलं [--] / गाथा ||१|| निर्युक्ति: [१९२] द्यमानमेव चोत्पन्नं यत उक्तम्- "जम्हा विगच्छमाणं विगय" मित्यादि, तथा चास्य य एवोत्तरभवोत्पादः स एव पूर्वभवपरित्यागः, एवं च यदेवोत्तरभवदारिकपुद्गलानां सङ्घातस्तदैव पूर्वभवौदारिकपुद्गलानां शाट इति परभवप्रथमसमय एवैतदभिप्रायेण शाटः, व्यवहारनयमतेन त्वन्य एवोत्तरस्योत्पादः अन्य एव च पूर्वस्य विनाशो, विनष्टस्यैव च विनष्टता उत्पन्नस्यैव चोत्पन्नता, ततो न य एवोत्तरभवोत्पादः स एव पूर्वभवपरित्यागः, एवं चान्यदेवोत्तरभवौदारिकपुद्गलानां सङ्घातोऽन्यदैव च पूर्वभवदारिकपुद्गलानां शाटः, ततो नास्य परभवप्रथमसमय एव सङ्घातशाटी, किन्तु पूर्वभवान्त्यसमय एव शाटः उत्तरभवाद्यसमय एव सङ्घातः, तथा च निश्चयव्यवहारनयात्मकत्वाजिनमतस्य यदाऽसौ क्षुलकभव उत्पद्यते तदा व्यवहारनयस्याश्रयणात्पूर्वभवान्त्यसमय एव शाटो विवक्ष्यते, यदा तु तत | उद्वर्त्तते तदा निश्चयनयाङ्गीकरणात्परभवप्रथमसमय एवोत्पाद इति परिपूर्णमेव लकभवग्रहणमौदारिकसर्वशाटयोर्जघन्यमन्तरमिति न कश्चिद्विरोधः । ईदाणिं विउचियस्स - वेउचिय संघातो समतो सो पुण विउवणादीतो । ओरालियाण अहवा देवादीणाइगहणंमि ॥ १ ॥ उकोसो समयदुगं जो समय विउबिउं मतो वितिए । समए सुरेसु १ इदानीं वैक्रियस्य वैक्रियसंघातः समयः स पुनर्विकुर्वणादेः । औदारिकाणामथवा देवादीनामादिग्रहणे ॥ १ ॥ उत्कृष्टः समयद्विकं यः समयं विकुर्व्य मृतो द्वितीये । समये सुरेषु Education intentional Forest Use Only www.incibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~407~ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१९२] प्रत उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२०॥ सूत्रांक ||१|| वचंद णिविग्गहओ य जंतस्स ॥ २॥ उभयग्गहणं समतो सो पुण दुसमयविउबियमयस्स । परमतराई संघाय-IX असंस्कृता. समयहीणाई तेत्तीसं ॥३॥ वेउचियसरीरपरिसाडणकालोऽवि समयतो चेव ॥ इदाणिं अंतरं-वेउषियसरीरसंघायंतरं जहण्णणं एगं समयं, सोऽपि य पढमसमए विउब्विय मयस्स विग्गहेणं तइए समए बेउविएसु देवेसु संघायंतस्स भवति, अहवा ततियसमए विउधिय मयस्स अविग्गहेणं देवेसु संघायंतस्स, संघायपरिसाडंतरं जहण्णेणं समय एव, सो पुणोऽचिर विउविय मयस्स अविग्गहेणं संघायंतस्स भवति । साडस्स अंतरं-जहन्नेणं अंतोमुहुतं ।। |तिण्डषि एतेर्सि उकोसेणं अर्णतं कालं-वणस्सइकालो। इदाणिं आहारयस्स-आहारे संघाओ परिसाडो य समयं 4 समो होइ । उभयं जहण्णमुक्कोसयं च अंतोमुहुत्तं तु ॥१॥ बंधणसाडुभयाणं जहन्नमंतोमुहुत्तमंतरणं । उको| जति निर्विप्रहत्तश्च गछतः ।। २ ।। उभयग्रहण समयः स पुनद्वौं समयौ विकुष्यं मृतस्य । परमतराणि संघातसमयहीनानि | प्रयस्त्रिंशत् ॥ ३॥ वैफियशरीरपरिशाटनकालोऽपि समय एव । इदानीमन्तरं-क्रियशरीरसंघातान्तरं जधन्येनैक: समया, सोऽपि च प्रथमसमये बिकुच॑ मृतस्य विप्रहेण तृतीये समये वैक्रियेषु देवेषु संघातयतो भवति, अथवा तृतीयसमये विकुळ मृतस्याविप्रहेण देवेषु । संघातयतः संघातपरिशादान्तरं जघन्येन समय एव, स पुनरचिरं विकुळ मृतस्य अविपहेण संघातयतो भवति । शाटस्थान्तरं-जघन्ये नान्तर्मुहूर्त । त्रयाणामप्येतेषामुत्कृष्टेनानन्तः कालो-वनस्पतिकालः । इदानीमाहारकप-आहारके संघातः परिशाटन समयः समो भवति । ४) उभयं जपन्यमुत्कष्ट चान्तर्मुहूर्तमेव ॥ १ ॥ बन्धनशाटोभयानां जघन्यमन्तर्मुहूर्तमन्तरम् । उत्कृ दीप अनुक्रम [११६] ॥२०॥ wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~408 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१९३-१९४] प्रत सूत्रांक ||१|| सेणमवह पोग्गलपरियट्ट देसूर्ण ॥२॥ तेयाकम्माणं पुण संताणाणादितो ण संघातो । भवाण होज साडो सेलेसीचरिमसमयंमि ॥ ३॥ गतं जीवमूलप्रयोगकरणम् , उत्तरप्रयोगकरणमाह| इत्तो उत्तरकरणं सरीरकरणं पओगनिष्फन्नं। तं भेयाऽणेगविहं चउविहमिणं समासेणं ॥ १९३॥ संघायणा य परिसाडणा य मीसे तहेव पडिसेहो। पडसंखसगडथूणा उढतिरिच्छाण करणं च ॥१९॥3 ___ व्याख्या-'इत' इति मूलप्रयोगकरणादनन्तरम् 'उत्तरकरण मिति उत्तरप्रयोगकरणम् , उच्यते इति गम्यते, तत्कतरदित्याह-शरीरं च तत्करणं च तां तां क्रियां प्रति साधकतमत्वेन शरीरकरणं तस्य प्रयोगः-वीर्यान्तरायक्षयोपशमजजीववीर्यजनितो व्यापार तेन निष्पन्नं शरीरकरणप्रयोगनिष्पन्नम् , अत एव शरीरनिष्पत्त्यपेक्षया-112 ऽस्योत्तरत्वमिति भावनीयं, 'तत्' इत्युत्तरकरणं 'भेदात्' इति भेदमाश्रित्य 'अनेकविधम्' अनेकप्रकारम् , इदमत्र तात्पर्यम्-संसारिणां कार्याणि विसदृशरूपाणि बहूनि दृष्टानि, अतसत्साधनैरपि करणैर्वहुभिरेव भवितव्यं, नापाः पुद्गलपरावतों देशोनः ॥२॥ तैजसकार्मणयोः पुनः संतानानावितों न संघातः । भव्यानां भवेत् शाटः शैलेशीचरमसमये ॥३॥ का उभयं अनादिणिहणं संतं भव्वाण होज केसिंथि । अन्तरमनादिभावाञ्चन्तविजोगवो न यसि ॥४॥] उभयमनादिनिधनं सान्तं भव्यान | भवेत्केषाश्चित् । अन्तरमनादिभावादत्यन्ताचियोगतो नैवानयोः ॥ ४ ॥ XXRXXXKARMA दीप अनुक्रम [११६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~409 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१९३-१९४] ॥२०॥ प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य. ४न च तानि विस्तरतो वक्तुं शक्यानि अत आह–'चतुर्विध' चतूरूपम् , 'इदम्' इत्युत्तरकरणं, समासेन, उच्यत असंस्कृता. हानि इति शेषः, तदेवाह-सङ्घातना च' संघातनाकरणं 'परिशाटना च' परिशाटनाकरणं 'मिस्से'त्ति मिश्रं सङ्घातनाप-४ पारिशाटनाकरणं तथैव 'प्रतिषेधः' इति सङ्घातनापरिशाटनाशून्यम् , अमीषां चोदाहरणानि दर्शयन्नाह–पटे सहा-|| तनैव तन्तुसङ्घातनिष्पन्नत्वात्तस्य, शङ्ख परिशाटनैव परिशाध्यमानत्वादेवाख, शकटे उभयं यतस्तत्र किञ्चित्सवात्सते कीलिकादि किश्चिच परिशाट्यतेऽधिकत्वगादि, स्थूणानामुभयाभावः, तथा च 'उहतिरिच्छाणं'ति भावप्रधानत्वा-18 सदस्योर्ध्वतियक्त्वयोः करणं, चशब्दान्त्रमनोन्नमनादि च तत्रोत्तरकरणं च, न तु सातनापरिशाटना च, आह इदमप्यजीवानां क्रियत इत्यजीवकरणमेव, तत्कथमस्थ जीवकरणत्वेनोपन्यासः १, उच्यते, जीवेन क्रियत इति विव-11 क्षया जीवकरणत्वेनेदमुक्तमित्यदोष इति गाथार्थः ॥ १९३-१९४ ॥ अजीवप्रयोगकरणमाह• अजियप्पओगकरणं दवे वण्णाइयाण पंचण्हं । चित्तकर(णं)कुसुभाईसु विभासा उ सेसाणं ॥१९५॥ व्याख्या-अस्याक्षरार्थः सुगमः ॥ १९७ ॥ भावार्थस्त्वयं- णिजीवाणं कीरइ जीवप्पओगओ तं तर |वषणादि रूबकम्मादि वावि तदजीवकरणन्ति ॥१॥ उक्तं द्रव्यकरणं, क्षेत्रकरणमाह ॥२०॥ ण विणा आगासेणं कीरइ जं किंचि खित्तमागासं । वंजणपरिआवन्नं उच्छुकरणमाइअंबहुहा ॥१९६॥ १ यद्यनिर्जीवानां क्रियते जीवप्रयोगतस्तत्तत् । वर्णादि रूपकर्मादि वाऽपि तदजीवकरणमिति ॥१॥ दीप अनुक्रम [११६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३) मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: अत्र नियुक्ति-गाथा १९५ व्याख्या मध्ये यत् ||१९७|| मुद्रितं तत् मुद्रणदोषः, अत्र ||१९५|| एव वर्तते ~410~ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१९६] प्रत सूत्रांक ||१|| व्याख्या-आह-नित्यत्वात्क्षेत्रस्य करणं न संगच्छते तत्कथं क्षेत्रकरणसम्भवः', उच्यते, न बिनाऽऽकाशेन 'क्रियते' निर्वय॑ते 'यदि ति यस्मात् 'किञ्चिदपि' अल्पमपि धणुकस्कन्धादि, अतस्तत्वाधान्याद् द्रव्यकरणमपि। क्षेत्रकरणमुच्यते इत्युपस्कारः, ननु यद्याकाशेन विना न किञ्चित् क्रियते तदाऽऽकाशकरणतैयास्तु कथं क्षेत्रकरजाणता ?, उच्यते, 'क्षेत्रम्' इति क्षेत्रशब्दवाच्यमाकाशं, तथा च पर्यायशब्दत्वादनयोरित्थमभिधानमदुष्टमेवेति भावः, तच व्यअनं-शब्दस्तस्य पर्यायः-अन्यथा च भवनं व्यञ्जनपर्यायः तमापन्न-प्राप्त व्यञ्जनपर्यायापन्नम् , 'उच्छुकरणदामाइय'ति प्रक्रमान्मकारस्य चागमिकत्वादिक्षुक्षेत्रकरणादिकं 'बहुधा' बहुप्रकारम् , एकत्वेऽपि क्षेत्रपेक्षुक्षेत्रकरणादिरूपेणामिलापस्य बहुप्रकारत्वात् , तथा च सम्प्रदायः-पंजणपरियावनं णाम जं खेत्तंति अभिलप्पति तंजहाउच्यखेतकरणं सालिखेत्तकरणं तिलखित्तकरणं एवमादि' अथवा यस्मिन् क्षेत्रे करणं क्रियते वयेते वा तत् क्षेत्रकरण-10 मिति गाथार्थः ॥ १९६ ॥ इदानीं कालकरणमाहकालो जो जावइओ जं कीरइ जंमि जमि कालंमि । ओहेण नामओ पुण हवंति इकारसक्करणा ॥१९७॥ व्याख्या-कालो 'यः' समयादिवत्परिमाणः यत्करणनिष्पत्तावपेक्षाकारणत्वेन व्याप्रियते, किमुक्तं भवति?४ यस्य भोजनादेविता घटिकाद्वयादिना कालेन निष्पत्तिस्तस्य स एव कालः करणं, तस्यैव तत्र साधकतमत्वेन | १ व्यञ्चनपर्यायापन्नं नाम यत्क्षेत्रमित्यमिलप्यते, तद्यथा-इक्षुक्षेत्रकरणं शालिक्षेत्रकरणं तिलक्षेत्रकरणमेवमादि । दीप अनुक्रम [११६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~411 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१९७] प्रत सूत्रांक ||१|| उचराध्य 13/विवक्षितत्वात् , यदि वा यत्करणं 'क्रियते' निष्पाद्यते यस्मिन् यस्मिन् काले तस्य स एव कालः करणं कालकरणम् , असंस्कृता. दि अत्राधिकरणसाधनत्वेन विवक्षितत्वात्करणशब्दस्य, 'ओघेने ति नामादिविशेषानपेक्षमेतत्कालकरणं, तथा च वृद्धाःबृहद्वृत्तिः 'कालकरणं जं जावतिएण कालेण कीरति, जंमि वा कालंमित्ति, इहापि कालस्याकृत्रिमत्वेन करणासम्भवादित्य॥२०२॥ मुपन्यासः, नामतः पुनर्भवन्त्येकादश 'करणानि' कालविशेषरूपाणि चतुर्यामप्रमाणानि, करणत्वं चैषां तत्तक्रिया साधकतमत्वादिति गाथार्थः ॥ १९७ ॥ कानि पुनस्तानीत्याहबवं च बालवं चेव, कोलवं थीविलोअणं । गराइ वणियं चेव, विट्ठी हवइ सत्तमी ॥ १९८॥ सउणि चउप्पयं नागं, किंसुग्घं करणं तहा। एए चत्तारि धुवा, सेसा करणा चला सत्त ॥ १९९ ॥ व्याख्या-वयं च बालवं चैव कौलवं स्त्रीविलोचनं गरादि वणिजं चैव विष्टिर्भवति सप्तमी । शकुनि चतुष्पदं नागं किंस्तुघ्नं करणं तथा, 'एतानीति शकुन्यादीनि चत्वारि 'ध्रुवाणी'त्यवस्थितानि, शेषाणि करणानि 'चलानि'अनवस्थितानि ससेति श्लोकद्वयार्थः ॥ १९८-१९९ ॥ कस्य पुनः क्व ध्रुवत्वमित्याह ॥२०२॥ |किण्हचउद्दसिरतिं सउणि पडिवजए सया करणं। इत्तो अहक्कम खलु चउप्पयं नाग किंछुग्धं ॥ २०॥ १ कालकरणं ययावता कालेन कियते, यस्मिन्या काल इति । 4 दीप + अनुक्रम [११६] wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~412~ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||||| दीप अनुक्रम [११६] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्ति: [२००] अध्ययनं [४], व्याख्या – कृष्णचतुर्दश्या रात्रौ शकुनिः प्रतिपद्यते, खरूपमिति शेषः, किं कदाचिदेवेत्याह- 'सदा' सर्वकालम्, अनेनास्यावस्थितत्वमाह, करणं प्राग्वद्, अत ऊर्द्ध 'यथाक्रमं यथापरिपाटि 'खलुः' अवधारणे ततो यथाक्रममेव, चतुष्पदं नागं किंस्तुघ्नमिति, तत्रामावास्यायां दिने चतुष्पदं रात्रौ नागं प्रतिपदि च दिने किंस्तुघ्नमिति गाथार्थः ॥ २०० ॥ सप्तविधकरणानयनोपायप्रतिपादिकेयं पूर्वाचार्य गाथा - "पैक्खतिहितो दुगुणिया दुरूवहीणा य सुकपक्संमि । सत्तहिए देवसियं तं चिय रूवाहियं रत्तिं ॥ १ ॥ एसात्थ भावणा - अभिमयदिणंमि करणजाणणत्थं पक्खतिहितो दुगुणियत्ति-अहिगयतिर्हि पडुच अतीयातो दुगुणिज्जंति, जहा सुद्धचउत्थीए दुगुणा अट्ठ हवंति, 'दुरुवहीणं'ति, सत्तहिए देवसियं करणं हवद, एत्थ य भागा छचेव, तओ बनाइयकमेण चउप्पहरियकरणभावेण | चउत्थिय दिवसे तो वणियं हवद, तं चिय रूवाहियं 'रर्त्ति 'ति रतीए विठ्ठी, कण्हपक्खे दोरुवा ण पाडिजंति, एवं १ पक्षतिथयों द्विगुणिता द्विरूपहीनाश्च शुकपक्षे । सप्तहृते दैवसिकं तदेव रूपाधिकं रात्रौ ॥ १ ॥ एषाऽत्र भावना - अभिमतदिने करणज्ञानार्थं पक्षतिथयो द्विगुणिता इति-अधिकृततिथिं प्रतीत्यातीता द्विर्गुण्यन्ते, यथा शुकुचतुर्थ्यां द्विगुणा अष्ट भवन्ति, द्विरूपहीनमिति सप्तहृते देवसिकं करणं भवति, अत्र च भागाः पदेव, ततो ववादिक्रमेण चतुष्प्राहरिककरणभावेन चतुर्ध्या दिवसे तद्वणिजं करणं भवति, तदेव रूपाधिकं रात्राविति रात्रौ विष्टिः । कृष्णपक्षे द्वे रूपे न पायेते, एवं For Fast Use Only पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~ 413~ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [२००] प्रत सूत्रांक ||१|| उत्तराध्य. सर्वत्थ भावणा कायवा, भणियं च-"किण्हनिसितईयदसमी सत्तमि चाउद्दसीसु अह विट्ठी । सुक्कचउत्थिक्कारसि- असंस्कृता. णिसि अट्ठमी पुषिणमा य दिवा ॥१॥" लौकिका अप्याहुः-"कृतरा सदिया दर भूतदिवा, शुचराष्टदिवैकरपूर्ण दिवा । यदि चन्द्रगतिश्च तिथिश्च समा, इति विष्टिगुणं प्रवदन्ति बुधाः ॥२॥" "सुद्धस्स पडिवइ निसि पंचमि-टू ॥२०॥ दिणि अट्ठमीऍ राई तु । दिवसस्स बारसी पुषिणमाय रत्तिं बवं होति ॥ १ ॥ बहुलस्स चउत्थीए दिवा य है तह सत्तमीऍ रतिपि । एकारसीए दिबसे बकरणं होइ नायचं ॥२॥" इति सम्प्रदायार्थः ॥ प्रागुद्दिष्ट | | भावकरणमाहदभावकरणं तु दुविहं जीवाजीवेसु होइ नायवं । तत्थ उ अजीवकरणं तं पंचविहं तु नायचं ॥ २०१॥ - व्याख्या-भावः-पर्यायः तस्य करणं भावकरणं, तत्पुनः तुशब्दस्य पुनरर्थत्वात् 'द्विविध विभेदं, कथमित्याह १ सर्वत्र भावना कर्त्तव्या, भणितं च (वाणिज) कृष्णनिशि तृतीयादशमीसप्तमीचतुर्दशीष्वय विष्टिः । शुकचतुर्येकादशीराग्योः अष्ट| मीपूर्णिमयोर्दिवा ॥१॥२ किति कृष्णपक्षे त्रिति तृतीयातियौ रेति रात्री सेति सप्तम्यां दिवेति दिवसे देति दशम्या रेति रात्रौ भूतेति चतुर्दश्यां दिवेति दिवसे श्विति शुक्लपक्षे चेति चतुर्ध्या रेति रात्रौ अष्टेत्यष्टम्यां दिवेति दिवसे एकेति एकादश्यां रेति रात्रौ पूर्णेति पूर्णिमायां है दिवा । ३ शुद्धस्य प्रतिपदि निशि पञ्चमीदिने अष्टम्यां रात्रौ तु । दिवसे द्वादश्याः पूर्णिमाया रात्री बवं भवति ॥१॥ कृष्णस्य चतुर्ध्या || दिवा च तथा सप्तम्या रात्रावपि । एकादश्या दिवसे ववकरणं भवति ज्ञातव्यम् ।। दीप अनुक्रम [११६] IPOR पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~414 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [२०१] * CLASS प्रत सूत्रांक ||१|| जीवाजीवेषु भवति 'ज्ञातव्यम्' अवबोद्धव्यं, किमुक्तं भवति ?-जीवविषयमजीवविषयं च, तत्राल्पवक्तव्यत्वादजीवभावकरणमेवादावुपदर्शयति-तत्थ जमजीवकरण ति तत्र-तयोयोर्मध्ये यदजीवकरणं तत् 'पञ्चविधं तु' पञ्च-| प्रकारमेव 'ज्ञातव्यम्' अबसेयमिति गाथार्थः ॥ २०१॥ एतदेव स्पष्टयितुमाह वण्णरसगंधफासे संठाणे चेव होइ नायव्वं । पंचविहं पंचविहं दुविहष्टविहं च पंचविहं ॥ २०२॥ व्याख्या-वर्णरसगन्धस्पर्श संस्थाने चैव, उभयत्र विषयसप्तमी, सतो वर्णादिविषयं भवति ज्ञातव्यम् , अजीवकरणमिति प्रक्रमः, तत्र वर्णः पञ्चविधः-कृष्णादिः, रसः पञ्चविधस्तिक्तादिः, गन्धो द्विभेदः-मुरभिरितरश्च, स्पर्शोऽष्टविधा-कर्कशादिः, संस्थानं पञ्चविध-परिमण्डलादि, एतद्भेदात्करणमप्येतद्विषयमेतावद्भेदमेव, अत एवाह-'पञ्चविध मित्यादि, ननु द्रव्यकरणाकोऽस्य विशेषः १, उच्यते, इह पर्यायापेक्षया तथाभवनमभिप्रेतं, द्रव्यकरणे तुम द्रव्यस्यैव तथा तथोत्पादो द्रव्यास्तिकमतापेक्षयेति विशेषः, उक्तं च-"अपरप्पओगज (ओ) जं अजीवरूवादि पजयावत्थं । तमजीवभावकरणं तप्पज्जाअप्पणावेक्खं ॥ १ ॥ को दधविस्ससाकरणाउ बिसेसो इमस्स ? नन १अपरप्रयोगजं (तो) यदजीवरूपादि पर्यायावस्थम् । तदजीवभावकरणं तत्पर्यायात्मनोऽपेक्षया ॥शा को द्रव्यविश्रसाकरणाद्विशेषोऽस्य ?. ननु भणितम् । इह पर्यायापेक्षया द्रव्यार्थिकनयमतं तच ॥ २॥ **KERA % दीप अनुक्रम [११६] %% % * पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~415 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [२०३] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२०॥ प्रत सूत्रांक ||१|| भणियं । इह पजयऽवेक्खाए दवट्टियनयमयं तं च ॥२॥” इति गाथार्थः ॥ २०२ ॥ उक्तमजीवभावकरणं, साम्प्रतं असंस्कृता. जीवभावकरणमाहजीवकरणं तु दुविहं सुयकरणं चैव नो य सुयकरणं । बद्धमबद्धं च सुअंनिसीहमनिसीहबद्धं तु ॥२०३॥ व्याख्या-जीवभावकरणं पुनः, तुशब्दस्य पुनरर्थत्वात् , 'द्विविधं' द्विप्रकारं, श्रुतस्य करणं श्रुतकरणं, भावकरणत्वं चास्य श्रुतस्य क्षायोपशमिकभावान्तर्गतत्वात् , चैवेति पूरणे, 'णो य सुयकरण ति चशब्दस्य व्यवहितसम्बन्धत्वात् नोश्रुतकरणं च । तत्राद्यमभिधित्सुराह-'बद्धं' प्रथितम् 'अबद्धं च एतद्विपरीतं श्रुते' श्रुतविषयं, करणमिति प्रक्रमः, तत्र च 'णिसीहमणिसीहबद्धं तु'त्ति बद्धं द्विविध-निशीथमनिशीथं च, तुशब्दबानयोरबद्धस्य च लौकिकलोकोत्तरभेदसूचकः, ततश्च निसीथं रहसि यत्पठ्यते व्याख्यायते या, तच लोकोत्तरं निशीधादि लौकिकं| बृहदारण्यकादि, अनिशीथमेतद्विपरीतं, तच लोकोत्तरमाचारादि लौकिकं पुराणादि, अबद्धमपि लौकिकलोको-14 |त्तरभेदेन द्विभेदमेव, तत्र लोकोत्तरं यथैका मरुदेव्यत्यन्तस्थावरा सिद्धा खयम्भरमणे मत्स्यपद्मयोर्यलयवोनि सर्वसंस्थानानि सन्ति, विष्णुकुमारमहर्योजनलक्षप्रमाणशरीरविकरणं कुरुडविकुरुडी कुणालायां स्थितावतिवृष्टया च ॥२०॥ तन्नाशः तयोधाशुभानुभावात्सप्तमनरकपृथिवीगमनं कुणालानाशाच भगवतो वीरस्य प्रयोदश्यां समायां केवलज्ञानोत्पत्तिरित्यादि अनेकप्रकारमाचार्यपरम्परायातं, लौकिकं त्वबद्धं द्वात्रिंशहडिकाः षोडश करणानि पञ्च स्थानानि, दीप अनुक्रम [११६] wwwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~416~ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [२०३] प्रत सूत्रांक ||१|| तद्यथा-आलीढं प्रत्यालीढं वैशाखं मण्डलं समपदं च, तत्रालीढं दक्षिणं पादमग्रतः कृत्वा वामपादं पृष्ठतः सारयति, अन्तरं द्वयोरपि पादयोः पञ्च पदानि, एतद्विपरीतं तु प्रत्यालीढं, वैशाखं पुनः पाणी अभ्यन्तरतः कृत्वा सम श्रेण्या व्यवस्थापयति, अग्रिमतलौ बहिर्भूतौ कायौं, मण्डलं द्वावपि पादौ दक्षिणवामतोऽवसायं ऊरू आकुञ्चति, दियथा मण्डलं भवति, अन्तरं चत्वारि पादानि, समपदं पुनः स्थान द्वावपि पादौ समौ नैरन्तर्येण स्थापयति. एतानि पञ्च स्थानान्यवद्धानि, शयनकरणं च षष्टमिति गाथाक्षरार्थः ॥ २०३ ॥ उक्तं श्रुतकरणमधुना नोश्रुतकरणमाह नोसुयकरणं दुविहं गुणकरणं तह य झुंजणाकरणं । गुण तवसंजमजोगा जुंजण मणवायकाए य २०४ FI ब्याख्या-इह च नोशब्दस्य सर्वनिषेधाभिधायित्वात् श्रुतकरणं यन्न भवति तन्नोश्रुतकरणं, तच द्वेधा-गण-12 करण 'तथा च' तेनेव नोश्रुतत्वलक्षणेन प्रकारेण योजनाकरणं च, एतत्खरूपमाह-'गुण'त्ति प्रक्रमाद् गुणकरणं, किमित्याह-तपश्च संयमश्च तपःसंयमी तयोरात्मगुणयोर्योगाः-तत्करणरूपा व्यापारास्तपःसंयमयोगाः, किमुक्त भवति ?-तपःकरणम्-अनशनादि संयमकरणं च-पञ्चाश्रवविरमणादि गुणकरणमुच्यते, गुणत्वं च तपःसंयमयोः कम्मनिर्जराहेतुत्वेनात्मोपकारित्वात् , 'झुंजण'त्ति योजनाकरणं 'मणबयणकाए यति चशब्दोऽवधारणे, विषयसप्तमी चेयं, ततो मनोवाकायविषयमेय, तत्र मनोविषयं सत्यमनोयोजनाकरणादि चतुर्धा, वाग्विषयमपि सत्यवाग्योजनाकरणादि चतुर्धेष, कायविषयं त्वौदारिककाययोजनाकरणादि सप्तधा, ततश्च द्वाभ्यां चतुष्काभ्यां सप्तकेन च मीलि K644645* दीप अनुक्रम [११६] wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~417 Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [२०५] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२०५॥ प्रत सूत्रांक ||१|| हा तेन पञ्चदशविध योजनाकरणं, योजयति बेतत्पश्चदशविधमपि कर्मणा सहात्मानमिति, आह च-"मणवयणकाय- असंस्कृता. किरिया पन्नरसविहा उ झुंजणाकरण"मिति गाथार्थः ॥ २०४॥ येन करणेनात्र प्रकृतं तदाहकम्मगसरीरकरणं आउअकरणं असंखयं तं तु । तेणऽहिगारो तम्हा उ अप्पमाओ चरित्तमि ॥२०५॥ | व्याख्या-'कर्मकशरीरकरणं' कार्मणदेहनिर्वर्तनं, तदपि ज्ञानावरणादिभेदतोऽनेकविधमित्याह-'आयुःकरणम्' इति आयुषः-पञ्चमकर्मप्रकृत्यात्मकस्य करणं-निर्वर्तनमायुःकरणं, तत्किमित्याह-'असंखयं तं तु'त्ति तत्पुनरायुःकरणमसंस्कृतं-नोत्तरकरणेन त्रुटितमपि पटादिवत्सन्धातुं शक्यं, यतः-"फुट्टो तुट्टा व इहं पडमादी संधयंति णयणिउणा । सा कावि णत्थि णीई संधिजइ जीवियं जीए ॥१॥" एवं च 'खरूपतो हेतुतो विषयतश्च व्याख्ये ति| खरूपतो हेतुतश्च 'उत्तरकरणेण कय'मित्यादिना ग्रन्थेन व्याख्यातम् , अनेन स्वायुष्ककरणयासंस्कृतत्वोपदशेनेन| विषयतः, इदानीं तूपसंहारमाह-'तेणऽहिगारो'त्ति 'तेने'त्यायुःकर्मणाऽसंस्कृतेनाधिकारः, 'तम्हा उत्ति तस्मात्र तुशब्दोऽयधारणार्थः, तस्य च व्यवहितः सम्बन्धः, ततोऽयमर्थः यस्मादसंस्कृतमायुःकर्म तस्मात् 'अप्रमाद एवं प्रमादाभाव एव, 'चरित्र' इति चरित्रविषयः कर्तव्य इति गाथार्थः ॥ २०७॥ एवं च व्याख्यातं संस्कृतम् , १ मनोवचनकायक्रिया पञ्चदशविधं तु योजनाकरणम् । २ स्फुटितास्युटिता वा इह पटादयः संवधति नयनिपुणाः । सा काथिआरित नीतिः संधीयते जीवितं यया ॥१॥ दीप अनुक्रम [११६] ॥२०५ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~418~ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||२|| नियुक्ति: [२०५] प्रत सूत्रांक ||२|| एतद्विपरीतं चासंस्कृतमिति । सम्प्रति सूत्रमनुश्रियते-तत्र चासंस्कृतं जीवितमिति जरोपनीतस्य न त्राणमिति च मा प्रमादीरित्युक्तेऽर्थस्थापि पुरुषार्थतया सकलैहिकामुष्मिकफलनिबन्धनतया च तदुपार्जनं प्रत्यप्रमादो विधेय इति केषाश्चित्कदाशयः, यत आह-"धनैर्दुष्कुलीनाः कुलीनाः क्रियन्ते, धनैरेव पापात्पुनर्निस्तरन्ति । धनिभ्यो विशिष्टो न लोकेऽस्ति कचिद्धनान्यर्जयध्वं धनान्यर्जयध्वम् ॥१॥” इति, तन्मतमपाकर्तुमाह जे पावकम्मेहि धणं मणुस्सा, समाययंतीअमति गहाय । पहाय ते पास पयहिए नरे, वेराणुबद्धा नरय उवेति ॥ २॥ (सूत्रम् ) व्याख्या-'य' इति ये केचनाविवक्षितस्वरूपाः 'पापकर्मभिः' इति पापोपादानहेतुभिरनुष्ठानैः 'धन' द्रव्यं 'मनुष्याः' मनुजाः, तेषामेव प्रायस्तदर्थोपायप्रवर्तनादित्यमुक्तं, 'समाददते' स्वीकुर्वन्ति, 'अमतिम्' इति प्राग्वन्ननः कुत्सायामपि दर्शनात् कुमतिम्-उक्तरूपा गहाय'त्ति गृहीत्वा सम्प्रधार्य, पठ्यते च-'अमयं गहाये'ति अशोभनं | मतममतं-नास्तिकादिदर्शनम्, अथवा अमृतमिवामृतम्-आत्मनि परमानन्दोत्पादकतया तच प्रक्रमाद्धनं पहाय'त्ति १ दन्यसकारवान् स्यात् , स्याद्वा संज्ञापूर्वको विधिरनित्य इति न्यायमाभित्य नामिसंज्ञोद्देशेन गुणविधानात् गुणाभावान आत्मनेपदे | |एवं, धातुर्वा पिपायावात्मनेपदी कस्यचिन्मते स्यात् तुदादी पा, कर्मणि प्रयोगातु न तत्कल्पनं । दीप अनुक्रम [११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~419~ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||२|| नियुक्ति: [२०५] प्रत सूत्रांक ||२|| उत्तराध्या प्रकर्षण तन्मध्यादल्पस्याप्यग्रहणात्मकेन हित्वा-त्यक्त्वा तानिति धनैकरसिकान् ‘पश्य' अवलोकय, विनेयमेवाह, असंस्कृता. 18 पयट्टिए'त्ति आर्षत्वात् खत एवाशुभानुभावतः प्रवृत्तान् प्रवर्त्तितान्या, प्रक्रमात्पापकर्मोपार्जितधनेनैव, मृत्युमुखबृहद्वृत्तिः मिति गम्यते, 'नरान्' पुरुषान् , पुनरुपादानमादरख्यापकमेकान्तक्षणिकपक्षनिरासार्थ वा, एकान्तक्षणिकपक्षे हिन ॥२०६॥ पायेरेव धनमुपार्जितं तेषामेव प्रवर्तनं, तथा च वन्धमोक्षाभावश्चेति भावः, एतथ पश्य पैरं-कर्म 'वरे' बजे य कम्मे य' इति वचनात् तेन अनुबद्धाः-सततमनुगताः 'नरक' रत्नप्रभादिक नारकनिवासम् "उपयान्ति तद्भवभावितया । सामीप्येन गच्छन्ति, त एष मृत्युमुखप्रवृत्ता इति प्रक्रमः, यदि वा पाशा इव पाशा:-यादयस्तेषु प्रवृत्तास्तैबार * प्रवर्तिताः पाशप्रवृत्ताः पाशप्रवर्तिता वा नरकमुपयान्तीति सम्बन्धः, ते हि द्रव्यमुपायं स्यादिष्वभिरमन्ते, तद भिरत्या च नरकगतिभाज एव भवन्तीति भावः, शेषं प्राग्वत् । तदनेन सूत्रेण धनमिहैव मृत्युहेतुतया परत्र च नरकटू प्रापकत्वेन तत्त्वतः पुरुषार्थ एव न भवतीति तस्यागतो धर्म प्रति मा प्रमादीरित्युक्तं भवति, नरकप्राप्तिलक्षणश्चा-||२|| है पायो न प्रत्यक्षेणावगम्यते (म्यत इती) हैव मृत्युलक्षणापायदर्शनमुदाहरणं, तत्र च वृद्धसम्प्रदायः-एंगंमि नयरे एगो । ४२०६॥ चोरो, सो रर्ति विभवसंपण्णेसु घरेसु खत्तं खणिउं सुबहुं दविणजायं घेत्तुं अप्पणो घरेगदेसे कूर्व सयमेव खणित्ता १ वैर वो च कर्मणि च । २ एकस्मिन्नगरे एकश्चौरः, स रात्री विभवसंपन्नेषु गृहेषु अत्र खनित्वा सुबहु द्रव्यजातं गृहीत्वाऽऽत्मनो हैकदेशे कूपं स्वयमेव खनिला दीप अनुक्रम [११७] wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~420 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||२|| नियुक्ति: [२०५] प्रत सूत्रांक ||२|| 4-70-% तत्थं दविणजायं पक्खिवइ, जहिच्छियं च सुकं दाऊण कण्णगं विवाहेउं पसूयं संति रतिं उद्दवेत्ता तत्थेवागडे पक्खिवह, मा मे मजा चेडरूवाणि य परूढपणयाणि होऊण रयणाणि परस्स पयासेस्संति, एवं कालो वञ्चति । अण्णया तेणेगा कण्णया विवाहिया अतीव रूवस्सिणी, सा पसूया संता तेण ण मारिया, दारगो य, सो अट्ठ परिसो जाओ, तेण चिंतियं-अइचिरं कालं विधारिया, एयं पुवं उद्दघेउं पच्छा दारयं उद्दविस्संति, तेण सा उद्दवेउ 3 अगडे पक्खित्ता, तेण य दारगेण गिहाओ निग्गच्छिऊण धाधाकया, लोगो मिलिओ, तेण भण्णइ-एएण मम । माया मारियत्ति, रायपुरिसेहिं सुयं, तेहिं गहितो, दिट्ठो कूवो दवभरितो, अट्ठाणि य सुबहूणि, सो बंधिऊण रायसमें समुवणीतो जायणापगारेडिं, सर्व दवं दवावेऊण कुमारेण मारितो॥ एवमन्येऽपि धनं प्रधानमिति तदर्थे । १ नत्र द्रव्यजातं प्रक्षिपति, यथेप्सितं च शुल्क दत्त्वा कन्यका विवाद्य प्रसूता सन्तीमपद्राव्य रात्री तवैवावटे प्रक्षिपति, मा मम भार्याश्रेटरूपाणि च प्ररूढप्रणयानि भूत्वा रवानि परम्मै प्राचीकशनिति, एवं कालो ब्रजति । अन्यदा तेनैका कन्यका विवोढा अतीव रूपवती, सा। [प्रसूता सन्ती तेन न मारिता, दारकश्च, सोऽष्टवर्पो जाता, तेन चिन्तितम्-अतिचिरं कालं विधूता, एनां पूर्वमपद्राव्य पश्चाद्दारकमपद्रोण्यामीति, तेन साउपद्राब्याक्टे प्रक्षिप्ता, तेन च दारकेण गृहात् निर्गत्य हाहारवः (कृतः), लोको मिलितः, तेन भण्यते-एतेन मम माता मारितेति, | राजपुरुषैः श्रुतं, तैर्गृहीतः, दृष्टः कूपो द्रव्यभृतः, अर्थाश्व सुबहवः, स बढ़ा राजसभा समुपनीतो थातभाप्रकारैः, सर्व द्रव्यं दापयित्वा कुमारेण मारितः 2 दीप अनुक्रम [११७] *- - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~421 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||३|| नियुक्ति : [२०५] उत्तराध्य बृहद्वत्तिः ॥२०७॥ प्रत सूत्रांक ||३|| प्रवर्त्तमानास्तदपहायेहैवानवापतितो नरकमुपयन्तीति सूत्रार्थः ॥ २॥ इदानीं कर्मणामवन्ध्यतामभिदधत् प्रकृतमेवार्थ द्रढयितुमाह तेणे जहा संधिमुहं गहीए, सकम्मुणा किच्चइ पावकारी। एवं पया पिच्छ इहं च लोए, कडाण कम्माण न मोक्खो अस्थि ॥३॥ (सूत्रम्) 31 व्याख्या-'स्तेनः' चौरः यथेति दृष्टान्तोपदर्शने सन्धिः-क्षत्रं तस्य मुखमिव मुखं-द्वारं तस्मिन् 'गृहीतः' आत्तः स्वकर्मणा' आत्मीयानुष्ठानेन, किम् ?-'कृत्यते' छिद्यते, 'पापकारी' पातकनिमित्तानुष्ठानसेवी, कथं पुनरसी कृत्यत इति चेद्-अत्रोच्यते सम्प्रदायःKI एगमि नयरे एगो चोरो, तेण अभिजतो घरगस्स फलगचियस्स पागारकविसीसगसंनिहं खत्तं खणिय, खत्ताणि |अणेगागाराणि-कलसागिई नंदावत्तसंठियं पउमागिई पुरिसागिई च, सो य तं कविसीसगसंठियं खत्तं वर्णतो घरसामिए णिवेईओ, ततो तेण अद्धपविठ्ठो पाएमु गहितो, मा पविट्ठो संतो पहरणेण पहरिस्सतित्ति, पच्छा | १ पकस्मिनगरे एकचौरः, तेनाभवस्य गृहस्य चितफलकस्य प्राकारकपिशीर्षकसंनिभं क्षत्रं खातं, क्षत्राण्यनेकाकाराणि-कलशाकृति नन्दावर्तसंस्थितं पद्माकृति पुरुषाकृति च, स च तत् कपिशीर्षकसंस्थितं क्षत्रं खनन् गृहस्वामिना निवित्तः, ततस्तेनार्धप्रविष्टः पादयोर्गृहीतः, मा प्रविष्टः सन् प्रहरणेन प्रहार्षीदिति, पश्चा दीप अनुक्रम [११८] ॥२०७॥ JAMERatinintamational wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~422 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||३|| नियुक्ति: [२०५] % प्रत सूत्रांक ||३|| 5 8 चोरणवि बाहिरत्येण हत्थे गहिओ, सो तेहिं दोहिषि बलवंतेहिं उभयहा कहिजमाणो सयंकियपागारकविसीसगेहिं फालिजमाणो अत्ताणो विलवित्ति ॥ एवममुनवोदाहरणदर्शितन्यायेन 'प्रजाः' हे प्राणिनः ! 'पेच्छत्ति प्रेक्षध्वं, प्राकृतत्वाद्वचनव्यत्ययः, एतच्च यत्रापि नोच्यते तत्रापि भावनीयम् , 'इह' अस्मिन् 'लोके' जन्मनि, आस्तां परलोक इत्यपिशब्दार्थः, 'कृतानां' खयंविरचितानां 'कर्मणां' ज्ञानावरणादीनां न मोक्ष' न मुक्तिः, ईश्वरादेरपि तद्विमोचनं प्रत्यसामर्थ्याद् , अन्यथा सकलसुखित्वाद्यापचेः, इदमुक्तं भवति-यथाऽसावर्थग्रहणवाञ्छया प्रवृत्तः खकृतेनेव क्षत्रखननात्मकोपायेन कृत्यते, न तस्य खकृतकर्मणो विमुक्तिः, एवमन्यस्यापि तत्तदनुष्ठानतोऽशुभकारिणो| न ततो विमुक्तिः, किन्तु तदिहापि विपच्यत एवेति, पठ्यते च एवं पया पेच इहं च'त्ति, इहापि कृत्यत इति । सम्बध्यते, कृत्यत इव कृत्यते तथाविधवाधानुभवनेन, काऽसौ ?-प्रजा, क-'प्रेत्य' परभये, 'इहं चेति इहलोके, किमिति प्रेत्येत्युच्यते-यावता इह कृतमिहेवापगतमत आह-यत् 'कृतानां' कर्मणां मोक्षो नास्ति ॥ (ग्रन्थानम् ५०००) इह परत्र वा वेद्यमेवावश्यं कर्मेति, अहवा एवं पया पेच इहपि लोए, ण कम्मुणो पीहति तो कयातील एवं प्रजा! आमन्त्रणपदमेतत् , प्रेत्येह लोके च यतःप्राणिनः कूत्यन्ते 'ता' इति ततो हेतोः 'कदाचित् ' कस्मि। १० चौरेणापि बायस्थेन हस्ते गृहीतः,स ताभ्यां द्वाभ्यामपि बलवयामुभयतः कृष्यमाणः स्वयंकृतप्राकारकपिशीर्षकैः पाट्यमानोऽत्राणो | विलपतीति । % % दीप अनुक्रम [११८] % % %% पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~4234 Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||३|| नियुक्ति : [२०५] प्रत सूत्रांक ||३|| सत्तराध्य. |श्चित्काले 'नेति निषेधे 'कम्मुणो'त्ति कर्मणे प्रस्तावात् कुत्सितानुष्ठानाय स्पृहयेत्-नाभिलायमपि कुर्याद् आस्तां असंस्कृता. तत्करणमित्याकूतं, तदभिलषणस्यापि बहुदोषत्वात , तथा च वृद्धाःबृहद्वृत्तिः एगमि नयरे एगेण चोरेण रतिं दुरवगाढे पासाए आरोढुं विमग्गेण खत्तं कयं, सुपडं च दबजायं णीणिय, ॥२०॥ णियघरं चऽणेण संपावियं । पहायाए रयणीए ण्हाय समालद्ध सुद्धं वासो तत्थ गतो, को किं भासतित्ति जाण णत्यं, जइ तावज लोगो में ण याणिस्सइ ता पुणोवि पुषटिइए चोरिस्सामीत्ति संपहारिऊण तंमि य खत्तट्ठाणे गओ, तत्थ य लोगो बहू मिलितो संलवति-कहं दरारोहे पासाए आरोढुं विमग्गेण खत्तं कयं कहं च खुहलएणं: खत्तदुवारेणं पविहो. पुणो य सह दवेण णिग्गओत्ति । सो सुणेउं हरिसितो चिंतेइ-सञ्चमेयं, किहऽहं एएण निग्ग-15 तोत्ति, अप्पणो उदरं च कडिं च पलोएउं खत्तमुहं पलोएति । सो य रायनिउत्तेहिं पुरिसेहिं कुसलेहि जाणितो, | १ एकस्मिन् नगरे एकेन चौरेण रात्री दुरबगाई प्रासादभारुह्य विमार्गेण क्षत्रं कृतं, सुबहु च द्वन्यजातं नीतं, निजगृहं चानेन संप्राहै पितं । प्रभातायां रजन्यां स्नात्वा समालभ्य शुद्ध वासस्तत्र गतः, कः किं भाषत इति मानार्थ, यदि तावदद्य लोको मां न ज्ञास्यति तदा पुनरपि पूर्वस्थित्या चोरविष्यामीति संप्रधार्य तस्मिंश्च क्षत्रस्थाने गतः, तत्र च बहुलॊको मिलितः संलपति-कर्थ दुरारोहं प्रासादमारुह्य ॥२०॥ विमार्गेण क्षत्रं कृतं १, कथं च क्षुलकेन क्षत्रद्वारेण प्रविष्टः १, पुनश्च सह द्रव्येण निर्गत इति । स श्रुत्वा इष्टचिन्तयति-सत्यमेतत्, कथमहमेतेन निर्गत इति ?, आरमन पदर च कटी च प्रलोक्य अत्रमुखं प्रलोकयति । स च राजनियुक्तः पुरुषैः कुशलैतिः , दीप अनुक्रम [११८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~424 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||३|| नियुक्ति: [२०५] प्रत सूत्रांक ||३|| शारायणो उवणीतो सासितो य ॥ एवं पापकर्मणामभिलषणमपि सदोषमिति न विदधीतेति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ इह तानां कर्मणामवन्ध्यत्वमुक्तं, तत्र च कदाचित् खजनत एव तन्मुक्तिर्भविष्यति, अमुक्ती वा विभज्यैवामी धना-115 दिवद् भोक्ष्यन्त इति कश्चिन्मन्येत अत आह संसारमावन्न परस्स अट्रा, साहारणं जं च करेति कम्म। कम्मरस ते तस्स उ वेयकाले, न बंधवा बंधवयं उति ॥४॥(सूत्रम्) ब्याख्या-पाठान्तरेऽपि पापकर्मस्पृहणं सदोषमिति निषिद्धं, ततस्तत्रापि स्यादेतत्-यथेह सर्व साधारणं तथाऽमुष्मिन्नपि भविष्यत्यत आह-'संसार सूत्रं, संसरणं-संसारः-तेषु तेपूचावचेषु पर्यटनं तम् आपन्ना-प्रासः, 'परस्य' आत्मव्यतिरिक्तस्य पुत्रकलत्रादेः, 'अर्थात्' इति अर्थ-प्रयोजनमाश्रित्य 'साधारण जं च'त्ति चस्य वाशब्दार्थत्वाद् भिन्नकमत्वाच साधारणं वा यदात्मनोऽन्येषां चैतद् भविष्यतीत्यभिसन्धिपूर्वकं करोति' निर्वर्त्तयति || भवान् , कर्महेतुत्वात् कर्म क्रियत इति वा कर्म-कृष्यादिकर्म तस्मैव कृष्यादेः 'ते' तव हे कृष्यादिकर्मकर्तः । 'तस्य' परार्थस्य साधारणस्य वा, तुशब्दोऽपिशब्दार्थः, आस्तामात्मनिमित्तं कृतस्पेसभिप्रायः, 'वेदनं' वेदो विपाक: १ राज्ञ उपनीतः शिक्षा प्रापि तश्च । दीप अनुक्रम [११८] Planatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~425 Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||४|| नियुक्ति: २०५] प्रत सूत्रांक ||४|| उत्तराध्य. तत्तत्कर्मफलानुभवनं तत्काले 'न' इति निषेधे, अवधारणफलत्याद्वाक्यस्य नैव 'बान्धवाः' खजनाः, यदर्थे । असंस्कृता. बृहद्वृत्तिः तत्कर्म कृतवान् करोषि वा ते 'वान्धवता' बन्धुभावं तद्विभजनापनयनादिना 'उति'त्ति उपयन्तीति, यतश्चैवमतस्तदुपरि प्रेमादिप्रमादपरिहारतो धर्म एवावहितेन भाव्यं, तथाविधाभीरीव्यंसकवणिग्वत् । तथा च ॥२०॥ वृद्धाः| एगंमि नयरे एगो वाणियगो अंतरावणेसुं ववहरइ, एगा आभीरी उजुगा दोरूवए घेत्तूण कप्पासनिमित्तमुवट्ठिया, कप्पासो य तया समग्घो वहृति, तेण वाणियएण एगस्स स्वस्स दो चारा तोलेउं कप्पासो दिनो, सा जाणइ-दोहवि रूवगाण दिन्नोत्ति, सा पोहलयं बंधिऊण गया, पच्छा वाणियतो चिंतेति-एस रूबगो मुहा लद्धो, दततो अहं एवं उवभुंजामि, तेण तस्स रूवगस्स समियं घयं गुलो विकिणिउं घरे विसजिउं भज्जा संलत्ता-घयपुण्णे | १ एकस्मिन्नगरे एको वणिम् अन्तरापणेषु (आपणान्तरेषु) व्यवहरति, एका आभीरी ऋजुका द्वौ रूप्यको गृहीत्वा कोसनिमित्तमुपस्थिता, कर्पासश्च तदा समों वर्तते, तेन वणिजा एकस्य रूप्यकस्य द्वौ बारौ तोलयित्वा कोसो दत्तः, सा जानाति-द्वयोरपि रूप्यकयोर्दत्त इति, सा पोट्टलिकां बद्धा गता, पश्चाद्वणिक चिन्तयति-एष रूप्यको मुधा लब्धः, ततोऽहमेनमुपभुजे, तेन तस्य रूप्यकस्य | | थुगपत् घृतगुडौ विक्रीय (क्रीत्वा) गृहे विसय भार्या संलमा-पूतपूर्णान् दीप अनुक्रम [११९] ॥२०९॥ wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~426 Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||४|| नियुक्ति: [२०५] प्रत सूत्रांक ||४|| -- 964 करेजासित्ति, ताए कया घयपुण्णा, जामाउगो से सवयंसो आगतो, सो ताए परिवेसितो घयपुण्णेहिं, सो भुजिउं गतो, वाणियतो पहाणपयतो भोयणत्थमुवगतो, सो ताए परिवेसितो साभाविएण भत्तेण, भणति-किन कया ४|घयउरा ?, ताए भण्णति-कया, परं जामाउएण सवयंसेण खतिया ?, सो चिंतेति-पेच्छ जारिसं कर्य मया, सा वराई आभीरी पंचेउं परनिमित्तं अप्पा अबुन्नेण संजोईओ, सो य सचिंतो सरीरचिंताए णिग्गतो, गिम्हो य वट्टति, सो मज्झण्हवेलाए कयसरीरचिंतो एगस्स रुक्खस्स हेट्ठा वीसमति, साहू य तेणोगासेण भिक्खणिमित्तं जाति, तेण सो भण्णति-भगवं! एत्थं रुक्खच्छायाए विस्सम मया समाणंति, साहुणा भणियं-तुरियं मए णियकजेण गंतवं, बणिएण भणियं-किं भयवं ! कोऽपि परकजेणावि गच्छद, साहुणा भणियं-जहा तुम चिय भज्जाइनिमित्तं किलि १ कुर्या इति, तया कृता घृतपूर्णाः, जामाता तस्य सवयस्य आगतः, स शया परिवेषितो घृत्तपूर्णैः, स भुक्त्या गतः, वणिक् स्नातप्रयतो भोजनार्थमुपगतः, स तया परिवेषितः स्वाभाविकेन भक्तेन, भणति-किं न कृता घृतपूर्णाः १, तथा भण्यते-कृताः, परं जागात्रा सवयस्येन खादिताः, स चिन्तयति-पश्य यादृशं कृतं मया, सा वराकी आभीरी बञ्चयित्वा परनिमित्तमात्माऽपुण्येन संयोजितः, सच सचिन्तः शरीरचिन्तायै निर्गतो, प्रीष्मश्च वर्तते, स मध्याह्नवेलायां कृतशरीरचिन्त एकस्य वृक्षस्याधस्तात् विशाम्यति, साधुश्च तेनावकाशेन | भिक्षानिमिचं याति, तेन स भण्यते-भगवन्नन्न वृक्षच्छायायां विश्राभ्य मया सममिति, साधुना भणित-स्वरितं मया निजकार्याय गन्तव्यं, वणिजा भणित-किं भगवन् ! कोऽपि परकार्यावापि गच्छति ?, साधुना भणितं-यथा त्वमेव भार्याविनिमित्तं दीप % अनुक्रम [११९] 30-१५ JAMERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~427 Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||४|| नियुक्ति: [२०५] उत्तराध्या बृहद्वृत्तिः ॥२१॥ प्रत सूत्रांक ||४|| 44A4 ससि, स मर्मणीव स्पृष्टः, तेणेव एक्कवयणेण संबुद्धो भणति-भयवं ! तुम्हे कत्थ अच्छह ?, तेण भण्णइ-उज्जाणे, असंस्कृता. ततो तं साहुं कयपजत्तियं जाणिऊण तस्स सगासं गतो, धम्म सोउं भणति-पवयामि जाव सयणं आपुच्छिऊणं, गतो णिययं घरं, बंधवे भजं च भणइ-जहा आवणे ववहरंतस्स तुच्छो लाभगो, ता दिसावाणिज करेस्सामि, दो य सत्यवाहा, तत्थेगो मुल्लभंडं दाऊण सुहेण इहपुरं पावेइ, तत्थ विढत्ते ण किंचि गिण्हति, वीओ न किंचि मुल्लभंडं देति, पुवविदत्तं च विलुपेति, तं कयरेण सह वचामि ?, सयणेण भणियं-पढमेण सह वच्चसु, तेहिं सो समणुण्णातो बंधुसहितो गओ उज्जाणं, तेहि भण्णति-कयरो सत्यवाहो ?, तेण भण्णति-णणु परलोगसत्यवाहो एस साहू असोग-1 छायाए उचविट्ठो णियएणं भंडेणं ववहारावेइ, एएण सह निवाणपट्टणं जामित्ति पचइतो ॥ यथा चायं वर्णिक १ किश्यसि, तेनैवैकवचनेन संबुद्धो भणति-भगवन्तो ! यूयं कुत्र तिष्ठय ?, तेन भण्यते-उद्याने, ततसं साधु कृतपर्याप्तिकं हात्वा तस्य सकाशं गतः, धर्म श्रुत्वा भणति-प्रवजामि यावत्स्वजनमापृच्छय, गतो निजं गृहं, बान्धवान् भार्या च भणति-यथा आपणे व्यवहरतस्तुच्छो लाभस्ततो विशावाणिज्यं करिष्यामि, द्वौ च सार्थवाही, तत्रैको मूल्यभाण्डं दत्त्वा सुखेनेष्टपुरं प्रापयति, तत्रोपार्जितान्न किश्चि-|| हाति, द्वितीयो न किचिन्मूल्यभाण्ड वदाति, पूर्वोपार्जितं च विलुम्पति (आच्छिनत्ति), तत्कतरेण सह प्रजामि', खजनेन भणिता-४॥२१०॥ प्रथमेन सह ब्रज, तैः स समनुज्ञातो बन्धुसहितो गत उद्यान, तैर्मण्यते-कतरः सार्थवाहः, तेन भण्यते-ननु परलोकसार्थवाह एष साधुरशोकच्छायायामुपविष्टो निजेन भाण्डेन व्यवहारयति, एतेन सह निर्वाणपत्तनं यामीति प्रश्नजितः । दीप अनुक्रम [११९] JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~428 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”-मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||४|| नियुक्ति: [२०५] प्रत सूत्रांक ||४|| खजनखतत्वमालोचयम् प्रत्रज्यां प्रत्यारतः, तथाऽन्यैरपि विवेकिभिर्यतितव्यं, तथा च पाचक:-"रोगामातो दुःखा-1 हितस्तथा खजनपरिवृतोऽतीव । कणति करुणं सबाष्पं रुजं निहन्तुं न शक्तोऽसौ ॥१॥ माता भ्राता भगिनी भार्या पुत्रस्तथा च मित्राणि । न भन्ति ते यदि रुजं खजनवलं किं वृथा वहसि ? ॥२॥ रोगहरणेऽप्यशक्ताः प्रत्युत धर्मस्य ते तु विघ्नकराः । मरणाच न रक्षन्ति खजनपराभ्यां किमभ्यधिकम् ? ॥३॥ तस्मात् खजनस्यार्थे । यदिहाकार्य करोपि निर्लज! भोक्तव्यं तस्य फलं परलोकगतेन ते मूढ! ॥४॥ तस्मात् खजनस्योपरि सह परिहाय निवृतो भूत्वा । धर्म कुरुष्व यत्नाद्यत्परलोकस्य पथ्यदनम् ॥ ५॥" इति सूत्रार्थः॥४॥ इत्थं तावत् स्वकृतकर्मभ्यः खजनान्न मुक्तिरित्युक्तम् , अधुना तु द्रव्यमेव तन्मुक्तये भविष्यतीति कस्यचिदाशयः स्थादत आह वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते, इममि लोए अदुवा परत्थ। दीवप्पणटे व अणंतमोहे, नेयाउयं दहमदहुमेव ॥ ५॥ (सूत्रम् ) व्याख्या-वित्तेन' द्रविणेन 'त्राणं' खकृतकर्मणो रक्षणं 'न लभते न प्राप्नोति इति, कीदृक् ?-'प्रमत्तः । मद्यादिप्रमादवंशगः, क-'इममित्ति अस्मिन्ननुभूयमानतया प्रत्यक्ष एव 'लोके' जन्मनि, 'अदुवे ति अथवा 'परत्रे'ति परभवे, कधं पुनरिहापि जन्मनि न त्राणाय १, अनोच्यते वृद्धसम्प्रदाय: दीप --RACLAXXX अनुक्रम [११९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~429~ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||५|| नियुक्ति: [२०६] बृहद्वृत्तिः ॥२१॥ प्रत सूत्रांक ||५|| उत्तराध्य. एगो किल राया इंदमहाईए कम्हि ऊसये अत्तपुरे निग्गच्छंते घोसणं घोसावेइ-जहा सधे पुरिसा नयरातो निग्ग-1 असंस्कृता. दिच्छंतु, तत्थ पुरोहियपुत्तो रायवल्लभो वेसाघरमणुपविहो घोसिएऽवि ण णिग्गतो, सो रायपुरिसेहिं गहितो, तेण वल्लभेण न तेसिं किंचि दाऊण अप्पा विमोइतो, दप्पायमाणो विवदंतो रायसगासमुवणीतो, राइणावि वज्झो आणचो, पच्छा पुरोहिओ उवट्टितो भणति-सवस्सपि य देमि मा मारिजउ, तोऽपि ण मुक्को, मूलाए भिन्नो। एवमन्येऽपि न वित्तेन शरणमिहैव तावदामुवन्ति, आस्तामन्यजन्मनि, तन्मूर्छावतः पुनस्तस्याधिकतरं दोषमाह|'दीवे'त्यादि वृत्ताई, तत्र च दीवमित्येतत्पदं संस्कारमनपेक्ष्येव निक्षेसुमाह नियुक्तिकृत् दुविहो य होइ दीवो दवदीवो अभावदीवो य । इकिकोऽवि अ दुविहो आसासपगासदीवो अ॥२०६॥ I व्याख्या-'द्विविधश्च' द्विभेद एव भवति, दीवेति प्राकृतपदोपात्तोऽर्थो, द्रव्यभावभेदात् , तथा चाह-दबदीवो य भावदीयो यत्ति, पुनरयमेकैकोऽपि द्विविधः, द्वैविध्यमेवाह-'आसास त्ति आश्वासयति अत्यन्तमाकुलितानपि १ एकः किल राजा इन्द्रमहादौ कस्मिंश्चिदुत्सवे स्वकीयपुरे निर्गच्छति घोषणां घोषयति-यथा सर्वे पुरुषा नगरान्निर्गच्छन्तु, तत्र पुरोहितपुत्रो राजवल्लभो वेश्यागृहमनुप्रविष्टो घोषितेऽपि न निर्गतः, स राजपुरुपैगृहीतः, तेन वल्लभेन तेभ्यः किञ्चिदत्त्वाऽऽत्मा न विमोचित्तः, दीयमाणो विषयन राजसकाशमुपनीतः, राज्ञाऽपि वध्य आज्ञप्तः, पश्चात्पुरोहित उपस्थितो भणति-सर्वस्वमपि च ददामि मा | मीमरः, तदापि न मुक्तः, शूलायां भिन्नः । AARLok24 दीप अनुक्रम [१२०] -2 -- * JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~430~ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [२०६] प्रत सूत्रांक ||५|| जनान् स्वस्थीकरोतीत्याश्वासः, स एव दीवत्तिपदसम्बन्धात् प्राकृतस्य शतमुखत्वादावासद्वीप इति भवति, तथा दप्रकाशयति-घनतिमिरपटलावगुण्ठितमपि घटादि प्रकटयतीति प्रकाशः, सर्वधातूनां पचादिषु दर्शनात् , स चासो दीप्यत इति दीपश्च प्रकाशदीपः, स च भवति दीवत्तिपदयाच्य इति गाथार्थः ॥ २०६ ॥ पुनरनयोरपि भेदमाहसंदीणमसंदीणो संधिअमस्संधिए अ बोद्धव्वे । आसासपगासे अ भावे दुविहो पुणिक्विको ॥ २०७॥ | व्याख्या-संदीयते-जलप्लावनात् क्षयमामोतीति सन्दीनः, तदितरस्त्वसन्दीनः, तथा 'संजोगिमे यति संयोगिमः, यस्तैलवय॑निसंयोगेन निर्वृत्तः, असंयोगिमश्च तद्विपरीत आदित्य बिम्बादिः,सोक एव प्रकाशक इति 'ज्ञात-18|| व्यः' अवबोद्धव्यः, पठ्यते च-सन्धियमस्सन्धिए य योद्धचे' इहापि सन्धितः' संयोजितः, तद्विपरीतस्तु 'असन्धितः असंयोजितः, 'आसासपगासे य'त्ति आश्वासद्वीपः प्रकाशदीपश्च, यथाक्रमं चेह सम्बन्धः, तत्रावासद्वीपः सन्दीनासन्दीनः, प्रकाशदीपच संयोगिमासंयोगिम इति, अयं च द्रव्यत एवेति व्यामोहापनयनायाह-'भावेऽपि' भाववि-18 पयोऽपि, 'दुविह'त्ति द्विधा, 'पुन'रिति प्रथमभेदापेक्षम् , एकैकः' इत्याश्वासद्वीपः प्रकाशदीपश्च, इदमुक्तं भवति१ वयिमखचिमादयः ( उ० ३५०) इति सूत्रादिमो न्यकादेरण्याकृतिगणवाद्गवं च । २ संधानं संधा सा जाताऽस्येवि संधितः । दीप अनुक्रम [१२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~431 Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||५|| नियुक्ति: २०७] अध्य. वृहद्वृत्तिः ॥२१॥ प्रत सूत्रांक ||५|| यथा द्रग्यतोऽपारनीरधिविमझानां कदा कदैतदन्तः स्थात् इत्याकुलितचेतसामाश्वासनहेतुराश्चासद्वीपा, एवं संसा-असंस्कृता रसागरमपारमुत्तरीतुमनसामत्यन्त मुझेजिताना मव्यानामाश्वासनहेतुः सम्यग्दर्शनं भायाश्वासद्वीपः, तत्र हि द्रव्यद्वीप, इस बीषिभिः कुवादिभिरमी नौयन्ते नापि मकरादिभिरिवानन्तानुवन्धिभिः क्रोधादिभिरतिरौद्ररप्युपयम्ते, यथा च व्याश्वासद्वीपः प्लान्यमानतयेकः सम्दीन तथाऽयमपि भावावासद्वीपः सम्यग्दर्शनात्मकः कश्चित् क्षायोपश|मिक औपशमिको वा पुनरनन्तानुबन्ध्युदये मिथ्यात्वोदयेन जलोत्पीलेनेव प्लाव्यते, ततस्तनिवन्धनैर्जलचरैरिवाने६. कद्वन्द्वैरुपताप्यत इति सन्दीन उच्यते, यस्तु क्षायिकसम्यक्त्वलक्षणो न जलोत्पीलेनेव मिथ्यात्वोदयेनाक्रम्यते अतर एव च न ततस्थल निबन्धनापायैः कथञ्चिधुज्यते असावसन्दीनो भाषद्वीपः, तथा यथैव तमसाउन्धीकृतानामपि । प्रकाशदीपः तत्प्रकाश्यं वस्तु प्रकाशयति एवमज्ञानमोहितानां ज्ञानमपीति भावप्रकाशदीप उच्यते, अयमप्येक संयोगिमोऽन्यश्चान्यधा, तत्र यः श्रुतज्ञानात्मको भावदीपः अक्षरपदपादश्लोकादिसंहतिनिवर्तितः स संयोगिमः, यस्त्वन्धनिरपेक्षी निरपेक्षतया च न संयोगिमः स केवलज्ञानात्मकोऽसंयोगिमो भावदीप इति गाथार्थः ॥ २०७॥ *व्याख्यातं सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्या दीव'त्ति सूत्रपदम् , अनच प्रकाशदीपेनाधिकृतं. ततश्च 'दीवप्पणट्टे वति' प्रक- २१॥ बिनो एगोचरतां गतः प्रणटो दीपोऽस्पति प्राकृतवारपणष्टदीपः, आहिताध्यादेराकृतिगणवाद्वा दीपप्रणष्टः | तदिति दृष्टान्ता, मत्र सम्प्रदाय: दीप अनुक्रम [१२०] wwwjandiarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~432 Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||५|| नियुक्ति: २०७] प्रत सूत्रांक ||५| जहाँ केर धातुवाश्या सदीवगामगि इधर्ण च गहाय विलमणुपपिहा, सौ तेर्सि पमाएण दीयो अम्गीवि विज्झासो, ततो ते पिज्ज्ञायदीपग्गीया गुहातममोहिया इतो ततो सधतो परिभमंति, परिममंता अपडियारमहाविसेहिं सपेहि उमा दुरुत्तरे अहे नियडिया, तत्व णिहणमुवगया ॥ एवं अनन्तः-अपर्यवसितः, तद्भवापेक्षया |प्रायस्तस्यानपगमात् , मुखते पेनासी मोहो-ज्ञानावरणदर्शनावरणमोहनीयात्मकः, ततवानन्तो मोहोऽस्येति अन समोहः, किमित्याह-णेयाउय'ति निश्चित आयो-लाभो न्यायो-मुक्तिरित्यर्थः, स प्रयोजनमस्येति नैयायिकस्त, सम्यगदर्शनादिकं मुक्तिमार्गमिति गम्यते, 'दहुँ' ति अन्तर्भूतापिशब्दार्थत्वादृष्ट्वाऽपि-उपलभ्याप्यदृष्ट्वेव भवति, तदर्शनफलाभावात् , अथवा 'जबहुमेव'त्ति प्राकृतत्वादद्रष्टव भवति, इदमत्राकूतम्-यथैष गुहान्तर्गतः प्रमादात् प्रणटदीपः प्रथममुपलब्धवस्तुतत्वोऽपि दीपाभावे सदद्रष्टेष जायते, तथाऽयमपि जन्तुः कथश्चित् कम्मैशयोपशमादेः | सम्यग्दर्शनादिकं मुक्तिमार्ग भाषप्रकाशदीपतः श्रुतज्ञानात्मकात् रडाऽपि पित्तादिग्यासक्तितस्तदाबरणोदयादद्रष्टेच भवति, तथा च न केवलं खतखाणाय वित्तं न भवति, किन्तु कथञ्चित् त्राणहेतुं सम्यग्दर्शनादिकमप्ययाप्तमुपह-II १ यथा केचिद्धातुवादिनः सदीपका अग्निमिन्धनं च गृहीत्वा बिलमनुप्रविष्टाः, स तेषां प्रमादेन दीपोऽग्निरपि विध्यातः, ततस्ते विष्यातदीपाभयो गुहातमोमोहिता इतस्ततः सर्वतः परिभ्राम्यन्ति, परिभ्राम्यन्तोऽप्रतीकारमहाविषैः सर्दष्टा दुरुत्तरे गर्ने निपतिताः, तत्रैव | निधममुपगती। दीप अनुक्रम [१२०] SiwanNIDrary om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~433 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||६|| नियुक्ति: [२०७] प्रत सूत्रांक ||६|| 54 उत्तराध्यान्तीति सूत्रार्थः ॥ ५॥ एवं धनादिकमेव सकलकल्याणकारि भविष्यतीत्याशङ्कायां तस्य कुगतिहेतुत्वं कर्मणश्चाव-असंस्कृताबृहद्वृत्तिः ध्यत्वमुपदय यत् कृत्यं तदाह॥२१३॥ सुत्तेसु आवी पडिबुद्धजीवी, नो विस्ससे पंडिय आसुपन्ने। घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं, भारंडपक्खी व चरऽप्पमत्तो॥६॥ (सूत्रम्) व्याख्या-'सुप्तेषु' द्रव्यतः शयानेषु भावतस्तु धर्म प्रत्यजाग्रत्सु, चः पादपूरणे, 'चशब्दः समाहारेतरेतरयोगसमुच्चयावधारणपादपूरणाधिकवचनादिष्विति वचनात् , अपिः सम्भावने, ततोऽयमर्थ:-सुप्तेष्यप्यास्तां जाग्रत्सु च, ४ किमित्याह-प्रतिबुद्धं-प्रतिबोधः द्रव्यतो जाग्रत्ता भावतस्तु यथावस्थितवस्तुतत्त्वावगमस्तेन जीवितुं-प्राणान् धर्नु दशीलमस्येति प्रतिबुद्धजीवी, यदि वा प्रतिबुद्धो-द्विधाऽपि प्रतिबोधवान् जीवतीत्येवंशील:-प्रतिबुद्धजीवी, कोऽभि प्रायः ?-द्विधा प्रसुप्तेष्वपि अविवेकिषु न गतानुगतिकतयाऽयं खपिति, किन्तु प्रतिबुद्ध एव यावज्जीवमास्ते, तत्र च द्रव्यनिद्राप्रतिषेधे अगडदत्तोदाहरणं, तत्र च वृद्धवाद: M२१॥ उजेणीए जियसत्तुस्स रण्णो अमोहरहो नाम रहितो, तस्स जसमती नाम भजा, तीसे अगडदत्तो नाम पुत्तो, १ उज्जयिन्यां जितशत्रो राज्ञोऽमोघरथो नाम रथिकः, तस्व यशोमती नाम भार्या, तस्या अगढदत्तो नाम पुत्रः दीप अनुक्रम [१२१] JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~4344 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥६॥ दीप अनुक्रम [१२१] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं+निर्युक्ति:+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||६|| निर्युक्तिः [२०७...] अध्ययनं [४], तस्से य बालभावे चैव पिया उवरतो । सो य अन्नया अभिक्खणं रोयमाणिं मायरं पुच्छर, तीए निब्बंघेण कहियंजहा एस अमोहपहारी रहिओ तुह पिउसन्तियं रिद्धिं पत्तो, तं च पच्चक्खकडुयं, तुमं च अकयविज्जं दहुं अंतो अईव उज्झामि तेण भणियं-अत्थि कोइ जो मं सिक्खावेति, तीए भणियं-अत्थि कोसंबीए दढप्पहारी नाम पिउमितो गतो कोसंविं, दिट्ठो दढप्पहारी ईसत्थसत्थरहचरियाकुसलो आयरितो, तेण पुत्तो विव णिप्फाइओ ईसत्थे कुंतादिपाडियके जंतमुके य अन्नासुवि कलासु । अण्णया गुरुजणाणुष्णातो सिद्धविज्जो सिक्खादंसणं काउं रायकुलं गतो, तत्थ य असिक्खेडयगहणाइयं जहासिक्खियं सर्व दाइयं, जहा सघो जणो हयहियओ जातो, राया भणइनत्थि किंचि अच्छेयं, नेव य विहितो, भणति - किं किं ते देमि ?, तेण विनवितो - सामि ? तुच्भे ममं साधुकारंण १ तस्य च बालभाव एव पितोपरतः । स चान्यदाऽभीक्ष्णं रुदतीं मातरं पृच्छति, तया निर्बन्धेन कथितं यथैषोऽमोघप्रहारी रथिकस्तव पितृसत्कां ऋद्धि प्राप्तः तच प्रत्यक्षकटुकं, स्वां चाकृतवियं दृष्ट्वाऽन्तोऽतीव दो, तेन भणितम् अस्ति कश्चित् यो मां शिक्षयति तया | भणितम् अस्ति कौशाम्ब्यां दृढप्रहारी नाम पितृमित्रं गतः कौशाम्बी, दृष्टो दृढप्रहारी इण्वस्त्रशस्त्ररथचर्याकुशल आचार्य:, तेन पुत्र इव निष्पादित इष्वस्त्रे कुन्तादिषु प्रत्येकं यत्रमोक्षे व अन्यास्वपि कलासु । अन्यदा गुरुजनानुज्ञातः सिद्धविद्यः शिक्षादर्शनं कारयितुं राजकुलं रातः, तत्र चासिखेटकग्रहणादिकं यथाशिक्षितं दर्शितं सर्वं यथा सर्वो जनो हृतहृदयो जातः, राजा भणति नास्ति किञ्चिदाश्चर्य, नैव च विस्मितः, भणति - किं किं तुभ्यं ददामि ?, तेन विज्ञप्तः स्वामिन्! मां साधुकारं न Education intimational For Fasten www.janbay.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~435~ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||६|| नियुक्ति: [२०७...] उत्तराध्य. बृहद्धृत्तिः ॥२१॥ प्रत सूत्रांक ||६|| ४ वह कि मे अनेण दाणेणंति ? । अस्सि चेव देसकाले पुरजणवएण राया विण्णविओ-देवाणुप्पियाणं पुरे असुयपुवं असंस्कृता. संधिछेज संपयं च दवहरणं परिमोसो य केणवि कयं, तं अरहंतु गं देवाणुप्पिया ! नगरस्त सारक्खणं काउं, ततो आणतो राइणा गरारक्खो-सत्तरत्तस्स अभितरे जहा घेष्पति तहा कुणसुत्ति, तं च सोऊण एस थको मम . गमणस्सत्ति परिगणंतेण विनवितो राया, जहा-अहं सत्तरत्तस्स अभंतरे चोरे सामि ! तुम्भपायमूलं उवणेस्सामि, तं च वयणं रायणा पडिसुर्य, अणुमन्नियं च एवं कुणसुत्ति । तओ सो हतुट्ठमाणसो निग्गतो रायकुलातो, चिंतियं च णेणं-जहा दुटपुरिसतकरा पाणागाराइट्ठाणेसु णाणाविहलिंगवसपडिच्छन्ना भमंति, अतो अहमेयाणि ठाणाणि अप्पणा चारपुरिसेहि य मग्गावे मि, मग्गायेऊण निग्गतो नयरातो, निद्धाइऊण इकतो एकस्स सीयलच्छायस्स १ ददासि किं मम अन्येन दानेनेति । । अस्मिन्नेव देशकाले पुरजनपदेन राजा विज्ञप्तः--देवानुप्रियाणां पुरेऽभुतपूर्वः संधिच्छेदः साम्प्रतं च द्रव्याहरण परिमोपत्र केनापि कृतः, तदर्हन्ति देवानुप्रियाः ! नगरस्य संरक्षणं कर्तुं, तत आज्ञप्तो राज्ञा नगरारक्षा-सप्तरात्रस्याभ्यन्तरे यथा गृहाते तथा कुर्विति, तक श्रुत्वा एषोऽवसरो मम गमनस्वेति परिगणयता विज्ञप्ती राजा, यथा-अहं सप्तरात्रस्याभ्यन्तरे चौरान खामिन् ! तव पादमूलमुपनेष्यामि, तच पचन राशा प्रतिभुतम् , अनुमतं चैवं कुर्विति । ततः स एतुष्टमानसो निर्गतो राजकुलात , चिन्तित भानेन-यथा दुष्पुरुषतस्कराः पानागारादिखानेषु नानाविधलिङ्गवेषप्रतिच्छन्ना भ्राम्यन्ति, अतोऽहमेतानि स्थानान्यात्मना चारपुरुषा | मायामि, मार्गयित्वा निर्गतो नगरात् , मिर्गत्य एकस्या (विशि) एकस्य शीतलरेहायस्थ दीप अनुक्रम [१२१] JAMERatinintimational wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~4364 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||६|| नियुक्ति : [२०७...] प्रत सूत्रांक ||६|| सहयारस्स पायबस्स हा णिविट्ठो दुव्बलमयलवत्थो, चोरगहणोवायं चिंतयंतो अच्छति, णपरि जंकिंपि मुणमुणायंतोतं चेव सहयारपायवरछायमुवगतो परिवायतो, अंबपलवसाहं भंजिऊण णिविट्ठो, दिहो य तेण ओबद्धपि-12 डितो दीहजंघो, दट्टण य आसंकितो हियएण-पावकम्मसूयगाई लिंगाई, Yणं एस चोरोत्ति, भणितो य सो परिवायगेण-वच्छ ! कुतो तुम किंनिमित्तं वा हिंडसि ?, ततो तेण भणियं-भयवं! उज्जेणीतो अहं पक्खीणविभवो हिंडामि, तेण मणियं-पुत्त ! अहं ते विउलं अत्थसारं दलयामि, अगलदत्तो भणति-अणुग्गहिओऽम्हि तुम्भेहिं । एवं च अदंसणो गतो दिणयरो, अइकता संझा, कहियं तेण तिदंडातो सत्थयं, बद्धो परियरो, उहितो भणतिमाणगरं अइगच्छामोत्ति, सतो अगलदतो ससंकितो तं अणुगच्छद, चिंतेति य-एस सो सकरोत्ति, पविट्ठो णयर, तस्थ ॥ १ सहकारस्य पादपस्वाधरतान्निविष्टो दुर्बलमलिनवस्त्रः, चौरग्रहणोपायं चिन्तयंस्तिष्ठति, नवरं यत्किमपि जल्पन तामेव सहकारपाद६ पच्छायामुपगतः परिव्राजकः, आम्रपलवशाखां भक्त्वा निविष्टः, दृष्टश्च तेनावबद्धपिण्डिको दीर्घजबः, दृष्ट्वा च आशक्तिो हृदयेन पापकर्मसूचकानि लिङ्गानि, नूनमेष चौर इति, भणितश्च स परित्राजकेन-वत्स ! कुतस्त्वं किंनिमित्तं वा हिण्डसे ?, ततः तेन भणितं भगवन् ! उज्जयिनीतः अहं प्रक्षीणविभवो हिण्डे, तेन भणितं-पुत्र ! अहं तुभ्यं विपुलमर्थसार ददामि, अगडदचो भणति-अनुगृहीतोऽस्मि द युष्माभिः । एवं चादर्शनं गतो दिनकरः, अतिकान्ता सन्ध्या, कृष्टं तेन त्रिदण्डात् शस्त्रक, बद्धः परिकरः, उत्वितो मणति-नगरमतिगच्छाव इति, ततोऽगडदत्तः सशक्तितस्तमनुगच्छति, चिन्तयति च-एष स तस्कर इति, प्रविष्टो नगर, तत्र दीप अनुक्रम [१२१] ainatorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~437 Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||६|| ____ नियुक्ति: [२०७...] 1- उत्तराध्य. असंस्कृता. R बृहदृत्तिः ॥२१५॥ प्रत सूत्रांक ||६|| यं उत्ताणणयणपेच्छणिजं कस्सवि पुण्णविसेस सिरिसूयगं भवणं, तत्थ य सिरिवच्छसंठाणं संधि छेत्तूण अतिगतो परिवायतो, णीणीयातो अणेगभंडभरियातो पेडातो, तत्थ य तं ठवेऊण गतो,अगडदत्तेण चिंतियं-अंतगमणं करेमि, | ताव य आगतो परिवायतो जक्खदेउलातो सइएलए दालिद्दपुरिसे घेत्तूण, तेण ते य ताओ पेडातो गिहाविया, निद्धाइया य सबे नयरातो, भणति य परिवायतो-पुत्त ! इत्थ जिण्णुज्जाणे मुदुत्तागं निहाविणोयं करेमो जाव रत्ती गलति, तत्तो गमिस्सामोत्ति, ततो तेण लवियं-ताय ! एवं करेमति, ततो तेहिं पुरिसेहिं ठवियाओ पेडातो, णिहावसं च उयगया, तो सो य परिवायतो अगलदत्तो य सेजं अत्थरिऊण अलियसुईयं काऊण अच्छंति । तओ य अगलदत्तो सणियं उद्देऊण अवकतो रुक्खसंछण्णो अच्छति, ते य पुरिसा निहावसं गया जाणिऊण वीसंभघाइणा परिवायएण १च उत्ताननयनप्रेक्षणीय कस्यापि पुण्यविशेषश्रीसूचकं भवनं, तत्र च श्रीवत्ससंस्थान सन्धि छिस्थाऽतिगतः परिमाजकः, अनेकभाण्ड-| भृताः पेटा निष्काशिताः, तत्र च तं स्थापयित्वा गतः, अगडदत्तेन चिन्तितम्-अन्तगमनं करोमि १, तावश्चागतः परित्राजको यक्षदेवकुलात् | सदा भ्राम्यतः (स्वकीयान) दरिद्रपुरुषान गृहीत्वा, तेन च तैः ताः पेटा माहिताः, निर्गताश्च सर्वे नगरात् , भणति च परिव्राजक:-पुत्र! अत्र जीर्णोद्याने मुहूर्त निद्राविनोद कुर्मो याबद्रात्रिर्गच्छति ततो गमयिभ्याम इति, ततस्तेन लत-सातैवं कुर्म इति, ततस्तैः पुरुषैः स्थापिताः पेटाः, निद्रावर्श चोपगताः, ततः स च परिव्राजकोऽगडदत्तश्च शय्यामास्तीर्य अलीकस्खपितं कृत्वा तिष्ठतः । ततश्चागढदत्तः शनैरुत्थायापकान्तो वृक्षसंछन्नतिष्ठति, ते च पुरुषा निद्रावर्श गताः ज्ञात्वा विश्रब्धघातिना परिव्राजकेन दीप अनुक्रम [१२१] ॥२१॥ wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~438~ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥६॥ दीप अनुक्रम [१२१] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||६|| अध्ययनं [४], निर्युक्तिः [२०७...] मांरिया, अगलदत्तं च तत्थ सत्थरे अपेच्छमाणो मग्गिउं पयतो, मग्गंतो य साहापच्छाइयसरीरेण अभिमुहमागच्छतो अंसदेसे असिणा आहतो, गाढपहारकतो पडितो, पञ्चागयसन्त्रेण य भणितो अगलदत्तो—चन्छ ! गिव्ह इमं असिं, वच्च मसाणस्स पच्छिमभागं, गंतूण संतिज्जाघरस्स भित्तिपासे सद्दं करेज्जासि, तत्थ भूमिघरे मम भगिणी बसति, ताए असिं दाएजसु सा ते भज्जा भविस्सति, सङ्घदवस्त य सामी भविस्ससि, अहं पुण गाढपहारो अइकंतजीवोत्ति । गओ य जगलदत्तो असिलट्ठि गहाय, दिट्ठा व सा ततो भवणवासिणीविव पेच्छणिजा, भणइ य-कतो तुर्मति ?, दाइतो अगलदत्तेण असिलट्ठी, विसन्नवयणहिययाए सोयं निगूहंतीए ससंभ्रमं अतिनीतो संतिज्जाघरं, दिन्नं आसणं, उपविट्टो अगलदत्तो ससंकितो, से चरियं उबलक्खेइ य, सा अतिआयरेण सयणिज्जं रएर, १ मारिताः, अगढदत्तं च तत्र संस्तारेऽप्रेक्षमाणो मार्गयितुं प्रवृत्तः, मार्गेयंश्च शास्त्राच्छन्नशरीरेणाभिमुखमागच्छन् अंसदेशेऽसिनाऽऽहतो, गाढप्रहारीकृतः पतितः, प्रत्यागतसंज्ञेन च भणितोऽगडदत्तः वत्स गृहाणेममसिं, त्रज श्मशानस्य पश्चिमभागं गत्वा शान्त्यार्थीगृहस्य भित्तिपार्श्वे शब्दं कुर्याः, तत्र भूमिगृहे मम भगिनी वसति, तस्यै असं दर्शयेः, सा तब भार्या भविष्यति, सर्वद्रव्यस्य च स्वामी भविव्यसि, अहं पुनर्गाढप्रहारोऽतिक्रान्तजीव इति । गतश्चागडदत्तोऽसियहिं गृहीत्वा दृष्टा च सा तत्र भवनवासिनीव प्रेक्षणीया, भणति चकुतस्त्वमिति ?, दर्शितोऽगडदचेनासियष्टिः, विषण्णयदनहृदयया शोकं निगूहुन्त्या ससंभ्रममतिनीतः शान्त्र्यार्यागृहं, दत्तमासनम्, उपविष्टोऽगडदत्तः सशङ्कितः, तस्याञ्चरितमुपलक्षयति च सा अत्यादरेण शयनीयं रचयति, ratnamation For Fasten www.ra पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~439~ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||६|| नियुक्ति: [२०७...] बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक ||६|| उत्तराध्य. मणइ य-पत्य वीसामं करेह, तमो न सो निद्दावसमुषगतो वक्वित्तचित्ताए, अन्नं ठाणं गतूण ठिओ पच्छन्नं, तहिं असंस्कृता. व सबणिज्जे पुषसजिया सिला, सा ताए पाडिया चुणिया य सेजा, सा व हट्टतुट्ठमाणसा भणति-हा हो। भाउपायगोत्ति, अगडदत्तोऽपि ततो णिद्धाइऊण वालेसु घेतूण भणति-हा दासीए धीए को में पायइति', तओं ॥२१॥ सा पाएसु नियडिया सरणाऽऽगयामिति मणंती, तेणासासिया, मा वीहहित्ति । सो त घेत्तृण गतो राउलं, पूजितो दारणा पुरजणवएण य, भोगाण य भागीजातोत्ति ॥ एवं अन्नेवि अपमत्ता इहेव कल्लाणभाइणो भवंति। उक्तो व्य सुसेषु प्रतिबुद्धजीयिनो दृष्टान्तः, भावसुसेषु तु तपखिनः, ते हि मिथ्यात्वादिमोहितेष्वपि जनेषु यथायदवगमपूर्वकमेव संयमजीवितं धारयन्तीति, एवंविधश्च किं कुर्यादित्याहन विश्वस्तात् , प्रमादेव्षिति गम्यते, किमुक्त भवति ?-बहुजनप्रत्तिदर्शनानसेऽनर्यकारिण इति न विश्रम्मवान् भवेत् , 'पण्डितः' प्राग्वत् , आशु-शीप्रमुचि-17 १ भणति च-अन्न विश्राम कुरु, ततो न स निद्रावशमुपगतो ब्याक्षिप्तचित्ततया, अन्यत् स्थानं गत्वा स्थितः प्रच्छन्न, वत्र च शयनीये पूर्वसजिता शिला, सा तया पातिता चूर्णिता च शव्या, सा च दृष्टतुष्टमानसा भणति-हा हतो भ्रातृघातक इति, अगदत्तोऽपि ततो निर्गत्य वालेषु गृहीला भणति-हा दाला पिया ( वासि ! ईदग्धिया) को मां पातयतीति, ततः सा पादयोनिपतिता शरणाऽऽगवाऽस्मीति मणन्ती, तेनाश्वासिता, मा मैषीरिति । स तां गृहीत्वा गतो राजकुलं, पूजितो राज्ञा पुरजनपदेन च, भोगानां चाऽऽभागीजात इति ॥ एक्मन्येऽपि अप्रमत्ता इहैव कल्याणभागिनो भवन्ति दीप अनुक्रम [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~440 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||७|| नियुक्ति: [२०७...] प्रत सूत्रांक तकर्तव्येषु यतितव्यमिति प्रज्ञा-बुद्धिरस्येति-आशुप्रज्ञः, किमिति आशुप्रज्ञः, यतो घूर्णयन्तीति घोराः-निरनु कम्पाः, सततमपि प्राणिनां प्राणापहारित्वात् ,क एते ?-'मुहूर्ताः' कालविशेषाः,कदाचिपछारीरपलाद् घोरा अप्यमी न प्रभविष्यन्तीत्यत आह-अवलं' बलविरहितं न मृत्युदायिनो मुहूर्तान् प्रति सामर्थ्यवत् किं तत् ?-शरीरम् , एवं तर्हि किं कृत्यमित्याह-'भारण्डपक्खीव चरऽप्पमत्तो इति पतत्यनेनेति पक्षः सोऽस्यास्तीति पक्षी भारण्डश्चासौ पक्षीस च भारण्डपक्षी स यद्वदप्रमत्तश्चरति तथा त्वमपि प्रमादरहितश्चर-विहितानुष्ठानमासेवख, अन्यथा हि यथाऽस्य भार-15 8||ण्डपक्षिणः पक्ष्यन्तरेण सहान्तवेर्तिसाधारणचरणसम्भवात् खल्पमपि प्रमाद्यतोऽवश्यमेव मृत्युः तथा तवापि संयमजीवितादू भ्रंश एवं प्रमाद्यत इति सूत्रार्थः ॥ ६॥ अमुमेवार्थ स्पष्टयन्नाह चरे पयाई परिसंकमाणो, जं किंचि पास इह मन्नमाणो। लाभंतरे जीविय वूहइत्ता, पच्छा परिणायमलावधंसी॥७॥ (सूत्रम्) व्याख्या-'चरेत्' गच्छेत् 'पदानि' पादविक्षेपरूपाणि 'परिशङ्कमानः' अपायं विगणयन् , किमित्येवमत आह'यत्किञ्चित् ' गृहस्थसंतवाद्यल्पमपि पाशमिव पाशं संयमप्रवृत्ति प्रति खातन्त्र्योपरोधितया 'मन्यमानो' जानानः, यद्वा 'चरेदिति संयमाध्वनि यायात् , किं कुर्वन् ?--‘पदानि' स्थानानि, धर्मस्येति गम्यते, तानि च मूलगुणादीनि दीप अनुक्रम [१२२] ~441 Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||७|| नियुक्ति : [२०७...] प्रत सूत्रांक उत्तराध्य. परिशकमानों' मा ममेह प्रवर्तमानस्य मूलगुणेषु मालिन्य स्खलना वा भविष्यतीति परिभावयन् प्रवर्चेत, 'जं किंचिअसंस्कृता. वृहद्वृत्तिः त्ति यत्किञ्चिदल्पमपि दुश्चिन्तितादि प्रमादपदं मूलगुणादिमालिन्यजनकतया बन्धहेतुत्वेन पाशमिव पाशं मन्यमानः, ॥२१७॥ दातदयमुभयत्राभिप्रायः यथा भारण्डपक्षी अपरसाधारणान्तर्वर्तिचरणतया पदानि परिशमान एव चरति यत्कि श्चिद्दवरकादिकमपि पाशं मन्यमानः तथाऽप्रमत्तश्चरेत् , ननु यदि परिशमानश्चरेत्तर्हि सर्वथा जीवितनिरपेक्षेणैव 2 प्रवर्तितव्यं, तत्सापेक्षतायां हि कदाचित्कथञ्चिदुक्तदोषसम्भव इत्याशङ्कयाह-'लाभंतरे'त्यादि वृत्ताद्ध, लम्भनं । लाभः-अपूर्वार्थप्रासिः अन्तरं-विशेषः, लाभश्चासावन्तरं च लाभान्तरं तस्मिन् सतीत्यर्थः, किमुक्तं भवति ?-यावद्विशिष्टविशिष्टतरसम्यगज्ञानदर्शनचारित्रावासिरितः सम्भवति तावदिदं 'जीवितं' प्राणधारणात्मक हयित्वा'अन्नपानो-IM पयोगादिना वृद्धिं नीत्वा, तदभावे प्रायस्तदुपक्रमणसम्भवादित्थमुक्तं, 'खुहा पिवासा य वाही यति वचनात् क्षुदा-14 दीनामप्युपक्रमणकारणत्वेनाभिधानादू, इह च बृंहयित्वेव बृहयित्वेति व्याख्येयम् , अन्यथाघसंस्कृतं जीवितमिति विरुध्यत इति भावनीयं, ततः किमित्याह-'पश्चात् लाभविशेषप्राप्त्युत्तरकालं 'परिण्णाय'त्ति सर्वप्रकारैरवबुध्य * यदं नेदानी प्राग्वत्सम्यग्दर्शनादिविशेषहेतुः,तथा च नातो निर्जरा,न हि जरया व्याधिना वा अभिभूतं तत् तथा-४॥२१७॥ द्रविधधमोधानं प्रति समर्थम् , उक्तं हि-"जरा जाव ण पीलेति.वाही जायण वहति । जाबिंदिया ण हायंति, ताव १ जरा यावन्न पीजयति व्याधिर्यावन्न वर्धते । यावदिन्द्रियाणि न दीयन्ते, तावद्धर्म समाचरेत् ॥ १॥ दीप अनुक्रम [१२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३) मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~442 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||७|| नियुक्ति: [२०७...] प्रत सूत्रांक धम्मं समायरे ॥१॥" एवं ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय ततः प्रत्याख्यानपरिज्ञया च भक्तं प्रत्याख्याय, सर्वथा जीवितनिर-1 पेक्षो भूत्वेति भावः, मलवदत्यन्तमात्मनि लीनतया मल:-अष्टप्रकारं कर्म तदपध्वंसत इत्येवंशीलः मलाप-13 ध्वंसी-मलविनाशकृत, स्यादिति शेषः, ततो यावल्लाभं देहधारणमपि गुणायैवेति भावः, यहा जीवितं बृंहयित्वा लाभान्तरे-लामविच्छेदेऽन्तर्बहिच मलाश्रयत्वान्मला-औदारिकशरीरं सदपध्वंसी स्थात् , कोऽर्थः-जीवितं सजे द्, इदमुक्तं भवति-अयमस्यैको हि गुणो मानुष्यमवाप्य लभ्यते धर्म इति भावयन् यावदितस्तल्लामः तावदिदं । दि बृंहयेत् , लाभविच्छेदं सम्भाव्य संलेखनादिविधानतस्त्यजेत् ॥ इह च यावल्लाभधारणे मण्डिकचौरोदाहरणं, तत्र च सम्प्रदायः विनायडे नयरे मंडितो नाम तुण्णातो परदबहरणपसत्तो आसी, सोय दुगहो मित्ति जणे पगासेतो जाणुदेसेण णिचमेव अद्दयालेवलित्तेण रायमग्गे तुण्णागस्स सिप्पमुवजीवति, चंकमतोऽपि य दंडघरिएणं पारण किलि-|| स्संतो कहिंवि चंकमति, रतिं च खत्तं खणिऊण दबजाय घेत्तूण णगरसंनिहिए उजाणेगदेसे भूमिघरं, तत्थ णिक्वि १ बेनाकतवे नगरे मण्डिको नाम तन्तुवायः परद्रव्यहरणप्रसक्त आसीत् , सच दुष्टपणोऽस्मीति जने प्रकाशयन जानुदेशेन नित्य||मेव भाद्रकलेपलिसेन राजमार्ग तन्तुवायस्य शिल्पमुपजीवति,चक्रम्यमाणोऽपि च धृतदण्डेन पादेन हिश्यम् कचिदपि चकूकम्यते, रात्री चx अनं खनित्वा द्रव्यजातं गृहीत्वा नगरसन्निहिते उद्यानैकदेशे भूमिगृहं, तत्र निक्षि AC दीप अनुक्रम [१२२] % पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~443~ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||७|| नियुक्ति : [२०७...] प्रत सूत्रांक 5 उत्तराध्य. वति, तत्थ व से भगिणी कन्नगा चिट्ठति, तस्स भूमिघरस्स मज्झे कुवो, जं च सो चोरो दोण पलोभेउ सहाय असंस्कृता. बृहद्वृत्तिः दववोढारं आणेति तं सा से भगिणी अगडसमीवे पुवणत्थासणे णिवेसेउं पायसोयलक्खेण पाए गिहिऊण तम्मि कूचे पक्खिवइ, ततो सो तत्थेव विवजाइ, एवं कालो बच्चति नयर मुसंतस्स, चोरगाहा तंण सकिंति गिहिउं, ॥२१॥ तओ नयरे उवरतो जातो । तत्थ मूलदेवो राया, सो कहं राया संवुत्तो ?--उज्जेणीए नयरीए सच्चगणियापहाणा देवदत्ता नाम गणिया, तीए सद्धि अयलो नाम वाणियदारतो विभवसंपण्णो मूलदेयो य संवसह, तीए मूलदेवो इट्ठो, गणियामाऊए अयलो,सा भणति-पुत्ति ! किमेएणं जूइकारेणंति ?, देवदत्ताए भण्णति-अम्मो! एस पण्डितो, * तीए भपणइ-किं एस अम्ह अभहियं विण्णाणं जाणति, अयलो बाहत्तरिकलापंडिओ एव, तीए भषणति-वच्छ । 2 १. पति, तत्र च तस्य भगिनी कन्या तिष्ठति, तस्य भूमिगृहस्य मध्ये कूपः, यं च स चौरो द्रव्येण प्रलोभ्य सहायं द्रव्यवोढारमान-| यति तं सा तस्य भगिनी अक्टसमीपे पूर्वन्यस्तासने निवेश्य पादशौचमिषेण पादौ गृहीत्वा तस्मिन कूपे प्रक्षिपति, ततः स तत्रैव विपयते, एवं कालो ब्रजति नगरं मुष्णतः, चीरमाहारतं न शक्रवन्ति ग्रहीतुं, ततो नगरे उपरको (उपद्रवो)जातः । पत्र मूलदेवो राजा, सार कथं राजा संवृत्तः ' जयिन्यां नगर्या सर्वगणिकाप्रधाना देवदत्ता नाम गणिका, तया सार्धमचलो नाम वणिग्दारको विभवसंपन्नो २१८॥ मूलदेवश्च संवसति, तथा मूलदेव इष्टः, गणिकामातुरचलः, सा भणति-पुत्रि ! किमेतेन छूतकारेण ? इति, देवदत्तया भण्यते-- अम्ब ! एष पण्डितः, सया भण्यते-किमेपोऽस्मन् अम्यधिकं विज्ञानं जानाति , अचलो द्वासप्ततिकलापण्डित एव, तया का दाभण्यते-बसे! 55- दीप अनुक्रम [१२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~4444 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||७|| __नियुक्ति: [२०७...] % -2- प्रत सूत्रांक अयलं भण-देवदत्ताए उच्छु खाइडं सद्धा, तीए गंतूण भणितो, तेण चिंतियं-कओ खु ताई अहं देवदत्ताए पण तितो, तेण सगडं भरेऊण उच्छुयलट्ठीण उवणीयं, ताए भण्णति-किमहं हथिणी, तीए भणियं-वच मूलदेवं दमण-देवदत्ता उच्छुखाइ अहिलसति, तीए गंतूण से कहियं, तेण य कइ उच्छुलट्ठीतो छल्लेउं गंडलीतो काउं चाउज्जायगादिसुवासियातो काउं पेसियाओ, तीए भण्णति–पिच्छ विण्णाणंति, सा तुहिका ठिया, मूलदेवस्स पओसमावण्णा अपलं भणति-अहं तहा करेमि जहा मूलदेवं गिणिहस्सित्ति, तेण अहसय दीणाराण तीए भाडि|णिमित्र दिन्नं, तीए गंतुं देवदत्ता भण्णति-अज अयलो तुमे समं बसिही, इमे दीणारा दत्ता, अबरण्हवेलाए गंतुं भणति-अयलस्स कर्ज तुरियं जायं तेण गामं गतोत्ति, देवदत्ताए मूलदेवस्स पेसियं, आगतो मूलदेवो, तीए समाणं || १ अचल भण-देवदत्ताया इथून खादितुंडा, सया गत्वा भणितः, तेन चिन्तित-के इक्षवः (क खलु)ते अहं देवदत्तया प्रणयितः, तेन शकटं भृत्वा इवयष्टीनामुपनीतं, तया भण्यते-किमई हस्तिनी ?, तया भणित-बज मूलदेवं भण--देवदत्ता इहूं खादितुमभिलमाध्यति, तथा गत्वा तर कथितं, तेन च कतिचिदिक्षुयष्टयो निस्त्वचीकृत्य खण्डीकल्प चातुर्जातकादिसुषासिताः कृत्वा व प्रेषिताः, तया| भण्यते-पश्य विज्ञानमिति, सा तूष्णीका स्थिता,मूलदेवे प्रद्वेषमापनाऽचलं भणति-अहं तथा करोमि यथा मूलदेवं प्रदीष्यसीति,तेनाष्टशर्त दीनाराणां तस्यै भाटीनिमित्तं दतं, या गत्वा देवदत्ता भण्यते-अद्याचलस्त्वया समं वत्स्यति, इमे च दीनारा दत्ता, अपराहवेलायां गत्वा भणति-अचलस्य कार्य त्वरितं जातं तेन प्रामं गत इति, देवदत्तया मूलदेवाय प्रेपितं (सं), आगतो मूलदेवः, तवा समं PADAKTAR दीप अनुक्रम [१२२] SiwanNIDrary om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~445 Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||७|| नियुक्ति: [२०७...] उत्तराध्य संस्कृता. त्य प्रत सूत्रांक ||७|| अच्छा, गणिया माऊए,अयलो य अप्पाहितो, अनाओ पविठ्ठो बहुपुरिससमग्गो वेढिउं गम्भगिई, मूलदेवो अइ- वृत्तिः संभमेण सयणीयस्स हिट्ठा णिलुको, तेण लक्खितो, देवदत्ताए दासचेडीतो संवुत्तातो अचलस्स सरीरऽम्भंगादि घेत्तुं उवट्ठिया, सो य तंमि चेव सयणीए ठियनिसन्नो भणइ-इत्थ चेव सयणीए ठियं अभंगेहि, तातो भणंति॥२१९॥ विणासिजइ सयणीयं, सो भणइ-अहं एत्तो उकिट्ठतरं दाहामो, मया एवं सुविणो दिहो, सयणीयऽभंगणउचलणपहाणादि कायर्ष, ताहि तधा कयं, ताहे पहाणगोल्लो मूलदेवो अयलेण बालेसु गहाय कहितो,संलत्तो यऽणेण-पच मुकोऽसि, इयरहा ते अज अहं जीवियस्स विवसामि, जदि मया जारिसो होजाहि ता एवं मुच्चेज्जाहि(ति) अयलाभिहितो तओ मूलदेवो अवमाणितो लजाए निग्गओ उजेणीए, पत्थयणविरहितो बेनायडं जतो पत्थितो, एगो से १. तिवति, गणिकामाता च अचलः संदिष्टः, अन्यस्मात् ( अन्येन द्वारेण ) प्रविष्टः बदुपुरुषसममो वेष्टयित्वा गर्भगृह, मूलदेवोऽति४ संभमेण शयनीयस्यावसान्निलीनः, तेन लक्षितः, देवदत्तया दासचेव्यः समुक्ताः भचलम शारीराभ्यङ्गादि गृहीत्वोपखिताः,स च तस्वि [४|| शयनीये स्थितनिषण्णो भणति-अत्रैव शयनीये स्थितमभ्यङ्गय,ता भणन्ति-विनाश्यते शयनीयं, स भणति-अहमित उत्कृष्टतरं दास्यामि, मयैवं स्वप्नो दृष्टः, शयनीयाभ्यङ्गनोद्वर्तनसानादि कर्त्तव्यं, तामिस्तथा कृतं, तदा मानविलेपनादों मूलदेवोऽचलेन वालेषु गृहीत्वाऽऽ- कृष्टः, संलप्तश्चानेन--ब्रज मुक्तोऽसि, इतरथा तेऽद्य जीवितस्य व्यवस्यामि, यदि माशो भवेतदेवं मुरिति अचलाभिहितस्ततो मूलदे-12 दिनोऽवमतो लनया निर्गत उज्जयिन्याः, पध्यदनरहित: घेवातदं यतः प्रस्थित्ता, एकतास्य दीप अनुक्रम [१२२] २१९॥ 14 REatina पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~446~ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||७|| नियुक्ति : [२०७...] प्रत सूत्रांक ||७|| पुरिसो मिलितो, मूलदेयेण पुच्छितो-कहिं जासि ?, तेण भण्णति-विण्णायतडमि, मूलदेवेण भषणति-दोऽपि सम वचामोत्ति, तेण संलत्तं-एवं भवउत्ति, दोऽवि पट्ठिया,अंतरा य अडवी, तस्स पुरिसस्स संबलं अस्थि, मूलदेवो विचिंऐतेह-एसो मम संबलेण संविभागं करेहित्ति, इहि सुते परे ताए आसाए वचति, ण से किंचि देह, तइयदिवसे छिण्णा अडवी, मूलदेवेण पुग्छितो-अस्थि एत्थ अभासे गामो, तेण भण्णति-एस णाइदूरे पंथस्स गामो, मूलदेवेण भणितो-तुमं कत्थ वससि , तेण भण्णति-अमुगत्थ गामे, मूलदेवेण भणितो-तो खाइ अहं एवं गामं| ६वचामि, तेण से पंथो उवदिट्टो, गओ तं गाम मूलदेवो, तत्थऽणेण भिक्खं हितेण कुम्मासा लद्धा, पवण्णो य कालो बद्दति, सो य गामातो निगच्छह, साहू य मासखमणपारणएण भिक्खानिमित्तं पविसति, तेण व संवेगमा १ पुरुषो मिलितः, मूलदेवेन पृष्ठः-क यासि १, सेन भण्यते-बेनाकतटे, मूलदेवेन भण्यते-यावपि समं बजाव इति, तेन संलालम्एवं भवविति, द्वावपि प्रस्थिती, अन्तरा चाटबी, तस्य पुरुषस्य शम्बलमस्ति, मूलदेवो विचिन्तयति-एष मम शम्बलेन संविभाग करिष्यति, इदानी श्वः परेयुः तयाऽऽशया व्रजति, न तस्मै किश्चिदाति, तृतीयविवसे छिनाइटवी, मूलदेवेन पृष्टः-अस्त्पत्राभ्यासे | प्रामः १, तेन भण्यते-एष नातिदूरे पथो मामः, मूलदेखेन भणितः-वं कुत्र वससि १, तेन भण्यते--अमुष्मिन् मामे, मूलदेवेन | भणितः तदा कथया (गच्छा) हमेनं ग्राम प्रजामि, तेन तस्मै पन्था उपविष्टः, गतस्तं प्रामं मूलदेवः, तत्रानेन मिक्षां हिण्डमानेन कुल्माषा लब्धाः, प्रपन्नाव (संपन्नश्च ) कालो वर्तते, स च प्रामानिर्गच्छति, साधुध मासक्षपणपारणकेन भिक्षानिमितं प्रविशति, तेन च संवेगमा दीप अनुक्रम [१२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~447 Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||७|| नियुक्ति : [२०७...] प्रत सत्रांक उत्तराध्य. वण्णेणं पराए भत्तीए तेहिं कुम्मासेहिं सो साधू पडिलाभितो, भणियं चऽणेणं-'धन्नाणं खु नराणं कोम्मासा हुंति असंस्कृता. बृहद्वृत्तिः साहुपारणए 'देवयाए अहासन्निहियाए भषणति-पुत्त ! एतीए गाहाए पच्छद्धे जं मग्गसि तं देमि, 'गणियं च ४ देवदत्तं दंतिसहस्सं च रजं च ॥१॥ देवयाए भण्णति-अचिरेण भविस्सतित्ति, ततो गतो मूलदेवो चेन्वायर्ड, ॥२२०॥ तित्थ खत्तं खणंतो गहितो, यज्झाए नीणिजइ, सत्य पुण अपुत्तो राया मओ, आसो अहियासिओ, मूलदेवसगासद मागतो, पहिदायणं रजे अहि सित्तो राया जाओ, सो पुरिसो सद्दाविओ, सो अणेण भणितो-तुझं तणियाए आसाते आगतो अहं, इहरहा अहं अंतराले चेव विवजंतो, तेण तुझं एस मया गामो दत्तो, मा य मम सगासं एजसुत्ति, पच्छा उजेणीएण रण्णा सद्धिं पीति संजोएति, दाणमाणसंपूतियं च काउं देवदत्तं अणेण मग्गितो, तेण पचुवगा-IN १. पन्नेन परया भक्त्या तैः कुल्माषैः स साधुः प्रतिलम्भितः, भणितं चानेन-'धन्यानामेव नराणां कुल्माषाः साधुपारणके भवन्ति' | देवतया यथासन्निहितया भण्यते-पुत्र ! एतस्या गाधायाः पश्चार्धेन यन्मार्गयसि बददामि-गणिकां च देवदत्ता दन्तिसहस्रं च राज्य च ॥१॥ देवतया भण्यते-अचिरेण भविष्यतीति, ततो गतो मूलदेवो बेन्नातलं, तत्र क्षत्रं खनन् गृहीतः, वध्यायां नीयते, तत्र पुनः अ-- पुत्री राजा मृतः, अश्वोऽधिवासितः, मूलवेवसकाशमागतः, पूष्ठिदानं राज्ये ऽभिषिक्तो राजा जातः, स पुरुषः शब्दिवः, सोऽनेन ॥२२०॥ भणितः-स्वत्सत्कयाऽऽशया आगतोऽहम् , इतरथा अहमन्तराल एव व्यपत्स्ये, तेन तुभ्यमेष मया प्रामो दत्तः, मा च मम सकाशमायासी-५ रिति, पश्चादुज्वविनीवेन राज्ञा साध प्रीति संयोजयति, दानमानसत्कारं (सम्पूजिता) च कृत्वा देवदत्तामनेन मार्गितः, तेन प्रत्युपका दीप अनुक्रम [१२२] wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~448~ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||७|| नियुक्ति: [२०७...] प्रत सूत्रांक ||७|| रसंधिएण दिण्णा, मूलदेवेण अंतेउरे छूढा, ताए समं भोगे अँजति । अन्नया अयलो पोयवहणेण तत्थागतो, सुकेकी विजते भंडे जातिं पाए दवणूमणाणि ठाणाणि ताणि जाणमाणेण मूलदेवेण सो गिण्हावितो,तुमे दवंणूमियंति पुरिसेहिं बद्धिऊण रायसयासमुवणीतो, मूलदेवेण भण्णति-तुम मम जाणसि ?, सो भणति-तुम राया को तुम न जाणइ, तेण भण्णइ-अहं मूलदेवो, सकारिउ विसज्जितो, एवं मूलदेवो राया जातो। ताहे सो अण्णं णगरारक्खियं ठवेति, सोऽपि न सको चोर गिणिहउं, ताहे मूलदेवो सयं णीलपडं पाउणिऊण रतिं णिग्गतो, मूलदेवो र अणजंतो एगाए सभाए णिविण्णो अच्छति, जाव सो मंडियचोरो आगंतूण भणति-को इत्थ अच्छति ?, मूल-ले देषेण भणियं-अहं कप्पडितो, तेण भण्णइ-एहि मणूस करेमि, मूलदेयो उहितो, एगमि ईसरघरे खत्तं खयं, सुबहुं| | १. रसन्धिना दत्ता, मूलदेवेनान्तःपुरे न्यस्ता, तया सम भोगान् भुनक्ति । अन्यदाऽचलः पोतवाहनेन तत्रागतः, शुल्कीये भाण्डे विद्यमाने यानि पात्रेषु द्रव्यगोपनानि स्थानानि तानि जानता मूलदेवेन स प्राहितः, त्वया द्रव्यं गोपितमिति पुरुषैद्धा राजसकाशमुपनीतः, मूलदेवेन भण्यते-त्वं मां जानासि ?, स भणति-वं राजा त्वां को न जानाति ?, तेन भण्यते-- अहं मूलवेवः, सत्कृत्य विसृष्टः, एवं मूलदेवो राजा जातः । तदा सोऽन्य मगरारक्षक स्थापयति, सोऽपि न शक्तचौर गृहीतुं, तदा मूलदेवः स्वयं नीलपटं| दप्रावृत्य रात्री निर्गतः, मूलदेवोऽज्ञायमान एकस्या सभायां निषण्णस्तिष्ठति, यावरस मण्टिकौर आगल्य भणति-कोऽत्र तिष्ठति ?, मूल-|| देवेन भणितम्-अई कार्पटिका, तेन भण्यते-एहि मनुष्यं करोमि, मूलदेव उत्थितः, एकस्मिन्नीश्वरगृदे क्षत्रं खातं, मुबहु Akadak - ४ दीप अनुक्रम [१२२] wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~449~ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||७|| नियुक्ति: [२०७...] बृहदृत्तिः प्रत सूत्रांक ||७|| उत्तराध्य. देषजायं णीणेऊण मूलदेवस्स उवरि चडाविड पट्ठिया नयरवाहिरियं, जातो मूलदेवो पुरतो, चोरो असिणा कहि- असंस्कृता. एण पिट्टओ एइ, संपत्ता भूमिघरं, चोरो तं दर्ष णिहिणिउमारद्धो, भणिया अणेण भगिणी-पयस्स पाहुणयस्स पायसोयं देहि, ताए कूवतडसन्निविटे आसणे संणिवेसितो, ताए पायसोयलक्खेण पाओ गहिओ कूवे खुहामित्ति, ॥२२॥ जाव अतीय सुकुमारा पाया, ताए नायं-जहेस कोइ भूयपुधरजो विहलियगो, तीए अणुकंपा जाया, तो ताए |पायतले सन्नितो णस्सत्ति, मा मारिजिहिसित्ति, ततो पच्छा सो पलातो.ताए बोलो कतो णट्ठो पट्रोत्ति. सो असि कहिऊण मग्गतो लग्गो, मूलदेवो रायप्पहे अइसन्निकिलृ णाऊण चचरसिवंतरितो ठितो, चोरो तं सिवलिंगं एस | १ द्रव्यजातं नीत्वा मूलदेवस्योपरि घटापयित्वा (आरोग) प्रस्थिती नगरवाहिरिका, यातो मूलदेवः पुरतः, पौरोऽसिना कृष्टेन (सह ) पृष्ठत आवाति, संप्राप्तौ भूमिगृह, चौरस्तत् द्रव्यं निहितुमारब्धः, भणिता अनेन भगिनी-एतस्मै प्राघूर्णकाय पादशौचं दादेहि, तया कूपतटसन्निविष्ट आसने सनिवेशितः, तया पादशौचमिषेण पादो गृहीतः कूपे क्षिपामीति, यावदतीव सुकुमारी पादी, जो *तथा शातं-यथा एष कश्चित् भूतपूर्वराज्यो राज्यभ्रष्टः, तस्या अनुकम्पा जाता, ततस्तथा पादतले संशितो नश्येति, मा मारयिष्यसीति, ततः पश्चात्स पलायितः, तया रावः ( पूत्कारः ) कृतः नष्टो नष्ट इति, सोऽसिं का पृष्ठतो लमः, मूलदेवः राजपथेऽतिसंनिकृष्टं शात्वा चत्वरशिवान्तरितः स्थितः, चौरस्तत् शिवलिङ्गमेष दीप अनुक्रम [१२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~450 Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||७|| नियुक्ति: [२०७...] 907 -4 प्रत सूत्रांक दपुरिसोत्ति काउं कंकग्गेण असिणा दुहा काऊण पडिनियत्तो, गतो भूमिघरं, तत्थ पसिऊण पहायाए रयणीए तओ निग्गंतूण गतो वीहि, अंतरावणे तुण्णागतं करेति, रायणा पुरिसेहि सहावितो, तेण चिंतियं-जहा सो पुरिसो Yणं न मारितो, अवस्सं च सो एस राया भविस्सइत्ति, तेहिं पुरिसेहि आणितो, रायणा अन्भुटाणेण पूइतो, आसणे निवेसावितो, स बहुं च पियं आभासिउं संलत्तो-मम भगिणीं देहित्ति,तेण दिना, विवाहिया, रायणा भोगा य से संपदत्ता,कइसुवि दिणेसु गएसु रायणा मंडितो भणिओ-दघेण कजंति, तेण सुबहुंदबजायं दिण्णं, रायणा संपूइतो,अण्णया पुणो मग्गितो पुणोऽपि दिण्णं,तस्स य चोरस्स अतीवर सकारसम्भाणं पउंजति, एएण पगारेण सर्व दई दवावितो, भगिणी से पुच्छति, ताए भषणति-इत्तियं वित्तं, ती पुचायेइयलक्खाणुसारेण सर्व दवायेऊणं मंडितो सूलाए आरोपितो। दृष्टान्तानुवादपूर्वकोऽयमिहोपनयः-यथाऽयम १ पुरुष इतिकृत्वा कलाप्रेणासिना विधा कृत्वा प्रतिनिवृत्तः, गतो भूमिगृहं, तत्रोषित्वा प्रभातायां रजन्यां ततो निर्गत्य गतो वीथिम् , अन्तरापणे तन्तुवायत्वं करोति, राज्ञा पुरुषैः शब्दितः, तेन चिन्तितं-यथा स पुरुषो नूनं न मारितः, अवश्यं च स एष राजा भविष्यतीति, तैः पुरुषैरानीतः, राज्ञाऽभ्युत्थानेन पूजितः, आसने निवेशितः, स बहु प्रियं चाभाच्य संलत:-मा भगिनी देहीति, | तेन दत्ता, विवाहिता, राज्ञा भोगाश्च तस्मै संप्रदत्ताः, कतिपयेष्वपि दिनेषु गतेषु राशा मण्डिको भणितः-द्रव्येण कार्यमिति, तेन सुबहु ४ द्रव्यजातं दत्तं, राज्ञा संपूजितः,अन्यदा पुनर्मानितः पुनरपि दत्तं, तस्य च चौरस्थातीव सरकारसन्मानं प्रयुनक्ति, एतेन प्रकारेण सर्व द्रव्य दापितं, भगिनी तस्या अपृच्छचत, तथा भण्यते-एतावत् वित्तं, ततः पूर्वावेदिवलक्ष्यानुसारेण सर्व दापयित्वा मण्डिकः झूलायामारोपितः। दीप अनुक्रम [१२२] vपूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३], मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~451 Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||८|| ___ नियुक्ति: [२०७...] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः प्रत सूत्रांक २२२॥ खा ||८|| कार्यकार्यपि मण्डिको यावल्लाभं मूलदेवनृपतिना धारितः तथा धर्मार्थिनाऽपि संयमोपहतिहेतुकमपि जीवितं निर्ज-1 असंस्कृता. रालाभमभिलपता तलाभं यावद्धार्यमिति, न च तद्धारणे संयमोपरोध एव, यथाऽऽगमं हि प्रवृत्तस्य तत्तदुपष्टम्भकमे-है। वेति भावनीयम् , इत्यलं प्रसङ्गेनेति सूत्रार्थः ॥ ७॥ सम्प्रति यदुक्तं 'जीवितं बृंहयित्वा मलापध्वंसी स्वादिति तत्किं खातन्त्र्यत एवं उताायत्याह छंदंणिरोहेण उवेति मुक्खं, आसे जहा सिक्खियवम्मधारी। पुवाइ वासाइ चरऽप्पमत्तो, तम्हा मुणी खिप्पमुवेति मुक्खं ॥८॥ (सूत्रम्) व्याख्या-छन्दो-यशसस्य निरोधः छन्दोनिरोधः-स्वच्छन्दतानिषेधः तेन 'उपैति' उपयाति 'मोक्ष' मुक्ति, किमुक्तं भवति ?-गुरुपरतन्त्रतया खाग्रहाग्रहयोगितां विना तत्र प्रवर्तमानोऽपि सक्लेशविकल इति न कर्मवन्धमाक्, किन्त्वविकलचरणतया तन्निर्जरणमेवाप्नोति, अप्रवर्त्तमानोऽपि चाहारादिष्वाग्रहग्रहाकुलितचेताः 'छहमदसमें'-14 त्यादिवचनादनन्तसंसारिताद्यनर्थभागेव भवति, तत्सर्वथा तत्परतन्त्रणव मुमुक्षुणा भाव्यं, तस्यैष सम्यगज्ञानादिसकलकल्याणहेतुत्वाद् , उक्तं च-"णाणस्स होइ भागी थिरयरतो दसणे चरित्ते य । धण्णा आवकहाए गुरुकु मानस्य भवति भागी स्थिरतरो दर्शने चारित्रे च । धन्या यावत्कथं गुरुकुलवासं न मुञ्चन्ति ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [१२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~452 Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||८|| नियुक्ति : [२०७...] प्रत सूत्रांक ||८|| |लवासं न मुंचंति ॥१॥" यहा छन्दसा-गुर्वभिप्रायेण निरोधः-आहारादिपरिहाररूपः छन्दोनिरोधः तेनयोक्त न्यायतो मुक्त्यवाप्तिः, तत्तद्वस्तुविषयाभिलाषात्मिका इच्छा वा छन्दः तन्निरोधेन मुक्तिः, तस्या एवं तद्विवन्धकतत्वात् , तथा च लौकिका अन्याहु:-"श्लोकार्धन हि तद्वक्ष्ये, यदुक्तं अन्धकोटिभिः । तृष्णा च सं(चेत्सं) परित्यक्ता, प्राप्तं च परमं पदम् ॥१॥" अथवा छन्दो वेद आगम इत्यनान्तरं, ततः छन्दसा 'आणाए चिय चरण'मित्यादिना निरोधः-इन्द्रियादिनिग्रहात्मकः छन्दोनिरोधः तेनोपैति मोक्षं, न तु सर्वथा जीवितं प्रत्यनपेक्षतया, तथा च समयविद:-"सर्वत्थ संजमं संजमातो अप्पाणमेव रक्खिज्जा । मुच्चइ अइवायातो पुणोऽवि सोही ण याविरती र |॥१॥" अत्रोदाहरणमाह-अश्वो यथा 'शिक्षितो वल्गनप्लषनधाबनादिशिक्षा प्राहितो वृणोति-आच्छादयति शरीरकमिति वर्म-अश्वतनुत्राणं तद्धरणशीलो वर्मधारी, शिक्षितथासौ वर्मधारी च शिक्षितवर्मधारी, अनेन । शिक्षकतत्रतयाऽस्य खातन्त्र्यापोहमाह, ततोऽयमर्थः-यथाऽश्वः खातच्यविरहात्प्रवर्त्तमानः समरशिरसि न वैरिभिरुपहन्यत इति तन्मुक्तिमामोति, खतवस्तु प्रथममशिक्षितो रणमवाप्तस्तैरुपहन्यते, अत्र च सम्प्रदाया एगणे रायणा दोण्हवि कुलपुत्ताणं दो आसा दिण्णा सिक्खावणपोसणत्वं, तत्थेगो कालोचिएण जवसजोगासणेणं 18| १ सर्वत्र संघमं संयमात् आत्मानमेव रक्षेत् । मुच्यतेऽतिपातात् पुनरपि शुद्धिर्न चाविरतिः ॥ १॥२ एकेन राज्ञा द्वाभ्यामपि कुलपुत्राReभ्यामची ती दत्तौ शिक्षणपोषणार्थ, तत्रैक: कालोचितेन यवसयोगासनेन दीप अनुक्रम [१२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~453 Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||८|| ___ नियुक्ति: [२०७...] उत्तराध्य. बृहद्धत्तिः ॥२२३॥ प्रत सूत्रांक ||८|| संरक्खमाणो धावियलालियवग्गियाईयातो कलातो सिक्खायेइ, बीओ को एयस्स इहजवसजोगासणं दाहिइति । असंस्कृता. घरट्टे वाहेइ ण तु सिक्खायेइ, सेसं अप्पणा भुंजति । संगामकाले उवट्ठिए ते रण्णा वुत्ता-तेसु चेवास्सेसु आरोढुं झत्ति आगच्छह, संपत्ता, भणिया य राइणा-पषिसह संगाम, तत्थ पढमोऽसो सिक्खागुणतणतो सारहियमणुयत्तमाणो संगामपारतो जातो, दुइओ विसिसिक्खाभावतोऽसब्भावभावणाभावियत्तणओ गोधूमजंतगजुत्त इव तत्थेव भभिउमाढतो, तं च परा उवलक्खेउं हयसारहिं काऊण गृहीतवन्तः ॥ दृष्टान्तानुवादपूर्वकोऽयमुपनय:यथाऽसारश्वः तथा धर्मार्थ्यपि खातयविरहितो मुक्तिमवाप्नोति, अत एव च 'पूर्वाणि 'उक्तपरिमाणानि 'वर्षाणि वत्सराणि, कालात्यन्तसंयोगे द्वितीया (पा०२-३-५), किमित्याह-'चर' इति सततमागमोक्तक्रियामासेवख, कथम्?-13 !'अप्रमत्तः' गुरुपारच्यापहारिप्रमादपरिहा, 'तम्ह'त्ति तस्मात् अप्रमादचरणादेव, मन्यते जानाति जीवादीनिति मुनिः-सपखी 'क्षिप्रं' शीघ्रम् उपैति मोक्ष, ननु छन्दोनिरोधोऽपि तत्त्वतोऽप्रमादात्मक एवेति कथं न पुनरुक्तदोषः ?, १ संरक्षन धावनलालितवल्गनादिकाः कलाः शिक्षयति, द्वितीयः क एतस्मै इष्टयवसयोगासनं ददातीति घरट्टे वाहयति न तु शिक्षयति || शेषमात्मना मुझे । संपामकाले उपस्थिते ती राझोकी-तयोरेवाश्वयोरारुह्य झटिल्यागकछतं, संप्राप्ती, भणिती च राज्ञा-प्रविशतं संपाम, तत्र प्रथमोऽश्वः शिक्षागुणत्वात् सारथिमनुवर्चमानः संग्रामपारगो जातः, द्वितीयो विशिष्टशिक्षाभावात् असद्भावभावनाभावितत्वात् गोधूमयत्रकयुक्त इव तत्रैव अमितुमारब्धः, तच परे उपलक्ष्य हतसारथिं कृत्वा गृहीतवन्तः । दीप अनुक्रम [१२३] IM२२३॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~454~ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||९|| नियुक्ति: [२०७...] प्रत सूत्रांक ||९|| उच्यते, अप्रमाद एवादरः कार्य इति ख्यापनार्थत्वादध्ययनार्थोजीवनार्थत्वाचास्य न पौनरुक्त्यमिति भावनीयं, ४ पूर्वाणि वर्षाणीति च एतावदायुषामेव चारित्रपरिणतिरिति दर्शनार्थमुक्तमिति सूत्रार्थः॥८॥ ननु यदि छन्दोनिरोट्राधेन मुक्तिः, अयमन्त्यकाल एव तर्हि विधीयतामित्याशङ्कवाह, यद्वा यदि पश्चान्मलापध्वंसी स्यात् तदैव छन्दोनिरोधादिकमपि तद्धेतुभूतमस्त्वत आह स पुत्वमेवं ण लभेज पच्छा, एसोवमा सासयवाइयाणं । विसीदति सिढिले आउयंमि, कालोवणीए सरीरस्स भेए ॥९॥ (सूत्रम्) व्याख्या-'स' इति यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धात् यः प्रथममेवाप्रमत्ततया भावितमतिर्न भवति स तदात्मक 18 छन्दोनिरोधं 'पुत्वमेवं ति एवंशब्दस्यात्रोपमार्थत्वात्पूर्वमिवान्त्यकालात् मलापध्वंससमयाद्वा अभावितमतित्वात् 'न लभेत्न प्राप्नुयात्, सम्भावने लिट, ततश्च लाभसम्भावनाऽपि न समस्ति, किं पुनस्तल्लाभ इति, 'पश्चात् ' अन्त्य-1EX काले मलापध्वंससमये वा, 'एसोवम'त्ति एषा-अनन्तरमभिहितखरूपा उप-सामीप्येन मीयते-परिच्छिद्यते स्वयंप्रसिद्ध्या अपरमप्रसिद्धं वस्त्वनयेत्युपमा, केषां ?-शाश्वता इव वदितुं शीलमेषामिति शाश्वतवादिनः, उष्ट्रक्रोशिवत् कर्तर्युपमाने (पा-३-२-१९) इति णिनिः, तेषां शाश्वतवादिनाम्-आत्मनि मृत्युमनियतकालभाषिनमपश्यताम् , दीप अनुक्रम [१२४] www.janorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~455 Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [४], मूलं [-1 / गाथा ||९|| नियुक्ति : [२०७...] प्रत सूत्रांक ||९|| उत्तराध्य. या इदमिहाकूतं-यो हि छन्दोनिरोधमुत्तरकालमेव करिष्यामीति वक्ति सोऽवश्यं शाश्वतवादी, स चैवं प्रज्ञाप्यते- असंस्कृता. यथा भद्र ! इदानीं भवतस्तत्कालात्पूर्वमसावुक्तहेतुतो न समस्ति, तथोत्तरकालमप्यसौ प्रमादिनस्तव न भवितेति, बृहद्वृत्तिः यदि वा एषा उपमेति-उपेत्युषयोगपूर्वकं मेति ज्ञानमुपमा-सम्प्रधारणा यदुत पश्चाद्धर्म करिष्यामः इति शाश्व तवादिनां-निरुपक्रमायुषां, ये निरुपक्रमायुष्कतया शाश्वतमिवात्मानं मन्यन्ते तेषां युज्येतापि, न तु जलबुद्धहै दसमानायुषां, तथा चासावुत्तरकालमपि छन्दोनिरोधमनाप्नुवन् 'विषीदति' कथमहमकृतसुकृतः सम्प्रत्यनर्वाक्-४ पारं भवाम्भोधि भ्राम्यन् भविष्यामीत्येवमात्मकं वैक्लव्यमनुभवति, कदा ?-शिथिलयति-आत्मप्रदेशान् मुञ्चति|| ४/आयुषि' मनुष्यभवोपग्राहिण्यायुःकर्मणि, 'कालोवणीय'त्ति कालेन-मृत्युना खस्थितिक्षयलक्षणेन वा समयेनो पनीतः-उपढौकितः तस्मिन् , क ? इत्याह-शरीरस्य' औदारिककायात्मकस्य 'भेदे' सर्वपरिशादतः पृथग्भावे, तदिदमैदम्पर्यम्-आदित एव न प्रमादवद्भिर्भाव्यं, तथा चाह-“गमनं किमद्य किं श्रः कदाऽपि वा सर्वथा ) ध्रुवं कापि । इति जानन्नपि मूढस्तथापि मोहात्सुखं शेते ॥१॥" इति सूत्रार्थः ॥९॥ किं पुनः पूर्वमिव पश्चादपि छन्दोनिरोधं न लभत इत्याह ॥२२॥ खिप्पं न सकेइ विवेगमेउं, तम्हा समुट्ठाय पहाय कामे। समेच्च लाभं समता महेसी, आयाणरक्खी चरमप्पमत्तो ॥१०॥(सूत्रम्) दीप अनुक्रम [१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~4560 Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||१०|| नियुक्ति: [२०७...] 8 प्रत % सूत्रांक ||१०|| %% व्याख्या-क्षिप्रं तत्क्षण एव न शक्नोति' न समर्थो भवति, किं कर्तुम् ?-'एतुं' गन्तुं प्राप्नुमितियावत् , कम्?'विवेक' द्रव्यतो बहिःसङ्गपरित्यागरूपं भावतस्तु कषायपरिहारात्मकं, न बकृतपरिकमा झगिति तत्परित्यागं कर्नु-४ मलम् , अत्रोदाहरणं ब्राह्मणीट्रिा एंगो मरुतो परदेसं गंतूण साहापारतो होऊण सविसयमागतो, तस्सऽनेण मरुतेण खद्धपलालितोत्तिकाउं दारिका दत्ता, सो य लोए दक्खिणातो लहति, परे विभवे वहति तेण तीसे भारियाए सुबहुं अलंकारं कारिय, सा निच-18 मंडिया अच्छइ, तेण भण्णइ-एस पर्चतगामो, ता तुम एयाणि आमरणगाणि तिहिपवणीसु आविंधाहि, कहिं । चोरा उवगच्छेजा तो सुहं मोविजंति, सा भणइ-अहं ताए वेलाए सिग्धमेव अवणेस्संति । अन्नया तत्थ चोरा पडिया, तमेव णिचमडियागिहं अणुपविट्ठा, सा तेहिं सालंकिया गहिया, सा य पणीयभोयणत्ता मंसोवचितपाणि-3 पाया ण सक्केइ कडगाईणि अवणेउं, ततो चोरोहिं तीसे हत्थे छेत्तण अवणीया, मेण्हिउंच निग्गया ॥ एवमन्यो १एको ब्राह्मणः परदेशं गत्वा शाखापारगो भूत्वा स्वविषयमागतः, तस्यान्येन ब्राह्मणेन प्रचुरेपलालित इतिकृत्वा दारिका दत्ता, स च । लोकात् दक्षिणा लभते, अतिशयेन वर्धमाने विभवे तेन तस्या भार्यायाः सुबहवोऽलकाराः कारिताः, सा नित्यं मण्डिता तिष्ठति, तेन || भण्यते-एष प्रत्यन्तनामः, तत्त्वमेतानि आभरणानि तिधिपर्वसु परिधेहि, कदाचिौरा उपगच्छेयुस्तदा सुखं गोप्यन्ते, सा भणति-अहं तस्यां वेलायां शीघ्रमेवापनेष्यामीति । अन्यदा तत्र चौराः पतिताः, तदेव नित्यमण्डितागृहमनुप्रविष्ठाः, सा तैः सालङ्कारा गृहीता, सा च प्रणीतभोजनत्वात् उपचितमांसपाणिपादा न शक्नोति कटकादीन्यपनेतुं, तत: चौरस्तस्या हस्तौ छित्त्वा अपनीतानि, गृहीत्वा च निर्गताः । दीप अनुक्रम [१२५] % % wwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~457 Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||१०|| नियुक्ति: [२०७...] प्रत सूत्रांक ||१०|| उत्तराध्य भाऽपि प्रागकृतपरिका न तत्काल एव विवेकमेतुं शक्नोति, मलापध्वंसस्तु तथा सति दूरापास्त एवेति, न च मरुदेअसताब्युदाहरणं तत्राप्यभिधेयम्, आश्चर्यरूपत्वादस्य, न ह्येवं तीव्रभावा बहवः सम्भवन्ति, यत एवं तस्मात् 'सम्' इति । दिसम्यकप्रवृत्या 'उत्थायेति च पश्चाच्छन्दो निरोत्स्याम इत्यालस्थत्यागेनोद्यम विधाय, तथा 'पहाय कामे'त्ति प्रकर्षण ॥२२५॥ -मनसाऽपि तदचिन्तनात्मकेन 'हित्वा'त्यक्त्वा कामान् इच्छामदनात्मकान् 'समेत्य सम्यग्ज्ञात्वा 'लोक' समस्त प्राणिसमूह, कया ?-'समतया' समशत्रुमित्रतया कचिदरक्तद्विष्टतयेतियावत्, तथा च महर्षिः सन् महः-एकान्तोत्सवरूपत्वान्मोक्षस्तमिच्छतीत्येवंशीलो महेषी वा, किमुक्तं भवति ?-विषयाभिलापविगमान्निर्निदानः सन् आत्मानं|| रक्षत्यपायेभ्यः कुगतिगमनादिभ्य इत्येवंशील आत्मरक्षी, यद्वाऽऽदीयते-स्वीक्रियते आत्महितमनेनेत्यादानः-संयमः तद्रक्षी 'चरमप्पमत्तो'त्ति मकारोऽलाक्षणिकः, ततश्चराप्रमत्तः-प्रमादरहितः, इह च प्रमादपरिहारापरिहारयोरहि-IN ४ कमुदाहरणं वणिग्महिला, तत्र च सम्प्रदायःहै एगो वणिगमहिला पउत्थपतिया सरीरसुस्सूसापरा दासभयगकम्मकरे णिजणिजभियोगेसु न नियोजयति, न य तेर्सि कालोववन्नं जहिण्ठं आहारं भर्ति वा देति. ते सत्वे नहा. कम्मतपरिहाणीए विभवपरिहाणी, आगतो वाणियओ,IMITR२५॥ १ एका वणिग्महिला प्रोषितपतिका शरीरशुश्रूषापरा दासभृतककर्मकरान निजनिजाभियोगेषु न नियोजयति, न च तेभ्यः कालोपपन्नं द यथेष्टमाहार भृति वा ददाति, ते सर्वे नष्टाः, कर्मान्तपरिहाण्या विभवपरिहाणिः, आगतो बणिक, दीप अनुक्रम [१२५] JABERatni पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~458~ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||१०|| नियुक्ति: [२०७...] प्रत सूत्रांक ||१०|| एवंविहं पस्सिऊण पच्छा तेण णिच्छूढा। अण्णं तु पुक्खलेणं सुकेणं वरेति, लद्धा य ण, तेण तीसे णियगा भण्णतिजइ अप्पाणं रक्खद ता परिणेमित्ति, ताए यऽमुणियपरमत्थाए दुग्गयकन्नगाए सोउं नियगा भण्णंति-रक्खामि(क्खिहिइ)अप्पगं, सा तेण विवाहिया, गतो वाणिज्जेणं, सावि दासभयगकम्मकरातीणं संदेसं दाउं तेसिं पुहिकाइकाले भोयणं देइ, महुराहिं च वायाहिं उच्छाहेइ, भई च तेर्सि अकालपरिहीणं देइ, ण य णियगसरीरसुस्सूसापरा, एव-14 मप्पाणं रक्खंतीए भत्ता उवागओ, सो एवंविहं पस्सिऊण तुहो, तेण सवसामिणी कया । इत्थं तावदिहैव गुणाया-8 प्रमादो दोपाय च प्रमादः आस्तामन्यजन्मनीत्यभिप्रायेणात्रैवेहिकोदाहरणाभिधानमिति परिभावनीयमिति सूत्रार्थः KI॥१०॥ प्रमादमूलं च रागद्वेषाविति सोपायं तत्परिहारमाह मुहुं मुहं मोहगुणे जयंतं, अणेगरुवा समणं चरंतं । फासा फुसंती असमंजसं च, ण तेसु भिक्खू मणसा पउस्से ॥११॥ (सूत्रम्) १ एवंविधं दृष्ट्वा पश्चात्तेन निष्काशिता । अन्यां तु पुष्कलेन शुल्केन वृणुते, लब्धा चानेन, तेन तस्या निजका भण्यन्ते-यद्यात्मानं रक्षति | तर्हि परिणयामीति, तस्याश्चाज्ञातपरमार्थाया दुर्गतकन्यायाः श्रुत्वा निजका भणन्ति-रक्षिष्यति आत्मानं, सा तेन विवाहिता, गतो वाणिज्याय, साऽपि दासभृत्यकर्मकरादिभ्यः संदेश दापयित्वा (संगृह्य ) तेभ्यः पूर्वाहादिकाले भोजनं ददाति, मधुरामिश्च वाचाभिरुत्साहयति, भृति च तेभ्योऽकालपरिहीणां ददाति, न च निजशरीरशुश्रूषापरा, एवमात्मानं रक्षन्या भोपागतः, स एवंविधं दृष्ट्वा तुष्टः, तेन सर्वस्वामिनी कृता । दीप अनुक्रम [१२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३) मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~459 Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||११-१२|| नियुक्ति: [२०७...] RENCE प्रत सचराध्य. बृहद्वृत्तिः सूत्रांक ||११ ॥२२६॥ -१२|| 915 मंदा य फासा बहुलोभणिज्जा, तहप्पगारेसुम णं ण कुजा। असंस्कृता. रक्खेज कोहं विणएज माणं, मायं ण सेवेज पहिज लोहं ॥ १२ ॥ (सूत्रम्) | व्याख्या-'मुहर्मुहुः' वारं वारं, सततप्रवृत्युपलक्षणमेतत् , मोहयति-जानानमपि जन्तुमाकुलयति प्रवर्त्तयति चान्यथेहेति मोहः तस्य गुणाः मोहगुणाः-तदुपकारिणः शब्दादयः, तान् 'जयंत' अभिभवन्तं, किमुक्तं भवति :अविच्छेदतस्तज्जयप्रवृत्तं यद्वा कथञ्चिन्मोहनीयात्सन्तोदयत एकदा तैः पराजितमपि पुनः पुनस्सज्जयं प्रति प्रवर्तमान न तु तत एव विमुक्तसंयमोद्योगम् , 'अनेकरूपाः' अनेकमिति-अनेकविधं परुषविषमसंस्थानादिभेदं रूपं-खरूपमेषामिति अनेकरूपाः, श्रमणं चरन्तं प्राग्वत् , 'फास'चि स्पृशन्ति खानि खानीन्द्रियाणि गृह्यमाणतया इति स्पर्शा:शब्दादयस्ते 'स्पृशन्ति' गृखमाणतयैव सम्बन्ति, 'असमंजसम्' अननुकूलमिति क्रियाविशेषणमेतत् , चशब्दोऽवधारणे, असमञ्जसमेव, अथवा स्पर्शनविषयाः-स्पर्शाः स्पृशन्ति, स्पर्शोपादानं चास्यैव दुर्जयत्वाधापित्वाच, न तेषु' स्पर्शेषु : ॥२२६॥ 'भिक्षुः' मुनिः, मनसा उपलक्षणत्वाच वाचा कायेन च, यद्वाऽपिशब्दस्य लुप्सनिर्दिष्टत्वान्मनसाऽपि आस्तां वाचा कायेन वा, 'पदूसे'त्ति प्रदूष्येत् प्रद्विष्यावा, किमुक्तं भवति ?-कर्कशसंस्तारकादिस्पर्शादौ हन्तोपत्तापिता वयमेतेनेति न चिन्त 4% दीप अनुक्रम [१२६-१२७]] wwwjandiarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~460 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||११-१२|| नियुक्ति: [२०७...] प्रत सूत्रांक ||११-१२|| येत् नैव वा वदेत्परिहरेद्वा तमिति॥'मंदा येति सूत्रं, तथा मन्दायन्तीति मन्दाः-हिताहितविवेकिनमपि जनमन्यता नयन्तीतिकृत्वा, चशब्दः पूर्वापेक्षया समुचये, स्पर्शाः प्राग्वच्छन्दादयः, बहन् लोभयन्ति-विमोहयन्तीति बहु-1 १ लोभनीयाः 'अन्यत्रापी (कृत्यल्युटी बहुलम् )ति वचनात् कर्तर्यनीयः, अनेनात्याक्षेपकत्वमुक्त, 'तहप्पगारेसुत्ति, अपेर्गम्यमानत्वात्तथाप्रकारेवतिबहुलोभनीयेष्वपि मृदुस्पर्शमधुररसादिषु 'मनः' चित्तं न कुर्यात्, अथवा धातूनामनेकार्थत्वान्न निवेशयेत्, यद्वा सङ्कल्पात्मकमेव मनः, ततो मन इति सङ्कल्पमपि न कुर्यात्न विदध्याद् आस्तां तत्प्रवृत्तिमिति, अथवा मन्दबुद्धित्वान्मन्दगमनत्वाद्वा मन्दाः-स्त्रियः ता एव स्पर्शप्रधानत्वात् स्पशाः, ततश्च महँन्दाश्च स्पर्शाः, पहूनां कामिना लोभनीया:-गृद्धिजनका बहुलोभनीयाः यास्तासु 'तहप्पगारेसु'त्ति लिङ्गव्यत्ययात्त याप्रकारासु बहुलोभनीयासु मनोऽपि न कुर्याद् , इह च स्त्रीणामेव बहुतरापायहेतुत्वादित्थमुच्यते, तथा चाह"स्पर्शेन्द्रियप्रसक्ताच, बलवन्तो मदोत्कटाः। हस्तिवन्धकिसंरक्ता, वध्यन्ते मत्तवारणाः॥१॥" इति । एवं च पूर्वसूत्रेण द्वेषस्य परिहार उक्तः, अनेन च रागस्य, स तु कथं भवतीत्यत आह-रक्षयेत्' निवारयेत् , कम् ?-'क्रोधम्। अग्रीतिलक्षणं, 'विनयेत् ' अपनयेत् 'मानम् ' अहङ्कारात्मकं, 'मायां' परवञ्चनबुद्धिरूपां न कुयोत्, 'प्रजयात्'ट्र परित्यजेत् 'लोभम् ' अभिष्यजखभावं, तथा च क्रोधमानयोद्धेषात्मकत्वान्मायालोमयोष रागरूपत्वात्तन्निग्रह एव तत्परिहतिरिति भावनीयम् । अथवा स्पर्शपरिहारमभिदधता चतुर्थव्रतमुक्तं, तब 'अपभचेरं घोर पमायं दुरहिट्ठग'ति-13 १ अब्रह्मचर्य धोरं प्रमादं दुरधिष्ठितम् । दीप अनुक्रम [१२६-१२७]] JAMERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~461 Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ॥११ -१२|| दीप अनुक्रम [१२६ -१२७] उत्तराध्य. वृहद्वृत्तिः ॥२२७॥ Educatiuninten [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं +निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [४], मूलं [-] / गाथा ||११-१२ || निर्युक्ति: [२०७...] वचनान्महाप्रमादरूपस्याब्रह्मणो निरोधकृदिति, तदभिधानाद्धिंसादिनिरोधोऽप्युक्त एवेति, अनेनार्थतो मूलगुणाभिघानं रक्षेत् क्रोधमित्यादिना च पिण्डादिकमयच्छते यच्छते वा न कषायवशगो भवेदित्युत्तरगुणोक्तिरिति सूत्रद्वयार्थः | ११-१२ ॥ सम्प्रति यदुक्तं- 'तम्हा समुद्वाय पहाय कामे' इत्यादि, तत्कदाचिचरकादिष्यपि भवेत् अत आहयद्वैतावता चारित्रशुद्धिरुक्ता सा च न सम्यक्त्वविशुद्धिमपहायातस्तदर्थमिदमाह - जे संख्या तुच्छपरप्पवादी, ते पेजदोसाणुगया परज्झा। एए अहम्मुत्ति दुछमाणो, कंखे गुणे जाव सरीरभेए ॥ १३ ॥ तिबेमि (सूत्रम्) व्याख्या- 'ये' इति अनिर्दिष्टखरूपाः, संस्कृता इति न तात्त्विकशुद्धिमन्तः किन्तूपचरितवृत्तयः, यद्वा संस्कृतागमप्ररूपकत्वेन संस्कृताः, यथा सौगताः, ते हि खागमे निरन्ययोच्छेदमभिधाय पुनस्तेनैव निर्वाहमपश्यन्तः परमार्थतोऽन्वयि द्रव्यरूपमेव सन्तानमुपकल्पयांबभूवुः, साङ्ख्या चैकान्तनित्यतामुक्त्वा तत्त्वतः परिणामरूपाने (पावेव पुनराविर्भाव तिरोभावायुक्तवन्तो, यथा वा- 'उक्तानि प्रतिषिद्धानि, पुनः सम्भावितानि च । सापेक्षनिरपेक्षाणि, ऋषिवाक्यान्यनेकशः ॥ १ ॥ इतिवचनाद्वचननिषेधनसम्भवादिभिरुपस्कृत स्मृत्यादिशास्त्रा मन्वादयः, अत एव 'तुच्छ'त्ति तुच्छा यदृच्छाभिधायितया निःसाराः 'परप्पवाइ'त्ति परे च ते स्वतीर्थिकव्यतिरिक्ततया प्रचादिनश्च For Fans Use Only असंस्कृता. ~ 462 ~ ४ | ॥२२७॥ www.ncbrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [४], मूलं [--] / गाथा ||१३|| नियुक्ति : [२०७...] प्रत सूत्रांक ||१३|| परप्रवादिनः, ते किमित्याह-पेजदोसाणुगया' प्रेमद्वेषाभ्यामनुगताः प्रेमद्वेषानुगताः, तथाहि-सर्वथा संवादिनि भगवद्वचसि निरन्वयोच्छेदैकान्तनित्यत्वादिकल्पनं वचननिषेधनसम्भावनादिया न रागद्वेषाभ्यां विनेति भावनीयम्, हाअत एव च 'परज्झत्ति देशीपरत्वात्परवशा रागद्वेषग्रहग्रस्तमानसतया न ते खतन्त्राः, यदि त एवंविधास्ततः किमित्याह एते' इति अर्हन्मतवायाः, अधर्महेतुत्वादधर्मः, 'इती'त्यमुनोलेखेन 'दुगुंछमाणो'त्ति जुगुप्समानः उन्मार्गानुयाहै यिनोऽमी इति तत्खरूपमवधारयन् , न तु निन्दन् , निन्दायाः सर्वत्र निषेधात्, तदेवंविधश्च किं कुर्यादित्याह काङ्केत्' अभिलपेत् 'गुणान्' सम्यग्दर्शनचारित्रात्मकान् भगवदागमाभिहितान् , किं नियतकालमेबोतान्यथे| साह-यावच्छरीरात्-औदारिकात्पश्चप्रकाराद्वा भेदः-पृथग्भायः शरीरभेदो, मरणं विमुक्तिर्वतियावद्, अनेनेहेव समुत्थानं कामबहाणादि च तत्त्वतः, अन्यत्र तु संवृत्तिमदित्युक्तम् , एवं च कासात्मकसम्यक्त्वातिचारपरिहाराभि|धानतः समक्त्वशुद्धिति सूत्रार्थः ॥१३॥ इति परिसमाप्ती, अबीमीति पूर्ववत्, उक्तोऽनुगमः, सम्प्रति नयाः, ते च पूर्ववत् ॥ इति श्रीशान्त्याचार्यविरचितायामुत्तराध्ययनटीकायां शिष्यहितायां प्रमादाप्रमादनामक चतुर्थमध्ययन समासमिति ॥ दीप अनुक्रम [१२८] JAMERatinintimational inatandinrary om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: अत्र अध्ययनं-४ परिसमाप्तं ~463 Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [७], मूलं [-] / गाथा ||१३..|| नियुक्ति: [२०८] प्रत सूत्रांक ||१३|| उत्तराध्ययनेषु पञ्चममध्ययनम् । ॥ उक्तं चतुर्थमध्ययनं, साम्प्रतं पञ्चममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-अनन्तराध्ययने 'काङ्केत् गुणान् यावछरीरस्य भेद'इत्यभिदधता मरणं यावदप्रमादोऽनुवर्णिणतः, ततो मरणकालेऽप्यप्रमादो विधेयः, स च मरणविभागपरिज्ञानत एव भवति, ततो हि बालमरणादि हेयं हीयते पण्डितमरमादि चोपादेयमुपादीयते, तथा च तत्त्वतोऽप्रमत्तता जायते, इत्यनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्याध्ययनस्यानुयोगद्वारचतुष्टयमुपवयं तावद्यावन्नामनिष्पन्ननिक्षेपे 'अकाममरणीयम्' इति नाम, तत्र च काममरणप्रतिपक्षोऽकाममरणम् , अतः कामानां मरणस्य च निक्षेपः | कार्यः, तत्र काममरणयोनिक्षेपं प्रतिपादयितुमाह नियुक्तिकृत्कामाण उणिक्खेवो चउबिहो छबिहो य मरणस्स । कामा पुवुद्दिट्रा पगयमभिप्पेयकामहि ॥ २०८ ॥ व्याख्या-काम्यन्त इति कामास्तेषां, तुः पूरणे, निक्षेपश्चतुर्विधः, षड्विधश्च मरणस्य, भवतीत्युभयत्र गम्यते, तत्र कामाः पूर्वोद्दिष्टाः पूर्व-श्रामण्यपूर्वकनाम्नि दशकालिकद्वितीयाध्ययने उद्दिष्टाः-कथिताः, तत्र तेषामनेकधा वर्णनात् , यैरत्र प्रकृतं तान् दर्शयितुमाह-'प्रकृतम्' अधिकृतम् , 'अभिप्रेतकामैः' इच्छाकामैरिति गाथार्थः दीप अनुक्रम [१२८] wwjandiarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३), मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: अथ अध्ययनं -५ "अकाममरणीय" आरभ्यते ~464 Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२०८] प्रत सूत्रांक ||१३|| Ki ओहे'त्ति ओघमरण-सामान्यतः सर्वप्राणिनां प्राणपरित्यागात्मकं भवति, भवमरणं-यनारकादेनरकादिभवविषयतया विवक्षितं, 'तम्भविय'त्ति तद्भाविकमरणं यस्मिन्नेव मनुष्यभवादौ मृतः पुनस्तस्मिन्नेवोत्पद्य यन्म्रियते इति व्याख्यानिकाभिप्रायो, वृद्धास्तु व्याचक्षते-'तं भावमरणं दुविह-ओघमरणं तब्भवमरणं च, तथा तद्भवमरणस्वरूपं च 'जो जम्मि भवग्गणे मरई। तत्र च 'ओहे तब्भवमरणे' इति पाठो लक्ष्यते । इह चैषां येनाधिकारस्तमाह-'मणुस्सभविएणति मनुष्यभवभाविना भवमरणान्तर्वर्तिना मनुष्यभविकमरणेनाधिकारः-प्रकृतम् , इति गाथार्थः ॥२०९॥ सम्प्रति विस्त रतो मरणवक्तव्यताविषयं द्वारगाथाद्वयमाह६ मरणविभत्तिपरूवण अणुभावो चेव तह पएसग्गं। कइ मरइ एगसमयं ? कइखुत्तो वावि इक्किक्के ? ॥२१०॥ मरणंमि इक्कमिक्के कइभागो मरइ सबजीवाणं? । अणुसमय संतरं वा इक्किकं किञ्चिरं कालं ? ॥ २११ ॥ व्याख्या-तत्र मरणस्य विभक्तिः-विभागस्तस्य प्ररूपणा-प्रदर्शना मरणविभक्तिप्ररूपणा, कार्येति शेषः, अनुभागश्च-रसः, स च तद्विषयस्यायुःकर्मणः, तत्रैव तत्सम्भवात् , मरणे हि तदभावात्मनि कथं तत्सम्भव इति भावनीयम् , एवेति पूरणे, तथा प्रदेशानां-तद्विषयायुःकर्मपुद्गलात्मकानाम् अग्रं-परिमाणं प्रदेशाग्रं, वाच्यमिति गम्यते, दीप अनुक्रम [१२८] FOLPHARPramuskani पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: અહી પ્રતનું પાનું ૨૨લાર આવશે, સ્કેન કરનારની ભૂલ થી પાનું ૨૩૦/૧ બે વખત સ્કેન થઇ ગયેલ છે ~465 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं [--] / गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२१०-२११] प्रत सूत्रांक ||१३|| Ki ओहे'त्ति ओघमरण-सामान्यतः सर्वप्राणिनां प्राणपरित्यागात्मकं भवति, भवमरणं-यनारकादेनरकादिभवविषयतया विवक्षितं, 'तम्भविय'त्ति तद्भाविकमरणं यस्मिन्नेव मनुष्यभवादौ मृतः पुनस्तस्मिन्नेवोत्पद्य यन्म्रियते इति व्याख्यानिकाभिप्रायो, वृद्धास्तु व्याचक्षते-'तं भावमरणं दुविह-ओघमरणं तब्भवमरणं च, तथा तद्भवमरणस्वरूपं च 'जो जम्मि भवग्गणे मरई। तत्र च 'ओहे तब्भवमरणे' इति पाठो लक्ष्यते । इह चैषां येनाधिकारस्तमाह-'मणुस्सभविएणति मनुष्यभवभाविना भवमरणान्तर्वर्तिना मनुष्यभविकमरणेनाधिकारः-प्रकृतम् , इति गाथार्थः ॥२०९॥ सम्प्रति विस्त रतो मरणवक्तव्यताविषयं द्वारगाथाद्वयमाह६ मरणविभत्तिपरूवण अणुभावो चेव तह पएसग्गं। कइ मरइ एगसमयं ? कइखुत्तो वावि इक्किक्के ? ॥२१०॥ मरणंमि इक्कमिक्के कइभागो मरइ सबजीवाणं? । अणुसमय संतरं वा इक्किकं किञ्चिरं कालं ? ॥ २११ ॥ व्याख्या-तत्र मरणस्य विभक्तिः-विभागस्तस्य प्ररूपणा-प्रदर्शना मरणविभक्तिप्ररूपणा, कार्येति शेषः, अनुभागश्च-रसः, स च तद्विषयस्यायुःकर्मणः, तत्रैव तत्सम्भवात् , मरणे हि तदभावात्मनि कथं तत्सम्भव इति भावनीयम् , एवेति पूरणे, तथा प्रदेशानां-तद्विषयायुःकर्मपुद्गलात्मकानाम् अग्रं-परिमाणं प्रदेशाग्रं, वाच्यमिति गम्यते, दीप अनुक्रम [१२८] 1566 FRPHATARPrvanusooni पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~466 Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [--] / गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२१२-२१३] 14 अकाम प्रत सूत्रांक ||१३|| उत्तराध्य. कति' कियन्ति मरणानि, अङ्गीकृत्य इति शेषः, म्रियते-प्राणांस्त्यजति, जन्तुरिति गम्यते, 'एगसमय'ति सुब्व्यत्ययात् एकस्मिन् समये 'कइखुत्तो'त्ति कतिकृत्वः कियतो वारान् , 'वा' समुच्चये, अपिः पूरणे, 'एकेकंति' एकैकस्मिन् वक्ष्यमाICणभेदे मरणे म्रियते इति योज्यम् , 'मरणे' वक्ष्यमाणभेद एवैककस्मिन् 'कतिभागो'त्ति कतिसक्यो भागो नियते. 'सर्व- मरणाध्य. ॥२३०॥ जीवानाम् ' अशेषजीवानाम् 'अणुसमयंति प्रतिसमयं निरन्तरमितियावत् , अन्तरं-व्यवधानं सहान्तरेण वर्चत इति सान्तरं, या विकल्पे, किमुक्तं भवति ?-एपु कतरनिरन्तरं सान्तरं वा ?, तथैकैकं "कियचिरं' कियत्परिमाणं 3 कालं सम्भवतीति गाथाद्वयाक्षरार्थः ॥ २१०-२११॥ भावार्थ तु खत एवं वक्ष्यति नियुक्तिकारः-तत्र च 'यथो-13 हेशं निर्देश' इति न्यायतः प्रथमं द्वारमाश्रित्याहआवीचि ओहि अंतिय वलायमरणं वसहमरणं च । अंतोसल्लं तब्भव बालं तह पंडियं मीसं ॥ २१२॥ छउमत्थमरण केवलि वेहाणस गिद्धपिट्टमरणं च । मरणं भत्तपरिण्णा इंगिणी पाओवगमणंच ॥२१३॥ व्याख्या-इह च मरणशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धात् आवीचिमरणम् १ अवधिमरणम् २ 'अन्तिय'त्ति आर्ष-11 २३०॥ त्वादत्यन्तमरणं ३ 'वलायमरणं ति तत एव बलन्मरणं ४ वशार्त्तमरणं च ५ अन्तःशल्यमरणं ६ तद्भवमरणं ७ बालमरणं ८ तथा पण्डितमरणं ९ मिश्रमरणं १० छद्मस्थमरणं ११ केवलिमरणं १२ 'वेहाणसं'ति तत एव वैहायसमरणं| दीप अनुक्रम [१२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~467~ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||23|| दीप अनुक्रम [१२८] Jam Euston in [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं+निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [--] / गाथा || १३...|| निर्युक्ति: [२१४] १३ गृपृष्ठमरणं १४ 'मरणं भत्तपरिण्ण'त्ति भक्तपरिज्ञामरणम् १५ इङ्गिनीमरणं १६ पादपोपगमनमरणं १७ चेति गाथाद्वयार्थः ॥ २१२-२१३ ॥ सम्प्रत्यतिबहुभेददर्शनान्मा भूत् कस्यचिदश्रद्धानमिति सम्प्रदायगर्भ निगमनमाहसत्तरसविहाणाई मरणे गुरुणो भांति गुणकलिआ । तेसिं नामविभत्तिं वृच्छामि अहाणुपुत्रीए ॥ २१४ ॥ व्याख्या -सप्तदश सप्तदशसङ्ख्यानि विधीयन्ते - विशेषाभिव्यक्तये क्रियन्त इति विधानानि-भेदाः 'मरणे' मरणविषयाणि 'गुरवः' पूज्यास्तीर्थकृद्रणभृदादयो 'भणन्ति' प्रतिपादयन्ति, गुणैः सम्यग्दर्शनज्ञानादिभिः कलितायुक्ता गुणकलिताः, न तु वयमेव इत्याकूतं वक्ष्यमाणग्रन्थसम्बन्धनार्थमाह- 'तेषां ' मरणानां नाम्नाम्-अभिधानानामनन्तरमुपदर्शितानां विभक्तिः- अर्थतो विभागो नामविभक्तिस्तां 'वक्ष्ये' अभिधास्ये, 'अथे'त्यनन्तरमेव आनुपू- क्रमेणेति गाथार्थः ॥ २१४ ॥ यथाप्रतिज्ञातमाह अणुसमयनिरंतरमवीइसन्नियं तं भणति पंचविहं । दवे खित्ते काले भवे य भावे य संसारे ॥ २१५ ॥ व्याख्या- 'अणुसमर्थ' समयमाश्रित्य इदं च व्यवहितसमयाश्रयणतोऽपीति मा भूद्धान्तिरत आह--- निरन्तरं, न सान्तरम्, अन्तरालासम्भवात् किं तदेवंविधम् १- अवीइसंनियं' ति प्राकृतत्वादा - समन्ताद्वीचय इव वीचयः । प्रतिसमय मनुभूयमानायुषोऽपरायुर्दलिकोदयात् पूर्वपूर्वायुर्दलिकविच्युतिलक्षणाऽवस्था यस्मिंस्तदाऽऽवीचि, ततश्चा For Parsons Pre Ord पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~468~ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२१५] प्रत ॥२३॥ सूत्रांक ||१३|| उत्तराध्याचीचीति संज्ञा संजाता अस्मिंस्तारकादित्वात् 'तदस्य सातं तारकादिभ्य इतजि' (पा०५-२-४६) त्यनेनेत्यावी-11 चिसंज्ञितम् , अथवा वीधि-विच्छेदस्तदभावादवीचि तत्संज्ञितम् , उभयत्र प्रक्रमान्मरणं, यद्वा संज्ञितशब्दः प्रत्येक-13/ मभिसम्बध्यते, ततश्च अनुसमयसंज्ञित-निरन्तरसंज्ञितम् अवीचिसंज्ञितमिति एकाधिकान्येतानि, 'तदि' त्यावीचिमरणं 'भणन्ति' प्रतिपादयन्ति पञ्चविधं' पञ्चप्रकारं, गणधरादय इति गम्यते, अनेन च पारतव्यं द्योतयति, तदेवाह-'दवेत्ति द्रव्यावीचिमरणं 'खेत्तेत्ति क्षेत्रावीचिमरणं 'काले'त्ति कालावीचिमरणं भवे यत्ति भवाबीचिमरणं च 'भावे य'त्ति भावावीचिमरणं च, संसार इत्याधारनिर्देशः, तत्रैव मरणस्य सम्भवात् , तत्र द्रव्यावीचिमरणं नाम यन्नारकतिर्यग्नरामराणामुत्पत्तिसमयात् प्रभृति निजनिजायुःकर्मदलिकानामनुसमयमनुभवनाद्विचटनं, तच्च नारकादिभेदाचतुर्विधम् , एवं नरकादिगतिचातुर्विध्यापेक्षया तद्विपयं क्षेत्रमपि चतुर्दैव, ततस्तत्वाधान्यापेक्षया क्षेत्रावीचिमरणमपि चतुर्द्धव, 'काल'इति यथाऽऽयुष्ककालो गृह्यते, न त्वद्धाकालः, तस्य देवादिष्वसम्भवात् , स च देवायुष्ककालादिभेदाचतुर्विधः, ततस्तत्प्राधान्यापेक्षया कालावीचिमरणमपि चतुर्विधम् , एवं नरकादिचतुर्विधभवापेक्षया भवाचीचिमरणमपि चतुर्धव, तेषामेव च नारकादीनां चतुर्विधमायुःक्षयलक्षणं भावं प्राधान्येनापेक्ष्य भावा-IMIR३॥ वीचिमरणमपि चतुर्धेव वाच्यमिति गाथार्यः ॥ २१५ ॥ अधुनाऽवधिमरणमाह-. एमेव ओहिमरणं जाणि मओ ताणि चेव मरइ पुणो। दीप अनुक्रम [१२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~469~ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||23|| दीप अनुक्रम [१२८] Jam Euston T [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं+निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [--] / गाथा ||१३...|| निर्युक्ति: [२१६] व्याख्या- 'एवमेव ' यथाऽऽवीचिमरणं द्रव्यक्षेत्र कालभवभावभेदतः पञ्चविधं तथाऽवधिमरणमपीत्यर्थः । तत्खरूपमाह यानि मृतः, सम्प्रतीति शेषः, तानि चैव 'मरइ पुणो 'त्ति आर्षत्वात्तिव्यत्ययेन मरिष्यति पुनः किमुक्तं भवति ? - अवधिः- मर्यादा, ततश्च यानि नारकादिभवनिबन्धन तयाऽऽयुः कर्म दलिकान्यनुभूय म्रियते, यदि पुनस्तान्येवानुभूय मरिष्यति तदा तद् द्रव्यावधिमरणं, सम्भवति हि गृहीतोज्झितानामपि कर्मदलिकानां पुनर्ग्रहणम्, परिणामवैचित्र्याद् एवं क्षेत्रादिष्वपि भावनीयं । पश्चार्द्धनाऽऽत्यन्तिक मरणमाह एमेव आइयंतियमरणं नवि मरइ ताइ पुणो ॥ २१६ ॥ व्याख्या -' एवमेव' अवधिमरणवदात्यन्तिकमरणमपि द्रव्यादिभेदतः पञ्चविधं, विशेषस्त्वयम् -'णवि मरइ ताइ पुणो 'ति अपिशब्द स्यैवकारार्थत्वान्नैव तानि द्रव्यादीनि पुन म्रियते, इदमुक्तं भवति --यानि नरकाद्यायुष्कतया कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते मृतो वा न पुनस्तान्यनुभूय मरिष्यति, एवं क्षेत्रादिष्वपि वाध्यं, त्रीण्यपि चामून्यवीच्यविध्यात्यन्तिकमरणानि प्रत्येकं पञ्चानां द्रव्यादीनां नारकादिगतिभेदेन चतुर्विधत्वाद्विंशतिभेदानीति गाथार्थः ॥ २१६ ॥ | साम्प्रतं चलम्मरणमाह- संजमजोगविसन्ना मरंति जे तं वलायमरणं तु । इंदियविसयवसगया मरंति जे तं वसहं तु ॥ २१७॥ For Paren पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~ 470 ~ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [१], मूलं [--1 / गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२१७] अकाम मरणाध्य. प्रत सूत्रांक ||१३|| उत्तराध्य 8 व्याख्या-संयमयोगा:-संयमव्यापारास्तैस्तेषु या विषपणाः संयमयोगविषण्णा अतिदुश्चरं तपश्चरणमाचरितुम- बृहद्भुत्तिः क्षमाः व्रतं च मोक्तुमशक्नुवन्तः कथञ्चिदस्माकमितो मुक्तिरस्त्विति विचिन्तयन्तो म्रियन्ते यत्तद्वलतां-संयमानिवसमानानां मरणं वलन्मरणं, तुर्विशेषणे, भग्नव्रतपरिणतीनां तिनामेवैतदिति विशेषयति, अन्येषां हि संयमयोगाना॥२३२॥ मेवासम्भवात् कथं तद्विपादः ? तदभावे च तदिति । पश्चार्द्धन यशार्तमाह-इन्द्रियाणां-चक्षुरादीनां विषयाः मनोज्ञरूपादय इन्द्रियविषयास्तद्वशं गताः-प्राप्ता इन्द्रियविषयवशगताः स्निग्धदीपकलिकाऽवलोकनाकुलितपतङ्गवत् नियन्ते यत्तद्वशार्तमरणं, कथञ्चिद्रव्यपर्याययोरभेदादेवमुच्यते, एवं पूर्वत्रापि भावनीयं, तुशब्द एषामप्यध्यवसानभेदतो वैचित्र्यख्यापनार्थ इति गाथार्थः ॥ २१७ ॥ अन्तःशल्यमरणमाह लज्जाइ गारवेण य बहुस्सुयमएण वाऽवि दुचरिअंीजे न कहंति गुरूणं न हु ते आराहगा हुँति ॥२१॥ द गारवपंकनिबुड्डा अइयारं जे परस्स न कहति । दसणनाणचरिते ससल्लमरणं हवइ तेसिं ॥ २१९ ॥ व्याख्या-तत्र 'लजया' अनुचितानुष्ठानसंवरणाऽऽत्मिकया 'गौरवेण च' सातर्द्धिरसगौरवात्मकेन, मा भून्ममा- लोचनाईमाचार्यमुपसर्पतस्तद्वन्दनादिना तदुक्ततपोऽनुष्ठानासेयनेन च ऋद्धिरससाताभावसम्भवः इति, 'बहुश्रुतमदेन वा' बहुश्रुतोऽहं तत्कथमल्पश्रुतोऽयं मम शल्यमुद्धरिष्यति ? कथं चाहमस्मै बन्दनादिकं दास्यामि ? अपभ्रा दीप अनुक्रम [१२८] रीमा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~471 Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं [--] / गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२१८-२१९] % प्रत सूत्रांक % ||१३|| % जना हि इयं मम इत्यभिमानेन, अपिः पूरणे, ये गुरुकर्माणो 'न कथयन्ति' नालोचयन्ति, केषाम् ?-'गुरूणाम्' आलोचनार्हाणामाचार्यादीनां, किं तद् ?-'दुश्चरित' दुरनुष्ठितम् इति सम्बन्धः, 'न हु' नैव 'ते' अनन्तरमुक्तरूपा आराधयन्ति-अविकलतया निष्पादयन्ति सम्यग्दर्शनादीनि इत्याराधका भवन्ति, ततः किमित्याह-गौरवं पङ्क इव कालुप्यहेतुतया तस्मिन् निबुडा-इति प्राकृतत्वानिममा इव निममाः तक्रोडीकृततया, लज्जामदयोरपि प्रागुपादाने यदिह गौरवस्योपादानं तदस्यैवातिदुष्टताख्यापनार्थम् , 'अतिचारम्' अपराधं ये 'परस्य' आचार्यादेः न कथयन्ति, किंविषयम् ? इत्याह-दर्शनज्ञानचारित्रे' दर्शनज्ञानचारित्रविषयं, तत्र दर्शनविषयं शङ्कादि ज्ञानविषयं कालातिक्रमादि चारित्रविषय समित्यननुपालनादि, शल्यमिव शल्यं कालान्तरेऽप्यनिष्टफल विधानं प्रत्यबन्ध्यतया, सह तेन हासशल्यं तब तम्मरणं च सशल्यमरणम्-अन्तःशल्यमरणं भवति, 'तेपा' गौरवपतमन्नानामिति गाथाद्वयार्थः। ॥२१८-२१९ ॥ अस्यैवात्यन्तपरिहार्यतां ख्यापयन् फलमाह एयं ससल्लमरणं मरिऊण महब्भए दुरंतंमि । सुइरं भमंति जीवा दीहे संसारकंतारे ॥ २२०॥ ___ व्याख्या-'एतद्' उक्तखरूपं सशल्यमरणं यथा भवति तथेत्युपस्कारः, सुव्यत्ययाद्वा एतेन-सशल्यमरणेन 'मृत्वा'त्यक्त्वा प्राणान्, के -जीवा इति सम्बन्धः, किम् ?-'सुचिरं भ्रमन्ति' बहुकालं पर्यटन्तिक-संसारः |कान्तारमिवातिगहनतया संसारकान्तारः तस्मिन्निति सण्टक्कः, कीशि?-महद्भयं यस्मिन् तन्महाभयं तस्मिन् , तथा % 4 दीप अनुक्रम [१२८] Jamtaunamthimation पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~472 Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२२१] अकाम उत्तराध्य बृहद्धृत्तिः ॥२३॥ मरणाध्य. प्रत सूत्रांक ||१३|| दुःखेनान्तः-पर्यन्तो यस्य तहुरन्तं तस्मिन् , तथा 'दीर्घ' अनादौ केषाञ्चिदपर्यवसिते चेति तत् सर्वथा परिहर्त्तव्यमेबेति भाव इति गाथार्थः ॥ २२० ॥ तद्भयमरणमाहमोत्तुं अकम्मभूमगनरतिरिए सुरगणे अ नेरइए । सेसाणं जीवाणं तब्भवमरणं तु केसिंचि ॥ २२१॥ | व्याख्या-'मुक्त्या' अपहाय, कान् ?-'अकम्मभूमगनरतिरिए चि सूत्रत्वात् अकर्मभूमिजाच ते देवकुरूत्तरकु दिपूत्पन्नतया नरतियश्चश्च अकर्मभूमिजनरतियञ्चस्तान् , तेषां हि तद्भवानन्तरं देवेष्वेवोत्पादः, तथा 'सुरगणांश्च सुरनिकायान् , किमुक्तं भवति ?-चतुर्निकायवर्तिनोऽपि देवान् , निरयो-नरकः तस्मिन् भवा नैरयिकाः, इहापि, चशब्दानुवृत्तेस्तांश्च मुक्त्वेति सम्बन्धः, तेषां देवानां च तद्भवानन्तरं तिर्यग्मनुष्येष्वेवोत्पत्तेः, 'शेषाणाम् ' एतदुद्धरितानां कर्मभूमिजनरतिरश्था 'जीवानां' प्राणिनां तद्भवमरणं, तेषामेव पुनस्तत्रोत्पत्तेः, तद्धि यस्मिन् भवे वर्तते । जन्तुस्तद्भवयोग्यमेयायुर्वट्वा पुनस्तत्क्षयेण प्रियमाणस्य भवति, तुशब्दस्तेषामपि समयेयवर्षायुषामेवेति विशेषख्या-11 पकः, असञ्जयेयवर्षायुषां हि युगलधार्मिकत्वादकर्मभूमिजानामिव देवेष्येवोत्पादः, तेषामपि न सर्वेषां, किन्तु 'के-12 पाश्चित्' तद्भवोत्पादानुरूपमेयायुःकर्मोपचिन्यतामिति गाधार्थः ॥ २२१ ।। अत्रान्तरे प्रत्यन्तरेषु 'मोत्तूण ओहिमरणं' इत्यादिगाथा दृश्यते, न चास्या भावार्थः सम्यगवबुध्यते, नापि चूर्णिकृताऽसौ व्याख्यातेति उपेक्ष्यते ॥ सम्प्रति बालपण्डितमिश्रमरणखरूपमाह दीप अनुक्रम [१२८] ॥२३३॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~473 Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||23|| दीप अनुक्रम [१२८] ॐ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं+निर्युक्ति:+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा || १३...|| निर्युक्ति: [२२२] अध्ययनं [५], अविश्यमरणं बालं मरणं विरयाण पंडियं बिंति । जाणाहि बालपंडियमरणं पुण देसविरयाणं ॥ २२२॥ | व्याख्या - विरमणं विरतं - हिंसाऽनृतादेरुपरमणं न विद्यते तद् येषां तेऽमी अविरताः तेषां मृतिसमयेऽपि देशविरतिमप्रतिपद्यमानानां मिध्यादृशां सम्यग्दृशां वा मरणमविरतमरणं-वालमरणमिति ब्रुवत इति सम्बन्धः, तथा 'विरतानां' सर्व सावद्यनिवृत्तिमभ्युपगतानां मरणं 'पण्डित' मिति प्रक्रमात्पण्डितमरणम्, 'विति'त्ति ब्रुवते तीर्थकरगणधरादयः, जानीहि 'बालपण्डितमरण' मिति मिश्रमरणं, पुनःशब्दः पूर्वापेक्षया विशेषं द्योतयति, देशात् सर्वविषयापेक्षया स्थूलप्राणिव्यपरोपणादेर्विरता देशविरतास्तेषामिति गाथार्थः ॥ २२२ ॥ एवं चरणद्वारेण बालादि| मरणत्रयमभिधाय ज्ञानद्वारेण छद्मस्थमरणकेवलिमरणे प्रतिपादयितुमाह|मणपज्जवोहिनाणी सुअमइनाणी मरंति जे समणा । छउमत्थमरणमेयं केवलिमरणं तु केवलिणो ॥ २२३॥ व्याख्या— मनः पर्यवज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनश्च ज्ञानिशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धात् श्रुतज्ञानिनो मतिज्ञानिनश्व 'म्रियन्ते' प्राणांस्त्यजन्ति ये 'श्रमणाः' तपखिनः छादयन्ति छद्मानि - ज्ञानावरणादीनि तेषु तिष्ठन्तीति छद्मस्थाः तेषां मरणं छद्मस्थमरणमेतत्, इह च प्रथमतो मनःपर्यायनिर्देशो विशुद्धिकृतप्राधान्यमङ्गीकृत्य चारित्रिण एवं तदुपजायत इति स्वामिकृतप्राधान्यापेक्षो वा, एवमवध्यादिष्वपि यथायोगं स्वधियैव हेतुरभिधेयः, केवलिमरणं तु ये के For Paren www.nary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [ ४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~474~ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२२४] प्रत सूत्रांक ||१३|| उत्तराध्य. लिनः-उत्पन्नकेवलाः सकलकर्मापुद्गलपरिशाटतो म्रियन्ते तज्ज्ञेयमिति शेषः, उभयत्राभेदनिर्देशः प्राग्वदिति गाथार्थः अकाम ॥ २२३ ॥ साम्प्रतं वैहायसगृध्रपृष्ठमरणे अभिधातुमाहबृहद्वृत्तिः गिद्धाइभक्खणं गिद्धपिट उब्बंधणाइ वेहासं । एए दुन्निवि मरणा कारणजाए अणुण्णाया ॥ २२४ ॥ मरणाध्य. ॥२३४॥ | व्याख्या-'गृद्धाः' प्रतीतास्ते आदियेषां शकुनिकाशिवादीनां तैर्भक्षणं गम्यमानत्वादात्मनः तदनिवारणादिना तद्भक्ष्यकरिकरमादिशरीरानुप्रवेशेन च गृधादिभक्षणं, तत् किमुच्यत इत्याह-'गिद्धपिट्टत्ति गृप्रैः स्पृष्ट-स्पर्शनं यस्मिस्तद्धस्पृष्टम् , यदिवा गृध्राणां भक्ष्यं पृष्ठमुपलक्षणस्यादुदरादि च मर्तुर्यस्मिंस्तद्ध्रपृष्ठम् , स खलक्तकपूणिकापुटप्रदानेनाप्यात्मानं गृप्रादिभिः पृष्ठादौ भक्षयतीति, पश्चानिर्दिष्टस्यापि चास्य प्रथमतः प्रतिपादनमत्यन्तमहासत्त्वविषयतया । कर्मनिर्जरां प्रति प्राधान्यख्यापनार्थम् , 'उबंधणाइ वेहासंति' उत्-ऊवं वृक्षशाखादौ वन्धनमुन्धनं तदादिर्यस्य तरुगिरिभृगुप्रपातादेरात्मजनितस्य मरणस्य तदुद्वन्धनादि 'वेहास'न्ति प्राकृतत्त्वाद्यलोपे बहायसम् ,उद्धस्य हि विहा यस्पेव भवनमिति तत्प्राधान्यविवक्षयेत्थमुक्तम् । आह-एवं गृप्रपृष्ठस्याप्यात्मघातरूपत्वाद्वैहायसिकेऽन्तर्भावः, सत्य- २३४॥ हमेतत् , केवलमल्पसत्त्वैरध्यवसातुमशक्यताख्यापनार्थमस्य भेदेनोपन्यासः, ननु-"भावियजिणवयणाणं ममत्सरहि। याण पत्थि हु बिसेसो । अत्ताणमि परमि य तो बजे पीडमुभएवि ॥१॥" इत्यागमः, एते चानन्तरोक्त मरणे १ भावितजिनवचनानां ममत्वरहितानां नास्त्येव विशेषः । आत्मनि परस्मिंश्च ततो वर्जयेत् पीडामुभयोरपि ॥ १॥ दीप अनुक्रम [१२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~475 Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि"- मूलसूत्र-४ (मूलं नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [--] / गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२२४] प्रत सूत्रांक ||१३|| आत्मविघातकारिणी, तथा चात्मपीडाहेतुरिति कथं नागमविरोधः !, अत एव च भक्तपरिज्ञानादिपु पीडाप-10 रिहाराय 'चत्तारि विचित्ताई विगईणिजहियाई'इत्यादिसंलेखनाविधिः पानकादिविधिश्च तत्र तत्राभिहितः, दर्शनमालिन्यं चोभयत्रेत्याशङ्कयाह-एते' अनन्तरोक्ते 'वे अपि' गृध्रपृष्ठवहायसाख्ये मरणे 'कारणजाते' कारणप्रकारे दर्शनमालिन्यपरिहारादिके उदायिनूपानुमृततथाविधाचार्यवत् अनुज्ञाते, तीर्थकृद्गणधरादिभिरिति, अनेन |च सम्प्रदायानुसारितां दर्शयन्नन्यथाकथने श्रुताशातनाया अतिदुरन्तत्वमाह इति गाथार्थः ॥ २२४ ॥ साम्प्रतमत्यमरणत्रयमाहभत्तपरिपणा इंगिणी पाओवगमंच तिणि मरणाई । कन्नसमज्झिमजेट्टा धिइसंघयणेण उ विसिट्टा २२५/ व्याख्या-भक्तं-भोजनं तस्य परिज्ञा-ज्ञपरिज्ञयाउनेकधेदमस्माभिर्भुक्तपूर्वमेतद्धेतुकं चायद्यमिति परिज्ञान, प्रत्याख्यानपरिजया च "सद्धं च असणपाणं चउविहं जा य बाहिरा उवही । अभितरं च उबहिं जायजीवं च वोसिरे ॥१॥” इत्यागमवचनाचतुर्विधाहारस्य वा यावज्जीवमपि परित्यागात्मकं प्रत्याख्यानं भक्तपरिज्ञोच्यते, इयते-प्रतिनियतप्रदेश एव चेष्ट्यते अस्यामनशनक्रियायामितीगिनी, पादै:-अधःप्रसर्पिमूलात्मकः पिबति पादपो-वृक्षः, उप १ चत्वारि विचित्राणि निढविकृतीनि । २ सर्व चाशनपानं चतुर्विधं यश्च बाह्य उपधिः । अभ्यन्तरं चोपधि यावज्जीवं च व्युत्सृजति । ३ वाशब्दः पूर्वगाथोतसोपध्याहारत्यागसूचार्थः । दीप अनुक्रम [१२८] - thak JimEasthmaAll पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~476~ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||23|| दीप अनुक्रम [१२८] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२३५॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं+निर्युक्ति:+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा || १३...|| निर्युक्ति: [२२५] अध्ययनं [५], शब्दवोपमेतिवत्सादृश्येऽपि दृश्यते, ततश्च पादपमुपगच्छति सादृश्येन प्राप्नोतीति पादपोपगमं, किमुक्तं भवति ? - यथैव पादपः क्वचित् कथञ्चिन्निपतितः सममसममिति चाविभावयन्निश्वलमेवास्ते, तथाऽयमपि भगवान् यद् यथा समविषमदेशेष्वङ्गमुपाङ्ग वा प्रथमतः पतितं न तत्ततश्चलयति, तथा च प्रकीर्णकृत् णिंचल णिप्पडिकम्मो णिक्खिवए जं जहिं जहा अंगं । एयं पादोत्रगमं णीहारिं वा अणीहारिं ॥ १ ॥ पातोवगमं भणियं सम विसमो पायवोच जह पडितो। णवरं परप्पतोगा कंपेज जहा फलतरूच ॥ २ ॥ चः समुच्चये, इह चैवंविधानशनोपलक्षितानि मरणान्यप्येवमुक्तानि, अत एवाह त्रीणि मरणानि, एतत्स्वरूपं च यथेदं विधेयं यच्चात्र सपरिकर्म्म अपरिकर्म्म च इत्यादिकं सूत्रकार एवोत्तरत्र तपोमार्गनानि त्रिंशत्तमाध्ययनेऽभिधास्यत इति नियुक्तिकृता नोक्तम् । द्वारनिर्देशा- चावश्यं किञ्चिद्वाच्यमिति मत्वेदमाह-'कण्णस' त्ति सूत्रत्त्वात् कनिष्ठं- लघु जघन्यमितियावत्, मध्यमं - लघुज्येष्ठयोधर्मध्ये भावि, ज्येष्ठम् - अतिशय वृद्धमुत्कृष्टमित्यर्थः, एषां द्वन्द्वः तत एतानि, धृतिः-संयमं प्रति चित्तखास्थ्यं संहननंशरीरसामर्थ्यहेतुः वज्रऋषभनाराचादि ताभ्यां प्राकृतत्त्वाच्चैकवचननिर्देशः, समाहाराश्रयणाद्वा, तुशब्दात्सपरिकर्म्मा १ निश्चलो निष्प्रतिकर्मा निक्षिपति यद्यत्र यथाऽङ्गम् । एतत्पादपोपगमनं निर्धारं वाऽनिर्दारम् ॥ १ ॥ पादपोपगमनं भणितं समो विषमो वा पादप इव यथा पतितः । नवरं परप्रयोगात् कम्पेत यथा फलतरुवत् ॥ २ ॥ J Education deman For Panther अकाम मरणाध्य. ~ 477 ~ ५ ||२३५॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [--] / गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२२५] RE प्रत सूत्रांक ||१३|| परिकर्मतादिभिश्च विशेषेविशिष्टानि-विशेषवन्ति, इदमुक्तं भवति-यद्यपि त्रितयमप्येतत् "धीरेणऽवि मरियर कापुरिसेणवि अवस्स मरियो । तम्हा अवस्समरणे बरं खुधीरत्तणे मरिउं ॥१॥ संसाररंगमज्झे धीवलसंनद्धवद्धकच्छातो। वाहतूण मोहमलं हरामि आराहणपडागं ॥२॥जह पच्छिमम्मि काले पच्छिमतित्थयरदेसियमुयारं । पच्छा निच्छयपत्थं | उबेमि अध्भुजयं मरणं ॥३॥" इति शुभाशयवानेव प्रतिपद्यते, फलमपि च विमानिकतामुक्तिलक्षणं त्रयस्यापि| समानं, तथा चोक्तम्-“ऐयं पञ्चक्खाणं अणुपालेऊण सुविहिओ सम्मं । बेमाणितो व देवो हवेज अहवाऽवि सिज्झिज्जा ॥१॥" तथापि विशिष्टविशिष्टतरविशिष्टतमधृतिमतामेव तत्प्राप्तिरिति कनिष्ठत्त्या दिस्तद्विशेष उच्यते, तथाहि-भक्तपरिज्ञामरणमार्यिकादीनामप्यस्ति, यत उक्तम्-"सेवावि य अजाओ सत्वेऽवि य पढमसंघयणवजा । ४ सवेऽवि देसविरया पञ्चक्खाणेण उ मरंति ॥१॥" अत्र हि प्रत्याख्यानशब्देन भक्तपरिवोक्ता, तत्र प्राक् पादपो-| पगमनादेरन्यथाऽभिधानात्, इङ्गिनीमरणं तु विशिष्टतरधृतिसंहननवतामेव सम्भवतीत्यार्यिकादिनिषेधत एवायसी १धीरेणापि मर्तव्यं कापुरुषेणाप्यवश्यं मर्तव्यम् । तस्मादवश्यमरणे वरमेव धीरत्वेन मर्तुम ।। १ ॥ संसाररङ्गमध्ये धृतिघलसन्नद्धव-18 कक्षाकः । हत्वा मोहमलं हराम्याराधनापताकाम् ॥ २॥ यथा पश्चिमे काले पश्चिमतीर्थकरदेशितमुदारम् । पश्चान्निश्चयपथ्यमुपैमि अभ्युद्यतं मरणम् ॥ ३ ॥२ एतत्प्रत्याख्यानमनुपाल्य सुविहितः सम्यक् । वैमानिको वा देवो भवेधवाऽपि सिध्येत् ॥ ४ ॥३ सर्वा अपि चायाः | सर्वेऽपि च प्रथमसंहननवर्जाः । सर्वेऽपि देशविरताः प्रत्याख्यानेनैव प्रियन्ते ॥ १॥ दीप अनुक्रम [१२८] Jantrishma पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~478~ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||23|| दीप अनुक्रम [१२८] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ २३६ ॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं+निर्युक्ति:+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा || १३...|| निर्युक्ति: [२२५] अध्ययनं [५], यते, पादपोपगमनं तु नाम्नैव विशिष्टतमधृतिमतामेवेत्युक्तप्रायं, ततश्च वज्रऋषभनाराचसंहननिनामेवैतत् उक्तं हि* "पढमंमि य संघयणे वहते सेलकुडसामाणे । तेसिंपि य वोच्छेओ चोहसपुवीण वोच्छेए ॥ १ ॥” कथं चान्यथैवंविधविशिष्टधृतिसंहननाभावे- 'पुवभवियवेरेणं देवो साहरद्द कोऽवि पायाले । मा सो चरिमसरीरो न वेयणं किंपि पावेजा ॥ १ ॥' तथा 'देवी नेहेण नयइ देवारण्णं व इंदभवणं वा । जहियं इट्ठा कंता सबसुहा हुंति सुभावा ॥२॥ उप्पण्णे उवसग्गे दिवे माणुस्सए तिरिक्खे य । सधे पराजिणित्ता पाओवगया परिहरति ॥ ३ ॥ पुचावरउत्तरेहिं दाहिणवाएहिं आवडतेहिं । जह नवि कंपइ मेरू तह झाणातो नवि चलति ॥ ४ ॥” इति मरणविभक्तिकृदुक्तं महासामर्थ्यं सम्भवि, किञ्च - तीर्थकर सेवितत्वाच्च पादपोपगमनस्य ज्येष्ठत्वं, इतरयोश्चाविशिष्टसाधुसेवितत्वादन्यथात्वं, तथा चायादि - "सचे" सङ्घद्धार सङ्घण्णू सङ्घकम्मभूमीसु । सबगुरू सचहिया सधे मेरुसु अहिसित्ता ॥ १ ॥ १ प्रथमे च संहनने वर्तमाने शैलकुड्यसमाने । तस्यापि च व्युच्छेदश्चतुर्दशपूर्विणां व्युच्छेदे ॥ १ ॥ २ पूर्वभविकवैरेण देवः संहरति कोऽपि पाताले । मा स चरमशरीरो न वेदनां कामपि प्राप्नुयात् ॥ १ ॥ ३ देवः स्नेहेन नयति देवारण्यं वेन्द्रभवनं वा । यत्रेष्टाः कान्ताः सर्वसुखा भवन्ति शुभभावाः २ || ४ उत्पन्नानुपसर्गान् दिव्यान् मानुष्यकान् तैरखांश्च सर्वान् पराजित्य पादपोपगताः परिहरन्ति ॥३॥ पूर्वापरोत्तरैर्दक्षिणवातैश्चापतद्भिः । यथा नापि कम्पते मेरुस्तथा ध्यानान्नापि चलन्ति ॥ ४ ॥ ६ सर्वे सर्वाद्धायां सर्वज्ञाः सर्वकर्मभूमिषु । सर्वगुरवः सर्वहिताः सर्वे मेरुषु अभिषिक्ताः ॥ १ ॥ Euston mar For Parthen अकाम मरणाध्य. ~ 479~ ५ ॥२३६॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [--] / गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२२६] प्रत सूत्रांक ||१३|| सोहिं लद्धीहिं सवेऽयि परीसहे पराजित्ता । सऽऽवि य तित्थयरा पातोवगया उ सिद्धिगया ॥ २ ॥ अवसेसा अणगारा तीयपडुप्पण्णऽणागया सवे । केती पातोवगया पञ्चक्खाणिगिणिं केती ॥३॥” इति कृतं प्रसझेनेति गाथार्थः ॥ २२५ ॥ इत्थं प्रतिद्वारगाथायवर्णनात् मूलद्वारगाथायां मरणविभक्तिप्ररूपणाद्वारमनुवर्णिणतम् , अधुनाऽनुभावप्रदेशाग्रद्वारद्वयमाह-.. सोवक्कमो अ निरुवकमो अ दुविहोऽणुभावमरणंमि । आउगकम्मपएसग्गणंतणंता पएसेहिं ॥ २२६ ॥ व्याख्या-सहोपक्रमेण-अपवर्तनाकरणाख्येन वर्तत इति सोपक्रमश्च, निर्गत उपक्रमान्निरुपक्रमश्च द्विविधो, द्वैविध्यं चोक्तभेदेनैव, कोऽसौ?-अनुभाव-अनुभागः, क ?-मरणे' इत्यर्थात् मरणविषयायुषि, तत्र हि सप्तभिरष्टभि ऽऽकपैर्गवामिव मरुपु जलगण्डषग्रहणरूपैर्यत्पुद्गलोपादानं तदनुभागोऽतिरढ इत्यपवर्तयितुमशक्यतया निरुपक्रममुच्यते, यत्तु षड्भिः पञ्चभिश्चतुर्भिर्वा आगृहीतं-दलिकं तदपवर्तनाकरणेनोपक्रम्यते इति सोपक्रम, न चैतदुभयम प्यायुःक्षयात्मनि मरणे सम्भवति, तथा एति याति च इत्यायुस्तनिवन्धनं कर्म आयुःकर्म तस्य विभक्तुमशक्यतया दप्रकृष्टा देशाः प्रदेशास्तेपामग्रं-परिमाणमायुःकर्मप्रदेशाग्रम् , अनन्तानन्ताः-अनन्तानन्तसङ्ख्यापरिमिता मरणप्रकमेऽप्यर्थादायुःपुद्गलास्तद्विषयत्वाच मरणस्यैवमुपन्यासः, किमेतावन्तः कृतेऽप्यात्मनि', अत आह-'पएसेहितिY १ सर्वाभिः लब्धिभिः (युताः ) सर्वानपि परीषहान् पराजित्य । सर्वेऽपि च तीर्थकराः पादपोपगतास्तु सिद्धिं गताः ॥२॥ । अवशेषा अनगारा अतीतप्रत्युत्पन्नागताः सर्वे । केचित्पादपोपगताः प्रत्याख्यानेनिन्यौ केचित् ।। ३ ।। दीप अनुक्रम [१२८] - SXXXXXX Jamtausahimalitimation पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~480 Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [७], मूलं [--1 / गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२२७-२२९] अकाम मरणाध्या प्रत सूत्रांक ||१३|| उत्तराध्य- प्रक्रमात् सुब्व्यत्ययाचात्मप्रदेशेषु, आत्मप्रदेशो केंकैकस्तत्प्रदेशैरनन्तानन्तैरावेष्टितः संवेष्टितः, तथा च वृद्धव्याख्या इदाणि पदेसग्गं-अणंताणंता आउगकम्मपोग्गला जेहिं एगमेगो जीवपएसो आवेढिय परिवेढितो, इति गाथार्थः बृहह्वात्त ॥२२६ ॥ सम्प्रति कति नियन्ते एकसमयेनेतिद्वारमाह॥२३७॥ दुन्नि व तिन्नि व चत्तारि पंच मरणाइ अवीइमरणंमि। कइमरइ एगसमयसि विभासावित्थरं जाणे॥२२७॥ सवे भवत्थजीवा मरति आबीइ सया मरणं । ओहिं च आइअंतिय दुन्निवि एयाइ भयणाए ॥ २२८ ॥ ओहिं च आइअंतिअ वालं तह पंडिअंच मीसं च। छउमं केवलिमरणं अन्नुन्नेणं विरुज्झंति ॥ २२९ ॥ व्याख्या-द्वे वा त्रीणि वा, वाशब्दस्योत्तरत्रानुवृत्तेः चत्वारि वा पञ्च वा मरणानि वक्ष्यमाणविवक्षातः प्रक्रमाKA देकस्मिन् समये सम्भवन्ति, आवीचिमरणे सतीति शषः, अनेन चास्य सततापस्थितत्वमेतदविवक्षया च तयादि भेदपरिकल्पनेत्याह, कति म्रियन्त एक समये । इति चतुर्थद्वारस्य विशेषेण भाषणं विमाषणं विभाषा-व्याख्या |विविधैयों प्रकारेभीषणं विभाषा-भेदाभिधानं तया विस्तर:-प्रपञ्चतं विस्तरं जानीहि जानीयाद्वा, निगमनमेतत् । प्रस्तुतमेवार्थ प्रकटयितुमाह-'सर्वे' निरवशेषाः, तत् किं मुक्तिभाजोऽपीत्याह-'भवस्थजीवाः' भवन्त्यस्मिन् कम्मे-४ १ इदानी प्रदेशाप्रम्--अनन्तानन्ता आयुःकर्मपुला यैरेकैको जीवप्रदेश आवेष्टितः परिवेष्टितः दीप अनुक्रम [१२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~481 Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||23|| दीप अनुक्रम [१२८] Jim Euston t [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [--] / गाथा || १३...|| निर्युक्तिः [२२७-२२९] वशवर्तिनो जन्तव इति भवः तत्र तिष्ठन्ति भवस्थाः ते च ते जीवाश्चेति विशेषणसमासः, त्रियन्ते, आवीचिकमवीचिकं वा मरणमाश्रित्येति शेषः, यद्वा विभक्तिव्यत्ययादावीचिकेन मरणेन म्रियन्ते 'सदा' सर्वकालं, 'ओहिं च'त्ति अवधिमरणं, चशब्दो भिन्नक्रमः, ततश्च 'आश्यंतिय' न्ति आत्यन्तिकमरणं च द्वे अप्येते 'भजनया' विकल्पनया, किमुक्तं भवति ? - यद्यप्यावीचिमरणवत् अवध्यात्यन्तिकमरणे अपि चतसृष्वपि गतिषु सम्भवतः तथाऽप्यायुःक्षयसमय एव तयोः सम्भवान्न सदाभावः, अत आवीचिकमरणमेव सदेत्युक्तम्, अनेनावीचिमरणस्य सदाभावेन लोके मरणत्वेनाप्रसिद्धिः अविवक्षायां हेतुरुक्त इति भावनीयं । सम्प्रति 'दोन्निवि' इत्यादि व्यक्तीकरोति- 'ओहिं च आइयंतिय'ति, चशब्दो भिन्नक्रमः, ततोऽवधिमरणमात्यन्तिकमरणं च, 'वाल' बालमरणं च तथेत्युत्तरभेदापेक्षया समुचये, 'पण्डितं च' पण्डितमरणं, 'मिश्रं च' बालपण्डितमरणं च चशब्दाद्वैहायसगृपृष्ठमरणे, भक्तपरिज्ञेज्ञिनीपादपोपगमनानि च, 'अन्योऽन्येन' परस्परेण विरुध्यन्ते, युगपदसम्भयात्, तत्र चाविरतस्यावध्यात्यन्तिकमरणयोः अन्यतरद्वालमरणं चेति द्वे, तद्भयमरणेन सह त्रीणि, बशार्तेन चत्वारि, कथञ्चिदात्मघाते च वैहायसगृध्रपृष्ठयोरन्यतरेण पञ्च, आहवलन्मरणान्तः शल्यमरणे अपि बालमरणभेदावेव, यत आगमः - "बालमरणे दुवालसविहे पन्नचे, तंजहा - बलावमरणे १ बालमरणं द्वादशविधं प्रज्ञमं तद्यथा-वलन्मरणं For Parts Ord पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~ 482~ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं [-] / गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२२७-२२९] प्रत सूत्रांक ||१३|| उत्तराध्य. सट्टमरणे अंतोसलमरणे तम्भवमरणे गिरिपडणे तरुपडणे जलप्पवेसे जलणप्पवेसे विसभक्खणे सत्थोवहणणे वेहाणसे ४ अकामबृहद्वृत्तिः गिद्धपढे"त्ति, एतेषु च यद्यपि गिरिपतनादिषट्कस्य वैहायस एवान्तर्भावः तथापि बलन्मरणान्तःशल्यमरणयोः प्रक्षेप मरणाच्या कथं नोक्तसङ्ख्याविरोधः?, उच्यते, इहाविरतस्यैव बालमरणं विवक्षितम् , उक्तं हि-'अविरयमरणं वालमरण अनयो॥२३८॥ इस्त्वेकत्र संयमस्थानेभ्यो निवर्तनम् , अन्यत्र मालिन्यमानं विवक्षितं, न तु सर्वथा विरतेरभाव एवेति कथं बालमरणे सम्भवः?, तथा छद्मस्थमरणमपि विरतानामेव रूढमिति नोक्तसङ्ख्याविरोधः, एवं देशविरतस्यापि यादिभङ्गभावना कार्या, नवरं वालमरणस्थाने वालपण्डितमरणं वाच्यं, विरतस्य त्ववध्यात्यन्तिकमरणयोरन्यतरत् पण्डितमरणं चेति द्वे, छद्मस्थकेवलिमरणयोश्चान्यतरदिति त्रीणि; भक्तपरिज्ञङ्गिनीपादपोपगमनानामन्यतरेण सह चत्वारि, कारणिकस्य तु है। वहायसगृध्रपृष्ठयोरन्यतरेण सह पञ्च, दृढसंयमं प्रत्येवमुक्त, शिथिलसंयमस्य त्ययध्यात्यन्तिकमरणयोरन्यतरत् , कुत- श्चित्कारणाद्वैहायसगृध्रपृष्ठयोश्चान्यतरदिति द्वे, कथञ्चिच्छल्यसम्भवे चान्तःशल्यमरणेन सह श्रीणि, बलन्मरणेन । सह चत्वारि. छमस्थमरणेन तु पञ्च, पण्डितमरणस्य यथोक्तभक्तपरिज्ञानादीनां वा विशुद्धसंयमत्वादस्वाभाव एवेति, | ॥२३॥ आह-विरतस्यावस्थाद्वयेऽपि तद्भवमरणप्रक्षेपे कथं न षष्ठमरणसम्भवः, उच्यते, विरतस्य देवेष्येवोत्पाद इति तत्र-13 १० वशातैमरणमन्तःशल्यमरणं तद्भवमरणं गिरिपतनं तरुपतनं जलप्रवेशो ज्वलनप्रवेशो विषभक्षणं शस्त्रोपहननं वैहायसं गभषष्ठमिति । दीप अनुक्रम [१२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~4834 Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं [--] / गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२३०] प्रत सूत्रांक ||१३|| वोत्पत्त्यभाषान्न तद्भवमरणसम्भव इति गाथात्रयार्थः ॥ २२७-२२८-२२९ ॥ गतं कति म्रियन्त एकसमय इति द्वारम् , इदानी कतिकृत्वो म्रियते एकैकस्मिन् ? इति द्वारमाहसंखमसंखमणता कमो उ इक्किकगंमि अपसत्थे । सत्तट्रग अणुबंधो पसत्थए केवलिंमि सई ॥ २३० ॥ व्याख्या-'संखमसंखंति आर्षत्वात् सङ्ख्याः-समयाताः असङ्ख्या-अविद्यमानसङ्ख्याः अनन्ता-अपर्यवसिता, वारा इति प्रक्रमः, 'कमो उति क्रमः-परिपाटी, तुशब्दश्च कायस्थितेरल्पबहुत्वापेक्षयाऽयं ज्ञेय इति विशेषद्यो-18 तकः, 'एकेकगमिति एकैकस्मिन् 'अप्रशस्ते' बालमरणादौ निरूप्यमाणे, तत्र सामान्येन पञ्चेन्द्रियाविरतदेशविरती च सङ्ख्याताः, शेषाः पृथिव्युदकाग्निवायुद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाः असवयाताः, वनस्पतयोऽनन्ता, एते हि कायस्थित्यपेक्षया यथाक्रमं बहुबहुतरबहुतम स्थितिमाज इतिकृत्वा । प्रशस्ते कति वारा नियत इत्साह-'सत्तट्ठगति सप्त वाऽष्ट वा सप्ताष्टास्ते परिमाणमस्येति सप्ताष्टकः, कोऽसौ ?-'अनुबन्धः' सातत्येन भवनं तन्मरणानामिति, ततोऽयमर्थ:-सप्त वा अष्ट वा वारा म्रियते, क-प्रशस्तके' सर्वविरतिसम्बन्धिनि पण्डितमरणे, इह च चारित्रस्य निरन्तरमवाप्त्यसम्भवात् तद्वत एव च प्रशस्तमरणभावादाद् व्यवधानमपि देवभवैराश्रीयते, 'केवलिनि' यथाख्यातचारित्रवति समुत्पन्नफेवले 'सई ति सकृदेकमेव मरणमिति गाथार्थः ॥ २३० ॥ उक्तं कति कृत्वो म्रियत एकैकस्मिन्निति द्वारं, सम्प्रति कतिभाग एकैकस्मिन्मरणे नियत इति द्वारमाह दीप अनुक्रम [१२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~4840 Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [--1 / गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२३१] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः 64-% मरणाध्य. प्रत सूत्रांक ॥२३९॥ % 1 ||१३|| %% -0 मरणे अणंतभागो इकिके मरइ आइमं मोत्तुं । अणुसमयाई नेयं पढमचरिमंतरं नत्थि ॥ २३१॥ | अकाम1 व्याख्या-'मरणे' प्रागुक्तरूपे अनन्तभाग एकैकस्मिन् म्रियते, किं सर्वस्मिन्नपि ? नेत्याह-'आदिमम्' आवीचि मरणं, तस्यैवाद्यत्वात् , 'मुक्त्वा ' अपहाय, इयमत्र भावना-शेषमरणखामिनो हि सर्यजीवापेक्षया अनन्तभाग एवेति तेवनन्तो भागो नियत इत्युच्यते, आवीचिमरणखामिनस्तु सिद्धविरहिताः सर्व एव जीवाः, ते चानन्ता इतिकृत्वाऽनन्तभागहीनाः सर्वे जीवा नियन्ते इत्युच्यते । उक्तं कतिभागो म्रियते एकैकस्मिन्निति द्वारम् , अधुनाउनुस-II मयद्वारमाह-'अणुसमय'त्ति समयं समयमनु अनुसमयं, वीप्सायामव्ययीभावः, ततश्चानुसमय-सततम् , 'आदि प्रथममावीचिमरणं 'ज्ञेयम्' अवबोद्धव्यं, यावदायुस्तस्य प्रतिपादनात् , शेषाणां त्वायुपोऽन्त्यसमय एवैकत्र भावादनुसमयतानभिधानं, बहुसमयविषयत्वादनुसमयतायाः, तथा च वृद्धव्याख्या-"पढमे जाय आउं धरइ सेसाणं एगसमयं जहि मरई" न च 'मासं पायोवगया' इत्यागमेन विरोधः, तत्र पादपोपगमनशब्देन निश्चेष्टताया एवाभिधानात् , मरणस्य तु तत्राप्यायुखुटिसमय एव सद्भावात् , तुः पूरणे । गतमनुसमयद्वारम् , इदानीं सान्तरद्वारमाह-तत्र ॥२३९॥ प्रथमचरमयोरन्तरं-व्यवधानं 'नास्ति' न विद्यते, प्रथमस्यावीचिमरणस्य सदा सम्भवात् , चरमस्य भवापेक्षया केवलिमरणस्य पुनर्भरणाभावादिति भाव इति गाथार्थः ।। २३१ ॥ शेषाणामपि किमेवमित्याह १ प्रथमं यावदायुर्धारयति शेषाणामेकसमयो यत्र प्रियते 8 -2 दीप अनुक्रम [१२८] -2 -2 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~485 Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [9], मूलं [-1 / गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२३२] * * * प्रत सूत्रांक ||१३|| सेसाणं मरणाणं नेओ संतरनिरंतरो उ गमो। साई सपजवसिया सेंसा पढमिल्लुगमणाइ ॥ २३२ ॥ | व्याख्या-शेषाणां मरणानाम्-अवधिमरणादीनां पञ्चदशानां ज्ञेयः, सहान्तरेण-व्यवधानेन वर्तत इति सान्तरः, निष्क्रान्तोऽन्तरान्निरन्तरश्च, तुःशब्दस्य समुच्चयार्थत्वात् , उक्तं हि-"तुशब्दो विशेषणपादपूरणावधारणसमुच्चयेषु" कोऽसौ ?-गम्यते अनेन वस्तुखरूपमिति गमः-प्ररूपणा, इद मुक्तं भवति-यदाऽन्यतरद्वालमरणादिकं प्राप्य म्रियते मृत्वा च भवान्तरे मरणान्तरमनुभूय पुनस्तदेवाप्नोति तदा सान्तरमिति प्ररूपणा, यदा तु बालमर-15 णादिकमवाप्य पुनस्तदेवाव्यवहितमाग्नोति तदा निरन्तरं भवति, तत्प्ररूपकत्वाचेह गमोऽपि सान्तरो निरन्तरश्चेत्युक्तः । सम्प्रति गाथापश्चार्धन कालद्वारमाह-सादीनि च सपर्यवसितानि च सादिसपर्यवसितानि 'शेपाणि षोडश वक्ष्यमाणापेक्षया अवधिमरणादीनि, एकसामयिकतायास्तेषामभिहितत्वात् , प्रवाहापेक्षया तु शेषभङ्गोपलसाक्षणमेतत् , प्रवाहतोऽपि भङ्गत्रयपतितानि शेषमरणानि सम्भवन्ति, तथा च वृद्धाः-"बालमरणाणि अणाइयाणि Vावा अपजयसियाणि या, अणादियाणि वा सपजवसियाणि. पंडियमरणाणि पुण साइयाणि सपजवसियाणि" मुक्त्यवाप्तौ तदुच्छित्तिसम्भवादिति भावः, 'पढमिल्लुगं'ति प्रथमकम्-आवीचिमरणम् 'अनादि' आदिरहितं प्रया-11 १ बालमरणानि अनादिकानि वा अपर्यवसितानि वा, अनादिकानि वा सपर्यवसितानि, पण्डितभरणानि पुन: सादिकानि सपर्यवसितानि दीप अनुक्रम [१२८] FARPATISEMANDwony पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~486 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [--] / गाथा ||१३...|| नियुक्ति: [२३३] अकाम स्म रणाध्य. बृहद्धृत्तिः | प्रत ।२४०॥ ANG सूत्रांक ||१३|| हापेक्षयेतिभावः, प्रतिनियतायुःपुद्गलापेक्षया तु साद्यपि सम्भवति, उपलक्षणत्याचासापर्यवसितंच अभव्यानां, भव्यानां पुनः सपर्यवसितमपीति गाथार्थः ॥ २३२ ॥ सम्प्रत्यतिगम्भीरतामागमस्य दर्शयन्नात्मौद्धत्यपरिहारायाह । | भगवान् नियुक्तिकारःसवे एए दारा मरणविभत्तीइ वण्णिआ कमसो।सगलणिउणे पयत्थे जिणचउदसपुवि भासंति ॥२३३॥ | व्याख्या-'सर्वाणि' अशेषाणि 'एतानि' अनन्तरमुपदर्शितानि 'द्वाराणि' अर्थप्रतिपादनमुखानि 'मरणविभक्तेः' मरणविभक्त्यपरनामोऽस्मैवाध्ययनस्य 'वर्णितानि' प्ररूपितानि, मयेति शेषः, 'कमसो'त्ति प्राग्वत् क्रमतः, आहएवं सकलापि मरणवक्तव्यतोक्ता उत नेत्याह-सकलाश्च-समस्ता निपुणाश्च-अशेषविशेषकलिताः सकलनिपुणाः तान् पदार्थान् इह प्रशस्तमरणादीन जिनाच-केवलिनः चतुर्दशपूर्विणश्च-प्रभवादयो जिनचतुर्दशपूर्विणो 'भाषन्ते' व्यक्तमभिदधति, अहं तु मन्दमतित्वान्न तथा वर्णयितुं क्षम इत्यभिप्रायः, खयं चतुर्दशपूर्वित्वेऽपि यचतुर्दशपूयु- ४ पादानं, तत्तेषामपि षट्स्थानपतितत्वेन शेषमाहात्म्यख्यापनपरमदुष्टमेव, भाष्यगाथा वा द्वारगाथाद्वयादारभ्य लक्ष्यन्त | इति प्रेर्यानवकाश एवेति गाधार्थः ॥ २३३ ॥ इहैव प्रशस्ताप्रशस्तमरणविभागमाहएगंतपसत्था तिपिण इत्थ मरणा जिणेहि पण्णत्ता। भत्तपरिपणा इंगिणी पाउवगमणं च कमजिटुं॥२३४॥ दीप अनुक्रम [१२८] ॥२४॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~487 Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [२३४] प्रत सूत्रांक ||१|| व्याख्या-एकान्तेन-नियमेन प्रशस्तानि-लाप्यानि 'श्रीणि त्रिसङ्खयानि 'अ' एतेष्वनन्तराभिहितेषु मरणेषु मरणानि 'जिन' केवलिभिः 'प्रज्ञप्तानि' प्ररूपितानि, तान्येवाह-भक्तपरिज्ञा इङ्गिनी 'पायवगमणं' चेति पादपोपगमनं च, इदमपि त्रयं किमेकरूपमित्याह-क्रमेण-परिपाट्या ज्येष्ठम्-अतिशयप्रशस्य क्रमज्येष्ठं यथोत्तरं प्रधानमितिभावः । शेषमरणान्यपि यानि प्रशस्तानि तेषामत्रैवान्तर्भावः, इतराणि कानिचित् कथञ्चित् प्रशस्तानि, अपराणि | तु सर्वथैवाप्रशस्तानीति गाथार्थः ॥ २३४ ॥ इह च येनाधिकारस्तदाहइत्थं पुण अहिगारोणायबो होइ मणुअमरणेणं । मुत्तुं अकाममरणं सकाममरणेण मरिया ॥ २३५॥ व्याख्या-'अत्र' एतेषु मरणेषु, पुन शब्दो वाक्योपन्यासार्थः, अधिकारो ज्ञातव्यो भवति मनुजमरणेन, किमुक्तं भवति ?-मनुष्यभवसम्भविना पण्डितमरणादिना, तान्येव प्रत्युपदेशप्रवृत्तेः । सम्प्रत्युक्तार्थसंक्षेपद्वारेणोपदेशसर्व|खमाह-मुक्त्वाऽकाममरणं-बालमरणाद्यमप्रशस्तं 'सकाममरणेन' भक्तपरिज्ञादिना प्रशस्तेन मर्तव्यमिति गाथार्थः। F॥२३५ ॥ गतो नामनिष्पन्ननिक्षेपः, सम्प्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तवेदम् अण्णवंसि महोहंसि, एगे तरइ दुरुत्तरं । तत्थ एगे महापण्णे, इमं पण्हमुदाहरे॥१॥ व्याख्या-अो-जलं विद्यते यत्रासावर्णवः, अर्णसो लोपश्चेति (पा०५-२-१०९ वार्तिकं ) वप्रत्ययः सकारलोपश्च, स च द्रव्यतो जलधिर्भावतश्च संसारः तस्मिन् , कीशि ?-'महोघंसि'त्ति महानोधः-प्रवाहो द्रव्यतो जल दीप अनुक्रम [१२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~488 Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-1 / गाथा ||१|| नियुक्ति: [२३५...] MSRK मरणाध्य. प्रत सूत्रांक ||१|| -- उत्तराध्य. सम्बन्धी भावतस्तु भवपरम्परात्मकः प्राणिनामत्यन्तमाकुलीकरणहेतुः चरकादिमतसमूहो वा यस्मिन् स महौषः अकामबृहद्वृत्तिः तस्मिन् , महत्त्वं चोभयत्रागाधतयाऽदृष्टपरपारतया च मन्तव्यं, तत्र किमित्याह-'एक' इत्यसहायो रागद्वेषादिस हभावविरहितो गौतमादिरित्यर्थः, 'तरति' परं पारमाप्नोति, तत्कालापेक्षया वर्तमाननिर्देशः, 'दुरुत्तरति विभक्ति॥२४शा व्यत्ययाहुरुत्तरे-दुःखेनोत्तरितुं शक्ये, दुरुत्तरमिति क्रियाविशेषणं वा, न हि यथाऽसौ तरति तथाऽपरैर्गुरुकर्मभिः सुखेनैव तीर्यते, अत एव एक इति, सङ्ख्यावचनो वा, एक एव-जिनमतप्रतिपन्नाः, न तु चरकादिमताकुलितचेतसोऽन्ये तथा तरितुमीशत इति, 'तत्रेति गौतमादौ तरणप्रवृत्ते 'एक' इति तथाविधतीर्थकरनामकर्मोदयादनुत्तरा वासविभूतिरद्वितीयः, किमुक्तं भवति ?-तीर्थकरः, स होक एव भरते सम्भवतीति, 'महापण्णे'त्ति महती-निरायहरणतयाऽपरिमाणा प्रज्ञा-केवलज्ञानात्मिका संबित् अस्येति महाप्रज्ञः, स किं इत्याह-'इमम्' अनन्तरवक्ष्यमाणं | हदि विपरिवर्तमानतया प्रत्यक्षं प्रक्रमात्तरणोपाय, 'पट्टति स्पष्टम्-असन्दिग्धं, पठ्यते च पण्हंति पृच्छयत इति प्रश्नं-प्रष्टव्यार्थरूपम् 'उदाहरे'त्ति भूते लिट्, तत उदाहरे-उदाहतवान्, पठ्यते च-'अण्णवंसि महोघंसिर हाएगे तिण्णे दुरुत्तर ति, अत्र सुब्व्यत्यये विशेषः, ततश्च-अर्णवान्महौधाहरुत्तरात तीर्ण इव तीर्णः-तीरप्राप्त इति-1 ॥२४१॥ है. योगः, एको घातिकर्मसाहित्यरहितः, 'तो'ति सदेवमनुजायां परिषदि, एकोऽद्वितीयः, स च तीर्थकृदेव, शेष प्राग्वदिति सूत्रार्थः ॥ १॥ यदुदाहृतवांस्तदेवाह - दीप - अनुक्रम [१२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~489 Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / गाथा ||२|| नियुक्ति: [२३५...] * * * प्रत सूत्रांक ||२|| संतिमे य दुवे हाणा, अक्खाया मारणंतिया । अकाममरणं चेव, सकाममरणं तहा ॥२॥ व्याख्या-सन्तीति प्राकृतत्वात् वचनव्यत्ययेन स्तो-विद्यते 'इमे' प्रत्यक्षे, चः पूरणे, पठ्यते च 'संतिमेए'त्ति स्त एते, मकारोऽलाक्षणिकः, एवमन्यत्रापि यत्र नोच्यते तत्र भावनीयं, 'द्वे' द्विसद्धये तिष्ठन्त्यनयोजन्तव इति स्थाने | 'आख्याते' पुरातनतीर्थकृद्भिरपि कथिते, अनेन तीर्थकृतां परस्परं वचनाव्याहतिरुपदर्शिता, ते च कीरशे ?-'मार तिएत्ति मरणमेवान्तो-निजनिजायुषः पर्यन्तो मरणान्तः तस्मिन् भवे मारणान्तिके, ते एव नामत उपदर्शयति'अकाममरणम्' उक्तरूपमनन्तरवक्ष्यमाणरूपं च, वक्ष्यमाणापेक्षया चः समुच्चये, एवेति पूरणे, 'सकाममरणम्' |उक्तरूपं वक्ष्यमाणखरूपं च तथेति सूत्रार्थः ॥२॥ केषां पुनरिदं कियत्कालं च ? इत्यत आह वालाणं अकामं तु, मरणं असतिं भवे । पंडियाणं सकामं तु, उक्कोसेण सतिं भवे ॥३॥ व्याख्या-बाला इब वालाः सदसद्विवेकविकलतया तेपाम् 'अकामं तु'त्ति तुशब्दस्वकारार्थत्वात् अकाममेव मरणमसकृद-वारंवारं भवेत, ते हि विपयाभिष्वङ्गतो मरणमनिच्छन्त एव नियन्ते, तत एव च भवाटवीमटन्ति, 'पण्डि-1 तानां चारित्रवतां सह कामेन-अभिलाषेण वर्तते इति सकामं सकाममिव सकामं मरणं प्रत्यसंत्रस्ततया, तथात्वं चोत्सवभूतत्वात् तारां मरणस्य, तथा च वाचक:-"सञ्चिततपोधनानां निसं प्रतनियमसंयमरतानाम् । उत्सवभूतं दीप अनुक्रम [१३०] *********** FOPATITISEMINDwom पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~490 Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||3|| दीप अनुक्रम [१३१] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२४२॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) निर्युक्ति: [२३५...] अध्ययनं [ ५ ], मूलं [-] / गाथा ||३|| अकाम मन्ये मरणमनपराधवृत्तीनाम् ॥ १ ॥" न तु परमार्थतः तेषां सकामं सकामत्वं, मरणाभिलाषस्यापि निषिद्धत्वाद, उक्तं हि - " मा मा हु विचितेजा जीवामि चिरं मरामि य लहुंति । जह इच्छसि तरिडं जे संसारमहोदहिमपारं ॥ १ ॥" ति, तुः पूर्वापेक्षया विशेषद्योतकः, तच 'उत्कर्षेण' उत्कर्षोपलक्षितं, केवलिसम्बन्धीत्यर्थः, अकेवलिनो हि मरणाध्य. संयमजीवितं दीर्घमिच्छेयुरपि, मुक्त्यवातिः इतः स्यादिति, केवलिनस्तु तदपि नेच्छन्ति, आस्तां भवजीवितमिति, तन्मरणस्योत्कर्षेण सकामता 'सकृद्' एकवारमेव भवेत्, जघन्येन तु शेषचारित्रिणः सप्ताष्ट वा वारान् भवेदित्याकूत* मिति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ यदुक्तं- 'स्त इमे द्वे स्थाने' तत्राचं तावदाह तत्थि पढमं ठाणं, महावीरेण देखियं । कामगिडे जहा वाले, भिसं कृराणि कुब्वति ॥ ४ ॥ व्याख्या- 'तत्रे'ति तयोरकाममरण सकाममरणाख्ययोः स्थानयोर्मध्ये 'इदम्' अनन्तरमभिधास्यमानरूपं 'प्रथ मम्' आयं स्थानं, 'महावीरेणे' ति चरमतीर्थकृता, 'तत्रैको महाप्रज्ञः' इति मुकुलितोकेर भिव्यक्त्यर्थमेतत् 'देशितं' प्ररूपितं, किं तत् इत्याह- 'कामेषु' इच्छामदनात्मकेषु 'शृद्धः अभिकाङ्क्षावान् कामयृद्धो 'यथा' इत्युपप्रदर्शनार्थः, 'बाल' इत्युक्तरूपो 'भृशम्' अत्यर्थ 'क्रूराणि' रौद्राणि, कर्माणीति गम्यते तानि च प्राणव्यपरोपणादीनि 'कुछति'ति करोति-क्रिययाऽभिनिर्वर्तयति, शक्तावशक्तावपि क्रूरतया तन्दुलमत्स्यवन्मनसा कृत्वा च प्रक्रमादकाम एव म्रियते इति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ इदमेव ग्रहणकवाक्यं प्रपञ्चयितुमाह १ मा मैव विचिन्तयेः जीवामि चिरं म्रिये च लघु इति । यदीच्छसि तरीतुं संसारमहोदधिमपारम् ॥ १ ॥ For Para Fr30 Use Only ५ ~ 491~ ॥२४२॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४३ ] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [--1 / गाथा ||५|| नियुक्ति: [२३५...] -25-4-58-45-45%* प्रत सूत्रांक ||५|| जे गिद्धे कामभोगेसु, एगे कूडाय गच्छद । न मे दिहे परे लोए, चक्खुदिट्ठा इमा रती ॥५॥ व्याख्या-'य'इत्य निर्दिष्टखरूपो गृद्धः, काम्यन्त इति कामाः भुज्यन्त इति भोगाः ततश्च कामाश्च ते भोगाश्च कामभोगाः तेषु-अभिलपणीयशब्दादिपु, यद्वा कामौ च शब्दरूपाख्यौ भोगाश्च स्पर्शरसगन्धाख्याः कामभोगाः तेषु, उक्तं हि-"कामा दुविहा पण्णत्ता-सहा रूवा य, भोगा तिविहा पण्णता, तंजहा-गंधा रसा फासा य"त्ति, 'एकः' कश्चित् क्रूरकर्मा तन्मध्यात् कूटमिव कूट-प्रभूतप्राणिनां यातनाहेतुत्वान्नरक इत्यर्थः, यथैव हि कूटनिपतितो मृगो व्याधैरनेकधा हन्यते, एवं नरकपतितोऽपि जन्तुः परमाधार्मिकरिति, तस्मै कूटाय, गत्यर्थकर्मणि द्वितीयाचतुर्था (पा०२-३-१२) वित्यादिना चतुर्थी, 'गच्छति' याति, यद्वा यो गृद्धः 'कामभोगेष्विति कामेषुस्त्रीसङ्गेषु भोगेषु-धूपनविलेपनादिषु स 'एकः' सुहृदादिसाहाय्यरहितः कूटाय गच्छति, अथवा कूटं द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो मृगादिवन्धनं, भावतस्तु मिथ्याभाषणादि, तस्मै गच्छतीत्यनेकार्थत्वात् प्रवर्तते, स हि मांसादिलोलुपतया मृगादिवन्धनान्यारभते, मिध्याभाषणादीनि चासेवत इति, प्रेरितश्च कैश्चिद्वदति-'न में' इति न मया 'दृष्टः' अवलोकितः, कोऽसौ ?-'परलोको' भूतभाविजन्मात्मकः, कदाचिद्विषयाभिरतिरप्येवंविधैव स्यादत आहचक्षुषा-लोचनेन दृष्टा-प्रतीता चक्षुदृष्टा 'इय'मिति तामेव प्रत्यक्षां निर्दिशति, रम्यतेऽस्यामिति रतिः-स्पर्शनादि १ कामा द्विविधाः प्रज्ञप्ताः-शब्दा रूपाणि च, भोगास्त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-न्धा रसाः स्पर्शाश्त्र । -03 दीप अनुक्रम [१३३] 26- पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~492 Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / गाथा ||६|| नियुक्ति: [२३५...] अकाम बृत्तिः ॥२४३॥ प्रत सूत्रांक ||६|| SECRE TOP -20 सम्भोगजनिता चित्तप्रहत्तिः, तस्यायमाशयः-कथं दृष्टपरित्यागतोऽदृष्टपरिकल्पनयाऽऽत्मानं विप्रलभेयमिति सूत्रार्थः ।। ॥५॥ पुनस्तदाशयमेवाभिव्यञ्जयितुमाह मरणाध्य. हत्थागया इमे कामा, कालिया जे अणागया। को जाणइ परे लोए ?, अस्थि वा नत्थि वा पुणो॥६॥ व्याख्या-हसन्ति तेनावृत्य मुखं प्रन्ति वा घात्यमनेनेति हस्तस्तम् आगताः-प्राप्ताः हस्तागताः, उपमार्थोऽत्र |गम्यते, ततो हस्तागता इव खाधीनतया, क एते ?-'इमें प्रत्यक्षोपलभ्यमानाः काम्यन्त इति कामाः-शब्दादयः, कदाचिदागामिनोऽप्येवंविधा एव स्युरित्याह-काले सम्भवन्तीति कालिकाः-अनिश्चितकालान्तरप्राप्तयो ये 'अना|गता' भाविजन्मसम्बन्धिनः, कथं पुनरमी अनिश्चितप्राप्तय इत्याह-'को जाणइति उत्तरस्य पुनःशब्दस्वेह सम्बन्धनात् कः पुनर्जानाति ?, नैव कश्चित् , यथा-परलोकोऽस्ति नास्ति वेति, अयं चास्याशयः-परलोकस्य सुकृता-1 दिकर्मणां वाऽस्तित्वनिधयेऽपि 'को हि हस्तगतं द्रव्यं पादगामि करिष्यतीति न्यायतः क इस हस्तागतान् कामा-| नपहाय कालिककामार्थ यतेत, तत्त्वतस्तु परलोकनिश्चय एव न समस्ति, तत्र प्रत्यक्षस्थाप्रवृत्तेः, अनुमानस तु प्र-1 २४॥ |त्तावपि गोपालघटिकादिधूमादम्यनुमानवदन्यथाऽप्युपलम्भनान्निश्चायकत्वासम्भवान्न ततस्तदस्तित्वनिश्चयो नास्तित्वनिश्चयो वा, किन्तु सन्देह एव, न त्वयमेवं विवेचयति-यथाऽवाप्ता अपि कामा दुरन्ततया त्यक्तुमुचिताः, दुर-4 दीप अनुक्रम [१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३) मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~493 Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”-मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / गाथा ||६|| नियुक्ति: [२३५...] प्रत सूत्रांक ||६|| Iकन्तत्वं च तेषां शल्यविषादिभिरुदाहरणैः प्रतीतमेव, तथा च वक्ष्यति-"सलं कामा विसं कामा, कामा आसीपिसो-1 वमा। कामे पत्थेमाणा, अकामा जंति दुग्गतिं ॥१॥" न हि विषादीनि मुखमधुराण्यप्यायतिविरसतया विवेकिभिन । हीयन्ते, यदपि परलोकसन्देहाभिधानं तदपि न पापपरिहारोपदेशं प्रति बाधक, पापानुष्ठानस्येहैव चौरपारदारिकादिषु महानर्थहेतुतया दर्शनात् , परलोकनास्तित्वानिश्चये च तत्रापि तथानर्थहेतुतया सम्भाव्यमानत्वाल्मीककरप्रवेशनादिवत् प्रेक्षावद्भिः परिहर्तुमुचितत्वात् , न च परलोकास्तित्वं प्रति सन्देहः, तनिश्चायकानुमानस्य तदहर्जातबालकस्तनाभिलाषादिलिङ्गबलोत्पन्नस्य तथाविधाध्यक्षवदव्यभिचारित्वेन तत्र तत्र समर्थितत्वादित्यलं प्रसझेनेति सूत्रार्थः॥६॥ अन्यस्तु कथञ्चिदुत्पादितप्रत्ययोऽपि कामान् परिहर्तुमशक्वन्निदमाह जणेण सहिं होक्खामि, इति वाले पगम्भइ । कामभोगाणुरागणं, केसं संपडिवजा ॥ ७॥ व्याख्या-जायत इति जनो-लोकस्तेन 'सार्द्ध' सह भविष्यामि, किमुक्तं भवति ?-बहुजनो भोगासझी तदहमपि तद्गतिं गमिष्यामि, यद्वा 'होक्खामित्ति भोक्ष्यामि-पालयिष्यामि, यथा शयं जनः कलत्रादिकं पालयति तथाऽहमपि, न हीयान् जनोज्ञ इति 'बालः' अज्ञः 'प्रगल्भते' धार्यमवलम्बते, अलीकवाचालतया च खयंनष्टः परानपि नाशयति, न विवेचयति यथा-किमुन्मार्गप्रस्थितेनाविवेकिजनेन बहुनाऽपि ? मम विवेकिनः प्रमाणीकृतेन 1, स्वकृत१शल्यं फामा विषं कामाः, कामा आशीविषोपमाः । कामान् प्रार्थयन्तोऽकामा यान्ति दुर्गतिम् ॥ १॥२ प्रमाणीकरणेनेति, दीप अनुक्रम [१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~494~ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||७|| दीप अनुक्रम [१३५] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥ २४४॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं+निर्युक्तिः+वृत्तिः) मूलं [-] / गाथा ||७|| निर्युक्ति: [२३५...] अध्ययनं [ ५ ], कर्मफलभुजो हि जन्तवः, स चैवं कामभोगेषु उक्तरूपेषु अनुरागः - अभिष्वङ्गः कामभोगानुरागः - तेन 'क्लेशम्' इह परत्र च विविधवाधात्मकं 'सम्प्रतिपद्यते' प्राप्नोतीति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ यथा च कामभोगानुरागेण क्लेशं संप्रतिपद्यते तथा वक्तुमाह तओ दंडं समारभत, तसेसुं धावरेसु य । अट्ठाए य अणट्टाए, भूयगामं विहिंसइ ॥ ८ ॥ व्याख्या- 'तत' इति कामभोगानुरागात् 'से' इति स धाष्टवान् दण्ड्यते संयम सर्वखापहरणेनात्मा अनेनेति दण्डो-मनोदण्डादिस्तं 'समारभते' प्रवर्तत इति, केषु ? - त्रस्यन्ति-तापाद्युपतप्तौ छायादिकं प्रत्यभिसर्पन्तीति त्रसाः- द्वीन्द्रियादयस्तेषु तथा शीतातपाद्युपहता अपि स्थानान्तरं प्रत्यनभिसर्पितया स्थानशीलाः स्थावरास्तेषु च | अर्थः- प्रयोजनं वित्तावाल्यादिः तदर्थमर्थाय चस्य व्यवहितसम्बन्धत्वात् अनर्थाय च - यदात्मनः सुहृदादेव नोपयुज्यते, ननु किमनर्थमपि कचिद्दण्डं समारभते, एवमेतत् तथाविधपशुपालवत्, तत्र सम्प्रदायः - यथैकः पशुपालः प्रतिदिनं मध्याह्नगते रवौ अजासु महान्यग्रोधतरुं समाश्रितासु तत्थुताणतो णिविण्णो वेणुविदलेण अजोद्गीर्णकोलास्थिभिः तस्य वटस्य पत्राणि छिद्रीकुर्वन् तिष्ठति, एवं तेन स बटपादपः प्रायसछिद्रपत्रीकृतः, अन्नया तत्थेगो रायपुत्ती दातियघाडितो तच्छायसमस्सितो पेच्छए य तस्स वडस्स सर्वाणि पत्राणि छिद्रितानि, तो तेण सो १ तत्रो शानको निविष्ट वेणुविदलेन, अन्यदा तत्रैको राजपुत्रो दायादधाटितः तच्छायासमाश्रितः प्रेक्षते च तस्य वदस्य, ततस्तेन स Jam Euston deman For the Ody अकाम मरणाध्य. ~ 495~ ॥२४४॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) मा मत गाथा || नियुक्ति : [२३५...] प्रत सूत्रांक ||८|| पसुपालतो पुच्छितो-केणेयाणि पत्राणि छिद्दीकयाणि ?, तेण भण्णइ-मया, एयाणि क्रीडापूर्व छिद्रितानि, तेण सो बहुणा दबजाएण विलोभेउ भण्णति-सकेसि जस्साह भणामि तस्स अच्छीणि छिद्देउं ?, तेण भण्णति-छुड अब्भासत्यो होउ तो सकेमि, तेण णयरं नीतो, रायमग्गसन्निविटे घरे ठवितो, तस्स रायपुत्तस्स भाया राया, सो तेण मग्गेण अस्सवाहणियाए णिजइ, एएण भण्णति-एयस्स अच्छीणि पाडेहित्ति, तेण य गोलियधणुयएण तस्स णिग्गच्छमाणस्स दोषि अच्छीणि पाडियाणि, पच्छा सो रायपुत्तो राया जातो, तेण य सो पसुपालो भण्णति-ब्रूहि वरं, किं ते प्रयच्छामि, तेण भण्णति-मज्झ तमेव गामं देहि जत्थ अच्छामि, तेण सो दिण्णो, पच्छा तेण तम्मि पञ्चतगामे उच्छू रोविओ तुंबीतो य, निष्फण्णेसु तुवाणि गुले सिद्धिउं तं गुडतुंवयं भुक्त्वा २ गायति स-अट्टमट्टं च १ पशुपालः पृष्टः--केनैतानि पत्राणि छिद्रीकृतानि ?, तेन भण्यते-मयैतानि । तेन स बहुना द्रव्यजातेन विलोभ्य भण्यते-शकोषि टू यस्याहं भणामि तस्याक्षिणी छिद्रयितुम् , तेन भण्यते-सुष्टु अभ्यासस्थो भवेयं तदा शकुयाम , तेन नगरं नीतः, राजमार्गसन्निविष्टे गृहे स्थापितः, तस्स राजपुत्रस्य भ्राता राजा, स तेन मार्गेणाश्ववाहनिकया याति, एतेन भण्यते-एतस्याक्षिणी पातयेति, तेन च गोलिकधनुषा तस्य निर्गच्छतो वे अप्यक्षिणी पातिते, पश्चात्स राजपुत्रों राजा जातः, तेन च स पशुपालो भण्यते-तेन भण्यते-मम तमेव प्रामं देहि दयत्र तिष्ठामि, सेन स (ती) दत्तः, पश्चात्तेन तस्मिन् प्रत्यन्तप्रामे इक्ष रोपितस्तुम्च्या , निष्पन्नेषु तुम्बानि गुडे पक्त्वा तत् गुडतुम्बकं | भुक्त्वा गायति चासौ-अट्टमट्टं च दीप अनुक्रम [१३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~496~ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / गाथा ||८|| नियुक्ति : [२३५...] उत्तराध्य. अकाम बृद्धृत्तिः । मरणाध्य. ॥२४५ प्रत सूत्रांक ||८|| सिखिजा, सिक्खियं ण णिरत्थयं । अट्टमट्टपसाएण, मुंजए गुडतुंचयं ॥१॥ तेण ताणि वडपत्ताणि अणट्ठाए छिद्दि याणि, अच्छीणि पुण अट्ठाए पाडियाणि । दण्डमारभत इत्युक्तं, तक्किमसायारम्भमात्र एवावतिष्ठते इत्याहKI 'भूयगामति भूताः-प्राणिनस्तेषां ग्रामः-समूहस्तं विविधैः प्रकारैर्हिनस्ति-व्यापादयति, अनेन च दण्डत्रयव्यापार उक्त इति सूत्रार्थः ॥ ८॥ किमसौ कामभोगानुरागेणैतावदेव कुरुते ? उतान्यदपीत्याह ____हिंसे बाले मुसावाई, माईल्ले पिसुणे सढे । भुंजमाणे सुरं मंस, सेयमेयंति मन्नइ ॥९॥ व्याख्या-हिंसनशीलो हिंस्रः अनन्तरोक्तनीत्या, तथैवंविधश्च सन्नसौ 'बालः' उक्तरूपो 'मृषावादीति अलीकभाषणशीलः, 'माइलेत्ति माया-परवञ्चनोपायचिन्ता तद्वान् 'पिशुनः' परदोषोद्घाटकः 'शठः' तत्तन्नेपथ्यादिकरणतोऽन्यथाभूतमात्मानमन्यथा दर्शयति, मण्डिकचौरवत् , अत एव च भुजानः 'सुरां' मा 'मांस' पिशितं 'श्रेयः' प्रशस्यतरमेतदिति मन्यते, उपलक्षणत्यात् भाषते च-'न मांसभक्षणे दोषो, न मद्ये न च मैथुन'इत्यादि, तदनेन मनसा वचसा कायेन चासत्यत्वमस्योक्तमिति सूत्रार्थः ॥९॥ पुनस्तद्वक्तव्यतामेवाह- . कायसा वयसा मत्ते, वित्ते गिडे य इत्थिसु । दुहओ मलं संचिणइ, सिसुनागुब्ब महियं ॥१०॥ १ शिक्षेत, शिक्षितं न निरर्थकम् । अट्टमप्रसादेन, भुज्यते गुडतुम्बकम् ॥ १॥ तेन तानि वटपत्राणि अनर्थाय छिद्रितानि, अक्षिणी पुनरर्थाय पातिते 55%2523454-%%* दीप ।।२४५॥ अनुक्रम [१३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~497 Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / गाथा ||१०|| नियुक्ति: [२३५...] 23 प्रत सूत्रांक ||१०|| | व्याख्या-कायस'ति सूत्रत्वात् कायेन-शरीरेण वचसा-वाचा उपलक्षणत्वात् मनसा च 'मत्तों' दृप्तः, तत्र कायमत्तो मदान्धगजवत् यतस्ततः प्रवृत्तिमान् , यद्वाऽहोऽहं बलवान् रूपवान् वेति चिन्तयन् वचसा खगुणान् ख्यापयन् अहोऽहं सुखर इत्यादि वा चिन्तयन् , मनसा च मदामातमानसः अहोऽहमवधारणाशक्तिमानिति वा मन्यानो 'वित्ते'द्रविणे 'गृद्धों' गृद्धिमान, चशब्दो भिन्नक्रमः, ततः स्त्रीषु च गृद्धः, तत्र वित्ते गृद्ध इति अदत्तादानपरिग्रहोपलक्षणं, तद्भावभावित्वात्तयोः, स्त्रीषु गृद्ध इत्यनेन मैथुनासेवित्वमुक्तं, स हि स्त्रियः संसारसर्वखभूता इति मन्यते, तथा च तद्वचः-'सत्यं वच्मि हितं वच्मि, सारं वच्मि पुनः पुनः । अस्मिन्नसारे संसारे, सारं सारङ्गलोचनाः॥१॥ तदभिरतिमांश्च मैथुनासेव्येव भवति, स एवंविधः किमित्याह-'दुहतो'त्ति द्विधा-द्वाभ्यां रागद्वेषात्मकाभ्यां बहि|रन्तःप्रवृत्त्यात्मकाभ्यां वा प्रकाराभ्यां, सूत्रत्वाद्विविधं वा इहलोकपरलोकवेदनीयतया पुण्यपापात्मकतया बा, |'मलम्' अष्टप्रकारं कर्म 'संचिनोति' बनाति, क इव किमित्याह-'शिशुनागो गण्डूपदोऽलस उच्यते, स इव मृत्तिका, स हि स्निग्धतनुतया वही रेणुभिरवगुण्ड्यते, तामेव चाश्नीते इति बहिरन्तश्च द्विधापि मलमुपचिनोति, तथाऽयमपि, एतदृष्टान्ताभिधाने त्वयमभिप्रायो-यथाऽसौ बहिरन्तश्चोपचितमलः खरतरदिवाकरकरनिकरसंस्पर्शतः शुष्यन्निहैव क्लिश्यति विनाशं चाप्नोति, तथाऽयमप्युपचितमलः आशुकारिकर्मवशत इहैव जन्मनि क्लिश्यति विनश्यति चेति सूत्रार्थः ॥११॥ अमुमेवार्थ व्यक्तीकर्तुमाह रे दीप अनुक्रम [१३८] JimEastmaitri पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: अत्र सूत्रान्ते यत् ||१९|| लिखितं तत् मुद्रणदोषः, अत्र सूत्र ||१०|| एव वर्तते ~498~ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-1 / गाथा ||११|| नियुक्ति: [२३५] उत्तराध्य. प्रत सूत्रांक बृहद्वृत्तिः ॥२४६॥ ||११|| तओ पुढो आर्यकेण, गिलाणो परितप्पति । पभीओ परलोगस्स, कम्माणुप्पेही अप्पणी ॥११॥ अकामव्याख्या-ततो'त्तिं तकः ततो वा दण्डारम्भणायुपार्जितमलतः स्पृष्टः, केन ?-'आतकेन' आशुघातिना शूल- | मरणाध्य. विसूचिकादिरोगेण तत्तहुःखोदयात्मकेन या 'ग्लान इति मन्दोऽपगतहो वा परीति-सर्वप्रकारं तप्यते, किमुक्तं भवति -पहिरन्तथ खिद्यते, 'प्रभीत इति प्रकर्षण त्रस्तः, कुतः १-'परलोगस्स'त्ति परलोकात् , सुव्यत्ययेन पञ्चम्यर्थे । षष्ठी, किमिति ?-क्रियत इति कर्म-क्रिया तदनुप्रेक्षत इत्येवंशीलः कर्मानुप्रेक्षी, यत इति गम्यते, कस्स ?-आत्मनः, स हि हिंसालीकभाषणादिकामात्मचेष्टां चिन्तयन्न किञ्चिन्मया शुभमाचरितं, किन्तु सदैवाजरामरवचेष्टितमिति चिन्तयंश्चेतस्याततश्च तनावपि खिद्यते, भवति हि विषयाकुलितचेतसोऽपि प्रायःप्राणोपरमसमयेऽनुतापः, तथा चाहुः-"भवित्री भूतानां परिणतिमनालोच्य नियतां, पुरा यद्यत्किञ्चिद्विहितमशुभं यौवनमदात् । पुनः प्रत्यासन्ने महति परलोकैकगमने, तदेवकं पुंसां व्यथयति जराजीर्णवपुषाम् ॥१॥" इति सूत्रार्थः ॥ ११॥ अमुमेवार्थ व्यक्तीकर्तुमाह-(ग्रन्थानम् ६०००) सुया मे णरए ठाणा, असीलाणं च जा गती । बालाणं करकम्माण, पगाढा जत्थ चेयणा ॥१२॥ व्याख्या-'सुयत्ति श्रुतानि-आकर्णितानि 'मे' इति मया 'नरके' सीमन्तकादिनानि. कानि-'ठाणा' इति । १ प्राकृतानुकरणमेतदिति प्रतिभाति । दीप अनुक्रम [१३९] ४॥२४६॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~499 Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||१२|| दीप अनुक्रम [१४० ] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं+निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [--] / गाथा ||१२|| निर्युक्तिः [२३५] लिङ्गव्यत्ययेनोत्पत्तिस्थानानि घटिकालयादीनि येष्वतिसंपीडिताङ्गा दुःखमाकृष्यमाणाः वहिर्निष्क्रामन्ति जन्तवः, यद्वा नरके - रत्नप्रभा दिनरक पृथिव्यात्मके स्थानानि - सीमन्तकाप्रतिष्ठानादीनि कुम्भीवैतरण्यादीनि वा, अथवा स्थानानि - सागरोपमादिस्थित्यात्मकानि तत्किमियताऽपि परितप्यत इत्यत आह- 'अशीलानाम्' अविद्यमानसदाचाराणां या गतिर्नरकात्मिका सा च श्रुतेति सम्बन्धः कीदृशानाम् १- 'बालानाम्' अज्ञानां क्रूरकर्म्मणां' हिंस्रमृषाभाषकादीनां, कीदृशी गतिरित्याह-प्रगाढा नामात्युत्कटतया निरन्तरतया च प्रकर्षवत्यो 'यत्र' यस्यां गतौ वेद्यन्त इति वेदना:शीतोष्णशाल्मल्या श्लेषणादयः, तदयमस्याशयः - ममैवंविधानुष्ठानस्येदृश्येव गतिरिति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ तथा तत्थोववाइयं ठाणं, जहा मे तमणुस्सुधं । आहाकम्मेहिं गच्छन्तो, सो पच्छा परितप्पति ॥ १३ ॥ व्याख्या- 'तत्रे 'ति नरकेषु उपपाते भवमोपपातिकं 'स्थानं' स्थितिः 'यथा' येन प्रकारेण, भवतीति शेषः, 'मे' | मया तदित्यनन्तरोकपरामर्शे 'अनुश्रुतम्' अवधारितं, गुरुभिरुच्यमानमिति शेषः, औपपातिकमिति च ब्रुवतोऽस्वायमाशयः - यदि गर्भजत्वं भवेत् भवेदपि तदवस्थायां छेदभेदादिनारकदुःखान्तरम्, औपपातिकत्वे त्वन्तर्मुहूर्तानन्तरमेव तथाविधवेदनोदय इति कुतस्तदन्तरसम्भवः १, तथा च- 'आहाकम्मेहिं ति आधानमाधाकरणम्, आत्मनेति गम्यते, तदुपलक्षितानि कर्माण्याधाकर्माणि तैः आधाकर्मभिः स्वकृतकर्मभिः, यद्वाऽऽर्षत्वात्, 'आहेति' आधाय कृत्वा, कर्माणीति गम्यते, ततस्तैरेव कर्म्मभिः 'गच्छन्' यान् प्रक्रमान्नरकं, यद्वा- 'यथाक Jam Euston mational For Panther पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~500~ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||23|| दीप अनुक्रम [१४१] उत्तराध्य. वृतिः ॥२४७॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [५], मूलं [--] / गाथा ||१३|| निर्युक्ति: [२३५...] |र्मभिः' गमिष्यमाणगत्यनुरूपैः तीव्रतीत्रतराद्यनुभावान्वितैर्गच्छंस्तदनुरूपमेव स्थानं, 'स' इति बालः, 'पश्चादि' त्यायुषि हीयमाने 'परितप्यते' यथा घिड् मामसदनुष्ठायिनं, किमिदानीं मन्दभाग्यः करोमि ? इत्यादि शोचत इति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ अमुमेवार्थं दृष्टान्तद्वारेण दृढयन्नाह जहा सागडिओ जाणं, संमं हिचा महापहं । विसमं मग्गमोतिष्णो, अक्खभग्गंमि सोयइ ॥ १४ ॥ व्याख्या- 'येथे' त्युदाहरणोपन्यासार्थः, शक्नोति शक्यते वा धान्यादिकमनेन वोदुमिति शकटं तेन चरति शाकटिकः- गन्त्रीबाहकः 'जाणं'ति जानन्नववुध्यमानः 'समम्' उपलादिरहितं हित्वा त्यक्त्वा, कम् ? - महांश्चासो विस्तीर्णतया प्राधान्येन च पन्याच महापथः, 'ऋक्पूरब्धूः पथामानक्षे ( पा० ५-४-७४) इत्यकारः समासान्तस्तं, 'विषमम्' उपलादिसङ्कलं 'मार्ग' पन्थानं 'ओतिन्नो' त्ति अवतीर्णः - गन्तुमुपक्रान्तः, पठ्यते च- 'ओगाढो 'ति तत्र चावगाढ आरूढः प्रपन्न इति चैकोऽर्थः, अनीते नवनीतादिकमित्यक्षो-धूः तस्य भङ्गो - विनाशः अक्षभङ्गः तस्मिन्, पाठान्तरतश्चाक्षे भने, शोचते यथा धिय मम परिज्ञानं यज्जानन्नपीत्थमपायमवाप्तवानिति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ सम्प्रत्युपनयमाह - Jam Euston Intemattinat एवं धम्मं विउक्कम्म, अहम्मं पडिवजिया । वाले मधुमुहं पत्ते, अक्खे भग्गे व सोय ॥ १५ ॥ व्याख्या- 'एव' मिति शाकटिकवद 'धर्म' क्षान्त्यादिकं यतिधर्म्म सदाचारात्मकं वा 'विउकम्म'त्ति व्युत्क्रम्य For Pantheon अकाम मरणाध्य. ~ 501~ ५ ॥२४७॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [--] / गाथा ||१५|| नियुक्ति : [२३५...] प्रत सूत्रांक ||१५|| विशेषेणोलय न धर्मोऽधर्मः, नञ् विपक्षेऽपि वर्तते इति धर्मप्रतिपक्षः, तं-हिंसादिकं 'प्रतिपद्य अभ्युपगम्य 'बालः' अभिहितरूपो मरणं-मृत्युस्तस्य मुखमिव मुखं मृत्युमुख-मरणगोचरं 'प्राप्तो' गतः, किमित्याह-अक्षे भन्न इव शोचति, किमुक्तं भवति ?-यथा-अक्षभरु शाकटिकः शोचति तथाऽयमपि स्वकृतकर्मणामिहैव मारणान्तिकवेदनात्मकं फलमनुभवन्नात्मानमनुशोचति, यथा हा किमेतजानताऽपि मयैवमनुष्ठितमिति सूत्रार्थः ॥१५॥ शोचना-12 नन्तरं च किमसौ करोतीत्याह तओ से मरणंतंमि, वाले संतस्सई भया । अकाममरणं मरई, धुत्ते वा कलिणा जिए ॥ १६ ॥ व्याख्या-तत'इत्यातकोत्पत्ती यच्छोचनमुक्तं तदनन्तरं 'से' इति स मरणमेवान्तो मरणान्तस्तस्मिन् , उपस्थित इति शेषः, 'बालों' रागाद्याकुलितचित्तः 'संत्रस्यति' समुद्विजते विभेतीतियावत् , कुतः १-'भयात् ' नरकगतिग-2 मनसाध्वसाद, अनेनाकामत्वमुक्तं, स च किमेवं विभ्यत् मरणाद्विमुच्यते ? उत नेत्याह-अकामस्य-अनिच्छतो मरण|मकाममरणं तेन, सूत्रे चार्यत्वाद्वितीया, "म्रियते' प्राणांस्त्यजति, क इव कीदृशः सन् ?-'धूर्त इव' द्यूतकार इव, वाशब्दस्योपमार्थत्वात् , 'कलिना' एकेन, प्रक्रमात् दायेन, जितः सन्नात्मानं शोचति, यथा खयमेकेन दायेन जितः| | सन्नात्मानं शोचति तथाऽसावपीत्वरैर्विपाककटुभिः सङ्क्लेशबहुलैर्मनुज भोगैर्दिव्यसुखं हारितः शोचन्नेव म्रियत इति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ प्रस्तुतमेवार्थ निगमयितुमाह दीप अनुक्रम [१४३] MEMOCREE: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~502 Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक |१७|| दीप अनुक्रम [१४५] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२४८ ॥ [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं+निर्युक्ति:+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||१७|| अध्ययनं [५], निर्युक्तिः [२३५...] एवं अकाममरणं, बालाणं तु पवेइयं । इतो सकाममरणं, पंडियाण सुणेह मे ॥ १७ ॥ व्याख्या—'एतद्' अनन्तरमेव दुष्कृतकर्म्मणां परलोकाद्विभ्यतां यन्मरणमुक्तं तदकाममरणं, बालानामेव, तुशब्दस्यैवार्थत्वात्, 'प्रवेदितं' प्रकर्षेण प्रतिपादितं, तीर्थकृद्गणधरादिभिरिति गम्यते । पण्डितमरणप्रस्तावनार्थमाह'एत्तो 'ति इतोऽकाममरणादनन्तरं 'सकाममरणं पण्डितानां सम्बन्धि 'शृणुत' आकर्णयत 'मे' मम, कथयत इत्युपस्कारः इति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ यथाप्रतिज्ञातमाह मरणपि सपुण्णाणं, जहा मे तमणुस्सुयं । विप्पसण्णमणाघायं, संजयाणं वुसीमओ ॥ १८ ॥ व्याख्या -- मरणमपि आस्तां जीवितमित्यपिशब्दार्थः, 'पुण कर्म्मणि शुभे' इत्यस्माद्धातोः 'उणादयो बहुल' (पा० ३-३-१ ) मिति बहुलवचनाद्भावे क्यपि पुण्यम् उक्तं हि - "पुर्ण कर्म्मणि निर्दिष्ट: शुभविशेषप्रकाशको धातुरयम् । | भावप्रत्यययोगाद्विभक्तिनिर्देशसिद्धमेतद्रूपम् ॥ १ ॥" सह तेन वर्तन्त इति सपुण्यास्तेषां न त्वन्येषामपुण्यवतां किं सर्वमपि ?, नेत्याह- 'यथा' येन प्रकारेण 'मे' मम, कथयत इति गम्यते, तदित्युपक्षेपः, तत्रोपात्तम् 'अनुश्रुतम् अवधारितं भवद्भिरिति शेषः, सुष्ठु प्रसन्नं मरणसमयेऽप्यकलुषं कषायकालुष्यापगमान् मनः- चेतो येषां ते सुप्रसन्नमनसः महामुनयस्तेषां ख्यातं - खसंवेदनतः प्रसिद्धं सुप्रसन्नमनःख्यातं यद्वा-'सुप्पसन्नेहि अक्खायं' अत्र च सुष्ठु प्रसन्नैः१ अत्र पूर्वार्धे चतुर्थपञ्चमषष्ठाः पाः उत्तरार्धेऽष्टचाः For Parsons Pre Ord अकाम ~503~ मरणाध्य ॥२४८॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / गाथा ||१८|| नियुक्ति: [२३५...] प्रत सूत्रांक ||१८|| पापपट्टापगमनेनात्यन्तनिर्मलीभूतैः, शेषतीर्थकृद्भिरिति गम्यते, आख्यातं । पठ्यते च 'विप्पसण्णमणापाय'ति, तत्र च विशेषेण विविधैर्वा भावनादिभिः प्रकारैः प्रसन्ना-मरणेऽप्यपहतमोहरेणुतयाऽनाकुलचेतसो विप्रसन्नाः, तत्सम्बन्धि मरणमप्युपचाराद्विप्रसन्नं, न विद्यते आघातः तथाविधयतनयाऽन्यप्राणिनामात्मनश्च विधिवत् संलिखितशरीरतया यस्मिंस्तदनाघातं, केषां पुनरिदम् ?, उच्यते-'संयतानां' समिति-सम्यग् यतानां-पापोपरतानां, चारित्रिणामित्यर्थः, 'बुसीमतो'ति, आषत्त्वावश्यवतां वश्य इत्यायत्तः, स चेहात्मा इन्द्रियाणि वा, वश्यानि विद्यन्ते येषां वे अमी वश्यवन्तः तेषाम् , अयमपरः सम्प्रदायार्थः-वसंति वा साहुगुणेहिं वुसीमंतः, अहवा बुसीमा-संविग्गा तेर्सि'ति एतचात् पण्डितमरणमेव, ततोऽयमर्थः-यथैतत् संयतानां वश्यवतां विप्रसन्नमनाघातं च सम्भवति, न तथाऽपुण्यप्राणिनाम् । 'अन्ते समाहिमरणं अभवजीवा ण पाति'त्ति वचनात्, विशिष्टयोग्यताभाजामेव तत्त्रा|प्तिसम्भवादिति सूत्रार्थः ॥ १८ ॥ यथा चैतदेवं तथा दर्शयितुमाहन इमं सब्वेसु भिक्खूमुं, ण इमं सब्वेसु गारिसु । नानासीला य गारस्था, विसमसीला प भिक्खुणो ॥१९॥ - व्याख्या-'ने'त्यवधारणफलत्वाद्वाक्यस्य नैव 'इद'मिति पण्डितमरणं 'सबेसु भिक्खुसुति सूत्रत्वात् सर्वेषां भिक्षूणां परदत्तोपजीविनां अतिनामितियावत् , किन्तु केषाश्चिदेव परोपचितपुण्यानुभावयतां भावभिषणां, तथा च १ वसन्ति वा साधुगुणैः वसीमन्तः, अथवा बशिमानः संविग्नास्तेषामिति । २ अन्ते समाधिमरणमभव्यजीवा न प्रामवन्ति दीप अनुक्रम [१४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~504 Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||१९|| नियुक्ति: [२३५...] उत्तराध्य. अकाम बृहद्वृत्तिः मरणाच्या प्रत सूत्रांक ॥२४९॥ ||१९|| गृहस्थानां दूरापास्तमेव, अत एवाह-नेदं पण्डितमरणं 'सबेसु गारिसुति सर्वेषामगारिणा गृहिणां, चारित्रिणा- मेव तत्सम्भवात् , तथात्वे च तेषामपि तत्त्वतो यतित्वाद्, उभयत्र विषयसप्तम्यन्ततया वा नेयं, यथा चैतदेवं तथोपपत्तित आह-नाना-अनेकविधं शीलं-प्रतं स्वभावो का येषां ते नानाशीलाः 'अमारस्था' गृहस्थाः, तेषां हि नकरूपमेव शीलं किन्त्वनेकभङ्गसम्भवादनेकविधं, देशविरतिरूपस्य तस्यानेकधाऽभिधानात् , सर्वविरतिरूपस्य च तेष्वसम्भवात् , 'विषमम्' अतिदुर्लक्षतयाऽतिगहनं विसदृशं वा शीलमेषां विषमशीलाः, के ते-भिक्षवः, न हि सर्वेऽप्यनिदानिनोऽविकलचारित्रिणो या तत्कालं नियन्ते जिनमतप्रतिपन्ना अपि, तीर्थान्तरीयास्तु दूरोत्सारिता । एव, तेषु हि गृहिणस्तावदत्यन्तं नानाशीला एव, यतः-केचिद्गृहाश्रमप्रतिपालनमेव महातमिति प्रतिपन्नाः, अन्ये तु सप्त शिक्षापदशतानि गृहिणां ब्रतमित्याद्यनेकधैय ब्रुवते, भिक्षयोऽप्यत्यन्तं विषमशीला एव, यतस्तेषु केषा|श्चित्पञ्चयमनियमात्मकं प्रतमिति दर्शनम् , अपरेषां तु कन्दमूलफलाशितैय इति, अन्येषामात्मतत्त्वपरिज्ञानमेवेति विसदृशशीलता, न च तेषु कचिदपिकलचारित्रसम्भव इति सर्वत्र पण्डितमरणाभाव इति सूत्रार्थः ॥ १९॥ विषमशीलतामेव भिक्षणां समर्थयितुमाह संति एगेहि भिक्खूहि, गारस्था संजमुसरा । गारत्थेहि य सब्वेहि, साहवो संजमुत्तरा ॥२०॥ व्याख्या-'सन्ति' विद्यन्ते 'एकेभ्यः' कुप्रवचनेभ्यो भिक्षुभ्यः 'गारत्थ'त्ति सूत्रत्वादगारस्थाः संयमेन-देश दीप अनुक्रम [१४७] ॥२४॥ Jmtashma पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~505 Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) प्रत सूत्रांक ||२१|| दीप अनुक्रम [१४९] [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि ” - मूलसूत्र - ४ ( मूलं+निर्युक्ति:+वृत्तिः) मूलं [--] / गाथा ||२१|| अध्ययनं [५], निर्युक्ति: [२३५...] | विरत्यात्मकेनोत्तराः - प्रधानाः संयमोत्तराः, कुप्रवचनभिक्षवो हि जीवाद्यास्तिक्यादपि वहिष्कृताः सर्वथाऽचारित्रिणश्चेति कथं न सम्यग्दृशो देशचारित्रिणो गृहिणस्तेभ्यः संयमोत्तराः सन्तु १, एवं सत्यगारस्थेष्वेव तदस्त्वित्यत आह- 'अगारस्थेभ्यश्च सर्वेभ्य' इति अनुमतिवर्जसर्वोत्तमदेश विरतिप्राप्तेभ्योऽपि साधवः संयमोत्तराः, परिपूर्णसंयमत्वात्तेषां तथा च वृद्धसम्प्रदायः- एगो सावगो साहुं पुच्छति - सावगाणं साहूणं किमंतरं १, सादुणा भण्णतिसरिसवमंदरंतरं ततो सो आउलीहूओ पुणो पुच्छति - कुलिंगीणं सावगाण य किमंतरं १, तेण भण्णति-तदेव सरिसमंदरंतरंति, ततो समासासितो, जतो भणियं-"देसेकदेसविरया समणाणं सावगा सुविहियाणं । जेसिं परपासंडा सतिमंषि कलं न अग्यंति ॥ १ ॥” तदनेन तेषां चारित्राभावदर्शनेन पण्डितमरणाभाव एवं समर्थित इति सूत्रार्थः ॥ २० ॥ ननु कुप्रवचनभिक्षवोऽपि विचित्रलिङ्गधारिण एवेति कथं तेभ्योऽगारस्थाः संयमोत्तराः, अत आह— चीराजिणं निभिणिणं, जडी संघाडि मुंडिणं । एयाईपि न तायंति, दुस्सीले परियागतं ॥ २१ ॥ व्याख्या - चीराणि च - चीवराणि अजिनं च मृगादिचर्म चीराजिनं 'णिगिणिणं'ति सूत्रत्वान्नाश्यं 'जडित्ति १ एकः श्रवकः साधुं पृच्छति-श्रावकाणां साधूनां (च) किमन्तरम् ?, साधुना भण्यते - सर्षपमन्दरान्तरम्, ततः स व्याकुलीभूतः पुनः पृच्छति कुलिङ्गिनां श्रावकाणां च किमन्तरम् ?, तेन भण्यते तदेव सर्पपमन्दरान्तरमिति, ततः समाश्वस्तः, यतो भणितम्देशैकदेशविरताः श्रमणानां श्रावकाः सुविहितानाम् । येषां परपाषण्डाः शतीमपि कलां नार्घन्ति १ ।। For Pan the on पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४३] मूलसूत्र [४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्तिः ~506~ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [--1 / गाथा ||२१|| नियुक्ति: [२३५...] उत्तराध्य. बृहद्वृत्तिः ॥२५०॥ प्रत सूत्रांक ||२१|| भावप्रधानत्वानिर्देशख जटित्वं, सङ्घाटी-वस्त्रसंहतिजनिता 'मुंडिणं ति यत्र शिखाऽपि खसमयतश्छिद्यते, ततः प्रा अकामग्वत् मुण्डित्वं, "एतान्यपीति निजनिजप्रक्रियाविरचितबतिवेषरूपाणि लिङ्गान्यपि, किं पुनर्गार्हस्थ्यमित्यपि मरणाध्य. शब्दार्थः, किमित्याह-नैव त्रायन्ते भवाद्दुष्कृतकर्मणो वेति गम्यते, कीदृशम् !-'दुःशीलं' दुराचारं 'परियागयंति पर्यायागतं-प्रव्रज्यापर्यायप्राप्तम् , आपत्वाच्च याकारस्बैकस्य लोपः, यद्वा-'दुस्सीलंपरियागय'ति मकारोऽलाक्षणिकः, ततो दुःशीलमेव दुष्टशीलात्मकः पर्यायस्तमागतं दुःशीलपर्यायागतं, न हि कषायकलुषचेतसो बहिर्बकवृत्तिरतिकष्टहेतुरपि नरकादिकुगतिनिवारणायालं, ततो न लिङ्गधारणादि विशिष्टहेतुरिति सूत्रार्थः ॥ २१॥ आहकथं गृहायभावेऽप्यमीषां दुर्गतिरिति ?, उच्यते| पिंडोलए व दुस्सीलो, नरगाओ न मुचइ । भिक्खाए वा गिहत्थे वा, सुव्वए कमति दिवं ॥२२॥ व्याख्या-'पिंडोलए बत्ति वाशब्दोऽपिशब्दार्थः, ततश्च 'पिडि सङ्घाते' पिण्ड्यते तत्तद्गृहेभ्य आदायर सङ्घात्यत इति पिण्डः तमबलगति-सेवते पिण्डावलगो-यः खयमाहाराभावतः परदत्तोपजीवी सोऽपि, आस्तां । गृहादिमानित्यर्थः, दुःशीलः प्राग्वत् , 'नरकात्' खकर्मोपस्थापितात् सीमन्तकादेन मुच्यते, अत्र चोदाहरणं तथा ॥२५॥ विधद्रमकः, तत्र च-सम्प्रदायः-रायगिहे णयरे एगो पिंडोलओ उज्जाणियाए विणिग्गए जणे भिक्खं हिंडइ, ण १ राजगृहे नगरे पकः पिण्डावलगः उद्यानिकायै विनिर्गते जने भिक्षा हिण्डते, न दीप अनुक्रम [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~507~ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं [-] / गाथा ||२२|| नियुक्ति: [२३५...] प्रत सूत्रांक ||२२|| ये तस्स केणइ किंचि दिण्णं, सो तेसिं वैभारपञ्चयकडगसन्निविट्ठाण पचतोपरि चडिऊण महतिमहालयं सिलं चालेइ, एएसि उवरिं पाडेमित्ति रोहन्झाई विच्छुट्टिऊण ततो सिलातो निवडितो सिलातले संचुण्णियसबकातो य| है मरिऊण अप्पइट्ठाणे णरए समुप्पन्नो । तर्हि किमत्र तत्त्वतः सुगतिहेतुरित्याह-'भिक्खाए वत्ति भिक्षामत्ति अकति वा भिक्षादो भिक्षाको, वा विकल्पे, अनेन यतिरुक्तः, गृहे तिष्ठति गृहस्थः स का, शोभनं निरतिचारतया सम्यग्भावानुगततया च व्रत-शीलं परिपालनात्मकमस्येति सुत्रतः, 'कामति' गच्छति 'दिवं' देवलोकं, मुख्यतो मुक्ति-II हेतुत्वेऽपि व्रतपरिपालनस्य दिवं क्रामतीत्यभिधानं जघन्यतोऽपि देवलोकप्राप्तिरिति ख्यापनार्थम् , उक्तं हि"अविरोहियसामण्णस्स साहुणो सायगस्स य जहण्णो । उववातो सोहम्मे भणितो तेलोकदंसीहिं ॥१॥" अनेन व्रतपरिपालनमेव तत्त्वतः सुगतिहेतुरित्युक्तमिति सूत्रार्थः ॥ २२ ॥ यद्भूतयोगाद्गृहस्थोऽपि दिवं कामति तत्तुमाह-- अगारिसामाइयंगाई, सड्डी कारण फासए । पोसहं दुहओ पक्खं, एगराई न हावए ॥ २३ ॥ १. च तस्मै केनचित् किञ्चित्त, स तेषु वैभारगिरिकटकसन्निविष्टेषु पर्वतस्योपरि चटित्वा ( आरुह्य ) अतिमहतीं शिलां चालयति, ४ एतेषामुपरि पातयामीति रौद्रध्यायी विछुट्य ततः शिलातो निपतितः शिलातले संचूर्णितसर्वकायच मृत्वाऽप्रतिष्ठाने नरके सभुररान्नः। र अविराद्धभामण्यस्य साधोः श्रावकस्य च जघन्येन । उपपातः सौधर्मे भणितखैलोक्यदर्शिभिः ॥ १॥ दीप अनुक्रम [१५०] JABERatomimtirtraina पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~508 Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||२३|| नियुक्ति: [२३५...] उत्तराध्य. अकाम बृहदृत्तिः मरणाध्य ॥२५॥ प्रत सूत्रांक ||२३|| व्याख्या-अगारिणो-गृहिणः सामायिक-सम्यक्त्वश्रुतदेशविरतिरूपं तस्याङ्गानि-निःशङ्कताकालाध्ययनाणुव्रतादिरूपाणि अगारिसामायिकाङ्गानि, 'सहित्ति सूत्रत्वात् श्रद्धा-रुचिरस्थास्तीति श्रद्धावान , कायेनेत्युपलक्षणत्वान्मनसा वाचा च 'फासइति स्पृशति सेवते, पोषणं पोषः, स चेह धर्मस्य तं धत्त इति पोषधः-आहारपोषधादिः, तं 'दुहतो पक्ख'न्ति तत एव द्वयोरपि सितेतररूपयोः पक्षयोश्चतुर्दशीपूर्णिमास्यादिषु तिथिषु 'एगराई | ति अपेर्गम्यमानत्वादेकरात्रमपि, उपलक्षणत्वाचैकदिनमपि, 'न हावए'त्ति न हापयति-न हानि प्रापयति, रात्रिग्रहणं च दिवा ब्याकुलतया कर्तुमशनुवन् रात्रावपि पोषधं कुर्यात् , इह च सामायिकाङ्गत्वेनैव सिद्धेर्यदस्य भेदेनोपादानं तदादरण्यापनार्थमदुष्टमेव, यद्वा-यत एवं गृहस्थोऽपि सुव्रतो दिवं कामति अतोऽगारी सामायिकाहानि । स्पृशेत् पोषधं च न हापयेदित्युपदेशपरतया व्याख्येयमिति सूत्रार्थः ॥ २३॥ प्रस्तुतमेवार्थमुपसंहर्तुमाह एवं सिक्खासमावन्नो, गिहवासेऽवि सुब्वओ। मुचति छविपवाओ, गच्छे जक्खसलोगयं ।। २४ ॥ ___ व्याख्या-'एवम्' अमुनोक्तन्यायेन शिक्षया-व्रतासेवनात्मिकया समापन्नो-युक्तः शिक्षासमापन्नो गृहवासेड़| पि, आस्तां प्रव्रज्यापर्याय इत्यपिशब्दार्थः, 'सुनतः' शोभनत्रतो मुच्यते, कुतः ?-छविः-त्वक् पर्वाणि च-जानुकूप- रादीनि छविपर्व तद्योगादौदारिकशरीरमपि छविपर्व ततः, तदनन्तरं च 'गच्छेदू' यायात् यक्षा-देवाः समानो लोकोऽस्येति सलोकस्तद्भावः सलोकता यक्षः सलोकता यक्षसलोकता ताम् , इयं च देवगतावेव भवतीत्यर्थाद्देव दीप अनुक्रम [१५१] २५१॥ FILPAamasFrom Dream wwJRRORIrary.uTI पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~509 Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / गाथा ||२४|| नियुक्ति: [२३५...] प्रत सूत्रांक ||२४|| गतिमिति, अनेन च पण्डितमरणावसरेऽपि प्रसङ्गतो वालपण्डितमरणमुक्तमिति सूत्रार्थः ॥२४॥ साम्प्रतं प्रस्तुतमेव पण्डितमरणं फलोपदर्शनद्वारेणाह४ अह जे संवुढे भिक्खू, दुण्हमेगयरे सिया । सव्वदुक्खपहीणे या, देवं वावि महिहिए ॥ २५ ॥ | व्याख्या-'अथे'त्युपप्रदर्शने 'य'इत्यनुद्दिष्टनिर्देशे 'संवृत'इति पिहितसमस्ताश्रवद्वारः 'भिक्षुरिति भावभिक्षुः, स च द्वयोरन्यतरः-एकतरः 'स्यात् ' भवेद् , ययोयोरन्यतरः स्यात् तावाह-सर्वाणि-अशेषाणि यानि दुःखानि क्षुत्पिपासेष्टवियोगानिष्टसंयोगादीनि तैः प्रकर्षेण-पुनरनुत्पत्त्यात्मकेन हीनो-रहितः सर्वदुःखप्रहीणः, स्यादिति सम्बन्धः, यद्वा-सर्वदुःखानि प्रहीणान्यस्येति सर्वदुःखप्रहीणः, आहिताश्यादेराकृतिगणत्वात् निष्ठान्तस्य परनिपातः,[१] सच सिद्ध एव, ततः स वा देवो वा, अपिः सम्भावने, सम्भवति हि संहननादिवैकल्यतो मुक्त्यनवाप्ती देवोऽपि स्वादिति, कीरग् ?-महती ऋद्धिः-सुखादिसम्पदस्पेति महर्द्धिक इति सूत्रार्थः ॥ २५ ॥ आह-गृह्णीमो देवो वा स्थादिति, यत्र चासौ देवो भवति तत्र कीदृशा आवासाः कीदृशाश्च देवा ? इत्याह उत्तराई विमोहाई, जुइमंताणुपुष्वसो । समाइण्णाइ जक्खेहि, आवासाइ जसंसिणो ॥२६॥ दीहाउया दित्तिमंतां, समिहा कामरूविणो । अहुणोववन्नसंकासा, भुजो अञ्चिमालिप्पभा ॥२७॥ १ मण्णयरेत्ति टीका । २ रिद्धिमंता इति टीका । दीप अनुक्रम [१५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~510 Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [५], मूलं [-1 / गाथा ||२६-२७|| नियुक्ति: [२३५...] सूत्रांक ||२६-२७|| व्याख्या-'उत्तरा' उपरिवर्तिनोऽनुत्तरविमानाख्याः, सर्वोपरिवर्तित्वात्तेषा, विमोहा इवाल्पवेदादिमोहनीयोदय-1 | अकामतितया विमोहाः, अथवा मोहो द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च. द्रव्यतोऽन्धकारो भावतश्च मिथ्यादर्शनादिः, स द्विविधोऽपि मरणाध्य. सततरलोद्योतितत्वेन सम्यग्दर्शनस्यैव च तत्र सम्भवेन विगतो येषु ते विमोहाः, द्युतिः-दीप्तिरन्यातिशायिनी ॥२५२॥ विद्यते येषु ते द्युतिमन्तः, 'अणुपुत्वसो'त्ति प्राग्यदनुपूर्वतः क्रमेण विमोहादिविशेषणविशिष्टाः, सौधर्मादिषु धनु- G|| ५ त्तरविमानावसानेषु पूर्वपूर्वापेक्षया प्रकर्षवन्त्येव विमोहत्वादीनि, 'समाकीण्णां' व्याप्ता 'यक्षः' देवैः, आ-समन्ताद्वसन्ति तेवित्यावासाः, प्राकृतत्वाच सर्वत्र नपुंसकतया निर्देशः, देवास्तु तत्र 'यशखिनः' श्लाघान्विताः, दीर्घसागरोपमपरिमिततया आयुरेषामिति दीर्घायुषः, 'ऋद्धिमन्तो' रनादिसम्पदुपेताः, 'समिद्धा' अतिदीसाः, 'कामरू|पिणः' कामः-अभिलाषस्तेन रूपाणि कामरूपाणि तद्वन्तः, विविध क्रियशक्त्यन्विता इत्यर्थः, न चैतदनुत्तरेष्यनुपपन्नं विशेषणमिति वाच्यं, विकरणशक्तस्तत्रापि सत्त्वात् , 'अधुनोपपन्नसङ्काशाः' प्रथमोत्पन्नदेवतुल्याः, अनुत्तरेषु हि वर्णद्युत्यादि यावदायुस्तुल्यमेव भवति, 'भूयोऽर्चिमालिप्रभा' इति, भूयःशब्दः प्राचुर्ये, ततः प्रभूतादित्यदीप्तया .. दान ोकस्यैवादित्यस्य तारशी द्यतिरस्तीति भयोग्रहणमिति सूत्रार्थः ॥ २६ ॥ २७ ॥ उपसंहर्तुमाह JNI॥२५॥ ताणि ठाणाइ गच्छंति, सिक्खित्ता संजमं तवं । भिक्खाए वा गिहत्थे चा, जे संतिपरिनिब्बुढा ॥२८॥ व्याख्या-तानि' अभिहितरूपाणि तिष्ठन्त्येषु सुकृतिनो जन्तव इति स्थानानि-आवासात्मकानि 'गच्छन्ति | दीप अनुक्रम [१५४-१५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~511 Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-1 / गाथा ||२८|| ___नियुक्ति: [२३५...] * - प्रत सूत्रांक ||२८|| * यान्ति, उपलक्षणत्वान्ता गमिष्यन्ति च, उपलक्षणं चैतत् सौधादिगमनस्य, तत्रापि तेषां केषाश्चिद्गमनसम्भवात् , 'शिक्षित्वा' अभ्यस्य 'संयम' सप्तदशभेदं 'तपों' द्वादशभेदं, क इत्याह-'भिक्खाए वा गिहत्थे वत्ति प्राकृतत्वादचनव्यत्ययेन भिक्षाको वा गृहस्थो वा भावतो यतय एवेतियावत् , अत एवाह-'जे'इति ये शान्त्या-उपशमेन परिनि वृताः-शीतीभूता विध्यातकषायानलाः शान्तिपरिनिर्वृताः, यद्वा-ये केचन 'सन्ति' विद्यन्ते परिनिर्वृताः, अत्रच देवो वा स्यादित्येकवचनप्रक्रमेऽपि यद्बहुवचनाभिधानं तद्याप्त्यर्थ, ततो न य एक एवेश्वराद्यनुगृहीतः स एव सम्यग्दर्शनादिमानपि दिवं कामति किन्तु सर्वोऽपि इत्युक्तं भवतीति सूत्रार्थः ॥ २८ ॥ एतचाकण्यं मरणेऽपि यथाभूता महात्मानो भवन्ति तथाऽऽह तेसिं सुचा सपुजाणं, संजयाणं वुसीमओ । ण संतसंति मरणंते, सीलबंता बहुस्सुआ ॥२९॥ व्याख्या-तेषाम् ' अनन्तराभिहितस्वरूपाणां भावभिषणां 'श्रुत्वा' आकर्योक्तरूपस्थानावाप्तिमिति शेषः, कीरशाम् ?-'सत्पूज्यानां सतां पूजार्हाणां, सती वा पूजा येषां ते सत्पूजास्तेषां 'संयतानां संयमवतां 'वुसीमओ'त्ति || प्राग्वत् , 'न संत्रस्यन्ति' नोद्विजन्ते, कदा-मरणे मरणेन वाऽन्तो मरणान्तस्तस्मिन् आवीचीमरणापेक्षया वाऽन्त्यमरणे, प्राकृतत्वाच परनिपातः, समुपस्थित इति शेषः, 'शीलवन्तः' चारित्रिणो 'बहुश्रुता' विविधागमश्रवणावदाती - दीप अनुक्रम [१५६] *--- - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~512~ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / गाथा ||२९|| नियुक्ति: [२३५...] उत्तराध्य. अकाम बृहद्वृत्तिः मरणाध्य ॥२५॥ प्रत सूत्रांक ||२९|| कृतमतयः, इदमुक्तं भवति य एवाबिदितधार्मिकगतयोऽनुपार्जितधर्माणश्च त एव मरणादुद्विजन्ते, यथा-कास्माभिर्मृत्वा गन्तव्यमिति, उपार्जितधर्माणस्तु धर्मफलमवगच्छन्तो न कुतोऽप्युद्विजन्ते, यथा-कास्माभिर्मृत्वा गन्तव्यं, यदुक्तम्-"चरितो निरुपक्लिष्टो धम्मो हि मयेति निर्वृतः खस्थः । मरणादपि नोद्विजते कृतकृत्योऽस्मीति धर्मात्मा ॥१॥" इति सूत्रार्थः ॥ २९॥ इत्थं सकामाकाममरणखरूपमभिधाय शिष्योपदेशमाह तुलिया विसेसमायाय, दयाधम्मस्स खंतिए । विप्पसीइज मेधावी, तहाभूएण अप्पणा ॥ ३०॥ व्याख्या-'तोलयित्वा' परीक्ष्यात्मानं धृतिदाादिगुणान्वितमिति गम्यते, 'विशेष' प्रक्रमाद्भक्तपरिज्ञादिकं | मरणभेदम् 'आदाय' बुद्ध्या गृहीत्वाऽभ्युपगम्येतियावत् , दयाप्रधानो धर्मो दयाधम्मो-दशविधयतिधर्मरूपः तस्य सम्बन्धिनी या क्षान्तिस्तया, उपलक्षणत्वात् मार्दवादिभिश्च, 'विप्रसीदेत्' विशेषेण प्रसन्नो भवेत् , न तु मरणादुद्विजेतेति भावः, 'मेधावी' मर्यादावी 'तथाभूतेन' उपशान्तमोहोदयेन, यदिवा-यथैव मरणकालात्यागनाकुलचेता अभूत् मरणकालेऽपि तथैवावस्थितेन तथाभूतेनात्मना स्वयमयमपरकल्पोऽपि विप्रसीदेत्-कषायपकापगमतः खच्छतां भजेत् न तु कृतद्वादशवर्षसंलेखनतथाविधतपस्विवनिजाङ्गुलीभङ्गादिना कपायितामवलम्बेत मेधावी, किं कृत्वा-तोलयित्वा बालमरणपण्डितमरणे, ततश्च 'विशेष' बालमरणात् पण्डितमरणस्य विशिष्टत्वलक्षणमादायगृहीत्वा तथा दयाधर्मस्येति, चशब्दस्य गम्यमानत्वात्, दयाधर्मस्य च-यतिधर्मस्य विशेष-शेषधातिशायित्वल दीप अनुक्रम [१५७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~513 Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [५], मूलं [-] / गाथा ||३०|| नियुक्ति: [२३५...] प्रत सूत्रांक ||३०|| क्षणमादायेति सम्बन्धः, कया विप्रसीदेत् ?-क्षान्त्या, तथाभूतेनेति निष्कषायेणात्मनोपलक्षित इति सूत्रार्थः ॥३०॥ विप्रसन्नश्च यत् कुर्यात्तदाह तओ काले अभिप्पेए, सही तालीसमंतिए । विणएज लोमहरिसं, भेयं देहस्स कंखए ॥३१॥ | व्याख्या-तत' इति कषायोपशमानन्तरं 'काले' मरणकाले 'अभिप्रेते' अभिरुचिते, कदाच मरणमभिप्रेतम् !, यदा योगा नोत्सर्पन्ति, 'सहित्ति प्राग्वत् श्रद्धावान् , तारशमिति भयोत्थं 'अन्तिके' समीपे गुरूणां मरणस्य वा 'विनयेद् ' विनाशयेत् , कम् ?-लुनाति लीयन्ते वा तेषु यूका इति लोमानि तेषां हों लोमहर्षस्त-रोमाञ्चं, हा ! मम मरणं भविष्यतीति भयाभिप्रायसम्प्राप्यं, किंच-'भेदं' विनाशं 'देहस्य' शरीरस्य का दिव काढेत् , स्यक्ततत्परिकर्मत्वात् , अथवा 'तालिस'न्ति सुव्यत्ययात् तादृशो यादृशः प्रव्रज्याप्रतिपत्तिकाले संलेखनाकाले वा अन्तकालेऽपि तादृशः श्रद्धावान् सन् , उक्तं हि-'जाए सद्धाए णिक्खंतो, परियायठाणमुत्तमं । तमेव अणुपालेजत्ति, || ईदृशव परीषहोपसर्गजं लोमहर्षे विनयेदिति सम्बन्धः इति सूत्रार्थः ॥ ३१ ॥ निगमयितुमाह| अह कालंमि संपत्ते, आघायाय समुच्छयं । सकाममरणं मरति, तिहमन्नयरं मुणी ॥ ३२ ॥ तिबेमि व्याख्या-'अथेति मरणाभिप्रायानन्तरं 'काल'इति मरणकाले सम्प्रासे 'णिप्फोइया य सीसा' इत्यादिना क्रमेण १ यया अद्धया निष्कान्तः, पर्यायस्थानमुत्तमम् । वामेवानुपालयेत् । ३ निष्पादिताच शिष्याः दीप अनुक्रम [१५८] । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४३] मूलसूत्र[४] उत्तराध्ययनानि मूलं एवं शान्तिसूरिविरचिता वृत्ति: ~514 Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४३) [भाग-३५] “उत्तराध्ययनानि”- मूलसूत्र-४ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [१], मूलं [-] / गाथा ||३२|| नियुक्ति: [२३५...] मा अकाम -- मरणाध्य. - प्रत सूत्रांक पृहात ॥२५॥ समायाते 'आघायाय'त्ति आर्षत्वात् आघातयन् संलेखनादिभिरुपक्रमणकारणैः समन्ताद् घातयन्-विनाशयन् , कं?-समुच्छ्रयम्-अन्तः कार्मणशरीरं बहिरौदारिकं, यद्वा-'समुस्सतं'ति सुब्ब्यत्ययात्समुच्छ्यस्याघाताय-विनाशाय काले सम्प्राप्त इति सम्बन्धनीयं, किमित्याह-सकामस्य-उक्तनीत्या साभिलाषस्य मरणं सकाममरणं तेन म्रियते, त्रयाणां-भक्तपरिक्षेङ्गिनीपादपोपगमनानामन्यतरेण, सूत्रत्वात् सर्वत्र विभक्तिव्यत्ययः, 'मुनिः' तपखीति सूत्रार्थः ॥ ३२ ॥ इतिः परिसमाप्ती, प्रवीमीति प्राग्वत् ॥ साम्प्रतं नयास्तेऽपि पूर्ववत् । इति श्रीशान्त्याचार्यविरचितायामुत्तराध्ययनटीकायामकाममरणाख्यं पञ्चममध्ययनं समासमिति ॥ % % ||३२|| 4 % दीप अनुक्रम [१६०] % पश्चममध्ययनं समाप्तम् ॥ %% ॥२५४॥ % भाग 'उत्तराध्ययनानि'-मूलसूत्र [४/१] मूलं एवं शान्त्याचार्यजी रचिता टीका परिसमाप्ता: मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) । ~515 Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग कलपृष्ठ ३१४ ५८६ ४९८ ३९२ ५९४ ४९४ ३३८ ५९२ ५५२ सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम 01 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग-१ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन-१,२ 02 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध-२ 03 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- १ से १३ 04 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ 05 | आगम ०३ स्थान मुलं एवं वत्ति, भाग-१ स्थान- १ से ४ 06 | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ स्थान- ५ से १० संपूर्ण 07 | आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति. 08 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ शतक-१ से ६ 09 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ शतक-७ से ११ 10 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ शतक- १२ से २० 11 | | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ शतक- २१ से ४१ संपूर्ण 12 | आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति. 13 | आगम-७,८,९,१०उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति. 14 | आगम-११,१२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति. 15 | आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वृत्ति. 16 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र-१ से १३८ 17 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत सूत्र- १३९ से प्रतिपत्ती-१० संपूर्ण 18 | | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. पद-१ से ५ 19 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मलं एवं वत्ति. पद-६ से २२ 20 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मुलं एवं वत्ति. पद- २३ से ३६ संपूर्ण 21 | आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. ५१४ ३८४ ५२२ ५३८ ३८४ ३१४ ४८० ४८८ ૪૨૬ ५१४ ३३६ ६१० ~516 Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलपृष्ठ ६१४ ३७६ ४२६ ३४४ ३१२ 27 ३३० ४६६ ४४२ सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? भाग इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. | आगमा८ जंबूदविपप्रज्ञप्ति भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ५ से ७. आगम १९-३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पृष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, ___ भक्तपरिज्ञा, तंदलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविदया, देवेन्द्रस्तव मलं एवं छाया आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मूलं एवं छाया, निशीथ, बुहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव 28 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति-१ से ५२१ 29 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, नियुक्ति- ५२२ से ९५१ आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण] आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-५ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन-४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण) | आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूल एवं वृत्ति. आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. | आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. 35 आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन- १ से ५ 36 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूल एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन- ६ से २१ 37 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६ | आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति. 39 | | आगम ४५ अनुयोगद्वार मूलं एवं वृत्ति. 40 | कल्प[बारसा]सूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति. ४६४ ४२६ ४७२ ३७६ ५९० ५२२ से ४८२ ४६६ नं एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन 38 | ५२८ ५६० ३९४ ~517 Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम: [भाग-३५] आगम 43/1 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च “उत्तराध्ययनानि मूलसूत्र" [मूलं + नियुक्ति: + शान्तिसूरि-रचिता वृत्तिः] (किंचित वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "उत्तराध्ययनानि" मूलं एवं वृत्ति: नामेण परिसमाप्तं "सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि" श्रेणि, भाग-35 ~518~ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजमा राजन रानामगाराम सामनावमा वामान ਸਾਸ ਨ ਕਰ ਸ ਸਿਧਾਰਥ ਮਲ ਮਲ ਕਰ आगम वाचनाश नाम आणणाचार साजन सामान ~519~ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक अभिनव-संकलनकर्ता SHARERAK ENTERTMEN मा A Boo AR SUPER पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महायज आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855 198253062751 ~520~ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता श्री आगम मंदिर पालिताणा HOSTEOREOED Holisonli-dalso ~521 Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल संशोधक भाजमाआमा आ आगम आगम आ आजसमाजमा मूल सशाधक पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आम आजम आजम आजम आजम आगम आगम 43 “उत्तराध्ययनानि” मूलं एवं वृत्ति: [1] आगम आज अभिनव-संकलनकर्ता आजमा आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] विराणम् आगम आगम आजम आगमा आगम आप ~522