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पूर्णतल्लगच्छीय श्रीशान्तिसूरिविरचित
न्यायावतारवार्तिकवृत्ति
(न्यायावतारसूत्र तहार्दिक तदीयवृत्तिसमवेत- विस्तृतहिन्दीटिप्पण अनेक परिशिष्ट सुविस्तृत प्रस्तावना आदि बहुविषय समलंकृत).
in Education International
संपादक
श्री दलसुख मालवणिया
सरस्वती पुस्तक भंडार
अमदावाद
Personal Use Only
www.ainelibrary.org
Page #2
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Saraswati Oriental Research Sanskrit Series No. 14
NYĀYĀVATĀRAVĀRTIKA-VṚTTI
OF
ŚRĪ SĀNTI SŪRI
CRITICALLY AND AUTHENTICALLY EDITED IN THE ORIGINAL SANSKRIT WITH AN ELABORATE INTRODUCTION, NOTES, INDICES ETC. IN HINDI
BY
PANDITA DALASUKHA MALWANIYA (Former Head Pandita in Jaina Sastra teaching at Benares Hindu University, Benares)
SARASWATI PUSTAK BHANDAR AHMEDABAD
Page #3
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Published By:
SARASWATI PUSTAK BHANDAR HATHIKHANA, RATANPOLE
AHMEDABAD - 380001 Ph. 535 6692
FIRST PUBLISHED IN 1949 UNDER SINGHI JAIN SERIES NO.20 BHARATIYA VIDYA BHAVAN, MUMBAI
Reprint 2002
Price: Rs. 600/
Printed at
Himanshu Printers, Main Yamuna Vihar Road Maujpur, Delhi 110092
Page #4
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पूर्णतल्लगच्छीय श्रीशान्तिसूरिविरचित
न्यायावतारवार्तिक-वृत्ति
न्यायावतारसूत्र-तद्वार्तिक-तदीयवृत्तिसमवेत-विस्तृतहिन्दीटिप्पण-अनेक परिशिष्ट-सुविस्तृत
प्रस्तावना आदि बहुविषय समलंकृत
संपादक पण्डित श्री दलसुख मालवणिया (पूर्व जैनशास्त्राध्यापक - हिंदु विश्वविद्यालय, बनारस)
सरस्वती पुस्तक भण्डार
अहमदाबाद
Page #5
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प्रकाशक सरस्वती पुस्तक भण्डार ११२, हाथीखाना, रतनपोल अहमदाबाद ३८०००१ फोन ५३५ ६६९२
प्रथम संस्करण १९४९ सिंघी जैन ग्रन्थमाला सं० २० के अन्तर्गत
भारतीय विद्या भवन, मुंबई द्वारा प्रकाशित
पुनर्मुद्रण सन् २००२
मूल्य ६०० रु.
.
मुद्रण
हिमांशु प्रिन्टर्स, गली नं० १४, अनूप मार्किट मेन यमुना विहार रोड, मौजपुर, दिल्ली ११००९२
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प्रन्थानुक्रमणिका।
५४
प्रास्ताविका दि। पृष्ठ विषयानुसामयिका
81-80/ (५) त्याद्वादके भंगोंका प्राचीन संडेत परिचय
80-8108नय, आदेश या रष्टियाँ। बार श्रीबहादुरसिंहवी-सरणासलि91-810 (.)प्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव प्रन्थमालासंपादकके कुछ प्रास्ताविक
(२)द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक ६१९-६२४
(३)प्रख्यार्थिक-प्रदेशार्थिक की मुखलालजीका 'आवियाप' ६२५-६२७
(५)भोपादेश-विधानादेश संपादकीय पकन्य
६२८-६३१
(५) व्यावहारिक और नैनयिक नप ५.
६७ नाम स्थापना द्रव्य भाव प्रस्तावना पृ०१-१०२
[२] प्रमाणतत्त्व
शानचर्चाकी जैनदृष्टि १ आगमयुगका जैनदर्शन १-१०२
६२ भागममें ज्ञानचर्चाके विकासकी भूमिकाएँ ५७ [१] प्रमेयतरव
इशामचर्चाका प्रमाणचर्चासे खातय प्राखाधिक
18 जैन भागमों में प्रमाणचर्चा 8. भगवान् महावीरखे पूर्वकी स्थिति
(१) प्रमाणके मेव (१)दसे उपनिषत् पर्यन्त
(२) प्रत्यक्षप्रमाणचर्चा (.) भगवानपुरका मनात्मवाद
(अ) इन्द्रियप्रत्यक्ष ()जैन परवविचारकी प्राचीनता .
(भा)नोहन्द्रियप्रत्यक्ष हुए भगवान महावीरकी देन भनेकान्तवाद .
(१) अनुमामचर्चा 1)चित्रविचित्र पक्षयुक्त पुंस्कोकिलका
(4) भनुमानके मेद
(भा) पूर्ववत् विभज्यवाद अनेकाम्तवाद
(1) शेषवत्
कार्येण (.) भगवान् पुरके मध्याकृत प्रम
२कारणेन (.)कोककी नित्यानित्यता सान्तानन्तता। ()लोकस्या है?
३ गुणेन (५)जीव-शरीरका भेदाभेद
अवयवेन (५)जीवकी नित्यानित्यता
५ भाश्रयेण जीवकी सान्वता-मनन्तता
(१) साधर्म्यवत् म.पुरका भनेकान्तबाद
(3) कालमेदसे त्रैविध्य (6) मध्य और पर्यायका मेदामेव
(3) अवयव चर्चा (म)ग्यविचार
(*) हेतुचर्चा (1) पर्यायविचार
(४) भौपम्यचर्चा (क)प्रव्यपर्यायका भेदाभेद
साधोपनीत (१)जीव और मजीवकी एकानेकता ।
(अ) किश्चित्साघम्योपनीत (१०) परमाणुकी नित्यानित्यता.
(आ) प्रायः साधम्योपनीत (1)मसि-नास्तिका भनेकान्त
(१) सर्वसाधम्योपनीत ६५ स्याद्वाप और ससमंगी
२ वैषम्योपनीत (१) भंगोंका इतिहास
(भ) किशिद्वैधयं (२)भवक्तव्यका स्थान
(मा) प्रायोवैधय (१) स्थाद्वादके भंगोंकी विशेषता
(इ) सर्ववैधर्म्य न्या०६१
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________________
६२
(५) आगमचच
(अ) लौकिक आगम (आ) लोकोत्तर भागम
[२] जैन आगमों में बाद भीर वादविद्या
१ वादका महत्व
६ २ कथा ९ ३ विवाद
६ ४ वाददोष
५ विशेषदोष
§ ६ प्रभ
७ छलजाति
(१) यापक
(२) स्थापक
(३) क
(४) लूषक
६८ उदाहरण - ज्ञात- दृष्टान्त
(१) आहरण (१) अपाय
( २ ) उपाय
(३) स्थापनाक
(४) प्रत्युत्पन्नविनाशी
(२) भाहरणत देश
(1) अनुशाखि
(२) उपालम्भ
(३) पृच्छा (४) निश्रावश्चन
(३) आहरणतद्दोष
(१) अधर्मयुक्त
(२) प्रतिलोम
३) भारमोपनीय
(४) रुपनीत
(४) उपन्यास
१) वस्तुपन्यास (२) तद्यवस्तूपन्यास (३) प्रतिनिभोपन्यास (४) हेतु पम्यास
२ आगमोचरसाहित्य में जैनदर्शन
विषयानुक्रमणिका ।
पृष्ठ
७९ [१] प्रमेयनिरूप ७९६१ तर, अर्थ, पदार्थ, तस्वार्थ ८० ६ २ सत्का स्वरूप
जय पर्याय और गुणका
८२ १०२ ६ गुण भीर पर्यायसे द्रव्य वियुक्त नहीं
प्रास्ताविक
(अ) वाचक उमास्वातिकी देन प्रास्ताविक
८२५ काय
८६ ६ पुनलद्रव्य
८७ ६७ इन्द्रियनिरूपण
८८ ६८ अमूर्तद्रव्योंकी एकत्रावगाहना
.
८९
९०
९१
919
९१
919
९२
११२
९३
११२
९३ ६ ६ मति श्रुतका विवेक
११२
९५ ७ मतिज्ञानके मेद
११३
९५ ६८ अवमहादिके क्षण और पर्याव
११४
९५
[३] नयनिरूपण
११५
९६
प्रास्ताविक
११५
९६
१ नयसंख्या
९७
११५
९७ ९ २ नयोंके लक्षण
194
९७ ९ ३ नई विचारणा
११६
९७ | (ब) आचार्य कुन्दकुन्दकी जैनदर्शनको देन ११७
९८
प्रास्ताविक
११७
९८
९९
९९
९९
९९
१००
१००
१००
१०१
१०१
१०१
पृ० १०३-१४१
[२] प्रमाणनिरूपण
१ पंच ज्ञान और प्रमाणोंका समन्वय
२. प्रत्यक्ष-परोक्ष
३ प्रमाणसंख्यान्तरका विचार
४ प्रमाणका लक्षण
५ शानोंका सहभाव और व्यापार
[१] प्रमेयनिरूपण
51 तरच, अर्थ, पदार्थ और सार्थ
२ अनेकान्तवाद
३ द्रव्यका स्वरूप
| ४ सत् = द्रव्य= सत्ता
६५ अभ्य, गुण और पर्यायका सम्बन्ध
| पाद-व्यय-व्य
९ स्वाद्वाव
१० मूर्तमूर्तविवेक
११ पुत्रलद्रव्यव्याख्या
१२ पुद्गलस्कन्ध
१०३
१३ परमाणुच २०३ ६ १४ आत्मनिरूपण
१०३
पृष्ठ
१०४
१०४
१०४
१०६
१०७
• १०८
१०८
११०
११०
१२०
१२०
१२१
9RR
७ सत्कार्यवाद असत्कार्यवादका समन्वय १२३
६८ वयोंका भेद अभेद
१२४
१२५
१२५
१२५
१२६
१२६
१२७
१२७
(1) निश्रय और व्यवहार
११०
119
११९
११९
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________________
con cascos
(१) बहिरामाभन्तरात्मा-परमात्मा (३) परमात्मवर्णनमें समन्वय (v) free (५) कर्तृस्वा कर्तृत्व विवेक
(६) शुभ-घुम-शुद्ध अध्यवसाय १५ संसार वर्णम १६ दोष वर्णन १७ भेदज्ञान [ प्रमाण चर्चा ]
प्रासादिक
१
टि
२ ज्ञानकी स्व-परप्रकाशकता
३ सम्यग् ज्ञान
४
भाव ज्ञान और विभाव ज्ञान
६५ प्रत्यक्ष-परोक्ष
६ इसिका तात्पर्य
• शानदर्शनयोगपद्म
८ सर्वज्ञका ज्ञान
९ मतिज्ञान
१० शुतज्ञान
[2] नयनिरूपण ६१ व्यवहार और मिश्रण
३ आचार्य सिद्धसेन
$ सिद्धसेनका समय
६२ लिखी प्रतिभा
३ सम्मतितर्क अनेकान्त स्थापन
४ न्याभावतार में जनन्यासाकी नींव
२ समय
शुद्धिपत्र
विषयानुक्रमणिका ।
पृष्ठ
१२८
१२८
१२९
१२९
१ न्यायावतारसूत्रम् । कारिका १ प्रमाणत्व लक्षणं विभागय | २-६ प्रयोजनाका निराकरणं च । * प्रत्यक्ष परोक्षयोः लक्षणे ।
५] अनुमान क्षणं भव च । ६ प्रत्यक्षस्य अनामतत्वम् ।
७ सकलप्रतिभासस भ्रान्तत्वनिषेधः, प्रमाणसिद्धिय ।
१३०
ܢܕ
४ वार्तिक के कर्ता
१४५
५ शान्त्याचार्य और उनका समय १४६
1 वार्तिक और चिक
चार्य
१३५
१३५
१३५
१३६
१३५
121
१२ पराक्षक्षणम्। १३ परार्थानुमानस्य लक्षणम् ।
""
१३१ | १४-१६ पक्षस्य लक्षणम्, प्रक्षप्रयोगसमर्थनञ्च ।,, १७] हेतुप्रयोगविधिः ।
१३३
१३४
२३७
१३७
१३७
१३८
१३९
१३९
३९१
१४१
१४१
१४२
१४२
१४४
१४९
१५०
१५२
पृष्ठ १-४
,
33
33
93
"
८
क्षणम् ।
९ शाह
क्षणम् ।
१० परार्थमानस्य लक्षणम् ।
"
स्यं
यक्षानुमानयोः परार्थमानत्वम् ।
सखरूपम् । वैधरूपम् । प्रदर्शन व्यर्थम् ।
२०
२१ पक्षाभास निर्देशः ।
२२ हेतुहेत्वाभासयोर्विवेकः ।
२३ हेत्वाभासनिर्देशः ।
कारिका
२४ साधाभास
२५ वेधाभास प्रदर्शनम् ।
२६ दूषण-दूषणाभासयोर्विवेकः ।
२७ पारमार्थिकप्रत्यक्षम् ।
62
पृष्ठ
મ
३ प्रामाण्यस्वरूपम् ।
४] स्वसंवेदनसिद्धिः ।
५० अबाधितत्वसमर्थनम् ।
६ वेदादीनामप्रामाण्यम् भव
"1
19
ܕܚ
39
19
"
"
"
"
"
२८ प्रमाणफकस्य निर्देशः ।
२९ प्रमाणनयोर्तिपव्यवस्था।
३०
निर्देशः ।
३१ प्रेमातुस्वरूपम् ।
३२ प्रम्योपसंहारः ।
२ न्यायावतारसूत्रवार्तिकम् । ५-१०
१ सामान्यलक्षण परिच्छेदः । ५-६ अभिधेयप्रयोजनाभिधानम् ।
411
२ प्रमाणस्य लक्षणं विभागच ।
३ सन्निकर्षादेरप्रामाण्यम् ।
"
"
33
४
"
"
99
"
" १३
" १३
१४
५,१३
प्रामाण्यम् ! ७ चचसो पौनेयत्वनिषेधः ।
२८ ६,१९
• ईस्साधनस्य हेत्वाभासत्वम्,, ३०
८ ४० प्रवरचिनयामामाण्यम् ४४ ९४० सानोपायनिर्णयः ।
४५
१०० जीवसिद्धिः ।
२०४५
१० सर्वसिदिः ।
२ प्रत्यक्षपरिच्छेदः ।
२०५१
६-८
कारिका ११० प्रत्यक्ष-परोक्ष रूपममेव विद
४० ६,६०
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________________
६४
१४ प्रमेयद्वैविध्यात् प्रमाणद्वैविध्यम् १४ ० साइयस्य पृथक् प्रमेयत्वनिषेधः । १५ अर्थापश्वभावयोः प्रामाण्य
निषेधः । १६४० भाव पृथकप्रमेयत्व
निषेधः ।
१० प्रत्यक्षप्रमाणविभागः ।
१०० वैशयलक्षणम् ।
१८ इन्द्रियजानिन्द्रियजप्रत्यक्षयोः
लक्षणे ।
मतभेदाः ।
२६ उ० सामान्य स्वरूपम् । २७ सविकल्पक ज्ञानस्वरूपम् । २८ प्रत्यक्षेणैव प्रत्यक्ष
विषयानुक्रमणिका ।
पाशा
सिद्धम् । २९ समर्थित खोत्यनिषेधः । ३१ स्वस्यस्वरूपनिर्णयः ।
१२ मतिभासे कल्पनाविरह इति
बौदाका ३३ सविकल्पस्वरूपमदर्शने मोका
शंकानिरासः ।
पृष्ठ
६,६७
१९
२० ज्ञानयोगपद्यसमर्थनम् ।
२१ योगजलक्षणम् ।
२२ विषयव्यवस्था ।
२३ विशेषेण प्रत्यक्ष परोक्षपो
७८
विषयव्यवस्था । १४ विज्ञानवाद - शून्यवादयोः समर्थनम् । ७९ २५ वनिरासः । २६ व्यपोथयोः खक्षणे ।
" ८०
" ८०
, ८१
व्यवस्थापनम् ।
१७ ४० परोक्षप्रमाणस्य फलव्यवस्था । ३८ परोक्षविभागः ।
३८ ४० अकाभिमतपरोक्षप्रमाणविभागस्य निरासः । ४१ अनुमानस्य लक्षण निर्देशः, तदेक
विधत्वसमर्थनं ।
" ६२
" ६२
७,७३
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,७६
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, ७७
" ७८
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" ८१
१८२
८,८३
१८३
39.99
३० अमेि
39.99
39
३५ उत्पाद-व्यय-श्रव्यात्मक वस्तु सिद्धिः॥ ८७ ९४
३ प्रतीत्यात्मक फळप्रतिपादनम् । ३ अनुमान परिच्छेदः ।
33
८-१०,९५
कारिका ३७ परोक्षप्रमाणख विषय
" ८४
८,९५
९९
"
"3
९९
" ९९
९,३०१
४२ हेतुसाध्ययोरेव साधनाचा _ ४३ अन्यथानुपत्वमेव हेतुलक्षणम् म बौद्धसम्मतं त्रैरूप्यम् । ४४ तर्कादन्यथानुपपत्तिनिर्णयः । ४५ अम्वयमन्तरेणापि सतुत्वम् । ४० अनुपपत्तिरेव साधिका न सतिरिक
सम्बन्धः
४८ पक्षधर्मत्वनिरासः ।
४९ अनुमानप्रामाण्यसमर्थनम् । ५० पक्षपक्षाभावयोः विवेकः । ५१ वाघोदाहरणानि ।
५२ त्रिविधहेत्वाभासान।
५३ एकासाकान हेतुन
प
१,१०२
"१०२ १०४
१०४
39
, १०५
१, १०५
"१०६ "१०६
१०६ २०७
19
33
हेत्वाभासत्वम् । १०, १०७
१०,१०९-१२२
४ आगमपरिच्छेदः ।
५४ आगमप्रामाण्य कारणनिर्देशः । १०,३३३
५५ उ० तापादिव्यास्थानम् ।
५६ मल्लवादिसाक्ष्यग्रन्थः ।
, ११२ "११२
३ न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तिः । पृ० ११-१२२ १ सामान्यलक्षणपरिच्छेदः । ११-५९ अभिधेयप्रयोजनाभिधानम् । प्रयोजनाभिधानस्य किं प्रयोजनम्
91
इति चर्चा ।
11
शाम इति पद तात्पर्यार्थः । १५ लक्ष्यलक्षणयोः मध्ये कदा कल्य
अनुवाद ? सन्निहितवस्तुइयव्यतिरिकस्य संनिकर्षण
निषेधः । सत्रिकर्षप्रामाण्यनिषेधः । समयायपदार्थ निषेधः
प्रामाण्यविचारः ।
स्वसंवेदनवादः । प्रामाण्यनिययोपायचर्चा संवादशानविचारः ।
माध्यविषयक पूर्वप व्यातिविचारः । स्मृतिप्रमोषनिरासः ।
नोकिया तिनिरासः । आत्मश्वातिनिरासः । बाधकविषयकः पूर्वपक्षः ।
„
งง
१५
१६
१७
१७
२१
२१
२३
२३
२४
२४
२५
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सामान्यविचारः ।
बाध्यबाधकभावनिरासस्योत्तरपक्ष। ।
अवाचित प्रमाणक्षणम् ।
शक्तिविचारः ।
२७
वेदेवरादीनां प्रामाण्य निषेधः ।
२८
बचसोपने] यत्वनिषेधः ।
२९
शब्दार्थसम्बन्धो नित्य इति पूर्वपक्षः । ३१
पूर्वपक्षस्य निरासः । वादनित्यत्वस्थापनम् ।
निषेधः ।
शब्दार्थसम्बम्धविचारः ।
वर्णापौरुषेयत्वनिषेधः ।
वाक्यविचारः । ईश्वरप्रामाण्यविचारे भवयविनिषेधः । ईश्वरकर्तुत्वनिराकरणम् ।
सांक पर्समम कृत्यन्तरविज्ञानपरीक्षा । कैवल्योत्पत्तिप्रकारः ।
जीवसिद्धिः ।
सर्वसिद्धिः ।
सर्ववादे मीमांसकस्य पूर्वपक्षः ।
सवा धर्मकी पूर्वपक्ष
सर्ववादे उत्तरपक्षः।
नियोगखण्डनम् । भावनादीनामपि निरासः ।
२ प्रत्यक्षपरिच्छेद
'मबद्वैविध्यसिद्धिः । द्विविधविषयलक्षणम् ।
प्रमाणसंक्पानियमः ।
अनुमानप्रामाण्यस्थापन
उपमाननिषेधः ।
अर्थापत्तेः पृथक्प्रामाण्याभावः ।
अभावप्रामाण्यवादः ।
भभाषण पृथनप्रामाण्यनिषेधः । प्रत्यक्ष विध्यविचारः । इन्द्रियाणामाहंकारिकरवपक्षः । इन्द्रियाणां भौतिकत्वसाधनम् । जैनसंमवमिन्द्रियस्वरूपम् ।
अनियमत्यक्षम् ।
विषयानुक्रमणिका ।
मनसः स्वरूपम् ।
योगजप्रत्यक्षम् ।
28
२६
२७
३२
२१
२३
३५
३६
३६
૨૮
21
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४५
४५
५१
५२
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५६
५६
૧
६०-९५
६०
६१
६१
६१
६२
६२
६३
७२
७४
७४
७५
७६
७७
७७
७८
बाह्यार्थसिद्धिः ।
सामान्यस्य स्वरूपम् ।
बीकृतः सविकरूपकप्रत्यक्ष निषेधः । स्वयविचारः।
सविकल्पक प्रत्यक्ष विचारे उत्तरपक्षः । प्रत्यभिज्ञाप्रामाण्यनिषेधः । प्रत्यभिशाप्रामाण्य समर्धनम् ।
अनुगतव्यावृत्ताकारवस्तुसिद्धिः ।
एकान्तनित्ये सम्यनिषेधः । एकान्तक्षणिके सत्यनिषेधः ।
द्रव्यस्य सस्यसिद्धिः । प्रमाणफलस्य व्यवस्था ।
३ अनुमानपरिच्छेदः ।
परोक्षप्रमाणस्य विषयव्यवस्थापनम् । सामान्यं न विषयः । अपोहनिरासः ।
कलंकाभिमतपरोक्षणपानिरासः ।
द्रह्मभिशाविचारः । मतिवयोः । अनुमाननिरूपणम् ।
प्रतिज्ञायाः साधनाङ्गत्वम् ।
तो रूप्यनिरासः ।
सकी व्याहिनिर्णयः ।
अन्यथानुपपत्तिरूप विचारः । पक्षाभावेपि हेतुत्वम् ।
पक्षस्य लक्षणम् । बालोदाहरणानि । हेखाभासाः।
क्षणभङ्गभङ्गः ।
श्रीमुक्तिवादः ।
टिप्पणानि
६५
पृष्ठ
७८
८१
61
८२
८३
८४
प्रथमकारिका और उसकी स्पापा के मूलाधार की चर्चा
८७
५१
९५-१०८
९१
९२
९४
४ आगमपरिच्छेदः ।
१०९-१२२
पूर्वपक्षिणा शाब्दस्यामामाण्यस्थापनम् १०९
शब्दप्रामाण्यस्थापनम् ।
११३
११३
अन्यशासनस्याप्रामाण्यम् । सांख्यमतस्य खण्डनम् । आत्मनः सर्वगतश्वस्य खण्डनम् ।
११३
११६
क्षणभङ्गादिनः पूर्वपक्ष: ।
११७
११८
१२०
९५
९५
९६ ९९
९९
१००
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१०१
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१०४
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१०६
१०६
१०७
१२५-२८६
१२५
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________________
६ ६
वृत्तिके मंगलकी अन्य मंगलले
सुलना । नमस्कारवारकी व्याया वृतिके प्रारंभिक कोंकोंकी तुलना । आदिवाक्यके विषय में तुछारम विवेचन | आदिवाक्य कौनसा प्रमाण है ? अर्थकी हिताहितकारिता सापेक्ष है। उपेक्षणीयार्थ खात मतभेद लक्ष्य और लक्षणमें कीन कब अनुवाद है ? इस विषय में नानामत | आत्मभूत और अनात्मभूत लक्षणकी
चर्चा
ज्ञानपरका व्याव क्या है? संयोगके विषयमें दार्शनिकों नामा मतवादका निरूपण ।
विषयानुक्रमणिका ।
का प्रयोजन ।
शक्तिके विषय में दार्शनिकोंके
मतभेदों का वर्णन | अष्टकादि वेदकर्ता भर ईश्वरकारणवाद |
earth विषय में दार्शनिकोंके तमेोंकी वर्णना
१४
१२६
१२७
१२८
१२९
१३४
१३५
१३५
१३६
निकर्ष प्रामाण्यका विचार । समवायके विषय में नाना प्रकारके मयका निदर्शन । सामग्रीप्रमाणवाद दो प्रकारका है। प्रामाण्य की चर्चा आध्यात्मिक
और व्यावहारिक दृष्टिका निरूपण । १४६ प्रामाण्यके नियामकतयोंके विषय में नाना वादका प्रदर्शन । क्रियाकारकव्यपदेशकी कल्पिता । आत्मव्यापारको प्रमाण कौन • मानता है ? सुखदुःखके स्वरूपविषयक
माना मतवाद । स्वतः परतः प्रामाण्य । मिथ्याज्ञान (पति) के विषय में
दार्शनिकोंके नाना मतवादका तुलनात्मक वर्णन | 'गजनिकरुपायते' के विषय में संक्षिप्त
मोब
114
१३७
१३९
१४०
१४२ १४६
६४८ १५२
१५३
१५६
१५६
१५७
१७३
१७४
१७६
१८७
१९०
१९९
पृष्ठ
२००
२०२
२०३
चार्वाक दर्शनका संक्षिप्त इतिहास। २०३ जैनसंमत चैतन्यद्रव्य और
बौद्धसंमत चित्तसंततिकी तुलना । २०६
२०८
अवयविग्रह |
पुखावते ।
अनुमानमामाण्य
सर्वज्ञवाद ।
प्रमाणसं लव और प्रमाणविलवादके
विषय में जैन-बौद्धमन्तब्यका विवेचन |
प्रमाणमेके नियामकतश्वके
विषय में दार्शनिकों के मतका विवेचन |
उपमानके विषय में मतभेदोंका निदर्शन ।
सायका विचार ।
२१०.
२१७
२२०
२२७
१२८
गवयालम्भन ।
यानुपलब्धि और मइयापक डिजका विवेक । बोददिले प्राह्ममाहकभाव प्रत्यक्ष क्षण वैद्यका विवेचन अस्पष्टदर्शन व है क्या ?
प्रत्यक्ष के विभागके विषय में माना मतवाद ।
मोहव्यवाद।
२३१
२३५
२३७
२४०
२४१
२४४
स्मृत्यादिको मागसमक्ष माननेवाले अकलंक से दूसरोंका मतभेद । २४४ प्रातिभके विषय में दार्शनिकोंके ममेद २०५ स्वमविज्ञानविचार |
२४७
संवेदन मानस प्रत्यक्ष है ऐसा शायाचार्यका मत । सामान्यका बिभिदानिकी ि मुख्तारक विवेचन। अनेकान्तके धर्म कीर्तिकृत खण्डनका
१४८
१५०
खण्डन 1
फलविषयक विवेचनाका मतभेद ।
२६४
सोना किसमता कारवादका निरूपण १६५ शायाचार्य और अन्य जैनाचार्योंमें
प्रमाणमेवोंके विषय ममेद
"
१६०
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त्या विषया चार्यका मत ।
विषयानुक्रमणिका ।
निःसृतका जनमत लक्षण ।
शायाचार्यसंगत अनुमानका ऐकविध्य । अनुमानके अवययोंकी
तर्कके विषयायाचार्यका मत
अविनाभाव के नियामक संबंध के
विषयमें दार्शनिकों के मतोंकी तुकमा । काकादिकी कपना करके पक्षधर्मत्व की बौद्धमय घटनापर विचार । वार्तिककी खाभासविषयक कारिका
की तुलना । शाब्दके विषय में चर्चा | बीतरागकी पूजाकी सफताका जिनभकृत समर्थन ।
२४
२६८
२६८
२६९ परिशिष्ट ।
२१९
२७०
२७१
२७२
૨૦૧
२०३
२७५
आमाके परिणाम विषयमें मानामतवादका निरूपण । rath क्षणिकका विकासक्रम । मोक्षकी चर्चा ।
बुद्धवचनके प्रामाण्यमें धर्मकीर्तिप्रदत्त हेतु । २०६ मैनेवर दर्शनोंकी नवाभासोंमें घटना । २७७
१ व्यायावतारकी तुलना ।
२ म्यापावतारसूत्रवार्तिक तुलना ।
३ श्यामावतारसूत्रकारिका सूची । म्यापावतारसूत्रशब्दसूची ।
५ म्यागावतारसूत्रवार्तिककारिकासूची । ६ न्यायावतारसूनवार्तिकम्यसूची । ७ न्यायावतार वार्तिकवृत्तिगतान
२७८
१५०
१८५
२८७-३३२
a B
O
ए
ર૦ર
१९७
१९९
वाद-वाद-प्रम्य-प्रन्थकाराणां सूची । ३०४ ८ म्यापाववावार्तिकगवान शब्दान सूची ।
९ व्याया० तिगतानाम बतरणानां स्वोपज्ञकारिकाणां च सूची । १० टिप्पणगत बाद और बादी । 11 विष्णगत प्रथकारः ।
१२ टिप्पणगत ग्रन्थ ।
१३ डिप्पणगत शब्दों और विन
३००
२०१
२०१
६०५
212
२१९
ART
M
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संकेन-परिचय।
टिप्पणों में प्रन्यके संकेताक्षरों के बाद पू.का उल्लेख न हो तो भकोंको प्रन्थगत यथायोग्य प्रकरण, अभ्याय आदिके या कारिकाके सूचक समझना चाहिए।]
ब०,०,०, और मु. ये प्रतियोंके संकेत है। भ-दि० प्रतिगत टिप्पण । का कारिका, पं०-पकि, पृ० पृष्ठ. अनुपौ. अनुयोगद्वारसूत्र, भागमोदयसमिति, सूरत । अनेका. अनेकान्तब्यवस्थाप्रकरण, जैनप्रन्यप्रकाशक सभा,भमदाबाद। अनेकान्ती भनेकान्तजयपताकाटीका, गायकवाड सिरीझ, बडोदा। अमिधामभिभिधानचिन्तामणि, जैनधर्मप्रसारक सभा, भावनगर । अपय अवयविनिराकरण, (सिक्स बुद्धिस्ट न्यायटेक्स्दस्) एसियाटिक सोसायटी, कलकत्ता। . मश. अष्टशवी (असहल्यन्तर्गत) निर्णयसागर, बंबई। भाइस अष्टसहनी, निर्णयसागर, बंबई । भहस.पि.अष्टसहली विवरण, जैनप्रन्थप्रकाशक सभा, अहमदाबाद। भासमी. मातमीमांसा, सनातन जैनप्रन्थमाला, काशी। भासम्बन. मालम्बनपरीक्षा, अडियार लायरी, पडियार, मद्रास । भावनिक आवश्यकनियुकि, आगमोदय समिति, सूरत । इस. उत्तराध्ययनसूत्र " उत्पादा० उत्पादादिसिद्धिा, ऋषभदेव केसरीमल, रतलाम । कंपली. न्यायकंदलीटीका, विजयानगरम् सिरीम, काशी। कठो कठोपनिषद् । कर्ण प्रमाणवार्तिककी कर्णकगोमिकृत टीका, किताब महल, इलाहाबाद। कारिका. कारिकावली। कौषी कौषीतकी-उपनिषत् । लण्डन खण्डनखण्डवाय, लाजरस कंपनी, काशी। छान्दो छान्दोग्योपनिषत् ।। जैनत जेनतर्कभाषा, सिंघी जैन प्रन्थमाला,बई। वरवषिक तत्त्वचिन्तामणि, एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता। परव. योगभाज्यकी सत्ववैशारदी टीका, चौखम्बा, काशी। वरवसं० तत्वसंग्रह, गायकवाड सिरीम, बडोदा। वापसं०५० तत्वसंप्रहपनिका , तत्वार्थ तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् , आईतमतप्रभाकर, पूना । वरवाटी तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्यकी हरिभवकृत टीका। तत्वार्थमा० तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य, आईतमतप्रभाकर, पूना। तरवार्थमा. सि.टी. तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्यको सिद्धसेनकृत टीका, देवचन्द्र लालभाई, सूरत । तरवायचो. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, गांधी नाथारंग, बंबई। तरवार्थसं० तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्यकी संबंधकारिका । तरखो. तत्त्वोपप्लवसिंह, गायकवाड सिरीझ, बडोदा। ता. तन्त्रवार्तिक, चौखम्बा संस्कृत सिरीझ, काशी। तात्पर्य न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, , , अन्यसं०१. द्रव्यसंग्रह-वृत्ति, जैनपब्लिशिंग हाऊस, आरा। धर्मसं०टी० धर्मसंग्रहणीटीका, देवचन्द्र लालभाई, सूरत । ध्यायकु. न्यायकुमुदचन्द्र, माणिकचन्द्र जैनप्रन्धमाला, बबई।
.
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संकेत परिचय।
बापम न्यायप्रवेश, गायकवार सिरीझ, बडोदा। सावन.पं० व्यायप्रवेशपत्तिपत्रिका." व्यापम १० न्यायप्रवेशवृत्ति , पापविन्यायविन्दु धर्मकीर्तिहत, चौखम्बा काशी। बावबि.टी. न्यायविन्दुटीका , , चाबवि०ीकादि न्यायविन्दुटीका टिप्पणी, निम्किलोषिका बुद्धिकालिया। बापमा. न्यायसूत्रभाष्य, चौखम्बा, काशी। व्यापम न्यायमरी , " बाप.वि.व्यायमंजरी, विजयानगरम् , काची। व्यापकी प्यायलीलावती, चौखम्बा काशी। बापवाण्यायवार्तिक, , , बापनि न्यायविनिषय (अकलंकमन्यत्रयान्तर्गत) सिंधी जैनप्रन्धमाका, बंबई वापसू. न्यायसूत्र, चौखम्बा, काशी। याचा.न्यायावतार, जैन कॉन्मेन्स, बंबई। जापानी यायावतारकी सिखर्षिकतीच पास. पवसंग्रह, मुकाबाई ज्ञानमंदिर, भोई। परी. 1
परीक्षामुबसूत्रम् (प्रमेयकमकमावण्टान्तर्गत) निर्णयसागर, पई। परीक्षा. पात पातजलमहामाण्य, काशी। पारस्करगु. पारस्करगृह्यसूत्र। प्रकरणपं. प्रकरणपत्रिका, चौखम्बा, काशी। प्रमाणन प्रमाणनयतत्वालोक, माईतमतप्रभाकर, पूना । प्रमाणप. प्रमाणपरीक्षा, सनातन जैन प्रन्धमाला, काशी। प्रमाणमी. प्रमाणमीमांसा, सिंघी जैन मन्यमाला, बंबई । प्रमाणमी. भाषा प्रमाणमीमांसा-भाषाटिप्पण। प्रमाणवा प्रमाणपार्तिक (मनोरपनन्दोटीकास्तर्गत) विहार एस मोरिसा R. सो., पटना। प्रमाणपा... प्रमाणा प्र माणवातिकालकार (लिखित), भारतीयविद्याभवन, बंबई। प्रमाणवा...मु. प्रमाणवार्तिकालंकार मुद्रित, विहार एन बोरिसा रि. सो, पटना। प्रमाणा.. प्रमाणवार्तिक-खोपत्ति, कितावमहल, इलाहाबाद । प्रमाणसं. प्रमाणबंग्रह (अकलंकमन्यत्रवान्तर्गत) सिंधी जैन अन्धमाका, बंबई। प्रमाणसमु. प्रमाणसमुचय, माइसूर यूनिवर्सिटी, माइस्र। प्रमाणसमु०ी . प्रमाणसमुचयटीका, ... प्रमाणसमु...प्रमाणसमुषयवृत्ति , प्रमेषक. प्रमेयकमलमार्तण्ड, निर्णयसागर प्रेस, बंबई। प्राय प्रयतपादभाष्यम्, (योसवलन्तर्गत) चौखम्बा, कात्री।
बाहदारण्यकबार्तिक, बानन्दाश्रम, पूना । अशोकर ब्रह्मसूत्रशाइरभाष्य, निर्णयसागर, बंबई। पाव. बृहत्कल्पमाष्य, भात्मानन्दसभा, भावनगर। मनो. प्रमाणवार्तिक-मनोरथनन्दीटीका, पटना।। महायानसू० महायानसूत्रालद्वार, पेरिस । माठर० सांख्यकारिका-माठरपत्ति, चौखम्बा, काशी। माध्य. माध्यमिककारिका 10. माम्ब..माध्यमिकवृत्तिा
बिग्लिमोथिका बुद्धिका, रशिया। . मुका. न्यायसिद्धान्तमुकावली ।
पा.६२
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१०
मैrgo मैत्रयुपनिषद् । योगद० योगदर्शन, चौखम्बा, काशी ।
योग योगदृष्टिसमुच्चय, देवचन्द्र लालभाई, सूरत ।
योग० डी० योगदृष्टिममुच्चयटीका
योगभा●
योगसू० भा० रघु० रघुवंश ।
39
33
} योगसूत्रभाष्य, चौखम्बा, काशी ।
हाजवा० तस्वार्थराजवार्तिकालंकार, जैन सिद्धान्तप्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता । But० लघीयाय (अकलंकमन्यत्रयान्तर्गत ) सिंधी जैन प्रन्थमाला, बंबई ।
पी० स्व० लघीयस्त्रयस्व विवृति,
काव्यायनचौ० लाट्यायन श्रौतसूत्र ।
संकेत - परिचय |
aero वन्दनप्रकीर्णक, ( अभिधान राजेन्द्रान्तर्गत ).
वाक्य० वाक्यपदीय, चौखम्बा, काशी ।
वाक्य० डी० वाक्यपदीय टीका
"
"
विग्रह० विग्रहष्यावर्तिनी, बिहार एण्ड ओरिसा रि० सो०, पटना ।
विज्ञप्ति० विज्ञप्तिमात्रता सिद्धि, पेरिस । विज्ञसि० भा० विज्ञप्तिमात्रता सिद्धिभाष्य,
वेदान्तप० वेदान्तपरिभाषा, चौखम्बा, काशी । -वैशे• वैशेषिकसूत्र,
"".
बैशे० उप० वैशेषिक उपस्कार, यो प्रशस्तपादभाष्य- व्योमवती टीका,
"3
शfo ब्रह्म० ब्रह्मसूत्र शाङ्करभाष्य, निर्णयसागर, बंबई ।
शाबर० शाबरभाष्य, आनन्दाश्रम, पूना ।
शावर० व्या० शावर भाष्य व्याख्या,
शादी शास्त्रदीपिका, निर्णयसागर, बंबई ।
"
शास्त्रवा० शास्त्रवार्ता समुचय ।
शास्त्रवा० यशो० टी० शास्त्रवार्तासमुचय-यशोविजयटीका, देवचन्द्र लालभाई, सूरत ।
"
श्लोकवा० }-मीमांसा श्लोकवार्तिक, चौखम्बा, काक्षी ।
श्लोक० तात्पर्य • मीमांसाश्वोकवार्तिकतात्पर्यटीका, मद्रास ।
लोक० न्यायर• मीमांसाश्वोकवार्तिक न्यायरा करव्याख्या, चौखम्बा, काशी । बद० षड्दर्शनसमुच्चय ( हरिभद्रप्रन्यसंग्रहान्तर्गत ), जैनमन्थप्रकाशक सभा, अमदाबाद
हेतुमि० डी० हेतु० डी०
हेतु० जा० हेतुबिन्दुटीकालोक
पद० गुण० षड्दर्शनसमुचय-गुणराटीका, एसियाटिक सोसायटी, कलकत्ता ।
सम्मति ० टी० सम्मतितर्कप्रकरणटीका, गूजरात विद्यापीठ, अमदाबाद ।
सर्वार्थ सर्वार्थसिद्धि, महिसागर जैनप्रन्थमाला, मेरठ ।
सांख्य • सांख्यकारिका
सांख्यत० सांख्यतत्त्वकौमुदी
सिद्धिवि० टी० सिद्धिविनिश्चयटीका ( लिखित ) सूत्रकृ• सूत्रकृताङ्गसूत्र, आगमोदयसमिति, सूरत ।
"
न्यूस प्रिन्टींगप्रेस, बंबई ।
स्याद्वादम० स्याद्वादमंजरी, रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला, बंबई । स्याद्वादर • स्याद्वादरत्नाकर, आईतमतप्रभाकर, पूना । हेतु० हेतु बिन्दु (लिखित )
हेतुबिन्दुटीका, गायकवाड सिरीश, बडोदा ।
"
23
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ere बाबू श्री बहादुर सिंहजी सिंधी और
सिंघी जैन ग्रन्थ मा ला
* [ स्मरणालि 18
मे
अनन्य आदर्शपोषक, कार्यसाधक, उत्साहप्रेरक और सहदय मेहास्पद बाबू श्री बहादुर सिंहजी सिंधी, जिन्होंने मेरी बिशिड प्रेरणासे, अपने स्वर्गवासी साधुचरित पिता भी डालचंदजी सिंचीके पुण्यकारण निमिच, इसे 'सिंघी जैन प्रन्थमाका' की कीर्तिकारिणी स्थापना करके, इसके लिये प्रतिवर्ष हजारों रुपये खर्च करने की आदर्श उदारता प्रकट की थी और जिनकी ऐसी बसाधारण ज्ञानभक्तिके साथ अनम्य मार्थिक उदारवृति देख कर, मैंने भी अपने जीवनका विडि शक्तिशाली और मूल्यवान् बहुत ही शेष अवशेष उत्तर काक, इस प्रभ्थमाकाके ही विकास और प्रकाशके किये सर्वात्मना रूपले समर्पित कर दिया था; तथा जिन्होंने इस प्रन्थमालाका विगत १३-१४ वर्षों ऐसा सुंदर, समृद्ध और सर्वादरणीय कार्यफल निष्पक्ष हुआ देख कर भविष्यमें इसके कार्यको और अधिक प्रगतिमान तथा विखीर्ण रूपमें देखनेकी अपने ग्रीनकी एक मात्र प्ररस अभिलाषा रखी थी और तदनुसार, मेरी प्रेरणा और योजनाका अनुसरण करके प्रस्तुत ग्रन्थमालाकी प्रबन्धात्मक कार्य-व्यवस्था 'भारती 'विद्याभवन' को समर्पित कर देनेकी महती उदारता दिखा कर जिन्होंने इसके भावीके सम्बन्धमें निर्मि हो जानेकी मासा की थी, वह पुण्यवान्, साहित्यरसिक, उदारमनस्क, अमुवामिकाषी, ग्रभिनन्दनीय आमा, अब इस प्रन्थमाकाके प्रकाशनोंको प्रत्यक्ष देवानेके किये इस संसार में विद्या नहीं है। सन् १९४४ की इकाई मानकी पीं वारीसको ५९ वर्षकी अवस्थामें वह महान् मात्मा हु कोकमेंसे प्रस्थान कर गया। उनके भव्य, भावरणीय, स्पृहणीय, और हाथी जीवनको अप कामकारणांजलि' प्रदान करनेके विमिन्स, उनके जीवनका कुछ संक्षिप्त परिचय यहाँ - योग्य होगा ।
करना
सिंमीजीके जीवन के साथके मेरे सास खास कारणोंका विस्तृत भवन, मैंने उनके ही ' अन्थ' के रूपमें प्रकाशित किये गये 'भारतीय विद्या' नामक पत्रिकाके तृतीय भागकी अनुपूर्व किया है । उनके सम्बन्धमें विशेष जाननेकी इच्छा रखने वाले वाचकोंको यह 'मारक ग्रन्थ' देखना चाहिये ।
बाबू भी बहादुर सिंहजीका जन्म बंगालके मुर्शिदाबाद परगनेमें स्थित अजीमगंज नामक खान संवत् १९४१ में हुआ था। वह बाबू डालचंदजी सिंधीके एकमात्र पुत्र थे। उनकी माता श्रीमती - कुमारी सभीमगंज ही बैद इदम्बके बाबू जयचंदजीकी सुपुत्री थी । भी मचकुमारीकी एक बहन जगतसेवीके यहाँ ब्याही गई थी और दूसरी बहन सुप्रसिद्ध नाहर कुटुम्बमें ब्याही गई थी। क
० सुप्रसिद्ध जैन स्कॉलर और अग्रणी व्यकि बाबू पूरणचंद्रजी माहर, बाबू बहादुर सिंहनी सिंचीके मौसेरे भाई थे । सिंवीजीका ब्याह बाबर- अजीमगंशके सुप्रसिद्ध धनाढ्य जैनग्रहत्व कमी सिंहनीकी पौत्री और छत्रपत सिंहजीकी पुत्री श्रीमती तिककसुंदरीके साथ, संवत् १९५४ में हुआ था । इस प्रकार श्री बहादुर सिंहनी सिंपीका कोम्बिक सम्बन्ध बंगालके खास प्रसिद्ध जैन इम्बोंके सा प्रगाड रूपसे संकलित था ।
बाबू भी बहादुर सिंहजीके पिता बाबु डालचंदजी सिंची बंगालके जैन महाजनोंमें एक बहुत ही प्रसिद और सचरित पुरुष हो गये हैं। वह अपने अकेले पुरुषार्थ और स्वउद्योगसे, एक बहुत ही साधारण स्थितिके व्यापारीकी कोटिमें से कोव्यधियंतिक स्थितिको पहुँचे थे और सारे बंगादमें एक सुप्रतिष्ठित और प्रामाणिक व्यापारीके में उन्होंने स्नाति मास की भी
क
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११२
सिंधी जैन प्रन्थ मा छा ।
युक्म व्यापार सूटके सबसे बड़े व्यापारी हो गये थे। उनके पुरुषार्थसे उनकी व्यापारी पेढी जो हरिसिंह निहालचंद के नामसे चलती थी, वह बंगालमें जूटका व्यापार करनेवाली देशी तथा विदेशी पेढीयोंने सबसे बड़ी पेठी गिनी जाने लगी ।
बाबू डालचंद सिंघीका जन्म संवत् १९९१ में हुआ था और १९३५ में उनका भीमकुमारीके साथ विवाह हुआ। १४-१५ वर्षकी अवस्थामें डालचंदजीने अपने पिताकी दुकानका कारभार, जो कि उस समय बहुत ही साधारणरूपले चढता था, अपने हाथमें लिया। वह अजीमगंज छोड कर का आये और वहाँ उन्होंने अपनी परिश्रमशीलता तथा उच्च अध्यवसायके द्वारा कारभारको धीरे धीरे बहुत ही बडाया और अंत में उसको एक सबसे बड़े फर्म के रूपमें स्थापित किया। जिस समय का 'जूद बैंकर्स एसोसिएसन' की स्थापना हुई, उस समय बाबू डालचंदजी सिंधी उसके सर्वप्रथम मेसिडेण्ट बनाये गये। सूटके व्यापारमें इस प्रकार सबसे बड़ा स्थान प्राप्त करनेके बाद उन्होंने अपना लक्ष्य दूसरे दूसरे उद्योगोंकी जोर भी दिया। एक ओर उन्होंने मध्यमान्तस्थित कोरीया स्टेटमें कोयलेकी उद्योगकी नींव डाली और दूसरी ओर दक्षिणके कति और भकखतरा के राज्योंमें स्थित चूने के पत्थरोंकी सामों तथा बेलगाम, सावंतवाडी, इचलकरंजी जैसे स्थानोंमें माई हुई 'बोक्साइट' की बाग विकासकी शोधके पीछे अपना सक्ष्म केन्द्रित किया। कोयलेके उद्योगक किये उन्होंने मेसर्स 'डाकचंद बहादुरसिंह' इस नामकी नवीन पेठीकी स्थापना की, जो कि भाज हिंदुस्तान में एक अग्रगण्य पेठी गिनी जाती है। इसके अतिरिक्त उन्होंने बंगालके चोबीसपरगना, रंगपुर, पूर्णिया आदि परगनेोर्म बड़ी जमींदारी भी खरीदी और इस प्रकार बंगालके नामांकित जमींदारोंमें भी उन्होंने अपना का स्थान प्राप्त किया। बाबू डालचंदजीकी ऐसी सुप्रतिष्ठा केवल व्यापारिक क्षेत्र में ही मर्यादित नहीं थी। वह अपनी उदारता और धार्मिकताके किये भी उतने ही सुप्रसिद्ध थे। उनकी परोपकारवृति भी उतनी ही प्रशंसनीय थी । परंतु साथमें परोपकारसुलभ प्रसिद्धिसे वे दूर रहते थे। बहुत अधिक परिमाण में वे गुप्त रीति से ही अर्थी जनों को अपनी उदारताका लाभ दिया करते थे । उन्होंने अपने जीवन में छालोंका दान किया होगा; परंतु उसकी प्रसिद्धिकी कामना उन्होंने स्वममें भी नहीं की। उनके सुपुत्र बाबू भी बहादुर सिंहजीने प्रसंगवश मुझे कहा था कि 'वे जो कुछ दान आदि करते थे उसकी खबर पे मुझ तकको भी म होने देते थे।' इसलिये उनके दान सम्बन्धी केवळ २-४ प्रसों की ही खबर मुझे प्राप्त हो सकी थी।
सन् १९२६ में 'चित्तरंजन सेवा सदन' के लिये कलकतामें चंदा किया गया था। उस समय एक चार महात्माजी उनके मकान पर गये थे तब उन्होंने बिना मांगे ही महात्माजीको इस कार्यके किये १०००० दस हजार रुपये दिये थे।
१९१७ में कलकत्ता में 'गवर्नमेण्ट हाउस' के मेदानमें, लॉर्ड कामइकल के सभापतित्वमें रेडक्रॉसके किये एक उत्सव हुआ था उसमें उन्होंने २१००० रुपये दिये थे तथा प्रथम महायुद्ध के समय उन्होंने ३,००,००० रुपये के 'बॉर बॉण्ड' खरीद कर सरकारी चंदे में मदद की थी। अपनी अंतिम अवस्थाम उन्होंने अपने निकट इटुम्बी बनोंको जिनकी आर्थिक स्थिति बहुत ही साधारण प्रकारकी थी उनको बारह
1
रुपये बांट देने की व्यवस्था की थी जिसका पालन उनके सुपुत्र बाबू बहादुर सिंहजीने किया था। बांबू डालचंदजीका गार्हस्थ्यजीवन बहुत ही आदर्शरूप था । उनकी धर्मपत्नी श्रीमती मञ्जुकुमारी एक आदर्श और धर्मपरायण पत्नी थी। पतिपक्षी दोनों सदाचार, सुविचार और सुसंस्कारकी मूर्ति जैसे थे। डालचंदजीका जीवन बहुत ही सादा और साध्यसे परिपूर्ण था। व्यवहार और व्यापार दोनों उनका अर्थव प्रामाणिक और नातिपूर्वक वर्तन था। स्वभावसे वे बहुत ही शान्त और निरभिमानी थे । ज्ञानमार्ग के ऊपर उनकी गहरी श्रद्धा भी उनकी वस्वज्ञानविषयक पुस्तकोंके पठन और अवणकी ओर अत्यधिक रुचि रहती थी। किखनगर कॉलेजके एक अध्यात्मशी बंगाली प्रोफेसर बाबू लाल अधिकारी, जो योगविषयक प्रक्रिया अच्छे अभ्यासी और तत्वचिंतक थे, उनके सहवाससे बाबू डालचंदजीकी मी बांगिक प्रक्रियाकी ओर खून इथे हो गई थी और इसलिये उन्होंने उनके पाससे इस विषयकी कुछ खास प्रक्रियाओंका गहरा अभ्यास भी किया था। शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक पवित्रताका जिससे विकास हो ऐसी, व्यावहारिक जीवन के लिये अत्यंत उपयोगी कितनी ही योगिक प्रक्रियाओंकी भोर, उन्होंने अपनी पत्नी तथा पुत्र-पुत्री को भी अभ्यास करने के लिये प्रेरित किये थे ।
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वायू श्री बहादुरसिंहजी-स्मरणांजलि ।
६१३ जैन धर्मके विशुद्ध तत्वोंके प्रचार और सर्वोपयोगी जैन साहित्यके प्रकाशनके लिये भी उनकी खास रुचि थी और पंडितप्रवर सुखलालजीके परिचयके बाद इस कार्यके लिये कुछ विशेष सक्रिय प्रयन करनेकी उनकी उत्कण्ठा जाग उठी थी। इस उत्कण्ठा को मूर्तरूप देनेके लिये वे कलकत्तामें २-४ लाख रुपये खर्च करके किसी साहित्यिक या शैक्षणिक केन्द्रको स्थापित करनेकी योजनाका विचार कर ही रहे थे जितने में एकाएक सन् १९२७ (वि.सं. १९८४)में उनका स्वर्गवास हो गया।
बारालचंदजी सिंधी, अपने समयके बंगाल निवासी जैन-समाजमें एक अत्यन्त प्रतिष्ठित व्यापारी, दीदी उद्योगपति, बडे जमींदार, उदारचेता सद्गृहस्थ और साधुचरितं सत्पुरुष थे। वे अपनी यह सर्व सम्पत्ति और गुणवत्ताका समग्र वारसा अपने सुयोग्य पुत्र बाबू बहादुर सिंहजीके सुपूर्द कर गये, जिन्होंने अपने इन पुण्यश्लोक पिताकी स्थूल सम्पत्ति और सूक्ष्म सत्कीर्वि-दोनोंको बहुत ही सुंदर प्रकारसे बढ़ा कर पिताकी अपेक्षा भी सवाई श्रेष्ठता प्राप्त करनेकी विशिष्ट प्रतिष्ठा प्राप्त की थी।
बाबू श्री बाहादुर सिंहजीमें भपने पिताकी व्यापारिक कुशलता, व्यावहारिक निपुणता और सांस्कारिक सनिष्ठा तो संपूर्ण अंशमें वारसेके रूपमें उतरी ही थी, परन्तु उसके अतिरिक्त उनमें बौद्धिक विशदता, कलात्मक रसिकता और विविधविषयमाहिणी प्राअल प्रतिभाका भी उप प्रकारका सचिवेश हुमा था और इसलिये वे एक असाधारण व्यक्तिस्व रखनेवाले महानुभावोंकी पंकिमें स्थान प्रास करनेकी योग्यता हासिल कर सके थे।
वे अपने पिताके एकमात्र पुत्र थे, अतएव इन पर, अपने पिताके विशाल कारभारमें, बचपनले ही विशेष लक्ष्य देनेका कर्तव्य भा पड़ा था। फलस्वरूप वे हाइस्कूलका अभ्यास पूरा करनेके सिवाय कॉलेजमें जा कर अधिक अभ्यास करनेका अवसर प्राप्त नहीं कर सके थे। फिर भी उनकी ज्ञानहरि बहुत ही तीन थी, भतएव उन्होंने स्वयमेव विविध प्रकारके साहित्यके वाचनका अभ्यास खूब ही बढ़ाया और इसलिये वे अंग्रेजीके सिवाय, बंगाली, हिंदी, गुजराती भाषाएँ भी बहुत अच्छी तरह जानते थे और इन भाषामोंमें लिखित विविध पुस्तकोंके पठनमें सतत निमन रहते थे।
बचपनसे ही उन्हें प्राचीन वस्तुभोंके संग्रहका भारी शौक छग गया था और इसलिये वे प्राचीन सिकों, चित्रों, मूर्तियों और वैसी दूसरी दूसरी मूल्यवान् चीजोंका संग्रह करनेके अत्यन्त रसिक हो गये थे। इसके साथ उनका जवाहिरातकी ओर भी खूब शौक बढ गयाथा अतः वे इस विषयमें भी खूब निष्णात बन गये थे। इसके परिणामस्वरूप उन्होंने अपने पास सिकों, चित्रों, हस्तलिखित बहुमूल्य पुस्तकों आदिका जो अमूल्य संग्रह एकत्रित किया वह आज हिंदुस्तानके इने गिने हुए मामी संग्रहाम, एक महत्वपूर्ण स्थान प्रात करे ऐसा है। उनके प्राचीन सिक्कोंका संग्रह तो इतना अधिक विशिष्ट प्रकारका है कि उसका आज सारी दुनियामें तीसरा या चौथा स्थान आता है। वे इस विषय में इतने निपुण हो गये थे कि बड़े बड़े म्यूजियमोंके क्यूरेटर भी बार बार उनसे सलाह और अभिप्राय प्रास करनेके लिये उनके पास भाते रहते थे।
अपने ऐसे उब सांस्कृतिक शौकके कारण देश-विदेशकी वैसी सांस्कृतिक प्रवृत्तियाँ करनेवाली भनेकों संस्थानोंके सदस्य आदि बने थे। उदाहरणस्वरूप-रॉयल एशियाटिक सोसायटी मॉफ बंगाक, अमेरिकन ज्यॉग्रॉफिकल सोसायटी न्यूयॉर्क, बंगीय साहित्य परिषद् कलकत्ता, न्यूमेमेटिक सोसायटी ऑफ इण्डिया- इत्यादि अनेक प्रसिद्ध संस्थानों के वे उत्साही सभासद थे।
साहित्य और शिक्षण विषयक प्रवृत्ति करनेवाली जैन तथा जैनेतर अनेकों संस्थानों को उन्होंने मुक्कमनसे दान देकरके, इन विषयोंके प्रसारमें अपनी उरकट अभिरुचिका उत्तम परिचय दिया था। उन्होंने इस प्रकार कितनी संस्थानों को आर्थिक सहायता दी थी, उसकी सम्पूर्ण सूचितो नहीं मिल सकी है। ऐसे . कार्यों में वे अपने पिताकी ही तरह, प्रायः मौन रहते थे और इसके लिये अपनी प्रसिद्धि प्राप्त करनेकी भाकांक्षा नहीं रखते थे । उनके साथ किसी किसी वक्त प्रसंगोचित वार्तालाप करते समय इस सम्बन्धी जो थोड़ी बहुत घटनाएँ ज्ञात हो सकीं; उसके आधार परसे, उनके पाससे मार्थिक सहायता प्रास करनेवाली संस्थानोंके नाम आदि इस प्रकार जान सका हूँ।
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६१४
हिंदू एकेडेमी, दोलतपुर ( बंगाल ). रु० १५०००)
तरकी-उर्दू बंगाळा. ५०००)
हिंदी - साहित्य परिषद् भवन ( इलाहाबाद ) ११५००) विशुद्धानंद सरस्वती मारवाडी हॉस्पीटल, कलकता 10000 एक मेटर्निटी होम फलका २५००
सिंधी जैन प्रथमा छा ।
बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी २५०० जीवा हाइस्कू. ५००० जीमागअ लण्डन मिशन हॉस्पीटल. १०००) कलकत्ता- मुर्शिदाबाद जैन मन्दिर. ११०००) जैनधर्मप्रचारक सभा, मानभूम . ५०००)
जैन भवन, कलकत्ता. १५०००)
जैन पुस्तक प्रचारक मण्डल, आगरा. ७५००) जैन मंदिर, भागरा. ३५००)
जैन हाइस्कूल, अंबाला. २१०००)
जैन प्राकृतकोषके लिये.
१५००) भारतीय विद्याभवन, बंबई. १०००० )
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इसके अतिरिक्त हजार-हजार, पाँच पाँचसोकीसी छोटी मोटी रकमें तो उन्होंने सैंकडोंकी संख्यामें दी जिसका योग कोई डेढ दो लाखसे भी अधिक होगा ।
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साहित्य और शिक्षणकी प्रगति के लिये सिंघीजी जितमा उत्साह और उद्योग दिखाते थे, उतने ही ये सामाजिक प्रगति के लिये भी प्रमखशीख ये अनेक बार उन्होंने ऐसी सामाजिक सभाओं इत्यादिमें प्रमुख रूपसे भाग हे करके अपने इस विषयका मान्तरिक उत्साह और सहकारभाव प्रदर्शित किया था। सन् १९२६ में बंबई में होनेवाली जैन श्वेताम्बर कॉन्फरन्सके खास अधिवेशन के वे सभापति बने थे । उदयपुर राज्यमें भाये हुए केसरीयाजी तीर्थकी व्यवस्था विषयमें स्टेटके साथ जो प्रम उपस्थित हुमा था उसमें उन्होंने सबसे अधिक तन, मन और धनले सहयोग दिया था। इस प्रकार के जैन समाज विकी प्रवृतियोंमें पथायोग्य सम्पूर्ण सहयोग देते थे। परंतु इसके साथ वे सामाजिक मूढता और साम्प्रदायिक कट्टरताके पूर्ण विरोधी भी थे। धनवान और प्रतिष्ठित गिने जाने वाले दूसरे भित मेनोंकी तरह के संकीर्ण मनोवृति या अन्धश्रद्धा की पोषक विकृत भक्तिसे सर्वधा परे रहते थे। भाचार, विचार एवं व्यवहारमें वे बहुत ही उदार और विवेकशील थे।
उनका गाईस्थ्य जीवन भी बहुत सादा और साविक था। बंगालके जिस प्रकारके नवाबी गिने जाने वाले वातावरण में वे पैदा और बड़े हुए थे उस वातावरणकी उनके जीवन पर कुछ भी बराब असर नहीं हुई थी और वे गभग उस वातावरणसे बिलकुल अलिप्स जैसे थे। इतने बड़े श्रीमान् होने पर भी, श्रीमंताइके - धनिकता के बुरे विलास या मिथ्या आडम्बर से वे सदैव दूर रहते थे । दुर्व्यय और दुर्व्यसनके प्रति उनका भारी तिरस्कार था। उनके समान स्थितिवाले धनवान जब अपने मोज-शीक, आनंद-प्रमोद, विलास-प्रवास समारम्भ महोत्सव इत्यादिमें लाखों रुपये उड़ाते थे तब संधीजी उनसे बिलकुल भिमुख रहते थे। उनका शौक केवल अच्छे वाचन और कलामय वस्तुभोंके देखनेका तथा संग्रह करनेका था। जब देखो तब वे अपनी गादी पर बैठे बैठे साहित्य, इतिहास, स्थापत्य, चित्र, विज्ञान, भूगोल और भूगर्भविद्याले सम्बन्ध रखने वाले सामयिकों या पुस्तकों को पहले ही दिखाई दिया करते थे । अपने ऐसे विशिष्ट वाचनके शौकके कारण वे अंग्रेजी, बंगाली, हिंदी, गुजराती आदिमें प्रकाशित होने वाले उच्च कोटिके, उक्त विषोंसे सम्बन्ध रखनेवाले विविध प्रकारके सामयिक पत्रों और जर्नोंको नियमित रूपसे मंगाते रहते थे। ऑर्ट, मार्किभॉलॉजी, एपीप्राफी, ज्योग्रॉफी, आइकॉनोग्रॉफी, हिन्दी और माइनिङ्ग आदि विषयोंकी पुस्तकोंकी उन्होंने अपने पास एक अच्छी लाइब्रेरी ही बना ली थी ।
दे स्वभावसे एकान्तप्रिय और अपभाषी थे। व्यर्थकी बातें करने की ओर या गर्दै मारनेकी मोर उनका बहुत ही अभाव रहता था। अपने व्यावसायिक व्यवहारकी या विशाल कारमारकी मानें भी दे
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बाबू बहादुरसिंहजी-स्मरणांजलि ।
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बहुत ही मितभाषी थे। परंतु जब उनके प्रिय विषयोंकी-जैसे कि स्थापत्य, इतिहास, चित्र माविकीचर्चा चलती तब उसमें वे इतने निमन हो जाते थे कि कितने ही घण्टे व्यतीत हो जाने पर भी उससे थकते नहीं थे और न किसी तरहकी व्याकुलताका अनुभव करते थे।
उनकी बुद्धि अत्यंत तीक्ष्ण थी। किसी भी वस्तुको समझने या उसका मर्म पकड़ने में उनको थोड़ा सा भी समय नहीं लगता था। विज्ञान और तत्वज्ञानकी गंभीर बातें भी वे अच्छी तरह समझ सकते थे और उनका मनन करके उन्हें पता लेने थे। तर्क और दलीलबाजी में ये बड़े बड़े कायदाबाजोंसे भी बावी मार लेते थे तथा चाहे जैसा चालाक भी उन्हें अपनी चालाकीसे चकित या मुग्ध नहीं बना सकता था।
अपने सिद्धान्त या विचारमें वे बहुत ही दमनस्क थे। एक बार कोई विचार निश्चित कर लेनेके बाद और किसी कार्यका स्वीकार कर लेनेके बाद उसमेंसे चक-विषक होना ये बिलकुल पसंद नहीं करते थे।
व्यवहारमें भी वे बहुत ही प्रामाणिक वृत्तिवाले थे। दूसरे धनश्मनोंकी तरह व्यापारमें डल-प्रपंच, धोखाधड़ी या सच-झूठ करके धन प्राप्त करनेकी तृष्णा उनको यत्किंचित् भी नहीं होती थी। उनकी ऐसी व्यावहारिक प्रामाणिकताको लक्ष्य में रख करके इंग्लेण्डकी मर्केन्टाइल बेके गयरेक्टरोंकी बोर्डने अपनी कलकत्ताकी शाखाके बोर्ड में, एक डायरेक्टर होनेके लिये उनसे खास प्रार्थना की थी। इसके पहले किसी भी हिंदुस्तानी व्यापारीको यह मान प्राप्त नहीं हुभा था।
प्रतिभा और प्रामाणिकताके साथ उनमें योजनाशक्ति भी बहुत उच्च प्रकारकी थी। उन्होंने अपनी ही खतंत्र बुद्धि और कुशलता द्वारा एक मोर अपनी बहुत बड़ी जमींदारीकी और दूसरी भोर कोलियारी मादि माइनिजके उद्योगकी, जो सुव्यवस्था और सुघटना की थी, उसे देख करके उस-उस विषयके हावा छोग चकित हो जाते थे। अपने घरके छोटे से छोटे कामसे शुरु करके ठेठ कोलियारी जैसे बड़े कारखाने तकमें-जहाँ कि हजारों मनुष्य काम करते रहते हैं-बहुत ही नियमित, सुव्यवस्थित और सुबोजित रीतिसे काम चला करे, वैसी उनकी सदा व्यवस्था रहती थी। दरबानसे लगाकर अपने समवयस्क जैसे पुत्रों तकमें, एक समान, उस प्रकारका शिस्त-पालन और शिष्ट-भाचरण उनके यहाँ दृष्टिगोचर होता था।
सिंधीजी में ऐसी समर्थ योजकशक्ति होने पर भी, और उनके पास सम्पूर्ण प्रकारकी साधन-सम्पसन होने पर भी, प्रपंचमय जीवनसे दूर रहते थे और अपने मामकी प्रसिरिके लिये पा लोगों में बने भादमी शिनामे लिये बैसी कोई प्रत्ति नहीं करते थे। रायबहादुर, राजाबहादुर या सर-नाइट लादि सरकारी उपाधियोंको धारण करनेकी पाकोंसिलोंमें जा करके भामरेवक बननेकी उनकी कमी इन नहीं हुई थी। ऐसी भाउम्परपूर्ण प्रवृत्तियोंमें पैसेका दुर्व्यय करनेकी अपेक्षा वे सदा साहित्योपयोगी और शिक्षणोपयोगी कार्यों में अपने धमका सवयय किया करते थे। भारतवर्षकी प्राचीन कला और उससे संबंध रखनेवाली प्राचीन वस्तुभोंकी मोर उनका उस्कट मनुराग था और इसलिये उसके पीछे उन्होंने लाखों रुपये खर्च किये थे।
ARTHATANE
मनुरूप,
भार सोखास
स्वीक
सिंधीजी के साथ मेरा प्रत्यक्ष परिचय सन् १९३० में प्रारम्भ हुआ। उनकी इच्छा अपने सद्गत पुण्वलोक पिताके स्मारकमें, जिससे जैन साहित्यका प्रसार और प्रकाश हो वैसी, कोई विशिष्ट संस्था स्थापित करनेकी थी। मेरे जीवनके सुदीर्घकालीन सहकारी, सहचारी और सम्मिन पंडितप्रवर श्रीसुखलालजी, बाबू श्री बालचंदजीके विशेष श्रद्धाभाजन थे, अतएव श्री बहादुर सिंहजी भी इन पर उतबाही विशिष्ट सदभाव रखते थे। पंडितजीके परामर्श और प्रस्तावसे, उन्होंने मुझसे इस कार्यकी योजना और व्यवस्था हाथमें लेने के लिये प्रार्थना की और मैंने भी अपनी सभीटतम प्रवृत्तिके भावोंके अनुरूप, उत्तम कोटिके साधनकी प्राप्ति होती देख कर, उसका सहर्ष और सोल्लास स्वीकार किया।
सन् १९३१ के पहले दिन, विश्ववंच कवीन्द्र श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुरके विभूतिविहारसमान विचाविण्यात शान्तिनिकेतनके विश्व भारती विधा भवन में 'सिंघी जैन ज्ञानपीठ' की स्थापना की और वहाँ जैन साहित्य के अध्ययन-अध्यापन और संशोधन-संपादन आदिका कार्य प्रारम्भ किया । इस प्रसंगले सम्बन्धित कुछ प्राथमिक वर्णन, इस प्रन्थमालामें सबसे प्रथम प्रकाशित 'प्रबन्ध चिंतामणि' नामक प्रन्धकी प्रस्तावनामें दिया गया है। इसलिये उसकी यहां पुनरुक्ति करना अनावश्यक है।
सिंधीजीने मेरी प्रेरणासे 'सिंघी जैन ज्ञानपीठ' की स्थापनाके साथ, जैन-साहित्यके उत्तमोत्तम प्रन्य. रखोंको भाधुनिक शास्त्रीय पद्धतिपूर्वक, योग्य विद्वानों द्वारा सुन्दर रीतिसे, संशोधित-संपादित करवाके प्रकाशित करनेके लिये और वैसा करके जैन साहित्यकी सार्वजनिक प्रतिष्ठा स्थापित करनेके लिये इस 'सिंधी
विश्ववंच कवी
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सिंघी जैन प्रन्थमाला।
जैन प्रन्यमाला' की विशिष्ट योजनाका भी सहर्ष स्वीकार किया और इसके लिये आवश्यक और अपेक्षित अर्थव्यय करनेका उदार उत्साह प्रदर्शित किया।
प्रारम्भमें शान्तिनिकेतनको लक्ष्य में रख कर, एक वर्षका कार्यक्रम बनाया गया और तदनुसार वहाँ काम प्रारम्भ किया गया । परन्तु इन तीन वर्षोंके अनुभवके अन्त में, शान्तिनिकेतनका स्थान मुझे अपने कार्य और स्वास्थ्यकी दृष्टिसे बराबर अनुकूल प्रतीत नहीं हुमा । अतएव अनिच्छापूर्वक मुझे वह स्थान छोड़ना पड़ा और अहमदाबादमें गुजरात विद्यापीठ'के ससिकट बने कान्त विहार' बना करके वहाँ इस कार्यकी प्रवृत्ति चालू रखी। इस प्रथमालामें प्रकाशित अन्योंकी सर्वत्र उत्तम प्रशंसा, प्रसिदि और प्रतिष्ठा देखकर सिंधीजीका उत्साह खूब बढ़ा और उन्होंने इस सम्बन्ध में जितना खर्च हो उतना खर्च करनेकी, और जैसे बने वैसे अधिक संख्यामें प्रन्थ प्रकाशित होते हुए देखनेकी अपनी उदार मनोवृत्ति मेरे सामने वारंवार प्रकट की। मैं भी उनके ऐसे अपूर्व उत्साहसे प्रेरित हो कर यथाशक्ति इस कार्यको, अधिक से अधिक वेग देनेके लिये प्रयतवान् रहा। .
सन् १९५० के जुलाई मासमें, मेरे परम सुहृद् श्रीयुत कन्हैयालाल माणेकलाल मुंशीका-जो उस समयबईकी काँग्रेस गवर्नमेण्टके गृहमंत्रीके उस पद पर अधिष्ठित थे-अकस्मात् एक पत्र मुझे मिका, जिसमें इन्होंने सूचित किया था कि 'सेठ मुंगालाल गोएनकाने दो लाख रुपयोंकी एक उदार रकम मुझे सुप्रवकी है, जिसका उपयोग भारतीय विद्याओंके किसी विकासात्मक कार्यके लिये करना है और उसके लिये विचार-विनिमय करने तथा सदुपयोगी योजना बनानेके सम्बन्धमें मेरी आवश्यकता है अतएष मुझे तुरत बंबई मामा इष्ट है' - इत्यादि । तदनुसार मैं तुरत बंबई माया और हम दोनोंने साथमें बैठ करके इस योजनाकी रूपरेखा तैयार की और उसके अनुसार संवत् १९९५ की कार्तिक शुक्ल पूर्णिमाके दिन, श्री मुंशीजीके निवासस्वामपर भारतीय विद्याभवन' की, एक वृहत् समारम्भके साथ, स्थापना की गई। । भवनके विकासके लिये श्रीमुंशीजीका अथक उद्योग, अखण्ड उत्साह और उदार भास्मभोग देख कर मेरी भी इनके कार्यमें यथायोग्य सहकार अर्पित करनेकी पूर्ण उत्कण्ठा हुई और मैं इसकी आन्तरिक व्यवस्थामें प्रमुख रूपसे भाग लेने लगा। भवनकी विविध प्रवृत्तियों में साहित्य प्रकाशन सम्बन्धी जो एक विशिष्मति स्वीकृत की गई थी, वह मेरे इस अन्धमाकाके कार्यके साथ, एक प्रकारसे परस्पर साहापाखरूपकी ही प्रवृत्ति थी। भतएव मुझे यह प्रवृत्ति मेरे पूर्व अंगीकृत कार्य में बाधक न होकर उलटी साधक ही प्रतीताई और इसलिये मैंने इसमें यथाशक्किमपनी विशिष्ट सेवा देनेका निर्णय किया। सिंधीजीको जब इस सारी वस्तुस्थिति से परिचित किया गया, तब वे भी भवनके कार्य में रस लेने लगे और इसके संस्थापक सदस्य बन करके इसके कार्यके प्रति उन्होंने अपनी पूर्ण सहानुभूति प्रकट की।
जैसे मैंने ऊपर बतलाया है वैसे, अन्धमाकाके विकासके लिये सिंधीजीका उत्साह अत्यन्त प्रशंसनीय था और इसलिये मैं भी मेरे स्वास्थ्य मादिकी किसी प्रकारकी परवाह किये विना, इस कार्यकी प्रगतिके किये सतत प्रयत करता रहता था । परन्तु ग्रन्थमालाकी व्यवस्थाका सर्व प्रकारका भार मेरे अकेलेके सिर परमाधित था, भतएव मेरा शरीर जब यह व्यवस्था करता करता रुक जाय, तब इसकी स्थिति क्या होगी इसका विचार भी मैं वारंवार किये करता था। दूसरी ओर सिंधीजीकी भी उत्सरावस्था होनेसे वे वारंवार मस्वस्थ होने लगे थे और वे भी जीवनकी अस्थिरताका माभास अनुभव करने लगे थे। इसलिये मन्थ. मालाके मावीके विषयमें कोई स्थिर और सुनिश्चित योजना बना लेनेकी कल्पना हम बराबर करते रहते थे।
भा०वि० भवनकी स्थापना होनेके बाद ३-४ वर्षमें ही इसके कार्यकी विद्वानों में अच्छी तरह प्रसिदि और प्रतिष्ठा जमने लगी थी और विविध विषयक अध्ययन-अध्यापन और साहित्यिक संशोधन-संपादनका कार्य अच्छी तरहसे आगे बढ़ने लगा था। यह देख कर सुहद्वर मुंशीजीकी खास भाकांक्षा हुई कि 'सिंघी जैन अन्यमाला की कार्यव्यवस्थाका सम्बन्ध भी यदि भवनके साथ जोड़ दिया जाय, तो उससे परस्पर दोनोंके कार्यमें सुंदर अभिवृद्धि होनेके अतिरिक्त ग्रन्थमालाको स्थायी स्थान प्राप्त होगा और भवनको भी विशिष्ट प्रतिष्ठाकी प्राप्ति होगी, और इस प्रकार भवनमें जैन-शास्त्रोंके अध्ययनका और जैन-साहित्यके प्रकाशनका एक अद्वितीय केन्द्र बन जायगा । श्रीमुंशीजीकी यह शुभाकांक्षा, ग्रन्थमाला सम्बन्धी मेरी भावी चिंताका योग्य रूपसे निवारण करनेवाली प्रतीत हो और इसलिये मैं उस विषयकी योजनाका विचार करने लगा। यथावसर सिंघीजीको मैंने श्रीमुंशीजीकी भाकांक्षा और मेरी योजना सूचित की। वे भा० वि० भ० के स्थापक-सदस्य तो थे ही और तदुपरान्त श्रीमुंशीजीके खास बेहास्पद मित्र भी थे। इसलिये उनको भी यह योजना अपना लेने योग्य प्रतीत हुई। पंडितप्रवर श्री सुखलालजी जो इस ग्रन्थमालाके
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बाबू भी बहादुर सिंहजी-मरणांजलि । भारम्भसे ही वसहितविक और सक्रिय सहायक है. उनके साथ मीस पोजमाके सम्बन्धमें मैने उपित परामर्श किया और संवत् २०.के वैशाख शुक(मई सन् १९५३) में सिंधीजी कार्यप्रसासेबई भाचे तब, परस्पर मिर्णात विचार-विनिमय करके, इस प्रथमाकाकी प्रकाशनसम्बम्धिनी सर्व व्यवस्था भवनके अधीन की गई। सिंधीजीने इसके अतिरिक्त उस अवसर पर, मेरी प्रेरणासे भवनको दूसरे और हजार रुपयोंकी उदार रकम मी, बी, जिसके द्वारा भवनमें उनके नामका एक 'हॉट' बांधा जाप.और उसमें प्राचीन वस्तुओं तथा चित्र भाविका संग्रह रखा जाय।
भवनकी प्रबंधक समितिने सिंधीजीके इस विधि और उदार दानके प्रतिघोषरूपमें भवन में प्रचलित जैनशान-शिक्षणविभागको स्थायी रूपसे 'सिंघी जैनशास्त्र शिक्षापीठ' के नामसे प्रचलित रखनेका सविशेष निर्णय किया।
प्रन्धमाकाके जनक और परिपालक सिंधीजी, प्रारम्भसे ही इसकी सर्व प्रकारकी व्यवस्थाका भार मेरे अपर छोडकर, वे तो केवल सास इतनी ही माकांक्षा रखते थे कि ग्रन्थमालामें किस तरह अधिकाधिक प्रस्थ प्रकाशित हों और कैसे उनका अधिक प्रसार हो। इस सम्बन्धमें जितना खर्च हो उतना वे बहुत ही उत्साहसे करनेके लिये उत्सुक थे। भवनको प्रन्थमाला समर्पण करते समय उन्होंने मुझसे कहा कि"अबतकतो वर्ष में लगभग २-३ही प्रग्य प्रकट होते रहे हैं परन्तु यदि भाप प्रकाशित कर सकें तो प्रतिमास दो दो प्रन्थ प्रकाशित होते देख कर भी मैं तो मतप्त ही रहूँगा। जब तक आपका और मेरा जीवन हैव तक, जितना साहिब प्रकट करने-करानेकी आपकी इच्छा हो तदनुसार आप व्यवस्था करें। मेरी मोरसे आपको पैसेका थोडासा मी संकोच प्रतीत नहीं होगा।" जैन साहित्यके उद्धारके किये ऐसी उका बाकांक्षा और ऐसी उदार वित्तत्ति रखने वाला दानी और विनम्न पुरुष, मैंने मेरे जीवन में दूसरा
और कोई नहीं देखा। अपनी उपस्थिति में ही उन्होंने मेरे द्वारा ग्रन्थमालाके खाते लगभग ७५००० (पोनेडा) रुपये खर्च किये होंगे । परन्तु उन १५ वर्षोंके बीच में एक बार भी उन्होंने मुझसे यह मही पूण कि कितनी रकम किस प्रम्बके लिये खर्च की गई है या किस प्रन्धके सम्पादनके लिये किसको स्वादिला.गया है.जब जब मैं प्रेस इत्यादिके बिक उनके पास भेजता तब तब, वे वो केवल उनको देख बरीमॉफिसमें बह रकम पुकानेकी रिमार्कके साथ भेज देते। मैं उनसे कभी किसी पिसके बारेमें बातचीत करना चाहता, वो भी वे उस विषय में उत्साह नहीं बताते और इसके बजाय अन्धमाकाकी साइन, बाईप, प्रिंटींग, बाइंडींग, हेजिमादिके बारेमें ये खूब सूक्ष्मतापूर्वक विचार करते रहते और उस सम्बन्ध विचारसे चर्चा किया करते । उनकी ऐसी अपूर्व ज्ञाननिष्ठा और शानभकिने .ही मुझे उनके बेवासमें पर किया और इसलिये मैं वाकिंचित् इस प्रकारकी ज्ञानोपासना करनेमें समर्थ हुआ।
प्रकारसे भवनको अन्यमाला समर्पित करनेके बाद, सिंधीजीकी रूपर बताई हुई उत्कट भाकांक्षा पप बानेले, मेरा प्रस्तुत कार्यके लिये और भी अधिक उत्साह बढा। मेरी शारिरिक विति, इस बाक बहिरवं ममसे प्रतिदिन बहसमाधिक वीवताके साथ क्षीण होती राती है, फिर भी मैंने इस मोमधिक वेगवान् और अधिक विस्तृत बनानेकी रहिसे कुछ योजनाएँ बनानी शुरु की। अनेक मेटे प्रत्य एकसाथ प्रेसमें छपने के लिये दिये गये और दूसरे वैसे अनेक नवीन नवीन ग्रन्थ छपानेके विवेचार लाने लगे। जितने अन्य अब तक कुल प्रकट हुए थे उतने ही दूसरे अन्य एक साथ प्रेसमें पनेपए और उनसे भी पूनी संकपाके प्रन्य प्रेस कॉपीमादिके रूपमें तैयार होने लगे।
इसके बाद पोदेही समयके पीछे-अर्थात् सेप्टेम्बर १९४५ में-भवनके लिये कलकत्ताके एक निपल प्रोसारकी बड़ी कामेरी खरीदने के लिये मैं वहाँ गया। सिंधीजीके द्वारा ही इस प्रोफेसरके साथ बात. पील की गई थी और मेरी प्रेरणासे यह सारी बाईनेरी, जिसकी किंमत ५० हजार रुपये जिवनी मांगी मईबी, सिंधीजीने अपनी मोरसे ही भवनको मेट करनेकी. अतिमहनीय मनोवृत्ति प्रदर्शित की थी। परन्तु उस प्रोफेसरके साथ इसकाईबेरीके सम्बन्ध में योग्य सोदा नहीं हो सका वसिंधीजीने कलकत्ताके शुमतिरखर्गवासी जैन सद्गृहख बाबू पूर्णचन्द्रजी माहरकी बदी काईमेरी ले लेनेके विषय में मुझे अपनी मार दी और इस सम्बन्ध में खयंही योग्य प्रकारसे उसकी व्यवस्था करनेका भार अपने सिर पर लिया।
कत्ता और सारे बंगाल में इस वर्ष भाम-दुर्भिक्षका भयंकर कराड-काल चल रहा था। सिंधीजीने अपने पवनजीमगंज-मुर्शिदाबादवा सरे अनेक स्कों में गरीबोंको मुफ्त और मध्यविचको स्प मराजारों मनचाबविवीर्ण करनेकीदार और नदी यवल्या की थी, जिसके निमित्त उन्होंने उसपर्षों
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सिंधी जे न मम्भमा का ।
भय तीन साडेतीन लाख रुपये खर्च का
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ये बंगाल निवासियों और जमींदारो इतना बड़ा उदार आर्थिक भोग उस निमित्तसे अन्य किसीने दिया हो वैसा प्रकाशमें नहीं आया ।
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अक्टूबर-नवम्बर मासमें उनकी तबियत बिगड़ी हुई और वह भीरे धीरे अधिकाधिक शिविक होती गई । जनवरी, १९४४ के प्रारम्भ में, मैं उनसे मिलनेके लिये फिर कलकत्ता गया । सा. ६ जनवरीकी संध्याको उनके साथ बैठ कर ३ घण्टे पर्यंत ग्रन्थमाला, साईमेरी, जैन इतिहासा सन आदिके सम्बन्धमें खून उत्साहपूर्वक बातचीत हुई। परन्तु उनको मानों अपने जीवनी ढाका मामास हो रहा हो उस प्रकार के बीच बीच में ऐसे उद्गार भी निकालते जाते थे। ५-७ दिन रह करके मैं बंबई आनेके लिये निकला तब वे बहुत ही भावप्रवणतापूर्वक मुझे विदाई देते समय बोले कि "कौन जाने अब फिर अपने मिलेंगे या नहीं ?" मैं उनके इन दुःखद वाक्योंको बहुत ही दबे हुए हृदयसे सुमन और उद्देग धारण करता हुआ उनसे सड़ाके किये अलग हुआ। उसके बाद उनका साक्षात्कार होनेका प्रस ही नहीं माया ५-६ महीने तक उनकी तबियत अच्छी-बुरी चकती रही और अंत काकी (सन् १९४४) ७ वीं तारीखको वे अपना विनश्वर शरीर छोड़ कर परलोक में चले गये। मेरी साहित्योपासनाका महान् सहायक, मेरी क्षुत्र सेवाका महान् पोषक और मेरी कर्तव्य निष्ठाका महान् प्रेरक सहदय पुरुष इस असार संसार में मुझे हृदय बना करके स्वयं महाशून्य में विलीन हो गया।
यद्यपि संधीजीका इस प्रकार नाशवान् स्थूल शरीर इस संसारमेंसे विलुप्त हो गया है परन्तु उनके द्वारा स्थापित इस ग्रन्थमालाके द्वारा उनका यशःशरीर, बैंकड़ों वर्षों तक इस संसार में विद्यमान रह करके उनकी कीर्ति और स्मृतिकी प्रशक्षिका प्रभावदर्शक परिचय भावी जनताको सतत देता रहेगा । सिपीजी के सुपुत्रका सत्कार्य
सिंगजी वर्गवास जैन साहित्य और जैन संस्कृतिके महार पोषक मररक्षकी जो बड़ी कमी
हुई है उसकी तो सहज भावसे पूर्ति नहीं हो सकती है परन्तु मुझे यह देख कर हृदयमें ऊँची भासा और बाबासक आहार होता है कि उनके सुपुत्र श्री राजेन्द्र सिंहजी, श्री नरेन्द्र सिंहजी और भी वीरेन्द्र सिंहजी अपने पिता सुयोग्य संवान है। अतएव ने अपने पिताकी प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि के कार्य अनुरुप भाग ले रहे हैं और पिताकी भावना और प्रवृत्तिका उदारभावसे पोषण कर रहे हैं।
सिंपीजी स्वर्गवासके बाद इन बंधुओंने अपने पिताके दान-पुण्यनिमित्त अजीमगंज इमादि स्थानोंमें कगभग ५०-६० हजार रुपये खर्च किये थे। उसके बाद थोड़े ही समयमें सिंघीजीकी वृद्धमाताका भी वर्गवास हो गया और इसलिये अपनी इस परम पूजनीया दादीमाके पुण्यनिमित्त भी इन बन्धुमने ७०-७५ हजार रुपयोंका व्यय किया । 'सिंधी जैन ग्रन्थमाला' का पूरा भार तो इन सिंधी बन्धुमने पिताजीद्वारा निर्धारित विचारानुसार, पूर्ण उत्साहसे अपने सिर के ही लिया है और इसके अतिरिक ताके इण्डियन रीसर्च इन्स्टीट्यूटको बंगाली में जैन साहिल प्रकाशित करवाने की दृहिले जी कारकरूपमें ५००० रुपयोंकी प्रारम्भिक मदद दी ।
सिपीजीके ज्येड चिरंजीव बाबू श्री राजेन्द्र सिंहजीने मेरी कामना और प्रेरणाके प्रेमसे वशीभूत होकर अपने पुण्यश्लोक पिताकी बात इच्छाको पूर्ण करनेके लिए, ५० हजार रुपयोंकी गृहणीय रकम भारतीय विद्याभवनको दान स्वरूप दी और उसके द्वारा कलकत्ताकी उक्त बाहर छाइमेरी खरीद करके भवनको एक अमूल्य साहसिक निधिके रूपमें मेट की है। भवनकी यह अन्य निधि 'बाबू भी बाहादुर सिंहजी सिंधी लाईमेरी' के नाम सदा प्रसिद्ध रहेगी और सिंपीजीके पुण्यकारण की एक बड़ी ज्ञानमया बनेगी। बाबू भी नरेन्द्र सिंहजीने, अपने पिताने बंगालकी सराक जातिके सामाजिक एवं धार्मिक उत्थानकेन जो प्रवृत्ति चालू की थी, उसको अपना लिया है और उसके संचालनका भार प्रमुख रूप से स्वयं से लिया गत (सन् १९४४) नवंबर मासमें कलकत्तामें दिगम्बर समाजकी ओरसे किये गये 'वीरशासन महोत्सव' के प्रसन पर उस कार्यके लिये इन्होंने ५००० रुपये दिये थे तथा क बेवाम्बर समुदायकी भोरसे बांधे जाने वाले "जैन भवन" के लिये ३१००० रुपये दान करके अपनी उदारताकी शुभ भाव की है। भविष्य में 'संधी जैन ग्रन्थमाला' का सर्व आर्थिक भार इन दोनों बन्धुओंने उत्साहपूर्वक स्वीकार कर लेनेकी अपनी प्रशंसनीय मनोभावना प्रकट करके, अपने स्वर्गीय मिठाके इस परम पुनीत यशोमंदिरको उत्तरोत्तर उन्नत स्वरूप देनेका शुभ संकल्प किया है। वास्तु मा०वि० [अ० ई ई.स.१९८
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- जिन विजय सुनि
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कुछ प्रास्ताविक विचार ।
[ सिद्धसेन दिवाकरके ग्रन्थोंके प्रकाशनकी कुछ कथा ]
मे
स्वर्गवासी आद्य गुरु, पतिमवर श्री देवीसभी जिन्होंने मुझे सबसे पहले 'ॐ नमः सिद्धम्' का मंत्र सुनाया और 'अ आ इ ई' इत्यादि स्वरूप प्रथम मातृकापाठ पढाकर मेरे ज्ञानरूपी नेत्रोंका उन्मीलन किया उन्होंने मुझे पीछेसे 'भक्तामर' और 'कल्याणमन्दिर' नामक प्रसिद्ध दो जैन लोगों को भी कण्ठस्थ कराया। मेरी अवस्था उस समय प्रायः १०-१२ वर्षके बीच की थी। वि. सं. १९५४-५५ का वह समय था। आज उस कालको व्यतीत हुए प्रायः पूरे ५० वर्ष होने आये है बहुत सह तो नहीं लेकिन कुछ कुछ कारण अवश्य है कि गुरुजीने 'कल्याणमन्दिर' खोत्र सिखाते हुए इसके कर्ता- जो वेतांबर संमदायकी मान्यताके अनुसार सिद्धसेन दिवाकर कहे जाते हैं के बारेमें भी प्रसंगानुसार कुछ बातें सुनाई थीं उन वृद्ध यतिजनोंमें यह एक प्रवासी चली आती थी कि वे अपने मूतन शिष्योंको अपने पूर्वाचार्यकव्योतिष, वैद्यक और मंत्र-तंत्रादि प्रयुक्त चमत्कारोंका और प्रभावका माहात्म्यवर्णन सुनाया करते थे और उसके द्वारा अपने शिष्यों के मनमें उन उन विद्याओंके पढनेमें उत्कंठा और उत्साह उत्पन्न करते रहते थे।
१ सिद्धसेन दिवाकर उस विक्रम राजाके गुरु थे जिसने उज्जयिनी में खापरिये चोरको ५२ वीरोंको, १४ योगिनियों आदिको वश किया था। सिद्धसेन सूरिने इस 'कल्याण मन्दिर' खोत्रके पाउसे उज्जयिनी के महाकालेश्वर के लिंगको फोड कर उसमेंसे पार्श्वनाथ भगवानकी मूर्ति प्रकट की थी । इत्यादि प्रकारकी चमत्कारिक कथाएं यथावसर गुरुजी सुनाया करते थे। उस अबोधावस्थायें कान में पढे हुए उन बातोंके कुछ अस्पष्ट संस्कार, मुझे जब जैन इतिहासके पढनेकी तरफ अधिक दषि उत्पन्न हुई, तब फिर शनैः बने जागृत होने लगे।
२ पतिजीके स्वर्गवासवाद (जिनकी चरणोपासना करनेका दुर्भाग्य से मुझे सिर्फ प्रायः ३-३ ॥ वर्ष जितना ही समय मिला था ) मैं इधर उधर भटकता हुआ, स्थानकवासी संप्रदाय में दीक्षित हो कर बालसाधु बन गया । उस साधके साथ भ्रमण करते हुए सं. १९६०-६१ में मेरा उज्जयिनी जाना हुआ। वहां पर खापरिया चोरकी गुफा ६४ योगिनियोंका संभा, महाकालेश्वरका मन्दिर आदि इतिहासप्रसिद्ध स्थानोंके देखनेके निमित्त जानेका कभी कभी अवसर मिल जाता था। इससे विक्रम राजा और उनके गुरु सिद्धसेन दिवाकरकी जो कथाएं गुरुमीके मुखसे सुनी थीं उनकी कुछ कुछ स्मृति होने लगी। लेकिन उन स्थानकवासी संप्रदाय के साधुओंका इतिहासविषयक पत् किंचिद भी ज्ञान न होनेसे मेरी उस संस्कारस्मृतिके उद्बोधित होनेका कोई साधन नहीं मिला। एक दिन हम २-३ साधु मिल कर महाकालका मन्दिर देखने को चले गये। मन्दिरके द्वारपर बैठे हुए ब्राह्मण पंडे, हम जैन साधुओं को और उनमें भी फिर मुंदर मुखपट्टी बांधे हुए और मैले कुचेले वस्त्र धारण किये हुए स्थानकवासी साधुओंको - देख कर खूब हंसने लगे और तीन कटाक्ष करने लगे। कहने लगे 'क्या इंडिये महाराज ! ( माखवामें स्थानकवासी जैन साधुओंको लोक 'इंडियों के नामसे संबोधते हैं) महाकालेश्वरका दर्शन करनेको आये हो ?' हमने कहा- 'भाई, हम तो यों ही फिरते फिरते मन्दिर देखने चले आये हैं।' तब पंडाने कहा-'तुम लोग मन्दिरके अन्दर तो इस तरह नहीं जा सकते। यहीं बहारसे खडे खडे देखना हो तो देख लो । यदि मन्दिरके अन्दर जाना हो तो 'सिमाजी' (जो वहांकी प्रसिद्ध नदी है ) में जा कर खान करो, इन मैले कुचेले कपडोंको साबू, लगा कर धोडाको, मुंहपर जो पट्टी बांध रखी है और बगलमें जो गन्दा झाडू (जैन साधुओंके रजोहरणको उन्होंने झाकी उपमा दी ) दबा रखा है, उसे यहां बहार रख दो और फिर बंभोलेका दर्शन करो' इत्यादि । कहनेकी आवश्यकता नहीं कि हम लोग वहांसे चुपकेले, मन-ही-मनमें उस ब्राह्मण पंडेको गालियां देते हुए, अपने स्थानकमें चले आये । साथके और साधुओंके मनमें क्या आया सं, परंतु मेरे अमर्षशील इनमें तो उस समय बड़ी तीन उसेजमा उत्पन्न हुई भी
होगा सो तो मैं जान नहीं
मुझे अपने
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कुछ प्रास्ताविक विचार।
गुरुजीकी सुनाई हुई, सिक्सेन दिवाकर द्वारा उसी महाकालेश्वरके लिंगके टुकडे टुकडे कर दिये जानेवाली, कथाका मरण हो आया । 'कल्याणमन्दिर' स्तोत्र तो मुझे उस समय भी कंठस्थ था ही । मेरे मनमें माया कि यदि मैं कुछ जरा बडी उनका होता और अपने गुरुजीके पाससे विधिपूर्वक कुछ मंत्र-तंत्र सीख पाता, और उसी कल्याणमन्दिर स्तोत्रके पाठ द्वारा, मैं भी आज यहां बैठ कर, इस दुष्ट वाक्षण पंडेके सामने ही, उसी तरह महाकालका लिंग स्फोटन कर, जैन मूर्ति प्रकट सकता, तो जैन साधुका कितना माहात्म्य बढा देता और इन जैनद्वेषी ब्राह्मणों को कैसा नीचा दिखा देता । महाकालके मन्दिरके देखनेकी उस उद्विग्न स्मृतिका चित्र मुझे वर्षोंतक सताता रहा, और सिद्धसेन दिवाकरकेसे मंत्रसामर्थ्यकी प्राप्तिकी मैं झंखना करता रहा।
३ मैंने अपने बाल मनोभावके अनुसार, उस संप्रदायमें जो बडे साधु थे उनसे महाकालके बारेमें कुछ जिज्ञासा की और अपने गुरुजीके पाससे जो सिद्धसेनकी कथा सुनी हुई थी उसके विषयमें कुछ विशेष जानना चाहा तो उन्होंने झट से उत्तर दे दिया कि 'अरे वे जतडे लोग यों ही गप्पें मारा करते हैं और मन्दिर और मूर्तिका पाखंड चलानेके लिये ऐसी कहानियां घडते रहते हैं !' साधुजी महाराजका यह कथन मुझे कुछ रुचा नहीं । क्यों कि मेरी श्रद्धा मेरे उन स्वर्गवासी गुरुजीके बहुविध ज्ञान और प्रभावशाली व्यक्तित्व पर जैसी जमी हुई थी वैसी इन साधु महाराज पर नहीं जमी थी। उसके बाद मैं मन-ही-मन अनेक कारणोंसे विक्षुब्ध होता रहा। खास करके जैन साहित्य और जैन इतिहासके अध्ययनकी अज्ञात उत्कंठा ज्यों-ज्यों मुझे विशेष सताने लगी त्यों-त्यों मैं उस संप्रदायसे विरक्त होने लगा, और परिणाममें कुछ वर्षों बाद (वि. स. १९६५ में) उसी उजैनमें रहते हुए, मैं एक दिन उस संप्रदायसे, पिंजडेमें पडे हुए पशु-पक्षिकी तरह, भाग निकला।
४इसके बीचमें, मुझे श्वेतांबर मूर्तिपूजक संप्रदायके सुप्रसिद्ध विद्वान् आचार्य श्रीआस्मारामजी महाराजके बनाए हुए 'सम्यक्त्वशल्योद्धार' तथा 'जैनतत्त्वादर्श' आदि ग्रन्थ पढनेको मिले जिससे मेरी श्रद्धा इस संप्रदायकी तरफ विशेष आकर्षित हुई। अतः स्थानकवासी संप्रदायकी दीक्षाका त्याग कर मैंने इस संप्रदायकी दीक्षा ली-या यों कहना चाहिये कि पहली दीक्षाका त्याग कर दूसरी दीक्षाके साथ पुनर्विवाह किया। इस दूसरी दीक्षाने, मुझे अपनी अध्ययनविषयक लालसाको, थोडे बहुत रूपमें सन्तुष्ट करनेका अवसर दिया । इससे अन्यान्य जैन पूर्वाचायाँके साथ सिद्धसेन दिवाकरके विषयमें भी मुझे कुछ ऐतिहासिक तथ्यके जाननेका सुयोग प्राप्त हुआ।
५मैं अपने थे 'कुछ प्रास्ताविक विचार' सिद्धसेन दिवाकरकी कृतिसे सम्बद्ध ऐसे एक अन्यके विशिष्ट संस्करणको उद्दिष्ट करके लिखने प्रस्तुत हुआ हूं, इसलिये सिद्धसेन दिवाकरका पुण्य नाम, अपने जीवनमें सबसे पहले मुझे कब श्रवणगोचर हुआ, इसकी स्मृति के निदर्शक उपर्युक्त सरण-संस्कारोंको, यहां पर आलेखित करनेकी ऊर्मिको मैं दबा नहीं सकता और इसलिये मुझे ये कुछ पंक्तियां लिखनी पड़ी।
६ उक्त प्रकारसे बालपनमें गुरुमुखसे सिद्धसेनका नामश्रवण करने बाद, आत्मारामजीके 'जैनतत्त्वादर्श' नामक पुस्तक में सबसे पहले सिद्धसेनका कथात्मक इतिहास मुझे पढनेको मिला। बाद में धीरे धीरे जिज्ञासा जैसे बढती गई और अध्ययनकी दृष्टि जैसे खुलती गई, वैसे वैसे इनके विषयकी प्राचीन साहित्यिक सामग्रीका अनुशीलन करमेकी प्रवृत्ति भी बढती रही। इसके परिणाममें प्रबन्धचिन्तामणि आदि ग्रन्थों तथा अन्यान्य वैसे प्रबन्धों आदिके अवलोकन द्वारा, जो कुछ मुझे ऐतिम तथ्य ज्ञात हुआ तथा सिद्धसेनकी कुछ कृतियोंके पठन-मननसे जो कुछ सार मेरी समझमें आया, उसके फलस्वरूप, जैन साहित्य और इतिहासके अन्वेषणात्मक लेखों, निबन्धों, विचारों आदिको प्रकाशमें लानेकी दृष्टिसे, सर्व प्रथम मेरे द्वारा संपादित और संचालित 'जैन साहित्यसंशोधक' नामक त्रैमासिक पत्रके प्रथम अंकमें, (सन् १९१९२० में) 'सिद्धसेन दिवाकर और स्वामी समन्तभद्र' इस नामका एक लेख लिख कर मैंने प्रकट किया।
७कोई ३० वर्ष पहले लिखे गये उस छोटेसे लेखमें, सिद्धसेनके विषयमें जो कुछ साररूपसे मैंने लिखा है उसमें कुछ विशेष संशोधन या परिवर्तन करने जैसा कोई खास विचार, अभी तक भी प्रकाशमें
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नहीं आया है। जैन साहित्यके इतिहासमें सिवसेनका क्या स्थान है तथा जैन न्यायके प्रतिष्ठित करने में उनका क्या कर्तृत्व है इस विषयमें मैने उक लेखमें जो कुछ विचार प्रदर्शित किये हैं, प्रायः वैसे ही अन्य विद्वानोंको भी अभी तक मान्य है, यह देख कर मुझे जो कुछ अल्प-स्वरूप आत्म-सन्तोषकी अनुभूति होती हो तो वह प्रान्त नहीं है ऐसा समझना अनुचित नहीं होगा।
८तभीसे मेरी यह इच्छा रही कि सिद्धसेन दिवाकरके सभी ग्रन्थ, सुयोग्य विद्वानों द्वारा संशोधित संपादित हो कर प्रकाश में आये तो उससे जैन साहित्यकी विशेष गौरववृद्धि होगी। सद्भाग्यसे, उसके बाद तुरन्त ही मैं, गुजरात विद्यापीठ (अहमदाबाद) की सेवामें संलग्न हो गया, जिसके अन्तर्गत मेरे तत्वाधानमें, महात्माजीने 'गुजरात पुरातत्व मन्दिर'की स्थापना की । उसमें भारतीय प्राचीन साहित्य, इतिहास, दर्शनशास्त्र आदि विषयोंके अध्ययन-अध्यापनके विशिष्ट कार्यके अतिरिक्त उसके द्वारा जैन, बौद्ध, बाह्मण आदि संप्रदायके विविध विषयोंके महत्वके ग्रन्थोंका संशोधन प्रकाशन आदि करनेका कार्यक्रम भी बनाया गया । मेरा साग्रह आमंत्रण प्राप्त कर, मुझसे ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं वय आदिमें वृद्ध ऐसे मेरे सुहृन्मित्र पण्डितप्रवर श्री सुखलालजी तथा जैनागमोंके मर्मज्ञ अभ्यासी पंडित श्री बेचरदासजी भी उस मन्दिरके, मेरे सहकारी, पूजारी बने । पण्डित सुखलालजीने, इसके पहले ही, आगरामें रहते हुए, सिद्धसेन दिवाकररचित महाप्रन्थ 'सम्मतितर्क'का संपादन करना प्रारंभ किया था । मैंने इस ग्रन्थको पुरातत्व मन्दिरसे प्रकाशित होनेवाली ग्रन्थावलिमें प्रकट करनेका विचार किया जो पण्डितजीको भी बहुत उपयुक्त लगा और फिर तदनुसार, पण्डित श्री बेचरदासजीके सहयोगमें, इन्होंने उसका विशिष्ट संशोधनकार्य प्रारंभ किया । कई वर्षोंके अथक परिश्रम और बहुत दम्यग्ययके पश्चात् , अभयदेवसूरिकी 'वादमहार्णव' नामक महती ग्यास्याके साथ, बडे बडे ५ भागोंमें, दिवाकरका यह 'सन्मति प्रकरण' नामक जैन दर्शनका महातग्रन्थ समास होकर प्रसिद्ध हुआ । इस ग्रन्थके संपादनकार्यकी महत्ता और विशिष्टताको देख कर, जर्मनीके प्रो० हर्मन् याकोबी जैसे महान् संस्कृतविद्यानिष्ठ विद्वान्ने लिखा था कि 'भारतीय दर्शनशास्त्रके इस प्रौढतम एवं अतिगहन ग्रन्थका, इस तरहसे सुसंपादन करनेवाला युरोपमें तो आज कोई पण्डित विद्यमान नहीं है। इत्यादि । मूल ग्रन्थका सटीक संपादन समास कर, फिर उसकी प्रस्तावनाके रूपमें, पंडितजीने गुजरातीमें एक और भाग तैयार किया, जिसमें सन्मति के मूलका सविवेचन गुजराती भनुवाद तथा ग्रन्थसे संबड ऐसी ऐतिहासिक एवं तास्विक चर्चाका ऊहापोह करनेवाली अनेक बातोंकी मीमांसा की है। इसमें सिरसेन दिवाकरके विषयमें प्रायः सभी ज्ञातव्य विचारोंका पण्डितजीने सप्रमाण यथेष्ट विवेचन किया है। प्रज्ञाचक्षु होते हुए भी पण्डितजीने इस अन्यके संपादनकार्यमें अपनी जिस सूक्ष्म विचाररष्टि और मानसिक अवगाहनशक्तिका अप्रतिम परिचय दिया है वह तज्ज्ञोंके लिये बडा आश्चर्योत्पादक है। केवल जैन शामोंकी ही रष्टिसे नहीं, अपितु भारतके सभी दार्शनिक शास्त्रोंके संपादन-संशोधनकी रष्टिसे पण्डितजीका यह संपादनकार्य एक भादर्शरूप होना चाहिये।
९ 'सन्मति के संपादनके बाद, पण्डितजीने दिवाकरजीके न्यायावतार' मूत्रका गुजराती भनुवाद और उसमें विवेचित पदार्थोंका सारगर्भित विवेचन लिखा, जो मेरे द्वारा संपादित उसी 'जैन साहित्य संशोधक'के तीसरे खण्डमें प्रकाशित हुआ है। इस निबन्धमें पण्डितजीने जैन न्यायशासके इस आय प्रन्यके विषय में अभ्यासियोंके जानने और मनन करने लायक सभी विषयोंका, संक्षित परंतु बहुत ही सरक एवं सारभूत शैलीमें, स्पष्टीकरण किया है।
१. इसके बाद, सिद्धसेन दिवाकरकी एक भतिगहन 'वेदवादद्वात्रिंशिका' नामक काव्यकृति पर पण्डितजीने बहुत परिशीलन करके गुजरातीमें विवरण लिखा, जो मेरे संपादित 'भारतीय विद्या' नामक त्रैमासिक पत्रिकाके 'बहादुरसिंहजीसिंधी स्मारक' रूप तृतीय खण्डमें प्रकाशित हुमा है।
इस द्वात्रिंशिकाके 'किंचित् प्रास्ताविक' में मैंने लिखा था कि-'यह द्वात्रिंशिका, सचमुच, समुचय संस्कृत साहित्य में, एक बहुत गूढ और गम्भीर अर्थपूर्ण रचना है। दार्शनिक और साहित्यिक विद्वानोंको इसका कुछ भी परिचय अद्यावधि प्राप्त नहीं हुआ है। इसका भाव भी समझना बहुत कठिन है। जैन और वेदवादके निगूड तत्वोंका जिसको परिपूर्ण परिचय नहीं है उसको प्रस्तुतहानिक्षिकाका मी
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समझ आ सके पैसा नहीं है। इसी कारणसे, मुझे लगता है कि आज तक किसी जैन विज्ञान, इस पर किसी प्रकारकी टीका-टिप्पणी आदि नहीं लिखी। बहुत समयसे मेरी इच्छा थी कि पण्डितजी इस द्वात्रिंशिका अर्थपर कुछ प्रकाश डालें । इनके जैसा जैन दार्शनिक और साहित्यिक मर्मश विद्वान् जैन समाजमें आज अन्य कोई मेरी नहीं है। जैनेतर समूहमें भी कोई होगा या नहीं इसकी मुझे शंका है। इस द्वात्रिंशिका का भावार्थ सिनेमें पण्डितजीने तब तक जितना वाचन चिन्तन-मनन किया था उस सबका सार दे दिया है। इसका रहस्य तो वे ही ममेश ठीक समझ सकेंगे जिनका इस विषय यथेष्ट प्रवेश है ।
११ सिद्धसेन दिवाकरकी इन द्वात्रिंशिका स्वरूप गंभीर और गहन अर्थपूर्ण काव्यकृतियों
मैंने अपने पूर्वनिर्दिष्ट उक्त प्रथम लेखमें लिखा था कि "सिद्धसेन सूरिकी पे द्वात्रिंशिकाएं बहुत ही गूड और गभीरार्थक हैं। इनको ऊपर ऊपरसे हमने कई बार पढ कर देखा, परंतु सबका आशय स्पष्ट रीतिखे बहुत कम समझमें आता है। अफसोस तो इस बातका है कि जैन धर्ममें हजारों ही बड़े बड़े प्रत्यकार और टीकाकार हो गए है परंतु किसीने भी इन द्वात्रिंशिकाओंका अर्थ स्फुट करनेके लिये 'शब्दार्थ मात्र प्रकाशिका ' ब्याख्या भी लिखी हो ऐसा ज्ञात नहीं होता। इसका कारण हमारी समझमें नहीं आता । इन द्वात्रिंशिकाओंकी अपूर्वार्थता और कर्ताकी महत्ताका खयाल करते हैं, तब तो यह विचार भाषा कि इनके ऊपर अनेक वार्तिक और बड़े बड़े भाष्य लिखे जाने चाहिये थे। और 'भ्यायावतार' के ऊपर ऐसे वार्तिक और व्याख्यान दिले भी गये हैं। फिर नहीं मालूम, क्यों इन सबके लिये ऐसा नहीं किया गया। शायद अतिगृवार्थक होनेही के कारण, इनका रहस्य प्रकट करनेके लिये किसीकी हिम्मत न चली हो । योग्य और बहुत विद्वानोंके प्रति हमारा निवेदन है कि वे इनका अर्थ स्फुट करनेके किये अवश्यपरिश्रम करें। इन कृतियोंमें बहुत ही अपूर्ण विचार भरे हुए है। हमारे विचारसे जैन साहि भरमें ऐसी अन्य अपूर्व कृतियां नहिं हैं।"
१२ तीस वर्ष पहले, अज्ञात भावसे विद्वानोंके प्रति किये गये, मानों मेरे उक्त निवेदनके ही फखरूपमें, पण्डितजी द्वारा इस प्रकार सिद्धसेनीय दो कृतियोंका उत्तम विवेचन हमें प्राह हुआ है, ऐसा संमशंकर मुझे आज विशिष्ट आनन्दका अनुभव होना स्वाभाविक है। मैंने उस बेदवाद द्वात्रिंशकके उसी किंचित् प्रास्ताविक में सिद्धसेनकी अन्यान्य शात्रंशिकाओं पर भी पण्डितजी जैसे बहुत विज्ञानके द्वारा अर्थावबोधक विवेचनादि होनेकी निम्न प्रकारसे पुनः आकांक्षा प्रकट की है।
“सिद्धसेन दिवाकरकी और भी ऐसी अनेक द्वात्रिंशिकाएं हैं जो प्रस्तुत अर्थात् वेदवाद द्वात्रिंशिका समान ही बहुत गंभीर और अर्थपूर्ण हैं। सांख्य, योग, वैशेषिक आदि अनेक मठोंके मन्दयोंकी इन द्वात्रिंशिकाओंमें इसी प्रकारकी निगूढ चर्चा करनेमें आई है। इन सब द्वात्रिंशिकाओं पर भी इस तरहका भावार्थोधक विवेचन लिखा जाय तो वह अन्यासियों को बहुत उपयोगी हो कर कितने ही प्रिमोंका नूतन ज्ञान प्राप्त करानेवाला सिद्ध होगा। मैं चाहल हूं कि पण्डितजी के हाथों इन अन्यान्य द्वात्रिंशिकाओं पर भी ऐसा ही समर्पक विवेचन लिखा जा कर वह निकट भविष्य में प्रकाश प्राप्त करें "
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[ न्यायावतारवार्तिक-वृत्तिका प्रस्तुत विशिष्ट संस्करण ]
१३ श्री सुख भाई मालवणिया द्वारा संपादित और विवेचित हो कर प्रस्तुत 'न्यायावतारवार्तिक- वृत्ति' नामक जो ग्रन्थरस अब विद्वानोंके सम्मुख उपस्थित है, यह भी उन्हीं सिद्धसेन दिवाकरकी एक कृतिका विवेचनरूप है यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं है इस ग्रन्थका, इस तरहके एक अत्यन्त विशिष्ट संस्करणके रूपमें प्रकाशित होनेका प्रधान श्रेय भी पण्डितमवर भी सुखाजीको ही प्राप्त है। सिंधी जैन ग्रन्थमालामें गुम्फित करनेके लिये प्रारंभहीमें, जिन अनेक प्रन्थोंकी नामाबलि मैंने अपने मसमें सोच रखी थी, उनमें इस ग्रन्थका नाम भी सतिविष्ट था । बनारससे जो इसका एक संस्करण बहुत वर्षों पहले निकला था वह बहुत ही भ्रष्ट था, इसलिये इसका अच्छा शुद्ध संस्करण प्रकाशित होना मुझे आवश्यक लगता था । प्रसंगवश मैंने पण्डितजीसे अपना अभिप्राय प्रकट किया
१ जैन साहित्य संशोधक, प्रथम खण्ड पहला अंक ४१.
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'२-देखो, 'बेदवादद्वात्रिंशिका' में मेरा लिखा 'किंचित् प्रास्ताविक' पृ. २.
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जिसको इन्होंने पसन्द किया और फिर यह कार्य पण्डित श्री दलसुख, भाईको समर्पित करनेका हम दोनोंने निर्णय किया। इसका जो यह सुन्दर फल निर्मित हुभा है, मेरी हिसे इस प्रन्थमाछाके लिये गौरवकी वस्तु है।
१४ पण्डित श्री दलसुख भाई, पं० श्री सुखलालजीके एक सुयोग्य उत्तराधिकारी शिष्य है। इन्होंने बाँसे पण्डितजीका सौहार्दपूर्ण सहवास प्राश कर विविध शास्त्रोंका अध्ययन किया है और इनके साथ बेड कर अध्यापन तथा संशोधन-संपादनका काम किया है । दलसुख भाईका दर्शनशास्त्रविषयक अध्ययन-मनन कितना विशद और विस्तृत है यह तो जो मर्मज्ञ जिज्ञासु, प्रस्तुत प्रन्थ में लिखे गये इनके विस्तृत रिप्पों
और प्रस्तावनागत विविध प्रकरणोंको मननपूर्वक पढेगा उसीको ठीक ज्ञात हो सकेगा । पण्डित श्री सुखलालजीने अपने 'आदिवाक्य' में इस विषयके अधिकारपूर्ण वचनोंमें जो सारभूत उल्लेख किया है उससे कुछ विशेष कहनेका मैं अपना अधिकार नहीं समझता । मैं सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि जैन साहित्यके ग्रन्थप्रकाशन क्षेत्रमें, पण्डितजीके लिखे गये सर्वप्रथम महत्वपूर्ण टिप्पणों और विशद एवं प्रमाणपूत 'प्रासाविक विवेचनों के साथ प्रकाशित होनेवाले 'प्रमाणमीमांसा' 'शानबिन्दु' आदि अन्योंके भतिरिक्त, श्रीयुत दलसुख भाईका यह प्रन्य-संस्करण ही एक उक्त कोटिके प्रकाशनक्षेत्र में अपना विशिष्ट खान प्राप्त करने योग्य विद्वानोंको प्रतीत होगा।
[कृतज्ञता ज्ञापन] १५जैन साहित्यके विशाल भण्डारमें रबरूप पिने जानेवाले प्रन्योंका इस प्रकार उचम स्वरूपमें संक्षा धन, संपादन हो कर प्रकाशन किया जाना जिनके जीवनकी एक विशिष्ट अभिलाषा थी और जिन्होंने अपनी उस अभिलाषाका मूर्तरूपमें फलित होना देखनेकी भन्य इच्छाले, इस प्रन्थमालाका अनन्य प्रदान पूर्वक प्रारंभ कराया था, वे ज्ञानलिप्सु, दानवीर, बाबू श्री बहादुर सिंहजी, यदि इस ग्रन्थका अवलोकन करनेके लिये, माज विद्यमान होते तो मुझे एक प्रकारका अवर्णनीय भानन्द प्राप्त होता । परंतु, दुर्दैवके पुर्विकासने, उस दिव्य आत्माका अनवसरमें ही, हम जैसे उनके सब प्रियजनोंको, दुःखद वियोग करा दिया और हमारे उत्साह, उल्हास और माल्हादको मूछितसा कर दिया। मेरे लिये कुछ आश्वासनकी जो कोई पस्तु है तो वह यह है कि उन स्वर्गवासी भव्यमूर्तिके सुपुत्र बाबू श्री राजेन्द्र सिंहजी तथा श्री नरेन्द्र सिंहजी, अपने पूज्य पिताकी अनन्य कामनाका, उसी उत्साहसे परिपूर्ण करनेकी सदिच्छा रखते हैं और मेरे थके हुए मन और मुके हुए शरीरको, अपनी श्रद्धा और सवृत्तिसे प्रोत्साहित करते रहते हैं।
इस प्रकार पं. श्रीसुखलालजी, पं. दलसुखभाई आदि जैसे मेरे अनेक सम्मान्य विद्वान मित्रोंके साहित्यिक सहकारसे और उक सुशील सिंघी बन्धुओंके सौहार्दपूर्ण औदार्यसे, इस ग्रन्थ मालाके संपादनद्वारा मुझे जो कोई सत्फल मिलता हो तो मैं उसके लिये अपनेको उपकृत मानता हुभा, अपने इन सब मुह बन्धुओंके प्रति अपना हार्दिक कृतज्ञभाव प्रकट करता हूं।
१६ इस प्रन्थमाछाके, इस प्रकार सुन्दर रूपमें प्रकाशित होनेके कार्यमें, यद्यपि गौणरूपसे तथापि भनन्य साधकतम करणके भावसे, जिस कार्यालयका विशेष सहयोग मुझे मिला है उसके प्रति भी मैं भाज यहां अपना हार्दिक कृतज्ञभाव प्रकट करना चाहता हूं। वह है बंबईका सुविख्यातनामा 'निर्णयसागर' मुद्रणालय । 'निर्णयसागर' प्रेसने संस्कृत एवं प्राकृत साहित्य के प्रकाशनकी जितनी बडी सेवा की है उतनी सेवा भारत वर्षके अन्य किसी प्रेसने नहीं की। केवल भारतवर्षमें ही नहीं युरोप और अमेरिकामें भी 'निर्णयसागर ने अपने सुन्दर प्रकाशन और मुद्रण कार्यके लिये अच्छी ख्याति प्राप्त की है । जर्मनी, इंग्लैंड
और अमेरिकाकेबडेबडे भारतीय साहित्यप्रेमी विद्वान् भी यह चाहते रहे हैं कि उनके संपादित संस्कृत प्राकृत भाषाके अन्य निर्णयसागर' प्रेसके सुन्दर अक्षरोंमें, सुपर रूपसे, छप कर प्रकाशित हों तो उत्तम हो। मैं जो इस प्रन्थमालाको इस रूपमें प्रकट करने में उत्साहित होता रहा हूं, उसका बहुत कुछ श्रेय 'निर्णयसागर' प्रेस को भी है। इस प्रेसके सरलस्वभावी, कार्यनिष्ठ और प्रामाणिकजीवनजीबी, वृद्ध मैनेजर श्रीयुत रामचन्द्र शु शेडगेके तंत्रनीचे आज कोई १० वर्षाले इस ग्रन्थमाकाके ये अपूर्व प्रन्यरत
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छ प्रासाविक विचार। परोपरि मेरे द्वारा संपादिव इस प्रन्धमालाको, मेरी पति और मापनाके मुताबिक सुन्दर । मुद्रण कार्यमें, इनका सहानुभूतिपूर्ण सहयोग न मिशता, तो शायद ही मैंइस प्रकार माज तक इतने प्रन्योको प्रकट करने में सफल होता । विश्वव्यापी दुष्टतम विगत महायुडके कारण, संसारके सब व्यवहारोंमें जो महाविषमता उत्पर हुई है, उसके निमित्त साहित्यके प्रकाशनमें भी बहुत ही विषम समसाएं उपस्थित हो गई है। ऐसी परिस्थिति में भी निर्णयसागर के मंत्रबाहक और कर्मकर (कामदार) गणने मुझे अपनी इस अन्धमालाके कार्यको चालू रसनेमें, यथाशक्य जो सहयोग दिया है और देहे हैं, उसके लिये मैं अपनी कृतज्ञता प्रकट करना अपना कर्तव्य समझता हूं। मार्गशीर्ष शुक,सं.२००५) . (ता.१-१२-१९४०),
-जिन विजय भारतीय विद्या भवन, बंबई ।
1 यों तो 'निर्णयसागर' प्रेसके साथ मेरा संबंध कोई ३५ वर्षोंसे ऊपरकर है। मेरी सबसे पहली संपादित एक 'मजायउंछकुलक' नामक छोटीसी प्राकृत-संस्कृत कृति, सन् १९१४-१५ में, इस प्रेस में छपी थी और उसी समयसे मेरा इस.प्रेसके साथ संबन्ध जुडा हुआ है। "सिंघी जैन ग्रन्थमाला' का आरंभ करने के पूर्वमें, 'जैन साहित्यसंशोधक प्रयावति, तथा 'गुजरात पुरातत्त्वमदिर प्रन्यावलि के कई प्रन्य भी मैंने इसी प्रेसमें मुद्रणाय दिये थे। पर पण्डित सुखलालजी द्वारा संपादित जिस 'सन्मतिप्रकरण' अन्धका जिक्र किया है वह पूरा अन्य इची प्रेसमें छपवा कर प्रकट किया गया था।
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आदिवाक्य ।
लेखक- पं० श्री सुखलालजी संघवी ।
सिंगी जैन
मैन मन्यमाकाका प्रस्तुत प्रम्यरत अनेक दृष्टिले महत्ययाका एवं उपयोगी है। इस मन्यमे तीन कोनोंकी कृतियाँ सम्मीलित है। सिद्धसेन दिवाकर जो जैन व आचमनेता है उनकी 'व्यापावतार' नामक छोटीसी पचबद्ध कृति इस ग्रन्थका मूड आधार है। सामाचार्य पचद वार्तिक और गद्यमय वृद्धि थे दोनों 'न्यायावतार की व्याख्यायें है। व्यायामें आए हुए सन्तयोंमेंसे अनेक महत्वपूर्ण मन्तब्यौको लेकर उनपर ऐतिहासिक एवं पहले किये हुए सारगर्भित तथा बहुश्रुततापूर्ण टिप्पण, अतिविस्तृत प्रस्तावना और भसके तेरह परिशिष्ट-यह सब प्रस्तुत प्रम्यके संपादक श्रीबुत पवित मालवणिवाकी कृति है। इन तीनों कृतियोंका विशेष परिचय, विषयानुक्रम एवं प्रस्तावनाके द्वारा अच्छी तरह हो जाता है । अत एव इस बारे में महाँ अधिक दिखना अनावश्यक है।
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प्रस्तुत ग्रन्थके संपादनकी विशिष्टता ।
यदि समभाव और विवेकी मर्यादाका अतिक्रमण न हो तो किसी अतिपरिचित व्यक्तिय समय पक्षपात पूर्ण समीचित्य दोषले बचना बहुत सरल है। श्रीयुत एकहुलभाई माकवनिया मेरे विद्यार्थी, सहसंपादक, सहाध्यापक और मित्ररूपचे चिरपरिचित है। इन्होंने इस मम्यके संपादनका भाजपचे हा दिया तबसे इसकी पूर्णाहुति तकका में निकट साक्षी हूं। इन्होंने टिप्पन, प्राचा आपका है उसको मैं पहिलेहीले यथामति देखता तथा उसपर विचार करता गाया हूं, इससे मैं यह दो दिसंकोच कह सकता हूँ कि भारतीय दर्शनमात्र खासकर प्रमाणशाखा सिंपोंके लिये श्रीयुत मालवनियाने अपनी कृतिमें जो सामग्री संचित व व्यवस्थित की है तथा विशेषणपूर्व उसपर जो सपना विचार प्रकट किया है, यह सब अन्य किसी एक जगह दुर्लभ ही नहीं प्राय है। पचपि टिप्पण, प्रस्तावना आदि सब कुछ जैन परंपराको केन्द्रस्थान में रख कर डिखा गया है, तथापि सभी संभव में तुलना करते समय करीब करीब समग्र भारतीय दर्शनोंका र छोनपूर्व ऐसा कहापोह किया है कि वह चर्चा किसी भी दर्शनके अभ्यासीके लिये लाभप्रद सिद्ध हो सके।
प्रस्तुत प्रत्यके छपते समय डिप्पण- प्रस्तावना आदिके फॉर्म ( Forms) कई मित्र मिश्र दर्शनके पंडित एवं प्रोफेसर पडनेके लिये से गये, और उन्होंने पढ कर बिना ही पूछे, एकमत से जो अभिमान प्रकट किया है वह मेरे उपर्युक्त कथनका नितान्त समर्थक है में भारतीय प्रमाणशाखके अध्यापक, पंडित एवं प्रोफेसरोंसे इतना ही कहना आवश्यक समझता हूँ कि वे यदि प्रस्तुत टिप्पण, प्रसावना मौर परिशिष्ट ध्यानपूर्वक पड जायेंगे तो उन्हें अपने अध्यापन, लेखन आदि कार्यमें बहुमूल्य मदद मिलेगी। मेरी राय में कमसे कम जैन प्रमाणशास्त्र के उच्च अभ्यासियोंके लिये, डिप्पनोंका अमुक भाग तथा प्रखावना,
प्रथमे सवैया रखने योग्य है जिससे कि ज्ञानकी सीमा एवं दृष्टिकोण विशाक बन सके और दर्शनके झुक्यमान असांप्रदायिक भावका विकास हो सके।
टिप्पण और प्रस्तावनागत चर्चा मित्र मिश्र कालखण्डको लेकर की गई है। टिप्पणोंमें की गई चर्चा शुक्राचा विक्रमकी पंचम शताब्दीसे लेकर १० वीं शताब्दीतकके दार्शनिक विकासका संपर्क करती है जब कि प्रस्ताबनामें की हुई चर्चा मुख्यतया लगभग विक्रमपूर्व सहस्राब्दीसे लेकर विक्रमकी पंचमशताब्दी ass प्रमाण प्रमेय संबंधी दार्शनिक विचारसरणी के विकासका स्पर्श करती है। इस तरह प्रस्तुत प्रत्य एक तरह भग ढाई हजार वर्षकी दार्शनिक विचारधाराओंके विकासका व्यापक निरूपण है जो एक तरफसे जैन परंपराको और दूसरी तरफसे समानकालीन या भिकालीन जैनेवर परंपराओंको
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आविषाक्य ।
करता है। इसमें जो तेरह परिशिष्ट है वे मूल व्याख्या और टिप्पणके प्रवेशद्वार या उनके भवलोकनार्थ मेनस्थानीय है। श्रीयुत मालवणियाकी कृतिकी विशेषताका संक्षेपमें सूचन करना हो, तो इनकी बहुभुतता, तटस्थता और किसी भी प्रभके मूलके खोजनेकी ओर झुकनेवाली दार्शनिक ट्रिकी सतर्कता द्वारा किया जा सकता है। इसका मूल ग्रन्थकार दिवाकरकी कृतिके साथ विकासकालीन सामंजस्य है।
जैन ग्रन्थोंके प्रकाशन सम्बन्धमें दो शब्द । भनेक म्यक्तिोंके तथा संस्थाओंके द्वारा, जैन परंपराके छोटे बड़े सभी फिरकों में प्राचीन भवांचीन प्रन्योंकि प्रकाशनका कार्यबहत जोरोंसे होता देखा जाता है, परंतु अधिकतर प्रकाशन सांप्रदायिक संकुचित भावना और स्वाग्रही मनोवृत्तिके द्योतक होते हैं। उनमें जितना ध्यान संकुचित, स्वमताविष्ट वृतिका रखा जाता है उतना जैनस्वके प्राणभूत समभाव व अनेकान्त रष्टिमूलक सत्यस्पर्शी अत एवं निर्भय ज्ञानोपासनाका नहीं रखा जाता। बहुधा यह भुला दिया जाता है कि अनेकान्तके नामसे कहाँ तक अनेकान्तररिकी उपासना होती है । प्रस्तुत प्रन्यके संपादकने, जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, ऐसी कोई खाग्रही मनोवृत्तिसे कहीं भी सोचने लिखनेका जान बुझ कर प्रयन नहीं किया है। यह ध्येय "सिंघी जैनग्रन्थमाका के संस्थापक और प्रधान संपादककी मनोवृत्तिके बहुत अनुरूप है और वर्तमानयुगीन व्यापक हामखोजकी दिशाका ही एक परंतु विशिष्ट संकेत है।
में यहाँ पर एक कटुक सत्यका निर्देश कर देनेकी अपनी नैतिक जवाबदेही समझता हूँ। जैन धर्मके प्रभावक माने मनाए जानेवाले ज्ञानोपासनामूलक साहित्यप्रकाशन जैसे पवित्र कार्यमें भी प्रतिष्ठालोलुपता मूलक चौर्यवृत्तिका दुष्कलंक कभी कभी देखा जाता है । सांसारिक कामों में चौर्यवृत्तिका बचाव अनेक छोग अनेक तरहसे कर लेते हैं, पर धर्माभिमुख शोनके क्षेत्रमें उसका बचाव किसी भी तरहले क्षम्तन्य नहीं है। यह ठीक है कि प्राचीन कालमें भी ज्ञानचोरी होती थी जिसके योतक 'बैकारणऔरः कविमौरः' जैसे पाल्योउरण हमारे साहित्यमें आज भी मिलते हैं, परंतु सत्यलक्षी वर्शन और धर्मका दावा करनेवाले, पहले और आज भी, इस प्रतिसे अपने विचार व लेखनको दूषित होने नहीं देते और ऐसी चौपदचिको अन्य चोरीकी तरह पूर्णतया प्रणित समझते है । पाठक देखेंगे कि प्रस्तुत प्रन्धके संपादकने पेसी पणित सिले मल-शिक्षबचनेका समान प्रयास किया है। टिप्पण हों या प्रस्तावना-जहाँ जहाँ गये पुराने प्रन्धकारों एवं लेखकोंसे योग भी अंश लिया हो वहाँ उन सबका या उनके प्रन्योंका स्पट नामनिर्देश किया गया है। संपादकने भनेकोंके पूर्व प्रयनका अवश्य उपयोग किया है और उससे भनेकगुण काम भी उठाया है पर कहीं भी अन्यके प्रयत्नके यशको अपना बनानेकी प्रकट या अप्रकट चेष्टा नहीं की है। मेरी हिमें सचे संपादककी प्रतिष्ठाका यह एक मुख्य आधार है जो दूसरी अनेक त्रुटियोंको भी क्षन्तव्य बना देता है।
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१.मैं यहाँ इतना यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि ऊपर जो विचार मैंने प्रदर्शित किया है वह साभिप्राय है।क्यों कि मैं इसके विपरीत मनोवृत्तिवाले संपादकोंको भी थोडा बहुत जानता हूँ और कुछएकका नामनिर्देश करना भी यहां उचित समझता हूँ। क्यों कि ऐसा विना किये वैसे परप्रयनजीवी लोगोंको अपने दोषका शायद ही सवाल भावे । मैं अपने तत्त्वार्थविवेचनकी हिन्दी आवृत्तिमें, प्रो. हीरालाल रसिकलाल कापडिया एम्. ए. तथा एक भाई मुणोतके ऐसे चौर्यकार्यका उल्लेख कर चुका है, जिन्होंने अनुक्रमसे तत्त्वार्थकी प्रस्तावना और उसके विवेचनको कुछ उलटा मुलटा कर और ज्यों का त्यों लेकर भी, यह स्पष्ट शब्दोंमें नहीं लिखा कि यह मौलिक चिंतन व कार्य अमुकका है और हम तो उसका कुछ हेरफेरके साथ या सीधा अनुवाद भर करते हैं। मैं यहां पर एक ऐसी ही अन्य चोरीका निर्देश भी दुःखपूर्वक करना चाहता हूँ। जिस व्यक्तिका इससे संबंध है वह है तो मेरा एक विद्यार्थी, पर मैं अपने विद्यार्थी के नाते भी उसके ऐसे दोषको प्रकट करना ही अधिक न्याय्य समझता
न्यायाचार्य पं.दरबारी लाल कोठिया जो सरसावा 'वीरसेवा मंदिर के एक कार्यकर्ता हैं, उनका अनुवादित-संपावित 'न्यायबीपिका' प्रन्थ प्रसिद्ध हुआ है। उसकी प्रस्तावना और 'प्रमाणमीमांसा के मेरे हिन्दी टिप्पण दोनोंको तज्ज्ञ निपुण अभ्यासी देख जाय तो वह तत्काल जान सकेगा कि कोठिया महाशयने करीब करीब मेरे सब हिन्दी टिप्पणोंकी कायाको तोड मरोड कर मौर उसमें कहीं कहीं जरासा मसाला भरके, अपनी सारी प्रस्तावनाका
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आदिवाक्य |
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रूप
मेरी तरह पं० एकल मानवनिया की भी मातृभाषा गुजराती है। प्रन्थरूपमें हिन्दीमें इतना विस्तृत लिखनेका इनका शायद यह प्रथम ही प्रयत है। इस लिये कोई ऐसी आशा तो नहीं रख सकता कि मांभाषा जैसी इनकी हिन्दी भाषा हो परंतु राष्ट्रीय भाषाका पद हिन्दीको इस लिये मिला है कि वह हरमुक मान्तवालेके लिये अपने अपने ढंग से सुगम हो जाती है। प्रस्तुत हिन्दी लेखन कोई साहित्यिक नहीं है। इसमें तो दार्शनिक विचारविवेचन ही मुख्य है। जो दर्शनके और प्रमाण शास्त्र के विशालु पूर्व अधिकारी है उन्होंकि उपयोगकी प्रस्तुत कृति है। वैसे जिज्ञासु और अधिकारी के लिये भाषातत्व मौज है और विचारतस्व ही मुख्य है। इस दृष्टिले देखें तो कहना होगा कि मातृभाषा न होते हुए भी राष्ट्रीय भाषा में संपादकने जो सामग्री रखी है वह राष्ट्रीयभाषा के नाते व्यापक उपयोगकी वस्तु बन गई है।
जैन प्रमाण शास्त्रका नई दृष्टिसे सांगोपांग अध्ययन करने वालेके लिये इसके पहले भी कई महत्त्वके प्रकाशन हुए हैं जिनमें 'सम्मतितर्क' 'प्रमाणमीमांसा', 'ज्ञानविन्दु', 'अकलंकप्रन्थत्रय', 'श्यामकुमुदचन्द्र' आदि मुख्य हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ उन्हीं प्रत्येक अनुसन्धानमें पढा जाय तो भारतीय प्रमाणशास्त्रों में जैन प्रमाणशास्त्रका क्या स्थान है इसका ज्ञान भलीभाँति हो सकता है, और साथ ही जैनेतर अनेक परंपराओंके दार्शनिक मतका रहस्य भी स्फुट हो सकता है ।
सिंघी जैन ग्रन्थमालाका कार्यवैशिष्ट्य ।
सिंघी जेनप्रन्थमालाके स्थापक स्व० बाबू बहादुर सिंहजी स्वयं श्रद्धाशील जैन थे पर उनका दृष्टिकोण साम्प्रदायिक न हो कर उदार व सत्यलक्षी था। बाबूजी के दृष्टिकोणको विशद और मूर्तिमान बनानेवाले प्रथमाल के मुख्य संपादक हैं। आचार्य श्री जिनविजयजीकी विविध विद्योपासना, पम्थकी संकुचित मनोवृत्तिसे सर्वथा मुक्त है । जिन्होंने ग्रन्थमाला के अभीतक के प्रकाशनों को देखा होगा उन्हें मेरे कथनकी पथार्थतामें शायद ही संदेह होगा। प्रन्थमालाकी प्राणप्रतिष्ठा ऐसी ही भावना है जिसका असर ग्रन्थमालाके हर एक संपादककी मनोवृत्ति पर जाने अनजाने पडता है। जो जो संपादक विचार-स्वासय एवं निर्भयसत्यके उपासक होते हैं उन्हें अपने चिन्तन लेखन कार्यमें प्रन्थमालाकी उक भूमिका बहुत कुछ सुअवसर प्रदान करती है और साथ ही ग्रन्थमाला भी ऐसे सत्याम्बेषी संपादकों सहकारसे उत्तरोत्तर भोजली एवं समयानुरूप बनती जाती है। इसीकी विशेष प्रतीति प्रस्तुत कृति भी कराने वाली सिद्ध होगी ।
नवरंगपुरा, अहमदाबाद
- सुखलाल
कलेवर केसा बनाया है। साधारण पढनेवाला या अनजान प्रथमाभ्यासी उसे पढ कर यही समझ पाता है कि खाना लेखक महोदयने ही प्रस्तावनानें लिखा सब कुछ सोचा है और गुरुवर्य सुखलालजी के प्रन्थका तो मात्र अध्ययनमें या दिशा चनमें उपयोगभर किया है। जब कोठियाजीने आभारप्रदर्शनमें मेरे प्रन्धके उपयोग करने की बात लिखी तब उनका यह नैतिक कर्तव्य था कि वह उपयोग किस तरह और किस रूपने किया है यह बताते । उपयोग शब्द इतना अधिक व्यापक, सुंदर पर संदिग्ध है कि जिसके द्वारा कृतज्ञता प्रकाशनका काम भी बनी हो सकता है और परप्रयमका प्रकट-अप्रकट अपहरण भी छुपाया जा सकता है। मेरे इस कटुक सत्यके निर्देशसे कोठियाजी सावधान हो जायेंगे तो उनका सारा आगेका साहित्यिक जीवन अवश्य यशोलाभ करेगा ।
[पण्डितजीके द्वारा मुझे जब इस बात का पता लगा कि पण्डित कोठियाने, 'प्रमाणमीमांसा' में लेखबद किये गये पण्डितजीके चिन्तनपूर्ण मौलिक विचारोंको, बनारसी ठगकी तरह, ज्यों के ज्यों उडालिये हैं और 'बीरसेवा मन्दिर' जैसी प्रतिष्ठित और सेवानिष्ठ कहलाने वाली संस्था संचालक सूचक एवं मूक सहकार प्रसिद्धिमें रख कर अपनी स्वार्थसिद्धि करनी चाही है, तब मुझे अत्यन्त ग्लानि और उमिता दो आई। पण्डित कोठियाका यई तरकर कार्य तो कानुनी अपराधजनक होनेसे 'सिंपी जैन अन्यमाला' के खत धारण करनेवाले भारतीय विद्या भवनके कार्यवाहक इस पर कुछ कानुनी कारवाई करने का भी मुझे सूचन करने लगे। परंतु मैंने 'दुर्जनाः परितुष्यन्तु खेन दौरात्म्यकर्मणा । इस निर्वेद भावनाका विचार कर उस सूचनकी तरफ उपेक्षा करना ही समुचित समझा । प्रन्थमाला संपादक ]
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संपादकीय वक्तव्य ।
प्रस्तुत संस्करण
सन् १९१७ में बनारससे प्रकाशित पंडित' नामक संस्कृत अन्यप्रकाशक मासिक पत्रमें जैनतर्कवार्तिकम्' के नामसे जो ग्रन्थ छपा था उसीका यह नया संस्करण 'न्यायावतारसत्रबार्तिकवृत्ति' है। प्रस्तुत संस्करणके प्रारंभमें 'न्यायावतारसूत्र' और 'वार्तिक' दिये गये है तदनन्तर 'वार्तिकवृत्ति' जिसका नाम 'विचारकलिका' है, दी गई है। पंडित में 'वार्तिक'को समाविष्ट करके 'वार्तिकवृत्ति' दी गई थी और 'वार्तिक'को पृथक् नहीं दिया था।मत एवं उसमें 'वार्तिक'की कई कारिकाएँ छूट गई हैं। का. ५, ७, १०, १२ पू०, २१ उ०, और ५३ये, कारिकाएँ 'पंरित' संस्करण में नहीं है। जो प्रतियाँ मैंने देखीं या जिनका वर्णन सूचीपत्रों में पढा, प्रायः उन सभी में यही क्रम है कि प्रथम वार्तिक' की कारिकाएं दी गई हैं तदनन्तर 'वृत्ति' लिखी गई है। वृत्तिमें 'वार्तिक' की कारिकाओंकी प्रतीके मात्र दी गई हैं, पूरी कारिकाओंको उद्धृत नहीं किया। यही बात 'पंडित' संस्करणकी आधारभूत प्रतिके विषय में भी कही जा सकती है। मत एवं यह संपादक महोदयकी ही त्रुटि है कि उन्होंने उक्त कारिकाओंको यथास्थान प्रतीकके होते हुए भी उरत नहीं किया। प्रस्तुत संस्करणमें वार्तिककी सभी कारिकामोंको, यथास्याम प्रतीक देख कर उत किया गया है। पंडित' के संस्करणको संशोधित-संपादित-मुद्रित पुस्तक न कह करके इतना ही कहना पर्याप्त है कि जैसे प्रतिलेखक लिखते हैं कि 'याशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं मया ।' वैसे, 'पंडित' संस्करणके संपादक इतना भी नहीं कह सकते कि 'याशं पुस्तके ई ताशं मुद्रितं मया।' क्यों कि उनको पुस्तककी प्रतिको पढने में तो भ्रम रहा ही, इसके अलावा मुफ संशोधनमें और भपनी कल्पनाके घोड़े दौरा कर भी उन्होंने उस संस्करणको अशुद्धिोंसे परिपूर्ण कर दिया है। मैंने प्राचीन वाउपत्रकी प्रतियोंके आधारसे प्रस्तुत संस्करणका संशोधन-संपादन किया है। यथाशक्ति अगाडि टाकनेका प्रयन करने पर भी कुछ अशुद्धियाँ रह गई हैं जिन्हें टिप्पणों में ठीक किया गया है और शेषके लिये एक शुद्धिपत्र भी दे दिया है। फिर भी मनुष्यसुलभ प्रान्तियाँ रह गई हों यह संभव है। कुछ अशुद्धियोंके सूचनके लिये मुनिश्री जम्बूविजयजीका मैं आभारी हूँ।
प्रति परिचय प्रस्तुत संस्करणमें निम्नलिखित प्रतियों का उपयोग हुआ है'अ' संघवीपाडा भंडार, पाटणकी यह ताडपत्रकी प्रति है। इसका नंबर १५४.१.है। इसके ऊपर बार्तिकवृत्ति' ऐसी संज्ञा लिखी हुई है। पत्र के द्वितीय पृष्ठ से वार्तिक शुरू होकर पत्र के प्रथम पपर वह पूर्ण हुआ है । इसके बाद के पत्रका अंक ७ होना चाहिए था किन्तु अंक ५ दिया गया है। इस पत्रके द्वितीय पृष्ठसे वार्तिक वृत्तिका प्रारंभ हुआ है और पत्र १८५ के प्रथम पृष्ठ पर वह पूर्ण हुई है। भादिके छह तदनन्तर पांचवा और अन्तिम दो पत्र खण्डित हैं । पत्र ७२ से ८१ गायब है । शेष पत्र भच्छी स्थितिमें हैं। प्रति सुवाच्य और शुद्ध है। एक पृष्ठमें अधिकसे अधिक ५ और कमसे कम
पंक्तियाँ हैं । प्रत्येक पंक्तिमें ६० के आस पास अक्षर हैं । लेखन संवत नहीं है।' 'ब' यह भी संघवीपाडा भंडार, पाटण की ताडपत्रकी प्रति है । इसका नम्बर १८७.१ है । इस प्रतिके ऊपर 'बार्तिकआदि ३ प्रकरणो' ऐसी संज्ञा दी है । अर्थात् इस प्रतिमें क्रमशः १ वार्तिक और इसकी वृत्ति, २ न्यायावतारसूत्र और उसकी वृत्ति, तथा ३ न्यायप्रवेशक सूत्र है। इस प्रतिके प्रथम
१इस प्रतिका परिचय Catalogue of manuscripts ab Pattan (G.O.S.) में दिया है। देखो पृ.४१ वहाँ इसका नंबर ५३ है।
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संपादकीय वक्तव्य |
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पत्रके द्वितीय पृष्ठसे 'वार्तिक' का प्रारंभ हुआ है और पत्र ३ के प्रथम पृष्ठ पर वह पूर्ण हुआ है। पत्र के द्वितीय इसे 'वार्तिक' हुई है और पत्र 101 के प्रथम पृष्ठ पर वह पूर्ण हुई है। प्रति सुचाच्य और शुद्ध है। एक में अधिक से अधिक आठ और कमसे कम पांच पंक्तियाँ हैं। एक पंकि करीब ७२ अक्षर है। इस प्रतिका ३९ व पत्र कागजका है। प्रायः सभी पत्रोंका दाहिनी भोरका मंच है। लेखन संबद इसमें भी नहीं है।
'क०' श्रीजात्माराम जैनशान मंदिर, बडोदा, की कागज पर किसी प्राचीन प्रतिके आधार से लिखी हुई यह प्रति है। इसका नंबर ३ है और इसके ऊपर 'शास्त्रार्थसंग्रहवार्तिकद्धि' ऐसी संज्ञा दी हुई है। प्रति आधुनिक है और प्रतीत होता है कि जेसलमेरकी प्रतिकी यह नकल है। इसके पत्र हैं। प्राचीन प्रतिके अक्षरोंका ज्ञान ठीक न होनेके कारण लेखकने अनेक भी भूलें की हैं। इसमें 10 में और १५ पत्रका म्युत्कम हो गया है। २३ का अंक दो बार दिया गया है। उसमें भी २ का स्थान २ को मिलना चाहिए। जिस प्रतिके आाधारसे यह नकल की गई है वह अंटित होगी ऐसा इस प्रतिके ४५ और ६ पत्र गत डिसकी निशानीसे स्पष्ट है। साई १३३३" हैं। प्रत्येक हमें पंकित १६ और अक्षर ६५ के भासपास है। इसकी लेखकप्रशासिके लिये देखो ० १२२ की टिप्पणी 13
'०' 'जेनवार्तिक के नामसे बनारस से सम १९१७ में जो पुत्र है नही पड़ है। यह तो अत्यन्त अशुद्ध है। इसका आधार सं० १९६५ में किसी गई कोई प्रति है । वह प्रति भी संभव है कि बनारस के रामवाट के बड़े जैनमंदिर में स्थित श्री कुपाखचन्द्र जैन ज्ञानमंचार की, सं० १९४५ में किसी नई 'जैनतर्कवार्तिकम्' नामक पोथी नं० ५ की प्रतिलिपि हो । मु० तथा उच भंडार की, प्रतिको मिलाने से यह स्पट होता है । यह भी संभव है कि इन दोनोंका आधार कोई तीसरी ही प्रति हो । श्री कुलचन्द्र जैन ज्ञानभंडार की प्रति सुलभ करने के लिये आचार्य भी हीराचन्द्रजीका में आभारी हूँ ।
प्रतियों का वर्गीकरण
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अ० और ब० प्रतिमें कहीं कहीं पाउमेद होने पर भी इन दोनोंका वर्ग एक है, क्योंकि ये दोनों प्रतिष अधिकांशमें एक जैसा पाठ उपस्थित करती है और उनका वैलक्षण्य अधिकांश क० र ० a स्पष्ट है। दूसरी ओर क० और सु० का भी एक वर्ग है क्योंकि पत्र मी अधिकांशमें इन दोनों प्रतियोंमें एक जैसा पाठ मिलता है और वह विलक्षण होता है। अत एव यह कहा जा सकता है कि इन चारों प्रतियोंका मूलाधार दो प्रतियाँ होंगी जिनमेंसे एकके आधारसे साक्षात् या परंपराले अ० और ६० लिखी गई क० और सु० का स्थान है।
इन दोनों पाकमेद होते हुए अ० और ब० इन
होंगी और दूसरीके परिवार में
लिपिसम
प्रतिके छपाने वाले पंडितको जैनलिपि या प्राचीन लिपिका कुछ भी ज्ञान नहीं था ऐसा सुवि मतिको देखनेसे स्पष्ट होता है मुतिसमें लिपिके अज्ञानके कारण शब्द कुछ का कुछ गया है। एका अक्षरके पढने में भ्रम होनेके कारण शब्दके दूसरे अक्षरोंका परिवर्तन अपनी बुद्धिसे कर सके समूचे रूपको ही बदल कर एक विचित्र पाउमैद उपस्थित किया गया है। ऐसे पाठभेदों को लेना पुखके कलेवरको निरर्थक बढाना है; ऐसा समझ कर मैंने उचित समझा कि लिपिश्रम किन किन अक्षरी और संयुक्ताक्षरोंमें हुआ है उनकी एक तालिका की जाय। तदनुसार जो तालिका बनी है वह मीचे दी जाती है। यह तालिका प्राचीन लिपिको ठीक न पडनेसे कैसी भ्रान्तियाँ होती है इसका दिग्दर्शन करानेके साथ ही संशोधक वर्गको हस्तलिखित प्रतियोंमें उपलब्ध अशुद्ध पाठोंके आधारसे शुद्ध पाठोंकी कल्पना करनेमें भी सहायक होगी। क्योंकि जैसी भ्रान्तियाँ मुद्रित पुस्तक संपादक को हुई हैं ऐसी ही भ्रान्तियों प्रतियोंके लेखकों को भी अधिकांश हुई है। निश तालिकामै प्रथमाक्षर शुद्धरूप है और दूसरा उसके स्थानमें जो छापा गया है वह है ।
मु०
१ इस प्रतिके किये देखो, Catalogue of Manuscripts at Pattan (G.O.S.) p. 86. मिंबर १९९ है ।
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संपादकीय वक्तब्ध।
मन्स
भोग्नु
ज्यक्ष
सम्स
पाय, घ, ध्य,
ध्याय
-डि
पण पा
मच तत्र पम्प,म इसके महावा प्रामात्राकै स्थानमें कार की मात्रा और कार की मात्राको मात्रा समझकर एकारकी मात्रा, विसर्गके स्थानमें अनुस्वार और अनुस्वारके खानमें विसर्ग, एकारके स्थान में बबुखार वयाऽनवग्राहके खानमें भाकारकी मात्रा कर देनेसे भी भनेक पाठमेद हो गये है। इसके अलावा अनावश्यक अनुसार तथा अनुसारके कोपजन्य भी अनेक पाठमेद है। सभी प्रकार पाउमेदाणे मैनहिप्पणी खान नहीं दिया है। प्रस्तुत संस्करणका परिचय म्यावापतारसूत्र, बार्तिक, विचारकलिका नामक वार्तिकाति, तुलनात्मक टिप्पण और परिनिरास कमसे प्रस्तुत संस्करणका मुद्रण हुमा है । म्यापावतारका मुद्रण इस संस्करणमें इसकिने मावस्यक समझा गया कि पातिककारने उसीके अपर बार्तिक लिखा है। न्यायावतारका मुद्रणबांकी जैन कॉम्पस रा प्रकाशित सिर्षिकी टीकाके माधारसे तथा 'जैन साहित्य संशोधक' ... में प्रकाशित
सुखलालजी संपादित सानुवाद भ्यायावतारसे किया है। बार्तिक और बार्तिकतिका संपादन मैं पूर्वोक प्रतियोंके माधारसे किया है। जिस प्रतिका पाठपुर और संगत मावन पग उसको भूकमें साल दिया है शेषको नीचे टिप्पणोंमें स्थान दिया है। अपनी मोरसे जोकहीं कहीं पापुरिकीहै उसे
ऐसे कोहकमें रखा है। तथा कहीं कहीं पूर्वापर संबन्धको देखकर अक्षर या शब्दकी इदिकरना भावश्यक प्रतीत हुमा यहाँ उस रविको [ .]ऐसे कोडकमें रखा है।
जैन न्यायशाबको टीक ३ भवगत करने के लिये सम्म दर्शनों के तुलनात्मक अध्ययनकी भावस्पताको महसूस करके मैने पाशक्ति इस प्रन्यके हिन्दी टिप्पण लिखे है। कहीं कहीं अन्मगत विषपकी जन्म प्रयासे शब्द और भर्थकी एकता देखकर उन प्रयोंके पाठदेकर या सिर्फ पंक्तिदेकर निर्देशकर दिया है। जिससे यह पता चले कि किन २ प्रन्योंका भरण प्रस्तुत प्रन्धकार पर है।
भन्समें प्रस्तुत संस्करण में उपयोगी ऐसे अनेक परिशिष्ट विषे गये हैं। प्रारंभमें प्रक्षावना,भागमयुगीन और भागमोत्तरकालीन सिक्सेनपूर्ववर्ती जैन दर्शनकी रूपरेखा देनेका प्रथम किया है। तथा अन्य नौर प्रयकतालोंके विषय में ज्ञातम्य बातोंकी विवेचना की गई है।
भाभारप्रदर्शन पूज्य पंडित भी सुखलालजीकी केवल प्रेरणाका ही नहीं, किन्तुमादिसे मन्त प्रस्तुत संस्करणको उपयोगी बनानेके उनके बहुविध प्रयका ही फक प्रस्तुत संस्करण है। उनके उतने प्रबनके होते हुए भी यदि इसमें कोई त्रुटि रह गई हो तो वह मेरी है। इस प्रन्यके संपादनकी प्रक्रिया में उन्होंने ममत्वमापसे रस लिया है। पाठदिसे लेकर परिशिट तक में मेरे जो प्रम थे उन्हें सुलझानेका पूरा मवत किया है इतना ही नहीं किन्तु मेरे हिन्दी टिप्पणोंको अक्षरशः पडकर प्रान्तियोंको दूर किया है। इन टिप्पणोंको मैं 'मेरे कहता हूँ इसका मतलब यह नहीं है कि इसमें जो कुछ लिखा गया है वह मेरा निजी है। वस्तुतः पंडितजीके दीर्घकालीन सहवासके कारण जो कुछ मैंने सीखा है उसीके एकमात्रको मैंने व्यक
१ इसके फल खरूप एक ही 'वाक्य' शब्दके वाच, बाध्य, और बाध्य ऐसे पाउमेद हुए।
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संपादकीय पकच
करनेकी की है। इसमें मैंने उनके लिखित और नलिखित विचारोंका पूरा पूरा उपयोग किया है। उन्होंने इन रिप्पणों की जांच करके संतोष म्पक किया है। पंडितजीने इस संस्करण में जो निष्काम परिश्रम उठाया है उसके लिये धन्यवादके दो शब्द पर्यास नहीं। उन्हें दृति इसी में है कि मेरी साहित्यिक प्रतिरोतर विकसित होती है। उनका निःस्वार्थभाव सदा पंदनीय है।
पू. मुतिमी बिनविजयवीने भी मेरे हिन्दी टिप्पणोंको देखकर उत्साहवर्धक पत्र लिनेमार प्रन्यका दिपीक कारण पने में बिलम्ब होता देखकर भी मेरी प्रवृत्तिको क्षियिक करने के बजाय साया है। कईचार मूक भी देते हैं। उनका सहनबह ही मुझमें उत्साह भर देता है। पुलककी छपाईकी सुन्द. रताका श्रेय उन्हीको मिलना चाहिए। मैं इस प्रसंगमें अपनी भांजली उन्हें अर्पित करता है।
पूज्यपाद मुनि श्री पुण्याविजयजीकी कृपाके कारण ही मुझे पाटण मंगरकी दोनों बाउपत्रकी प्रतियाँ देखने को मिली थी और उन्होंने बगैदाकी प्रति भी भिजवाई थी, एतदर्थ मैं उनका भाभारी हूँ।
प.पं.सुबकाजीक सम्मतितक, प्रमाणमीमांसा मावि अन्यके टिप्पणोंसे तो मैन काफी काम ग्ापा ही है। पं. महेन्द्रकुमारबीके न्यायमुवचन्द्र टिप्पणोंने भी मेरा परिश्रम अधिकमात्रामें हकका किया है। इतना ही नहीं किन्तुको प्रमों के बारे में उनके साथ चर्चा करके मैने विज्ञासाकी पति भी की है। एकवर्ष मैं उनका हौ ।
भाईमहेन्यामार अभय जैनदर्शनशाची, जो मेरे मात्र थे उन्होंने पू०पंडितजीको मेरे हिन्दी विपण मानेका वबा मेरी हिन्दीभाषाको परिमार्जित करनेका कार्य प्रेमसे किया है। अव एषरे बन्यवादाई है। श्री चन्द्र M. A. पार्थनाथ विद्याश्रमके भूतपूर्व अषिहाताने मी क० प्रतिले पाठान्तर लेने में सहायता की है।ौर श्री परमानन्द शाहने परिशिष्ट बनाने में मदद की है, उनका भी भाभार मानना मेरा कर्तव्य है। हिं विश्वविद्यालय
दलसुल मालवणिया बनारस
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प्रस्तावना।
१. आगम युगका जैन दर्शन ।
[१] प्रमेयतत्व।
वर्णनके सुमीतेकी दृष्टिसे जैन दर्शनके विषयोंका संक्षिप्त वर्गीकरण करमा हो तो वह प्रमेयतत्व और प्रमाणतत्व इन दो मेदोंमें किया जा सकता है । न्यायावतार और उसके वासिकके इन दो विषयोंके मन्तव्योंका निरूपण करनेके पहले यह आवश्यक है कि न्यायावतारके पूनि बल दर्शनशासकी क्या सिति थी उसका संक्षिप्त विवेचन किया जाय । ऐसा करनेसे. वसर होगा कि जैन दर्शनशाखमें सिद्धसेन और शान्त्याचार्यकी क्या देन है। और वनशासक विकासक्रमको चार युगोंमें विभक्त किया जा सकता है
१ आगम युग। २ बनेकान्तसापन युग। ३ प्रमाणशासब्यवस्था युग ।
नवीनम्पाय युग। थुगोंके लक्षण युगोंके नामसे ही स्पष्ट है । कालमर्यादा इस प्रकार रखी जा सकती हैधागम युग भगवान महावीरके निर्वाणसे लेकर करीब एक हजार वर्षका है (वि० ५० १७०. वि० ५००), दूसरा वि० पाँचवींसे आठवीं शताब्दी तक; तीसरा आठवींसे सत्रहवीं तक।
और चौथा अठारहवींसे आधुनिक समय पर्यन्त । इन समी युगोंकी विशेषताओंका मैंने अन्यत्र संक्षिप्त विवेचन किया है। दसरे, तीसरे और चौथे युगकी दार्शनिक संपत्तिक विषयमें १० पण्डित सुखलालजी, पं० कैलाशचन्द्रजी, पं० महेन्द्रकुमारजी आदि विद्वानोंने पर्याप्त मात्रामें प्रकाश डाला है किन्तु आगम युगके साहित्यमें जैनदर्शनके प्रमेय और प्रमाण तत्वके विषयमें क्या क्या मन्तव्य हैं उनका संकलन पर्याप्तमात्रामें नहीं हुआ है। अत एव यहाँ जैन आगमोंके आधारसे उन दो तत्त्वोंका संकलन करनेका प्रयन किया जाता है। ऐसा होनेसे ही अनेकान्त युगके और प्रमाणशासव्यवस्था युगके विविध प्रवाहोंका उद्गम क्या है, आगममें वह है कि नहीं, है तो कैसा है यह स्पष्ट होगा, इतना ही नहीं बल्कि जैन आचार्योंने मूल तत्वोंका कैसा पल्लवन और विकसन किया तथा किन नवीन तत्वोंको तत्कालीन दार्शनिक विचारधारामैसे अपना कर अपने तत्वोंको व्यवस्थित किया यह भी स्पष्ट हो सकेगा तथा प्रस्तुतमें सिद्धसेन और शान्ख्याचार्यकी जैन दर्शनको क्या देन है यह भी स्पष्ट हो जायगा।
प्रेमी अभिनन्दन मन्भमें मेरा लेख पू. ३०३, तथा जैन संस्कृति संशोधन मंडळ पत्रिका
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भगवान् महावीरसे पूर्वकी खिति । आगम युगके दार्शनिक तत्वों के विवेचनमें मैंने श्वेताम्बरप्रसिद्ध मूल भागमोंका ही उपयोग किया है। दिगम्बके मूल षट्खण्डागम आदिका उपयोग मैंने नहीं किया । उन शाखोंका दर्शनके साथ अधिक सम्बन्ध नहीं है । उन ग्रन्थोंमें जैन कर्मतत्त्वका ही विशेष विवरण है। मैताम्बरोंके नियुक्ति आदि टीकापन्योंका कहीं कहीं स्पष्टीकरणके लिये उपयोग किया है, किन्तु जो मूलमें न हो ऐसी नियुक्ति आदिकी बातोंको प्रस्तुत आगम युगके दर्शन तत्के निरूपणमें स्थान नहीं दिया है । इसका कारण यह है कि हम आगम साहित्यके दो विभाग कर सकते हैं। एक मूल शास्त्रका तथा दूसरा टीका-नियुक्ति-भाष्य-चूर्णिका । प्रस्तुतमें मूलका ही विवेचन अमीष्ट है क्यों कि हमें यह देखना है कि सिद्धसेनके सामने क्या वस्तु थी । नियुक्तिके विषयमें यह निश्चित रूपसे अमी कहना कठिन है कि वे सिद्धसेनके सामने इसी रूपमें उपस्थित. पी या नहीं। उपलब्ध नियुक्तियोंसे यह प्रतीत होता है कि उनमें प्राचीन नियुक्तियाँ समाविष्ट कर दी गई हैं। किन्तु सर्वत्र यह बताना कठिन है कि कितना अंश मूल प्राचीन नियुक्तिका है और कितना अंश भद्रबाहुका है । अत एव नियुक्तिका अध्ययन किसी अन्य मौकेके लिये स्थगित रख कर प्रस्तुतमें मूल आगममें खास कर अंग, उपांग और नन्दी-अनुयोगके बाधार पर चर्चा की जायगी।
आगमिक दार्शनिक तस्वके विवेचनके पहले वेदसे लेकर उपनिषद् पर्यन्त विचारधाराके तथा बौद्ध त्रिपिटककी विचारधाराके प्रस्तुतोपयोगी अंशका भी भूमिका रूपसे आकलन किया है-सो इस दृष्टिसे कि तत्वविचारमें वैदिक और बौद्ध दोनों धाराओंके अघात-प्रख्याघातसे जैन आगमिक दार्शनिक चिन्तनधाराने कैसा रूप लिया यह स्पष्ट हो जाय ।
१ भगवान महावीरसे पूर्वकी स्थिति। (१) वेदसे उपनिषद् पर्यन्त ।
विपके स्वरूपके विषयमें नाना प्रकारके प्रश्न और उन प्रश्नोंका समाधान यह विविध प्रकारसे प्राचीन कालसे होता आया है । इस बातका साक्षी ऋग्वेदसे लेकर उपनिषद् और बादका समस्त दार्शनिक सूत्र और टीका-साहिल्य है ।
ऋग्वेदका दीर्घतमा ऋषि विश्वके मूल कारण और स्वरूपकी खोजमें लीन होकर प्रश्न करता है कि इस विश्वकी उत्पत्ति कैसी हुई है, इसे कौन जानता है ? है कोई ऐसा जो जानकार से पूछ कर इसका पता लगावे ! वह फिर कहता है कि मैं तो नहीं जानता किन्तु खोजमें इधर उधर विचरता हूँ तो वचनके द्वारा सत्यके दर्शन होते हैं । खोज करते करते दीर्घतमाने अन्तमें कह दिया कि - "एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति" । सत् तो एक ही है किन्तु विद्वान् उसका वर्णन कई प्रकारसे करते हैं । अर्थात् एक ही तत्त्वके विषयमें नाना प्रकारके वचन प्रयोग देखे जाते हैं।
१ऋग्वेद १०.५,२७,८८,१२९ इत्यादि । तैत्तिरीयोपनिषद् ३.१ । श्वेता० १.१ । २भाग्वेद १.१६४.४। ३ऋग्वेद १.१६४.३७। ४ाग्वेद १.१६४.४६ ।
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प्रस्तावना |
दीर्घतमा के इस उद्गारमें ही मनुष्यस्वभावकी उस विशेषताका हमें स्पष्ट दर्शन होता है जिसे हम समन्वयशीलता कहते हैं । इसी समन्वयशीलताका शास्त्रीय रूप जैनदर्शनसम्मत स्याद्वाद या अनेकान्तबाद है ।
'नासदीय सूक्तका' ऋषि जगत्के आदि कारण रूप उस परम गमीर तस्वको जब न सत् कहना चाहता है और न असत्, तब यह नहीं समझना चाहिए कि वह ऋषि अज्ञानी या संशयवादी था किन्तु इतना ही समझना चाहिए कि ऋषिके पास उस परम तत्त्वके प्रकाशनके लिए उपयुक्त शब्द न थे । शब्दकी इतनी शक्ति नहीं है कि वह परम तत्वको संपूर्ण रूपमें प्रकाशित कर सके । इसलिए ऋषिने कह दिया कि उस समय न सत् था न असत् । शब्द शक्ति की इस मर्यादा स्वीकारमेंसे ही स्याद्वादका और अस्वीकारमेंसे ही एकान्त वादोंका जन्म होता है।
विश्वके कारण की जिज्ञासामेंसे अनेक विरोधी मतवाद उत्पन्न हुए जिनका निर्देश उपनिषदों में हुआ है। जिसको सोचते सोचते जो सूझ पड़ा उसे उसने लोगों में कहना शुरू किया । इस प्रकार मतोंका एक जाल बन गया। जैसे एक ही पहाड़मेंसे अनेक दिशाओं में नदियाँ बहती हैं उस प्रकार एक ही प्रश्नमेंसे अनेक मतोंकी नदियाँ बहने लगीं । और ज्यों-ज्यों वह देश और कालमें आगे बढी त्यों-त्यों विस्तार बढ़ता गया । किन्तु वे नदियाँ जैसे एक ही समुद्र में जा मिलती हैं उसी प्रकार सभी मतवादियोंका समन्वय महासमुद्ररूप' स्याद्वाद या अनेकान्त वादमें हो गया है।
विश्वका मूल कारण क्या है ! वह सत् है या असत् ! सत् है तो पुरुष है या पुरुषेतर - जल, वायु, अग्नि, आकाश आदिमेंसे कोई एक ? इन प्रश्नोंका उत्तर उपनिषदोंके ऋषिओं अपनी अपनी प्रतिभाके बलसे दिया है । और इस विषय में नाना मतवादोंकी सृष्टि खड़ी कर दी है।
कथनमें मी एक रूपकके
किसीके मतसे असत्से ही सत् की उत्पत्ति हुई है। कोई कहता है - प्रारंभ में मृत्युका ही साम्राज्य था, अन्य कुछ भी नहीं था । उसीमेंसे सृष्टि हुई। इस जरिये असत् से सत् की उत्पत्तिका ही स्वीकार है। किसी ऋषिके और वही अण्ड बन कर सृष्टिका उत्पादक हुआ ।
मतसे असत् से सन् हुआ
इन मतोंके विपरीत सत्कारणवादियोंका कहना है कि असत् से सत् की उत्पत्ति कैसे
१ ऋग्वेद १०.१२९ ।
२ "धानिय सर्वसम्भवः समुदीर्णास्त्वयि नाथ दृष्टयः ।
न च वासु भवान् प्रदृश्यते प्रविभक्तासु सरिरिवोदधिः ॥"
- सिद्धसेनद्वात्रिंशिका ४.१५ ।
2 Constructive Survey of Upanishads. p. 73
• " असा इदमग्र आसीत् । ततो वै सदजायत । तैतिरी० २.७
५ " नैवेह किंचना आसीन्मृत्युनैवेदमावृतमासीत्” । - बृहदा० १.२.१
६ श्रादित्यो मझेत्यादेशः । तस्योपस्थानम् । असदेवेदमग्र आसीत् । तत् सदासीत् । तत् समभवत् । aeros निरवर्तत ।" छान्दो ० ३.१९.१
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भगवान् महावीर की स्थिति। हो सकती है ! सर्व प्रथम एक और अद्वितीय सत् ही था । उसीने सोचा मैं अनेक हो। सब क्रमशः सृष्टिकी उत्पत्ति हुई है।
- सत्कारणवादियोंमें मी ऐकमत्य नहीं । किसीने जलको, किसीने मायुको, किसीने पहिलो किसीने साकाश को और किसीने प्राणको विश्वका मूल कारण माना है। .. हम समी वादोंका सामान्य तस्व यह है कि विश्व के मूल कारण रूपसे कोई लामामा उप महीं है । किन्तु इन संमी वादोंके विरुद्ध अन्य ऋषिओंका मत है कि इन जन तत्वों में से सधि उत्पन हो नहीं सकती, सर्वोत्पत्तिके मूलमें कोई चेतन तत्स्व कर्ता होना चाहिए। .. पिपलाद ऋषिके मतसे प्रजापतिसे सृष्टि हुई है। किन्तु बृहदारण्यको बासको स्त कारण मानकर उसीमेंसे स्त्री और पुरुषकी उत्पत्तिके द्वारा क्रमशः संपूर्ण विनायी सविसनी गई है। ऐतरेयोपनिषद्में भी सृष्टिक्रममें मेद होने पर भी मूल कारण तो आत्मा ही माना गया है। यही बात तैत्तिरीयोपनिषद्के विषयमें मी कही जा सकती है। किन्तु इसकी विशेषता यह है कि आत्माको उत्पत्तिका कर्ता नहीं बल्कि कारण मात्र माना गया है । अर्थात् अन्यत्र स्पष्ट रूपसे आत्मा या प्रजापतिमें सृष्टिकर्तृत्वका आरोप है जब कि इसमें आत्माको सिर्फ मूल कारण मान कर पंचभूतोंकी संभूति उस आत्मासे हुई है इतना ही प्रतिपाय है । मुण्डकोपनिषदमें जड़ और चेतन समी की उत्पत्ति दिव्य, अमूर्त और अज ऐसे पुरुषसे मानी गई है। यहाँ मी उसे कर्ता नहीं कहा । किन्तु श्वेताश्वतरोपनिषद्में विवाधिप देवाधिदेव रुन्न ईबरको ही जगत्का माना गया है और उसीको मूल कारण भी कहा गया है।
उपनिषदोंके इन वादोंको संक्षिप्तमें कहना हो तो कहा जा सकता है कि किसी के मतसे मस से सत् की उत्पत्ति होती है, किसीके मतसे विश्वका मूल तत्व सत् जड है और कितीत मासे वह सब तत्व चेतन है।
एक दूसरी दृष्टिसे मी कारणका विचार प्राचीन कालमें होता था । उसका पता हमें आतावतरोपनिषद् से चलता है। उसमें ईघरको ही परम तल और आदि कारण सिकरनेके लिये जिन अन्य मतोंका निराकरण किया गया है वे ये हैं:'-१ काल, २ स्वभाव, विति,
पहच्छा, ५ भूत, ६ पुरुष, ७ इन समीका संयोग, ८ भास्मा।
उपनिषदोंमें इन नाना वादोंका निर्देश है अतएव उस समय पर्यन्त इन वादोंका सिर था ही इस बातका खीकार करते हुए भी प्रो० रानडे का कहना है कि "उपनिषदकालीन दार्शनिकोंकी दर्शन क्षेत्रमें जो विशिष्ट देन है वह तो आत्मवाद है।
. "सदेव सोम्येदमन भासीदेकमेवाद्वितीयम् । तदैक माहुरसदेवेदमन भासीदेखमेवारीनीवर। समावसतः सजायत । कुतस्तु खलु सोम्य एवं खादिति होवाच कथमसता सज्जायतेति । सत्वेष सोम्बेदम मासीत् एकमेवाद्वितीयम् तदैक्षत बहुला प्रजावेवेति"-छान्दो०६.२।
२. पदा० ५.५.१। छान्दो० ४.३। कठो० २.५.९.। छान्दो० १.१.१ १.११.५. । ४.३.३ । ७.१२.१। .३ प्रश्नो० १.३-१३। ४ गृहदा० १.४.१-४। ५ऐतरेय १.१-३॥ ६ तैतिरी०२.१। ७मुण्ड० २.१.२५। ८श्वेता० ३.२ ३.९ । ९"काल स्वभावो नियतिरछा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्यर। पंयोग पान स्वास्ममावादामाप्यनीश: मुखदुखहेतोः॥"-श्वेता० १.२। 9. Constructive Survey of Upanishadas, ch. V. P. 246.
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प्रतापना।
अन्य समी वादोंके होते हुए मी जिस वादने आगेकी पीढीके ऊपर अपना असर कायम रखा और जो उपनिषदोंका खास तस्व समझा जाने लगा वह तो आत्मवाद ही है। उपनिषदोंके ऋषि अन्तमें इसी नतीजे पर पहूँचे कि विश्वका मूल कारण या परम तत्त्व आत्मा ही है। परमेश्वरको मी जो संसारका आदि कारण है श्वेताश्वतरमें 'आत्मस्ख' देखने को कहा है"समात्मसं बेऽचुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं तरेपाम्" ६.१२। अान्दोम्पका निन्न वाक्य देखिए“अथातः भारमादेश: आत्मैवाधस्ताद, भात्मोपरिधान, मारमा पभाव. सास्मा पुरस्तात्, मात्मा दक्षिणता, आत्मोत्तरतः आत्मैवेदं सर्वमिति । स वा एष एवं पश्यन् एवं मम्वान एवं विजाननात्मरतिरात्मक्रीड आत्ममिथुन मात्मानन्दः स खराइ भवति वस सरेंषु लोकेषु कामदारो भवति । छान्दो० ७.२५ ।
बृहदारण्यकमें उपदेश दिया गया है कि"नया भरे सदस्य कामाय सर्वे प्रियं भवति मात्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति। मात्मा वा अरे द्रव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैोव्यात्मनो मा मरे. पनेर अषणेन मस्या विज्ञानेनेदं सर्व विदितम् । २.४.५।।
उपनिषदोंका ब्रह्म और आत्मा मिन्न नहीं किन्तु आत्मा ही ब्रह्म है- 'अयमात्मा ब्रह्म'बृहदा० २.५.१९।
इस प्रकार उपनिषदोंका तात्पर्य आत्मवाद या ब्रह्मवादमें है, ऐसा जो कहा जाता है वह उस कालके दार्शनिकोंका उस वादके प्रति जो विशेष पक्षपात था उसीको लक्ष्यमें रखकर है । परम तत्त्व आत्मा या ब्रह्मको उपनिषदोंके ऋषियोंने शाश्वत, सनातन, नित्य, अजन्य, भुव माना है।
इसी आत्म तत्त्व या ग्रह्म तत्त्वको जड़ और चेतन जगत् का उपादान कारण, निमित्त कारण या अधिष्ठान मान कर दार्शनिकोंने केवलाद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत या शुद्धाद्वैतका समर्थन किया है। इन समी वादोंके अनुकूल वाक्योंकी उपलब्धि उपनिषदोंमें होती है। अतः इन समी बादोंके बीज उपनिषदोंमें है ऐसा मानना युक्तिसंगत ही है।
उपनिषत्कालमें कुछ लोग महाभूतोंसे आत्माका समुत्थान और महाभूतोंमें ही भाल्माका लय माननेवाले थे किन्तु उपनिषत्कालीन आस्मवादके प्रचण्ड प्रवाहमें उस वादका कोई खास मूल्य नहीं रह गया। इस बात की प्रतीति बृहदारण्यकनिर्दिष्ट याज्ञवल्क्य और मैत्रेयीके संवादसे हो जाती है। मैत्रेयीके सामने जब याज्ञवल्क्यने भूतवादकी चर्चा छेड़ कर कहा कि “किहानधन इन भूतोंसे ही समुस्थित होकर इन्हीं में लीन हो जाता है, परलोक या पुनर्जन्म जैसी कोई बात नहीं है। तब मैत्रेयीने कहा कि ऐसी बात कह कर हमें मोहमें मत गलो । इससे स्पष्ट है कि मात्मवादके सामने भूतवादका कोई मूल्य नहीं रह गया था।
प्राचीन उपनिषदोंका काल प्रो. रानडेने ई०पू० १२०० से ६०० तक का माना । यह काल भगवान् महावीर और बुद्धके पहलेका है । अतः हम कह सकते हैं कि उन दोनों
को १.२.१० । २...। १३.५। २.४.२ । ता० २.१५ । मुणको लागि । .Constru. p. 205-232. ... "विज्ञानधन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेस संज्ञा भलीयरे प्रवीमिति होवाच याज्ञवल्क्यः ।" वृहदा० २.४.१२ ।
.Constru. p. 18
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भगवान् बुद्धका अनात्मवाद ।
महापुरुषोंके पहले भारतीय दर्शनकी स्थिति जाननेका साधन उपनिषदोंसे बढ़कर अन्य कुछ हो नहीं सकता । अत एव हमने ऊपर उपनिषदोंके आधारसे ही भारतीय दर्शनोंकी स्थिति पर कुछ प्रकाश डालनेका प्रयत्न किया है । उस प्रकाशके आधार पर यदि हम जैन और बौद्ध दर्शनके मूल तत्वोंका विश्लेषण करें तो दार्शनिक क्षेत्रमें जैन और बौद्ध शास्त्रकी क्या देन है यह सहज ही में विदित हो सकता है। प्रस्तुतमें विशेषतः जैन तत्वज्ञानके विषयमें ही कहना इष्ट है, इस कारण बौद्ध दर्शनके तत्वोंका उल्लेख तुलनाकी दृष्टिसे प्रसंगवश ही किया जायगा और मुख्यतः जैन दर्शनके मौलिक तत्त्वकी विवेचना की जायगी ।
(२) भगवान् बुद्धका अनात्मवाद ।
•
भगवान् महावीर और बुद्धके निर्माणके विषयमें जैन-बौद्ध अनुश्रुतियोंको यदि प्रमाण माना जाय तो फलित यह होता है कि भगवान् बुद्धका निर्वाण ई० पू० ५४४ में हुआ था अत एव उन्होंने अपनी इहजीवनलीला भगवान् महावीरसे पहले समाप्त की थी और उन्होंने उपदेश मी भगवान् के पहले ही देना शुरू किया था । यही कारण है कि वे पार्श्व परंपरा के चातुर्यामका उल्लेख करते । उपनिषत्कालीन आत्मवादकी बाढको भगवान बुद्धने अनात्मवादका उपदेश देकर मंद किया । जितने वेगसे आत्मवादका प्रचार हुआ और सभी तत्त्वके मूलमें एक परम तव शाश्वत आत्माको ही माना जाने लगा उतने ही वेगसे भगवान् बुद्धने उस वादकी जड काका प्रयत्न किया । भगवान् बुद्ध विभज्यवादी थे। अत एव उन्होंने रूप आदि ज्ञात वस्तुओंको एक एक करके अनात्म सिद्ध किया । उनकी दलीलका क्रम ऐसा है
-
'क्या रूप अनित्य है या निल !
अनिष्य ।
जो अनित्य है वह सुख है या दुःख !
दुःख ।
जो बीज अनित्य है, दुःख है, विपरिणामी है क्या उसके विषयमें इस प्रकारके विकल्प करना ठीक है कि - यह मेल है, यह मैं हूँ, यह मेरी आत्मा है ! ।
नहीं ।
इसी क्रमसे वेदना, ' संज्ञा, संस्कार और विज्ञानके विषयमें भी प्रश्न करके भगवान् बुद्धने अनात्मवादको स्थिर किया है। इसी प्रकार चक्षुरादि इन्द्रियाँ, उनके विषय, तज्जन्य विज्ञाम, मनं, मानसिक धर्म और मनोविज्ञान इन सबको मी अनात्म सिद्ध किया है।
कोई भ० बुद्ध से पूछता कि जरा-मरण क्या है और किसे होता है, जाति क्या है और किसे होती है, भव क्या है और किसे होता है ? तो तुरन्त ही वे उत्तर देते कि ये प्रश्न ठीक नहीं । क्यों कि प्रभकर्ता इन सभी प्रश्नोंमें ऐसा मान लेता है, कि जरा आदि अन्य हैं और जिसको ये जरा आदि होते हैं वह अन्य हैं । अर्थात् शरीर अन्य है और आत्मा पर ब्रह्मचर्यवास - धर्माचरण संगत नहीं । अत एव भगवान् बुद्धका
अन्य है। किन्तु ऐसा मानने
कहना है कि प्रश्नका आकार
• संयुतनिकाय XII. 70.82-37
२ दीनका महानिदानसुस १५ । ३ मज्झिमनिकाय १७८ ।
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प्रस्तावना ।
ऐसा होना चाहिए- जरा कैसे होती है ! जरा-मरण कैसे होता है ! जाति कैसे होती है ! भव कैसे होता है ! तब भगवान् बुद्धका उत्तर है कि ये सब प्रतीत्यसमुत्पन्न हैं । मध्यम मार्गका अवलंबन लेकर भगवान् बुद्ध समझाते हैं कि शरीर ही आत्मा है ऐसा मानना एक अन्त है और शरीरसे. मित्र आत्मा है ऐसा मानना दूसरा अन्त है। किन्तु मैं इन दोनों अन्तोंको छोडकर मध्यम मार्गसे उपदेश देता हूँ किः -
अविद्या होनेसे संस्कार, संस्कारके होनेसे विज्ञान, विज्ञानके होनेसे नाम-रूप, नाम-रूपके होनेसे छः आयतन, छः आयतनोंके होनेसे स्पर्श, स्पर्शके होनेसे वेदना, वेदनाके होनेसे तृष्णा, तृष्णाके होनेसे उपादान, उपादानके होनेसे भव, भवके होनेसे जाति-जन्म, जन्मकें होनेसे जरा-मरण है । यही प्रतीत्यसमुत्पाद है' ।
आनन्दने एक प्रश्न भगवान् बुद्धसे किया कि आप बारबार लोक शून्य है ऐसा कहते हैं इसका तात्पर्य क्या है ? बुद्धने जो उत्तर दिया उसीसे बौद्धदर्शनकी अनात्मविषयक मौलिक मान्यता व्यक्त होती है:
-
"यस्मा च खो आनन्द सुरूअं अत्तेन वा अन्तनियेन वा तस्मा सुम्नो लोको ति दुबति । किं चमानन्द लु असेन वा अन्तनियेन वा ? वक्तुं खो आनन्द सु अन्तेन वा अतनिचैन वा ......... रूपं रूपविज्ञाणं” इत्यादि । - संयुक्त निकाय XXXV. 85. भगवान् बुद्धके अनात्मवादका तात्पर्य क्या है ? इस प्रश्नके उत्तरमें इतना स्पष्ट करना आवश्यक कि ऊपरकी चर्चासे इतना तो भलीभाँति ध्यान में आता है कि भगवान् बुद्धको सिर्फ शरीरात्मवाद ही अमान्य है इतना ही नहीं बल्कि सर्वान्तर्यामी नित्य, ध्रुव, शाश्वत ऐसा आत्मवाद मी अमान्य है । उनके मतमें न तो आत्मा शरीरसे अत्यन्त भिन्न ही है और न आत्मा शरीरसे अभिन ही । उनको चार्वाकसम्मत भौतिकवाद मी एकान्त प्रतीत होता है और उपनिषदोंका कूटस्थ आत्मवाद मी एकान्त प्रतीत होता है। उनका मार्ग तो मध्यम मार्ग है । प्रतीत्यसमुत्पादवाद है । वही अपरिवर्तिष्णु आत्मा मरकर पुनर्जन्म लेती है और संसरण करती है ऐसा मानने पर शाश्वतवाद' होता है और यदि ऐसा माना जाय कि माता-पिताके संयोगसे चार महाभूतोंसे आत्मा उत्पन्न होती है और इसी लिए शरीरके नष्ट होते ही आत्मा भी उच्छिन, विनष्ट और लुप्त होती है, तो यह उच्छेदवाद है।
1
तथागत बुद्धने शाश्वतवाद और उच्छेदवाद दोनोंको छोड़कर' है। भगवान बुद्धके इस अशाश्वतानुच्छेदवादका स्पष्टीकरण निम्न संवादसे होता है
'क्या भगवन् गौतम ! दुःख स्वकृत है ?'
'काश्यप ! ऐसा नहीं है ।'
'क्या दुःख परकृत है ?"
'नहीं ।'
"क्या दुःख स्वकृत और परकृत है ?'
'नहीं ।'
१ संयुतनिकाय XII. 85. अंगुत्तरनिकाय ३ । निकाय XII. 17.
मध्यम मार्गका उपदेश दिया
२ दीघनिकाय । १ ब्रह्मजाकसुत ।
३ संयुत
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भगवान् बुद्धका अनात्मवाद ।
'क्या अकृत और अपरकृत दुःख है "
'नहीं "
'तब क्या है ! आप तो सभी प्रश्नोंका उत्तर नकारमें देते हैं, ऐसा क्यों ?"
'दुःख स्वकृत है ऐसा कहनेका अर्थ होता है कि जिसने किया वही भोग करता है । किन्तु ऐसा कहने पर शाश्वतवादका अवलंबन होता है । और यदि ऐसा कहूँ कि दुःख परकृत है तो इसका मतलब यह होगा कि किया किसी दूसरेने और भोग करता है कोई अन्य । ऐसी स्थिति में उच्छेदवाद आ जाता है 1 अत एव तथागत उच्छेदवाद और शाश्वतवाद इन दोनों अन्तोंको छोड़कर मध्यम मार्गका - प्रतीत्य समुत्पादका उपदेश देते हैं कि अविद्यासे संस्कार होता है, संस्कारसे विज्ञान .. • स्पर्शसे दुःखइत्यादि " - संयुत्तनिकाय XII 17. XII 24
तात्पर्य यह है कि संसार में सुख-दुःख इत्यादि अवस्थाएँ हैं, कर्म है, जन्म है, मरण है, बन्ध है, मुक्ति है - ये सब होते हुए भी इनका कोई स्थिर आधार आत्मा हो ऐसी बात नहीं है; परंतु ये अवस्थाएँ पूर्व-पूर्व कारणसे उत्तर-उत्तर कालमें होती हैं और एक नये कार्यको, एक नई अवस्थाको उत्पन्न करके नष्ट हो जाती हैं। इस प्रकार संसारका चक्र चलता रहता है। पूर्वका सर्वथा उच्छेद मी इष्ट नहीं और धौव्य मी इष्ट नहीं । उत्तर पूर्वसे सर्वथा असंबद्ध हो, अपूर्व हो यह बात मी नहीं किन्तु पूर्वके अस्तित्वके कारण ही उत्तर होता है । पूर्वकी सारी शक्ति. उत्तरमें आ जाती है। पूर्वका कुल संस्कार उत्तरको मिल जाता है । अत एव पूर्व अब उत्तर रूपमें अस्तित्वमें है । उत्तर पूर्व से सर्वथा भिन्न मी नहीं, अभिन्न मी नहीं। किन्तु अव्याकृत है । क्यों कि भिन्न कहने पर उच्छेदवाद होता है और अभिन्न कहने पर शाश्वतवाद होता है । भगवान् बुद्धको ये दोनों वाद मान्य न थे; अत एव ऐसे प्रश्नोंका उन्होंने अव्याकृत' कह कर उत्तर दिया है ।
इस संसारचक्रको काटनेका उपाय यही है कि पूर्वका निरोध करना । कारणके निरुद्ध हो जानेसे कार्य उत्पन्न नहीं होगा । अर्थात् अविद्याके निरोधसे तृष्णाके निरोधसे उपादानका निरोध, उपादानके निरोधसे भवका निरोध, भवके निरोधसे जन्मका निरोध, जन्मके निरोधसे मरणका निरोध हो जाता है ।
किन्तु यहाँ एक प्रश्न होता है कि मरणानन्तर तथागत बुद्धका क्या होता है ! इस प्रश्नका उत्तर भी अव्याकृत है। वह इसलिये कि यदि यह कहा जाय कि मरणोत्तर तथागत होता है तो शाश्वतवादका और यदि यह कहा जाय कि नहीं होता तो उच्छेदवादका प्रसंग जाता है । अत एव इन दोनों वादों का निषेध करनेके लिये भ० बुद्धने तथागतको मरणोत्तरदशामें अव्याकृत कहा है । जैसे गंगाकी बालुका नाप नहीं, जैसे समुद्रके पानीका नाप नहीं, इसी प्रकार मरणोत्तर तथागत
गंभीर है, अप्रमेय है अत एव अव्याकृत है। जिस रूप, वेदना, संज्ञा, आदिके कारण तथागत की प्रज्ञापना होती थी वह रूपादि तो प्रहीण हो गये । अब तथागतकी प्रज्ञापनाका कोई साधन नहीं बचता इसलिये वे अव्याकृत हैं ।
इस प्रकार जैसे उपनिषदोंमें आत्मवादकी या ब्रह्मवादकी पराकाष्ठाके समय आत्मा या ब्रह्मको 'नेति नेति' के द्वारा अवक्तव्य प्रतिपादित किया गया है, उसे सभी विशेषणोंसे पर बताया जाता
१ संयुक्तनिकाय XLIV 1, 7 and 8. २ संयुत निकाय XLIV
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प्रतापना।
है ठीक उसी प्रकार तथागत बुद्धने मी आत्माके विषयमें उपनिषदोंसे बिल्कुल उलटी राह लेकर मी उसे अव्याकृत माना है। जैसे उपनिषदोंमें परम तत्वको अवकव्य मानते हुए भी अनेक प्रकारसे आत्माका वर्णन हुआ है और वह व्यावहारिक माना गया है उसी प्रकार भ० बुद्धने मी कहा है कि लोकसंडा, लोकनिरुक्ति, लोकन्यवहार, लोकप्रज्ञप्तिका आश्रय करके कहा जा सकता है कि "मैं पहले था, 'नहीं था' ऐसा नहीं, मैं भविष्यमें होऊँगा, 'नहीं होऊँगा' ऐसा नहीं, मैं अब हूँ, 'नहीं हूँ ऐसा नहीं ।" तथागत ऐसी भाषाका व्यवहार करते हैं किन्तु इसमें फँसते नहीं। (३) जैनतस्वविचारकी प्राचीनता
इतनी वैदिक और बौद्ध दार्शनिक पूर्व भूमिकाके आधार पर जैन दर्शनकी आगमवर्णित भूमिका विषयमें विचार किया जाय तो उचित ही होगा। जैन आगमोंमें जो तस्व-विचार है वह तत्कालीन दार्शनिक विचारकी भूमिकासे सर्वथा अछूता रहा होगा इस बातका भखीकार करते हुए भी जैन अनुभुतिके आधार पर इतना तो कहा जा सकता है कि जैन आगमवर्णित तत्वविचारका मूल भगवान् महावीरके समयसे मी पुराना है । जैन अनुभुतिके अनुसार भगवान् महावीरने किसी नये तत्वदर्शनका प्रचार नही किया है किन्तु उनसे २५० वर्ष पहले होने वाले तीर्थकर पार्श्वनाथके तत्वविचारका ही प्रचार किया है । पार्थनाथसम्मत आचारमें तो भगवान् महावीरने कुछ परिवर्तन किया है जिसकी साक्षी स्वयं भागम दे रहे हैं किन्तु पार्श्वनाथके तत्त्वज्ञानसे उनका कोई मतमेद जैन अनुश्रुतिमें बताया गया नहीं है । इससे हम इस नतीजे पर पहुँच सकते हैं कि जैन तस्वविचारके मूल तत्व पार्थनाथ जितने तो पुराने अवश्य हैं। ___ जैन अनुभुति तो इससे मी आगे जाती है । उसके अनुसार अपने से पहले हुए श्रीकृष्ण के समकालीन तीर्थकर अरिष्टनेमिकी परंपरा को ही पार्श्वनाथने ग्रहण किया था और खयं अरिष्टनेमिने प्रागैतिहासिक काल में होनेवाले नमिनाय से । इस प्रकार वह अनुभुति हमें ऋषभदेव, जो कि भरतचक्रवर्ती के पिता थे, तक पहुँचा देती है। उसके अनुसार तो वर्तमान वेदसे लेकर उपनिषद् पर्यन्त संपूर्ण साहित्य का मूलस्रोत ऋषभदेवप्रणीत जैन तत्त्वविचारमें ही है।
इस जैन अनुश्रुति के प्रामाण्य को ऐतिहासिक-दृष्टिसे सिद्ध करना संभव नहीं है तो मी अनुश्रुतिप्रतिपादित जैन विचार की प्राचीनता में संदेह को कोई स्थान नहीं है । जैन तत्त्वविचार की खतंत्रता इसीसे सिद्ध है कि जब उपनिषदोंमें अन्य दर्शनशास्त्रके बीज मिलते हैं
जैन तत्त्वविचारके बीज नहीं मिलते । इतना ही नहीं किन्तु भगवान महावीरप्रतिपादित भागमोंमें जो कर्मविचार की व्यवस्था है, मार्गणा और गुणस्थान सम्बन्धी जो विचार है, जीवों की गति और आगति का जो विचार है, लोककी व्यवस्था और रचना का जो विचार है, जड़ परमाणु पुद्गलोंकी वर्गणा और पुद्गल स्कन्धका जो व्यवस्थित विचार है, षड्दव्य और
"हमव्यवहार्यमग्राममलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसार प्रपनोपशमं शान्तं शिवरतं चतुर्थ मन्यन्ते स मात्मा स विशेयः।"-माण्ड०६.७ । "स एष नेति नेति हत्यारमाऽगृझो नहि गृह्यते।"-हदा० ४.५.१५ । इत्यादि Construe. p. 219 । २वीपनिकाय-पोट्टपावसुत्त।
न्या. प्रस्तावना २
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१०
भगवान् महावीरकी देन ।
और इस धाराका
मवतत्वका जो व्यवस्थित निरूपण है उसको देखते हुए यह कहा जा सकता है कि जैन तत्वविचारधारा भगवान महावीरसे पूर्व की कई पीढियोंके परिश्रमका फल उपनिषद्प्रतिपादित अनेक मतों से पार्थक्य और स्वातंत्र्य स्वयंसिद्ध है । १२ भगवान् महावीरकी देन - अनेकान्तवाद ।
प्राचीन तव व्यवस्था में भगवान् महावीर ने क्या नया अर्पण किया इसे जाननेके लिये भागमोंसे बढ़कर हमारे पास कोई साधन नहीं है । जीव और अजीवके मेदोपमेदोंके 1 विषयमें, मोक्षलक्षी आध्यात्मिक उत्क्रान्तिक्रमके सोपानरूप गुणस्थानके विषयमें, चार प्रकारके ध्यानके विषयमें या कर्मशास्त्रके सूक्ष्म भेदोपभेदोंके विषयमें या लोकरचनाके विषय में या परमाणुओंकी विविध वर्गणाओंके विषय में भगवान् महावीरने कोई नया मार्ग .दिखाया हो यह तो आगमोंको देखने से प्रतीत नहीं होता । किन्तु तत्कालीन दार्शनिक क्षेत्र तव खरूपके विषयमें जो नये नये प्रश्न उठते रहते थे उनका जो स्पष्टीकरण भगवान् महावीरने तत्कालीन अन्य दार्शनिकोंके विचारके प्रकाशमें किया है वही उनकी दार्शनिक क्षेत्र में देन समझना चाहिए। जीवका जन्म-मरण होता है यह बात नई नहीं थी । परमाणुके नाना कार्य बाह्य जगतमें होते हैं और नष्ट होते हैं यह भी स्वीकृत था । किन्तु जीव और परमाणुका कैसा खरूप माना जाय जिससे उन भिन्न भिन्न अवस्थाओं के घटित होते रहने पर मी जीव और परमाणुका उन अवस्थाओंके साथ सम्बन्ध बना रहे । यह और ऐसे प्रश्न तत्कालीन दार्शनिकोंके द्वारा उठाये गये थे और उन्होंने अपना अपना स्पष्टीकरण भी किया था। इन नये प्रश्नोंका भगवान् महावीरने जो स्पष्टीकरण किया है वही उनकी दार्शनिक क्षेत्रमें नई देन है । अत एव आगमों के आधार पर भगवान् महावीरकी उस देन पर विचार किया जाय तो बादके जैन दार्शनिक विकासकी मूल भित्ति क्या थी यह सरलतासे स्पष्ट हो सकेगा ।
ईसाके बाद होनेवाले जैनदार्शनिकोंने जैनतस्वविचारको अनेकान्तवादके नामसे प्रतिपादित किया है और भगवान् महावीरको उस वादका उपदेशक बताया है। उन आचार्योंका उक्त कथन कहाँतक ठीक है और प्राचीन आगमोंमें अनेकान्तवादके विषय में क्या कहा गया है उसका दिग्दर्शन कराया जाय तो यह सहज ही में मालूम हो जायगा कि भगवान् महावीर ने समकालीन दार्शनिकों में अपनी विचारधारा किस ओर बहाई और बादमें होनेवाले जैन आचार्योंने उस विचारधाराको लेकर उसमें क्रमशः कैसा विकास किया ।
(१) चित्रविचित्र पक्षयुक्त पुंस्कोकिल का स्वप्न ।
भगवान महावीर को केवलज्ञान होनेके पहले जिन दश महाखमोंका दर्शन हुआ था उनका उल्लेख भगवती सूत्रमें आया है। उनमें तीसरा खम इस प्रकार है:
एगं च णं महं चित्तविचिचपक्खगं पुंस कोइलगं सुविणे पासिता णं पडिबुजे ।" अर्थात- एक बडे चित्रविचित्र पांखवाले पुंस्कोकिलको खनमें देखकर वे प्रतिबुद्ध हुए । इस महाखनका फल बताते हुए कहा गया है कि:
"जणं समणे भगवं महावीरे एवं महं चित्तविचित्तं जाव पडिबुध्धे तष्णं समणे भगवं महावीरे विश्चित्तं ससमयपरसमइयं दुबालसंगं गणिपिडगं आघवेति परूवेति...... ।”
पनवेति
१ भीमरूप का० ५० ।
२ भगवती शतक १६ उद्देशक ६ ।
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प्रस्तावना ।
११
अर्थात् उस स्वप्नका फल यह है कि भगवान् महावीर विचित्र ऐसे खपर सिद्धान्तको बताने वाले द्वादशांग का उपदेश देंगे ।
प्रस्तुतमें चित्रविचित्र शब्द खास ध्यान देने लायक है । बादके जैन दार्शनिकोंने जो चित्रज्ञान और चित्रपट को लेकर बौद्ध और नैयायिक-वैशेषिकके सामने अनेकान्तवादको सिद्ध किया है वह इस चित्रविचित्र शब्दको पढते समय याद आ जाता है । किन्तु प्रस्तुतमें उसका सम्बन्ध न भी हो तब भी पुंस्कोकिलकी पांखको चित्रविचित्र कहनेका और आगमोंको विचित्र विशेषण देनेका खास तात्पर्य तो यही मालूम होता है कि उनका उपदेश अनेकरंगीअनेकान्तवाद माना गया है । चित्रविचित्र विशेषण से सूत्रकारने यही ध्वनित किया है ऐसा निश्चय करना कठिन है किन्तु यदि भगवान के दर्शनकी विशेषता और प्रस्तुत चित्रविचित्र विशेषण का कुछ मेल बिठाया जाय तब यही संभावना की जा सकती है कि वह विशेषण सामिप्राय है और उससे सूत्रकारने भगवान् के उपदेशकी विशेषताः अर्थात् अनेकान्तवादको ध्वनित किया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है ।
६३. विभज्यवाद ।
सूत्रकृतांग में भिक्षु कैसी भाषाका प्रयोग करे, इस प्रश्न के प्रसंगमें कहा गया है कि विभयवाद का प्रयोग' करना चाहिए । विभज्यवादका मतलब ठीक समझनेमें हमें जैन टीकाप्रन्थोंके अतिरिक्त बौद्ध ग्रन्थ मी सहायक होते हैं । बौद्ध मज्झिमनिकाय (सुत्त ९९ ) में शुभ माणवक प्रश्न के उत्तरमें भ० बुद्धने कहा कि - "हे माणवक ! मैं यहाँ विभज्य - वादी हूँ, एकांशवादी नहीं ।" उसका प्रश्न था कि मैंने सुन रखा है कि गृहस्थ ही आराधक होता है, प्रत्रजित आराधक नही होता । इसमें आपकी क्या राय है ? इस प्रश्नका एकांशी हा या नहींमें उत्तर न देकर भगवान् बुद्धने कहा कि गृहस्थ भी यदि मिथ्यात्वी है। तो निर्वाणमार्गका आराधक नहीं और त्यागी भी यदि मिथ्यात्वी है तो वह भी आराधक नहीं । किन्तु यदि वे दोनों सम्यक् प्रतिपत्तिसम्पन्न हैं, तभी आराधक होते हैं । अपने ऐसे उत्तरके बल पर वे अपने आपको विभज्यवादी बताते हैं और कहते हैं कि मैं एकांशवादी नहीं हूँ ।
यदि वे ऐसा कहते कि गृहस्थ आराधक नहीं होता, त्यागी आराधक होता है या ऐसा कहते कि त्यागी आराधक होता है, गृहस्थ आराधक नहीं होता तब उनका वह उत्तर एकांशवाद' होता । किन्तु प्रस्तुत में उन्होंने त्यागी या गृहस्थकी आराधकता और अनाराधकतामें जो अपेक्षा या कारण था उसे बताकर दोनों को आराधक और अनाराधक बताया है । अर्थात् प्रश्नका उत्तर विभाग करके दिया है अतएव वे अपने आपको विभज्यवादी कहते हैं ।
यहाँ पर यह ध्यान रखना चाहिए कि भगवान् बुद्ध सर्वदा सभी प्रश्नोंके उत्तर में विभण्यवादी नहीं थे । किन्तु जिन प्रश्नों का उत्तर विभज्यवादसे ही संभव था उन कुछ ही प्रश्नोंका उत्तर देते समय ही वे विभज्यवादका अवलम्बन लेते थे ।
१. "मिक्खू विभजवायं च बियागरेजा" । सूत्रकृतांग १.१४.२२ । २ देखो -दीघनिकाय - ३३ संगितिपरियाय सुत्तमें चार प्रभध्याकरण | ३ वही ।
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विभन्यवाद ।
उपर्युक्त बौद्ध सूत्र से एकांशवाद और विभज्यवादका परस्पर विरोध स्पष्ट सूचित हो जाता है। जैन टीकाकार विभज्यवाद का अर्थ स्याद्वाद अर्थात् अनेकान्तवाद करते हैं । एकान्तवाद और अनेकान्तवादका मी परस्पर विरोध स्पष्ट ही है । ऐसी स्थितिमें सूत्रकृतांगगत विभज्यवादका अर्थ अनेकान्तवाद या नयवाद या अपेक्षावाद या पृथक्करण करके, विभाजन करके किसी तव विवेचन का वाद भी लिया जाय तो ठीक ही होगा । अपेक्षामेदसे. स्यात्शब्दांकित प्रयोग आगममें देखे जाते हैं । एकाधिक भंगोंका स्यादुवाद मी आगममें मिलता है । अतएव आगमकालीन अनेकान्तवाद या विभज्यवादको स्यादवाद मी कहा जाय तो अनुचित नहीं ।
भगवान् बुद्धका विभज्यवाद कुछ मर्यादित क्षेत्रमें था । और भगवान् महावीरके विभज्य - वादका क्षेत्र व्यापक था । यही कारण है कि जैनदर्शन आगे जाकर अनेकान्तवाद में परिणत हो गया और बौद्धदर्शन किसी अंशमें विभज्यवाद होते हुए मी एकान्तवाद की ओर अग्रसर हुआ ।
१२
भगवान् बुद्धके विभज्यवादकी तरह भगवान् महावीरका विभज्यवाद मी भगवतीगत प्रश्नोचरोंसे स्पष्ट होता है । गणधर गौतम आदि और भगवान् महावीर के कुछ प्रश्नोत्तर नीचे दिये जाते हैं जिनसे भगवान् महावीरके विभज्यवादकी तुलना भ० बुद्धके विभज्यवादसे करनी सरल हो सके ।
(१)
गौ० - कोई यदि ऐसा कहे कि - 'मैं सर्व प्राण, सर्वभूत, सर्व जीव, सर्व सत्त्वकी हिंसा का प्रत्याख्यान करता हूँ' तो क्या उसका वह प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है या दुष्प्रत्याख्यान भ० महावीर - स्यात् सुप्रत्याख्यान है और स्यात् दुष्प्रत्याख्यान है ।
!
गौ० - भन्ते ! इसका क्या कारण !
भ० महावीर - जिसको यह भान नहीं कि ये जीव हैं और ये अजीव, ये त्रस हैं और ये स्थावर, उसका वैसा प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है। वह मृषावादी है। किन्तु जो यह जानता है कि ये जीव हैं और ये अजीव, ये त्रस हैं और ये स्थावर, उसका वैसा प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है, वह सत्यवादी है।
भगवती श० ७. उ० २. सू० २७० ।
(२)
जयंती - भंते ! सोना अच्छा है या जगना ?
भ० महावीर जयंती ! कितनेक जीवोंका सोना अच्छा है और कितनेक जीवोंका जगना अच्छा है ।
ज० - इसका क्या कारण है ?
भ० म० - जो जीव अधर्मी हैं, अधर्मानुग हैं, अधर्मीष्ठ हैं, अधर्माख्यायी है, अधर्मप्रलोकी हैं, अधर्मप्ररञ्जन हैं, अधर्मसमाचार हैं, अधार्मिक वृत्तिवाले हैं वे सोते रहें यही अच्छा है; क्योंकि जब वे सोते होंगे अनेक जीवोंको पीड़ा नहीं देंगे। और इसप्रकार ख, पर और उभयको अधार्मिक क्रियामें नहीं लगावेंगे अतएव उनका सोना अच्छा है ।
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प्रस्तावना । किन्तु जो जीव धार्मिक हैं, धर्मानुग हैं यावत् धार्मिक वृत्तिवाले हैं उनका तो जागना ही अच्छा है । क्योंकि ये अनेक जीवोंको सुख देते हैं और ख, पर और उभयको
धार्मिक अनुष्ठान में लगाते हैं अतएव उनका जागना ही अच्छा है। जयंती-भन्ते ! बलवान् होना अच्छा है या दुर्बल होना ! भ० महावीर-जयंती ! कुछ जीवों का बलवान होना अच्छा है और कुछका दुर्बल होना । जयंती-इसका क्या कारण ! भ० महावीर-जो जीव अधार्मिक हैं यावत् अधार्मिक वृत्तिवाले हैं उनका दुर्बल होना
अच्छा है । क्यों कि वे बलवान् हों तो अनेक जीवों को दुःख देंगे। किन्तु जो जीव धार्मिक हैं यावत् धार्मिकवृत्तिवाले हैं उनका सबल होना ही
अच्छा है क्योंकि उनके सबल होनेसे वे अधिक जीवोंको सुख पहुँचायेंगे । इसीप्रकार अलसत्व और दक्षत्वके प्रश्नका भी विभाग करके भगवान्ने उत्तर दिया है।
- भगवती १२.२.४४३ ।
गौ०-भन्ते ! जीव सकम्प हैं या निष्कंप ? भ० महावीर-गौतम ! जीव सकम्प मी हैं और निष्कम्प भी । गौ०-इसका क्या कारण ! भ० महावीर-जीव दो प्रकारके हैं-संसारी और मुक्त । मुक्त जीवके दो प्रकार हैं
अनन्तरसिद्ध और परम्परसिद्ध । परंपरसिद्ध तो निष्कम्प हैं और अनन्तरसिद्ध सकम्प । संसारी जीवोंके. मी दो प्रकार है-शैलेशी और अशलेशी । शैलेशी जीव निष्कम्प होते हैं और अशैलेशी सकम्प
-भगवती २५.४।
'
गौ०-जीव सवीर्य हैं या अवीर्य हैं ! भ० महावीर-जीव सवीर्य मी हैं और अवीर्य भी हैं। गौ०-इसका क्या कारण ! | भ० महावीर-जीव दो प्रकारके हैं । संसारी और मुक्त । मुक्त तो अवीर्य हैं । संसारी
जीव के दो भेद हैं- शैलेशीप्रतिपन्न और अशैलेशीप्रतिपन्न । शैलेशीप्रतिपन्न जीव लब्धिवीर्यकी अपेक्षा से सवीर्य हैं किन्तु करणवीर्यकी अपेक्षासे अवीर्य है और अशैलेशीप्रतिपन्न जीव लब्धिवीर्यकी अपेक्षासे सवीर्य हैं किन्तु करणवीर्यकी अपेक्षासे सवीर्य मी हैं और अवीर्य मी हैं । जो जीव पराक्रम करते हैं वे करणवीर्य अपेक्षासे सवीर्य हैं और अपराक्रमी हैं वे करणवीर्यकी अपेक्षासे अवीर्य हैं।
-भगवती १.८.७२। भगवान बुद्धके विभज्यवादकी तुलनामें और भी कई उदाहरण दिये जा सकते हैं किन्तु इतने पर्याप्त हैं । इस विभज्यवादका मूलाधार विभाग करके उत्तर देना है जो ऊपरके उदाहरणोंसे स्पष्ट है । असली बात यह है कि दो विरोधी बातोंका खीकार एक सामान्यमें करके उसी एकको
मूलमें सेये-निरेया (सेज-लिरेज) है। तुलना करो-"तदेजति तजति"-ईशावासो. पलिषद् ५।
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अनेसतारा विभक्त करके दोनों विभागोंमे दो विरोधी धोंको संगत बताना, इसना अर्थ इस विवादका फलित होता है। किन्तु यहाँ एक बातकी ओर विशेष ध्यान देना बामश्यक है।म० दुख जब किसीका विभाग करके विरोधी धर्मोको घटाते हैं और भगवान् महावीरने जो उक्त उदाहरणों में विरोधी धोंको घटाया है उससे स्पष्ट है कि वस्तुतः दो विरोधी धर्म एककालमें किसी.. एक व्यक्तिके नहीं बल्कि भिन्न भिन्न व्यक्तिओंके हैं। विमज्यवादका यही मूल मर्य हो सकता है जो दोनों महापुरुषोंके वचनोंमें एकरूपसे आया है।
किन्तु भगवान् महावीरने इस विभज्यवादका क्षेत्र व्यापक बनाया है। उन्होंने विरोधी धोको अर्थात् अनेक अन्तोंको एक ही कालमें और एक ही व्यक्तिमें अपेक्षामेदसे घटाया है । इसी कारणसे विभज्यवादका अर्थ अनेकान्तवाद या स्याद्वाद हुआ और इसी लिये भगवान् महावीरका दर्शन आगे चलकर अनेकान्तवादके नामसे प्रतिष्ठित हुआ।
तिर्यक्सामान्यकी अपेक्षासे जो विशेष व्यक्तियों हों उन्हीं व्यक्तिओं में विरोधी धर्मका खीकार करना यह विभज्यवादका मूलाधार है जब कि तिर्यग् और ऊर्ध्वता दोनों प्रकारके सामान्योंके पर्यायोंमें विरोधी धर्मोंका स्वीकार करना यह अनेकान्तवादका मूलाधार है । अनेकान्तवाद विमज्यवादका विकसित रूप है । अत एव वह विभज्यवाद तो है ही। पर विभज्यवाद ही अनेकान्तवाद है ऐसा नहीं कहा जा सकता । अत एव जैन दार्शनिकोंने अपने वादको जो अनेकान्तवादके नामसे ही विशेषरूपस प्रख्यापित किया है वह सर्वथा उचित. ही हुआ है।
६४ अनेकान्तवाद। भगवान् महावीरने जो अनेकान्तवादकी प्ररूपणा की है उसके मूलमें तत्कालीन दार्शनिकोंमेंसे भगवान् बुद्धके निषेधात्मक दृष्टिकोणका महत्त्वपूर्ण स्थान है । स्याद्वादके मंगोंकी रचनामें संजयबेलट्ठीपुत्तके' विक्षेप वादसे मी मदद ली गई हो-यह संभव है। किन्तु भगवान् बुद्धने तत्कालीन नाना वादोंसे अलिप्त रहनेके लिये जो रूख अंगीकार किया था उसीमें अनेकान्तवादका बीज है ऐसा प्रतीत होता है। जीव और जगत् तथा ईश्वरके नित्यत्व-अनित्यत्वके विषयमें जो प्रश्न होते थे उनको उन्होंने अव्याकृत बता दिया । इसी प्रकार जीव और शरीरके विषय में मैदाभेदके प्रश्नको भी उन्होंने अध्याकृत कहा है । जब कि भ० महावीरने उन्हीं प्रश्नोंका व्याकरण अपनी दृष्टिसे किया है। अर्थात् उन्ही प्रश्नोंको अनेकान्तवादके आश्रयसे सुलझाया है। उन प्रश्नोंके स्पष्टीकरणमेंसे जो दृष्टि उनको सिद्ध हुई उसीका सार्वत्रिक विस्तार करके अनेकान्तवादको सर्ववस्तुल्यापी उन्होंने बनादिया है । यह स्पष्ट है कि भ० बुद्ध दो विरोधी वादोंको देखकर उनसे बचनेके लिये अपना तीसरा मार्ग उनके अस्वीकारमें ही सीमित करते हैं, तब भ० महावीर उन दोनों विरोधी वादोंका समन्वय करके उनके खीकारमें ही अपने नये मार्ग अनेकान्तवादकी प्रतिष्ठा करते हैं । अतएव अनेकान्तवादकी चर्चाका प्रारंभ बुद्धके अव्याकृत प्रश्नोंसे किया जाय तो उचित ही होगा। (१) भगवान बुद्धके मव्याकृत प्रश्न । भगवान् बुद्धने निम्नलिखित प्रश्नोंको अव्याकृत कहा हैवीपनिकाय-सामनफलसुत्त। २ मजिसमनिकाय एमालुक्यमुत्त ।।
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प्रस्तावना।
(१) लोक शाश्वत है ? (२) लोक अशाश्वत है ? (३) लोक अन्तवान् है ! (४) लोक अनन्त है ! (५) जीव और शरीर एक हैं ! (६) जीव और शरीर भिन्न हैं ? (७) मरनेके बाद तथागत होते हैं ? (८) मरनेके बाद तथागत नहीं होते ? (९) मरनेके बाद तथागत होते भी हैं, और नही भी होते ? (१०) मरनेके बाद तथागत न-होते हैं, और न-नही होते हैं !.
इन प्रश्नोंका संक्षेप तीन ही प्रश्नमें है-(१) लोककी नित्यता-अनित्यता और सान्तता-निरन्तताका प्रश्न, (२) जीव-शरीरके मैदाभेदका प्रश्न और (३) तथागतकी मरणोत्तर स्थिति-अस्थिति अर्थात जीवकी नित्यता अनित्यताका प्रश्न' । ये ही प्रश्न भगवान् बुद्धके जमानेके महान् प्रश्न थे । और इन्हींके विषयमें भ० बुद्धने एक तरहसे अपना मत देते हुँए भी वस्तुतः विधायकरूपसे कुछ नहीं कहा। यदि वे लोक या जीवको नित्य कहते तो उनको उपनिषदू-मान्य शाश्वतवादको खीकार करना पडता और यदि वे अनित्य पक्षको खीकार करते तब चावांक जैसे भौतिकवादि संमत उच्छेदवादको स्वीकार करना पडता । इतना तो स्पष्ट है कि उनको शाश्वतवादमें मी दोष प्रतीत हुआ था और उच्छेदवादको भी वे अच्छा नहीं समझते थे। इतना होते हुए भी अपने नये वादको कुछ नाम देना उन्होंने पसंद नहीं किया और इतना ही कह कर रह गये कि ये दोनो वाद ठीक नहीं । अतएव ऐसे प्रश्नोंको अव्याकृत, स्थापित, प्रतिक्षिप्त बता दिया और कह दिया कि लोक शाश्वत हो या अशाश्वत, जन्म है ही, मरण है ही । मैं तो इन्हीं जन्ममरणके विधातको बताता हूँ। यही मेरा व्याकृत है। और इसीसे तुम्हारा भला होनेवाला है । शेष लोकादिकी शाश्वतता आदिके प्रश्न अव्याकृत हैं, उन प्रश्नोंका मैंने कुछ उत्तर नहीं दिया ऐसा ही समझो।
इतनी चर्चासे स्पष्ट है कि भ० बुद्धने अपने मन्तव्यको विधिरूपसे न रख कर अशाचतानुच्छेदवादका ही खीकार किया है । अर्थात् उपनिषन्मान्य नेति नेति की तरह वस्तुखरूपका निषेधपरक व्याख्यान करनेका प्रयत्न किया है। ऐसा करनेका कारण स्पष्ट यही है कि तत्कालमें प्रचलित वादोंके दोषोंकी ओर उनकी दृष्टि गई और इस लिये उनमें से किसी वादका अनुयायी होना उन्होंने पसंद नहीं किया । इस प्रकार उन्होंने एक प्रकारसे अनेकान्तवादका रास्ता साफ किया। भगवान् महावीरने तत्तद्वादोंके दोष और गुण दोनोंकी और दृष्टि दी । प्रत्येक वादका गुणदर्शन तो उस उस वादके स्थापकने प्रथमसे कराया ही था, उन विरोधीवादोंमें दोषदर्शन भ० बुद्धने किया । तब भगवान् महावीरके सामने उन वादोंके गुण और दोष दोनों आ गए। दोनों पर समान भावसे दृष्टि देने पर अनेकान्तवाद खतः फलित हो जाता है। भगवान महावीरने तत्कालीनवादों के गुणदोषोंकी परीक्षा करके जितनी जिस वादमें सच्चाई थी उसे
इस प्रश्नको ईनरके स्वतन्त्र अस्तित्व या नास्तित्व का प्रश्न भी कहा जा सकता है। २ वही।
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लोककी नित्यानित्यता । उतनी ही मात्रामें स्वीकार करके सभी वादोंका समन्वय करनेका प्रयत्न किया । यही भगवान् महावीर का अनेकान्तवाद या विकसित विभज्यवाद है । भगवान् बुद्ध जिन प्रश्नोंका उत्तर विधिरूपसे देना नहीं चाहते थे उन सभी प्रश्नोंका उत्तर देनेमें अनेकान्तवादका आश्रय करके भगवान् महावीर समर्थ हुए। उन्होंने प्रत्येक वादके पीछे रही हुई दृष्टिको समझनेका प्रयन किया, प्रत्येक वादकी मर्यादा क्या है, अमुक वादका उत्थान होने में मूलतः क्या अपेक्षा होना चाहिए, इस बातकी खोज की और नयवादके रूपमें उस खोजको दार्शनिकोंके सामने रखा । यही नयवाद अनेकान्तवादका मूलाधार बन गया। ___ अब मूल जैनागमोंके आधार पर ही भगवान् के अनेकान्तवादका दिग्दर्शन कराना उपयुक्त होगा।
पहले उन्ह प्रश्नोंको लिया जाता है जिनको कि भ० बुद्धने अव्याकृत बताया है। ऐसा करनेसे यह स्पष्ट होगा कि जहाँ बुद्ध किसी एक वादमें पडजानेके भय से निषेधात्मक उत्तर देते है वहाँ भ० महावीर अनेकान्तवादका आश्रयकरके किस प्रकार विधिरूप उत्तर देकर अपना अपूर्व मार्ग प्रस्थापित करते हैं. (२) लोककी नित्यानित्यता-सान्तानन्तता।
उपर्युक्त बौद्ध अव्याकृत प्रश्नोंमें प्रथम चार लोककी नित्यानित्यता और सान्तता-अनन्तताके विषयमें हैं। उन प्रश्नोंके विषयमें भगवान् महावीर का जो स्पष्टीकरण है वह भगवतीमें स्कन्दक' परिव्राजकके अधिकारमें उपलब्ध है । उस अधिकारसे और अन्य अधिकारोंसे यह सुविदित है कि भगवान्ने अपने अनुयायिओंको लोकके संबंधमें होनेवाले उन प्रश्नोंके विषयमें अपना स्पष्ट मन्तव्य बता दिया था, जो अपूर्व था । अतएव उनके अनुयायी अन्य तीथिकोंसे इसी विषयमें प्रश्न करके उन्हें चूप किया करते थे । इस विषयमें भगवान् महावीरके शब्द ये हैं
"एवं खलु मए खंदया! चउविहे लोए पन्नत्ते, तं जहा-दव्वओ खेत्तो कालो भावओ।
व्वओ णं एगे लोए सअंते १।
खेत्तओ णं लोए असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ आयामविक्खंभेणं असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं पन्नत्ता, अत्थि पुण सअंते २।
कालो णं लोपण कयाविन आसी, न कयाविन भवति, न कयावि म भविस्सति, भर्विसु य भवति य भविस्सह य, धुवे णितिए सासते अक्खए अव्वए अवटिए णिचे, पत्थि पुण से अन्ते ३।
भावओ णं लोए अणंता वण्णपजवा गंध० रस० फासपजवा अणंता संठाणपज्जवा अणंता गरुयलहुयपज्जवा अणंता अगरुयलहुयपजवा, नत्थि पुण से अन्ते ।।
सेत्तं खंदगा! व्वओ लोए सअंते, खेत्तओ लोए संअंते, कालतो लोए अणंते, भावओ लोए अणंते।" भग० २.१.९०
इसका सार यह है कि लोक द्रव्यकी अपेक्षासे सान्त है क्योंकि यह संख्यामें एक है। किन्तु भाव अर्थात् पर्यायोंकी अपेक्षासे लोक अनन्त है क्योंकि लोकद्रव्यके पर्याय अनन्त हैं।
कालकी दृष्टिसे लोक अनन्त है अर्थात् शाश्वत है क्योंकि ऐसा कोई काल नहीं जिसमें लोकका v१शतक २ उद्देशक । २ शतक ९ उद्देशक ६ । सूत्रकृतांग १.१.४.६-"अन्तवं निइए लोए इह धीरो तिपासई।"
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प्रस्तावना।
अस्तिस्य न हो। किन्तु क्षेत्रकी दृष्टिसे लोक सान्त है क्योंकि सकलक्षेत्रमें से कुछ ही में 'लोक है अन्यत्र नहीं ।
इस उद्धरणमें मुख्यतः सान्त और अनन्त शब्दोंको लेकर अनेकान्तवादकी स्थापना की गई है । भगवान् बुद्धने लोककी- सान्तता और अनन्तता दोनोंको अव्याकृत कोटिमें रखा है । तब भगवान् महावीरने लोकको सान्त और अनन्त अपेक्षाभेदसे बताया है ।
अब लोककी शाश्वतता-अशाश्वतताके विषयमें जहाँ भ० बुद्धने अव्याकृत कहा वहाँ भ० महावीरका अनेकान्तवादी मन्तव्य क्या है उसे उन्हीके शब्दोंमें सुनिये:
"सासए लोए जमाली!जन्न कयाविणासी;णो कयाविण भवति, णकयाविण भविस्सइ, भुवि च भवा य भविस्सह य, धुवे णितिए सासए अक्खए अन्वए अवट्ठिए णिधे ।
असासए लोए जमाली ! जो ओसप्पिणी भवित्ता उस्सप्पिणी भवर, उस्सप्पिणी भवित्ता थोसप्पिणी भवहा" भग०९.६.३८७ । ___ जमाली अपने आपको अर्हत् समजता या किन्तु जब लोककी शाश्वतता-अशाश्वतताके विषयमें गौतम गणधरने उससे प्रश्न पूछा तब वह उत्तर न दे सका, तिसपर भ० महावीरने उपर्युक्त समाधान यह कह करके किया कि यह तो एक सामान्य प्रश्न है । इसका उत्तर तो मेरे छपस्थ शिष्य भी दे सकते हैं।
जमालि ! लोक शाश्वत है और अशाश्वत मी। त्रिकालमें ऐसा एक भी समय नहीं जब लोक किसी न किसी रूपमें न हो अत एव वह शाश्वत है। किन्तु वह अशाश्वत भी है क्योंकि लोक हमेशा एकरूप तो रहता नहीं । उसमें अवसर्पिणी और उत्मर्पिणीके कारण अवनति और उन्नति में देखी जाती है । एकरूपमें - सर्वथा शायत में परिवर्तन नहीं होता अत एव उसे अशाश्वत भी मानना चाहिए। (३) लोक क्या है?
प्रस्तुतमें लोकसे म० महावीरका क्या अभिप्राय है यह भी जानना जरूरी है। उसके लिये नीचेके प्रश्नोतर पर्यास हैं।
"किमियं भंते ! लोपत्ति पवुबह?" "गोयमा! पंचस्थिकाया, एस णं एवतिए लोएसि पयुचर । तं जहा धम्मस्थिकाए आहम्मस्थिकाए जाव (मागासस्थिकाए जीवस्थिकाए)पोग्गलस्थिकाए।"
भग० १३.४.४८१॥ अर्थात् पांच अतिकाय ही लोक है। पांच अस्तिकाय ये हैं -धर्मास्तिकाय, अधर्माखिकाय, भाकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पहलास्तिकाय । (४) जीव-शरीरका मेदामेद।।
जीव और शरीरका भेद है या अमेद इस प्रश्नको मी भ० बुद्धने अव्याकृत कोटिमें रखा है । इस विषयमें भगवान महावीरके मन्तब्यको निम्न संघादसे जाना जा सकता है
कोकका मतलब है पंचाखिकाय । पंचालिकाय संपूर्ण आकाशक्षेत्रमें नहीं किन्तु जैसा उपर बताया गया है असंख्यावकोटाकोटी पोजन की परिधि है।
न्या. प्रस्तावमा ३
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जीव-शरीरका.मेहामेद। "माया भन्ते! काये मजे काय?" "गोयमामायापिकाये मषिकाये।" "कवि भन्ते ! काये महर्षि काये" "गोयमा! कवि पिकाये महर्षि पिकाये।" एवं पकेके पुच्छा।
"गोयमा सबिते विकाये मधिसेविकाये"। भग० १३.७.४९५। उपर्युक्त संवाद से स्पष्ट है कि भ० महावीरने गौतमके प्रभके उत्तरमें आत्माको शरीरसे मभिन्न मी कहा है और उससे भिन्न मी कहा है। ऐसा कहनेपर और दो प्रश्न उपस्थित होते हैं कि यदि शरीर आत्मा से अमिन्न है तो आत्माकी तरह यह अरूपि भी होना चाहिए और सचेतम मी । इन प्रश्नोंका उत्तर मी स्पष्टरूपसे दिया गया है कि काय अर्थात् शरीर रुपि भी है और अरूपि मी । शरीर संचेतन मी है और अचेतन भी ।
जब शरीरको आरमासे पृथक् माना जाता है तब वह रूपि और अचेतन है। और जब शरीर को आत्मासे अमिन माना जाता है तब शरीर अरूपि और सचेतन है। __ भगवान् बुद्धके मतसे यदि शरीरको आत्मासे मिन माना जाय तब प्रमचर्यवास संभव नहीं। और यदि अमिन माना जाय तब मी-प्रमचर्यवास संभव नहीं । अत एव इन दोनों जन्तों को छोडकर भगवान् बुद्धने मध्यममार्गका उपदेश दिया और शरीरके मेदामेदके प्रमको अव्याक्त बताया
"जी सरीरं ति. मिक्स विडिया सति प्रावरियालोमोति । स जीवं म सरीर तिचा मिक्नु! दिडिया सति ब्रह्मचरियवासो महोति । एते ते मिक्लु। उमो मन्ते अनुपगम्म मजन तथागतो धम्मं देखेति-" संयुत्तXII 135
किन्तु भगवान् महावीरने इस विषय में मध्यममार्ग- अनेकान्तवादका आश्रय लेकर उपयुक दोनों विरोधी वादोंका समन्वय किया'। यदि आस्मा शरीरसे अत्यन्त मिल माना जाय तब कायत कोका फल उसे नहीं मिलना चाहिए । अस्सन्तमेद माननेपर इस प्रकार मरुतागम दोषकी आपचि है। और यदि असन्त अभिम माना जाय तब शरीर का दाह हो जानेपर बात्मा भी नष्ट होगा जिससे परलोक संभव नहीं रहेगा। इस प्रकार कृतप्रणाश दोष की आपत्ति होगी । अत एव इन्हीं दोनों दोषोंको देखकर भगवान् बुद्धने कह दिया कि मेद्र पक्ष और बनेद पक्ष ये दोनों ठीक नहीं हैं। जब कि भ० महावीरने दोनों विरोधी वादोंका समन्वय किया और मेद और अमेद दोनों पक्षोंका खीकार किया । एकान्त मेद और बमेद माननेपर जो दोष. होत है वे उभयवाद माननेपर नहीं होते । जीव और शरीरका मेद इसलिये मानना चाहिए कि शरीर का नाश हो जानेपर मी वात्मा दूसरे जन्ममें मौजुद राती है या सिंहावसाने शरीरी भारमा मी होती है । बमेद इसलिये मानना चाहिए कि संसारावस्थामें. शरीर और मामाका क्षीरनीरवत् या अमिलोहपिण्डवत् तादात्म्य होता है इसी लिये कायसे किसी वस्तुका स्पर्श होनेपर बात्मामें संवेदन होता है और कायिक कर्मका विपाक गामा होता है।
भगवतीसूत्रमें जीवके परिणाम दश गिनाए है यथा-.....
गतिपरिणाम, इन्द्रियपरिणाम, कषायपरिणाम, लेश्यापरिणाम, पोगपरिणाम, उपयोगपरिमाम, जानपरिणाम, वर्शनपरिणाम, चारित्रपरिणाम और वेदपरिणाम । - म० ११.१.५११३
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प्रस्तावना ।
जीव और कायका यदि अभेद न माना जाय तो इन परिणामोंको जीवके परिणामरूपसे नहीं गिनाया जा सकता। इसी प्रकार भगवतीमें ( १२.५.४५१ ) जो जीवके परिणामरूपसे वर्ण गन्ध स्पर्शका निर्देश है वह भी जीव और शरीरके अमेद को मान कर ही घटाया जा सकता है।
१९
अन्यत्र गौतमके प्रश्नके उत्तर में निश्चयपूर्वक भगवान् ने कहा है कि-
"गोयमा ! अहमेयं जाणामि अमेयं पासामि अहमेयं बुज्झामि जं णं तहागयस्स जीवस्स संरूविस्स सकम्मस्स सरागहल सवेदगस्स समोहस्स सलेसहल ससरीरस्स ताओ सरीराभो भविष्यमुक्कस्स एवं पनयति - तं जहा कालचे वा जाव सुकिलसेवा, सुम्भि गंध या भगंधवा, तिथे वा जाब मधुरते वा, कक्खडसे वा जाव लुक्लते वा ।"
भग० १७.२. ।
अन्यत्र जीव कृष्णवर्णपर्यायका भी निर्देश है —— भग०२५.४ । ये सभी निर्देश जीवशरीरके अभेदकी मान्यतापर निर्भर हैं ।
इसी प्रकार आचारांग में आत्माके विषयमें जो ऐसे शब्दों का प्रयोग है -
"सब्षे सरा नियति तक्का जस्थ न विजति मई तस्थ न गाहिया। ओए अप्पाणस्स श्रेयसे । से न दीहे न हस्से न बट्टे न तसे न चडरंसे न परिमंडले न किन्हे न नीले न इत्थी न पुरिसे न अजहा परिने समे उबमा न विजय अरुवी सत्ता अपयस्स पयं मस्थि ।" आचा० सू० १७० ।
वह भी संगत नहीं हो सकता यदि आत्मा शरीर से भिन्न न माना जाय । शरीरभिन्न आत्माको लक्ष्य करके स्पष्टरूप से भगवान् ने कहा है कि उसमें वर्ण- गन्ध-रस-स्पर्श नहीं होते -
"गोयमा ! अहं एवं जाणामि, जाव जं णं तहागयस्स जीवस्स मरुविस्स अकरमस्स अरागस्स भवेदस्स अमोहस्स अकेलस्स मसरीरस्स ताओ सरीराओ विप्यमुकस्स मो पयं पचायति - तं जहा कालचे वा जाय लुक्खन्ते वा ।" भगवती० १७.२. ।
चार्वाक शरीरको ही आत्मा मानता था और औपनिषद-ऋषिगण आत्मा को शरीर से अव्मन्त भिन्न मानते थे । भ० बुद्धको इन दोनों मतोंमें दोष तो नजर आया किन्तु वे विधिरूपसे समन्वय न कर सके । जब कि भगवान् महावीर ने इन दोनों मतों का समन्वय- उपर्युक्त प्रकारसे भेद और अभेद दोनों पक्षोंका स्वीकार करके किया ।
(५) जीवकी नित्यानित्यता -
मृत्युके बाद तथागत होते हैं कि नहीं इस प्रश्नको भ० बुद्धने अव्याकृत कोटिमें रखा है क्योंकि ऐसा प्रश्न और उसका उत्तर सार्थक नहीं, आदि ब्रह्मचर्यके लिये नहीं, निर्वेद, निरोध, अभिज्ञा, संबोध और निर्वाण के लिये भी नहीं' ।.
। जिन प्रश्नोंको
आत्माके विषय में चिन्तन करना यह भ० बुद्धके मतसे अयोग्य है भ० बुद्धने 'अयोनिसो मनसिकार' - विचारका अयोग्य ढंग - कहा है वे ये - "मैं भूतकालमें था कि नहीं था ! मैं भूतकालमें क्या था ! मैं भूतकालमें कैसा था ? मैं भूतकालमें क्या होकर फिर क्या हुआ ! मैं भविष्यत् कालमें होऊंगा कि नहीं ? मैं भविष्यत् कालमें क्या होऊंगा ! मैं
१. संयुतनिकाय XVI 12, XXII 86; मण्झिमनिकाय चूलमा
६६ ।
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जीवकी नियता ।
भविष्यत् काल कैसे होऊंगा ? मैं भविष्यत् कालमें क्या होकर क्या होऊंगा ? मैं हूँ कि नहीं ! मैं क्या हूँ ? मैं कैसे हूँ ! यह सस्त्र कहांसे आया ? यह कहाँ जायगा !
२०
भगवान् बुद्धका कहना है कि 'अयोनिसो मनसिकार' से नये आखन उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न आसव वृद्धिंगत होते हैं । अत एव इन प्रश्नोंके विचारमें लगना साधक लिये अनुचित है'।
इन प्रश्नोंके विचारका फल बताते हुए भ० बुद्धने कहा है कि 'अयोनिसो मनसिकार' के कारण इन छः दृष्टिओंमें से कोई एक दृष्टि उत्पन्न होती है उसमें फँसकर अज्ञानी पृथग्जन जरा - मरणाविसे मुक्त नहीं होता -
-
( १ ) मेरी आत्मा है ।
(२) मेरी आत्मा नहीं है ।
(३) मैं आत्माको आत्मा समझता हूँ ।
(४) मैं अनात्माको आत्मा समझता हूँ ।
(५) यह जो मेरी आत्मा है वह पुण्य और पापकर्म के विपाककी भोक्ता है।
( ६ ) यह मेरी आत्मा निष्य है, ध्रुव है, शाश्वत है, अविपरिणामधर्मा है, जैसी है वैसी सदैव रहेगी।
अत एव उनका उपदेश है कि इन प्रश्नोंको और दुःखनिरोधका मार्ग इन चार आर्यसत्योंके आव निरोध होकर निर्वाणलाभ हो सकता है ।
भ० बुद्धके इन उपदेशोंके विपरीत ही भगवान् महावीरका उपदेश है । इस बातकी प्रतीति प्रथम अंग आचारांगके प्रथम वाक्यसे ही हो जाती है
-
"इहमेोसि नो सन्ना भवर तं जहा- पुरस्थिमाओ वा दिलाओ आगओ अहमंसि दाहिणाओ या... अभयरीयाओ या दिसाओ वा अणुदिलाओ वा आगओ अहमंसि । एचमेलि मो नायं भवर - अस्थि मे आधा उववाइए । मत्थि मे आया उववाह । के आई जाती, के का हो चुओ इह पेचा भविस्सामि ?
छोडकर दुःख, दुःखसमुदाय, दुःखनिरोध विषयमें ही मनको लगाना चाहिए । उसीसे
"से अं पुण जाणेज्जा सहसम्मुद्दयाप परवानरर्ण बनेसिं वा अन्तिर सोबा वं जा पुरत्थिमाओ... एवमेगेर्सि नायं भवद्द - अत्थि मे आया उवबाहर जो इमाओ दिलाओ अणुदिसाओ वा अणुसंचरह सव्वाओ दिसाओ अणुदिसाओ सोहं से आयाबाई, लोगाषाई, कम्माबाई, किरियाबाई ।”
भ० महावीरके मतसे जब तक अपनी वा दूसरेकी बुद्धिसे यह पता न लग जाय कि मैं या मेरा जीव एक गतिसे दूसरी गतिको प्राप्त होता है, जीव कहाँसे आया, कौन था और कहाँ जायगा ? - तब तक कोई जीव आत्मवादी नहीं हो सकता लोकवादी नहीं होसकता कर्म और क्रियावादी नहीं हो सकता । अत एम आत्मा के विषयमें विचार करना यही संवरका और मोक्षका भी कारण है। जीवकी गति और आगतिके ज्ञान से मोशलाभ होता है इस बातको म० महावीरने स्पष्टरूपसे कहा है
-
१. मामा
२. १।
२.
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प्रस्तावना
२१
"इह आगई गई पारित्राय अञ्चेह जाइमरणस्स वइमगं विवायरर" आचा० १.५.६.
यदि तथागतकी मरणोत्तर स्थिति-अस्थितिके प्रश्नको ईश्वर जैसे किसी अतिमानव के पृथकू अस्तित्व और नास्तित्वका प्रश्न समझा जाय तब भगवान् महावीरका इस विषयमें मन्तव्य क्या है यह भी जानना आवश्यक है । वैदिक दर्शनोंकी तरह शाश्वत सर्वज्ञ ईश्वरको-जो कि संसारी कभी नहीं होता, जैन धर्म में कोई स्थान नहीं । भ० महावीरके अनुसार सामान्य जीव ही कर्मों का नाश करके शुद्ध खरूपको प्राप्त होता है जो सिद्ध कहलाता है । और एक बार शुद्ध होने के बाद वह फिर कभी अशुद्ध नहीं होता। यदि भ. बुद्ध तथागतकी मरणोत्तर स्थितिका स्वीकार करते तब ब्रह्मवाद या शाश्वतबादकी आपत्ति का भय था और यदि वे ऐसा कहते कि तथागत मरणके बाद नहीं रहता तब भौतिकवादिओंके उच्छेदवादका प्रसंग आता । अत एव इस प्रश्नको भ० बुद्धने अव्याकृत कोटिमें रखा । परन्तु भ० महावीरने अनेकान्तवादका आश्रय करके उत्तर दिया है कि तथागत या अर्हत् मरणोत्तर भी है क्योंकि' जीव द्रव्य तो नष्ट होता नहीं, वह सिद्ध खरूप बनता है। किन्तु मनुष्यरूप जो कर्मकृत है वह नष्ट हो जाता है । अत एव सिद्धावस्थामें अर्हत् या तथागत अपने पूर्वरूपमें नहीं भी होते हैं । नाना जीवोंमें आकार प्रकारका जो कर्मकृत भेद संसारावस्था में होता है वह सिद्धावस्थामें नहीं क्योंकि वहाँ कर्म भी नहीं__ "कम्मओ णं भंते जीवे नो अकरमओ विभत्तिभावं परिणमइ, कम्मओ णं जए णो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमह?" "हंता गोयमा"
भगवती १२.५.४५२। इस प्रकार हम देखते हैं कि जिन प्रश्नों को भगवान् बुद्धने निरर्थक बताया है उन्हीं प्रश्नोंसे भगवान् महावीरने आध्यात्मिक जीवनका प्रारंभ माना है । अत एव उन प्रश्नोंको भ० महावीरने भ० बुद्धकी तरह अव्याकृत कोटिमें न रखकर व्याकृत ही किया है । इतनी सामान्य चर्चाके याद अब आत्माकी नित्यता-अनित्यता के प्रस्तुत प्रश्न पर विचार किया जाता है___ भगवान् बुद्धका कहना है कि तथागत मरणानन्तर होता है या नहीं-ऐसा प्रश्न अन्यतीर्थिकोंको अज्ञानके कारण होता है। उन्हें रूपादि का अज्ञान है अत एव वे ऐसा प्रश्न करते हैं। वे रूपादिको आत्मा समझते हैं, या आत्माको रूपादियुक्त समझते हैं, या आत्मामें रूपादिको समझते हैं, या रूपमें आत्माको समझते हैं जब कि तथागत वैसा नहीं समझते । अत एवं तथागत को वैसे प्रश्न भी नहीं उठते और दूसरोंके ऐसे प्रश्नको वे अव्याकृत बताते हैं। मरणामन्तर रूप वेदना आदि प्रहीण हो जाताहै अत एव अब प्रज्ञापनाके साधन रूपादि के न होनेसे तथागतके लिये 'है' या 'नही है। ऐसा व्यवहार किया नहीं जा सकता। अत एव मरणानन्तर तथागत 'है' या 'नहीं है' इत्यादि प्रश्नोंको मैं अव्याकृत बताता हूँ।' __ हम पहिले बतला आये हैं कि, इस प्रश्नके उत्तर में भ० बुद्धको शाश्वतवाद या उच्छेद वाद में पड जानेका डर था इसीलिये उन्होंने इस प्रश्नको अव्याकृत कोटिमें रखा है। जब कि भ० महावीरने दोनों वादोंका समन्वय स्पष्टरूपसे किया है । अत एव उन्हें इस प्रश्नको १. तुलना-"अस्थि सिद्धी प्रसिद्धी वा एवं सत्रं निवेसए।" सूत्रकृतांग २.५.२५। २. संयुत्तनिकाय XXXIII 1। ३ वही XLIV.8। ४ वही XLIV. 1
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जीवक नित्यानित्यता ।
अव्याकृत कहने की आवश्यकता ही नही । उन्हों ने जो व्याकरण किया है उसकी चची मीचे की जाती है।
भ० महावीरने जीवको अपेक्षाभेदसे शाश्वत और अशाश्वत कहा है। इसकी स्पष्टताके लिये निम्न संवाद पर्याप्त है
" जीवा णं भन्ते किं सासया असासया ?"
"गोयमा ! जीवा सिथ सासया लिय असा सथा । गोयमा ! दध्वदुयाए सासया भावट्र्याए अलालया ।" भगवती - ७.२.२७३. ।
स्पष्ट है कि द्रव्यार्थिक अर्थात् द्रव्यकी अपेक्षासे जीव निष्य है और भाव अर्थात् पर्यायकी दृष्टिसे जीव अनित्य है ऐसा मन्तव्य भ० महावीरका है। इसमें शाश्वतवाद और उच्छेदवाद दोनों के समन्वयका प्रयत्न है। चेतन - जीव द्रव्यका विच्छेद कमी नहीं होता इस दृष्टिसे जीवको निस्य मान करके शाश्वतत्रादको प्रश्रय दिया है और जीवकी - नाना अवस्थाएँ जो स्पष्टरूपसे विच्छिन्न होती हुई देखी जाती हैं उनकी अपेक्षासे उच्छेदवादको भी प्रश्रय दिया । उन्होंने इस बातका स्पष्टरूप से स्वीकार किया है कि ये अवस्थाएँ अस्थिर हैं इसीलिये उनका परिवर्तन होता है किन्तु चेतन द्रव्य शाश्वत स्थिर है। जीवगत बालत्व- पाण्डित्यादि अस्थिर धोका परिवर्तन होगा जब कि जीवद्रव्य तो- शाश्वत ही रहेगा ।
" से नूणं भंते अधिरे पलोकुर, नो थिरे पलोडर, अधिरे भज्जर नो थिरे भज्जर, लासप बालए बालियतं मलालयं, लालप पंडित पंडियतं असासयं १"
"हंता गोयमा ! अथिरे पलोहर जान पंडियां असासयं ।" भगवती - १.९.८० ।
द्रव्यार्थिक नयका दूसरा नाम अव्युच्छित्ति नय है और भावार्थिकनयका दूसरा नाम व्युच्छि चिनय है इस से भी यही फलित होता है कि द्रव्य अविच्छिन भुव शाश्वत होता है और पर्याय का विच्छेद - नाश होता है अत एव वह अभुत्र अनित्य अशाश्वत है। जीव और उसके पर्याय का अर्थात् द्रव्य और पर्याय का परस्पर अमेद और भेद मी इष्ट है इसी लिये जीव द्रव्यको जैसे शाश्वत और अशाश्वत बताया, इसी प्रकार जीवके नारक, वैमानिक आदि विभिन्न पर्यायोंको भी शाश्वत और अशाश्वत बताया है। जैसे जीवको द्रव्यकी अपेक्षासे अर्थात् जीव द्रव्यकी अपेक्षासे निष्य कहा वैसे ही नारक को भी जीव द्रव्यकी अपेक्षा से निस्य कहा है । और जैसे जीव द्रव्यको नारका दि पर्यायकी अपेक्षासे अनिष्म कहा है वैसे ही नारक जीव को मी नारकत्वरूप पर्यायकी अपेक्षासे अनित्य कहा है
"मेरइया णं भंते किं सालया असासया ?"
"गोयमा । लिय सासया सिय असासया ।" "से केणणं भंते एवं बाइ १ ।"
"गोयमा ! अब्वोच्छन्तिणयकुयाए सासया, वोच्छित्तिणयद्वयाए भसासया । एवं जब बेमाणिया ।" भगवती ७.३.२७९ ।
'जमालीके साथ हुए प्रश्नोत्तरोंमें भगवान् ने जीवकी शाश्वतता और अशाश्वतताके मन्तब्यका जो स्पष्टीकरण किया है उससे निष्यतासे उनका क्या मतलब है व अनिष्यतासे क्या मतलब है ! यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है
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प्रस्तावना.।
"सासर जीवे जमाली! जंन कयाह णासी, णो कयाविन भवति,ण कयाविण भविस्सर, भुर्विच भवाय भविस्साय,धुवे णितिए सासए अक्खए अब्बए अवड़िए जिये। असासए जीवे जमाली!जनेराए भवित्ता तिरिक्खजोणिए भवर तिरिक्खजोणिए भषिचा मणुस्से भवा मणुस्से भविता देवे भषा ।" भगवती ९.६.३८७ । १.४.४२.।।
तीनों कालमें ऐसा कोई समय नहीं जब कि जीव न हो । इसी लिये जीव शाश्वत ध्रुव नित्य कहा जाता है । किन्तु जीव नारक मिट कर तिर्यच होता है और तियेच मिट कर मनुष्य होता है इस प्रकार जीव क्रमशः नाना अवस्थाओंको प्राप्त करता है अत एव उन अवस्थाओंकी अपेक्षासे जीव अनिस्य अशाश्वत अध्रुव है । अर्थात् अवस्थाओं के नाना होते रहने पर मी जीवत्व कमी लुप्त नहीं होता पर जीवकी अवस्थाएँ लुप्त होती रहती हैं। इसीलिये जीव शाश्वत और अशाश्वत है।
इस व्याकरण में औपनिषद ऋषिसम्मत आत्माकी नित्यता और भौतिकवादिसम्मत आत्माकी अनित्यताके समन्वयका सफल प्रयन है । अर्थात् भगवान् बुद्धके अशाश्वतानुच्छेदवादके स्थानमें शाचतोच्छेदवादकी स्पष्टरूपसे प्रतिष्ठा की गई है। (६)जीवकी सान्तता-अनन्तता।
जैसे लोककी सान्तता और निरन्तताके प्रश्नको भ० बुद्धने अव्याकृत बताया है वैसे जीवकी सान्तता-निरन्तताके प्रश्न के विषयमें उनका मन्तव्य स्पष्ट नहीं है। यदि कालकी अपेक्षा से सान्तता-निरन्तता विचारणीय हो तब तो उनका अव्याकृत मत पूर्वोक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है। परंतु द्रव्यकी दृष्टि से या देशकी-क्षेत्रकी दृष्टि से या पर्याय-अवस्थाकी दृष्टिसे जीवकी सान्तता-निरन्तताके विषयमें उनके विचार जाननेका कोई साधन नहीं है । जब कि भगवान् महावीरने जीवकी सान्तता-निरन्तता का मी विचार स्पष्टरूपसे किया है क्योंकि उनके मतसे जीव एक खतन्त्र तत्त्वरूपसे सिद्ध है । इसीसे कालकृत नित्यानित्यताकी तरह द्रव्य-क्षेत्र-भाव की अपेक्षासे उसकी सान्तता-अनन्तता मी उनको अभिमत है । स्कंदक परिणाजक का मनोगत प्रश्न जीवकी सान्तता अनन्तताके विषयमें था उसका निराकरण भगवान महावीरने इन शब्दोंमें किया है.. "जेवियदया! जाव समन्ते जीवे अणंते जीवे तस्सवि यणं एयमडे-एवं बालु जाव दम्बमोणं एगे जीवे समंते, बेरमो पंजीये असंखेजपएसिए मसंवेज पएसोगारे मास्थिपूणसे अंते, काळभो पंजीवे नकयाविन भासि जाव निमस्थि पुण सेमंते, भाषमोणं जीवे मणंता णाणपजवा अर्णता दंसणपजवा मणंता परितपजवा मणंता मगुरुलायपजवा नरिथ पुण से अंते ।" भगवती २.१.९० । सारांश यह है कि एक जीव व्यक्ति
द्रव्यसे सान्त। क्षेत्रसे सान्त। कालसे अनन्त और
भावसे अनन्त है। इस प्रकार जीव सान्त मी है और अनन्त मी है ऐसा भ० महावीरका मन्तव्य है। इसमें कालकी दृष्टिसे और पर्यायोंकी अपेक्षासे उसका कोई अन्त नहीं । किन्तु वह ब्रम्प और क्षेत्रकी अपेक्षा से सान्त है । ऐसा कह करके भ• महावीरने मारमाके "अणोरणीयान् महतो महीयान"
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बुद्धका जनकारवाद। इस वोपनिषद मतका निराकरण किया है । क्षेत्रकी दृष्टिसे आत्माकी व्यापकता यह भगवान् का मन्तव्य नहीं । और एक आत्मद्रव्य ही सब कुछ है यह मी भगवान् महावीरको मान्य नहीं । किन्तु आत्मद्रव्य वपर्याप्त है और उसका क्षेत्र मी मर्यादित है इस बातका स्वीकार करके उन्होंने उसे सांत कहते हुए भी कालकी दृष्टिसे अनन्त मी कहा है । और एक दूसरी दृष्टिसे भी उन्होंने उसे अनन्त कहा है-जीवके ज्ञान पर्यायोंका कोई अन्त नही, उसके दर्शन और चारित्र पर्यायोंका भी कोई अन्त नहीं । क्योंकि प्रत्येक क्षणमें इन पर्यायोंका नयानया आविर्भाव होता रहता है और पूर्वपर्याय नष्ट होते रहते हैं । इस भाव-पर्याय दृष्टिसे भी जीव अनन्त है। (७) म० बुद्धका भनेकान्तवाद ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान् बुद्धके समी अव्याकृत प्रश्नोंका व्याकरण भ० महावीरने स्पष्टरूपसे विधिमार्गको खीकार करके किया है और अनेकान्तवादकी प्रतिष्ठा की है। इसका मूल आधार यही है कि एक ही व्यक्तिमें अपेक्षाके भेदसे अनेक संमवित विरोधी धर्मोंकी घटना करना। मनुष्य खभाव समन्वयशील तो है ही किन्तु सदा सर्वदा कई कारणोंसे उस खभावका आविर्भाव ठीक रूपसे हो नहीं पाता । इसी लिये समन्वयके स्थानमें दार्शनिकोंमें विवाद देखा जाता है । और जहाँ दूसरोंको स्पष्टरूपसे समन्वयकी संभावना दीखती है वहाँ भी अपने अपने पूर्वग्रहों के कारण दार्शनिकोंको विरोधकी गंध आती है । भगवान् बुद्धको उक्त प्रश्नोंका उत्तर अव्याकृत देना पड़ा उनका कारण यही है कि उनको आध्यात्मिक उन्नतिमें इन जटिल प्रश्नोंकी चर्चा निरर्थक प्रतीत हुई । अतएव इन प्रश्नोंको सुलझानेका उन्होंने कोई व्यवस्थित प्रयत नहीं किया । किन्तु इसका मतलब यह कमी नहीं कि उनके स्वभावमें समन्वयका तत्व बिलकुल नहीं था। उनकी-समन्वयशीलता सिंह सेनापति के साथ हुए संवादसे स्पष्ट है । भगवान् बुद्धको अनात्मवादी होने के कारण कुछ लोग अक्रियावाबी कहते थे । अत एव सिंह सेनापतिने भ० बुद्धसे पूछा कि आपको कुछ लोग भक्रियावादी कहते हैं तो क्या यह ठीक है ? इसके उत्तरमें उन्होंने जो कुछ कहा उसीमें उसकी समन्वयशीलता और अनेकान्तवादिता स्पष्ट होती है । उत्तर में उन्होंने कहा कि सच है मैं भकुमार संस्कारकी अक्रियाका उपदेश देता हूँ इसलिये मैं भक्रियावादी हूँ और कुशल संस्कारमी क्रिया मुझे पसंद है और मैं उसका उपदेश देता हूँ इसी लिये मैं क्रियावादी मी हूँ। इसी समन्वयप्रकृतिका प्रदर्शन अन्यत्र दार्शनिक क्षेत्रमैं भी यदि भ० बुद्धने किया होता तो उनकी प्रतिभा
और प्रज्ञाने दार्शनिकोंके सामने एक नया मार्ग उपस्थित किया होता । किन्तु यह कार्य म० महावीरकी शान्त और स्थिर प्रकृतिसे ही होनेवाला था इस लिये भगवान् बुद्धने आर्य चतुःसत्यके उपदेशमें ही कृतकृत्यताका अनुभव किया । तब भगवान् महावीरने जो बुद्धसे न हो सका उसे करके दिखाया और वे अनेकान्तवादके प्रज्ञापके हुए।
अब तक मुख्य रूपसे भगवान् बुद्धके अव्याकृत प्रश्नोंको लेकर जैनागमाश्रित अनेकान्तवादकी चर्चा की गई है। आगे अन्य प्रश्नोंके सम्बन्धमें अनेकान्तवादके विस्तारकी चर्चा करना इष्ट है । परंतु इस चर्चा के प्रारंभ करनेके पहले पूर्वोक्त 'दुःख स्वकृत है या नहीं' इत्यादि प्रश्नका समाधान म. महाबीरने क्या दिया है उसे देख लेना उचित है । भ० बुद्धने तो अपनी प्रकृतिके
विवापिट महावग VI.31.और गुत्तर निकाय Part IV.p.1791 ३. पृ..।
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प्रस्तावना |
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अनुसार उन सभी प्रश्नोंका उत्तर निषेधात्मक दिया है; क्यों कि ऐसा न कहते तो उनको उच्छेदबाद और शाश्वतबादकी आपत्तिका भय था । किन्तु भगवान् का मार्ग तो शाश्वतवाद और उच्छेदबादके समन्वयका मार्ग है अत एव उन प्रश्नोंका समाधान विधिरूपसे करने में उनको कोई भय नहीं था । उनसे प्रश्न किया गया कि क्या कर्मका कर्ता स्वयं है, अन्य है या उभय है ! इसके उत्तर में भ० महावीर ने कहा कि कर्मका कर्ता आत्मा स्वयं हैं; पर नहीं है और न खपरोभय' । जिसने कर्म किया है वही उसका भोक्ता है ऐसा माननेमें ऐकान्तिक शाश्वतवादकी आपत्ति भ० महावीरके मतमें नहीं आती; क्यों कि जिस अवस्थामें किया था उससे दूसरी ही अवस्था में कर्मका फल भोगा जाता है । तथा भोक्तृत्व अवस्थासे कर्मकर्तृत्व अवस्थाका मेद होनेपर भी ऐकान्तिक उच्छेदवादकी आपत्ति इसलिये नहीं आती कि मेद होते हुये भी जीव द्रव्य दोनों अवस्थामें एक ही मोजूद है ।
(७) द्रव्य और पर्यायका भेदाभेद ।
(अ) द्रव्यविचार - भगवती में द्रव्यके विचार प्रसंगमें कहा है कि द्रव्य दो प्रकारका है'
१. जीव द्रव्य और
२. अजीव द्रव्य ।
अजीव द्रव्यके मेद- प्रमेद इस प्रकार हैं
रूपी १ पुद्रलास्तिकाय
अजीवद्रव्य
सब मिलाकर छः द्रव्य होते हैं १ धर्मास्तिकाय, २ अधर्मास्तिकाय, ३ आकाशास्तिकाय, ४ जीवास्तिकाय, ५ पुद्गलास्तिकाय और ६ काल (अद्धासमय ) ।
इनमें से पांच द्रव्य अस्तिकाय कहे जाते हैं । क्यों कि उनमें प्रदेशोंके समूहके कारण rarat द्रव्य की कल्पना संभव हैं ।
पर्याय विचार में पर्यायोंके भी दो भेद बताये हैं" -
१. जीवपर्याय और २ अजीवपर्याय
अरूपी
१ धर्मास्तिकाय
२ अधर्मास्तिकाय
३ आकाशास्तिकाय
४ अद्धासमय
पर्याय अर्थात् विशेष समझना चाहिए ।
सामान्य- द्रव्य दो प्रकारका है - तिर्यग् और ऊर्ध्वता । जब कालकृत नाना अवस्थाओं में किसी द्रव्यविशेषका एकत्व या अन्वय या अबिच्छेद या ध्रुवस्व विवक्षित हो तब उस एक अन्वित अविच्छिन्न व या शाश्वत अंशको ऊर्ध्वतासामान्यरूप द्रव्य कहा जाता है।
१. भगवती १.६५२ । २ भगवती २५.१ । २५.४ । ३ भगवती २.१०.११७ । स्थानांगस्• ४४१ । ४ भगवती २५. ५. । प्रज्ञापना पद ५. ।
न्या• प्रस्तावना ४
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द्रव्य-पर्याय विचार |
एक ही कामें स्थित माना देशमें वर्तमान माना द्रव्योंने वा जविशेष को समानता भूत होती है वही तिर्यग्सामान्य द्रव्य है ।
जब यह कहा जाता है कि जीव मौ द्रव्य है, धर्मास्तिकाम मी द्रव्य है, अधमस्तिकाय भी इष्म है इत्यादि; या यह कहा जाता है कि द्रव्य दो प्रकारका है- जीव और अजीव । या यों कहा जाता है कि द्रव्य छः प्रकारका है- धर्मास्तिकाय आदि; तब इन सभी वाक्य द्रव्य शब्दका अर्थ तिर्यग्सामान्य है । और जब यह कहा जाता है कि जीव दो प्रकारका है संसारी और सिद्ध, संसारी जीवके पांच भेद हैं- एकेन्द्रियादि; पुद्गल चार प्रकारका हैस्कंध, स्कंधदेश, स्कंधप्रदेश और परमाणु; इत्यादि, तब इन वाक्योंमें जीव और पुद्गल शब्द तिर्यसामान्यरूप द्रव्यके बोधक है ।
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परंतु जब यह कहा जाता है कि जीव द्रव्यार्थिकसे शाश्वत है और भावार्थिकसे अशांत है' - तब जीव द्रव्यका मतलब ऊर्ध्वतासामान्यसे है। इसी प्रकार जब यह कहा जाता है कि अन्युच्छित्तिनयकी अपेक्षासे, नारक" शाश्वत हैं तब अव्युच्छित्तिनयका विषय जीव भी ऊर्ध्वतासामान्य ही अभिप्रेत हैं। इसी प्रकार एक जीवकी जब गति आगतिका विचार होता है अर्थात् जीव मरकर कहाँ जाता या जन्मके समय वह कहाँसे आता है आदि विचार झसंगमें सामान्य जीव शब्द या जीवविशेष नारकादि शब्द मी ऊर्ध्वंतासामान्यरूप जीवद्रव्यके ही बोधक हैं ।
जब यह कहा जाता है कि पुद्गल तीन प्रकारका है - प्रयोगपरिणत, मिश्रपरिणत और विश्वासापरिणत; तब पुद्गल शब्दका अर्थ तिर्यग्सामान्यरूप द्रव्य है । किन्तु जब यह कहा जाता है कि पुगल अतीत, वर्तमान और अनागत तीनों कालोंमें शाचत हैं। तब पुनल शब्दसे ऊतासामान्यरूप द्रव्य विवक्षित है। इसी प्रकार जब एक ही परमाणुपुद्गलके विषयमें यह कहा जाता है कि वह द्रव्यार्थिक दृष्टिसे शाश्वत है तब वहाँ परमाणुपुद्गल द्रव्य शब्दसे ऊर्ध्वता सामान्य द्रव्य अभिप्रेत है ।
(ब) पर्यायविचार - जैसे सामान्य दो प्रकारका है वैसे पर्याय भी दो प्रकारका है। तिर्यद्रव्य या तिर्यसामान्यके आश्रयसे जो विशेष विवक्षित वे तिर्यक् पर्याय हैं और ऊर्ध्वतासामान्यरूप ध्रुव शाश्वत द्रव्यके आश्रयसे जो पर्याय विवक्षित हों वे ऊर्ध्वतापर्याय हैं। नाना देशमें स्वतन पृथक् पृथक् जो द्रव्य विशेष या व्यक्तियाँ हैं वे तिर्यद्रव्यकी पर्याये हैं उन्हें विशेष मी कहा जाता है । और नाना कालमें एक ही शाश्वत द्रव्यकी - ऊर्ध्वंतासामान्यकी जो नाना अवस्थाएँ हैं, जो नाना विशेष हैं वे ऊर्ध्वतासामान्यरूप द्रव्यके पर्याय हैं। उन्हें परिणाम भी कहा जाता है । 'पर्याय' एवं 'विशेष' शब्दके द्वारा उक्त दोनों प्रकारकी पर्यायोंका बोध यांगोंमें कराया गया है । किन्तु परिणाम शब्दका प्रयोग सिर्फ ऊर्ध्वता सामान्यरूप द्रव्यके पर्यायोंके अर्थ में ही किया गया है ।
1
७ भगवती १.१.३७ । १.८.७२ । २ प्रज्ञापना पद १ । स्थानांग सू० ४५८ । ३ भगवती ०.२.२०३.१ ४ भगवती ०.३.२७९ । ५ भगवती शतक. २४. । भगवती ८.१ । ७ भगवती १.४.४२. । ८ भगवती १४.४.५१२ ।
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प्रस्तावना।
२७
गौतमने जब भगवान्से पूछा कि जीवपर्याय कितने हैं-संख्यात, असंख्यात या अनन्त ! तब भगवान्ने उसर दिया कि जीवपर्याय अनन्त हैं । ऐसा कहनेका कारण बताते हुए उन्होंने कहा है कि असंख्यात नारक है, असंख्यात असुर कुमार हैं, यावत् असंख्यात स्तनित कुमार है, असंख्यात पृथ्वीकाय हैं यावत् असंख्यात वायुकाय हैं, अनन्त वनस्पतिकाय हैं, असंख्यात द्वीन्द्रिय हैं यावत् असंख्यात मनुष्य हैं, असंख्यात वानव्यंतर हैं यावत् अनन्त सिद्ध हैं । इसी लिये जीवपर्याय अनन्त हैं । यह कथन प्रज्ञापनाके विशेष पदमें तथा भगवतीमें (२५.५) है । भगवतीमें (२५.२) जहाँ द्रव्यके भेदोंकी चर्चा है वहाँ उन मेदोंको प्रज्ञापनागत पर्यायमेदोंके समान समझ लेनेको कहा है । तथा जीव और अजीवके पर्यायोंकी ही चर्चा करने वाले समूचे उस प्रशापनाके पदका नाम विशेषपद दिया गया है। इससे यही फलित होता है कि प्रस्तुत चर्चा में पर्यायशब्द का अर्थ विशेष है अर्थात् तिर्यक् सामान्यकी अपेक्षासे जो पर्याय हैं अर्थात् विशेष विशेष व्यक्तियाँ हैं वे ही पर्याय हैं। सारांश यह है कि समस्त जीव गिने जाय तो वे अनन्त होते हैं अत एव जीवपर्याय अनन्त कहे गये हैं। स्पष्ट है कि ये पर्याय तिर्यग्सामान्यकी दृष्टिसे गिनाये गये हैं।
प्रस्तुतमें पर्याय शब्द तिर्यग्सामान्य विशेषका वाचक है यह बात अजीव पर्यायोंकीगिनतीसे मी स्पष्ट होती है । अजीव पर्यायोंकी गणना निम्नानुसार है-(प्रज्ञापना पद ५)
अजीवपर्याय
अरूपी
१ स्कंध
१ धर्मास्तिकाय २ धर्मास्तिकायदेश
२ स्कंधदेश ३ धर्मास्तिकायप्रदेश
३ स्कंधप्रदेश १ अधर्मास्तिकाय
४ परमाणुपुद्गल ५ , देश ६ , प्रदेश ७ आकाशास्तिकाय
८ , देश , ९ , प्रदेश
१० अद्धासमय किन्तु जीवविशेषोंमें अर्थात् नारक देव मनुष्य तिर्यच और सिद्धोंमें जब पर्यायका विचार होता है तब विचारका अाधार बिलकुल बदल जाता है । यदि उन विशेषोंकी असंख्यात या अनन्त संख्याके अनुसार उनके असंख्यात या अनन्तपर्याय कहे जाय तो यह तिर्यग्सामान्य की दृष्टिसे पर्यायोंका कथन समझना चाहिए परंतु भगवान्ने उन जीवविशेषोंके पर्यायके प्रश्नमें सर्वत्र अनन्त पर्याय ही बताये हैं। नारक जीव व्यक्तिशः असंख्यात ही हैं अनन्त नहीं;
१.प्रज्ञापमापद।
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पर्याय-विचार। तो फिर उनके अनन्त पर्याय कैसे ! नारकादि समी जीवविशेषोंके अनन्त पर्याय ही भगवानने बताए हैं तो इसपरसे यह समझना चाहिए कि प्रस्तुत प्रसंगमें पर्यायोंकी गिनती का आधार बदल गया है । जीवसामान्यके अनन्तपर्यायोंका कथन तिर्यग्सामान्यके पर्याय की दृष्टिसे किया गया है जब कि जीवविशेष नारकादिके अनन्त पर्यायका कथन ऊर्यतासामान्यको लेकर किया गया है ऐसा मानना पडता है। किसी एक नारक के अनन्तपर्याय घटित हो सकते है इस बातका स्पष्टीकरण यों किया गया है
"एक नारक दूसरे नारक से द्रन्यकी दृष्टिसे तुल्य है; प्रदेशोंकी अपेक्षासे भी तुल्य है, अवगाहनाकी अपेक्षासे स्यात् चतुःस्थानसे हीन, स्यात् .प, स्यात् चतुःस्वानसे अधिक है। स्थितिकी अपेक्षासे अवगाहनाके समान है; किन्तु श्याम वर्णपर्यायकी अपेक्षासे स्यात् षद्स्थानसे हीन, स्यात् तुल्य, स्यात् षट्स्थानसे अधिक है । इसी प्रकार शेष वर्णपर्याय, दोनों गंध पर्याय, पांचों रस पर्याय, आठों स्पर्श पर्याय, मतिज्ञान और अज्ञानपर्याय, श्रुतज्ञान और अज्ञानपर्याय, अवधि और विभंगपर्याय, चक्षुर्दर्शनपर्याय, अचक्षुर्दर्शनपर्याय, अवधिदर्शनपर्याय-इन समी पर्यायोंकी अपेक्षासे स्यात् षट्स्थान पतित हीन है, स्यात् तुल्य है, स्यात् षट्सान पतित अधिक है। इसी लिये नारक के अनन्त पर्याय कहे जाते हैं।" प्रज्ञापना पद ५।
कहनेका तात्पर्य यह है कि एक नारक जीव द्रव्यकी दृष्टिसे दूसरेके समान है । दोनोंके आत्म प्रदेश मी असंख्यात होनेसे समान है अत एव उस दृष्टि से मी दोनोंमें कोई विशेषता नहीं। एक नारकका शरीर दूसरे नारकसे छोटा भी हो सकता है और बडा मी हो सकता है और समान भी हो सकता है । यदि शरीरमें असमानता हो तो उसके प्रकार असंख्यात हो सकते हैं क्यों कि अवगाहना सर्व जघन्य हो तो अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण होगी । क्रमशः एक एक भागकी वृद्धिसे उत्कृष्ट ५०० धनुष प्रमाण तक पहुँचती है । उतनेमें असंख्यात प्रकार होंगे। इसलिये अवगाहनाकी दृष्टिसे नारकके असंख्यात प्रकार हो सकते हैं । यही बात आयुके विषयमें मी कही जा सकती है । किन्तु नारकके जो अनन्त पर्याय कहे जाते हैं उसका कारण तो दूसरा ही है । वर्ण-गंध-रस-स्पर्श ये वस्तुतः पुद्गलके गुण हैं किन्तु संसारी अवस्थामें शरीररूप पुद्गलका आत्मासे अभेद माना जाता है । अतएव यदि वर्णादिको मी नारकके पर्याय मानकर सोचा जाय, तथा मतिज्ञानादि जो कि आत्माके गुण हैं उनकी दृष्टिसे सोचा जाय तब नारकके अनन्तपर्याय सिद्ध होते हैं । इसका कारण यह है कि किसी भी गुणके अनन्त मेद माने गये हैं । जैसे कोई एक गुण श्याम हो दूसरा द्विगुण श्याम हो तीसरा त्रिगुण श्याम हो यावत् अनन्तवाँ अनन्तगुणश्याम हो इसी प्रकार शेष वर्ण और गंधादिके विषयमें मी घटाया जा सकता है। इसी प्रकार आत्माके ज्ञानादि गुणकी तरतमताकी मात्राओंका विचार करके मी अनन्तप्रकारताकी उपपत्ति की जाती है । अब प्रश्न यह है कि नारक जीव तो असंख्यात ही हैं तब उनमें वर्णादिको लेकर एककालमें अनन्त प्रकार कैसे घटाये जायें । इसी प्रश्नका उत्तर देनेके लिये कालभेदको बीचमें लाना पडता है । अर्याद कालमेदसे नारकोमें ये अनन्तप्रकार घट सकते हैं । कालभेद ही तो ऊर्ध्वतासामान्याश्रित पर्यायोंके विचारमें मुख्य आधार है । एक जीव कालभेदसे जिन नाना पर्यायोंको धारण करता है उन्हें ऊर्ध्वतासामान्याश्रित पर्याय समझना चाहिए ।
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प्रस्तावना।
जीव और अजीवके जो ऊर्ध्वतासामान्याश्रित पर्याय होते हैं उन्हें परिणाम कहा जाता है । ऐसे परिणामोंका जिक्र भगवतीमें तथा प्रज्ञापनाके परिणामपदमें किया गया है
परिणाम
१ जीवपरिणाम
१ अजीवपरिणाम १ गतिपरिणाम-४
१ बंधनपरिणाम-२ २ इन्द्रियपरिणाम-५
२ गतिपरिणाम-२ ३ कषायपरिणाम-४
३ संस्थानपरिणाम-५ ४ लेश्यापरिणाम-६
१ मैदपरिणाम-५ ५ योगपरिणाम-३
५ वर्णपरिणाम-५ ६ उपयोगपरिणाम-२
६ गंधपरिणाम-३ ७ ज्ञानपरिणाम-५+३
७ रसपरिणाम-५ . ८ दर्शनपरिणाम-३
८ स्पर्शपरिणाम-८ ९ चारित्रपरिणाम-५
९ अगुरुलघुपरिणाम-१ १० वेदपरिणाम-३
१० शब्दपरिणाम-२ जीव और अजीवके उपर्युक्त परिणामोंके प्रकार एक जीवमें या एक अजीवमें क्रमशः या अक्रमशः यथायोग्य होते हैं । जैसे किसी एक विवक्षित जीवमें मनुष्य गति पंचेन्द्रियस्व अनन्तानुबन्धी कषाय कृष्णलेश्या काययोग साकारोपयोग मत्यज्ञान मिथ्यादर्शन अविरति और नपुंसकवेद ये सभी परिणाम युगपत् हैं । किन्तु कुछ परिणाम क्रममावी हैं । जब जीव मनुष्य होता है तब नारक नहीं । किन्तु बादमें कर्मानुसार वही जीव मरकर नारक परिणामरूप गतिको प्राप्त करता है । इसी प्रकार वह कभी देव या तियंच मी होता है। कमी एकेन्द्रिय और कमी द्वीन्द्रिय । इस प्रकार ये परिणाम एक जीवमें क्रमशः ही हैं। . . वस्तुतः परिणाम मात्र क्रमभावी ही होते हैं । ऐसा संभव है कि अनेक परिणामोंका काल एक हो किन्तु कोई भी परिणाम द्रव्यमें सदा नहीं रहते । द्रव्य परिणामोंका खीकार और त्याग करता रहता है । वस्तुतः यों कहना चाहिए कि द्रव्य फिर वह जीव हो या अजीव खखपरिणामोंमें कालमेदसे परिणत होता रहता है । इसी लिये वे द्रव्यके पर्याय या परिणाम कहे जाते हैं।
विशेष भी पर्याय हैं और परिणाम भी पर्याय हैं; क्यों कि विशेष भी स्थायी नहीं और परिणाम भी स्थायी नहीं । तिर्यग्सामान्य जीवद्रव्य स्थायी है किन्तु एककालमें वर्तमान पांच मनुष्य जिन्हें हम जीवद्रव्यके विशेष कहते हैं स्थायी नहीं । इसी प्रकार एक ही जीवके ऋमिक नारक, तियेच, मनुष्य और देवरूप परिणाम भी स्थायी नहीं । अत एव परिणाम और विशेष दोनों अस्थिरता के कारण वस्तुतः पर्याय ही हैं । यदि दैशिक विस्तारकी ओर हमारा ध्यान हो तो नाना द्रव्योंके एक कालीन नाना पयोयों की ओर हमारा ध्यान जायगा पर काल
भगवती १५.४ । प्रज्ञापना पद १३ ।
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$4
द्रव्यपर्यायका भेदाभेद ।
विस्तारकी ओर हम ध्यान दें तो एक द्रव्यके या अनेक द्रव्योंके क्रमवर्ती नाना पर्यायोंकी ओर हमारा ध्यान जायगा । दोनों परिस्थितिओंमें हम द्रव्योंके किसी ऐसे रूपको देखते हैं जो रूप स्थायी नहीं होता । अतएव उन अस्थायी दृश्यमान रूपोंको पर्याय ही कहना उचित है। इसी लिये आगममें विशेषोंको तथा परिणामोंको पर्याय कहा गया है । हम जिन्हें काल दृष्टिसे परिणाम कहते हैं वस्तुतः वेही देशकी दृष्टिसे विशेष हैं ।
भगवान् बुद्धने पर्यायको प्राधान्य देकर द्रव्य जैसी त्रैकालिक स्थिर वस्तुका निषेध किया । इसी लिये वे ज्ञानरूप पर्यायका अस्तित्व स्वीकार करते हैं पर ज्ञानपर्यायविशिष्ट आत्मद्रव्यको नहीं मानते। इसी प्रकार रूप मानते हुए भी वे रूपवत् स्थायीद्रव्य नहीं मानते । इसके विपरीत उपनिषदोंमें कूटस्थ ब्रह्मवादका आश्रय लेकरके उसके दृश्यमान विविध पर्याय या परिणामोंको मायिक या अविद्याका विलास कहा है ।
इन दोनों विरोधी वादोंका समन्वय द्रव्य और पर्याय दोनोंकी पारमार्थिक सत्ताका समर्थन करनेवाले भगवान् महावीरके वादमें है । उपनिषदोंमें प्राचीन सांख्योंके अनुसार प्रकृतिपरिणामवाद है किन्तु आत्मा तो कूटस्थ ही माना गया है । इसके विपरीत भगवान् महावीर आत्मा और जड दोनोंमें परिणमनशीलताका स्वीकार करके परिणामवादको सर्वव्यापी करार दिया है । (क) द्रव्य - पर्यायका मेदाभेद ।
द्रव्य और पर्यायका भेद है या अमेद ? इस प्रश्नको लेकर भगवान् महावीरके जो विचार हैं उनकी विवेचना करना अब प्राप्त है
भगवती सूत्रमें पार्श्वशिष्यों और महावीरशिष्योंमें हुए एक विवादका जिक्र है। पार्श्वशिष्योंका कहना था कि अपने प्रतिपक्षी सामायिक और उसका अर्थ नहीं जानते । तब प्रतिपक्षी श्रमणोंने उन्हें समझाया कि -
"आया णे अज्जो ! सामाइए आया णे भज्जो ! सामाइयस्स भट्टे ।" भगवती १.९.७७
अर्थात् आत्मा ही सामायिक है और आत्मा ही सामायिक का अर्थ है । आत्मा द्रव्य है और सामायिक उसका पर्याय । उक्त वाक्य से यह फलित होता है कि गान् महावीरने द्रव्य और पर्यायके अमेदका समर्थन किया था किन्तु उनका अमेदसमर्थन अपेक्षिक है। अर्थात् द्रव्यदृष्टिकी प्रधानतासे द्रव्य और पर्यायमें अभेद है ऐसा उनका मत होना चाहिए क्यों कि अन्यत्र उन्होंने पर्याय और द्रव्यके मेदका भी समर्थन किया है । और स्पष्ट किया है कि अस्थिर पर्यायके नाश होनेपर मी द्रव्य स्थिर रहता है । यदि द्रव्य और पर्यायका ऐकान्तिक अमेद इष्ट होता तो वे पर्यायके नाशके साथ तदभिन्न द्रव्यका भी नाश प्रतिपादित करते । अत एव इस दूसरे प्रसंग में पर्यायदृष्टिकी प्रधानतासे द्रव्य और पर्यायके मेदका समर्थन और प्रथम प्रसंग में द्रव्यदृष्टिके प्राधान्यसे द्रव्य और पर्यायके अभेदका समर्थन किया है। इस प्रकार अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा इस विषयमें भी की है ऐसा ही मानना चाहिए ।
१ " से नूणं भंते अथिरे पलोहद्द नो थिरे पलोहह, अधिरे भजाइ नो थिरे भज्जइ, सासए बाले बलिय असणं, सालए पंडिए पंडियस अलासचं ? हंता गोषमा ! अविरे पलोइछ जाव पंडियस अलासयं ।" wwwnft-1.9.co.
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प्रस्तावना।
आत्मद्रव्य और उसके ज्ञान परिणामको मी भ० महावीरने द्रव्य दृष्टिसे अमिन्न बताया है जिसका पता आचारांग और भगवतीके वाक्योंसे चलता है"जे आया से विचाया,जे विनया से आया। जेण विजाणा से आया।"
आचारांग-१.५.५. "आया भंते ! नाणे अन्नाणे?" गोयमा! आया सिय नाणे सिय अन्नाणे, नाणे पुण नियमं आया।"
भगवती-१२.१०.४६८ ज्ञान तो आत्माका एक परिणाम है जो सदा बदलता रहता है इससे ज्ञानका आत्मासे भेद भी माना गया है । क्यों कि एकान्त अभेद होता तो ज्ञान विशेषके नाशके साथ आत्माका नाश भी मानना प्राप्त होता । इस लिये पर्यायदृष्टिसे आत्मा और ज्ञानका मेद मी है । इस बातका स्पष्टीकरण भगवतीगत आत्माके आठ भेदोंसे हो जाता है । उसके अनुसार परिणामोंके भेदसे आत्माका भेद मानकर, आत्माके आठ भेद माने गये हैं
"काविहा णं भंते आया पण्णता?" "गोयमा! अट्टविहा आया पण्णता । जहादवियाया, कसायाया, योगाया, उवयोगाया, णाणाया, दसणाया, चरित्ताया, वीरियाया ॥"
भगवती-१२.१०.४६७ इन आठ प्रकारोंमें द्रव्यात्माको छोड कर बाकीके सात आत्मभेद कषाय, योग, उपयोग, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य रूप पर्यायोंको लेकर किये गये हैं । इस विवेचनमें द्रव्य और पर्यायोंको भिन्न माना गया है अन्यथा उक्त सूत्रके अनन्तर प्रत्येक जीवमें उपर्युक्त आठ आत्माओंके अस्तित्वके विषयमें आनेवाले प्रश्नोत्तर संगत नहीं हो सकते । प्रश्न-जिसको द्रव्यात्मा है क्या उसको कषायात्मा आदि हैं या नहीं ? या जिसको कषायात्मा आदि हैं उसको द्रव्यात्मा भादि हैं या नहीं। उत्तर-द्रव्यात्माके होने पर यथायोग्य कषायात्मा आदि होते मी है और नहीं भी होते किन्तु कषायात्मा आदिके होने पर द्रव्यात्मा अवश्य होती है । इस लिये यही मानना पडता है कि उक्त चर्चा द्रव्य और पर्यायके भेदको ही सूचित करती है।
प्रस्तुत द्रव्य-पर्यायके भेदाभेदका अनेकान्तवाद भी भगवान महावीरने स्पष्ट किया है यह अन्य आगमवाक्योंसे भी स्पष्ट हो जाता है।
(९) जीव और अजीवकी एकानेकता। एक ही वस्तुमें एकता और अनेकता का समन्वय भी, भगवान् महावीरके उपदेशसे फलितं होता है । सोमिल ब्राह्मणने भगवान् महावीरसे उनकी एकता-अनेकताका प्रश्न किया था । उसका जो उत्तर भ० महावीरने दिया है उससे इस विषयमें उनकी अनेकान्तवादिता स्पष्ट हो जाती है
"सोमिला दव्वट्टयाए एगे अहं, नाणदंसणट्ठयाए दुविहे अहं, पएसट्टयाए अक्खए वि अहं, अव्वए वि अहं, अवट्टिए वि अहं, उवयोगट्टयाए अणेगभूयभावमविए वि अहं।" .
भगवती १.८.१० अर्थात् सोमिल ! द्रव्यदृष्टिसे मैं एक हूँ। ज्ञान और दर्शन-रूप दो पर्यायोंके प्राधान्यसे मैं दो हूँ। कभी न्यूनाधिक नहीं होनेवाले प्रदेशोंकी दृष्टि से मैं अक्षय हूँ अव्यय हूँ अवस्थित हूँ। तीनों कालमें बदलते रहनेवाले उपयोग स्वभावकी दृष्टिसे मैं अनेक हूँ।
भगवती १६...।
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परमाणुकी नित्यानित्यता। इसी प्रकार अजीव द्रव्योंमें भी एकता-अनेकताके अनेकान्तको भगवानने स्वीकार किया इस बातकी प्रतीति प्रज्ञापनाके अल्पबहुत्व पदसे होती है, जहाँ कि छहों द्रव्योंमें पारस्परिक न्यूनता तुल्यता और अधिकताका विचार किया है । उस प्रसंगमें निम्नवाक्य आया है
“गोयमा! सम्वत्थोवे एगे धम्मस्थिकाए दवट्ठयाए, से पेव पएसट्टयाए असंखेनापुणे।""सम्बस्थो पोग्गलस्थिकाए दबटुयाए, से व पएसट्टयाए भलोजगुणे।"
महापनापद-३. सू०५६। धर्मास्तिकायको द्रव्यदृष्टिसे एक होनेके कारण सर्वस्तोक कहा और उसी एक धर्मास्तिकायको अपने ही से असंख्यातगुण भी कहा क्यों कि द्रव्य दृष्टिके प्राधान्यसे एक होते हुए मी प्रदेशके प्राधान्यसे धर्मास्तिकाय असंख्यात भी है। यही बात अधर्मास्तिकायको भी लागू की गई है। अर्थात् वह भी द्रव्यदृष्टिसे एक और प्रदेशदृष्टिसे असंख्यात है । आकाश द्रव्यदृष्टिसे एक होते हुए भी अनन्त है क्यों कि उसके प्रदेश अनंत है । संख्या पुद्गल द्रव्य अल्प है जब कि उनके प्रदेश असंख्यातगुण हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जीव और अजीव दोनोंमें अपेक्षाभेदसे एकत्व और अनेकत्वका समन्य करनेका स्पष्ट प्रयक भगवान् महावीरने किया है।
इस बनेकान्तमें प्रमतत्वकी ऐकान्तिक निरंशता और एकता तथा बौद्धोंके समुदायवादकी ऐकान्तिक सांशता और अनेकताका समन्वय किया गया है, परन्तु उस जमानेमें एक कोकायत.मत ऐसा मी था जो सबको एक मानता था जब कि दूसरा लोकायत मत सबको एषक पृपक् मानता था। इन दोनों लोकायतोंका समन्वय. मी प्रस्तुत एकता-अनेकताके अनेकान्तवादमें हो तो कोई आश्चर्य नहीं । भगवान् बुद्धने उन दोनों लोकायतोंका अखीकार किमा. है तब भ० महावीरने दोनोंका समन्वय किया हो तो यह खाभाविक है। ..
(१०) परमाणुकी नित्यानित्यता
सामान्यतया दार्शनिकों में परमाणु शब्दका अर्थ रूपरसादियुक्त परम अपकृष्ट द्रव्यजैसे पृथ्वीपरमाणु आदि-लिया जाता है जो कि जड - अजीव द्रव्य है । परन्तु परमाणु शब्दका अंतिम सूक्ष्मत्व मात्र अर्य लेकर जैनागमोंमें परमाणुके चार मेद भ० महावीरने प्रताये हैं, "गोपमा ! बडब्बिो परमाणू पाते तंजहा-१ दवपरमाणू, २ खेतपरमाणू, काळपरमाणू, भावपरमाण।" भगवती २०.५.
अर्थात् परमाणु चार प्रकारके हैं १ द्रध्यपरमाणु २ क्षेत्रपरमाणु ३ कालपरमाणु ४ भावपरमाणु
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.."सवं एकति सोनाक्षण वति एवं डोकावतं ।.........सम्बं धुत्तं ति सोनाक्षण चतुत्य पोकाबापतेरेसाण मोमो सुपगम्म क्षेत्र व्यागतो अम्म.देखेति-अविजापचया चारा..."संयुत्तनिकाय XII. 481
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३३
वर्णादिपर्यायी अविवक्षासे सूक्ष्मतम द्रव्य, द्रव्यपरमाणु कहा जाता है। यही पुल परमाणु है जिसे अम्यदर्शनिकोंने भी परमाणु कहा है, आकाराद्रव्यका सूक्ष्मतम प्रदेश क्षेत्रपरमाणु है । सूक्ष्मतम समय कालपरमाणु है। जब द्रव्यपरमाणुमें रूपादिपर्याय प्रधानतया विवक्षित हों तब वह भावपरमाणु है ।
द्रव्य परमाणु अच्छेच, अमेय, अदाह्य और अग्राह्य है। क्षेत्रपरमाणु अनर्ध, अमध्य, अप्रदेश और अविभाग है । कालपरमाणु अवर्ण, अगंध, अरस और अस्पर्श है। भावपरमाणु वर्ण, गंध, रस और स्पर्शयुक्त है।'
दूसरे दार्शिनिकोंने द्रव्यपरमाणुको एकान्त नित्य माना है तब भ० महावीरने उसे स्पष्टरूपसे नित्यानित्य बताया है -
प्रस्तावना ।
"परमाणुपोगले णं भंते किं सासर असासप १"
" गोयमा ! सिय सासए सिय असासए" ।
"से फेणद्वेणं ?"
"नोयमा !
बट्टयाए सासद वनपजवेहिं जाव फालपजवेर्हि अलासए ।" भगवती - १४.४.५१२.
अर्थात् परमाणु पुगल द्रव्यदृष्टिसे शाश्वत है और वही वर्ण, रस, गंध और स्पर्श पर्यायोंकी अपेक्षासे अशाश्वत है।
अन्यत्र द्रव्यदृष्टिसे परमाणुकी शाखतताका प्रतिपादन इन शब्दोंमें क्रिया है
"एस णं भंते! पोग्गले तीतमणतं सालयं समयं भुवीति वतव्यं लिया ?". "हंता गोयमा ! एस णं पोगाले......लिया ।"
"एस णं भंते! पोग्गले पप्पनं सासयं समयं भवतीति वक्तव्यं लिया ?" "हंता गोयमा !"
"एस णं भंते! पोग्गले अणागथमणतं 'सासयं समयं भविस्सतीति बतध्वं सिया ?" "हंता गोयमा !” भगवती ९.४.४२. तात्पर्य इतना ही है कि तीनों कालमें ऐसा कोई समय नहीं जब पुद्गल का सातस्य न हो इस प्रकार पुद्गल द्रव्यकी निष्यताका द्रव्यदृष्टिसे प्रतिपादन करके उसकी अस्मिता कैसे है इसका भी प्रतिपादन भ० महावीरने किया है
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"एस णं भंते! पोग्गले तीतमनंतं सासचं समयं लक्खी, समयं भलुक्ली, समयं grat षा अक्खी षा ? पुर्विषं च णं करणेणं अणेगवनं भणेगरूवं परिणामं परिणमति, अह से परिणामे निजिने भवति तथ पच्छा पगबने एंगरुवे सिया १"
"हंता गोयमा !...... एगरूवे लिया ।"
भगवती १४.४.५१०.
अर्थात् ऐसा संभव है कि अतीत कालमें किसी एक समयमें जो पुद्गल परमाणु रूक्ष हो वही अन्य समयमें अरूक्ष हो । पुद्गल स्कंध भी ऐसा हो सकता है। इसके अलावा वह एक देशसे रूक्ष और दूसरे देशसे अरूक्ष मी एक ही समय में हो सकता है। यह भी संभव है कि स्वभावसे या अन्य प्रयोगके द्वारा किसी पुद्गल में अनेकवर्णपरिणाम हो जायँ और वैसा परिणाम नष्ट होकर बादमें एकवर्णपरिणाम भी उसमें हो जाय। इस प्रकार पर्यायोंके परिवर्तन
१ भगवती २,०५. ।
म्या प्रखावना ५
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अस्ति नास्तिका अनेकान्त ।
के कारण पुगलकी अनित्यता भी सिद्ध होती है और अनियाके होते हुए भी उसकी निजता में कोई बाधा नहीं आती इस बातको भी तीनों कालमें पुद्गलकी सत्ता बताकर भ० महावीरले स्वष्ट किया है - भगवती १४.४.५१० ।
(११) अस्ति - नास्तिका अनेकान्त ।
'सर्व अस्ति' यह एक अन्त है, 'सर्व नास्ति' यह दूसरा अन्त है । भगवान् बुद्धने इन दोनों अन्तोंका अस्वीकार कर के मध्यममार्गका अवलंबन करके प्रतीत्यसमुत्पादका उपदेश दिया है, कि अविद्या होनेसे संस्कार है इत्यादि -
"लग्गं अस्थीति तो ब्राह्मण अर्थ एको दुतियो अम्तो। एते ते ब्राह्मण उभो अन्ते अविज्ञापश्चया संखारा......"
भन्तो .......सभ्यं मत्थीति को ग्रहण अयं अनुपगम्म मज्येन तथागतो. धम्मं देलेतिसंयुक्त निकाय XII 47
अन्यत्र भगवान् बुद्धने उक्त दोनों अन्तों को लोकायत बताया है - वही XII. 48.
इस विषय में प्रथम तो यह बताना आवश्यक है कि भ० महावीरनें 'सर्व अस्ति' का आग्रह नहीं रखा है किन्तु जो 'अस्ति' है उसेही उन्होंने 'अस्ति' कहा है और जो नास्ति है उसेही 'नास्ति' कहा है 'सर्व नास्ति' का सिद्धान्त उनको मान्य नहीं । इस बातका स्पष्टीकरण गौतम गणधरने भगवान् महावीरके उपदेशानुसार अन्य तीर्थिकों के प्रश्नोंके उत्तर देते समय किया है
"नो खलु वयं देवाणुपिया ! अस्थिभावं नत्थिति वदामो, नत्थिभावं अस्थिति बदामो । अम्हे णं देवापुपिया ! सम् अस्थिभावं अत्थीति बदामों, सभ्यं स्थिभावं नत्थीति बदामी ।" भगवती ७.१०.३०४.
भगवान् महावीरने अस्तित्व और नास्तित्व दोनोंका परिणमन स्वीकार किंवा है। इतना ही नहीं किन्तु अपनी आत्मामें अस्तित्व और नास्तित्व दोनों स्वीकारपूर्वक दोनोंके परिणमनको भी स्वीकार किया है। इससे अस्ति और नास्तिके अनेकान्तवादकी सूचना उन्होंने की है यह स्पष्ट है।
"से नूणं भंते! अत्थितं भत्थित्ते परिणमद्द, नत्थितं नत्थिते परिणम ?”
"हंता गोयमा !....परिणमद्द "
"जपणं भंते ! अस्थित्तं अत्थिते परिणमइ नत्थितं नत्थिते परिणमह तं किं पयोगसा वीससा ?"
"गोषमा ! पयोगसा वि तं बीससावि तं ।"
33
भगवती १.३.३३.
"जहा ते भंते ! अत्थितं अत्थिते परिणमह तहा ते नत्थिचं नस्थिचे परिणम ? जहा ते नत्थितं नत्थिते परिणम तहा ते अत्थितं अस्थिन्ते परिणमइ ?" "हंता गोयमा ! जहा मे अत्थित्तं ......' जो वस्तु स्वद्रव्य-क्षेत्र - काल और भाव की अपेक्षासे 'अस्ति' है वही परद्रव्य-क्षेत्र - काल - भावकी अपेक्षासे 'नास्ति' हैं । जिस रूपसे वह 'अस्ति' है उसी रूपसे नास्ति' नहीं किन्तु 'अस्ति' ही है। और जिस रूपसे वह 'नास्ति' है उस रूपसे 'अस्ति' नहीं किन्तु 'नास्ति' ही है। किसी वस्तुको सर्वथा 'अस्ति' माना नहीं जा सकता। क्यों कि ऐसा माननेपर ब्रह्मवाद या सर्वेक्यका सिद्धान्त फलित होता है और शाश्वतवाद भी आ जाता है । इसी प्रकार सभीको सर्वथा 'नास्ति' मानने . पर सर्वशून्यवाद या उच्छेदवाद का प्रसंग प्राप्त होता है । भ० बुद्धने अपनी प्रकृतिके अनुसार इन
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दोनों वादोंको अखीकार करके मध्यममार्गसे प्रतीत्यसमुत्पाद वादका अवलम्बन किया है । जब कि अनेकान्तवादका अवलम्बन करके भगवान् महावीरने दोनों वादोंका समन्वय किया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनागमोंमें अस्ति-नास्ति, नित्यानित्य, मेदामेद, एकानेक तथा सान्त-अनन्त इन विरोधी धर्मयुगलोंको अनेकान्तवाद के आश्रय से एक ही वस्तुमें घटाया गया है। भ० महावीरने इन नाना वादोंमें अनेकान्तवादकी जो प्रतिष्ठा की है उसी का आश्रयण करके बादके दार्शनिकोंने तार्किक ढंगसे दर्शनान्तरोंके खण्डनपूर्वक इन्हीं वादोंका समर्थन किया है। दार्शनिक चर्चाके विकासके साथ ही साथ जैसे जैसे प्रश्नों की विविधता बढती गई बैसे वैसे अनेकान्तवादका क्षेत्र मी विस्तृत होता गया। परन्तु अनेकान्तवादके मूल प्रश्नोंमें कोई अंतर नहीं पा । यदि आगमोंमें द्रव्य और पर्यायके तथा जीव और शरीरके भेदाभेदका अनेकान्तवाद है तो दार्शनिक विकासके युगमें सामान्य और विशेष, द्रव्य और गुण, द्रव्य और कर्म, द्रव्य और जाति इत्यादि अनेक विषयोंमें भेदाभेदकी चर्चा और समर्थन हुआ है । यद्यपि मेदामेदका क्षेत्र विकसित और विस्तृत प्रतीत होता है तथापि सब का मूल द्रव्य और पर्यायके भेदामेद में ही है इस बातको भूलना न चाहिए । इसी प्रकार नित्यानित्य, एकानेक, अस्ति-नास्ति, सान्त-अनन्त इन धर्मयुगलोंका मी समन्वय क्षेत्र भी कितना ही विस्तृत व विकसित क्यों न हुआ हो फिर मी उक्त धर्मयुगलोंको लेकर आगमोंमें जो चर्चा हुई है वही मूलाधार है और उसीके ऊपर आगेके सारे अनेकान्तवादका महावृक्ष प्रतिष्ठित है इसे निश्चयपूर्वक खीकार करना चाहिए।
६५. स्याद्वाद और समभंगी। मिज्यवाद और अनेकान्तवादके विषयमें इतमा जान लेनेके बाद ही स्थाबादकी चर्चा उपयुक्त है। अनेकान्तवाद और विभज्यवाद में दो विरोधी धर्मोका खीकार समान मावसे हुआ है इसी आधारपर विभग्यवाद और अनेकान्तबाद पर्यायशब्द मान लिये गये हैं। परन्तु दो विरोधी धोका खीकार किसी न किसी अपेक्षा विशेषसे ही हो सकता है - इस भाव को सूचित करने के लिये वाक्योंमें 'स्यात्' शब्दके प्रयोगकी प्रथा हुई । इसी कारण अनेकान्तवाद स्थावादके मामसे मी प्रसिद्ध हुआ । अब ऐतिहासिक दृष्टि से देखना यह है कि आगमोंमें स्यात् शब्दका प्रयोग हुआ है कि नहीं अर्थात् स्यावादका बीब आगमोंमें है या नहीं।
प्रो० उपाध्येके मतसे 'स्याद्वाद' ऐसा शब्द मी आगममें है । उन्होंने सूत्रकृतांगकी एक गाथासे उस शब्दको फलित किया है। अगर चे टीकाकार को उस गाथा में 'स्वाद्वाद' शब्दकी गंध तक नहीं आई है। प्रस्तुत गाथा इस प्रकार है
"को छायए मोबियलूसपजामाणं न सेवेज पगासणं च।
नपावि पचे परिहास कुजान या सियावाय वियागरेजा।" सूचक० १.१४.१९ । गाथागत 'नयासियावाय' इस अंशका टीकाकारने 'न चाशीर्वाद' ऐसा संस्कृत प्रतिरूप किया है किन्तु प्रो० उपाध्येके मत से वह 'न चास्यावाद' होना चाहिए । उनका कहना है कि अ० हेमचन्द्रके नियमोंके अनुसार 'आशिष्' शब्दका प्राकृतरूप 'आसी' होना चाहिए। खयं हेमचन्द्रने 'आसीया" ऐसा एक दूसरा रूप भी दिया है । आचार्य हेमचन्द्रने स्यावादके
मोरिएल कोन्फरंस-नवम अधिवेशनकी प्रोसिडीग्स् प०६७१।२ प्राकृतव्या. ८.२.१७४.।
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भंगोंका इतिहास । लिये प्राकृतरूप 'सियावाओ' दिया है। प्रो० उपाध्ये का कहना है कि यदि इस सियावाओं' शब्दपर ध्यान दिया जाय तो उक्त गाथामें अस्याद्वादवचनके प्रयोगका ही निषेध मानना ठीक होगा क्योंकि यदि टीकाकारके अनुसार आशीर्वाद वचनके प्रयोग का निषेध माना जाय तो कथानकोंमें 'धर्मलाभ' रूप आशीर्वचनका प्रयोग जो मिलता है यह असंगत सिद्ध होगा। . आगमोंमें 'स्याद्वाद' शब्दके अस्तित्वके विषयमें टीकाकार और प्रो० उपाध्ये में मतभेद हो सकता है किन्तु 'स्यात्' शब्द के अस्तित्वमें तो विवादको कोई स्थान नहीं । भगवती' सूत्रमें जहाँ कहीं एक वस्तुमें नाना धर्मोका समन्वय किया गया है वहाँ सर्वत्र तो 'स्यात्' शब्दका प्रयोग नहीं देखा जाता किन्तु कई ऐसे भी स्थान है जहाँ 'स्यात्' शब्दका प्रयोग अवश्य किया गया है। उनमें से कई स्थानोंका उद्धरण पूर्वमें की गई अनेकान्तवाद तथा विभज्यवादकी चर्चा में वाचकोंके लिये सुलभ है। उन स्थानों के अतिरिक्त भी भगवतीमें कई ऐसे स्थान है जहाँ 'स्यात्' शब्द प्रयुक्त हुआ है । इस लिये 'स्यात्' शब्दके प्रयोगके कारण जैनागोंमें स्याद्वादका अस्तित्व सिद्ध ही मानना चाहिए। तो भी यह देखना आवश्यक है कि आगमकालमें स्याद्वादका रूप क्या रहा है और स्याद्वादके भंगोंकी भूमिका क्या है ! (१) भंगोंका इतिहास।
अनेकान्तवादकी चर्चा के प्रसंगमें यह स्पष्ट होगया है कि भ० महावीरने परस्पर विरोधी धोका खीकार एक ही धर्मिमें किया और इस प्रकार उनकी समन्वयकी भावनामेंसे अनेकान्तवादका जन्म हुआ है । किसी भी विषयमें प्रथम अस्ति-विधिपक्ष होता है । तब कोई दूसरा उस पक्षका नास्ति - निषेध पक्ष लेकरके खण्डन करता है । अत एव समन्वेताके सामने जब तक दोनों विरोधी पक्षोंकी उपस्थिति न हो तबतक समन्वयका प्रश्न उठता ही नहीं । इस प्रकार अनेकान्तवाद या स्यावादकी जडमें सर्वप्रथम - अस्ति और नास्ति पक्षका होना आवश्यक है। अतएव स्याद्वादके भंगोंमें सर्व प्रथम इन दोनों भंगोंको स्थान मिले यह खाभाविक ही है। भंगोंके साहिथिक इतिहासकी ओर ध्यान दें तो हमें सर्व प्रथम ऋग्वेदके नासदीय सूक्तमें भंगोंका कुछ आभास मिलता है। उक्त सूक्तके ऋषिके सामने दो मत थे । कोई जगत् के आदि कारणको सत् कहते थे तो दूसरे असत् । इस प्रकार ऋषिके सामने जब समन्वयकी सामग्री उपस्थित हुई तब उन्होंने कह दिया वह सत् भी नहीं असत् भी नहीं । उनका यह निषेधमुख उत्तर भी एक पक्षमें परिणत हो गया। इस प्रकार, सत् , असत् और अनुभय ये तीन पक्ष तो ऋग्वेद जितने पुराने सिद्ध होते हैं।
उपनिषदोंमें आत्मा या प्रमको ही परमतत्व मान करके आन्तर-बाह्य समी वस्तुओं को उसीका प्रपञ्च माननेकी प्रवृत्ति हुई तब यह खाभाविक है कि अनेक विरोधोंकी भूमि ब्रह्म या .आत्मा ही बने । इस का परिणाम यह हुआ कि उस आत्मा, ब्रह्म या ब्रह्मरूप विश्वको ऋषियोंने अनेक विरोधी धर्मोंसे अलंकृत किया । पर जब उन विरोधोंके तार्किक समन्वयमें भी उन्हें संपूर्ण संतोषलाभ न हुआ तब उसे वचनागोचर-अवक्तव्य-अव्यपदेश्य बता कर व अनुभवगम्य कह
वही ..२.२
...०७.। भगवती १.७.१२.२.१.८६। ५.७.२१२.१.४.२३८ । ७.२.२७.। .३.२७१।१२.१०.१६८।१२.१०.४६९।१५.४.५११।१४.४.५३ । इत्यादि।
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प्रस्तावना।
कर उन्होंने वर्णन करना छोड दिया । यदि उक्त प्रक्रियाको ध्यान रखा जाय तो "तवेजति तजति" (ईशा०५), "मणोरणीयान् महतो महीयान्" (कठो० १.२.२०. श्वेता० ३.२०) "संयुक्तमेतत् सरमसरेच व्यक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः। अनीशश्चात्मा" (बेता०.१.८.), "सदसवरेण्यम्" (मुण्डको० २.२.१ ) इत्यादि उपनिषवाक्योंमें दो विरोधी धर्मोका स्वीकार किसी एक ही धर्मिमें अपेक्षाभेदसे किया गया है यह स्पष्ट हो जाता है।
विधि और निषेध दोनों पक्षोंका विधिमुखसे समन्वय उन वाक्योंमें हुआ है । ऋग्वेदके पिने दोनों विरोधी पक्षोंको अखीकृत करके निषेध मुखसे तीसरे अनुभयपक्षको उपस्थित किया है । जब कि उपनिषदोंके ऋषियोंने. दोनों विरोधी धर्मोके स्वीकारके द्वारा उभयपक्षका समन्वय करके उक्त वाक्योंमें विधिमुखसे चौथे उभयभंगका आविष्कार किया।
किन्तु परमतत्त्वको इन.धोका आधार मानने पर उन्हें जब विरोधकी गंध आने लगी तब फिर अन्तमें उन्होंने दो मार्ग लिये । जिन धमाको दूसरे लोग स्वीकार करते थे उनका निषेध कर देना यह प्रथम मार्ग है। यानि ऋग्वेदके ऋषिकी तरह अनुभय पक्षका अवलम्बन करके निषेधमुखसे उत्तर दे देना कि वह न सत् है न असत्-"न सचासत्" (वेता० १.१८)। जब इसी निषेधको “स एष नेति नेति" (वृहदा० १.५.१५) की अंतिम मर्यादा तक पहुंचाया गया तब इसी से फलित हो गया कि वह अवक्तव्य है यही दूसरा मार्ग है । "पतो वाचो निवर्तन्ते" (तैत्तिरी० २.४.) "यहचानभ्युदितम्" (केन० १.४.) "नैव पाचा न मनसा प्रातुं शक्योः " (कठो० २.६.१२). "मरहमव्यवहार्यमग्रामलक्षणामचिस्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपशोपशम शान्तं शिवमतं चतुर्थ मन्यन्ते स मात्मा सविधेयः।" (माल्यो०७) इत्यादि उपनिषद्वाक्योंमें इसी अवक्तव्यभंगकी चर्चा है।
इतनी चर्चासे स्पष्ट है कि जब दो विरोधी धर्म उपस्थित होते है तब उसके उत्तरमें तीसरा पक्ष निम तीन तरहसे हो सकता है।
१ उभय विरोधी पक्षोंको स्वीकार करनेवाला (उभय )। २ उभय पक्षका निषेध करनेवाला (अनुभय)।
३ अवक्तव्य । इनमेंसे तीसरा प्रकार जैसा कि पहले बताया गया, दूसरेका विकसित रूप ही है । अत एवं अनुमय और अबक्तव्यको एक ही भंग समझना चाहिये । अनुभयका तात्पर्य यह है कि वस्तु उभयरूपसे पाय नहीं अर्थात् वह सत् रूपसे व्याकरणीय नहीं और असपसे भी व्याकरणीय नहीं । अत एव अनुभयका दूसरा पर्याय अवक्तव्य हो जाता है।
इस अवक्तव्यमें और वस्तुकी सर्वथा अवक्तन्यताके पक्षको व्यक्त करनेवाले अवक्तव्यमें सूक्ष्म मेद है उसे ध्यानमें रखना आवश्यक है । प्रथमको यदि सापेक्ष अवक्तव्य कहा जाय तो दूसरेको निरपेक्ष अवक्तव्य कहा जा सकता है । जब हम किसी वस्तु के दो या अधिक धोको मनमें रख कर तदर्य शब्दकी खोज करते हैं तब प्रत्येक धर्मके वाचक भिन्न भिन्न शब्द तो मिल जाते हैं किन्तु उन शब्दोंके क्रमिक प्रयोगसे विवक्षित समी धर्मोका बोध युगपत् नहीं हो
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सं
भंगोंका इतिहास । पाता । अत एव वस्तुको हम वक्तव्य कह देते हैं । यह हुई सापेक्ष अवक्तव्यता । दूसरे निरपेक्ष भवाम्यसे यह प्रतिपादित किया जाता है कि वस्तुका पारमार्थिक रूप ही ऐसा है जो शब्दका गोचर नहीं, बत एप उसका वर्णन शम्दसे हो ही नहीं सकता।
स्वादक भौमि जो गवकम्पमंग है वह सापेक्ष अवक्तव्य है। और वक्तव्यत्व-अवकव्यत्व ऐसे दो विरोषी धोको लेकर जैनाचार्योने लता सप्तभंगीकी जो योजना की है वह निरपेक्ष अवतव्यको लक्षित करके की है ऐसा प्रतीत होता है । अत एव अवक्तव्य शम्दका प्रयोग
और मिस्वत ऐसे दो अर्थ होता है ऐसा मानना चाहिए । विधि और निषेध उभय रुपसे अस्तुकी बनवता अब अभिप्रेतो तब अवतम्य संकुचित या सापेक्ष अवक्तव्य है। और सबसमा प्रकारांचा विव करना हो तब मिस्वत और निरपेक्ष गतव्य अभिप्रेत है।
दार्शनिक इतिहातमें उक्त सापेक्ष जवक्तब्वत्व नया नहीं है। ऋग्वेदके पिने जगत्के आदि भारपायो सारपसे और असंहपसे अवध माना गोंकि उनके सामने दो ही पक्ष मे । जब कि मानपने चतुर्मपाद कामाको अन्तःप्रहः (विधि), बहिश्रा (निषेध) और उभयप्रता (उभय) लखीनों रूपसे जवाव्य मावा क्यों कि उनके सामने लामाके उक तीनों प्रकार थे। किन्तु माध्यमिक दर्शनके बूत नाबार्डनने वस्तुको चतुष्कोटि विनिर्मुक्त कह कर अग्रप माना क्योंकि उनके सामने विधि, निषेध, उभय, और अनुभय ऐसे चार पक्षाये । इस प्रकार समिक्ष मा बतिक इतिहासमें प्रसिद्ध ही है । इसी प्रकार निरपेक्ष भवक्तव्यता भी मानपदों में प्रसिद्ध है। जब हम यतो गांची निवर्तन्ते' जैसे वाक्य चुनते है तथा मैन भागममें जब ससरा नियन्ति" जैसे वाक्य सुनते हैं तब वहाँ निरपेक्ष अवक्तव्यताका से प्रतिपादन आग्रह स्पष्ट हो जाता है।
इतनी पर्चासे यह स्पष्ट है कि अनुमय और सापेक्ष बत्तब्यताका तात्पर्याय एक मानने पर यही मानना पड़ता है कि जब विधि और निषेध दो विरोधी पक्षोंकी उपस्थिति होती है तब उसके उपरमें तीसरा पक्ष या तो उभय होगा या अवतम्य होगा। अत एव उपनिषदोंके समय तक ये चार पक्ष स्थिर उसे ऐसा मानना उचित है
१ सत् (विधि) २ असत् (निषेध) ३सदसद (उमब
भाकव्य (बाम) पार पोंकी परंपरा और निपटकसे भी सिद्ध होती है। भगवान बुद्धने जिन प्रमोंके विषयमें बाकरण करना अनुचित समझा है, उन प्रश्नोंको अन्यारत कहा जाता है। वे अव्याहत प्रम भी वही सिद्ध करते हैं कि भगवान् बुद्धके समय पर्यन्त एकरी विषयमें चार विरोधी पक्ष उपस्थित करनेकी शैली दार्शनिकोंमें प्रचलित थी। इतना ही नहीं बल्कि उन चारों पक्षोम रूप भी ठीक वैसा ही है जैसा कि उपनिषदोंमें पाया जाता है। इससे यह सहज सिद्ध है कि उक्त चारों पक्षोंका रूप तब तकमें वैसा ही सिर
था, जो कि निललित अन्यात प्रभोंको सेखनेसे सह होता है-.
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१ होति तथागतो परमरणाति? २. होति तथागतो परंमरणाति?
होति चनोतिष तथागतो परंमरणाति ? ४ नेव होति ननहोति तथागतो परमरणाति?' इन अव्याकृत प्रश्नोंके अतिरिक्त भी अन्य प्रश्न त्रिपिटकमें ऐसे हैं जो उक्त चार पक्षोंको ही सिद्ध करते हैं
१ सयंकतं दुपति? २परंकवं दुक्खंति? ३ सयंकतं परंकतंच दुक्खंति! ४ भसयंकार अपरकार दुवति?
-संयुत्तनि XII. 17. त्रिपिटकगत संजयबेलट्ठिपुत्तके मतवर्णनको देखनेसे भी यही सिद्ध होता है कि तब तकमें वही चार पक्ष स्थिर थे। संजय विक्षेपवादी था अत एव निम किषित किसी विषयमें अपना निश्चित मत प्रकट करता न था'।
१ परलोक है! २ परलोक नहीं हैं। ३ परलोक है और नहीं है! ४ परलोक है ऐसा नहीं, नहीं है ऐसा नहीं ! १ औपपातिक है। २ औपपातिक नहीं है। ३ औपपातिक है और नहीं है। १ औपपातिक न है, न नहीं हैं। १ मुक्त दुकत कर्मका फल है। २
, फल नहीं है:
है और नहीं है!
(१)
00000
(१) १ मरणानन्तर तथागत है !
नहीं है। ,है और नहीं है।
न है और न नहीं है। जैन आगोंमें भी ऐसे कई पदार्थोंका वर्णन मिलता है जिनमें लिपि-निषेष-उमस और न भयके आधारपर चार विकल्प किये गये हैं। यथा-- (१) १ आस्मारंभ
२ परारंभ
-
संयुत्तनिकापXLIV.
दीपलिकाप-सामम्म
त
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अवक्तव्यका सान।
३ तदुभयारंभ ४ अनारंभ
भगक्ती १.१.१७
३ गुरु-लघु ४ अगुएलघु
भगवती १.९.७४ १ सत्य २ मृषा ३. सत्य-मूषा " असल्यमृषा
भगवती १३.७.१९३ १ आत्मतिकर २ परातकर ३ आत्मपरांतकर ४ नोआत्मांतकर-परांतकर
इत्यादि स्थानांगसूत्र-२८७,२८९,३२७,३४४,३५५,३६५ । इतनी चर्चासे यह स्पष्ट है कि, विधि, निषेध, उभय और अवक्तव्य (बनुभय) ये चार पक्ष भगवान् महावीरके समय पर्यन्त स्थिर हो चुके थे इसीसे भ० महावीरने इन्हीं पक्षोंका समन्वय किया होगा-ऐसी कल्पना होती है । उस अवस्थामें स्याहादके मौलिक भंग ये फलित
१ स्यात् सत् (विधि) २ स्याद् असत् (निषेध) ३ स्याद् सत् स्यादसत् (उभय)
१ स्यादवक्तव्य (भनुभय) (२)भवक्तव्यका खान। इन चार भंगोमेंसे जो अंतिम भंग अवक्तव्य है वह दो प्रकारसे लब्ध हो सकता है(१) प्रथमके दो भंगरूपसे वाच्यताका निषेध करके। (२) प्रथमके तीनों भंगलपसे वाच्यताका निषेध करके ।
(१) जब प्रथम दो भंगडपसे वाच्यताका निषेध अभिप्रेत हो तब साभाविक तौर पर अवकन्यका स्थान तीसरा पडता हैं। यह स्थिति ऋग्वेदके ऋषिके मनकी जान पड़ती है जब कि उन्होंने सत् और अंसद संपसे जगतके आदि कारणको अवक्तव्य बताया । अत एव यदि स्यावादके भंगोंमें अवक्तव्यका तीसरा सान जैनप्रन्योंमें आता हो तो यह इतिहासकी दृष्टिसे संगत ही है । भगवती सूत्रमें जहाँ खयं भ० महावीरने स्यावादके भंगोंका विवरण किया है वहाँ अवक्तव्य भंगका स्थान तीसरा है । यपि वहाँ उसका तीसरा स्थान अन्य दृष्टिसे है, जिसका कि विवरण
भगवती-११.१०.१६९।
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प्रस्तावना |
४१
आगे किया जायगा, तथापि भगवान् महावीरने जो ऐसा किया वह किसी प्राचीन परंपराका ही अनुगमन हो तो आश्चर्य नहीं । इसी परंपराका अनुगमन करके आचार्य उमाखाती ( तस्वार्थभा० ५.३१), सिद्धसेन ( सम्मति ० १.३६ ), जिनभद्र ( विशेषा० गा० २२३२) आदि आचार्योंने अवक्तव्यको तीसरा स्थान दिया है।
(२) जब प्रथमके तीनों भंगरूपसे वाध्यताका निषेध करके वस्तुको अवक्तव्य कहा जाता है। तब स्वभावतः अवक्तव्यको मंगोंके क्रममें चौथा स्थान मिलना चाहिए । माण्दूक्योंपनिषद् में चतुष्पाद आत्माका वर्णन है । उसमें जो चतुर्थपादरूप आत्मा है वह ऐसा ही अवक्तव्य है । ऋषिने कहा है कि "नान्तमहं न बहिष्प्रशं नोभयतः प्र" ( माण्डू ० ७ ) इससे स्पष्ट है कि
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१ अन्तः प्रज्ञ २ बहिष्प्रज्ञ
३ उभयप्रज्ञ
इन तीनों अंगोंका निषेध करके उस आत्माके स्वरूपका प्रतिपादन किया गया है और फलित किया है कि “अदृष्टमव्यवहार्यममाद्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यम्" ( माण्डू ० ७ ) ऐसे आत्माको ही चतुर्थ पाद समझना चाहिए। कहना न होगा कि प्रस्तुतमें विधि-निषेध-उभय इन तीन भंगोंसे वाच्यताका निषेध करनेवाला चतुर्थ अवक्तव्य भंग विवक्षित है। ऐसी स्थिति में स्याद्वादके भंगों में अवक्तव्यको तीसरा नहीं किन्तु चौथा स्थान मिलना चाहिए। ऐसी परंपराका अनुगमन सप्तभंगीमें अवक्तव्यको चतुर्थस्थान देनेवाले आचार्य समन्तभद्र ( आप्तमी ० का ० १६) और तदनुयायी " जैनाचार्योंके द्वारा हुआ हो तो आश्चर्य नहीं । आचार्य कुन्दकुन्दने दोनों मतोंका अनुगमन किया है।
(३) स्याद्वाद के अंगोंकी विशेषता ।
स्याद्वादके भंगोंमें भ० महावीरने पूर्वोक्त चार अंगों के अतिरिक्त अन्य भंगोंकी भी योजना की है। इनके विषय में चर्चा करनेके पहले उपनिषद् निर्दिष्ट चार पक्ष, त्रिपिटके चार अव्याकृत प्रश्न, संजयके चार भंग और भ० महावीरके स्याद्वादके भंग इन सभी में परस्पर क्या विशेषता है उसकी चर्चा कर लेना विशेष उपयुक्त 1
उपनिषदोंमें माण्डूक्यको छोडकर किसी एक ऋषिने उक्त चारों पक्षोंको स्वीकृत नहीं किया । किसीने सत् पक्षको किसीने असत् पक्षको, किसीने उभय पक्षको तो किसीने अवक्तव्य पक्षको स्वीकृत किया है। जबकि माण्डूक्यने आत्माके विषयमें चारों पक्षोंको स्वीकृत किया है ।
कि भ० बुद्ध उन प्रश्नोंका
भगवान् बुद्धके चारों अव्याकृत प्रश्नोंके विषय में तो स्पष्ट ही है कोई हा या नामें उत्तर ही देना नहीं चाहते थे अत एव वे प्रश्न अव्याकृत कहलाये । इसके विरुद्ध भगवान् महावीरने चारों पक्षोंका समन्वय करके सभी पक्षोंका अपेक्षामेदसे स्वीकार किया है। संजयके मतमें और स्याद्वादमें मेद यह है कि स्याद्वादी प्रत्येक भंगका स्पष्ट रूपसे निश्चयपूर्वक स्वीकार करता है जब कि संजय मात्र भंगजालकी रचना करके उन भंगौके विषयमें अपना अज्ञान ही प्रकट करता है। संजयका कोई निश्चय ही नहीं। वह भंगालकी
न्या• प्रस्तावना ६
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स्याद्वादके भंगोंकी विशेषता ।
रचना करके अज्ञानवादमें ही कर्तव्यकी इतिश्री समझता है तत्र स्याद्वादी भ० महावीर प्रत्येक मंगका स्वीकार करना क्यों आवश्यक है यह बताकर विरोधी भंगोंके स्वीकार के लिये नयवादअपेक्षावादका समर्थन करते हैं। यह तो संभव है कि स्याद्वादके भंगोंकी योजनामें संजयके भंगजालसे भ० महावीरने लाभ उठाया हो किन्तु उन्होंने अपना खातथ्य भी बताया है, यह स्पष्ट ही है। अर्थात् दोनोंका दर्शन दो विरोधी दिशामें प्रवाहित हुआ है।
ऋग्वेदसे भ० बुद्ध पर्यन्त जो विचारधारा प्रवाहित हुई है उसका विश्लेषण किया जाय तो प्रतीत होता है कि प्रथम एक पक्ष उपस्थित हुआ जैसे सत् या असत् का । उसके विरोध में विपक्ष उस्थित हुआ असत् या सत्का । तब किसीने इन दो विरोधी भावनाओंको समन्वित करनेकी दृष्टिसे कह दिया कि तत्र न सत् कहा जा सकता है और न असत् - वह तो वक्तव्य है । और किसी दूसरेने दो विरोधी पक्षोंको मिलाकर कह दिया कि वह 1 सदसत् है । वस्तुतः विचारधारा के उपर्युक्त पक्ष, विपक्ष और समन्वय ये तीन क्रमिक सोपान हैं । किन्तु समन्वयपर्यन्त आजानेके बाद फिर से समन्वयको ही एक पक्ष बनाकर विचारधारा आगे चलती है, जिससे समन्वयका भी एक विपक्ष उपस्थित होता है। और फिर नये पक्ष और विपक्षके समन्वयकी आवश्यकता होती है । यही कारण है कि जब वस्तुकी अवताव्यतामें सद् और असत्का समन्वय हुआ तब वह मी एक एकान्त पक्ष बन गया । संसारकी गतिबिधि ही कुछ ऐसी है, मनुष्यका मन ही कुछ ऐसा है कि उसे एकान्त सह्य नहीं । अत एव वस्तुकी ऐकान्तिक अवक्तव्यताके विरुद्ध भी एक विपक्ष उत्थित हुआ कि वस्तु ऐकान्तिक अवक्तव्य नहीं उसका वर्णन भी शक्य है। इसी प्रकार समन्वयवादीने जब वस्तुको सदसत् कहा तब उसका वह समन्वय मी एक पक्ष बन गया और स्वभावतः उसके विरोधमें विपक्षका उत्थान हुआ । अत एव किसीने कहा एक ही वस्तु सदसत् कैसे हो सकती है, उसमें विरोध है। जहाँ विरोध होता है वहाँ संशय उपस्थित होता है । जिस विषयमें संशय हो वहाँ उसका ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं हो सकता । अत एव मानना यह चाहिए कि वस्तुका सम्यग्ज्ञान नहीं । हम उसे ऐसा भी नहीं कह सकते, वैसा भी नहीं कह सकते । इस संशय या अज्ञानवादका तात्पर्य वस्तुकी अज्ञेयता, अनिर्णेयता, अवाच्यतामें जान पडता है। यदि विरोधी मतका समन्वय एकान्त दृष्टिसे किया जाय तब तो फिर पक्ष-विपक्ष -समन्वयका चक्र अनिवार्य है। इसी चक्रको मेदनेका मार्ग भगवान् महावीरने बताया है। उनके सामने पक्ष-विपक्ष - समन्वय और समन्वयका भी विपक्ष उपस्थित था । यदि वे ऐसा समन्वय करते जो फिर एक पक्षका रूप ले ले तब तो पक्ष-विपक्ष समन्वयके चक्रकी गति नहीं रुकती । इसीसे उन्होंने समन्वयका एक नया मार्ग लिया, जिससे वह समन्वय स्वयं आगे जाकर एक नये विपक्षको अवकाश दे न सके ।
उनके समन्वयकी विशेषता यह है कि वह समन्वय स्वतन्त्र पक्ष न होकर सभी विरोधी पक्षोंका यथायोग्य संमेलन है । उन्होंने प्रत्येक पक्षके बलाबलकी ओर दृष्टि दी है । यदि वे केवल दौर्बल्यकी ओर ध्यान दे करके समन्वय करते तब सभी पक्षका सुमेल होकर एकत्र संमेलन न होता किन्तु ऐसा समन्वय उपस्थित हो जाता जो किसी एक विपक्षके उत्थानको अवकाश देता । भ० महावीर ऐसे विपक्षका उत्थान नहीं चाहते थे । अतएव उन्होंने प्रत्येक
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प्रस्ताबना ।
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पक्षकी सच्चाई पर भी ध्यान दिया । और सभी पक्षोंको वस्तुके दर्शनमें यथायोग्य स्थान दिया । जितने मी अबाधित विरोधी पक्ष थे उन सभीको सच बताया अर्थात् संपूर्ण सत्यका दर्शन तो उन सभी विरोधोंके मिलनेसे ही हो सकता है, पारस्परिक निरासके द्वारा नहीं, इस बातकी प्रतीति नयवादके द्वारा कराई। सभी पक्ष, सभी मत, पूर्ण सत्यको जाननेके भिन्न भिन्न प्रकार हैं । किसी एक प्रकारका इतना प्राधान्य नहीं है कि वही सच हो और दूसरा नहीं । सभी पक्ष अपनी अपनी दृष्टिसे सत्य हैं, और इन्ही सब दृष्टिओंके यथायोग्य संगमसे वस्तुके स्वरूपका भास होता है। यह नयवाद इतना व्यापक है कि इसमें एक ही वस्तुको जानने के सभी संभावित मार्ग पृथक् पृथकू नय रूपसे स्थान प्राप्त कर लेते है। वे नय तब कहलाते हैं जब कि अपनी अपनी मर्यादामें रहें, अपने पक्षका स्पष्टीकरण करें और दूसरे पक्षका मार्ग अवरुद्ध न करें । परंतु यदि वे ऐसा नहीं करते तो नय न कहे जाकर दुर्नय बन जाते। इस अवस्था में विपक्षोंका उत्थान साहजिक है । सारांश यह है कि भगवान् महावीरका समन्वय सर्वव्यापी है। अर्थात् सभी पक्षोंका सुमेल करनेवाला है अत एव उसके विरुद्ध विपक्षको कोई स्थान नहीं रह जाता । इस समन्वयमें पूर्वपक्षोंका लोप होकर एक मत नहीं रह जाता । किन्तु पूर्व सभी मत अपने अपने स्थानपर रह कर वस्तुदर्शनमें घडीके भिन्न भिन्न पुर्जेकी तरह सहायक होते हैं । इस प्रकार पूर्वोक्त पक्ष-विपक्ष समन्वय के चक्र में जो दोष था उसे दूर करके भगवानने समन्वयका यह नया मार्ग लिया जिससे फल यह हुआ कि उनका वह समन्वय अंतिम ही रहा ।
इस पर से हम देख सकते हैं कि उनका स्याद्वाद न तो अज्ञानवाद है और न संशयवाद । अज्ञानवाद तब होता जब वे संजयकी तरह ऐसा कहते कि वस्तुको मैं न सत् जानता हूँ के सत् कैसे कहूँ, और न असत् जानता हूँ तो असत् कैसे कहूँ इत्यादि । भ० महाबीर तो स्पष्टरूपसे यही कहते हैं कि वस्तु सत् है ऐसा मेरा निर्णय है; वह असत् है ऐसा मी मेरा निर्णय है । वस्तुको हम उसके द्रव्य क्षेत्रादिकी दृष्टिसे सत् समझते हैं । और परद्रव्यादिकी अपेक्षासे उसे हम असत् समझते हैं । इसमें न तो संशयको स्थान है और न अज्ञानको । नयमेदसे जब दोनों विरोधी धर्मोका स्वीकार है तत्र विरोध भी नहीं ।
अत एव शंकराचार्य प्रभृति वेदान्तके आचार्य और धर्मकीर्ति आदि बौद्ध आचार्य और उनके प्राचीन और आधुनिक व्याख्याकार स्याद्वादमें विरोध; संशय और अज्ञान आदि जिन दोषोंका उद्भावन करते हैं वे स्याद्वादको लागू नहीं हो सकते किन्तु संजयंके संशयवाद या अज्ञानवादको
लागू होते हैं । अन्य दार्शनिक स्याद्वादके बारेमें सहानुभूतिपूर्वक सोचते तो स्याद्वाद और संशयवादको ने एक नहीं समझते और संशयवादके दोषोंको स्याद्वादके मत्थे मढ़ते नहीं ।
जैनाचायने तो बार बार इस बातकी घोषणा की है कि स्माद्वाद संशयवाद नहीं और ऐसा कोई दर्शन ही नहीं, जो किसी न किसी रूपमें स्याद्वादका श्रीकार न करता हो । सभी दर्शनोंने स्याद्वादको अपने अपने ढंगसे स्वीकार तो किया है किन्तु उसका नाम लेने पर दोष बताने लग जाते हैं ।
१ अनेकान्त व्यवस्था की अंतिम प्रशस्ति पृ० ८७ ।
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स्याद्वादके भंगोंका प्राचीन रूप । (४) स्थाबादके भंगोंका प्राचीन रूप ।
अब हम स्याद्वादका खरूप जैसा आगममें है उसकी विवेचना करते हैं । भगवान्के स्यावादको ठीक समझनेके लिये भगवती सूत्रका एक सूत्र अच्छी तरहसे मार्गदर्शक हो सकता है। अत एव उसीका सार नीचे दिया जाता है। क्योंकि स्याद्वादके भंगोंकी संख्याके विषयमें भगवान्का अभिप्राय क्या था, भगवान् के अभिप्रेत भंगोंके साथ प्रचलित सप्तभंगीके भंगोंका क्या संबंध है तथा आगमोत्तरकालीन जैन दार्शनिकोंने भंगों की सात ही संख्याका जो वाग्रह रखा है उसका क्या मूल है - यह सब उस सूत्रसे मालूम हो जाता है । गौतमका प्रश्न है कि रनप्रभा पृथ्वी आत्मा है या अन्य है ! उसके उत्तरमें भगवान्ने कहा
१ रत्नप्रभापृथ्वी स्यादात्मा है। २ रत्नप्रभापृथ्वी स्यादात्मा नहीं है। ३ रत्नप्रभापृथ्वी स्यादवक्तव्य है । अर्थात् आत्मा है और आत्मा नहीं है,
इस प्रकारसे वह वक्तव्य नहीं है। इन तीन भंगोंको सुन कर गौतमने भगवान् से फिर पूछा कि-आप एक ही पृथ्वीको इतने प्रकारसे किस अपेक्षासे कहते हैं ! भगवान्ने उत्तर दिया
१ आत्मा-खके आदेशसे आस्मा है । २ परके आदेशसे आत्मा नहीं है ।
३ तदुभयके आदेशसे अवक्तव्य है। रत्नप्रभाकी तरह गौतमने समी पृथ्वी, सभी देवलोक और सिद्धशिलाके विषयमें पूछा है भौर उत्तर मी वैसा ही मिला है । उसके बाद उन्होंने परमाणु पुद्गलके विषयमें भी पूछा । और वैसा ही उत्तर मिला । किन्तु जब उन्होंने द्विप्रदेशिक स्कन्धके विषयमें पूछा तब उसके उत्तरमें भंगोंका भाधिक्य है सो इस प्रकार१ द्विप्रदेशी स्कन्ध स्यादात्मा है ।
, नहीं है।
स्यादवक्तव्य है। ४ , , स्यादात्मा है और आत्मा नहीं है। ५ , " स्यादात्मा है और अवक्तव्य है।
६ , , स्यादात्मा नहीं है और अवक्तव्य है। इन भंगोंकी योजना के अपेक्षा कारणके विषयमें अपने प्रश्नका गौतमको जो उत्तर मिला है वह इस प्रकार -
१ विप्रदेशिक स्कन्ध आत्माके आदेशसे आत्मा है । २ परके आदेशसे आत्मा नहीं है । ३ तदुभयके आदेशसे अवक्तव्य है। ४ 'देश आदिष्ट है सद्भावपर्यायोंसे और देश आदिष्ट है असद्भावपर्यायोंसे अत
एव द्विप्रदेशिक स्कन्ध आत्मा है और आत्मा नहीं है । एकही स्कन्धके जुदे जुदे अंशों में विवक्षाभेदका भाश्रय लेनेसे चौथेसे भागेके सभी भंग निष्पक्ष होते है। इन्ही विकलादेशी भंगोंको दिखाने की प्रक्रिया इस वाक्यसे प्रारंभ होती है।
س سم
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प्रस्तावना ।
५ देश आदिष्ट है सद्भावपर्यायोंसे और देश आदिष्ट है तदुभयपर्यायोंसे खेत एव
द्विप्रदेशिक स्कन्ध आत्मा है और अवक्तव्य है। ६ देश आदिष्ट है असद्भावपर्यायोंसे और देश आदिष्ट है तदुभयपर्यायोंसे अतएव
द्विप्रदेशिक स्कन्ध आत्मा नहीं है और अवक्तव्य है । इसके बाद गौतमने त्रिप्रदेशिक स्कन्धके विषयमें वैसा ही प्रश्न पूछा तब उत्तर निम्नलिखित भंगोंमें मिला
(१) १ त्रिप्रदेशिक स्कन्ध स्यादात्मा है। (२) २ त्रिप्रदेशिक स्कन्ध स्यादात्मा नहीं है। (३) ३ विप्रदेशिक स्कन्ध स्यादवक्तव्य है। (४) ४ त्रिप्रदेशिक स्कन्ध स्यादात्मा है और आत्मा नहीं है।
५त्रिप्रदेशिक स्कन्ध स्यादात्मा है. (२) आत्माएँ नहीं हैं।
६ त्रिप्रदेशिक स्कन्ध स्यादात्माएँ (२) हैं. आत्मा नहीं है। (५) ७ त्रिप्रदेशिक स्कन्ध स्यादात्मा है और अवक्तव्य है।
८ त्रिप्रदेशिक स्कन्ध स्यादात्मा है और (२) अवक्तव्य हैं।
९ त्रिप्रदेशिक स्कन्ध स्याद् (२) आत्माएँ हैं, और अवक्तव्य है। (६) १० त्रिप्रदेशिक स्कन्ध स्याद् आत्मा नहीं है और अवक्तव्य है।
११ त्रिप्रदेशिक स्कंध स्यादात्मा नहीं है और (२) अवक्तव्य हैं।
१२ त्रिप्रदेशिक स्कन्ध स्याद् (२) आत्माएँ नहीं हैं और अवक्तव्य है । (७) १३ त्रिप्रदेशिक स्कंध स्यादात्मा है, आत्मा नहीं है और अवक्तव्य है। गौतमने जब इन भंगोंकी योजनाका अपेक्षाकारण पूछा तब भगवान्ने उत्तर दिया कि
(१) १ त्रिप्रदेशिक स्कन्ध आत्माके आदेशसे आत्मा है । (२) २ त्रिप्रदेशिक स्कन्ध परके आदेशसे आत्मा नहीं है । (३) ३ त्रिप्रदेशिक स्कन्ध तदुभयके आदेशसे अवक्तव्य है । (१) ४ देश आदिष्ट है सद्भावपर्यायोंसे और देश आदिष्ट है असद्भावपर्यायोंसे अत
एव त्रिप्रदेशिक स्कन्ध आत्मा है और आत्मा नहीं है। ५ देश आदिष्ट है सद्भावपर्यायोंसे और (२) देश आदिष्ट हैं असद्भावपर्यायोंसे __ अत एव त्रिप्रदेशिक स्कन्ध आत्मा है और (२) आत्माएँ नहीं हैं। ६ (दो) देश आदिष्ट हैं सद्भावपर्यायोंसे और देश आदिष्ट है असद्भावपर्यायोंसे
अत एव त्रिप्रदेशिक स्कन्ध (दो) आत्माएँ हैं और आत्मा नहीं है । (५) ७ देश आदिष्ट है सद्भावपर्यायोंसे और देश आदिष्ट है तदुभयपर्यायोंसे अत एवं
त्रिप्रदेशिक स्कन्ध आत्मा है और अवक्तव्य है। ८ देश आदिष्ट है सद्भावपर्यायोंसे और (दो) देश आदिष्ट हैं तदुभयपर्यायोंसे
अत एव त्रिप्रदेशिक स्कन्ध आत्मा है और (दो) अवक्तव्य हैं । ९ (दो) देश आदिष्ट हैं सद्भावपर्यायोंसे और देश आदिष्ट है तदुभयपर्यायोंमे
अत एव त्रिप्रदेशिक स्कन्ध (२) आत्माएँ हैं और अबक्तव्य है ।
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स्याद्वादके भंगोंका प्राचीन रूप । (६) १० देश आदिष्ट है असद्भावपर्यायोंसे और देश आदिष्ट है तदुभयपर्यायोंसे अत
एव त्रिप्रदेशिक स्कन्ध आत्मा नहीं है और अवक्तव्य है। २१ देश आदिष्ट है असद्भावपर्यायोंसे और (दो) देश आविष्ट है तदुभयपर्यायोंसे
अत एव त्रिप्रदेशिक स्कन्ध आत्मा नहीं है और (दो) अवक्तव्य है। १२ (दो) देश आदिष्ट हैं असावपर्यायोंसे और देश भादिष्ट है तदुभयपर्यायोंसे
अत एष त्रिप्रदेशिक स्कन्ध (दो) आत्माएँ नहीं हैं और अवक्तव्य है। (७) १३ देश आदिष्ट है सद्भावपर्यायोंसे, देश आदिष्ट है असावपर्यायोंसे और
देश आदिष्ट है तदुभयपर्यायोंसे अत एव त्रिप्रदेशिक स्कन्ध बास्मा है,
आत्मा नहीं है और अवक्तव्य है। इसके बाद गौतमने चतुष्प्रदेशिक स्कंधके विषयमें वही प्रश्न किया है। उत्तरमें भगवान्ने १९ भंग किये। तब फिर गौतमने अपेक्षा कारणके विषयमें पूछा तब उत्तर निम लिखित दिया गया
(१) १ चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध आत्माके आदेशसे भारमा है। (२) २ चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध परके भादेशसे आत्मा नहीं है। (३) ३ चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध तदुभयके आदेशसे अवक्तव्य है। (१) ४ देश आदिष्ट है सद्भावपर्यायोंसे और देश आदिष्ट है असद्भावपर्यावोंसे मत एवं
चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध आत्मा है और आत्मा नहीं है। ५ देश आदिष्ट है सद्भावपर्यायोंसे और (अनेक) देश आविष्ट हैं असाय
पर्यायोंसे अत एव
चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध आत्मा है और (अनेक ) भारमाएँ नहीं है। ६ (अनेक ) देश आदिष्ट हैं सद्भावपर्यायोंसे और देश भादिष्ट सहायपर्यायोंसे अत एव चतुष्पदेशिक स्कन्ध (अमेक ) आत्माएँ हैं और मामा नहीं है। (अनेक-२) देश भादिष्ट है समावपर्यायोंसे और (भनेक-२) देश भादिष्ट हैं असावपर्यायोंसे मत एव चतुष्प्रदेशिक स्कन्द (अनेक-२) मास्माएँ हैं और (अनेक-२) आत्माएँ
(५) ८ देश भादिष्ट है समाषपयोंसे और देश भादिष्ट है तदुभवपर्यायोंसे मत एवं
'चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध आत्मा है और अवक्तव्य है। ९ देश आदिष्ट है सद्भावपर्यायोंसे और (अनेक) देश आदिष्ट हैं तदुभयपर्यायोंसे अत एव
चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध आत्मा है और ( अनेक) अवक्तव्य है । १० (अनेक) देश आदिष्ट हैं सद्भावपर्यायोंसे और देश आदिष्ट है तदुभय.
पर्यायोंसे अत एव चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध (अनेक) आत्माएँ हैं और अवक्तव्य है ।
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प्रस्तावना ।
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११ ( अनेक - २) देश आदिष्ट हैं सद्भावपर्यायोंसे और ( अनेक - २) देश आदिष्ट हैं तदुभयपर्यायोंसे अत एव चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध ( अनेक - २ ) आत्माएँ हैं और ( अनेक - २ ) अवक्तव्य हैं ।
(६) १२ देश आदिष्ट है असद्भावपर्यायोंसे और देश आदिष्ट है तदुभयपर्यायोंसे अतएव चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध आत्मा नहीं है और अवक्तव्य है ।
१३ देश आदिष्ट है असद्भावपर्यायोंसे और ( अनेक ) देश आदिष्ट हैं तदुभयपर्यायोंसे अत एव
चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध आत्मा नहीं है और ( अनेक ) अवतव्य हैं । १४ ( अनेक ) देश आदिष्ट हैं असद्भावपर्यायोंसे और देश आविष्ट
पर्यायोंसे अत एव
प्रदेशिक स्कन्ध ( अनेक ) आत्माएँ नहीं हैं और अन्य है ।
१५ ( अनेक - २) देश आदिष्ट हैं असद्भावपर्यायोंसे और ( अनेक-२) देश आदिष्ट है तदुभयपर्यायोंसे अत एव
चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध ( अनेक - २ ) आत्माएँ नहीं है और (अनेक -२) अवक्तव्य हैं ।
(७) १६ देश आदिष्ट है सद्भावपर्यायोंसे देश आदिष्ट है असद्भावपर्यायोंसे और देश आदिष्ट है तदुभयपर्यायोंसे अत एव
चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध आत्मा है, आत्मा नहीं है और अवक्तव्य है ।
१७ देश आदिष्ट है सद्भावपर्यायोंसे देश आदिष्ट है असद्भावपर्याय से और (दो) देश आदिष्ट हैं तदुभयपर्यायोंसे अतः एव
चतुष्प्रदेशिक स्कंध आत्मा है, आत्मा नहीं हैं, और (दो) अवकम्य हैं । १८ देश आदिष्ट हैं सद्भात्रपर्यायोंसे, ( दो ) देश आदिष्ट हैं असद्भावपर्यायांस और देश आदिष्ट है तदुभयपर्यायोंसे अत एव
चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध आत्मा है (दो) आत्माएँ नहीं हैं और अवतव्य है । १९ (दो) देश आदिष्ट हैं सद्भावपर्यायोंसे, देश आदिष्ट है असद्भावपर्याप और देश आदिष्ट है तदुभय पर्यायोंसे अत एव
चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध (दो) आत्माएँ हैं, आत्मा नहीं है, और अगसम्म है । इसके बाद पंचप्रदेशिक स्कन्धके विषयमें वेही प्रश्न हैं और भगवान् का अपेक्षाओं के साथ २२ भंगोंमें उत्तर निम्नलिखित है
-
(१) १ पश्चप्रदेशिक स्कन्ध आत्माके आदेशसे आत्मा है। (२) २ पश्चप्रदेशिक स्कन्ध परके आदेशसे आत्मा नहीं है । (३) ३ पश्चप्रदेशिक स्कन्ध तदुभयके आदेशसे अवक्तव्य है । ( ४ ) ४ - ६ चतुष्प्रदेशिक स्कंधके समान ।
तदुमय
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स्याद्वाद भंगका प्राचीन रूप ।
देश ( अनेक - २ या ३ ) आदिष्ट हैं सद्भावपर्यायोंसे और देश ( अनेक ३ या २) आदिष्ट हैं . असद्भावपर्यायोंसे अत एव
पंचप्रदेशिक स्कन्ध आत्माएँ ( २ या ३ ) हैं और आत्माएँ (३ या २ ) नहीं हैं।
( ५ ) ८-१० चतुष्प्रदेशिक स्कन्धके समान
११
चतुष्प्रदेशिक स्कन्धके समान ( अनेकका अर्थ प्रस्तुत ७ वें भंगके
समान
(६) १२-१४ चतुष्प्रदेशिकके समान
१५ चतुष्प्रदेशिक स्कंधके समान ( अनेकका अर्थ प्रस्तुत सातवें भंगके समान )
(७) १६ देश आदिष्ट है सद्भावपर्यायोंसे, देश आदिष्ट है असद्भावपर्यायोंसे और देश आदिष्ट है तदुभयपर्यायोंसे अत एव
पंचप्रदेशिक स्कन्ध आत्मा है, आत्मा नहीं है और अवक्तव्य है ।
१७ देश आदिष्ट है सद्भावपर्यायोंसे, देश आदिष्ट है असद्भावपर्यायोंसे और (अनेक ) देश आदिष्ट हैं तदुभयपर्यायोंसे अत एव
पंचप्रदेशिक स्कन्ध आत्मा है, आत्मा नहीं है और ( अनेक ) अवक्तव्य हैं । १८ देश आदिष्ट है सद्भात्रपर्यायोंसे, ( अनेक ) देश आदिष्ट हैं असद्भावपर्यायोंसे और देश आदिष्ट है तदुभयपर्यायोंसे अत एव
पंचप्रदेशिक स्कन्ध आत्मा है, ( अनेक ) आत्माएँ नहीं हैं और अवक्तव्य है । १९ देश आदिष्ट है सद्भावपर्यायोंसे, ( अनेक - २) देश आदिष्ट हैं असद्भावपर्यायोंसे और ( अनेक - २) देश आदिष्ट हैं तदुभयपर्यायोंसे अत एव पंचप्रदेशिक स्कन्ध आत्मा है, ( अनेक - २ ) आत्माएँ नहीं हैं और ( अनेक - २ ) अवक्तव्य हैं ।
२० ( अनेक ) देश आदिष्ट हैं सद्भावपर्यायोंसे, देश आदिष्ट है असद्भावपर्यायोंसे, और देश आदिष्ट है तदुभयपर्यायोंसे अत एव
पंचप्रदेशिक स्कंध आत्माएँ ( अनेक ) हैं, आत्मा नहीं है और अवक्तव्य है । २१ (अनेक - २ ) देश आदिष्ट हैं सद्भावपर्यायोंसे, देश आदिष्ट है असद्भावपर्यायोंसे और देश ( अनेक - २ ) आदिष्ट हैं तदुभयपर्यायोंसे अत एव पंचप्रदेशिक स्कंध ( अनेक - २ ) आत्माएँ हैं, आत्मा नहीं है और अवकन्य ( अनेक - २ ) हैं ।
२२ (अनेक २ ) देश आदिष्ट हैं सद्भावपर्यायोंसे, ( अनेक २ ) देश आदिष्ट हैं असद्भाव पर्यायोंसे और देश आदिष्ट है तदुभयपर्यायोंसे अंत एव पंचप्रदेशिक स्कंध ( अनेक - २ ) आत्माएँ हैं, आत्माएँ ( अनेक - २ ) नहीं हैं और अवक्तव्य 1
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प्रस्तावना ।
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इसी प्रकार षट्प्रदेशिक स्कन्धके २३ भंग होते हैं । उनमें से २२ तो पूर्ववत् ही हैं किन्तु २३ वाँ यह है -
२३ (अनेक - २) देश आदिष्ट हैं सद्भावपर्यायोंसे, ( अनेक - २) देश आदिष्ट हैं असा पर्यायोंसे और ( अनेक - २) देश आदिष्ट हैं तदुभयपर्यायोंसे अत एव षट्प्रदेशिक स्कन्ध ( अनेक ) आत्माएँ हैं, आत्माएँ नहीं हैं और अवक्तव्य हैं। भगवती - १२.१०.४६९
इस सूत्र के अध्ययनसे हम नीचे लिखे परिणामोंपर पहुंचते हैं
(१) विधिरूप और निषेधरूप इन्ही दोनों विरोधी धर्मोका स्वीकार करनेमें ही स्याद्वादके मंगोंका उत्थान है ।
(२) दो विरोधी धर्मो के आधारपर विवक्षामेदसे शेष भंगोंकी रचना होती है ।
(३) मौलिक दो भंगोंके लिये और शेष सभी भंगोंके लिये अपेक्षाकारण अवश्य चाहिए । अर्थात् प्रत्येक भंगके लिये स्वतन्त्र दृष्टि या अपेक्षाका होना आवश्यक है । प्रत्येक भंगका स्वीकार क्यों किया जाता है इस प्रश्नका स्पष्टीकरण जिससे हो वह अपेक्षा है, आदेश है या दृष्टि है या नय है। ऐसे आदशोंके विषयमें भगवान्का मन्तव्य क्या था उसका विवेचन आगे किया जायगा ।
(४) इन्ही अपेक्षाओं की सूचनाके लिये प्रत्येक मंगवाक्यमें 'स्यात्' ऐसा पद रखा जाता है । इसीसे यह बाद स्याद्वाद कहलाता है। इस और अन्य सूत्रके आधारसे इतना निश्चित है। कि जिस वाक्य में साक्षात् अपेक्षाका उपादान हो वहाँ 'स्यात्' का प्रयोग नहीं किया गया है। और जहाँ अपेक्षाका साक्षात् उपादान नहीं है वहाँ स्यात् का प्रयोग किया गया है । अत एव अपेक्षाका द्योतन करनेके लिये 'स्वाद' पदका प्रयोग करना चाहिए यह मन्तव्य इस सूत्र से फलित होता है।
(५) जैसा पहले बताया है स्याद्वादके भंगोंमेंसे प्रथमके चार भंगकी सामग्री अर्थात् चार विरोधी पक्ष तो भ महावीरके सामने थे । उन्ही पक्षोंके आधार पर स्याद्वादके प्रथम चार मंगोंकी योजना भगवान्ने की है। किन्तु शेष भंगों की योजना भगवानूकी अपनी है ऐसा प्रतीत होता है। शेष मंग प्रथमके चारोंका विविधरीतिसे संमेलन ही है । भंगविद्या में कुशले भगवान्के लिये ऐसी योजना कर देना कोई कठिन बात नहीं कही जा सकती ।
(६) अवकव्य यह भंग तीसरा है। कुछ जैनदार्शनिकोंने इस भंगको चौथा स्थान दिया है । आगममें अवक्तव्यका चौथा स्थान है । अत एव यह विचारणीय है कि अवक्तव्यको चौथा स्थान कबसे किसने क्यों दिया ।
(७) स्याद्वादके भंगोंमें सभी विरोधी धर्मयुगलों को लेकर सात ही भंग होने चाहिए, न कम, न अधिक, ऐसी जो जैनदार्शनिकोंने व्यवस्था की है वह निर्मूल नहीं है। क्योंकि त्रिप्रदेशिक स्कंध और उससे अधिक प्रदेशिक स्कंधोंके अंगोंकी संख्या जो प्रस्तुत सूत्रमें दी गई है उससे यही मालूम होता है कि मूल भंग सात वे ही हैं जो जैनदार्शनिकोंने अपने सप्तभंगीके विवेचन में
१ प्रस्तुत अनेकका अर्थ पथायोग्य कर लेना चाहिए । २ भंगोकी योजनाका कौशल्य देखना हो तो भगवती सूत्र ० ९४० ५ इत्यादि देखना चाहिए ।
.म्या प्रस्तावना ७
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द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ।
स्वीकृत किये हैं । जो अधिक भंग संख्या सूत्रमें निर्दिष्ट है वह मौलिकभंगों के भेदके कारण नहीं है किन्तु एकवचन बहुवचनके मेदकी विवक्षाके कारण ही है । यदि वचनमेदकृत संख्यावृद्धिको निकाल दिया जाय तो मौलिक भंग सात ही रह जाते हैं । अत एव जो यह कहा जाता है कि आगममें सप्तभंगी नहीं है वह भ्रममूलक है ।
(८) सकला देश - विकलादेशकी कल्पना भी आगमिक सप्तभंगीमें मौजुद है । आगमके अनुसार प्रथमके तीन सकलादेशी भंग हैं जब शेष विकलादेशी । बाद के दार्शनिकोंमें इस विषयको लेकर भी मतभेद हो गया' है । ऐतिहासिक दृष्टिसे गवेषणीय तो यह है कि ऐसा मत मेद क्यों और कब हुआ ?
९६. नय, आदेश या दृष्टियाँ ।
सप्तभंगीके विषयमें इतना जान लेनेके बाद अब भगवान्ने किन किन दृष्टिओंके आधार पर विरोधपरिहार करनेका प्रयत्न किया या एक ही धर्मिमें विरोधी अनेक धर्मोका स्वीकार किया, यह जानना आवश्यक है । भगवान् महावीरने यह देखा कि जितने भी मत पक्ष या दर्शन हैं। वे अपना एक खास पक्ष स्थापित करते हैं और विपक्षका निरास करते हैं । भगवान् ने उन सभी तत्कालीन दार्शनिकोंकी दृष्टिओं को समझनेका प्रयत्न किया । और उनको प्रतीत हुआ कि माना मनुष्योंके वस्तुदर्शनमें जो भेद हो जाता है उसका कारण केवल वस्तुकी अनेकरूपता या अनेकान्तात्मकता ही नहीं बल्कि नाना मनुष्योंके देखनेके प्रकारकी अनेकता या नानारूपता मी कारण है । इसी लिये उन्होंने सभी मतोंको, दर्शनोंको वस्तुरूपके दर्शन में योग्य स्थान दिया है । किसी मतविशेषका सर्वथा निरास नहीं किया है। निरास यदि किया है तो इस अर्थ में कि
एकान्त आग्रहका विष था, अपने ही पक्षको, अपने ही मत या दर्शनको सत्य, और दूसरोंके मत, दर्शन या पक्षको मिथ्या माननेका जो कदाग्रह था, उसका निरास करके उन मतोंको एक मयारूप दिया है । प्रत्येक मतवादी कदाग्रही हो कर दूसरेके मतको मिथ्या बताते थे, वे समन्वय न कर सकनेके कारण एकान्तवादमें ही फंसते थे । भ. महावीरने उन्हीके मतोंको स्वीकार करके उनमें से कदाग्रहका • विष निकालकर समीका समन्वय करके अनेकान्तवादरूपी संजीवनी महौषधिका निर्माण किया है ।
कदाग्रह तब ही जा सकता है जब प्रत्येक मतकी सचाईकी कसौटी की जाय । मतोंमें सचाई जिस कारण से आती है उस कारणकी शोध करना और उस मतके समर्थनमें उस कारण को बता देना यही भ० महावीरके नयवाद, अपेक्षावाद या आदेशवादका रहस्य है ।
अत एव जैन आगमोंके आधारपर उन नयोंका, उन आदेशों और उन अपेक्षाओं का संकलन करना आवश्यक है जिनको लेकर भगवान् महावीर सभी तत्कालीन दर्शनों और पक्षोंकी सचाई तक पहुँच सके और जिनका आश्रय लेकर बादके जैनाचार्येने अनेकान्तवाद के महाप्रासादको नये नये दर्शन और पक्षोंकी भूमिकापर प्रतिष्ठित किया ।
( १ ) द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ।
एक ही वस्तुके विषय में जो नानामतोंकी सृष्टि होती है उसमें द्रष्टाकी रुचि और शक्ति, दर्शनका साधन, दृश्य की दैशिक और कालिकस्थिति, द्रष्टा की दैशिक और कालिकस्थिति, दृश्यका
१ अकलंकप्रन्थत्रय टिप्पणी पृ० १४९ ।
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स्थूल और सूक्ष्मरूप इत्यादि कई कारण हैं। ये ही कारण प्रत्येक द्रष्टा और दृश्यमें प्रत्येक क्षणमें विशेषाधायक होकर नानामतोंके सर्जनमें निमित्त बनते हैं । उन कारणोंकी व्यक्तिशः गणना करना कठिन है अत एव तत्कृत विशेषोंका परिगणन भी असंभव है । इसी कारण से वस्तुतः सूक्ष्मविशेषताओंके कारण होनेवाले नानामतोंकी परिगणना भी असंभव है । जब मतोंका ही परिगणन असंभव हो तो उन मतोंके उत्थानकी करणभूत दृष्टि या अपेक्षा या नयकी परिगणना तो सुतरां असंभव है । इस असंभवको ध्यान में रखकर ही भगवान् महावीरने सभी प्रकारकी अपेक्षाओंका साधारणीकरण करनेका प्रयत्न किया है । और मध्यममार्गसे सभी प्रकारकी अपेक्षाओंका वर्गीकरण चार प्रकारमें किया है। ये चार प्रकार ये हैं- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । इन्हींके आधार पर प्रत्येक वस्तुके भी चार प्रकार हो जाते हैं । अर्थात् द्रष्टा के पास चार दृष्टियाँ, अपेक्षाएँ, आदेश हैं और वह इन्हीं के आधार पर वस्तुदर्शन करता है । अभिप्राय यह है कि वस्तुका जो कुछ रूप हो वह उन चारमेंसे किसी एकमें अवश्य समाविष्ट हो जाता है और द्रष्टा जिस किसी दृष्टिसे वस्तु दर्शन करता है उसकी वह दृष्टि भी इन्ही चारमेंसे किसी एकमें अन्तर्गत हो जाती है।
भगवान् महावीरने कई प्रकारके विरोधोंका, इन्ही चार दृष्टिओं और वस्तुके चार रूपोंके आधार पर, परिहार किया है । जीवकी और लोककी सांतता और अनन्तता के विरोधका परिहार इन्ही चार दृष्टिओंसे जैसे किया गया है उसका वर्णन पूर्वमें हो चुका है। इसी प्रकार नित्यानित्यता के विरोधका परिहार भी उन्हीसे हो जाता है वह भी उसी प्रसंगमें स्पष्ट करदिया गया है । लोकके, परमाणुके और पुद्गलके चार मेद इन्ही दृष्टिओंको लेकर भगवती में किये गये
। परमाणुकी चरमता और अचरमताके विरोधका परिहार भी इन्ही दृष्टिओंके आधारपर किया गया है ।
कमी कभी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार दृष्टिओंके स्थान में अधिक दृष्टियाँ भी बताई गई हैं । किन्तु विशेषतः इन चारसे ही काम लिया गया है । वस्तुतः चारसे अधिक दृष्टियोंको बताते समय भावके अवान्तर भेदोंको ही भावसे पृथक् करके खत स्थान दिया है। ऐसा अधिक अपेक्षा मेदों को देखनेसे स्पष्ट होता है अत एव मध्यममार्गसे उक्त चार ही दृष्टियाँ मानना न्यायोचित है।
म. महावीरने धर्मास्तिकायादि द्रव्योंको जब - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण दृष्टिसे पांच प्रकारका बताया ' तब भावविशेष गुणदृष्टिको पृथक् स्थान दिया है यह स्पष्ट है क्योंकि गुण वस्तुतः भाव अर्थात् पर्याय ही है। इसी प्रकार भगवान् ने जब करणके पांच प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावके मेदसे' बताये तब वहाँ भी प्रयोजनवशात् भावविशेष भवको पृथक् स्थान दिया है यह स्पष्ट है। इसी प्रकार जब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव और संस्थान इन छः दृष्टिओसे' तुल्यताका विचार किया तब वहाँ भी भावविशेष भव और संस्थानको स्वातत्रय दिया गया है । अत एव वस्तुतः मध्यममार्ग से चार दृष्टियाँ ही प्रधानरूपसे भगवान्को अभिमत हैं ऐसा मानना उपयुक्त है ।
१ पृ० १६-२४ । २ भगवती २.१.९० । ५.८.२२० । ११.१०.४२० । १४.४.५१३ । २०.४ । ४ भगवतीसूत्र १९.९ । ५ भगवतीसूत्र १४.७. ।
३ भगवतीसूत्र १,१० ।
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द्रव्यार्थिक-पर्यायाथिक। (२) द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक ।
उक्त चार दृष्टिओंका भी संक्षेप दो नयोंमें, आदेशोंमें या दृष्टिोंमें किया गया है। ये हैं व्यार्थिक और पर्यायार्थिक अर्थात् भावार्थिक । वस्तुतः देखा जाय तो काल और देशके मेदसे द्रव्योंमें विशेषताएँ अवश्य होती हैं । किसी भी विशेषता को काल या देश-क्षेत्रसे मुक्त नहीं किया जा सकता । अन्य कारणोंके साथ काल और देश भी अवश्य साधारण कारण होते हैं। अत एव काल और क्षेत्र, पर्यायोंके कारण होनेसे, यदि पर्यायोंमें समाविष्ट कर लिये जायें तब मूलतः दो ही दृष्टियाँ रह जाती हैं - द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । अतएव आचार्य सिद्धसेनने यह स्पष्ट बताया है कि भगवान महावीरके प्रवचनमें वस्तुतः येही मूल दो दृष्टियाँ हैं और शेष समी दृष्टियाँ इन्ही दों की शाखा-प्रशाखाएँ हैं।
जैन आगमोंमें सात मूल नयोंकी गणना की गई है। उन सातोंके मूलमें तो ये दो नय हैं ही किन्तु 'जितने भी वचनमार्ग हो सकते हैं उतने ही नय हैं। इस सिद्धसेनके कथनको . सच मानकर यदि असंख्य नयोंकी कल्पना की जाय तब भी उन सभी नयोंका समावेश इन्ही दो नयोंमें हो जाता है ऐसी इन दो दृष्टिओंकी व्यापकता है।
इन्हीं दो दृष्टिओंके प्राधान्यसे भ० महावीरने जो उपदेश दिया था उसका संकलन जैनागोमें मिलता है । द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दो दृष्टिओंसे भगवान् महावीरका क्या अभिप्राय था यह भी भगवतीके वर्णनसे स्पष्ट हो जाता है । नारक जीवोंकी शाश्वतता और अशाश्वतता का प्रतिपादन करते हुए भगवान्ने कहा है कि अव्युच्छित्तिनयार्थताकी अपेक्षा वह शाश्वत है
और व्युच्छित्तिनयार्थताकी अपेक्षासे वह अशाश्वत है । इससे स्पष्ट है कि वस्तुकी नित्यताका प्रतिपादन द्रव्यदृष्टि करती है और अनित्यताका प्रतिपादन पर्याय दृष्टि । अर्थात् द्रव्य नित्य है
और पर्याय अनित्य । इसीसे यह भी फलित हो जाता है कि द्रव्यार्थिक दृष्टि अमेदगामी है और पर्यायार्थिक दृष्टि भेदगामी । क्योंकि नित्यमें अभेद होता है और अनित्यमें भेद । यह भी स्पष्ट हो जाता है कि द्रव्यदृष्टि एकत्वगामी है और पर्यायदृष्टि अनेकत्वगामी क्योंकि निस्य एकरूप होता है और अनित्य वैसा नहीं । विच्छेद कालकृत, देशकृत और वस्तुकृत होता है और अविच्छेद भी । कालकृत विच्छिन्नको अनित्य, देशकृत विच्छिन्नको भिन्न और वस्तुकृत विच्छिन्नंको अनेक कहा जाता है । कालसे अविच्छिन्नको नित्य, देशसे अविच्छिन्नको अभिन्न
और वस्तुकृत अविच्छिन्नको एक कहा जाता है । इस प्रकार द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकका क्षेत्र इतना व्यापक है कि उसमें सभी दृष्टिओंका समावेश सहज रीतिसे हो जाता है।
भगवतीसूत्रमें पर्यायार्थिकके स्थानमें भावार्थिक शब्द भी आता है। जो सूचित करता है कि पर्याय और भाव एकार्थक हैं । (३) द्रव्यार्थिक प्रदेशार्थिक ।
जैसे वस्तुको द्रव्य और पर्याय दृष्टिसे देखा जाता है उसी प्रकार द्रव्य और प्रदेशकी दृष्टिसे भी देखा जा सकता है-ऐसा भगवान् महावीरका मन्तव्य है । पर्याय और प्रदेशमें क्या
१ भगवती ७.२.२७३ । ११.४.५१२ । १८.१०। २ सम्मति १.३।। भनुयोगद्वार सू० १५५ । स्थानांग सू० ५५२। ४ सम्मति ३.४७ । ५ भगवती ७.२.२७९.। ६ भगवती ८.१० में भास्माकी एकानेकता की घटना बताई है। वहाँ द्रव्य और पर्यायनयका भाश्रयण स्पष्ट है। . भगवती ७.२.२०३। भगवती 16...। २५.१ । २५, इखादि।
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प्रस्तावना ।
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अन्तर है यह विचारणीय है । एक ही द्रव्यकी नाना अवस्थाओंको या एक ही द्रव्यके देशकाल - कृत नानारूपोंको पर्याय कहा जाता है। जब कि द्रव्यके घटक अर्थात् अवयव ही प्रदेश कहे जाते हैं । भगवान् महावीरके मतानुसार कुछ द्रव्योंके प्रदेश नियत हैं और कुछके अनियत । सभी देश और सभी कालमें जीवके प्रदेश नियत हैं, कभी घटते मी नहीं और बढते भी नहीं, उतने ही रहते हैं । यही बात धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकायको भी लागू होती है । किन्तु पुद्गलस्कंध ( अवयवी ) के प्रदेशोंका नियम नहीं । उनमें न्यूनाधिकता होती रहती है। प्रदेश - अंश और द्रव्य - अंशीका परस्पर तादात्म्य होनेसे एक ही वस्तु द्रव्य और प्रदेशविषयक भिन्न भिन्न दृष्टिसे देखी जा सकती है। इस प्रकार देखनेपर विरोधी धर्मोका समन्वय एक ही वस्तुमें घट जाता है।
भगवान् महावीर ने अपने आपमें द्रव्यदृष्टि, पर्यायदृष्टि, प्रदेशदृष्टि और गुणदृष्टिसे नाना विरोधी धर्मोका समन्वय दरसाया है । और कहा है कि मैं एक हूँ द्रव्य दृष्टिसे; दो हूँ ज्ञान और दर्शन रूप दो पर्यायोंकी अपेक्षासे; प्रदेश दृष्टिसे तो मैं अक्षय हूँ, अव्यय हूँ, अवस्थित हूँ, जब कि उपयोगकी दृष्टिसे मैं अस्थिर हूँ क्योंकि अनेक भूत, वर्तमान और भावी परिणामों की योग्यता रखता हूँ । इससे स्पष्ट है कि प्रस्तुतमें उन्होंने पर्यायदृष्टिसे भिन्न ऐसी प्रदेश दृष्टिको भी माना है। परन्तु प्रस्तुत स्थलमें उन्होंने प्रदेश दृष्टिका उपयोग आत्माके अक्षय, अव्यय और अवस्थित धर्मोप्रकाशनमें किया है। क्योंकि पुद्गलप्रदेशकी तरह आत्मप्रदेश व्ययशील, अनवस्थित और क्षयी नहीं । आत्मप्रदेशोंमें कमी न्यूनाधिकता नहीं होती । इसी दृष्टिबिन्दुको सामने रखकर प्रदेश दृष्टिसे आत्माका अव्यय इत्यादि रूपसे उन्होंने वर्णन किया है।
प्रदेशार्थिक दृष्टिका एक दूसरा भी उपयोग है । द्रव्यदृष्टिसे एक वस्तुमें एकता ही होती है। किन्तु उसी वस्तुकी अनेकता प्रदेशार्थिक दृष्टिसे बताई जा सकती है क्योंकि प्रदेशोंकी संख्या अनेक होती है । प्रज्ञापनामें द्रव्य दृष्टिसे धर्मास्तिकायको एक बताया है और उसीको प्रदेशार्षिक दृष्टिसे असंख्यातगुण भी बताया गया है । तुल्यता- अतुल्यताका विचार मी प्रदेशार्थिक और द्रव्यार्थिक की सहायता से किया गया है। जो द्रव्य द्रव्यदृष्टिसे तुल्य होते हैं वही प्रदेशार्थिक दृष्टिसे अतुल्य हो जाते हैं। जैसे धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य दृष्टिसे एक एक होने से तुल्य हैं किन्तु प्रदेशार्थिक दृष्टिसे धर्म और अधर्म ही असंख्यात प्रदेशी होनेसे तुल्य हैं जब कि आकाश अनन्तप्रदेशी होनेसे अतुल्य हो जाता है। इसी प्रकार अन्य द्रव्योंमें भी इन द्रव्यप्रदेशदृष्टिओंके अवलम्बन से तुल्यता- अतुल्यतारूप विरोधी धर्मों और विरोधी संख्याओंका समन्वय भी हो जाता है।
(४) ओघादेश - विधानादेश ।
तिर्यग्सामान्य और उसके विशेषोंको व्यक्त करनेके लिये जैनशास्त्रमें क्रमशः ओघ और विधान शब्द प्रयुक्त हुए हैं। किसी वस्तुका विचार इन दो दृष्टिओंसे भी किया जा सकता है। कृतयुग्मादि संख्याका विचार ओघादेश और विधानादेश इन दो दृष्टिओंसे भ० महावीरने किया है'। उसीसे हमें यह सूचना मिल जाती है कि इन दो दृष्टिओं का प्रयोग कब करना चाहिए ।
१ भगवती १८.१० / २ प्रज्ञापना पद ६. सूत्र ५४-५६ । भगवती. २५.४ । ६ भगवती २५.४ ॥
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व्यावहारिक और नैश्चयिक नय ।
सामान्यतः यह प्रतीत होता है कि वस्तुकी संख्या तथा भेदाभेदके विचारमें इन दोनों दृष्टिओंका उपयोग किया जा सकता है। (५) व्यावहारिक और नैश्चयिक नय।
प्राचीन कालसे दार्शनिकोंमें यह संघर्ष चला आता है कि वस्तुका कौनसा रूप सत्य हैजो इन्द्रियगम्य है वह या इन्द्रियातीत अर्थात् प्रज्ञागन्य है वह ! उपनिषदों के कुछ ऋषि प्रज्ञावादका आश्रयण करके मानते रहे कि आत्माद्वैत ही परम तत्त्व है उसके अतिरिक्त दृश्यमान सब शब्दमात्र है, विकारमात्र है या नाममात्र है उसमें कोई तथ्य नहीं । किन्तु उस समय भी समी ऋषिओंका यह मत नहीं था। चार्वाक या भौतिकवादी तो इन्द्रियगम्य वस्तुको ही परमतत्त्वरूपसे स्थापित करते रहे । इस प्रकार प्रज्ञा या इन्द्रियके प्राधान्यको लेकर दार्शनिकोंमें विरोध चल रहा था। इसी विरोधका समन्वय भगवान् महावीरने व्यावहारिक और नैश्वयिक नयोंकी कल्पना करके किया है । अपने अपने क्षेत्रमें ये दोनों नय सत्य हैं । व्यावहारिक सभी मिथ्या ही है या नैश्चयिक ही सत्य है ऐसा भगवान् को मान्य नहीं है । भगवान्का अभिप्राय यह है कि व्यवहारमें लोक इन्द्रियोंके दर्शनकी प्रधानतासे वस्तुके स्थूल रूपका निर्णय करते हैं और अपना निर्बाध व्यवहार चलाते हैं अत एव वह लौकिक नय है । पर स्थूल रूपके अलावा वस्तुका सूक्ष्मरूप भी होता है जो इन्द्रियगम्य न होकर केवल प्रज्ञागम्य है । यही प्रज्ञामार्ग नैश्चयिक नय है । इन दोनों नयोंके द्वारा ही वस्तुका संपूर्ण दर्शन होता है।
गौतमने भ० महावीरसे पूछा कि भन्ते ! फाणित- प्रवाही गुड़में कितने वर्ण गन्ध रस और स्पर्श होते हैं ! इसके उत्तरमें उन्होंने कहा कि गौतम ! में इस प्रश्नका उत्तर दो नयोंसे देता हूँ-व्यावहारिकनय की अपेक्षासे तो वह मधुर कहा जाता है । पर नैश्वयिक नयसे वह पांच वर्ण, द्विगन्ध, पांच रस और आठ स्पोंसे युक्त है । भ्रमरके विषयमें भी उनका कथन है कि व्यावहारिक दृष्टिसे भ्रमर कृष्ण है पर नैश्चयिक दृष्टि से उसमें पांचों वर्ण, दोनों गन्ध, पांचों रस और आठों स्पर्श होते है । इसी प्रकार उन्होंने उक्त प्रसंगमें अनेक विषयों को लेकर व्यवहार और निश्चय नयसे उनका विश्लेषण किया है।
आगेके जैनाचार्योंने व्यवहार-निश्चयनयका तत्वज्ञानके अनेक विषयोंमें प्रयोग किया है इतना ही नही बल्कि तत्वज्ञानके अतिरिक्त आचारके अनेक विषयोंमें भी इन नयोंका उपयोग करके विरोधपरिहार किया है।
जब तक उक्त समी प्रकारके नयोंको न समझा जाय तब तक अनेकान्तवादका समर्थन होना कठिन है । अत एव भगवान्ने अपने मन्तव्योंके समर्थन में नाना नयोंका प्रयोग करके शिष्योंको अनेकान्तवाद हृदयंगम करा दिया है । ये ही नय अनेकान्तवादरूपी महाप्रासादकी भूमिकारूप हैं ऐसा कहा जाय तो अनुचित न होगा।
६७. नाम-स्थापना-द्रव्य-भाव । जैन सूत्रोंकी व्याख्याविधि अनुयोगद्वार सूत्रमें बताई गई है । यह विधि कितनी प्राचीन है, इसके विषयमें निश्चित कुछ कहा नहीं जा सकता । किन्तु अनुयोगद्वारके परिशीलनकर्ताको
, Constructive survey of Upanishadio Philosophy p. 227 । छान्दोग्योपनिषद्...। २ भगवती १८.६ ।
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प्रस्तावना।
इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि व्याख्याविधिका अनुयोगद्वारगतरूप स्थिर होनेमें पर्याप्त समत्र व्यतीत हुआ होगा । यह विधि स्वयं भ० महावीरकी देन है या पूर्ववर्ती ? इस विषयमें इ-नाही निश्चयरूपसे कहा जा सकता है कि पूर्ववर्ती न हो तब भी-उनके समयमें उस विधिका एक निश्चितरूप बनगया था। अनुयोग या व्याख्याके द्वारोंके वर्णनमें नाम, स्थापना द्रव्य और भात्र इन चार निक्षेपोंका वर्णन आता है । यद्यपि नयोंकी तरह निक्षेप भी अनेक हैं तथापि अधिकांशमें उक्त चार निक्षेपोंको ही प्राधान्य दिया गया है
"जत्थ य जाणेज्जा निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं।
जत्थ वि य न जाणिज्जा चउकं निक्खिवे तत्थ ॥" अनुयोगद्वार ८। ___ अत एव इन्हीं चार निक्षेपोंका उपदेश भगवान् महावीरने दिया होगा ऐसा प्रतीत होता है । अनुयोगद्वारसूत्रमें तो निक्षेपोंके विषयमें पर्याप्त विवेचन है किन्तु वह गणधरकृत नहीं समझा जाता । गणधरकृत अंगोंमेंसे स्थानांग सूत्रमें 'सर्व' के जो प्रकार गिनाये हैं वे सूचित करते हैं कि निक्षेपोंका उपदेश खयं भ० महावीरने दिया होगा- . "चचारि सव्वा पत्ता-नामसव्वप ठवणसम्वए आएससव्वए निरवसेससब्वए"
स्थानांग २९९। प्रस्तुत सूत्रमें सर्पके निक्षेप बताये गए हैं । उनमें नाम और स्थापना निक्षेपोंको तो शब्दतः तथा द्रव्य और भावको अर्थतः बताया है। द्रव्यका अर्थ उपचार या अप्रधान होता है और आदेशका अर्थ मी वही है । अत एव 'द्रव्यसर्व' न कह करके 'आदेश सर्व" कहां । सर्व शब्दका तात्पर्याय निरवशेष है । भावनिक्षेप तात्पर्यवाही है । अत एव 'भाव सर्व' कहनेके बजाय 'निरवशेष सर्व' कहा गया है।
अत एव निक्षेपोंने भगवान्के मौलिक उपदेशोंमें स्थान पाया है ऐसा कहा जा सकता है।
शब्द व्यवहार तो हम करते हैं क्योंकि इसके बिना हमारा काम चलता नहीं । किन्तु कमी ऐसा हो जाता है कि इन्ही शब्दोंके ठीक अर्थको-वक्ताके विवक्षित अर्थको न समझनेसे बडा अनर्थ हो जाता है । इसी अनर्थका निवारण निक्षेपविद्याके द्वारा भगवान् महावीरने किया है । निक्षेपका मतलब है अर्थनिरूपण पद्धति । भगवान् महावीरने शब्दोंके प्रयोगोंको चार प्रकारके अयोंमें विभक्त कर दिया है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । प्रत्येक शब्दका व्युत्पत्तिसिद्ध एक अर्थ होता है किन्तु वक्ता सदा उसी व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थकी विवक्षा करता ही है यह बात व्यवहारमें देखी नहीं जाती। इन्द्रशब्दका व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ कुछ भी हो किन्तु यदि उस अर्थकी उपेक्षा करके जिस किसी वस्तुमें संकेत किया जाय कि यह इन्द्र है तो वहाँ इन्द्र शब्दका प्रयोग किसी व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थके बोधके लिये नहीं किन्तु नाममात्रका निर्देश करनेके लिये हुआ है अत एव वहाँ इन्द्रशब्दका अर्थ नाम इन्द्र है । यह नाम निक्षेप है । इन्द्रकी मूर्तिको जो इन्द्र कहा जाता है वहाँ सिर्फ नाम नहीं किन्तु वह मूर्ति इन्द्रका प्रतिनिधित्व करती
१ भद्रबाहु जिनमन और यति अषमके उल्लेखोंसे यह भी प्रतीत होता है कि निक्षेपोंमें 'भादेश' यह एक व्यसे सवा निक्षेप भी था। यदि सूत्रकारको वही अभिप्रेत हो तो प्रस्तुत सूत्रमें द्रव्य निक्षेप उल्लिखित नहीं है ऐसा समझना चाहिए। जयपवळा पृ. २०१। २"पस्तुनोभिधानं स्थितमन्याय समनिरपेई पर्यावानमिषं नाम माइच्छितबा" मनु०टी०पू०११॥
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arrest जैनदृष्टि |
है ऐसा ही भाव वक्ताको विवक्षित है अत एव वह स्थापना इन्द्र है। यह दूसरा स्थापना निक्षेप है'। इन दोनों निक्षेपोंमें शब्द के व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थकी उपेक्षा की गई है यह स्पष्ट है । द्रव्य निक्षेपका विषय द्रव्य होता है अर्थात् भूत और भाविपर्यायोंमें जो अनुयायी द्रव्य है उसीकी विवक्षासे जो व्यवहार किया जाता है वह द्रव्य निक्षेप है। जैसे कोई जीव इन्द्र होकर मनुष्य हुआ या मरकर मनुष्यसे इन्द्र होगा तब वर्तमान मनुष्य अवस्थाको इन्द्र कहना यह द्रव्य इन्द्र है । इन्द्रभाषापन्न जो जीव द्रव्य था वही अमी मनुष्यरूप है अत एव उसे मनुष्य न कह करके इन्द्र कहा गया है । या भविष्य में इन्द्रभाषापत्तिके योग्य भी यही मनुष्य है ऐसा समजकर भी उसे इन्द्र कहना यह द्रव्य निक्षेप है । वचन व्यवहारमें जो हम कार्यमें कारणका या कारणमें कार्यका उपचार करके जो औपचारिक प्रयोग करते हैं वे सभी द्रव्यान्तर्गत हैं ।
व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ उस शब्दका भाव निक्षेप है । परमैश्वर्य संपन्न जीव भाव इन्द्र है यानि यथार्थ इन्द्र है' |
वस्तुतः जुदे जुदे शब्दव्यवहारोंके कारण जो विरोधी अर्थ उपस्थित होते हैं उन सभी अकी विवक्षाको समझना और अपने इष्ट अर्थका बोध करमा-कराना, इसीके लिये ही भगवान्ने निक्षेपोंकी योजना की है यह स्पष्ट है।
जैनदार्शनिकोंने इस निक्षेपतस्त्वको भी नयोंकी तरह विकसित किया है। और इन निक्षेपोंके सहारे शब्दाद्वैतवाद आदि विरोधी वादका समन्वय करनेका प्रथम मी किया है।
[२] प्रमाणतस्व ।
६१. शाम चर्चाकी जैनदृष्टि ।
जैन आगमोंमें अद्वैतवादिओं की तरह जगत्को वस्तु और अवस्तु - मायामें तो विभक्त नहीं किया है किन्तु संसारकी प्रत्येक वस्तुमें स्वभाव और विभाव सन्निहित है ऐसा प्रतिपादित किया है । वस्तुका परानपेक्ष जो रूप है वह स्वभाव हैं, जैसे, आत्माका चैतन्य, ज्ञान, सुख आदि, और पुद्गलकी जडता। किसी भी कालमें आत्मा ज्ञान या चेतना रहित नहीं और पुद्गलमें जडता मी कालाबाधित है । वस्तुका जो परसापेक्षरूप है वह विभाव है जैसे आत्माका मनुष्यत्व, देव आदि और पुलका शरीररूप परिणाम । मनुष्यको हम न तो कोरा आत्मा ही कह सकते हैं और न कोरा पुद्गल ही । इसी तरह शरीर भी सिर्फ पुद्गलरूप नहीं कहा जा सकता । आत्माका मनुष्यरूप होना परसापेक्ष है और पुगलका शरीररूप होना भी परसापेक्ष है । अतः आत्माका मनुष्यरूप और पुनलका शरीररूप ये दोनों क्रमशः आत्मा और पुलके विभाग हैं ।
१ "वत्तु तदर्थनियुकं तदभिप्रायेण यथा तस्करणि । लेप्यादिकर्म तद् स्थापनेति क्रियतेऽरूपकालं च ॥" अनु० टी० १२ । २ "भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु पहोके । तत् हव्यं वरवः सचेतनाचेतनं कथितम् ॥" अनु० टी० पृ० १४ । ३ "भावो विवक्षितक्रियाऽनुभूतियुको हि वै समायातः । सर्वत्रैरिन्द्रादिवदिन्यनादि क्रियानुभवात् ॥" अनु० टी० पृ० २८ ।
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प्रस्तावना।
खभाव ही सत्य है और विभाव मिथ्या है ऐसा जैनोंने कभी प्रतिपादित नहीं किया । क्योंकि उनके मतमें निकालाबाधित यस्तु ही सत्य है ऐसा एकान्त नहीं । प्रत्येक वस्तु, फिर वह अपने खभावमें ही स्थित हो वा विभावमें वर्तमान हो, सत्य है । हाँ, तद्विषयक हमारा ज्ञान मिथ्या हो सकता है, लेकिन वह भी तब, जब हम खभावको विभाव समझें या विभावको स्वभाव यानी तत् में अतत् का ज्ञान होने पर ज्ञान में मिथ्यात्वकी संभावना है।
विज्ञानवादि बौद्धोंने प्रत्यक्ष ज्ञानको वस्तुप्राहक और साक्षात्कारात्मक तथा इतर ज्ञानोंको अवस्तुपाहक, प्रामक, अस्पष्ट और असाक्षात्कारात्मक माना है । जैनारामोंमें इन्द्रियनिरपेक्ष ऐसे मात्र आत्मसापेक्ष ज्ञानको ही साक्षात्कारात्मक प्रत्यक्ष कहा गया है तथा इन्द्रियसापेक्ष ज्ञानोंको असाक्षात्कारात्मक और परोक्ष माना गया है । जैनदृष्टि से प्रत्यक्ष ही वस्तुके खभाव और विभावका साक्षात्कार कर सकता है और वस्तुका विभावसे पृथक ऐसा जो खभाव है उसका स्पष्ट पता लगा सकता है । इन्द्रियसापेक्ष ज्ञानमें यह कभी संभव नहीं कि वह किसी वस्तुका साक्षात्कार कर सके और किसी वस्तुके खभावको विभावसे पृथक् कर उसको स्पष्ट जान सके । लेकिन इसका मतलब जैन मतानुसार यह कभी नहीं कि इन्द्रियसापेक्ष ज्ञान भ्रम है । विज्ञानवादि बौद्धोंने तो परोक्ष ज्ञानोंको अवस्तुप्राहक होनेसे भ्रम ही कहा है किन्तु जैनाचार्योंने वैसा नहीं माना। क्योंकि उनके मतमें विभाव भी वस्तुका परिणाम है अत एव वह भी वस्तुका एक रूप है । अतः उसका ग्राहकज्ञान भ्रम नहीं कहा जा सकता । वह अस्पष्ट हो सकता है, साक्षात्काररूप न भी हो तब भी वस्तुस्पर्शी तो है ही।
भगवान् महावीरसे लेकर उ० यशोविजयजी तकके साहित्यको देखनेसे यही पता लगता है कि जैनोंकी ज्ञानचर्चामें उपर्युक्त मुख्य सिद्धान्तकी कभी उपेक्षा नहीं की गई बल्कि यों कहना चाहिए कि ज्ञानकी जो कुछ चर्चा हुई है वह उसी मध्यबिन्दुके आसपास ही हुई है । उपर्युक्त सिद्धान्तका प्रतिपादन प्राचीन कालके आगमोंसे लेकर अबतकके जैन साहित्यमें अविच्छिन्न रूपसे होता चला आया है।
६२. आगममें ज्ञानचर्चाके विकासकी भूमिकाएँपंचज्ञानची जैन परंपरामें भगवान् महावीरसे भी पहले होती थी इसका प्रमाण राजप्रश्नीय सूत्रमें है । भगवान् महावीरने अपने मुंहसे अतीतमें होनेवाले केशीकुमार श्रमणका वृत्तान्त राजप्रश्नीयमें कहा है । शास्त्रकारने केशी कुमारके मुखसे निम्न वाक्य कहलवाया है
"एवं खुपएसी अम्हं समणाणं निग्गंथाणं पंचविहे नाणे पण्णत्ते-तंजहा आभिणिबोहि यनाणे सुयनाणे ओहिणाणे मणपजवणाणे केवलणाणे" (सू० १६५) इत्यादि
इस वाक्यसे स्पष्ट फलित यह होता है कि कमसे कम उक्त आगमके संकलनकर्ताके मतसे भगवान् महावीरसे पहले भी श्रमणोंमें पांच ज्ञानों की मान्यता थी। उनकी यह मान्यता निर्मूल भी नहीं । उत्तराध्ययनके २३ वें अध्ययनसे स्पष्ट है कि भगवान् महावीरने आचारविषयक कुछ संशोधनोंके अतिरिक्त पार्श्वनाथके तत्त्वज्ञानमें विशेष संशोधन नहीं किया । यदि भगवान् महावीरने तत्त्वज्ञानमें भी कुछ नई कल्पनाएँ की होती तो उनका निरूपण भी उत्तराध्ययनमें होता।
न्या. प्रस्तावना
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मानचर्चाके विकासको भूमिकाएँ। भागोंमें पांचज्ञानोंके मेदोपमेदोंका जो वर्णन है, कर्मशाल ज्ञानावरणीयके जो मैदोपभेदोंका वर्णन है, जीवमार्गणाओंमें पांच ज्ञानोंकी जो घटना वर्णित है, तथा पूर्वगतमें ज्ञानोंका खता निरूपण करनेवाला जो मनप्रवाद पूर्व है इन सबसे यही फलित होता है कि पंचज्ञानकी चर्चा यह भगवान महावीरने नई नहीं शुरू की है किन्तु पूर्वपरंपरासे जो चली आती थी उसका ही स्वीकार कर उसे आगे बढ़ाया है।
इस शान चर्चाके विकासक्रमको आगमके ही आधार पर देखना हो तो उसकी तीन भूमिकाएँ हमें स्पष्ट दीखती हैं
(१) प्रथम भूमिका तो वह है जिसमें ज्ञानोंको पांच मैदोंमें ही विभक्त किया गया है।
(२) द्वितीय भूमिकामें ज्ञानोंको प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो मेदों में विभक्त करके पांच शानोंमेसे मति और भुतको परोक्षान्तर्गत और शेष अवधि, मनःपर्यय और केवलको प्रत्यक्षमें अन्तर्गत किया गया है । इस भूमिकामें लोकानुसरण करके इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षको अर्थात् इन्द्रियजमतिको प्रत्यक्षमें स्थान नहीं दिया है किन्तु जैन सिद्धान्तके अनुसार जो ज्ञान भात्ममात्रसापेक्ष है उन्हें ही प्रत्यक्षमें खान दिया गया है । और जो ज्ञान आत्माके अतिरिक्त अन्य साधनोंकी मी अपेक्षा रखते हैं उनका समावेश परोक्षमें किया गया है। यही कारण है कि इन्द्रियजन्य ज्ञान जिसे जैनेतर समी दार्शनिकोंने प्रत्यक्ष कहा है प्रत्यक्षान्तर्गत नहीं माना गया।
(३) तृतीयभूमिकामें इन्द्रियजन्य ज्ञानोंको प्रत्यक्ष और परोक्ष उभयमें स्थान दिया गया है। इस भूमिकामें लोकानुसरण स्पष्ट है।
(१) प्रथम भूमिकाके अनुसार ज्ञानका वर्णन हमें भगवती सूत्रमें (८८.२.३१७) मिलता है। उसके अनुसार ज्ञानोंको निम्न सूचित नकशेके अनुसार विभक्त किया गया है
१ आभिनिबोधिक
२ भुत
३ अवधि
१ मनःपर्यय
५ केवल
१ अवग्रह २ ईहा ३ अवाय
४ धारणा सूत्रकारने आगेका वर्णन राजप्रश्नीयसे पूर्ण कर लेनेकी सूचना दी है । और राजप्रश्नीयको (सू० १६५) देखनेपर मालूम होता है कि उसमें पूर्वोक्त नकशेमें सूचित कपनके अलावा अवग्रहके दो भेदोंका कथन करके शेषकी पूर्ति नन्दीसूत्रसे कर लेने की सूचना दी है।
सार यही है कि शेष वर्णन नन्दी के अनुसार होते हुए भी फर्क यह है कि इस भूमिकामें नन्दीसूत्रके प्रारंभ में कथित प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदोंका जिक्र नहीं है । और दूसरी बात यह भी है कि नन्दीकी तरह इसमें भाभिनिबोधके श्रुतनिःसृत और अश्रुतनिःसृत ऐसे दो मेदोंको भी स्थान नहीं है । इसीसे कहा जा सकता है कि यह वर्णन प्राचीन भूमिकाका है ।
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प्रस्तावना ।
५९
(२) स्थानांगगत शान चर्चा द्वितीयभूमिकाकी प्रतिनिधि है । उसमें ज्ञानको प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो मेदोंमें विभक्त करके उन्ही दोनें पंच ज्ञानोंकी योजना की गई है -
ज्ञान (सूत्र० ७१ )
१ प्रत्यक्ष
१ केवल
१ अवधि
१ जुमति
२ नोकेवल
१ भवप्रत्ययिक २ क्षायोपशमिक
२ मन:पर्यय
१ प्रमाणन० २.१० ।
१ आभिनिबोधिक
१ श्रुतनिःसृत २ अनुतनिःसृत
१ अर्थावग्रह २ व्यंजनावग्रह
२ विपुलमति
१ अर्थावग्रह
१ अंगप्रविष्ट १२
२ परोक्ष 1
१ आवश्यक
२ श्रुतज्ञान
२ व्यंजनावग्रह
१ कालिक
२ उत्कालिक
इस नकशेमें यह स्पष्ट है कि ज्ञानके मुख्य दो भेद किये गये हैं, पांच नहीं। पांच ज्ञानोंको तो उन दो भेद - प्रत्यक्ष और परोक्षके प्रमेदरूपसे गिना है । यह स्पष्ट ही प्राथमिक भूमिकाका विकास है । इसी भूमिकाके आधार पर उमाखातिने मी प्रमाणोंको प्रत्यक्ष और परोक्षमें विभक्त करके उन्ही दोमें पंचज्ञानोंका समावेश किया है।
बादमें होनेवाले जनतार्किकोंने प्रत्यक्ष के दो भेद बताये हैं- विकल और सकल' । केवलका
२ अंगबाह्य
२ आवश्यकव्यतिरिक्त
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ज्ञानचर्चाकै विकासको भूमिकाएँ। अर्थ होता है सर्व - सकल और नोकेवलका अर्थ होता है असर्व-विकल । अत एव तार्किकोंके उक्त वर्गीकरणका मूल स्थानांग जितना तो पुराना मानना ही चाहिए। ___ यहाँ पर एक बात और भी ध्यान देनेके योग्य है । स्थानांगमें श्रुतनिःसृतके मेदरूपसे व्यानावग्रह और अर्थावग्रह ये दो बताये हैं । वस्तुतः वहाँ इसप्रकार कहना प्राप्त था
श्रुतनिःसृत
१ अवग्रह
२ ईहा
३ अवाय
४ धारणा
१व्यंजनावग्रह
२ अर्थावग्रह किन्तु स्थानांगमें द्वितीय स्थानकका प्रकरण होनेसे दो दो बातें गिनाना चाहिए ऐसा समझकर अवग्रह, ईहा, आदि चार. मेदोंको छोडकर सीधे अवग्रहके दो भेद ही गिनाये गये हैं।
एक दूसरी बातकी ओर भी ध्यान देना जरूरी है । अश्रुतनिःसृतके मेरूपसे भी व्यबर नावग्रह और अर्थावग्रहको गिना है किन्तु वहाँ टीकाकारके मतसे ऐसा चाहिए
अश्रुतनिःसृत
इन्द्रियजन्य
अनिन्द्रियजन्य
१ अवग्रह
२ ईहा
अबाय ४ धारणा
१ औत्पत्तिकी २ वैनयिकी ३ कर्मजा ४ पारिणामिकी १ व्यंजनावग्रह २ अर्थावग्रह
औत्पत्तिकी आदि चार बुद्धियाँ मानस होने से उनमें व्यञ्जनावग्रहका संभव नहीं । अतएव मूलकास्का कथन इन्द्रियजन्य अश्रुतनिःसृतकी अपेक्षासे द्वितीयस्थानकके अनुकूल हुआ है ऐसा टीकाकारका स्पष्टीकरण है । किन्तु यहाँ प्रश्न है कि क्या अश्रुतनिःसृतमें औत्पत्तिकी आदिके अतिरिक्त इन्द्रियजझानोंका समावेश साधार है ! और यह भी प्रश्न है कि आमिनिबोधिकके श्रुतनिःसृत और अश्रुतनिःसृत ऐसे भेद क्या प्राचीन है ! यानी क्या ऐसा भेद प्रथमभूमिकाके समय होता था!
नन्दीसूत्र जो कि मात्र ज्ञानकी ही विस्तृत चर्चा करनेके लिये बना है, उसमें श्रुतनिःसृतमतिके ही अवग्रह आदि चार भेद हैं । और अश्रुतनिःसृतके भेदरूपसे चार बुद्धिओंको गिना दिया गया है। उसमें इन्द्रियज अश्रुतनिःसृतको कोई स्थान नहीं है। अत एव टीकाकारका
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प्रस्तावना
स्पष्टीकरण कि अश्रुतनिःसृतके वे दो भेद इन्द्रियज अश्रुतनिःसृतकी अपेक्षासे समझना चाहिए, नन्दीसूत्रानुकूल नहीं किन्तु कल्पित है । मतिज्ञानके श्रुतनिःसृत और अश्रुतनिःसृत ऐसे दो भेद भी प्राचीन नहीं । दिगम्बरीयवाङ्मयमें मतिके ऐसे दो भेद करनेकी प्रथा नहीं । आवश्यक नियुक्तिके ज्ञानवर्णनमें भी मतिके उन दोनों भेदोंने स्थान नहीं पाया है। __ आचार्य उमाखातिने तत्वार्थसूत्रमें भी उन दोनों भेदोंका उल्लेख नहीं किया है । यद्यपि खयं नन्दीकारने नन्दीमें मतिके श्रुतनिःसृत और अश्रुतनिःसृत ऐसे दो भेद तो किये हैं तथापि मतिज्ञानको पुरानी परंपराके अनुसार अठाईस भेदवाला ही कहा है उससे भी यही सूचित होता है कि औत्पत्तिकी आदि बुद्धिओंको मतिमें समाविष्ट करनेके लिये ही उन्होंने मतिके दो भैद तो किये पर प्राचीन परंपरामें मतिमें उनका स्थान न होनेमे नन्दी कारने उसे २८ भेदभिन्न ही कहा । अन्यथा उन चार बुद्धिओं को मिलाने से तो वह ३२ भेदभिन्न ही हो जाता है । (३) तृतीय भूमिका नन्दीसूत्रगत ज्ञानचर्चा में व्यक्त होती है - वह इस प्रकार
ज्ञान १ आभिनिबोधिक २ श्रुत ३ अवधि मनःपर्यय ५ केवल
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१ प्रत्यक्ष
२परोक्ष
२ नोइन्द्रियप्रत्यक्ष
१ अवधि
१ आभिनिबोधिक
२ श्रुत
१ इन्द्रियप्रत्यक्ष
१ श्रोत्रेन्द्रियप्र० २ चक्षुरिन्द्रियप्र० ३ घ्राणेन्द्रियप्र० ४ जिह्वेन्द्रियप्र० ५ स्पर्शेन्द्रियग्र०
२ मनःपर्यय ३ केवल
१ श्रुतनिःसृत
२ अश्रुतनिःसृत
१ अवग्रह
२ ईहा
३ अवाय
४ धारणा ।
२ वैनयिकी
४ पारिणामिकी
१ औत्पत्तिकी
३ कर्मजा
१ व्यंजनावग्रह
२ अर्थावग्रह
६
१ "एवं अट्ठावीसइविहस्स आभिणिबोहियनाणस्स" इत्यादि नन्दी०३५ । २ स्थानांगमें ये दो भेद मिलते हैं। किन्तु वह नन्दीप्रभाषित हो तो कोई आश्चर्य नहीं।
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शानचर्चाका प्रमाणचर्चासे स्वातथ्य । अंकित नकशेको देखनेसे स्पष्ट हो जाता है कि सर्वप्रथम इसमें ज्ञानोंको पांच भेदमें विभक्त करके संक्षेपसे उन्हींको प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो भेदोंमें विभक्त किया गया है। स्थानांगसे विशेषता यह है कि इसमें इन्द्रियजन्य पांच मतिज्ञानोंका स्थान प्रत्यक्ष और परोक्ष उभयमें है। क्योंकि जैनेतर सभी दर्शनोंने इन्द्रियजन्य ज्ञानोंको परोक्ष नहीं किन्तु प्रत्यक्ष माना है, उनको प्रत्यक्षमें स्थान देकर उस लौकिक मतका समन्वय करना भी नन्दीकारको अभिप्रेत था। आचार्य जिनभद्रने इस समन्वय को लक्ष्यमें रखकर ही स्पष्टीकरण किया है कि वस्तुतः इन्द्रियज प्रत्यक्षको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहना चाहिए । अर्थात् लोकव्यवहारके अनुरोधसे ही इन्द्रियज मतिको प्रत्यक्ष कहा गया है । वस्तुतः वह परोक्ष ही है । क्योंकि प्रत्यक्षकोटिमें परमार्थतः आत्ममात्र सापेक्ष ऐसे अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीन ही हैं। अतः इस भूमिकामें ज्ञानोंका प्रत्यक्ष-परोक्षत्व व्यवहार इस प्रकार स्थिर हुवा
१ अवधि, मनःपर्यय और केवल पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं। २ श्रुत परोक्ष ही है। ३ इन्द्रियजन्य मतिज्ञान पारमार्थिक दृष्टिसे परोक्ष है और व्यावहारिक दृष्टिंसे प्रत्यक्ष है ।
४ ममोजन्य मतिज्ञान परोक्ष ही है । आचार्य अकलंकने तथा तदनुसारी अन्य जैनाचार्योंने प्रत्यक्षके सांव्यवहारिक और पारमार्थिक ऐसे जो दो भेद किये हैं सो उनकी नई सूझ नही है। किन्तु उसका मूल नन्दीसूत्र और उसके जिनभद्रकृत स्पष्टीकरणमें है।
६३. ज्ञानचर्चाका प्रमाणचर्चासे खाताय । पंचज्ञान चर्चा के क्रमिक विकास की उक्त तीनों आगमिक भूमिकाकी एक खास विशेषता यह रही है कि इनमें ज्ञानचर्चा के साथ इतर दर्शनोंमें प्रसिद्ध प्रमाणचर्चाका कोई सम्बन्ध या समन्वय स्थापित नहीं किया गया है । इन ज्ञानोंमें ही सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके भेदके द्वारा जैनागमिकोंने वही प्रयोजन सिद्ध किया है जो दूसरोंने प्रमाण और अप्रमाणके विभागके द्वारा सिद्ध किया है । अर्थात् आगमिकोंने प्रमाण या अप्रमाण ऐसे विशेषण विना दिये ही प्रथमके तीनोंमें अज्ञान-विपर्यय - मिथ्यात्वकी तथा सम्यक्त्वकी संभावना मानी है और अंतिम दोमें एकान्त सम्यक्त्व ही बतलाया है । इस प्रकार ज्ञानोंको प्रमाण या अप्रमाण न कह करके मी उन विशेषणोंका प्रयोजन तो दूसरी तरहसे निष्पन्न कर ही दिया है।
जैम आगमिक आचार्य प्रमाणाप्रमाणचर्चा, जो दूसरे दार्शनिकोंमें चलती थी, उससे सर्वथा अनभिज्ञ तो थे ही नहीं किन्तु वे उस चर्चाको अपनी मौलिक और खतत्र ऐसी ज्ञानचर्चासे पृथक् ही रखते थे। जब आगमोंमें ज्ञानका वर्णन आता है तब प्रमाणों या अप्रमाणों से उन ज्ञानोंका क्या संबन्ध है उसे बतानेका प्रयत्न नहीं किया है. और जब प्रमाणोंकी चर्चा आती है तब, किसी प्रमाणको ज्ञान कहते हुए भी आगम प्रसिद्ध पांच ज्ञानों का समावेश और सम
नहीं बताया है इससे फलित यही होता है कि आगमिकोंने
"एगम्तेण परोक्खं किंगियमोहाइयं च पचक्खं । इंदियमणोभवं जं तं संववहारपञ्चक्खं ॥" विशेषा०९५।
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प्रस्तावना।
जैनशास्त्रप्रसिद्ध ज्ञानचर्चा और दर्शनान्तरप्रसिद्ध प्रमाणचर्चाका समन्वय करनेका प्रयन नहीं किया - दोनों चर्चाका पार्थक्य ही रखा । आगेके वक्तव्यसे यह बात स्पष्ट हो जायगी।
४. जैन आगमोंमें प्रमाणचर्चा । (१) प्रमाणके मेद।
जैन आगोंमें प्रमाणचर्चा ज्ञानचर्चासे खतन्त्ररूपसे आती है । प्रायः यह देखा गया है कि आगमोंमें प्रमाणचर्चा के प्रसंगमें नैयायिकादिसंमत चार प्रमाणोंका उल्लेख आता है । कहीं कहीं तीन प्रमाणोंका भी उल्लेख है । ___ भगवती सूत्र (५.३.१९१-१९२) में गौतम गणधर और भगवान् महावीरके संवादमें गौतमने भगवान्से पूछा कि जैसे केवल ज्ञानी अंतकर या अंतिम शरीरीको जानते हैं वैसे ही क्या छमस्थ भी जानते है ? इसके उत्तरमें भगवान् महावीरने कहा है कि__ "गोयमा णो तिणढे समढे । सोचा जाणति पासति पमाणतो वा । से किं तं सोचा। केवलिस्स वा केवलिसावयस्स वा केवलिसावियाए वा केवलिउवासगरस वा केवलिउपासियाए वा....."से तं सोया । से किं तं पमाणं? पमाणे चउविहे पण्णत्ते-तं जहा पञ्चक्ने अणुमाणे ओवम्मे आगमे जहा अणुओगद्दारे तहा णेयव्वं पमाणं" भगवतीसूत्र ५.३.१९१,१९२।
प्रस्तुतमें स्पष्ट है कि पांच ज्ञानोंके आधार पर उत्तर न देकर मुख्य रूपसे प्रमाणकी दृष्टिसे उत्तर दिया गया है । 'सोचा' पदसे श्रुतज्ञानको लिया जाय तो विकल्पसे अन्यज्ञानोंको लेकरके उत्तर दिया जा सकता था । किन्तु ऐसा न करके परदर्शनमें प्रसिद्ध प्रमाणोंका आश्रय लेकरके उत्तर दिया गया है । यह सूचित करता है कि जैनेतरोंमें प्रसिद्ध प्रमाणोंसे शास्त्रकार अनभिज्ञ नहीं थे । और वे खसंमत ज्ञानों की तरह प्रमाणोंको भी इप्तिमें खतन्त्र साधन मानते थे।
स्थानांगसूत्रमें प्रमाणशब्दके स्थानमें हेतुशब्दका प्रयोग भी मिलता है । इप्तिके साधनभूत होनेसे प्रत्यक्षादिको हेतुशब्दसे व्यवहृत करने में औचित्यभंग भी नहीं है।
"अहवा हेऊ च उठिवहे पण्णत्ते, तंजहा पश्चक्खे अणुमाणे ओवम्मे आगमे।" स्थानांग सू०३३८॥
चरकमें भी प्रमाणोंका निर्देश हेतु शब्दसे हुआ है“अथ हेतुः-हेतुर्नाम उपलब्धिकारणं तत् प्रत्यक्षमनुमानमैतिघमौपम्यमिति । पभिहेतुभिर्यदुपलभ्यते तत् तत्त्वमिति ।" चरक० विमानस्थान अ० ८ सू० ३३ ।
उपायहृदयमें भी चार प्रमाणोंको हेतु कहा गया है -पृ० १४ __ स्थानांगमें ऐतिह्यके स्थानमें आगम है किन्तु चरकमें ऐतिह्यको आगम ही कहा है अत एव दोनोंमें कोई अंतर नहीं - "ऐतिचं नामाप्तोपदेशो वेदादिः" वही सू०४१। .
अन्यत्र जैननिक्षेप पद्धतिके अनुसार प्रमाणके चार भेद भी दिखाये गये हैं - "चउब्धिहे पमाणे पन्नत्ते तं जहा-दव्यप्पमाणे खेत्तप्पमाणे कालप्पमाणे भावपमाणे" स्थानांग सू० २५८ ।
प्रस्तुत सूत्रमें प्रमाण शब्दका अतिविस्तृत अर्थ लेकर ही उसके चार भेदोंका परिगणन
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प्रमाणके भेद |
६.४
किया गया है। स्पष्ट है कि इस में दूसरे दार्शनिकोंकी तरह सिर्फ प्रमेयसाधक तीन, चार या छः आदि प्रमाणों का ही समावेश नहीं है किन्तु व्याकरण कोषादिसे सिद्ध प्रमाणशब्दके यावत् अर्थों का समावेश करनेका प्रयत्न है । स्थानांग मूल सूत्रमें उक्त भेदोंकी परिगणनाके अलावा विशेष कुछ नहीं कहा गया है, किन्तु अन्यंत्र उसका विस्तृत वर्णन है, जिसके विषयमें आगे हम कुछ कहेंगे ।
चरक में वादमार्गपदोंमें एक खतंत्र व्यवसायपद है।
"अथ व्यवसायः - व्यवसायों नाम निश्वयः” विमानस्थान भ० ८ सू० ४७ ।
सिद्धसेननसे लेकर सभी जैनतार्किकोंने प्रमाणको खपरव्यवसायि माना है । वार्तिककार - शान्त्याचार्यने न्यायावतारगत अवभास शब्दका अर्थ करते हुए कहा है कि
"अवभासो व्यवसायो न तु ग्रहणमात्रकम्” का० ३ ।
अकलंकादि सभी तार्किकोंने प्रमाणलक्षणमें 'व्यवसाय' पदको स्थान दिया है। और प्रमाणको व्यवसायात्मके माना है। यह कोई आकस्मिक बात नहीं । न्यायसूत्रमें प्रत्यक्षको व्यवसायात्मक कहा है । सांख्यकारिकामें भी प्रत्यक्षको अध्यवसायरूप कहा है। इसी प्रकार जैन आगमोंमें भी प्रमाणको व्यवसाय शब्दसे व्यवहृत करनेकी प्रथाका स्पष्टदर्शन निम्नसूत्रमें होता है । प्रस्तुतमें तीन प्रकारके व्यवसायका जो विधान है वह सांख्यादिसंमत' तीन प्रमाण माननेकी परंपरामूलक हो तो आश्चर्य नहीं
“तिविहे ब्रवसाय पण्णत्ते तं जहा- पञ्चक्खे पचतिते आणुगामिए ।" स्थानांगसू० १८५ ।
प्रस्तुत सूत्रकी व्याख्या करते हुए अभयदेवने लिखा है कि
"व्यवसायो निश्वयः स च प्रत्यक्षः - अवधिमन:पर्यय केवलाक्यः प्रत्ययात् इन्द्रियामिन्द्रियलक्षणात् निमित्ताज्जातः प्रात्ययिकः, साध्यम् अयादिकम् अनुगच्छति-साध्याभावे न भवति यो धूमादिहेतुः सोऽनुगामी ततो जातम् आनुगामिकम् - अनुमानम् - तद्रूपो व्यवसाय आनुगामिक पवेति । अथवा प्रत्यक्षः स्वयंदर्शनलक्षणः, प्रात्ययिकः - theचनप्रभवः, तृतीयस्तथैवेति” ।
स्पष्ट है कि प्रस्तुत सूत्रकी व्याख्यामें अभयदेवने विकल्प किये हैं अत एव उनको एकतर अर्थका निश्चय नहीं था । वस्तुतः प्रत्यक्षशब्दसे सांव्यवहारिक और पारमार्थिक दोनों प्रत्यक्ष, प्रत्ययित शब्दसे अनुमान और आनुगामिक शब्दसे आगम, सूत्रकारको अभिप्रेत माने जायँ तो सिद्धसेनसंमत तीन प्रमाणोंका मूल उक्त सूत्रमें मिल जाता है । सिद्धसेनने न्यायपरंपरा संमत चार प्रमाणोंके स्थान में सांख्यादिसंगत तीन ही प्रत्यक्ष, अनुमान और आगमको माना है । आचार्य हरिभद्रको भी येही तीन प्रमाण मान्य है' ।
ऐसा प्रतीत होता है कि चरकसंहितामें कई परंपराएँ मिलगई हैं क्योंकि कहीं तो उसमें चार प्रमाणों का वर्णन है और कहीं तीनका तथा विकल्पसे दोका भी स्वीकार पाया जाता है। ऐसा
१ देखो टिप्पण पृ० १४८ - १५१ । २ चरक विमानस्थान अध्याय ४ । अ० ८. सू० ८४ । ३ अनेकान्तज० डी० पृ० १४२, अनेकान्तज० पु० २१५ ।
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प्रस्तावना।
xx
होनेका कारण यह है कि चरकसंहिता किसी एक व्यक्तिकी रचना न होकर कालक्रमसे संशोधन और परिवर्धन होते होते वर्तमानरूप बना है । यह बात-निन्न कोष्ठकसे स्पष्ट हो जाती है
सूत्रस्थान अ० ११. आप्तोपदेश प्रत्यक्ष अनुमान युक्ति विमानस्थान १०४ ", अ०८ ऐतिय (आप्तोपदेश),
औपम्य " " "
x
___ उपदेश , , यही दशा जैनागमोंकी है। उसमें भी चार और तीन प्रमाणों की परंपराओंने स्थान पाया है।
स्थानांगके उक्त सूत्रसे भी पंच ज्ञानोंसे प्रमाणोंका पार्यक्य सिद्ध होता ही है । क्योंकि व्यवसायको पंच ज्ञानोंसे संबद्ध न कर प्रमाणोंसे संबद्ध किया है।
फिर भी आगममें छान और प्रमाणका समन्वय सर्वथा नहीं हुआ है यह नहीं कहा जा सकता । उक्त तीन प्राचीन भूमिकाओंमें असमन्वय होते हुए भी अनुयोगद्वारसे यह स्पष्ट है कि बादमें जैनाचार्योंने ज्ञान और प्रमाणका समन्वय करनेका प्रयत्न किया है । किन्तु यह भी ध्यानमें रहे कि पंच ज्ञानोंका समन्वय स्पष्टरूपसे नहीं है, पर अस्पष्ट रूपसे है। इस समन्वयके प्रयनका प्रथम दर्शन अनुयोगमें होता है । न्यायदर्शनप्रसिद्ध चार प्रमाणोंका ज्ञानमें समावेश करनेका प्रया अनुयोगमें है ही। किन्तु वह प्रया जैन दृष्टिको पूर्णतया लक्ष्यमें रख कर नहीं हुआ है अतः बादके आचार्योंने इस प्रश्नको फिरसे मुलझानेका प्रयन किया और वह इस लिये सफल हुआ कि उसमें जैन आगमके मौलिक पंचज्ञानोंको आधारभूत मान कर ही जैन दृष्टिसे प्रमाणोंका विचार किया गया है। ___ स्थानांगसूत्रमें प्रमाणोंके द्रव्यादि चार भेद जो किये गये हैं उनका निर्देश पूर्वमें हो चुका है । जैनव्याख्यापद्धतिका विस्तारसे वर्णन करनेवाला अन्य अनुयोगद्वार सूत्र है । उसको देखनेसे पता चलता है कि प्रमाणके द्रव्यादि चार मेद करने की प्रथा, जैनोंकी व्याख्यापद्धतिमूलक है । शब्दके व्याकरण-कोषादिप्रसिद्ध सभी संभावित अर्थोका समावेश करके, व्यापक अर्थमें अनुयोगद्वारके रचयिताने प्रमाणशब्द प्रयुक्त किया है यह निम्न नकशेसे सूचित हो जाता है
न्या. प्रस्तावमा
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६६
१ आनुपूर्वी २ नाम
१ प्रत्यक्ष
१ उपक्रम
१ द्रव्य
प्रमाणके भेद |
अनुयोगद्वार (सू० ५९ )
१ ज्ञान
२ निक्षेप
३ प्रमाण ४ वक्तव्यता ५ अर्थाधिकार ६ समवतार (सू०७०)
२ क्षेत्र
२ अनुमान
१ जीवके
१ इन्द्रियप्रत्यक्ष
३ काल
१ गुण २ नय
३ अनुगम
२ दर्शन
३ औपम्य
१ प्रत्यक्ष
४ नय
४ भाव ( सू० १३२ )
३ संख्या ( सू० १४६ )
२ अजीवके ( सू० १४७ )
३ चारित्र
४ भागम
१ श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्ष २ चक्षु० प्र० ३ घ्राणे० प्र० ४ जिह्वेन्द्रियप्र० ५ स्पर्शे० प्र०
नोइन्द्रियप्रस्पक्ष
१ अवधिज्ञानप्र० २ मन:पर्ययज्ञानप्र० ३ केवलज्ञानप्र०
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१ कार्येण
२ पूर्ववत्
२ कारणेन
३ गुणेन
१ अतीतकालग्रहण
१ साधर्म्यापनीत
प्रस्तावना-1
१ किश्चिद्वैधर्म्य
२ अनुमान
२ शेषवत्
४ अवयवेन
१ सामान्यदृष्ट
३ औपम्य
१ किचित्साधम्योंपनीत २ प्रायः साधर्म्यंपनीत ३ सर्वसाधम्पनी
२ प्रत्युत्पन्न कालग्रहण ३ अनागतकालय ०
२ प्रायः वैधर्म्य
३
५ आश्रयेण
४ आगम
३ सर्ववैध
२ विशेषदृष्ट
२ लोकोत्तर
1
आचारादि १२
वैनीत
१ लौकिक
वेद, रामायण, महाभारत आदि
अनुयोगद्वार के प्रारंभमें ही ज्ञानोंके पांच मेद बताये हैं - १ आभिनिबोधिक, २ श्रुत, ३ अवधि, ४ मन:पर्यय और ५ केवल । ज्ञानप्रमाणके विवेचनके प्रसंग में प्राप्त तो यह था कि अनुयोगद्वारके संकलनकर्ता उन्हीं पांच ज्ञानोंको ज्ञानप्रमाणके मेदरूपसे करके उन्होंने नैयायिकोंमें प्रसिद्ध चार प्रमाणोंको ही ज्ञानप्रमाणके
I
बता देते । किन्तु ऐसा न भेदरूपसे बता दिया है।
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प्रमाणके भेद।
ऐसा करके उन्होंने सूचित किया है कि दूसरे दार्शनिक जिन प्रत्यक्षादि चार प्रमाणोंको मानते हैं वस्तुतः वे ज्ञानात्मक हैं और गुण है- आत्माके गुण हैं।
इस समन्वयसे यह भी फलित हो जाता है कि अज्ञानात्मक सन्निकर्ष इन्द्रिय आदि पदार्थ प्रमाण नहीं हो सकते । अत एव हम देखते है कि सिद्धसेनसे लेकर प्रमाणविवेचक सभी जैनदार्शनिकोंने प्रमाणके लक्षणमें ज्ञानपदको अवश्य स्थान दिया है । इतना होते हुए भी जैन संमत पांच ज्ञानोंमें चार प्रमाणका स्पष्ट समन्वय करनेका प्रयत्न अनुयोगद्वारके कर्ताने नहीं किया है। अर्थात् यहाँ भी प्रमाणचर्चा और पंचज्ञानचर्चाका पार्थक्य सिद्ध ही है। शास्त्रकारने यदि प्रमाणोंको पंचज्ञानोंमें समन्वित करनेका प्रयत्न किया होता तो उनके मतसे अनुमान और उपमान प्रमाण किस ज्ञानमें समाविष्ट है यह अस्पष्ट नहीं रहता । यह बात नीचे के समीकरणसे स्पष्ट होती हैज्ञान
प्रमाण १(अ) इन्द्रियजमति
प्रत्यक्ष (ब) मनोजन्यमति
आगम
SCN
अवधि मनःपर्यय
प्रत्यक्ष केवल
अनुमान
उपमान इससे साफ है कि ज्ञानपक्षमें मनोजन्य मतिको कौनसा प्रमाण कहा जाय तथा प्रमाणपक्षमें अनुमान और उपमानको कौनसा ज्ञान कहा जाय- यह बात अनुयोगद्वारमें अस्पष्ट है। वस्तुतः देखें तो जैन ज्ञानप्रक्रियाके अनुसार मनोजन्यमति जो कि परोक्ष ज्ञान है वह अनुयोगके प्रमाण वर्णनमें कहीं समावेश नहीं पाता।
न्यायादिशासके अनुसार मानस ज्ञान दो प्रकारका है प्रत्यक्ष और परोक्ष । सुख-दुःखादिको विषय करनेवाला मानस ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है और अनुमान उपमान आदि मानसज्ञान परोक्ष कहलाता है । अत एव मनोजन्य मति जो कि जैनोंके मतसे परोक्षज्ञान है उसमें अनुमान और उपमानको अन्तर्भूत करदिया जाय तो उचित ही है । इस प्रकार पंचज्ञानोंका चार प्रमाणोंमें समन्वय घट जाता है । यदि यह अभिप्राय शास्त्रकारका भी है तो कहना होगा कि परप्रसिद्ध चार प्रमाणोंका पंचज्ञानोंके साथ समन्वय करनेकी अस्पष्ट सूचना अनुयोगद्वारसे मिलती है । किन्तु जैनदृष्टिसे प्रमाण विभाग और उसका पंचज्ञानोंमें स्पष्ट समन्वय करनेका श्रेय तो उमाखातीको ही है। .
इतनी चर्चासे यह स्पष्ट है कि जैनशास्त्रकारोंने आगमकालमें जैनदृष्टिसे प्रमाणविभागके विषयमें खतन्त्र विचार नहीं किया है किन्तु उस कालमें प्रसिद्ध अन्य दार्शनिकोंके विचारोंका संग्रहमात्र किया है।
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प्रस्तावना |
६९
प्रमाणभेदके विषय में प्राचीन कालमै अनेक परंपराएँ प्रसिद्ध रहीं। उनमेंसे चार और तीन मेदोंका निर्देश आगममें मिलता है जो पूर्वोक्त विवरणसे स्पष्ट है । ऐसा होनेका कारण यह है कि प्रमाणचर्चा में निष्णात ऐसे प्राचीन नैयायिकोंने प्रमाणके चार भेद ही माने हैं । उन्हीका अनुकरण चरक और प्राचीन बौद्धोंने मी किया है। और इसीका अनुकरण जैनागमों में भी हुआ है । प्रमाणके तीन भेद माननेकी परंपरा भी प्राचीन है । उसका अनुसरण सांख्य, चरक, और बौद्धोंमें हुआ है। यही परंपरा स्थानांगके पूर्वोक्त सूत्रमें भी सुरक्षित है। योगाचार बौद्धोंने तो दिग्नागके सुधारको अर्थात् प्रमाणके दो भेदकी परंपरा को भी नही माना है और दिमागके बाद भी अपनी तीनप्रमाणकी परंपराको ही मान्य रखा है जो स्थिरमतिकी मध्यान्तविभागकी टीकासे स्पष्ट होता है । नीचे दिया हुआ तुलनात्मक नकशा' उपर्युक्त कथनका साक्षी है
१ प्रत्यक्ष
२ अनुमान
३ उपमान
४ आगम
अनुयोगद्वार
भगवती
स्थानांग
चरकसंहिता
न्यायसूत्र
व्यावर्तनी
"
39
15
उपायहृदय
सांख्यकारिका 33 योगाचारभूमिशास्त्र ” अभिधर्मसंगितिशास्त्र," विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि
मध्यान्तविभागवृत्ति 19
वैशषिकसूत्र
"
प्रशस्तपाद
दिग्नाग
धर्मकीर्ति
39
93
59
19
15
37
19
99
""
17
13
75
33
,
17
"
"3
33
19
35
X
x
X
x
X
X X X X
x
नकशेसे स्पष्ट है कि अनुयोगद्वारके मतसे प्रत्यक्ष ज्ञान प्रमाण के दो भेद हैं -
(अ) इन्द्रियप्रत्यक्ष (आ) नोइन्द्रियप्रत्यक्ष
Pre-dinnaga Buddhist Texts: Intro. P. XVII.
19
15
15
""
33
"
(२) प्रत्यक्षप्रमाणचर्चा ।
हम पहले कह आये हैं कि अनुयोगद्वार में प्रमाण शब्दको उसके विस्तृत अर्थमें लेकर प्रमाणोंका मेदवर्णन किया गया है । किन्तु ज्ञप्ति साधन जो प्रमाण ज्ञान अनुयोगद्वारको अमीष्ट है उसीका विशेष विवरण करना प्रस्तुतमें इष्ट है । अत एव अनुयोगद्वार संमत श्वार प्रमाणोंका क्रमशः वर्णन किया जाता है -
"S
E=EX x x x
x
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प्रत्यक्षप्रमाण चर्चा। (अ) इन्द्रियप्रत्यक्ष में अनुयोगद्वारने १ श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्ष, २ चक्षुरिन्द्रियप्रत्यक्ष ३ घाणेन्द्रियप्रत्यक्ष, ४ जिहेन्द्रियप्रत्यक्ष, और ५ स्पर्शेन्द्रियप्रत्यक्ष - इन पांच प्रकारके प्रत्यक्षोंका समावेश किया है।
(आ) नोइन्द्रियप्रत्यक्ष प्रमाण में जैनशास्त्र प्रसिद्ध तीन प्रत्यक्ष ज्ञानोंका समावेश है१ अवधिज्ञान प्रत्यक्ष, २ मनःपर्ययज्ञान प्रत्यक्ष और ३ केवलज्ञान प्रत्यक्ष । प्रस्तुत में 'नो'का अर्थ है इन्द्रियका अभाव । अर्थात् ये तीनों ज्ञान इन्द्रिय जन्य नहीं है । ये ज्ञान सिर्फ आत्मसापेक्ष है।
जैनपरंपराके अनुसार इन्द्रियजन्य ज्ञानोंको परोक्षज्ञान कहा जाता है किन्तु प्रस्तुत प्रमाण चर्चा परसंमत प्रमाणोंके ही आधारसे है अत एव यहाँ उसीके अनुसार इन्द्रियजन्य ज्ञानोंको प्रत्यक्ष प्रमाण कहा गया है । नन्दीसूत्रमें जो इन्द्रियजन्य ज्ञानको प्रत्यक्ष कहा है वह भी परसिद्धान्तका अनुसरण करके ही।
वैशेषिकसूत्रमें लौकिक और अलौकिक दोनों प्रकारके प्रत्यक्षकी व्याख्या दी गई है। किन्तु न्यायसूत्र', और मीमांसादर्शनमें लौकिक प्रत्यक्षकी ही व्याख्या दी गई है । लौकिक प्रत्यक्षकी व्याख्या,दार्शनिकोंने प्रधानतया बहिरिन्द्रियजन्य ज्ञानोंको लक्ष्यमें रखा हो ऐसा प्रतीत होता है क्योंकि, न्यायसूत्र, वैशेषिकसूत्र और मीमांसादर्शनकी लौकिक प्रत्यक्षकी व्याख्या में सर्वत्र इन्द्रियजन्य ज्ञानको प्रत्यक्ष कहा है।
मन इन्द्रिय है या नहीं इस विषयमें न्यायसूत्रः और वैशेषिकसूम विधिरूपसे कुछ नहीं बताते। प्रत्युत न्यायसूत्रमें प्रमेय निरूपणमें मनको इन्द्रियोंसे पृथक् गिनाया है 7.१.१.९) और इन्द्रियनिरूपणमें (१.१.१२) पांच बहिरिन्द्रियोंका ही परिगणन किया गया है । इस लिये सामान्यतः कोई यह कह सकता है कि न्यायसूत्रकारको मन इन्द्रियरूपसे इष्ट नहीं था किन्तु इसका प्रतिवाद करके वात्स्यायनने कह दिया है कि मन भी इन्द्रिय है । मनको इन्द्रियसे पृथक् बतानेका तात्पर्य यह है कि वह अन्य इन्द्रियोंसे विलक्षण है (न्यायभा० १.१.४)। वारस्यायनके ऐसे स्पष्टीकरणके होते हुए भी तथा सांख्यकारिकामें (का० २७.४स्पष्टरूपसे इन्द्रियोंमें मनका अन्तर्भाव: होनेपर मी माठरने प्रत्यक्षको पांच प्रकार का बताया है, उससे फलित यह होता है कि लौकिक: प्रत्यक्षमें स्पष्टरूपसे मनोजन्यज्ञान समाविष्ट नहीं था। इसी बातका समर्थन नन्दी और अनुयोगद्वारसे भी होता है क्योंकि उनमें भी लौकिक प्रत्यक्षमें पांचइन्द्रियजन्य ज्ञानोंको ही स्थान दिया है। किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि प्राचीन दार्शनिकोंने मानस ज्ञानका विचार ही नही किया हो । प्राचीन कालके ग्रन्थोंमें लौकिक प्रत्यक्षमें मानस प्रत्यक्षको भी खतनस्थान मिला है। इससे पता चलता है कि वे मानस प्रत्यक्षसे सर्वथा अनभिज्ञ नहीं थे। चरकमें प्रत्यक्षको इन्द्रियज और मानस ऐसे दो भेदोंमें विभक्त किया है। इसी परंपराका अनुसरण करके बौद्ध मैत्रेयनाथने मी योगाचारभूमिशास्त्रमें प्रत्यक्षके चार भेदोमें मानसप्रत्यक्षको खतन्त्र स्थान दिया है। यही कारण है कि आगमोंमें सांव्यवहारिक प्रत्यक्षमें मानसका स्थान न होनेपर भी आचार्य अकलंकने उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष रूपसे गिनाया है।
वैशे०३.1.1८९.१.११-१५। २१.१.४।।...। विमानस्थान भ०४ सू० ५। १०८ सू०१९। ५J. R.A.S. 1929 p. 465-466. देखो टिप्पण पू. २५०
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प्रस्तावना ।
(३) अनुमानचर्चा |
(अ) अनुमानके मेद - अनुयोगद्वार सूत्रमें 'तीन भेद किये गये हैं
(१) पूर्ववत्
(२) शेषवत् (३) दृष्टसाधर्म्यवत्
प्राचीन चरक, न्याय, बौद्ध ( उपायहृदय पृ० १३ ) और सांख्यने भी अनुमानके तीन भेद तो बताये हैं । उनमें प्रथमकें दो तो वही हैं जो अनुयोगमें है । किन्तु अन्तिम भेदका नाम अनुयोग की तरह दृष्टसाधर्म्यवत् न न होकर सामान्यतोदृष्ट है ।
प्रस्तुतमें यह बता देना आवश्यक है कि अनुयोगमें अनुमानके स्वार्थ और परार्थ ऐसे दो भेद नहीं किये गये । अनुमानको इन दो भेदोंमें विभक्त करनेकी परंपरा बादकी है । न्यायसूत्र और उसके भाष्य तक यह स्वार्थ और परार्थ ऐसे भेद करनेकी परंपरा देखी नहीं जाती । बौद्धोंमें दिग्नागसे पहले के मैत्रेय, असंग और वसुबन्धुके ग्रन्थोंमें भी वह नहीं देखी जाती । सर्व प्रथम बौद्धोंमें दिग्नागके प्रमाणसमुच्चयमें और वैदिकोंमें प्रशस्तपादके भाष्यमें ही स्वार्थ- परार्थ भेद देखे जाते हैं। जैनदार्शनिकोंने अनुयोगद्वारस्वीकृत उक्त तीन भेदोंको स्थान नहीं दिया है। किन्तु स्वार्थपरार्थरूप भेदोंको ही अपने ग्रन्थों में लिया हैं इतना ही नहीं बल्कि तीन भेदोंकी परंपराका कुछने खण्डन भी किया है।
(आ) पूर्ववत्
पूर्ववत् की व्याख्या करते हुए अनुयोगमें कहा है कि -
"माया पुतं जहा नहुं जुषाणं पुणरागयं ।
कार्ड पचभिजाणेजा पुण्यलिङ्गेण केणई ॥
तं जहा- खत्तेण वा वण्णेण वा लंडणेणवा मसेण वा तिलपण वा"
-७१
तात्पर्य यह है कि पूर्वपरिचित किसी लिङ्गके द्वारा पूर्वपरिचित वस्तुका प्रत्यभिज्ञान करना पूर्ववत् अनुमान है ।
उपायहृदय नामक बौद्धग्रन्थमें भी पूर्ववत् का वैसा ही उदाहरण है -
"यथा षडङ्गलि पिडकमूर्धानं बालं दृष्ट्वा पश्चादृद्धं बहुश्रुतं देवदत्तं वा षडलि स्मरणात् सोयमिति पूर्ववत्" पृ० १३ ।
उपायहृदयके बादके प्रन्थोंमें पूर्ववत् के अन्य दो प्रकारके उदाहरण मिलते हैं । उक्त उदाहरण छोडनेका कारण यही है उक्त उदाहरणसूचित ज्ञान वस्तुतः प्रत्यभिज्ञान है । अत एवं प्रत्यभिज्ञान और अनुमानके विषयमें जबसे दार्शनिकोंने भेद करना शुरू किया तबसे पूर्ववत्का
१ विशेष के लिये देखो प्रो० ध्रुवका 'त्रिविधमनुमानम्' भोरिएण्टल कोंग्रेसके प्रथम अधिवेशनमें पढ़ा गया व्याख्यान । २ चरक सूत्रस्थान में अनुमानका तीन प्रकार है ऐसा कहा है किन्तु नाम नहीं दियेदेखो सूत्रस्थान अध्याय ११. लो० २१, २२, न्यायसूत्रे १.१.५ । मूल सांख्यकारिकामें नाम नही है सिर्फ तीन प्रकारका उल्लेख है का० ५ । किन्तु माठरने तीनोंके नाम दिये हैं। तीसरा नाम मूलकारको सामान्यतो दृष्ट ही इट है - का० ६ । ३ प्रमाणसमु० २.१ । प्रशस्त० पु० ५६३,५७७ । ४ न्यायवि० ३४१, ३४२ । तस्वार्थश्लो० पृ० २०५ । स्याद्वादर० पृ० ५२७ ।
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અર
अनुमानचर्चा !
उदाहरण बदलना आवश्यक हो गया। इससे यह भी कहा जा सकता है कि अनुयोगमें जो विवेचन है वह प्राचीन परंपरानुसारी है ।
कुछ दार्शनिकोंने कारणसे कार्यके अनुमानको और कुछने कार्यसे कारणके अनुमानको पूर्ववत् माना है ऐसा उनके दिये हुए उदाहरणोंसे प्रतीत होता है -
मेघोन्नति दृष्टिका अनुमान करना यह कारणसे कार्यका अनुमान है इसे पूर्ववत् का उदाहरण माननेवाले माठर, वात्स्यायन और गौडपाद हैं।
अनुयोगद्वारके मत से कारणसे कार्यका अनुमान शेषवदनुमानका एक प्रकार है । किन्तु प्रस्तुत उदाहरणका समावेश शेषवदके 'आश्रयेण' भेदके अन्तर्गत है ।
वात्स्यायनने मतान्तरसे धूमसे वहिके अनुमानको भी पूर्ववत् कहा है। यही मत चरक' और मूलमाध्यमिककारिकाके टीकाकार पिङ्गल (१) को मी' मान्य था । शबर' भी वही उदाहरण लेता है ।
माठर मी कार्यसे कारण के अनुमानको पूर्ववत् मानता है किन्तु उसका उदाहरण दूसरा हैपया, नदीपूरसे वृष्टिका अनुमान ।
अनुयोगके मतसे धूमसे वह्निका ज्ञान शेषवदनुमानके पांचवे भेद 'आश्रयेण' के अन्तर्गत है । माठरनिर्दिष्ट नदीपूरसे दृष्टिके अनुमानको अनुयोगमें अतीतकालप्रहण कहा है। और वात्स्यायनने कार्यसे कारणके अनुमानको शेषवद कह कर माठरनिर्दिष्ट उदाहरणको शेषवद् बता दिया है।
पूर्वका अर्थ होता है कारण । किसीने कारणको साधन मानकर, किसीने कारणको साध्य मानकर और किसीने दोनों मानकर पूर्ववत्की व्याख्या की है अत एव पूर्वोक्त मतवैविध्य उपलब्ध होता है । किन्तु प्राचीनकालमें पूर्ववत्से प्रत्यभिज्ञा ही समझी जाती थी ऐसा अनुयोग और उपायहृदयसे स्पष्ट है।
न्यायसूत्रकारको 'पूर्ववत्' अनुमानका कैसा लक्षण इष्ट था उसका पता लगाना मी आबश्यक है। प्रो० ध्रुवका अनुमान है कि न्यायसूत्रकारने पूर्ववत् आदि शब्द प्राचीन मीमांसकोंसे लिया है और उस परंपराके आधारपर यह कहा जा सकता है कि पूर्वका अर्थ कारण और शेषका अर्थ कार्य है । अत एव न्यायसूत्रकारके मतमें पूर्ववत् अनुमान कारणसे कार्यका और शेषवत् अनुमान कार्बसे कारणका है। किन्तु न्यायसूत्रकी अनुमान परीक्षाके (२.१.१७) आधारपर प्रो० ज्वालाप्रसादने' पूर्ववत् और शेषवत् का जो अर्थ स्पष्ट किया है। वह प्रो० बसे ठीक उलटा है। अर्थात् पूर्व-कारणका कार्यसे अनुमान करना पूर्ववत् है और कार्यका या उत्तरकालीनका कारणसे अनुमान करना शेषवदनुमान है। वैशेषिकसूत्रमें कार्य हेतुको प्रथम और कारण हेतुको द्वितीयस्थान प्राप्त है ( ९.२.१ ) । उससे पूर्ववत् और शेषवत् के उक्त अर्थकी पुष्टि होती है ।
१ सूत्रस्थान अ० ११ को ० २१ २ Pre-Dinnāga Buddhist Text. Intro P. XVII. ३१.१.५ । • पूर्वोक व्याक्यान पु० २६२-२६३ । ५ Indian Epistemology p. 171.
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प्रस्तावना।
(8) शेषवत् । . अनुयोगद्वारका पूर्वचित्रित नकशा देखनेसे स्पष्ट होता है कि शेषवत् अनुमानमें पांच प्रकारके हेतुओंको अनुमापक बताया गया है । यथा
"से कि त सेसवं? सेसवं पंचषिहं पण्णत्तं तं जहा कजेणं कारणेणं गुणेणं अषयवेणं भासएणं।"
१ कार्येण-कार्यसे कारणका अनुमान करना । यथा शब्दसे शंखका, ताडनसे भेरीकाढक्कितसे वृषभका, केकायितसे मयूरका, हणहणाटसे (हेषित ) अश्वका, गुलगुलायितसे गजका और घणषणायितसे रथका ।
२ कारणेन- कारणसे कार्यका अनुमान करना । इसके उदाहरण में अनुमान प्रयोगको तो नहीं बताया किन्तु कहा है कि 'तन्तु पटका कारण है, पट तन्तुका कारण नहीं, वीरणा कटका कारण है, कट वीरणाका कारण नहीं, मृत्पिण्ड घटका कारण है, घट मृत्पिण्डका कारण नहीं । इस प्रकार कह करके शास्त्रकारने कार्यकारणभावकी व्यवस्था दिखा दी है। उसके आधारपर जो कारण है उसे हेतु बनाकर कार्यका अनुमान कर लेना चाहिए ऐसा सूचित किया है।
३ गुणेन-गुणसे गुणीका अनुमान करना यथा, निकषसे सुवर्णका, गन्धसे पुष्पका, रससे लवणका, आखादसे मदिराका, स्पर्शसे वस्त्रका' ।
४ अवयवेन-अवयवसे अवयवीका अनुमान करना । यथा', सींगसे महिषका, शिखासे कुक्कुटका, दांतसे हस्तिका, दाढासे वराहका, पिच्छसे मयूरका, खुरासे अश्वका, नखसे ज्याप्रका, बालाप्रसे चमरी गायका, लांगूलसे बन्दरका, दो पैरसे मनुष्यका, चार पैरसे गो आदिका, बहु पैरसे गोजर आदिका, केसरसे सिंहका, ककुभसे वृषभका, चूडीसहित बाहुसे महिलाका; बद्ध परिकरतासे योद्धाका, वनसे महिलाका, धान्यके एक कणसे द्रोणपाकका और एक गाथासे कविका।
५ आश्रयेण-(आश्रितेन) आश्रित वस्तुसे अनुमान करना, यथा धूमसे अग्निका, बलाकासे पानीका, अभ्रविकारसे वृष्टिका और शील समाचारसे कुलपुत्रका अनुमान होता है।
, "संखं सहेणं, मेरि ताडिएणं, घसमं दकिएणं, मोरं किंकाइएणं, हयं हेसिएणं, गयं गुलगुलाइएणं, रहं घणघणादणं।"
. "तंतयो पडस्स कारणं ण पडो तंतुकारणं, धीरणा कडस्स कारणं ण कडो वीरणाकारणं, मिपिडो घडस्स कारणं ण घडो मिपिडकारणं।" ३ "सुवणं निकसेणं, पुष्पं गंधेणं, लवणं रसेणं, महरं आसायएणं, वत्थं फासेणं।" ४ “महिसं सिंगेण, कुक्कुडं सिहाएणं, हस्थि विसाणेणं, वराहं दाढाए, मोरं पिच्छेणं, आसं खुरेणं, वग्धं नहेणं, चरिं वालग्गेणं, पाणरं लंगुलेणं, दुपयं मणुस्सादि, चउपयं गवमादि, बहुपयं गोमिमादि, सीहं केसरेणं, वसह कुकुहेणं, महिलं वलयबाहाए, गाहा-प. रिअरबंधेण भडं जाणिजामहिलिअंनिवसणेणं। सित्थेण दोणपागं, कविं च एकाए गाहाए ॥" ५“अग्गि धूमेणं, सलिलं बलागेणं वुट्टि अभविकारेणं, कुलपुत्तं सीलसमायारेणं।"
न्या. प्रस्तावना १.
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अनुमानचर्चा ।
अनुयोगद्वार के शेषवत् के पांच भेदोंके साथ अन्य दार्शनिककृत अनुमानभेदों की तुलनाके
लिये नीचे नक्शा दिया जाता है
७४
'वैशेषिक
१ कार्य
२ कारण ३ संयोगी
४ समवायी
अनुयोगद्वार १ कार्य
२ कारण
३ आश्रित
४ गुण
५ अवयव
योगाचारभूमिशास्त्र' 7 १ कार्य-कारण
२ कर्म ३ धर्म
४ खभाव
धर्मकीर्ति
१ कार्य
५ विरोधी
५ निमित्त
उपायहृदयमें शेषवत् का उदाहरण दिया गया है कि -
" शेषवद् यथा, सागरसलिलं पीत्वा तलवणरसमनुभूय शेषमपि सलिलं तुल्यमेव लवणमिति - " पृ० १३ ।
अर्थात् अवयवके ज्ञानसे संपूर्ण अवयवीका ज्ञान शेषवत् है ऐसा उपायहृदयका मत है ।
माठर और गौडपाद का भी यही मत है। उनका उदाहरण भी वही है जो उपायहृदयमें है । Tsing-mu (पिङ्गल) का भी शेषवत् के विषयमें यही मत है । किन्तु उसका उदाहरण उसी प्रकारका दूसरा है कि एक चावलके दानेको पके देखकर सभीको पक्क समझना' ।
अनुयोगद्वारके शेषवत् के पांच भेदोंमें से चतुर्थ 'अवयवेन' के अनेक उदाहरणोंमें उपायहृदनिर्दिष्ट उदाहरणका स्थान नहीं है किन्तु पिङ्गलसंमत उदाहरणका स्थान है।
न्यायभाष्यकार ने कार्य से कारणके अनुमानको शेषवत् कहा है और उसके उदाहरणरूप से नदीपूरसे वृष्टिके अनुमानको बताया है । माठरके मतसे तो यह पूर्ववत् अनुमान है । अनुयोगद्वारने 'कार्येण' ऐसा एक भेद शेषवत् का माना है पर उसके उदाहरण भिन्न ही हैं ।
1
मतान्तरसे न्यायभाष्यमें परिशेषानुमानको शेषवत् कहा है । ऐसा माठर आदि अन्य किसीने नहीं कहा। स्पष्ट है कि यह कोई भिन्न परंपरा है । अनुयोगने शेषवत् के जो पांच भेद बताये हैं उनका मूल क्या है सो कहा नहीं जा सकता ।
२ स्वभाव
३ अनुपलब्धि
"
(ई) दृष्टसाधर्म्यवत् ।
दृष्टसाधर्म्यवत् के दो भेद किये गये हैं - १ सामान्यदृष्ट और २ विशेषदृष्ट | किसी क वस्तुको देखकर तत्सजातीय सभी वस्तुका साधर्म्यज्ञान करना या बहुवस्तुको देखकर किसी विशेष में तत्साधर्म्यका ज्ञान करना यह सामान्यदृष्ट है ऐसी सामान्यदृष्टकी व्याख्या शास्त्रकारको अभिप्रेत जान पडती है । शास्त्रकारने इसके उदाहरण ये दिये हैं- जैसा एक पुरुष है अनेक पुरुष भी वैसे ही हैं, जैसे अनेक पुरुष हैं वैसा ही एक पुरुष है । जैसा एक कार्षापण है अनेक कार्षापण भी वैसे ही हैं, जैसे अनेक कार्षापण हैं एक भी वैसा ही है" ।
१ वैशे० ९.२.१ । २ J. R. A. S. 1929, P. 474 3 Pre-Dig. Intro XVIII. "से किं तं सामण्णदिङ्कं ? जहा एगो पुरिसो तहा बहवे पुरिसा जहा वहवे पुरिसा तहा एगो पुरिसो । जहा एगो करिसावणो तहा वहवे करिसावणा, जहा बहवे करिसावणा तहा एगो करिसावणो ।”
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प्रस्तावना |
७५
विशेषदृष्ट दृष्टसाधर्म्यत्रत् वह है जो अनेक वस्तुओं में से किसी एक को पृथक् करके उसके वैशिष्ट्य का प्रत्यभिज्ञान करता है । शास्त्रकारने इस अनुमानको भी पुरुष और कार्षापण के दृष्टान्तसे स्पष्ट किया है - यथा, कोई एक पुरुष बहुतसे पुरुषोंके बीचमेंसे पूर्वदृष्ट पुरुषका प्रत्यभिज्ञान करता है कि यह वही पुरुष है; या इसी प्रकार कार्षापण का प्रत्यभिज्ञान करता है, तब उसका वह ज्ञान विशेषदृष्ट साधर्म्यवत् अनुमान है' ।
अनुयोगद्वार में दृष्टसाधर्म्यवत् के जो दो भेद किये गये हैं उनमें प्रथम तो उपमानसे और दूसरा प्रत्यभिज्ञानसे भिन्न प्रतीत नहीं होता । माठर आदि अन्य दार्शनिकोंने सामान्यतोदृष्टके जो उदाहरण दिये हैं उनसे अनुयोगद्वारका पार्थक्य स्पष्ट है ।
उपायहृदयमें सूर्य-चन्द्र की गतिका ज्ञान उदाहृत है । यही उदाहरण गौडपादमें, शबर में, न्यायभाष्य में और पिंगलमें है ।
सामान्यतोदृष्टका एक ऐसा भी उदाहरण मिलता है - यथा, इच्छा दिसे आत्माका अनुमान करना । उसका निर्देश न्यायभाष्य और पिंगलमें है ।
अनुयोग, माठर और गौडपादने सिद्धान्ततः सामान्यतोदृष्टका लक्षण एक ही प्रकारका माना है भले ही उदाहरण भेद हो । माठर और गौडपादने उदाहरण दिया है कि "पुष्पिताम्रदर्शनात्, अन्यत्र पुष्पिता आना इति ।" यही भाव अनुयोगका भी है जब कि शास्त्रकारने कहा कि "जहा एगो पुरिसो तहा बहवे पुरिसा ।" इत्यादि ।
अनुमान सामान्यका उदाहरण माठरने दिया है कि "लिङ्गेन त्रिदण्डादिदर्शनेन अदृष्टशेषि feat साध्यते नूनमसौ परिवास्ति, अस्येदं त्रिदण्डमिति ।" गौडपादने इस उदाहरण के साध्य साधन का विपर्यास किया है - "यथा दृष्ट्वा यतिम् यस्येदं त्रिदण्डमिति ।"
( उ ) कालभेदसे त्रैविध्य ।
अनुमान ग्रहण कालकी दृष्टिसे तीन प्रकारका होता है उसे भी शास्त्रकारने बताया है - अतीतकालग्रहण २ प्रत्युत्पन्नकालग्रहण और ३ अनागतकालग्रहण |
यथा
१ अतीतकालग्रहण - उत्तृण वन, निष्पन्नसस्या पृथ्वी, जलपूर्ण कुण्ड-सर-नदी- दीर्घिका - तडाग - इत्यादि देखकर सिद्ध किया जाय कि सुदृष्टि हुई है तो वह अतीतकालग्रहण है।
२ प्रत्युत्पन्नकालग्रहण - भिक्षाचर्या में प्रचुर भिक्षा मिलती देखकर सिद्ध किया जाय सुभिक्ष है तो वह प्रत्युत्पन्न काल ग्रहण है । `
३ अनागतकालग्रहण - बादलकी निर्मलता, कृष्ण पहाड, सविद्युत् मेय, मेघगर्जन,
१ " से जहाणामए केई पुरिसे कंचि पुरिसं बहूणं पुरिसाणं मज्झे पुण्वदिट्ठ पञ्चभिजाणिजा अयं से पुरिसे । बहूणं करिसावणाणं मज्झे पुष्वदिहं करिसावणं पञ्चभिजाणिजाअयं से करिसावणे ।"
२ उत्तणाणि बणाणि निष्पण्णसस्सं वा मेणि पुण्णाणि अ कुण्ड-सर-इ-दीहिभातडागाई पालिता तेणं साहिजा जहा सुवुट्टी आसी । ३ “साहुं गोअरग्गगयं बिच्छड्डिअपरभतपाणं पासिता तेणं साहिजद्द जहा सुभिक्खे वहई ।"
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अनुमानचर्चा |
वातोद्धम, रक्त और प्रस्निग्ध सन्ध्या, वारुण या माहेन्द्र सम्बन्धी या और कोई प्रशस्त उत्पात - इनको देखकर जब सिद्ध किया जाय कि सुवृष्टि होगी - यह अनागतकालग्रहण है ।
उक्त लक्षणोंका विपर्यय देखनेमें आवे तो तीनों कालोंके ग्रहणमें भी विपर्यय हो जाता है। अर्थात् अतीत कुदृष्टिका, वर्तमान दुर्भिक्षका और अनागत कुवृष्टिका अनुमान होता है यह भी अनुयोगद्वार में सोदाहरण' दिखाया गया है ।
कालमेदसे तीन प्रकारका अनुमान होता है इस मतको चरकने भी खीकार किया है -
"प्रत्यक्ष पूर्व त्रिविधं त्रिकालं चाऽनुमीयते । गूढो धूमेन मैथुनं गर्भदर्शनात् ॥ २१ ॥ एवं व्यवस्यन्त्यतीतं बीजात् फलमनागतम् । बीजात् फलं जातमिहैव सदृशं बुधाः " ॥ २२ ॥ चरक सूत्रस्थान अ० ११
अनुयोगगत अतीतकालग्रहण और अनागतकालग्रहणके दोनों उदाहरण माठर में पूर्ववत् के उदाहरणरूपसे निर्दिष्ट हैं जब कि स्वयं अनुयोगने अभ्रविकारसे वृष्टिके अनुमानको शेषवत् माना है। तथा न्यायभाष्यकारने नदीपूरसे भूतवृष्टिके अनुमानको शेषवत् माना है ।
(ऊ) अवयवचर्चा ।
अनुमानप्रयोग या न्यायवाक्यके कितने अवयव होने चाहिए इस विषयमें मूल आगमों में कुछ नहीं कहा गया है । किन्तु आ० भद्रबाहुने दशवैकालिक नियुक्तिमें अनुमानचर्चा में न्यायवाक्यके अवयवोंकी चर्चा की है । यद्यपि संख्या गिनाते हुए उन्होंने पांच' और दश "अत्रयव होनेकी बात कही है किन्तु अन्यत्र उन्होने मात्र उदाहरण या हेतु और उदाहरण से भी अर्थसिद्धि होनेकी बात कही है" । दश अवयववोंको भी उन्होंने दो प्रकारसे गिनाए हैं । इस प्रकार भद्रबाहुके मतमें अनुमानवाक्यके दो, तीन, पांच, दश, दश इतने अवयव होते हैं ।
प्राचीन वादशास्त्रका अध्ययन करने से पता चलता है कि शुरू में किसी साध्य की सिद्धिमें हेतुकी अपेक्षा दृष्टांतकी सहायता अधिकांशमें ली जाती रही होगी । यही कारण है कि बादमें जब हेतुका स्वरूप व्याप्तिके कारण निश्चित हुआ और हेतुसे ही मुख्यरूप से साध्यसिद्धि मानी जाने लगी तथा हेतु सहायकरूपसे ही दृष्टान्त या उदाहरण का उपयोग मान्य रहा तब केवल दृष्टान्तके बलसे की जानेवाली साध्यसिद्धिको जात्युत्तरों में समाविष्ट किया जाने लगा । यह स्थिति न्यायसूत्रमें स्पष्ट है । अत एव मात्र उदाहरणसे साध्यसिद्धि होनेकी भद्रवाहुकी बात किसी प्राचीन परंपराकी ओर संकेत करती है ऐसा मानना चाहिए ।
, "अम्भस्स निम्मलत्तं कसिणा या गिरी सविज्जुआ मेहा । थणियं वा उभामो संज्ञा रता पणिट्ठा (द्धा) या ॥ १ ॥ वारुणं वा महिंदं वा अण्णयरं वा पसस्थं उप्पायं पासित्ता तेणं साहिजा जहा - सुवुट्टी भविस्सह । " २" पर्सि चेव विवज्जासे तिविहं गहणं भवद्द, तं जहा" इत्यादि ।
३ दश० नि० ५० | या० ८९ से ९१ । ४ गा० ५० गा० ९२ से । १२ से तथा १३७ ।
५ ० ४९ । ६ गा०
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प्रस्तावना।
आचार्य मैत्रेयने अनुमानके प्रतिज्ञा हेतु और दृष्टांत ऐसे तीन अवयव माने हैं । भद्रबाहुने भी उन्ही तीनोंको निर्दिष्ट किया है । माठर और दिग्नागने भी पक्ष, हेतु और दृष्टान्त ये तीन ही अवयव माने हैं और पांच अवयवोंका मतान्तर रूपसे उल्लेख किया है।
पांच अवयवोंमें दो परंपराएँ हैं एक माठरनिर्दिष्ट और प्रशस्तसंमत तथा दूसरी न्यायसूत्रादि संमत । भद्रबाहुने पांच अवयवोंमें न्यायसूत्रकी परंपराका ही अनुगमन किया है । पर दश अवयवोंके विषयमें भद्रबाहुका खातथ्य स्पष्ट है । न्यायभाष्यकारने भी दश अवयवोंका उल्लेख किया है किन्तु भद्रबाहुनिर्दिष्ट दोनों दशप्रकारोंसे वात्स्यायनके दशप्रकार भिन्न हैं। इस प्रकार हम देखते है कि न्यायवाक्यके दश अवयवोंकी तीन परंपराएँ सिद्ध होती हैं। यह बात नीचे दिये जानेवाले नकशे से स्पष्ट हो जाती है
मैत्रेय माठर दिमाग प्रशस्त न्यायसूत्र न्यायमाष्य
पक्ष
प्रतिज्ञा
हेतु
प्रतिज्ञा पक्ष
प्रतिज्ञा प्रतिज्ञा प्रतिज्ञा अपदेश
हेतु हेतु दृष्टान्त दृष्टान्त दृष्टांत निदर्शन
उदाहरण उदाहरण उदाहरण अनुसन्धान उपनय उपनय उपनय प्रत्याम्नाय निगमन निगमन निगमन
जिज्ञासा संशय शक्यप्राति
प्रयोजन
संशयव्युदास भद्रबाहु
१० प्रतिज्ञा प्रतिज्ञा
प्रतिज्ञा प्रतिज्ञा
प्रतिज्ञा उदाहरण हेतु
प्रतिज्ञाविशुद्धि प्रतिज्ञाविभक्ति उदाहरण. दृष्टांत उपसंहार हेतुविशुद्धि
हेतुवि० निगमन दृष्टान्त
विपक्ष दृष्टान्तविशुद्धि प्रतिषेध उपसंहार
दृष्टांत उपसंहारविशुद्धि आशंका निगमन
तत्प्रतिषेध निगमनविशुद्धि
निगमन J. R. A.S, 1929, P. 476। २ प्रशस्तपादने उन्ही पांच अब को माना है जिनका निर्देश माठरने मतान्तररूपसे किया।
हेतु
हेतु
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औपन्यचर्चा । (9) हेतुचर्चा | स्थानांगसूत्रमें हेतुके निम्नलिखित चार भेद बताये गये हैं - १ ऐसा विधिरूप हेतु जिसका साध्य विधिरूप हो । २ ऐसा विधिरूप हेतु जिसका साध्य निषेधरूप हो । ३ ऐसा निषेधरूप हेतु जिसका साध्य विधिरूप हो। ४ ऐसा निषेधरूप हेतु जिसका साध्य निषेधरूप हो। स्थानांगनिर्दिष्ट इन हेतुओंके साथ वैशेषिकसूत्रगत हेतुओंकी तुलना हो सकती हैस्थानांग
वैशेषिकसूत्र हेतु-साध्य १.विधि-विधि
संयोगी, समवायी, एकार्थ समवायी ३.१.९
भूतो भूतस्य-३.१.१३ २ विधि-निषेध
भूतमभूतस्य-३.१.१२ ३ निषेध-विधि
अभूतं भूतस्य ३.१.११ ४ निषेध-निषेध
कारणाभावात् कार्याभावः
भागेकै बौद्ध और जैन दार्शनिकोंने हेतुओंको जो उपलब्धि और अनुपलब्धि ऐसे दो प्रकारों में विभक्त किया है उसके मूलमें वैशेषिकसूत्र और स्थानांगनिर्दिष्ट परंपरा हो तो आश्चर्य नहीं ।
(४) औपम्यचर्चा । अनुयोगद्वार सूत्रमें औपम्य दो प्रकारका है-१ साधोपनीत और २ वैधोपनीत । १ साधोपनीत तीन प्रकारका है(अ) किञ्चित्साधोपनीत । (भा) प्रायः साधोपनीत । (३) सर्वसाधम्योपनीत ।
(अ) किश्चित्साधोपनीत के उदाहरण हैं - जैसा मंदर-मेरु है वैसा सर्षप है, जैसा सर्षष है वैसा मंदर है; जैसा समुद्र है वैसा गोष्पद है, जैसा गोष्पद है वैसा समुद्र है । जैसा भादिस्य है वैसा खद्योत है, जैसा खद्योत है वैसा आदिल्य है । जैसा चन्द्र है वैसा कुमुद है, जैसा कुमुद है वैसा चन्द्र है।'
"महवा हेऊ चविहे पन्नते तं जहा-अस्थित्तं अस्थि सो हेऊ १, अस्थित्तं पत्थि सो हेऊ २, णत्थितं अत्थि सो हेऊ ३, णस्थित्तं णस्थि सो हेऊ।"
"जहा मंदरो तहा सरिसवो, जहा सरिसवो तहा मंदरो, जहा समुहो तहा गोप्ययं, महा गोप्ययं तहा समुहो । जहा आइचो तहा खजोतो, जहा खज्जोतो तहा भाइयो, जहा बन्यो तहा कुमुदो जहा कुमुदो तहा चम्दो।"
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प्रस्तावना ।
७९
( आ ) प्रायः साधर्म्यापनीत के उदाहरण हैं- जैसा गौ है वैसा गवय है, जैसा गवय है वैसा गौ है ।
(इ) सर्वसाधर्म्यापनीत - वस्तुतः सर्वसाधर्म्यापमान हो नहीं सकता है फिर भी किसी व्यक्तिकी उसीसे उपमा की जाती है ऐसा व्यवहार देखकर उपमान का यह मेद भी शास्त्र, कारने मान्य रखा है । इसके उदाहरण बताये हैं कि - अरिहंतने अरिहंत जैसा ही किया'चक्रवर्तीने चक्रवर्ती जैसा ही किया इत्यादि ।
२ वैधम्योपनीत भी तीन प्रकारका है -
( अ ) किश्चिद्वैधर्म्य.
(आ) प्रायो वैधर्म्य
(इ) सर्ववैध
( अ ) किञ्चिद्वैधर्म्य का उदाहरण दिया है कि जैसा शाबलेय है वैसा बाहुलेय नहीं । जैसा बाहुलेय है वैसा शाबलेय नहीं । '
( आ ) प्रायोवैधर्म्य का उदाहरण है जैसा वायस है वैसा पायस नहीं है । जैसा पायस है वैसा वायस नहीं है।
(इ) सर्ववैधर्म्य - सब प्रकारसे वैधर्म्य तो किसीका किसीसे नहीं होता । अत एव वस्तुतः यह उपमान बन नहीं सकता किन्तु व्यवहाराश्रित इसका उदाहरण शास्त्रकारने बताया है । इसमें खकीयसे उपमा दी जाती है - जैसे नीचने नीच जैसा ही किया, दासने दास जैसा ही किया । इत्यादि ।
शास्त्रकारने सर्ववैधर्म्यका जो उक्त उदाहरण दिया है उसमें और सर्वसाधर्म्यके पूर्वोक्त उदाहरणमें कोई भेद नहीं दिखता । वस्तुतः प्रस्तुत उदाहरण सर्वसाधर्म्यका हो जाता है ।
न्यायसूत्रमें उपमानपरीक्षामें पूर्वपक्षमें कहा गया है कि अत्यन्त मायः और एकदेशसे जहाँ ras उपमान प्रमाण हो नहीं सकता है । इत्यादि । यह पूर्वपक्ष अनुयोगगत साधम्योपमानके तीन भेद की किसी पूर्वपरंपराको लक्ष्यमें रख कर ही किया गया है यह उक्त सूत्रकी व्याख्या देखनेसे स्पष्ट हो जाता है। इससे फलित यह होता है कि अनुयोगका उपमान वर्णन किसी प्राचीन परंपरानुसारी हैं। ..
(५) आगमचर्चा |
अनुयोगद्वारमें आगमके दो भेद किये गये हैं (अ.) लौकिक ( आ ) लोकोत्तर |
(अ) लौकिक आगममें जैनेतर शास्त्रोंका समावेश अभीष्ट है जैसे महाभारत, रामायण, वेद आदि और ७२ कलाशास्त्रों का समावेश भी उसीमें किया है ।
१ " जहा गो तहा गवओ, जहा गवभो तहा गो ।” २ " सव्वसाहम्मे ओवम्मे नत्थि, तहावि तेणेव तस्स ओवम्मं कीरह जहा अरिहंतेहिं अरिहंतसरिसं कयं" इत्यादि -
"जहा सामले न तहा बाहुलेरो, जहा बाहुलेरो न तहा सामलेरो ।” ४ " जहा arrer न तथा पायसो, जहां पायलो न तहा वायसो ।" ५ " सव्वषेहम्मे ओवम्मे नत्थ तावि तेणेव तस्स ओवम्मं कीरह, जहा णीपण णीअसरिसं कथं, दासेण दाससरिसं कथं ।" इत्यादि । ६ देखो, टिप्पण- पृष्ठ २२२-२२३ ॥
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आगमचर्षा ।
(आ) लोकोत्तर आगममें जैनशास्त्रोंका समावेश है। लौकिक आगमोंके विषयमें कहा गया है कि अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीवोंने अपने स्वच्छन्दमति - विकल्पोंसे बनाये हैं । किन्तु लोकोत्तर - जैन आगमके विषयमें कहा है कि वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी पुरुषोंने बनाये हैं । आगमके भेद एक अन्य प्रकारसे भी किये गये हैं- जैसे
(१) आत्मागम ।
(२) अनन्तरागम । (३) परंपरागम ।
सूत्र और अर्थकी अपेक्षासे आगमका विचार किया जाता है। क्योंकि यह माना गया है। कि तीर्थकर अर्थका उपदेश करते है जब कि गणधर उसके आधारसे सूत्रको रचना करते हैं अत एव अर्थरूप आगम स्वयं तीर्थकरके लिये आत्मागम और सूत्ररूप आगम गणधरोंके लिये आत्मागम है । अर्थका मूल उपदेश तीर्थकर का होनेसे गणधरके लिये वह आत्मागम नहीं किन्तु गणधरोंको ही साक्षात् लक्ष्यकरके अर्थका उपदेश दिया गया है अत एव अर्थागम गणघरके लिये अनन्तरागम है गणधरशिष्योंके लिये अर्थरूप आगम परंपरागम है क्योंकि तीर्थकर से गणधरोंको प्राप्त हुआ और गणधरोंसे शिष्योंको । सूत्ररूप आगम गणधर शिष्योंके लिये अनन्त - रागम है क्योंकि सूत्रका उपदेश गणधरोंसे साक्षात् उनको मिला है। गणधरशिष्योंके बादमें होनेवाले आचायोंके लिये सूत्र और अर्थ उभयरूप आगम परंपरागम ही है
-
तीर्थकर
गणधर गणधर शिष्य
गणधर शिष्यशिष्य
आत्मागम,
अर्थागम
सूत्रागम
x
x
अनन्तरागम,
x
अर्षाणम
सूत्रागम
X
परंपरागन
X
आदि
मीमांसकके सिवाय सभी दार्शनिकोंने आगमको पौरुषेय ही माना है । और समीने अपने अपने इष्ट पुरुषको ही आप्त मानकर अन्यको अनाप्त सिद्ध करनेका प्रथम किया है । अन्ततः समीको दूसरोंके सामने आगमका प्रामाण्य अनुमान और युक्तिसे आगमोंक बातोंकी संगति दिखाकर स्थापित करना ही पडता है। यही कारण है कि निर्युक्तिकारने आगमको स्वयंसिद्ध मानकर मी हेतु और उदाहरणकी भावश्यकता, आगमोक्त बातोंकी सिद्धिके लिये स्वीकार की है -
X
अर्थागम सूत्रागम, अर्थागम
"जिणवयणं सिद्धं चैव भण्णय कत्थई उदाहरणं । मासा उ सोयारं हेऊ वि कहिंचि भण्णेजा ॥" दश० नि० ४९ ।
किस पुरुषका बनाया हुआ शास्त्र आगमरूपसे प्रमाण माना जाय इस विषयमें जैनोंने अपना जो अभिमत आगमिककालमें स्थिर किया है उसे भी बता देना आवश्यक है । सर्वदा यह तो संभव नहीं कि तीर्थप्रवर्तक और उनके गणधर मौजुद रहें और शंकास्थानोंका समाधान करते रहें । इसी आवश्यकतामेंसे ही तदतिरिक्त पुरुषोंको मी प्रमाण माननेकी परंपराने जन्म
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प्रस्तावना ।
८१
लिया और गणधरप्रणीत आचारांग आदि अंगशास्त्रोंके अलावा स्थविरप्रणीत अन्यशास्त्र मी आगमान्तर्गत होकर अंगबाह्यरूपसे प्रमाण माने जाने लगे -
"सुतं गणधरकथिदं तहेव पन्तेयबुद्धकथिदं च । सुदवलिणा कथिदं अभिष्णदसपुष्वकथिदं चे ॥"
इस गाथा के अनुसार गणधरकथित के अलावा प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली और दशपूर्वीके द्वारा कथित भी सूत्र आगम में अन्तर्भूत है । प्रत्येकबुद्ध सर्वज्ञ होनेसे उनका वचन प्रमाण है । जैन परंपरा के अनुसार अंगबाह्य ग्रन्थोंकी रचना स्थविर करते हैं। ऐसे स्थविर दो प्रकारके होते हैं। संपूर्ण श्रुतज्ञानी और कमसे कम दशपूर्वी । संपूर्ण श्रुतज्ञानीको चतुर्दशपूर्वी श्रुतकेबली कहते हैं । श्रुतवली गणधरप्रणीत संपूर्ण द्वादशांगीरूप जिनागमके सूत्र और अर्थके विषयमें निपुण होते हैं । अत एव उनकी ऐसी योग्यता मान्य है कि वे जो कुछ कहेंगे या लिखेंगे उसका द्वादशाङ्गी रूप जिनागमके साथ कुछ भी विरोध हो नहीं सकता। जिनोक्त विषयोंका संक्षेप या विस्तार करके तत्तत्कालीन समाजके अनुकूल ग्रन्थरचना करना ही उनका प्रयोजन होता है। अत एव संघने ऐसे प्रन्थोंको सहज ही में जिनागमान्तर्गत कर लिया है। इनका प्रामाण्य स्वत भावसे नहीं किन्तु गणधरप्रणीत आगम के साथ अविसंवादके कारण है ।
कसे जैन संघ वीर नि० १७० वर्षके बाद श्रुतकेवलीका भी अभाव होगया और सिर्फ दर्शपूर्वधर ही रहगए तब उनकी विशेषयोग्यताको ध्यान में रखकर जैन संघने दशपूर्वधरप्रथित प्रन्थोंको मी आगममें शामिल कर लिया । इन ग्रन्थोंका भी प्रामाण्य स्वतप्रभावसे नही किन्तु गणधरप्रणीत आगमके साथ अविरोधमूलक है ।
जैनोंकी मान्यता है कि चतुर्दशपूर्वधर और दर्शपूर्वधर वेही साधक हो सकते हैं जिनमें नियमतः सम्यग्दर्शन होता है'। अतएव उनके ग्रन्थोंमे आगमविरोधी बातोंकी संभावना ही नहीं है ।
आगे चलकर ऐसे कई आदेश जिनका समर्थन किसी शास्त्रसे नहीं होता है किन्तु जो स्थविरोने अपनी प्रतिभाके बलसे किसी विषय में दी हुई संमतिमात्र हैं, उनका समावेश भी अंगबाह्य आगममें करलिया गया है। इतना ही नही कुछ मुक्तकों को भी उसीमे स्थान प्राप्त हैं ।
अमीत हमने आगमके प्रामाण्य-अप्रामाण्यका जो विचार किया है वह वक्ताकी दृष्टिसे । अर्थात किस वक्त वचनको व्यवहारमें सर्वथा प्रमाण माना जाय । किन्तु आगमके प्रामाण्य या अप्रामाण्यका एक दूसरी दृष्टिसे मी अर्थात् श्रोताकी दृष्टिसे भी आगमों में विचार हुआ है उसे भी बताना जरूरी है।
शब्द तो निर्जीव हैं और सभी सांकेतिक अर्थके प्रातिपादनकी योग्यता रखते हैं अतएव सर्वार्थक भी हैं। ऐसी स्थिति में निश्वयदृष्टि से विचार करने पर शब्दका प्रामाण्य जैसा मीमांसक मानता है स्वतः नहीं किन्तु प्रयोक्ता के गुण के कारण सिद्ध होता है। इतना ही नहीं बल्कि श्रोता या पाठकके गुणदोषके कारण मी प्रामाण्य या अप्रामाण्यका निर्णय करना
१ मूलाचार ५.८० । अथधवला टीकामें उद्धृत है पृ० १५३ । मोघनियुक्तिकी टीकामें भी वह उत है पृ० ३ । २ विशेषा० ५५० । बृहत्० १४४ । तस्वार्थ भा० १.२० । सर्वार्थ० १.२० । ३ बृहत्० १३२ । ४ बृहत् १४४ और उसकी पादढीप । विशेषा० ५५० ।
I
न्या० प्रस्तावना ११
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८२
वादका महत्व |
पडता है । अत एव यह आवश्यक हो जाता है कि वक्ता और श्रोता दोनोंकी दृष्टिसे आगमके प्रामाण्यका विचार किया जाय।
शास्त्रकी रचना निष्प्रयोजन नही किन्तु श्रोताको अभ्युदय और निःश्रेयस मार्गका प्रदर्शन करने की दृष्टिसे ही है - यह सर्वसंमत है । किन्तु शास्त्रकी उपकारकता या अनुपकारकता मात्र शब्दों पर निर्भर न होकर श्रोताकी योग्यता पर भी निर्भर है। यही कारण है कि एकही शास्त्रवचनके नाना और परस्पर विरोधी अर्थ निकालकर दार्शनिक लोग नानामतवाद खडे कर देते हैं । एक भगवद्गीता या एकही ब्रह्मसूत्र कितने विरोधी वादोंका मूल बना हुआ है। अतः श्रोताकी दृष्टिसे किसी एक ग्रन्थको नियमतः सम्यक् या मिथ्या कहना या किसी एक प्रन्थको ही आगम कहना निश्चयदृष्टिसे भ्रमजनक है। यही सोचकर मूल ध्येय भुक्तिकी पूर्ति में सहायक ऐसे सभी शास्त्रोंको जैनाचार्योंने सम्यक् या प्रमाण कहा है ऐसा व्यापक दृष्टिबिन्दु आध्यात्मिक दृष्टिसे जैन परंपरामें पाया जाता है । इस दृष्टिके अनुसार वेदादि सब शाम जैनको मान्य हैं । जिस जीवकी श्रद्धा सम्यकू है उसके सामने कोई मी शास्त्र आ जाय वह उसका उपयोग मोक्ष मार्गको प्रशस्त बनाने में ही करेगा । अतएव उसके लिये सब शास्त्र प्रामाणिक हैं, सम्यक् हैं किन्तु जिस जीवकी श्रद्धा ही विपरीत है यानी जिसे मुक्तिकी कामना ही नहीं उसके लिये वेदादि तो क्या तथाकथित जैनागम भी मिथ्या हैं, अप्रमाण हैं। इस दृष्टिबिन्दुमें सत्यका आग्रह है, सांप्रदायिक कदाग्रह नहीं - "भारहं रामायणं...... चचारि य या संगोवंगा - एयाई मिच्छादिट्ठिस्स मिच्छत्तपरिग्गहियाई मिच्छासुयं । एवाई बेव सम्मदिट्ठिस्स सम्मत परिन्गहियाई सम्मसुर्य - नंदी - ४१ ।
[३] जैन आगमोंमें वाद और वादविद्या -
९१ वादका महत्व |
जैनधर्म आचारप्रधान है किन्तु देशकालकी परिस्थिति का असर उसके ऊपर न हो यह कैसे हो सकता है ? स्वयं भगवान् महावीरको भी अपनी धर्मदृष्टिका प्रचार करनेके लिये अपने चारित्रबलके अलावा वाक्बलका प्रयोग करना पडा है। तब उनके अनुयायी मात्र चारित्रबलके सहारे जैनधर्मका प्रचार और स्थापन करें यह संभव नहीं ।
लोग जिज्ञासा
भगवान् महावीरका तो युग ही, ऐसा मालूम देता है कि, जिज्ञासाका था। तृप्ति के लिए इधर उधर घूमते रहे और जो मी मिला उससे प्रश्न पूछते रहे । लोक कोरे 1 कर्मकाण्ड - यज्ञयागादिसे हट करके तत्त्वजिज्ञासु होते जा रहे थे। वे अकसर किसी की बातके तभी मानते जबकि वह तर्ककी कसौटी पर खरी उतरे अर्थात अहेतुवादके स्थान में हेतुवादका महत्व बढता जा रहा था। कई लोग अपने आपको तत्वद्रष्टा बताते थे । और अपने तस्वदर्शनको लोगों में फैलाने के लिये उत्सुकतापूर्वक इधर से उधर विहार करते थे और उपदेश देते थे । या जिज्ञासु स्वयं ऐसे लोगोंका नाम सुनकर उनके पास जाता था और नानाविध प्रश्न पूछता था । जिज्ञासुके सामने नानामतवादों और समर्थक युक्तिओंकी धारा बहती रही । कमी जिज्ञासु उन मतोंकी तुलना अपने आप करता था तो कभी तत्वद्रष्टा ही दूसरोंके मतकी त्रुटि दिखा करके अपने मतको श्रेष्ठ सिद्ध करते रहे । ऐसेही वादप्रतिवादमेंसे वादके नियमोपनियमोंका विकास हो कर क्रमशः वादका भी एक शास्त्र बन गया । न्यायसूत्र, चरक या प्राचीन
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प्रस्तावना।
बौद्ध तर्कशास्त्रमें वादशास्त्रका जो विकसित रूप देखा जाता है उसकी पूर्वभूमिका जैन आगम
और बौद्धपिटकों में मौजूद है । उपनिषदोंमें वादविवाद तो बहुतेरे हैं किन्तु उन वादविवादोंके पीछे कोनसे नियम काम कर रहे हैं इसका जिक्र नहीं । अतएव बादविद्याके नियमोंका प्राचीन रूप देखना हो तो जैनागम और बौद्ध पालि त्रिपिटक ही की शरण लेनी पडती है । इसीसे वाद और वादशासके पदार्थोंके विषयमें जैनागमका आश्रयण करके कुछ लिखना अप्रस्तुत न होगा। ऐसा करनेसे यह ज्ञात हो सकेगा कि वादशास्त्र पहिले कैसा अव्यवस्थित था और किस तरह बादमें व्यवस्थित हुआ । तथा जैनदार्शनिकोंने अपने ही आगमगत पदार्थो से क्या छोडा और क्या किस रूपमें कायम रखा ।
कथासाहित्य और कथापद्धतिके वैदिक, बौद्ध और जैनपरंपरागत विकासकी रूपरेखाका चित्रण पं० सुखलालजीने विस्तारसे किया है । विशेष जिज्ञासुओंको उसीको देखना चाहिए । प्रस्तुतमें जैनभागमको केन्द्रमें रखकर ही कथा या वादमें उपयुक्त ऐसे कुछ पदार्थोका निरूपण करना इष्ट है।
श्रमण और ब्राह्मण अपने अपने मतकी पुष्टि करनेके लिये विरोधिओंके साथ वाद करते हुए और युक्तिओंके बलसे प्रतिवादीको परास्त करते हुए बौद्धपिटकोंमें देखे जाते हैं। जैनागममें भी प्रतिवादिओंके साथ हुये श्रमणों, श्रावको और स्वयं भगवान् महावीरके वादोंका वर्णन आता है। उपासकदशांगमें गोशालकके उपासक सद्दालपुत्तके साथ नियतिवादके विषयमें हुए भगवान् महावीरके वादका अत्यंत रोचक वर्णन है- अध्य० ७ । उसी सूत्रमें उसी विषयमें कुंडकोलिक और एक देवके बीच हुए वादका भी वर्णन है - अ०६।
जीव और शरीर भिन्न हैं इसविषयमें पार्थानुयायी केशीश्रमण और नास्तिक राजा पएसीका वाद रायपसेणइय सूत्रमें निर्दिष्ट है । ऐसा ही वाद बौद्धपिटकके दीघनिकायमें पायासीसुत्तमें मी निर्दिष्ट है।
सूत्रकृतांगमें आर्य अबका अनेक मतवादिओंके साथ नानामन्तव्योंके विषयमें जो वाद हुआ है उसका वर्णन है-सूत्रकृतांग २.६ ।
भगवतीसूत्रमें लोककी शाश्चतता और अशाश्वतता, सान्तता और अनन्तताके विषय में जीवकी सान्तता, अनन्तता, एकता, अनेकता आदिके विषयमें; कर्म खकृत है, परकृत है कि उभयकृत हैक्रियमाण कृत है कि नहीं; इत्यादि विषयमें भगवान महावीरके अन्यतीर्थिकोंके साथ हुए वादोंका तथा जैन श्रमणोंके अन्यतीर्थिकोंके साथ हुए वादोंका विस्तृत वर्णन पदपदपर मिलता है - देखो स्कंधक, जमाली आदिकी कथाएँ।
उत्तराध्ययनगत पार्थानुयायी केशी-श्रमण और भगवान् महावीरके प्रधान शिष्य गौतमके बीच हुआ जैन-आचारविषयक वाद सुप्रसिद्ध है - अध्ययन-२३ । ___ भगवतीसूत्रमें भी पार्थानुयायिओंके साथ महावीरके श्रावक और श्रमणोंके वादोंका जिक्र अनेक स्थानोंपर है-भगवती १.९:२.५,५.९,९.३२ ।
पुरातत्त्व २.३. में 'कथापद्धतिर्नु स्वरूप भने तेना साहित्यनुं दिग्दर्शन' तथा प्रमाणमीमांसाभाषा टिप्पण पृ०१०८-१२४ ।
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वादका महत्व ।
सूत्रकृतांग में गौतम और पार्श्वानुयायी उदक पेढालपुत्तका वाद मी सुप्रसिद्ध है - सूय०२.७ । गुरुशिष्य के बीच होनेवाला वाद वीतरागकथा कही जाती है क्योंकि उसमें जय-पराजयको अवकाश नहीं । इस वीतरागकथासे तो जैन आगम भरे पडे हैं । किन्तु विशेषतः इसके लिये भगवतीसूत्र देखना चाहिए । उसमें भगवान् के प्रधान शिष्य गौतमने मुख्यरूप से तथा प्रसंगतः अनेक अन्य शिष्योंने अनेक विषयोंमें भगवान् से प्रश्न पूछे हैं और भगवान्ने अनेक हेतुओं और दृष्टान्तोंके द्वारा उनका समाधान किया है ।
८४
इन सब वादोंसे स्पष्ट है कि जैन श्रमणों और श्रावकोंमें वादकलाके प्रति उपेक्षाभाव नहीं था । इतनाही नहीं किन्तु धर्मप्रचारके साधनरूपसे वादकलाका पर्याप्तमात्रामें महत्व था । यही कारण है कि भगवान् महावीरके ऋद्धिप्राप्त शिष्योंकी गणनामें वादप्रवीणशिष्योंकी पृथकू गणना की है। इतना ही नही किन्तु सभी तीर्थकरोंके शिष्योंकी गणनामें वादिओंकी संख्या पृथक् बतलाने की प्रथा हो गई है'। भगवान् महावीरके शिष्यों में वादीकी संख्या बताते हुए स्थानांग में कहा है
1
"समणस्स णं भगवओ महावीरस्स चत्तारिसया वादीणं सदेवमणुयासुराते परिसाते अपराजियाणं उक्कोसिता वादिसंपया हुत्या " - स्थानांग ३८२ । यही बात कल्पसूत्रमें (सू० १४२ ) भी है ।
स्थानांगसूत्रमें जिन नव प्रकारके निपुण पुरुषोंको गिनाया है उनमें भी याद विद्याविशार दका स्थान है - सू० ६७९ ।
धर्मप्रचारमें वाद मुख्य साधन होनेसे वादविद्यामें कुशल ऐसे वादी साधुओंके लिये आचारके कठोर नियम भी मृदु बनाये जातेथे इसकी साक्षी जैनशास्त्र देते हैं । जैनआचारके अनुसार शरीरशुचिता परिहार्य है । साधु स्नानादि शरीर संस्कार नहीं कर सकता, इसी प्रकार स्निग्धभोजनकी भी मनाई है । तपस्याके समय तो और भी रूक्ष भोजनका विधान है। साफ-सुथरे कपडे पहनना भी अनिवार्य नहीं । पर कोई पारिहारिक तपस्वी साधु वादी हो और किसी सभामें वादके लिये जाना पडे तब सभाकी दृष्टिसे और जैनधर्मकी प्रभावनाकी दृष्टिसे उसे अपना नियम मृदु करना पडता है तब वह ऐसा कर लेता है । क्यों कि यदि वह सभायोग्य शरीरसंस्कार नहीं कर लेता तो विरोधिओंको जुगुप्साका एक मौका मिल जाता है । मलिनवस्त्रोंका प्रभाव भी सभाजनों पर अच्छा नहीं पडता अत एव वह साफ सुथरे कपडे पहन कर सभामें जाता है। रूक्षभोजन करनेसे बुद्धिकी तीव्रतामें कमी न हो इसलिये वाद करनेके प्रसंग में प्रणीत अर्थात् स्निग्ध भोजन लेकर अपनी बुद्धिको सरवशाली बनानेका यत्न करता है । ये सब सकारण आपवादिक प्रतिसेवना हैं । प्रसंग पूर्ण हो जाने पर गुरु उसे अपवादसेवनके लिये हलका प्रायश्चित्त दे करके शुद्ध कर लेता है ।
सामान्यतः नियम है कि साधु अपने गण-गच्छको छोड़ कर अन्यत्र न जाय किन्तु ज्ञानदर्शन और चारित्रकी वृद्धिकी दृष्टिसे अपने गुरुको पूछ कर दूसरे गणमें जा सकता है । दर्शनको लक्ष्य में रख कर अन्य गणमें जानेके प्रसंगमें स्पष्टीकरण किया गया है कि यदि
१ कल्पसूत्र सू० १६५ इत्यादि । २ " पाया वा दंतासिया ड. धोया, वा बुद्धिहेतुं व पणीयभतं । तंबातिगं वा महससहेडं सभाजपट्टा सिचयं न सुकं ॥" बृहत्कल्पभाष्य ६०३५ ।
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८५
स्वगणमें दर्शनप्रभावक' शास्त्र ( सन्मत्यादि ) का कोई ज्ञाता न हो तो जिस गणमें उसका ज्ञाता हो वहाँ जाकर पढ सकता है। इतना ही नहीं किन्तु दूसरे आचार्यको अपना गुरु या उपाध्यायका स्थान भी हेतुविद्या के लिये दे तो अनुचित नहीं समजा जाता । ऐसा करनेके पहले आवश्यक है कि यह अपने गुरु या उपाध्यायकी आज्ञा ले ले । बृहत्कल्पभाष्य में कहा है कि " विज्जामंत निमित्ते हेउसत्थट्ठ दंसणट्टाए" बृहत्कल्पभाष्य गा० ५४७३ ।
अर्थात् दर्शनप्रभावना की दृष्टिसे विद्या - मन्त्र-निमित्त और हेतुशास्त्र के अध्ययन के लिये कोई साधु दूसरे आचार्योपाध्यायको भी अपना आचार्य वा उपाध्याय बना सकता है ।
अथवा जब कोई शिष्य देखता है कि तर्कशास्त्र में उसके गुरुकी गति न होनेसे दूसरे मतवाले उनसे वाद करके उन तर्कानभिज्ञ गुरुको नीचा गिरानेका प्रयत्न करते हैं तब वह गुरुकी अनुज्ञा लेकर गणान्तरमें तर्कविद्यामें निपुण होनेके लिये जाता है या स्वयं गुरु उसे भेजतें है । ' अंतमें वह तर्कनिपुण होकर प्रतिवादिओंको हराता है। और इस प्रकार दर्शनप्रभावना करता है । यदि किसी कारणसे आचार्य दूसरे गणमें जानेकी अनुज्ञा न देते हों तब भी दर्शनप्रभा - वना की दृष्टिसे बिना आज्ञाके भी वह दूसरे गणमें जाकर वादविद्यामें कुशलता प्राप्त कर सकता है । सामान्यतः अन्य आचार्य विना आज्ञा के आये हुए शिष्यको स्वीकार नहीं कर सकते किन्तु ऐसे प्रसंग में वह भी उसे स्वीकार करके दर्शनप्रभावना की दृष्टिसे तर्क विद्या पढानेके लिये बाध्य हैं।
प्रस्तावना ।
विना कारण श्रमण रथयात्रामें नहीं जासकता ऐसा नियम है। क्योंकि रथयात्रामें शामिल होनेसे अनेक प्रकारके दोष लगते हैं - ( बृहत् गा० १७७१ से ) । किन्तु कारण हो तो रथयात्रामें अवश्य जाना चाहिए यह अपवाद है । यदि नहीं जाता है तो प्रायश्चित्तभागी होता है ऐसा स्पष्ट विधान है - "कारणेषु तु समुत्पन्नेषु प्रवेष्टव्यम् यदि न प्रविशति तदा चत्वारो लघवः ।" बृहत्० टी० गा० १७८९ ।
रथयात्रामें जानेके अनेक कारणोंको गिनाते हुए बृहत्कल्पके भाग्य में कहा गया है कि" मा परवाई विग्धं करिज वाई अओ विसह ॥ १७९२ ॥"
अर्थात् कोई परदर्शनका वादी रथयात्रामें विघ्न न करे इस लिये वादविद्यामें कुशल वादी श्रमणको रथयात्रामें अवश्य जाना चाहिए । उनके जानेसे क्या लाभ होता है उसे बताते हुए कहा है
"नवधम्माण थिरक्तं पभावणा सासणे य बहुमाणो ।
अभिगच्छन्ति य विदुसा अविग्धपूया य सेयार ॥ १७९३ ॥"
वादी श्रमणके द्वारा प्रतिवादीका जब निग्रह होता है तब अभिनव श्रावक अन्य धार्मिकका पराभव देखकर जैन धर्ममें दृढ हो जाते हैं। जैन धर्मकी प्रभावना होती है। लोक कहने लग जाते हैं कि जैन सिद्धांत अप्रतिहत है इसी लिये ऐसे समर्थ वादिने उसे अपनाया है । दूसरे लोग भी वादको सुनकर जैन धर्मके प्रति आदरशील होते हैं । वादीका वैदग्ध्य देखकर दूसरे विद्वान् उनके पास आने लगते हैं और धीरे धीरे जैन धर्मके अनुयायी हो जाते हैं । इस प्रकार इन आनुषंगिक लाभोंके अलावा रथयात्रामें श्रेयस्कर पूजाकी निर्विघ्नता का लाभ भी हैं । अत एव वादीको रथयात्रामें अवश्य जाना चाहिए ।
१ वही ५४२५ । २ वही ५४२६-२७ । ३ वही गा० ५४३९ ।
४ गा० १७९० ।
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હું
निम्नलिखत श्लोक में धर्मप्रभावकों में वादीको भी स्थान मिला है ।
"प्रवचनी धर्मकथी वादी नैमित्तिकस्तपस्वी च । freera कविः प्रवचनमुद्भावयन्त्येते ॥”
कभी कभी ध्यान खाध्याय छोडकर ऐसे वादिओंको वादकथामें ही लगना पडता था जिससे वे परेशान भी थे और गच्छ छोडकर किसी एकान्तस्थान में जानेकी वे सोचते थे । ऐसी स्थिति में गुरु उन पर प्रतिबन्ध लगाते थे कि मत जाओ। फिर भी वे स्वच्छन्द होकर गष्ठको छोड़कर चले जाते थे। ऐसा बृहत्कल्पके भाष्यसे पता चलता है - गा० ५६९१,५६९७ इमादि ।
६ २ कथा ।
स्थानांगसूत्र में कथाके तीन मेद बताये हैं। वे ये हैं -
"तिविहा कहा - अत्थकहा, धम्मका कामकहा । " सू० १८९ । इन तीनों में धर्मकथा ही यहाँ प्रस्तुत है । स्थानांगमें ( सू० २८२) धर्मकथाके मेदोपमेदोंका औ वर्णन है उसका सार नीचे दिया जाता है ।
धर्मकथा
१ आक्षेपणी
१ इहलोकमें
२
१ आचाराक्षे ०
२ व्यवहारा०
३ प्रज्ञप्ति ४ दृष्टिवाद
४ निर्वेदनी - किये
99
दुश्चरितका
कथा ।
35
२ विक्षेपणी
१ खसमय कह
कर परसमय कथन
२ परसमयकथनपूर्वक
39
३ परलोकमें
४
""
99
""
इसी प्रकार सुचरितकी मी चतुर्भगी होती है।
स्वसमय स्थापन ३ सम्यग्वादके कथनपूर्वक मिथ्यावादकथन
४ मिथ्यावादकथनपूर्वक
सम्यग्वादस्थापन
फल
"
39
इस लोक में
परलोकमें
इस लोक में
परलोकमें
३ संवेजनी १ इहलोकसं०
२ परलोकसं० ३ स्वशरीरसं०
४ परशरीरसं०
दुःखदायी
19
""
'इनमेंसे वादके साथ संबन्ध प्रथमकी दो धर्मकथाओंका है। संवेजनी और निर्वेदनी कथा तो घही है जो गुरु अपने शिष्यको संवेग और निर्वेदकी वृद्धिके लिये उपदेश देता है । आक्षेपणी कथा जो मेद हैं उनसे प्रतीत होता है कि यह गुरु और शिष्यके बीच होनेवाली धर्मकथा है ।
१ बृहद्० डी० गा० १०९८ में उद्धत ।
33
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प्रस्तावना ।
उसे जैनपरिभाषा में वीतराग कथा और न्यायशास्त्र के अनुसार तस्वबुभुत्सु कथा कहा जा सकता है । इसमें आचारादि विषयमें शिष्यकी शंकाओंका समाधान आचार्य करते हैं। अर्थात् आचारादिके विषयमें जो आक्षेप होते हों उनका समाधान गुरु करता है । किन्तु विक्षेपणी कथामें खसमय और परसमय दोनोंकी चर्चा है। यह कथा गुरु और शिष्यमें हो तब तो वह वीतरागकथा ही है पर यदि जयार्थी प्रतिवादी के साथ कथा हो तब वह वादकथा या विवाद कथामें समाविष्ट है । विक्षेपणीके पहले प्रकारका तात्पर्य यह जान पडता है कि वादी प्रथम अपने पक्षकी स्थापना करके प्रतिवादीके पक्ष में दोषोद्भावन करता है। दूसरा प्रकार प्रतिवादी को लक्ष्य में रखकर किया गया जान पडता है। क्योंकि उसमें परपक्षका निरास और बादमें खपक्षका स्थापन है । अर्थात् वह वादीके पक्षका निराकरण करके अपने पक्षकी स्थापना करता है । तीसरी और चौथी विक्षेपणी कथाका तात्पर्य टीकाकारने जो बताया है उससे यह जान पडता है कि वादी प्रतिवादीके सिद्धान्तमें जितना सम्यगंश हो उसका स्वीकार करके मिथ्यांश का निराकरण करता है और प्रतिवादी भी ऐसा ही करता है।
८७
निशीथभाष्य के पंचम उद्देशकमें ( पृ० ७६) कथाके मेद बताते हुए कहा है"वादो जप्प वितंडा पहण्णगकहा य णिच्छ्यकहा य ।"
इससे प्रतीत होता है कि टीकाके युगमें अन्यत्र प्रसिद्ध वाद, जल्प और वितण्डाने मी का स्थान पा लिया था । किन्तु इसकी विशेषचर्चा यहाँ प्रस्तुत नहीं । इतना ही प्रस्तुत है कि मूल आगममें इन कथाओंने जल्पादि नामोंसे स्थान नहीं पाया है ।
६३ विवाद |
स्थानांग सूत्रमें विवाद छ प्रकारोंका निर्देश है
"छबिहे विवादे पं० तं० १ असमतित्ता, २ उस्सकहता, ३ अपुलोमचा, ४ पडिलो. महता, ५ महत्ता, ६ मेलइत्ता ।" सू० ५१२.
ये विवाद के प्रकार नहीं है किन्तु वादी और प्रतिवादी विजयके लिये कैसी कैसी तरकीब किया करते थे, इसीका निर्देश मात्र है। टीकाकारने प्रस्तुतमें विवादका अर्थ जल्प किया है सो ठीक ही है। जैसे कि -
१ नियतसमयमें यदि वादीकी वाद करनेके लिये तैयारी न हो तो वह बहाना बनाकर सभास्थान से खिसक जाता है या प्रतिवादीको खिसका देता है जिससे वादमें विलम्ब होनेके कारण उसे तैयारीका समय मिल जाय ।
२ जब वादी अपने जय का अवसर देख लेता है तब वह स्वयं उत्सुकतासे बोलने लगता है या प्रतिवादीको उत्सुक बनाकर वादका शीघ्र प्रारंभ करा देता है।'
१ चरकके इस वाक्यके साथ उपर्युक्त दोनों विवादोंकी तुलना करना चाहिए
" परस्य साहण्यदोषबलमवेक्षितव्यम्, , समवेक्ष्य च यत्रैनं श्रेष्ठं मन्येत मास्य तत्र जल्पं योजयेद् अनाविष्कृतमयोगं कुर्वन् । यत्र त्वेनमवरं मन्येत तत्रैवेनमाशु निगृहीयात् ।" विमानस्थान अ० ८. सू० २१ ।
ऊपर टीकाकारके अनुसार अर्थ किया है किन्तु चरकको देखते हुए यह अर्थ किया जा सकता है कि जिसमें अपनी अयोग्यता हो उस बातको टाल देना और जिसमें सामनेवाला अयोग्य हो उसीमें विवाद करना ।
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वावदोष |
३ 'वादी सामनीति से विवादाध्यक्षको अपने अनुकूल बनाकर वादका प्रारंभ करता है । या प्रतिवादीको अनुकूल बनाकर वाद शुरू करदेता है और बादमें पड जानेके बाद उसे हराता है । ४ यदि वादी देखता है कि वह प्रतिवादीको हरानेमें सर्वथा समर्थ है तब वह सभापति और प्रतिवादीको अनुकूल बनानेकी अपेक्षा प्रतिकूल ही बनाता है और प्रतिवादी को हराता है।
५ अध्यक्षकी सेवाकरके किया जानेवाला वाद ।
.६ अपने पक्षपाती सभ्योंसे अध्यक्षका मेल कराके या प्रतिवादीके प्रति अध्यक्षको द्वेषी बनाकर किया जानेवाला वाद ।
वादी वाद शुरू होनेके पहले जो प्रपश्च करता है उसके साथ अन्तिम दो विवादों की तुलना की जा सकती है। ऐसे प्रपञ्चका जिक्र चरकमें इन शब्दोंमें है
"प्रागेव तावदिदं कर्तुं यतते सन्धाय परिषदाऽयनभूतमात्मनः प्रकरणमा देशवितव्यम्; यद्वा परस्य भृशदुर्ग स्यात् पक्षम्, अथवा परस्य भृशं विमुखमानयेत् । परिषदि चोपसंहितायामशक्यमस्माभिर्वकम् एबैव ते परिषद् यथेष्टं यथायोग्यं यथाभिप्रायं वाद वादमर्यादां च स्थापयिष्यतीत्युक्त्वा तूष्णीमासीत । विमानस्थान अ० ८. सू० २५ ।
६४ वाददोष ।
८८
स्थानांगसूत्रमें जो दश दोष गिनाए गए हैं उनका भी संबन्ध वाद कथासे' है अत एव यहाँ उन दोषोंका निर्देश करना आवश्यक है
"दसविहे दोसे पं० तं०
१ तज्जातदोसे, २ मतिभंगदोसे, ३ पसत्थारदोसे, ४ परिहरण दोसे ।
५. सलक्क्षण, ६ कारण, ७ हेउदोसे ८ संकामणं, ९ मिग्गह, १० वत्थुदोसे ॥"
सू० ७४३ ।
१ प्रतिषादिके कुलका निर्देश करके वादमें दूषण देना । या प्रतिवादिकी प्रतिभासे क्षोभ होनेके कारण वादीका चूप हो जाना तज्जातदोष है ।
२ वादप्रसंग प्रतिवादि या वादि का स्मृतिभ्रंश मतिभंग दोष है ।
३ वादप्रसंग में सभ्य या सभापति पक्षपाती होकर जयदान करे या किसीको सहायता दे तो वह प्रशांस्तृदोष है ।
१ चरक सम्भाव संभाषा वीतराग कथाको कहा है। उसका दूसरा नाम अनुलोम संभाषा भी उसमें है । विमानस्थान अ० ८. सू० १६ । प्रस्तुतमें टीकाकार के अनुसार अर्थ किया गया है किन्तु संभव है कि अणुको महत्ता इसका संबन्ध चरकका मनुकोमसन्धायसंभाषाके साथ हो । चरककृत व्याख्या इस प्रकार है
तत्र ज्ञानविज्ञानवचभप्रतिवचनशक्तिसंपजेना कोपनेनानुपस्कृत विद्येनानसूयकेनानुमेयेनातुमयकोषिदेन क्लेशक्षमेण प्रियसंभाषणेन च सह सन्धायसंभाषा विधीयते । तथाविधेन सह कथयन् विषन्धः कथयेत् पृच्छेदपि च विश्वन्धः, पृच्छते चास्मै विश्रब्धाय विशदमर्थ ब्रूयात्, न च निग्रहभयादुद्विजेत निगृह्य चैनं न हृष्येत् न च परेषु विकत्थेत न च मोहादेकान्तग्राही स्यात्, न चाविदितमर्थमनुवर्णयेत् सम्यक चातुनयेनानुनयेत् तत्र चावहितः स्यात् । इति अनुलोम संभाषाविधः ।"
चरककी विभाषाकी स्थानांगगत प्रतिलोम से तुलना की जा सकती है। क्योंकि चरकके अनुसार विगृह्मसंभाषा अपने से हीन या अपनी बराबरी करने वालेके साथ ही करना चाहिए, श्रेष्ठले कभी नहीं । २ "एते हि गुरुशिष्ययोः वादिप्रतिवादिनोर्वा वादाश्रया इव लक्ष्यन्ते” ।
स्थानांगसूत्रटीका० सू० ७४३ ।
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प्रस्तावना ।
८९
४ सभाके नियम के विरुद्ध चलना या दूषणका परिहार जात्युत्तरसे करना परिहरणदोष है ।
. ५ अतिव्याप्ति आदि दोष खलक्षण दोष हैं।
६ युक्तिदोष करणदोष कहलाता है ।
७ असिद्धादि हेत्वाभास हेतुदोष हैं ।
८ प्रतिज्ञान्तर करना संक्रमण है या प्रतिवादीके पक्षका स्वीकार करना संक्रमण दोष है । टीकाकारने इसका ऐसा भी अर्थ किया है कि प्रस्तुत प्रमेयकी चर्चाको छोड अप्रस्तुत प्रमेय की चर्चा करना संक्रमणदोष है ।
९ छलादिके द्वारा प्रतिवादीको निगृहीत करना निग्रह दोष है ।
१० पक्षदोषको वस्तुदोष कहा जाता है जैसे प्रत्यक्षनिराकृत आदि ।
इनमें से प्रायः सभी दोषोंका वर्णन न्यायशास्त्रमें स्पष्टरूप से हुआ है । अतएव विशेष विवेचनकी आवश्यकता नहीं ।
९५ विशेषदोष ।
स्थानांगसूत्रमें विशेषके दश प्रकार' गिनाए गये हैं उनका संबन्ध भी दोषसे ही है ऐसा टीकाकारका अभिप्राय है । मूलकारका अभिप्राय क्या है कहा नहीं जा सकता। टीकाकारने उन दस प्रकारके विशेषका जो वर्णन किया है वह इस प्रकार है
-
१ वस्तुदोष विशेष से मतलब है पक्षदोषविशेष; जैसे प्रत्यक्षनिराकृत, अनुमाननिराकृत, प्रतीतिनिराकृत, स्ववचननिराकृत और लोकरूढिनिराकृत ।
२ जन्म मर्म कर्म आदि विशेषोंको लेकर किसीको वादमें दूषण देना तज्जातदोषविशेष है । ३ पूर्वोक्त मतिभंगादि जो आठ दोष गिनाए हैं वे भी दोषसामान्यकी अपेक्षासे दोषविशेष होनेसे दोषविशेष कहे जाते हैं।
४ एकार्थिक विशेष अर्थात् पर्यायवाची शब्दोंमें जो कथञ्चिद् मेदविशेष होता है वह; अथवा एक ही अर्थका बोध करानेवाले शब्दविशेष । '
५ कारणविशेष - परिणामिकारण और अपेक्षाकारण ये कारणविशेष हैं । अथवा उपादान, निमित्त, सहकारि, ये कारण विशेष हैं । अथवा कारणदोषविशेष का मतलब है युक्तिदोष । दोष सामान्यकी अपेक्षा से युक्तिदोष यह एक विशेष दोष है ।
६ बस्तुको प्रत्युत्पन्न ही माननेपर जो दोष हो वह प्रत्युत्पन्नदोषविशेष है । जैसे अकृताभ्यागमकृतविप्रणाशादि ।
७ जो दोष सर्वदा हो वह नित्यदोषविशेष है जैसे अभव्य में मिथ्यात्वादि । अथवा वस्तुको सर्वथा नित्य माननेपर जो दोष हो वह नित्यदोषविशेष है ।
१ "इसविधे विसेसे पं० सं० वधु १ तजात दोसे २ त दोसे एगद्वितेति ३ त । कारणे ४ त पपणे ५, दोसे ६ निब्बे ७ हि अट्टमे ८ ॥ १ ॥ अत्तणा ९ उवणीते १० त विसेसेति त ते दस ।"
स्थानांग सूत्र० ७ ४३ । २ इस दोषसे मूलकारका अभिप्राय पुनरुक्त निग्रहस्थानसे ( न्यायसू० ५. २.१४ ) और चरकसंमत अधिक नामक वाक्यदोषसे ( "यहा सम्बद्धार्थमपि द्विरभिधीयते तत् पुनरुक्तत्वाद् अधिकम्”- विमान० भ० ८. सू. ५४ ) हो तो आश्रर्य नहीं ।
न्या० प्रस्तावना १२
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९०
प्रश्रके भेद। ८ अधिकदोषविशेष वह है जो प्रतिपत्तिके लिये अनावश्यक ऐसे अवयवोंका प्रयोग होनेपर होता है। न्यायसूत्रसंमत अधिक निग्रहस्थान यहाँ अभिप्रेत है । ९ खयंकृत दोष । १० परापादित दोष । ६६ प्रश्न। स्थानांगसूत्रमें प्रश्नके छ प्रकार बताए गये हैं - १ संशयप्रश्न २ व्युगृहप्रश्न ३ अनुयोगी १ अनुलोम ५ तथाज्ञान ६ अतथाज्ञान वादमें, चाहे वह वीतराग कथा हो या जल्प हो, प्रश्न का पर्याप्त महत्त्व है । प्रस्तुत सूत्रों प्रश्नके मेदोंका जो निर्देश है वह प्रश्नोंके पीछे रही प्रष्टाकी भावना या भूमिकाके आधारपर है ऐसा प्रतीत होता है।
१ संशयको दूर करनेके लिये जो प्रश्न पूछा जाय वह संशयप्रश्न है । इस संशयने न्यायसूत्रके सोलह पदार्थोंमें और चरकके वादपदोंमें स्थान पाया है।
संशय प्रश्नकी विशेषता यह है कि उसमें दो कोटिका निर्देश होता है । जैसे "किंनु खलु अस्त्यकालमृत्युः उतनास्तीति" विमान० अ०८.सू०४३।
२ प्रतिवादी जब अपने मिथ्याभिनिवेशके कारण प्रश्न करता है तब वह व्युहह प्रश्न है।
३ स्वयं वक्ता अपने वक्तव्यको स्पष्ट करनेके लिये प्रश्न खडा करके उसका उत्तर देता है तब वह अनुयोगी प्रश्न है अर्थात् व्याख्यान या प्ररूपणाके लिये किया गया प्रश्न । चरकमें एक अनुयोग वादपद है उसका लक्षण इस प्रकार चरकने किया है__ अनुयोगो नाम स यत्तद्विधानां तद्विद्यैरेव सार्धं तने तकदेशे या प्रश्ना प्रश्नैकदेशो वा मानविज्ञानवचनप्रतिवचनपरीक्षार्थमादिश्यते, यथा नित्यः पुरुष इति प्रतिज्ञाते यत् पर: 'को हेतुः' इत्याह सोऽनुयोगः। __स्थानांगका अनुयोगी प्रश्न वस्तुतः चरकके अनुयोगसे अभिन्न होना चाहिए ऐसा चरकके उक्त लक्षण से स्पष्ट है।
४ अनुलोमप्रश्न वह है जो दूसरेको अपने अनुकूल करनेके लिये किया जाता है जैसे कुशलप्रश्न ।
५ जिस वस्तुका ज्ञान पृच्छक और प्रष्टव्यको समान भावसे हो फिर भी उस विषयमें पूछा जाय तब वह प्रश्न तथाज्ञानप्रश्न है। जैसे भगवतीमें गौतमके प्रश्न ।
६ इससे विपरीत अतथाज्ञान प्रश्न है।
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प्रस्तावना।
__ ९१ इन प्रश्नोंके प्रसंगमें उत्तरकी दृष्टि से चार प्रकारके प्रश्नोंका जो वर्णन बौद्धग्रन्थोंमें आता है उसका निर्देश उपयोगी है
१ कुछ प्रश्न ऐसे हैं जिनका है या नहीं में उत्तर दिया जाता है - एकांशव्याकरणीय । २ कुछ प्रश्न ऐसे हैं जिनका उत्तर प्रति प्रश्न के द्वारा दिया जाता है- प्रतिपृच्छाव्याकरणीय ।
३ कुछ प्रश्न ऐसे हैं जिनका उत्तर विभाग करके अर्थात् एक अंशमें 'है' कहकर और दूसरे अंशमें 'नहीं' कहकर दिया जाता है - विभज्यव्याकरणीय ।
४ कुछ प्रश्न ऐसे हैं जो स्थापनीय-अव्याकृत हैं जिनका उत्तर दिया नहीं जाता।' $७ छल-जाति ।
स्थानांगसूत्रमें हेतुशब्दका प्रयोग नाना अर्थमें हुआ है। प्रमाणसामान्य अर्थमें हेतुशब्दका प्रयोग प्रथम (पृ० ६३ ) बताया गया है । साधन अर्थमें हेतुशब्दका प्रयोग भी हेतुचर्चामें (पृ० ७८) बताया गया है । अब हम हेतुशब्दके एक और अर्थकी ओर भी वाचकका ध्यान दिलाना चाहते हैं । स्थानांगमें हेतुके जो-यापक आदि निम्न लिखित चार भेद बताये हैं उनकी व्याख्या देखनेसे स्पष्ट है कि यापक हेतु असद्धेतु है और स्थापक ठीक उससे उलटा है। इसी प्रकार व्यंसक और लूषकमें मी परस्पर विरोध है । अर्थात् ये चार हेतु दो द्वन्द्वोंमें विभक्त हैं।
यापक हेतुमें मुख्यतया साध्यसिद्धिका नहीं पर प्रतिवादीको जात्युत्तर देनेका ध्येय है । उसमें कालयापन करके प्रतिवादिको धोखा दिया जाता है । इसके विपरीत स्थापक हेतुसे अपने साध्यको शीघ्र सिद्ध करना इष्ट है । व्यंसक हेतु यह छल प्रयोग है तो लूषक हेतु प्रतिच्छल है । किन्तु प्रतिच्छल इस प्रकार किया जाता है जिससे कि प्रतिवादीके पक्षमें प्रसंगापादान हो और परिणामतः वह वादीके पक्षको खीकृत करनेके लिये बाध्य हो । अब हम यापकादिका शास्त्रोक्त विवरण देखें-( स्थानांग सू० ३३८)
(१) जावते (यापकः) (२) थावते (स्थापकः) (३) वंसते (व्यंसकः) (१) लूसते (लूषकः)
इन्हीं हेतुओंका विशेष वर्णन दशवकालिकसूत्र की नियुक्तिमें (गा० ८६ से) आ० भद्रबाहुने किया है उसीके आधारसे उनका परिचय यहाँ कराया जाता है, क्योंकि स्थानांगमें हेतुओंके नाममात्र उपलब्ध होते हैं । भद्रबाहुने चारों हेतुओंको लौकिक उदाहरणोंसे स्पष्ट किया है किन्तु उन हेतुओंका द्रव्यानुयोगकी चर्चा में कैसे प्रयोग होता है उसका स्पष्टीकरण दशवैकालिकचूर्णीमें है इसका भी उपयोग प्रस्तुत विवरणमें किया है।
(१) यापक। जिसको विशेषणोंकी बहुलताके कारण प्रतिवादी शीघ्र न समझसके और प्रतिवाद करनेमें असमर्थ हो, ऐसे हेतु को कालयापनमें कारण होनेसे यापक कहा जाता है । अथवा जिसकी व्याप्ति प्रसिद्ध न होनेसे तत्साधक अन्य प्रमाणकी अपेक्षा रखनेके कारण साध्यसिद्धि में विलम्ब होता हो उसे यापक कहते हैं।
वीप मिलिन्द पृ० १०५ ।
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छल जाति ।
इसका लौकिक उदाहरण दियागया है - किसी असाध्वी स्त्रीने अपने पतिको ऊंटकी लीडिया देकर कहा कि उज्जयिनीमें प्रत्येकका एक रूपया मिलेगा अत एव वहीं जाकर बेचो । मूर्ख पति जब लोभवश उज्जयिनी गया तो उसे काफी समय लग गया । इस बीच उस स्त्रीने अपने जार के साथ कालयापन किया ।
९२
यापकका अर्थ टीकाकारोंने जैसा किया है ऊपर लिखा है । वस्तुतः उसका तात्पर्य इतना ही जान पडता है कि प्रतिवादीको समझनेमें देरी लगे वैसे हेतुके प्रयोगको यापक कहना चाहिए । यदि यापकका यही मतलब है तो इसकी तुलना अविज्ञातार्थ निग्रहस्थानयोग्य वाक्यप्रयोग से करना चाहिए । न्यायसूत्रकारने कहा है कि वादी तीन दफह उच्चारणकरे फिर भी यदि प्रतिवादी और पर्वत् समझ न सके तो वादीको अविज्ञातार्थनिग्रहस्थान प्राप्त होता है । अर्थात् न्यायसूत्रकारके मतसे यापक हेतुका प्रयोक्ता निगृहीत होता है ।
"परिषत्प्रतिवादिभ्यां त्रिरभिहितमपि भविज्ञातमविज्ञातार्थम् ।" न्यायसू० ५.२.९ । ऐसा ही मत उपायहृदय ( पृ० १) और तर्कशास्त्र ( पृ० ८ ) काभी है ।
चरकसंहितामें विगृह्यसंभाषाके प्रसंगमें कहा है कि " तद्विद्येन सह कथयता स्वाविदीर्घसूत्रसंकुलैर्वाक्यदण्डकैः कथयितव्यम् ।" विमानस्थान अ० ८. सू० २० । इसका भी उद्देश्य मापक हेतुके समान ही प्रतीत होता है।
वादशात्रके विकास के साथ साथ यापक जैसे हेतुके प्रयोक्ताको निग्रहस्थान की प्राप्ति मानी जाने लगी यह न्यायसूत्रके अविज्ञात निग्रहस्थानसे स्पष्ट है ।
तर्कशास्त्र ( पृ० ३९) उपायहृदय ( पृ० १९ ) और न्यायसूत्रमें ( ५.२.१८ ) एक अज्ञान निग्रहस्थान मी है उसका कारण मी यापक हेतु हो सकता है क्योंकि अज्ञान निग्रहस्थान तब होता है जब प्रतिवादी वादीकी बात को समझ न सके । अर्थात् वादीने यदि यापक हेतुका प्रयोग किया हो तो प्रतिवादी शीघ्र उसे नहीं समझ पाता और निगृहीत होता है । इसी अज्ञानको चरकने अविज्ञान कहा है - वही ६५ ।
।
( २ ) स्थापक ।
प्रसिद्धव्याप्तिक होनेसे साध्यको शीघ्र स्थापित करदेनेवाले हेतुको स्थापक कहते हैं । इसके उदाहरण में एक संन्यासीकी कथा है', प्रत्येक ग्राममें जाकर उपदेश देता था कि लोकमध्यमें दिया गया दान सफल होता है। पूछने पर प्रत्येक गावमें किसीभागमें लोकमध्ये ताता था और दान लेता था । किसी श्रावकने उसकी धूर्तता प्रकट की। उसने कहा कि यदि उस गांवमें लोकमध्य था तो फिर यहां नहीं और यदि यहां है तो उधर नहीं। इस प्रकार वादचर्चा में ऐसा ही हेतु रखना चाहिए कि अपना साध्य शीघ्र सिद्ध जाय और संन्यासीके वचन की तरह परस्पर विरोध न हो। यह हेतु यापकसे ठीक विपरीत है और सद्धेतु है ।
चरकसंहिता में वादपदोंमें जो स्थापना और प्रतिस्थापनाका द्वन्द्व है उसमेंसे प्रतिस्थापना की स्थापक के साथ तुलना की जा सकती है। जैसे स्थापक हेतुके उदाहरणमें कहा गया है कि संन्यासीके वचनमें विरोध बता कर प्रतिवादी अपनी बातको सिद्ध करता है उसी प्रकार
१" उभामिया य महिला जावगहेडम्म उष्टलिंडाई ।” दशवै० नि० गा० ८७ । जाणण थावगहेऊ उदाहरणं" दशबै० नि० ८७ ।
२ "लोगस्स
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प्रस्तावना।
चरकसंहितामें भी स्थापनाके विरुद्धमें ही प्रतिस्थापना का निर्देश है "प्रतिस्थापना नाम या तस्या एष परप्रतिक्षायाः प्रतिविपरीतार्थस्थापना" वही ३२।
(३) व्यंसक ।
प्रतिवादीको मोहमें डालनेवाले अर्थात् छलनेवाले हेतुको व्यंसक कहते हैं । लौकिक उदाहरण शकटतित्तिरी है। किसी धूर्तने शकटमें रखी हुई तित्तिरीको देखकर शकटवालेसे छलपूर्वक पूछा कि शकटतित्तिरीकी क्या कीमत है ! शकटवालेने उत्तरदिया तेर्पणालोडिकाजलमिश्रित सक्तु । धूर्तने उतनी कीमतमें शकट और तित्तिरी-दोनों ले लिये । इसी प्रकार वादमें मी प्रतिवादी जो छलप्रयोग करता है वह व्यंसक हेतु है । जैन वादीके सामने कोई कहे कि जिनमार्गमें जीव भी अस्ति है और घट भी अस्ति है तब तो अस्तित्वाविशेषात् जीव
और घटका ऐक्य मानना चाहिए । यदि जीवसे अस्तित्व को भिन्न मानते हो तब जीवका अभाव होगा। यह व्यंसक हेतु है ।
(४) लूषक। व्यंसक हेतुके उत्तरको छूषक हेतु कहते हैं । अर्थात् इससे व्यंसक हेतुसे आपादित भनिष्टका परिहार होता है। ___ इसके उदाहरणमें भी एक धूर्तके छल और प्रतिच्छलकी कथा है । ककडीसे भरा शकट देखकर धूर्तने शाकटिकसे पूछा- शकटकी ककडी खाजानेवालेको क्या दोगे ? उत्तर मिला-ऐसा मोदक जो नगरद्वारसे बहार न निकलसके । धूर्त शकटपर चडकर थोडा थोडा सभी ककडीमें से खाकर इनाम मांगने लगा। शाकटिकने आपत्ति की कि तुमने सभी ककडी तो खाई नहीं । धर्तने कहा कि अच्छा तब बेचना शुरू करो। इतनेमें ग्राहकोंने कहा-'ये सभी ककडी तो खाई हुई है' । सुनकर धूर्तने कहा देखो 'सभी ककडी खाई है' ऐसा अन्य लोग भी खीकार करते हैं । मुझे इनाम मिलना चाहिए। तब शाकटिकने भी प्रतिच्छल किया। एक मोदक नगरद्वारके पास रखकर कहा 'यह मोदक द्वारसे नहीं निकलता । इसे ले लो' । जैसा ककडीके साथ 'खाई है' प्रयोग देखकर धूर्तने छल कियाथा वैसा ही शाकटिकने 'नहीं निकलता' ऐसे प्रयोगके द्वारा प्रतिछल किया । इसी प्रकार वादचर्चामें उक्त व्यंसक हेतुका प्रत्युत्तर लूषक हेतुका प्रयोग करके देना चाहिए । जैसे कि यदि तुम जीव और घटका ऐक्य सिद्ध करते हो वैसे तो अस्तित्व होनेसे समी भावोंका ऐक्य सिद्ध हो जायगा। किन्तु वस्तुतः देखा जाय तो घट और पटादि ये सभी पदार्थ एक नहीं, तो फिर जीव और घट मी एक नहीं।
व्यंसक और लूषक इन दोनोंके उक्त दो उदाहरण जो लौकिक कथासे लिये गये हैं वे वाक्छलान्तर्गत हैं । किन्तु द्रव्यानुयोगके उदाहरणोंमें जो बात कही गई है वह वाक्छल नहीं । चरकगत सामान्य छलके उदाहरणको देखते हुए कहा जा सकता है कि इन दोनों हेतुओंके द्रव्यानुयोग विषयक उदाहरणोंको चरकके अनुसार सामान्य छल कहा जा सकताहै, चरकमें सामान्य छलका उदाहरण इस प्रकार है-“सामान्यच्छलं नाम यथा व्याधिप्रशमनायौषध
"सा सगरतित्तिरी-वंसगंमि होई नायब्वा।" वही ८८ । 'शकटतित्तिरी' के दो अर्थ है शकटमें रहीहई तित्तिरी और शकटके साथ तित्तिरी। २ तर्पणालोटिकाके दो अर्थ है जलमिश्रित सक्तु और सक्तका मिश्रण करती थी। २ "तटसगवंसग लूसगहेउम्मि य मोयगो य पुणी ।" वही गा०८८।
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छल- जाति ।
मित्युक्ते परो ब्रूयात् सत् सत्प्रशमनायेति किं नु भवानाह । सन् हि रोगः सदौषधम्, यदि च सत् सत्प्रशमनाय भवति तत्र सन् ही कासः सन् क्षयः सत्सामान्यात् कासस्ते क्षयप्रशमनाय भविष्यति इति ।" वही ५६ ।
न्यायसूत्रके अनुसार मी द्रव्यानुयोगके उदाहरणोंको सामान्य छलान्तर्गत कहा जा सकता है न्यायसू० १.२.१३ ।
अथवा न्यायसूत्रगत अविशेषसमजाति प्रयोगके अन्तर्गत मी कहा जा सकता है, क्यों किं उसका लक्षण इस प्रकार है - "एक धर्मोपपतेरविशेषे सर्वाविशेषप्रसङ्गात् सद्भावोपपत्तेरविशेषसमः ।" न्यायसू० ५.१.२३ "एको धर्मः प्रयज्ञानन्तरीयकत्वं शब्दधटयोरुपपद्यत इत्यविशेषे उभयोरनित्यत्वे सर्वस्याविशेषः प्रसज्यते । कथम् ? सद्भाबोपपतेः । एको धर्मः सद्भावः सर्वस्योपपद्यते । सद्भावोपपत्तेः सर्वाविशेषप्रसंगात् प्रत्यवस्थानमविशेषसमः ।"
न्यायभा० ।
बौद्धग्रन्थ तर्कशास्त्रगत ( पृ० १५) अविशेषखण्डन की तुलना मी यहाँ कर्तव्य है । म्यायमुख गत अविशेषदूषणाभास भी इसी कोटिका है।
छळवादी ब्राह्मण सोमिलके प्रश्नमें रहे हुए शब्दच्छलको ताड करके भगवान् महावीरने उस छलवादीके शब्दच्छलका जो उत्तर दिया है उसका उद्धरण यहाँ अप्रासंगिक नहीं होगा । क्योंकि इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वयं भगवान् महावीर वादविद्यामें प्रवीण थे और उस समय लोक कैसा शब्दच्छल किया करते थे.
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"सरिसवा ते भन्ते किं भक्लेया अभक्खेया ?"
"सोमिला ! सरिसवा भक्लेया वि अभक्लेया वि ।”
"से केणटुणं भन्ते एवं बुवाई - सरिसवा में भक्लेया वि अभक्लेया वि' १"
" से नूणं ते सोमिला ! बंभन्नपसु नपसु दुविधा सरिसवा पक्षता, तंजहा- मित्तसरिसंवा य धनसरिसवा य । तत्थ णं जे ते मिचसरिसवा...ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्लेया । तत्थ णं जे ते धनसरिसवा...... असणिजा ते समणाणं निग्गंथाणं अभक्लेया ।...... तत्थणं जे ते जातिया...... लद्धा ते णं समणाणं निग्गंथाणं भक्लेया....." "मासा ते भंते किं भक्लेया अभक्खेया" ।
"सोमिला ! मासा में भक्लेया वि अभक्लेया वि ।"
"से फेणद्वेणं .......”
"से नूणं ते सोमिला ! बंभज्ञपसु नपसु दुबिहा मासा पद्मता । तंजहा- - दव्यमासा य कालमाला य । तस्थ णं जे ते कालमासा ते णं सावणादीया ...... ते णं समणाणं निगगंधाणं अभक्लेया । तत्थ णं जे ते दव्वमासा ते दुबिहा पनचा अत्थमाला य धनमासा य । तत्थणं जे ते अस्थमासा.....ते. "निमथाणं अभक्लेया । तत्थणं जे ते धनमाला......एवं जहा धन्नसरिसवा......"
"कुलत्था ते भन्ते किं भक्लेया अभक्लेया ?"
"सोमिला ! कुलस्था भक्लेया वि अभक्लेया वि ।”
"सेकेण्डेणं ?"
"से नूणं सोमिला ! ते बंभनपसु दुविहा कुलत्था पन्नता, तंजा, इत्थिकुलत्था य धनकुलत्थाय । तत्थ जे ते इत्थिकुलस्थाते..... निग्गंथानं अभक्लेया । तत्थ णं जे ते अन्नकुलत्था एवं जहा धन्नसरिसवा.....|”
भगवती १८. १० ।
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प्रस्तावना।
इस चर्चामें प्राकृत भाषाके कारण शब्दच्छलकी गुंजाईश है यह बात भाषाविदोंको कहनेकी आवश्यकता नहीं। ६८ उदाहरण-शात दृष्टांत ।
जैनशासमें उहाहरणके भेदोपमेद बताये हैं किन्तु उदाहरणका नैयायिकसंमत संकुचित अर्थ न लेकर किसी वस्तुकी सिद्धि या असिद्धि में दी जानेवाली उपपत्ति उदाहरण है ऐसा विस्तृत अर्थ लेकरके उदाहरण शब्दका प्रयोग किया गया है । अतएव किसी स्थानमें उसका अर्थ दृष्टान्त तो किसी स्थानमें आख्यानक, और किसी स्थानमें उपमान तो किसी स्थानमें युक्ति या उपपत्ति होता है । वस्तुतः जैसे चरकने वादमार्गपद' कह करके या न्यायसूत्रने' तत्त्वज्ञानके विषयभूत पदार्थोंका संग्रह करना चाहा है वैसे ही किसी प्राचीन परंपराका आधार लेकर स्थानांग सूत्रमें उदाहरणके नामसे वादोपयोगी पदार्थोका संग्रह किया है । जिस प्रकार न्यायसूत्रसे चरकका संग्रह खता है और किसी प्राचीनमार्गका अनुसरण करता है उसी प्रकार जैन शास्त्रगत उदाहरणका वर्णन भी उक्त दोनोंसे पृथक् ही किसी प्राचीन परंपराका अनुगामी है । ___ ययपि नियुक्तिकारने उदाहरणके निम्न लिखित पर्याय बताये हैं किन्तु सूत्रोक्त उदाहरण उन पर्यायोंसे प्रतिपादित अर्थोंमें ही सीमित नहीं है जो अगले वर्णनसे स्पष्ट है
"नायमुदाहरणं ति य विद्रुतोवम निदरिसणं तहय। एगटुं" - दशवै० नि० ५२ ।
स्थानांगसूत्रमें ज्ञात-उदाहरणके चार भेदोंका उपमेदोंके साथ जो नामसंकीर्तन है वह इस प्रकार है -सू० ३३८ ।
१ आहरण २ आहरणतद्देश ३ आहरणतदोष ४ उपन्यासोपनय (१) अपाय (१) अनुशास्ति (१) अधर्मयुक्त (१) तद्वस्तुक (२) उपाय (२) उपालम्भ (२) प्रतिलोम (२) तदन्यवस्तुक (३) स्थापनाकर्म (३) पृच्छा (३) आत्मोपनीत (३) प्रतिनिम (४)प्रत्युत्पन्नविनाशी (४) निश्रावचन (४) दुरुपनीत (४) हेतु
उदाहरणके इन मेदोपमेदोंका स्पष्टीकरण दशवैकालिकनियुक्ति और चूमि है । उसीके आधारपर हरिभद्रने दशवैकालिकटीकामें और अभयदेवने स्थानांगटीकामें स्पष्टीकरण किया है। नियुक्तिकारने अपायादि प्रत्येक उदाहरणके उपभेदोंका चरितानुयोगकी दृष्टि से तथा द्रव्यानुयोगकी दृष्टिसे वर्णन किया है किन्तु प्रस्तुतमें प्रमाण चर्बोपयोगी द्रव्यानुयोगानुसारी स्पष्टीकरण ही करना इष्ट है। (१) आहरण।
(१) अपाय अनिष्टापादन करदेना अपायोदाहरण है । अर्थात् प्रतिवादीकी मान्यतामें अनिष्टापादन करके उसकी सदोषताके द्वारा उसके परित्यागका उपदेश देना यह अपायोदाहरणका प्रयोजन है। भद्रबाहुने अपायके विषयमें कहा है कि जो लोग आत्माको एकान्त निल १वही सू०२७। २ म्यापसू० १..। .
३ "ब्वादिएहि नियो एगंतेणेव जेसि अप्पा उ। होडमभावो तेसिं सुहदुहसंसारमोक्खाणं॥ ५९॥ सुहदुक्खसंपोगोन विजई निबवायपक्वंमि । पगंतुच्छेभमि म सुहदुक्खविगप्पणमजुत्तं ॥६०॥" दशवै० मि.
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उदाहरण ।
या एकान्त अनित्य मानते हैं उनके मतमें सुख-दुख -संसार - मोक्षकी घटना बन नहीं सकती । इस लिये दोनों पक्षोंको छोडकर अनेकान्तका आश्रय लेना चाहिए। दूसरे दार्शनिक जिसे प्रसंगापादन कहते हैं उसकी तुलना अपायसे करना चाहिए ।
सामान्यतया दूषणको मी अपाय कहा जा सकता है । वादीको स्वपक्षमें दूषणका उद्धार करना चाहिए और परपक्षमें दूषण देना चाहिए ।
( २ ) उपाय - इष्ट वस्तुकी प्राप्ति या सिद्धिके व्यापार विशेषको उपाय कहते हैं । आत्मास्तिस्वरूप इष्टके साधक समी हेतुओंका अवलंबन करना उपायोदाहरण है । जैसे आत्मा प्रत्यक्ष नहीं है फिर मी सुख-दुःखादि धर्मका आश्रय - धर्मी होना चाहिए। ऐसा जो धर्मी है वही आत्मा । तथा जैसे देवदत्त हाथीसे घोडेपर संक्रान्ति करता है, प्रामसे नगर में, वर्षा से शरदमें और औदयिका दिभावसे उपशममें संक्रान्ति करता है वैसेही जीव भी - द्रव्यक्षेत्रादिमें संक्रान्ति करता है तो वह मी देवदत्तकी तरह है'।
बौद्धग्रन्थ 'उपायहृदय' में जिस अर्थ में उपाय शब्द है उसी अर्थका बोध प्रस्तुत उपाय शब्दसे मी होता है । वादमें वादीका धर्म है कि वह खपक्षके साधक सभी उपायोंका उपयोग करे और स्वपक्षदूषणका निरास करे । अतएव उसके लिये वादोपयोगी पदार्थोंका ज्ञान आवश्यक है । उसी ज्ञानको करानेके लिये 'उपायहृदय' ग्रन्थ की रचना हुई है । स्थानांगगत अपाय और उपायका भी यही भाव है कि अपाय अर्थात् दूषण और उपाय अर्थात् साधन । दूसरेके पक्ष में अपाय बताना चाहिए और स्वपक्षमें अपायसे बचना चाहिए । खपक्षकी सिद्धिके लिये उपाय करना चाहिए और दूसरेके उपायमें अपायका प्रतिपादन करना चाहिए ।
(३) स्थापनाकर्म - इष्ट अर्थकी सम्यग्प्ररूपणा करना स्थापनाकर्म है। वादी प्रतिवादीद्वारा व्यभिचार बतलाये जानेपर व्यभिचार निवृत्तिद्वारा यदि हेतुकी सम्यग् स्थापना करता है तब वह स्थापना कर्म है
"संचमिचारं हेतुं सहसा वोतुं तमेव अजेहिं । उपवूहर सप्पसरं सामत्थं चप्पणो नाउं ॥ ६८ ॥"
अभयदेवने इस विषय में निम्नलिखित प्रयोग दरसाया है "अनित्यः शब्दः कृतकत्वात्" यहाँ कृतकत्वहेतु सव्यभिचार है क्योंकि वर्णात्मकशब्द नित्य है । किन्तु वादी वर्णात्मकशब्दको मी अनित्य सिद्ध कर देता है - कि "वर्णात्मा शब्दः कृतकः, निजकारणमेदेन भिद्यमानत्वात् घटपटादिवत्" । यहाँ घटपटादिके दृष्टान्तसे वर्णात्मकशब्दका अनित्यस्व स्थापित हुआ है अतएव यह स्थापनाकर्म हुआ ।
' स्थापनाकर्म' की भद्रबाहुकृत व्याख्याको अलग रखकर अगर शब्दसादृश्य की ओर ही ध्यान दिया जाय तो चरकसंहितागत स्थापनासे इसकी तुलना की जा सकती है। चरकके मतसे किसी प्रतिज्ञाको सिद्ध करनेके लिये हेतु दृष्टान्त उपनय और निगमनका आश्रय
१ वही ६३-६६ | २ दूषीने चीनी संस्कृत में इस ग्रन्थका अनुवाद किया है। उन्होंने जो प्रतिसंस्कृत 'उपाय' शब्द रखा है वह ठीक ही जंचता है। यद्यपि स्वयं द्वचीको प्रतिसंस्कृत में संदेह है।
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प्रस्तावना।
९७
लेना स्थापना है । अर्थात् न्याय वाक्य दो भागोंमें विभक्त है - प्रतिज्ञा और स्थापना । प्रतिज्ञासे अतिरिक्त जिन अवयवोंसे वस्तु स्थापित-सिद्ध होती है उनको स्थापना कहा जाता है
"स्थापना नाम तस्या एव प्रतिक्षायाः हेतुदृष्टान्तोपमय निगमनैः स्थापना। पूर्व हि प्रतिज्ञा पश्चात स्थापना । किं हि अप्रतिज्ञातं स्थापयिष्यति।" वही ३१.। __ आ० भद्रबाहुने जो अर्थ किया है वही अर्थ यदि स्थापनाकर्मका लिया जाय तब चरकसंहितागत परिहार के साथ स्थापनाकर्मका सादृश्य है । क्यों कि परिहारकी व्याख्या चरकने ऐसी की है - "परिहारो नाम तस्यैव दोषवचनस्य (हेतुदोषवचनस्य) परिहरणम्" वही ६०।
(४) प्रत्युत्पमविनाशी--जिससे आपन्न दूषणका तत्काल निवारण हो वह प्रत्युत्पन्नविनाशी है जैसे किसी शून्यवादीने कहा कि जब समी पदार्थ नहीं तो जीवका सद्भाव कैसे ! तब उसको तुरंत उत्तर देना कि
"ज भणसि नस्थि भावा अयणमिणं अस्थि नस्थि जर अस्थि ।
एव पदमाहाणी असओ गु निसेहए को णु ॥ ७१॥ अर्थात् निषेधक वचन है या नहीं ? यदि है तो सर्व निषेध नहीं हुआ क्यों कि वचन सत् हो गया । यदि नहीं तो सर्वभावका निषेध कैसे ! असत् ऐसे वचनसे सर्ववस्तुका निषेध नहीं हो सकता । और जीवके निषेधका भी उत्तर देना कि तुमने जो शब्दप्रयोग किया वह तो विवक्षापूर्वक ही । यदि जीव ही नहीं तो विवक्षा किसे होगी ! अजीवको तो विवक्षा होती नहीं । अत एव जो निषेधवचनका संभव हुआ उसीसे जीवका अस्तित्व भी सिद्ध हो जाता है । यह उत्तरका प्रकार प्रत्युत्पत्नविनाशी है - दशवै० नि० गा० ७०-७२।
आ० भद्रबाहुकी कारिकाके साथ विग्रहव्यावर्तनीकी प्रथम कारिकाकी तुलना करना चाहिए । प्रतिपक्षीको प्रतिज्ञाहानि निग्रहस्थानसे निगृहीत करना प्रत्युत्पन्नविनाशी आहरण है । प्रतिज्ञाहानि निग्रहस्थान न्यायसूत्र (५. २.२) चरक (वही ६१) और तर्कशास्त्रमें (पृ० ३३) है। (२) आहरणतद्देश।
(१) अनुशास्ति-प्रतिवादीके मन्तव्यका आंशिक खीकार करके दूसरे अंशमें उसको शिक्षा देना अनुशास्ति है जैसे सांख्य को कहना कि सच है आत्माको हम भी तुम्हारी तरह सबूत मानते हैं किन्तु वह अकर्ता नहीं, कर्ता है, क्यों कि वही सुखदुःखका वेदन करता है। अर्थात् कर्मफल पाता है
"जेसि पि अस्थि माया पत्तव्या ते वि अम्ह वि स अस्थि ।
किन्तु अकत्ता न भवह वेययह जेण सुहदुक्खं ॥ ७५॥" (२) उपालम्भ-दूसरेके मतको दूषित करना उपालम्भ है । जैसे चार्वाकको कहना कि यदि आत्मा नहीं है तो 'आत्मा नहीं है' ऐसा तुम्हारा कुविज्ञान भी संभव नहीं है । अर्थात् तुम्हारे इस कुविज्ञानको खीकार करके भी हम कह सकते हैं कि उससे आत्माभाव सिद्ध नहीं । क्यों कि 'आत्मा है! ऐसा ज्ञान हो या 'आत्मा नहीं है। ऐसा कुविज्ञान हो ये दोनों कोई चेतन जीवके अस्तित्वके विना संभव नहीं क्यों कि अचेतन घटमें न ज्ञान है न कुविज्ञान - दशवै० नि० ७६-७७।
न्या. प्रस्तावना १३
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आहरणतदेश। उपालम्भका दार्शनिकोंमें सामान्य अर्थ तो यह किया जाता है कि दूसरेके पक्षमें दूषणका उद्भावन करना' किन्तु चरकने वादपदोंमें मी उपालम्भ को खतरूपसे गिनाया है और कहा है कि "उपालम्भो नाम हेतोदोषवचनम् ।" (५९.) अर्थात चरकके अनुसार हेत्वाभासोंका उद्भावन उपालम्भ है । न्यायसूत्रका हेत्वाभासरूप निग्रहस्थान (५.२.२५) ही चरकका उपालम्भ है । स्वयं चरकने मी अहेतु (५७) नामक एक खतब वादपद रखा है । अहेतुका उद्रावन ही उपालम्भ है। तर्कशान (पृ. १०) और उपायहृदयमें भी (पृ० १४) हेस्वाभासका वर्णन भाया है। विशेषता यह है कि उपायहदयमें हेत्वाभासका अर्थ विस्तृत है। छल और जातिका भी समावेश हेत्वाभासमें स्पष्टरूपसे किया है ।
(३) पृच्छा-प्रश्न करनेको पृच्छा कहते हैं - अर्थात् उत्तरोत्तर प्रश्न करके परमतको असिद्ध और स्वमतको सिद्ध करना पृच्छा है जैसे चार्वाकसे प्रश्न करके जीवसिद्धि करना। प्रश्न-आत्मा क्यों नहीं है! उत्तर-क्यों कि परोक्ष है।
प्रश्न-यदि परोक्ष होनेसे नहीं तो तुम्हारा आत्मनिषेधक कुविज्ञान भी दूसरों को परोक्ष है अत एव नहीं है । तब जीवनिषेध कैसे होगा!
इस प्रश्नमें ही आत्मसिद्धि निहित है । और चार्वाकके उत्तरको खीकार करके ही यह प्रभ किया गया है।
इस पृच्छाकी तुलना घरकगत अनुयोगसे करना चाहिए । अनुयोगको चरकने प्रम और प्रश्नैकदेश कहा है- चरक विमान० ८.१२
उपायहृदयमें दूषण गिनाते हुए प्रश्नबाहुल्यमुत्तराल्पता तथा प्रश्नास्पतोत्तरवाहुल्य ऐसे दो दूषण मी बताये हैं। इस पृच्छाकी तुलना उन दो दूषणोंसे की जा सकती है । प्रश्नवाहुल्यमुत्तराल्पताका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
"मारमा नित्योऽनैन्द्रियकस्वात् यथाकाशोऽनैन्द्रियकत्यानित्य इति भवतः स्थापना । मथ यदनैम्द्रियकं तनावश्यं नित्यम् । तत्कथं सिद्धम्" उपाय० पू० २८ ।
प्रश्नाल्पतोत्तरबाहुल्यका खरूप ऐसा है"मात्मा निस्योऽनैन्द्रियकस्वादिति भवत्स्थापना । अनैन्द्रियकस्य वैविध्यम् । यथा परमाणवोऽनुपलभ्या अनित्या' । आकाशस्त्विन्द्रियानुपलभ्यो नित्यश्च । कथं भवतोच्यते यदनुपलभ्यत्वानित्य इति।" उपाय० पृ०२८ ।
उपायहृदयने प्रश्नके अज्ञान को भी एक खतन निग्रहस्थान माना है । और प्रश्नका त्रैविष्य प्रतिपादित किया है
"ननु प्रमाः कतिविधाः ? उच्यते । त्रिविधाः । यथा वचमसमा, अर्थसमः, हेतुसमध । यदि वादिनस्तैसिभिः प्रश्नोत्तराणि न कुर्वन्ति तद्विभ्रान्तम् ।" पृ०१८ ।
(४) निश्रावचन-अन्यके बहानेसे अन्यको उपदेश देना निश्रावचन है। उपदेश तो देना खशिष्यको किन्तु अपेक्षा यह रखना कि उससे दूसरा प्रतिबुद्ध हो जाय । जैसे अपने
न्यायसूत्र १.२.।
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प्रस्तावना ।
९९
शिष्यको कहना कि जो लोग जीवका अस्तित्व नहीं मानते उनके मतमें दानादिका फल भी नहीं घटेगा । तब यह सुन कर बीचमें ही चार्वाक कहता है कि ठीक तो है फल न मिले तो नहीं । उसको उत्तर देना कि तब संसारमें जीवोंकी विचित्रता कैसे घटेगी ! यह निश्रावचन हैदशवै० नि० गा० ८० । (३) आहरणत होष
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(१) अधर्मयुक्त - प्रवचनके हितार्थ सावधकर्म करना अधर्मयुक्त होनेसे आहरणतदोष है । जैसे प्रतिवादी पोट्टशाल परिव्राजकने बादमें हारकर जब विद्याबलसे रोहगुप्त मुनिके विनाशार्थ बिच्छुओं का सर्जन किया तब रोहगुप्तने बिच्छुओं के विनाशार्थं मयूरोंका सर्जन किया जो अधर्मकार्य है'। फिर भी प्रवचन के रक्षार्थ ऐसा करनेको रोहगुप्त बाध्य थे - दशवै० नि० गा० ८१ चूर्णी ।
(२) प्रतिलोम - 'शाव्यं कुर्यात्, शठं प्रति' का अवलंबन करना प्रतिलोम है । जैसे रोहने पोशाल परिब्राजकको हरानेके लिये किया। परिव्राजकने जान कर ही जैन पक्ष स्थापित किया तब प्रतिवादी जैन मुनि रोहगुप्तने उसको हरानेके लिये ही जैनसिद्धान्तके प्रतिकूल त्रैराशिक पक्ष लेकर उसका पराजय किया । उनका यह कार्य अपसिद्धान्तके प्रचारमें सहायक होनेसे आहरणतदोषकोटि में है ।
चरकने वाक्पदोषोंको गिनाते हुये एक विरुद्ध भी गिनाया है। उसकी व्याख्या करते हुए
कहा है
-
"विरुद्धं नाम यद् दृष्टान्तसिद्धान्त समयैर्विरुद्धम् ।" वही ५४ ।
इस व्याख्याको देखते हुए प्रतिलोम की तुलना 'विरुद्धवाक्यदोषसे' की जा सकती है । न्यायसूत्रसंमत अपसिद्धान्त और प्रतिलोममें फर्क यह है कि अपसिद्धान्त तत्र होता है जब शुरू में वादी अपने एक सिद्धान्तकी प्रतिज्ञा करता है और बादमें उसकी अवहेलना करके उससे विरुद्ध वस्तुको स्वीकार कर कथा करता है - "सिद्धान्तमभ्युपेत्या नियमात् कथाप्रसंगोपासिखान्तः ।" न्यायसू० ५.२.२४ । किन्तु प्रतिलोममें वादी किसी एक संप्रदाय या सिद्धान्तको वस्तुतः मानते हुए भी बादकथाप्रसंगमें अपनी प्रतिभाके बलसे प्रतिवादीको हराने की दृष्टिसे ही वसमतसिद्धान्त के विरोधी सिद्धान्तकी स्थापना कर देता है । प्रतिलोममें यह आवश्यक नहीं की वह शुरू में अपने सिद्धान्तकी प्रतिज्ञा करे । किन्तु प्रतिवादी के मंतव्यसे विरुद्ध मंतव्यको सिद्ध कर देता है। वैण्डिक और प्रातिलोमिक में फर्क यह है कि बैतण्डिकका कोई पक्ष नहीं होता अर्थात् किसी दर्शनकी मान्यतासे वह बद्ध नहीं होता । किन्तु प्रातिलोमिक वह है जो किसी दर्शन से तो बद्ध होता है किन्तु वादकथामें प्रतिवादी यदि उसीके पक्ष को स्वीकार कर वादका प्रारंभ करता है तो उसे हरानेके लिये ही स्वसिद्धान्तके विरुद्ध भी वह दलील करता है और प्रतिवादीको निगृहीत करता I
(३) आत्मोपनीत - ऐसा उपन्यास करना जिससे स्वका या स्वमतका ही घात हो । जैसे कहना की एकेन्द्रिय सजीव हैं क्यों कि उनका श्वासोच्छ्वास स्पष्ट दिखता है - दशवै० नि० चू० गा० ८३ ।
१ विशेषा० २४५६ | २ विशेषा० गा० २४५६ ।
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१००
उपन्यास |
यह तो स्पष्टतया असिद्ध हेत्वाभास है । किन्तु चूर्णीकारने इसका स्पष्टीकरण घटमें व्यतिरेकव्याप्ति दिखाकर किया है, जिसका फल घटकी तरह एकेन्द्रियोंका भी निर्जीव सिद्ध हो जाना है क्यों कि जैसे घटमें श्वासोच्छ्वास व्यक्त नहीं वैसे एकेन्द्रियमें भी नहीं । "जहा को वि भणेजा - एगेन्दिया सजीवा, कम्हा जेण तेर्सि फुडो उस्सास निस्सासो दीसह । दितो घडो । जहा घडरस निजीवत्तणेण उस्सासनिस्सासो नत्थि । ताण उस्सासनिस्सासो फुडो दीसह तम्हा एते सजीवा । एवमादीहिं विरुद्धं न भासितव्यं ।"
(४) दुरुपनीत - ऐसी बात करना जिससे स्वधर्मकी निन्दा हो यह दुरुपनीत है। इसका उदाहरण एक बौद्धभिक्षुके कथनमें है । यथा -
"कथाssचार्याघना ते ननु शफरवधे जालमश्नासि मत्स्यान्, से मे मद्यपवंशान् पिबसि ननु युतो वेश्यया यासि वेश्याम् । कृत्वारीणां गलैहिं क नु तव रिपवो येषु सम्धि छिनभि, arreri धूतहेतोः कितव इति कथं येन दासीसुतोऽस्मि ॥” नि० गा० ८३ - हारि० टीका ।
यह भी चरकसंगत विरुद्ध वाक्यदोषसे तुलनीय है। उनका कहना है कि खसमय विरुद्ध नही बोलना चाहिए । बौद्धदर्शन मोक्षशास्त्रिक समय है । चरकके अनुसार मोक्षशास्त्रिक समय है कि - "मोक्षशास्त्रकसमयः सर्वभूतेष्वहिंसेति" वही ५४ । अतएव बौद्ध भिक्षुका हिंसाका समर्थन खसमय विरुद्ध होनेसे वाक्यदोष है ।
उपायहृदयमें विरुद्ध दो प्रकारका है दृष्टान्तविरुद्ध और युक्तिविरुद्ध - पृ० १७ । उपायनंदके मत से जो जिसका धर्म हो उससे उसका आचरण यदि विरुद्ध हो तो वह युक्तिविरुद्ध है' । जैसे कोई ब्राह्मण क्षत्रियधर्मका पालन करें और मृगयादिकी शिक्षा ले तो वह युक्तिविरुद्ध है । युक्तिविरुद्धकी इस व्याख्याको देखते हुए दुरुपनीतकी तुलना उससे की जा सकती है ।
(४) उपन्यास
( १ ) तद्वस्तूपन्यास - प्रतिपक्षीकी वस्तुका ही उपन्यास करना अर्थात् प्रतिपक्षीके ही उपन्यस्तहेतुको उपन्यस्त करके दोष दिखाना तद्वस्तूपन्यास है। जैसे- किसीने ( वैशेषिकने ) कहा कि जीव नित्य है क्यों कि अमूर्त है । तब उसी अमूर्तत्वको उपन्यस्त करके दोष देना कि कर्म तो अमूर्त होते हुए मी अनित्य हैं - दशवै० नि० चू० ८४ ।
आचार्य हरिभद्रने इसकी तुलना साधर्म्यसमा जातिसे की है। किन्तु इसका अधिक साम्य प्रतिदृष्टान्तसमा जातिसे है - "क्रियावानात्मा क्रियाहेतुगुणयोगात् लोष्टवदित्युक्ते प्रतिदृष्टान्त उपादीयते क्रियाहेतुगुणयुक्तं आकाशं निष्क्रियं दृष्टमिति । " न्यायभा० ५.१.९. ।
साधर्म्यसमा और प्रतिदृष्टान्तसमामें भेद यह है कि साधर्म्यसमामें अन्यदृष्टान्त और अन्य - हेतुकृत साधर्म्य को लेकर उत्तर दिया जाता है जब कि प्रतिदृष्टान्तसमा में हेतु तो वादिप्रोक्त ही रहता है सिर्फ दृष्टान्त ही बदल दिया जाता है। तद्वस्वपन्यासमें भी यही अभिप्रेत है । अतएव उसकी तुलना प्रतिदृष्टान्तके साथ ही करना चाहिए ।
१ "युक्तिविरुद्धो यथा ब्राह्मणस्य क्षत्रधर्मानुपालनम्, मृगयादिशिक्षा च । क्षत्रियस्य ध्यानसमाप• सिरिति युक्तिविरुद्धः । एवम्भूतौ धर्मों अशा अनुचैव स मम्बन्ते ।" उपाय० पृ० १७ ।
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प्रस्तावना।
१०१ वस्तुतः देखो तो भन्जयन्तरसे हेतुकी अनैकान्तिकताका उद्भावन करना ही तद्वस्तूपन्यास और प्रतिदृष्टान्तसमा जातिका प्रयोजन है ।
उपायहृदयगत प्रतिदृष्टान्तसम दूषण (पृ० ३०) और तर्कशास्त्रगत प्रतिदृष्टान्तखण्डनसे यह तुलनीय है -पृ० २६ ।
(२) तदन्यवस्तूपन्यास- उपन्यस्त वस्तुसे अन्यमें भी प्रतिवादीकी बातका उपसंहार कर पराभूत करना तदन्यवस्तूपन्यास है - जैसे जीव अन्य है शरीर अन्य है । तो दोनों अन्यशब्दवाच्य होनेसे एक हैं ऐसा यदि प्रतिवादी कहे तो उसके उत्तरमें कहना कि परमाणु अन्य है, द्विप्रदेशी अन्य है तो दोनों अन्यशब्दवाच्य होनेसे एक मानना चाहिए - यह तदन्यवस्तूपन्यास है - दशवै० नि० गा० ८४ ।
यह स्पष्टरूपसे प्रसंगापादन है। पूर्वोक्त व्यंसक और लूषक हेतुसे क्रमशः पूर्वपक्ष और उत्तर पक्षकी तुलना करना चाहिए।
(३) प्रतिनिभोपन्यास-वादीके 'मेरे वचनमें दोष नहीं हो. सकता' ऐसे साभिमान कथनके उत्तरमें प्रतिवादी भी यदि वैसा ही कहे तो वह प्रतिनिभोपन्यास है । जैसे किसीने कहा कि 'जीव सत् है' तब उसको कहना कि 'घट मी सत् है तो वह मी जीव होजायगा । इसका लौकिक उदाहरण नियुक्तिकारने एक संन्यासीका दिया है । उसका दावा था कि मुझे कोई अश्रुत बात सुनादे तो उसको मैं सुवर्णपात्र दूंगा । धूर्त होनेसे अश्रुत बातको भी वह श्रुत बता देता था। तब एक पुरुषने उत्तर दिया कि तेरे पितासे मेरे पिता एक लाख मांगते हैं। यदि श्रुत है तो एक लाख दो, अश्वत है तो सुवर्णपात्र दो। इस तरह किसीको उभयपाशारज्जुन्याय से उत्तर देना प्रतिनिभोपन्यास है-दशवै०नि० गा०८५।
यह उपन्यास सामान्यच्छल है । इसकी तुलना लूषक हेतुसे भी की जा सकती है ।
अविशेषसमा जातिके साथ भी इसकी तुलना की जा सकती है, यद्यपि दोनों में थोडा मेद अवश्य है।
(४) हेतूपन्यास-किसीके प्रश्नके उत्तरमें हेतु बता देना हेतूपन्यास है। जैसे किसीने पूछा-आत्मा चक्षुरादि इन्द्रियग्राह्य क्यों नहीं ! तो उत्तर देना कि वह अतीन्द्रिय है-दशवै० नि० गा०८५। ___ चरकने हेतुके विषयमें प्रश्नको अनुयोग कहा है और भद्रबाहुने प्रश्नके उत्तरमें हेतुके उपन्यासको हेतूपन्यास कहा है-यह हेतूपन्यास और अनुयोगमें भेद है।
"अनुयोगो नाम स यत्तद्विद्यानां तद्विधैरेव साधं तत्रे तमौकदेशे या प्रश्न प्रकदेशों बाहान विज्ञानवधनप्रतिवचनपरीक्षार्थमादिश्यते यथा नित्यः पुरुषः इति प्रतिसाते यत् परः 'को हेतुरित्याह' सोऽनुयोगः । चरक विमान० १०८-५२
पूर्वोक्त तुलनाका सरलतासे बोध होनेके लिये नीचे तुलनात्मक नकशा दिया जाता है उससे स्पष्ट है कि जैनागममें जो वादपद बताये गये हैं यद्यपि उनके माम अन्य सभी परंपरासे भिन्म ही हैं फिर भी अर्थतः सादृश्य अवश्य है । जैनागमकी यह परंपरा वादशास्त्रके अव्यवस्थित
और अविकसित किसी प्राचीन रूपकी ओर संकेत करती है । क्यों कि जबसे वादशास्त्र व्यवस्थित हुआ है तबसे एक निश्चित अर्थमें ही पारिभाषिक शब्दोंका प्रयोग समान रूपसे
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उपन्यास।
वैदिक और बौद्ध विद्वानोंने किया है। उन पारिभाषिक शब्दोंका व्यवहार जैन आगममें नहीं है । इससे फलित यह होता है कि आगमवर्णन किसी लुप्त प्राचीन परंपराका ही अनुगमन करता है। यद्यपि आगमका अंतिम संस्करण विक्रम पांचवी शताब्दीमें हुआ है तब भी इस विषयमें नई परंपराको न अपना कर प्राचीन परंपराका ही अनुसरण किया गया जान पडता है।
जैनागम चरकसंहिता तकशास उपायहदय न्यायसूत्र
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१. यापक १. भाविद्धदीर्घसूत्र- १. अविज्ञातार्थ १. अविज्ञात १. अविज्ञातार्थ
संकुलैाक्यदण्डकैः।
२. अविहान २. अज्ञान २. अविज्ञान २. अज्ञान २. सापक १.प्रतिष्ठापना ३. व्यंसक १.वाक्छल १.अविशेषखण्डन- १. अविशेषसमाजाति. १. लषक २.सामान्याल
२. सामान्यष्छल ४. आहरण
१.अपाय २. उपाय ३. सापनाकर्म १. खापना
२. परिहार १. प्रत्युत्पनलिनाशी १. प्रतिज्ञाहानि १. प्रतिज्ञाहानि - १. प्रतिज्ञाहानि ४. आहरणदेश
१. अनुशास्ति २. उपालम्भ १. उपालम्भ १. उपालम्भ - १. उपालम्म
२. बहेतु २. हेत्वाभास २. हेत्वाभास २. हेत्वाभास १. पृच्छा १. अनुयोग
१. प्रश्नबाहुल्यमुत्तराल्पता २. प्रभाल्पतोचरवाहुल्य
।।।।।
४. बाहरणदोष
१.वर्मयुक्त - २. प्रतिलोम १ विरुद्धवाक्यदोष - ३. वाल्मोपनीत -
१. दुरुपनीत १ विरुद्धवाक्यदोष - १ युक्तिविरुद्ध ४. उपन्यास
१. तदस्तूपन्यास १ प्रतिष्टान्तखण्डन १ प्रतिदृष्टांतसमदूषण १ प्रतिष्टान्तसमाजाति २. तदन्यवस्तूपन्यास - ३. प्रतिनिभोपन्यास १ सामान्यच्छल १ अविशेषखण्डन १ विशेषसमाजाति
२ सामान्यच्छल ४ हेतूपन्यास १ अनुयोग
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प्रस्तावना।
२. आगमोत्तरसाहित्यमें जैन दर्शन
प्रास्ताविक
जैन आगम और सिद्धसेनके बीचका जो जैन साहित्य है उसमें दार्शनिक हासे उपयोगी साहित्य आचार्य कुन्दकुन्दका तथा वाचक उमाखातिका है। जैन आगमोंकी प्राचीन टीकाओंमें उपलब्ध नियुक्तियोंका स्थान है । उपलब्ध नियुक्तियोंमें प्राचीनतर नियुक्तियोंका समावेश हो गया है और अब तो स्थिति यह है कि प्राचीनतर अंश और भद्रबाहुका नया अंश इन दोनोंका पृथक्करण कठिन हो गया है। आचार्य भद्रबाहुका समय मान्यवर मुनिश्री पुण्यविजयजीने वि० छठी शताब्दीका उत्तरार्ध माना है । यदि इसे ठीक माना जाय तब यह मानना पडता है कि नियुक्तियाँ अपने मौजुदा रूपमें सिद्धसेनके बादकी कृतियाँ हैं । अत एव उनको सिद्धसेन पूर्ववर्ती साहित्यमें स्थान नहीं । भाष्य और चूर्णियाँ तो सिद्धसेनके बादकी हैं ही । अतएव सिद्धसेन पूर्ववर्ती आगमेतर साहित्यमेंसे कुन्दकुन्द और उमाखातिके साहित्यमें दार्शनिक तस्वकी क्या स्थिति थी- इसका दिग्दर्शन यदि हम करलें तो सिद्धसेनके पूर्वमें जैनदर्शन की स्थितिका पूरा चित्र हमारे सामने उपस्थित हो सकेगा और यह हम जान सकेंगे कि सिद्धसेनको विरासतमें क्या और कितना मिला था !
(अ) वाचक उमाखातिकी देन प्रास्ताविक
वाचक उमाखातिका समय पं० श्री मुखलालजीने तीसरी चौथी शताब्दी होनेका मंदाज किया है । आ० कुन्दकुन्दके समयमें अमी विद्वानोंका एकमत नहीं । आचार्य कुन्दकुन्दका समय जो मी माना जाय किन्तु तस्वार्थ और आ० कुन्दकुन्दके प्रन्थगत दार्शनिकविकासकी ओर यदि ध्यान दिया जाय तो वा० उमाखातिके तत्वार्थगत जैनदर्शनकी अपेक्षा आ० कुन्दकुन्दके ग्रन्थगत जैनदर्शनका रूप विकसित है यह किसी भी दार्शनिकसे छिपा नहीं रह सकता। अत एव दोनोंके समय विचारमें इस पहलूको मी यथायोग्य स्थान अवश्य देना चाहिए । इसके प्रकाशमें यदि दूसरे प्रमाणोंका विचार किया जायगा तो संभव है दोनोंके समयका निर्णय सहजमें हो सकेगा।
प्रस्तुतमें दार्शनिक विकासक्रमका दिग्दर्शन करना मुख्य है भतएव आचार्य कुन्दकुन्द और पाचकके पूर्वापरभावके प्रश्नको अलग रख कर ही पहले वाचकके तत्त्वार्थके आश्रयसे जैनदार्शनिक तस्वकी विवेचना करना प्राप्त है । और उसके बाद ही आ० कुन्दकुन्दकी जैनदर्शनको क्या देन है उसकी चर्चा की जायगी । ऐसा होनेसे क्रमविकास कैसा हुआ है यह सहज ही में ज्ञात हो सकेगा।
दार्शनिक सूत्रोंकी रचनाका युग समाप्त हो चुका था और दार्शनिक सूत्रों के भाष्योंकी रचना मी होने लगी थी किन्तु जैनपरंपरामें अभी तक सूत्रशैलीका संस्कृत अन्य एक भी नहीं बना था । इसी त्रुटिको दूर करनेके लिये सर्वप्रथम वा० उमाखातिने तत्वार्यसूत्र की रचना की । उनका तत्वार्थ जैन साहित्यमें सूत्रशैलीका सर्वप्रथम प्रन्थ है इतना ही नहीं किन्तु जैन
महावीर जैन विचाडबरमतमारक. १.१९९।
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प्रमेयनिरूपण ।
साहित्यके संस्कृतभाषानिबद्ध ग्रन्थोंमें भी वह सर्वप्रथम है । जिस प्रकार बादरायणने उपनिषदोंका दोहन करके ब्रह्मसूत्रोंकी रचनाके द्वारा वेदान्त दर्शनको व्यवस्थित किया है उसी प्रकार उमाखातिने आगमोंका दोहन करके तत्त्वार्थसूत्रकी रचनाके द्वारा जैन दर्शनको व्यवस्थित करनेका प्रयत किया है । उसमें जैन तत्वज्ञान, आचार, भूगोल, खगोल, जीवविद्या, पदार्थविज्ञान इत्यादि नाना प्रकारके विषयोंके मौलिक मन्तव्योंको मूल आगमोंके आधारपर' सूत्रबद्ध किया है । और उन सूत्रोंके स्पष्टीकरणके लिये खोपज्ञ भाष्यकी भी रचना की है । वा० उमाखातिने तत्त्वार्थ सूत्रमें आगमोंकी बातोंको संस्कृत भाषामें व्यवस्थित रूपसे रखनेका प्रयत्न तो किया ही है किन्तु उन विषयोंका दार्शनिक ढंगसे समर्थन उन्होंने कचित् ही किया है। यह कार्य तो उन्होंने अकलंकादि समर्थ टीकाकारोंके लिये छोड दिया है । अत एव तत्वार्थसूत्रमें प्रमेयतख और प्रमाणतत्वके विषयमें सूक्ष्म दार्शनिक चर्चा या समर्थनकी आशा नहीं करना चाहिए । तथापि उसमें जो अल्प मात्रामें ही सही, दार्शनिक विकासके सीमाचिन्ह दिखाई देते हैं उनका निर्देश करना आवश्यक है । प्रथम प्रमेयतत्वके विषयमें चर्चा की जाती है।
[१] प्रमेयनिरूपण ६१. तव, अर्थ, पदार्थ, तत्वार्थ
तत्त्वार्थसूत्र और उसका खोपज्ञ भाष्य यह दार्शनिक भाष्ययुगकी कृति है । अत एव वाच. कने उसे दार्शनिकसूत्र और भाष्यकी कोटिका ग्रन्थ बनानेका प्रयत्न किया है । दार्शनिकसूत्रोंकी यह विशेषता है कि उनमें खसंमत तत्वोंका निर्देश प्रारंभमें ही सत्, अर्थ, पदार्थ, या तस्त्र जसे शब्दोंसे किया जाता है । अत एव जैन दृष्टि से मी उन शब्दोंका अर्थ निश्चित करके यह बताना आवश्यक हो जाता है कि तत्त्व कितने हैं ! वैशेषिक सूत्रमें द्रव्यादि छः को पदार्थ कहा है (१.१.४) किन्तु अर्थसंज्ञा द्रव्य, गुण और कर्मकी ही की गई है (८. २.. ३)। सत्ता संबंधके कारण सत् ऐसी पारिभाषिक संज्ञा भी इन्ही तीनकी रखी गई है (१.१.८)। न्यायसूत्रगत प्रमाणादि १६ तत्त्वोंको भाष्यकारने सत् शब्दसे व्यवहृत किया है। सांख्योंके मतसे प्रकृति और पुरुष ये दो ही तत्त्व माने गये हैं।
वाचकने इस विषयमें जैनदर्शनका मन्तव्य स्पष्ट किया कि तस्त्र, अर्थ, तस्वार्थ और पदार्थ एकार्थक हैं। और तत्त्वोंकी संख्या सात है। आगोंमें पदार्थकी संख्या ९ बताई गई है (स्था० सू० ६६५) जब कि वाचकने पुण्य और पापको बंधमें अन्तर्भूत करके सात तत्वोंका ही उपादान किया है । यह वाचककी नई सूझ जान पडती है।
६२. सत्का खरूप
वा० उमाखातिने नयोंकी विवेचनामें कहा है कि "सर्वमेकं सदविशेषात्" (तस्वार्थभा० १.३५) । अर्थात् सब एक है क्यों कि समी समानभावसे सत् हैं। उनका यह कथन भाग्वेदके दीर्घतमा ऋषिके 'एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति' (१.१६४.४६) की तथा उपनिषदोंके
देखो, 'तस्वार्थसूत्र जैमागमसमन्वय'। "
स बलु षोडशधा म्यूहमुपदेक्ष्यते" यायमा० ....। 'सतविधोऽखत्वम् ।...२ "एते वा सक्षपदार्थाखरवानि ।" "तरवार्थअडानम्" १.२.।
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प्रस्तावमा।
सन्मूलकं सर्वप्रपश्चकी उत्पत्तिके वादकी (छान्दो० ६.२ ) याद दिलाता है । स्थानांगसूत्रमें 'एगे आया' (सू०१) तथा 'एगे लोए' (सू० ६) जैसे सूत्र आते हैं। उन सूत्रोंकी संगतिके लिये संग्रहनयका अवलम्बन लेना पडता है। आत्मत्वेन समी आत्माओंको एक मानकर 'एगे आया' इस सूत्रको संगत किया जा सकता है तथा 'पश्चास्तिकायमयो लोकः' के सिद्धान्तसे 'एगे लोए' सूत्रकी मी संगति हो सकती है । यहाँ इतना तो स्पष्ट है कि आगमिक मान्यताकी मर्यादाका अतिक्रमण विना किये ही संग्रहनयका अवलंबन करनेसे उक्त सूत्रोंकी संगति हो जाती है। किन्तु उमाखातिने जब यह कहा कि 'सर्वमेकं सदविशेषात्' तब इस · वाक्यकी व्याप्ति किसी एक या समग्र द्रव्य तक ही नहीं है किन्तु द्रव्यगुणपर्यायव्यापी महासामान्यका मी स्पर्श करती है । उमाखातिके समयपर्यन्तमें वेदान्तिओंके सद्ब्रह्मकी और न्याय-वैशेषिकोंके सत्तासामान्यरूप महासामान्यकी प्रतिष्ठा हो चुकी थी। उसी दार्शनिक कल्पनाको संग्रहनयका अवलम्बन करके जैन परिभाषा का रूप उन्होंने दे दिया है।
अनेकान्तवादके विवेचनमें हमने यह बताया है कि आगमोंमें तिर्यग् और ऊर्ध्व दोनों प्रकारके पर्यायोंका आधारभूत द्रव्य माना गया है । जो सर्य द्रव्योंका अविशेष- सामान्य था-"अविसेसिए दव्वे विसेसिए जीवदवे अजीबव्वे य ।" अनुयोग० सू० १२३ । पर उसकी 'सत्' संज्ञा आगममें नहीं थी । वा० उमास्त्रातिको प्रश्न होना स्वाभाविक है कि दार्शनिकोंके परमतत्त्व 'सत्' का स्थान ले सके ऐसा कौन पदार्थ है ! वाचकने उत्तर दिया कि द्रव्य ही सत् है। बाचकने जैनदर्शनकी प्रकृतिका पूरा ध्यान रख करके 'सत्' का लक्षण कर दिया है कि 'उत्पादन्ययङ्ग्रीव्ययुक्तं सत्' (५.२९) । इससे स्पष्ट है कि वाचकने जैनदर्शनके अनुसार जो 'सत्' की व्याख्या की है वह औपनिषददर्शन और न्याय-वैशेषिकोंकी 'सत्ता से जैनसंमत 'सत्' को विलक्षण सिद्ध करती है। वे 'सत्' या सत्ताको नित्य मानते हैं। वा० उमाखातिने मी 'सत्'को कहा तो निस किन्तु उन्होंने 'नित्य' की व्याख्या ही ऐसी की है जिससे एकान्तवादके विषसे नित्य ऐसा सत् मुक्त हो और अखण्डित रह सके । नित्यका लक्षण उमाखातिने किया है कि-"तदावाव्ययं नित्यम् ।" ५.३० । और इसकी व्याख्या की कि"यत् सतो भावान्न व्येति न व्येष्यति तन्नित्यम्।" अर्थात् उत्पाद और व्ययके होते हुए भी जो सप मिटकर असत् नहीं हो जाता वह नित्य है । पर्यायें बदल जाने पर मी यदि उसमें सत् प्रत्यय होता है तो वह नित्य ही है अनिस्य नहीं । एक ही सत् उत्पादव्ययके कारण अस्थिर और धौव्यके कारण स्थिर ऐसे परस्पर विरोधी धर्मोकी भूमि कैसे हो सकता है इस विरोधका परिहार मी वा० उमाखातिने "अर्पितानर्पितसिद्धेः।" (५. ३१.) सूत्रसे किया है । और उसकी व्याख्या आगमोक्त पूर्वप्रतिपादित सप्तभंगीका निरूपण किया है । सप्तभंगीका वही भागमोक्त पुराना रूप प्रायः उन्हीं शब्दोंमें भाष्यमें उबृत हुआ है। जैसा आगममें बचनभेदको भंगोंकी योजनामें महत्व दिया गया है वैसा वा० उमाखातिने भी किया है। अवक्तव्य भंगका स्थान
"धर्मादीनि सन्ति इति कथं गृह्यते इति । अत्रोच्यते लक्षणतः । किड सवो लक्षणमिति अनोग्यते-'यस्पायव्ययौव्ययुकं सत्" स्वार्थमा. ५. २९। सर्वार्थसिरिमें क्या सोकवार्तिकमें 'सद्मबक्षणम्' ऐसा पृषक सूत्र भी है-५. १९। २ तुलना करो "यस गुणान्तरेषु अपि प्रादुर्भवसु तर म बिहन्यते तद्व्य म् । किं पुनरवम् वनावखवम् ।" पातंजलमहाभाग्य ५....।
म्या. प्रस्तावना १४
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द्रव्य पर्याय और गुणका लक्षण |
तीसरा है । प्रथमके तीन भंगोंकी योजना दिखाकर शेष विकल्पोंको शब्दतः उद्धृत नहीं किया किन्तु प्रसिद्धि के कारण विस्तार करना उन्होंने उचित न समझकर - 'देशादेशेन विकल्पयितव्यम्' ऐसा आदेश दे दिया है ।
बा० उमाखातिने सत्के चार मेद बताये हैं- १ द्रव्यास्तिक, २ मातृका पदास्तिक, ३ उत्पन्नास्तिक, और ४ पर्यायास्तिक । सत्का ऐसा विभाग अन्यत्र देखा नहीं जाता, इन चार भेदों का विशेष विवरण वा० उमाखातिने नहीं किया । टीकाकारने व्याख्यामें मतभेदोंका निर्देश किया हैं । प्रथमके दो मेद द्रव्यनयाश्चिंत हैं और अन्तिम दो पर्यायनयाश्रित हैं । द्रव्यास्तिकसे परमसंग्रह विषयभूत सत् द्रव्य और मातृकापदास्तिकसे सत् द्रव्यके व्यवहारनयाश्रित धर्मास्तिकायादि द्रव्य और उनके मेदप्रमेद अभिप्रेत हैं । प्रत्येक क्षणमें नवनवोत्पन्न वस्तुका रूप उत्पन्नास्तिकसे और प्रत्येक क्षणमें होनेवाला विनाश या मेद पर्यायास्तिकसे अभिप्रेत है ।
९३. द्रव्य, पर्याय और गुणका लक्षण ।
जैन आगमोंमें सत्के लिये द्रव्यशब्दका प्रयोग आता है । किन्तु द्रव्यशब्दके अनेक अर्थ 1 प्रचलित थे' । अतएव स्पष्ट शब्दोंमें जैनसंमत द्रव्यका लक्षण भी करना आवश्यक था । उत्तराध्ययनमें मोक्षमार्गाध्ययन ( २८ ) है । उसमें ज्ञानके विषयभूत द्रव्य, गुण और पर्याय ये तीन पदार्थ बताए गये हैं ( गा० ५) अन्यत्र भी येही तीन पदार्थ गिनाये हैं । किन्तु द्रव्यके लक्षणमें सिर्फ गुणको ही स्थान मिला है - "गुणाणमासओ दव्वं " ( गा० ६ ) । वाचकने गुण और पर्याय दोनोंको द्रव्य लक्षण में स्थान दिया है - " गुणपर्यायवद् द्रव्यम्” ( ५.३७ ) । बाचक के इस लक्षणमें आगमाश्रय तो स्पष्ट है ही किन्तु शाब्दिक रचनामें वैशेषिकके “क्रियागुrea" (१.१.१५ ) इत्यादि द्रव्यलक्षणका प्रभाव मी स्पष्ट है ।
गुणका लक्षण उत्तराध्ययनमें किया गया है कि "एगदवस्सिया गुणा" ( २८.६ ) । किन्तु वैशेषिकसूत्रमें " द्रव्याश्रय्यगुणवान् ” (१.१.१६ ) इत्यादि है । वाचक अपनी आगमिक परंपराका अवलंबन लेते हुए भी वैशेषिक सूत्रका उपयोग करके गुणका लक्षण करते हैं कि “द्रव्याश्रया निर्गुणाः गुणाः । " ( ५.४० ) ।
यहाँ एक विशेष बातका ध्यान रखना जरूरी है । यद्यपि जैन आगमिक परंपराका अवलंबन लेकर ही वाचकने वैशेषिक सूत्रोंका उपयोग किया है। तथापि अपनी परंपराकी दृष्टिसे उनका द्रव्य और गुणका लक्षण जितना निर्दोष और पूर्ण है उतना स्वयं वैशेषिकका मी नहीं है'।
बौद्ध मतसे पर्याय या गुण ही सत् माना जाता है और वेदान्तके मतसे पर्यायवियुक्त द्रव्य ही सब माना जाता है। इन्हीं दोनों मतोंका निरास वाचकके द्रव्य और गुणलक्षणोंमें
स्पष्ट है।
उत्तराध्ययनमें पर्यायका लक्षण है - "लक्खणं पज्जवाणं तु उभभो अस्सिया भवे ।" (२८.६) उभयपदका टीकाकारने जैनपरंपराके हार्दको पकडकरके द्रव्य और गुण अर्थ करके - कहा है कि द्रव्य और गुणाश्रित जो हो वह पर्याय है । किन्तु स्वयं मूलकारने जो पर्यायके विषयमें आगे चलकर यह गाया कही है
१ प्रमाणमी • भाषा० पू० ५४ । २ " से किं वं तिनामे दब्बणाने गुणणाने, पावणामे ।" अयुयोगसू० ११४ । ३ देखो, वैशेषिक- उपस्कार १.१.१५, १६ ॥
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प्रस्तावना।
१०७
"एकत्तं च पुदुक्तं च संखा संठाणमेव च ।
संजोगाय विभागा य पजावाणं तु लक्खणं॥" उससे यह प्रतीत होता है कि मूलकारको उभयपदसे दो या अधिक द्रव्य अभिप्रेत हैं। इसका मूल गुणोंको एकद्रव्याश्रित और अनेकद्रव्याश्रित ऐसे दो प्रकारों में विभक्त करनेवाली किसी प्राचीन परंपरामें हो तो आचर्य नहीं । वैशेषिक परंपरामें भी गुणोंका ऐसा विभाजन देखा जाता है - "संयोगविभागद्वित्वद्विपृथक्त्वादयोऽनेकाश्रिताः।" प्रशस्त० गुणनिरूपण ।
पर्यायका उक्त आगमिक लक्षण सभी प्रकारके पर्यायोंको व्याप्त नहीं करता । किन्तु इतना ही सूचित करता है कि उभय द्रव्याश्रितको गुण कहा नहीं जाता उसे तो पर्याय कहना चाहिए । अत एव वाचकने पर्यायका निर्दोष लक्षण करनेका यत्न किया है । वाचकके "भावान्तरं संज्ञान्तरं च पर्यायः ।" (५.३७) इस वाक्यमें पर्यायके खरूपका निर्देश अर्थ और व्यंजन- शब्द दोनों दृष्टिओंसे हुआ है। किन्तु पर्यायका लक्षण तो उन्होंने किया है कि "तावः परिणामः ।" (५.४१) यहाँ पर्याय के लिये परिणाम शब्दका प्रयोग साभिप्राय है। ___ मैं पहले यह तो बता आया हूं कि आगमोंमें पर्यायके लिये परिणाम शब्दका प्रयोग हुआ है। सांख्य और योगदर्शनमें मी परिणाम शब्द पर्याय अर्थमें ही प्रसिद्ध है । अत एव वाचकने उसी शब्दको लेकर पर्यायका लक्षण प्रथित किया है और उसकी व्याख्यामें कहा है कि, "धर्मादीनां द्रव्याणां यथोक्तानां च गुणानां खभावः स्वतस्वं परिणामः" । अर्थात् धर्मादि द्रव्य
और गुण जिस जिस खभावमें हो अर्थात् जिस जिस रूपमें आत्मलाभ प्राप्त करते हों उनका वह खभाव या खरूप परिणाम है अर्थात् पर्याय है। '
परिणामोंको वाचकने आदिमान् और अनादि ऐसे दो भेदोंमें विभक्त किया है । प्रत्येक दव्यमें दोनों प्रकारके परिणाम होते हैं । जैसे जीवमें जीवत्व, द्रव्यत्व, इत्यादि अनादि परिणाम है और योग और उपयोग आदिमान् परिणाम हैं। उनका यह विश्लेषण जैनागम और इतर दर्शनके मार्मिक अभ्यासका फल है।
६४. गुण और पर्यायसे द्रव्य वियुक्त नहीं।
वा० उमाखातिकृत द्रव्यके लक्षण से यह तो फलित हो ही जाता है कि गुण और पर्यायसे रहित ऐसा कोई द्रव्य हो नहीं सकता । इस बातको उन्होंने अन्यत्र स्पष्ट शब्दोंमें कहा मी है"द्रव्यजीव इति गुणपर्यायवियुक्तः प्रज्ञास्थापितोऽनादिपारिणामिकभावयुक्तो जीव इति ।" तत्वार्थभा० १५ । अर्थात् गुण और पर्यायसे वस्तुतः पृथक् ऐसा द्रव्य नहीं होता किन्तु प्रज्ञासे उसकी कल्पना की जा सकती है । अर्थात् गुण और पर्यायकी विवक्षा न करके द्रव्यको गुण और पर्यायसे पृथक् समझा जा सकता है पर वस्तुतः पृथक् नहीं किया जा सकता । वैशेषिक परिभाषामें कहना हो तो द्रव्य और गुण-पर्याय अयुतसिद्ध हैं।
गुण-पर्यायसे रहित ऐसे द्रव्यकी अनुपलब्धिके कथनसे यह तो स्पष्ट नहीं होता है कि द्रव्यसे रहित गुण-पर्याय उपलब्ध हो सकते हैं या नहीं । इसका स्पष्टीकरण बादके आचार्योंने किया है।
" पुनरसौ पर्वावः इत्याह -तनावः परिणामः ।" तस्वार्थको• ४४.। २ वयार्थ. ५.११. से।
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पुद्रलद्रव्य।
६५. कालद्रव्यं ।
जैन आगमोंमें द्रव्यवर्णन प्रसंगमें कालद्रव्यको पृथक् गिनाया गया है। और उसे जीवाजीवात्मक भी कहा है। इससे आगमकालसे ही कालको खतन्त्र द्रव्य मानने न माननेकी दो परंपराएँ थीं यह स्पष्ट है । वा. उमाखाति 'कालच इत्येके' (५. ३८) सूत्रसे यह सूचित करते है कि वे कालको पृथक् द्रव्य माननेके पक्षपाती नहीं थे। कालको पृथक् नहीं माननेका पक्ष प्राचीन मालूम होता है क्योंकि लोक क्या है इस प्रश्न का उत्तर श्वेताम्बर दिगम्बर दोनोंके मतसे एकही है कि लोक पंचास्तिकायमय है। कहीं यह उत्तर नहीं देखा गया कि लोक षड्दव्यास्मक है। अत एव मानना पडता है कि जैनदर्शनमें कालको पृथक् माननेकी परंपरा उतनी प्राचीन नहीं । यही कारण है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनोंमें कालके खरूपके विषय में मतभेद भी देखा जाता है।
उत्तराभ्ययनमें कालका लक्षण है "वत्तणालंक्खणो कालो" (२८.१०)। किन्तु वाचकने कालके विषयमें कहा है कि "वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य" (५.२२)। वाचकका यह कथन वैशेषिकसूत्रसे प्रभावित है।
६६. पुद्गल द्रव्य । ___ आगममें पुद्गलास्तिकायका लक्षण 'प्रहण किया गया है-"गहणलक्खणे णं पोग्गलस्थिकार" (भगवती-१३.१.४८१)। "गुणओ गहणगुणे" (भगवती-२.१०.११७ । स्थानांग सू०.१४१) इस सूत्रसे यह फलित होता है कि वस्तुका अव्यभिचारी-सहभावी गुण ही आगमकारको लक्षणरूपसे इष्ट था । सिर्फ पुद्गलके विषयमें ही नहीं किन्तु जीवादि विषयमें मी जो उनके उपयोगादि गुण हैं उन्हीं का लक्षणरूपसे भगवतीमें निर्देश है इससे यही फलित होता है कि आगमकालमें गुणही लक्षण समझा जाता रहा ।
प्रहणका अर्थ क्या है यह मी भगवतीके निम्न सूत्रसे स्पष्ट होता है"पोग्गलस्थिकाए गं जीवाणं ओरालिय-उब्विय-आहारए तेयाकम्मए सोदियचक्खिदिय-घाणिहिय-जिभिदिय-फार्सिदिय-मणजोग-वयजोग-कायजोग-माणापाणं च गहणं पवत्तति गहणलक्खणे णे पोग्गलस्थिकार" भगवती १३.४.४८१ । ___ अर्थात् जीव अपने शरीर, इन्द्रिय, योग और श्वासोच्छ्वास रूपसे पुद्गलोंका ग्रहण करता है क्योंकि पुद्गलका लक्षण ही ग्रहण है । अर्थात् फलित यह होता है कि पुद्गलमें जीवके साथ संबंध होनेकी योग्यताका प्रतिपादन उसके सामान्य लक्षण प्रहण अर्थात् संबंधयोग्यताके आधार
चौथा कर्मग्रन्थ पृ० १५७। २ भगवती २.१०.१२.। 1.11.४२४ । ११.१.१८२,१८१ । २५... इल्पावि । प्रज्ञापना पद । उत्तरा०२८.१.1.स्थानांग सूच१५/जीवाभिगम।
"किमियं भंते ! छोएसि पवुषह। गोयमा, पंचस्थिकाया ।" भगवती १३.४.४८पंचाखिकाय गा०३. तवार्थभा. ३.६। ५इसमें एक ही अपवाद उत्तराध्ययनका है२८...। किन्तु इसका स्पष्टीकरण यही है कि वहाँ छः द्रव्य मानकर वर्णन किया है मत एव उस वर्णनके साथ संगति रखने के लिये लोकको छः व्यरूप कहा है। अन्यत्र छः द्रव्य माननेवालोंने भी कोकको पंचास्तिकायमय ही कहा है। जैसे आचार्य कुन्दकुन्द परतव्यवादी होते हुए भी लोकको जब पंचास्तिकायमय ही कहते हैं तब उस परंपराकी प्राचीनता स्पष्ट हो जाती है। चौथा-कर्मग्रन्थ पू०१५। ७ वैशे० २.१.१.
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प्रस्तावना।
पर किया गया है । तात्पर्य इतना ही जान पडता है कि जो बंधयोग्य है वह पुद्गल है । इस प्रकार पुद्गलोंमें परस्पर और जीवके साथ बद्ध होनेकी शक्तिका प्रतिपादन ग्रहण शब्दसे किया गया है।
इस व्याख्यासे पुद्गलका खरूपबोध स्पष्ट रूपसे नहीं होता । उत्तराध्ययनमें उसकी जो दूसरी व्याख्या (२८.१२) की गई है वह खरूपबोधक है
"सहन्धयारउजोओ पहा छायातये वा।
घण्णरसगन्धफासा पुग्गलाणं तु लक्षणं ॥" दर्शनान्तरमें शब्दादिको गुण और द्रव्य माननेकी जुदी जुदी कल्पनाएँ प्रचलित हैं । इसके स्थानमें उक्त सूत्रमें शब्दादिका समावेश पुद्गल द्रव्यमें करनेकी सूचना की है । और पुद्गल द्रव्य की व्याख्या मी की है कि वर्णादियुक्त है सो पुद्गल । वाचकके सामने आगमोक्त द्रव्योंका निम्न वर्गीकरण था ही'
द्रव्य
जीव
अजीव
रूपा
अरूपी १धर्मास्तिकाय
१ पुद्गल २ अधर्मास्तिकाय ३ आकाशास्तिकाय
४ अद्धासमय इसके अनुसार पुद्गलके अलावा कोई द्रव्य रूपी नहीं है अत एव मुख्यरूपसे पुद्गलका लक्षण वाचकने किया कि "स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्रलाः।" (५.२३) । तथा "शब्द-बन्ध-सौ. क्षम्य स्थौल्य-संस्थान मेद-तमश्छायातपोद्योतवन्तश्च।" (५.२४) इस सूत्रमें बन्धादि अनेक नये पदोंका मी समावेश करके उत्तराध्ययनके लक्षणकी विशेष पूर्ति की।
पुद्गलके विषयमें पृथक् दो सूत्रोंकी क्यों आवश्यकता है इसका स्पष्टीकरण करते हुए वाचकने जो कहा है उससे उनकी दार्शनिक विश्लेषण शक्तिका पता हमें लगता है। उन्होंने कहा है कि
"स्पर्शादयः परमाणुषु स्कन्धेषु च परिणामजा एव भवन्ति । शब्दादयश्च स्कन्धेष्वेव भवन्ति अनेकनिमित्ताश्च इत्यतः पृथक्करणम्" तत्त्वार्थभा० ५.२४ ।
परंतु द्रव्योंका साधर्म्य-वैधर्म्य बताते समय उन्होंने जो "रूपिणः पुद्गलाः" (५.४) कहा है वही वस्तुतः पुद्गलका सर्वसंक्षिप्त लक्षण है और दूसरे द्रव्योंसे पुद्गलका वैधर्म्य भी प्रतिपादित करता है।
प्रज्ञापना पद ।। भगवती ७.१०.३०४. । अनुयोग. सू. १४४।
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प्रमाणनिरूपण। 'रूपिणः पुद्गलाः' में अपशब्दका क्या अर्थ है इसका उत्तर- "रूपं मूर्तिः मूर्याश्रयाश्च स्पर्शादय इति ।" (तस्वार्थभा० ५.३ ) इस वाक्यसे मिल जाता है । रूपशब्दका यह अर्थ, बौद्धधर्मप्रसिद्ध नाम-रूपगत रूप' शब्दके अर्थसे मिलता है।
वैशेषिक मनको मूर्त मानकर भी रूपादि रहित मानते हैं । उसका निरास 'रूपं मूर्तिः' कहनेसे हो जाता है।
६७. इन्द्रियनिरूपण
वाचकने इन्द्रियोंके निरूपणमें कहा है कि इन्द्रियाँ पांच ही हैं। पांच संख्याका ग्रहण करके उन्होंने नैयायिकोंके षडिन्द्रियवाद और सांख्योंके एकादशेन्द्रियवाद तथा बौद्योंके मानेन्द्रियवादका निरास किया है। ६८. अमूर्तद्रव्योंकी एकत्रावगाहना--
एक ही प्रदेशमें धर्मादि समी द्रव्योंका अस्तित्व कैसे हो सकता है! यह प्रश्न आगमोंमें चर्चित देखा नहीं गया । पर वाचकने इसका उत्तर दिया है कि धर्म-अधर्म आकाश और जीवकी परस्परमें वृत्ति और पुद्गलमें उन समीकी वृत्तिका कोई विरोध नहीं क्योंकि वे अमूर्त हैं।
ऊपर वर्णित तथा अन्य कई विषयोंमें वा० उमाखातिने अपने दार्शनिक पाण्डिल्यका प्रदर्शन किया है । जैसे जीवकी नाना प्रकारकी शरीरावगहनाकी सिद्धि, (५.१६), अपवर्म और अनपवर्त्य आयुषोंकी योगदर्शन भाष्यका अवलम्बन करके सिद्धि (२.५२ ) इत्यादि ।
[२] प्रमाणनिरूपण। ६१ पंच ज्ञान और प्रमाणोंका समन्वय ।
इस बातकी चर्चा मैंने पहले की है कि आगमकालमें खतन्त्र जैन दृष्टिसे प्रमाणकी चर्चा नहीं हुई है । अनुयोगद्वारमें ज्ञानको प्रमाण कह कर भी स्पष्ट रूपसे जैनागम प्रसिद्ध पांच शानोंको प्रमाण नहीं कहा है। इतना ही नहीं बल्कि जैन दृष्टिसे ज्ञानके प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो प्रकार होने पर भी उनका वर्णन न करके दर्शनान्तरके अनुसार प्रमाणके तीन या चार प्रकार बताये गये हैं । अत एव खतन्त्र जैन दृष्टिसे प्रमाणकी चर्चाकी आवश्यकता रही । इसकी पूर्ति वाचकने की है । वाचकने समन्वय कर दिया कि मत्यादि पांच ज्ञान ही प्रमाण हैं।
६२ प्रत्यक्ष-परोक्ष ।
मत्यादि पांचों ज्ञानोंका मामोल्लेख करके वाचकने कहा है कि ये ही पांच ज्ञान प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो प्रमाणोंमें विभक्त हैं। स्पष्ट है कि वाचकने ज्ञानके आगमप्रसिद्ध प्रत्यक्ष और परोक्ष दो भेदको लक्ष्य करके ही प्रमाणके दो भेद किये हैं । उन्होंने देखा कि जैन आगमोंमें जब ज्ञानके दो प्रकार ही सिद्ध हैं तब प्रमाणके भी दो प्रकारही करना उचित है । अत एव उन्होंने अनुयोग और स्थानांगगत प्रमाणके चार या तीन भेद, जो कि लोकानुसारी हैं उन्हें छोड ही दिया । ऐसा करनेसे ही खतन्त्र जैन दृष्टिसे प्रमाण और पंच ज्ञानका संपूर्ण समन्वय सिद्ध हो जाता है और जैन आगमोंके अनुकूल प्रमाणव्यवस्था भी बन जाती है।
"चत्तारि महाभूतानि चतुन्नं च महाभूतानं उपादाय रूपं ति दुविधम्पेतं रूपं एकादसविधेन संगहं गच्छति ।" अभिधम्मस्थसंगह ६.१. से। २ तस्वार्थ० १.१०।३ "मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलानि ज्ञानम् ॥ १॥ तत् प्रमाणे ॥१०॥" तत्वार्थ०१.।
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प्रस्तावना ।
१११
वाचक उमाखात लौकिक परंपराको अपनी आगमिक मौलिक परंपराके जितना महत्त्व देना चाहते न थे और दार्शनिक जगत में जैन आगमिक परंपराका स्वातन्त्र्य भी दिखाना चाहते थे । यही कारण है कि अनुयोगद्वारमें जो लोकानुसरण करके इन्द्रिय प्रत्यक्षरूप आंशिकमतिज्ञानको प्रत्यक्ष प्रमाण कहा है उसे उन्होंने अमान्य रखा इतना ही नहीं किन्तु नन्दीमें जो इन्द्रियजमतिको प्रत्यक्ष ज्ञान कहा है उसे भी अमान्य रखा । और प्रत्यक्ष-परोक्षकी प्राचीन मौलिक आगमिक व्यवस्थाका अनुसरण करके कह दिया कि मति और श्रुत ज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं और अवधि, मन:पर्यय और केवल प्रत्यक्ष प्रमाण हैं ।
बादके जैन दार्शनिकोंने इस विषयमें वा० उमाखातिका अनुसरण नहीं किया बल्कि लोकानुसरण करके इन्द्रिय प्रत्यक्षको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष माना है ।
६३ प्रमाणसंख्यान्तरका विचार ।
जब वाचकने प्रमाणके दो भेद किये तब प्रश्न होना स्वाभाविक है कि जैनागममें जो प्रत्यक्षादि चार प्रमाण माने गये हैं उसका क्या स्पष्टीकरण है ? तथा दूसरोंने जो अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति, संभव और अभाव प्रमाण माने हैं उनका इन दो प्रमाणोंके साथ क्या मेल है ?
उन्होंने उसका उत्तर दिया कि आगमोंमें प्रमाणके जो चार भेद किये गये हैं वे नयवादान्तरसे हैं । तथा दर्शनान्तरमें जो अनुमानादि प्रमाण माने जाते हैं उनका समावेश मतिश्रुतरूप परोक्ष प्रमाणमें करना चाहिए । क्योंकि उन समीमें इन्द्रियार्थसन्निकर्षरूप निमित्त मौजुद है'।
इस उत्तरसे उनको संपूर्ण संतोष नहीं हुआ क्योंकि मिथ्याग्रह होनेके कारण जैनेतर दार्शनिकोंका ज्ञान आगमिक परिभाषाके अनुसार अज्ञान ही कहा जाता है । अज्ञान तो अप्रमाण है । अंत एव उन्होंने इस आगमिक दृष्टिको सामने रख कर एक दूसरा भी उत्तर दिया किं दर्शनान्तर संगत अनुमानादि अप्रमाण ही हैं ।
उपर्युक्त दो विरोधी मन्तव्य प्रकट करनेसे उनके सामने ऐसा प्रश्न आया कि दर्शनान्तरीय चार प्रमाणोंको नयवादसे प्रमाण कोटिमें गिनते हो और दर्शनान्तरीय सभी अनुमानादि प्रमाणोंको मति श्रुतमें समाविष्ट करते हो इसका क्या खुलासा !
इसका उत्तर यों दिया है - शब्दनयके अभिप्रायसे ज्ञान - अज्ञानका विभाग ही नहीं । सभी साकार उपयोग ज्ञान ही हैं। शब्दनय श्रुत और केवल इन दो ज्ञानोंको ही मानता है। बाकी के सब ज्ञानोंको श्रुतका उपग्राहक मानकर उनका पृथक् परिगणन नहीं करता । इसी दृष्टिसे आगम प्रत्यक्षादि चारको प्रमाण कहा गया है और इसी दृष्टिसे अनुमानादिका अन्तर्भाव मति श्रुतमें किया गया है । प्रमाण और अप्रमाणका विभाग नैगम, संग्रह और व्यवहारनयके अवलम्बनसे होता है क्योंकि इन तीनों नयोंके मतसे ज्ञान और अज्ञान दोनोंका पृथक् अस्तित्व माना गया है ।
१ "भाये परोक्षम् । प्रत्यक्षमन्यत् ।" तस्वार्थ १.१०, ११ । २ तस्वार्थ० भा० १.६ । ३ तत्वार्थ भा० १.१२ । ४ " अप्रमाणान्येव वा । कुतः ? मिथ्यादर्शनपरिग्रहात् विपरीतोपदेशाच्च । मिथ्यादृटेर्हि मतिश्रुतावभयो नियतमज्ञानमेवेति ।" तस्वार्थभा० १.१२ । ५] तस्वार्थ भा० १.३५ । ६ तस्वार्थ भा० १.३५ ।
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मति-मुतका विवेक।
६४ प्रमाणका लक्षण । वाचकके मतसे सम्यग्ज्ञान ही प्रमाणका लक्षण है । सम्यग्शब्दकी व्याख्यामें उन्होंने कहा है कि जो प्रशस्त अव्यभिचारी या संगत हों वह सम्यग् है । इस लक्षणमें नैयायिकोंके प्रत्यक्ष लक्षणगत अव्यभिचारिविशेषण और उसीको स्पष्ट करनेवाला संगत विशेषण जो आगे जा कर आधविवर्जित या अविसंवादरूपसे प्रसिद्ध हुआ, आये हैं, किन्तु उसमें 'खपरव्यवसाय'ने स्थान नहीं पाया है । वाचकने कार्मण शरीरको ख और अन्य शरीरोंकी उत्पत्तिमें कारण सिद्ध करनेके लिये आदिल्यकी खपरप्रकाशकताका दृष्टान्त दिया है । किन्तु उसी दृष्टान्तके बलसे ज्ञानकी खपरप्रकाशकताकी सिद्धि, जैसे आगेके आचार्योने की है उन्होंने नहीं की। ६५शानोंका सहभाव और व्यापार ।
वाचक उमाखातिने आगमोंका अवलम्बन लेकर ज्ञानोंके सहभावका विचार किया है (१.३१) । उस प्रसंगमें एक प्रश्न उठाया है कि केवलज्ञानके समय अन्य चार ज्ञान होते हैं कि नहीं । इस विषयको लेकर आचार्योंमें मतभेद था। कुछ आचार्योंका कहना था कि केवलज्ञानके होने पर मत्यादिका अभाव नहीं हो जाता किन्तु अभिभव हो जाता है जैसे सूर्यके उदयसे चन्द्र नक्षत्रादिका अभिमव हो जाता है । इस मतको अमान्य करके वाचकने कह दिया है कि-"क्षयोपशमजानि चत्वारि सानानि पूर्षाणि क्षयादेव केवलम् । तस्मान कैवलिन शेषाणि सामानि भवन्ति ।" तस्वार्थमा० १.३१ । उनके इस अभिप्रायको आगेके समी जैन दार्शनिकोंने मान्य रखा है।
एकाधिक ज्ञानोंका व्यापार एक साथ हो सकता है कि नहीं इस प्रश्नका उत्तर दिया है कि प्रथमके मत्यादि चार ज्ञानोंका व्यापार (उपयोग) क्रमशः होता है । किन्तु केवल ज्ञान
और केवल दर्शनका व्यापार युगपत् ही होता है । इस विषयको लेकर जैन दार्शनिकोंमें काफी मतमेद हो गया है। ६६ मति-श्रुतका विवेक ।
नन्दीसूत्रकारका अभिप्राय है कि मति और श्रुत अन्योन्यानुगत-अविभाज्य है अर्थात् जहाँ मतिज्ञान होता है वहाँ श्रुतज्ञान, और जहाँ श्रुतज्ञान होता है वहाँ मतिज्ञान होता ही है। नन्दीकारने किसी आचार्यका मत उद्धृत किया है कि-"मह पुवं जेण सुयं न मई सुयपुब्धिया" (सू० २४) अर्थात् श्रुत ज्ञान तो मतिपूर्वक है किन्तु मति श्रुतपूर्वक नहीं अत एव मति और श्रुतका भेद होना चाहिए । मति और श्रुतज्ञानकी इस भेदरेखाको मानकर वाचकने उसे और भी स्पष्ट किया कि-"उत्पन्नाविनष्टार्थप्राहकं सांप्रतकालविषयं मतिशानं श्रुतक्षानं तु त्रिकालविषयम् , उत्पन्नविनष्टानुत्पन्नार्थग्राहकमिति ।" तस्वार्थमा० १.२०। इसी मेदरेखाको आ० जिनभद्रने और भी पुष्ट की है।
स्वार्थभा..। २ तत्वार्थमा० २.१९। ३ तस्वार्थभा० १.३।१ज्ञानविन्दु-परिचय पृ० ५। ५ नन्दीसूत्र २४। ६ "श्रुतं मतिपूर्वम्" तत्वार्थ १.२० । तत्वार्थमा० ..।
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प्रस्तावना।
११३
६७ मतिज्ञानके मेद।
आगमोंमें मतिज्ञानको अवमादि चार मेदोंमें या श्रुतनिश्रितादि दो मैदोंमें विभक्त किया गया है। तदनन्तर प्रमेदोंकी संख्या दी गई है। किन्तु वाचकने मतिज्ञानके भेदोंका क्रम कुछ बदल दिया है (१. १४ से) । मतिज्ञानके मौलिक मेदोंको साधनभेदसे वाचकने विभक्त किया है। उनका क्रम निम्न प्रकारसे है । एक बातका ध्यान रहे कि इसमें स्थानांग और नन्दीगत भुतनिःश्रित और अश्रुतनिःश्रित ऐसे भेदोंको स्थान नहीं मिला किन्तु उस प्राचीन परंपराका अनुसरण है जिसमें मतिज्ञानके ऐसे भेद नहीं थे। दूसरा इस बातका भी ध्यान रखना आवश्यक है कि नन्दी आदि शास्त्रोंमें अवग्रहादिके बलादि प्रकार नहीं गिनाये हैं। जबकि तत्त्वार्थमें वे मौजूद हैं । स्थानांगसूत्रके छठे स्थानकमें (सू० ५१०) बहादि अवग्रहादिका परिगणन क्रममेदसे है किन्तु वहाँ तत्त्वार्थगत प्रतिपक्षी भेदोंका उल्लेख नहीं । इससे पता चलता है कि ज्ञानोंके मेदोंमें बहादि अवग्रहादिके भेदकी परंपरा प्राचीन नहीं । (२) मतिज्ञानके दो भेद
१ इन्द्रियनिमित्त
२ अनिन्द्रियनिमित्त (४) मतिज्ञानके चार मेद
१ अवग्रह २ ईहा ३ अवाय
४ धारणा (२८) मतिज्ञानके अट्ठाईस मेद
२४ इन्द्रियनिमित्तमतिज्ञानके
५ स्पर्शनेन्द्रियजन्य व्यंजनावग्रह,
अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ५रसनेन्द्रियजन्य ५ घाणेन्द्रियजन्य ५ श्रोत्रेन्द्रियजन्य
४ चक्षुरिन्द्रियजन्य अर्थावग्रहादि ।
४ अनिन्द्रियजन्य अर्थावग्रहादि (१६८) मतिज्ञानके एकसो अडसठ भेद
उक्त अठाईस भेदके प्रत्येकके १ बहु, २ बहुविध, ३ क्षिप्र, ४ अनिश्रित, ५ असंदिग्ध और ६ ध्रुव ये छः मेद करनेसे २८४६=१६८ भेद होते हैं।
१ स्थानांगका क्रम है-क्षिप्र, बहु, बहुविध, ध्रुव, भनिश्रित और भसंदिग्ध । तरवार्थका क्रम हैबहु, बहुविध, शिप्र, भनिधित, भसंदिग्ध और ध्रुव । दिगम्बर पाठमें असंदिग्धके स्थानमें अनुक्क है।
न्या. प्रस्तावना १५
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११४
(३३६) मतिज्ञानके तीन सौ छत्तीस भेद
उक्त २८ भेदके प्रत्येक के - १ बहु, २ अल्प, ३ बहुविध ५ क्षित्र, ६ अक्षिप्र, ७ अनिश्रित, ८ निश्रित, ९ असंदिग्ध, ११ ध्रुव और १२ अध्रुव ऐसे बारह भेद करनेसे २८x१२ = ३३६ मतिज्ञानके ३३६ भेदके अतिरिक्त वाचकने प्रथम १६८ जो गेंद दिये है उसमें स्थानांग - निर्दिष्ट अवग्रहादिके प्रतिपक्षरहित छही भेद माननेकी परंपरा कारण हो सकता है । अन्यथा याचकके मतसे जब अवग्रहादि बह्नादि सेतर होते हैं तो १६८ भेद नहीं हो सकते । २८ के बाद ३३६ ही को स्थान मिलना चाहिए ।
इससे हम कह सकते हैं कि प्रथम अवग्रहादिके बह्लादि भेद नहीं किये जाने लगे सिर्फ छः ही भेदोंने सर्व प्रथम स्थान पाया और बादमें
संज्ञा
स्मृति
मति
प्रज्ञा
६८ अवग्रहादिके लक्षण और पर्याय ।
नन्दी सूत्रमें मतिज्ञानके अवग्रहादि मेदोंका लक्षण तो नहीं किया गया किन्तु उनका स्वरूपबोध पर्यायवाचक शब्दोंके द्वारा और दृष्टान्त द्वारा कराया गया है। वाचकने अवग्रहादि मतिमेदोंका लक्षण कर दिया है और पर्यायवाचक शब्द भी दे दिये हैं। ये पर्यायवाचक शब्द एक ही अर्थ बोधक हैं या नाना अर्थके ! इस विषयको लेकर टीकाकारोंमें विवाद हुआ है। उसका पर्यायोंका संग्रह करनेमें दो बातोंका ध्यान रखा है । करना और सजातीय ज्ञानोंका संग्रह करनेके लिये अर्थात् अर्थपर्याय और व्यञ्जनपर्याय दोनोंका संग्रह
मूल यही मालूम होता है कि मूलकार मे ये ये हैं - समानार्थक शब्दोंका संग्रह तद्वाचक शब्दोंका संग्रह भी करना किया गया है।
ईहा
अवाय
यहां नन्दी और उमाखातिके पर्याय शब्दों का तुलनात्मक कोष्ठक देना उपयुक्त होगा मतिज्ञान अवग्रह नन्दी - तस्वार्थ नन्दी आभिनिबोधिक,, अवग्रह 7 " ग्रह
धारणा
तत्वार्थ नन्दी तत्वार्थ नन्दी तश्वार्थ नन्दी तवार्थ
अवाय X धारणा
ईहा
x अवग्रहणता
ग्रहण ईहा
अवर्तनता x धरणा
""
अपोह X उपधारणता अवधारण आभोगनता x प्रत्यावर्तनता x स्थापना x
विमर्श X श्रवणता
x अपाय अपाय प्रतिष्ठा
x
मार्गणा x अवलम्बनता गवेषणा x मेधा
X
"
19
अवमहाविके लक्षण और पर्याय ।
**
"
X
चिंता
X विमर्श x मार्गणा
x गवेषणा
आलोचन चिंता
X
x
X
x
x
X X
x बुद्धि x कोष्ठ
x विज्ञान X
X
ऊहा
तर्क x
परीक्षा x
विचारणा x
जिज्ञासा x
४ अल्पविध,
१० संदिग्ध,
होते हैं ।
किये जाते थे । जबसे
१२ मेदोंने /
अपगम
X
अपनोद x
अपव्याध x अपेत
अपगत
अपविद्ध
अपनुल्य
= x x
x x
x
प्रतिपत्ति
अवधारण
अवस्थान
निश्चय
अवगम
x rasta
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प्रस्तावना ।
[३] नयनिरूपण ।
प्रास्ताविक
वाचक उमास्वाति ने कहा है कि नामादि निक्षेपोंसे न्यस्त जीवादि तत्त्वोंका अधिगम प्रमाण और नयसे करना चाहिए'। इस प्रकार हम देखते हैं कि निक्षेप, प्रमाण और नय मुख्यतः इन तीनों का उपयोग तश्वके अधिगममें है । यही कारण है कि सिद्धसेनादि सभी दार्शनिकोंने उपायतश्वके निरूपणमें प्रमाण, नय और निक्षेपका विचार किया है ।
-
११५
अनुयोगके मूलद्वार उपक्रम, निक्षेप अनुगम और नय ये चार हैं। इनमेंसे दार्शनिक युगमें प्रमाण, नय और निक्षेप, ही का विवेचन मिलता है। नय और निक्षेपने तो अनुयोगके मूल द्वारमें स्थान पाया है पर प्रमाण स्वतन्त्र द्वार न होकर उपक्रम द्वारके प्रभेद रूपसे आया है' ।
अनुयोगद्वारा मतसे भावप्रमाण तीन प्रकारका है - गुणप्रमाण ( प्रत्यक्षादि ), नयप्रमाण और संख्याप्रमाण' । अतएव तस्वतः देखा जाय तो नय और प्रमाणकी प्रकृति एकही है अर्थात् प्रमाण और नयका तात्विक भेद नहीं है। दोनों वस्तुके अधिगमके उपाय हैं । किन्तु प्रमाण अखण्ड वस्तुके अधिगमका उपाय है और नय वस्त्वंशके अधिगमका । इसी भेदको लक्ष्य करके जैनशास्त्रोंमें प्रमाणसे नयका पार्थक्य मानकर दोनों का स्वतन्त्र विवेचन किया जाता है'। यही कारण है कि वाचकने मी 'प्रमाणनयैरधिगमः' (१.६ ) इस सूत्र में प्रमाणसे नयका पृथगुपादान किया है ।
११ नयसंख्या ।
तत्त्वार्थसूत्रके स्वोपज्ञभाष्यसंमत और तदनुसारी टीका संमत पाठके आधार पर यह सिद्ध है। कि वाचकने पांच मूल नय माने हैं "नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दा नयाः” (१. ३४)। यह ठीक है कि आगममें स्पष्टरूपसे पांच नहीं किन्तु सात मूल नयोंका उल्लेख है । किन्तु अनुयोगमें शब्द, समभिरूढ और एवंभूतकी सामान्य संज्ञा शब्दनय दी गई है - " तिण्डं सहनयाणं" (सू० १४८, १५१ ) । अत एव वाचकने अंतिम तीनों को शब्द सामान्य के अन्तर्गत करके मूल नयोंकी पांच संख्या बतलाई है सो अनागमिक नहीं ।
दार्शनिकोंने जो नयोंके अर्थनय और शब्दनये ऐसे विभाग किये हैं उसका मूल मी इस तरहसे आगम जितना पुराना है क्योंकि आगममें जब अंतिम तीनोंको शब्द नय कहा तब अर्थात् सिद्ध हो जाता है कि प्रारंभके चार अर्थनय हैं ।
वाचकने शब्दके तीन भेद किये हैं- सांप्रत, समभिरूढ और एवंभूत । प्रतीत होता है किं शब्दसामान्यसे विशेष शब्द नयको पृथक् करनेके लिये वाचकने उसका सार्थक नाम सांप्रत रखा है ।
१ " एषां च जीवादिवत्वानां यथोद्दिष्टानां नामादिभिर्म्यस्ानां प्रमाणनयैर्विस्तराधिगमो भवति ।" तवार्थभा० १.६ । २ अनुयोगद्वार सू० ५९ । ३ अनुयोगद्वार सू० ७० । ४ अनुयोगद्वार सू० १४६ । ५ तत्वार्थ भा० डीका १.६ । ६ दिगम्बर पाठके अनुसार सूत्र ऐसा है-"नैगम संग्रह व्यवहार जैसूत्रशब्दसमभिरूडैवम्भूता नयाः ।" ७ अनुयोगद्वार सू० १५६ । स्थानांग सू० ५५२ ।
८ प्रमाणन० ७.४४, ४५
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नई विचारणा। .६२ नयोंके लक्षण । ___ अनुयोगद्वारसूत्रमें नयविवेचन दो स्थानपर आया है । अनुयोगका प्रथम मूल द्वार उपक्रम है। उसके प्रभेद रूपसे नय प्रमाणका विवेचन किया गया है तथा अनुयोगके चतुर्थ मूलद्वार नयमें भी नयवर्णन है । नय प्रमाण वर्णन तीन दृष्टान्तों द्वारा किया गया है-प्रस्थक, वसति'
और प्रदेश (अनुयोग सू० १४८)। किन्तु यहां नयोंका लक्षण नहीं किया गया । मूल नयद्वारके प्रसंगमें सूत्रकारने नयोंका लक्षण किया है । सामान्यनयका नहीं।
उन लक्षणोंमें भी अधिकांश नयोंके लक्षण निरुक्तिका आश्रय लेकर किये गये हैं। सूत्रकारने सूत्रोंकी रचना गघमें की है किन्तु नयोंके लक्षण गाथामें दिये हैं। प्रतीत होता है कि अनुयोगसे भी प्राचीन किसी आचार्यने नय लक्षणकी गाथाओंकी रचना की होगी । जिनका संग्रह अनुयोगके कर्ताने किया है।
वाचकने नय का पदार्थनिरूपण निरुक्ति और पर्यायका आश्रय लेकर किया है -
"जीवादीन पदार्थान् नयन्ति प्राप्नुवन्ति कारयन्ति साधयन्ति निर्वतयन्ति निर्भासयन्ति उपलम्भयन्ति व्यञ्जयन्ति इति नयाः।” (१.३५)
अर्थात् जीवादि पदार्थोंका जो बोध करावें वे नय हैं। वाचकने आगमिक उक्त तीन दृष्टांतोंको छोडकर घटके दृष्टान्तसे प्रत्येक नयका खरूप स्पष्ट किया है । इतनाही नहीं बल्कि आगममें जो नाना पदार्थोंमें नयावतारणा की गई है उसमें प्रवेश करानेकी दृष्टिसे जीव, नोजीव, अजीव, नोअजीव इन , शब्दोंका प्रत्येक नयकी दृष्टिमें क्या अर्थ है तथा किस नयकी दृष्टिसे कितने ज्ञान अज्ञान होते हैं इसका भी निरूपण किया है।
३ नई विचारणा। नयोंके लक्षणमें अधिक स्पष्टता और विकास तत्वार्थमें है यह तो अनुयोग और तस्वार्थगत नयोंके लक्षणोंकी तुलना करनेवालेसे छिपा नहीं रहता। किन्तु वाचकने नयके विषयमें जो विशेष विचार उपस्थित किया जो संभवतः आगमकालमें नहीं हुआ था, वह तो यह है कि क्या नय वस्तुतः किसी एक तस्वके विषयमें तत्रान्तरीयोंके नाना मतवाद हैं या जैनाचायोंके ही पारस्परिक मतमेद को व्यक्त करते हैं।
इस प्रश्नके उत्तरसे ही नयका खरूप वस्तुतः क्या है, या वाचकके समयपर्यन्तमें नयविचारकी व्याप्ति कहां तक थी इसका पता लगता है। वाचकने कहा है कि नयवाद यह तन्त्रान्तरीयोंका वाद नहीं है और न जैनाचार्योंका पारस्परिक मतभेद । किन्तु वह तो "शेयस्य तु अर्थस्थाध्यवसायान्तराणि एतानि ।” (१. ३५) है । अर्थात् ज्ञेय पदार्थके नाना अध्यवसाय है। अर्थात् एक ही अर्थक विषयमें भिन्न भिन्न अपेक्षाओंसे होनेवाले नाना प्रकारके निर्णय हैं। ऐसे नाना निर्णय नयभेदसे किस प्रकार होते हैं इसे दृष्टान्तसे वाचकने स्पष्ट किया है ।
प्रो. चक्रवर्तीने स्याद्वादमंजरीगत (का. २८) निलयन retaका मर्य किया है-House-buil. ding (पंचास्तिकायप्रस्तावना पू. ५५) किन्तु उसका 'वसति' से मतलब है । और उसका विवरण मो अनुयोगमें है उससे स्पष्ट है कि प्रो. चक्रवर्तीका. अर्थ प्रान्त है। "किमेते तत्रावरीया वादिन माहोखिद् खतना एवं चोदकपक्षप्राहिणो मतिमेदेन विप्रधाविता इति।"१.१५॥
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प्रस्तावना ।
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एक ही अर्थके विषय में ऐसे अनेक विरोधी निर्णय होनेपर क्या विप्रतिपत्तिका प्रसंग नहीं होगा ! ऐसा प्रश्न उठाकर अनेकान्तवादके आश्रयसे उन्होंने जो उत्तर दिया है उसीमेंसे विरोधके शमन या समन्वयका मार्ग निकल आता है। उनका कहना है कि एक ही लोकको महासामान्य सत् की अपेक्षासे एक; जीव और अजीव के भेदसे दो; द्रव्य, गुण और पर्यायके मेदसे तीन; चतुर्विध दर्शनका विषय होनेसे चार; पांच अस्तिकायकी अपेक्षासे पांच छः द्रव्योंकी अपेक्षा से छः कहा जाता है । जिस प्रकार एक ही लोकके विषयमें अपेक्षाभेदसे ऐसे नाना निर्णय होनेपर भी विवादको कोई स्थान नहीं उसी प्रकार नयाश्रित नाना अध्यवसायोंमें भी विवादको अवकाश नहीं है -
"यथैता न विप्रतिपत्तयोऽथ चाध्यवसाय स्थानान्तराणि एतानि तद्वन्नयवादाः ।"
१.३५ ।
धर्मास्तिकायादि किसी एक तस्वके बोधप्रकार मत्यादिके मेदसे भिन्न होते हैं । एक ही वस्तु प्रत्यक्षादि चार प्रमाणोंके द्वारा भिन्न भिन्न प्रकारसे जानी जाती है। इसमें यदि विवादको अनवकाश है तो नयवाद में भी विवाद नहीं हो सकता । ऐसा मी वाचकने प्रतिपादन किया है - (१.३५ )
वाचकके इस मन्तव्यकी तुलना न्यायभाष्यके निम्न मन्तव्यसे करना चाहिए । न्यायसूत्रगर्त - 'संख्यैकान्तासिद्धिः' ( ४.१.४१ ) की व्याख्या करते समय भाष्यकारने संख्यैकान्तों का निर्देश किया है और बताया है कि ये सभी संख्यायें सच हो सकती हैं, किसी एक संख्याका एकान्त युक्त नहीं' – “अथेमे संख्यैकान्ताः सर्वमेकं सदविशेषात् । सर्व द्वेधा नित्यानित्यमेवात् । सर्व श्रेधा ज्ञाता ज्ञानं ज्ञेयमिति । सर्व चतुर्धा प्रमाता प्रमाणं प्रमेयं प्रमितिरिति । एवं यथा संभवमन्येपि इति ।" न्यायभा० ४.१.४१. ।
वाचकके इस स्पष्टीकरणमें कई नये वादोंका बीज है - जैसे ज्ञानभेदसे अर्थभेद है या नहीं ! प्रमाण संप्लव मानना योग्य है या विप्लव ? धर्मभेदसे धर्मिभेद है या नहीं ? सुनय और दुर्णयका भेद, इत्यादि । इन वादोंके विषयमें बादके जैनदार्शनिकोंने विस्तारसे चर्चा की है।
वाचकके कई मन्तव्य ऐसे हैं जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों संप्रदायोंके अनुकूल नहीं । उनकी चर्चा पं० श्री सुखलालजीने तत्त्वार्थसूत्र के परिचयमें की है अतएव उस विषय में यहाँ विस्तार करना अनावश्यक है । उन्ही मन्तव्योंके आधारपर वाचककी परम्पराका निर्णय होता है कि वे यापनीय थे । उन मन्तव्योंमें दार्शनिक दृष्टिसे कोई महत्वका नहीं है। अतएव उनका वर्णन करना यहाँ प्रस्तुत भी नहीं है।
(ब) आ० कुन्दकुन्दकी जैन दर्शनको देन ।
प्रास्ताविक -
वा० उमाखातिने जैन आगमिक तत्वोंका निरूपण संस्कृत भाषामें सर्वप्रथम किया है तो आ० कुन्दकुन्दने आगमिक पदार्थोंकी दार्शनिक दृष्टिसे तार्किक चर्चा प्राकृत भाषामें सर्व प्रथम
१ "ते खविमे संख्यैकान्ता यदि विशेषकारिवस्य अर्थभेद विस्तारस्य प्रत्याख्यानेन वर्तन्ते, प्रत्यक्षानु मानागमविरोधाम्मिया वादा भवन्ति । अथाम्यनुज्ञानेन वर्तन्ते समानधर्मकारितोऽर्थसंग्रहो विशेषकारि• अर्थमेव इति एवं एकान्तस्वं जहतीति ।” म्यायभा० ४.१.४३.
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आ० कुन्दकुन्दकी जैन दर्शनको देन ।
की है ऐसा उपलब्ध साहित्य सामग्रीके आधार पर कहा जा सकता है। आ० कुन्दकुन्दने जैन तत्वोंका निरूपण वा० उमाखातिकी तरह मुख्यतः आगमके आधारपर नहीं किन्तु तत्कालीन दार्शनिक विचारधाराओंके प्रकाशमें आगमिक तत्त्वोंको स्पष्ट किया है इतना ही नहीं किन्तु अन्य दर्शनोंके मन्तव्योंका यत्र तत्र निरास करके जैन मन्तव्योंकी निर्दोषता और उपादेयता मी सिद्ध की है ।
वाचक उमाखाति तत्त्वार्थकी रचनाका प्रयोजन मुख्यतः संस्कृत भाषा में सूत्र शैलीके ग्रन्थकी आवश्यकताकी पूर्ति करना था । तब आ० कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंकी रचनाका प्रयोजन कुछ दूसरा ही था । उनके सामने तो एक महान् ध्येय था । दिगम्बर संप्रदायकी उपलब्ध जैन आगमौके प्रति अरुचि बढती जा रही थी। किन्तु जब तक ऐसा ही दूसरा साधन आध्यात्मिकभूखको मिटानेवाला उपस्थित न हो तब तक प्राचीन जैन आगमोंका सर्वथा त्याग संभव न था । आगमोंका त्याग कई कारणों' से करना आवश्यक हो गया था किन्तु दूसरे प्रबल समर्थ साधनके अभाव में वह पूर्णरूपसे शक्य न था । इसीको लक्ष्यमें रख कर आ० कुन्दकुन्दने दिगम्बर संप्रदायकी आध्यात्मिक भूख भांगनेके लिये अपने अनेक ग्रन्थोंकी प्राकृत भाषामें रचना की । यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्द के विविध ग्रन्थोंमें ज्ञान, दर्शन और चारित्रका निरूपण प्राचीन आगमिक शैलीमें और आगमिक भाषामें पुनरुक्तिका दोष स्वीकार करके मी विविध प्रकारसे हुआ है । उनको तो एक एक विषयका निरूपण करनेवाले खतन्त्र ग्रन्थ बनाना अभिप्रेत या और समग्र विषयोंकी संक्षिप्त संकलना करनेवाले ग्रन्थ बनाना भी अभिप्रेत था । इतनाही नहीं किन्तु आगमके मुख्य विषयका यथाशक्य तत्कालीन दार्शनिक प्रकाशमें निरूपण भी करना था जिससे जिज्ञासुकी श्रद्धा और बुद्धि दोनोंको पर्याप्त मात्रामें संतोष मिल सके ।
आचार्य कुन्दकुन्दके समय में अद्वैतवादोंकी बाढसी आई थी । औपनिषद ब्रह्माद्वैतके अतिरिक्त शून्याद्वैत और विज्ञानाद्वैत जैसे वाद भी दार्शनिकोंमें प्रतिष्ठित हो चुके थे । तार्किक और 1 श्रद्धालु दोनोंके ऊपर उन अद्वैतवादका प्रभाव सहज ही में जम जाता था । अतएव ऐसे विरोधी वादोंके बीच जैनोंके द्वैतवादकी रक्षा करना कठिन था । इसी आवश्यकतामें से आ० कुन्दकुन्दके निश्चयप्रधान अध्यात्मवादका जन्म हुआ है । जैन आगमोंमें निश्चयनय प्रसिद्ध था ही और निक्षेपोंमें भावनिक्षेप भी मौजूद था । भावनिक्षेपकी प्रधानतासे निश्चयनय का आश्रय लेकर, जैन तत्वोंके निरूपणद्वारा आ० कुन्दकुन्दने जैनदर्शनको दार्शनिकोंके सामने एक नये रूपमें उपस्थित किया । ऐसा करनेसे वेदान्त का अद्वैतानन्द साधकोंको और तस्वजिज्ञासुओंको जैनदर्शन में ही मिल गया । निश्वयनय और भावनिक्षेप का आश्रय लेनेपर - द्रव्य और पर्याय; द्रव्य और गुण; धर्म और धर्मि; अवयव और अवयवी इत्यादिका मेद मिटकर अमेद हो जाता है । ० कुन्दकुन्दको इसी अभेदका निरूपण परिस्थितिवश करना था अत एव उनके प्रन्थोंमें निश्चय प्रधान वर्णन हुआ है । और नैश्वयिक आत्माके वर्णनमें ब्रह्मवाद के समीप जैन आत्माबाद पहुंच गया है। आ० कुन्दकुन्दकृत ग्रन्थोंके अध्ययन के समय उनकी इस निश्चय और
सास कर, वसधारण, केवली कवकाहार, स्त्रीमुक्ति, आपवादिक मसिवान इत्यादिके उल्लेख जैन आगमोंमें थे जो दिगम्बरसंप्रदाय के अनुकूल न थे
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प्रस्तावना।
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भावनिक्षेपप्रधान दृष्टिको सामने रखने से कई गुत्थियाँ मुलझ सकती हैं । और आ० कुन्दकुन्दका तात्पर्य सहज ही में प्राप्त हो सकता है ।
अब हम आ० कुन्दकुन्दके द्वारा चर्चित कुछ विषयोंका निर्देश करते हैं । क्रम प्रायः वही रखा हो जो उमाखातिकी चर्चामें अपनाया है। इससे दोनोंकी तुलना हो जायगी और दार्शनिक विकासका क्रम भी ध्यानमें आ सकेगा।
[१] प्रमेयनिरूपण । ६१ तत्त्व, अर्थ, पदार्थ और तत्वार्थ ।। वाचककी तरह आ० कुन्दकुन्द भी तत्त्व, अर्थ, पदार्थ और तत्त्वार्थ इन शब्दोंको एकार्थक मानते हैं। किन्तु वाचक ने तत्त्वोंके विभाजनके अनेक प्रकारोंमेंसे सात तत्त्वोंको ही सम्यग्दर्शनके विषयभूत माने हैं। तब आचार्य कुन्दकुन्दने खसमयप्रसिद्ध सभी विभाजन प्रकारोंको एकसाथ सम्यग्दर्शनके विषयरूपसे बता दिया है। उनका कहना है कि षड्द्रव्य, नव पदार्थ, पंच अस्तिकाय और सात तत्त्व इनकी श्रद्धा करनेसे जीव सम्यग्दृष्टि होता है। ___ आचार्य कुन्दकुन्दने इन सभी प्रकारोंके अलावा अपनी ओरसे एक नये विभाजनप्रकारका मी प्रचलन किया । वैशेषिकोंने द्रव्य, गुण और कर्मको ही अर्थ संज्ञा दी थी (८.२.३)। इसके स्थानमें आचार्यने कह दिया कि अर्थ तो द्रव्य, गुण और पर्याय ये तीन हैं" । वाचकने जीवादि सातों तत्त्वोंको अर्थ' कहा है तब आ० कुन्दकुन्दने खतन्त्र दृष्टि से उपर्युक्त परिवर्धन मी किया है । जैसा मैंने पहले बताया है जैन आगमोंमें द्रव्य, गुण और पर्याय तो प्रसिद्ध ही थे। किन्तु आ० कुन्दकुन्द ही प्रथम हैं जिन्होंने उनको वैशेषिकदर्शनप्रसिद्ध अर्थसंज्ञा दी। ___ आचार्य कुन्दकुन्दका यह कार्य दार्शनिक दृष्टिसे हुआ है यह स्पष्ट है । विभागका अर्थ ही यह है कि जिसमें एक वर्गके पदार्थ दूसरे वर्गमें समाविष्ट न हों तथा' विभाज्य यावत् पदार्थोंका किसी न किसी वर्गमें समावेश भी हो जाय । इसी लिये आचार्य कुन्दकुन्दने जैनशासप्रसिद्ध अन्य विभाग प्रकारोंके अलावा इस नये प्रकारसे मी तात्त्विक विवेचना करना उचित समझा है। __ आचार्य कुन्दकुन्दको परमसंग्रहावलंबी अमेदवादका समर्थन करना मी इष्ट था अत एव द्रव्य, पर्याय और गुण इन तीनोंकी अर्थ संज्ञाके अलावा उन्होंके मात्र द्रव्यकी मी अर्थ संज्ञा रखी है और गुण तथा पर्यायको द्रव्यमें ही समाविष्ट कर दिया है। ६२ अनेकान्तवाद ।
आचार्यने आगमोपलब्ध अनेकान्तवादको और स्पष्ट किया है और प्रायः उन्ही विषयोंकी चर्चा की है जो आगमकालमें चर्चित थे । विशेषता यह है कि उन्होंने अधिक भार व्यवहार और निश्चयावलंबी पृथक्करणके ऊपर दिया है । उदाहरणके तौर पर आगममें जहाँ द्रव्य और
पंचाखिकाय गा० १२, ११६ । नियमसार गा०९। दर्शनप्राभुत गा० १९। २ वरवायसूत्र १.४।३ "छहण्य णव पयस्था पंचस्थी, सत्त तपणिहिट्ठा । सदाह ताण रूवं सो सट्ठिी मुणेयम्वो ॥" दर्शनप्रा. १९।। ४ प्रवचनसार १.८७ । ५ "वश्वानि जीवादीनि वक्ष्यन्ते । त एवं यार्थी" स्वार्थमा....। ६ प्रवचन० २.१.। २.९ से
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सत् द्रव्य सता ।
पर्यायका गेंद और अमेद माना गया है वहाँ आचार्य स्पष्टीकरण करते हैं कि द्रव्य और पर्याका भेद व्यवहारके आश्रय से है जबकि निश्वयसे दोनोंका अभेद है'। आगममें वर्णादिका सद्भाव और असद्भाव आत्मामें माना है उसका स्पष्टीकरण करते हुए आचार्य कहते है कि व्यवहारसे तो ये सब आत्मामें हैं, निश्चयसे नहीं, इत्यादि । आगममें शरीर और आत्माका भेद और अमेद माना गया है। इस विषयमें आचार्य ने कहा है कि देह और आत्माका ऐक्य यह व्यवहारनयका वक्तव्य है और दोनोंका भेद यह निश्चयनयका वक्तव्य है।' इत्यादि ।
६३ द्रव्यका स्वरूप ।
वाचकके 'उत्पादव्ययधौन्ययुक्तं सत्' 'गुणपर्यायाव्यम्' और 'तद्भावाव्ययं निस्पम्' इन तीन सूत्रों ( ५.२९,१०,१७) का संमिलित अर्थ आ० कुन्दकुन्दके द्रव्यलक्षणमें है ।
"अपरिचत्तसहावेणुष्पादव्ययधुवत्तसंजुतं । गुणवं सपज्जायं अं तं दव्वंति दुयंति ॥"
प्रवचन० २.३ ।
द्रव्य ही जब सत् है तो सत् और द्रव्यके लक्षणमें मेंद नहीं होना चाहिए । इसी अभिप्रायसे 'सद्' लक्षण और 'द्रव्य' लक्षण अलग अलग न करके एक ही द्रव्यके लक्षणरूपसे दोनों लक्षणोंका समन्वय आ० कुन्दकुन्दने कर दियां हैं ।
६४ सत् = द्रव्य सचा ।
द्रव्यके उक्त लक्षण में जो यह कहा गया है कि द्रव्य अपने खभावका परित्याग नहीं करता' वह 'तद्भावाव्ययं नित्यम्' को लक्ष्य करके है । दिव्यका यह भाव या खभाव क्या है जो त्रैकालिक है ! इस प्रश्नका उत्तर आ० कुन्दकुन्दने दिया कि 'सम्भावो हि सभाषो..दम्बस्स esent' (प्रवचन० २.४ ) तीनों कालमें द्रव्यका जो सद्भाव है, अस्तित्व है, सचा है वही स्वभाव है। हो सकता है कि यह सत्ता कभी किसी गुणरूपसे कभी किसी पर्यायरूपसे, उत्पाद, व्यय और धौव्य रूपसे उपलब्ध हो' ।
.
यह भी माना कि इन समीमें अपने अपने विशेष लक्षण हैं तथापि उन सभीका सर्वगत एक लक्षण 'सत्' है ही इस बातको स्वीकार करना ही चाहिए । यही 'सत्' द्रव्यका स्वभाव है अंत एव द्रव्य को स्वभावसे सत् मानना चाहिएँ ।
यदि वैशेषिकोंके समान द्रव्यको स्वभावसे सत् न मानकर द्रव्यवृत्ति सत्तासामान्यके कारण सत् माना जाय तब स्वयं द्रव्य असत् हो जायगा, या सत्से अन्य हो जायगा । अतएव द्वव्य स्वयं सत्ता है ऐसा ही मानना चाहिए ।
- समयसार ७ इत्यादि । २ समयसार ६१ से । ३ समयसार ३१,६७ । ४ वाचकके दोनों क्षणको विकरूपसे भी - द्रव्यके लक्षणरूपसे भा० कुन्दकुन्दने निर्दिष्ट किया है-पंचास्ति० १० । ५ 'गुणेहि सहजहिं चितेहिं उप्पादव्ययधुबत्तेहिं' प्रवचन० २.४ ॥ ६ प्रवचन० २.५ १ ७ वही २.६ । ८ प्रवचन० २.१३ । २.१८ । १.९१५
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यही द्रव्य या सत्ता परमतत्व है । नाना देश और कालमें इसी परमतत्त्वका विस्तार है। जिन्हें हम द्रव्य, गुण या पर्यायके नामसे जानते हैं । वस्तुतः द्रव्यके अभावमें गुण या पर्याय तो होते ही नहीं। यही द्रव्य क्रमशः नाना गुणोंमें या पर्यायोंमें परिणत होता रहता है अत एव वस्तुतः गुण और पर्याय द्रव्यसे अनन्य है- द्रव्यरूप ही हैं। तब परमतत्त्व सत्ताको द्रव्यरूप ही मानना उचित है। ___ आगमों में भी द्रव्य और गुण-पर्यायके अभेदका कथन मिलता है किन्तु अभेद होते हुए मी भेद क्यों प्रतिभासित होता है इसका स्पष्टीकरण जिस ढंगसे आ० कुन्दकुन्दने किया वह उनके दार्शनिक अध्यवसायका फल है। __ आचार्य कुन्दकुन्दने अर्थको परिणमनशील बताया है। परिणाम और अर्थका तादात्म्य माना है । उनका कहना है कि कोई भी परिणाम द्रव्यके विना नहीं और कोई द्रव्य परिणामके विना नहीं। जिस समय द्रव्य जिस परिणामको प्राप्त करता है उस समय वह द्रव्य तन्मय होता है। इस प्रकार द्रव्य और परिणामका अविनाभाव बता कर दोनोंका तादात्म्य सिद्ध किया है। आचार्य कुन्दकुन्दने परमतत्त्व सत्ताका खरूप बताया है कि-(पंचा०८)
"सत्ता सम्वप्रयत्था सविस्सरूवा अणंतपज्जया।
भंगुप्पादधुबत्ता सपडिवक्खा हवदि एका ॥" ६५द्रव्य. गुण और पयोयका सम्बन्ध।
संसारके समी अर्थोका समावेश आ० कुन्दकुन्दके मतसे द्रव्य, गुण और पर्यायमें हो जाता हैं । इन तीनोंका परस्पर संबंध क्या है ? वाचकने कहा है कि द्रन्यके या द्रव्यमें गुणपर्याय होते हैं (तत्त्वार्थ० भा० ५.३७) । अत एव प्रश्न होता है कि यहाँ द्रव्य और गुणपर्यायका कुण्डबदरवत् आधाराधेय संबन्ध है या दंडदंडीवत् ख-खामिभाव संबन्ध है ! या वैशेषिकोंके समान समवाय संबन्ध है ! वाचकने इस विषयमें स्पष्टीकरण नहीं किया। __ आचार्य कुन्दकुन्दने इसका स्पष्टीकरण करनेके लिये प्रथम तो पृथक्व और अन्यस्व की व्याख्या की है
"पविभत्तपदेसत्तं पुत्तमिदि सासणं हि वीरस्स।
__ अण्णत्तमतम्भावो ण तम्भवं होदि कथमेगं ॥" प्रवचन० २.१४ । अर्थात् जिन दो वस्तुओंके प्रदेश भिन्न होते हैं वे पृथक् कही जाती हैं । किन्तु जिनमें अतद्भाव होता है अर्थात् वह यह नहीं है ऐसा प्रत्यय होता है वे अन्य कही जाती हैं।
द्रव्य गुण और पर्यायमें प्रदेशमेद तो नहीं हैं अत एव वे पृथक् नहीं कहे जा सकते किन्तु अन्य तो कहे जा सकते हैं क्यों कि 'जो द्रव्य है वह गुण नहीं' तथा 'जो गुण है वह द्रव्य नहीं' ऐसा प्रत्यय होता हैं । इसीका विशेष स्पष्टीकरण उन्होंने यों किया है कि यह कोई नियम नहीं है कि जहाँ अत्यन्त मेद हो वहीं अन्यत्वका व्यवहार हो । अमिन्नमें मी व्यपदेश, संस्थान, संख्या और विषय के कारण मेदज्ञान हो सकता है । और समर्थन किया है कि
प्रवचम० २.१५। २ प्रवचन २.१८।३समयसार ५ प्रवचन.1.1.। ६प्रवचन.1.61 प्रवचन 1.01 काय ५२।
न्या. प्रस्तावना १६
प्रवचन० २.१,२पंचा.९॥ प्रवचन.२.११।९पंचाखि
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उत्पाइ-व्यय-प्रौव्य । दव्य और गुण-पर्यायमें मेद व्यवहार होनेपर मी वस्तुतः मेद नहीं । दृष्टांत देकर इस बातको समझाया है कि ख-खामिभावसंबंध संबंधिओंके पृथक् होनेपर मी हो सकता है और एक होनेपर मी हो सकता है-जैसे धन और धनीमें तथा ज्ञान और ज्ञानीमें । ज्ञानीसे ज्ञानगुणको, धनीसे धनके समान, अत्यन्त भिन्न नहीं माना जा सकता । क्योंकि ज्ञान और ज्ञानी असन्त भिन्न हों तो ज्ञान और ज्ञानी-आत्मा ये दोनों अचेतन हो जायेंगे' । आत्मा और ज्ञानमें समवाय संबंध मानकर वैशेषिकोंने आत्माको ज्ञानी माना है । किन्तु आ० कुन्दकुन्दने कहा है कि ज्ञानके समवायसंबंधके कारण मी आत्मा ज्ञानी नहीं हो सकतौ । किन्तु गुण और द्रव्यको अपृथग्भूत अयुतसिद्ध ही मानना चाहिए ।' आचार्यने वैशेषिकोंके समवायलक्षणगत अयुतसिद्ध शब्दको खाभिप्रेत अर्थमें घटाया है। क्योंकि वैशेषिकोंने अयुतसिद्धोंमें समवाय मानकर भेद माना है जबकि आ० कुन्दकुन्दने अयुतसिद्धोंमें तादात्म्य माना है । आचार्यने स्पष्ट कहा है कि दर्शनज्ञान गुण आत्मासे स्वभावतः भिन्न नहीं किन्तु व्यपदेश भेदके कारण पृथकं (अन्य) कहे जाते है।
इसी अभेदको उन्होंने अविनाभाव संबंधके द्वारा मी व्यक्त किया है । वाचकने इतना तो कहा है कि गुणपर्याय वियुक्त द्रव्य नहीं होता। उसी सिद्धान्तको आचार्य कुन्दकुन्दने पल्लवित करके कहा है कि द्रव्यके विना पर्याय नहीं और पर्यायके विना द्रव्य नहीं । तथा गुणके विना द्रव्य नहीं और द्रव्यके विना गुण नहीं । अर्थात् भाव-वस्तु द्रव्य-गुण-पर्यायात्मक है।
६६. उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य ।
सत् को वाचकने उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त कहा है । किन्तु यह प्रश्न होता है कि उत्पादादिका परस्पर और द्रव्य-गुण-पर्यायके साथ कैसा संबंध है।
आचार्य कुन्दकुन्दने स्पष्ट किया है कि उत्पत्ति नाशके विना नहीं और नाश उत्पत्तिके. विना नहीं । अर्थात् जब तक किसी एक पर्यायका नाश नहीं, दूसरे पर्याय की उत्पत्ति संभव महीं और जब तक किसी की उत्पत्ति नहीं दूसरेका नाश मी संभव नहीं । इस प्रकार उत्पत्ति और नाशका परस्पर अविनाभाव आचार्यने बताया है।
उत्पत्ति और नाशके परस्पर अविनाभाव का समर्थन करके ही आचार्यने संतोष नहीं किया किन्तु दार्शनिकोंमें सत्कार्यवाद-असत्कार्यवादको लेकर जो विवाद था उसे सुलझानेकी दृष्टि से कहा है कि ये उत्पाद और व्यय तमी घट सकते हैं जब कोई न कोई ध्रुव अर्थ माना जाय । इस प्रकार उत्पादादि तीनोंका अविनाभावसंबंध जब सिद्ध हुआ तब अभेद दृष्टिका अवलम्बन लेकर आचार्यने कह दिया कि एक ही समयमें एक ही द्रव्यमें उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यका समवाय होनेसे द्रव्य ही उत्पादादित्रयरूप है।
पंचा० ५३। २ वही ५। ३ वही ५५। ४ वही५६। ५ वैशे...२.१ । प्रशख. समवायनिरूपण। ६ पंचास्ति०५८। "पजयविजुदं व दम्वविजुत्ता य पजया नस्थि । दो अणण्णभूदं भावं समणा परूविंति ॥ दब्वेण विणा ण गुणा गुणेहिं दवं विणा ण संभवदि । सम्वदिरित्तो भावो दम्वगुणाणं हवदि जमा ॥" पंचा० १२, ८प्रवचन २.८। ९प्रवचन. २.८ । १. प्रवचन० २.१०।
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प्रस्तावना
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आचार्यने उत्पादादित्रय और द्रव्य गुण-पर्यायका संबंध बताते हुए यह कहा है कि उत्पाद और विनाश ये द्रव्यके नहीं होते किन्तु गुण-पर्यायके होते हैं। आचार्यका यह कथन द्रव्य और गुणपर्यायके व्यवहारनयाश्रित भेदके आश्रयसे है। इतना ही नहीं किन्तु साक्ष्यसंमत आत्माकी कूटस्थता तथा नैयायिक-वैशेषिकसमत आत्मद्रव्यकी नित्यताका भी समन्वय करनेका प्रया इस कपनमें है । बुद्धिप्रतिबिम्ब या गुणान्तरोत्पत्तिके होते हुए भी जैसे आत्माको उक्त दार्शनिकोंने उत्पन्न या विनष्ट नहीं माना है वैसे प्रस्तुतमें आचार्यने द्रव्यको मी उत्पाद और व्ययशील नहीं माना है । द्रव्यनयके प्राधान्यसे जब वस्तुदर्शन होता है तब इसी परिणाम पर हम पहुंचते हैं।
किन्तु वस्तु केवल द्रव्य अर्थात् गुण-पर्यायशून्य नहीं है और न खभिन्न गुणपर्यायोंका अधिष्ठानमात्र । वह तो वस्तुतः गुणपर्यायमय है । हम पर्यायनयके प्राधान्यसे वस्तुको एकरूपताके साथ नानारूपमें भी देखते हैं । अर्थात् अनादिअनन्तकाल प्रवाहमें उत्पन्न और विनष्ट होनेवाले नानागुण-पर्यायोंके बीच हम संकलित ध्रुवता भी पाते हैं । यह ध्रुवांश कूटस न हो कर सांख्यसंमत प्रकृतिकी तरह परिणामिनिस्य प्रतीत होता है । यही कारण है कि आचार्यने पर्यायोंमें सिर्फ उत्पाद और व्यय ही नहीं किन्तु स्थिति भी मानी है। ६.७ सस्कार्यवाद-असत्कार्यवादका समन्वय ।
समी कार्योंके मूलमें एकरूप कारण को माननेवाले दार्शनिकोंने, चाहे वे सांख्य हों या प्राचीन वेदान्ती भर्तृप्रपश्च आदि या मध्यकालीन बल्लभाचार्य आदि, सत्कार्यवादको माना है। अर्थात् उनके मतमें कार्य अपने अपने कारणमें सत् होता है। तात्पर्य यह है कि असत् की उत्पत्ति नहीं और सत् का विनाश नहीं। इसके विपरीत न्याय-वैशेषिक और पूर्वमीमांसाका मत है कि कार्य अपने कारणमें सत् नहीं होता । पहले असत् ऐसा अर्थात् अपूर्व ही उत्पन्न होता है । तात्पर्य यह हुआ कि असत् की उत्पत्ति और उत्पन्न सत् का विनाश होता है। __ आगमोंके अभ्यासमें हमने देखा है कि द्रव्य और पर्याय दृष्टिसे एक ही वस्तुमें नित्यानित्यता सिद्ध की गई है । उसी तत्वका आश्रय लेकर आ० कुन्दकुन्दने सत्कार्यवाद-परिणामवाद
और असत्कार्यवाद-आरंभवादका समन्वय करनेका प्रयत्न किया है । उन्होंने द्रव्यनयका आश्रय लेकर सत्कार्यवादका समर्थन किया कि “भावस्स णस्थि णासो णस्थि अभावस्स उप्पादो।" (पंचा० १५) अर्थात् द्रव्यदृष्टिसे देखा जाय तो भाव-वस्तुका कमी नाश नहीं होता और अभावकी उत्पत्ति नहीं होती । अर्थात् असत् ऐसा कोई उत्पन्न नहीं होता । द्रव्य कमी नष्ट नहीं होता और जो कुछ उत्पन्न होता है वह द्रव्यात्मक होनेसे पहले सर्वथा असत् था यह नहीं कहा जासकता । जैसे जीव द्रव्य नाना पर्यायोंको धारण करता है फिर भी यह नहीं कहा जासकता कि वह नष्ट हुआ या नया उत्पन्न हुआ। अत एव द्रव्यदृष्टिसे यही मानना उचित है कि- "एवं सदो विणासो असदो जीवस्स परिथ उप्पादो।" पंचा०१९ ।
इस प्रकार द्रव्यदृष्टिसे सत्कार्यवादका समर्थन करके पर्यायनयके आश्रयसे आ० कुन्दकुन्दने असत्कार्यवादका भी समर्थन किया कि "एवं सदो विणासो असदो जीवस्स होर
पंचा. १,५। २ प्रवचन. २.९। पंचा. " प्रमाणमी. प्रसा. प्र..।
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१४ सप्पादो।" पंचा० ६० । अर्थात् गुण और पर्यायोंमें उत्पाद और व्यय होते हैं अत एव यह मानना पडेगा कि पर्याय दृष्टिसे सत् का विनाश और असत् की उत्पत्ति होती है । जीवका देव पर्याय जो पहले नहीं था अर्थात् असत् था वह उत्पन्न होता है और सत् - विषमान ऐसा मनुष्य पर्याय नष्ट भी होता है।
आचार्यका कहना है कि यद्यपि ये दोनों वाद अन्योन्य विरुद्ध दिखाई देते हैं किन्तु नोंके आश्रयसे वस्तुतः कोई विरोध नहीं। ६८ द्रव्योंका मेद-अमेद।
वाचकने यह समाधान तो किया कि धर्मादि अमूर्त हैं अत एव उन सभी की एकत्र वृत्ति हो सकती है। किन्तु एक दूसरा प्रश्न यह भी हो सकता है कि यदि इन समी की वृत्ति एकत्र है, वे सभी परस्पर प्रविष्ट हैं, तब उन समी की एकता क्यों नहीं मानी जाय ! इस प्रश्नका समाधान आचार्य कुन्दकुन्दने किया कि छहों द्रव्य अन्योन्यमें प्रविष्ट हैं एक दूसरेको अवकाश मी देते हैं, इनका नित्यसंमेलन भी है फिर भी उन- समीमें एकता नहीं हो सकती क्यों कि वे अपने खभावका परित्याग नहीं करते। खभावमेदके कारण एकत्र पत्ति होनेपर भी उन समी का मेद बना रहता है।
धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों अमूर्त हैं और मिन्नावगाह नहीं है तब तीनोंके बजाय एक आकाशका ही स्वभाव ऐसा क्यों न माना जाय जो अवकाश, गति और स्थितिमें कारण हो ऐसा मानने पर तीन द्रव्यके बजाय एक आकाश द्रव्यसे ही काम चल सकता है-ईस शंकाका समाधान भी आचार्यने किया है कि यदि आकाशको अवकाशकी तरह गति और स्थितिमें भी कारण माना जाय तो ऊवंगतिखभाव जीव लोकाकाशके अंत पर स्थिर क्यों हो जाते है ! इस लिये आकाशके अतिरिक्त धर्म-अधर्म द्रव्योंको मानना चाहिए । दूसरी बात यह भी है कि यदि धर्म-अधर्म द्रव्योंको आकाशातिरिक्त न माना जाय तब लोकालोकका विभाग मी नहीं बनेगा।
इस प्रकार खभावमैदके कारण पृथगुपलब्धि होनेसे तीनोंको पृथक् - अन्य सिद्ध करके भाचार्यका अभेद पक्षपाती मानस संतुष्ट नहीं हुआ अत एव तीनोंका परिमाण समान होनेसे तीनोंको अपृथग्भूत भी कह दिया है।
६९ साद्वाद। ___ वाचकके तत्वार्थमें स्याद्वादका जो रूप है वह आगमगत स्याद्वादके विकासका सूचक नहीं है। भगवतीसूत्रकी तरह वाचकने मी भंगोंमें एकवचन आदि वचनमेदोंको प्राधान्य दिया है। किन्तु आचार्य कुन्दकुन्दके प्रन्योंमें सप्तभंगीका वही रूप है जो बादके समी दार्शनिकों में देखा जाता है । यानि भंगोंमें आचार्यने वचनमेदको महत्त्व नहीं दिया है । आचार्यने प्रवचनसारमें (२.२३) अवक्तव्य भंगको तृतीय स्थान दिया है किन्तु पंचास्तिकायमें उसका स्थान चतुर्थ
"गुणपजएसु भाषा उप्पादवये पकुम्वन्ति।"१५। "इदि जिणवरेहिं मणि भणोण्णविल्लूमविरुद्धं ॥"पंचा०६०पंचा
"अण्णोणं पविसंवा दिता मोगासमण्णमण्णस्स ।
मेकंता वियनि सगं समा जबिजहति ॥" पंचा..। पंचा. ९९-१०१। ५पंचा...।
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प्रस्तावना।
१२५ रखा है (गा०१४)। दोनों ग्रन्थोंमें चार भंगोंका ही शब्दतः उपादान है और शेष तीन भेगोंकी योजना करनेकी सूचना की है । इस सप्तभंगीका समर्थन आचार्यने भी द्रव्य और पर्यायनयके आश्रयसे किया है (प्रवचन २.१९)।
६१० मृर्ता मृर्तविवेक।
मूल वैशेषिकसूत्रोंमें द्रव्योंका साधर्म्य-वैधर्म्य मूर्तत्व-अमूर्तत्व धर्मको लेकर बताया नहीं है । इसी प्रकार गुणोंका भी विभाग मूर्तगुण अमूर्तगुण उभयगुण रूपसे नहीं किया है परंतु प्रशस्त पादमें ऐसा हुआ है । अत एव मानना पडता है कि प्रशस्तपादके समयमें ऐसी निरूपण की पद्धति प्रचलित थी।
जैन आगमोंमें और वाचकके तत्वार्थमें द्रव्योंके साधर्म्य वैधर्म्य प्रकरणमें रूपि और अरूपि शब्दोंका प्रयोग देखा जाता है । किन्तु आचार्य कुन्दकुन्दने उन शब्दोंके स्थान में मूर्त और अमूर्त शब्दका प्रयोग किया है । इतना ही नहीं किन्तु गुणोंको भी मूर्त और अमूर्त ऐसे विभागोंमें विभक्त किया है। आचार्य कुन्दकुन्दका यह वर्गीकरण वैशेषिक प्रभावसे रहित है ऐसा नहीं कहा जा सकता।
आचार्य कुन्दकुन्दने मूर्तकी जो व्याख्या की है वह अपूर्ष तो है किन्तु निर्दोष है ऐसा नहीं कहा जा सकता । उन्होंने कहा है कि जो इंद्रियग्राह्य है वह मूर्त है और शेष अमूर्त है। इस व्याख्याके खीकार करनेपर परमाणु पुद्गलको जिसे स्वयं आचार्यने मूर्त कहा है और इन्द्रियाग्राह्य कहा है अमूर्त मानना पडेगा । परमाणुमें रूप-रसादि होनेसे ही स्कन्धमें वे होते हैं और इसी लिये यह प्रत्यक्ष होता है यदि ऐसा मानकर परमाणुमें इन्द्रियग्राह्यताकी योग्यता का स्वीकार किया जाय तो वह मूर्त कहा जा सकता है । इस प्रकार लक्षणकी निर्दोषता मी घटाई जा सकती है। ६११ पुद्गलद्रव्यव्याख्या।।
आचार्यने व्यवहार और निश्चय भयसे पुद्गलद्रव्यकी जो व्याख्या की है. वह अपूर्व है। उनका कहना है कि निश्चयनयकी अपेक्षासे परमाणु ही पुद्गलद्रव्य कहा जाना चाहिए और व्यवहार नयकी अपेक्षासे स्कन्धको पुद्गल कहना चाहिए।
पुद्गल द्रव्यकी जब ऐसी व्याख्या की तब पुगलके गुण और पर्यायोंमें मी आचार्यको खभाव और विभाव ऐसे दो भेद करना प्राप्त हुआ। अतएव उन्होंने कहा है कि परमाणुके गुण खाभाविक हैं और स्कन्धके गुण वैभाविक हैं। इसी प्रकार परमाणुका अन्यनिरपेक्ष परिणमन खभाव पर्याय है और परमाणुका स्कन्धरूप परिणमन अन्यसापेक्ष होनेसे विभाव पर्याय है।
प्रस्तुतमें अन्यनिरपेक्ष परिणमनको जो खभाव पर्याय कहा गया है उसका अर्थ इतना ही समझना चाहिए कि वह परिणमन कालभिन्न निमित्तकारणकी अपेक्षा नहीं रखता। क्योंकि खयं आ० कुन्दकुन्दके मतसे मी समी प्रकारके परिणामों में काल कारण होता ही है।
आगेके दार्शनिकोंने यह सिद्ध किया है कि किसी भी कार्यकी निष्पत्ति सामग्रीसे होती है किसी एक कारणसे नहीं । इसे ध्यानमें रख कर आ० कुन्दकुन्दके उक्त शब्दोंका अर्य करना चाहिए।
पंचा. १०१।२ प्रवचन.२.३८,३९। पंचा.. प्रवचन. २.३९। ५लियमसार २६ पंचा. ४४। ५नियमसार २९। नियमसार २७,२८॥
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पुद्रस्कन्ध।
१२३
६१२ पुद्गलस्कन्ध ।
मा० कुन्दकुन्दने स्कन्धके छ मेद बताये हैं जो वाचकके तत्वार्थमें तथा आगोंमें उस रूपमें देखे नहीं जाते। वे छ: मेद ये हैं१पतिस्थूलस्थूल-पृथ्वी, पर्वतादि । २ स्थूढ़-घृत, जल, तैलादि । ३.स्यूलसूक्ष्म - छाया, आतप आदि । १ सूक्ष्म-स्थूल-स्पर्शन, रसन, प्राण और श्रोत्रेन्द्रियके विषयभूत स्कन्ध । ५ सूक्ष्म-कार्मणवर्गणाप्रायोग्य स्कन्ध । ६ अतिसूक्ष्म-कार्मणवर्गणाके मी योग्य जो न हों ऐसे अतिसूक्ष्म स्कंध । ११३ परमाणुचर्चा ।
भागमवर्णित द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव परमाणुकी तथा उसकी नित्यानित्यताविषयक चर्चा हमने पहले की है। वाचकने परमाणुके विषयमें 'उक्तं च' कह करके किसीके परमाणुलक्षणको उद्धृत किया है वह इस प्रकार है
"कारणमेव सदस्य सुमो नित्यच भवति परमाणुः ।
एकरसगन्धवों हिस्पर्शः कार्यलिशया" इस लक्षणमें निम्न बातें स्पष्ट है१ विप्रदेशादि समी स्कन्धोंका असकारण परमाणु है । २ परमाणु सूक्ष्म है।
१
नित्य है।
१ परमाणुमें एक रस, एक गन्ध, एक वर्ण, दो स्पर्श होते हैं। ५ परमाणुकी सिद्धि कार्यसे होती है।
इन पांच बातोंके अलावा वाचकने 'मेदादणुः' (५.२७) इस सूत्रसे परमाणुकी उत्पत्ति मी बताई है। अत एव यह स्पष्ट है कि वाचकने परमाणुकी नित्यानित्यताका स्वीकार किया है जो आगममें प्रतिपादित है।
परमाणुके सम्बन्धमें आचार्य कुन्दकुन्दने परमाणुके उक्त लक्षणको और भी स्पष्ट किया है। इतना ही नहीं किन्तु उसे दूसरे दार्शनिकों की परिभाषामें समझानेका प्रयन भी किया है । परमाणुके मूल गुणोंमें शब्दको स्थान नहीं है तब पुग्नल शब्दरूप कैसे और कब होता है (पंचा० ८६.) इस बातका भी स्पष्टीकरण किया है। भा० कुन्दकुन्दके परमाणुलक्षणमें निम्न बातें हैं। १, समी स्कन्धोंका अंतिमभाग परमाणु है। २ परमाणु शाश्वत है। ३ अशन्द है। फिर मी शब्दका कारण है। १ अविभाज्य ऐसा एक है। ५ मूर्त है।
पंचा० ४४,४५,60,
नियमसार २५-२५॥
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प्रस्तावना।
६ चतुर्धातुका कारण है और कार्य भी है। ७ परिणामी है। ८ प्रदेशमैद न होनेपर मी वह वर्णादिको अवकाश देता है। ९ स्कन्धोंका कर्ता और स्कन्धान्तरसे स्कन्धका मेदक है । १० काल और संख्याका प्रविभक्ता-व्यवहारनियामक मी परमाणु है । ११ एक रस, एक वर्ण, एक गन्ध और दो स्पर्शयुक्त है। १२ भिन्न होकर भी स्कन्धका घटक है । १३ आत्मादि है, आत्ममध्य है, आत्मान्त है । १४ इन्द्रियाग्राह्य है।
आचार्यने 'धादु चदुक्कस्स कारणं' (पंचा० ८५) अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये चार धातुओंका मूल कारण परमाणु है ऐसा कह करके यह साफ कर दिया है कि जैसा वैशेषिक या चार्वाक मानते हैं वे धातुएँ मूल तत्व नहीं किन्तु समीका मूल एकलक्षण परमाणु ही है। ६१४ आत्मनिरूपण ।
(१) निश्चय और व्यवहार - जैन आगोंमें आत्माको शरीरसे मिल भी कहा है और अभिन्न मी । जीवका ज्ञानपरिणाम मी माना है और गत्यादि भी, जीवको कृष्णवर्ण मी कहा है और अवर्ण मी कहा है । जीवको नित्य मी कहा है और अनिल्य भी, जीवको अमूर्त कह कर मी उसके नारकादि अनेक मूर्त भेद बताये हैं । इस प्रकार जीवके शुद्ध और अशुद्ध दोनों रूपोंका वर्णन आगमोंमें विस्तारसे है। कहीं कहीं द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक नयोंका आश्रय लेकर विरोधका समन्वय भी किया गया है । वाचकने मी जीवके वर्णनमें सकर्मक और अकर्मक जीवका वर्णन मात्र कर दिया है । किन्तु आचार्य कुन्दकुन्दने आत्माके आगमोक्त वर्णनको समझनेकी चावी बता दी है जिसका उपयोग करके आगमके प्रत्येक वर्णनको हम समझ सकते हैं कि आत्माके विषयमें आगममें जो अमुक बात कही गई वह किस दृष्टिसे है । जीवका जो शुद्धरूप आचार्यने बताया है वह आगमकालमें अज्ञात नहीं था। शुद्ध और अशुद्ध स्वरूपके विषयमें आगम कालके आचार्योको कोई भ्रम नहीं था। किन्तु आचार्य कुन्दकुन्दके आत्मनिरूपणकी जो विशेषता है वह यह है कि इन्होंने खसामयिक दार्शनिकोंकी प्रसिद्ध निरूपण शैलीको जैन आत्मनिरूपणमें अपनाया है । दूसरोंके मन्तव्योंको, दूसरोंकी परिभाषाओंको अपने ढंगसे अपनाकर या खण्डन करके जैन मन्तव्यको दार्शनिकरूप देनेका प्रबल प्रयत्न किया है।
औपनिषद दर्शन, विज्ञानवाद और शून्यवादमें वस्तुका निरूपण दो दृष्टिओंसे होने लगा था। एक परमार्थ दृष्टि और दूसरी व्यावहारिक दृष्टि । तत्त्वका एक रूप पारमार्थिक और दूसरा सांवृतिक वर्णित है। एक भूतार्थ है तो दूसरा अभूतार्थ । एक अलौकिक है तो दूसरा लौकिक । एक शुद्ध है तो दूसरा अशुद्ध । एक सूक्ष्म है तो दूसरा स्थूल । जैन आगममें जैसा हमने पहले देखा व्यवहार और निश्चय ये दो नय या दृष्टियाँ क्रमशः स्थूल-लौकिक और सूक्ष्म-तत्त्वग्राही मानी जाती रहीं।
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१२८
मात्मनिरपण। आचार्य कुदकुन्दने आत्मनिरूपण उन्हीं के दृष्टिकोका भावय लेकर किया है। मामाके पारमार्थिक शुद्ध रूपका वर्णन निश्चय नयके आश्रयसे और अशुद्ध या लौकिक-स्थूल भास्माका वर्णन म्यवहार नयके आश्रयसे उन्होंने किया है।
(२) बहिरात्मा-अन्तरात्मा-परमात्मा-माणहक्योपनिषदमें आत्माको चार प्रकार का माना है - अन्तःप्रज्ञ, बहिष्प्रज्ञ, उभयप्रज्ञ और अवाच्य । किन्तु आचार्य कुन्दकुन्दने बहिरात्मा, अन्तरात्मा, और परमात्मा ऐसे तीन प्रकार बतलाये हैं। बाह्य पदार्थोंमें जो आसक्त है, इन्द्रियोंके द्वारा जो अपने शुद्ध खरूपसे प्रष्ट हुआ है तथा जिसे देह और आत्माका भेदज्ञान नहीं जो शरीरको ही आत्मा समझता है ऐसा विपथगामी. मूढात्मा बहिरात्मा है । सांस्योंके प्राकृतिक, वैकृतिक और दाक्षणिक बन्धका समावेश इसी बाह्यास्मामें हो जाता है। .. जिसे मेदज्ञान तो हो गया है पर कर्मवश सशरीर है और जो कमोंके नाशमें प्रयनशील है ऐसा मोक्षमार्गासढ अन्तरात्मा है । शरीर होते हुए भी वह समझता है कि यह मेरा नहीं, मैं तो इससे भिन्न हूं। ध्यानके बलसे कर्म क्षय करके आत्मा अपने शुद्ध खरूपको जब प्राप्त करता है वह परमात्मा है।
(३) परसात्मवर्णनमें समन्वय-परमात्म वर्णनमें आचार्य कुन्दकुन्दने अपनी समन्वय शक्तिका परिचय दिया है । अपने कालमें खयंभूकी प्रतिष्ठाको देखकर खयंभू शब्दका प्रयोग परमात्माके लिये जैनसंमत अर्थमें उन्होंने करदिया है । इतना ही नहीं किन्तु कर्मविमुक्त शुद्ध आत्मा के लिये शिव, परमेष्ठिन् , विष्णु, चतुर्मुख, बुद्ध परमात्मा' जैसे शब्दोंका प्रयोग करके. यह सूचित किया है कि तत्वतः देखा जाय तो परमात्माका रूप एक ही है नाम भले ही नाना हों।
परमात्माके विषयमें आचार्यने जब यह कहा कि वह न कार्य है और नं कारण, तब बौद्धोंके असंस्कृत निर्वाणकी, वेदान्तिओंके ब्रह्मभाव की तथा साक्ष्योंके कूटस्थ पुरुष मुक्त खरूप की कल्पनाका समन्वय उन्होंने किया है।
तत्कालीन नाना विरोधी वादोंका सुन्दर समन्वय उन्होंने परमात्माके खरूप वर्णनके बहाने करदिया है । उससे पता चलता है कि वे केवल पुराने शाश्वत और उच्छेदवादसे ही नहीं बल्कि नवीन विज्ञानाद्वैत और शून्यवादसे मी परिचित थे। उन्होंने परमात्माके विषयमें कहा है
"सस्सदमध उच्छेदं भवमभव्वं च मुण्णमिदरं च । विण्णाणमविण्णाणं ण विशुजदि मसदि समावे॥"
पंचा० ३७ यद्यपि उन्होंने जैनागोंके अनुसार आत्माको कायपरिमाण मी माना है फिर भी उपनिषद् और दार्शनिकोंमें प्रसिद्ध आत्मसर्वगतत्व-विमुत्वका भी अपने ढंगसे समर्थन किया है कि
समय से, ३. से, से। पंचा०३४ा नियम०३८ से । भावप्रा. चन. २.२,८०,१००। २ मोक्षप्रा० ४ से। निबमसार ११९ से। । साल्पत ४४।
५
प्रकप्रवचन
"णाणी सिव परमेट्टी सरह विण्ड मुहो बुद्धो।
अप्पो विय परमप्पो कम्मविमुको यहोर फुर।" ६ पंचा०३६।
भावप्रा०१५९
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प्रस्तावना।
१२९
"भावा णाणपमाणं गाणं पेयप्पमाणमुट्ठि। णेयं लोयालोयं तम्हा जाणं तु सब्बगपं॥ सम्बगदो जिण बसहो सडवे विय तग्गया जगदि अठा। जाणमयादो य जिणो विसयादो तरस ते भणिया ॥"
प्रवचन०१.२३,२६ । यहाँ सर्वगत शब्द कायम रखकर अर्थमें परिवर्तन किया गया है क्यों कि उन्होंने स्पष्ट ही कहा है कि ज्ञान या आत्मा सर्वगत है इसका मतलब यह नहीं कि ज्ञानी ज्ञेयमें प्रविष्ट है या व्याप्त है किन्तु जैसे चक्षु अर्थसे दूर रह कर भी उसका ज्ञान कर सकती है वैसे आत्मा मी सर्व पदापोंको जानता भर है-प्रवचन० १.२८-३२। ___ अर्थात् दूसरे दार्शनिकोंने सर्वगत शब्दका अर्थ, गम धातुको गत्यर्थक मानकर सर्वव्यापक या विभु, ऐसा किया है जब कि आचार्यने गमधातुको मानार्थक मानकर सर्वगतका अर्थ किया है सर्वज्ञ । शब्द वही रहा किन्तु अर्थ जैनाभिप्रेत बन गया। . (४) जगत्कर्तृत्व-वाचार्यने विष्णुके जगत्कर्तृत्वके मन्तव्यका मी समन्वय जैन दृष्टिसे करनेका प्रयन किया है। उन्होंने कहा है कि व्यवहारनयके आश्रयसे जैनसंमत जीवकर्तृत्वमें
और लोकसंमत विष्णुके जगत्कर्तृत्वमें विशेष अन्तर नहीं है । इन दोनों मन्तव्योंको यदि पारमार्षिक माना जाय तब दोष यह होगा कि दोनोंके मतसे मोक्षकी कम्पना असंगत हो जायगी।
(५) कर्तृत्वाकर्तृत्वविवेक-सांख्योंके मतसे श्रास्मामें कर्तृत्व नहीं है क्योंकि उसमें परिणमन नहीं । कर्तृत्व प्रकृतिमें है क्योंकि वह प्रसवधर्मा है । पुरुष वैसा नहीं । तात्पर्य यह है कि जो परिणमनशील हो वह कर्ता हो सकता है । आचार्य कुन्दकुन्दने मी आत्माको सांख्यमतके समन्वयकी दृष्टिसे अकर्ता तो कहा ही है किन्तु अकर्तृत्वका तात्पर्य जैन दृष्टिसे उन्होंने बताया है कि आत्मा पुगलकोंका अर्थात् अनात्म-परिणमनका कर्ता नहीं है। जो परिणमनशील हो वह कर्ता है इस सांख्यसंमत व्याप्तिके बलसे आत्माको कर्ता भी कहा है क्योंकि वह परिणमनशील है । सांख्यसंमत आत्माकी कूटस्थता-अपरिणमनशीलता आचार्यको मान्य नहीं । उन्होंने जैनागम प्रसिद्ध आत्मपरिणमनका समर्थन किया है' और सांख्योंका निरास करके आत्माको खपरिणामोंका कर्ता माना है ।
कर्तृत्वकी व्यावहारिक व्याख्या लोकप्रसिद्ध भाषाप्रयोगकी दृष्टिसे होती है इस बातको खीकार करके मी आचार्यने बताया है कि नैश्चयिक या पारमार्थिक कर्तृत्वकी व्याख्या दूसरी ही करना चाहिए । व्यवहारकी भाषामें हम आत्माको कर्मका मी कर्ता कह सकते हैं किन्तु नैश्चयिक दृष्टि से किसी भी परिणाम या कार्यका कर्ता खद्रव्य ही है पर द्रव्य नहीं। अतएव
बाहोंने भी विभुत्वका स्वाभिप्रेत भर्य किया है कि "विभुत्वं पुनाममहाणप्रभावसंपवता" मध्यान्तविभागटीका पु. ५। २ समयसार ३५०-३५२। सांयका. १९। वही"। ५ समयसार ८१-८८ । ६ वही ८९,९८ । प्रवचन० ३.९२ से। नियमसार १८। प्रवचन 1.RI १.८-से। ८ समयसार १२८ से। ९ समयसार १०५,११२-1१५। १० समवसाद |
न्या. प्रस्तावना १७
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संसारवर्णन ।
१३०
आत्माको ज्ञानादि खपरिणामोंका' ही कर्ता मानना चाहिए । आत्मेतर कर्मादि यावत् कारणोंको अपेक्षाकारण या निमित्त कहना चाहिए' ।
1
वस्तुतः दार्शनिकोंकी दृष्टिसे जो उपादान कारण है उसीको आचार्यने पारमार्थिक दृष्टि कर्ता कहा है । और अन्य कारकोंको बौद्धदर्शन प्रसिद्ध हेतु, निमित्त या प्रत्मय शब्दसे कहा है। जिस प्रकार जैनोंको ईश्वरकर्तृत्व मान्य नहीं है' उसी प्रकार सर्वथा कर्मकर्तृत्व मी मान्य नहीं है। आचार्यकी दार्शनिक दृष्टिने यह दोष देख लिया कि यदि सर्वकर्तुत्वकी जवाबदेही ईश्वरसे छिनकर कर्म के ऊपर रखी जाय तब पुरुषकी खाधीनता खंडित हो जाती है इतना ही नहीं किन्तु ऐसा मानने पर जैनके कर्मकर्तृत्वमें और सांख्योंके प्रकृतिकर्तृत्वमें भेद भी नहीं रह जाता और आत्मा सर्वथा अकारक- अकर्ता हो जाता है । ऐसी स्थितिमें हिंसा या अब्रह्मचर्यका दोष आत्मामें न मान कर कर्ममें ही मानना पडेगा । अत एव मानना यह चाहिए कि आत्माके परिणामोंका स्वयं आत्मा कर्ता है और कर्म अपेक्षा कारण है तथा कर्मके परिणामोंमें स्वयं कर्म कर्ता है और आत्मा अपेक्षा कारण है ।
"जब तक मोहके कारणसे जीव परद्रव्योंको अपना समझ कर उनके परिणामोंमें निमित्त बनता है तब तक संसारवृद्धि निश्चित है । जब भेदज्ञानके द्वारा अनात्मको पर समझता है तब वह कर्ममें निमित्त भी नहीं बनता और उसकी मुक्ति अवश्य होती है ।
(६) शुभ-अशुभ-शुद्ध अध्यवसाय-सांख्य कारिकामें कहा है कि धर्म - पुण्यसे ऊर्ध्वगमन होता है, अधर्म - पापसे अधोगमन होता है किन्तु ज्ञानसे मुक्ति मिलती है । इसी जातको आचार्य जैन परिभाषाका प्रयोग करके कहा है कि आत्माके तीन अध्यवसाय होते हैं - शुभ, अशुभ और शुद्ध । शुभाध्यवसायका फल स्वर्ग है, अशुभका नरकादि और शुद्धका मुक्ति है। इस मतकी न्याय-वैशेषिकके साथ मी तुलना की जा सकती है। उनके मतसे मी धर्म और अधर्म ये दोनों संसारके कारण हैं और धर्माधर्मसे मुक्त शुद्ध चैतन्य होने पर ही मुक्तिलाभ होता है । मेद यही है कि वे मुक्त आत्माको शुद्ध रूप तो मानते हैं किन्तु ज्ञानमय नहीं ।
$ १५ संसारवर्णन ।
आचार्य कुन्दकुन्दके प्रन्थोंसे यह जाना जाता है कि वे सांख्य दर्शनसे पर्याप्तमात्रा में प्रभावित हैं । जब वे आत्माके अकर्तृत्व आदिका समर्थन करते हैं" तब वह प्रभाव स्पष्ट दिखता है। इतना ही नहीं किन्तु सांख्योंकी ही परिभाषाका प्रयोग करके उन्होंने संसार वर्णन भी किया है। सांख्योंके अनुसार प्रकृति और पुरुषका बन्ध ही संसार है। जैनागमों में प्रकृतिबंध नामक बंधका एव प्रकार माना गया है । अत एव आचार्यने अन्य शब्दोंकी अपेक्षा प्रकृति शब्दको संसार वर्णन प्रसंग में प्रयुक्त करके सांख्य और जैन दर्शनकी समानता की ओर संकेत किया है। उन्होंने कहा हैं
१ समयसार १०७, १०९ । २ समयसार ८६-८०,३३९ । ३ समयसार ३५०-३५१ । ४ समयसार ३६६-३७४ । ५ समयसार ८६-८८, ३३९ । ६ समयसार ७४-७५, ९९, ४१७-४१९ । ७ वही ७६-७९, १००, १०४, ३४३ । ८ "धर्मेण गमनमूर्ध्व गमनमचकाजवत्यधर्मेण । ज्ञानेन चापवर्ग:" सfoमका० ४४ । ९ प्रवचन० १.९, ११, १२, १३, २.८९ । समयसार १५५ -१६१ । १० समयसार ८०,८१३४८, ।
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प्रस्तावना ।
"बेदा दु पयडिय उपजदि विणस्सदि । पथडी वि चेदय उपजदि विणस्सदि ॥ एवं बंधी दुण्डंपि अण्णोष्णपचयाण हुवे ।
अप्पणी पयडीए य संसारो तेण जायवे ॥” समयसार ३४०-४१ ।
१३१
सांख्योंने पबन्धम्यायसे प्रकृति और पुरुषके संयोगसे जो सर्ग माना है उसकी तुलना यहाँ करणीय है
"पुरुषस्य दर्शनार्थ कैवल्यार्थ तथा प्रधानस्य ।
पवन्धवदुभयोरपि संयोगस्तत्कृतः सर्गः ॥” सांख्यका० २१ । १६ दोषवर्णन ।
संसारचककी गति रुकनेसे मोक्षलब्धि कैसे होती है इसका वर्णन दार्शनिकसूत्रोंमें विविधरूप से आता है किन्तु सभी का तात्पर्य एक ही है कि अविद्या मोहकी निवृत्तिसे ही मोक्ष प्राप्त होता है। न्यायसूत्र के अनुसार मिथ्याज्ञान मोह ही सभी अनयोंका मूल है । मिथ्याज्ञानसे राग और द्वेष और अन्य दोषकी परंपरा चलती है। दोषसे शुभ और अशुभ प्रवृत्ति होती है। शुभसे धर्म और अशुभसे अधर्म होता है। और उसीके कारण जन्म होता है और जन्मसे दुःख प्राप्त होता है। यही संसार है। इसके विपरीत जब तत्वज्ञान अर्थात् सम्यग्ज्ञान होता है तो मिथ्याज्ञान- मोहका नाश होता है और उसके नाशसे उत्तरोत्तरका मी निरोध हो जाता है'। और इस प्रकार संसारचक्र रुक जाता है। न्यायसूत्रमें सभी दोषोंका समावेश राग, द्वेष और मोह इन तीनमें कर दिया है'। और इन तीनोंमें भी मोहको ही सबसे प्रबल माना है क्योंकि यदि मोह नहीं तो अन्य कोई दोष उत्पन्न ही नहीं होते । अतएव तस्यज्ञानसे वस्तुतः मोहकी निवृत्ति होनेपर संसार निर्मूल हो जाता है। योगसूत्रमें क्लेश- दोषोंका वर्गीकरण प्रकारान्तरसे हैं किन्तु सभी दोषोंका मूल अविद्या - मिथ्याज्ञान मोहमें ही माना गया है'। योगसूत्रके अनुसार क्लेशोंसे कर्माशय - पुण्यापुण्य - धर्माधर्म होता है । और कर्माशय से उसका फल जाति-देह, आयु और भोग होता है । यही संसार है । इस संसारचक्रको रोकनेका एक ही उपाय है कि भेदशानसे - विवेकख्यातिसे अविद्याका नाश किया जाय । उसीसे कैवल्यप्राप्ति होती हैं ।
1
सांख्योंकी प्रकृति त्रिगुणात्मक है' -सस्त्र, रजस् और तमोरूप है। दूसरे शब्दोंमें प्रकृति सुख, दुःख और मोहात्मक है अर्थात् प्रीति- राग, अप्रीति - द्वेष और विषाद - मोहात्मक है" । सांख्योंने" विपर्ययसे बन्ध - संसार माना है । सांख्योंके अनुसार पांच विपर्यय वही हैं जो योगसूत्र के अनुसार क्लेश है" । तत्त्वके अभ्याससे जब अविपर्यय हो जाता है तब केवल ज्ञान - मेदज्ञान हो जाता है" । इसीसे प्रकृति निवृत्त हो जाती है और पुरुष कैवल्यलाभ करता है ।
२ मावसू० ४.१.३ ।
व्यापसू० १.१.२ । और न्यायमा० । ३ " तेषां मोहः पापीयान् मामूढस्येतरोत्पत्तेः ।" न्यायसू० ४.१.६ । ४ "अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पद्मक्लेशाः " । ५ "अविद्या क्षेत्रसुत्तरेषाम्" २.४ । ६ योग० २.११ । ७ वही २.१३ । ८ वही० २.१५, १६ । ९ सयका ११ १० सक्षिका० १२ । ११ सोचका० ४४ । १२ वही ४७-४८ । १३ ही ६४ ।
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दोषवर्णन।
बौद्धदर्शनका प्रतीत्यसमुत्पाद प्रसिद्ध ही है उसमें मी संसारचक्रके मूलमें अविया ही है। उसी अविषाके निरोधसे संसारचक्र रुक जाता है । सभी दोषोंका संग्रह बौद्धोंने मी राग, द्वेष और मोहमें किया है। बौद्धोंने मी राग द्वेषके मूलमें मोह ही को माना है। यही अविधा है।
जैन आगमों में दोषवर्णन दो प्रकारसे हुआ है । एक तो शास्त्रीय प्रकार है जो जैन कर्मशास्त्रकी विवेचनाके अनुकूल है। और दूसरा प्रकार लोकादर द्वारा अन्य तैर्थिकोंमें प्रचलित ऐसे दोष वर्णनका अनुसरण करता है। __ कर्मशास्त्रीय परंपराके अनुसार कषाय और योग येही दो बंध हेतु हैं और उसीका विस्तार करके कमी कमी मिथ्यात्व अविरति कषाय और योग ये चार और कमी कमी इनमें प्रमाद मिलाकर पांच हेतु बताये जाते हैं' कषायरहित योग बन्धका कारण होता नहीं है इसी लिये वस्तुतः कषाय ही बन्धका कारण है इसका स्पष्ट शब्दोंमें वाचकने इस प्रकार निरूपण किया है
"सकवायत्वात् जीवः कर्मणो योग्दान पुगलान् आवत्ते। सबन्धः। तस्वार्ष० ८.२,३ ।
उक्त शास्त्रीय निरूपणप्रकारके अलावा तैर्थिकसमते मतको मी जैन आगमों में स्वीकृत किया है। उसके अनुसार राग, द्वेष और मोह ये तीन संसारके कारणरूपसे जैन आगोंमें बताये गये हैं और उनके त्यागका प्रतिपादन किया गया है। जैन संमत कषायके चार प्रकारोंको राग और द्वेषमें समन्वित करके यह भी कहा गया है कि राग और द्वेष ये दो ही दोष है। दूसरे दार्शनिकोंकी तरह यह मी स्वीकृत किया है कि राग और द्वेषके भी मूलमें मोह है:"रागो पदोसोविय कम्मदीयं कम्मं च मोहप्पमयं वयन्ति।" उत्तरा० ३२.७ ।
जैन कर्मशासके अनुसार मोहनीय कर्मके दो भेद हैं। दर्शनमोह और चारित्रमोह । दूसरे दार्शनिकोंने जिसे अविषा, अज्ञान, तमस् , मोह या मिथ्यात्व : कहा है वही जैमसंमत दर्शनमोड है । और दूसरोंके राग और द्वेषका अन्तर्भाव जैनसंमत चारित्रमोहमें है। जैनसमल हानावरणीय कर्मसे जन्य अज्ञानमें और दर्शनान्तरसंमत अविषा मोह या मिथ्याज्ञानमें अत्यन्त वैलक्षण्य है इसका ध्यान रखना चाहिए। क्योंकि अविधासे उनका तात्पर्य है जीवको सिपथगामी करनेवाला मिथ्यात्व या मोह किन्तु ज्ञानावरणीयजन्य महानमें शानका अभावमात्र विवक्षित है। अर्थात् दर्शनान्तरीय अविद्या कदाग्रहका कारण होती है अनात्ममें आरमाके अभ्यासका कारण बनती है जब कि जैनसंमत उक्त अमान जाननेकी अशक्तिको सूचित करता है। एक-अविद्या के कारण संसार बढता ही है जबकि दूसरा-अहान संसारको बढाता ही है ऐसा नियम नहीं है।
पुदवचन ३००।२ववचन पृ. २१ । अमिधम्म० १.५। प्रवचन लि...। सस्वासूत्र (पं० सुखलालजी) । ५ माध्ययम २१.९।२३.१।२८.२० । १९.७।। १२.२,९। "दोहिं ठाणेहिं पापकम्मा पंधति । जहा- रागेण बोखेण परागे दुविी पणते
हा मावा बोमे । दोसे"कोहे-माणे "खा.२.२०१। प्रजापनापर ।
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योग
बौद्ध
मोह
राग
प्रस्तावना।
१३३ नीचे दोषोंका तुलनात्मक कोष्ठक दिया जाता है ।
जैन नैयायिक सांख्य मोहनीय दोष गुण विपर्यय
अकुशलहेतु १दर्शन मोह मोह तमोगुण तमस् । अविद्या मोह
अस्मिता २ चारित्र मोह माया।
सत्वगुण महामोह राग लोभ
राग क्रोध मान) द्वेष रजोगुण तामित्र द्वेष
अन्धतामिन अभिनिवेश आचार्य कुन्दकुन्दने जैन परिभाषाके अनुसार संसारवर्धक दोषोंका वर्णन किया तो है। किन्तु अधिकतर दोषवर्णन सर्वसुगमताकी दृष्टिसे किया है। यही कारण है कि उनके प्रन्थोंमें राग, द्वेष और मोह इन तीन मौलिक दोषोंका बार बार जिक्र आता है और मुक्तिके लिये इन्ही दोषोंको दूर करनेके लिये भार दिया गया है। ६१७ मेदज्ञान।
समी भास्तिके दर्शनोंके अनुसार खास कर अनात्मसे आत्मांका विवेक करना या मैदान करना यही सम्यग्ज्ञान है, अमोह है । बौद्धोंने सत्कायदृष्टिका निवारण करके मददृष्टिके त्यागका जो उपदेश दिया है उसमें मी रूप, विज्ञान आदिमें आस्म बुद्धिके व्यागकी ओर ही लक्ष्य दिया गया है। आचार्य कुन्दकुन्दने मी अपने प्रन्थोंमें भेदज्ञान करानेका प्रयन किया है। वे मी कहते हैं कि आस्मा मार्गणास्थान गुणस्थान, जीवस्थान, नारक, तिर्यश्श, मनुष्य, और देव, नहीं है; वह बाल, बद्ध, और तरुण नहीं है; वह राग द्वेष, मोह नहीं है, क्रोध, मान, माया और लोभ नहीं है, वह कर्म, नोकर्म नहीं है, उसमें वर्णादि नहीं है इत्यादि मेदाम्यास करना चाहिए'। शुद्धामाका यह मेदाम्यास जैनागमोंमें भी मौजुद है ही। उसे ही पल्लवित करके आचार्यने शुद्धामखरूपका वर्णन किया है। तत्त्वाभ्यास होने पर पुरुषको होनेवाले विशुद्ध ज्ञानका वर्णन सांख्योंने किया है कि
"एवं तत्वाभ्यासानामि म मे नादमित्यपरिशेषम् ।
मविपर्ययादिशुद्धं केवलमुत्पद्यते बानम् ॥" सांस्यका०६४। इसी प्रकार वाचार्य कुन्दकुन्दने मी आत्मा और अनात्मा, बंध और मोक्षका वर्णन करके साधकको उपदेश दिया है कि आत्मा और बन्ध दोनोंके खभावको जानकर जो बन्धनमें नहीं रमण करना वह मुक्त हो जाता है । बद्ध आत्मा मी प्रज्ञाके सहारे आरमा और अमात्माका भेद जान लेता है। उन्होंने कहा है
समसार ९५,११,११,१८५it पंचा. ७, इत्यादि नियमसार । प्रवचन १.69,661 पंचा. १३५,११,१५९,१५,१५६। समयसार ११५,१८९,१९१,२००,२०१,५०, १.१ .नियमसार ५०. इखादि। लिवमसार 10-1 4 समयसार २९,२५-1. १०- प्रवचन.१.१५। समसार । ५पही ७।
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अद्वैतडि ।
"वो जो वेदासोहं तु
।
पण तो जो दा सो महं तु विच्छयो । पचाप चैतव्यो जो जादा सो भहं तु विच्छयो । अवसेसा जे भाषा से भज्जा पदेति णादग्वा ॥" समयसार ३२५-२७ ।
आचार्यके इस वर्णन में आत्माके द्रव और ज्ञातृत्वकी जो बात कही गई हैं वह सांख्य संगत पुरुषत्वकी याद दिलाती है'।
[२] प्रमाणचर्चा ।
प्रास्ताविक ।
आचार्य कुन्दकुन्द अपने प्रन्थोंमें संतचभावसे प्रमाणकी चर्चा तो नहीं की है। और न उमासाविकी तरह शब्दतः पांच ज्ञानोंको प्रमाणसंज्ञा ही दी है। फिर भी ज्ञानोंका जो प्रासंगिक वर्णन है वह दार्शनिककी प्रमाणचर्चासे प्रभावित है ही अत एव ज्ञानचर्चाको ही प्रमाणचर्चा मान कर प्रस्तुत वर्णन किया जाता है। इतना तो किसीसे छिपा नहीं रहता कि वा० उमा जातिकी ज्ञान चर्चासे आ० कुन्दकुन्दकी ज्ञान चर्चा में दार्शनिकविकासकी मात्रा अधिक है। यह बात आगेकी चर्चा स्प हो सकेगी ।
११ अद्वैत
।
आचार्य कुन्दकुन्दका श्रेष्ठ प्रन्थ समयसार है। उसमें उन्होंने तत्वोंका विवेचन नैश्वविक डिका अवलम्बन लेकर किया है। खास उद्देश्य तो है आत्माके निरुपाधिकं शुद्धखरूपका प्रतिपादन किन्तु उसीके लिये अन्यतस्योंका भी पारमार्थिकरूप बतानेका आचार्यने प्रयत्न किया है। आत्माके शुद्धसरूपका वर्णन करते हुए आचार्यने कहा है कि व्यवहार दृष्टिके आश्रयसे यद्यपि आत्मा और उसके ज्ञानादि गुणोंमें तथा ज्ञानादि गुणोंमें पारस्परिक, मेदका प्रतिपादन किया जाता है फिर भी निश्चय दृष्टिसे इतनाही कहना पर्याप्त है कि जो ज्ञाता है वही आत्मा है या आत्मा शायक अम्य कुछ नहीं। इस प्रकार आचार्य की अमेदगामिनी दृष्टिने आत्माके सभी गुणोंका अमेद ज्ञानगुणमें कर दिया है और अन्यत्र स्पष्टतया समर्थन भी किया है कि संपूर्णज्ञान ही ऐकान्तिक सुख है'। इतना ही नहीं किन्तु द्रव्य और गुणमें अर्थात् ज्ञान और ज्ञानीमें भी कोई भेद नहीं है ऐसा प्रतिपादन किया है। उनका कहना है कि आत्मा कर्ता हो, ज्ञान करण हो यह बात भी नहीं किन्तु "जो जानदि सो णाणं ण हवदि णाणेण जाणगो मादा ।" प्रवचन० १.३५ । उन्होंने आत्माको ही उपनिषद्की भाषामें सर्वस्व बताया है और उसीका अवलम्बन मुक्ति है ऐसा प्रतिपादन किया है।
आ० कुन्दकुन्दकी अमेटिको इटनेसे भी संतोष नहीं हुआ। उनके सामने विज्ञानाद्वैत तथा आत्माद्वैतका आदर्श भी था । विज्ञानाद्वैतवादिओंका कहना है कि ज्ञानमें ज्ञानातिरिक्त वो पदार्थोंका प्रतिभास नहीं होता का ही प्रतिभास होता है। ब्रह्माद्वैत का भी यही
१ सोचका १९,१६ । २ समयसार ६,७ । ३ प्रवचन० १.५९६,६० ४ समयसार १०, ११, ४३३ पंचा० ४०,४९ देवो मकावना पृ० १११,१२२ । ५ समयसार १६-११ | नियमसार ९५-१०० ।
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प्रस्तावना ।
१३५
अभिप्राय है कि संसारमें ब्रह्मातिरिक्त कुछ नहीं है अत एव सभी प्रतिभासोंमें ब्रह्म ही प्रतिभासित होता है ।
इन दोनों मतोंके समन्वयकी दृष्टिसे आत्माको ही जानता है बाझ पदार्थोंको और अद्वैतवादका अन्तर बहुत कम कर दिया है ।
आचार्यने कह दिया कि निश्चयदृष्टिसे केवलज्ञानी नहीं'। ऐसा कह करके तो आचार्यने जैन दर्शन दिया है और जैन दर्शनको अद्वैतवादके निकट रख
आ० कुन्दकुन्दकृत सर्वज्ञकी उक्त व्याख्या अपूर्व है और उन्हींके कुछ अनुयायिओं तक सीमित रही है। दिगम्बर जैन दार्शनिक अकलंकादिने भी इसे छोड ही दिया है ।
१२ ज्ञानकी खपरप्रकाशकता ।
दार्शनिकोंमें यह एक विवादका विषय रहा है कि ज्ञानको स्वप्रकाशक, परप्रकाशक या खपरप्रकाशक माना जाय । वाचकने इस चर्चाको ज्ञानके विवेचनमें छेडा ही नहीं है । संभवतः आचार्य कुन्दकुन्द ही प्रथम जैन आचार्य हैं जिन्होंने ज्ञानको खपरप्रकाशक मान कर इस चर्चाका सूत्रपात जैनदर्शनमें किया । आ० कुन्दकुन्दके बादके सभी आचार्योंने आचार्यके इस मन्तव्यको एकखरसे माना है।
आचार्यकी इस का सार नीचे दिया जाता है जिससे उनकी दलीलोंका क्रम ध्यानमें आ जायगा – ( नियमसार - १६० - १७० ) ।
प्रश्न - यदि ज्ञानको परद्रव्यप्रकाशक, दर्शनको आत्माका - खद्रव्यका (जीवका ) प्रकाशक और आत्माको खपरप्रकाशक माना जाय तब क्या दोष है ? (१६०)
उत्तर - यही दोष है कि ऐसा माननेपर ज्ञान और दर्शनका अत्यन्त वैलक्षण्य होनेसे दोनोंको अस्मन्त भिन्न मानना पडेगा । क्योंकि ज्ञान तो परद्रव्यको जानता है, दर्शन नहीं । ( १६१ ) अत एव
दूसरी आपत्ति यह है कि खपरप्रकाशक होनेसे आत्मा तो परका मी प्रकाशक वह दर्शनसे जो कि परप्रकाशकं नहीं, मिस्र ही सिद्ध होगा । (१६२ )
अत एव मानना यह चाहिए कि ज्ञान व्यवहार नयसे परप्रकाशक हैं और दर्शन मी । आत्मा मी व्यवहार नयसे ही परप्रकाशक है और दर्शन भी । (१६३ )
किन्तु निश्चयनयकी अपेक्षासे ज्ञान स्वप्रकाशक है, और दर्शन मी । तथा आत्मा स्वप्रकाशक है और दर्शन भी है। ( १६४ )
प्रश्न- यदि निश्चयनयका ही स्वीकार किया जाय और कहा जाय कि केवलज्ञानी आत्मस्वरूपको ही जानता है लोकालोकको नहीं तब क्या दोष है ? (१६५)
उत्तर - जो मूर्त और अमूर्तको, जीब और अजीवको; स्व और समीको जानता है उसके ज्ञानको अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा जाता है। और जो पूर्वोक्त सकलद्रव्योंको उनके नाना पर्यायोंके
१ "जाणादि रस्सदि सम्यं वबहारणयेण केवली भगवं ।
केषकाणी जाणदि पस्सदि नियमेण अप्पानं ॥" नियमसार १५८
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प्रत्यक्ष-रोक्ष। साप नहीं जानता वसके ज्ञानको परोक्ष कहा जाता है। अत एव यदि एकान्त निक्षयमयका आग्रह रखा जाय तब केवलज्ञानीको प्रत्यक्ष नहीं किन्तु परोक्ष ज्ञान होता है यह मानना पड़ेगा । (१६६-१६७)
प्रश्न-और यदि व्यवहारनयका ही भाग्रह रख कर ऐसा कहा जाय कि केवलज्ञानी लोकाछोकको तो जानता है किन्तु खद्रव्य आत्माको नहीं जानता तब क्या दोष होगा ! (१९८)
उत्तर-झान ही तो जीवका खरूप है । अत एव परद्रव्यको जाननेवाला ज्ञान सदस्य आत्माको ग जाने यह कैसे संभव है। और यदि शान खद्रव्य वात्माको नहीं जानता है ऐसा थामह हो तब यह मानना पडेगा कि ज्ञान जीवखरूप नहीं किन्तु उससे मिल है। क्तः देखा जाय तो ज्ञान ही आत्मा है और आत्मा ही ज्ञान है अत एव व्यवहार और निचय दोनोंके समन्वयसे यही कहना.उचित है कि ज्ञान खपरप्रकाशक है और दर्शन भी । (१६९-१७०)
पापकने सम्पन्धानका अर्थ किया है बन्यभिचारि, प्रशस्त और संगत । किन्तु जाचार्य कुन्दकुन्दने सम्यवानकी जो व्याख्या की है उसमें दार्शनिकप्रसिद्ध समारोपका व्यवच्छेद अभिप्रेत है। उन्होंने कहा है
"संसविनोदविमाविषणि होवि सन्माणं " नियमसार ११॥ मर्यात संशय, विमोह और विभमसे वर्जित ज्ञान सम्पवान है।
एक दूसरी बात मी पान देने पोप है। कासकर बोलावि कार्यानिकोंने सम्पहानके प्रसंगमें हेय और उपादेय शब्दका प्रयोग किया है। पाचार्य कुन्दकुन्द मी हेमोपादेव तात्यों के बाषिग्रसको सम्यग्वान कहते हैं।
समाधान और विभावशाल । अचकामे पूर्णपरंपरा के अनुसार मति, भुत, अवधि और प्रवःपर्याय हानोको पायोपशामिक और केवलको क्षायिक ज्ञान का है। किन्तु आचार्य कुन्दकुन्दके दर्शन की विशेषता यह है कि वे सर्वगम्य परिभाषाका उपयोग करते हैं । अत एव उन्होंने क्षायोपशमिक शानोंके लिये लिमाव ज्ञान और क्षायिक ज्ञानने लिये खभावशान इन शब्दोंका प्रयोग किया है। उनकी व्याख्या है कि कर्मोपाधिवर्जित जो पर्याय हों वे खाभाविक पर्याय हैं और कर्मोपाधिक जो पर्याय हो वे वैमाषिक पर्याय है। इस व्याख्याके अनुसार शुद्ध लामाका बानोपयोग समावज्ञान है और शुद्ध पात्माका ज्ञानोपयोग विभावज्ञान है। ६५ प्रत्यक्ष परोक्ष।
आचार्य कुन्दकुन्दने वाचककी. तरह प्राचीन भागमोंकी - व्यवस्थाके अनुसार ही हानाम प्रसक्षक-परोक्षस्वकी क्यवस्था की है । पूर्वोक खपरप्रकाशकी पके प्रसंगमें प्रत्यक्ष-परोक्षजानकी जो व्याख्या दी गई है वही प्रवचनसार (१.१०,४१, ५४-५०) में भी है किन्तु प्रका.,"अधिगमभावो णाणं हेयोपादेयवाणं " नियमसार ५३ । सुपादु५ । नियमसार १८ । २लियमसार २।३विस्मसार ५॥
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प्रस्तावना ।
१३७ सारमें उक्त व्याख्याओंको युक्तिसे मी सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है । उनका कहना है कि दूसरे दार्शनिक इन्द्रियजन्य ज्ञानोंको प्रत्यक्ष मानते हैं, किन्तु वह प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है ! क्यों कि इन्द्रियाँ तो अनात्मरूप होनेसे परद्रव्य हैं अत एव इन्द्रियोंके द्वारा उपलब्ध वस्तुका ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । इन्द्रियजन्य ज्ञानके लिये परोक्ष शब्द ही उपयुक्त है क्यों कि परसे होनेवाले शान ही को तो परोक्ष कहते हैं। ६६ ज्ञप्तिका तात्पर्य ।
ज्ञानसे अर्थ जाननेका मतलब क्या है ? क्या ज्ञान अर्थरूप हो जाता है यानि ज्ञान और शेयका भेद मिट जाता है ! या जैसा अर्थका आकार होता है वैसा आकार ज्ञानका हो जाता है ! या ज्ञान अर्थमें प्रविष्ट हो जाता है ? या अर्थ ज्ञानमें प्रविष्ट हो जाता है ! या ज्ञान अर्थमें उत्पन्न होता है ! इन प्रश्नोंका उत्तर आचार्यने अपने ढंगसे देनेका प्रयत्न किया है। ___ आचार्यका कहना है कि ज्ञानी ज्ञानखभाव है और अर्थ ज्ञेयखभाव । अत एव भिन्न खभाव ये दोनों स्वतन्त्र हैं एककी वृत्ति दूसरेमें नहीं है। ऐसा कह करके वस्तुतः आचार्यने यह बताया है कि संसारमें मात्र विज्ञानाद्वैत नहीं, बाह्यार्थ भी हैं। उन्होंने दृष्टांत दिया है कि जैसे चक्षु अपनेमें रूपका प्रवेश न होने पर भी रूपको जानती है वैसे ही ज्ञान बाह्याओंको विषय करता है। दोनोंमें विषयविषयीभावरूप संबंधको छोड कर और कोई संबंध नहीं। 'अोंमें ज्ञान है' इसका तात्पर्य बतलाते हुए आचार्यने इन्द्रनील मणिका दृष्टांत दिया है और कहा है कि जैसे दूधके वर्तनमें रखा हुआ इन्द्रनील मणि अपनी दीप्तिसे दूधके रूपका अमिभव करके उसमें रहता है वैसे ज्ञान भी अर्थोंमें है । तात्पर्य यह है कि दूधगत मणि खयं द्रव्यतः संपूर्ण दूधमें व्याप्त नहीं है फिर भी उसकी दीप्तिके कारण समस्त दूध नीलवर्णका दिखाई देता है उसी प्रकार ज्ञान संपूर्ण अर्थमें द्रव्यतः व्याप्त नहीं होता है तथापि विचित्र शक्तिके कारण अर्थको जान लेता है इसी लिये अर्थमें ज्ञान है ऐसा कहा जाता है। इसी प्रकार, यदि अर्थमें ज्ञान है तो ज्ञानमें भी अर्थ है यह भी मानना उचित है । क्यों कि यदि ज्ञानमें अर्थ नहीं तो ज्ञान किसका होगा ! इस प्रकार बान और अर्थका परस्परमें प्रवेश न होते हुए भी विषयविषयीभावके कारण 'ज्ञानमें अर्थ' और 'अर्थमें ज्ञान' इस व्यवहारकी उपपत्ति आचार्यने बतलाई है।
६७ ज्ञान-दर्शन योगपय ।
वाचककी तरह आ० कुन्दकुन्दने भी केवलीके ज्ञान और दर्शनका योगपध माना है। विशेषता यह है कि आचार्यने यौगपद्यके समर्थनमें दृष्टांत दिया है कि जैसे सूर्यके प्रकाश और ताप युगपद् होते हैं वैसे ही केवलीके ज्ञान और दर्शनका योगपथ है।
"जुगवं वहाणाणं केवलणाणिस्स देसणं तहा।
दिणयर पयासतापं जह बट्टा तह मुणेयव्वं ॥" नियमसार १५९ । ६८ सर्वज्ञका ज्ञान । आचार्य कुन्दकुन्दने अपनी अभेद दृष्टिके अनुरूप निश्चय दृष्टिसे सर्वज्ञ की नई व्याख्या
२ प्रवचन.१.२८।३प्रवचन.१.२०,२९.
प्रवचन.१.१०.
प्रवचनसार ५७,५८। ५ वही ३.
न्या. प्रस्तावना १८
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मतिबान । की है। और मेद दृष्टिका अवलंबन करनेवालों के अनुकूल होकर व्यवहार दृष्टिसे सर्वच की वही व्याख्या की है जो आगमोंमें तथा वाचकके तत्वार्थमें है । उन्होंने कहा है
"जाणदि परसदि सव्वं पवहारणएण देवली भगवं।
केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ।" नियमसार १५८ । ___ अर्थात् व्यवहार दृष्टिसे कहा जाता है कि केवली समी द्रव्योंको जानते हैं किन्तु परमार्थतः वह आत्माको ही जातना है।
सर्वज्ञके व्यावहारिक ज्ञानकी वर्णना करते हुए उन्होंने इस बातको बलपूर्वक कहा है कि त्रैकालिक समी द्रव्यों और पर्यायोंका ज्ञान सर्वज्ञको युगपद् होता है ऐसा ही मानना चाहिए। क्यों कि यदि वह त्रैकालिक द्रव्यों और उनके पर्यायोंको युगपद् न जानकर क्रमशः जानेगा तब तो वह किसी एक द्रव्यको भी उनके समी पर्यायोंके साथ नहीं जान सकेगा। और जब एक ही द्रव्यको उसके अनंत पर्यायोंके साथ नहीं जान सकेगा तो वह सर्वज्ञ कैसे होगा। दूसरी बात यह भी है कि यदि अयोंकी अपेक्षा करके ज्ञान क्रमशः उत्पन्न होता है ऐसा माना जाय तब कोई ज्ञान निल्ल, क्षायिक और सर्वविषयक सिद्ध होगा नहीं । यही तो सर्वज्ञ ज्ञानका माहात्म्य है कि वह नित्य त्रैकालिक सभी विषयोंको युगपत् जानता है।
किन्तु जो पर्याय अनुत्पन्न हैं और विनष्ट हैं ऐसे असबूत पर्यायोंको केवलज्ञानी किस प्रकार जानता है। इस प्रश्नका उत्तर उन्होंने दिया है कि समस्त द्रव्योंके सबूत और असबूत समी पर्याय विशेषरूपसे वर्तमानकालिक पर्यायोंकी तरह स्पष्ट प्रतिभासित होते हैं। यही तो उस ज्ञानकी दिव्यता है कि वह अजात और नष्ट दोनों पर्यायोंको जान लेता है।
६९ मतिज्ञान । . आचार्य कुन्दकुन्दने मतिज्ञानके मेदोंका निरूपण प्राचीन परंपराके अनुकूल अवमहादि रूपसे करके ही संतोष नहीं माना किन्तु अन्य प्रकारसे भी किया है । वाचकने एक जीवमें अधिकसे अधिक चार ज्ञानोंका यौगपध मानकर मी कहा है कि उन चारोंका उपयोग तो क्रमशः ही होगा । अत एव यह तो निश्चित है कि वाचकने मतिज्ञानादिके लब्धि और उपयोग ऐसे दो मेदोंका खीकार किया ही है । किन्तु आचार्य कुन्दकुन्दने मतिज्ञानके उपलब्धि, भावना
और उपयोग ये तीन मेद मी किये हैं। प्रस्तुतमें उपलब्धि लब्धिसमानार्थक नहीं है। वाचकका मतिउपयोग उपलब्धि शब्दसे विवक्षित जान पडता है । इन्द्रियजन्य ज्ञानोंके लिये दार्शनिकोंमें उपलब्धि शब्द प्रसिद्ध ही है। उसी शब्दका प्रयोग आचार्यने उसी अर्थमें प्रस्तुतमें किया है । इन्द्रियजन्य ज्ञानके बाद मनुष्य उपलब्ध विषयमें संस्कार दृढ करनेके लिये जो मनन करता है वह भावना है । इस ज्ञानमें मनकी मुख्यता है । इसके बाद उपयोग है। यहाँ उपयोग शब्दका अर्थ सिर्फ ज्ञान व्यापार नहीं किन्तु भावित विषयमें आत्माकी तन्मयता ही उपयोग शब्दसे आचार्यको इष्ट है ऐसा जान पड़ता है।
प्रवचन १.४७। २ प्रवचन १.४८।वही १.१९। वही १.५०। ५वही १५1। प्रवचन.१.३०,५८... वही १.३९। स्वार्थमा० १.१.१पंचाखि. ४२।
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प्रखावना।
६१. श्रुवज्ञान।
वाचकने 'प्रमाणनयैरधिगमः' (१.६) इस सूत्रमें नयोंको प्रमाणसे पृथक रखा है। बाचकने पांच ज्ञानोंके साथ प्रमाणोंका अमेद तो बताया ही है किन्तु नयोंको किस ज्ञानमें समाविष्ट करना इसकी चर्चा नहीं की है । आचार्य कुन्दकुन्दने श्रुतके मेदोंकी चर्चा करते हुए नयोंको मी श्रुतका एक मेद बतलाया है । उन्होंने भुतके भेद इस प्रकार किये हैं- लम्धि, भावना, उपयोग और नये। ___ आचार्यने सम्यग्दर्शनकी व्याख्या करते हुए कहा है कि आप्त-आगम और तस्वकी श्रद्धा सम्यग्दर्शन है। आप्तके लक्षणमें अन्य गुणोंके साथ क्षुधा-सृष्णादिका अभाव भी बताया है। अर्थात् उन्होंने आप्त की व्याख्या दिगम्बर मान्यताके अनुसार की हैं। आगमकी व्याख्यामें उन्होंने वचनको पूर्वापरदोषरहित कहा है उससे उनका तात्पर्य दार्शनिकोंके पूर्वापरविरोधदोषके राहित्यसे है।
[३] नयनिरूपण। ६१ व्यवहार और निश्चय ।
आचार्य कुन्दकुन्दने नयोंके नैगमादि मेदोंका विवरण नहीं किया है। किन्तु आगमिक व्यवहार और निश्चय नयका स्पष्टीकरण किया है और उन दोनों नयोंके आधारसे मोक्षमार्गका
और तत्वोंका पृथकरण किया है । आगममें निश्चय और व्यवहारकी जो चर्चा है उसका निर्देश हमने पूर्वमें किया है । निश्चय और व्यवहारकी व्याख्या आचार्यने आमगानुकूल ही की है किन्तु उन नयोंके आधारसे विचारणीय विषयोंकी अधिकता आचार्यके ग्रन्थों में स्पष्ट है । उन विषयोंमें आत्मादि कुछ विषय तो ऐसे हैं जो आगममें भी हैं किन्तु आगमिक वर्णनमें यह नहीं बताया गया कि यह वचन अमुक नयका है । आचार्यके विवेचमके प्रकाशमें यदि आगोंके उन वाक्योंका बोध किया जाय तब यह स्पष्ट हो जाता है कि आगमके वे वाक्य कौनसे नयके आश्रयसे प्रयुक्त हुए हैं । उक्त दो नयों की व्याख्या करते हुए आचार्यने कहा है"पवहारोऽभूदत्यो भूदरयो देसिदो दु सुद्धणयो।"
समयसार १३॥ अर्थात् व्यवहार नय अभूतार्थ है और शुद्ध अर्थात् निश्चयनय भूतार्थ है।
तात्पर्य इतना ही है कि वस्तुके पारमार्थिक तात्विक शुद्धखरूपका ग्रहण निश्चय नयसे होता है और अशुद्ध अपारमार्थिक या लौकिकखरूपका ग्रहण व्यवहारसे होता है । वस्तुतः छः द्रव्योंमेंसे जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंके विषयमें सांसारिक जीवोंको भ्रम होता है । जीव संसारावस्था में प्रायः पुद्गलसे मिन्न उपलब्ध नहीं होता है अत एव साधारण लोग जीवमें कई ऐसे धर्मोंका अध्यास कर देते हैं जो वस्तुतः उसके नहीं होते। इसी प्रकार पुद्गलके विषयमें भी विपर्यास कर देते हैं । इसी विपर्यास की दृष्टिसे व्यवहारको अभूतार्थप्राही कहा गया है
और निश्चयको भूतार्थग्राही । परंतु भाचार्य इस बातको मी मानते ही हैं कि विपर्यास मी निर्मूल नही है । जीव अनादि कालसे मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति इन तीन परिणामोंसे
स्पर्ष १.१.। २ पंचा० ४३। ३ नियमसार ५। नियमसार । ५ नियमसार
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व्यवहार और निश्चय। परिणत होता है। इन्ही परिणामोंके कारण यह संसारका सारा विपर्यास है, इसका इन्कार नहीं किया जा सकता । यदि हम संसारका अस्तित्व मानते हैं तो व्यवहारनयके विषयका मी अस्तित्व मानना पडेगा । वस्तुतः निश्चय नय मी तब तक एक खतम नय है जब तक उसका प्रतिपक्षी व्यवहार मौजुद है । यदि व्यवहार नय नहीं तो निश्चय भी नहीं । यदि संसार नहीं तो मोक्ष मी नहीं । संसार-मोक्ष जैसे परस्पर सापेक्ष हैं वैसे ही व्यवहार और निश्चय मी परस्पर सापेक्ष है। आचार्य कुन्दकुन्दने परम तत्वका वर्णन करते हुए इन दोनों नयोंकी सापेक्षताको ध्यानमें रख कर ही कह दिया है कि वस्तुतः तत्त्वका वर्णन न निश्चयसे हो सकता है न व्यवहारसे । क्यों कि ये दोनों नय अमर्यादितको, अवाच्यको, मर्यादित और वाच्य बनाकर वर्णन करते हैं । अत एव वस्तुका परमशुद्ध खरूप तो पक्षातिक्रान्त है । वह न व्यवहारमाश है और म निश्चयमाघ । जैसे जीवको व्यवहारके आश्रयसे बद्ध कहा जाता है और निश्चयके आश्रयसे अबद्ध कहा जाता है। साफ है कि जीवमें अबद्धका व्यवहार मी बद्धकी अपेक्षासे हुआ है। अत एव आचार्षने कह दिया कि वस्तुतः जीव न बद्ध है और न अबद्ध किन्तु पक्षातिक्रान्त है। यही समयसार है, यही परमात्मा है'। व्यवहार नयके निराकरणके लिये निश्चय नयका अवलंबन है किन्तु निश्चयनयावलंबन ही कर्तव्यकी इतिश्री नहीं है । उसके आश्रयसे आत्माके खरूपका बोध करके उसे छोडने पर ही तस्वका साक्षात्कार संभव है। भाचार्यके प्रस्तुत मतके साथ नागार्जुनके निम्न मतकी तुलना करना चाहिए।
"शून्यता सर्वष्टीनां प्रोक्ता निस्सरणं जिनैः। येषां तु शून्यतारपिस्तानसाभ्यान वभाषिरे ॥"माध्य० १३.८ । "शून्यमिति न वक्तव्यमशून्य मिति वा भवेत् ।
उभयं नोभयं चेति प्राप्त्यर्थे तु कथ्यते ॥" माध्य० २२.११ । प्रसंगसे नागार्जुन और आ० कुन्दकुन्दकी एक अन्य बात मी तुलनीय है जिसका निर्देश मी उपयुक्त है । आचार्य कुन्दकुन्दने कहा है
"जह णवि सक्कमणजो अणजभासं विणा दुगाहेदूं।
तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसकं॥" समयसार। ये ही शब्द नागार्जुनके कथनमें भी हैं
"नान्यया भाषया म्लेच्छा शक्यो प्राहयितुं यथा।
न लौकिकमृते लोकः शक्यो ग्राहयितुं तथा ॥" माध्य० पू० ३७० । आचार्यने अनेक विषयों की चर्चा उक्त दोनों नयोंके आश्रयसे की है जिनमेंसे कुछ ये हैंझानादि गुण और आत्माका संबंध, आत्मा और देहका संबन्धे, जीव और अध्यवसाय, गुणस्थन समयसार १६ । २ समयसार० तात्पर्य० पू०६७।
"कम्मं बदमबद्ध जीवे एवं तु आण णयपक्खें। पक्सातिकतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो॥" समयसार १५२ । "दोषणविणयाण भणियं जाणइ णवरंतु समयपरिबद्धो ।
जदुणयपक्संगिण्हदि किंचि बिणयपक्सपरिहीणो॥" समय. १५३ । समब..,१९३.से। ५ समयसार ३२से।
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प्रस्तावना। आदिका संबंध; मोक्षमार्ग ज्ञानादि'; आत्मा; कर्तृत्व; आत्मा और कर्म, क्रिया, भोग; बद्धत्वअबद्धत्व; मोक्षोपयोगी लिंग; बंधविचार; सर्वज्ञत्व; पुद्गलें इत्यादि ।
३. आचार्य सिद्धसेन । ६१ सिद्धसेनका समय।
सिद्धसेन दिवाकरको 'सन्मति प्रकरण' की प्रस्तावनामें (पृ०४३) पं० सुखलालजी और पं० बेचरदासजीने विक्रमकी पांचवी शताब्दीके आचार्य माने हैं । उक्त पुस्तकके अंग्रेजी संस्करणमें मैंने सूचित किया था कि धर्मकीर्तिके प्रमाणवार्तिक आदि ग्रन्थके प्रकाशमें सिद्धसेनके समयको शायद परिवर्तित करना पडे, अर्थात् पांचवीके स्थानमें छठी-सातवी शताब्दीमें सिद्धसेनकी स्थिति मानना पडे । किन्तु अभी अभी पंडित सुखलालजीने सिद्धसेनके समयकी पुनः चर्चा की है। उसमें उन्होंमें सिद्ध किया है कि सिद्धसेनको पांचवी शताब्दीका ही विद्वान् मानना चाहिए । उनकी मुख्य दलील है कि पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि में सिद्धसेनकी द्वात्रिंशिकाका उद्धरण है" । अत एव पांचवीके उत्तरार्धसे छठीके पूर्वार्ध तकमें माने जानेवाले पूज्यपादसे पूर्ववर्ती होनेके कारण सिद्धसेनको विक्रम पांचवीं शताब्दीका ही विद्वान् मानना चाहिए। इस दलीलके रहते अब सिद्धसेनके समयकी उत्तरावधि पांचवी शताब्दीसे आगे नहीं बढ सकती। उन्हें पांचवीं शताव्दीसे अर्वाचीन नहीं माना जा सकता ।
वस्तुतः सिद्धसेमके समयकी चर्चा के प्रसंगमें न्यायावतारगत कुछ शब्दों और सिद्धान्तोंको लेकर प्रो० जेकोबीने यह सिद्ध करनेकी चेष्टा की थी कि सिद्धसेन धर्मकीर्तिके बाद हुए हैं। प्रो. वैद्यने मी उन्हींका अनुसरण किया । कुछ विद्वानोंने न्यायावतारके नवम श्लोकके लिये कहा कि वह समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डका है अत एव सिद्धसेन समन्तभद्रके बाद दुए इस प्रकार सिद्धसेनके समयके निश्चयमें न्यायावतारने काफी विवाद खडा किया है । अत एव न्यायावतारका विशेष रूपसे तुलनात्मक अध्ययन मैंने प्रस्तुत संस्करणके प्रथम परिशिष्ट किया है । उस परिशिष्टके आधारसे यह निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है कि सिद्धसेनको धर्मकीर्तिके पहलेका विद्वान् माननेमें कोई समर्थ बाधक प्रमाण नहीं है । रत्नकरण्डके विषयमें अब तो प्रो० हीरालालने यह सिद्ध किया है कि वह समन्तभद्रकृत नहीं, तब उसके आधारसे यह कहना कि, सिद्धसेन समन्तभद्रके बाद हुए, युक्तियुक्त नहीं।
अत एव पंडित सुखलालजीके द्वारा निर्णीत विक्रमकी पांचवी शताब्दीमें सिद्धसेनकी स्थिति निर्बाध प्रतीत होती है।
समयसार ६ से। २पंचा० १६७ से। नियम ५४ से । दर्शन प्रा० २० । ३ समय० १,१६ इत्यादि नियम ४९। ४ समय०२५, ९० भादि नियम० १८। ५ समय० ३८६ से। ६ समय. १५१। समय० ४४५। ८ प्रवचन २.९७ । ९ नियम० १५८। १० नियम २९ । ११'श्रीसिद्धसेन दिवाकरना समयनो प्रभ' भारतीयविद्या वर्ष ३ पृ० १५२ । १२ सर्वार्थ सिद्धि ७.१३ में सिद्धसेन की तीसरी द्वात्रिंशिकाका १६ वाँ पद्य उद्धृत है। १३ समराइचकहा, प्रस्तावना पू०३। १४ न्यायावतार प्रस्तावना पृ०१०। १५ अनेकान्त वर्ष०८ किरण १-३।
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सन्मतितर्क में अनेकान्त स्थापन ।
६२ सिद्धसेन की प्रतिभा ।
आचार्य सिद्धसेनके जीवन और लेखनके सम्बन्ध में 'सन्मतितर्कप्रकरणम्' के समर्थ संपादकोंने पर्याप्त मात्रामें प्रकाश डाला है'। जैनदार्शनिक साहित्यकी एक नई धारा प्रवाहित करनेमें सिद्धसैन सर्व प्रथम है इतना ही नहीं किन्तु जैनसाहित्यके भंडारमें संस्कृतभाषा में काव्यमय तर्कपूर्ण स्तुतिसाहित्यको प्रस्तुत करनेमें भी सिद्धसेन सर्वप्रथम है। पंडित सुखलालजीने उनको प्रतिभामूर्ति कहा है यह अत्युक्ति नहीं । सिद्धसेनका प्राकृत ग्रन्थ सन्मति देखा जाय, या उनकी द्वात्रिंशिकाएँ देखी जाय, पद पद पर सिद्धसेनकी प्रतिभा का वाचकको साक्षात्कार होता है। जैन साहित्यकी जो न्यूनता थी, उसीकी पूर्तिकी ओर उनकी प्रतिभाका प्रयाण हुआ है।
तिचर्वण उन्होंने नहीं किया । टीकाएँ उन्होंने नहीं लिखीं किन्तु समयकी गतिविधिको देखकर जैन आगमिक साहित्यसे ऊपर उठ कर तर्कसंगत अनेकान्तवाद के समर्थन में उन्होंने अपना बल लगाया । फलस्वरूप 'सन्मतितर्क' जैसा शासनप्रभावक प्रन्थ उपलब्ध हुआ ।
६३ सम्मतितर्क में अनेकान्त स्थापन ।
'नागार्जुन, असंग, वसुबन्धु और दिमागने भारतीय दार्शनिक परंपराको एक नई गति प्रदान की है। नागार्जुनने तत्कालीन बौद्ध और बौद्धेतर सभी दार्शनिकोंके सामने अपने शून्यवादको उपस्थित करके वस्तुको सापेक्ष सिद्ध किया । उनका कहना था कि वस्तु न भावरूप है, न अभावरूप, न भावाभावरूप, और न अनुभयरूप । वस्तुको कैसा मी विशेषण देकर उसका रूप बताया नहीं जा सकता, वस्तु निःखभाव है; यही नागार्जुनका मन्तव्य था । असन और वसुबन्धु इन दोनों भाइओंने वस्तुमात्रको विज्ञानरूप सिद्ध किया और बाह्य जड पदार्थोंका अपलाप किया । वसुबन्धुके शिष्य दिग्नागने मी उनका समर्थन किया और समर्थन करनेके लिये बौद्ध दृष्टिसे नवीन प्रमाणशास्त्रकी भी नींव रखी। इसी कारण से वह बौद्ध न्यायशास्त्रका पिता कहा जाता । उसने प्रमाणशास्त्रके बलपर सभी वस्तुकी क्षणिकताके बौद्ध सिद्धान्तका भी समर्थन किया ।
बौद्ध विद्वानोंके विरुद्धमें भारतीय सभी दार्शनिकोंने अपने अपने पक्षकी सिद्धि करनेके लिये पूरा बल लगाया । नैयायिक वात्स्यायनने नागार्जुन और अन्य दार्शनिकोंका खण्डन करके आत्मादि प्रमेयोंकी भावरूपता और सभी का पार्थक्य सिद्ध किया । मीमांसक शबरने विज्ञानवाद 1 और शून्यवादका निरास किया तथा बेदापौरुषेयता सिद्ध की । वात्स्यायन और शबर दोनोंने aah 'सर्व क्षणिकम्' सिद्धान्त की आलोचना करके आत्मादि पदार्थोंकी नित्यताकी रक्षा की । सांख्योंने भी अपने पक्षकी रक्षाके लिये प्रयत्न किया । इन समीको अकेले दिमागने उत्तर दे करके फिर विज्ञानवादका समर्थन किया । तथा बौद्धसंमत सर्ववस्तुओंकी क्षणिकताका सिद्धान्त स्थिर किया ।'
ईसा की प्रथम शताब्दी से लेकर पांचवी शताब्दी तककी इस दार्शनिकवादोंकी पृष्ठभूमिको यदि ध्यान में रखें तो प्रतीत होगा कि जैन दार्शनिक सिद्धसेनका आविर्भाव यह एक आकस्मिक घटना नहीं किन्तु जैन साहित्यके क्षेत्रमें भी दिग्नागके जैसे एक प्रतिभासंपन्न विद्वान् की आवश्यकताने ही प्रतिभामूर्ति सिद्धसेनको उत्पन्न किया है ।
१' सम्मति प्रकरण' (गुजराती) की प्रस्तावना । उसीका अंग्रेजी-संस्करण-जैन श्रे० कोम्फरन्सद्वारा प्रकाशित । 'प्रतिभामूर्ति हुआ है सिद्धसेन'- भारतीयविद्या तृतीयभाग पृ० ९ ।
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प्रस्तावना ।
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आगमगत अनेकान्तवाद और स्याद्वादका वर्णन पूर्वमें हो चुका है। उससे पता चलता है कि भगवान् महावीरका मानस अनेकान्तवादी था । आचार्येने मी अनेकान्तबादको कैसे विकसित किया यह भी मैंने बताया है। आचार्य सिद्धसेनने जब अनेकान्तवाद और स्याद्वादके प्रकाशमें उपयुक्त दार्शनिकोंके वादविवादोंको देखा तब उनकी प्रतिभाषी स्फूर्ति हुई और उन्होंने अनेकान्तवाद की स्थापनाका श्रेष्ठ अवसर समझकर सम्मतितर्क नामक ग्रन्थ लिखा ।
प्रबल वादी तो थे ही। इस बातकी साक्षी उनकी वादद्वात्रिंशिकाएँ ( ७ और ८ ) दे रही हैं । अत एव उन्होंने जैन सिद्धान्तोंको तार्किकभूमिका पर लेजा करके एक वादीकी कुशलता से दार्शनिकोंके बीच अनेकान्तवाद की स्थापना की । सिद्धसेनकी विशेषता यह है कि उन्होंने तत्कालीन नाना वादोंको सन्मतितर्क में विभिन्न नयवादों में सन्निविष्ट कर दिया । अद्वैत वादोंको उन्होंने द्रव्यार्थिक नयके संग्रहनयरूप प्रमेद में समाविष्ट किया । क्षणिकवादी बौद्धोंकी दृष्टिको सिद्धसेनने पर्यायनयान्तर्गत जुसूत्रनयानुसारी बताया । सांख्य दृष्टिका समावेश द्रव्यार्थिक नय किया और काणाददर्शनको उभयनयाश्रित सिद्ध किया । उनका तो यहाँ तक कहना है कि संसार में जितने वचन प्रकार हो सकते हैं, जितने दर्शन - नाना मतवाद हो सकते हैं उतने ही नयवाद हैं। उन सभीका समागम ही अनेकान्तवाद है -
"जावइया वयणवद्दा तावइया चेव होन्ति णयवाया। जावइया णयवाया ताबइया चेव परसमया ॥ जं काविलं दरिलणं एयं दव्वट्टियस्स वतव्वं । सुद्धो अणतणअस्स उ परिसुद्धो पज्जवविभप्पो ॥ दोहिं वि जयेहिं णीयं सत्थमुलूपण तहवि मिच्छतं । जं सविसप्पाणतणेण अण्णोष्णनिरवेक्ला ॥" सम्मति० ३.४७-४९ ।
सिद्धसेन ने कहा है कि सभी नयवाद, सभी दर्शन मिथ्या हैं यदि वे एक दूसरेकी परस्पर अपेक्षा न करते हों और अपने मतको ही सर्वथा ठीक समझते हों । संग्रहनयावलंबी सांख्य या पर्यायनयावलम्बी बौद्ध अपनी दृष्टिसे वस्तुको नित्य या अनित्य कहें तब तक वे मिथ्या नहीं किन्तु सांख्य जब यह आग्रह रखे कि वस्तु सर्वथा नित्य ही है और वह किसी भी प्रकार अनित्य हो ही नहीं सकती; या बौद्ध यदि यह कहे कि वस्तु सर्वथा क्षणिक ही है, वह किसी मी प्रकारसे अक्षणिक हो ही नहीं सकती; तब सिद्धसेनका कहना है कि उन दोनोंने अपनी मर्यादाका अतिक्रमण किया है अत एव वे दोनों मिथ्यावादी हैं ( सन्मति १.२८) सांख्यकी दृष्टिसंग्रहावलंबी है, अभेदगामी है अत एव वह वस्तुको नित्य कहे यह स्वाभाविक है, उसकी वही मर्यादा है; और बौद्ध पर्यायानुगामी या भेददृष्टि होनेसे वस्तुको क्षणिक या अनित्य कहे यह भी स्वाभाविक है, उसकी वही मर्यादा है । किन्तु वस्तुका संपूर्ण दर्शन न तो सिर्फ द्रव्यदृष्टिमें पर्यबसित है और न पर्यायदृष्टि में (सन्मति १०.१२,१३ ); अत एव सांख्य या बौद्धको परस्पर मिथ्यावादी कहनेका खातथ्य नहीं । नानावाद या दर्शन अपनी अपनी दृष्टिसे वस्तुतस्त्वका दर्शन करते हैं इसलिये नयवाद कहे जाते हैं । किन्तु वे तो परमतके निराकरणमें भी तत्पर हैं इसलिये मिथ्या हैं ( सन्मति १.२८ ) | द्रव्यार्थिक जय सम्यग् है किन्तु तदवलम्बी सांख्य दर्शन मिथ्या है क्यों कि उसने उस नयका आश्रय लेकर एकान्त नित्य पक्षका
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म्यायावतारमें जैन न्यायशासकी नींव । अवलम्बन लिया। इसी प्रकार पर्यापमयके सम्यक् होते हुए मी यदि बौद्ध उसका आश्रय लेकर एकान्त अमिस्स पक्षको ही मान्य रखे तब वह मिथ्यावाद बन जाता है । इसी लिये सिद्धसेनने कहा है कि जैसे वैडूर्यमणि जब तक पृथक् पृथक् होते हैं, वैडूर्यमणि होनेके कारण कीमती होते हुए भी उनको रमावलीहार नहीं कहा जाता किन्तु वे ही किसी एक सूत्रमें सुव्यवस्थित हो जाते हैं तब रनावली हारकी संज्ञाको प्राप्त करते हैं । इसी प्रकार नयवाद भी जब तक अपने अपने मतका ही समर्थन करते हैं और दूसरोंके निराकरणमें ही तत्पर रहते हैं वे सम्यग्दर्शन नामके योग्य नहीं । किन्तु अनेकान्तवाद जो कि उन नयवादोंके समूहरूप है सम्यग् दर्शन है क्यों कि अनेकान्त वादमें समी नयवादोंको वस्तुदर्शनमें अपना अपना स्थान दिया गया है, वे समी नयवाद एकसूत्रबद्ध हो गये हैं, उनका पारस्परिक विरोध लुप्त हो गया है (सन्मति १.२२-२५), अत एव अनेकान्तवाद वस्तुका संपूर्ण दर्शन होनेसे सम्यग्दर्शन है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सिद्धसेनने अनेक युक्तिओंसे अनेकान्तवादको स्थिर करने की चेष्टा सन्मतितर्कमें की है। ६४ न्यायावतारमें जैन न्यायशासकी नींव ।
जैसे दिमागने बौद्धसंमत विज्ञानवाद और एकान्त क्षणिकताको सिद्ध करने लिये पूर्वपरंपरामें थोडा बहुत परिवर्तन करके बौद्ध प्रमाणशासको व्यवस्थित रूप दिया । उसी प्रकार सिद्धसेनने मी जैन न्यायशास्त्रकी नींव न्यायावतारकी रचना करके रखी। जैसे दिग्नागने अपनी पूर्वपरंपरामें परिवर्तन भी किया है उसी प्रकार न्यायावतारमें मी सिद्धसेनने पूर्वपरंपराका सर्वथा अनुकरण न करके अपनी खतन बुद्धिप्रतिभासे काम लिया है।
न्यायावतारकी तुलनाके परिशिष्ट (नं. १) में मैंने न्यायावतारकी रचनाका आधार क्या है उसका निर्देश, उपलब्ध सामग्रीके आधार पर, यत्र तत्र किया है। उससे इतना तो स्पष्ट है कि सिद्धसेनने जैन दृष्टिकोणको अपने सामने रखते हुए मी लक्षणप्रणयनमें दिमागके प्रन्यों का पर्याप्तमात्रामें उपयोग किया है । और स्वयं सिद्धसेनके लक्षणोंका उपयोग अनुगामी जैनाचार्योंने अत्यधिक मात्रामें किया है यह भी स्पष्ट है।
भागमयुग जैनदर्शनके पूर्वोक्त प्रमाण तत्वके विवरणसे (पृ० ५६) स्पष्ट है कि आगममें मुख्यतः चार प्रमाणोंका वर्णन आया है। किन्तु आचार्य उमाखातिने प्रमाणके दो मेद प्रत्यक्ष
और परोक्ष ऐसे किये और उन्हीं दो में पांचज्ञानोंको विभक्त कर दिया । आचार्य सिद्धसेनने मी प्रमाण तो दो ही रखे-प्रत्यक्ष और परोक्ष । किन्तु उनके प्रमाणनिरूपणमें जैनपरंपरासंमत पांच ज्ञानोंकी मुख्यता नहीं । किन्तु लोकसंमत प्रमाणों की मुख्यता है । उन्होंने प्रत्यक्षकी व्याख्या में लौकिक और लोकोत्तर दोनों प्रत्यक्षोंका समावेश कर दिया है और परोक्षमें अनुमान और आगमका । इस प्रकार सिद्धसेनने आगममें मुख्यतः वर्णित चार प्रमाणोंका नहीं किन्तु सांख्य और प्राचीन बौद्धोंका अनुकरण करके प्रत्यक्ष, अनुमान और आगमका वर्णन किया है।
न्यायशास्त्र या प्रमाणशास्त्रमें दार्शनिकोंने प्रमाण, प्रमाता, प्रमेय और प्रमिति इन चार तत्त्वोंके निरूपण को प्राधान्य दिया है । आचार्य सिद्धसेन ही प्रथम जैन दार्शनिक है जिन्होंने
विशेष विवेचमके लिये देखो पं० सुखकालजी कृत न्यावावतारविवेचनकी प्रस्तावना ।
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प्रस्तावना। न्यायावतार जैसी छोटीसी कृतिमें जैनदर्शन संमत इन चारों तत्त्वोंकी व्याख्या करनेका सफल व्यवस्थित प्रयन किया है। उन्होंने प्रमाणका लक्षण किया है और उसके भेद-प्रमेदोंका मी लक्षण किया है । खासकर अनुमानके विषयमें तो उसके हेत्वादि समी अंगप्रत्यंगोंकी संक्षेपमें मार्मिक चर्चा की है।
जैन न्यायशासकी चर्चा प्रमाणनिरूपणमें ही उन्होंने समाप्त नहीं की किन्तु नयोंका लक्षण और विषय बताकर जैनन्याय शास्त्रकी विशेषताकी ओर मी दार्शनिकोंका ध्यान खींचा है। ___ इस छोटीसी कृतिमें सिद्धसेन खमतानुसार न्यायशास्त्रोपयोगी प्रमाणादि पदार्थोंकी व्याख्या करके ही संतुष्ट नहीं हुए किन्तु परमतका निराकरण मी संक्षेपमें करनेका उन्होंने प्रयास किया है। लक्षणप्रणयनमें विमाग जैसे बौद्धोंका यत्र तत्र अनुकरण करके भी उन्हींके 'सर्वमालम्बने प्रान्तम्' तथा पक्षाप्रयोगके सिद्धान्तोंका युक्तिपूर्वक खण्डन किया है । बौद्धोंने जो हेतुलक्षण किया था उसके स्थानमें अन्तर्व्याप्तिके बौद्धसिद्धान्तसे ही फलित होनेवाला 'अन्यथानुपपत्तिरूप' हेतुलक्षण अपनाया जो आज तक जैनाचार्योंके द्वारा प्रमाणभूत माना जाता है।
४. वार्तिकके कर्ता। पातिककी रचना किसने की इस विषयमें अमीतक किसीने निर्णय नहीं किया है । प्रतियोंमें वार्तिककी समाप्तिके बाद कोई प्रशस्ति लेख नहीं है। उसकी अन्तिम कारिकामें 'सूत्रके ऊपर मैंने पार्तिककी रचना की है। सिर्फ इतना ही सूचन है
"सूत्रं सूत्रकृता कृतं मुकुलितं सद्भरिवीजैर्धनम् , तवाचा किल पार्तिक मृदु मया मोकं शिशूनां कृते।। भानोर्यकिरणैर्विकासि कमलं नेम्दो करैस्तत्राथा,
यरेन्दयतो विकासि जलजं मानोर्न तस्मिन्गति ॥" 'मैंने' अर्थात् किसने इसका कुछ पता नहीं लगता । इसी लिये जैनभाण्डारोंकी सूचियोंमें वार्तिकके कर्ताका नाम दिया नहीं जाता, देखो-'पत्तनस्थमान्यजनभाण्डागारीयप्रथसूची, भाग १. पृ० ११,८३,२९९ ।
इन सूचियोंके आधारसे अन्य लेखकोंने भी वार्तिकको अज्ञातकर्तृक कृति माना है। किन्तु निन्न कारणोंसे यह वार्तिक शान्याचार्यकी ही कृति है ऐसा मेरा अनुमान है
१ वार्तिक अस्यन्त प्राचीन कृति नहीं है जिससे उसके कर्ताका नाम विस्मृत हो जाय । आचार्य अकलंक ही नहीं किन्तु उनके प्रन्थके कई टीकाकारोंको भी वार्तिककारने देखा है यह बात कारिका १९,३८-१० से स्पष्ट है।
२ शान्त्याचार्यने वार्तिककी अंतिम पूर्वोदत कारिका जिसमें मैंने वार्तिक बनाया' ऐसी सूचना है, उसकी व्याख्या नहीं की है। इससे भी यही फलित होता है कि शान्स्पाचार्यके अतिरिक और कोई वार्तिकका कर्ता नहीं है।
३ जिस कालकी (सं० ९००-१३००) यह रचना है उस कालमें प्रपित अन्य दार्शनिक कारिकाबद्ध छोटे छोटे प्रन्थ प्रायः ऐसे ही हैं जिनमें मूल कारिका और उनकी टीका एककर्तृक ही हैं। जैसे विद्यानन्दकी आप्तपरीक्षा और उसकी वृत्ति, जिनेश्वरका प्रमालक्ष्म और उसकी वृत्ति, चन्द्रसेनकी उत्पादादिसिद्धि और उसकी टीका इत्यादि ।
न्या. प्रस्तावना १९
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शान्त्याचार्य और उनका समय ।
७ कारिका नं० १९ में 'नः' शब्द है। उसकी व्याख्यामें शान्स्याचार्यने 'नः' का अर्थ 'अस्माकम् ' ही किया है । कहीं प्रन्थकारका नाम नहीं दिया । विशेष विवरणमें 'नः का 1 मतलब 'वार्तिककार' शब्दसे बताया है। खोपटीकाकार मूल यदि सूत्ररूप हो तो मूलकारको सूत्रकाररूपसे संबोधित करते हुए प्रायः देखे जाते हैं । प्रस्तुतमें मूलग्रन्थ वार्तिकरूप होने से टीकामें उसके कर्ताको 'वार्तिककार' कहा है। वार्तिककार यदि दूसरे होते तो यह संभव नहीं है कि शान्त्याचार्य उसका नाम न जानते क्योंकि वार्तिक शान्ख्याचार्यके कालकी कृति है इसमें तो संदेह है ही नहीं ।
५ वार्तिककारने सिद्धसेनको तो सूर्य की उपमा दी है (का० १,५७ ) और खुदको चकी (का० ५७ ) । इससे भी यही नतीजा निकलता है कि यह शान्त्या चार्यकी ही कृति होनी चाहिए क्योंकि चन्द्र शान्त होता है, अतएव श्लेषसे शान्त्याचार्यके नामकी सूचना पार्तिककी अंतिम कारिकामें मानी जा सकती है।
इन कारणोंसे जब तक कोई बाधक प्रमाण न मिले वार्तिक के कर्तारूपसे शान्माचार्यको ही मानना उचित है।
५. शान्त्याचार्य और उनका समय ।
शास्याचार्य नामके अनेक श्वेताम्बर आचार्य हुए हैं । उनमेंसे किसने वार्तिक और उसकी पुतिकी रचना की इसका निर्णय करना आवश्यक है । शान्त्याचार्य या शान्तिसूरिके नामसे प्रसिद्ध जिन आचार्योंका पता मैंने लगाया है वे ये हैं
१ थारापद्रगच्छीय शान्ति रि- इन्होंने उत्तराध्ययनसूत्रकी बृहत् टीकाकी रचना की है । उत्तराध्ययनकी टीकाकी प्रशस्ति में स्पष्टरूपसे इन्होंने अपना गच्छ धारापत्र बताया 1 इनका जो चरित्र प्रभावकचरितमें वर्णित है उससे पता चलता है कि उनका गच्छ थारापत्र था, उनके गुरुका नाम विजयसिंह था। वे राजा भोज और कवि धनपालके समकालीन थे । उनकी मृत्यु वि० सं० १०९६ के ज्येष्ठ शुक्र ९ को हुई । प्रभावकचरितमें कहा गया है कि वादिवेताल ऐसा विरुद राजा भोजने शान्माचार्यको दिया था । इन्होंने धनपालकृत तिलकमारीका संशोधन किया है और उत्तराध्ययनटीकाकी रचना की है - प्रभावकारित पृ० १३१ - १३७ ।
२ पूर्णतगच्छीय शान्तिसूरि- तिलकमञ्जरी टिप्पणकी प्रशस्तिमें उसके कर्ता शान्तिसूरिने अपनेको पूर्णतगच्छीय कहा है। अपना परिचय देते हुए कहा है कि मैं मतिमानों में श्रेष्ठ हूँ और बहुशाखको जाननेवाला हूँ ।
"श्री शान्तिसूरिरिह श्रीमति पूर्णतले, गच्छे वरो मतिमतां बहुशाखवेत्ता । मामलं विरचितं बहुधा विमृश्य, संक्षेपतो परमिदं बुध ! टिप्पनं भो ॥"
१ पसमस्यमाच्य जैनभाण्डागारीयप्रन्धसूची पृ० ८७ ।
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प्रस्तावना ।
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इन्ही शास्याचार्यने मेघाभ्युदयकाव्यकी वृत्तिकी मी रचना की है। उसकी प्रशस्तिमें अपना परिचय देते हुए लिखा है कि वे पूर्णतगच्छके वर्धमानसूरिके शिष्य थे -
"श्री पूर्णत लग संबंधिश्री वर्धमानाचार्य व पदस्थापित भी शान्तिसूरिविरचिता मेघाभ्युदयकाव्यदृतिः”” ।
to rear 'जेसलमीरभाण्डागारीयग्रन्थानां सूची' की प्रस्तावना 'अप्रसिद्धप्रन्थकृत्परिचय' ( पृ० ५९) में लिखा है कि शान्याचार्यने पांच यमककाव्योंकी टीका करनेकी प्रतिज्ञा की थी' तदनुसार उन्होंने वृन्दावनकाव्य, घटखर्परकाव्य, मेघाभ्युदयकाव्य, शिवभद्रकाव्य और चन्द्रदूतकाव्य इन पांच यमककाव्यों की टीकाओंकी रचना की थी ।
to का अनुमान है कि ये आचार्य वि० ११ से १२ वी शताब्दीके बीच में हुए हैं।
३ बृहद्रच्छीय शान्तिसूरि - इनके गुरुका नाम नेमिचन्द्र है। इन्होंने अपना परिचय पृथ्वीचन्द्र चरित्रकी प्रशस्तिमें दिया है । पृथ्वीचंद्रचरित्र बृहत् और लघु की रचना विक्रमर्स ० ११६१ में हुई है। धर्मरत्न प्रकरणमें पृथ्वीचन्द्र चरित्र देखनेकी प्रेरणा की गई है । अतएव उसके रचयिता शान्तिसूरि भी यही हो सकते हैं।
४ डिगच्छीय शान्तिसूरि- जैनप्रन्थावली ( पृ० २८५ ) में भक्तामरस्तोत्रकी इति खंडिगच्छीय शांतिसूरके नाम दर्ज है।
५ भद्रेश्वर शिष्य शान्तिरि गर्गर्षि सूरिके कर्मविपाकके ऊपर परमानन्दने टीका लिखी है । उसकी प्रशस्तिमें उन्होंने आचार्यपरंपरा है उससे पता चलता है कि वे मद्रेश्वरसूरिके शिष्य शान्तिसूरके शिष्य अभयदेवके शिष्य थे । श्री मो. द. देसाईने अनुमान किया है कि परमानन्द वि. सं. १२२१ में विद्यमान थे (देखो, जैन. सा० सं० इ० पृ० २८० ); अतएव प्रस्तुत शास्याचार्यका समय बारहवीका उत्तरार्ध निश्चित होता है ।
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इनके गच्छका ठीक निश्चय करना कठिन है ।
६ संढेरगच्छ के शान्त्याचार्य - सं० १५९७ के एक लेखसे पता चलता है कि सढेर गच्छ दोशायाचार्य हुए हैं। दोनों सुमतिके शिष्य थे । किन्तु एक १५९७ सं० में हुए और दूसरे उनसे कई पीढी पहले हुए - प्राचीन लेखसंग्रह, लेख नं० ३३६ ।
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७ नाणकीयगच्छके शान्तिरि- इनका एक शिलालेख सं० १२६५ का 'प्राचीन जैन लेखसंग्रह' में उद्धृत है। देखो लेख नं० ४०३ । उसमें उनके गुरुका नाम कल्याणविजय और गच्छकानाम नाणकीय निर्दिष्ट है ।
८ नागेन्द्रकुलके शान्त्याचार्य - उपदेशमाला वृत्ति ( कर्णिका ) के रचयिता उदयप्रभने अपनी गुरुपरंपराका वर्णन करते हुए कहा है कि नागेन्द्रकुलके महेन्द्रसूरिके पट्टपर शान्तिसूरि हुए । उनका परिचय उन्होंने इस प्रकार दिया है.
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1 जेसलमीर भाण्डागारीयप्रस्थानां सूची पु० ४३ । २ "वृन्दावनादिकाव्यानां यमकैरतिदुर्बिदाम् । वक्ष्ये मधुप्रबोधाय पञ्चानां वृत्तिमुत्तमाम् ॥" जैन साहित्यको संक्षिप्त इतिहास, पृ० २३८ ।
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शान्याचार्य और उनका समय । "श्रीनागेन्द्रकुले मुनीन्द्रसवितुः श्रीमन्महेन्द्रप्रभोर, पट्टे पारगतांगमोपनिषदां पारंगमप्रामणीः । देवः संयमदैवतं निरवधिविधवागीश्वरः, संजो कलिकल्मषैरकलुषः श्रीशान्तिसरिगुरुः ॥ शक्ति कापि न कापिलस्य न नये नैयायिको नायकः चार्वाका परिपाकमुजिझतमतिर्बोध मोत्यभाक।
स्याबैशेषिकशेमुषी व विमुखी वादाय वेदान्तिके ... .दांतिर केवलमस्य वारयते सीमा न मीमांसकः॥" देखो, पत्तनस्थ०. पृ० २३६ ।
ये सिद्धराजके समकालीन या कुछ पूर्ववर्ती होंगे । क्योंकि उसी वृत्तिमें कहा है कि इनके प्रशिष्य अमरचन्द्रका सिद्धराजकी सभामें काफी सन्मान था। सिद्धराजने इनको 'सिंहशिशुक' का बिरुद दिया था (जै० सा० सं० पृ० २४९) सिद्धराजका राजत्व काल वि.. सं० ११५०-११९९ है। ___ 'प्राचीन लेख संग्रह में (लेख ३८१) विजयसेनसूरिका प्रतिष्ठालेख सं० १२८८ का है। उससे सूचित होता है कि शान्तिसूरि महेन्द्रके साक्षात् शिष्य नहीं किन्तु उनकी परंपरामें हुए थे
"सं० १२८८ वर्षे ..........."श्रीनागेन्द्रगच्छे भट्टारकभीमहेन्द्रसूरिसन्ताने शिसभी. शान्तिसूरिशिष्यश्रीमानंदसूरिश्रीममरसूरिपदे भहारकश्रीहरिभद्रसूरिपट्टालंकरणप्रमुभी. विजयसेनसूरि प्रतिष्ठित ........."
९ मडाहडीयगच्छके शान्तिमरि-मडाहडीय गच्छके यशोदेव सूरिकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा सं. १३८७ में इन्होंने की थी। इसीसे अनुमान होता है कि वे उक्त गच्छके होंगे । देखो 'प्राचीन जैन लेख संग्रह,' लेख ५०८ । मडाहडीय गच्छके वर्धमानने अपने गछको कहीं कहीं वृहद्रच्छ भी कहा है । इससे पता चलता है कि मडाहडीय गच्छ वृहद्रग्छकी शाखा होगी (प्राचीन जैन लेख सं० लेख, ५५०,२९२)।। . पूर्वोक वृहद् गच्छीय शान्तिसूरिसे प्रस्तुत शान्तिसूरि भिन्न हैं क्योंकि वे सं० १९६१ में विषमान थे और प्रस्तुत शान्तिसूरि सं० १३८७ में।
१० तपागच्छके शान्त्याचार्य-वादी देवसूरिने अपने शिष्योंमेंसे २४ मुनियोंको आचार्यपद पर प्रतिष्ठित किया। उनमेंसे एक शान्त्याचार्य भी थे। अतएव उनका समय विक्रम १२ वी शताब्दीके उत्तरार्ध से १३ वी का पूर्वार्ध सिद्ध होता है-जैनगूर्जर कविओ भाग.२ पृ० ७५७ ।
११ पल्लीवालगच्छके शान्त्याचार्य- पल्लीवाल गच्छकी एक पटावली श्री नाहटाजीने श्रीआत्मानन्द शताब्दी स्मारकमें (पृ० १८४) प्रकाशित करवाई है । सं० १६१ में एक शाम्साचार्य हुए। उनके बाद १ यशोदेव, २ नन, ३ उद्योतन, ४ महेश्वर, ५ अभयदेव ६ आमदेव ये छः आचार्य हुए । इनके बाद फिर लगातार उक्त नामके सात-सात आचार्योंका क्रम सं० १९८७ तक चला है । और क्रमशः निनोक्त संवतोंमें शान्माचार्य खर्गत हुए हैं
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प्रतापना।
सं० १६१, १९५, ७५८, १०३१, १२२४, १४४८, १६६१ अतएव इस गच्छमें कुल सात शान्माचार्य हुए।
श्री माहटाजीने १४१८ में खर्गत होने वाले शान्माचार्यके नाम कुछ प्रतिष्ठा लेख चढाये हैं (पृ० १९२) किन्तु संवत् मिलाकर देखनेसे पता चलता है कि वे लेख सं०१४५६, १४५८, १९६२ के हैं अतएव वे १९४८ में खर्गत होने वाले शास्याचार्यके हो नहीं सकते । इसलिये उक्त संवत्के लेखोंमें सूचित शान्याचार्य सं० १११८ में खर्गत होने वाले शान्माचार्यसे भिन्न होने चाहिए । या शान्याचार्य के स्वर्गमनसंवतमें कुछ. भ्रम मानना चाहिए।
इनके अलावा जीवविचार, चैत्यवन्दनसूत्रमहाभाष्य,' वृहत् शान्तिस्तोत्र' इत्यादि प्रन्योंके रचयिता भी शान्तिसूरि हैं, इनका कुछ मी विशेष परिचय प्रन्यान्तमें दिया नहीं गया। अत एष कहना कठिन है कि उक्त शान्स्पाचार्योसे ये मिल थे या उनमेंसे किसी एक से बमिल थे।
इन सब शान्याचार्योंमसे प्रस्तुत प्रन्थ वार्तिक और उसकी प्रतिके रचयिता कौन थे इसका निर्णय करना अब प्रस्तुत है।
१ वार्तिक और चिके कर्ता शान्त्याचार्यइन सभी आचामिसे प्रस्तुत वार्तिक और रतिके कर्ता शाम्याचार्य नं० २ ही संभव है। यद्यपि वार्तिक वृत्तिके अन्तमें उसके कर्ताने अपने गुरुका नाम वर्धमान बताया है किन्तु पूर्णतल्ल गच्छका उल्लेख नहीं किया है। किन्तु उल्लिखित चन्द्रकुल में ही पूर्णतगच्छ हुआ है यह बात निर्विवाद होनेसे निःसंदेह कहा जा सकता है कि नं. २ शान्याचार्यसे ही बार्तिक और इत्तिके कर्ता शान्याचार्यका अमेद है अन्यसे नहीं । क्यों कि उपरिनिर्दिष्ट आचायमिसेनं. १ हो नहीं सकते क्योंकि नं.१ के गुरुका नाम विजयसिंह था । नं. ३हो नहीं सकते क्योंकि उनके गुरुका नाम नेमिचन्द्र है।
नं. ५ के साथ अमेद सिद्ध करने के लिये कोई प्रमाण नहीं क्योंकि नं. १ के शान्माचार्यके गुरुके मामका पता नहीं।
नं. ५ के गुरुका नाम भद्रेश्वर है। नं. ६ समतिके शिष्य थे। नं. ७ इनके गुरुका नाम कल्याणविजय है । नं. ८ गुरुका नाम महेन्द्र है । या 'सन्ताने' शब्दका अर्थ 'परंपरामें' ऐसा करें तो गुरुका
नाम अज्ञात है। यपि इनका परिचय आ० उदयप्रभने एक प्रबल दार्शनिकरूपसे दिया है । किन्तु गुरुका
इसकेको संस्करण निकले है। भारमानन्दसभाद्वारा प्रकाशित। । संघनो भंगर, पाटन, 4. १०२५.१०.१९८१,२०१७। भाचार्य हेमचय भी चबाडके पूर्णता गच्छमें हुए हैंदेखो प्रभावकारित, पृ.१५ प्रबन्धकोष, पू.
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१५०
शाखाचार्य और उनका समय। माम निषित न होनेसे या महेन्द्र होने की संभावना होनेसे प्रस्तुत शाम्याचार्य के साथ इनका अमेद हो नहीं सकता।
नागेन्द्र गच्छमें भी दो वर्धमान हुए है। दूसरेका अस्तित्व १२९९ में था। इनके शिष्य पातिककार हो नहीं सकते क्योंकि बार्तिक की कारिकाएँ इसके पूर्ववर्ती ग्रन्थकारोंमें उद्धृत हैं। प्रथम वर्धमानके पधर रामसूरि थे, शान्लाचार्यका उल्लेख पावररूपसे नहीं किया गया हैदेखो जैनसाहिल्यनो सं० इतिहास पृ० ३४३ । इसलिये बार्तिककारका गच्छ नागेन्द्र हो महीं सकता।
म. ९ इनका समय १३८७ है । और बार्तिककारका समय बहुत पहले है। म. १० गुरुका नाम बादीदेव है। नं. ११ गुरुका नाम वर्धमान नहीं.
अतएव जितने शान्त्याचार्य हमें ज्ञात है उनमेंसे यदि किसीके साथ बार्तिक और रतिके रचयिता शान्स्याचार्यका अमेद होनेकी संभावना करनी हो तो वह, नं. २ के साथ ही हो सकती है । नं. २ के शान्माचार्यके गुरुका नाम वर्धमान है, और बार्तिककारके गुरुका नाम मी वर्धमान है। दूसरे गच्छोंके शान्ल्याचार्योंके साथ वार्तिककारका अमेद सिद्ध हो नहीं सकता तब उनका गच्छ मी पूर्णता मानना उचित है । अतएव यही मानना ठीक है कि बार्तिककार शाम्माचार्य पूर्णतजगच्छके वर्धमानके शिष्य थे।
पं० लालचन्द्रजीने भी इन्ही शान्त्याचार्यको वार्तिकरत्रिक कर्तारपसे माना है । उन्होंने अपनी मान्यताके लिये कोई युक्ति नहीं दी । किन्तु उनका कपन उक्त समर्थनके कारण युक्ति. संगत है। जेसल० अप्रसि० पृ० ५९ । श्री मो. द. देसाईने मी पं० लालचन्द्र के मतानुसार अपना मत स्थिर किया है-जैन० सा० पृ० २३० ।
२ शान्त्याचार्यका समय निर्णय
पं० लालचनजीने शाम्स्याचार्यका समय ११ और १२ वी शताब्दीके मध्य माना है। उनकी यह मान्यता मी ठीक जंचती है।
उत्पादादिसिद्धि में उसके कर्ताने बार्तिक और उसकी रत्तिका काफी उपयोग किया है। बार्तिककी का. २३,२५,२९,३०,३१,३४ और ३५ उत्पादादिसिद्धिकी टीकामें उड़त है। बार्तिकहत्तिकी विषयोपसंहारके लिये निबद्ध एक कारिका मी उत्पादादिसिद्धिटीकामें उड़त है। सर्वज्ञवादमें मीमांसकका समूचा पूर्वपक्ष शम्दशः बार्तिकत्तिमें से लेकर उत्पादादिसिद्धिमें दिया गया है। उत्पा० की अपोह चर्चा भी वार्तिक वृत्तिसे प्रभावित है-उत्पादा० पृ. ६७
और प्रस्तुत ग्रन्थ पृ० ९६ । सटीक उत्पादादिसिद्धिके कर्ता चन्द्रसेनाचार्य आचार्य हेमचन्द्रके गुरु भाइ प्रद्युम्न सूरिके शिष्य थे । उनका समय उन्होंने स्वयं अपनी उत्पादादिसिद्धिकी टीकाके अन्तमें दिया है उससे पता चलता है कि उन्होंने उक्त ग्रन्थको १२०७ वि० में समाप्त किया
देखो बार्तिककी कमाका परिशिष्ठ। २ देखो, प्रस्तुत प्रन्यके 'टिप्पणानि' ए. २०३। वही
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. प्रस्तावना ।
१५१
था' । अत एव वार्तिक और वार्तिक वृत्तिकी रचना वि० १२०७ के पहले हो चुकी थी ऐसा सिद्ध है ।
स्याद्वादरत्नाकर ( पृ० १२३२ ) में भी वार्तिककी कारिका नं० ५३ उद्धृत है । स्याद्वादरत्नाकरके कर्ता वादी देव सूरिने १९७४ में आचार्यपद प्राप्त किया था और उनका स्वर्गवास वि० १२२६ में हुआ । अत एव सं० १९७४ से १२२६ के बीचमें स्याद्वादरत्नाकरकी रचना हुई है। अत एव कहा जा सकता है कि वार्तिककी रचना सं० १९७४ से पहले हुई ।
न्यायावतारकी सिद्धर्षिकृत टीकाका टिप्पण आ० देवभद्रकी रचना है। आचार्य देवभवने मधारी हेमचन्द्र से अध्ययन करते करते उसकी रचना की थी । आचार्य मलधारी हेमचन्द्रकी अंतिम रचना विशेषावश्यक बृहद्वृत्ति सं० १९७५ में पूर्ण हुई थी । अतएव उनसे पढनेवाले देवभवने इसी समय के आसपास टिप्पणकी रचना की होगी । अतएव टिप्पणीमें उद्धृत' 'वार्तिककी रचना सं० १९७५ के पहले माननेमें कोई आपत्ति नहीं ।
इस प्रकार शान्ख्याचार्यकी उत्तरावधि वि० १९७५ मानना संगत है।
शास्याचार्यने वार्तिकवृत्तिमें सम्मतिटीकाका कई स्थानोंमें उपयोग किया है। १०९६ वि० में स्वर्गस्थ होनेवाले वादी वेताल शान्स्याचार्यने ( नं. १) अभयदेवको प्रमाणशास्त्र के गुरुरूपसे उल्लिखित किया है। अभयदेवके शिष्य धनेश्वर और जिनेश्वर मुंजराजकी समाके प्रतिष्ठित पंडित थे । मुंजराजकी मृत्यु वि० सं० १०५० से १०५४ के बीच हुई । अतएव मुंजराजकी सभामें मान पानेवाले धनेश्वर और जिनेश्वरके गुरु अभयदेवका समय विक्रम ९५० से १०५० के बीच मानना उचित है। यही पूर्वावधि वार्तिककार शान्लाचार्यकी है। अतएव वार्तिककार rement हम वि० ९०५०-११७५ के बीच में होनेवाले विद्वान् मानें तो योग्य ही होगा ।
शान्याचार्यने अनन्तवीर्य और अनन्तकीर्तिका नामोल्लेख किया है। अनन्तकीर्ति यदि बही हो जिन्होंने सर्वसिद्धिकी रचना की है, तो उनका समय श्रीप्रेमीजीने वि० सं० ८४० से १०८२ के बीच अनुमित किया है।
1
अनन्तवीर्य नामके दो विद्वान् हुए हैं- एक रविभद्र शिष्य अनन्तवीर्य और दूसरे प्रमेयरतमालाकार अनन्तवीर्य" । प्रथम अनन्तवीर्य आचार्य प्रभाचन्द्र से पहले हुए हैं । आचार्य प्रभाचन्द्र वि० १०३७ से ११२२ के विद्वान् है । और दूसरे अनन्तवीर्य प्रभाचन्द्र के बाद हुए हैं। प्रस्तुतमें प्रथम अनन्तवीर्य शाम्स्याचार्यको विवक्षित है ऐसा पं० महेन्द्रकुमारजीका मन्तव्य योग्य है । अत एव अनन्तवीर्य और अनन्तकीर्तिके समय के साथ भी शान्याचार्य के समयकी पूर्वनिर्दिष्ठ मर्यादाका विरोध नहीं आता ।
३ व्याया० डि० पृ० १२ में वार्तिककी चतुर्थ कारिका उद्धत है ।
१ जेनसा० सं० इ. पृ० २०५ । २ वस्तुतः यह पृष्ठ ३०३२ होना चाहिए । गलल छा है। ४ उतरा० डीकाकी प्रशस्ति । ८५ । ६ जैन साहित्य और इतिहास पृ० ४५२ । ८ वही पु० ५८
५ सम्मतितर्क प्रकरण भा. ६ प्रस्तावमा पु० ७ न्याय० मा. २ प्रस्तावना १० ६९,१५ ।
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शुद्धिपत्रक।
व्यतिरेका सिद्धता -
............
२२.२४
त्रिचे विध (धै)
व्यतिरेको 'सिक्साभ्यता' ऐसा पागन्तर है
..यही मूल में लेना ठीक है। दृष्टेः । कस्यचित्तु 'दृष्टेः कस्यचिजाति' पाठान्तरनि
र्दिष्ट पाठ मूलमें लेमा ठीक है। निरस्तत्वत् निरस्तत्वात्
मनःसंविति मनः संवि० ११
न्याया०टि० न्याया०टी० प्रमाणलक्ष्म प्रमालक्ष्म । प्रमाण
प्रमाणवा०
(८) १८१ से १८७ में
कर्ण०३ कर्ण०१ १८५
वचनादय अन. वचनादयोऽन. १८५
व्यतिव्यक्ति व्यक्ति 'इमा 'य इमा ख० ३.२८१ ख० १.२८७
प्रभा २१४
वस्तुनः
वस्तुतः २१५
कल्पना
कल्पनामू० २१२
योगि २५६
प्रामाको
प्राभाको २५७
मान उपांत्यमें बड़ा दो"दस य नपुंसएस पीस इस्थियात य । पुरिसेड महसयं समयेणेगेण सिमाई ॥"
उत्तराध्ययन ३६.५२
३
०
. प्रमा
REETTESHI
बोगि
भान
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श्रीसिद्धसेनदिवाकरविरचितं
न्यायावतारसूत्रम् 1
प्रमाणं खपराभासि ज्ञानं बाघविवर्जितम् । प्रत्यक्षं च परोक्षं च द्विधा मेयविनिश्वयात् ॥
प्रसिद्धानि प्रमाणानि व्यवहारश्च तत्कृतः । प्रमाणलक्षणस्योक्तौ ज्ञायते न प्रयोजनम् ॥
प्रसिद्धानां प्रमाणानां लक्षणोक्तौ प्रयोजनम् । तद्व्यामोहनिवृत्तिः स्याद् व्यामूढमनसामिह ॥
अपरोक्षतयार्थस्य ग्राहकं ज्ञानमीदृशम् । प्रत्यक्षमितरज्ज्ञेयं परोक्षं ग्रहणेक्षया ॥
साध्याविनामुनो लिङ्गात् साध्यनिश्चायकं स्मृतम् । अनुमानं तदभ्रान्तं प्रमाणत्वात् समक्षवत् ॥
न प्रत्यक्षमपि भ्रान्तं प्रमाणत्वविनिश्वयात् । भ्रान्तं प्रमाणमित्येतद् विरुद्धं वचनं यतः ॥
सकलप्रतिभासस्य भ्रान्तत्वासिद्धितः स्फुटम् । प्रमाणं स्वान्यनिश्चायि द्वयसिद्धौ प्रसिति ॥
$19
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श्रीसिद्धसेनदिवाकरविरचितं न्यायावतारसूत्रम् । दृष्टेष्टाव्याहताद् वाक्यात् परमार्थाभिधायिनः । तत्त्वग्राहितयोत्पन्नं मान शाब्दं प्रकीर्तितम् ॥
आप्तोपज्ञमनुल्लङ्घयमदृष्टेष्टविरोधकम् । तत्त्वोपदेशकृत सार्व शास्त्रं कापथघट्टनम् ॥
खनिश्चयवदन्येषां निश्चयोत्पादनं बुधैः । परार्थ मानमाख्यातं वाक्यं तदुपचारतः ॥
प्रत्यक्षेणानुमानेन प्रसिद्धार्थप्रकाशनात् । परस्य तदुपायत्वात् परार्थत्वं द्वयोरपि ॥
प्रत्यक्षप्रतिपन्नार्थप्रतिपादि च यद्वचः । प्रत्यक्षं प्रतिभासस्य निमित्तत्वात् तदुच्यते ॥ साध्याविनाभुवो हेतोर्वचो यत् प्रतिपादकम् । परार्थमनुमानं तत् पक्षादिवचनात्मकम् ॥
साध्याभ्युपगमः पक्षः प्रत्यक्षाधनिराकृतः। तत्प्रयोगोऽत्र कर्तव्यो हेतोर्गोचरदीपकः॥
अन्यथा वाद्यभिप्रेतहेतुगोचरमोहिनः। प्रत्याय्यस्य भवेत् हेतुर्विरुद्धारेकितो यथा ॥
धानुष्कगुणसंप्रेक्षिजनस्य परिविध्यतः। धानुष्कस्य विना लक्ष्यनिर्देशेन गुणेतरौ ॥
हतोस्तथोपपत्त्या वा स्यात् प्रयोगोऽन्यथापि वा। द्विविधोऽन्यतरेणापि साध्यसिद्धिर्भवेदिति ॥
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श्रीसिद्धसेनदिवाकरविरचितं न्यायावतारसूत्रम् । साध्य-साधनयोर्व्याप्तिर्यत्र निश्चीयतेतराम् । साधर्येण च दृष्टान्तः संबन्धस्मरणान्मतः॥
साध्ये निवर्तमाने तु साधनस्याप्यसंभवः । ख्याप्यते यत्र दृष्टान्ते वैध\णेति स स्मृतः॥
अन्तर्व्याप्त्यैव साध्यस्य सिद्धेर्बहिरुदाहृतिः । व्यर्था स्यात् तदसद्भावेऽप्येवं न्यायविदो विदुः॥
प्रतिपाद्यस्य यः सिद्धः पक्षाभासोऽक्षलिङ्गतः। लोक-खवचनाभ्यां च बाधितोऽनेकधा मतः॥
अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम् । तदप्रतीतिसंदेहविपर्यासैस्तदाभता ॥
असिद्धस्त्वप्रतीतो यो योऽन्यथैवोपपद्यते । विरुद्धो योऽन्यथाप्यत्र युक्तोऽनैकान्तिकः स तु॥
साधर्येणात्र दृष्टान्तदोषा न्यायविदीरिताः । अपलक्षणहेतूत्थाः साध्यादिविकलादयः॥
वैधम्र्येणात्र दृष्टान्तदोषा न्यायविदीरिताः । साध्य-साधनयुग्मानामनिवृत्तेश्च संशयात् ॥
वाधक्त साधने प्रोक्तदोषाणामुहावनम् । दूषणं निरवचे तु दूषणाभासनामकम् ॥
सकलावरणमुक्तात्म केवलं यत् प्रकाशते । प्रत्यक्षं सकलात्मसततप्रतिभासनम् ॥
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श्रीसिद्धसेनदिवाकरविरचितं न्यायावतारसूत्रम् । प्रमाणस्य फलं साक्षादज्ञानविनिवर्तनम् । केवलस्य सुखोपेक्षे शेषस्यादानहानधीः ॥
अनेकान्तात्मकं वस्तु गोचरः सर्वसंविदाम् । एकदेशविशिष्टोऽर्थो नयस्य विषयो मतः॥
नयानामेकनिष्ठानां प्रवृत्तेः श्रुतवम॑नि । संपूर्णार्थविनिश्चायि स्याद्वादश्रुतमुच्यते ॥
प्रमाता स्वान्यनिर्भासी कर्ता भोक्ता विवृत्तिमान् । खसंवेदनसंसिद्धो जीवः क्षित्याधनात्मकः ॥
प्रमाणादिव्यवस्थेयमनादिनिधनात्मिका । सर्वसंव्यवहर्तृणां प्रसिद्धापि प्रकीर्तिता ॥
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श्री शान्त्याचार्यविरचितं
न्यायावतारसूत्रवार्तिकम् ।
१. सामान्यलक्षणपरिच्छेदः ।
ॐ
नमः सर्वज्ञाये ।
हिताहितार्थ संप्राप्ति - त्यागयोर्यन्निबन्धनम् । तत् प्रमाणं प्रवक्ष्यामि सिद्धसेनार्कसूत्रितम् ॥
*
'प्रमाणं खपराभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम् । प्रत्यक्षं च परोक्षं च द्विधौ मेयविनिश्वयात् ॥' ॥ इति शास्त्रार्थसंग्रहः ॥
ॐॐ
सन्निकर्षादिकं नैव प्रमाणं तदसंभवात् । अवभासो व्यवसायो नें तु ग्रहणमात्रकम् ॥ दीपवनोपपद्येत बाह्यवस्तुप्रकाशकम् । अनात्मवेदने ज्ञाने जगदान्ध्यं प्रसज्यते ॥
प्रत्यक्षं च परोक्षं च ग्राहकं नोपपत्तिमत् । बाघनात् संशयायासे सूक्तं सामान्यलक्षणम् ॥ वेदेश्वरादयो नैव प्रमाणं बाधसंभवात् । प्रमाणं बाघवैकल्यादर्हस्तत्त्वार्थवेदनः ॥
ॐ नमः सर्वज्ञाय क० । नमो वीतरागाय अ० । २. हिताहितार्थयोः प्राप्ति° अ० । ३. द्विषेव च विनिधितम् सु० । ४. व्यवसायस्तन्तु प्रह° मु० । ५. बाध्य मु० । ६. इदं पयं मुद्रितपुस्तके स बाति सं० । ७.
दर्शिनः मु० ।
10
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श्रीशान्त्याचार्यविरचितं न्यायावतारसूत्रवार्तिकम् । वचसोऽपौरुषेयत्वं नाऽविशेषात् पटाविवत् । खरूपेण विशेषेण न सिद्धं भूधरादिषु ॥ विरुद्धं चेष्टघातेन न कार्य कर्तृसाधनम् । प्रकृतेरन्तरज्ञानं पुंसो नित्यमथाऽन्यथा ॥ नित्यत्वे सर्वदा मोक्षोऽनित्यत्वे न तदुद्भवः। कालवैपुल्ययोग्यत्वकुशलाभ्याससंभवे ॥ आवृतिप्रक्षयाज्ज्ञानं सार्वज्यमुपजायते । सदहेतुकमस्तीह सदैव क्ष्मादितत्त्ववत् ॥ आहारासक्तिचैतन्यं जन्मादौ मध्यवत्तथा। अन्त्यसामध्यवद्धेतुः संपूर्ण कार्यकृत्सवा ॥ ज्योतिः साक्षात्कृतिः कश्चित् संपूर्णस्तत्ववेदने ।
॥ सामान्यलक्षणपरिच्छेदः ॥
२. प्रत्यक्षपरिच्छेदः।
ज्ञात्रपेक्षं प्रमेयस्य द्वैविध्यं न तु वास्तवम् ॥ दूरासन्नादिभेदेन प्रतिभासं भिनत्ति यत् । तत् प्रत्यक्षं परोक्षं तु ततोऽन्यद् वस्तु कीर्तितम् ॥ तन्निमित्तं द्विधा मानं न त्रिधा नैकधा ततः। सादृश्यं चेत् प्रमेयं स्यात् वैलक्षण्यं न किं तथा ॥ अर्थापत्तेन मानत्वं नियमेन विना कृतम् । प्रमाणपश्चकाभावेऽभावोऽभावेन गम्यते ॥
१. इदं पद्यं मुद्रितपुस्तके उद्धृतं नास्ति सं०। २. वेष्ट सु०। ३. कार्ये मु०। ४. 'प्रकृत्यन्तरविज्ञानम्' इति वृत्तिसंमतः पाठः सं०। प्रकृतेरवरं ज्ञानं मु०। ५. पुंसोऽनित्यलमन्यथा मु० । ६.योगे तु कुश मु० । योग्यत्वं कुश° अ०। ७. संभवः मु०। संभवः अ०। ८. इदं पवं नास्त्युद्धृतं मुद्रितपुस्तके सं०। ९. आहारशक्तिक० । आहाराशक्ति ब०। १०. °सामणिव मु०। ११. इदं पूर्वाध नास्ति उतं मुद्रितपुस्तके सं०। १२. ज्ञानापेक्षं मु०। ज्ञात्रपेक्ष्यं ब०। १३. प्रतिमा दिमिन भ०। १४. च अ०।
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श्रीशान्त्याचार्यविरचितं न्यायावतारसूत्र वार्तिकम् ।
नं, नास्तीति यतो ज्ञानं नाध्यक्षोद्भिन्नगोचरम् । अभावोऽपि च नैवास्ति प्रमेयो वस्तुनः पृथक् ॥ प्रत्यक्षं विशेदं ज्ञानं त्रिधेन्द्रियमनिन्द्रियम् । योगजं चेति वैशद्यमिदन्त्वेनावभासनम् ॥ जीवांशात् कर्मनिर्मुक्तादिन्द्रियाण्यधितिष्ठतः । जातमिन्द्रियजं ज्ञानं विनेन्द्रियमनिन्द्रियम् ॥
स्मृत्यूहादिकमित्येके प्रातिभं च तथाऽपरे । स्वमविज्ञानमित्यन्ये खसंवेदनमेव नः ॥ मनःसंज्ञस्य जीवस्य ज्ञानावृर्तिशमक्षयौ । यतश्चित्रौ ततो ज्ञानयोगपद्यं न दुष्यति ॥ जिनस्यांशेषु सर्वेषु कर्मणः प्रक्षयेऽक्रमम् । ज्ञानदर्शनमन्येषां न तथेत्यागमावधः ॥ तत्रेन्द्रियजमध्यक्षमेकांशव्यवसायकम् । वेदनं च परोक्षं च योगजं तु तदन्यथा ॥ द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषास्तस्य गोचराः । अविस्पष्टास्तयेव स्युरनध्यक्षस्य गोचराः ॥ न जडस्थावभासोऽस्ति भेदाभेदविकल्पनात् । न भिनविषयं ज्ञानं शून्यं वा यदि वा ततः ॥ ज्ञानशून्यर्वतो नास्ति निरासेऽर्थस्य साधनम् । संविसिद्धप्रतिक्षेपे कथं स्यात् तद्व्यवस्थितिः ॥ पर्यस्यन्ति पर्याया द्रव्यं द्रवति सर्वदा । सदृशः परिणामो यः तत् सामान्यं द्विधा स्थितम् ॥ विपरीतो विशेष तान्युगपद् व्यवस्यति । तेन तत्कल्पनाज्ञानं न तु शब्दार्थयोजनात् ॥ निरंशपरमाणूनामभासे स्थौल्यवेदने । प्रत्यक्षं कल्पनायुक्तं प्रत्यक्षेणैव सिध्यति ॥
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२३
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२५०
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१. नानास्ती मु० । २. 'ध्यक्ष मिन ब० । ३ अभावेऽपि मु० । ४. वस्तुतः अ० । ५. विशदज्ञानं अ० क० मु० । ६. मनैन्द्रि° मु० । ७. ज्ञातमि ब० । ज्ञानमि' मु० । ८. वृत्तिश० मु० । ९. इदं कारिकार्ध ज्ञानं ब० । मुद्रितपुस्तके उद्धृतं नास्ति सं० । १०. 'शुनवतोर्नास्ति अ० मु० । ११. पर्यवस्य ८० मु० । १२. विशेषस्तु मु० ।
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1.4
25
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श्रीशान्त्याचार्यविरचितं न्यायावतारसूत्रवार्तिकम् । नासंयुक्तैर्न संयुक्तैर्निरशैः क्रियते महत् । अयोगे प्रतिभासोऽपि संयोगेऽप्यणुमात्रकम् ॥ मिनदेशखरूपाणामणूनामंग्रहे सति । तत्स्थौल्यं यदि कल्पेत नावभासेत किंचन ॥ नैतदस्ति यतो नास्ति स्थौल्यमेकान्ततस्ततः। भिन्नमस्ति समानं तु रूपमंशेन केनचित् ॥ अथास्तु युगपद्भासो द्रव्य-पर्याययोः स्फुटम् । तथापि कल्पना नैषा शब्दोल्लेखविवर्जिता ॥ चकास्ति योजितं यत्र सोपाधिकमनेकधा। वस्तु तत् कल्पनाज्ञानं निरंशाप्रतिभासने ॥ भेवज्ञानात् प्रतीयन्ते यथा भेदाः परिस्फुटम् । तथैवाभेदविज्ञानादभेदस्य व्यवस्थितिः॥ घटमौलिसुवर्णेषु बुद्धिर्भेदावभासिनी। संविनिष्ठा हि भावानां स्थितिः काऽत्र विरुद्धता ॥ प्रतीतेस्तु फलं नान्यत् प्रमाणं न ततः परम् । अताद्रूप्येऽपि योग्यत्वानियतार्थस्य वेदकम् ॥
॥ प्रत्यक्षपरिच्छेदः॥
३. अनुमानपरिच्छेदः।
पूर्वमेव परोक्षस्य विषयः प्रतिपादितः। प्रमाणफलसद्भावो ज्ञेयः प्रत्यक्षवहुधैः॥ परोक्षं द्विविधं प्राहुर्लिङ्ग-शब्दसमुद्भवम् ।।
लैङ्गिकात् प्रत्यभिज्ञादि भिन्नमन्ये प्रचक्षते ॥ १. 'शूनां संग्रहे मु०। २. कल्पमानैषा ब०। ३. वेदनम् ब०। ४. अ० प्रतौ नास्ति ।
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श्रीशाम्त्याचार्यविरचितं न्यायावतारसूत्रवार्तिकम् ।
परोपदेशजं श्रीतं मतिं शेषं जगुर्जिनाः । परोक्षं प्रत्यभिज्ञादि त्रिधा श्रौतं न युक्तिमत् ॥ अन्यथेहादिकं सर्व श्रीतमेवं प्रसज्यते । यो नागमापेक्षं मानं तज्जाज्जृम्भितम् ॥ लिङ्गालिङ्गिनि यज् ज्ञानमनुमानं तदेकधा । प्रत्येति हि यथा वादी प्रतिवाद्यपि तत् तथा ॥ उपचारेण चेत् तत् स्यादनवस्था प्रसज्यते । अन्यस्यासाघनादाह लक्षणे हेतु-साध्ययोः ॥ 'अन्यथाऽनुपपन्नत्वं यत्र तत्र श्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥' कार्यकारणसङ्गावस्तादात्म्यं चेत् प्रतीयते । प्रत्यक्षपूर्वकात् तर्कात् कथं नानुपपक्षता ॥ व्यतिरेकाऽनुपपत्तिश्चेवन्वयनिबन्धनम् । कथं संवं विना तेन क्षणिकत्वप्रसाधकैम् ॥ विनाप्यन्वयमात्मादौ प्राणादिः साधनं यदा । तदा स्यानान्वयापेक्षा हेतोः साध्यस्य साधने ॥ संबन्धिभ्यां विभिन्नश्चेत् संबन्धः स्यान्न, लोष्टवत् । अनवस्था प्रसज्येत तदन्यपरिकल्पने ॥ कृत्तिकोदय पूरादेः कालादिपरिकल्पनात् । यदि स्यात् पक्षधर्मत्वं चाक्षुषत्वं न किं ध्वनौ ॥ समानपरिणामस्य द्वयस्य नियमग्रहे । नाशक्तिर्न च वैफल्यं साधनस्य प्रसज्यते ॥
इष्टं साधयितुं शक्यं वादिना साध्यमन्यथा । साध्याभासमशक्यत्वात् साधनागोचरत्वतः ॥ यथा सर्वगमध्यक्षं बहिरन्तरनात्मकम् । नित्यमेकान्ततः सस्वात् धर्मः प्रेत्यासुखप्रदः ॥ रूपासिद्धितोऽसिद्धो विरुद्धोऽनुपपत्तिमान् । साध्याभावं विना हेतुः व्यभिचारी विपक्षगः ॥
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• १ मेव प्र० मु० । २. व्यतिरेकोऽनु ब० अ० । ३. बन्धना अ० क० । ४. कथं संबंधिना तेन ब० क० । - ५५ °साधनम् ब० । ६. प्राणादि सा० मु० । ७. 'समसाध्यलात् मु० । ८. प्रेमदुःखाप्रदः सु० ।
न्या० २
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१०
श्रीशान्याचार्यविरचितं न्यायावतारसूत्रवार्तिकम् । असिद्धः सिद्धसेनस्य विरुद्धो मल्लवादिनः। द्वेषा समन्तभद्रस्य हेतुरेकान्तसाधने' ॥
॥ अनुमानपरिच्छेदः ॥
४. आगमपरिच्छेदः।
ताप-च्छेद-कषैः शुद्धं वचनं त्वागमं विदुः। तापो याप्तप्रणीतत्वमातो रागादिसंक्षयात् ॥ कषः पूर्वापराघातश्छेदो मानसमन्वयः।
'विधिनियमभङ्गवृत्तिव्यतिरिक्तत्वादनकवचोवत् । जैनादन्यच्छासनमनृतं भवतीति वैधय॑म् ॥
॥ आगमपरिच्छेदः॥
सूत्रं सूत्रकृता कृतं मुकुलितं सद्भरिबीजैर्धनम्,
तद्वार्चः किल वार्तिकं मृदु मया प्रोक्तं शिशूनां कृते। भानोर्यकिरणैर्विकासि कमलं नेन्दोः करैस्तत् तथा, यद्वेन्दूदयतो विकासि जलजं भानोर्न तस्मिन् गतिः ॥ ५७ [समाप्तमिदं न्यायावतारसूत्रवार्तिकम् ।]
१. असिद्धिः भ०। २. इदं पचं मुद्रिते उद्धृतं नास्ति सं०। ३. इदं पद्यं मुद्रितपुखके को प्रथमपथरूपेण वर्तते सं०। ४. तद्वाचे किल ब०। तद्बोध किलक०। ५. भानोर्ममस्तेर्न तत् मु०।
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श्रीशान्त्याचार्यविरचिता न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तिः।
०१. सामान्यलक्षणपरिच्छेदः। हिताहितार्थसंप्राप्ति-यागयोर्यन्निवन्धनम् । तत् प्रमाणं प्रवक्ष्यामि सिद्धसेनार्कसूत्रितम् ॥१॥
।
नमः स्वतःप्रमाणाय वचःप्रामाण्यहेतवे ।
जिनाय पश्नरूपेण प्रत्यक्षात् पक्षदेशिने ॥ अन्यायवेत्तेति न वाच्यमेतत् सामान्यमन्येन ततोऽन्यथा तु ।
व्युत्पादितं तत्र दन्तु सन्तो निर्मत्सरा ऐव भवन्तु यद्वा ॥ ६१. हिताहितेत्यादिना अभिधेयप्रयोजनमभिधीयते । तदभिधानात् संबन्धाभिधेय- अभिषेयप्र. प्रयोजनान्तराण्यपि अभिहितानि । तथाहि-प्रमाणम् अभिधेयम् । प्रयोजन योजनाभिघाममा व्युत्पतिः व्युत्पादकत्वं च शिष्याचार्ययोः, परं तु निःश्रेयसमिति । संवन्धस्तु
उपायोपेयलक्षण इति । ६२. वर भोरप्रवृत्त्यर्थमिति कश्चित् । तदुकम् - प्रयोजना
"अनिर्दिष्टफलं सर्वे न प्रेक्षापूर्वकारिमिः।। प्रियोज. ममिति
शासमाद्रियते तेन वाच्यमने प्रयोजनम् ॥"
मिधानस्य
१३. देवदन्ये न क्षमन्ते । यतो यथा ते प्रेक्षापूर्वकारितया फलममिलपन्तः प्रपन्त, तथा प्रेक्षापूर्वकारितयैव प्रमाणात् प्रवर्तन्ते । अप्रमाणात् प्रवर्तमानानां प्रेक्षातैव न स्यात् । मच शब्दाना बहिरर्थे प्रत्यक्षवत् प्रामाण्यम् । नापि प्रदीपवत् असंबद्वानामपि प्रकाश
१. पेण नमः प्रत्यक्षदेशिने मू०। २. वत्तीति ब०। ३. उत्पादितं ब० अ००। ४. भवन्तु मु०। ५. सरा यच भवेदबुवा मु०। ६. शिष्टाचार्य मु०। ७. श्रोतृजनप्रक० मु०। ८. प्रेक्षापत्र नमुन
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१२
न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ [१. सामान्यल० परि० कत्वम् । किन्तु संबन्धबलात् । न च तेषां बहिरथैः संबन्धोऽस्ति । विवक्षायां संबन्धेऽपिन ये यथा यमर्थ विवक्षन्ति ते तथैव तमर्थ प्रतिपादयन्तीति, विसंवादनाभिप्रायाणामन्यथाभिधाय अन्यथा प्रवृत्तिदर्शनात् इति' कथं प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थमादिवाक्यमिति ।।
६४. सत्राक्षेपपरिहारः । 'निष्फलमिदं शास्त्रं काकदन्तपरीक्षावत् । अशक्यानुष्ठानं वा • ज्वरहरतक्षकचूडारमालकारोपदेशवत् । अनभिमतं वा माविवाहोपदेशवत् । अतो वा शानात् लघुतर उपायः प्रमाणव्युत्पत्तेः । अनुपाय एव वा इदम्'-इत्यनर्थसंशयनिवृत्यर्थम् , अर्थसंशयोत्पादनार्थ प्रेक्षावतामादिवाक्यमिति । ते हि कृषीवलादय इव अर्थसंशयात् प्रवर्तन्त इति ।
६५. एतदन्ये दूषयन्ति । युक्ता :षीवलादीनाम् अवधृतबीजाबीजखभावानाम् उपायनिश्चये " सति उपेये संदेहेऽपि प्रवृत्तिरिति । अत्र तु उपायनिश्चयाभावात् क प्रवृत्तिरिति । साधकबाधकप्रमाणाभावाचार्थसंशयस्यानिवारितत्वात् । तथा, प्रमाणव्युत्पादकानां च शालान्तराणां दर्शनात्-'कि अस्य प्रमाणव्युत्पत्तिः प्रयोजनम् , उतान्यद्' इति प्राक्प्रवर्तमानः संशयः केन विनिवार्येत । तस्मात्-'प्रेक्षावतां प्रवृत्तिः प्रयोजनवत्तया व्याप्तेति निःप्रयोजनमिदं शास्त्र नारग्धव्यम्' इति व्यापकानुपलब्ध्या प्रत्यवतिष्ठमानस्य परस्यासिद्धतोदावनम् अनेन क्रियत ॥ इति । न चैतद् वाध्यम्-अप्रमाणकेनानेन कथमेतदपि क्रियत इति । यतः अप्रमाणकेनैव वचसा परेण व्यापकानुपलब्धिरुपन्यस्ता । सा च वचनमात्रेणैवासिद्धोद्भाव्यत इति ।
६. एतदप्यपरे दूषयन्ति । यतो यथाऽसिद्धसाधनमादाय वादी प्रत्यवतिष्ठमानो निगृह्यते तथाऽसहूषणवादी प्रतिवाथपीति । अथ अप्रे तस्यार्थस्य शास्त्रेण समर्थनात् न दोष इति । ययेवं तर्हि आदिवाक्येन शास्त्रार्थः प्रतिज्ञायत इति युक्तम् । .६७. एतदप्ययुक्तम् । यतः शास्त्रार्थोऽनेन किं प्रमाणभूतेन प्रतिज्ञायते, किंवाऽप्रमाण. भूतेनेति । तत्र यदि प्रतिज्ञैव प्रमाणभूता साध्यार्थ प्रतिपादयति, किमङ्ग हेतूपन्यासेन ?
अब अप्रमाणभूता, तर्हि तदेव दूषणमिति । तस्मात् वचनस्य प्रत्यक्षाविवत् प्रमाणभूतत्वात् ततः प्रेक्षावतां फलार्थिनां युक्ता प्रवृत्तिरिति युक्तम् । अथ कस्यचिद्वाक्यस्स-'नद्यातीरे शर्कराशकटं पर्यस्तम्-इत्यादिकस्य मिथ्यारूपस्योपलब्धेः कथं प्रेक्षावतां ततः प्रवृत्तिरित्यमिधीयते; तर्हि मरुमरीचिकाजलोल्लेखिनो ज्ञानस्य मिथ्यात्वोपलब्धेः कथं प्रेक्षावता प्रत्यक्षादेरपि प्रवृत्तिरिति । अथ मिथ्येतरयोः संवादासंवादलक्षणो विशेषोऽस्तीत्युच्यते; अत्रापि बाप्तप्रणीतत्वानाप्तप्रणीतत्वलक्षणोऽस्तीति वक्ष्यामः । नच शब्दानां संबन्धबलादर्यप्रतिपाद. कत्वम्, किन्तु विवक्षावशात् । सा च पुरुषसत्यत्वासत्यत्वेन सत्येतरा भवन्ती शब्दानां सत्यस्वासत्यत्वं ख्यापयतीति पुरुषप्रामाण्यमेव दर्पणसंक्रान्तं प्रतिबिम्बमिव शब्देष्वभिधीयत
१. विसंवादेनामि०म०। २. इति तत्राक्षेपपरिहारः अ०। ३. तत्र निष्फलमिदं प०कमु०। ४. असाध्यानु मु०। ५. तामादी वाच्य मु०। ६. कृषिवला अ०प०। ७. उपेयर्सदे क०मु०। ८. °स्य निवामु०क०। ९. विनिवार्यते अ०।१०. साध्यमर्थम् मु०क०। ११. इत्यादिवाक्यस्य ०। १३. प्रत्यक्षादपि मु०। १३. प्रणीतखाऽप्रणीतबलक्ष क० मु०। १४. वक्षामः क०। १५. 'सत्यासपन । सत्यासत्सेनक०म० १६. सत्यतासत्यखं म०क०। १७. संक्रान्तप्रक०
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कारिका २.]
प्रमाणस्य लक्षणम् । इति । अथेष्टोऽयमर्थः शक्येत ज्ञातुम् अतिशयो यदीत्यभिधीयते । एतत् पश्चात् प्रतिपादयिष्यामः।
६८. हितोऽपि कालान्तरेण ज्वरितादेरिव दध्यादिकं यद्यप्यहितो भवति, तथापि इष्टप्रथमकारि- त्वाद्धितः । अहितोऽप्येवम् । उपेक्षणीयोऽपि प्रमाणाविषयत्वात् , यदि वा अनुपादेयत्वात् सोऽप्यहित एव । तयोहिताहितयोः प्राप्ति-त्यागौ यतः प्रमाण निवन्धनौ । अतः तत् प्रकर्षण-संख्या-लक्षण-गोचर-फलविप्रतिपत्तिनिराकरणरूपेण, स्वतः परतः प्रामाण्यलक्षणेन वा, प्रत्यक्ष-परोक्षरूपेण वा वक्ष्यामः।
६९. नन्वतीत-वर्तमानयोरुपयुक्तफलत्वेन प्रवृत्त्यविषयत्वात् , भाविनस्त्वयक्रियाकारिणः प्रमाणागोचरत्वात् , भाविनि प्रमाणाभावादिति । तत् कथं हिताहितयोः प्राप्ति-त्यागौ प्रमाणनिबन्धनाविति ? । नैष दोषः, अतीत-वर्तमान-भविष्यतां कशिदेकत्वस्य प्रतिपादयिष्य- ।। माणत्वादिति ।
६१०. यदि वा हितो मोक्षः, अहितः संसारः, वयोः प्राप्ति-त्यागौ सर्वशनिबन्धनौ, अतस्तमेव भगवन्तं प्रमाणभूतं प्रतिपादयिष्याम इति ।
६११. वत् किं खातव्येण ? । न इत्याह-सिद्धसेनार्कचत्रितम्-इति । सिद्धसेन एवं जगजन्तुमनोमोहसंततितामसीतमःसमूहापोहकारित्वात् अर्क इव अर्की, तेन'सूत्रितम् ।। तत्सूत्राणामतिगम्मीरार्थत्वात् किचिल्लेशतो यथावोधं व्याख्यास्यामः [१]। ६१. तदेवाह-प्रमाणम्-इत्यादि ।
प्रमाणं खपराभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम् । प्रत्यक्षं च परोक्षं च द्विधा मेयविनिश्चयात् ॥२॥
-ति शालार्थसंग्रहः॥ .. ६२. अथेदं सूत्रं-किं सकलमेव शास्त्रार्थ प्रतिपादयति, किं वा एकदेशमिति ।न शाबास- सावत् सकलम्, फलप्रमाणाभासतापप्रतिपत्तेः । नाप्येकदेशम्, सकलप्रमाणप . लक्षणप्रतिपादनात्-इत्याशवाह-शास्त्रार्थसंग्रह इति । तथाहि-प्रमाणं सामान्यत्पर्यायः विशेषरूपतयाऽनेन संगृह्यत इति । स एव चे शालार्य इति । संग्रहस्तु वितरविरोधीत्य वयवेनाप्रतीतावपि न दोषः । यल्लक्षणं च. यद् वस्तु येषां प्रतिपायते वलक्षणविकलं तद् वस्तु तदाभासतया ते स्वयमेव प्रतिपद्यन्त इति किं प्रमाणाभासप्रतिपादनेनेति । निश्चयात्मकप्रमाणप्रतिपादनात् तपस्य फलस्य प्रतीतेः किं तदुपन्यासेन ।
६३. तत्र सूत्रपूर्वार्धेन प्रमाणसामान्यम् , उत्तरार्धन सद्विशेषोऽभिहित इति समुदायार्थः । अवयवार्थ तु सकलमेव शास्त्रमभिधास्यतीति ।
४. तत्र विधिवाक्ये लक्ष्यानुवादेन लक्षणं विधीयते । तदुत्तरकालं तु तत्र तत्र लक्ष-.
१. शब्दे तज्मा मु०। २. यदिस्य क० मु०। ३.०रिणः प्रमाणाभावादिति भ०। ४. अतीतानागतवर्तमानानां मु०। ५. एव शाखामु०। ६. साकल्येन अ-टि०।
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ [१. सामान्यल० परि० णानुवादेन लक्ष्यमिति । तत्र प्रमाणम् इति लक्ष्यनिर्देशः । शेष लक्षणमिति । नचैतद्वाव्यम्-तादात्म्यात् लक्षणासिद्धौ लक्ष्यस्याप्यसिद्धिः, तत्सिद्धौ वा तस्यापीति । यस्मात् यदेतत् प्रमाणशब्दवाच्यं वस्तु सर्वेषां प्रसिद्धं, तदनुषादेन विप्रतिपत्त्याऽसिद्धं लक्षणं विधीयत इति । [२] • ६१. तत्र ज्ञानं प्रमाणम्, न सन्त्रिकर्षादि । तदाह-समिकर्षादिकम्-इत्यादि
सन्निकर्षादिकं नैव प्रमाणं तदसंभवात्।
अवभासो व्यवसायो न तु ग्रहणमात्रकम् ॥३॥ ६२. तदसंभवादिति । तस्यैव सन्निकर्षस्यैवासंभवात् । यदि वा तस्य प्रमाणत्वस्यासंभसनिहितव. वात् । तथाहि-न सन्निहितवस्तुद्वयव्यतिरिक्तः कश्चिद् दण्डायमानः संयोगः "तिरिकस्य प्रत्यक्षेणोपलभ्यते । योरगुल्योरयं संयोगः' इति प्रतीतेः कथं नोपलभ्यत इति
चेत् ; 'तासामङ्गुलीनाम् अयं मुष्टिः' इति किं न प्रतीतिः । तत्रापि संयोगविशेषो निमित्तमिति चेत् ; न, 'संयोगविशेषः' इति स्यात्, न 'मुष्टिः' इति । न हि नीले 'पीतम्' इति प्रत्ययो भवति । अथ संकेतवशात् तथाप्रतीतिः । तर्हि पुरुषेच्छानिर्मितसंकेतवशात् प्रवर्तमाना एवंविधाः शब्दविकल्पा न किञ्चिद्वस्तुभूतं निमित्तमवलम्बन्त इति नैत
शाद् वस्तुव्यवस्था विदुषामुपपमेति । अन्यथा 'इदं नगरम्' इत्याविष्वपि निमित्तमभिधानीयम् । तत्र न तावत् नगरं द्रव्यम् , गृहैरसंयुक्तैर्विजातीयैश्च तस्यानारम्भात् । कतिपयगृहाणामस्ति संयोग इति चेत् । तत् किं संयोगेष्वपि संयोगः । यतो गृहाण्यपि न द्रव्याणि, विजातीयैः काष्ठेष्टकादिभिस्तदनारम्भात् । सत्ता नगरमिति चेत् ; किं नाटव्यां तत्प्रत्ययमुत्पादयति ? । गृहैविशेषितेति चेत् ; न, कूटस्थनित्याया विशेषणाऽयोगात् । अकि. चित्करस्याविशेषणत्वात् । किश्चित्करत्वे नित्यताहानेः । षण्णगरीत्यत्र च समूहार्थों वाच्यः । सत्ताया एकरूपत्वेन समूहार्थत्वानुपपत्तेः । सत्तां च निषेत्स्यामः । गृहाणो संयोगरूपाणां संयोगाभावात् , गुणैर्द्रव्यानारम्भाचेति न कश्चित् समूहार्थः । तेनैवंविधाः प्रत्यया वस्तु व्यवस्थापयन्तीति न संयोगः प्रत्यक्षगम्यः ।
६३. अथानुमानात् तत्प्रतीतिः । तथा हि - क्षिति-बीज-सलिलादयः सर्वे विरलदेशस्थाः " अन्यनिमित्तापेक्षाः, सामर्थ्य सति कार्यानुत्पादकत्वात् । यद्यत् सामर्थ्य सति कार्यानुत्पादकम् , तत्तद् अन्यापेक्षं दृष्टम् । यथा त एव बीजादयोऽन्यतरविकला । नोत्पादयन्ति च समर्था अपि विरलदेशस्थाः सर्वे "बीजादयोऽडरमिति । तस्मादन्यनिमित्तापेक्षाः । यत् सनिमित्तं स संयोग इति ।
६४. ननु बीजादयो दूरदेशस्था अपि सहकारिणं किं न संयोगमुपपा(मुत्पादयन्ति । तस्या"भावादिति चेत् । स किं न भवति ? । कारणाभावात् । किं तस्य कारणम् । त एव । किं
१. सर्वेषु मु०। २. र्षस्याऽसंभ० ब० मु० क०। ३. तयोर मु० ब० क०। ४. तत्रापि न संयो' क०। ५. स्तुकृतनिमि० मु०। ६. तत्तु संयो मु०। ७. काष्ठेष्टिका अ०१०। ८. सदारम्भात् मु०क०। ९. हार्थः तेनैवंविधाःक०म०। १०. सर्वे अकुर मु०।
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कारिका ३. ]
सन्निकर्षप्रामाण्यखण्डनम् ।
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न दूरस्या: ? । संयोगाभावात् । तत् किं संयोगेऽपि संयोगः १ ॥ तत्राप्यपर ere योग्यदेशस्थाः संयोगमन्तरेणापि संयोगमुत्पादयन्ति । कार्येण किमेषामपराद्धं यत्तनो पादयन्ति ? |
६५. अपि च, किमेषां दूरस्थानां कार्यानुत्पादकत्वं संयोगापेक्षया व्याप्तम्, प्रत्यक्षेणः प्रतीयते, किं वाऽनुमानेन ? । न तावत् प्रत्यक्षेण, तेन तस्माप्रतीतेरित्युक्तम् । नाष्यनुमानेन, अनवस्थाप्रसंगात् । अथ निमित्तमात्रापेक्षया व्याप्तं प्रतीयते । तर्हि योग्यदेशादिविशिष्टं अननसामर्थ्यमात्मपर्यायमपेक्षमाणास्ते कार्य न कुर्वन्तीति न पुनः संयोगमिति । तजाति कश्चित् सन्निकर्ष इति ।
माण्यनि
वेधः ।
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/
६६. भवतु वा, तथापि तस्य प्रमाणत्वं न संभवति । तथा हि-किमसौ स्वयमेव प्रमासचिकर्षप्रा- णम्, किं 'वा प्रमाणजननादिति । स्वयमपि किं ज्ञातोऽर्थ ज्ञापयति, अज्ञाती ॥" वा ? । ज्ञातोऽपि किं प्रत्यक्षेण, किं वाऽनुमानेन १ । प्रत्यक्षेणापि किं सामान्यरूपतया, किं वा विशेषरूपतया ? | यदि सामान्यरूपतया; न प्रतिकर्मव्यवस्थां कुर्यात् । विशेषरूपतयाऽपि तज्ञानं कर्मणि ज्ञाते स्यात् । नहि नीलाशाने 'नीलस्यायं सन्निकर्षः' इति ज्ञानं भवति । नीलज्ञानं किं तत एव सन्निकर्षात्, अथान्यतः १ । यदि तत एव तदा इतरेतराश्रयत्वम्, नीले ज्ञाते तज्ज्ञानम्, तज्ज्ञानाथै नीलज्ञानमिति । अथान्यतः सनि-1 कर्षात् । तदा तदेव चोद्यम्, तदेवोत्तरमिति, अनवस्था च । अथान्यतः प्रमाणाचीज्ञानम् । तर्हि किमन्तर्गडुना तेन ? । तदर्थ हि स परिकल्प्यत इति । कि । खसंवेदनप्रत्यक्षं नाभ्युपगम्यते । तत्परिज्ञानं पुनरन्येन्द्रियसन्निकर्षेण । तस्याप्यन्येनेत्यनवस्था । न च निकर्षे सन्निकर्षो, निर्गुणा गुणा इत्यभ्युपगमात् ।
६७. अथ संयुक्तसमवायात् तस्य ग्रहणम् । तथाहि - संयोगात् द्रव्यग्रहणम् । संयुक्त- 2:0 समवायात् गुणग्रहणम् । संयुक्तसमवेतसमवायात् गुणत्वग्रहणम् । समवायत् शब्दग्रहणम् । समवेतसमवायात् शब्दत्वग्रहणम् । विशेषणविशेष्यभावात् अभावग्रहणमिति प्रोढा सन्निकर्ष इति ।
६८. तदसत् । यतश्चक्षुर्नीलसन्निकर्षः किं स एव यः संयुक्तसमवायाद् गृहाते, किं वा सन्निकर्षान्तरमिति ? | यदि स एव । तन्न । यतो न स्वयमेव स्वं ज्ञापयति, स्वसंवेदनप्रस- 2 ङ्गात् । सन्निकर्षान्तरे कल्पनेऽनवस्था । तन्न प्रत्यक्षप्रतीतः सन्निकर्षः । अनुमानं तु तस्मिन् प्रागेव निराँसीति न पुनरुच्यते । तन्न ज्ञातो ज्ञापयति ।
६९. अज्ञातस्यार्थज्ञापकत्वे शशविषाणस्यापि प्रसंग: । असमवायात् न शशविषाणमिति चेत्; किं न रूपादि ? | अज्ञापकत्वान्नेति चेत्; न तत्र समवाय एव सन्निकर्षस्यापि शाप
१. दूरदेशस्थानां मु० । २. प्रतीतिरि° क० मु० । ३. निमित्तमात्रेण व्या' ब० ।
सामार्थ्यमात्रपर्या मु० । ५. किं प्रमा° अ० । ८. परिकल्पत अ० । ९. किं वा ख० ब० मु० क० । १२. न्तरपरिकल्प
₹५
मु० क० क० मु०
।
$
४. शिष्टं
६. खयमेव किं मु० । ७. 'ज्ञानाचील अ० ब० । १०. या शब्द सु० । ११. 'हणमिति । विशे
/
१३. निरासीदिति क० मु० ।
।
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म्यायावतारसूत्रवार्विकचौ [१. सामान्यल० परि० कत्वम् । तच रूपादेरप्यस्तीति । वस्तुस्वभावैरुत्तरं वाध्यमिति चेत् । तदेतत् पादप्रसारणमिति । तमाशातस्यापि सापकत्वम् ।
६१०. अथ प्रमाणजननात् सन्निकर्षाविः प्रमाणम् । नन्यौपचारिकमिदं स्यात् । किड, इदं लक्षणमतिव्यापकम्, अव्यापकं च स्यात् । तथाहि-आत्मनोऽपि प्रमाणजनकत्वात् • प्रमाणत्वं स्यात् । ईश्वरस च इन्द्रियाविसनिक भावात् प्रामाण्यं न स्यात् । अथ ईश्वर
स्थापि शेयाथैः सहास्ति समिकर्षः । कथमविद्यमानैरतीतानागतैरिति ? । मा भूविति चेत्; कथमतीवानागतमः ? । अथ नित्यं तस्य प्रमाणम् । तर्हि न सन्निकर्षस्तत्रेत्यव्यापकम् ।
६११. अथोत्सर्गोऽपवादेन प्रमातृत्वेन बाध्यत इति नातिव्याप्तिः । किं न प्रमेयत्वेन समिकर्षादौ १ । अपि च कारणत्वाविशेषेऽपि 'इदं प्रमाणम्' 'अयं प्रमाता' इति विशेषो "वक्तव्यः । अथ यत्र प्रमाणं समवेतं स प्रमाता, तदितरत् प्रमाणमिति । नैतदस्ति । यतः समवायस्य व्यापित्व-नित्यत्वोपगमात् सर्वप्रमाणैः सर्वे प्रमातारः प्रसज्येरन् । समवायिविशेषाद् विशेषोपगमे नित्यत्वक्षतिः ।
६१२. न प कनित्समवायं प्रत्यक्षात् प्रतीमः । अनुमानतस्तत्प्रतीतिरिति चेत्-तथाहिसमवायप- इहेतिप्रत्ययः संबन्धनिबन्धना, अबाधितेहप्रत्ययत्वात् । यो योऽवाधितेहप्रत्ययः निषः। स स संबन्धनिबन्धनः, यथा 'इह कुण्डे दधि' इति प्रत्ययः । तथा च 'इह तन्तुषु पटा' इति प्रत्ययः । तस्मात् संवन्धनिबन्धन इति । इह प्रामे वृक्षाः' इति भ्रान्तप्रत्ययनिवृत्त्यर्थमवाधितग्रहणम् । तथा सामान्येन संबन्धनिबन्धनत्वे साध्ये नाऽन्यदोषः । सामा विशेषसिसिरिति । उक्तमत्र-एवंविधानां कल्पनाज्ञानानां वस्तुव्यवस्थापकत्वाभावादिति । न चासंबद्धलिङ्गादुदयतामनुमानानां प्रामाण्यमुपपचिमत् । अन्यथा, 'स * श्यामः, तत्पुत्रत्वात् , परिदृश्यमानतत्पुत्रवद्' इत्यादीनां प्रामाण्यं स्यात् । बाधितत्वामेति चेत् ; अत्र कि न बाधा । काऽसाविति चेत् । इयमेव तावद् यदनियमतो लिलादुत्पत्तिरिति ।
६१३, तया, अयुतसिद्धानामाधाराधेयभूतानां स व्यावर्ण्यत इति । तत्र अयुतसिविं(डि) किं देशैकत्वेन, किम् एककालत्वेन, अथ स्वरूपैकत्वेनेति । तत्र न तावदेशैकत्वेन । न हि य एष तन्तूनां देशा, स एव पटस्थापि । तथाहि-तन्तवः खारम्भकेवं“शुषु स्थिताः, पटस्तु तेष्विति कथं देशैकत्वम् । आकाशैकत्वे सर्वेषामेकदेशत्वं स्यात् । न च तदेकदेशत्वेन एकदेशत्वम्, निर्देशत्वात् नभसः । कल्पितास्तस्य त इति चेत् ; तत् किं कल्पनातो वस्तुव्यवस्था ? । तन्न प्रथमः पक्षः। नापि कालैकत्वेन । नहि य एव तन्तूनां काला, स एष पटस्थापि, कार्यकारणभावाभावप्रसङ्गात् । कारणेन हि कार्यस्य समानकालस्वमन्यतः सिद्धस्स स्यात् । ततय कि सिद्धोपस्थायिना कारणेन । वन कालैकत्वेनाप्ययुत"सिद्धिः । वरपैकत्वे किं कुत्र समवैतु। तन्नायुतसिद्धिः।
. . १. च तथाहि-अ०५०। २. प्रामाण्यम् क० मु०। ३. 'धिवेहेतिप्रत्ययत्वात् क०मु०। ४. यथा मु०। ५. नानन्वयदोषः। अ०। ६. धानो कुकल्प मु०। ७. चासंबन्धलि म०प० क०। ८. वरपुत्र मु०क०। ९. मानपुत्र ब०क०। मानलात्पुत्र मु०। १०. यद्विनिय मु०। ११. तदेकदेशदेशलेन मु०। १२. खरूपेणैकले क०।
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कारिका ४.]
स्वसंवेदनबादः ।
१.७
१४. आधाराधेयभावोप्यात्म-ज्ञानयोर्नोपपद्यते । यथा चाधारावेयभावो नास्ति तथा नास्तिके निराकृतावभिधास्यते । यथा चाप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपतया नित्यः समवायोऽन्यो बा न संभवति तथा यथावसरं प्रतिपादयिष्यते । तन्न कश्चित्समवायः । तदभावात् नात्मनो विशेषः । तस्मात् प्रमाणजननात् सोऽपि प्रमाणं स्यात्, न वाऽन्यदपीति । तन्न सन्निकर्षः । १५. आदिग्रहणात् सामग्र्येकदेशश्चक्षुरादिर्न' प्रमाणम्, किन्तु ज्ञानमिति ।
१६. अथ किमिदं ज्ञानस्य प्रामाण्यम् ? । किम् अर्थग्रहणम्, उतागृहीतार्थप्रापणम्, आहोश्विद् गृहीतार्थप्रापणमिति १ । तत्रार्थग्रहणम्, अगृहीतार्थप्रापणं च मिथ्याज्ञानेऽप्यस्तीति तस्यापि प्रामाण्यं स्यात् । गृहीतार्थप्रापणं तु क्षणिकपर्यायवादिनो न संभबति । तथाहि - - यः पर्यायो गृहीतः नासौ प्राप्यते । यस्तु प्राप्यते न स गृहीत इति । अथ वस्तुमात्रं गृहीतं प्राप्यते । तदपि 'सर्वमेकं कथचित्' इति वादिनो मिथ्याज्ञानेऽप्यस्तीति 10 तस्यापि प्रामाण्यं स्यादित्याशङ्कयाह - 'अवभासो व्यवसायो न तु ग्रहणमात्रकम्' इति । तेन यद्यपि मरुमरीचिकानिकुरुम्बचुम्बिज्ञानम् 'इदम्' इत्यंशेन मरीचिकास्वरूप मुल्लिखदुत्पद्यते, तथापि विपर्ययाकान्तत्वात् न प्रमाणमिति ।
प्रामाण्य
विचारः
१७. अथ कोऽयं व्यवसायः १ । किमर्थग्रहणम्, उताग्रहणमिति १ । यदि ग्रहणम् ; तदा तदेव दूषणम् । अग्रहणे कथं प्रामाण्यमिति ? । अत्रोच्यते । सदसद्व्यवहारजननसामर्थ्य is व्यवसायः । तथाहि - सदितिज्ञानाभिधानप्रवृत्तिलक्षणः सद्व्यवहारः । नास्तीत्यादिलक्षणच असद्व्यवहारः । तयोर्जननसामर्थ्य व्यवसायं ब्रुवते । तेन मिथ्याज्ञाने तन्नास्तीति न तस्य प्रामाण्यमिति । [३]
६१. भवतु ज्ञानं प्रमाणम् । तत् पुनः केन वेद्यते ? किं स्वयमेव, किं वा ज्ञानान्तखसंवेदन- रेणेति ? | यदि ज्ञानान्तरेण; तदाऽभ्युपेतहानिः । अथ स्वयम् । तदपि नास्ति । "
बादः ।
यतः -
"यद्यर्थवेदनं ज्ञानमात्मनोऽपि प्रकल्प्यते ।
सुशिक्षितो बटुः स्कन्धं स्वमारोहतु दासवत् ॥”
तथाहि - वेद्यतेऽनेनेति वेदनम् वेद्यते तदिति वेद्यमिति विरुद्धयोः करणकर्मणोः कथher सद्भाव इति ? । कथमात्मानमात्मना आत्मा वेतीति व्यपदेशः ? । तस्मात् कल्पिताः क्रियाकारकव्यपदेशाः प्रवर्तमाना न वस्तु विरुन्धन्ति । अपि च- प्रमाणसिद्धे वस्तुनि को विरोधः 1 । एतदेवाह -
1
दीपवनोपपद्येत बाह्यवस्तुप्रकाशकम् ।
अनात्मवेदने ज्ञाने जगदान्ध्यं प्रसज्यते ॥ ४ ॥ प्रत्यक्षं च परोक्षं च ग्राहकं नोपपत्तिमत् ।
१. नास्तिकमतनिरा मु० । २. सामध्येकदे अ० क० मु० । ३. 'रादि प्रमा ब० । नेतिशेषःब- टि० । ४. उतार्थप्रापण ब० क० । ५. चिकासु उदकचुम्बि मु० । ६. चुम्बिविज्ञानं ब० । ७. त्मना असौ ती मु० क० । ८. वस्तुं वि० मु० क० । ९. वस्तु विरुन्धति अ० । वस्तु निद ब० ।
न्या० ३
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ [१. सामान्यल० परि० ६२. प्रदीपवदिति सजातीयानपेक्षत्वेन दृष्टान्तः । तथाहि-मानम् अात्मप्रकासकम् , अर्थप्रकाशकत्वान्यथानुपपत्तेः प्रदीपवत् । एनमेव हेतुं विपर्यये वाधकप्रमाणेन समर्थयितुमाह-नोपपद्यत इत्यादि । आत्मानं वेदयतीति आत्मवेदनम्, न तथा । तस्मिन् सति ने किश्चित् केनचित् विज्ञायेत इत्यन्धमूकं जगत् स्यात् । [४]
६३. इतश्चानात्मवेदनं ज्ञानं नाभ्युपगम्यते, प्रमाणेनाप्रतीतेः । तथाहि - यत् सदुपलम्भकप्रमाणगोचरचारि न भवति, तत् सकलमेव न सव्यवहृतिपथमवतरति । यथा शशविषाणम् । नावतरति च सदुपलम्भकप्रमाणगोचरताम् आत्मव्यापारादिलक्षणं विज्ञानमिति । तथाहि-तबाहकं प्रत्यक्षं वा स्यात् , परोक्षं वा । ____६४. प्रत्यक्षमपि किम् इन्द्रियार्थसंप्रयोगजम्, आहोखिद् आत्म-मनासनिकर्षसमुत्थम् , ॥ उतैश्वित् स्वसंवेदनं यदर्थोऽयमारम्भ इति ? । तत्र ज्ञानेनेन्द्रियस्य सग्निकर्षाभावात्, अनभ्युपगमाच न प्रथमः पक्षः । नापि द्वितीयः, मनःसद्भावे प्रमाणाऽभावात् । न चाप्रमाणकं वस्तु विपश्चितः समाश्रयन्ते । न च युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिः तत्प्रमाणम् , तस्या अन्यथाप्युपपत्तेः । तथाहि - यस्मिन्त्रात्मा आभिमुख्यं प्रतिपद्यते तस्मिन् विज्ञानमुदेति, अन्यत्र नेति किं मनःपरिकल्पनया ?। ॥ ६५. अथेदमाभिमुख्यं किम् आत्मनो व्यतिरिक्तम् , आहोखिद् अव्यतिरिक्तमिति ? । तत्र यदि व्यतिरिक्तम् । तदा संज्ञामात्रं भिद्यते नार्थ इति । अथाव्यतिरिक्तम् । तदाऽऽत्मनः स्वरूपाप्रच्युतेः सर्वदा तदस्तीति सर्वदा सर्व विषय विज्ञानं स्यात् । नन्वात्मनो मनसा संयोगकर्तृत्वं किं भिन्नम् , अभिन्नं वेति ? । यदि भिन्नम् ; नात्मनः कर्तृत्वम् । अथामिन्नम् । तदा तदपि तत्स्वरूपवत सर्वदाऽस्तीति सर्वदा संयोगः स्यात् । ततश्च सर्वदा ज्ञानोत्पत्तिरपि " स्यादिति ।
६६. अथ शक्तः कर्तृत्वम् , सा च सहकारिकारणवशात् कदाचिद्भवन्ती न दोषपोषमावहति । यद्येवं तर्हि कर्मणः सामर्थ्यादाभिमुख्यमात्मनः समुत्पद्यमानं ऊमवती ज्ञानोत्पत्ति विधास्यतीति किं मनःपरिकल्पनया ? । विधास्यते चायमर्थों "जीवांशात् कर्मनिर्मु
तात्" [का० १८ ] इत्यत्रान्तरे । तन्नात्म-मनोजनितमपि प्रत्यक्षं प्राहकमिति । ४.६७. अपि च - तत् तस्य कारणं, कार्यम् , अनुभयं वा सत् प्राहकं स्यात् ? । न तावत् कारणम् ; तदानीं ग्राह्यस्याभावात् । नाप्यनुभयम् ; असंबन्धात् । अथैकसामग्रीतस्तदुभयं माझमाहकरूपं समुत्पद्यत इति । तन्न, युगपज्ज्ञानोत्पत्त्यनभ्युपगमात् । किञ्च ज्ञानाविशेषे
ऽप्येकं प्रायम् , अपरं प्राहकमिति किंकृतोऽयं विशेषः । अथ कार्यम् । तदा तदपि हातम. · अज्ञातं वा ? । [अथाज्ञातम् ; तन्न, ] अज्ञातस्य ज्ञापकत्वाऽयोगात् । तदुक्तम्
“अप्रत्यक्षोपलम्भस्य नार्थदृष्टिः प्रसिद्ध्यति"। अथ ज्ञातम् ; तदपि यदि प्रत्यक्षान्तरेण, तदा किं प्रायेण किं पा शानान्तरेण १। यदि
१.न केनचित् किश्चित् ब० क० मु० ।। २. चरतावतारि मु०। ३. उतखित् मु०क०। ४. प्युत्पत्तेः अ०। ५. विषयज्ञानं ब०। ६. भिन्नमथाभिन्ममिति ब०। ७. दोषमावहति कामु०। ८. मानं संभवन्ती ज्ञानो मु०।
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कारिका ५.]
स्वसंवेदनवादः। प्रायेण; सदा तस्य प्राहकत्वात् कार्यत्वम् । ततश्चाने पातो द्वितीयस्यै । तस्याप्येवमिति काचपच्यं ज्ञानयोः स्यात् । तन्न प्रायेण । ज्ञानान्तरेणापि ग्रहणे तस्याप्यन्येनेत्यनवस्था । तन्न प्रत्यक्षं तद्राहकम् ।
६८. नापि परोक्षम् ; यतः तदपि किम् अर्थापत्तिा, उतानुमानमिति ? । तत्र न तावत् प्रथमः पक्षा, अर्थापत्तेरप्रमाणत्वात् । तथाहि - अर्थप्राकट्यादसावुत्पद्यते इत्यभ्युपगमः ।। तच तत्र किं नियतम् , अनियतम् वा । यद्यनियतम् ; कथं नियमेन गमयेत् ? । अथ नियतम् । तदा नियममहः किं तस्मिभेव धर्मिणि, किंवा धर्म्यन्तर इति ? । यदि तस्मिश्रेय; तदा येनैव प्रमाणेन नियमग्रहः, तेनैव साध्यस्यैव साधितत्वात् किमर्थापत्त्या । अथ धर्म्यन्तरे; तदा अन्यत्र गृहीतप्रतिबन्धम् अन्यत्र गमयदनुमानतां नातिकामति ।
६९. अपि च- अर्थापत्तिरपि किमर्थापत्त्या ज्ञायते, किं वा स्वसंवेदनेनेति ? । यदि ।। खसंवेदनेन; तदा प्रथमे कः प्रद्वेषः ? । अथार्थापत्त्या; तदा किं तेनैव प्राकट्येनोत्थाप्यते, किंवाऽन्येन ? । यदि तेनैव; तदा किं युगपत् , किं वा क्रमेण ? । प्रथमपक्षे अभ्युपगमहानिः । अथ क्रमेण; तदपि नास्ति, अननुभवात् । अथान्येन; तदा तदर्थापत्तापपि ज्ञानप्रमेऽपरिमितार्थापत्तिमाला प्रसज्येत । तन्नार्थापत्त्याऽपि ज्ञायत इति । निषेत्स्यते चार्थापत्तिस्तत्प्रस्ताव इति ।
६१०. अनुमानमपि न तव्यवस्थापकम् , यतस्तदपि गृहीतसंबन्धमेव प्रवर्तते । संबन्धप्रहस्तु किमन्वयमुखेन, किं वा व्यतिरेकमुखेण ? । न तावदन्वयमुखेन, यतः 'तद्भाव एवं भावः' इति स प्रतीयते । तदावभावित्वं च किं प्रत्यक्षेण प्रतीयते, किं वाऽनुमानेन ? । न तावद् अत्यन्तपरोक्षे विज्ञाने प्रत्यक्षेण । नाप्यनुमानेन, अनवस्थाप्रसङ्गात् । व्यतिरेकमुखेणापि नास्ति, यतो विपक्षे हेतोरभावः किमभावप्रमाणेन प्रतीयते, आहोश्विदनुपलम्भेन ? । अभा.. वप्रमाणाभावाद् न प्रथमः पक्षः । अनुपलम्भोऽपि किं दृश्यानुपलम्भः, किं वा अदृश्यानुपलम्भः ? । अन्त्यस्य सत्यपि वस्तुनि भावाद् न व्यतिरेकसाधकत्वम् । दृश्यानुपलम्भमपि स्वभाव-कारण-व्यापकाउनुपलम्भभेदेन व्यावर्णयन्ति । तत्र दृश्यानुपलम्भो नादृश्ये ज्ञाने संभवति । नापि कार्यकारणभावः । स हि प्रत्यक्षानुपलम्भसाधकः कथं परोक्ष वस्तुनि स्यात् ? । व्याप्यव्यापकभावोऽपि प्रत्यक्षानुमानाभ्यां तस्य न प्रतीयते इत्युक्तम् । अतः कथं ततस्तदभाव इति । तत्र व्यतिरेकद्वारेणापि संबन्धनिश्चयः।
६११. किच, तलिङ्गम् अर्थः, चक्षुरादयो या ? । अर्थोऽपि कि सामान्यरूपा, विशेषरूपो षा? । सामान्यस्य ज्ञापकत्वे अतिप्रसङ्गः । विशेषोऽपि यदि प्राकट्यम् , आभिमुख्यम् । तदपि अर्थात् भिन्नम्, अमिन्नं वा? । यदि भिन्नं स्वप्रकाशम् । तदा सिद्धं साध्यम् , किमनेन ? । अयाभिन्नम् । तदा स्वप्रकाशोऽर्थः प्रेसज्येत । एवं चक्षुरादिष्वपि वाच्यम् । ॥
१. तदस्य ब०। २. द्वितीयस्याप्ये क० अ००। ३. गमयेतानुमा अ०। ४. एतदपि मु० क०। ५. अनुपलम्भमात्रस्य अ० ब० क०। ६. प्रत्यक्षानुपलम्भौ साधको यस्य इति विग्रहः कार्य:-सं०। ७. कम् तत् कथं क० मु०। ८. अनुपलम्भात् अ-टि०। ९. विपक्षे हेतोरभावः भ-टि० । १०. किमन्येन क० मु०। ११. प्रसाभ्येत भ००।
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ [१. सामान्यल० परि० ६१२. किश्च- इदमर्थशून्य विकल्पविज्ञान केन ज्ञायते ? । न च तस्याननुभवः । नापि तद् बाह्यम् , अध्यात्म परिस्पन्दात् । योऽपि कारकसंबन्धान्यथानुपपत्त्या व्यापारः परिकल्प्यते; सोऽपि न युक्तः, यतो यदि तेन तेषां मीलनं क्रियते तदा तेषां सै न स्यात्, पूर्वमेव सिद्धत्वात् । संबद्धानां यदि स स्यात् । तदा किं तेन ?, स्वयमेव संबन्धात् । । ६१३. अपि च-स किं कारकजन्यः, अजन्यो वा ? । अजन्योऽपि भावल्पा, अभावरूपो वा ? । अभावरूपत्वे न फलजनकत्वं स्यात् । भावोऽपि किं नित्यः, अनित्यो वा। नित्यत्वे न कदाचिद् अर्थाधिगतिविरतिः स्यात् । 'अजन्यश्च अनित्यश्च' इति व्याहतम् । जन्योऽपि किमेकक्षणस्थायी, किं वा कालान्तरस्थायी । प्रथमपक्षे क्षणादूर्व प्रतीतिविरतिः स्यात् । प्रतिक्षणमपरापरोत्पत्तौ न कदाचिद्विरमेत । अथ कालान्तरस्थायी; ॥ तदा "क्षणिका हि सा" [शाबर• पृ० ३२] इत्यभ्युपेतहानिः। .
६१४. अपि च-असौ क्रियारूपः, अक्रियारूपो वा? । सोऽपि कि परिस्पन्दरूपा, अपरिस्सन्दरूपा वा ? । परिस्पन्दात्मिका नास्पन्दस्यात्मनः स्यात् । यदर्थः प्रयासः स एवं त्यतः स्यात् । अपरिस्पन्दः किं परिस्पन्दाभावः, किं वा वस्त्वन्तरमिति ? । अभावस्थ
जनकत्वविरोधादित्युक्तम् । वस्त्वन्तरमपि किं चिद्रूपः, किं वा जहः ? । चिद्रूपोऽपि किं ॥ धर्मी, किं वा धर्मः ? । यदि धर्मी; न प्रमाणं स्यात्, आत्मवत् । अथ धर्मो यदि
आत्मनोऽभिन्नः, न प्रमाणम् । भिन्नोऽपि असंबन्धात् न तस्य । 'तत्कार्यत्वात् तस्य' इति चेत्, तत्कर्तृत्वं यदि व्यापारान्तरेण; तदा अनवस्था । निर्व्यापारस्य कार्यकर्तृत्वे; किं तेन ? । जडोऽपि यदि धर्मी; लोष्टवत् न किञ्चित् । अथ धर्मः; तदाऽऽत्मनः कथं जडो धर्मः ?।
१५. अपि च-व्यापारेण फलं यदि व्यापारवता जन्यते; तदा अनवस्था । अव्यापरिपक्षे प्रथमेनापि तेन किम् ? । अथ व्यापारस्य तद्रूपत्वाद् न तदन्तरमिति चेत्, किमिदं तद्रूपत्वम् - किं पराश्रितत्वम् , किं वा परजन्यत्वम् ? । संयोग-समवायनिराकरणेन आश्रितत्वानुपपत्तेः । जन्यत्वमपि अविचलितानुत्पन्नस्थिरैकरूपेणात्मना क्रमाऽक्रमाभ्यां नोपपद्यत इति न व्यापारः कश्चित् । तन्न परोक्षं ज्ञानं प्रमाणमिति । ६१६. किश्च
अनात्मविदि विज्ञाने तादात्म्यात् सुखदुःखयोः । वेदनं नोपपद्येत न स्यातां प्रीतितापने ॥ १॥ एकार्थसमवायस्य पूर्वमेव निराकृतेः।
नैषामज्ञानरूपत्वं एकहेतुसमुद्भवात् ॥ २ ॥ .६१७. उक्तं च
"तदतदूपिणो भावास्तदतद्रूपहेतुजाः।
तत्सुखादि किमशानं विज्ञानामिनहेतुजम् ॥" [प्रमाणवा० २.२५१.] १. शून्यविक ब०। २. यदि तेषां मु० क०। ३. तेषां संबन्धः स्यात् मु०। ४. अजन्यो भाव' क०मु०। ५. 'भ्युपगतहानिः ब०। ६. सोऽपि मु०। ७. रूपोऽप मु०। ८. रूपो वा मु०। ९. एवं प्रत्युक्तः मु०। १०. रस्याकार्य° क० मु०। ११. अव्यापारवता जन्यते पक्षे प्रथब०। १२. रस्यातद्रूप क०। १३. 'खम् परा० अ०। १४. दिकमज्ञा क० मु०।
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कारिका ५.] प्रामाण्यनिश्चयोपायचर्चा।
"अविशेषेपि बाह्यस्य विशेषात् प्रीतितापयोः। भावनाया विशेषेण नार्थरूपाः सुखादयः॥ प्रशादिवद्विशिष्यन्ते भावनाबलभाषतः। नार्थेन जनिताकारो बुद्धौ भोगस्तदात्मनः॥ नियतविषयत्वेन शामाकारो निवर्तितः। मर्थान्धयातिरेकेण व्यांतो नीलादिभासवत् ॥ मिनाभः सितदुःखादिरभिन्ने बुद्धिवेदने । अभिनामे विभिन्ने धेनेदाभेदी किमायो॥ नानात्वैकत्वलोपः स्यादेवं सति जगत्रये ।
तसादन्तर्भवा एते चेतनाति साधितम् ॥" वर्तेः स्थितमेतत् स्वसंवेदनं विज्ञानमिति ॥ [५]
६१. अथ प्रमाणात् प्रवर्तमानाः किं निश्चितप्रामाण्यात् प्रवर्तन्ते, किं वाऽनिश्चितप्रामाप्रामाम्यनि- ण्यादिति ? । यदि अनिश्चितप्रामाण्यात् किं प्रमाणपरीक्षया । अय निश्चितबयोपायव प्रामाण्यात् ; तनिश्चयः किं संवादज्ञानात्, किं वा कारणगुणज्ञानादिति । प्रथमपक्षे संवादज्ञानं "किं सहकारिकारणं सत् तनिश्चयमुत्पादयति, किं वा प्राहकं । सविति ? । यदि सहकारिकारणम् ; तन्नोपपद्यते, भिन्नकालत्वात् । प्राहकमपि कि प्रत्यक्ष सत्, किं वा लिगभूतमिति ? । न तावत् प्रत्यक्षं सत्, प्रवर्तकस्य सुदूरं नष्टत्वात् । अपि च-इन्द्रियजं प्रत्यक्षं ज्ञानान्तरस्वरूपमपि न प्रतिपद्यते । कुत एव तत्प्रामाण्यमिति । लिगभूतमपि नास्ति, यतो लिङ्गं गृहीतसंबन्धं ज्ञापयति । संबन्धमहो" न ताभ्याम्, परस्परस्याग्रहणात् । नापि ज्ञानान्तरेण तत्स्वरूपाग्रहणादेव ।
६२. अथानादित्वात् संसारस्य संवादकज्ञाननिबन्धनं प्रवर्तकस्य प्रामाण्यमनेकशो विनिश्चित्य संदेहभाजि प्रवर्तकज्ञाने संवादकज्ञानात् निश्चय इति । ननु अत्र चक्रकं दूषणम् । तथाहि - निश्चितप्रामाण्यात् प्रवृत्तिः । प्रवृत्तौ संवादज्ञानम् । ततः प्रामाण्यनिश्चय इति ।
६३. किञ्च- अनादौ संसारे निरात्मवादिनः(ना) केन संबन्धो गृह्यते ? । अथ अस्त्यनन्तवासनाऽऽलयभूतम् आलयविज्ञानं रागादिबाह्याहङ्कारास्पदभूतम् , तेनेति । ननु निरन्वय-. क्षनिकविना भेदाविशेषात् विभिन्नसंतानवासनासंक्रान्तिरपि कस्मान्न भवति । अथ
"यमिन्नेव हि संताने आहिता कर्मवासना।
फलं तत्रैव संधत्ते कर्पासे रक्तता यथा ॥" इत्यभिधीयते । न, संतानिव्यतिरिक्तस्य संतानस्याभावात् । अथ अस्ति कार्यकारणप्रवाहरूपः संतानः । न, कार्यकारणभावस्य निरन्बयक्षणिकपक्षे निषेत्स्यमानत्वाविति ।. .
६४. किच-संवादज्ञानमपि यदि संवादज्ञानापेक्षया प्रमाणम् । तदा तदपि तदन्यापेशयेत्यनवस्था । अथ स्वतः तदा पूर्वमपि तथैवास्तु, किं संवादज्ञानेन ?।
१. व्याप्ता मु०क०। २. रमिनो अ० ब०। ३. कलयोयः स्यामु०। ४. तत् मु०। ५. दनं ज्ञान मु०क०। ६. यदि निश्चित° अ०। ७. 'ज्ञानं सह° मु०। ८. ग्रहणं मु००। ९.शानान्तरे खमु०। १०. ग्रहोऽपि न मु० क०। ११. चक्रकदू ब०। १२. कार्यकारणरूपः म०। १३. किस संवादज्ञानापेक्षया अ०। १४. णम् तदपि अ०।
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृचौ [१. सामान्य परि० ६५. अथ प्रेक्षापूर्वकारिणः प्रयोजनमुदिश्य प्रवर्तमाना अर्थक्रियायां सिद्धायां निष्पन्न प्रयोजना न तत्प्रामाण्यपरीक्षायां मनः प्रणिधति । अन्यथा अन्यस्यापि यत् प्रामाण्यकारि तत् स्वतः कथं न प्रमाणमिति । नैतदस्ति । यतो यथा ते प्रेक्षावत्तया प्रवर्तक विचारयन्ति, तथाऽयक्रियामानमपि । तथाहि-इदमर्थक्रियाझानं किं स्वादशायामिवासत्यम् , • सत सत्यमिति ? । अथै तस्य पापितत्वेनैव असत्यत्वम् । तथाहि-प्रबोधानन्तरमेव शरीरबबादेरतिन्यदवस्थामुपलभमानाः 'धिग् मिध्येदं जलार्थक्रियामानम्' इति निश्चिन्वन्ति । जाप्रदवल्यायां तु सर्वदेवाचाधितमर्य क्रियाज्ञानमनुभवन्तो न साशा इति न प्रमाणान्तरमपेक्षन्त इति नानवस्या । तर्हि अवाधितत्वेनैव प्रामाण्यनिश्चयः।
६६. किना-तत् संवादकज्ञानं किम् एकसंतानम्, मिन्नसन्तानं वा । तदपि किम् "एककालम्, मिनकालं पा । तदपि किं समानजातीयम्, उत भिन्मजातीयम् । समानजातीयमपि किम् एकविषयम् , आहोश्विद् भिन्नविषयम् ।
६७. तत्र एकसन्तानवर्ति समानकालं समानजातीयं समानविषयम्, मिन्नविषयं वा विज्ञानद्वयं युगपन्नोपपद्यते। भिमकालं तु तत् तैमिरिकचन्द्रद्वयदर्शनेन व्यभिचारि।मिरिकम पुन: पुनलझानमुत्पद्यत एव । किन-एकविषयत्वे यथा प्रान विज्ञानमप्रमाणं तथा
दुचरकालभाव्यपि तस्मिमेव विषये प्रवर्तमानम् अप्रमाणं स्यात् । प्राक्तनल प्रामाण्ये पदमिन्नविषयत्वाद् अधिकं किञ्चिद् अपरिच्छिन्दद् गृहीतगाहित्वेन अप्रमाणं स्यात् । न पाप्रमाणेन प्रामाण्यंनिश्चयो युक्तः । भिन्नकालस्य तु भिमविषयस्य रूपाविज्ञानस्य संवादकत्वे मरीचिकाजलज्ञानस्यापि तदुत्तरकालभावि मरीचिकारूपप्राहि दर्शनं संवादक; स्यात् । मिनजातीयं त्वेकसंतानवर्ति समानकालं भिन्नकालं वा यदि संवादकं; तदा मिध्यादर्शनस्यापि विभिन्नवस्तुस्पर्शाविज्ञानं संवादि स्यात् । एकविषयत्वे सतीति चेत् कथं रूपस्पर्शाविज्ञानानामेकविषयत्वम् ।न चैक" द्रव्यमभ्युपगम्यत इति । भिमसंतानं तु समानजातीयं भिन्नविषयम् , एककालम् , भिन्नकालं वा यदि संवादकं स्यात् ; तदा मिध्याज्ञानस्याऽपि तथा भवेत् । एकविषयत्वं तु तत्स्वरूपापरिझाने तत्कर्मताऽप्रतिपत्तौ तयोर्नोपपद्यते । अथ तुल्याभिधानप्रवृत्तिदर्शनात् तयोरेकविषयत्वं प्रतीयते । ननु तैमिरिकद्वैयद्विचन्द्रदर्शनेऽप्येतदस्तीति । तयोरपि परस्परस्य संवादकत्वेन प्रामाण्यं स्यात् । अथ तत्र बाँधकोपलब्धेनैतदेवमित्युच्यते । तर्हि तदेव प्रामाण्यनिबन्धनम् , न संवादकज्ञानमिति ।
६८. अथ कारणगुणज्ञानम् । तत् किं प्रत्यक्षम् , उत अनुमानमिति ? । न तावत् प्रत्यक्षम्, इन्द्रियाणां परोक्षत्वात् । न हि धर्मिणः परोक्षत्वे तद्धर्माणां प्रत्यक्षत्वं दृष्टम् । कथं बुख़्यादीनामिति चेत् न, तेषामपि परोक्षत्वात् । येषां तु तत्प्रत्यक्षत्वं तेषामात्मनोऽपि । "अन्येषां बुद्ध्यतिरेकिणोऽभाव एव । अपरेषां कथञ्चिदभेदाद् तद्ब्रहण एव तेषां ग्रहणमिति
१. प्रेक्षाकारिणः ब० मु०क०। २. अन्यच्चान्यस्यापि मु०क०। ३. अर्थतस्य ब०। ४. मानाः भिन्नमेवेदं मु०। ५. नैव निश्चयः अ० मु०। ६. "विषयं वा भिन्न मु०क०। ७. 'द्वयदर्शिदर्शनेन ब०। यदर्शितदर्शनेन मु० क० । ८. प्राक्तनवि० अ० मुक०। ९. अप्रामाण्यं स्यात् अ० ब०।१०. प्रामाण्येऽनि मु०। ११. °स्य भिन्न मु००। १२. चैकद्रव्य' अ०। १३. ये द्विचन्द्र भ०। १४. बाधकोपपत्तेनैत मु०। १५. धर्मिपरो अ०० क०।
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R?
कारिका ५.]
ख्यातिविचारः। न व्यभिचारः । अथ अनुमानम् । तदपि प्रतिबन्धवलाद उदयमासादयति । प्रतिवन्धमा न तावत् प्रत्यक्षेण
विष्टसंबन्धसंवित्तिः नैकरूपप्रवेदनात् ।" इति । अनुमानेन प्रतिबन्धग्रहणे अनवस्था, इतरेतराश्रयत्वं वा स्यात् । लिङ्गमपि नानुः पलब्धिः, तस्याः अमावसाधनत्वात् । खभावहेतुरपि दृश्ये व्यवहारमात्रसाधनफला।। कार्यमपि यदि प्रामाण्यनिश्चयः तदेतरेतराश्रयत्वम् ।
६९. न च नैर्मल्यादयो गुणाः दोषाभावव्यतिरेकिणः केचित् । भावेऽपि च तद्वाहिशानं तदन्यकारणगुणज्ञानापेक्षम् । तदपि तदन्यापेक्षमिति अनवस्था स्यात् । तम कारणगुणज्ञानापेक्षोऽपि प्रामाण्यनिश्चय इत्याशयाह-बाधनेत्यादि
बाधनात् संशयायासे सूक्तं सामान्यलक्षणम् ॥५॥ .. ६१०. बाधनं बाधितत्वम् , तस्मात् । संशयश्च । आदिग्रहणात् विपर्ययश्च । तल असनं क्षेपणम् आसः । तस्मिन् सति प्रामाण्यं निश्चीयत इति ।
६११. ननु किं वाच्यम् , किंवा बाधकम् , कच तदभाव इति । बाण्यम् मिथ्याव. बाध्यविष- मिति चेत् ; किमिदं मिथ्यात्वम् ? । वैपरीत्यमिति चेत् ; कस्य परीत्यम् ।, कि साप ख्याते?; ख्यायमानस्य वा । तदपि तयोः किम् अभावः, किं वाऽन्यल्पाविचारः। विनाऽवभासनम् ? । अभावोऽपि किम् अवभासकाले, कालान्तरे वान ताव अवभासकाले, तदानीमेव अवभासमानत्वात् । कालान्तरे चेत् । क्षणिकत्वात् सर्वख्यातीनां वैपरीत्यप्रसङ्गः । अर्थक्रियाऽभावाद् अभाव इति चेत्, कथमन्यसामावे अन्यस्थाभावोऽतिप्रसंगात् ? । तदानी च सर्वस्वार्थक्रियाविरहोऽस्तीति तथाभावः स्यात् । कालान्तरे तदभावो नासत्तां ख्यापयति, अतिप्रसंगात् ।।
६१२. रूपाविषेपरीत्यं च केन प्रतीयते ? किं पूर्वज्ञानेन, किंवा तेनैव, माहोमिद उत्तरकालभाविनेति ? । पूर्वज्ञानेन किं बाध्यकालाविस्थेन, खकालाविस्थेन वान वाक् पूर्वपक्षः, तदानीं तस्याविधमानत्वात् । नापि द्वितीयः, तत्काले मियाज्ञानसाभावात्, प्रमाणाभावेन विषयैक्यस्याभावाद् न तथाप्रतीतिरिति । अथ तेनैवात्मनोऽन्यदेशता प्रती, यते । तत् किं सा तस्मिन् काले अस्ति, किं वा नास्ति ? । यद्यस्ति; कथं वैपरीत्यम् ।। अथ नास्ति; कथं विपरीतख्यातिः । तथा सत्यसख्यातिः स्यात् । उत्तरकालभाविप चिरविनष्टस्य कथं तथात्वं प्रतिपयते ? । किच-बाधकम् 'असत्' इति प्रत्येति न वैपरीत्यमिति । तत्र विपरीतख्यातिः।
६१३. अथ स्मृतेः प्रमोषः तथाहि-नागृहीतरजतस्य शुक्तिकाशकलावलोकनेऽपि इदं रजतम्' इति प्रतिभासो भवति । किन्तु गृहीवरजतस्य तदनुभवाहितसंस्कारस्य चाकचिक्य... साम्यापहृतचेतसः. शुक्तिकाखण्डदर्शनप्रबोधितस्मृतिबीजस्य तत्र 'अनेन सदृशं रजतम्'
१. पि वा तद्रा ब. क. मु०। २. तावत् तदानीमेव ब० अ० क०। ३. रूपवैप मु०। ४. पूर्वः पक्षः मु० क०। ५. विषयैक्यामा ब०क०। ६. नोऽन्यादेश ब० म०। ७. शुकिकावलो मु०। ८. शुशिलण्ड क० मु०।
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२४
न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ [१. सामान्यल० परि० इति मरणं नोदपावि, किन्तु 'इदमेव रजतम्' इति दर्शन-स्मरणयोसद्विषययोकत्वप्रतिपत्तिः वलमोषः।
६१४. ननु कि दर्शनविषयस्य स्मृतिविषये आरोपः, किंवा स्मृतेः दर्शनविषय इति । का प्रथमपो यत्र यद् आरोप्यते तत्र तत्प्रतिभासो भवति । यथा मरीचिकासु जलमारोप्यमाणं मरीचिकादेशे कास्ति । ततः स्मर्यमाणदेशे शुक्तिप्रतिभासः स्यात्, नेदंतया रजतस्पेति । द्वितीयेऽपि पक्षे स्मर्यमाणस्य अस्पष्टत्वात् परोक्षत्वाद् इदम्' इति दर्शनं कथं स्पष्टतयाऽपरोक्षतया प्रतिभासेत ।।
६१५. किञ्च- तयोरैक्यं केन प्रतीयते ? । किं ताभ्यामेव, अथान्येन ? । तत्र अखसंवेदनाभ्यां दर्शनस्मरणाभ्याम् आत्मापि न प्रतीयते, कुत एव अन्येन सैहेक्यमिति ? । "स्वसंवेदनाभ्यामपि स्वात्मनिममाभ्यां न द्वयस्यैक्यप्रतीतिः । अपि च-यदि द्वयं वेद्यते, कायमैक्यम् ?; अथ न वेधते; कथमैक्यम् ? । अथ पूर्व द्वयं प्रतीत्य तदेवकत्वेन प्रत्येति । न, संवेदनस्य क्षणिकत्वेन एतावन्तं कालमनवस्थानात् । तत्तादात्म्येन च खेसंवेदनमपि विभिन्नमिति कथं पूर्वापरयोरैक्यं प्रतिपद्येत ? । भ्रान्तत्वात् तथाप्रत्येति' इति चेत् न, बामख्यातित्वप्रसङ्गात् । तत्र च वक्ष्यामः । अथ अन्यत् । तब पूर्वदर्शनाहितसंस्कारस ॥ उत्तरदर्शनप्रबोधितस्मृतिबीजस्य विकल्पकं विज्ञानं तयोरसन्तमभेदं ख्यापयति । तर्हि असल्यातिः स्यात् , न स्मृतिप्रमोष इति । तन्न स्मृतिप्रमोषोऽपि मिथ्यात्वम् ।
६१६. अलौकिकत्वमिति चेत् ; किमिदं अलौकिकत्वम् ? । किम् अन्यरूपत्वम्, अथ अन्यक्रियाकारित्वम् , किं वा अन्यकारणजन्यत्वम्, आहोश्विदजन्यत्वमिति ? । सत्र न वावद् अन्यत्पत्वम् । यदेव हि सत्यस्य रूपं प्रतिभाति, तदेवासत्याभिमतस्यापि । न चान्य• क्रियाकारित्वम् , अदर्शनात् । अन्यजन्यत्वे; सर्वत्र नियमो न स्यात् । लौकिकेष्वेव स इति
चेत्, इतरेतरामयत्वम् । सत्यनियमेऽलौकिकत्वम् , सति अलौकिकत्वेऽनियम इति । अजन्यत्वे नित्यं सस्वमसत्त्वं वा भवेत् । ततश्च सत्यज्ञानविषयोऽपि स्यात् । तन्नालौकिकत्वमिति ।
६१७. भात्मख्यातिरिति चेत् ; तत्किं परं ब्रह्म, आहोश्विद् विज्ञानमिति ? । तत्र यदि सद् बद्वयं तदा द्वयदर्शननिबन्धना कथं तंत्र भ्रान्तिः ? । अन्तरुपप्लवादिति चेत्, तत्रापि यदि खल्पप्रतिभासः कथं भ्रान्तिः ? । अथ अन्यरूपप्रतिभासः, कथमात्मख्यातिः । अथ आत्मरूपस्व प्रान्त्या अन्यरूपत्वेन अवभासनम् । ननु इतरेतराश्रयत्वम् । तथाहि-अन्यखेलपमवमासन्ती भ्रान्तिः, भान्याऽन्यल्पावभासनमिति ।
६१८. अथ अविद्यया भ्रान्तं वेदनं जन्यते । कथं नित्यत्वं ब्रमणः ? । न च तव्यतिरेकेण सदस्ति, प्रासग्राहकाकारयोरनात्मरूपत्वात् । आत्मरूपत्वे वा तयोरपि सत्यत्वम्, आत्मनो वाऽसत्यत्वमिति । अथ संवेदनमात्रं सत्यमात्मनो रूपम् । तथाप्रतिभासस्त्वविद्यावशादिति ।
१. शेऽवभासते मु०। २. स्वरूपम् ] अ-टि०। ३. अन्येन खात्मैक्यम् मु०। ४. खात्मनि निममा अ० ब०। ५.च संवेदन ब०क०मु०। ६. 'त्येति चेत् क० मुं०। ७. अन्यस्य अ-टि०। ८. रित्वमिति, कि अ० मु०। ९. यसमिति सत्य अ०। १०. तव मु०। ११. अतद्रूपभ्रमादिति मु०। १२. अन्यरूपमव मु०ब०। १३. मवभासयन्ती क० । भवभासयतीति भ्रा° मु०।
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रिका ५.]
बाध्यबाधकनिराकरणम् ।
२५
हसा भया किंम् वात्मरूपम्, अथान्यदेव किचित् १ । यद्यात्मरूपम्; कममविद्या ? । - कथमद्वैतम् १ |
१९. जब भेदे प्रमाणाभावात् तथाप्रतिभासों भ्रान्तिरिति । तथाहि - भेदो वस्तुतः किं नि:, किया अभिनः ? । यद्यमिनः; न भेद: । अब भिन्नः । स किं प्रत्यक्षेण प्रतीयते, अनुमान १ । प्रत्यक्षेणापि किं तद्वस्तुप्राहिणा, उतान्येन १ । यदि तद्वस्तुप्राहिणा; तदा किं । aft काले, काठान्तरे वा ? । न तावत् तस्मिन्नेव काले, द्वयोः प्रतिभासाभावात् । कान्तरे प्रत्यक्षस्यैव नष्टत्वात् न तेन भेदमहः । अन्यस्म तु तदानीमनुभवात् । अनुमानमपि न प्रत्यक्षाभावे भेदमाह । किन - भेदस्यापि वस्तुनोऽन्यो मेदः । तत्राप्यन्य इत्यनन्तभेदावमांचः खात् । न चासावति ।
२०. इत्यादिपरविकल्पितं गजविकल्पायते । यतो भेद एव प्रत्यक्षे प्रतिभासते । तथाहि - 10 प्राइकाकार महंकारात्पदसूतम्, नीलादिकं च प्राझाकारं मुक्त्वा नान्यैत् संवेदनमात्रं प्रतिभाति । केवलमद्वैतवादी ददाशया उत्स्वप्रायत इति । अपि च- -अयममेदः किं वस्तुनो मित्रः, किं बाऽभिनः ? । यथेभिनः तदा नाऽभेदः । अथ मित्रः; स किं प्रत्यक्षेण प्रतीयते, किं तुमान १ । प्रत्यक्षेणापि किं वस्तुप्राहिणा, उतान्येन १ । वस्तुप्राहिणापि किं युगपत्, क्रमेण वा ? । न तावद् युगपत्, द्वयप्रतीतेरयोगात् । प्रतीतौ वा लुठितोऽभेदः । नापि # कन, क्षणिकत्वात् । न चान्यत् प्रतिभाति । प्रत्यक्षाभावादनुमानमपि नास्ति । अथ वस्तुनो महणे तदभिन्नस्य अभेदस्यापि प्रहणमिति । भेदस्यापि तथाग्रहणं किं न भवति १ ।
२१. कि- अमेदो नाम अँडि ( नाम द्वितीयापेक्षः । तदग्रहे कथं प्रहणमस्य १ । महि यथा नीलमाहि] ज्ञानम् 'यदेवं न भवति तदतोऽन्यद् इति व्यवस्थापयति, तथा 'पीवायनेनामिनम्' इति शेक्नोति । नहि पीताद्यप्रतिभासने तेन सहैकत्वप्रतिभासो युक्तः । * भेदोऽपि कथम् भिद्यमानाप्रतिभास इति चेत् तत् किं नीलस्यापि नास्ति प्रतिभास: १ । अतीति चेत्; यद्येवं तत् किं पीवादि क्षेत्र भासते ? । नेति चेत्; तत्कथं न भेदप्रतिभासः १ । न चैवं द्वितीयाप्रतिभासने तेन सहैक्यमिति प्रतिभासो युक्तिमानिति । प्रतिपादवियते चान्यमाह्मत्वं मेदस्य अभावप्रमाणनिराकृताविति । तन्नात्मख्यातिरपि " ।
२२. बाधकमपि किम् अनुपलब्धिः, आहोश्विद् ज्ञानमिति १ । अनुपलब्धिरपि किं 25 तस्मिन्नेव काले कालान्तरे वा १ । तत्र तस्मिन्नेव काले मिथ्याज्ञानेऽपि ज्ञानपूर्वपक्ष: । शेययोरनुपलब्धिर्नास्तीति तदपि अवाभ्यं स्यात् । उत्तरकालं तु सत्यविज्ञानेऽपि संदिग्धाऽनुपलब्धिः । प्रवृत्तौ तनिश्रये चक्रकमितरेतराश्रयत्वं वाऽभाणि ।
६२३. अथ ज्ञानम् । तत्किम् समानजातीयम् उत भिन्नजातीयम् ? । समानजातीय
१. अविद्या आत्म० मु० क० । २. प्रत्यक्षेण किं क० मु० । ३. माम्यसंवे° अ० ब० । ४. प्रवी क० । ५. कडितोऽमेकः अ० प० क० । ६ तदभिजस्म तस्यापि प्र० । ७. नाम द्वितीयः पहा सु० क० । ८. तदा क०सु० । ९. इति प्राप्नोति मु० । ११. तत्र न भासते मु० । १२. मेदः प्रति क० । १३. मिति क्र०सु० । १५. संविग्नप्रवृत्ती ब० । संविग्याप्रवृत्ती मु० क० ।
मा०४
१०. 'स्यापि प्रवि० क० मु० । युक्ति मु० । १४. ख्यातिथिति वाडभाणि मु० क० ।
१६.
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२६
न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ [१. सामान्य परि० मपि किमेकसंतानम् , अथ मिन्नसंतानम् १ । तदपि कि एकविषयं मिन्नविषयं वा । तदपि किं एककालं, भिन्नकालं पा ? । तत्र समानजातीयमेककालं एकसंतानं एकविषयम्, मिनविषयं या युगपद् शानद्वयं नोत्पद्यते । कथं तयोर्वाध्यबाधकभावः । भिमकालं तु सज्ञानं एकविषयं संवादकमेव स्यात्, न वाधकम् । भिमविषयं तु वज्ञानं यदि वाधकं सात सदा • सर्व सर्वेण बाध्येत । भिमसंतानं तु समानजातीयमेककालम् , भिन्नकालं या यकविषयं, संवादि स्यात्, न बाधकम् । भिन्नविषयस्य तैय बाधकरवे अतिप्रसङ्ग उक्तः । विजातीयं तु एकसंतानवर्ति एकविषयं समानकालं भिन्नकालं वा यदि स्यात् संवादवत् स्यात्, न बाधकम् । उक्तज्ञानस्य विभिन्न विषयस्यापि सतो बाधकरवे सर्व तेन पाण्यं स्मात् । मिन्नसंतानमपि विजातीयं समानकालम्, भिन्नकालं वा ययेकविषयम् । तदा अस्तु संवादकम् । ॥ अथ भिन्नविषयम् । तदाऽकिचित्करमिति । तन बाधकमपि किश्चित् ।
६२४. बाधकाऽभावोऽपि किं तुच्छरूपः किं वा वस्त्वन्तरज्ञानम् ? । तुच्छरूपल कर्य प्रतीतिः । अथ झानवत्वतः इति । तन्न,
. "सर्पिषो यदि सौरभ्यम्, गोमयस्य किमागतम्।" अथ खसंविदितं ज्ञानं तत्राभवत् तमिग्रार्ययति । 'तत् तत्र नास्ति तेन व निमः' इति "व्याहतम् । अननुभवात् तनिश्चय इति चेत्, स्वापायवसास्वपि स्यात् । अथ बस्त्वन्तरज्ञानम् ; तन्मिध्याज्ञानेऽप्यस्तीति तत्रापि तमिबयः साविति । तत् कथमवाधिवत्वेनापि प्रामाण्यनिश्चय इति । ६२५. अत्रोच्यते । यत्. तावद् बाध्यबाधकनिराकरणमकारि तत् किम् अद्वैतमाभित्य,
... अथ बहिरर्थे स्थिते सतीति । तत्राद्वैतस शून्यस्य चामे निराकरिष्यमाणत्वात् उत्तरपक्षः।
तदाताम् । बहिरर्थमाश्रितवतः प्रमाणविप्लवः प्रकृतं तिरोधातीत्यवश्यं प्रमाणेतरज्यवस्थाऽभ्युपगन्तव्या । .६२६. तत्र प्रमाणं किम् अविसंवावित्वेन, किं वाऽवाधितत्वेन, किंवा
"प्रसिद्धानि प्रमाणानि व्यवहारच तत्कृतः।
प्रमाणलक्षणस्योकोहायतेन प्रयोजनम्॥" [न्याया• का• २] ॥ इति विचारः प्रवर्तते । तत्र केषां प्रसिद्धानि प्रमाणानि ? किं शासविदाम् , उतश्वित् तवितरेषामिति । तत्रेतरे जनाः प्रमाणस नामापि न जानन्ति किं तेषां प्रसिद्धम् ।। शासविदामपि संख्यादिविप्रतिपत्तिदर्शनात् न प्रसिद्धानि । अतस्तेषां तमिराकरणाय प्रमाणप्रणयनमुपपत्तिमदिति ।
६२७. तत्राविसंवादित्वं द्वितीयप्रमाणापेक्षमिति सकलं प्रागुकं दूषणजाउमापतति । "अपि च-शाकटिका अपि शाखस्तुल्याक्षणविधानाः । तथा, कतिपयपदपरिमिवा. प्रवृति
यानिश्चयादपि भवन्ती को क्षति करिष्यतीति न दृष्टाय तल्लक्षणप्रणयनम्, किन्तु दृष्टे व्यामोहः अदृष्टमपि प्रसदिति शास्त्रम् । तत्राविसंवावित्वलक्षणमदृष्टाव्यापीति नोपपत्तिमत् ।
१.नम् उत मि.मु०। २. कालं यद्येमु०। ३. यस्य बाप मु०क०। ४. समानकालं या यदि भक०मु०। ५. किं वस्त्र ब०। ६. बापयति मु०। ७. जानते ०। ८.णापेक्यमिक ब०। ९.रष्टाय लक्षणक०मु०।
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कारिका 4.]
शक्तिविचारः ।
२७
अबाधित
प्रमा
६२८. अबाधितत्वं पुनः सकलोपाधिविशुद्धमिहोपपद्यमानमदृष्टमपि व्याप्नोतीति युक्तम् । 'वाह'-: -- यथा मात्रात्यासन्नातिदूराशुभ्रमणादिको विषयदोषः, नापि चलनादिरूपः आधारदोषः, न तिमिराद्युपहवोऽक्षाणाम्, नापि मनसो मिद्धायुपहतत्वलक्षणम् । मिति कारण गुणपर्यालोचनादबाधितत्वं निश्चीयते; तथा 'नाऽयं शाखा रागद्वेषीपहतः, नाप्यक्ष:' इति आप्तगुणपर्यालोचनात् श्रुतज्ञानस्याप्यवाधितत्वं निश्चित्यासंबादेऽपि प्रेक्षावन्तः प्रवर्तन्त इति युक्तम् ।
६ २९. कारणगुणनिश्चयच कचिदबाधितत्वेन । न चेतरेतराश्रयत्वम् व्यक्तिभेदात्, अनादित्वाच संसारस्य । यदप्यभ्यधायि - 'इन्द्रियाणामतीन्द्रियत्वात् वैगुणानां कथं प्रत्यक्षादिना प्रहणम्' इति तदेतद् दोषेष्वपि समानम् । तेऽपि हि न प्रत्यक्षादिना प्रतीयन्ते । ere मिथ्यात्वात् तनिश्चयः । सम्यक्त्वाद् गुणानां किं न भवति १ ।
६३०. अथ यैथा घटस्योदकाहरणलक्षणा शक्तिः सुत्पिण्डात् न भवति तच्छतिविकलस्वात् तस्य; तथा अर्थतथात्व प्रकाशनशक्तिः प्रामाण्यरूपा कारणेषु असती, भवन्ती उत्पत्तौ स्वत इत्युच्यते । किमयथार्थप्रकाशनशक्तिः कारणेषु अस्ति नैं वा ? । न इति चेत्, कथमप्रामाण्यं परवः ।
६३१. अपि च- सा शक्तिः शक्तिमतो भिन्ना, किं वाऽभिन्ना, अथ भिन्नाभिन्ना, 18 शक्तिविअयोभयनिषेधः ९ । यद्यभिन्ना अप्रामाण्यशक्तिरपि शक्तिमत्स्वरूपवत् न दोषेभ्यः स्यात् । अथ भिन्ना तर्हि प्रामाण्यजननशक्तिरपि कारणेभ्यो भिन्ना । न चात्र व्यवस्थितविभाषा । अथ सा नास्ति कारणेषु; अशक्तादुत्पद्यमानं प्रामाण्यं सर्वस्मादुत्पद्येत । अहेतुकं वा स्यात् । ततश्च सर्वत्र स्यात् । न वा कचिदिति ।
चारः
९३२. किन-सा शक्तिमति संबद्ध किं बाऽसंबद्धा १ । यद्यसंबद्धा, न तस्य सा । अथ 10 संबद्धा; तदा कार्यकारणभावान्नापरो व्यतिरिक्तस्य संबन्धः । तत्र यदि शक्तिमता शक्तिजेम्यते इति पक्षः; तदा किं तेन शक्तेन जन्यते, किंवाऽशकेन ? | यद्यशक्तेन तदाऽन्येनापि जन्येत । अथ शक्तेन तदा तत्रापि यदि सा शक्तिरभिन्ना तदा पूर्वापि तथैवास्तु । किं areपनया ? । अथ भिन्ना तदा तदेव वाच्यम्, तदेवोत्तरमित्यनवस्था । संबन्धान्तरं च 1 निषेत्स्यमानमास्त इत्यास्ताम् । व्यतिरेकाव्यतिरेके च प्रामाण्यं स्वतः परतश्च स्वात् । उभय- " निषेधस्तु वस्तुनो नोपपद्यत इति । न हि तदेव तदानीमेव विधीयते में निषिध्यते चेति युक्तम् । तनोत्पचौ स्वतः प्रामाण्यम् । स्वकार्यपरिच्छेदे तु प्रवर्तमानमप्रमाण्यमपि न किचित् परमपेक्षत इति स्वतः स्यात् । अस्वसंवेद्नवाविनस्तु ज्ञानस्वरूपमपि न स्वतः सिद्धं कुत एव तद्रवं प्रामाण्यमिति ? ।
६३३. यथोक्तम्- 'किं बाध्यम्, किं बाधकम्, कम तदभावः' इति तत्रासत्प्रकाशन - सामर्थ्यं मिध्यात्वं बाध्यम् । तथाहि - ज्ञानस्य सदर्थप्रकाशनशक्तिरिब असदर्थप्रकाशनशक्ति
१. ष्टं व्याक० मु० । २. तथाहि नात्रा° अ० । ३. लात् गुणानां मु० । ४. दोषेऽपि य० । ५. अथ घट° सु० क० । ६. अस्ति नेति चेत् भ० ब० क० । ७. दुत्पद्यते अ० । ८. संबद्धाऽसंबद्धा था। यद्य मु० । ९. तदापि यदि सु० क० । १०. मेवे ब० अ० । ११. वस्तु नोपप० ब० । १२. नोपपद्येत क० । १३. वे निषि क० मु० । १४. मप्रमाणमपि अ० क०सु० ।
10
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२८
न्यायावतारसूत्रंवार्तिकवृत्तौ
[ १. सामान्यल० परि०
रप्यस्ति । किन्नासन्तं सर्वमेव प्रकाशयतीति चेत् । नं, नियतविषया हि भ्रान्तयो भवन्ति । असदपि कचित् किचित् प्रकाशयतीति । तब कचित् बाह्याते सादृश्यात् भ्रमहेतोः, कचित् विचित्रानुभवाहितवासनाप्रबोधविपर्यासादिति ।
३४. तथा, बाधकमपि समानजातीयं विजातीयं वा विज्ञानं समानकालं भिन्नकालं वा • एकसन्तानवर्ति निसन्तानवर्ति वा, एकविषयं सन्मन्येते । ननु यदेव बाविज्ञाने वस्तु प्रतिभातं तदेव यद्यक्षतं बाधकेऽपि प्रतिभाति तत् कथं तदुबाधकम्, संवादकमेव स्यादित्युकम् । नाक्षतं प्रतिभाति किन्तु यदेव हि मिथ्याज्ञानेन असदाकारारोपेण वस्तु प्रतिपन्नं तदेव बाधकेन तदाकारनिरासेन अन्यथा प्रतीयत इति ।
३५. अथैकं वस्तु उभयविज्ञानगोचरचारि अन्यथाप्रतिभासे सति नास्तीत्युच्यते 10 क्षणिकेत्वाद् वा । त, यतो विज्ञानप्रतिभासभेदवद् अभेदप्रतिभासोऽप्यात्मनोऽस्ति । तथाहि'सदेवेदं वस्तु मम मरीचिकारूपेणेदानीं चकास्ति, यत् पूर्व जलरूपेण प्रतिभातमासीत्' इति । एतच क्षणिकत्वनिराकरणप्रस्तावे प्रतिपादयिष्यामः ।
३६. तथा, तुच्छरूपमभाव मनभ्युपगच्छतां सदसदात्मकवस्तुवादिनां न तत्पक्षक्षेपः क्षतिमावहतीति । ततो वस्तुमाहिप्रमाणं विपर्यस्तप्रमाणान्तरशून्यमात्मानं वेदयमानं स्वमाझ - || मारोपिताऽसदाकारविविकं च प्रतिपद्यमानं ज्ञानं" शेयाभावव्यवहारं प्रवर्तयतीति कथं न बाधकाभावनिश्चय इति ? । तस्मात् स्थितम् 'अबाधितं प्रमाणम्' इति । ततः साधूकम्बाधविवर्जितमिति ।
20
३७. सूक्तमिति प्रमाणोपपद्मम् । लक्ष्यते व्याप्यते प्रामाण्यं तादात्म्यादनेन इति लक्षणमिति । [५]
१. अत एव तद्भावे भावस्तदभावे चौभाव इति दर्शयितुमाह-वेदेश्वरादयइति वेदेश्वरादयो नैव प्रमाणं बाधसंभवात् ।
प्रमाणं बाधवैकल्यादर्हस्तत्त्वार्थवेदनः ॥ ६ ॥
दीनां प्रा
28 माण्यस्य
२. वेद ईश्वर आदिग्रहणात् प्रधानान्तरज्ञानपरिग्रहः । ते न प्रमाणस्, व्यापकावेवेश्वरा- भावात् । तदभावश्च विरोधिसन्निधेः । तदेवाह - बाधसंभवादिति । बाघनम् बाधः । तस्य संभवात् । बाधाबाधयोः परस्परविरोधात् । निमित्तेन निमिचिनं निषेधः । दर्शयति - प्रमाणम् इत्यादि । शक्रादिभ्यः पूजामर्हति इति, यद्वा रागादीन् अरीन् हन्तीति अईन् । तस्त्वम् जीवादयः सप्तपदार्थाः । तान् वेदयतीति "नन्यादिभ्यो युः” । तस्ववेदनेन हि हेतोः सिद्धिं दर्शयति । यत एव तस्ववेदनोऽत एवं तब्ज्ञेयेऽर्त यारोपनिरास इति । एतच सर्वज्ञसिद्धौ दर्शयिष्यते । [६]
१. न्ति । यदपि मु० । २. बाह्यसाह° क० ब० मु० । ३. समानजातीयं वा समानका सु० । समानजातीयं विजातीयं वा समान क० । ४. एकसन्तानवर्ति वा एक मु० । ५. ६. बाष्ये वि० क० मु० । ७. यद्यविकलं बाध ब० । ८. न तथैव प्रति प० । १०. तत्र मु० । ११. प्रमाणं प्रमाणान्तर° मु० । १२. शानज्ञेया° अ० ब० तद्भावे तदभावे वाऽभावः इति मु० । १४. भावेऽभाव इति भ० ब० । १६. 'तस्थारो मु० क० ।
।
मन्यन्ते क० मु० । ९. क्षणिकाता सु० ।
१३. अत एव तद्भावः १५. वेद ब० क० ।
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पारिका ..] परसोऽपौडवेयत्वनिवेषः।
६१. चोपनायाखावत् अपौरुषेयत्वनिबन्धनं प्रामाण्यं समूलमुन्मूलवितुमाद- पचास स्वादि।
पसोऽपौरुषेयत्वं नाऽविशेषात् पटाविवत् । १२. अनेन हि प्रयोगायों दर्शितः । प्रयोगस्तु-यथेनासंभवद्विशेषवरूपम् , वत् तेन पालोऽपी- सकसमेव समानहेतुकम् । यथाऽसंभवद्विशेषः पटः पटान्तरेण । असंभवति ।
। पाणि पापोरवेयत्वेनामिमवानि वाक्यानि पौरुषेयेक्त्यैिरिति । न वावदयमसिद्धो हेतुः, यतः स विशेषो दृश्यो वा स्यात् , अदृश्यो वा । दर्शनाभावात् न श्यः । दुर्मणत्वाविश्यव इति चेत्, न, जैनेन्द्रषितेत्याविष्वपि पौरुषेयेषु तस्य भावात् । विषापेपनयनाविको विशेष इति चेत् ; न, तस्य शावरेष्वपि मजेषु भावात् ।।
१३. न प सत्यवपाप्रभाववतां संकेतमात्रमपास्य मत्रत्वमुपलभ्यते । तेहि कांचन। देवतां समाराध्य 'य इमामस्मप्रथितां वर्णपदक्रमरचनामध्येष्यते तस्मै त्वयेदं फलं दावम्यम्' इति संकेतयन्ति । अन्यथा नित्यान्मचात् सर्वदा फलदानप्रवृत्तिः स्यात् । यतो हि मावश फलोत्पत्तिः, साऽविकलेति न फलवैकल्यं कदाचिदपि स्यात् । न हि कारणसाकल्ये कार्यवैकल्यं युक्तिमत् वसाऽकारणत्वप्रसंगात् । अय न केवलानित्यमचाविष्टफलसिद्धिः । विदि , विधानादिसहकारिकारणसव्यपेक्षाविति ।
१४. ननु यदि मनाः विधानादन्यतो वा कंचित् स्वभावातिशयमासादयेयुः सदापेक्षता प्रचारिकारणम् । न चासादयन्ति । क्याहि-स सहकारिणा विधीयमानो विशेषवेभ्यो म्यतिरिको वाऽव्यतिरिको वा स्यात् । व्यतिरेके ते खरूपेण निरतिशया एव विधानादि. सहचारिसमिधानेऽपि पूर्वकालवत् न फळं दधुः । अव्यतिरेके तेषामनित्यताप्रसके । या - पोरवेयत्वमेव सात् ।
१५. किस-यदि भाषशक्त्यैवाऽसंस्कार्या मनाः फलं प्रयच्छन्ति तदा यजमानसेवा पसाऽपि सिद्धिविधायिनो भवेयुः । नहि अन्यं प्रति अविचलितरुपो मावोऽवद्रायो माति, वेन वस कसवित् स्वभावखानपाकरणात् अन्येन वा कस्यचित्खभाषसानुलामात् । वमापौरपेया मनाः। • ६६. अविकाना - जैनाविमचकल्पानां पुरुषप्रणीतानां दर्शनात् पत्राप्यपौरुषेय । कल्पनावां नामौरुषेयत्वमविषयं स्यात् । वयाहि-जेनेतरयोर्मवकल्पयोहिंसामधुनमिभ्याए
नादयोऽनभ्युदयहेतवोऽन्यथा च वर्णान्ते । तत् कयमेकत्र विनवाभिधायि सबं मात् । । नानाममत्रत्वे वदन्यत्रापि कोशपानं करणीयं स्यात् । विषकर्माविकतोऽपि हि जैना यमचाचदन्यत्रापि मनत्वं न खात् ।
१. नेयनिष म०प०। २. जैनेन्दृषिवेप० । जैनेन्द्रषिवे मु०। जैनेजविवेक०। ३. विकापलय मु००। ५. मात्र तयाऽस्य मा. मु०। ५. मित्यादिष्ट भ०। ६. कषित समु ७.जोऽप्यति ०। ८. क्लेव संस्का मु०। ९. यसमवि म००।१०. तथा जैने . १९. वा मचा मु०। .
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ [१. सामान्यल० परि० .६७. मुद्रामण्डलम्यानरयन कणि विषार्थपनयनादीनि क्रियन्ते । न च वान्यपीहवेयाणि नित्यानि या युज्यन्ते । तेषां पुरुषक्रियासंभवे अक्षररचनायों का प्रतिपात: पुरुपाणां येन मनत्वं विशेषो भवेत् । अब यदि सत्सतपःप्रभाववस्पुरुषप्रभवो मनकल्पी कथं परसरविरोधिनौ । न वै सर्वत्र तो सत्यतपामभाववत्पुरुषप्रभयौ किन्तु क्षुद्रदेवता• प्रविबालक्षणोऽपि हिंसाधनुष्ठानमाग्यफल: कनिदिति न पौरुषेयत्वे विरोषः।
६८. अब वेदेवरयोलवलक्षणोऽत्येव विशेषः । सत्यम् , अस्ति, न केवलं तयोरेवे । विहिं १, डिण्डिकपुराणेतरोरपि । न स प्रक्रियामेददीपनो नाम भेवः पुरुषकति पाषतेऽन्यत्रापि प्रसंगात् । यदि साईशी रचना पुरुषाः कर्तुं न शक्नुयुः, का वोकतसंकेतो विवेचयेत्-'इयं पुरुषहता, नेयम्' इति तदा व्यकमपौरुषेयो वेदः सात् । वन ॥श्यो विशेषः।
६९. नापि द्वितीया, अनुपलभ्यमान विशेषस्याविशेषकत्वात् । नागृहीवं विशेषणं विशेष्यं विशेषयति । अथ यथा विष नागरसहपादनुपलभ्यमानशक्तिकमपि विविच्यते तथा लौकिक वैदिकयोः स्वरूपभेदानुपलक्षणेऽपि" महान विशेषः । ननु तंत्र विषवल्पात् न काचिद अपरा शक्तिरति या भेविका स्यात् । भवतु वा पत्र व्यतिरिकाऽव्यतिरिका पा अतित, सा कार्यदर्शनाद् व्यवस्थाप्यते । अत्र तु न किचित् कार्यमति यदर्शनाद् मेदव्यबला खात् । अयात्रापि प्रमेये प्रमाणभूतप्रतीतिकार्यजननाद् भेदव्यवस्था । न, सति प्रामाण्यलक्षणे "विशेषेऽपौरुषेयत्वम् सत्यपौरुषेयत्वे विशेष इतीतरेवराभयत्वम् ।
६१०. किन-किल गिरा मिध्यात्वहेतूनां दोषाणां पुरुषाश्रयत्वात् वदभाव तमिवन्धनसाप्रामाण्यम निवृत्तेः प्रामाण्यं वेदे भविष्यतीति परस्त्राशयः। पवित्यं गिरा सत्यस्वहेतूना "गुणानां पुरुषाश्रयत्वात् तदभावे तनिबन्धनस्य प्रामाण्यस्य निवृत्तौ आनर्यक्यमेव वेदस स्थात्, विपर्ययो वा । तथाहि-ज्योत्मादयो अपौरुषेया अपि रात्रौ पीते वखादौ रक्तदानहेतुतां प्रतिपयमाना मिथ्याशानहेतवो दृश्यन्ते । तमाऽपौरुषेयत्वात् प्रामाण्यम् ।
६.१. कि-अपौरुषेयत्वं प्रत्यक्षेण वा व्यवस्थाप्येत अनुमानेन वा । न तावत् प्रत्यक्षेण साक्षानुसारितया प्रवृत्तेः । अक्षं वर्तमानकालभाविनि वस्तुनि प्रत्यासीदति । अतस्तदनुसारिणी पीतावत्कालस्यैव अर्यस्य व्यवस्थापिका न अनादिकालमा । तावत्कालवापौरुषेयत्वम्यवस्थापने कादम्बर्यादरपि अपौरुषेयता दुर्निवारा स्यात् । अनादिकालोलिङ्गिवस्य बेदस्थापौरुषेयत्वमध्यक्षमासम् अभ्युपगच्छतो मीमांसाकस्पासर्पहाभ्युपगमो विरुद्ध ऐवं स्मात् । मायक्षमागापौरुषेयता ।
१. मुद्रामालमु०। २. विषापन मु००।३.मेव तानि मु०।४. 'रचनायाः मु०।५. व नमुक०। इस किवा मु०। ७. पुरुषति मु० क०। ८. तारखी रचनाः का। ९.तो बात म०प०। १०. मानव विशेषक' क.मु०। ११. विशिष्यते मु००। १२. क्षणे महान् मु.क०। १३. ननु विष मु००। १४. अत्र किश्चित् क० मु०। १५. भवाप्रापि प्रामाण्यमु० । १६. प्रमाणभूतप्रतीतिजननात् क०। १७. व्यवस्थापनम् म. मु० । व्यवस्थापना १०।१८ननु सति क०। १९. लक्षणविशे१०।२०. पराशयः ब०। २१. तहिं गिरा मु०। २२. अनर्थवमेव मु०। २३. न अवीतानादिकाल मु०क०। २४. तावत्कालसापौरुषेयता मु००।२५. कलानिमित मु०क०। २६. करन सर्वज्ञा मु०। २७. विखवचः सात मु०।
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कारिका ७.] शवायसंपन्स नित्यत्वस्य निषेधः।
६१२. नाप्यनुमानप्राथा । यतोऽनुमानं लिपलेनोदयमासादयति । न पापोरवल. प्रतिवद्ध किंचनापि लिगमति यलेनानुमानमुदयमासादयेत् । कर्तुरस्मरणं लिमिति चेत् । ननु वदस्मरणं वादिनो लिङ्गलेनोपावीर्यते, सर्वस वा न तावद् बाविना, वम सकतेऽपि सहावेनानेकान्तिकत्वात् । नापि सर्पस, वखासिद्धत्वात् । बाहि-मरन्थेष मौलाः वेदन कनष्टकादीन, काणादाय हिरण्यगर्भम् । तम तदस्मरणं हेतुः ।
६१३. अब जिनमूलं वेदे कर्तुः स्मरणम् । तथाहि-अनुभवो मूलं मरणलान बेदकर्तुनुभवः । ननु केन करैननुभवः १ कि प्रत्यक्षेण, स्वानुमानेन । यदि प्रत्यक्षेण कषुरननुभवाद् दे छिममूळ स्मरणम् , तदा भागमान्तरेऽपि प्रत्यक्षेण पावि-प्रतिवादिया कर्तुरननुभावात् छिनमूलं स्मरणं सात् इति तदप्यपौरुषेयं प्रसन्पते । अचानुमानेन, वदाऽनुमानस वेदकत्साधकस्य प्रतिपादिवत्वात् कथं छिन्नमूलं स्मरण । । भवानुमानमनेनानुमानेन पाण्यते; तदेवरेतराभवत्वम् । वयाहि-तद्वाषायामल प्रामाण्यम्, बस प्रामाण्ये सद्वाषेति।
६१४. अब भागमान्तरे प्रयोजनाभावात् कपलम्मे यवं पादी न वान वेनापसम्भा । तर, कतयनेनापि पांचित् वटे बटे वैभवणादीनां कर्तुरनुपछन्मात् । अब वैरिकेत कर्मसु प्रचुरव्ययेषु पा(जा)यासेषु च प्रवर्तमानः योन कर्तरुपलम्मं तवान्, न बोपकभवान्, ततो जायते नास्ति कर्ता । सर्भ, अनुपलब्धिलक्षणप्राप्तेषु देशकालखमावविप्रा गजवतोऽप्यनुपलम्भो नासत्ता साधयति इति नास्मर्यमाणकर्तकत्वमनुमानम् ।
६१५. नाप्यापत्तिरभावप्रमाणं वा तयोनिराकरिष्यमाणत्वात् । नापि यदेवाच्यवनं वदन्ययनपूर्वकं बेदाध्ययनस्वात्, इदानीतनाभ्ययनवत् इत्यव्यभिचारि साधनम् । अन्यथा 'या पविकामिन बालापूर्वको नारणीनिर्मथनपूर्वकः पथिकामिस्वात् सानीवनपयिकामिपर इत्यादेरपि साधनता सात् । एवमन्यदपि यदपौरुषेयवासाधनं वदविधमानप्रतिवन्ध सर्वमनेकान्तिकमेव । वनानुमानाबसेयाप्यपोरमेयतेति ।
११६. किना-अयमपौडवेयः किं संवन्धा, किंवा पाल्यापीति । वत्र नित्यं वं सन्दास- व्यवस्थापयितुं संवन्धापौरुषेयवापाहबम्बो निय
" "समयः प्रतिमा वा प्रत्युबारणमेव था। पः क्रियते जगदादी वा सकदेकेन केनचित् ॥" [लोक संबंधा..]... अयं हि पुरुषेण संवन्धः क्रियमाणः प्रतिमस्य किमेकः क्रियते, किं वाऽनेक इति। एकत्वे शतको न स्यात्, पूर्वमेव सिद्धत्वात् । अनेकत्वेऽपि कि सर्व वाचकार, किमान मध्ये एका कधिदिति । ययेका, वदा वदभावे शेषसंवन्धसमावेऽपि प्रवीतिनै खात्।
१.येत क० मु०। २. वेदकः म०प० मु०। वेदे कर्तुः असर मु३. बेदक. १०। ४.कर्डरनुभवः क० मु०। ५. मूलमम मु०। ६.रण साविति । अब मु०। ७. अनेन
। ८. तत्र म०। १. सम्भोऽसत्ता ०। सम्भो नासत्तां शोषयतीवि मुं। १०. कर्तृगम का मु०। ११. किंवावमपौरपेयवाबाह मु००। ११. निखस । १३. मनेोऽपि मुका ।
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म्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ
[ १. सामान्यल० परि० सर्वेऽपि वाचकाः समुदिताः, अथान्यथा ? । तत्र सर्वसंबन्धानां समुदायाभावात् न किंचित् केनचित् प्रतीयेत । अथ किमनेन ? । यस्य यः संबन्धः स तेन प्रतिपत्स्यत इति । . १ १७. अस्तु नामैवम्, यदा पुनर्बहुभिः पुंभिरेकस्य समानार्था बहवः संबन्धाः क्रियन्ते तदा किं प्रावृचिकन्यायेन, किं विकल्पेन, किं वा समुचयेन प्रतिपादयेयुः १ । वत्र * प्रावृत्तिकक्रमो यदा पशूनां पङ्कया स्थितानामालम्भनार्थं शलाकया चक्षुरञ्जनं क्रियते, तदा यस्य प्रथमं नयनाशनं कृतं तस्यैव वध इति । तेन न्यायेन यः प्रथमः संबन्धः कृतस्तेनेकार्यप्रतिपत्तिरिति । तर्हि शेषाणामानर्थक्यमिति । अथ विकल्पेन । तदुक्तम्
"एकार्थानां विकल्पचेत् ।" [ श्लोक० संबन्धा० १७ ]
विदमे नास्ति । यतः तत्र नाम विकरूपो भवति यत्रैकमुपादाय अपरोपादाने यमः इह तु प्रथमेनैव प्रतिपन्नत्वात् किमैन्येन १, व्यवहारस्याप्रतीतेः । समुचयोऽपि कि । तदुक्तम्
“समुचयोऽपि नैवैषाम् ।” [ श्लोक० संबन्धा• १७]
इति तदेवमाद्यस्यापि पौरुषेयसंबन्धस्य पाश्चात्यसंबन्धवत् नार्थप्रतिपादकत्वमिति ।
1.M
१८. कि- पुरुषः किं प्रतिपद्मार्थ पूर्वसंबन्धं करोति, किं वाऽप्रतिपन्नार्थमिति १ । पूर्वस्य कृतत्वात् किं तस्य करणेन ? । अपूर्वस्य करणें नार्थप्रतीतिः स्यात् । श्रोतुस्तदैव भवि - व्यतीति चेत्, कथं वक्ताऽप्रतिपन्नार्थ करोति । तस्मान्न पौरुषेयः संबन्धः । किन्तु अर्थप्रतिपत्स्यम्यथानुपपस्या शब्दस्म बाचिका शक्तिः, अर्थस्य तद्वाच्यशक्तिः । अयमेवासी संबन्ध इति नित्यत्वेऽपि यस्यैव प्रतीतत्तस्यैव प्रतीतिं जनयति नान्यस्येति ।
१९. तदेतदविदितपरमार्थस्य परस्य प्रलपितम् । तथाहि - न संबन्धः पुरुषेण कचित् * क्रियते किन्तु संकेतमात्रादचिनिकोचवत् शब्दावर्यप्रतीतिरिति । तन कश्चित् नित्यः संबन्धः ।
६ २०. शब्दस्य निर्त्यत्वात् तस्यापि नित्यत्वमिति चेत्, न च सर्वदोपलब्धिः । तदुक्तम्शब्दनिल- नित्यत्वव्यापित्वेऽपि शब्दस्याकाशस्येव प्रयज्ञानन्तरमुपलब्धिरुपपद्यते । प्रणम् तथाहि-- कूपादौ पूर्वमनुपलब्धस्य प्रयहादाकाशस्योपलब्धिर्रष्टा, न च * तस्यानित्यत्वम्, नापि व्यापित्वेऽपि सर्वत्रोपलम्भः । तथा, 'शब्दं कुरु' इति व्यपदेशाः 'आकाशं कुरु' इत्यादि व्यपदेशयत् नानित्यत्वं साधयन्ति । तथा, स्तिमितवायुस्पगितस्य शब्दस्य कौडेन वायुना तदपसारणे न फात्कर्येनोपलब्धिः स्वरूपमात्रस्यैवोपलब्धेः । नियतदेशा हि वायवीया ध्वनयः प्रतिवर्णे मित्रां यथा शब्दकर्तुः तेन न सर्वत्र सर्वेचासुपलब्धिरिति । मत पत्र यस्यां दिशि न वायोर्गतिर्न तंत्र शब्दः भूयत इति । तथा, » एतस्यैव मुवास्य व्यञ्जकस्यादर्शनङ्गीवमेदात् यथा मेदाः तथा ध्वनिधर्मा अल्पमहस्वादयः साचिण्पात् शब्दे उपलभ्यन्ते । तेन न प्रत्यये मेद मेदित्वादनित्यत्वमिति । यथा हि मढ़ः स्वस्पेन महता वा शब्देन प्रतिपाद्यमानो न भिद्यते, तथा शब्दोऽपि महता ध्वनिनाऽस्पेन वा याज्यमानोऽयं प्रतिपादनलक्षणार्थक्रियाकारी न भिद्यत इति ।
१. प्रतीयते ब० क० मु० । २. मालमना° अ० । ३. तदयुक्तम् क० । ४. किमनेन म० ब० । मायें प्रतिपा क० मु० । 'स्य प्रलपि क० मु० । ७. तथापि मु० । ८ न निष्ाः संचयः ० हु० । ९. कोयेन मु० क० । १० खज्ञाविभिर्भेदाद मु० । ११. प्रत्ययमेदिला संयामेविला क० ।
६.
मु० ।
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कारिका ७. ]
शब्दनित्यत्वस्य निषेधः । -
२१. मथ वायवीयानां ध्वनीनां श्रोत्राऽप्राह्यत्वात् कथं तद्धर्माणामल्पमहस्वादीनां भोत्रेणोपलम्भ इति । न, शब्दस्यैकत्वेनोपलब्धेर्न तद्धर्माः कल्प्यन्ते । तथा हि- स एव गारो महानल्पो वा । न तु सोऽन्योऽयमन्य इति प्रतीतिः । तस्माद् ध्वनिर्धर्माः सानिध्यात् तथा भासन्त इति ।
२२. अथ मित्रदेशस्थितैः पुरुषैर्भेदेनोपलब्धेनैकः शब्द इति । तदप्यादित्येनानैकान्तिकम् । तथा हि- "विभिन्नदेशस्थिताः पुरुषा एकमप्यादित्यं केचित् पश्चिमायां दिशि उपलभन्ते, अपरे पूर्वस्यामिति ।"
६२३. वदप्यसंगतम् । तथा हि- व्यञ्जकेन किमावरणविनाशः क्रियते, अथ शब्दशब्दनित्य- संस्कारः, किं वा भोत्रसंस्कारः, उभयसंस्कारो वा ? । तत्र आवरणं यदि नित्यं लास्यनिषेधः । न वस्म विनाशः । अथानित्यं तदा यदि नाशितं वदा ने मृर्तः पुनर्जीवतीति 10 सर्वदा शब्द उपलभ्येत । अथ क्षणिक संतानेनोद्यते तदा सर्वदा सान्तरमुपलभ्येत प्रयत्नबिर्गमेऽपि । शब्दस्य मीमांसकैर्व्यापिनो निरवयवस्योपगमात् तत्संस्कारे सर्वत्र सर्वैरुपलम्भः स्यात् । श्रोत्रं संस्कृतं सर्वान् शब्दानुपलभेत । न हि चक्षुरुन्मीलितं किंचिदेवोपलभते योग्यदेशस्थं नान्यमिति दृष्टम् ।
२४. अपि च तकिंमाकाशम्, अथान्यदेव किंचित् । आकाशस्यैकत्वात् सर्वेषां सर्वत्र सर्वदोपलब्धिः स्यात् । अभास्माकं मीमांसकानां प्रतिपुरुषं भिनं श्रोत्रं तेन नायं प्रसंग: । न, सर्वेषामात्मनां सर्वव्यापित्वादेकश्रोत्रसंस्कारे सर्वे आत्मान उपलभेरन्निति तत्प्राप्यकारित्वेऽपि । अथ संबंधेऽपि यस्यैवादृष्टेनोपभोगाय संस्कृतं श्रोत्रं स एवोपलभते नान्यस्तद्देशस्थोऽपि । यथा नगरस्थितोऽपि तदधिकाराद् भ्रंशितो न सद्धोगं लभत इति । नैतदृस्ति ।
I
मपि सर्वसंबन्धि किं न भवति १ । सर्वैरकरणादिति चेत् । सर्वे किं न कुर्वन्ति ? | " मैनोभिसन्धेरभावादिति चेत् । ननु सर्वव्यापित्वेऽविचलितरूपत्वे नैतद् युज्यते एकस्म मनोभिसन्धिर्नान्यस्येति । तस्मात् यत्किंचिदेतदिति । एतेनोभयसंस्कारोऽपि निरस्त इति ।
२३
२५. नित्यपरमाण्वारब्धस्य घटस्येव नित्यवर्णारब्धस्य क्रमस्यानित्यत्वे 'धैर्णनित्यत्वं कोपयोग ? । अथ वर्णानां वाचकत्वं न क्रमस्य । न हि घटक्रमो वाचको दृष्टः । नैतदस्ति । अन्वयव्यतिरेकाभ्यां हि क्रमस्यैव वाचकत्वं न वर्णानाम्, अन्यथा व्यस्तक्रमाणामपि तदर्थप्रतिपत्तिः स्यात् । क्रमविशिष्टानां वाचकत्वमिति चेत्; न, समर्थविशेषणत्वात् । तस्य च पौरुषेयत्वात् ।
६२६. यच क्रमस्य पेटकुटीदृष्टान्तेन नित्यत्वं व्यावर्णितं तत् सदा जलसंगाबादम्भितम् । तथा हि-क्षा पेटेंकुटी नष्टां कुर्बस्तामेव करोति न पुनरपूर्वामिति । तद्वद्वर्णकमोऽपि मापूर्वः क्रियत इति । यतो दृष्टान्तेऽपि न तथा नित्यत्वं तत् कथं " दृष्टान्तात् "
1
१. 'यानां श्रोत्रा मु० । २. 'oo मु० । ३. कल्पन्ते क० । मृतः पुनर्न जीव सु० क० । ६. मृतः जीवती० अ० 1. ७. क्षणिकसं मु० क० । ९. विरामेऽपि मु० । १०. काशमन्यद्वा यदेव किं ब० । १२. मनोऽभिसंबन्धो नान्यः मु० । मितम् सु० । १६. तत्तु पट्टकृ० मु० १९. कर्म नष्टान्तात् ० ० ।
न्या० ५
४. धर्मः मु० । ५. तदा मु० क० । ८. नोपपद्यते ११. सर्वोपल मु० क० ।
१३. वर्णानित्य अ० १४. पट्टकुटी' ब० क० मु० । १५. जाप। १७. पट्टकुटी ब० क० । १८ तस्याऽनित्यत्वं अ० ब० ।
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकचौ [१. सामान्य परि० क्रमस नित्यत्वम् । कल्पितं तु व्यवहारमात्रं न वस्तु साधयति । न च नित्यव्यापिनां वर्णानां क्रम उपपद्यत इति । एतच्चानेऽभिधास्यते । तस्मात् संकेतमात्रमेव न कमित् संबन्ध इति ।
६२७. किन-किमसौ एकार्थनियंतः संकेतेनाभिव्यज्यते, अनेकार्यनियतो वा। ययेकार्यनियतः नै संकेतवशादर्थान्तरे वेदस्य गतिः स्यात् । दृश्यते च व्याख्यातविकल्पः । अथ 'मा भूइष्टविरोध:' इत्यनेकार्थनियतोऽभिव्यज्यते । तर्हि सकलार्यसाधारणस्य वेदन इष्टव्यक्तिमेव करोति व्याख्यातरूपः समयकारः, कुत एतत् १ । तेन “मनिहोत्रं शुहुयात् स्वर्गकामः" [मैत्रा० ६.३६ ] इति श्रुतौ 'खादेच्छ्वमासम्' इत्येष नार्थ इत्यत्र का प्रमा। तन खाभाविकः शब्दार्थयोः संबन्धः, किन्तु संकेतमात्रमेव । "६२८. भवेत, असौ नित्यो वा स्यात्, अनित्यो वा ? । अनियोऽपि पुरुषेच्छावृत्तिा, अत्तिर्वा । पुरुषानधीनत्वे न पुरुषाणां यथाभिप्राय देशाविपरावृत्त्या तेनार्थप्रतिपादनं खात् । न हीच्छायामनायत्तः कचिनियुज्यते पर्वतादिवत् । पुरुषेच्छावृत्तित्वे कथमपोहयत्वं स्यात् । नित्योऽपि शब्दार्थयोराश्रितः स्यात्, अनाभितो वा । अनाभितत्वे आकाश कल्पस्य का संबन्धार्थः १ । आश्रितत्वे च आश्रयाणामनित्यत्वादाभितेऽप्यनित्यवा स्यात् । ॥अथ सामान्यस्मैवाश्रयत्वभावात् तस्य च नित्यत्वात् संवन्धलापि नित्यता।
६२९. तदसत् । सामान्यस्य परपरिकल्पितस्याभावात् । तथा हि-तद् व्यक्तिभ्यो सामान्यः भिन्नं स्यादभिन्नं वा ? भिन्नाभिन्नं वा । न तावविन्नाभिनं विरोधात् । अय विचारः। केनाप्यंशेन भिन्नं केनाप्यभिन्नम् । ननु निरंशस्य सामान्यस्य कथमेतत् ।। किच-यमात्मानं पुरोधाय 'इदं सामान्यम्' 'अयं विशेषः' इति व्यवस्थाप्यते यदि वेनात्मना भेवा, बदा भेद ॥ एष; अथाभेदः, तदा अभेद एव । अथ तत्रापि भेदाभेदो तर्हि अनवस्था । न रशं वस्तु शवशाखमध्यक्षमीक्षामहे । तन्न तत् ताभ्यो भिन्नाभिन्नम् । नौप्यभिन्नम् । तासां नानात्वे तस्यापि नानात्वोपपत्तेः । तदेकत्वे तासामेकताप्रसंगादिति नामिन्नम् । नापि मित्रम् । असामान्यरूपतापत्तेः दण्डादिवत् ।
६३०. अनेकसंबन्धात् सामान्यमिति चेत् न, संख्या-कार्य-द्रव्यादेरपि सामान्यरूपता. प्रसंगात् । अथानुस्यूताकारतया प्रतीयमानं सामान्यं नेतरदिति चेत्, ननु किमात्मरूपानुस्यूतम् , पररूपानुस्यूतं वा । तत्रे न तावदात्मरूपानुस्यूतम् , आत्मन्यनुगमाभावात् । अथ पररूपानुस्यूतम्, पररूपानुस्यूतता किं तादात्म्यम्, तत्समवायो वा । तद्यदि तादात्म्यम्, पूर्ववत दोषप्रसङ्गः । अथ समवायः, तदयुक्तम्: तस्याभावात् । भवतु वा । स सर्वव्यापी
१. नियमतः मु०क०। २. यतः संके मु०क०। ३. अथ मास्तु दृष्ट° मु०। ४.खादेख म० प.मु०। ५. भवति असौ मु०। ६. अनित्यः पुरु क. मु०। ७.वेच्छाप्रवृत्ति क०। ८. संबन्ध्यर्थः मु०। ९. नित्यत्वात् कथमाश्रयानित्यखात् संब° ब०। नित्यत्वात् कथमाश्रयनित्सवात्संबं० क० मु०। १०. स्यानित्यता ब. मु. क०। ११. तन ताभ्यो मु०। १२. 'नाप्यभिचम्' इति नास्ति क० मु. प्रत्योः। १३. सामान्यस्य अ-टि०। १४. तया अनुभूयमानं मु०। १५. वान ताव मु०क०। १६. तासां नानाखे तस्यापि नानालोपपत्तेरित्यादिकः अ-टि०।१७. सर्वव्यापि मु०क०।
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कारिका ७.]
शब्दार्थसंबंधविचारः। गोत्वं यथा गोपिण्डेषु संबन्धयति तथा कर्काविपिण्डैरपि संवन्धयेत् । अवान्तरसंवन्धकल्पनायामनवस्था।
६३१. कि-सामान्य व्यक्तिषु वर्तमानमेकदेशेन वा वर्वेत, अनेकदेशेन वा । नेकदेशेन, निदेशत्वात् सामान्यस्य । नापि सामत्येन, एकस्यामेव व्यको परिसमाप्तिप्रसंगात् ।
१३१. किन-केयं वृत्तिः १ । आधेयता वा स्यात्, व्यक्तिर्वा भवेत् ? । नाषेयता, . निष्क्रियत्वात् सामान्यल । गुरुणो हि द्रव्यस्य पवतः स्थितिकरणादापारः स्यात् । न चैवत् खितेमिनामिनकरणेन सामान्ये युज्यते । नापि व्यक्तिः, नित्यस व्यक्तरयोगात् । तथा हिव्यक्तिरावरणापगमे सति शानजनकत्वमुच्यते । न प नित्यस मानजनकत्वं विद्यते । यदेव हिमानजनकावस्थायां सामान्यस्य रूपं सदेवाव्यतावस्थायामपीति प्रागिव न जनयेत् । यद्वाऽव्यकावस्थायामप्येकल्पत्वाजनयेत् । अथ कारकान्तरमपेक्ष्य जनयति । ननु कारका-" न्तरेण किंवल जनकत्वं क्रियते, अथ झाप्यते । सथवि क्रियते, सुस्थितं नित्यत्वम् । अवाप्यते, सि
सिद्धं नहिं जनकत्वं कारकान्तराभावेऽपि । भवतु, को दोष इति चेतः कार्योंपतिप्रसङ्गः। अथ कारकत्वेऽपि कार्यन जनयेत अहो राजाज्ञा गरीयसी देवानांप्रियस।
६३३. इतोऽपि न विद्यते सामान्यम्, तदुपलम्भकप्रमाणाभावात् । नम्बस्ति प्रमाणम् 'बनयोः सादृश्यम्' 'एषां सालप्यम्' 'तेन सहशोऽयम्', 'असो वा अनेन सदृशः' इत्यादि । शानं अप्रतिपन्नसामान्यस्य नोपपद्यते । अस्तीदं विज्ञानं बाधाविकलं जातिज्ञापकम् । तदेत. दयुभम् । यतः किं तेन निमित्तभूतेनैवं विज्ञानमुत्पाद्यते, कर्मतापमेन वा तपदि निमिचमूतेनोत्पावते, तदा वा एव व्यक्तयः समानाकारपरिणवास्तलिमिचं सन्तु अलं परपरि. कल्पिवेन सामान्येन । अथ कर्मतापमेनोत्साचते, तमेवावभाति । नमशेषव्यजिसाधारणं सामान्यखरूपमण्यक्षमीक्षामहे । तत्र किंचित्सामान्यं यदाश्रितः संबन्धः स्यात् । .
६३४. किसा-आश्रयेण नित्यस्य सतः संबन्धस्योपकारः क्रियते न वा । अकरणे साकल्येन सकलं जगदाश्रयेत । करणे वा स तस्माद् भिन्नः स्यात्, अमिनो वा । अभेदे नित्यवाहानिप्रसंगात् । भेदे च न किंचित् संवन्धस्य कृतं स्यात् । तत्संबन्ध्युपकारकरणकल्पनायामनवस्था गगनतलावलम्बिनी धूमलतिकेव प्रसरन्ती दुर्निवारा स्यात् । सन कश्चित् नित्यः संबंधः । न च क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधेन संबन्धः सामान्यमम्या बस्तु । नित्यं समस्त्रेऽपि जगत्यस्ति ।
६३५. किन-असौ संबन्धः प्रतीतो वाऽर्थ प्रकाशयेत् , अप्रतीतो वा । अप्रतीवल सम्दार्थ- सनिधिमात्रेणार्थप्रकाशने सर्वदा सर्वप्रतिपत्तणां प्रकाशयेत् । प्रतीतयेत्, केन संबन्धविचारः। प्रतीतः १ । किं प्रत्यक्षेण, आहोश्विदनुमानेन ? । न तावत् प्रत्यक्षेण, शब्दार्थव्यतिरेकेण तस्यानुपलब्धेः । नाप्यनुमानेन, लिङ्गस्य प्रत्यक्षेण संबन्धस्लामहणात् । अनु. मानेन तेनैव संबन्धग्रहणे इतरेतराश्रयत्वम् । तथा हि-यावन संबन्धग्रहणं सायमानु
१. समर्थयति म०क०। २. व्यक्तिपूर्वा वा क० मु०। ३. तदेव व्य क.मु०। ४. प्रागेव जनयेत् क० मु०। ५. बाधकवि मु० क०। ६. तदेतद्युक्तम् मु०। ७. न्यरूप क० मु०। ८. यत्राश्रितः क० मु०। ९. स्योपचारः क० मु०। १०. कवित् संम०। ११. सर्व प्रवि अ०।
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३६
न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ
[ १. सामान्यल० परि०
मानम् ; यावनानुमानं तावन्न संबन्धग्रहणमिति । अपरेणानुमानेन संबन्धग्रहणेऽनवस्था । तत्र प्रमाणप्रतीतेः संबन्धः ।
३६. कि- असौ परिकल्प्यमानः तादात्म्यलक्षणो वा स्यात्, तदुत्पत्तिलक्षणः, संयोगलक्षणः, समबायलक्षणः, विषयविषयिलक्षणो वा स्यात् ? । तत्र न तावत् तादात्म्यलक्षणः • संभवत्यप्रतीतेः । अन्यथा क्षुरिकामोदकादिशब्दोचारणे' मुखपाटनपूरणादिरुपलभ्येत । न चोपलभ्यते । तत्र प्रथमः । नापि द्वितीयः, यतः शब्देन वा अर्थो जन्यते, अर्थेन वा शब्द: ? । प्रथमपक्षे न कश्चिदपरिपूर्णेच्छः स्यात् । द्वितीयेऽपि अर्थेषु यथास्वं पुरुषबुद्धिनिरपेक्षाणां शब्दानां श्रवणं स्यात् । न चार्थमात्रात् पुरुषबुद्धिनिरपेक्षाः शब्दा उत्पद्यन्ते । तथा हि- अर्थदर्शनम्, ततः तत्प्रतिपादनाभिप्रायः, ततो विवक्षा, ततः स्थानकरणाभिघातः, 10 ततः शब्दनिष्पत्तिरिति नार्थजन्यता शब्दानाम् । न च नित्यत्वेनाभ्युपगतानां शब्दानामयं प्रकारः संभवति । तन तदुत्पत्तिलक्षणोऽपि । नापि संयोगलक्षणः, यतो मुखे शब्दस्योपलब्धि:, भूमावर्थस्य । नापि समवायलक्षणः, अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानामेव हि वर्ण्यते । न च शब्दार्थयोरयुतसिद्धिराधाराधेयभावो वा घटते । तन्न समवायोऽपि । विषयविषयभावोऽपि बाध्यवाचकभाव एव । स च सति संबन्धे नित्ये सांकेतिके वा स्यात् न पुनरसति संबन्धे । अन्यथा सर्वार्थर्वाध्यवाचकभावः स्यात् । तम कश्चित वास्तवः संबन्धो यस्यापौरुषेयता परिकरूप्येत ।
३७. नापि वर्णा अपौरुषेयाः, तेषां लोक-वेदयोर्भेदानभ्युपगमात् । तदपौरुषेयत्वसाधने वर्णापौरुषेन किंचिमा पौरुषेयं स्यात् । ततो मिध्याशब्दानामप्यपौरुषेयत्वे निष्फलैबापौरयत्वनिषेधः षेयता । भेदाभ्युपगमे वाऽभ्युपेतहानिः । प्रत्यभिज्ञाया अप्रामाण्यं च स्यात् । तथा हि20 वेदगकारं श्रुत्वा पुंसः स एव गकारो यो मया लौकिकेषु वाक्येषूपलब्ध:' इति प्रत्यभिज्ञानोत्पत्तेः । तदप्रामाण्ये सर्वत्र प्रत्यभिज्ञायामनाश्वास इति न वर्णानामपौरुषेयता भवतां श्रेयस्करीति ।
९३८, नापि वाक्यम् । यतस्तद् वर्णेभ्यो भिन्नं वा स्यादभिनं वा १ । अभेदे वाक्यमेव स्यात्, वर्णा एव वा स्युः । भेदेऽपि तददृश्यं वा स्यात्, दृश्यं वा ? । अह
वाक्यवि
चारः ।
* श्यत्वे न ततोऽर्थप्रतिपत्तिः स्यात् । न प्रतीताद् वाक्यादर्थप्रतीतिः सांघीयसी । अप्रतीवाद - पर्थप्रतीतौ न प्रतीतेर्विरामः स्यात् । नापि दृश्यम्, अनुपलम्भात् । न हि देवदत्तादिवर्णव्यतिरिक्तं किञ्चिद्वाक्यमुपलभामहे ।
६३९. किन - तद्वाक्यं वर्णद्वारेण वा प्रतीयेत, स्वातत्र्येण वा ? । न तावत् स्वातच्येण, न हि अवर्णश्रावणो वाक्यप्रतीतिरस्ति । वर्णैरपि प्रतीयमानं वाक्यं सावयवं स्यात्, अन
१. ' प्रतीतस मु० क० । २. णः, तदुत्प° मु० । ३. 'रणात् मुख० क० । ४. निरपेक्षात् श ५. क्षणो नापि क० मु० । ६. हि वर्ण्य क० मु० । ७. भावो घटते क० मु० । ८. सांकेतिके च स्यात् अ० ।
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९. सर्वार्थे वाच्य मु० । १०. वाऽभिनं क० ।
११. दृष्टं वा मु० ।
१२. न हि अनवर्ण अ० ।
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कारिका ७.]
वाक्यविचारः ।
३७
वयवं वा ? । तेऽप्यवयवाः प्रत्येकं सार्थकाः स्युः, निरर्थका वा ? । सार्थकत्वे एकावयव - प्रतीतावपि सकलवाक्यार्थप्रतीतिः प्रसज्येत । निरर्थकत्वे सकलावयवप्रतीतावपि न वाक्यार्थप्रतीतिः स्यात् । नापि निरवयवम् । तद्धि वर्णैः समस्तैर्वा प्रत्याय्यते व्यस्तैर्वा १ । न तावत् समस्तैः, उच्चरितप्रध्वंसिनां वर्णानां सामस्त्यासंभवात् । नापि व्यस्तैः, -प्रथमवर्णश्रवकाल एव सकलस्य वाक्यस्य प्रतीतेः शेषवर्णोचारणस्य वैयर्थ्यप्रसंगात् ।
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४०. अथ समस्तवर्णसंस्कारवत्या अन्त्यवर्णबुद्ध्या वाक्यावधारणमिष्यते । नतु किं तत् स्मरणं उताभ्यक्षम् ? । न तावत् स्मरणम्, विद्यमानान्त्यवर्णग्राहकत्वात् । नापि प्रत्यक्षम्, अविद्यमानपूर्ववर्ण विषयत्वात् । अथ पूर्ववर्णस्मरणान्त्यवर्णग्रहणाभ्यामेकं विकल्पज्ञानं जन्यते तेन वाक्यावधारणम् । नैन्वेवं कल्पनाज्ञान विषयत्वे काल्पनिकत्वं वाक्येऽभ्युपगतं स्यात् । न वस्तुरूपता । अनेकवर्णानां चैकवाक्यप्रतिपादनेऽर्थे क एषां व्याघातः १, येनैकं ॥ वाक्यं वर्णव्यतिरिक्तम् अर्थप्रतिपादकं कल्प्येत ।
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४१. कल्प्यमानं वा तदनित्यं स्यात् नित्यं वा ? । यद्यनित्यम्, करणव्यापारान्वय व्यतिरेकानुविधानात् पौरुषेयमेव स्यात् । तदुक्तम्
V "अनित्यं यज्ञसंभूतं पौरुषेयं कथं न तत् ।" [ प्रमाणवा० ३.२५१] अथ नित्यम्, सामर्थ्यतिरस्कारांयोगात् सर्वदाऽर्थप्रतीतिं जनयेत् । आवृतत्वामेति ॥ चेत्; न, नित्यस्यावरणायोगात् । किंचित् कुर्वाणं हि आवरणं स्यात् । न च नित्यस्य किंचित् कर्तुं पार्यते । करणे वाऽनित्यताप्रसक्तेः । यदि च ताल्वादिव्यापारेऽपि कदाचिदनुपलब्धिafter स्यात् तदा व्यधर्मानुविधानात् किंचिदावरणमपि कल्प्येते । व्ययस्य हि घटादेरेष धर्मो यदुत प्रदीपादौ व्यञ्जके सति न सर्वदोपलब्धिः । अन्यथा तास्वादिव्यापारे नियमेनोपलभ्यमानस्य शब्दस्य व्यङ्ग्यत्वपरिकल्पने घटस्यापि कुलालादिव्यङ्ग्यता प्रसंग: । " तन किंचित् वाक्यम् ।
४२. वर्णानुपूर्वी वाक्यमिति चेत्; ननु साप्यानुपूर्वी वर्णेभ्यो भिन्ना स्यात्, अमिन्ना वा ? । न तावद्भिन्ना भिन्नवाक्यदूषणेनैव तस्या निरस्तत्वात् । नाप्यभिन्ना, यतो वर्णबाहुल्यानभ्युपगमात् । तद्रूपायां चानुपूर्व्यामभिरित्येव स्यात्, न गगनमिति ।
४३. किन - तेऽपि वर्णा नित्याः स्युः, अनित्या वा ? । अनित्यत्वे तेषां पौरुषेयत्वमेव स्यात् । नित्यत्वे व्यापिनो स्युः अव्यापिनो वा ? । अव्यापित्वे न सर्वत्रोपलम्भः स्यात् । तथा हि - कान्यकुब्ज देशव्यवस्थितस्य शब्दस्य न मान्यखेटदेशव्यवस्थैः पुंभिरुपलम्भः स्यात् । अप्राप्यकारित्वात् श्रोत्रस्य अदोष इति चेत्; न, तत्रापि योग्यतापेक्षणात् अयस्कान्तीयै:कर्षणवत् । व्यापित्वाभ्युपगमे नानुपूर्वी स्यात् । तथा हि-सा देशकृता वा स्यात् यथा पिपी - लिकानां पङ्को, कालकृता वा स्यात् यथा बीजांकुरादीनाम् । तत्र न तावत् देशकृता, अन्योऽन्यदेशपरिहारेण वृत्तिर्हि देशपौर्वापर्यम् । तत् सर्वस्य सर्वत्र तुल्यदेशत्वात् वर्णेषु न
१. तीतिः प्रसज्येत । नापि मु० । २. ननु तत् अ० । ३. नत्वेवं क० । ५. यक्ष मु० क० । ६. कथं नु तत् क० । कथं तु तत् मु० । ७. ८. जनयेत् न नित्य° अ० । ९ तदा व्याप्यधर्मा मु० । १०. कल्पेत अ० । १२. कन्य क० अ० ब० । १३. न्तापकर्षण' अ० ।
४. अर्थे प्र° क० अ० । तिरस्कारयोगात् क० । ११. "पिनो वा स्युः क०
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३८
न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ [१. सामान्यल० परि० संभवति पातातपादिवत् आत्माविश्च । नापि कालकता, यतः कालपौर्षापर्य यदेको नाति तदा अन्यस्य संझावात् स्यात् । तप नित्येषु न संभवति । सर्वस्य सर्वदा भावात् । न पान्या गतिरस्ति । तत् कथं वर्णानुपूर्वी वाक्यं यदपौरुषेयं परिकल्प्येत ।
४४. वाक्यदूषणेनैव च पदस्थापि निरस्तत्वात् न तहूषणं पृथगुच्यते । तन्न किनि. 'वैविकमपौरुषेयं यनिबन्धनः प्रामाण्यलक्षणो विशेषो वेदे स्यात् यत्सद्भावात् असिद्धता देतोमवेत् ।
६४५. नापि विरुद्धता, हेतोः सपक्षे सद्भावात् । नाप्यनैकान्तिकता, जगतोऽहेतुकता. प्रसङ्गात् । तथा हि-कार्यभेदाभेदो कारणभेदाभेदपूर्वको, अन्यस्य भेदहेतोरभावात् । तदुकम् - "अयमेव हि मेदो भेदहेतुर्वा यदुत विरुद्धधर्माभ्यास: कारणमेदव।" तो चेन्न ॥ भेदको विश्वस्य वैश्वरूप्यं 'हीयेत । तत्र यदि लौकिक-वैदिकयोर्भिन्नकारणता स्यात् तदा कार्या
भेदोऽहेतुकः स्यात्, कारणस्य हेत्वभेदस्याभावात् । तथाऽविकलेऽपि कारणभेदे यवि कार्यभेदो न भवेत् सोऽप्यहेतुकः स्यात् । यथा हि कारणाभावे भवद् अहेतुकम् तथाऽविकलेऽपि कारणे अभवद् अहेतुकमेव स्यात् । न च भेदाभेदी विहाय अपरं जगदस्तीति अहेतुकं सकलं स्यात् । न चाहेतुकम् , नित्यं सत्त्वाविप्रसङ्गात् । तमानैकान्तिकताऽपि । तस्मात् स्थित. मेतत् नापौरुषेयो वेद इति । तन्न तन्निबन्धनं वेदस्य प्रामाण्यमिति स्थितम् ॥ [७]।
६१. नन्वीश्वरस्य सर्वकर्तृत्वात् सर्वज्ञत्वे सिद्धे कथं न प्रामाण्यम् ? । तथा हि-भूर्भूधईश्वरप्रामा- राविकं बुद्धिमत्कारणपूर्वकम् , कार्यत्वात् । यद्यत् कार्य तत्तत् बुद्धिमस्कारणप्यविचारः। पूर्वकम् , यथा घटादि । तथा च भूभूधरादिकम् । तस्मात् तत् तथेति । नैवत साधनम् , खरूपासिद्धत्वात् । तदाह -खरूपेणेत्यादि
खरूपेण विशेषेण न सिद्धं भूधराविषु ॥७॥ ६२. ननु कस्येवमसिद्धम् । किं गृहीतसंकेतस्य, कि वाऽगृहीतसंकेतस्य । ययगृहीतसंकेतस्म, तदा धूमोऽपि न नालिकेरद्वीपायातस्य सिद्धः। अथ गृहीतसंकेतस्य, तदाऽस्मदादेः सिद्धत्वात् कथमसिद्धम् ? । नैतदस्ति । नागमसिद्धं वस्तु साधयति किन्तु प्रमाणसिद्धम् ।
न च जगवादी भूविमानादीनां प्रत्यक्षेण कार्यत्वं प्रतीयते । अनुमानेन प्रतीयत इति चेत्, • तथा हि-यत् संस्थानषत् तत् कार्यम् , यथा पटः । तथा, यद्रचनावत् तदवश्यं विनश्यति, यथा वन्तुष्यतिषाजनितं रूपं तन्तुविनाशात्, तन्मोचनावा विनश्यति तो बिनाशात कार्यत्वं पृथिव्यादेरनुमीयत इति ।
६३. अथ किमिदं रचनावत् १ । कि परमाणवः, किं वाऽवयवी ? । न तावदणवा, तेषां नित्यत्वाभ्युपगमात् । यथा हि जैनस्यावयविनमन्तरेणापि परमाणवः परिणमन्तः • कार्यरूपता भजन्ते न तथा नित्याणुवादिनामिति । नाप्यवयवी, तस्याभावात् ।
१. सद्भावः स्यात् मु००। २. °वति सर्वदा क०मु०। ३. हीयते मु० ब०। ४. भूमृद्धरादि. मु०क०। ५. तथेति । ननु कस्येमु०। ६. साध्यति मु०। ७. किन्तु सिद्धम् मु०। ८. विनश्यति ब०मु०क०।
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कारिका ७.] ईश्वराप्रामाण्यविचारे अवयविनिवेधः ।
६४. ननु धर्मिणं प्रतिपद्यते परः किं वा नेति ? । यदि न प्रतिपचते, वदा निराकरणदेतोरामयासिद्धत्वमस । अथ प्रमाणेने प्रतिपयते; तदा कथं बमिरासः । मैव दोषः। यतः प्रसङ्गविपर्ययसाधनाभ्यां तमिरासं मन्यते । तथा हि-यदनेकवृत्ति'पदनेकम् , या जलानलम् । अनेकवृचियावयव्यभ्युपगम्यते इति प्रसनः । न चानेकरूपोऽभ्युपगम्बते । बनानेकवृत्तिरिति प्रसङ्गविपर्ययः । व्याप्याभ्युपगमस ब्यापकाभ्युपगमनान्तरीयकर्वेप्रवर्सनात् नामयासिद्धता प्रसङ्गहेतोः । व्यापकच निवर्तमानो व्याप्यमादाय निवर्तत इति व्यापफामा व्याप्यामावोऽपि नासिद्ध इति सिद्धो विपर्ययहेतुरपि । निमित्तान्तराभावाद्याप्तिसिद्ध नानकान्तिको । तथा हि-यत् यन्मात्रनिमित्तं तत् तस्मिन् सति भवत्येव । यथान्त्यकारणसामग्रीमात्रनिवन्धनोहर । विरुद्धधर्माच्यासमात्रनिमित्तय भेदव्यवहार इति स्वभावहेतुः । प्रतिभासभेदोऽपि न विरुद्धधर्मतामतिकामतीति नासिखता । सपक्षे भावात् न विद्वता ।। दनिमिचे सत्ययभवतोऽन्यनिमित्ताभावात् सर्वत्रामवनप्रसङ्गो व्यापकविंशोपलब्धिः । विपर्यये बाधकं प्रमाणम् , सापेक्षत्वानपेक्षत्वयोर्विरोधात् । तथा हि-यथा निमिचाभावेऽपि भववोऽहेतुकता तथाऽविकले निमित्ते सत्यप्यभवतोऽहेतुतैव । अहेतोबासत्त्वं सत्वमेव वा सदा स्यात् । वमानेकान्तिकता।
६५. एकस युगपदनेकवृतित्वमेव च विनवधर्मसंसर्गः । तथा हि-अवयवेषु अषयी.. सामस्त्येन वा वर्तेत, एकांशेन वा । सामस्त्यवृत्तावेकस्मिन्नेवावयवे परिसमाप्तत्वादनेकअसिस्थामा एकदव्यं वदव्यं स्यात । एकस्य चाणोर्विभागाभावात नित्यत्वं च कार्यद्रव्यस्य स्यात् । एकस्य चाजनकत्वम्, सामन्या जनकत्वात् । अवयवेषु चावयवीति प्रमपामावः प्रसज्येव । वृत्तौ चेकैकस्मिमवयवे युगपदावाभावो स्याताम् । तथा हि- 'एकलिन पपवे सामस्त्येन वर्तते' इति तत्र सद्भाव उक्तः । पुनरन्यत्र तथैव वर्वत इति तदैव वा. सहाय इत्येकत्र युगपदावाभाषयोर्विरोधः।
६६. नाप्यंशेन निरंशस तस्योपगमात् । सांशत्वे वा तेऽपि सतो मिनाः स्युरमिला का। मिन्मत्वे पुनरण्यनेकांशवृत्तरेकस्स सामस्त्यैकांशविकल्पानतिक्रमः । अभिनत्वे पक्षाम्वर्गमेऽशिनः तद्ववेदौदभावप्रसङ्गः । अश्यन्तर्गमेंऽशाना, ततो निरंशोऽशी खात् । वत्र पूर्वनीतितोऽनेकवृस्यभावोऽनेकवृत्तित्वे वा विरुद्धधर्माध्यासिता।
६७. अय अवयविनोऽवयवेषु वृत्तित्र समवायः । ननु सोऽपि समवायतेषु वर्तते न का। यदि समवायस्थ समवायान्तराभावात् न वर्तते तदा यावदसौ पाण्याविषु पुरुषार यविनं संबन्धयति सावत् वन्त्वाविषु अपि किं न संबन्धयति, अवृत्तेरविशेषात् । अब पर्वते, तदा वत्रापि यदि समवायो वृत्तिः, तदानवस्था । अथानेकावयवाषेयत्वम् , सदा 'पद् बनेकवृति तदनेकम्' इत्यनेनैव साधनेन तस्याभावः । तनावयविनोऽनेकावयवसमवायचत्र वृत्तित्वम् । ततः सिद्धा प्रसंगहेतोविरुद्धधर्मात्मता।
१. तदा कि तमिमु०। २. प्रमाणे प्रमु०। ३. कवृत्तिः तद मु०क०। ४. रीयकप्रद मु०००। ५. कान्तिकः । तथाहि ब०। ६. सत्यपि भव मु००। ७. लम्पिः सापेक्ष मु०। ८.रोधात् विपर्यये बाधकं प्रमाण तथाहि मुक०। ९. सत्यपि भव. मु. का । १०. सामस्येमु००। ११. खं स्यात् मु००। १२. एकं इमं मु००। १३. सदरमेदाभावाम०। १५. तितत्सम म०। १५. संबन्ध्यति म.।
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न्यागावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ [१. सामान्यक० परि. ६८. इतोऽव्यवयविनोऽनेकावयववृत्तेर्विववधर्माकान्तवा । यत एकस्मिन्नवयवे पति पछत्वं प्रामोति । पुनस्तदेव द्वितीयावयवाचलत्वेऽचलत्वम् । तथैकामयपरागे रागोऽपरागे पोपरागः । तथा, आवरणे आवरणम् , अनावरणे पानावरणमिति. निरंशस्य युगपपलाच. छत्वावियोगो विरुधर्मसंसर्गः । न चावयवानामेव पलत्वाविकं नावयविन इति वक्तव्यम् । एकल पाण्यादेवलापलादिप्रतीतिप्रसङ्गात् । तथा हि-अवयवपालनाबलत्वावमासः खान, तत्रैव चावयवे स्थितस्यावयविनोऽचलनादचलत्वप्रतीतिरित्येवं रकाविषु अपि वाच्यम् ।
६९. किच-अवयवेभ्योऽवयवी मिनो वा स्यादभिन्नो का? । यद्यमिन्ना, तदाऽवयव. भेदवद् अवयविनः खण्डशो भेदप्रसङ्गः । अवयविस्वरूपवद्वा अवयवानामभेदः स्यात् । वयाँ पैकलानंशस्याप्रतिमासनाद् अप्रतिभासं जगत् स्यात् । अथ भिन्ना, तदा तस्यानुपलम्माद् असश्वमेव । तथा हि-यदुपलब्धिलक्षणप्राप्तं समोपलभ्यते तदसदिति व्यवहर्तव्यम् । यथा सरविषाणादि । नोपलभ्यते चोपलब्धिलक्षणप्राप्तोऽवयवेभ्यो व्यतिरिव्यमानमूर्विरवयवीति खभाषानुपलब्धिः । परैरवयविनो हैश्यत्वाभ्युपगमामासिद्धाविशेषणता हेतोः । अधिोमध्यभागव्यतिरिक्तवपुषोऽप्रतिभासनात् न खरूपासिद्धता । न च समानदेशवादषयविनोऽवयवेभ्यः पृथगनुपलक्षणमिति वाच्यम्, समानदेशत्वेऽपि रूपरसयोर्वातातपयोबेल केन्द्रियप्रायत्वेऽपि पृथगुपलक्षणात् । .६१०. अथ दूरदेशस्यावयवाप्रतिभासेऽन्यवयविनः प्रतिभासनात् कथं नासिद्धता । देवसत्, अस्पष्टाकारस्थावस्तुत्वेन तत्प्रतिभासस्य भ्रान्तत्वात्। वस्तुत्वे वाऽन्यस्यापि निकटदेशस्य सोऽसष्टाकारः सुतरां प्रतिभासेत । अथाकारद्वयमवयविनः स्पष्टम् अस्पष्टन । तत्र निकटस्स:
सष्टमुपलभते, दूरस्थस्तुं अस्पष्टमिति । ननु असावस्पष्टाकारो यदि अवयवदेशः, वदा " निकटस्स आकारद्वयमुपलभेत । अथान्यदेशस्तदात्मनः पृष्ठतः तं पश्येत् । किन तदाकार इयम् अवयविनः केन गृह्यते । न तावदूरदेशज्ञानेन । तत्र निकटदेशज्ञानविषयस्पष्टरूपानवमासनात् । अस्पष्टखरूपप्रतिभासं हि तदनुभूयते । नापि निकटदेशानेन । स्पष्टरूपाव.
मासवेलायां हि तत्र नापरोऽस्पष्टाकारः प्रतिभाँति । वभावयविन आकारद्वययोगः । .... ६११. अथ 'दूरदृष्टमवयविनः स्वरूपं परिस्फुटमिदानी पश्यामि' इति तयोरेकता । ननु *किमपरिस्फुटरूपतया परिस्फुटमवगम्यते, आहोश्वित् परिस्फुटरूपतयाअरिस्फुटम् ।। पत्र ययायः पक्षस्तदाऽपरिस्फुटखरूपसंबन्धित्वमेवावयविनः प्राप्नोति, परिस्फुटरूपस्यापरिस्फुटरूपानुप्रवेशेन प्रतिभासनात् । अथ द्वितीयः, तदा स्पष्टवरूपसंबन्धित्वमेव स्थात्, अस्फुटस विशदल्पानुप्रनेशेनावमासनात् । तम खरूपद्वयावगमोऽवयविनः । न चैकस विरुद्धधर्महुपयोग उपपत्तिमान् । ततः स्फुटास्फुटरूपयोरेकत्वप्रतिभासनमभिमानमात्रम् ।
- १. बड़े सति मु०। २. चारागः अ००। । ३. मिन्नो स्था. अ०। ४. 'मिनो य मु०। ५. बरे विधा०। ६. प्राप्ताऽवयक० मु०। ७. विनोऽदृश्य म०। ८. 'णता । नच मु०।
बितामसष्टा०।१०°खे वान्य ब०। ११. भासते क०मु०। १२. °स्थोऽस्प मु०। १३. विक्षस्थत मुब।१४. दूरदेशज्ञानम् अ-टि०।१५. हि नाप अ०। १६. प्रतिभासते क.मु०। १७. स्फुटरूप मु.क०। १८. स्पष्टरूपलमेव क.मु०। १९. स्फुटतयोरे अ०।
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कारिका ..] ईश्वरकर्तृत्वनिराकरणम् ।
४१ ६१२. अथालोकभावाभावतस्तत्र स्फुटास्फुटप्रतिभासभेवः । नन्वालोकेनापि अवयविखलपमेवोदासनीयम् । तवेदविकलं दूरदेशज्ञाने प्रतिभाति कथं न तत्र स्फुटावभासः । अन्यथा विषयभेदमन्तरेणापि ज्ञानप्रतिभासभेदे न मानावभासभेदो रूप-रसयोरपि भेदव्यवस्थापका स्यात् । अयावयविखरूपमुभयत्राप्येकमेव प्रतीयते । स्कुटास्फुटाकारौ तु मानमास्मानावित्युच्यते । तदसत् । यदि तो मानाकारो; कथमषयविरूपतया प्रतिभासत इत्य.. भ्युपगमः । तदुपगमेऽवयव्याकारौ तावुपगन्तव्यौ । न चापरं स्फुटारफुटाकारतां मुक्त्वा अवयविखरूपमाभाति । व्यक्ताव्यताकारात्मनश्चावयविनो व्यक्ताव्यताकारषद् भेवः । वमावयवी दूरदेशस्यावयवाप्रतिभासेऽपि प्रतिभाति ।
१३. किस-किं कतिपयावयवैप्रतिमासे सत्यवयवी प्रतिभातीत्युपगम्यते, आहोखित् समचावयवप्रतिभासे १ । यर्याय: पक्षा, वदा जलमममहाकायस्तम्भादेवपरिवनकतिपयाव-॥ बवप्रतिभासेऽपि समतावयवव्यापिनः स्तम्भावयविनः प्रतिमासः स्यात् । नापि द्वितीय:, मम्पपरभागवर्तिसमस्खावयवप्रतिभासासंभवेनावयवविनोऽप्रतिभासप्रसंगात् ।
६१४. अथ भूयोऽवयवाहणे सत्यवयवी गृह्यते इत्येभ्युपगमः । तस्मिन्नपि समस्तावयवम्यापिनोऽवयविनोऽग्रहणात् । तथा हि-अर्वाग्भागभाव्यवयवप्राहिणा प्रत्यक्षेण परभागभाज्यवयवामहणात् न तेन तव्याप्तिरवयविनो गृहीतुं शक्या, व्याप्यामहणे तव्यापकस्यापि ॥ प्रहीतुमशक्यत्वात्, प्रहणे वाऽतिप्रसा: स्यात् । न च व्यवहितावयवाप्रतिभासेप्य(पि) व्यवहितोऽवयवी प्रतिभाति इति वाच्यम् । व्यवहितावयविखरूपावभासे वल्लमान्यावयविखरूपस्याप्यवभासः स्यात्, तथा तदन्यस्यापि इति सर्वस्य सर्वावयविग्रहणप्रसङ्गात् । ततो व्यवहितावयवव्यापिरुपाव गवयवव्यापिनोऽषयविरूपस्य भेदप्रसाः। तथा हि-यस्मिन्नबमासमाने या प्रतिभाति तत् ततो मित्रम् । यथा घटादप्रतिभासमानः पटः । न प्रतिभाति चा गवयवव्यापिरूपे प्रतिभासमाने परवयवव्याप्यषयविरूपम् । तत् कथं न ततो मिनम् । तथाप्यमेदेऽतिप्रसङ्ग उक्तः । परमागावयवाहिणा तु प्रत्यक्षेण तव्याप्येवाऽवयविखरूपं गृह्येत, नार्वागवयवव्यापकमपि पूर्वोक्तनीत्येति । नापि सरणेनाविपरावयवव्याप्यवयविस्वरूपप्रहः प्रत्यक्षानुसारेण स्मृतेः प्रवृत्तेरिति । तन्नेश्वरवादिमतेन किञ्चित्कार्य सिद्धमस्ति ।
१५. क्या-यथाविधं घटाविषु बुद्धिमता व्याप्तं दृष्टम्, अदृष्टककोणामपि जीर्णपाविषु 'बुद्धिमता कतम्' इति बुद्धिमुत्पादयति, न तथाविधं भूधराविषु सिद्धम् । वदाह"विशेषेण न सिद्ध भूधरादिष्विति"। नन्वेवं विकल्पने न किनिदनुमानं स्मात् । तथा हियथाविधो धूमो धूमध्वजपूर्वकत्वेन रटान्ते दृष्टः, न तथाविधः साध्यधर्मिणि सिद्ध इति । अथ धूमसामान्यं सिद्धम् । अत्रापि कार्यसामान्यमिति समानम् । ननु कार्यसामान्यात् ।
१.रपि व्यव०। २. पर स्फुटाकारता मु०। ३. वयवाभासे अ००। ४. यदायः क. मु०। ५.इत्युपगमः क.मु०। ६. 'यविग्रहणात् क.मु०। ७. 'ग्रहणात् तथा मु०।८. स्यात् । तत्र व्य मु०। ९. ततोऽव्य मु०। १०. माने अपरा ०। ११. 'गावयविप्रा ब० । १२. नार्थाकारावयवव्या कामु०। १३. प्रहः अक्षानु प० । १४. तमेवरातिवादि अ०। १५. कर्तृणामपि क.मु .
न्या.
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न्यायाववारसूत्रवार्तिकवृत्तो. [१. सामान्य परि० कारणसामान्ये सिद्धेऽपि नेष्टसिद्धिः । न, यथा वहिसामान्यसिद्धौ तद्विशेषसिसि क्या कारणसामान्यात् कारणविशेषसिद्धौ कथं नेष्टसिद्धिः । सिख्खतु यथादृष्टो विशेषः । न हि धूमेनाप्यलौकिको पहिः साध्यते; तयेहापि दृष्टान्तदृष्टो विशेषः सिखतु । न तु नित्य
बुख्खादियुक्तः। .६१६. अपि प-नित्यायां बुद्धौ संबन्धाभावात् मत्वर्थीयोऽपि नोपपयते । अनित्यत्वे तु तां यदि बुख्यन्तरेण करोति तदा वामपीति अनवस्था । अथ बुद्धिमन्तरेणापि करोति; सदा न बुद्धिमत्पूर्वकं सर्वमिति व्याप्तिः । अछष्टोत्पत्तयध वने वनस्पतयः कर्तारमन्तरेणापि उत्पद्यमाना दृश्यन्त इति कथं व्याप्तिः ।
६.१७. अदृश्यत्वात् कर्तुतयेति चेत् । ननु किमहश्यत्वात् , किंवाऽभावाचयेति संदिग्ध॥विपक्षव्यावृत्तिको हेतुः । पक्षेण व्यभिचाराभावादिति चेत् येन येन व्यभिचार: तस्य वस पक्षीकरणे न कश्चिदहेतुः स्यात् । किंच घटेऽपि स एवाश्यः कर्ता भवतु नकुलालः । तत् कथं तदृष्टान्तात् कर्तृसिद्धिः १ । कुलालस्य दृष्टत्वात् नान्यकल्पनेति चेत्, वनसत्यादिष्वपि दृष्टमस्तु, किमदृष्टकल्पनया ?। [७]
.६१. अपि प-यथाऽयं हेतुः कर्तारं साधयति तथेष्टविपर्ययमपि । तदाह-विरुद"मित्यादि।
विरुद्धं चेष्टघातेन न कार्य कर्तृसाधनम् । ६२. तथा हि-कुलालः शरीरी, सरागः, असर्वज्ञश्च । ईश्वरोऽपि तथा स्यात् । स्था, धरकल ईश्वरः कर्ता न भवति, शरीररहितत्वात् , मुकात्मपवित्यपि स्यात् । निषेधः।
६३. अयेह हेत्वन्तरेण किं प्राकनस्य हेतोरन्यतररूपाभावः ख्याप्यते ?, किंवा बस्मिव धर्मिणि विशेषः साध्यते ?, यथा शब्देनित्यत्वे सिद्धे अम्बरगुणत्वमिति । तत्र न वावदनेनान्यतररूपाभावः ख्याप्यते । नापि विशेषः साध्यमानो दोषमावहति । यदि साम्यविपर्ययसाधनेऽपि न दोषस्तदा न विरुद्धस्य हेतोर्दोषः स्यात् ।
.६४. अथ शरीरमस्योपेयते । यदि तन्नित्यम्, तदा 'रचनावत् सर्व कार्यम्' इति न स्यात् । अथानित्यम्, तदा तदपि शरीरवतान्येन कर्तव्यम् । तदप्यन्येन 'शरीरिणेत्यनवला।
६५. कि-इदं चेतनावताऽचेतनस्याधिष्ठानं किं तहेतुकत्वम्, किं वा सदिच्छानुविधायित्वमिति। ६६. तत्र
"सचेतनं यदा कर्म किमीशेन प्रयोजनम् । अचेतनः कथं भावस्त दिच्छामनुवर्तते ॥ कुलालकरसंपर्कजन्यः कुम्भस्तदिच्छया। दृष्टान्तेन भवन् दृष्टस्तदिच्छासाधनः कथम् ॥ जगतःकरणे चास्य यदि किश्चित् प्रयोजनम् ।
हीयेते कृतकृत्यत्वं प्रेक्षाकारी न चान्यथा ॥ १. तां बुख्य म०। २. अदृश्योऽपि करोति चेत् भ०। ३. पक्षणाव्यक०मु०। ४.अय हेन क०प० मु०। ५. शब्दे निये क० मु० ब०। ६.०पि दोषः क. मु०। ७.शरीर· मवश्यमभ्युपेयवे मु०। ८. शरीरेणेक०म०। ९. हीयते बमु० ।
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कारिका ८.]
ईश्वरकर्तृत्वनिषेधः। मेक्षावतां यतो वृत्तिातास्ते कार्यपत्तया। प्रयोजनमनुदिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते । प्रयोजनं विनाप्यस्य कृपया यदि तक्रिया। बजेष शुभमेवैकं रुपया परिचोदितः॥
गादीनां पुरीषादेओलीकरणेन किम् । क्रीडार्था तस्य वृत्तिभेद नार्यता स्यात् समाहिता॥ किंचिन्मात्रविशुषोऽपि नार्यः क्रीडासु वर्तते । स त्वत्यन्त विशुखात्मा कथं क्रीडासु वर्तते ॥ एकस्य क्षणिका इतिरन्यः प्राणैर्वियुज्यते। कर्मणां पारतक्येण यदि चास्य प्रवर्तनम् ॥ कर्मणामीशता प्राप्ता तदारुत्यमनेन किम् । कर्मणां कारणे चास्य सामर्थ्य यदि वियते। शुभान्येव कपायुक्तः किन कारयते सदा। अनुपं फलं यत् भृत्ये रामः प्रयच्छतः। नासामध्ये न चैकत्वं फलस्याप्युपलभ्यते ॥ उक्तमत्र समर्थव शुभं कारयतां सदा।। मथेश सभावोऽस्य कोऽत्र पर्यनुयुज्यताम् । स्वभावो यदि विधौ नित्या संहार विदधाति किम् ॥ मथानित्यः सहेतुः स्यात् महेतुर्वेति कल्पना । महेतुर्यदि सर्वस्य स खभावः प्रसज्यते ॥ सहेतो.तुरस्यास्तु स एवान्योऽथ कश्चन । यवन्यस्तत्र कर्तुत्वं खभावस्य विधातरि ॥ तेनैव चे विधीयेत प्रसंगः पूर्ववत् भवेत् । .. किककर्दपूर्णत्वं जगतोऽनेककर्वता॥ संघाँतेनैकताव्याप्तिः प्रासादादिषु हश्यते। एकेन सत्रितत्वं चेत् तत्रापि नियमो नहि ॥ सातव्येण करिवेषामेककाय प्रवर्तनात् । ममेककर्तपक्षभेदात्मभिः किं न सिध्यति॥ कुर्वन्तु खण्डमेकैकं तवस्वाद चन्द्रचूडवत् । जानवन्तोऽपि तेऽन्येन प्रेर्यन्ते यदि कर्मणि ॥ सोऽप्यन्येन तदन्योऽपीस्यनेकेश्वरसंगमः। को दोषभेद् भवेदेवं नैकोऽपि हि तवेश्वरः॥ सर्वेषां परतंत्रत्वात् ममीशत्वं कुलालवत् । तदेवं कार्यताहेतुं सर्वदोत्पद्वतम्।
भाभिस्य जगतो हेतुं साधयन्तो निराकृताः॥" इति निखिलविधानाधीनविज्ञानमय, त्रिभुवनभवभावप्राहि दूराभिरस्तम् । वविह सकलवस्तुझानशून्यस्य रागात्, कथमिव "वनिताहासगिनो मानताऽस्तु [८]
-
१. करणया पर अ००। २. करणे अ०१०मु०। ३. क्रिया म०। ४. मन मु०।५. यश मम०।६.खभाषवेद्विषो क०। ७. अहेतुबेति म०मु०। ८.भ्यस्यात्र मु०। ९. विधातकम् म०। १०. साम्यतेनैक भ० ब०। ११. कार्यप्रव अ००। १२. "तदान्यो म०प०। १३. दोपरमिहतम् प०। १४. शून्यः स रागात् मु०। १५. मिव दयिता क० मु०।
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ
[ १. सामान्यल० परि०
६१. एवमीश्वरस्य प्रामाण्यं निरस्य सांख्याभिमतस्य प्रकृतिपुरुषान्तरज्ञानस्य प्रामाण्यं श्रस्यन्नाह - प्रकृत्यन्तरविज्ञानम् - इत्यादि ।
प्रकृत्यन्तरविज्ञानं पुंसो नित्यमथान्यथा ॥ ८ ॥ नित्यत्वे सर्वदा मोक्षोऽनित्यत्वे न तदुद्भवः ।
२. ते हि एवं मन्यन्ते केवलानन्दभोक्तृखरूपो हि पुरुषः, प्रकृतिश्चाचिद्वात्मिका । कथमसौ तां भुजे ? । केवलमज्ञानतमश्छन्नः प्रकृतिसाध्यमेवात्मगतं मन्यमानः न्तरविशा- तत्सुखं दुःखं चोपभुत इति । यदा तु ज्ञानमस्य भवेति 'दुःखहेतुरियम्, न ममानपरीक्षा । नया सह 'संगो युक्त:' इति तदा किमिति तदुपार्जितं कर्मफलमुपभुते ? । सापि
प्रकृत्य •
४४
'विज्ञातस्वरूपाऽहं न मदीयैकर्मफलमनेन भोक्तव्यम्' इति बुद्धा न किंचिदपि करोति । 10 कुष्ठिनीव विशीतस्वरूपा दूरादपसर्पति । अतः केवलज्ञानं मोक्षायालमिति ।
६३. अत्रेदमभिधीयते - कस्य तज्ज्ञानं किं प्रकृतेरथात्मन इति ? । न तावत् प्रकृतेः, अचिद्रूपत्वात्, अनभ्युपगमार्थं । अत एव 'निर्माताऽहमनेन' इति अस्याः याचितकमण्डनम् । अथात्मनः, तदपि किं भिन्नमथाभिन्नम् १ । यद्यभिन्नम्, तदा तत्स्वरूपवत् नित्यं स्यात् । तत आदित एव मुक्तो भवेत् । अत आह 'सर्वदा मोक्षः' इति । अथ भिन्नम् ; मिन्नमपि 1 किं नित्यमथानित्यम् १, नित्यमपि संबद्धम्, असंबद्धं वा ? । असंबद्धे सर्वस्य स्यात् । ततश्च न कस्यापि संसारः । संबन्धोऽपि न नित्ययोः परस्परमनुपकार्योपकारकयोः स्यात् । संबन्धेऽपि वीं सदा मुक्तिरिति । अनित्यमपि किं जन्यमजन्यं वा ? । तत्रानित्यमजन्यं चेति व्याहतम् । अव्याहतावपि सर्वस्य स्यात् । जन्यमपि किं प्रकृतिवियुक्तात्मजन्यम्, किं वा तत्सहितजन्यमिति । प्रथमपक्षे इतरेतराश्रयत्वम् । तथा हि- सति ज्ञाने प्रकृतिवियोग:, 20 सति वियोगे तब्ज्ञानमिति । तत्सहितजन्यत्वे किं तद्वियोगेन १ । सर्वदा सर्वेषां वै मुक्तिः स्यात् । ननूक्तम् 'अविज्ञानतमश्छन्नः' इति तमोविर्गमादस्य विज्ञानमुपजायत इति ।
।
४. अथ किमिदं तमः १ । रागादय इति चेत्-न, तेषां प्रकृतिधर्मत्वात् । न साम्यावस्थायां तदुत्तरकार्यभाविनः प्रकृतावपि ते सन्ति । शक्तिरूपतया सन्तीति चेत्; शक्तिरपि न कार्यकार्य करोति । किन्तु स्वकार्यमेव करोति । न हि क्षीरे दधिशक्तिः दधि23 साध्यं कार्य करोति । किन्तु दृध्येव करोति । दधि पश्चात् स्वकार्य करोति । पश्चाद्भवन्तु, तथापि रागादयः सिद्धा इति चेत्; न, प्रधानस्य विकारजेनने सहकारिकारणाभावेन तेषां पश्चादप्यसिद्धेः ।
६५. सन्तु वाऽविद्यारागादयः, ते मुक्तात्मनः किं न तमो भवन्ति । अधिकारिण एव ते भवन्ति, न मुक्तात्मन इति चेत्; किमिदम् अधिकारित्वम् ? । " योग्यत्वमिति श्रूमः । " तथा हि - प्रकृतिरचेतना भोग्यरूपा । सा भोक्तारमपेक्षते । पुरुषोऽपि चेतनो भोक्ता च । स
९. यदा ज्ञान मु० । २. भवेत् ब० । ३. संयोगः अ० । ४. पाहं मदीयं मु० । ५. मदीयं कर्म° अ० । ६. नीव निर्ज्ञात क० । ७. अदम मु० । ८. गमाद्वा मु० । ९. मपि किं सं° मु० । १०. sपि सदा अ० । ११. सर्वेषां मुक्तिः अ० । १२. तमो विरामाद क० । तमो विरामेऽवश्यं विज्ञा १३. न साम्या° अ० मु० । १४. कार्यक० । १५. विकाराज मु० । १६. इतः आरभ्य 'योग्यतालक्षणः' इतिपर्यन्तः पाठः मु० क० प्रत्योः 'सन्ति' [ पृ० ४४ पं० ....... ] इत्यनन्तरं वर्तते सं० ।
मु० ।
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कारिका १०.]
कैवल्योत्पत्तिप्रकारः। पभोग्यमपेक्षते । तयोरयं योग्यतालक्षणः संबन्धो वनगतयोरिव पवन्धयोनाम निर्जिगमिष्योरिति । ननु सा योग्यता तयोर्नित्या न कदाचिदेपैति । ततो न कदाचित् शानोत्पचिरिति । तदाह-न तदुद्भवः इति । न तस्य ज्ञानस्योद्भव उत्पत्तिः स्यादिति । न चामच्युवानुत्पेनस्थिरैकल्पस्यात्मनः स्वभावविगमो युक्तिमानिति न तस्य प्राग्वत् केवब्हानं प्रमाणमिति स्थितम् । [९] ६१. निरस्ते कुंमतध्वान्ते जिनार्कोदयकांक्षिणी ।
इदानीमुदयोपायस्तस्यायमभिधीयते ॥ -कालवैपुल्येत्यादि
कालवैपुल्ययोग्यत्वकुशलाभ्याससंभवे ॥९॥
आवृतिप्रक्षयाज्ज्ञानं सार्वश्यमुपजायते। ६२. वथा हि
जीवस्खाभाव्यतः सिद्धा गुणा गम्भीरतादयः । परमे पुद्रलावते भव्यत्वे पाकमागते ॥ रमत्रयाख्यं कुशलमवाप्याभ्यस्थतः क्रमात् ।
शानाधविक्षयाज्ञानमहतो जायतेऽक्षतम् ॥[१०] ६१. शरीरानिमात्मानं प्रत्यक्षं नैव वीक्षते ।
प्रामाण्यं नानुमानस्य सर्वमेतदसंगतम् ॥
नानुमानं प्रमेत्येतद्वचनं चार्वाकचर्चिवम् । किं प्रमाणमथान्यथा । . अप्रमाणं कथमनुमाननिषेधायालम् ? । प्रमाणमपि नाध्यक्षम् , अनक्षजस्वात् । बयानमानम् । तदेतत् पीतमयस्य प्रलपितम् । प्रतिपादयिष्यतेऽनुमानप्रामाण्यं प्रमाणद्विस्वसिद्धाविति । तदेवोपन्यसबाह-संदेहेतुकमित्यादि -
सदहेतुकमस्तीह सदैव मादितत्त्ववत् ॥१०॥ ६२. अनेन प्रयोगार्थो दर्शितः । प्रयोगश्च - यत् संदेहेतुकं तत् सर्वदा अति । यथा पृथिव्याक्तित्वम् । संदहेतुकं च आहाराचासक्तिचैतन्यपर्यायं जीवद्रव्यमिति । [१०] ६१. एतत् साधयितुमनुमानमाह-आहारासक्तीत्यादि
आहारासक्तिचैतन्यं जन्मादौ मध्यवत्तथा। ६२. इह आहारमहणमुपलक्षणम् । इह चेतसो यदासक्तिः सा तभ्यासपूर्विका । यथा जीवसिद्धिः । यौवनावस्थायां रागाद्यासक्तिचित्तं तदभ्यासपूर्वम् । अस्ति च जन्मादावादाराचा
१.धयोर्निर्जि भ० ब०। २.०मिषोरिति क०। ३. दपि निवर्तते न कदा मु०। ४. उत्पत्तिः। नवाब०। ५. सने स्थि० म०। ६. स्थितिः मु। ७. निरस्त क० मु०। ८ मुदमा मु०। ९.क्षिणः मु०। १०.दयो यस्य तस्याम०। ११. किलवैक। १२. महते जा. म००। १३. चर्वितम् मु०। १४. 'न्यस्यबाह भ० ब०। १५. सहेतु मु०। १६. 'व्यादिकं मु०। १७. सहेतु मु०। १८. यौवनायव मु०।
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ [१. सामान्यल० परि० सक्तितम्यमिति कार्यहेतुः । तत्क्षणजातस्यापि स्तनपान-शरीररक्षायुपसम्वेनासिखता देवोः। अपने सवाल विरुद्धता । कार्यकारणभावसिद्धर्नानैकान्तिकता । अनुगमय भावात् सदातित्वमात्मन इति । ६३. अथ कार्यकारणभावाव्यवस्थानात् कथमेतत् ।।
तथा हि"धूमो धूमान्तरोत्पत्रो न धूमादेव सर्वथा। शीलूकादपि शालूकः कथं भवति गोमयात् १॥"
___. तथा"चित्रं चित्रकराजातं पतत्रियपि किं तथा।।
तथाभ्यासाहिशेषो यः सोऽन्यथाऽपि भविष्यति ॥" ६४. सदसत्।
"धूमो धूमायथाभूतः सोऽन्यथाऽपि न जायते।
अभ्यासातु विशेषो यः स जन्मादौ तथा स्थितः॥" प्रामान्तराभ्यासवजन्मान्तराभ्यासानुपलब्धेर्न तत्कारणता चैतन्यस्य, किन्तु तदैव वस्यो. ॥ पढब्बेः । तस्मात् तदेव तदिति चेत् । तदेतझौताख्यानम् -
"कबिद्रोतः किलान्येन पृष्टः कथय संभवः । मातुःविषाणस्य महिषस्य कथं स्थिते। स प्राह कर्जायन्ते न मातुर्महिषा अमी॥ छागतानामेवैषी मूल्येन क्रयमात्रकम् ।।
मैंच मातापितृचैतन्यजन्यत्वेन चेतसः।" सिद्धता बाच्या । अन्यथा सकलस्य पाण्डित्यादिविशेषस्याप्यनुवर्तनं स्यात् । न हान्यम संस्कारोऽन्या दृष्टः । उपाध्यायसंस्कारानुवर्तनमुपलभ्यत इति चेत्, न, वसंतोनपूर्वविज्ञानस्यैवामितचिविशेषितस्य भावाद् अन्यथाऽदृष्टेः । ये घाचेतनात् काष्ठादेरुपजायन्ते तेषां कयं मावापिहचैतन्यपूर्वकत्वम् ।।
६५. किच-तत्र कस्यचिन्मराभावात् सकलमातापितृस्वभावानुवर्तनं स्यात् । परलोकिनस्तु मरणगर्मजन्मदुःखसमुद्घातव्याकुलत्वेन कस्यचिदेव दृष्टः । कस्यचित जातिस्मरणमुपलभ्यते । अपूर्वोत्पमस्य तु सैवावस्थितिर्न दुःखम् ।
___ "तदेव तत्रोत्पन्नस्य न दुःखं विषकीटवत् ।
परलोकिनस्तु तदुःखमनाघभ्याससेवनात्।" .. ६६. "मय देहात्मिका देहकार्या देहस्य च गुणो (ो देहगुणो) मैतिः।
मतत्रयमिहाश्रित्य न परलोकस्य संभवः॥"
१. सदा नित्य अब०। २. सालका अ० ब०। ३. सालकः म०प०। ४. भ्येन सुष्टः 'कथमसंभवः मु०। ५. वषमस्य क० मु०। ६. मेवेषा शून्येन क्रयविक्रयमात्रकम् मु०। ७.क्रयविक यमा क०। ८. न च मातृपिक०। न मातृपि मु०। न मातापि अ०प०। ९. सिद्धसाम्यता बाच्या कामु०। १०. °स्य व्यापिलावि मु०। ११. न्यसंस्का क०मु०। १२. खसंतानस्य पूर्व क०मु०। १३. किश्च कस्य क. मु०। १४. °मरणभावात् क० मु० । १५. परलौकिकस्तु क० मु०।१६. चिजाति क० मु०। १७. चैतन्यम् अ-टि०।
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कारिका ११.]
भूतचैतन्यवादनिषेधः ।
४७
I
तथा हि-न धूमो धूमध्वजान्तरादागच्छति । नापि धूमध्वजान्तरं प्रयाति । नापि धूमध्वजविरहे भवति । चित्रं वा न कुड्यान्तरादागच्छति, कुड्यान्तरं वा संक्रामति, कुयविरहितं वाऽवतिष्ठते; मदशक्तिर्वा कषायादेः सशर्करादपूर्वा जायमाना न मचान्तरमबलम्बते, मद्यान्तराद्वा आगच्छति, तद्विलये वाऽवतिष्ठते ।
६७. र्वेदसत् । महाभूतपरिणामरूपस्य चैतन्यकारणत्वे सर्व स्तम्भकुम्भावि सचेतनं । स्यात् । अथ महाभूतसंभविनोऽपि रत्नादयो न सर्वत्र भाविनः, तद्वत् कश्चिवेष महाभूतपरिणतिविशेषचैतन्यहेतुः । तदुप्यसत् । यतः
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err यदि न महाभूतकार्याः प्राणिनः कथं काष्ठाद्यन्वयिनी प्राणिजातिरुपलभ्यते १ । तन्न, यतः समानजातीयं सर्व तद्रूपप्राणिमयं स्यात् । न चैवम् । तथा हि- परिश्रव्य स्थापितेऽम्भसि सकलतद्रूपप्राणिगणोत्पत्तिः स्यात् । कुतो वर्णसंस्थानवैलक्षण्यम् ? |
" स कश्चित् पृथिव्यादेरंशो यत्र न जन्तवः । संवेदजाद्या जायन्ते सर्व बीजात्मकं ततः ॥” [प्र. वा०
" तथा हि रक्तशिरसः पीतकायादयोऽपरे । जलादिप्राणिनो दृष्टाः स आकारः कुतो भवेत् १ ॥
तद्रूपबीजात् कमलादिमेदः, किं दृष्ट ईष्टोऽनियतः कदाचित् ।
न प्राणिभेदो नियताऽस्ति बीजात्, सर्वत्र कर्माणि नियामकानिः ॥". ६८. न च चैतन्यादुत्पद्यमानमुपलब्धमन्यदौ शरीरादुत्पद्यत इति वाच्यम् । सर्वत्र कार्यकारणभावोच्छेदप्रसक्तेः । तथा च सति -
"नित्यं सस्वम सस्वं वाऽहेतोरन्यानपेक्षणात् ।
अपेक्षातो हि भावानां कादाचित्कत्वसंभवः ॥ [ प्रमाणवा० ३.३४ ] ६९. किन - तदुत्पद्यमानं चैतन्यं किं समस्तादुत्पद्यते, व्यस्ताद्वा ? । न तावत् समखात्, अङ्गुल्याविच्छेदेऽपि मरणप्रसङ्गात्, अन्यथा शिरश्छेदेऽप्यमरणप्रसक्तेः । नापि व्यस्तात्, एकस्मिन्नेव कायेऽनेक चैतन्योत्पत्तिप्रसङ्गात् । अथैकः शरीरावयवी तत एकमेव चैतन्यमुत्पद्यते । तदप्यसत् । आवृतानाष्टतत्वेन, रक्तारकत्वेन चलाचलत्वेन च तस्यासंभवात् ।
1
६१०. किन - शरीरस्यावैकल्यात् मृतशरीरेऽपि चैतन्योत्पत्तिः स्यात् । अथ बातादि- 25 दोषैर्वैगुण्यात् न सुतशरीरस्य चैतन्योत्पादकत्वम् । नैतत् सारम् । यतो सुतस्य समीभवन्ति दोषाः, ततो देहस्मारोग्यलाभात् पुनरुज्जीवनं स्यात् ।
" तेषां समत्वमारोग्यं क्षयवृद्धी विपर्ययः ।" [ ५० बा ] इति वचनात् । अथ समीकरणं दोषाणां कुतो शौयते १ । ज्वरादिविकारादर्शनात् । अथ वैगुण्यकारिणि निवृचेऽपि नावश्यं तत्कृतस्य वैगुण्यस्य निवृतिः । यथाऽग्निनिवृत्तावपि न
क० मु० ।
१. धूमान्तरा० क० मु० । २. गच्छति मु० । ३. तद्विगमे मु० । यतः सु० । ५. तदसत् महाभाविनः तद्वत् क० । ६. न कश्चित् अ० क० ८. परिताप्य मु० । ९. स्थाप्यर्तेऽभसि ब० मु० । ११. इडो वानि क० । १५. कुतो जायते ब० ।
१२. सन्वत्र मु० ।
१३. न्यथा श° मु० ।
४.
वे तदप्यसत् । मु० । ७. सर्वबीजा १०. रतः बिर° अ० ब० । १४. न्यखादेवासि° अ० ।
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४८
न्यायावतारसूत्रवार्तिकचौ
[ १. सामान्य० परि०
I
काठे दरवाहस्याऽपि । तदपि न, यतः किंचित् कचिदनिवर्त्स्यविकारारम्भकं दृष्टम्, यथा काष्ठेऽग्निः । कचिच निवर्यविकारारम्भकम्, यथा सुबर्णे द्रवतायाः । तत्र यदि दोषविकारोऽनिवर्त्यः स्यात्, चिकित्साशासं वृथैव स्यात् । ततो दौर्बल्यादिविकारस्येव महतोऽपि मरविकारस्य निवृत्तिः प्रसज्येते । अथ चिकित्साप्रयोगाद्दौर्बल्या दिनिवृत्युपलब्धेः प्रत्या• नेयविकारत्वम्, असाध्यव्याभ्युपलब्वेश्वाप्रत्यानेयविकारत्वं चेत्युभयथाभावात् मरणानिवृतिः । तदसत् ।
"दुर्लभत्वात् समाधातुरसाध्यं किंचिदीरितम् ।
आयुशवाहा दोषे तु केवले नास्त्यसाध्यता ॥" [५०वा०
]
तथा हि- तेनैव व्याधिना कश्चित् त्रियते कश्चिभेति । नेदमसमञ्जसं केवले दोषे 10 बिकारकारिणि घटते । तस्मात् कर्माधिपत्यमेवात्र परिहारः । अन्यथा -
"मृते विषादिसंहारात् तशच्छेदतोऽपि वा । विकारहेतोर्विगमे स नोच्छ्रे सिति किं पुनः ॥ [.1
११. कि - उपादानविकारमन्तरेण नोपादेयस्य विकारो दृष्टः, यथा मृद्विकारमन्तरेण कुण्ड । इई तु स्वच्छेऽपि देहे भयशोकादिना मनोविकारदर्शनात् न देहस्सोपादानता । " शरीरविकारेणापि चेतस्रो विकारोपलब्धेः तदुपादानमिति चेत्; न पुत्रेण व्यभिचारात् । नियमाभावाच । यथा हि विश्वविकारमन्तरेण नोत्तरचेतसो विकारो नैवं शरीरे नियमः । अबस्थाकारणं तु स्यात् ।
" अवस्थाकारणं वस्तु नैवोपादानकारणम् । अवस्थाकृनिवृत्तौ हि सैवावस्था निवर्तताम् ॥ सन्तानकारणं यत्तु तदुपादानकारणम् । तनिवृत्तौ भवेत्तस्य सन्तानस्य निवर्तनम् ॥ अर्निवृत्तौ ताम्रस्य द्रवतैय निवर्तते । चेतसः सह कायेन तावत्कालमवस्थितिः ॥ अन्योऽन्यसहकारित्वादद्भिताम्रद्रवत्ववत् । तैयोत्वोरकार्ये तु "भिनं तिष्ठति हेमवत् ॥" उपादानम्, न शरीरमिति ।
तचितमेव चेतस
१२. मापि चक्षुरादीनि, यतो मनःसमाश्रितान्येव चक्षुरादीन्युपलभ्यन्ते, न मनस्तदामिवम् । यस्मान्नियमेन भयशोकक्रोधाविनोपहते मनसि चक्षुर्विकारो दृश्यते । न तु साविकानां चक्षुरादिविकारेऽपि मनोविकारः । कादाचित्कस्तु मनसो विकारः पुत्रेन्द्रिय" विकारेऽपि पितुरुपलब्धे इति । न ततो व्यभिचारः । न च यथाग्नेर्विकारमासादयत् घटादिवस्तु तत एव नोत्पद्यते तथेन्द्रियाणीति वाच्यम् । यतः -
"घटादिरन्यथा दृष्टस्ततो न तत एव सः । नान्यथा तु पुनर्दष्टमिन्द्रियं तद्विकारतः ॥"
נ
४. केवलो
१. का दाह मु० । २. प्रसज्यते ब० । ३. वातादिदोषवैषम्यादसाध्यं मु० । ६०। ५ पति अ० मु० । ६. इह खच्छे अ० ॥ ७. शरीरम् अ- टि० ।
८. कारणं यन्तु
०९. तौ त्रस्तु द्रव मु० । १०. पूर्वार्धेन हेतुनिवृत्तौ निवृत्तिमुक्त्वा हेतुसद्भावे युगपत्सत्तामाहब- टि० । ११. यावत् देह कर्मवासितं चेतथ-ब-दि० । १२. कुतः ब- टि० । क० । १४. तु चित्तं विष्ठ' मु० । १५. 'लब्धेरिति मु० । १६. मासाद्य घटा° सु० ।
१३. तयोर्हेतोर मु०
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कारिका ११.]
भूतचैतन्यविवेकः। ६१३. किन, चक्षुरादिभ्यः किमेकैकशो मनोविज्ञानमुत्पद्यते, समस्तेभ्यो वा ? । प्रथमपक्षे नियतविषयमेव मनोज्ञानं स्याद् रूपादिदर्शनादिवत् । द्वितीये तु नान्धबधिरादेर्मनो. विज्ञानं स्यात् । न हि बीजादिभ्यः समस्तेभ्यः समुत्पद्यमानोऽहरस्तदेकापायेऽप्युत्पद्यते । वन पक्षुरादिकार्यता।
६१४. नापि प्राणापानकार्यता । प्राणापानौ हि मनोविज्ञानान्वयव्यतिरेकानुविधायिनी ।। न मनोविज्ञानं वदन्वयव्यतिरेका विधायि । अन्यथा मूर्छाविच्छेदे चैतन्यं न स्यात् ।
कार्यतामन्तरेण मनोहानपश्यता च तयोर्न स्यात् । न खल्वन्याधीनम् अन्येन वशयितुं शक्यम् । अथ अन्यत उत्पनोऽपि अन्येन नियम्यते, यथा स्वामिना मृत्यः । तदप्यसत् ।
_ "भृत्यस्यान्यत उत्पत्तिश्यते न पुनस्तयोः।
मचित्तमन्तरेणास्ति तयोरुत्पत्तिरन्यतः॥" ६१५. अथ स्वापावस्थायां प्राणापानौ चित्तमन्तरेणापि दृश्येते । तत् कथं तत्कायौँ । वन । निद्रामिभूतस्य तदाऽपि भावात् ।
"शरीरपंच यावत्यस्ताः सर्वातिसंस्कृताः।
सुप्तस्य दीर्घहलादिनिःश्वासा पूर्वचित्ततः॥" नहि चैतन्यमन्तरेण प्रेरणाकर्षणे भवतः । न च प्रेरणाकर्षणे एव चैतन्यात् नं प्राणापानाविति । वत्स्वरूपव्यतिरेकेण प्रेरणाकर्षणयोरभावात् ।
६१६. अब स्थिरो वायुः प्राणापानयोहेतुः, ततश्चेतना । तदप्यसत् । मृतस्यापि खिरो बाबुरस्ति इति प्राणापानानिवृत्तौ चैतन्यस्वानिवृत्तिः स्यात् । यदि च प्राणापानकार्य चैतन्य सदा योनि सातिशये तस्यापि तो स्याताम् । अवश्यं हि कारणे परिहीयमानेऽभिवर्धमाने वा कार्यस हानिरूपचयश्च स्यात् । अन्यथा तत् तस्य कार्यमेव न भवेत् । न चैवम् । अवो न शरीरेन्द्रियप्राणापानकार्य चित्तम् ।
६१७. नापि देहाभितम् । आश्रयायिभावप्रतिषेधात् । तथा हि-असतस्तावत् खरविषाणस्येव नाश्रयः । केवलमसत् कारणादुत्पत्तिमेवेहते, अतोऽसतः कारणमेव स्थात्, नाश्रयः । सतोऽपि सर्वनिराशंसत्वात् न कश्चिदाश्रयः । अथ सतः स्थितिकरणीदाश्रयः । न, स्थितेः स्थातुरव्यतिरेके तत्करणे स एव कृतः स्यात् । न च सत: करणमुत्पन्नस्य पुनरुत्पादायोगात् । अथोत्पन्नस्यापि किश्चिदनुत्पन्नमस्ति तत्करणादाश्रयः । सर्वामनोत्पादे कारणमुच्यते, कस्यचितु धर्मस्योत्पादे आधारः । न च स्थितिरव्यतिरिक्ता खरूपात्, पततोऽपि खित्यभावे स्वरूपसनावात् । यदि पुनरव्यतिरिका स्थितिः स्यात्, स्थिते. रव्यतिरिक्तः स भवेत्, ततः सर्वदा स्थितिरेव भवेत् । तेन खरूपे सति निवर्तमाना विरुद्ध धर्माभ्यासात् ततो व्यतिरिका सा । तदप्यसत् । व्यतिरेके" हि सति तदेतुरेवासौ, न. वस्यापार।
१. ये उत्पमु०। २. रेकविधायि अ००। ३. स्यात् कार्य अ० ब० मु०। ४.मिद्धाभि म.ब, सिसाभिक०। ५. ताः खार्थाश्चिक0मु०। ६.त्र्यात् प्राणामु०।७. न्यानिक०। ८.करणे वाश्रयः मु०। ९. रेकेण तत्क' मु०। १०. तत्कारणामु०। ११. भाधारोऽनवस्थिति म०प०। १२. °तिरिके हि मु०।
न्या०७
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ [१. सामान्य परि० ६१८. तस्य स्थितिकरणात् तदाधार इति चेत्, किमसावुत्पन्ना सती स्थाप्यस्य भवति, भन्यथा वा । अनुत्पना असत्त्वात् न तस्य । उत्पन्नाप्यन्यस्मात् कथं भावस्य, तादात्म्य. पदुत्पत्तिसंबन्धाभावात् ।। अथ तत एवोत्पद्यते नान्यतः । तथा सति तत्कार्या स्यात् नाभयकार्या । तत्र चोकं दूषणम् । तथा हि-स्थाप्येन स्थितिः क्रियते नाश्रयेण । अथ स्थिते. • स्थितिः क्रियते आश्रयेण वर्हि अनवस्था स्वात् ।
६१९. यदि चानयो देहा, तदा यस्य स्थितिकारणमस्ति तस्य न विनाशः स्यात् । अय वेस्थापके सत्सपि नाशहेतो क्षः । न नाशो नामाऽन्य एक भावात् । व्यतिरेके च नाश एव तेन फतः स्यात्, न भावः । ततोऽनाशात् स्वयमेवास्त इति किं स्थितिहेतुना १ । यदि च नाशहेतो शो यावनाशको नायाति तावत् स्वयमेवात इति किं स्थितिहेतुना ? । अथ विना"शकात् पूर्व स्थापकेन विनाशप्रतिबन्धः क्रियते । ननु सोऽपि विनाशप्रतिवन्धोऽन्यो विनाश्यात् । ततश्च विनाश्यस्य न किंचिदिति विनश्येत् । अथानन्यः, तर्हि विनाश्या स्थापकेन क्रियते न स्थितिः । अथ प्रतिक्षणं विनश्वरः स्थापकादन्यया भवति, तस्यापि विनाशोऽहेतुक इति स एव प्रतिक्षणं विनाशः । स च अन्यथा स्थापकादुत्पन्न इति कौरणमेव स्यात्, न
खापकः। .६२०. अब पततो धारणोपलब्धेः कथं न स्थापकः १ । न पततो धारणं, यस्य च
पारणं न तस्य पतनम् , पतनापतनयोः परस्परविरोधात् । पूर्व पतनं पश्चादपतनमिति चेत्, नै सहि यस पतनं तस्य धारणम् , प्रत्यक्षेणैकत्वाप्रतिपत्तेः । न कोऽवस्थाता पवनेवरल्याप्युपलभ्यते।
६२१. स एव पतमवतिष्ठत इति एकत्वाभिमानादवस्थातुः प्रतीतिरिति चेत्, न, प्रत्यमिजहानसाभिमानमात्रत्वात् । ततः प्रतिक्षणविनाशिनामपरापरदेशोत्पादवतामुपादानदेशोत्सतिरेवं भाषारसमागमकतेति हेतुरेव विशिष्टावस्थाया आधार उच्यते ।
६२२. किं च, गुरुणो द्रव्यस्य पततः पातप्रतिबन्धात् स्थापकः स्यादपि, निष्क्रियाणां तु गुणसामान्यकर्मणां किमाधारेण । चैतन्यं च सामान्यं गुणः कर्म वा? तब सर्वथा निष्क्रियमिति नाऽधारेणास्य किंचित् । अतोऽनाघेयस्य चेतसो नाधारविनाशेन विनाशः । कियत्कालं तु सहस्थानमामग्निताम्रद्रवत्ववदित्युक्तम् । तन्न कायाश्रितं चेतः ।
६२३. नापि कायात्मकम् । यतः परमाणुसंघातमात्रमेव शरीरम् । तत्तादात्म्ये प्रत्येक सकलपरमाणुसंवेदनप्रसङ्ग स्यात् । न च अवयव्येको विद्यते तत्सद्भावेऽपि वा श्यामताविषदन्येन चैतन्यवेदनं स्यात् । अन्तःस्प्रष्टव्यरूपत्वानेति चेत् ; न, व्रणं स्पृशतोऽन्यस्यापि तवेदनावेदनं स्यात् । तच्छरीरे गृह्यमाणे चैतन्याग्रहणाद् विरुद्धधर्माभ्यासेन ने तादात्म्यम् । • तम देहकार्य देहगुणो देहात्मकं वा चैतन्यं किन्तु जन्मान्तरचैतन्योपादानमेव । जन्मा. दिजन्यचैतन्यपर्यावं जीवद्रव्यमिति ।
१. स्थाप्या भवति मु०। २.भथ स्थापके क०म०। ३. विनाशस्य अ० ब०। ४. स्थापकेम न स्थितिः म०प०। ५. करण मु०। ६. चेत् तर्हि मु०। ७. शोत्पत्तिराधार क०मु०। ८. मात्रकममिक० मु०। ९. ध्यासेन तादा मु०।
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कारिका १२.]
सर्वसिद्धिः। ६२४. अथ कथं परलोकशरीराच्छरीरान्तरसंचारः १ । वृद्धाविशरीराषस्थासंचारवत् । जथैकोपादानमावेन तदेकत्वात् न शरीरान्तरम् । पश्वाविशरीरं तु नैवम् । तदपि खनान्तिकशरीरसंचारदर्शनाद् अनैकान्तिकम् । किं च, शरीरान्तरे मनःसंक्रान्तिः केयबित् बदाहकत्वेनैव, नान्यथा । सा चेह पश्वादिशरीरेष्वप्युपलभ्यते । तत् कथं न शरीरान्तरसंचारोपलब्धिः। अथ प्रायतामात्रे संचारे परशरीरवत् स्वशरीरक्षतावपि न व्याकुलतादयः स्युः।। तदप्यसत् । पररकादिदर्शनेऽपि केषांचिद् व्याकुलितोपलब्धेरात्मशरीरक्षतावपि केषांचिदभावात् । तदनेकजन्मपरंपरावासनादाादात्मीयप्रहसद्भावे व्याकुलतादयः प्रवर्तन्त इति ।
६२५. अथ भवतु कार्यादतीतपरलोकानुमानम् , भाविनस्तु कथं ?, तदर्था च दानादिक्रियेष्यते ? । तदपि यत्किंचित् । सिद्धे हि' कार्यकारणभावे, यथा कार्यात् कारणानुमानम् , तथाऽविकलकारणात् कार्यस्यापि इत्यनेकान्तिकत्वाविदूषणं नैव संभवति ।
"कार्यकारणसद्भावात् चैतन्येनान्यचेतसः" इति । "एवं क्षणिकपर्यायपरिणामिनि संस्थिते।। गुणाः प्रकर्षमायान्ति कालेन सहकारिणा" ॥ [११]
६१. इति निगदितमेतत् केवलज्ञानहेतुः, कुशलमखिलबन्धो ज्ञानचारित्रदृष्टिः ।
सकलमलविहीनं साधनं तस्य सिद्धौ, कथयितुमिदमन्यद् वार्तिकस्साह कर्ता ॥ ॥
अन्त्यसामध्यवद्धेतुरित्यादि
अन्त्यसामध्यवद्धतुः संपूर्ण कार्यकृत् सदा ॥ ११ ॥
ज्योतिः साक्षात्कृतिः कश्चित् संपूर्णस्तत्ववेदने । ६२. हेतुः कारणकलापः । संपूर्ण इति अविकलः । सदेत्यवश्यमेव कार्यकारी । अन्यथा सर्व कार्योत्पत्तिर्न कदाचित् स्यात् । अन्त्यसामग्र्यवदिति व्याप्तिविषयोपदर्शनम् ।। कश्चिद विवादाभ्यासितः तत्त्वज्ञानोत्पत्तौ ग्रहोपरागाविसाक्षात्कारित्वादविकलकारण इति । प्रयोगश्च- यदविकलकारणं तदवश्यमेव कार्यमुत्पादयति । यथा अन्या कारणसामग्री । अविकलकारणश्च तत्त्वज्ञानोत्पत्तौ अतीन्द्रियमहोपरागादिसाक्षाद्रष्टा तज्जातीयेष्वतीन्द्रियेषु जीवादिषु कश्चिदिति । हेतुमेव समर्थयितुमाह-यस्य यज्जातीयाः पदार्थाः प्रत्यक्षाः, तस्सासत्यावरणे तेऽपि प्रत्यक्षाः । यथा घटसमानजातीयभूतलप्रत्यक्षत्वे घटः । प्रत्यक्षाय कल.. चिदतीन्द्रियजीवाविपदार्थसजातीयमहोपरागादयो भावा इति । न तावदयमसिद्धो हेतुः। यतो यो यद्विषयानुपदेशीलिङ्गाविसंवादिवचनरचनानुक्रमकर्ता स तत्साक्षात्कारी । यथास्मदादिरात्मीयानुभववचनरचनानुक्रमकर्ता । ग्रहोपरागादिशौखकर्ता व स, तस्मात् साक्षात्कारीति । न चापौरुषेयत्वेनासिद्धत्वमभिधानीयम् , तस्य पूर्वमेव निरस्तत्वात् ।।
१. तदपि खाग्निकशरीर मु०। २. क्रान्तिः तद्रा अ० ब०। ३. °दयः । तद अ००। ४. तदानेक क० मु०। ५. सिद्धे कार्य अ० ब०। ६. कारिवाविक क० मु०। ७. कारणमिति क.मु०। ८. कारणश्चातीन्द्रिक० मु०। ९. तज्जातीयेषु जीवा क०। १०. तापदयं सिमु.। ११. देशलिक०। १२. ग्रहोपरागादिसाक्षात्कारी तत्शास्त्रकर्तेति नचा क० मु०।
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ [१. सामान्य परि० १३. ननु बनुमानवाधितेयं प्रतिज्ञा । तथा हि-देशान्तरे कालान्तरे च यदूपं तदि. सर्वशवादे दानीतनचक्षुर्जनितप्रत्यक्षसमानजातीयप्रत्यक्षप्रायम् , रूपशब्दवाच्यत्वाद् इदानीमीमांस
. वनरूपवविति । एवं रसादिष्वपि पश्चानुमानानि भवन्ति । तथा यचक्षुर्जनिवं पक्षः। प्रत्यक्षं तद्देशान्तरादावपि नियतदेशकालरूपप्राहकं प्रत्यक्षशब्दवाच्यत्वाद् , इदानी• तनरूपप्रत्यक्षवदिति । एवं शेषेन्द्रियप्रत्यक्षेष्वपि पञ्चानुमानानि भवन्ति । तदुक्तम् -
"यजातीयैः प्रमाणैस्तु यज्जातीयार्थदर्शनम्।
उष्टं संप्रति लोकस्य तथा कालान्तरेऽप्यभूत् ॥" [लोक० २.१११] इति न च गृध्राविमियभिचारो वाच्यः । तेऽपि न स्वार्थमुलान्य वर्तन्ते । तदुक्तम् -
“यत्राप्यतिशयो राष्टः स स्वार्थानतिलानात्। दूरसूक्ष्मादिष्टौ स्यात् न रूपे श्रोत्रवृत्तितः॥"[को० २.११४] "येऽपि सातिशया दृष्टाः प्रशामेधावलैनराः।। स्तोकस्तोकान्तरत्वेन न त्वतीन्द्रियदर्शनात् ॥ प्राशोऽपि हिनरः सूक्ष्मानर्थान् द्रष्टुं क्षमोऽपि सन्। संजातीरनतिक्रामन्नतिशेते परान् नरान् ॥" इति [तत्पसका०३१६०,41] "एकशालविचारेषु दृश्यतेऽतिशयो महान्। मतु शालान्तरमानं तावन्मात्रेण लभ्यते॥ हात्वा व्याकरणं दूर बुद्धिः शब्दापशब्दयो। प्रकृष्यतेन नक्षत्रतिथिग्रहणनिर्णये॥ ज्योतिर्विध प्रकृष्टोऽपि चन्द्रार्कग्रहणादिषु । न भवत्यादिशब्दानां साधुत्वं ज्ञातुमर्हति ॥ तथा वेदेतिहासादिक्षानातिशयवानपि । न खर्गदेवताऽरष्टप्रत्यक्षीकरणक्षमः॥ दशहस्तान्तरं व्योमो यो नामोत्सुत्य गच्छति । न योजनमसौ गन्तुं शक्तोऽभ्यासशतैरपि ॥ तस्मादतिशयमानैरतिदूरगतैरपि । किञ्चिदेवाधिकंशातुं शक्यते न त्वतीन्द्रियम् ॥"
[तत्त्वसं० का० ३१६४-३१६९] इति । तत् स्थितमनुमानबाधितेयं प्रतिज्ञेति ।
६४. तथा, अभावप्रमाणबाधिता। तथा हि-प्रत्यक्षानुमानागमोपमानार्थापत्त्यमावेऽभाव• प्रमाणमेव विजयते । तेदभावमेव दर्शयितुमाह -
"सर्वोदश्यते तावदानीममदादिभिः।। इष्टोन चैकदेशोऽस्ति लिकं वा योऽनुमापयेत् ॥ नवागमविधिः कश्चिभित्यः सर्वशबोधकः॥"
[तत्त्वसं० का० ३१८६,३१८७] ६५. "वेवाहमने पुरुषं महान्तमादित्यवर्ण तमसः पुरस्तात् । तमेव विदित्वा मत्युमस्येति नान्यः पन्था विद्यते अयनाय" इति । तथा, "विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो, विश्वतो बाहुरुत विश्वतः पात् । संबाहुभ्यां धमति संपतत्रैवाभूमी जनयन् देव
१. मनुष्यजातिभाविनी प्रकृतिरदिव्यचक्षुष्वादिलक्षणा, ब-टि०। २. अन्तराद्व्यो अ० ब०। ३. प्रत्यक्षायभावम् , ब-टि०। ४. विदिलातिम मु०।
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कारिका १२.] मीमांसकस्य सर्वज्ञवादे पूर्वपक्षः । एक भास्ते” इत्यादेविद्यमानत्वात् , इति चेत् ; न, स्तुतिमात्रत्वात् एतेषां न प्रामाण्य मिति ।
तथा चाह - "न च मन्त्रार्थवादानां तात्पर्यमवकल्पते । न चान्यार्थप्रधानस्तेस्तदस्तित्वं विधीयते ॥ मचानुवादितुं शक्यं पूर्वमन्यरबोधितम् । अनादिरागमस्यार्थीनच सर्वशो नादिमान् ॥" "कृत्रिमेण त्वसत्येन स कथं प्रतिपाद्यते ॥ अथ तद्वचनेनैव सर्वज्ञोऽन्यः प्रतीयते ॥ प्रकल्प्येत कथं सिद्धिरन्योन्याश्रययोस्तयोः । सर्वज्ञोक्ततया वाक्यं सत्यं तेन तदस्तिता॥ कथं तदुभयं सियेत् सिद्धमूलान्तरादृते । असर्वशप्रणीतात्तु वचनान्मूलवर्जितात् । सर्वशमवगच्छन्तः स्वचाक्यात् किम जानते?॥"
[तत्त्वसं० का. ३१८७-३१९.] "सर्वसदृशं किंचित् यदि पश्येम संप्रति ।
उपमानेन सर्वशं जानीयाम ततो वयम् ॥" [तत्त्वसं• का. ३२१५] "उपदेशो हि बुद्धादेर्धर्माधर्मादिगोचरः ।
अन्यथा नोपपद्येत सर्वशो यदि नाभवत् ॥" [ तत्त्वसं० का० ३२१७] "बुद्धादयो ह्यवेदशास्तेषां वेदादसंभवः ।
उपदेशः कृतोऽतस्तैर्व्यामोहादेव केवलात् ॥"[ तत्त्वसं० १२२४] "येऽपि मन्वादयः सिद्धाः प्राधान्येन त्रयीविदः ।
त्रयीविदाश्रितग्रन्थास्ते वेदप्रभवोक्तयः॥" [ तत्त्वसं० ३२२८ ] तदेवम् -
"प्रमाणपश्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते ।
वस्तुसत्तावबोधार्थ तत्राभावप्रमाणता ॥" [ श्लोक• अभाव. १] ६६. तथोपमानबाधिता । तथा हि -
"नरान् दृष्ट्वा त्वसर्वशान् सर्वानेवाधुनातनान् ।
सत्सादृश्योपमानेन शेषासर्वशसाधनम् ॥" [तत्त्वसं० का०३२१६] इति । तदेवमनुमानाभावप्रमाणोपमानबाधितेयं प्रतिज्ञेति । ६७. भवतु वा, तथापि निष्फला । तथा हि
"समस्तावयवव्यक्तिविस्तरज्ञानसाधनम् । काकदन्तपरीक्षावत् क्रियमाणमनर्थकम् ॥ यथा च चक्षुषा सर्वान् भावान् वेत्तीति निष्फलम् । सर्वप्रत्यक्षदर्शित्वप्रतिज्ञाप्यफला तथा ॥ खधर्माधर्ममात्रज्ञसाधनप्रतिषेधयोः। तत्प्रणीतागमग्राह्य हेयत्वे हि प्रसिद्ध्यतः॥
१. जानीयामस्ततो क० मु०। २. सर्वज्ञसशः कश्चित् यदि दृश्येत सम्प्रति । तदा गम्येत सर्वज्ञसद्भाव उपमाबलात् ॥ तस्वसं०। ३. ये हि तावदवेद तत्वसं०। ४. सादृश्यस्योपमा तस्वसं०। ५. साधने अ० ब०। ६. षेधतः मु० ।
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न्यायावतारसूत्रवार्विकवृत्तौ [१. सामान्य.. सत्र सर्वजगत्सूक्ष्ममेदशत्वप्रसाधने । मस्थाने क्लिश्यते लोकः संरंभात् प्रन्यवादयोः॥"
[तत्त्वसं. ११३८-11] "ऐतब फलबजवानं याववादिगोचरम् ।
न तु वृक्षादिमिर्शातैरस्ति किश्चित् प्रयोजनम् ॥"[तत्तस० १२.१] "क्रत्वर्याः पुरुषार्थाध यावन्तः खदिरादयः। सर्ववृक्षमता तावत् तावत्स्वेव समाप्यते ॥ लताः सोमगुड्च्याचा:काधिधर्मार्थहेतवः। सिद्धान्तहानमात्रेण लतासर्वशताऽपि नः॥ मीहिश्यामाकनीवारप्रामारण्यौषधीरपि । ज्ञात्वा भवति सर्पको नानर्थकशतान्यपि ॥ तथा कतिपयेष्वेव यशानेषु तणेष्वपि । दर्भादिषु च बुद्धेषु वणसर्वशतेष्यते ॥ तृणौषधिलतावृक्षजातयोऽन्याः सहस्रशः। विविका नोपयुज्यन्ते तदज्ञानेन नाशता॥ यत्रापि चोपयुज्यन्ते व्यक्तयो जातिलक्षिताः। आतिमानोपसंहारातत्रापि व्याप्तिरस्ति नः॥ मतम व्यक्तिमेदानामनमिहोऽपि यो नरः । सर्पहत्वफळे प्राप्ते सर्वशत्वं न वाञ्छति ॥ जरायुजाण्डजोड्दसंखेदजचतुर्विधे। भूतप्रामेऽल्पकतोऽपि सर्वक्षफलमश्नुते ॥ पृथिव्यादिमहाभूतसंक्षेपक्षश्च यो नरः । सविस्तरानमिोऽपि सर्वज्ञान विशिष्यते॥ भूमेर्य एकदेशको भूमिकायेंषु वर्तते। सप्तद्वीपमहीशानं कनु तस्योपयुज्यते ॥ तथास्पेनैव तोयेन सिद्धं तोयप्रयोजनम् । सोयान्तराण्यविज्ञाय नाशदोषेण युज्यते ॥ वहेवानन्तमेदस्य ज्ञातस्योपासनादिभिः । पञ्चभिः कृतकार्यत्वादन्याशानमदूषणम् ॥ शरीरान्तर्गतस्यैव वायोः प्राणादिपञ्चके। हाते शेषानभिज्ञत्वं नोपलम्माय जायते॥ ध्योमध पृथुन: पारमशात्वाप्येकदेशविद।
नच व्योमानभिशत्वव्यपदेशेन दुष्यति ॥" धर्मकीर्तिनाऽप्युक्तम्
"बानधान्मृग्यते कश्चित् तदुक्तप्रतिपत्तये। अझोपदेशकरणे विप्रलम्भनशङ्किभिः॥ तस्मादनुष्ठेयगतं शानमस्य विचार्यताम् । कीटसंख्यापरिक्षानं तस्य नः क्वोपयुज्यते ॥ हेयोपादेयतस्वस्य साभ्युपायस्य वेदकः। यःप्रमाणमसाविष्टो न तु सर्वस्य वेदकः॥ दुरं पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु ।
प्रमाणं दूरदर्शी चेदेते गृध्रानुपास्महे ॥"[प्रमाणवा० १.३२-३५] १. एकंच ० ब०। २. फलदज्ञानं तत्त्वसं०। ३. 'तैः सर्वैः किश्चित् तस्वसं०।
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कारिका १२. ]
सर्वज्ञवादे पूर्वपक्षः ।
"धर्मज्ञत्वनिषेधस्तु केवलोऽत्रोपयुज्यते ।
सर्वमन्यद् विजानंस्तु पुरुषः केन वार्यते ॥" [ तत्त्वसं ० का ० ३१२८ ] "सर्वप्रमातृसंबंधिप्रत्यक्षादिनिवारणात् । केवलागमगम्यत्वं लप्स्यते पुण्यपापयोः ॥ एतावतैव मीमांसापक्षे सिद्धेऽपि यः पुनः । सर्वज्ञवारणे यज्ञस्तैः कृतं मृतमारणम् ॥ astu च्छिन्नमूलत्वाद् धर्मशत्वे हते सति ।
सर्वज्ञान पुरुषानाहुस्तैः कृतं तुषखण्डनम् ॥” [ तत्त्वसं० का ० ३१४२-३१४४]
१९. किन, सर्व सिद्धेऽपि न प्रतिज्ञातोऽर्थः सिद्ध्यति । तथा हि" यत् सत्यं नाम लोकेषु प्रत्यक्षं तद्धि कस्यचित् । प्रमेयज्ञेयव स्तुत्यै देधिरूपरसादिवत् ॥
शातर्यत्राप्यनिर्दिष्टे पक्षे न्यूनत्वमापतेत् ।” [ तत्त्वसं• का० ३२३५,१११६] "यदि बुद्धातिरिकोऽन्यः कश्चित् सर्वशतां गतः ॥ बुद्धवाक्यप्रमाणत्वे तज्ज्ञानं कोपयुज्यते ।” [ तत्वसं० ३२१७] "सर्वज्ञो यस्त्वभिप्रेतो न श्रुत्यार्थेन वाऽपि सः ॥" [ तत्वसं० १९३६ "विज्ञायते यतः पक्षः साध्यत्वेनेप्सितो भवेत् । यस्वीप्सिततमं पक्षं विशिष्यात् तस्य संशया ॥ यावज्यं जगत्सर्व प्रत्यक्षं सुगतस्य तत् । तैरेष हेतुभिः सर्वैः घटकुटयादिरूपवत् ॥ तत्र नैवं विशिष्टोऽपि पूर्वस्मादेष भिद्यते । विशिष्टप्रहमात्रेण हेतोर्नैव विशिष्टता ॥ शक्त्या हि यदा हेतुः दृष्टान्तानुग्रहेण वा । पक्षान्तरेण तुल्यः स्यात् तदा काऽस्य विशिष्टता १ ॥ सत्प्रमेयत्वमित्येतद् यतोऽन्येष्वपि वर्तते । साधनं नियमाभावात् तेनाकिंचित्करं हि तत् ॥" "नरः कोऽप्यस्ति सर्वशः से तु सर्वत्र इत्यपि । साधनं यत् प्रयुज्येत प्रतिज्ञामात्रमेव तत् ॥ सिसाधयिषितो योऽर्थः सोऽनया नाभिधीयते ।
स्तूयते न तत्सिद्धौ किञ्चिदस्ति प्रयोजनम् ॥ यदीयागमसत्यत्वसिद्धौ सर्वज्ञतोच्यते । म सा सर्वशसामान्यसिद्धिमात्रेण लभ्यते ॥ यावद् बुद्धो न सर्वज्ञस्तावत्तद्वचनं मृषा । यत्र वचन सर्वचे लिखे तत्सत्यता कुतः ॥ अन्यस्मिन हि सर्वज्ञे वचसोऽन्यस्य सत्यता । सामानाधिकरण्ये हि तयोरङ्गाङ्गिता भवेत् ॥”
[ तत्त्वसं० का० ३१३०-३४]
४. येऽपि विच्छिन' तस्वसं० । मात्रेऽपि निर्दिष्टे पक्षे तत्स्वसं० । पूर्वैः क० मु० । १०. सत्त्वात् प्रमेयमि
१. निषेधयेत् तस्वसं० । २, ॰द्विजानानः पुरु° तत्त्वसं० ३१२८ । ३. 'संबद्धल तस्वसं० ॥ ५. यत् सर्वं नाम तत्त्वसं० । ६. 'वस्तुसाधि° मु० । ७. ज्ञान ८. सर्वज्ञ इति योऽभीष्टे नेत्थं स प्रतिपावितः तत्पसं० २ मु० । ११. सर्वज्ञः तत्सर्वशत्वमित्यपि तस्वसं० । १२. प्रि तरवसं० । १४. सिज्येस तस्वसं० । १५.
न्यूनमेव तद् तत्त्वसं० । १३.
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ [१. सामान्यल० परिक ११.. "तदेवं दोषदुष्टस्य पक्षस्यास्य न पक्षता।
इदानी हेतुदोषेण हेतोषणतोच्यते॥ बचसोऽपौरुषेयत्वं पूर्वमेव स्थितं यदा। मष्टमुष्ट्यादिकं मैव कृतं पुंसास्ति किंचन ॥ एवं तावदसिद्धत्वमनैकान्तिकता तथा। पारम्पयोपदेशेन पयसा संप्रवर्तनात् ॥ असत्यायच तद्वाक्यं तेन तोर्षियता।
एवं सर्वक्षतासिद्धिः कथश्चिमोण्पद्यते ॥” इति । ६११. अत्रोच्यते
"वशोत्पाचापि मानानि मीमांसा दोषवाहिनी । सहैव दशमिः पुत्रैऔर वहति गर्दमी॥ यत्साध्यबाधनायोकं प्रमाणदशकं परैः। . प्रामाण्ये तद्विपस्यैषां बहु स्वादसमासम् ॥"
"तच्छन्दवाच्यतामा प्रामाण्यं यदि कल्प्यते ।
ममानं विधिवाक्यं स्यादीश्वरस्य च सिद्धता। देवाहमने पुरुषं महान्तमित्यादिवशेदवयोऽप्रमाणम् । तच्छन्दवाच्यत्वसमानभाषाभूधरावेरपि कतसिद्धिः॥
संस्थानशब्दवाच्यत्वं यतस्तस्यापि विद्यते। घटवद्धिमत्कर्ता सेन तत्रापि सिध्यत॥ विशेष परिहाराय यदि कल्प्येत कश्चन ।
नियोगादिस्तदा तस्य दोषाः शासकृतोदिताः॥" ६१२. तया हि-यत् प्रमाणगोचरचारि न भवति तन सव्यवहतिपयमवतरति । यथा नियोग, व्योमोत्पलम् । न भवति च नियोगः प्रमाणगोचरचारीति व्यापकानुपलब्धिः । लण्डनम् । तथा हि-किमसौ स्वतन्त्र इज्यते, परतत्रो वा ? । न तावत् पटाविपदार्यवत् स्वतत्रोऽध्यक्षतः प्रतीयते । नाप्यनुमानात्, तत्सद्भावे लिङ्गाभावात् । न च पुरुषप्रवृत्तिर्लिङ्गम् , तस्याः फलामिलापकार्यत्वात् । अन्यथा "स्वर्गकामः" इति फलोपदर्शनं न विदण्यात् । अथ प्रचण्डप्रमुनियोगात् फलाभिलाषमन्तरेणापि प्रवर्तमानो दृश्यते । तन्न, तत्रापायपरिहारस्वैव फलत्वात् । नापि शब्दकप्रमाणसमधिगम्यता तस्य वाच्या, यतः शब्देन प्रतीयमानोऽसौ xकि संबढेन प्रतीयते, असंबद्धन वा ? । असंबद्धेन प्रतीतातिप्रसंग: स्यात् । संबद्धेनापि किं स्वाभाविकसंबन्धात्, साङ्केतिकाद् वा? । प्रथमपक्षे बालगोपालादेरपि प्रतीतिप्रसंगः । नयाकाशं अनाकाशं कस्यचित् । संकेतोऽपि नियोगे प्रतीतेऽप्रतीते वा ? । यद्यप्रतीते तदाऽतिप्रसाः स्यात् । प्रतीतिश्च किं तेनैव शब्देन शब्दान्तरेण वा ? तेनैव चेत्, कि संकेतेन । इतरेतराश्रयत्वं च स्यात् । शब्दान्तरेण चेत् ; तदपि शब्दान्तरम् गृहीतसंकेतं "प्रवर्तते । पुनरपि सहेतप्रहः शन्दान्तरेणेत्यनवस्था ।
१, तदेव मु०। २. प्रमाणं क०मु०। ३. वाच्यं स्यामु०। ४. विशेषपरि' म०प०। ५. तथापि मु०। ६. व्योमेत्यलम् मु०। ७. संबन्धेन मु०। ८. प्रतीतावप्यवि.क०। ९. प्रवर्तेत मु०।
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कारिका. १२.].
नियोगखण्डनम् ।
.६१३. किवासानेकोऽनेको वा ? । एकश्चेत् सर्वपुरुषाणां नियोगः प्रतीतः स्यात् । अथ विपर्ययात् न परस्येति चेत्; तवापि पक्षपातादिति समानम् । अनेकश्चेत् प्रतिपुरुषमसाधारणतथा न संकेतक्रिया स्यात् । किश्नं, शब्दप्रमाणैकसमधिगम्यतया सत्वे आकाशकुसुमस्यापि सस्वमासन्येत, विशेषो वा वक्तव्यः । न च शब्दप्रवृत्तिमात्रेण सत्वं युज्यते । अन्यथा दोराः पत्र (ण) गरीत्यादावपि सवैमासज्येत । तन कचित् स्वतत्रो नियोगो वाक्यार्थः प्रतीयते ।
१४. परतोऽपि किं तत्कार्यतया, सद्धर्मतया वा ? । न तावत् प्रथमः पक्षो यतः किमसौ या कार्यः, नियोज्यैकार्यः, शब्दकार्यो वा ? । न तावद्यागकार्य:, तस्य तदानीमनिष्पन्नत्वेनाभावात् । नापि पुरुषकार्यः, पुरुषस्य पूर्वमपि सद्भावेन तद्भावप्रसङ्गात् । नापि शब्दकार्यः, तदा हि न शब्दस्य वाच्यः स्यात्, कार्यत्वात् । न च वैदिकस्य शब्दस्य 10 नित्यत्वेन क्रमयौगपद्याभ्यां जनकत्वं युज्यते । तद्धर्मतायामपि किमसौ यागधर्मः, पुरुषधर्मः शब्दधर्मो वा ? । न तावद्यागधर्मः, तस्याविद्यमानत्वेन तद्धर्मस्याप्यविद्यमानत्वात् । अविद्यमानविषयैत्वे च वाक्यं निरालम्बनमपोहमात्रविषयमेव स्यात् । नापि पुरुषधर्मः, तथाहि पुरुषाव्यतिरिक्तः स्यात्, अव्यतिरिक्तो वा १ । अव्यतिरेके पुरुषस्य सर्वथा निष्पमत्वात् न नियोगरूपता स्यात् । नियोगो' हि अनुष्ठेयोऽर्थोऽभिधीयते । निष्पन्नस्य चानुष्ठाने ॥ मनुष्ठानविरतिर्भवेत् । अथ निष्पन्नस्यापि किंचिदनिष्पन्नमस्ति । तन, निष्पन्नानिष्पन्नयोर्विरोधेन तादात्म्याभावप्रसङ्गात् । अथ व्यतिरिक्तः; ननु यावदसौ तस्य धर्मः तावदन्यस्य किं न भवति ? । तस्यैवाधारशक्तिर्नान्यस्येति चेत् सापि किं नान्यत्रीऽऽधीयते । तां प्रति तस्यैवाधारशक्तिर्नान्यस्येत्यभ्युपगमेऽनवस्था । न च हेतुफलभावादन्यो व्यतिरेके" संबन्धोऽस्ति । तद्भावे च न समानकालता । असमानकाळयोर्न में धर्मधर्मिभावः । एतच शब्द- 20 धर्मवायामपि दूषणं वाच्यम् ।
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१५. किन, यद्यसौवस्ति; न पुरुषः प्रवर्तेत । न हि कश्चित् निष्पन्ननिष्पादनाय प्रवर्तते । अप्रवर्तकस्य च वाक्यस्य न प्रामाण्यमुपेयते । अथ नास्ति; तथापि न प्रामाण्यम्, अविद्यमानविषयत्वात् । तेने कश्चित् नियोगो वाक्यार्थतया प्रतीयते ।
१६. अथ शब्दाद 'यागादिविषये नियुक्तोऽहमनेन' इति प्रतीतेः कथमप्रतीतिः ? | तथाहि - नियोक्ता शब्दो वेदे पुरुषाभावात् । नियोज्यः पुरुषः । यागो विषयः । सकलं चैतत् प्रतीयते । तत् कथं प्रतीतावध्यप्रतीतिः १ । तदसत् । नेयमगृहीतसंकेतस्य प्रतीतिरुदेति । किं तर्हि ? । येन यागं कश्चित् कुर्बाण उपलब्धस्तस्य तत्रैव गृहीतसंकेतस्त्र पूर्वदृष्टानुसारेण विकल्पिका वुद्धिरुत्पद्यमाना अन्यापोहविषयैवोत्पद्यते । नातस्तस्वव्यवस्था ।
१. नियोगप्रतीतिः क० मु० । २. दारः मु० । ३. सत्त्वं समासज्येत मु० क० । ४. 'तंबा धर्मतवा मु० क० । ५. नियोगकार्यः मु० 1 ६. सद्भावे तद्भाव ब० । ७. विषय वाक्यं कु०
८. नियोगेन हि मु०९. छानेन निरविर्भ° अ० । १०.
।
१२. मयोर्न धर्म मु० क० १३. नियोगः अ-टि कवि मु० क० १६. कर्म न प्रतीतिः ० ० ।
त्राभिधीयते क० । ११. कसं ० ० ॥ १४. र्तते । प्रवक०सु०- १५ खाद १७. तदेव मु० ।
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म्यायावतारसूत्र वार्तिकवृत्तौ
१७. एतेन भावनादयोऽपि वाक्यार्था निरसनीयाः ।
[ १. सामान्यल० परि०
" इति वाक्यस्य ये वाच्यं नियोगं संप्रचक्षते । सरस्य ते तैक्ष्ण्यं नूनं व्यावर्णयन्त्यलम् ॥ विधेरपि विधेयत्वेऽनवस्यैव प्रसज्यते । स्वरूपवाचकत्वे तु न स्यादन्यविशिष्टता ॥ विधिवाक्यस्य कृच्छ्रेण विशेषपरिकल्पने । कैरथ भक्षितः काकैरध्यक्षे येन नेष्यते ॥ नकञ्चरबराहादिप्रत्यक्षेऽयक्षवीक्षितम् । विशेषमाशिपन्मूढः कथं नाध्यक्षवाधितः ॥ मनुष्यत्वे सतीत्येवं यदि हेतोर्विशेषणम् । मनुष्यत्वं तदा हेतुः पूर्वस्य स्यादहेतुता ॥ जैमिन्यादिर्विशेषज्ञस्तदा नैव भवेत्तव । मनोन्मेषस्य चोत्कर्षः कनु नाम व्यवस्थितः ॥ स्तोकस्तोकान्तरशत्वं येन पुंसः प्रसाध्यते । इन्द्रियान्तरविज्ञानं नेन्द्रियान्तरवस्तुनः ॥ ग्राहकं 'चेति यो दोषः सोऽतीन्द्रियदृशः कुतः । मथातीन्द्रियविज्ञानं न दृष्टं केनचित् कचित् ॥ विनेन्द्रियं च वैशद्यं कुतस्तस्य भविष्यति । सर्वदेशेषु कालेषु सर्वशो नेति यो" वदेत् ॥ तस्य सर्वज्ञता प्राप्ता सिद्धं चास्मत्समीहितम् । कामादिभावनाजातं विज्ञानं विशदं यदा ॥ तदेन्द्रियसमुत्थत्वं वैशद्ये नोपयोगवत् । अक्षाभितत्वमध्यक्षे व्युत्पतेरेव कारणम् ॥ निमित्तं तु पुनस्तस्य वस्तुसाक्षात्क्रिया मता । तदेवं जैनमध्यक्षं नानुमानेन बाधितम् ॥ न प्रमाणमभावास्यं बाधकं कुत एव तत् । सर्व संबन्धि वाध्यक्षं नेति तत्रेति यो घवेत् ॥ तस्य सर्वज्ञता प्राप्ता नैकस्यास्य निषेधकृत् । अनुमानं निषेधाय यच्येतास्य किंचन ॥ असिद्धायाश्रयासिद्धिः सिद्धौ हेतोर्विरुद्धता । अर्थ: "को नोपपद्येत विर्नोऽसर्वज्ञतां तव ॥ 'अपौरुषेयता नो चेन्नास्याः पूर्वे निषेधनात् । नोपमानस्य मानत्वं बाधकं कुत एव तत् ॥ विशेषाः पुंसि" दृश्यन्ते तेनादृष्टेषु का कथा ।"
" तथाहि । केचित् सकलशास्त्रज्ञाः केचिन किंचिद्विदन्ति । केचिचतुर्वेदपाठकाः । केचि गायत्रीमपि न पठन्ति । तत् कथमदृष्टेषु पुरुषेषु साम्यं सिद्धयेत् ? ।
१८. ननूकं 'दशहस्तान्तरम्' इत्यादि ।
१. मिचिदपि म० क० ब० ।- २. विधिबाधस्य मु० । ३. विशेषः परिकल्पये मु० । ४. कैरेव ० । कैरने मु० क० । ५. येनेष्यते क० । ६. प्रत्यक्षेष्यक्षवी मु० । ७. तु माने ब ० । 4. केवि सु० । ९ शेषु राध्रेषु मु० । १०. योऽवदत् मु० । ११. वाध्य० मु० । १२. गावास मु० । १५. पुंय सु० क० ।
१३. केनोप म० मु० क० ।
१४. बिना सर्व क० अ०
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कारिका १२. ]
सर्वज्ञ समर्थनम् ।
" तदससुल्यजातीयपूर्वबीजप्रवृत्तयः । शेयेषु बुद्धयस्तासां सत्यभ्यासे' कुतः स्थितिः ॥ मचैवं लङ्घनादेव लङ्घनं बलयतयोः । तत्वोः स्थितरूपत्वात् लङ्घनस्य स्थितात्मता ॥ बलयतोत्थमभ्युच्चैर्लङ्गनं हि गरुत्मति । भूयते तेन मानत्वं नोपमानस्य युक्तिमत् ॥ न चागमविधिः कश्चित्तनिषेधाय वर्तते । तनास्य बाधकं किंचित् साधकं प्रतिपादितम् ॥ धर्माधर्मज्ञतामात्रात् सिद्धमस्मत्समीहितम् । यदुकं तदसत् माननिष्ठा नेच्छानुवर्तिनी ॥ " न हि प्रमाणं वस्तुनि प्रवर्तमानं विभाषया प्रवर्तते, तेन - " समस्तवस्तुविस्तारि सार्वशज्ञानमक्रमात् । प्रतियजगतः कार्ये किमन्यत् परिवर्जयेत् ॥ धर्माधर्मौ तयोः कार्ये वेत्ति नासकलार्थवित् ।"
१९.
तदुक्तम् - "जे पगं जागर से सव्वं जाणइ ।” [ आचा० १.३.४.१२२] तथाहि - सकलकर्म- ॥ कारणं सर्वप्राणिकर्माणि । तत्कार्य नरकादि । तत्कारणकार्य परंपरायाः परमाण्वन्तपरिज्ञाने कथं न सर्वशता ? । तस्मादावरण विगमादनन्तवस्तुज्ञानम् । न च वस्तुपरिसमाप्तिः । यथाहि वयमनाद्यनन्तरूपतां विकल्पविज्ञानेन रात्रिंदिवादीनां बुद्ध्यामहे न च तत्परिसमाप्तिः, तथा भगवतोऽप्यनाद्यनन्तरूपतया साक्षात्कुर्वतो न विरोधः । अकर्रणाधीनतया च न रखास्वादनप्रसङ्गः । अत एवापराधीनतयाऽनियतविषयम् । न चातीतानागतस्य वस्तुन इदानीमसस्वनासद्विषयम् तदिति वाच्यम् । तत्कालालिङ्गितत्वेन तस्य सत्वात् । तदापि हि यदि वस्तु न भवेत् तदा तन्निर्विषयं स्यात् । अन्यथा चोदनाबुद्धिरपि कथं भूतभवद्भविष्यप्रस्तुविषयिणी सत्योऽभ्युपेयते । तदुक्तम्
" किंच तत्कालयोगेन तस्य साक्षात्क्रिया यदा । तदेदानीमसरवेपि तस्यास्तित्वमदुर्घटम् ॥”
अभ्र बस्न भावी सुतस्तदनुभूयमानतया दृष्टस्तेनाप्रतीयमानतायां कथमभ्राम्यता ? सद्ध्यसत्
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"यथा स दृद्धः शरदादिकालयुक्तस्तथा तस्य न बाधितत्वम् । तत्कालयोगस्तु न तेन दृष्टस्तथाप्रतीतावपि नास्ति दोषः ॥" य विशेषापरिज्ञाने दूषणमभाणि तदसत् । यतश्चूडामणिप्रभृति केवलीनामतीन्द्रियार्था - 10 नामईत्प्रणीतस्वेन सुप्रसिद्धत्वात् । यच्चान्यदुक्तम् तदसंबद्धतयोपेक्षितमिति । विस्तरेण सर्वशबाइटीकायामुक्तमिति बिरम्यते ।
बापाकडूविकलं निखिलप्रमाणसामान्यलक्षणमिदं निवृतं स्वबुद्धया ।
चैतेम तीर्थिकमतानि निरस्य नीतं ज्ञानं व्यतीतमनसौं परमां प्रतिष्ठाम् ॥ [१२] ॥ इति श्रीशान्त्याचार्यविरचितायां वार्तिकवृत्तौ प्रथमः परिच्छेदः ॥
१. भ्याकुतः क० । २. 'वया वर्तते अ० ब० मु० । ३. सर्वज्ञज्ञान मु० क० । ४. प्रतिपद्यमानम् अ- वि० । ५. यथाहि सु० । ६. परंपरापरमार्थं परि° अ० । ७. वस्तुपरिज्ञानपरिस' क० मु० । ८० क० ९. सत्ताभ्यु० सु० क० । १०. यदपरि० ० । यद्यपरि° ० १२. बाद ० १२. क इति क० । १३. यत्तेन तैर्षिक मु० १४. मनसः ० ०
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२. प्रत्यक्षपरिच्छेदः।
६१. एवं प्रमाणसामान्यलक्षणमभिधाय इदानीं संख्या-लक्षण-गोचर-फलविप्रतिपत्तिनिराकरणद्वारेण विशेषलक्षणमभिधातुकामो व्यक्तिभेदकथनमन्तरेण प्रतिव्यक्तिनियतं लक्षणं कथयितुं न शक्यत इति व्यक्तिभेदमेव तावत् कथयितुमाह-झात्रपेक्षमित्यादि ॥
ज्ञानपेक्षं प्रमेयस्य द्वैविध्यं न तु वास्तवम् ॥१२॥ ६२. न हि नीलपीतवद्वस्तुस्थित्या प्रमाणविषयस्य किंचिद्वैविध्यमस्ति । किन्तु ज्ञातारमपेक्षते-झोत्रपेक्षम् । तथाहि - तदेव वस्तु कस्यचित् प्रत्यक्षम् , कस्यचित् परोक्षमिति ।
६३. ननु इदं द्वैविध्यं केन प्रतीयते ? । न तावत् प्रत्यक्षेण, परोक्षे तस्याप्रवृत्तेः । प्रवृत्ती वा प्रत्यक्षतैव स्यात् । अकस्माद् धूमदर्शनात् परोक्षे वह्नौ प्रतीतिः प्रत्यक्षा, नानुमानम् । ॥ यतोऽनु व्याप्तिस्मरणात् मानम् अनुमानम् । न चेह तदस्ति । नैतदस्ति । यतोऽक्षासंबनिधन्यपि वस्तुनि यद्यक्ष ज्ञानं प्रवर्तेत. तदा सकलपरोक्षवस्तुविषयं प्रवर्तेत । न हि संनिहितासन्निहितयोः परोक्षत्वे विशेषोऽस्ति । अथ संबद्धधूमदर्शनात् नातिप्रसाः । तदसत् । यतः किं तदेव धूमदर्शनं परोक्षवह्निविषयं कल्प्यते ?, किं वा तजनितमन्यदिति । न ताव:
तदेव । न हि अन्यवस्तुपाहकमन्यस्य ग्राहकम् । न च तथाप्रतीतिरस्ति । न. हि तद्देशो"न्यदेशो वा वहिस्तदर्शने प्रतिभासते । ननूक्तम् 'संबद्धधूमदर्शनात् तदर्शनम्' इति । उक्तनिदम्, किन्त्वयुक्तम् । यतो यद्यप्रतीतसंबन्धोऽपि धूमो धूमध्वजप्रतीतिं जनयति किं न मालिकेरद्वीपायातस्यापि ? । अथ प्रतीतसंबन्धस्याभ्यासाद् अकस्मात् प्रतीतिः. संबन्धस्मृति मापेक्षते इत्युच्यते । तन्त्र, स्मरनेवान्तीनं संबन्ध तथा प्रत्येति, अन्यथा अंग्रहीतसंबन्धलास्य च को विशेषः । किन्न, प्रत्यक्षात् प्रतीती विशेषरूपस्य किं न प्रतीतिः । कथं न दूरादिति चेत्, न, तत्रापि व्यक्तिविशेषाप्रतीतावपि भाखरस्य रूपस्य प्रतिभासनात्, न च क्येहेति । तन परोक्षे प्रत्यक्षं प्रवर्तत इति । अन्यथा परोक्षमेव तन्त्र स्यात् । न घेतरेतराभयत्वम् । यतः स्वकारणात्साक्षात्कारि विज्ञानमुत्पंद्यमानं स्खविषयस्य प्रत्यक्षता व्यवस्थापयति । वन्न परोक्षे प्रत्यक्षस्य प्रवृत्तिरिति । नाप्यनुमानस्य प्रत्यक्षे । न च मानान्तरमस्ति । सद्भावे का विषयद्वैविध्यादित्यनर्थकमिति ।
१४.-अत्रोच्यते । प्रत्यक्ष हीदंतया स्वविषयं परिच्छिदद्यदेवं न भवति तत् सकलमेव परोक्षं व्यवस्थापयति । तथा परोक्षमप्यनिदन्तया खविषये प्रवर्तमानं ततोऽन्यत्प्रत्यक्षमिति व्यव. स्थापयति । न च परस्परमनन्वयात् कस्य द्वयप्रतीतिरिति वाच्यम् । यस्मान्न झानमात्मनः सर्वथा भिनम् । किन्तु आत्मैव कर्मक्षयोपशमादिन्द्रियद्वारेण लिनद्वारेण वा स्पष्टास्पष्टतया वस्तु प्रतिपद्यत इति कथमनन्वयः ? । [१२]
१.शानापेक्ष मु०। २. अथ कस्मा' क० ब०मु०। ३. संबद्धपि मु०। ४. पक्षले क०। ५. कल्पते अ० । कथ्यते मु०क०। ६. संबन्धस्य (पं० १७) च को विशेषः। (पं० १९)।क०। ७. अन्यथा गृहीत-२० मु०। ८. प्रत्यक्षाप्रतीते मु०।९. अन्यच्चापरोक०।१०. मुत्सायमा मु०। ११. भन्वयातू भु००। १२. ऋथमन्वयः मु००।
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ख्यानि
कारिका १४.] अनुमानप्रामाण्यखापनम् । ६१. तदेवं विषयवैविध्यं व्यवस्थाप्येदानीं तयोः लक्षणमाह -दासमेत्यादि ।
दूरासनादिभेदेन प्रतिभासं भिनत्ति यत् । तत् प्रत्यक्षं परोक्षं तु ततोऽन्यद्वस्तु कीर्तितम् ॥१३॥
तनिमित्तं द्विधा मानं न त्रिधा नैकधा ततः। ६२. दूर चासनं च ते आदिर्यस्य खच्छावरणधनावरणादेः स तथा । दूरासन्नादिश्चासौ ।
भेदश्च तेन प्रतिभासं भिनत्ति । ज्ञानस्य स्पष्टास्पष्टत्वं यद्वस्तु करोति तत् प्रत्यक्षम् । विषयस्य तथाहि-प्रत्यक्षे प्रतिभासमानं दूरे घनावरणाच्छादितं चास्पष्टम् , निकटे लक्षणम् । स्वच्छापरणावृतं च स्पष्टम् । न चैवं धूमात् प्रतीयमानो बहिः, दूरासमा. विष्वप्येकरूपतया प्रतिभासनात् । अत एव आह - परोक्षं तु ततोऽन्यद्वस्तु कीर्तितम् पूर्वाचारिति ।
६३. इह प्रामाण्यं यद्यनिमित्तं स्यात् सर्वत्र भवेत् । न चार्थवत्त्वमन्तरेणान्यनिमित्तं प्रमाणसं- संभवति । न झनकेन ज्ञानमात्रेण कस्यचित् प्रयोजनं, हिताहितार्थ च तदुक्तम्। यमः अतो विषयवत्तया प्रामाण्यं व्याप्तम् । तदभावात् प्रत्यक्षपरोक्षाभ्यामन्यस्य न प्रामाण्यम् । अत आह-तमिमित्तं द्विधा मानं ने विधेति । विधेत्युपलक्षणं चतुर्धादेः । प्रयोगश्च-यदर्थवन भवति तन्म प्रमाणम् । यथोभयाभिमतं मिथ्यानानम् । नास्ति च प्रत्यक्ष परोक्षव्यतिरिक्तस्स झानस्यार्थवत्त्वमिति व्यापकानुपलब्धिः । इयं चाप्रे साधयिष्यते । -
६४. तथा, यत् यनिमित्तं तत् तस्मिन् सति भवत्येव । यथान्त्यबीजादिसामग्रीनिमितोअसुरः । अस्ति चानुमानादौ प्रामाण्यव्यवहारनिमित्तम्, अन्यथा प्रत्यक्षेऽपि तम्यवहारो न स्माद् अन्यनिमित्ताभावात् । अत आह-नैकवेति । ६५. तथा,
"प्रमाणेतरसामान्यस्थितेरन्यधियो गते।
प्रमाणान्तरसावा प्रतिषेधाच कस्यचित् ॥" अयं हि तार्किकचक्रचूडामणिमन्यश्चार्वाकोऽनुमानमङ्गीकुर्वाणोऽपि उन्मादानावबुध्यते पराकः । तथाहि-प्रत्यक्षेणाशेषप्रत्यक्षव्यक्तीरप्रतिपद्यमानोऽप्यर्थवत्त्वेन तासां साकल्येन प्रामाण्यं व्यवस्थापयभनुमानव्यक्तीनां प्रत्यक्षेणाग्रहणेऽपि प्रामाण्यनिमित्ताभावेन अप्रामाण्य व्यवस्थापयननुमानं प्रतिक्षिपन् कथं नोन्मतः । व्याहारादिलिजाचाप्रत्यक्षं पर प्रतिपय वदर्य शासं रचयन्कथमनुमानं नाभ्युपैति । तथा, अनुमानप्रामाण्यं विना 'नानुमानं प्रमाणमिति' खवचनमभ्युपगम्यानुमानप्रतिषेधं कुर्वाणः स्ववचसैव तिरस्क्रियते । परलोकादो प्रत्यक्षं न प्रवर्तते, तेन च तदभावं करोतीति महत्प्रमाणकौशलमस्य । प्रत्यक्षनिवृत्तेरभाष इति चेत; सा कि प्रत्यक्षा सती वराकी तदभावं प्रत्येति किं वा लिङ्गभूता ? । न तावत् ।
१. प्रतिभासन्ते शामु०। २. मैवं मु० क०। ३. विषयवत्ता अ-टि०। ४.न विषय 40 बक०। ५. 'न्धिश्चाने मु०। ६. मित्तं तस्मिन् मु०। ७. प्रत्यक्षं मु००। ८. परां प्रति म०प०। ९. अनुमानं प्रामाण्याविनामावि नानुमानं प्रमा० म०प० । अनुमाव: प्रामाण्यं विनानुमानं न प्रमा मु०। अनुमानप्रामाण्याविनानुनुमान प्रमाक०। १०. प्रतिबन्ध भ.ब। ११. 'माणकोशक०।
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ
[ २. प्रत्यक्षपरि०
प्रत्यक्षा; न हि प्रत्यक्षाभाव: प्रत्यक्षम्, अन्यथा तदभाव एव न स्यात् । यदि लिङ्गभूता; सा किं तदभावाविनाभूती, किं वा नेति ? । यदि न; तदा कथमेकान्तेन गमयेत् ? । refवनाभूता; कथं नानुमानमिति १ । [ १३-१४ ]
९१. एवमेकत्वसंख्यां निरस्यानेकत्वसंख्यां निरस्यन्नाह - सादृश्यमित्यादि ।
B
सादृश्यं चेत् प्रमेयं स्यात् वैलक्षण्यं न किं तथा ॥ १४ ॥ ६२. इह 'यथा गौस्तथा गवयो यथा गवयस्तथा गौः' इत्युपमानम् । न तावद्गोर्गेवयव्यक्तिविषयमस्य प्रामाण्यम्, तस्याः प्रत्यक्षेण प्रतिपन्नत्वात् । सादृश्यविषयमिति चेत्; महिषगवयवैलक्षण्ये मानान्तरं स्यात् । सादृश्याभावरूपत्वाद् वैलक्षण्यस्य नेति चेत्; बैलक्षण्याभावरूपं सादृश्यं किं न भवति ? |
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६३. अपि च किमिदं सादृश्यम् ? । न तावत्सामान्यम्, विजातीयैयोस्तस्यानभ्युपगमात् । ae afसाधकत्वं सादृश्यं तत्संज्ञाकरणं चोपमानस्य फलम् । तथाहि - गवाभावे गर्मबालंभनेऽपि तथाविधधर्मोत्पत्तिरिति । तर्हि मृतमिदानीं भट्टसामान्यम्, जीवितं सौगतसानान्यम् । सौगतस्यापि हि बाहदोहींचे कार्थक्रियाकारित्वं सामान्यनिबन्धनम् । तदर्थिनो गोsयक्तिषु सामान्यमन्तरेणापि संज्ञाकरणमुपपत्स्यत इति किं तत्कल्पनया ? । यच धर्मसा1 धत्वं हिंसायामपि तदलं पापकथयेति । एवंविधेन च कल्पितेनार्थेनार्थवत्वे प्रमाणेयचा न स्यात् । तत्रोपमानं विषयवत् । [१४]
६१. तदेवमुपमानस्य प्रामाण्यं निरस्यार्थापत्तेर्निरस्यन्नाह - अर्थापत्तेरित्यादि । अर्थापत्तेर्न मानत्वं नियमेन विना कृतम् ।
२. इह पूर्व सति नियमेऽनुमानत्वं प्रत्यपादि । इदानीम् अनियमे तस्याः प्रमाणत्वं * अर्थापत्तेः चक्षुर्हष्टान्तेने प्रतिपादितं निराक्रियते । चक्षुषोऽपि हि रूपे एकसामग्रयधीनतापृथक्प्रामा- लक्षणोऽस्त्येव नियमः । अन्यथा यतः कुतश्चिद् अन्यत् सर्वं प्रतीयेत । नचैवम् । तो नियमेन विना कृतं रहितं नार्थापत्तेः प्रामाण्यमिति ।
व्याभावः ।
उपमान
निषेधः ।
६३. अत एवास्याः षड्भेदकथनमसत् । तथाहि - हस्तस्फोटादेर्वहेर्दाहक शक्तिशानं कार्यानुमानात् न भिद्यते । न च शक्तिः काचिदस्ति । दाहस्वरूपमेव हि मन्त्रादिना तिरस्क्रियते । * अन्यथा किं तस्य रूपं स्यात् । तन्न प्रत्यक्षपूर्विकाऽर्थापत्तिः । नाप्यनुमानपूर्विका । साहि देशान्वरप्राप्तेरादित्यगत्यनुमाने तद्गमनशक्तिप्रतीतिरूपा । तत्रापि न काचिच्छक्तिः । यदि वा समर्थकारणानुमानं तदिति । तथा शब्दपूर्विका 'पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते' इति दिवाभोजननिषेधं " शब्दादवे रात्रौ भोजनप्रतीतिरर्थापत्तिरिति । खापि कारणानुमानान भिद्यत इति । तथा, गोगवययोः सादृश्यमुपमानात्प्रतीत्य तच्छब्दवाच्यत । शक्तिमर्थापत्त्या
१. भूता नेति भ० । २. तथा अ० ब० । ३. साधयेत् मु० । ४. तावद्रोगवय क० । ५. विजातीक्रम तस्यानभ्यु सु० । ६. 'मानफलम् क० मु० । ७. तथा गवा क० । ८. गवयोपलम्मेपि सु० । ९ सौगतं सः भ० । १०. वाहदौहा° अ० ब० । ११. संज्ञाकारण अ० । १२. न्ते प्रति० क० । १३. मचैवमिति निय? मु० । १४. प्रमाणत्वमिति क० मु० । १५. शकेश अ० । १६. तथाहि सु० । १७. तवापि मु० । १८ ° निषेधः मु० । १९. 'वेल्यानन्तरं रात्रौ मु० ।
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कारिका १५.]
. अमावमामान्यवाद। प्रत्येतीति । सापि शक्त्यमावान किचिदिति । तथा, सम्दावाच्यमवेत्य हानिक लिम पत्त्या प्रतिपय शम्बनित्यत्वमर्यापत्त्या प्रत्येतीति । सापि प्रथमापत्तिनिरासेनेव सिरसा। तथा, जीवति देवदत्तो गृहे नाखीति बहिस्तदखित्वममावपूर्विकयाऽर्यापत्त्या प्रत्येति । पत्रापि देवदत्तजीवनं येन प्रमाणेन शावं तेनैव बहिरस्तित्वमपि, किमर्यापस्यामा पचिरपि प्रमाणमिति । [१५] ६१. इदानीम् अभावप्रमाणं निरसितुं तत्पूर्वपक्षमुत्थापयताह-प्रमाणपञ्चकेवादि।
प्रमाणपश्चकाभावेऽभावोऽभावेन गम्यते ॥१५॥ ६२. तथाहि-न तावत् प्रत्यक्षेणाभावो गम्यते । इन्द्रियसमिकर्षाभावेऽपि हि यंगुत्ववेव तत्प्रत्यक्षं सर्वाभावेषूत्पद्येत । न चाभावे सोऽस्ति । तदुक्तम् -
"न तावदिन्द्रियेणेषा नास्तीत्युत्पाचते मतिः।
भावांशेनैव संयोगो योग्यत्वादिन्द्रियस्य हि ॥" [लोकवा• अमा• १०] ६३. प्रत्यक्षनिषेधे चानुमानमपि तत्र निषिद्धम्, तत्पूर्वकत्वादस्य । नहि प्रवियर्ड लि कस्यचिद्गमकम् । प्रत्यक्षस्य च तद्ब्रहणनिषेधात् कथमभावेन कस्यचिनिन प्रतिबन्धावगमः १ । अनुमानेन प्रहणेऽनवस्था । सैवं न भवेचवि मूलभूतं बाद कचिदुपेयते । नापि सामान्यतो दृष्टालिनात् वदवगतिः, कार्यादेलिंगसाभावात् ।। अनुपपद्यमानस्य चाभावादपत्तिरपि न । नाप्यागमस्तत्प्रतिपादकः, तस किकवेदिकभेदेन द्विधा स्थितत्वात् । लौकिकस प्रत्यक्षानुमाननिषेधेनं निषेधः । वैदिकस्याप्यनुष्ठेयविषयप्रतिपादकस्य न तत्प्रतिपादने व्यापारः । यदपि वैदिकं पचा "मसहा वमने मासीद" [तैत्ति० २.७] इत्यादि तदर्थवादत्वेन खरूपप्रतिपादकं न भवतीति व्याझ्यावम् । नाप्युपमानस्याभावो विषयः, तस्य द्विविधस्यापि प्रमेयान्तरप्रतिपादनात् । एतच तत्प्रत्यक्षनिवेनाऽनुमानमभ्युपगम्योक्तम् ।
१४. न तु तत्प्रतिपत्तो किञ्चिल्लिङ्गमस्ति । न तावद्भावः तेन सह पूर्व कचिदप्यार त्वात् । दर्शनेऽपि व्यभिचारसंभवात् । यत्र यदभावो गृहीततत्र तावलापि कचिद्राणा
व्यभिचारे वा तयोर्यस्मादेव व्याप्तिप्राहकात् प्रमाणात् वदवगमः वदेव प्रमेयप्रविपची निमिचं भविष्यतीति किं भावाख्येन लिनेन । एतेन तत्प्रतिपत्तिरप्यमावलिहरवेन निराकवा।।
६५. नाप्यनुपलब्धेः प्रतिषिष्यमानवस्त्वग्रहणखभावाया लिङ्गता, वस्या स्वरूपानिय यात् । न तावत् प्रतिषिध्यमानवस्तूपलब्धिप्रतिषेधोऽनुपलब्धिस्तस्मा अभावत्वेन महणा.. संभवे लिङ्गत्वानुपपत्तेः । न च वयाविषेनाऽन्येन लिङ्गेन तहहणम् , अनवस्थाप्रसाहात् । चागृहीताया लिजाता । भवतु वा तस्सा प्रहणम्, तथापि खसाध्येन संबन्धग्रहणं पूर्व वज व्यम् । न हि पक्षधर्मत्वनिश्चयमात्राद मेयप्रतिपत्तिः । संबन्धमहणाभ्युपगमे वा पत्र
१. शब्दवाच्य मु०क०। २. प्रतिपाद्य मु०। ३. भावेप्युत्प मु०। ४. नेवाभावे । ५. विन्द्रियरेषा नोकषा०। ६.०निषेधेनानु क० मु०। ७. बदलिक०।८.तिथि। मु००। ९. मात्र प्रमु०। १०. निषेधे नि' भ००। ११. निशम् म-टि०। १२. वसा प्रहणम् मु.। १३. मात्रानुमेक०।
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ [२. प्रत्यक्षपरि० प्रमाणं वक्तव्यम् । न तावत्सैव प्रमाणम्, तव्यतिरिक्तनान्येन तयोः संवन्धमहणाभ्युपगमात् । न हि धूमाग्योः प्रतिबन्धप्रहणकाले धूमे न प्रतिबन्धग्रहः । प्रमाणान्तरसद्भावे तदेवाभावस्थानुमेयस्य प्रतिपादकमस्तु, किमनुपलब्ध्या ? । अनवस्था च तया प्रतिवन्धमहणे अन्यकारदर्शिता । तमोपलब्धिप्रतिषेधोऽनुपलब्धिलिङ्गम् । , ६६. नाप्यन्योपलब्धिः, विकल्पानुपपत्तेः । तस्या लिङ्गत्वे तद्गम्यं वस्तु वा स्यात् , प्रविषिष्यमानवस्त्वभावो वा, असव्यवहारो वा । न तावद्वस्तु, तस्य प्रमेयत्वेऽप्यनुपलभ्याख्यालिनागम्यत्वात् । नापि वस्त्वभावः, तस्य तया सह पूर्वोक्तेन न्यायेन प्रतिबन्धग्रहणासंभवात् । असद्व्यवहारश्चेत् ; एतदुक्तं भवति-यद्यपि परमते भूतलोपलब्धेर्घटाभावं प्रति पूर्वोकेन क्रमेण न लिङ्गता तथापि तस्यास्तद्रूपत्वं प्रतिषेधुमशक्यम् । यतः पदार्थान्तरोपछन्धिखभावा सी स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धा । प्रमेयमपि तस्या न वस्स्वन्तरम् , नापि वस्तु'प्रतिषेधः तस्य गृह्यमाणवस्तुव्यतिरेकेणासत्त्वात् । अत एवं न तेन सह प्रतिबन्धग्रहणं मृग्यम् ।
सम्यवहारस्तु तया साध्यते । स च तस्मानिमित्तात् पूर्वमसकृत् प्रवृत्तेर्न प्रवर्त्यते । कि बर्हि क्रियते । समयस्मरणमात्रम् । तथा चोक्तम् । “सार्यते समयं परः।" अयमर्थ:शाशविषाणादावसास्वव्यवहारनिबन्धनं भवतोऽस्मानिमित्तात् नान्यत् किंचित् पूर्व प्रवृत्तम् । न च तेषु कश्चिदपि सब्यवहारं करोति । न चोक्कनिमित्तव्यतिरिक्तस्य निमित्तान्तरण संभवः । यथा तदसंभवः तथा वादन्याये निर्णीतमिति नेहोच्यते प्रन्थगौरवभयात् । अत: तन्मात्रनिवन्धोऽसव्यवहारस्तया साध्यते ।
६७. ननु सानाभिधानखभावोऽसब्यवहारोऽभिप्रेतः । स चानुपलब्धेः पूर्वोकाया: साध्ये उत्तः । सा च स्वभावहेतावन्तर्भाविता । तस्यास्तस्मादर्थान्तरत्वे कथमन्तर्भावः ! नेष दोषः । नात्र तया स साध्यते, तस्य पुरुषेच्छायत्तत्वात् । किन्तु समिमित्तदर्शनेन नैमित्तिकस व्यवहारयोग्यत्वस्य प्रदर्शनं विवक्षितम् । एवं विषयदर्शनेन विषयी प्रदर्यत इति यत्रामिषानं संत्राप्ययमेवाभिप्रायः। ६८. तथा, अन्यत्रोक्तम्
"हेतुना यः समप्रेण कार्योत्पादोऽनुमीयते।
. अर्थान्तरानपेक्षत्वात् स स्वभावोऽनुवर्णितः॥" [प्रमाणवा० ३.६] यथैवस्य स्वभावहेतुता तद्वदुक्केऽपि हेतौ । यत उत्पादशब्देनात्र लोके न कार्योत्पत्तिरमिधीयते, तस्याः सामग्रीतोऽर्थान्तरत्वेन खभाषत्वायोगात् । किन्तूत्पद्यतेऽस्मावित्युत्पादः समप्राणां योग्यतैवमुक्ता । तत् स्थितमनुपलब्धेः स्वभावहेतावन्तर्भावः । तत्र यथा शशविषाणादौ तस्मानिमित्तांदसव्यवहारं करोति तथा चक्रमूर्धन्यपि मूढो घटस्य कार्यते । यव एवमुच्यते तस्य न भवता तत्र निमित्तान्तरमसख्यवहारे मृग्यते", तस्याविकल स्यात्रापि
""१: 'लन्धिः प्रतिमु०। २. ब्धिलिङ्गम् क०। ३. खेप्युपलक० अ० ब०। ४. क्रमेण लि. मु. क०।५.क्यम् खया यतः मु०। क्यम् खा यतः क०। ६. सा च खक० मु०। ७. केण सरवात मु००। ८. एव तेन मु० ब० क०। ९. मृग्यम् सद्व्य मु० क०। १०. सर्यते मु क०+ । ११. समयः परम् मु०। १२. साध्यमुक्तः मु०। १३. मित्तप्रद मु० क०। १५. मुम्बम् तस्य विकल्पस्या मु०।
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बनावमामाग्यवाद। प्रभावात् किमिति भवाम् तत्र ने प्रवर्तप्रति । तस्मादनुपलब्ध। लिङ्गादसनवहारप्रवृत्ती कथमिवमुक्तम्-'लिङ्गाभावात्रामावस्वानुमेयतेति'।
६९. नम्वेवं सुतरां तसानुमेवता नाति । यतो यचलिकत्वेन विवक्षितं तत्तम प्रतिपापति । पब स्मात् प्रतीयते सोऽभावो न भवति, योग्यताया भावरूपत्वात् । तस्मात्कयमनुपलब्रटिशात् तत्प्रतिपत्तिरित्युच्यते । किना, किमित्यभाष एवं पूर्वोत्कालिकात् प्रमाणा-। वरावा नावसीयते । किमत्रोच्यते । तस भावव्यतिरेकेणासस्वात् । तथा पाभावो लिजात् प्रमाणान्तराद्वाऽवसीयमानो न खतवतया प्रतीयते । किन्तु देशादिविशेषणत्वेनेन प्रतिपत्तिा-अत्रेदानीर्मस्य चाभावः।
११०. न पाभावस्य देशकालाभ्यां सह विशेषणविशेष्यभावः, वस्तुप्रतिषेधल्पत्वेनानुपकार्योपकारकखभावत्वात् । नापि भावसंबंधिता तस्स युक्ता, तयोभिन्नकालत्वात् । यदा। पटाक्यो भाषा, न तदा तदभावः । यदी तस सैस्वं न तदा घटोऽस्तीति कयं तस्स रेसपंधिता' । न प खतबस्स तसं प्रतिपतिः ।
६११. अयेवमुच्यते-घटो नास्तीति तयोः समानाधिकरणप्रत्ययविषयता तत् कर्य मीलोत्पलादिवत् तयोः संवन्धाभावः । अत्ययं प्रत्ययः । स तु संवन्धं विना भवन मिघ्यावेन व्याल्याभियवस्थापितः । यतो न प्रतिभासनिबन्धनं सत्त्वम् । तनिबन्धनत्वे । वस्य नेवानी किचित् असद् भवेत् । प्रतिभासस्थासत्त्वेऽपि तत्त्वत उपजायमानत्वात् । तस्माद् घटस्वाभाव इति प्रत्ययो मिथ्या।
६१२. विशेषणविशेष्यमाचेत् संबन्धखयोरस्तीति । न, तस संबन्धपूर्वकत्वेन स्थित. स्वात् कषमत्र तहापोऽन्यथा पुरुषेछया तयोविपर्ययो न स्यात् । दृश्यते च तदिच्छया विपर्ययः । कदाचिद्विशेषणत्वेनापि व्यवस्थित पूर्व पञ्चाविशेष्यस्वेन विवति । एवं विशे.. न्येऽपि द्रष्टव्यम् । उभयोगमयरूपत्वाददोष इति चेत्, तदसत, तयोरसंबन्धप्रसन्नात् । न विशेष्यस विशेषणेन संवन्धो नापि विशेषणस तयाविधेन । अपि चोभयोतिपत्वे सर्वदा योनिसपा प्रतिपतिर्मवेत् । न वद्रष्टम् । तस्मान घटस्थाऽभाव इति तयोपिशेपणविशेष्यभावः।
११३. अब मा भूइसौ, विरोषस्तु तयोरतीत्येवमभिधानम् । एतदसत् । पस्मिन् सति - संबन्धित्वेन प्रतिमासो म खात्, अपि तु विनवस्वेन मुद्रराविवत् । कि, विरोधोऽव्यवसाप्रयमान एवं व्यतिछते गयभावे सति भावो न स्वात् प्रकाश इव तमः । न त्वेवं पत्रास्ति । न हि प्रदे विधमाने तश्चित् खस्मानिमित्तादभावो भवन् भावं वितणबि, प्रकाशवदेव ।
१. तत्र प्रमु००। २. मेयं नास्ती मु०। ३. समाभाको अ०। ४.दानी तस्य म०। ५. ध्यभावोऽस्तु प्रतिकाव्यभावी स्तः प्रति मु०। ६. यदा तु तस्थासत्वं मु०। ७. तस्यासत्वं क०। ८. तस्य संबं म०। ९. श्रम प्रति मु०। १०. अत्रैव क० मु०। ११. "पि सत्त्ववदुप मु०। १२. भावव सं०मु। १३. पुरुषेच्छायत्तयोर्विमु०क०। १४. गलेऽपि मु.क.। १५. विवक्ष्यति ब०। १६. चेत् तदनन्तरयोरसं .मु.क०।। १७. अपि चोभयोईिरूपा प्रति भ०।१८.द्विखरूपा ब०मु०। १९. भावः । मा भूरमु००। २०. बत् । विरो मु००।
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ
[ २. प्रत्यक्षपरि०
किन्तु स्वस्माद् मुद्रादेविरोधिनः प्रत्ययात् स्वयमेव न भवति । न च तथा भवनभावेन विरोधमपेक्षते तस्यान्यविरोधिजन्यत्वात् ।
६१४ अथोच्यते - यथा मुद्गरापेक्षयाऽसौ घटो न भवति तथा स्वसंवन्ध्यभावापेक्षया न भविष्यतीति किमत्रानुपपन्नम् ? । ननु एतदेव यत् तयोरसमानकालत्वम् । समानकालवे • हि तयोर्विरोधाविरोधौ चिन्त्येते न त्वेवमेव । अपि च, मुद्गरादिवत् तस्य विरोधकत्वाभ्युपगमेऽनवस्थाप्रसक्तिः । यथा मुद्गरो घटस्याभावजनकत्वात् तद्विरोधी एवमभावोऽपि अभा वान्तरजनकत्वेन, तदप्येवमित्यनवस्था । न चाऽकिंचित्करार्तुत्पन्नस्म पदार्थान्तरस्य तथात्वव्यपदेशः । तम भावाभावयोर्विरोधोऽपि संबन्धः ।
१५. किच, तस्य शास्त्रे कार्यकारणभावत्वेन स्थापितत्वात् मुद्गराद्यपेक्षा तस्याऽसमर्थ - 10 तरासमर्थतमोत्पादे । न तु तस्य तदपेक्षया निवृत्तिः, स्वयमेवैकक्षणस्थायित्वेन स्वहेतोरुत्यैनत्वात् । तेन मुद्द्ररायँपेक्ष्यासौ निवर्तते, स्वयमेव निवृत्तत्वात् । अन्यथा तनिवृत्ययोगात् । तस्मान भावाभावयोः कश्चित् संबन्धः । तदभावान तस्य प्रतिपत्तिः । न हि भाववदभावो देशाद्यनपेक्षः स्वतन्त्रः प्रत्ययविषयः । अतो यदस्ति कथंचिनिमित्तमात्रं तन प्रमाणगोचरः । यच प्रतीयते देशाद्यपेक्षम्, तनिरूप्यमाणं न तवतोऽस्तीति कथमभावः प्रमेयः स्यात् ? । 1 तद्भाव एवैकदाऽस्ति पश्चात् स एव न । न तु तस्य पश्चादभावः ।
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१६. इतश्च नैं तस्य निरूप्यमाणं तस्वमस्ति । यतोऽसौ भवनधर्मा भवेद्, अन्यथा वा ? पूर्वस्मिन्पक्षे वस्तुनि एव अभाव इति नाम कृतं स्यात् । उत्तरस्मिन्नपि सर्वपदार्थानामसष्वप्रसङ्गः । सव्वाभ्युपगमे तैस्योनताद्यभावादवश्यंभाविनी नित्यता । ततश्च विरोधिनः सर्वदा सन्निधानाद्भावो जगति नाममात्रेणाप्युच्छियेत ।
१७. अपि च तस्यैकभावसंबन्धिता भवेत्, सर्वसंबन्धिता वा ? । पूर्वस्मिन्पक्षे विशेषो वक्तव्यो येन तस्यैवासौ नान्यस्येति । तन्निवृत्तिस्वभावत्वादेवं भविष्यतीति अपासम् अकिंचित्करत्वेन तस्याः । यथा शसौ तत्राकिंचित्कैर्यपि तस्य निवृत्तिः, तथा त्रैलोक्यस्यापि किमिति न भवति १ । तन्नैकभावसंबन्धी । नापि सर्वसंबंधी एकस्य विनाश उत्पाद वा सर्वस्य विनाशोत्पादप्रसंगात् । न चैवमस्ति । तन्नाभावस्य केनचित्संबन्धः । तस्मात् * कल्पनामात्रदर्शित एवाभावो न तत्त्वतः कश्चिदस्तीति स्थितम् ।
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§ १८. अत्राहुः – एबमभावनिराकरणे पर्युदासँ एबैको नमर्थः स्यात् । तत्र च द्वयी गतिः । बस्त्वन्तरस्य सत्ता अन्यस्याभाव:, पदार्थान्तरत्वेन वा भावविलक्षणस्याभ्युपगतस्य १ । उत्तरस्मिन्पक्षे प्रसज्यप्रतिषेधे यो दोष उक्तः सोऽत्राप्यपरिहार्यः । न हि पदार्थान्तरोत्पचौ स्वरूपेणाप्रच्युतस्यै पूर्ववदुपलब्ध्याद्यकरणं, निवृत्तौ वा स्वयमेव तस्य निवृत्तेर्न" पदार्थान्तरो• त्पत्त्या किंचित् । तन्नोत्तरः पक्षः । नापि पूर्वः । तत्र स एव भावोऽन्यापेक्षयाऽभावः ।
१. तथा संबन्धाभावा मु० । २. नन्वेवमेव मु० । ३. लेन, न च तदप्ये क० मु० । ४. करादेरुत्प' मु० । ५. रुपपन्नत्वात् मु० क० । ६. 'लात् । मुद्र' मु० । ७. मुद्गरादिमपे मु० म० ब० । ८. प्रत्यक्षवि° ब० । ९. °षयः यस्मात् तस्य प्रतिपत्तिः नहि भाववदस्ति कथं मु० । १०. इतश्च तस्य ११. अभावस्य अ-टि० । १२. चित्कार्यपि मु० । १३ पर्युदासस्यैको मु० । १४. स्य भावस्य पूर्व० क० । १५. निवृत्तेर्वा पदा° मु० ।
मु० क० ।
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कारिका १५० ]
'अभावप्रामाण्यवादः ।
春城
ततश्च घटस्य प्रध्वंसः कपालानां सत्ता । यदा च कुतश्चिन्निमित्तात् तेषां प्रध्वंसः तदा गत्य- . न्वराभावाद् घटस्याभावे प्रतिषिद्धे सत्तया भाव्यम् । न चैतद् दृष्टम् ।
१९. किं च यथा कपालानां सत्ता घटस्याकिंचित्कर्यपि प्रध्वंसः, तथा त्रैलोक्यस्यापि सा प्रसक्येत । ततःबैकविनाशे सर्वविनाशः । एकोत्पादे च सर्वोत्पादः । तथाहि - दुनः प्रागभावः क्षीरमात्रम्, तन्निवृष्ट्या तस्योत्पादात् । यथा च प्रागभावव्यावृत्तौ दन उत्पत्ति: : एवं पदार्थान्तरस्यापि । अथ येनैवासौ संबद्धः तस्यैवासौ प्रागभावः प्रध्वंसो वा । तेन न पूर्वोको दोषः । उक्तमत्र - 'तेन सह संबन्धे विशेषहेत्वभावः' । तत् प्रसव्यप्रतिषेधे पर्यवासरूपस्याभावाख्यस्य प्रमेयस्याभावात् कथं तत्प्रतिपत्तिः कृतमिसिङ्गाद् दृश्यते । तत्रैवभावाभावे प्रन्थकारैः पदार्थसंकराख्यो दोषः प्रतिपावितः -
।
1
" क्षीरे दधि भवेदेवम्" [ ठोकवा० अभा० ५]
इत्यादिना ।
२०. नैष दोषः । परात्मनाऽसत्त्वानभ्युपगमे पूर्वोकमसामंजस्यं प्रतिपादितम् । अथ श्रूयात् - स्यादयं दोषो यदि स एव भावः पररूपेणासन्न भवेत् किन्तु तस्य पररूपेणासस्वं धर्मो धर्मः । तथा च व्यात्मकः पदार्थोऽभ्युपगतो भवति । तदुक्तम् -
1
"स्वरूपपररूपाभ्यां नित्यं सदसदात्मके ।
वस्तुनि ज्ञायते " किंचित् रूपं कैचित्कदाचन ॥" [ ठोकवा• अभा० १२] न च तयोर्भावाभावलक्षणयोरंशंयोरनेन प्रकारेणाभेव उक्तो येनायं दोषः स्यात् किन्तु कथंचिद्भेवस्याप्यभ्युपगमात् । तदुक्तम्
"धर्मयोर्भेद इष्टो हि धर्म्यमेदेऽपि नः स्थिते ॥" [ श्लोकवा• अभा० २०]
२१. अत्रोक्तम् - "ऐकान्तिको भेदोऽस्तु तयोः, कथचिद्वा भेदस्तानविष्टः । तथा सति 20 भावस्य घटास्यस्याभावांशेने पदार्थान्तरात् पटाख्यात् यथाऽसंकीर्णता एवं भावाभावांशयोरपि । तत पटादिव भाषांशादपि तेनासंकीर्णेनाभावान्तरेण भाव्यम् । तस्मादप्यसंकीर्णताभ्युपगमेऽनवस्था प्रदर्शितैव । तन्नाभाषांशाभ्युपगमेनापि पदार्थान्तरौत् पदार्थान्तरस्य ब्यवृद्धिसिद्धेर्वस्त्वसंकरसिद्धिः । किन्तु स्वहेतुतः समुपजायमाना भावाः परस्परासंकीर्णस्वभावा एवोपजायन्ते । अन्यथा पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गः । तदुक्तम् "सर्वभावाः स्वभाव 24 स्थितयो नात्मानं परेण मिभयन्ति" । तत् 'नास्तीति' व्यवहारमात्रम् । न त्वभावो नाम ज्ञानगम्यः कचिद्विद्यते । भाव एवैकदा अस्ति । अन्यदा स एव न । न तु तस्याभावो
१. स्यापि । तस्यैवा मु० क० । २. अत्रोकम् ब० मु० क० । ३. 'हेतुभावः सु० क० । ४. "येणे च पर्यु° क० । १५. तत्रैवमभावे सु० । ६. 'स्मनोऽस° मु० । ७. सवाभ्यु मु० क० । ८. कमासमंजस्य क० अ० ब० । ९. 'सद् भवेत् म० । 'णासन् भवेत क० । १०. किन्तु पर मु० क० । ११. तदा च क० । १२. शायते कैश्विद्रूपं किंचित्कदाचन लोकवा० । १३. 'लक्षणबोरनेन भ० । १४. धर्ममे मु० । १५. अथोकम् मु० क० । १६. एकान्तिको अ० क० मु० । १७. 'बांपि तेन पदा' मु० । १८. यथास्वसं ० । १९. भावांशयोरपि अ० । भावाश्रयैरपि मु० । २०. पटादिभाव मु० । २१. 'लाभ्यु' मु० क० । २२. र्थान्तरत्वात् क० । २३. व्यावृत्तेर्वस्व ब० कृ० । २४. सर्वे भाषाः सु० । २५. सर्वभावाः स्वरूपे पररूपेण क० । २६. अभाव अ-डि० ।
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकचौ
[ २. प्रत्यक्षपरि० यतो भावैकपरमार्था भावाः स्वरूपेण । पररूपेण तु न सन्तो नाप्यसन्तः । तथा पूर्वोक्तदोषान्निवृत्तिः । तत् स्थितमनुपलब्धेः सविशेषणाया असद्व्यवहारयोग्यत्वं प्रति लिङ्गता ।
२२. ननु अनुपलब्धेः किं विशेषणं येनैवमुच्यते ? । किमत्र प्रष्टव्यम् ? । निषिध्यमानस्य दृश्यत्वम् । तम, तदानीमसैन दृश्यते । कथं तथा व्यपदिश्यते १ । अदृश्यमानोऽपि दर्शन* योग्यश्चेत् तद्योग्यत्वम् । दर्शनाभावात् कथमवसितम् १ । अत्रोक्तं व्याख्यातृभिः - दृश्यत्वं समारोपितं तत्र, न तु वास्तवम् । अतः समारोपितदृश्यत्वाभिप्रायेणानुपलब्धेः पूर्वोक्तं विशेषणम् । एतच पूर्वावगतस्य घटस्य शशविषाणस्य चाऽनबगतस्य द्वयोरपि तुल्यं कचित्प्रति-मेवे । तत् स्थितं यथोक्तविशेषणाया अनुपलब्धेर्व्यवहार योग्यतास्वभावः प्रमेयम् । न तु भावव्यतिरिक्तोऽभावः ।
10 २३. अत्राहुः - सर्वस्य ज्ञानद्वयं समुपजायते ' इदमस्ति' 'इदं नास्तीति' । तयोध विभिन्नविषयावभासित्वाद्वैलक्षण्यं सुप्रसिद्धम्, एकस्य भावविषयत्वात् अपरस्याभावविषयत्यात् । तत्रैतत् स्यात् द्वयोर्मध्ये कतरद्भावप्रतिभास्यन्यदभावस्य । ननुं स्फुटे प्रतिभासभेदे कृतस्त्यः संशयः १ ।
२४. अत्राहुः - प्रतिभासोत्पादादेष । भावो हि सामर्थ्यलक्षणः शाखे गीयते वैद्विल" क्षणेनं चाभावेन भवितव्यम् । अन्यथा तयोर्न स्यात् स्वरूपाभेदाद्वैलक्षण्यम् । तस्मात् तस्यासमर्थत्वेनैव भवितव्यम् । असामर्थ्याचजनकत्वम् । तस्माच कुतः प्रतिभासः १ । सामर्थ्ये भावस्यैवाभाव इति नामकरणम् । न च तन्निबन्धनमर्थतथात्वम् । तत् भाव एव वस्त्वन्तरासंर्भैयतयोपलभ्यमानः पूर्वोक्तं " ज्ञानद्वयं जनयति । अत इदमभावज्ञानं भावप्राहिप्रमाणसामर्थ्यादुत्पन्नं न प्रमाणान्तरम् ।
६२५. अनोच्यते - भावसामर्थ्यादस्योत्पादे ऽस्तीत्येवमुत्पत्तिः स्यात् न तु नास्तीति, जनकस्य भावैकस्वभावत्वात् । यथानुभवं च विकल्पेनोत्पत्तव्यम् । न त्वन्यथा विकल्पः । तत्रैतद्भवेत् — अन्यापेक्षया जनकस्य प्रतिषेधरूपताप्यस्तीति अतोऽयमदोषः । नैतच्चारु । तस्योभयरूपत्वे पूर्वोक्तदोषानुवृत्तेः । एतच भवद्भिरेवोपगतम् - 'स्वरूपेण सन् पररूपेण तु न सन् नासन्निति' वैदेद्भिः । तद्विधिस्वभावत्वात् अस्तीति विकल्पं जनयेत् न प्रतिषेधविकल्पम्, " अतद्रूपत्वात् । अस्ति च प्रतिषेधविकल्पो भवतां मते स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धः । स च विषयभेदात् " पूर्वस्मात् प्रमाणान्तरम् ।
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२६. ननु प्रतिषेधविकल्पस्याभावविषयत्वं तस्याजनकत्वेन प्रतिक्षिप्तम् । अत्र केचि - दाहु: - भावेऽयं नियमो जनकस्य प्रतिभासः । अभावस्त्वजनकोऽपि स्फुटप्रतिभासोत्पतेः प्रतिभासत इति कमुपालभेमहि १ । न च प्रतिभासापलापो युक्तः । अपि च भावेऽप्ययं न
१. खरूपे पर मु० । २. दोषानिवृत्तिः अ० ब० । ३. नीमयं न ह° मु० । ४. ग्यत्वदर्श क० ० ५. aise' मु० । ६. यथोक्तविशेषणतयाऽनुप मु० । ७. ननु भा मु० । ८. सर्वशस्य क० मु० । ९. सर्वस्य समु° क० । १०. ध्यं प्रसि० मु० । ११. न तु स्फुटे अ० ब० मु० । १२. प्रतिभासेत् मु० । १३. तद्धिल मु० । १४. असामर्थ्याच्च कुतः मु० । १५. चाभाव' मु० । १६. "तरासंसृष्टतयो' मु० । १७. कशान मु० । १८. खरूपेण तु मु० । १९. भवद्भिः भ० ब० । २०. मेदात् प्रमाणा' मु० ।
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पारिका १५.
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अभावप्रामाण्यवादः ।
नियमो जनकस्यैव भावस्य प्रतिभासः । यः प्रतिभासे प्रतिभाति प्राह्माकारो वर्तमानावच्छिन्नो न तस्य प्रतिभाससमान कालत्वेन जनकत्वम् । यस्य च जनकैता तस्यातीतत्वान्न प्रतिभासः । तत्रैतद्भवेत् - जनकस्य न साक्षात् प्रतिभासः । किन्तु स्वाकारजननमेव तस्य प्राह्मत्वम् । न तु प्रतिभाससमानकालत्वेन तदभावस्य सामर्थ्यं तथाविधं मौह्यत्वेन संभवति ।
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२७. अत्र वदन्ति – कथमसौ प्रतिभाससमानकाल आकारोऽनुपकारकस्तत्र प्रतिभाति । न चान्यस्योपकारकत्वेऽन्यस्य प्रतिभासोऽतिप्रसंगात् । एकसामध्यधीनत्वेनातिप्रसंगनिवारणं प्रतिक्षिप्तम् । किंच, उपकार्याभावाज्जनकस्य भावस्य प्राह्मत्वेन परिकल्पितस्योपकारकत्वमनुपपन्नम् । न च ज्ञानप्रतिभास्याकार उपकार्यः, तस्य स्वतस्त्वतोऽसत्त्वेनाभ्युपगमात् । अतः कथं भावस्योपकारकत्वम् १ मा भूत् ज्ञानाकारस्योपकार्यता ज्ञानं तु परमार्थसद्विद्यते । तदपेक्षयोपकारकत्वं भविष्यति । एतदप्यसत् । ज्ञानप्रतिभासिन आकारस्यापरमार्थसत्त्वे " तद्व्यतिरेके ज्ञानस्याप्यसत्त्वप्रसङ्गः तस्य चाबोधरूपता । कः पुनस्तद्रूपतायां दोषः १ r न कश्चित् तदसत्त्वव्यतिरेकेण । यथाहि प्राकारे वृत्तिविकल्पादिबाधकं प्रमाणं प्रवृत्तमसन्त्वं प्रतिपादयति तथा तदव्यतिरिक्तस्यापि बोधाकारस्यासत्त्वमावेदयेत् । तदकार्यकारणभूत एव प्राह्मत्वेनाभिमतो भावः प्रतिभाति । तद्वद्भावोऽपि ।
६२८. ननु एवमजनकस्याभावस्य प्रतिभास्यत्वे सर्वदा अभावप्रतीतिः स्यात् । स्यादयं 18 दोषो यदि तद्ब्राहकप्रमाणोत्पत्तौ निमित्तं सर्वदा स्यात् । किं पुनस्तद् यत् सर्वदा न भवति ? | प्रतिषिध्यमानपदार्थस्मरणम्, भावोपलम्भा । अतः प्रमाणोर्तेत्तिनिमित्तान्वयव्यतिरेकानुविधानात् कादाचित्कत्वमभावग्राहिणो न त्वभावस्य जनकत्वात्, तस्य सदैव भावात् । तत् प्रमाणान्तरमभावः - एवं केचिदाहुः ।
२९. अम्ये त्रुवते - अभावस्य प्रतिभासजनकत्वं किमक्षणिकत्वान्नेष्यते, आहोखित् प्रतिभासजनकत्वेन भावाद्वैलक्षण्यं न स्यादित्युच्यते १ । यदि पूर्वः पक्षः तदाँ एतत् प्रतिसमाधात्यते क्षणभङ्गभङ्गे । यथा भावस्याकिंचित्के सहकार्यपेक्षस्य कार्यजनकत्वं तथाऽभावस्मापीति वक्ष्यते । अथ द्वितीयः । सोऽपि न युक्तः । न हि जन्यर्त्वजनकत्वाद्वैलक्षण्यानुपपत्तिः । एवं बैलक्षण्ये जगति न किंचित्कुतश्चित् विलक्षणं भवेत् । पूर्वोक्तस्य निमित्तद्वयस्य संभवात् ।
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३०. अथ तस्मिम्सत्यपि हेतुभेदात् प्रतिभासभेदाश्च भावानां विलक्षणता । तद्वद्भावेऽपि स्यात् । अथोध्येत - सर्वसामर्थ्योपाख्याविरहलक्षणमसत्वम् । तदेव चाभावोऽतः कथं तस्य
१. जो तस्य क० मु० । २. प्रतिभासमानका क० मु० । ३. यस्य जन° अ० क० मु० । ४. जनक य० । ५. प्राहकलेन मु० । ६. तस्य तत्त्व क० मु० । ७. परमार्थ स° मु० ।
८. रेकशान क० मु० । ९. प्रसङ्गात् । तस्य वाबोध' अ० ब० । प्रसङ्गः तस्य बोध' क० मु० । १०. प्राह्मग्राहकाकारे वृक० 1 ग्राहकाकरि ( कारे) मु० । ११. तद्व्यति मु० । १२. प्रमाणोपपत्तौ ब० क० मु० । १३. °ध्यमानं पदा' क० मु० । १४. णोपपत्तिनि' क० मु० । १५. तदेतत् क० मु० । १६. 'चित्करस्य सह क० मु० । १७. "पेक्षस्याकार्य ब० । १८. जन्यत्वाज्जन क० । १९. एवं ताबद्भावबैल' अ० । २०. प्रतिभासते मे क० मु० ।
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ
[ २. प्रत्यक्षपरि०
जनकत्वम् ? । न सामर्थ्यलक्षणं सत्त्वम्, तस्य क्षणभङ्गभङ्गे निषेत्स्यमानत्वात् । तद् अभावस्य प्रतिभासाजनकत्वात् अप्रमेयत्वमयुक्तम् ।
७०
३१. अथ न पूर्वोक्तेन निमित्तेन तस्याप्रमेयता किन्तु भावेव्यतिरिक्तस्य तस्यासंभवात् एवमुच्यते । एतत् असत्, रूपाद् रसस्य कथं भेदः १ । किमत्र प्रष्टव्यम् ? । भिन्नप्रत्ययविष• यत्वात् तस्य तस्माद्भेदे ऽत्राप्यस्तीतिप्रत्ययप्रतिभास्यस्य भेदः, तस्मिन्वाऽसति कथं विलक्षणः प्रत्ययः १ ।
I
१३२. तत्रैतत् स्यात् - न प्रतिभास्यभेदान्नास्तीतिप्रत्ययस्य पूर्वस्माद्वैलक्षण्यम् । किन्तु सामग्रीभेदात् । नन्वेकोपलम्भानुभवाद् द्वयोरुत्पादे कथं सामग्रीभेदः १ । नैष दोषः । प्रतिषिष्यमानस्मरणस्य नास्तीतिप्रत्यये पूर्वस्मादाधिक्यात् । ननुं तस्यैव कथमुत्पत्तिः १ । न 1 हि अप्रतिबद्धपदार्थदर्शनेऽन्यस्य स्मरणमतिप्रसङ्गात् । एकज्ञानसंसर्गः प्रतिबन्ध इति चेत्; वतव्यं तर्हि कोऽयमेकज्ञानसंसर्ग: ? । पूर्व द्वयोः सह प्रतिभास्यतेति चेत्; तर्हि यो यत्र न दृष्टः तस्य तत्रादृश्यमानस्य प्रतिषेधो न स्यात् । प्रतिषिध्यमानस्मरणनिमित्ताभावाद्योग्यतेति चेत् । साऽपि न युक्ता दर्शनं विना, कार्यानुमेयत्वात् तस्याः ।
९३३. अंथ ब्रूयात्-न योग्यता पूर्वोक्ताऽस्माभिर्भण्यते किन्तु - 'यदि प्रतिषिध्यमानं वस्तु ॥ तत्र सन्निहितं भवेत् तदा भूतलमिव तंत्र द्रष्टुं शक्यं स्यात् - इयं योग्यता एकज्ञानसंसर्गलक्षणा । अस्यामपि योग्यतायां नैकस्यैव प्रतिभासो भवेत् । किन्तु यावत् तत्र सन्निहितं द्रष्टुं शक्यं तस्य स्मरणे" सति प्रतिषेधप्रतिभासः स्यात् । न चैतदस्ति, कस्यचिदेव प्रतिभासात् । तन प्रतिषेधविकल्पोत्पत्तौ प्रतिषिध्यमानस्मरणं पूर्वस्मात् सामग्र्यन्तरम् । तत् नास्तीति विकल्पो न भवेद् एकनिमित्तोत्पन्नयोः वैलक्षण्या भावात् । भवतु वा तदुत्पत्तौ सामग्र्यम्वरम्, 20 तथापि नोपायभेदात् विकल्पयोर्भेदः किन्तु प्रतिभासभेदात् प्रत्यक्षानुमानयोरिष । तदुक्तम्"प्रामाण्यं वस्तु विषयं द्वयोरर्थभिदां जगौ । प्रतिभासस्य भिन्नत्वादेकस्मिंस्तदयोगतः ॥"
युक्तं चैतत् । अन्यथा नास्तीति प्रत्ययेऽप्रतिपत्तिरेव स्यात् । यतः प्रतिभास्यं तावदसत्त्वात् न प्रतिभाति, प्रतिभासोऽपि वक्ष्यमाणात् स्वसंवेदननिषेधात् नैव । न च वस्त्वन्तरमस्ति । " अतो नास्तीति विकल्पोत्पादानुत्पादयोः प्रतिभासाभावात् तुल्यता प्रसक्ता ।
३४. अथ भेदानुमानस्य प्रतिभासस्य संभवात् प्रत्यक्षानुमानयोर्विषयभेदाद्भेदोऽर्ति, प्रमाणत्वात् । नास्तीति विकल्पस्य पुनर्न प्रतिभासोऽस्ति' । नापि प्रमाणत्वम् । अतः तुल्यता तस्य न युक्ता । ननु अनुमानेऽपि नैवें प्रतिभास्यं वस्त्वस्ति, आरोपितस्य तद्विषयत्वेनाभ्युपगमात्
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१. भावाव्यति क० मु० । २. 'द्वेदोऽत्रापि अ० ब० मु० । ३. 'प्रतिभासः स्यात् तदसत् तस्मि' मु० । 'प्रतिभासस्य क० । ४. क्षणः तत्रै° अ० । ५. 'नुभवाध्यवसाययोरुत्पादे मु० । ६. न तु मु० । ७. एकशाने सं° अ० ब० । ८. संसर्गः पूर्व क० । ९. तर्हि तयोः यत्र मु० । १०. "दृश्य प्रति अ० ब० । ११. यदि ब्रूयात् मु० । तस्याः । बूयात् अ० क० । १२. मित्र द्रष्टुं मु० । मित्र तद् क० । १३. स्मरणासति क० । १४. प्रतिभास्यमे' क० । प्रतिभासस्य में मु० । १५. ततः मु० १६. न प्रतिभासो मु० । १७. मेदो नानुमानस्य अ० ब० । १८. भेदेऽस्ति अ० । भास्योऽस्ति क० मु० । २०. नैवाप्रति अ० ।
१९. प्रति
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कारिका १५.]
अभावप्रामाण्यवादः। तब नास्तीति विकल्पेऽपि न दण्डवारितम् । यथा युक्तिवाधितत्वेऽपि तद्विषयस्याभ्युपगमा, तथा नास्तीति विकल्पविषयस्यापि । तत्प्रामाण्यमप्यस्तीति विकल्पवत् नास्तीति विकल्पस प्रापकत्वात् न वार्यते ।
६३५. ननु न विधिविकल्पस्य तत्र प्रामाण्यं किन्तु दर्शनमेव स्वाकारार्पणात् तद्रपदामापनं वस्तु प्रापयत् प्रमाणम् । प्रतिषेधविकल्पेऽपि दर्शनस्यैवंरूपता किमिति न कथ्यते । अथ विधिविकल्पस्य पारंपर्येण यो विषयो नीलादिः स प्राप्यते, प्रतिषेधविकल्पस्य तु यो विषयः तस्य न कथंचित् प्राप्तिरिति तदाकारतामापन्नं दर्शनं न पत्र प्रमाणम् । कथं न प्राप्तिर्यतो नीलं प्राप्यमाणं तत्प्रच्युत्यविनाभूतपीताद्यसंसृष्टं प्राप्यते न शुद्धं तस्याश्च पदार्यव्यवस्थानिबन्धनायाः प्रच्युतेः कथंचित् प्राप्तिरस्तीति किन्न तत्र दर्शनं प्रमाणम् ? । तदनभ्युपगमे च पदार्थव्यवस्था नास्तीति उक्तं तैर्लाक्षणिकविरोध प्रदर्शयद्भिः। कल्पिताया-॥ स्तस्याः सत्त्वाभ्युपगमाददोष इति चेत्, एतन्नातिसुभाषितम् - अकाल्पनिकवस्तुव्यवस्थापकत्वं कल्पितत्वं च ।
६३६. अथोच्येत - तस्याः प्रापकत्वेऽपि कथंचित् देर्शनं न प्रमाणं तदर्थक्रियाऽकरणात् । ननु केयमर्थक्रिया यामसौ न करोति ? । नीलादिसाध्यामिति चेत् । तन्न, नीलाविध्वपि तुल्यम् । तेऽपि न परस्परस्यार्थक्रियां कुर्वन्ति । अथ वस्त्वन्तरसाध्यार्थक्रियाऽकरणेऽपि ॥ स्वकार्यकर्तृत्वं तेषामस्तीत्युच्यते । तत् प्रच्युतेरपि न केनचिद्वारितम् । तथाहि-पीताद्यवच्छेदकत्वं तत्प्रच्युतेर्भवद्भिरभ्युपगतम् । तदनुमानवदर्शनपृष्ठभाविविधिविकल्पवच प्रतिषेधविकल्पस्यापि प्रामाण्यम् । तन्नानुपलब्धेर्लिङ्गादसव्यवहारयोग्यतोऽवसीयते । किन्तु अभाव एष । स तु प्रमाणान्तरगम्यः । न चे सदुपलम्भकप्रमाणगम्यः पूर्वोकन्यायेन ।
६३७. इतश्चैतन्न । यतः कश्चित् कुतश्चिदागतः पृच्छयते - तंत्र प्रदेशे चैत्रो स्थितो न . वेति । स प्रभात् चैत्रं स्मृत्वा तदभावमवगत्य वक्ति न तत्र स्थितः । न च तत्र तदभावावगमे तस्य तदानीमिन्द्रियव्यापारः । नापि लिङ्गं किंचिद्विद्यते । न चानुपपद्यमानत्वम्, नाप्यागमः, उपमानं वा । न च तदभावप्रतिपत्तिर्नास्ति, प्रभस्योत्तरदानात् । 'ने बाध्यते, संदिग्धा वा । नापीयं स्मृतिः, पूर्व तदभावानवगमात् । प्रतिषिध्यमानपदार्थस्मरणं तदभावावगमनिमित्तम । तच निमित्ताभावात् पूर्व तस्य नोत्पन्नम् इदानी प्रश्ने सति संजातम् ।
६३८. अथोच्येते -पूर्वमेव तत्रोपलब्धिलक्षणप्राप्तःशेषवस्त्वभावग्रहणं मेचकबुद्ध्या । तस्मिन्सति यस्य स्मरणादिसहकारिकारणमस्ति तस्य व्यक्तितिरस्कृतस्य गृहीतस्य स्फुटप्रतिभासविर्षयता । एतदसाधु । यतोऽस्य ग्रहणं भवद्विकल्पद्वयं नातिवर्तते स्वतनस्याशेषवस्त्व
१. र्येण विष क० मु०। २. प्राप्यन्तु मु०। प्राप्यते तस्या' अ०। ३. कथं न क० मु०। ४. कवं विक अ०। ५. दर्शकं क० ब० मु०। ६. तच अ० ब०। ७. ते च न अ०। ८. परस्पार्थ क० मु०। ९. ग्यतानुमीयते मु०। १०. एव तत्र प्रमा मु०। ११. न तु सदुक० मु०। १२. केन न्यायेन क० मु०। १३. पत्र अ०। १४. तत्र सदभा' क० मु०। १५. मानः नामु०। १६. तदप्रति मु० क०। १७. दानात् नापीयं मु०। १८. गमे नि क०म०। १९. अथोत्पत्तेः पू° मु०। २०. प्राप्तावशेष मु०। २१. तस्य तस्य व्य मु क०। २२. विशेष इति ब०। विशेष्यता क०मु०।
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न्यायाववारसूत्रवार्विकहती [२. प्रत्यक्षपरि. सावल प्रहणम्, अन्योपसर्जनस्य वा। प्राच्ये विकल्प नैकामावस्मरणं भवेत् सर्वेषां सह गृहीतत्वात् । एतेनान्योपसर्जनत्वेन प्रहणं व्याख्यातम् । तत् स्मृतिरपि न भवति । न सदुपलम्भकं तदवगमे किंचित् प्रमाणमस्ति । पारिशेच्यादमावास्यात् प्रमाणात् वस्यावगमः ।
"खरूपमा च पश्चात् कचित् सरमपि ।
तमान्यनास्तितां पृटतदैव प्रतिपद्यते ॥"[ श्लोकवा• अभा० २०] ..६३९. एतदपरे दूषयन्ति । प्रमकाल एवाभावावगमे तावाशन निवर्तेत । तथा प वसोत्तरम् 'मया पूर्व न रटतत्र तेन तदानीमसौ नास्ति नेवानी' इतीरश्येव च संवित्ति: 'तदानीं नासीत् नेवानीम्' इति । वन्न प्रकालेऽभावावगमः । ननु पूर्वमप्यवगमे सर्वस्मरण॥ लक्षणदूषणमभिहितम् । उभयत्र दूषणसद्भावात् संशयोऽस्तु न निश्चयोऽतोऽभावस्य प्रमाणान्तरगम्यत्वे पूर्वोक एव न्यायो न त्वनन्तराभिहितः [१५]
६१. अत्रोच्यते । यत्तावदुक्तम् 'अभावेनेन्द्रियसन्निकर्षाभावात् न प्रत्यक्षगन्योऽमाव:' अमावस्य इति वदसत् । यतः सन्निकर्षस्य पूर्वमेव निरस्तत्वत् । प्राप्यकारित्वे चक्षुषः : स्पर्शनेन्द्रियस्येव वहपादिना दाहायापद्येत । अथाप्राप्यकारित्वे मेर्वादेः किन
प्रहणम् । प्राप्यकारित्वेऽपि किन्न भवति । अयोग्यत्वात् नेति चेत्, वर्हि योग्यतैव प्रहणे' निबन्धनं न संवन्धः । तेन भाववदभावेऽपि योग्यत्वात् अक्षमध्यक्षमुत्पादयति ।
६२. किडा, नेन्द्रियसंबन्धात् प्रत्यक्षं वस्तु किन्तु प्रत्यक्षविषयत्वात् । अन्ययाऽऽकाशादेरपि प्रत्यक्षता स्मात् । तथा चाक्षुषे रसस्वापि प्रतिमासो भवेत् वत्रापि "संयोगस संयुक्त समवायद्वारेणैकार्यसमवायल वा संयुक्तविशेषणभावस वा भावात् ।
६३. ननूकम् 'योग्यत्वादिन्द्रियस्स हिं' इत्यभावांशेन (वांशे) योग्यतैव नारिख । ननु भावांशेऽपि कथं योग्यता । तद्विषयज्ञानोत्पत्तेरिति चेत्।अभावांशेऽपि समानम् । तथाहिअस्तीति ज्ञानसेव नास्तीति ज्ञानस्यापीन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधानं तुल्यम् । अस्त्येतत् किन्तु भन्यया सिद्धं तापभावित्वम् । यथा (दनिदर्शने रूपज्ञानस्यैवेन्द्रियजत्वम्, न तद्भतस्पर्शमानस्स, वस रूपदर्शने सति भावाद् । एवमिहापि भूतलपहणे सति नास्तीति ज्ञानस मावे तावमावित्वं द्रष्टव्यम् । तदुकम् ।
"गृहीत्वा वस्तुसङ्गावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् ।
मानसं नास्तितासानं जायतेऽक्षानपेक्षणात् ॥” [लोक• अभा• २०] "इति । ६४. मृतदयुतम् । दूरादनौ स्पर्शज्ञानं सइचररूपोपलम्भादानुमानिकम् । इह तु भूतलस
१. प्राप्ते विमु०।२.खात् तेन मु०। ३. परिशेषाद क० मु०। ४. दृष्ट्वापि पवा लोकवा। ५. तदेव अ००। ६. अमावो नेन्द्रिक०मु०। ७. भावः तद भ०। ८. सत् सनि अ० मु०। ९. तया मु०। १०. ग्रहणनि क० मु०। ११. तथा वा चक्षुषि मु०। १२. वत्रापि संयुमु०। १३. 'भावस्य भावात् अ००। १४. 'वांश्चेनैव यो क०। १५. 'शे कथं का मु०। १३. बन्यस्मात् सिद्ध मु०। १७. धूमाद मु०। १८, स्यबेन्द्रिक०मु०। १९. खम् तद् मु०। २०. "ति विज्ञाक० मु०। २१. णात् । एत° म०प०। २२. इति तद क०मु०।
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कारिका १७.] अभावस पृथक्प्रामाण्याभावः । सत्प्रतिपत्तेच लिङ्गत्वनिषेधात् न स न्यायः । यथा च भवतां भूतले उपलभ्यमाने अस्तीति जानस,
"ततः परं पुनर्वस्तु धर्मात्यादिमिर्यया।
दुचाऽवतीयते सापि प्रत्यक्षत्वेन संमता" ॥ [छोडवा. प्रत्य. १२० ] इत्यभिधानात् प्रत्यक्षता तथा नास्तीति ज्ञानस्यापि ।
६५. किडा, भावांशस्य प्रहणं किं वस्त्वन्तरसंसृष्टस्य किं वा असंसृष्टस्य १ । यदि संस्शुस तदा प्रत्यक्षबाधितत्वादभाषः प्रमाणं न स्यात् । अथासंसृष्टस्य तदा कथं नामावस्य प्रत्यक्षता । अय वस्तुमात्रमेव प्रतीयते, न वस्त्वन्तराभाषः । तत् किं वस्त्वन्तरं तत्र प्रतिभाति १ । नेति चेत् तत् कथं न तदभावः प्रत्यक्षप्रायः । अथ प्रत्यक्षेण न समायो नाप्यभावः प्रतीयते । तदसत् । एवं हि अप्रवृत्तिनिवृत्तिकं जगत्स्यात् । तदुक्तम् - "महि । भयमनलं पश्याप्यनलमेव पश्यतिकिन्त सलिलमपिततः तदर्थी न तिने प्रति वेति दुस्तरं व्यसनमापनम्" इति । तस्माद् इदन्तया सदसदात्मकं वस्तु परिच्छिन्दत् प्रत्यक्षं सम्यवहारमिव असव्यवहारमपि करोति इति न नास्तीति शानस्य पृथक्प्रामाण्यमिति । वदेवाह-न, नास्तीत्यादि।
न, नास्तीति यतो ज्ञानं नाध्यक्षाद्रिनगोचरम् । ६६. क्वचिदस्तीति मानमपि लैङ्गिकमित्यभिधास्यते । [१६]
६१. ननु अभावप्रमाणनिरासे प्रमेयाभावनिरासाद् अभ्युपेतहानिः स्थावित्याहअमावोऽपि घेत्यादि ।
अभावोऽपि च नैवास्ति प्रमेयो वस्तुनः पृथक् ॥१६॥ ६२. एतदुक्तं भवति-नाभावो जैनै भ्युपगम्यते । किन्तु न पृथगिति । उकंच सूत्रे ।
"मणोण्णाणुगयाण 'इमंच' तंव' ति विभयणमजु ।
जहबीर-पाणियाणं" [सन्मति. १.४७] इति । ६३. ननु अशेषाभावानुभवे युगपत्स्मरणमुत्पयेत । न किञ्चिदेतत् । यतो नानुभूतं मर्यत एव, किन्तु अनुभूतमेव । तेनाशेषाभावानुभवेऽपि यस्य प्रतिषियमानपदार्थस्मरणे प्रमादिनिमित्तमति, वस्यैव स्मृतिः, नान्येषामिति विरोधपरिहार चाभिधास्यतीति । तदेवं. न प्रमाणा( मेया )भावः प्रमाणतेः सिध्यति इति । अत: साधूकम् "द्विधा मेयविनिश्चयात्' [का० २] इति । [१६]
६१. यत् सूत्रे वैविण्यं “प्रत्यक्षं च-परोक्षं च" [न्याया• १] इत्युक्तम् , वदेष व्याख्यातुमाह प्रत्यक्षमिति ।
प्रत्यक्ष विशदं ज्ञानं त्रिधे()न्द्रियमनिन्द्रियम् । योगजं चेति वैशयमिदन्त्वेनावभासनम् ॥ १७॥
१.लानिरेक० मु०। २. सम्यायः ब० । सैन्यासः मु० । सन्यासः क०। ३. भवता क० म०। ४. अनुप' मु०। ५, कयं भाव क०म०। ६. कथं तदभा म०प० । कथं न तदामा क०म०। ७.अप्रवृत्तिकं म०प०। ८. करोति न क० मु०। ९.जह दुपा सन्मति। १०. भावात् म०। ११. 'मेव तमाशेषाब। १२. प्रमाणमित्यतः साब.क.मु०।
म्या..
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म्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ
[ २. प्रत्यक्षपरि
६२. प्रतिगतम् अक्षं प्रत्यक्षमिति । 'प्राप्तापने' त्यादिना तत्पुरुषे परवल्लिङ्गताप्रतिषेधात् प्रत्यक्ष- त्रिलिङ्गः प्रत्यक्षशब्दः गमनक्रियेव गोत्वस्य अक्षाश्रितत्वमर्थसाक्षात्कारित्वस्योविचारः । पलक्षणम् । तेनानक्षजेष्वपि तच्छब्दवाच्यता नायुक्ता । इदानीं तस्य लक्षणमाह - विशदमिति ।
९३. अथ किमिदं वैशद्यम् ? । न तावन्निर्विकल्पकत्वं अनभ्युपगमात् । अथ स्पष्टत्वम्, तदा बालापेक्षया वृद्धस्यापि प्रत्यक्षं न स्पष्टम् । तथा, दूरवस्तुनि प्रत्यक्षं चे । अथ तच्छ्रुतं; तदसत्, इन्द्रियजत्वात् । अथ त्रिधा श्रुतम् - प्रत्यक्षपूर्वकम्, लैङ्गिकम्, शाब्द चेति । तन्न, प्रत्यक्षपूर्वकस्य प्रमाणभूतस्य लैङ्गिकत्वात् । न च तद्प्रमाणम् । नापि लैङ्गिकम्, व्याप्तिस्मरणादेरननुभवात् । यत् प्रत्यक्षेण परोपदेशसहकारिणा शब्दोल्लेखि ज्ञानं 10 जन्यते तत् प्रत्यक्षपूर्वकं श्रौतम् तच्चाप्रमाणम्, प्रत्यक्षनिश्चितार्थे प्रवर्तमानत्वात् । तस्मात् यदुक्तम् -
७४
" त्रिधा श्रुतमविप्लवम्” [ प्रमाणसं ० का ० २]
1
इति तदसंगतम् । विप्लवस्योक्तत्वात् । येन च मूढस्य प्रत्यक्षेऽपि वस्तुनि पूर्वसाधर्म्यादर्थक्रियाकारित्वनिश्चयः क्रियते, नित्यानित्यत्वनिश्चयो वा तलैङ्गिकम् । न चैवं दूरदेशादौ ॥ वस्तुन्यस्पष्टज्ञानमिति । तन्नेदं लक्षणं व्यापीत्याशङ्कयाह - वैशद्यमिदन्त्वेनावभासनम् इति । इदमो भावः इदन्त्वम्-साक्षात्कारित्वमित्यर्थः । तेनानुमानादेर साक्षात्कारिणो निरासः ।
६४. इदानीं व्यक्तिभेदमाह । त्रिधेति । त्रयो विधाः प्रकारा यस्य तत् त्रिविधम् । त्रैविध्यमेवाह - 'ऐन्द्रियमनिन्द्रियं योगजं चेति इति ।
१५. तत्र इन्द्रियस्य इदम् ऐन्द्रियम् । तद्विपरीतमनिन्द्रियम् । योगश्चित्तवृत्तिनिरोधो 20 घातिकर्मक्षयहेतुः । तस्माज्जातं योगजम् । चः समुचये । इतिः अवधारणे । इयदेव प्रत्यक्षम् न मानसादि । [१७]
११. अथ किमिदमिन्द्रियम्, तत्र विप्रतिपत्तिदर्शनात् । तथा हि-भौतिकानीन्द्रियाणि इन्द्रियाणां स्थापयितुं वैशेषिकः पूर्वपक्षमुत्थापयति । नन्वाहंकारिकत्वादि (कत्वमि) न्द्रिआहंकारि - कत्लपक्षः । याणाम् । तथा हि- प्रकाशकत्वं सत्त्वधर्म इति सात्त्विकादहंकारादिन्द्रियाणा2 मुदयः । किमत्र प्रमाणमिति चेत्; अप्राप्यकारित्वम् । तथ शाखाचन्द्रमसोस्तुल्यकालग्रहणाद्विज्ञातम् । अन्यथा हि शाखासंबन्धोत्तरकालं चिरेण चन्द्रमसा संबन्धायुगपग्रहणं न स्यात् । अस्ति चातोऽप्राप्यकारित्वम् । तथ भौतिकेषु न संभवति । प्रदीपादिषु अदर्शनात् इत्यभौतिकत्वमन्येषामपि प्रतिपत्तव्यम् चक्षुर्दृष्टान्तबलादेव । तथा, महदणुप्रकाशकत्वात् । भौतिकं हि यावत् परिमाणं तावत्येव क्रियां कुर्वद् दृष्टमिति । तथा हि20 अल्पपरिमाणं वास्यादि महान्तं वटवृक्षं प्राप्य छिदां न करोति इति दृष्टम् । किं तर्हि स्वव्याप्तप्रदेश एवेति । चक्षुरप्यल्पपरिमाणत्वात् न पर्वतादिपरिच्छेदकं स्यात् । तत्तु ·
१. च । अथ श्रुतं ब० । च । अथ त्रिधा अ० । २. वाह इन्द्रियं तद्विपरीतम् मु० । तद्विपरीतस् क० । ४. असंभवात् मु० क० ५. स्वव्याप्य अ० ।
३. मनिन्द्रियं
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कारिका १७.]
इन्द्रियाणां भौतिकत्वसाधनम् ।
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दृष्टम् । अतो न भौतिकमिति । तथाऽनियतविषयत्वाच्च । यदि चक्षुस्तैजसं स्यात् रूपस्यैव गुर्णत्वात् ग्राहकं भवेत् न द्रव्यसामान्यादेरिति । एवं शेषेष्वपि नियमेन स्वगुणप्राहकत्वप्रसङ्गः । न चैतद् दृष्टम् । अतो न भौतिकत्वम् । इतश्च न भौतिकानीन्द्रियाणि, इन्द्रियत्वात् । यद्यत् इन्द्रियं तत्तत् अभौतिकं दृष्टम् यथा मनः तथा चेन्द्रियाणि अमूनि तस्मान भौतिकानि इति ।
§ २. यत्तावत् 'अप्राप्यकारित्वात्' इति साधनं तदसिद्धम् । व्यवहितार्थानुपलब्ध्या प्राप्तेरुपलम्भात् । अन्यथा हि व्यवहितस्याग्रहणम्, अन्तिके च ग्रहणं न स्याद् इन्द्रियाणां भौतिकत्व - अप्राप्तेरुभयत्राविशेषात् । आवरणानुपपत्तिश्च प्राप्तिप्रतिषेधत्वात् । तथा च साधनम् । प्राप्तिप्रतिषेधं कुर्वदावरणमग्रहणाय कॅल्पते । दृष्टं चावरणसामर्थ्यम् दूरे प्रकाशकत्वम् । अतः प्रदीपस्येव प्राप्तार्थपरिच्छेदकत्वम् । तथा च चक्षुः प्राप्तार्थ - 10 परिच्छेदकं व्यवहिताप्रकाशकत्वात् । यद्यद् व्यवहिताप्रकाशकं तत्तत् प्राप्तार्थपरिच्छेदकम् । यथा प्रदीपः । तथा च व्यवहिताप्रकाशकं चक्षुः । तस्मात् प्राप्तार्थपरिच्छेदकमिति प्राप्तिसद्भावे प्रमाणोपपत्तेः । शाखाचन्द्रमसोः कालभेदेन संबन्धेऽप्याशुभावादुत्पलपत्रशैतव्यतिभेदाभिमानवत् युगपद्ग्रहणाभिमानः ।
§ ३. यच्च 'महदणुप्रकाशकत्वम्' तदप्यन्यथासिद्धत्वात् असाधनम् । तथा हि । चक्षुर्ब- 11 हिर्गतम् बामालोकसंबन्धात् विषयपरिमाणमुत्पद्यते महदाद्यर्थप्रकाशनम्, नाभौतिकत्वादिति । यथोक्तम् – 'तैजसत्वाद् रूपस्यैव प्रकाशकं स्यात्' इत्येतत् असत् । प्रदीपेऽदर्शनात् । # हि प्रदीपस्तैजसत्वात् रूपस्यैव प्रकाशको दृष्टः किं तर्हि रूपद्रव्यसामान्यादेरिति” । तावानेव च विषयचक्षुषः । अतस्तैजसत्वं न विरुध्यते इति ।
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६४. रूपादिषु मध्ये नियमेन रूपप्रकाशकत्वम् तैत्तैजसत्वे अनुमानमिति वक्ष्यामः । 20 नियमेन गन्धादिषु गन्धस्यैव प्रकाशकत्वम् पार्थिवत्वात् घ्राणादेरिति । न चैकप्रकृतिकस्वे विषयव्यवस्थोप ँब्धिरिति नानाप्रकृतिकत्वम् । तथा हि एकरमात् कारणात् उपजाताः प्रदीपभेदाः समानविषया इत्युपलब्धम् । तद्वदिन्द्रियेषु समानविषयत्वं स्यात् । दृष्टा तु घ्राणादेर्गन्धादिषु व्यवस्थेति नानाप्रकृतिकत्वम् । तथा च नानाजात्युपादानानि इन्द्रियाणि द्रव्यत्वे सति प्रतिनियतविषयत्वात् । यद्यत् द्रव्यत्वे सति प्रतिनियत विषयम्, तत्तत् नानाजात्यु- 25 पादानं दृष्टम्, यथा व्यजनानिलप्रदीपकस्तूरिकादि । तथा चैतानि द्रव्यत्वे सति प्रतिनियतविषयाणि । तस्मान्नानाजात्युपादानानि इति । तथा हि-ज्ञानशब्देष्वेकजायुपादानत्वम्, प्रतिनियतविषयत्वं चेति व्यभिचारः । तदर्थं द्रव्यत्वे सतीति विशेषणम् । न चास्य पक्षधर्मत्वोदिमतोऽप्रमाणत्वमेतिप्रसंगात् ।
५. यैवाभौतिकत्वेऽनुमानमिन्द्रियत्वादिति । अत्र भूतादभिनिर्वृत्तम् भौतिकम् । तत्प्रति- 13 १. गुणकत्वात् क० मु० । २. द्रष्टव्यसा अ० य० । ३. शेषेष्वनियम' मु० । ४. वेधवत्त्वात् अ० ब० । ५. कल्प्यते ब० । ६. दूरे प्रका' क० मु० । ७. 'पत्रव्यति क० । ८. प्रकाशलम् अ० । ९. नालोकिक अ० । १०. शकं इत्ये मु० । ११. तर्हि मु० । १२. "रिति न तावानेव विष ब० । °रिति न च नैव विष क० मु० । १३. 'लम् तु तै क० मु० । १४. त्वम् पार्थि° अ० ब० । १५. न चैकप्रावृत्तिकत्वे अ० । १६. लब्धेरिति मु० । १७. रिकादेः मु० । १८. 'जात्याद्युपा° अ० । १९. खादिकमत क० । २०. 'समिति प्रमु० । २१. वयाभौतिक मु० । २२. "यसमिति अ० ब० ।
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ [२. प्रत्यक्षपरि० घेघेन च कारणान्तरप्रभवत्वम् । विशेषनिषेधस्य शेषाभ्यनुज्ञाविषयत्वात् इति साध्यविकलो दृष्टान्तः । तथा च मनसि नै भौतिकत्वम् नाप्यभौतिकत्वमिति । अथ भूतादुत्पत्तिप्रतिषेधेन नित्यत्वम् । तत्राप्यभ्युपगमव्याघातो मनस्यपि नित्यत्वानभ्युपगमात् । इन्द्रियत्वं च उक्तविशेषणस्यापरोक्षज्ञानजनकत्वेन ने भूतादुत्पत्तिप्रतिषेधेनेत्यन्यथासिद्धम् । • ६६. निर्मूलं चेन्द्रियाणामहंकारप्रभवत्वम् । तत्सद्भावे प्रमाणासंभवात् । तथा हिप्रधानसद्भावे सत्येषा प्रक्रिया । तस्य चासत्त्वम् वक्ष्यमाणमिति । येषां चौसंसारमण्डलव्यापीनीन्द्रियाणि तेषामशेषविषयग्रहणप्रसङ्गः । अथादृष्टवशात् नियतदेशा वृत्तिय॑ज्यत इति चेत्; अत्र वृत्तीनां तादात्म्ये न किंचिदुक्तं स्यात् । व्यतिरेके तु तदेवेन्द्रियमिति संज्ञाभेदमात्रमेव । ॥ ७. अथ नियतविषयावबोधान्यथानुपपत्त्या तदाकारतेवेन्द्रियस्य परिनिश्चीयते । तर, अन्यथाप्युपलम्भात् । तथा हि । नियतार्थसन्निकर्षेऽप्युपलम्भो घटत एव । न च व्यापित्वं परस्यामीष्टतरमिति नेह प्रतन्यते इति । इति विप्रतिपत्तीः प्रतीलाह-जीवांशात् कर्मनिमुक्तादिति।
जीवांशात् कर्मनिर्मुक्तादिन्द्रियाण्यधितिष्ठतः।
जातमिन्द्रियजं ज्ञानं विनेन्द्रियमनिन्द्रियम् ॥१८॥ ६८. जीवप्रदेश एव कर्मक्षयोपशमवान् इन्द्रियम् , नान्यत् । तथाहि - किं चक्षुरीयेव इन्द्रिय- रूपादि जानाति, किं वा प्रकाशयति । प्रथमपक्षे एकस्मिन् अपि शरीरे खरूपम् । पश्चात्मानः प्राप्नुवन्ति । अहंकार-भूतानामचेतनत्वात् तत्प्रकतेरिन्द्रियस्य कर्ष द्रष्टुत्वमिति । अब प्रकाशयति । किन्न तमसि । बिडालादेर्भूयस्तेजः प्रकाशयत्येव । * किन मनुष्यस्य । स्वल्पत्वात् तेजस इति चेत् ; बहूनामेकत्र दृष्टिनिपाते किन प्रकाशयति ।
६९. अपि च तमः किं तेजोऽभावः किं वा वस्त्वन्तरमिति । अभावल नायनरश्म्यावारकत्वायोगात् । वस्त्वन्तरमपि रूपमेव रूपस्यावरणम् । अन्यथा वाय्वादेरप्यावारकत्वं स्यात् । ततः तमसा रूपवता चक्षुरश्मीनां संयोगे तमोदर्शनमासज्येत । कृष्णं रूपं रयत इति चेत्, न, तथाविधदर्शनस्य मिनाक्षेऽपि भावात् । तमेन्द्रियं भौतिकम् । किन्तु भात्मवेन्द्रियम् । तदुक्तम् - "लयुपयोगौ मावेन्द्रियमिति" [तत्त्वार्थ ० १.१०] लन्धिः कर्मक्षयोपशमः । उपयोग आभिमुख्यम् ।
६१०. यद्येवम् इन्द्रियव्याघाते अन्धकारावरणादौ किन्न जानाति इत्याह-इन्द्रियाण्यधितिष्ठत इति । एतदुक्तं भवति-अनुपहतचक्षुरादिदेशेष्वात्मनः कर्मक्षयोपशमा • तेनास्थगितगवाक्षतुल्यानि चक्षुरादीनि उपकरणमात्राणि, आत्मनो ज्ञानोत्पत्तौ कर्मणो • वैचित्र्याद् । अन्ययाऽऽत्मनो व्यापित्वात् मुक्तात्ममनःसंयोगजं प्रत्यक्षं किं नोपैयते ।
१. मनसि भौमु०। २. कलेन भूक.मु०। ३. प्रमाणसाक०मु०। ४. पाई । ५. पानुप°मु०। ६. 'न्यते इति वि.क.मु०। ७. मला इन्दि मु०। ८'रादिरेष ब. ब०। ९. दृष्टिपाते क० मु०। १०. भावेन्द्रियाण्य' मु०। ११. देशेष्वेवात्मनः काम। १२. नोपपद्यतेक.मु०।।
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कारिका २०.]
अनिन्द्रियप्रत्यक्षम् ।
११. यच भौतिकत्वसिद्धौ शाखाचन्द्रमसोः स्फुटस्यापि युगपत्प्रतिभासस्य भ्रान्तत्वमाशुकारित्वादुक्तम् तदीश्वरज्ञानस्यापि युगपदनेकार्थमाहिणो भ्रान्तत्वमापादयति । न च तत्क्रमवत्, अशेषाग्रहणप्रसंगात्, एकत्रैवानन्तपर्याये उपक्षीणत्वात् । यथ विषयमवाप्य विकशित्वं चक्षुषः तत् साधनधर्ममनुकरोति । तदेवं फल्गुप्रायं परोदितमुपेक्षितमिति । लैङ्गिकत्वैवद् "ऐन्द्रियत्वव्यपदेशः । तेन द्रव्येन्द्रियेण विना यत् प्रत्यक्षं तदनिन्द्रियम् । § १. तत्र प्रन्थकारमतभेदान् दर्शयन्नाह - स्मृत्यूहादिकमित्यादि । स्मृत्यूहादिकमित्येके प्रातिभं च तथाऽपरे । स्वमविज्ञानमित्यन्ये स्वसंवेदनमेव नः ॥ १९ ॥
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६२. स्मृति ऊहव वितर्कलक्षणः । आदिग्रहणादवार्यैः । तद्रूपमनिन्द्रियमेके अनन्तवीर्यादयः । प्रतिभया 'वो मे भ्राता आगमिष्यति' इत्येवंरूपया निर्मितम् 10 अनिन्द्रियप्रत्यक्षम् । प्रातिभम् चापरे टीकाकृतः । स्वप्नविज्ञानं यत् स्पष्टमुत्पद्यते तदन्ये अनन्तकीर्त्यादयः । स्वसंवेदनमेव नः - अस्माकम् इति ।
६३. एवं मन्यते वार्तिककारः - अर्थाविनाभाविन एव ज्ञानस्य प्रामाण्यमुचितं न स्मृतेः, अर्थमन्तरेणपि तस्या भावात् । प्रत्यक्षादेस्त्वव्यभिचारनिमित्ताभिधानात् कस्यचिद्व्यभिचारेऽपि न दोषः । नत्वेवं स्मृतेरव्यभिचारनिमित्तं अस्ति । अमूढस्मृतेस्तु पूर्वप्रत्यक्षफलत्वात् ॥ न पृथक्प्रामाण्यम् । ऊहस्तु संशयविशेष एष, कुतः तत्प्रामाण्यं स्यात् ? । अवायस्तु प्रत्यक्षानुमानफलत्वेन न ताभ्यां प्रमाणान्तरमिति । काकतालीयसंवादयोरपि प्रातिभ-स्वनविज्ञानयोः प्रमाणत्वे न किंचित् न प्रमाणं स्यात् । तस्मात् स्वैस्य ज्ञानात्मनो वेदनमेव प्रमाणमिति । [१९]
मनसः
६१. मानसं तु मनोऽभावान्निरस्तम् । अथ मनोऽभावे योग्येऽपि विषये कथं युगपत् ज्ञानानुत्पत्तिः १ । उक्तमेतत् - 'उपयोग आभिमुख्यमिति' तद् यत्रात्मनः तन खरूपम् । भवति तत्रानुत्पत्तिरिति । आभिमुख्ये तु युगपदपि । अथ 'भ्रान्ताऽसौ । नैतदस्ति । एवं हि सौगतस्य क्षणिकत्वे सान्तरावभासप्रसङ्गदूषणम् सुदूरं निरस्तं स्यात् । वदुक्तम् ।
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"पश्चभिर्व्यवधानेऽपि भात्यव्यवहिते व या ।
सी क्षणभ्वंसिनोऽर्थस्य नैरन्तर्ये न वेति किम् ॥” [ प्रमाणवा० ३.१३६] तस्मादात्मैव मनो नान्यदिति । तदेवाह ।
मनःसंज्ञस्य जीवस्य ज्ञानावृतिशमक्षयौ ।
यतचित्र ततो ज्ञानयोगपद्यं न दुष्यति ॥ २० ॥ इति । ६२. मन इति संज्ञा अस्य स एव मन इत्यर्थः । तस्य ज्ञानावरणक्षयोपशमौ यतश्चित्रौ तो युगपज्ञानमिति । [२०]
१. 'ये क्षीण' क० मु० । २. विकासि क० मु० । ३. लैङ्गिकवद क० मु० । ४. 'वदिन्द्रियव्य° अ० मु० । ५. स्मृतिश्व वितर्कलक्षणा सु० । स्मृतिश्व वि० क० । ६. 'दवायस्वरूपम' ब० । ७. खमस्य क० मु० । ८. भ्रान्तोऽसौ ब० क० । ९. सा मतिर्नामपर्यन्तक्षणिकज्ञानमिश्रणात् प्रमाणवा० । १०, मस्य सु०
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६१. योगजं व्याख्यातुमाह - जिनस्येत्यादि ।
जिनस्यांशेषु सर्वेषु कर्मणः प्रक्षयेऽक्रमम् । ज्ञानदर्शनमन्येषां न तथेत्यागमावधः ॥ २१ ॥
प्रत्यक्षम् ।
२. रागाविजयात् जिनः । तस्यासंख्येयात्म प्रदेशेषु ज्ञानावरणीयस्य प्रकर्षेण अवधि - योगजमनःपर्यायप्रत्यक्षापेक्षया क्षये । निमित्तसप्तमीयम् । तस्मान्निमित्तात् य उपयोगः सर्वत्राभिमुख्यलक्षणः आत्मस्वभावो दिनकरस्येव प्रकाशकस्वभावता न पुनः पश्यामीत्यस्मदादेरिष मनःसंकल्पो मनोऽभावात् । तस्मादुपयोगात् अक्रमं युगपत् । ज्ञानदर्शनमित्येकवद्भाबः एकत्वख्यापनाय । एकमेव सामान्यविशेषेषु योगिज्ञानम्, नान्येषामिति समनस्कत्वात् । rat नागमस्य "जुगवं दो नत्थि उवभोगा" [ आव० नि० ९७९] एवंरूपस्य वधः - त्यागः 1 सिद्धसेनार्कस्येत्यर्थः । तस्याऽजिन विषयत्वात् इति । केर्नैलिग्रहणं सिद्धान्ते अतिशयख्यापनार्थम् । केवलिनोSपि युगपदुपयोगद्वयं नास्ति, यदि मनः स्यात् इत्यर्थः । [२१]
६१. एवं संख्या-लक्षणविप्रतिपत्तिं निराकृत्य सामान्येन विषयविप्रतिपत्तिं निराकर्तुमाह - तत्रेत्यादि ।
न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ
तत्रेन्द्रियजमध्यक्षमेकांशव्यवसायकम् ।
वेदनं च परोक्षं च योगजं तु तदन्यथा ॥ २२ ॥
२. तेषु प्रमाणेषु इन्द्रियजम् एकांशेन - असाकल्येन न त्वेकेनैव । तथा स्वसंवेदन - मपि । एतदुक्तं भवति - अनन्तधर्माध्यासितं वस्तु न योगिप्रत्यक्षवद् इन्द्रियजप्रत्यक्षं - निश्चायति । अत एव तद् व्यवहारप्रत्यक्षम् । योगजं तु साकल्येन निश्वाययति । तेन निश्चयप्रत्यक्षमिति । [२२]
१. इदानीं विशेषेण विषयविप्रतिपत्तिं निराकर्तुमाह - द्रव्यपर्यायेत्यादि । द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषास्तस्य गोचराः ।
अविस्पष्टास्तयेव स्युरनध्यक्षस्य गोचराः ॥ २३ ॥
२. लक्षणस्य वक्ष्यमाणत्वात् तस्य प्रत्यक्षस्य विषय इति ।
[ २. प्रत्यक्षपरि०
बाह्यार्थ
६३. संक्षेपार्थमिहैव परोक्षस्य विषयविप्रतिपत्तिं निराकुर्वन्नाह - अविस्पष्टा इति । 2. अनिदन्तयाऽवभासमाना द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषाः परोक्षस्य विषया इति । [२३] ६१. ननु वाह्यार्थाऽभावात् कथं द्रव्यादिना विषयवत् प्रत्यक्षादि ? । अत्रोच्यते । कथमर्थाभावः १ । तत्साधकप्रमाणाभावादिति चेत्; विशदतरदर्शनमेव तत्साधकं सिद्धिः । प्रमाणम् । स्वप्नदर्शनबदपारमार्थिकमिति चेत्; ननु किमिदमपारमार्थिकत्वम् १ | अर्थशून्यत्वमिति चेत्; इतरेतराश्रयत्वम् । तथाहि - अर्थशून्यत्वेऽपारमार्थिकत्वम्, अपारमार्थिक* मेऽर्थशून्यत्वमिति । येन चार्थो न दृष्टः स कथं ब्रूयाद् अर्थो नास्तीति । परप्रसिद्ध्या इवि चेत्; न, परप्रसिद्धेरप्रमाणत्वात् । प्रमाणत्वे च कथं तन्निषेध इति ।
1
६० मु० ।
४.
१. तस्याशेषेध्यात्म ब० । २. "तमी तस्मा' क० मु० । ३. नारामस्य मु० । केवलप्र० क० मु० । ५°लिनो युग० भ० ब० । ६. निश्चापयति मु० । ७. लक्षण ब० । ८. विषय इवि
वा कथं-क० मु० ।
९.
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कारिका २४.]
बामार्थसिद्धिः। ६२. अपि च अनुभूयमानस्यापि स्वप्नदृष्टान्तेन यद्यर्थस्याभावो ज्ञानस्यापि अभावः स्यात् । स्वप्नार्नुभूतस्य चार्थस्यासत्यत्वं किम् अप्रतिभासमानत्वात् , किं वा अर्थक्रियावैकल्यादिति । न तावदाद्यः पक्षः। तदानीं तस्यानुभूयमानत्वात् । उपलब्धिः सत्तेति चाभ्युपगमः। अथार्थक्रियावैकल्यात् । तर्हि अर्थक्रियाकारी जाग्रहशायामर्थः सत्यः स्यात् ।
६३. विसंवादादिति चेत् । कोऽयं विसंवादः । ज्ञानान्तरेणाग्रहणमिति चेत्, तर्हि । जाप्रदशायां तदस्तीति सत्यता स्यात् । बाधितत्वमिति चेत् । किमिदं बाधितत्वम् । नेदम् इति प्रत्ययोत्पत्तिरिति चेत् ; जाग्रत्प्रत्ययेषु तदभावात् सत्यताऽस्तु । न हि सत्यस्तम्भप्रत्ययेषु कदाचिद्वाधकोत्पत्तिरस्ति ।
६४. अथ स्वप्नप्रत्ययेष्वप्यर्थक्रियाकारित्वं संवादो ऽबाधितत्वमस्ति । न च तेस्य सत्यतोपगता अर्थवादिना, तेन न तत् सत्यत्वे निबन्धनमिति । नैतदस्ति । सर्वाऽपि भ्रान्तिर-. भ्रान्तिनिबन्धना । यथा मरीचिकासु जलभ्रान्तिः । तथा च स्वप्नप्रत्ययेषु सत्यार्थक्रियानुभवपूर्वकं स्मरणमात्रकमेतू । न तु तत्र किश्चिदर्थक्रियावि, अन्यथा जाप्रवननुभूतस्य किं न कस्यचिदर्यस्य तत्रोपलम्भो भवति ।
६५. अपि च अर्थनिषेधः किं प्रमाणेन क्रियते, किं वा अप्रमाणेन ? । अप्रमाणेन कथं तनिषेधः १ । प्रमाणमपि तनिषेधकं किं वा विनाशकत्वेन, किं वा विपरीतार्थोपस्थापकत्वेन, " किं वाऽग्राहकत्वेनेति । प्रथमपक्षे सिद्धोर्थः । न हि असिद्धस्य विनाशः संभवति । द्वितीयेऽपि पक्षे अर्थोऽर्थस्य बाधक इति कथं नार्थसिद्धिः । अग्राहकं तु संदेहकारि भवतु कथं तनिषेधकम् ।। दृश्यस्य कथं नेति चेत् ; ननु पूर्वदृष्टस्यैकज्ञानसंसर्गिण्युपलभ्यमाने आरोपाद् दृश्यत्वम् । न चायमत्यन्तादृष्टस्य प्रकारः संभवति । ज्ञानात्मन्युपलभ्यमाने अदृश्यस्यापि तादात्म्येन निषेध इति चेत् ; भवतु ज्ञानात्मनो, न भिन्नस्य । अथ भिन्नस्थानुपलम्भात् . निषेधः । तत् किम् अयं नीलायाकारोऽनुभूयते न वेति ? । अथ अस्त्ययमाकारः किन्तु शानात्मैवे, जडस्य प्रकाशाऽयोगात् । तदेवाह-न जडस्खेत्यादि ।
न जडस्यावभासोऽस्ति भेदाभेदविकल्पनात् ।
न भिन्नविषयं ज्ञानं शून्यं वा यदि वा ततः॥२४॥ ६६. प्रकाशस्य भेदे जडस्य किमायातम् १ । अभेदे जडमेव न स्यात् । तेन न मिनविषयं ज्ञानम्, किन्तु आत्मविषयमेव । न हि अभिन्नप्रकाशतां दधानाः खम्भादयो जडा भवितुं युक्ताः।
६७. अय कोऽयं प्रकाशः १ । किं ज्ञानम्, अथ ज्ञानविषयता । प्रथमपक्षे स्यादिदम्। द्वितीये तु कथमर्यस्य ज्ञानता ? न हि प्रदीपेन प्रकाश्यमानाः स्तम्भादयः प्रदीपा भवन्ति । अथ तेऽपि प्रकाशखभावास्तदानीमेवोत्पद्यन्ते अन्यथा अन्धकारेऽपि प्रकाशेरन् । अखि, वावदन्धकारेऽपि स्तम्भादिः । प्रकाशपर्यायवा तु प्रदीपादुत्पद्यते । तथा अर्थस्य प्रकाशपर्यायवा ज्ञानाद्रवतु कथमर्थाभावः।
१. खमानुभवस्य ब०। २. लब्धेः अ०। ३. सत्येति क० मु०। ४. संवादावाधिक० मु०। ५. न च सत्य मु०। ६. °पि भ्रान्तिनिव मु०। ७. प्रत्यये सत्यर्थ मु० । खपप्रत्ययेषु सत्यर्थ क०। ८. मेव च न तु म०। ९. अदृष्टस्या क०मु०। १०. ज्ञानात्मनैव मु०। ११. प्रकाश्येरन् मु०।
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न्यायाबतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ
[ ९. प्रत्यक्षपरि०
१८. अब पूर्वमर्थातित्वे किं प्रमाणम् ? । निषेधे किं प्रमाणम् १ । तर्हि अस्तु संशयः । नैतदस्ति । यतः किमेकमेव ज्ञानं क्षणस्थायित्वेन पूर्वापरयोः काळयोरर्थसतां न प्रतिपद्यते ?, किं वा अनेकानि परस्परकर्मतां न प्रतिपद्यन्ते, सर्वेषां वर्तमाननिष्ठत्वात् तेन ने विदन्ति १ । प्रथमप क्षणादूर्ध्वं न किचिदनुभूयेते । तचासन्मरणपर्यन्समनुभवस्य बाधि• तस्योत्पत्तेः । द्वितीयेऽपि ज्ञानानां परस्पराननुगमेऽपि आत्मना देशकालाकारीविपर्यस्तस्यार्यस्यानुभूयमानत्वात् । एतेन सहोपलम्भनियमो निरस्त: । 'सोदरे इव सहशब्दस्यैकत्ववा - चित्वात् विज्ञानार्थयोग्य भेदस्य प्रतिपादितत्वात् इति ।
८०
९. अथ सर्वे प्रत्ययाः निरालम्बनाः, प्रत्ययत्वात्, स्वप्रप्रत्ययवत् इत्यर्थाभावः । वईिं -ज्ञानात्म वेदनमपि प्रत्ययः । सोऽपि निरालम्बनः स्यात् । इष्यते एवेति चेत्; तदेवाह - . 10 शून्यं वा यदि वा ततः प्रतिभासमानत्वादिति । [ २४ ]
६१. तदसत् । यतो ज्ञानशून्यषादिनोऽनुमानं किं गृहीतव्याप्तिकमुदेति, किं बाऽगृहीतव्याप्तिकम् ? । अगृहीतव्याप्तिकं कथम् अनुमानम् १ । व्याप्तिग्रहणं च न तेनैवेतरेतराश्रयत्वप्रसङ्गात् । ज्ञानान्तरेण चेत् । कथम् अद्वैतं शून्यं वा ? । तन किश्चित् साधनम् अर्थनिरासे ज्ञानशून्यवादिनः । तदेवाह । ज्ञानशून्यवत इत्यादि ।
is
ज्ञानशून्यवतो नास्ति निरासेऽर्थस्य साधनम् । संवित्सिद्धप्रतिक्षेपे कथं स्यात् तद्व्यवस्थितिः ॥ २५ ॥
६२. अनुभवसिद्धस्य चार्थक्रियाकारिणः सकलजन्तुसाधारणस्यार्थस्य निषेवे ज्ञानशून्ययोरपि कथं स्याद् व्यवस्थितिरिति । तदेवाह । संवित्सिद्धेत्यादि ।
६३. अथायमर्थः किम् अवयविरूपः किं वा परमाणुस्वरूप इति । तत्रावयविनो * भवद्भिरेव निरतत्वात् परमाणूनां अप्रतिभासनात् न बालोऽयमाकारः । किन्तु ज्ञानाकार एव तथा प्रतिभातीति । ननु ज्ञानाकारेऽप्येष प्रसंगो दुर्निवारः । तथाहि - तद्देशत्वातद्देशत्वेनीलत्वादिको विरोधः चित्राद्वैतेऽपि समानः । न च ज्ञानं परमाणुमात्रं चकास्ति । अथ यथा नाशस्यैकावयवावरणेऽपि अवयवान्तरप्रतिभासलक्षणो विरोधः नैवं ज्ञानाकारस्य । मा भूदयं नीलानीलादिकः केन निवार्यः १ । यथा चायमर्थः तथा सविकल्पकसिद्धौ प्रति* पादयिष्यति इति । अत्र बहुवक्तव्यम्, तब नोच्यते प्रन्थविस्तरभयादिति । [२५] ६१. तदेवं बाह्यमर्थ व्यवस्थाप्य इदानीं द्रव्यादीनां लक्षणमाह - पर्ययस्यन्तीत्यादि । पर्ययस्यन्ति पर्याया द्रव्यं द्रवति सर्वदा ।
६२. पर्ययस्यन्ति क्षणिकत्वाद् व्यावर्तन्त इति पर्याया इति । उपलक्षणं चैतत् सहभाविनां गुणानां रूपादीनामिति । द्रबति गच्छति वांस्तान् पर्यायान् परिणामनित्यत्वादिति " द्रव्यमिति । [ २६' ]
६१. परपरिकल्पितं सामान्यं पूर्वमेव निरस्तम् । इदानीं स्वाभिमतं सामान्यं व्यवस्थापयन्नाह - सडशः परिणाम इत्यादि ।
१. वेन बिदु क० मु० । २. भूयते मु० । ३. तथासम्म क० मु० । ४. 'भवस्य बाधि० मु० । ५. लाकारविपर्ययस्या' मु० । ६. सादरे क० मु० । ७. 'वादिनोस्तु भ० ब० । ८. सिद्धस्येत्यादि मु० । ९शवानीलानीलखा क० । १०. पर्यवस्य° अ० मु० क० ।
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८१
कारिका २७.]
सविकल्पकसिद्धिः। सहशः परिणामो यः तत् सामान्यं द्विधा स्थितम् ॥ २६ ॥ ६२. इह भावानां सहशपरिणतिः सामान्यम् । समाना एव सामान्यमिति म्यायात् । सामान्यस्य अन्यथा स्वरूपसामान्यमन्तरेण अन्यसामान्ययोगेऽपि समानरूपता आकाशल खरूपम् । इव नोपपद्यते । यदि चासमानानामपि सामान्ययोगात् समानरुपता भवति कि न महिषाश्वयोः, पराभ्युपगतस्य सामान्यस्य तत्रापि भावात् । विजातीयत्वामेति चेत् । इतरेतरामयत्वम् । तथाहि विजातीयत्वे सामान्यायोगः, सामान्यायोगे च विजातीयत्वमिति । ६३. अपि च, सामान्येने समानानां यदि समानरूपता जन्यते -
"तदा खकारणादेव सा तेषामलमन्यतः।।
तत्पश्चादपि कुर्वत्या शिशवो लघवः परम्॥" तस्माद्वस्तुखरूपमेव समानपरिणामं सामान्यं नान्यत् । नाप्यवस्तु तस्य निषेत्लमानत्वाद् ॥ इति । तत् च ऊपतारूपं तिर्यप्रूपं च । तदेवाह - द्विधेति । [२६] ६१. एवं सामान्यस्य लक्षणमभिधाय इदानीं विशेषस्वरूपमाह-विपरीत इति ।
विपरीतो विशेषच ६२. साधारणाविपरीतः सकलर्सजातीयविजातीयेभ्यो व्यावृत्तोऽसाधारणो वस्तुखमावो विशेष इति । [२७] ६१. इदानीं विषयद्वारेणैव सविकल्पकसिद्धिमाह -तान् युगपदिति ।
तान्युगपद् व्यवस्यति । तेन तत् कल्पनाज्ञानं न तु शब्दार्ययोजनात् ॥ २७॥ ६२. युगपदेककालं द्रव्यादीन् व्यवसति निश्वाययति यतः तेन तत् प्रत्यक्षं कल्पना शानं सविकल्पकमित्यर्थः।
६३. ननु भमिलापसंसँगैयोग्यप्रतिभासा प्रतीतिः कल्पना । तथाहि - कल्पना योजना । सविकल्प- सा च न वस्तुनो रूपं निरंशत्वावस्तुनः । किन्तु शब्दनिर्मितै । अत एव निषेधः जात्यावियोजनाऽपि शब्दयोजनानिराकरणादेव निराक्रियते । ततो न वापद् द्रव्यादिकं किश्चिदस्ति । भवतु वा । तथापि घटपटवदवभासमानं न स्वमाहिणि कल्पनात्वमारोपयति । पारतखयेण प्रतिभासमानं कथं नेति चेत् ; किमिदं पारतव्यम् । विशेषण.. विशेष्यभाव इति चेत् ; नैतदस्ति । नहि जात्या नीलादिवद् विशेषणादि किंचिदति, विशेष्यस्यापि विशेषणत्वेन दर्शनात् ।
६४. किना, विशेषणविशेष्ययोः किम् एकज्ञानावभासित्वम्, उतानेकज्ञानावमासित्वमिति । तत्रैकशानावमासित्वे न जायते किनिद्विशेषणं किनिद्विशेष्यमिति । न हि मनयोउपरि नामाति । प्रधानोपसर्जनत्वमिति चेत् ; किमिदं प्राधान्यादि । उपकार्योपकारकत्वमिति - चेत; न जन्यजनकमावादन्य उपकार्याविभावः । न च कार्यकारणभाषः समानकाम
१. 'न्येनासमा क.मु०। २. तं पश्चाक०। ३. न्यलक्ष मु०। ४. सकमबा .ब०। ५. धारणवस्तु क० मु०। ६. निबीयति क. । निधीयते मु०। ७. संसर्गायोक. मु०। ८.निर्मिता भत°मु०।
न्या० ११
कप्रत्यक्ष
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८२
न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ
[२. प्रत्यक्षपरि०
योरिति । आधाराधेयभाव इति चेत्; न, तस्य पूर्वमेव निषेधात् । न हि उपर्यधोभावेन स्थितपदार्थद्वयव्यतिरिक्तः कश्चिदाधाराधेयभावः । न च तथा प्रतिभासे किञ्चित्पारत कयमिति । भिन्नानावभासित्वे का नाम कल्पना ? । अथ भिन्नदर्शनेन विशेषणविशेष्ये ऽनुभूय पश्चात्स्मरणं तयोस्तद्भावं प्रत्येति । तदेतद् इष्यत एव । शब्दोल्लेखिज्ञानं वस्तु योजयति । न • तु तथा वस्तुरूपमिति ।
६५. अथ शब्दयोजितं वस्तु भविष्यतीति । तन्न । न हि अर्थे शब्दाः सन्ति, तदात्मानो वेत्याशङ्कयाह - न तु शब्दार्थयोजनादिति ।
६६. शब्दश्च अर्थश्च तयोर्योजना न संभवति । [२७]
६१. तत्र हि अनवस्थां प्रतिपादयति' । तथाहि नास्मृतेन वाचकशब्देन अर्थो " योज्यते । शब्दस्यापि स्मरणं तद्वाचकशब्दस्मृतेः । तस्यापि स्ववाचकशब्दस्मृतेरित्यनवस्था । नच कल्पना ज्ञानाकार एवेति वाच्यम्, आकारवादप्रतिषेधात् । तस्माद्वस्त्वेव स्थूलं सावयवम् अनुभूयमानम्, केवलानामणूनामननुभवात् प्रत्यक्षं कल्पनायुक्तम् अवस्थापयति । किमत्रान्येन प्रमाणेनेति ? । एतदेवाह - निरंशेत्यादि ।
15
निरंशपरमाणूनामभासे स्थौल्यवेदने ।
प्रत्यक्षं कल्पनायुक्तं प्रत्यक्षेणैव सिध्यति ॥ २८ ॥ [ २८ ]
६१. ननु किमिदं स्थौल्यम् ? । किं परमाण्वात्मकम् किं वा परमाणुजन्यमिति ? | न तावत् परमाण्वात्मकम् । तद्धि पूर्वापरादिदिग्भेदमुपलभ्यते । न चैकस्य परमाणोरसावस्ति । बहूनां भविष्यतीति चेत्; नैतदस्ति । नहि निरंशपरमाणोः कश्चित् परमाणुः पूर्वः कश्चित् पश्चिमः उत्तरो दक्षिणो वा संभवति । तथाहि - यस्यावधिरूपस्यांशस्य 20 प्रत्यासन्नः एकः परमाणुः पूर्वो दृष्टः तस्यैवावधिरूपस्य अपरोऽपि प्रत्यासन्नः । ततः तदवधिरूपया प्रत्यासत्त्या यद्येकः पूर्वोऽपरोऽपि पूर्वः स्यात् । एवं शेषेष्वपि वाच्यम् । तन्न परमाण्वात्मकं स्थौल्यमिति ।
६२. नापि परमाणुजन्यम् । यतः परमाणुभिः किं संयुक्तैर्जन्यते किंवा असंयुक्तैरिति ? । तत्र यदि संयुक्तैः, तदा "पिण्डः स्यादणुमात्रकः” [ विज्ञ० विं० १२] तथाहि - परमाण्वन्तरेण 2 संयोगः किम् एकदेशेन किंवा सर्वात्मनेति ? । तत्र न तावत् प्रथमः पक्षः, निर्देशत्वात् परमाणूनाम् । द्वितीयपक्षे तु सर्वपरमाणूनामेकस्मिन् परमाणौ प्रवेशः स्यादिति ।
६३. अथासंयुक्ता योग्यदेशव्यवस्थिताः स्थौल्यं जनयन्ति । प्रतिभासं किं न जनयन्ति ? । तत्र बाधकस्य प्रतिपादनात् वरं प्रतिभासधर्मः । अस्ति हि कश्चित् वस्तुधर्मो नीलत्वादिलक्षणः । कश्चित् प्रतिभासधर्मः यो बहुषु प्रतिभासमानेषु प्रतिभाति, यथा • केशकलाप इति । तस्मान्न स्थौल्यम् वस्तु यत् सावयवं प्रतीयेतेति । एतदेवाह - नासंयुक्तैरित्यादि ।
१. वीति क० । २. दिग्मे मु० । ३. किं संयुक्तैरिति क० । किं संयुक्तैरुता संयुक्तेरिति मु० । ४. अनिर्दे० क० मु० । ५. भासं जन° क० मु० । ६. तत्र साध° मु० क० । ७. 'कस्याप्रति क० ।
८. कश्चित् धर्मो मु० क० ।
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सविकल्पकसिद्धिः ।
नासंयुक्तैर्न संयुक्तैर्निरंशैः क्रियते महत्।
अयोगे प्रतिभासोऽपि संयोगेऽप्यणुमात्रकम् ॥ २९ ॥ [२९]
६१. अथ कोऽयं प्रतिभासधर्मः १ । किं वस्तु, किं वा अवस्तु ? | यदि वस्तु तदा अषयविदुषणम् । अथावस्तु तदा कथमभ्रान्तं प्रत्यक्षं प्रचयावभासि ? । नैतदस्ति । यतो न किंचित् स्थौल्यं परमाणुभ्योऽन्यत् । किन्तु विततदेशाः परमाणवः तथा प्रतिभासन्त इति । कथं नान्तरावभास इति चेत्; किमिदम् अन्तरम् ? किम् आकाशम्, किं वा विजातीयाणवः, किं वा रूपभेदः, देशभेदो वेति ? तत्राकाश विजातीयपरमाणुप्रतिभासाभावो न दोषाय । नहि रसपरमाण्वप्रतिभासः चाक्षुषे' अतीन्द्रियाकाशाप्रतिभासो वा दोषमावहति । भिन्नरूपता तु प्रतिभासत एव । अन्यथा परमाणुमात्रप्रतिभासः स्यात् । देशोऽपि न स्वरूपादन्यः । सोऽपि स्वरूपेणैव व्याख्यातः । अन्यथा भिन्नस्वरूपपरमा- 10 प्रतिभासे न किंचित् प्रतिभासेत, अन्धमूकं जगत्स्यादित्येतदेवाह - भिन्नदेशखरू - पाणामित्यादि ।
कारिका ३१.]
भिन्नदेशखरूपाणामणूनामग्रहे सति ।
तत्स्थौल्यं यदि कल्पेत नावभासेत किंचन ॥ ३० ॥ [३०]
६१. इह हि किं स्थौल्यमात्रं प्रतिभाति, किं वा स्थौल्यविशेष इति । तत्र यदि स्थौल्य - ॥ मात्रम्, तदा नीलार्थी पीतेऽपि प्रवर्तेत । यद्वा न कुत्रचिदपि विशेषानवधारणात् । अथ विशेषः । स नीलपरमाणुप्रतिभासे सति 'नीलस्येदं न पीतस्येति' प्रतिभासेते । तेषां मिन्नस्वरूपाणां प्रतिभासानभ्युपगमे 'तेषां स्थौल्यम्' इति न प्रतिभासेते । न चैवम् । अतः परमाणव एव विततदेशाः तथाऽवभान्ति इति नान्यत् किंचिदिति यत् प्रत्यक्षे कल्पनात्वमादधीतेत्याशङ्कयाह - नैतदस्ति इति ।
८३
नैतदस्ति यतो नास्ति स्थौल्य मेकान्ततस्ततः । भिन्नमस्ति समानं तु रूपमंशेन केनचित् ॥ ३१ ॥
I
१२. यत् प्रत्यपादि परमाणवः प्रतिभान्तीति एतन्नास्ति । न हि शपथशतैरपि 'निरंशाः परमाणवः प्रत्यक्षे प्रतिभान्ति' इति कश्चित् प्रत्येति । तदभावाद् अनुमानमपि 'यत् स्थूलं तत् सूक्ष्मपूर्वकम्' इति न तत्सैत्तां साधयति । नापि स्थौल्यं परमाणुभ्यो भिन्नम् । न हि परमाणवो भिन्नाः स्थौल्यं भिन्नं किचिदाभाति । एतदेवाह - यत इत्यादि । किं तर्हि अस्ति ? इत्याह-अस्ति इत्यादि । समानम् इति एकपरिणामपरिणतम् । रूपमिति - द्रव्यमिति । न तु तस्यामवस्थायां केचिदणवः सन्ति ।
९३. नन्वेवं द्रव्यमेव स्यात् इत्याशड्याह - केनचिद् इति । एतदुक्तं भवति - "केनचिदेव अंशेन एकः परिणामः न सर्वात्मनेति । ततः पर्यायात्मकं द्रव्यमाभाति न पुनः परमाणुसमूह " इति । तत् कथं न प्रत्यक्षं सविकल्पमिति । [ ३१ ]
१. चाक्षुषेण मुं० क० ।
२. इह किं मु० । ३. °पि वर्तेत अ० ब० । ४. 'दपि शेषा' मु० क० । ५. प्रतिभासेत् क० मु० । ६. चाभिन्न मु० । ७. भासताभ्यु° मु० । ८. स्यमपि न क० मु० 1 १०. क्षे सति भान्ति मु० । ११. न तत्संसा० क० मु० । १२. किं तर्हि, १३. भवति तत् कथं मु० ।
९. प्रतिभासते क० । अस्ति इत्यादि अ० ।
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृचौ [२. प्रत्यापरि० ६१. पुनरपि विशेषमभिधातुं परमाशइते -अथास्तु इत्यादि।
अथास्तु युगपदासो द्रव्य-पर्याययोः स्फुटम् ।
तथापि कल्पना नैषा शब्दोल्लेखविवर्जिता ॥ ३२ ॥ ६२. उक्तमेतत् घटपटवदेकज्ञानावभासित्वेऽपि शब्दोल्लेखरहिता नेयं कल्पना इति । [३२] • ६१. उक्तमेतत् न पुनर्युक्तमित्याह - चकास्ति इत्यादि।
चकास्ति योजितं यत्र सोपाधिकमनेकधा ।
वस्तु तत् कल्पनाज्ञानं निरंशाप्रतिभासने ॥ ३३ ॥ ६२. यत्र साने योजितं वस्तु प्रतिभाति । कथं योजितमित्याह । सोपाधिकामिति । सहोपाधिना वर्तते सोपाधिकम् । ननु विशेषणविशेष्यभावस्य निराकरणात् कथमेतदित्याह" अनेकषेति चतुरश्र(ख)त्वादिना । नहि अनुभवसिद्धं युक्तिशतेनापि निराक्रियते तबज्ञानं सविकल्पकम् । विपर्यये बाधकमाह-निरंशाप्रतिभासन इति । निरंशस्य परमाणोरप्रतिभासने सतीत्यर्थः । तस्मात् प्रथमाक्षसन्निपात एष दीर्घहखवर्तुलादि वस्तु प्रत्यक्ष प्रतिभातीति । तेन तत् सविकल्पकमिति स्थितम् । [३३]
६१. एवं तिर्यक्सामान्यमवस्थाप्येदानीम् ऊर्ध्वतासामान्यमवस्थापयितुमाह-मेद"ज्ञानादित्यादि।
भेवज्ञानात् प्रतीयन्ते यथा भेदाः परिस्फुटम् ।
तथैवाभेदविज्ञानादभेदस्य व्यवस्थितिः॥ ३४॥ ६२. तथाहि - यद् यथा प्रतिभाति तत् तथा सद्व्यवहृतिमवतरति । यथा कुवलयं नीलरूपतया विराजत् तेनैव रूपेण अस्ति । क्षणपरिगतेनैवै रूपेण सकलाः पदार्थमात्राः . प्रतिभान्ति न पूर्वापरकालपरिगतात्मनेति स्वभावहेतुः प्रत्यक्षसिद्धे व्यवहारप्रवर्तनफैल इति ।
६३. तथा, यत् सत् तत् सर्व क्षणिकमित्यादयः भेदज्ञानहेतवः । एतस्माद्भेदज्ञानाद् यथा मेदाः पर्यायाः क्षणिकाः प्रतीयन्ते, तथा अमेदज्ञानादनुगताकाराद् अमेदस द्रव्यम व्यवस्थितिरिति । ४. अथेदमनुगतं झानं निर्विषयत्वादप्रमाणम् । तथाहि
"किं दृष्टे प्रत्यभिज्ञानमुतखिन्मध्यवर्ति नि । किं वा दृष्टिपथप्राप्ते प्रमाण वस्तुनीष्यते ॥ तत्र पूर्वोत्तराध्यक्षे पूर्वोत्तरग्रहंक्षमे । मध्ये नेन्द्रियवृत्तिः स्थावकथं तत्र प्रवर्तते ॥ न चावस्थात्रयव्यापि किंचिदेकं प्रतीयते।
प्रत्यक्षेण तथाभावे जन्ममृत्युगतिर्भवेत् ॥ १. अथास्तीत्यादि म०। २. विराजते ब०। ३. नैव च रूपे मु०। ४. परिगतेनेति अ०। ५. तनहेतुफल अ० । ६. मेदपर्यायाः मुक०। ७. वाऽदृष्टि ब०। ८. पथं प्रामु०।
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कारिका ३४.]
प्रत्यभिज्ञाप्रामाण्यनिरासः ।
किश्च किं दृष्टां वेति किं वा कालादियोगिताम् । त्वं दृश्यमानत्वं किमैक्येन प्रपद्यते ॥ किंवा मेदेन पूर्वस्मिन्नंन्योन्यानुप्रवेशनात् । स इत्ययमिति वा स्यात् सोऽयं नेति मतिर्भवेत् ॥ द्वितीयेऽपि यदा सोऽयं द्वयं भाति विरोधवत् । सामानाधिकरण्यं हि विरुद्धज्ञानयोः कुतः १ ॥ अथ प्रत्यय मेदेऽपि प्रतिभास्यं न भिद्यते । स्वतं प्रतिभास्यं स्यात् ज्ञानमात्रं तदा भवेत् ॥ अथाशुपतया भाति यदा वस्तु पुरः स्थितम् । aterersisध्यक्ष कथं नास्ति विपश्चिताम् १ ॥ अत्रुट्यद्रूपता केयं किं पूर्वस्य प्रकाशनम् । किं वा तत्तुल्यरूपस्य यदि वा सान्तराग्रहः १ ॥ तत्र पूर्वग्रहे न स्याद्वर्तमानग्रहः सदा । पूर्वपूर्वग्रहे वा स्यात् जन्मादिप्रतिभासनम् ॥ यदि तत्तुल्यता भाति सिद्धमेव प्रसाध्यते । अन्तराग्रहणं त्वाशुकारित्वादुल्मुके न किम् ? ॥ पूर्वकालादियोगित्वे यद्यध्यक्षं न युक्तिमत् । पूर्वकालाद्यभावे हि तद्विशिष्टग्रहः कथम् ? ॥ भावे तु पूर्वकालादेर्वर्तमानत्वमापतेत् । तथा च न नित्यत्वं स्याद्वर्तमानग्रहे सति ॥ अथ स्मृत्युपनीतेन तेन तस्य विशेषणम् । स्मरणेनोपनीतं हि न वस्त्वध्यक्षगोचरः ॥ न हि नीलोत्पलशानं गन्धे स्मृत्युपढौकिते । वर्तते जातुचित् तस्मात् न तत्कालविशिष्टता ॥ सविकल्पकमध्यक्षं प्रत्यभिशा नं चेद्भवेत् । अक्षान्नियमतो न स्यादिति चेत् तन्न युक्तिमत् ॥ पूर्वकालविशिष्टेन सेंशेऽर्थेऽवलोकिते । सहचारितया ज्ञानं स्मार्त चन्दनगन्धवत् ॥ तथाहि चान्दने गन्धे रूपेण सहचारिणि । रूपदृष्टेः स्मृतिर्यद्वत् तद्वत् पूर्वविशेषणे ॥
इयमानार्थतुल्येन वस्तुना सहचारि यत् । पूर्वकालादि तत्स्मृतं वर्तमानविशेषणम् ॥ तत् स्थितं स्मरणाध्यक्षात् कल्पनाशानमीदृशम् । यत् स एवायमित्यस्य नापूर्वार्थग्रहस्थितिः ॥ निश्चितत्वं दृढत्वं वा सविकल्पकताऽपि वा ।
१. पूर्वस्मिन् स इत्य' क० मु० य० । २. प्रसाध्यति मु० क० । ०५. सदस्य ब० । ६. या क० मु० । ७. गदिध्यते मु० क० ।
त्वमप्यनाशित्वं किं वाऽबाध्यत्वमुच्यते ॥ सर्वास क्षणिकत्वेन नाऽनाशित्वं हि संविदाम् । अबाध्यताऽपि नैवास्ति यस्मादग्रे वदिष्यते ॥ अनुमानादते नान्यत्कल्पनाशान मिष्यते । प्रमाणं प्रत्यभिशाया न च लिङ्गमिहास्ति वः ॥
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३. णं चाशु ब० । ४. प्रथा ८. °मिहोच्यते । तस्मान्य° अ० 1.
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्ती [२. प्रत्यक्षपरि० प्रत्यभिज्ञायमानत्वं यदि लिङ्गमिहोच्यते। तस्याप्यध्यक्षतो व्याप्तिकत्वेन सहकचित् ॥ यद्यनुमानतो व्याप्तिरनवस्थाऽऽपतेत् तव । मताभ्यां मानमस्त्यन्यत् यस्माद् व्याप्तिग्रहो भवेत् ॥ कल्पनापोढमध्यक्षं निर्विकल्पकसिद्धितः। ज्ञातव्यं प्रत्यभिज्ञातो नाध्यक्षं कल्पनायुता॥ नाक्रमात् कमिणो भाषा नाप्यपेक्षाऽविशेषिणः। कमोडवा सती सातु खयमेकत्वबाधिका॥ तेनाबाध्यत्वमप्यस्या नानुमानाच बाधनात् । नचानयापि बाध्यत्वादनुमानमवाधकम् ॥ अप्रामाण्येन युक्तायाः कुतो बाधकतास्थितिः। अप्रामाण्याच नैवास्याः अनुमानं प्रमेष्यते ॥ अन्योन्याश्रयदोषोऽपि तेन नास्ति विपश्चिताम् । खसाध्यप्रतिबन्धाद्धि प्रमाणमनुष्यते॥ क्रमाक्रमक्रियाऽभावात् बाधकात् प्रतिबन्धवित् । बाधकं साध्यमाकल्लिामालिजय धारयेत् ॥ निरुच्चासतया हंत! भावानां दुःखमापतेत् । तदबाध्याऽनुमा बाध्या प्रत्यभिक्षा न चाक्षजम् ॥ अनुमानेन नो बाध्यमिति वाच्यं विपश्चिता। सूर्यादिवस्तुनोऽध्यक्षमनुमानेन बाधितम् ॥ अर्थस्यासंभवे भावात् न विशेषो द्वयोरपि । बीजत्वाच्छालिबीजं च यवाहुरकर यथा ॥ अनुमा बाध्यतेऽध्यक्षात् प्रत्यभिज्ञापि ते तथा । जनकत्वं यदन्त्यस्य स इत्यंशे यदा नयेत् ॥ एकत्वात् प्रत्यभिज्ञानं तैदा ह्यध्यक्षबाधितम् । तदेवं प्रत्यभिज्ञाया नाऽबाध्यत्वमिहास्ति वः॥ कारणादुष्टताप्यस्याः भ्रान्तेरिव कुतो भवेत् । नचैतस्याः प्रमाणत्वादन्योन्याश्रयदोषतः॥ प्रत्यक्षतोऽपि नाक्षाणामत्यक्षाणामदुष्टता । तस्याः प्रत्यक्षतायां स्यात् प्रतिबन्धस्य हानितः॥ अनुमानत्वेऽपि नैवास्याः कारणस्य विशुद्धता।
तदेवं प्रत्यभिज्ञाया न प्रामाण्यमिति स्थितम् ॥" ६५. अत्रोच्यते- "किमिदमिन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधायि स्थिरस्थूरवस्तुमाहि प्रत्यक्षं नानुभूयते १ किं वा अनुभूयमानमपि निशीथिनीनाथद्वयावलम्बिप्रत्यक्षवद् भ्रान्तमिति ।। . व नानुभूयत इति ब्रुवाणोऽनुभवेनैव निराक्रियते। द्वितीयेऽपि किं कदाचित् कुमुदिनीनायैक्यप्राहिप्रत्यक्षवत् कस्यचित् क्षणिकपाहि प्रत्यक्षमुत्पन्नम् ?, येनैतद् भ्रान्तं स्यादिति ।
६७. यवानुमानं क्षणिकत्वमाहि तत् प्रत्यक्षबाधितत्वात् 'अश्रावणः शब्दः' इत्यनु
१. स्थापयवे तब प०। २, भावो क०। ३. वारयेत् ब०क० मु०। ४. नवाक्ष क० मु०। ५. भनुमान भक० मु०। ६. °स्य इत्यं क०। ७. ज्ञानं बक०1८.न बाध्य क०मुब। ९. कारणयाविरुद्धता अ०। १०. किमिदानीमि० अ०। ११. तत्रानुभूक०। १२. नाथैकग्राही अ० क०मु०। १३. प्राहि न प प्रा ब०।
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कारिका ३५. ]
अनुगतव्यावृत्ताकारं वस्तु ।
"
मानवदप्रमाणत्वात् अबाधकमिति । किश्च सत्त्वादेर्लिङ्गस्य व्याप्तिग्रहणं न प्रत्यक्षेण, परोक्षत्वात् क्षणिकत्वस्य । अनुमानेन ग्रहणेऽनवस्था इतरेतराश्रयत्वं च प्रतिपादयन्ति । तदितरेतराश्रयपरिहारार्थं "प्रत्यभिशानिरपेक्षं स्वप्रतिबन्धबलादनुमानं प्रमाणम्” इति यदुक्तम्, तद्युक्तमिति ।
६८. अथ सत्त्वमर्थक्रियाकारित्वेन व्याप्तम् । अर्थक्रियाकारित्वं च क्रमयौगपद्येनेति । तयोश्च व्याप्तिः प्रत्यक्षेणैव प्रतीयत इति नानवस्थेति । तथाहि - क्रमेणाङ्कुरादिकं कार्यमुत्पद्यमानमुपलभ्यते । तदभावे यौगपद्येन उभयनिषेधे केवलभूत माहि प्रत्यक्षं प्रकारान्तराभावं निश्चायेयति । तेन क्रमयौगपद्याभ्यामर्थक्रियाकारित्वस्यै व्याप्तिं प्रतिपद्यत इति । ततो नित्यात् क्रमयौगपद्यं निवर्तमानमर्थक्रियाकारित्वलक्षणं सत्त्वमादाय निवर्तमानं क्षणिकेष्वेवावतिष्ठत इति व्याप्तिग्रहणं प्रत्यक्षमूलमिति ।
६९. भवत्वेकान्त नित्यात् क्रमयौगपद्यनिवृत्तिनिबन्धनार्थक्रियाव्यावृत्तिः, तथापि न सा क्षणिकेष्वेवावतिष्ठते । यथैकान्तनित्येष्वर्थक्रिया न संभवति, तथैकान्तक्षणिकेष्वपीति । एतच पश्चात् प्रतिपादयिष्यते । तन्न गृहीतव्यातिकं क्षणिकानुमानं प्रत्यभिज्ञाबाधकमिति । प्रतिपादयिष्यते च प्रत्यभिज्ञायाः प्रामाण्यमिति । तस्मादनुगतव्यावृत्ताकारा बुद्धिर्व्यात्मकं वस्तु व्यवस्थापयति । [३४]
६१. एतदेवाह - घटमौलिसुवर्णेष्विति ।
घमौलिसुवर्णेषु बुद्धिर्भेदावभासिनी ।
संविनिष्ठा हि भावानां स्थितिः काऽत्र विरुद्धता ॥ ३५ ॥
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१. मुत्पाद्य क० । २. निश्वापयति मु० क० । ३. खव्या० ब० 1 ४. भासिनेति क० मु० । ५. तया मु० । ६. मुकुटश्चेति मु० । ७. सत्त्वाद्यथा मु० क० । ८. धर्म्यभेदः अ० । प्रसः मु० क० । १०. 'कान्तेनाभेदः अ० । ११. बन्धस्य क० ।
९. साध्य
वृत्ताकारं
६२. मेदावभासिँनीति । भेदमनुगतव्यावृत्तरूपमवभासितुं शीलं यस्याः सा तथा । अनुगतव्या. तथाहि - सुवर्णम् सुवर्णम् इति अनुगताकारा बुद्धिः । घटश्च मुकुटं चेति ॥ व्यावृत्ताकार । चानुभूयत इति । न चैतद्वाच्यम् - 'विरोधादेकं वस्तु नोभयरूपम्' इति । यत आह- संविभिष्ठा हीति यस्मादन्यत्रापि नीलपीतव्यवस्था संवेदननिबन्धनैव । तदिहापि विशेषेऽपि संवेदनमेव प्रमाणमिति ।
वस्तु ।
६३. एवं प्रत्यक्षेणोभयात्मकं वस्त्वनुभूयमानमपि यो मोहात् न प्रतिपद्यते तं प्रत्यनुमानमुपन्यस्यते - सत्त्वान्यथानुपपत्तेः सर्व नित्यानित्यात्मकम् यथा घटः, एकान्तनित्येऽनित्ये- 2 वाऽर्थक्रियाविरोधात् । सन्ति च सप्त पदार्थाः । न तावद्विशदतरदर्शनावसेयस्य सत्त्वस्य ज्ञानवादिमताश्रयणेनासिद्धत्वमुद्भावनीयम्, विज्ञानस्याप्यभावप्रसक्तेः । नापि सर्वशून्यवादिमताश्रयणेन, वादे तस्मानधिकारात् । 'सर्वाऽभावे हि कस्मै किं केन प्रतिपादयेत् इत्यादेरुकत्वात् । नापि प्रतिज्ञार्थैकदेशत्वेनासिद्धत्वम्, धर्मभेदस्याप्यभ्युपगमात् । नापि विकल्पकल्पितो धर्मभेदः । तदा हि खरतुरगविषाणयोरपि गम्यगमकभावः स्यात् । कल्पिताच 10 हेतोः कल्पितसाध्यैसिद्धिप्रसक्तेः । नाप्येकान्तेन भेदः संबन्धासिद्धेः समवायादिसंबन्धैनिरासात् । न चात्र भेदाभेदपक्षभावी दोषो गुडनागरसंज्ञितवस्त्वभ्युपगमात् । तदुक्तम्
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न्यावावतारसूत्रवार्तिकस्तो [२. प्रत्यवपरित "गुस्सेत् कफहेतुः स्यात् नागर पित्तकारणम् । तन्मूलमन्यदेवेदं गुडनागरसंहितम् ॥ मधुरं न हि सर्व स्यात् कफहेतुर्यथा मधु ।
तीक्ष्णं वा पित्तजनकं यथा मागेधिका मता ॥" 'तदेवं भिजामिन्ने वस्तुनि नासिद्धो हेतुः।
६४. नापि विरुद्धः सपक्षे सद्भावात् । नापि विरोधाकान्तत्वात् नित्यानित्यात्मकत्वं घटस्सासिद्धमिति वाच्यम् । तथाप्रतिभासनात् । संविनिष्ठा हि विषयव्यवस्थितयः । तथा च छायातपयोरपि योकत्रावभासनं स्यात् विरोपि, केन नानुमन्येत तथावस्थानम् । तवाहि-मृदूपस्य ध्रौव्यसंज्ञितस्य सर्वावस्थानुयायिनो नित्यस्य अनित्येनोत्पादव्ययसंहितेनै
यात्मतया प्रतीतेः । अन्यथा एकान्तभेदे मृत्संस्थानयोरपरस्परात्मतया प्रतिभासनं स्यात् । नाप्येकान्तेनैकत्वम् अनुगतव्यावृत्तत्वेन द्विरूपाया बुद्धरुत्पादात् । तदुक्तम् ।
"घटमौलिसुवर्णा नाशोत्पादस्थितिध्वयम् ।।
शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥" [माप्तमी० ५९] न पात्रानुगताकारा बुद्धिः सविकल्पकत्वादप्रमाणमिति वाच्यम् । व्यवसायल्पत्वात् ॥ प्रमाणस इति उक्तत्वात् ।
६५. तदेवं देशकालस्वभावाभेदेऽपि संख्या-संज्ञा-लक्षण-कार्यभेदात् नरसिंहाकारमेव वस्तु । तदुक्तम्
"म मरः सिंहरूपत्वात् न सिंहो नररूपतः। संज्ञा-विज्ञान-कार्याणां मेदात् जात्यन्तरं हि तत् ॥" "नान्धयो मेदरूपत्वात् न मेदोऽन्षयरूपतः।
मुझेवशयसंसर्गवृत्तिजीत्यन्तरं घटः॥" अन्यथा एकान्नकूटस्पेनित्यवायां न कश्चित् कचित् प्रवर्तते इत्यप्रवृत्तिनिमित्तकं जगत् सात् । अन्यथा परिणामित्वमेव स्यात् । एकान्तक्षणिकत्वेऽपि प्रतिसंधानप्रत्यभिज्ञायभावेन खगृहेप्यागमनं न स्यात् । तस्मादनेकान्तात्मन्येव वस्तुनि व्यवहारोपि घटते । तदेवमुभयात्मकं वस्तु सिद्धम् ।
६६. ननूकं विरोधाकान्तत्वात् कथमेतदिति । सत्यम्, उक्तम् किन्तु अयुक्तमुक्तम् । तयाहि-विरोषो द्विधा सहानवस्थानलक्षणः परस्परपरिहारलक्षणश्च व्यावर्ण्यते । तत्र किं ययोर्न कदाचिदेकत्रावस्थानं तयोः सहानवस्थानम् , उत कियत्कालावस्थानेऽपि पश्चादनवस्थानेनेति । आये पक्षे अहिनकुलादीनां न विरोधः स्यात् । अन्यथा त्रैलोक्येऽ. प्युरगादीनाममावः । द्वितीयेपि न कस्यचिन्नरवनितादेविरोधो न स्यात् वयोरपि किनित्कालमेकत्र स्थित्वाऽपगमात् । किञ्च , वडवानलजलधि[जल]योर्वियुदम्भोदाम्भसोधिरतरमेकत्रावस्याने कथमयं विरोधः ?।
१. माराधिका मु०क०। २. त्मवं क०। ३. अनित्यत्वेनो ब०मु०क०। ४. "तेनैकात्म क०। ५. इत्तेन मु०। ६. र्णार्थिना सोत्पा. मु०। ७. स्थं जक०। ८. वृतिर्जात्यक०। ९. कूटस्थो न मु०। कूटस्थ न कश्चित् क०। १०. निमित्तिकं मु०क०। ११. द्वितीये न अ० क०। १२. श्रावस्थातःब०।
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कारिका ३५.]
अनुगतव्यावृचाकार वस्तु ।
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६७. अथ बेलवता द्वितीयस्य निवर्तने तथाभावः न स्वयं, विश्लेषे किलाविकलकारणस्य भवतोऽन्यभावेऽभावाद् विरोधेव्यवस्था । यथा शीतोष्णयोः । तदसत् । यतो बलवता किं क्षणिकस्य निवर्तनम् उत अक्षणिकस्त्र १ । क्षणिकस्यापि किम् अतीवानागतलक्षणस्म उत वर्तमान क्षणस्येति १ । तत्रातीतानागतयोरविद्यमानत्वादेव कल्य केन निवर्तनम् ? | देवरता हि किंशुकाः । नाप्येकक्षणावस्थायिनो वर्तमानस्य केनचिभिवर्तनम् धारणं वा संभवति ।
६८. अथ विरोधिनाऽसामर्थ्योत्पादनेन मन्दतरतमादिकार्योत्पत्तौ त्रिचतुरेषु क्षणेषु निवर्तनम् । ननु सामर्थ्यविनाशेने निर्हेतुविनाशवादो निरर्थकः स्यात् । अथ सहकारित्वमेव सामर्थ्यविनाशनम् । ननु क्षणस्यानुपकार्यत्वात् कथमसौ सहकारी ? । एककार्यकरणादिति चेत्; तर्हि कार्यकारणभावमात्रमेव स्यात् ने' कश्चित् निवर्त्यनिवर्त्तकभावः । सहकारिणो 10 विरोधव्यवस्थायां न कस्यचिदयं न स्यात् । वन क्षणिकस्य निवर्तने" सहानवस्थानविरोधः ।
६९. अथाक्षणिकस्य । तस्मापि निवृत्तिः किम् - भिन्ना स्यादू, अभिन्ना वा ? । अभिन्ननिवृत्तिकरणे स एव कृतः स्यात् । तथा च कारणमेव स्यात्, न विरोधः । भिन्ना चेत् तस्या पर्ने कारणं स्यात् । न कस्मैचित् निवर्तको नाम ।
१०. किल्ल, भवतु कथनिच्छीतोष्णादीनां विरोधः, तथापि अयं नित्यानित्य [स्व ] योर्न 1 "संभवति । तथा हि-किम विकलकारणं नित्यत्वं अनित्यत्वेन व्यावर्त्यते, उतानित्यत्वं नित्यत्वेनेति १ । न तावदाद्यः पक्षः । यतः कारणवत्वे नित्यत्वमेव न स्यात् । अथाविकलकारणम विचलितस्वरूपम् ; तस्यापि न केनचित् निवर्तनम् । निवर्तने वा नित्यतैव न खात् । नापि क्षणिकत्वं तस्य स्वत एव नाशात् किं नित्यत्वं कुर्यात् । किंच प्रतिक्षणं विज्ञrog भावेषु तदेव किञ्चिन्नित्यत्वं नास्ति, येन क्षणिकत्वं व्यावर्त्यते । सद्भावे वा कथं 20 सेहावस्थितिविरोध इति ।
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६११. अथ परस्परपरिहारस्थितिलक्षणो नित्यत्वानित्यत्वयोर्विरोधः । स हि किल. स्वपनिष्ठो व्यावर्ण्यते 'नैकं वस्तु द्विरूपं संभवति' इति । तदसत् । र्यंत एकस्यापि प्रस्तरादेः शीतस्पर्शस्य सतः कालान्तरेणोष्णस्पर्शस्य दर्शनात् । न च तद्वस्तु भिन्नम् । विरुद्धो भयपर्यायात्मतया प्रत्यभिज्ञायमानत्वात् । अथैकैदा विरुद्धो भयरूपता नोपलभ्यते । तैदप्यसत् । 25 बहेरेकस्याप्युष्णानुष्णस्वभावस्य दर्शनात् । तथा हि " स्पर्शरूपतया बहिरुष्णो न रूपरूपतया अन्यथा तदवलोकने जननयनवद्दन म पनी पद्येत ।
१. अथ भवता द्वि० क० मु० । २. भवताऽष्य क० । ३. विरोधाव्यव° अ० । ४. क्षणका 탱탱 ५. क्षणिक सु० । ६. अप्पे क० मु० । ७. वारणं सु० क० । ८. निवर्तये
९. विनाशे मु० । १०. निर्हेतुकं वि मु० । ११. स्यात् निव° मु० । १२. निवर्तते मु० । १३. विरोधी १७. नित्यत्वमेव मु० क० । २०. तदसत् एक अ० । २१. दर्शनात्
अ० । १४. एवं अ० । १५. कश्चित् क० । १६. स भवति मु० ।
१८. क्षणिकत्वं किव मु० क० । १९. सद्भावस्थि० ब० ।
तथाहि स्पर्शरूपतया वहिरुष्णो न रूपरूपतया न च° अ० । २४. भ्यवे व
मु० क० । २५.
२७. 'मापद्येत सु० ।
मा० १२
영향 -
मु०
२२. अथ वि० मु० । २३. बिरोधोभय तथापि क० ।
२६. न रूपतया मु० ।
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ [२. प्रत्यक्षपरि. ६१२. न प स्पर्श-रूपपरमाणूनां परस्परपरिहारेणावस्थानात् नैकमुभयरूपमिति बक्तव्यम् । यतः तथापरिणते बहिद्रव्ये न केचनापरे परमाणको विचन्ते । ने चेन्द्रियान्तरकल्पनावैफल्यदोषो वाच्यः । कथनिदस्याप्यभ्युपगमात् ।
६१३. किकस्मिन्नात्मनि विरुद्धधर्माधर्मयोरेकसंबन्धेनावस्थाने कथमयं विरोषः । •अथ कर्मरूपतया तयोरेकत्वात् तथावस्थानेऽपि न युगपद्विवफलजनकत्वम् । तदप्यसत् । तस्यापि दर्शनात् । तथा हि-पादादौ प्रणच्छेदकर्मणि दु:खोत्पादेऽपि मुले कर्पराविना सुखोत्पादस्यापि दर्शनात् ।
६१४. किन, अयं नित्यानित्यत्वयोः सामान्यलक्षणयोःसवोविरोषः एत सामान्यलक्षणखलक्षणयो:, आहोखित् खलक्षणयो, किम् आरोपितयोः, अयारोपितानारोपिवयोरिति ।। ॥न तावदाचः पक्षः । एकत्रैवानेकसामान्यसहावाभ्युपगमात् । नापि द्वितीयः । यतः ।
"निर्षिशेष न सामान्यं भवेच्छशविषाणवत्।
__'विशेषोऽपि च नैवास्ति सामान्येन विना कृतः॥"[लोकना. मारुति ..] नापि तृतीयः । रूपरसादीनामेकत्र सद्भावदर्शनात् । चतुर्थे तु खरतरगविषाणयोरिव को नाम विरोधः १ । अथ आरोपितानारोपितयोर्भाषाभाषयोः परस्परपरिहारस्थिविलक्षणो "विरोधः । तथा हि-नित्यत्वानिवृत्तिस्तुच्छल्पा अनित्यत्वम् । अनित्यत्वनिचिश्व नित्यत्वम् । तयोः कथं न विरोध:
यसत्। यतो न तुच्छरूपोऽभावः प्रमाणगोचरचारीवि प्रबन्धन प्रतिपादितम् । कथं तहिं भावाभावात्मकं वस्तु । नैतदस्ति । यस्मात् परदेशाचपेक्षया भाव एवाभावः । नापि प्रागभावप्रध्वंसाभावविशेषणसत्तासमवायात्मका, संत्तया सह संबन्धीसिद्धेः । स हि समवायलक्षणोऽभ्युपगम्यते । तस्य च पूर्वमेव निरस्तत्वादिति ।
६१५. किन्न सत्तासमवायादनित्यतायाम् आत्माविष्वपि अनित्यत्वप्रसङ्गः । यथा में समवायोऽन्यद्वा एकान्तनित्यं वस्तु न संभवति तथाऽने प्रतिपादयिष्यामः । तम कनिहायव्यतिरिकोऽभावोऽस्ति येन विरोध: स्यात् । ततः सिद्धो नित्यानित्यात्मको पटः । वस्सिी चन विरुद्धो हेतु
१६. नाप्यनैकान्तिकः । विपर्यये वाधकप्रमाणसनावात् । तथा हि-इदं त्वम् अर्थक्रियाकारित्वेन व्याप्तम् । सा च कूटस्खनित्यानित्याच व्यावर्तमाना सस्वमादायै निवर्तते । वेन उत्पादव्ययधौव्यवत्येव वस्तुनि सस्वमवतिष्ठते। .
६१५. न च सत्तासंबंधेन सत्वं वाच्यम्, सत्तादीनामसस्वप्रसंगात् । अपरसंचाभ्यु. पगमे वाऽनवस्था । तदव्यापि लक्षणम् । अतिव्यापि च शशविषाणादीनामपि सत्त्वप्रसङ्गात् । तेषां सकलशक्तिरहितत्वात् न सत्तासंबन्ध इति चेत् । वर्हि शफिरेष सत्त्वेक्षणम्, कि * सत्तासंबन्धेन १ । इतरेतराश्रयत्वं च स्यात् । तथा हि-सति सचासंबन्धे सत्वं वाच्यम्, सति सरवे सत्तासंबन्धः।
१. णतवहिब। २. न लिन्द्रि०। ३. वन्धिना म०। ४. पादेक०मु०। ५.नित्ययोः ब० मु० क०। ६. "सामान्यरहितलाच विशेषाखदेव हि"-लोकवा । ७. सत्ताया ०। ८. संबंधोऽसियः ००। ९. तस्य पू० भ०। १०. यषा समब०। ११. अपरसत्वाभ्यु००। १२. सस्ने बमु०। १३. मत्वं सति मु००।
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कारिका ३५० ]
एकान्तनित्यादावसत्त्वम् ।
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१८. सा च कूटस्थस्य न विद्यते । तथा हि- नित्यं क्रमेण वा शक्तिमत्स्यात् यौगपद्येन एकान्त बा ? । न तावत् क्रमेण । सकलसामर्थ्योपपनस्य एकक्षण एव समस्त कार्यनित्ये सरनिषेधः । करणप्रसङ्गात् । सहकार्यपेक्षा च समर्थस्य न विद्यते । असामध्यें वा पूर्वमसमर्थस्य सहकारिसानिध्येन सामर्थ्योत्पत्तौ परिणामित्वप्रसंग: । सहकारिणा सामर्थ्यमुत्पाद्यमानं ततो मिन्नमभिनं वा स्यात् ? । अभेदपक्षे कूटस्थनित्यताहानिः । भिन्नकरणे तस्मादेव कार्योत्पत्तिः स्यात्, न नित्यात् । इत्यादि सौगतैरेवात्र विजृम्भितं तदिह नोच्यते विस्तरभयात् । तन्न क्रमेण कर्तुत्वम् ।
६१९. नापि यौगपद्येन प्रथम एव क्षणे कृतत्वात् द्वितीयादिषु न किचित् कर्तव्यमस्तीति सर्वसामर्थ्यरहितस्य व्योमोत्पलस्येवासत्त्वं स्यात् । पुनः करणे वा क्रमपक्ष एव स्यात् । तत्र चोको दोषः । न च कृतकरणमस्ति । तन्न यौगपद्येनापि करोति । न चापरं ॥ क्रमाक्रमरूपं प्रकारान्तरमुपेयते, अस्मन्मतानुप्रवेशप्रसंगात् । तन्न कूटस्थ नित्यं किंचित् करोति ।
२०. नाप्येकान्तक्षणिकम् । तदपि हि क्रमेण वा कुर्यात् यौगपद्येन वा ? । न तावत् एकान्तक्ष- क्रमेण । स हि देशक्रमो वा स्यात् पिपीलिकानामिष, कालक्रमो वा पत्रनालाजिके सरवनिषेधः । दीनामिव । तत्र नैकस्मिन्देशे कार्य कृत्वा देशान्तरे क्षणिकं वस्तु करोति । तत्रैव तस्य ध्वस्तत्वात् । नाप्येकस्मिन् क्षणे कृत्वा द्वितीये विदधाति, क्षणिकत्वहानिप्रसंगात् । ॥" २१. अथ नायं क्रमः सौगतैरुपेयते । किं तर्हि ? । कार्यान्तरासाहित्यं कैवल्यम् अङ्कुराः । यौगपद्यमपि कार्यान्तरसाहित्यम् । तथा हि- लोको वदति क्रमेण यवाङ्कुरा उत्पन्ना यौगपद्येन वा इति । ननु कल्पनामात्रमेतत् वस्तुतैः पुनः सौगतानां द्विविधं कारणं सामीलक्षणम् सहकारिलक्षणं च । तत्र यदि साममीलक्षणं कारणमाश्रित्य क्रमयोगपद्यमिष्यते । तन संभवति । तत्र यौगपद्याभावात् । एकमेव हि कार्य सामग्री जनयति । ॥ नापरम् । वन कार्यान्तरसाहित्यलक्षणं यौगपद्यं तत्रास्ति । नापि सहकारिकारणमभ्युपगम्य तथाभावव्यवस्था । तत्र हि यौगपद्यस्यैव संभव इति । तथा हि तानि स्वं स्वमुपादेयकार्यम् उपादानभावेन परस्परकार्य च सहकारिभावेन जनयन्तीति कुतः क्रमः । तत् परापेक्षया कल्पित एव क्रमयौगपद्यभावः । न हि निरंशं वस्त्वनेककार्यजनकं संभवति सांशताप्रसंगात् । न चोपादानसहकारिभावः संभवति । तथा हि- द्वितीय स्वभावाभावादेकमेव 24 जनयेत् । न चैकं जनकैमुपेयते । तन्न क्षणिकपक्षेऽपि क्रमयौगपद्यक्रियासंभवः ।
६२२ किंच क्षणिकं वस्तु सव्यापारं वा कार्य कुर्यात् निर्व्यापारं वा १ । निर्व्यापारस्य करणे खपुष्पस्यापि कार्यक्रिया स्मात् । व्यापारवत्वे प्रथमे क्षणे उत्पद्यते द्वितीये व्याप्रियते इति क्षणिकत्वहानि: । अथ प्राकालभावित्वमेव व्यापारः नापरः । तर्हि तत्क्षणभाविनां जगत्क्षणानामपि कारणत्वं स्यात् । तथा च सूत्ररूपताऽपि घटस्य स्यात् । न चोपेयोर्थिनां नियतकारणोपादानम् स्यात् । न चानन्तरक्षणविनष्टे चिरतरविनष्टे वा कश्चिद्विशेषोऽस्तीति
१. सनि म० प० । २. कारिसनिषो मु० क० । ३. सरवसा सु० क० । ४. न वा मु० । ५. वस्तुनः सु० क० । ६. तत्र क्रमयोग° अ० प० । ७. तत्रास्ति नापि क्रम इति । नापि सङ्घ ९. द्वितीयांशभा क० मु० । १०. कंमुपपद्यते ब० । चोपेने मा०ि ० ।
탕탕
८. न च निरं° क० मु० । ११. कार्य● ० ० ।
१२.
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९२
न्यायावतारस्नवार्तिकवृचौ [२. प्रत्यक्षपरि. चिरतरविनष्टमपि कुर्यात् । इति मृतेन छुटेन वासितव्यम् । ततो घटरूपतया परिणमनमेव मुत्पिण्डस्य कारणत्वं न प्राग्भावः । न चानुसन्धातारमात्मानमन्तरेण कार्यकारणभावप्रतीतिः । तथा हि-कारणविषयेण प्रत्यक्षेण कारणमेव प्रतिपनम्, न कार्यम् । कार्यविषयेणापि कार्यमेव न कारणम् । अथ निर्विकल्पकदर्शनद्वयानन्तरं 'इदमस्मादुत्तमम्' । इत्येवमाकार स्मरणज्ञानमुदेति तेन तथाभावग्रहः । तदप्यसत् । स्मरणं हि अनुभवानुसाउँबोत्पयते । न चानुभवदयेन कार्यकारणभावोऽनुभूत: येन तथास्मरणं स्यात् । आत्मनमा. भावे कस्य तत् स्मरणं स्यात् । । तन्न क्षणिकपझेऽपि कार्यकारणभावप्रतीतिः ।
६२३. किन कार्य सदुपयते, उतासत्, आहोस्थित् सदसत् । यदि सत् । किमुत्पते । अथासत् । किन व्योमोत्पलम् । अथ प्रागभावाभावात् न व्योमोपलस्य उत्पत्तिः । ननु "प्रागभावोऽपि तस्स किमिति नास्ति । उत्तरकालमभावादिति चेत्, इतरेतराश्रयत्वम् । तथा हि-यस्लोचरकालमुत्पतिः तस्य प्रागभावः । यस्य प्रागभावः तस्योत्पत्तिरिति । खेदसचेत् हन्त ! अस्मन्मतानुप्रवेशः।
६२४. तनैकान्तनित्येऽनित्ये वा अर्थक्रिया समस्तीति नित्यानित्यात्मन्येवार्य क्रियाकारित्वेन सत्त्वम् । तथा हि-स एव मृत्पिण्डो घटरूपतया परिणमते इति प्रतीतिः । यपं हि ॥ कारणमुपलभ्यते तद्रूपमेव कार्यमपि । तदेव द्रव्यं तेनं तेन पर्यायेण परिणमदुपलभ्यते ।
नात्यन्तभिन्नमभिन्नं वा घटाविकार्य प्रतीयते । तदुकम् -द्रवति गच्छति सांस्तान पर्यायानिति द्रव्यम् । तेन द्रव्यमेव अन्तरजम् , बहिरणाः पर्यायाः।
६२५. मनु द्रव्यस्य कुतः सत्त्वसिद्धिः ? । प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षादिति अमः । तथा हित्यस यदवाधितबोधगोचरचारि सत् सद् यथा स्तम्भकुम्भावि । अवाधिवप्रत्य" सिदि। मिज्ञाप्रत्यक्षगोचरचारि चे पूर्वोत्तरपर्यायव्यापि द्रव्यम् । भेददर्शनमपि हि" भेदयादिभिरिन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधायितया प्रत्यक्षमुपेयते तथा अभेदाभ्यवसायिन्यपि पूर्वदर्शनाहितसंस्कारप्रबोधप्रभवस्मरणसहायेन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधायिनी प्रत्यमिक्षा कथं न प्रत्यक्षम् ।
६२६. च 'अक्षं वर्तमानकालभाविनि प्रत्यासीदति, अतः तदनुसारिणी धीरतत्रैव ७ प्रवर्तितुम् उत्सहते, न पूर्वः' इति वाच्यम् । एवं हि विशदर्शनाबसेयाः सम्मादयोऽपि न प्रत्यक्षाः स्युः । तथा हि-अर्वाचीनावयवसंबन्धे(३)न्द्रियजनितप्रत्यक्षाबसेयं मध्यपरावयवाविव्यापि स्तम्भाविद्रव्यम् । तीर्वाचीनावयवमात्रपर्यवसिते" प्रत्यक्षे न स्यात् । परमाणुरूपावयवानां चाँप्रत्यक्षत्वात् । ततः सकलप्रमाणशून्यो प्रायताऽऽपयेत । ६२७. अथ विततदेशव्यवस्थिताः परमाणवः प्रतिमासविषयाः । वदसत् । सान्तराणां
१. ण्डस्यैव का अ०। २. उताऽसयदि क.मु०। ३. प्रागभावभावात् क०। ४. प्रागभावेऽपि मु०। ५. रिति तनैका मु० क०। ६.क्रियालमस्तीति मु०। ७.द्रव्यं तेन पर्या मु०। 4. निति द्रब्यमेव मु०।९. चारि पूर्वो मु००।१०. मपि मेदकमु०। ११. रेकविधा । १२. 'यते अतः भमेमु०। १३. प्रत्यक्षं वर्त ब०। १४. पूर्वज इति मु०। १५. अर्थाधीनाव मु० क.। १६. तचार्याधीना मु० क०। १७. सितप्रत्यक्षे मु०। १८. वापस मु०। १९. 'एल्यमा म०प०१०।
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कारिका ३५.] द्रव्यम्य प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षावसेयत्वम् । तेषां अप्रतिभामना । संयोगान् तथाभासनमिति चेत् । ननु तेषां संयोगः किम् एकदेशेन सर्वात्मना वा ? । ने तावदेकदेशेन निर्देशत्वात् परमाणूनाम् । नापि सर्वात्मना पिण्डल अणुमात्रत्वप्रसंगात् । तम परमाणवः प्रेतिभासविषयाः । किन्तु एकपरिणामपरिण स्तम्भाविद्रव्यं प्रतिभासगोचरचारि । तद्यथा-अर्वाचीनावयवसंबद्धेन्द्रियजनितप्रत्यक्षेण विभिनवेशव्यवस्थितपरोक्षावयवव्यापि पुरोव्यवस्थितं वस्तु प्रतीयते, तथा वर्तमानपर्याय । संद्धेन्द्रियात् स्मृतिसहायात उत्पन्न प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षेण अतीवदेशकालाविव्यवस्थिवानेकपर्यायव्याप्येकं प्रत्येष्यतीति न कश्चिदोषः।।
६२८. न क्षणिकानुमानवाधितत्वात् प्रत्यभिज्ञान प्रान्तमिति वाच्यम् । अन्यथा विशददर्शनं हिमांशुधषलिमानं परिच्छिन्ददुत्पद्यमानं - 'नीलं निशीथिनीनाथविम्ब सत्वात् नीलोत्पलवद्' इत्यनुमानबाधमनुभवदप्रमाणं स्यात् । अथास्य प्रत्यक्षवाधितत्वात् । न प्रामाण्यं । क्षणिकानुमानस्यापि प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षबाधायां समानम् । अथ प्रत्यभिज्ञानस भ्रान्तत्वात् क्षणिकानुमानस्य प्रमाणता । तर्हि इतरेतराश्रयत्वम् - सति हि प्रत्यभिज्ञानस भ्रान्तत्वे अस्स प्रामाण्यम् । सत्यस्य प्रामाण्ये प्रत्यभिज्ञानभ्रान्ततेति । न च प्रत्यक्षम् अनुमानेन पाभ्यते । तत्पूर्वकत्वात् अनुमानस्य । अन्यथाऽनुमानपूर्वकत्वेऽनवस्था सात् । पत: सिद्धमवाधितं प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षं ।
२९. किन, यदि नियतव्यक्तिसंबद्धेन्द्रियजनितं प्रत्यक्षं नातीताविपर्यायात्मकद्रव्यपाहि स्यात् , तदा यदेतत् सुप्रसिद्धं वहयनुमानं तदपि न स्यात् । तद्धि महानसादिव्यबस्थितधूमधूमभ्वजसंद्धेन्द्रियजनितप्रत्यक्षेण अशेषत्रैलोक्योदरविवरवर्तिधूमवहिविशेषव्यवस्थिततिर्यक्सामान्ययोाप्तिाहणे सति प्रवर्तते । तथेन्द्रियसंबद्धषस्तुमात्रविषयप्रत्यक्षवायां न खात् । तस्माद् यथा प्रत्यक्षं व्याप्तिप्राहकम् अशेषविशेषात्मकतिर्यक्सामान्यमाहि.. तथा प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षं अलतासामान्यप्राहीति । न च लूनपुनर्जातकेशाविवेकत्वमन्तरेणोत्पद्यमानं भ्रान्तमिति वाच्यम् । तत्रापि सामान्यस्य सद्भावात् । न चैकत्र प्रान्तं प्रत्यक्षं सर्वत्र प्रान्तमिति वाच्यम् । तस्मात् सिद्धं नित्यानित्यात्मक वस्तु । तसिसौ. सदसदात्मकं सामान्यविशेषात्मकं उत्पादव्ययधोव्यात्मकं च सिद्धम् , विशेषोत्पादविनाशानामनित्यत्वेऽन्तर्भावात् , अन्येषां नित्यत्वे इति । ६३०. न घेताच्यम् -
सर्षस्योमयरूपत्वे तविशेषानिराकृतः।
बोदितो दधि खादेति किमुष्ट्र नामिधावति ॥" [प्रमाणवा० ३.१०१,१.१] पर्यायनयस्याप्यभ्युपगमात् । अत एष सप्तभङ्गी सिध्यति । तया हि-यदा द्रव्यस प्राधान्यं विवक्ष्यते तदा 'स्यादति' इति कथ्यते । यदा पर्यायाणां तदा 'सामाखि'
१. नेकदे मु०क०। २. णवः किन्तु ब०। ३. अर्थाधीना मु०क०। ४. संबन्धेन्द्रिमु० क०। ५. प्रत्यक्षतीति क०। प्रत्यक्षमिति मु०। ६. परिच्छिददुत्पमु०क०। ७. मानम मु०। मानवाचामनुक०।८. मिहाभान्तवेति क०।९. संबन्धेन्दि मु०।१०, अनिताक०। ११. तपतेतव मु००।१२. "स्थितधूमय मु०क०।१३. संबन्धेन्द्रि मु०क०।१४. सति वर्ववे मु००। १५. सपाव मु०। १६. प्राधान्यविवक्षा तदा क०। प्रधानविपक्षा तदा मु०।
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न्यायाववारसूत्रवातिकतो
[२. प्रत्यक्षपरि० इति । यदा युगपदुमयप्राधान्यप्रतिपादन विवक्ष्यते वदा 'अवक्तव्यम्' । एते सकलादेशाः । तत्संयोग एवापरे चत्वारो भगा भवन्ति । ते च स्वावयवापेक्षया विकलादेशाः । तद्यथाभसि नास्ति च । अति पावक्तव्यं च । नास्ति चावक्तव्यं च । अस्ति च नाति पापचय इति नापरमासम्भवः । [३५] .६१. एवं संख्या-लक्षण-गोचरविप्रतिपत्ति निराकृत्येदानी फलविप्रतिपत्ति निराकुर्वाहप्रवीतेस्तु फलमिति ।
प्रतीतेस्तु फलं नान्यत् प्रमाणं न ततः परम् ।
अताप्येऽपि योग्यत्वानियतार्थस्य वेदनम् ॥ ३६॥ १२. 'पुनरर्थे । फलं पुनः प्रमाणस्वार्थाधिगतिरेव नान्यदिति, तैद्धि मानान्तरं वा "प्रमाण- सात् प्रवृत्तिर्वा अर्थक्रियाप्राप्तिर्वेति । तत्र न तावत् मानान्तरम् । तद्धि बस्या। प्रमाणाद्विमाविषयं पा. स्यात्, अभिन्न विषयं वा। यदि भिन्नविषयं तदा नि संगतम् । एवं हि घटज्ञानस्यापि पटझानं फलं स्यात् । अथाभिन्न विषयम् । पदा बाधितकिये कर्मणि अविशेषाधायि किं कुर्वत् साधनं स्यात् । । निश्चयमिति चेत् ; न, प्रमाणलैब निधयात्मकत्वात् । अथानिश्चयात्मकं प्रमाणं तर्हि निश्चय एवं प्रमाणमस्तु । ॥ वेन निलपकरणात् । तदपि चेत्, चक्षुरादिकमस्तु । नै चानिश्चयात्मकप्रमाणवादिमिरपि नियः फलमिप्यते । समझानान्तरं फलमिति ।
१३. नापि प्रवृतिप्राप्ती, क्योः पुरुषसाध्यत्वात् । उक्तं च शाबकारैः- "महि प्रमाणं गळे पीत्वा पुरुषं प्रवर्तयति नाप्यर्थमुस्पाय अर्पयति किन्तु अर्थपरिच्छेदकत्वमेव प्रवर्त
संप्रापकत्वं" इति । तस्मादधिगतिरेव फलम् । • ६४. प्रमाणमपि न तसा प्रतीते" परं, किन्तु प्रतीयते नेनेति प्रमाणं प्रतीतिरेव । एखदुकं भवति-मात्मना परमार्थेन प्रमाणं भियते किन्तुं आत्मैव मानावरणक्षयोपक्षमवान् प्रमाण, स एव प्रतीतिरूपत्वात् फलमिति ।
६५. बाकारः प्रमाणमिति चेत् न, अर्थाकारतायां ज्ञानस जस्ता सात् । अब मीठापाकारतेव अर्थाद्ववति ने जडता । यदि नीलपरमाणुरूपता तदा कयं न जडवा। भयापरमाण्वात्मके विज्ञाने नीप्रतिविम्बमात्रमेव भवति । यथाऽनीलात्मके स्फटिके मीडाविति । वदसत् । यतो न स्फटिकस्यापि नीलपरमाणुपरिणतेरन्यत् प्रतिविम्बमिति ।
६६. कि, कारणत्वाद् यथा अर्याकोरो भवति तया चक्षुरादेरपि स्यात् । अयोग्यत्वात् न इति चेत्, वर्हि योग्यतेवास्तु किमाकारेण । तेन यदुतम् - "माकारमन्तरेण
१.पावनविवक्षा मु००। २. सकलविशाः मु०। ३. तद्विशा मु०क०। ४. शानान्तरप्रमाणान्तरम् । तहि प्रमाक०। ५. तम्कि मु०। ६. स्थापि पटशानस्यापि पटशानं फलंक०। ७. मिषयात्मक प्रमाण मुक०। ८. मस्त निषया मु०क०। ९. अर्थयति मु०। १०. कसं च प्रापक०। ११. प्रतीवेऽपर मु०। १२. प्रवीयन्ते म०प०। १३. प्रतीतेरेव मु०क०।१४. किचात्मैव मु०। १५. पसंभवात् मु०। १६. रूपः फलं ब०क० । रुपफलं मु०। १७. वति जडता मु०क०। १८. मीका प्रतिवन्धमात्रमेव भ००। १९. मर्यादाकारोक०। २०. °न्तरे प्रति मु.।
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कारिका ३६.]
परोक्षस विषयव्यवसा। प्रतिकर्मव्यवस्था न स्यात्" इति वनिरखम् । शानमेव हि नियवार्यमहणे योग्यमत किमाकारेणेति । एतदेवाह-अवाप्येपीत्यादि।
६७.'यस्मादाकारवाविनापि वस्तुलामाम्यं नाकारमहणेबानसाम्युपगतम् । मात् देव नियतार्थमहणे ज्ञानस्वास्तु किं व्यवधिना । न च खामाग्यमहेतुकम्। किन्तु कर्मणः क्षयोपशमवैचित्र्या भात्मैव नियतार्यज्ञानाकारतया परिणमखासानान् प्रतिपयते । इति स्थिवम् ।
इत्यन्यलक्षणतम पटलं निरस्म प्रत्यक्षमक्षिसममुज्वलदर्शनाय । मीसिद्धसेनघटिवस्फुटगीशलाकां शुद्धामवाप्य विमलं विहिवं मर्यवत् ॥[३६]
॥ इति श्रीशान्त्याचार्यविरचितायां वार्तिकवृत्तौ प्रलक्षपरिच्छेदः ॥
३. अनुमानपरिच्छेदः।
६१. एवं प्रत्यक्षस्य संख्या-उक्षण-गोचर-कलविप्रतिपरि निराकृत्य इदानी परोक्षस को निराकर्तुमाह-पूर्वमेव परोक्षस इत्याविना ।
पूर्वमेव परोक्षस्य विषयः प्रतिपादितः। ६२. अनुमान-सादलक्षणस्य परोक्षस्य 'अविस्पष्टात एव स्यु'का० २३] इत्याविना विषयोऽस्पष्टाविरूपः प्रतिपादितः न सामान्यम्, नाप्यन्यापोह इत्यर्थः। बाहि-॥ सामान्येऽर्थक्रियाशून्येऽनुमानादेः प्रतीयमानेऽपि नार्य कियार्थी व प्रसूत।।
६३. सथ कामर्थक्रियां सामान्यं न करोति । यदन्यसाध्याम्, बदा अन्योऽन्यक्रियाकारी न स्यात् । न हि नीलमपि पीतसाभ्याम् अर्थक्रियां करोति । अब खसान्यो तदा बमित्रज्ञानामिषानलक्षणां करोत्येव । कयमयक्रियाशून्यं सामान्यमिति' । यवं सुवर न प्रवत, सत्प्रतीतिकाल एव वदयक्रियाया: सिद्धत्वादिति । म चामित्रज्ञानामिषाने । सामान्यसाध्ये, तयोरसामान्यदर्शिनोऽपि छात्र विकल्पेषु भावात् । न पैकान्तनित्यल खविषयज्ञानोत्पचावपि सामर्थ्यमन्त्रीस्युक्तम् ।।
६४. अथ तत्प्रतीयमानं विशेषेषु प्रवर्तयति । वदसत् । न हि अन्यसिम् प्रतीयमाने अन्यत्र प्रवृश्चिर्युका, अतिप्रसंगात् । संबन्धात् प्रवृत्तिरिति चेत् । नेतदस्ति । नकभादप्रतीतो द्वितीयप्रवृत्तिदृश्यते । अथ सामान्यं विशेषेविना न संभवति न तेषु प्रायति।। ननु सामान्यं किम् अविशिष्टं प्रतीयमानं विशेषेषु प्रवर्तयति किंवा विशिष्टमिति । बच. विशिष्टं सदा वत् सामान्यं प्रतीयमानं विशेषमन्तरेणानुपपद्यमानं सलिलावावपि प्रवर्तवेत्।
६५. अय विशिष्टं तवा वैशिध्वं वक्तव्यम् । किंवत्र समवाया, किया 'वसेदम्' इति प्रतीतिरिति । म समवाया, वम निरस्तत्वात् । साधारणस्य च समवायसन विशेषकारिस्व
१.मतपेपी मु०। बतादूपोऽपिक०। २. प्रहणासा' मृ० ।प्रहणात्म तपापरि मु०। .. परिणतयांबाब०। ५.श्री म०००। ७.प्रपर्वमा
क ... .कारः पदमुक्का
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकचौ
[ ३. अनुमानपरि०
-मिति । द्वितीये तु पक्षेः इतरेतराश्रयत्वम् । तथा हि- विशिष्टसामान्यप्रतीतो विशेषप्रतीति, यत्प्रतीतो विशिष्टसामान्यप्रतीतिरिति । किं च 'तस्येदम्' इति प्रतीतावपि नियतदेशविशेषाप्रतीतो मानुमानादेः प्रवर्तेत । व्याप्तिप्रहणकाले च वैहपादिसामान्यस्य सिद्धत्वात् गृहीतमाहित्येन च प्रामाण्यं न स्यात् इति । विशेषोऽपि सामान्येन प्रतीयत इति चेत्; सामान्येन इति कोऽर्थः । किं सामान्यमेव सामान्यं प्रतीत्य प्रतीयते किं वा विशेष इति १ । यदि सामान्यं तदा तेनापि पुनरन्यत् सामान्यं ततोऽप्यन्यदिति अनवस्था । नापि विशेषः, क्रमाननुभवात् ।
•
20
"होहिं वि जपहिं नीयं सत्थमुलूपण तह वि मिच्छतं ।
जं सविसयप्पहाणतणेण अनोशनिरवेक्ता ॥” [ सन्मति १.४९ ] अयाभिन्नसामान्यप्रतीतौ नियतदेशविशेषप्रतीतिः । एवं हि अशेषविशेषप्रतीतिरपि खात् । तथा हि- यद् यस्मादभिन्नस्वरूपं तत् तस्मिन् प्रतीयमाने प्रतीयते । यथैकव्यक्तिसामान्यप्रतीवौ व्यक्त्यन्तरसामान्यम् । अभिन्नस्वरूपं च व्यक्त्यन्तरमिति । कृष्णादेर्विशेषण"स्वाप्रतीतिरिति चेत्; न, विशेषणानामभेदे' प्रतीतिः स्यात् । भेदेऽप्युपाधिमति निधीयमानेऽशेषोपाधीनामपि निश्वयः स्यात् । तस्मादभिन्नसामान्यप्रतीतौ अशेषम्यतिप्रतीतिर्भवेदिति ।
६७. किला, -
६६. अब नाति उक्षणी किन्तु युगपदुभयं प्रतीयते । नैतस्ति, उभयाप्रतीतेः । न हि एकं दण्डायमानं सामान्यम्, अपरो विशेषः तत्र लक्ष्यते । उकन्न ।
20
"कस्मात् साम्रादिमत्स्लेब गोत्वं यस्मात् तदात्मकम् ।
तादात्म्यमस्य कमाचेत् स्वभावादिति गम्यताम् ॥” [ छोकबा• आइ० ४७ ] यनमभ्युपगमनुपदर्थं दूषयति -
"व्यक्तिजन्मन्यजाता चेद् आगतानाश्रयान्तरात् । प्रागासीच च तद्देशे सा तया संगता कथम् ॥ व्यक्तिनाशे न चेष्टा गता व्यक्त्यन्तरं न च । तच्छ्रन्ये न स्थिता देशे सा जातिः क्वेति कथ्यताम् ॥ न याति न च तत्रासीद् मस्ति पश्चात चांशषत् । जहाति पूर्व माधारम् महो व्यसनसंततिः ॥”
एवं वादात्म्यपचपि न युक्तः । तस्माद्विशेषा एव समानपरिणामवन्तोऽल्पष्टाः परोक्षम विषय इति । ननु विशेषविषयत्वेऽनुमानादेः कथं न तार्णादेः प्रतीतिः १ । न, दूरप्रत्यक्षेऽपि " समाऽप्रतीतेः । तदेवं न सामान्यं विषयः ।
१८. नाप्यन्यापोहः । स हि पर्युदासरूपो वा स्यात् प्रसव्यरूपो बा ? । प्रथमपक्षे अपोह- वस्त्वन्तरमेव स्यात् । तब सामान्यं वा विशेषो वेति विधिरेष शब्दार्थः स्यात् । निरासः । द्वितीये तु निषेधमात्रमेव प्रतिपाद्यते । तस्य च शब्दाद्यर्थत्वमयुक्तम्, अप्रतीतेः ।
१.०५०। विधे क० । ५. 'ममेव ८ विषय इति
२. 'वस्था अथ मु० क० । ३. लक्षणं मु० क० । ४. अविशेषब० मु० क० । ६. दूषयन्ति मु० क० । ७. सामान्यकि०
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कारिका ३७.]
अपोहनिरासः। सथाहि-परप्रतिपादनार्थ तस्य प्रयोगः । परस्तु नीलाथर्थी नानीलनिषेधमा जिज्ञासति । प्रतिपादकोऽपि तथैव प्रतिपादयति । अजिज्ञासितं प्रतिपादयन्न प्रेक्षापूर्वकारी स्यात् ।
६९. अथ 'किम् आनयामि' इति जिज्ञासायाम् अनीलमपि जिज्ञासितं नीलमित्युके निषिभ्यते । नैव' प्रतिपाद्यस्य विधावेव जिज्ञासा न "निषेधमात्रे । प्रतिपादकोऽपि तथैव प्रतिपादयति । सामादन्यप्रतिपत्तिरिति । नैतदस्ति, प्रतिपाद्यस्य सामान्येन विधावेव । जिज्ञासान प्रतिषेधमात्रे । 'विधिप्रतिपत्तौ सामादन्यप्रतिषेध इति।
६१०. किञ्च, अयमपोहो भावे भाषस्य वा प्रतीयते केवलो वा । प्रथमपझे भावयोः प्रतीतिः किं तेनैवानुमानादिना, किं वा प्रमाणान्तरेण १ । यदि तेनैव तदा किं भावी प्रतीत्य प्रतीयते कि वाऽपोहं प्रतीत्य साविति। न तावत् प्रथमपक्षः । नहि नीलशब्देन अनीलं प्रतीयते । प्रतीयमानत्वे वा कथं तनिषेध इति । नीलं चे प्रतीत्य अनीलापोहप्रतीतौ । स्खैलन्ती प्रतीतिः स्यात् । अथ नीलमेव अनीलापोहात्मकं प्रतीयमानमुभयव्यवहार रचयति; तर्हि आयातोऽस्मत् पथमिति । नापि द्वितीयः पक्षः । नहि केवलोऽपोहः प्रतीयते पश्चात्ताविति, अननुभवात् । नापि प्रमाणान्तरं किंचित् वत्र अनीलप्रत्यायकमस्ति, येन तदपोहः प्रतीयेत । न चाभावेन भावस कश्चित्संवन्धः संभवति इत्युक्तम् । तस्मान भावसंबन्धित्वेनापोहस्य प्रतीतिरिति । केवलस्य च संस्य प्रतीतो सर्वशब्दानां पर्यायवा" स्यात्, लिङ्गलिङ्गिनोरभावश्च भवेत् । तथाहि-यदेव लिनशब्दवाच्यम् वदेव लिनिशब्दस्थापि। तथा विशेषण-विशेष्यभावोऽपि न सात। असत्त्वं च गति न किंचिदखि यदपोहेन सत्त्वाख्यं साधनं भवेत् ।
६११. अथासत्यपि बाझे वासनानां नानात्वात् तबनितानां ध्वनीनां न पर्यायतेति । तन्न, बासनानामपि नानात्वानुपपत्तेः । ता हि अनुभवनिबन्धनाः । एकल्पस्स चापोहलै । प्रतीतौ कथं वासनानामपि नानात्वमिति । तथा, अकालोपोहस्सैकरूपत्वादतीतानागतवर्तमानताव्यपदेशा नोपपधेरनिति । अक्रियानिषेधस वा भावेकरसस सद्भावे अकार्षीत् करोति करिष्यतीति च व्यपदेशानुपपत्तिरिति । वचनलिङ्गभेदश्च न स्यात् । तथा, सर्व-अमेयौदिशब्दानामसर्वादेरेभावात् अपोशाभावेन अपोहवाचकत्वं न स्यात् । अपि च, अपोहः किम् आश्रितः, अनाश्रितो वा ? । अनाश्रितत्वे न कस्यापि । आश्रितत्वे गुणो वा स्यात् . सामान्यं वा भवेत् । तथा हि-यदि प्रतिव्यक्त्यनेकखदा गुणः । अथैकः वदा सामान्यमिति।
६१२. अथापोझते अनेन इति झानाकारः, अपोसतेऽस्मिन्निति स्खलक्षणम् । अपोहनमपोह इति अन्यनिषेधः । तदेवं विधिल्पापोहाभ्युपगमात् निषेधमात्रे यहूषणं तदसविति ।
१. प्रेक्षाकारी ब० म० क०। २. निषेप्यते म०। ३. नेवंक०। । ४.न प्रतिषेष मु. क०। ५. विप्रति अ०। ६. प्रतीयेत मु००। ७. पोहप्रवीतावितिक०। ८. प्रथमः पक्षः क०। ९. नीलं वा प्रती मु०क०१०. पोहे प्रती म०। ११. संबल मु०। १२. नीकसमेव मु०क०। १३. च प्रतीतौ मु०क०। १४. स्यात् । अथासवं अ०। १५. च
न मु० क०। १६. यदापो अ०। १७. चापोहप्रमु००। १८. नाना नानाल' क०। १९. तथाकारापोह क०. २०. "स्य चाभा ब० मु०। २१. याविश 'म०। २२. देव भावात् क०। २३. मिति । भपोलते बनेन, भयापोमवेऽमि ।
न्या. १३
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[ ३. अनुमानपरि०
तथाहि- - न तावत् सामान्यं शब्दादिविषयः, अविद्यमानत्वात् । नापि स्वलक्षणम्, प्रत्यक्षबच्छाब्देऽप्रतिभासनात् । तदुक्तम् ।
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ
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इति । नापि ज्ञानम्, तस्यापि स्वलक्षणत्वात् । नापि ज्ञानाकारः । किन्तु स एव दृश्यविकल्प्यावेकीकृत्य बहीरूपतयाऽध्यस्तो ऽर्धपञ्चमाकारः । वैभाषिकाणां तु आकाराभावा[s]ज्ञानमेव बीरूपतयाऽभ्यस्तमर्ध चतुर्थाकारोऽपोह इति न निषेधमात्रः केवलः, तस्य विधिरूपतया बस्तुनि प्रतीयमाने सामर्थ्यात् प्रतीतेरिति । कल्पिताकल्पिततया स्वपरदर्शनयोर्भेद इति । अतश्च -
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"सर्वे भाषाः स्वभावेन स्वस्वभावव्यवस्थितेः ।
स्वभावपरभावाभ्याम् यस्माद् व्यावृत्तिभागिनः ॥" [ प्रमाणवा• ३.३९] " तस्माद्यतो यतोऽर्थानां व्यावृत्तिस्तन्निबन्धनाः । जाति मेदाः प्रकल्पयन्ते तद्विशेषावगाहिनः ॥
तस्माद्यो येन शब्देन विशेषः संप्रतीयते ।
न स शक्यस्ततोऽन्येन तेन भिन्ना व्यवस्थितिः ॥"
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[ प्रमाणवा० ३.४०, ४१] इति १३. तेन न सर्वशब्दानां पर्यायता । नापि लिङ्गलिङ्गिनोरभावः । विशेषणविशेष्याभावो वा । तथा हि- स्वकारणादेव भावाः सकलसजातीयविजातीयव्यावृत्ता जायन्ते । तेनानेक व्यावृत्यात्मकेषु भावेषु एकव्यावृत्त्या निश्चयेपि व्यावृत्यन्तरेणाऽनिश्चिताः । तनिच" याय शब्दलिङ्गप्रयोगो न पर्यायतामाप्नोति । वस्तुभूते चोपाधौ प्रवर्तमानः शब्दः उपाधिमन्तमशेषोपाध्युपकारकं निश्चाययन्नशेषोपाधीनां निश्चयात् पर्यायतां शब्दान्तराणामापादयेवित्यादयो दोषा वास्तवे शब्दार्थे प्रन्धकारैः प्रतिपादिताः । तस्माद् अपोहपक्षो व्यायानिति ।
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"शब्देनाव्यापृताक्षस्य बुद्धावप्रतिभासनात् । अर्थस्य दृष्टाविव तच्छन्दाः कल्पितगोचराः ॥"
१४. अत्रोच्यते - तावदुक्तम् 'दृश्यविकल्प्ययोरेकीकरणमपोहो न तुच्छरूप:' इति । तदेकीकरणं किं तेनैव ज्ञानेन किं वा ज्ञानान्तरेणेति ? । न तावत् तदेव विज्ञानं स्वाकारं 2 दृश्यं च पृथक् प्रतिपेद्य ऐक्यं प्रतिपद्यतेऽप्रतीते:, क्षणिकत्वाच । नापि ज्ञानान्तरम् । तद्विभिन्नं वा स्यात्, एकं वा भवेदिति ? । भिन्नं कथम् ऐक्यं प्रत्येति ? । स्वसंवेदनं हि ज्ञानविषयं दर्शनं तु दृश्यविषयमिति । एकं तु यदि द्वयं प्रत्येति कथमैक्यं । अथैक्यं प्रत्येति । कथं द्वयोरैक्यमिति ?
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६१५. अथ वासनाप्रतिबोधात् विकल्पविज्ञानं सकल [स] जातीयसाधारणम् उत्पद्यते * इत्येकत्वप्रहणमुच्यते । न, वैस्तुभूतसमानपरिणाममन्तरेण संजातीय विभागानुपपत्तेरिति । एकार्थक्रियाकारित्वात् सजातीयत्वमिति चेत्; क्रियायाः किम् अन्यक्रियैक्यादैक्यम्, किं
१. स्तोत्राकारा नै क० । 'स्तोर्ध्व पच' मु० । २. प्रतीतिरिति क० मु० । ३. भ्यां व्यावृत्तिभागिनो यतः - प्रमाणवा० । ४. यतो यतो क० मु० ब० । ५. तस्माद्विशेषो यो येन धर्मेण सं प्रमाणवा० । ६. न शब्दा अ० । ७. केषु एकव्या मु० क० । ८. निश्चित्याशे मु० क० । ९. यधावदु मु० क० । १०. तेनैव ज्ञानान्त' क० मु० । ११. प्रतिपाद्य क० । १३. एकम् मु० । १४. वासनाप्रबो मु० क० । १५. न च वस्तु क० । १७. 'जातीयानि क० ।
१२. अनेकं अ-टि० । १६. सहजा° अ० ।
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कारिका ३८. ]
परोक्षस्म द्वैविध्यम् ।
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या स्वरूपेणेति ? । प्रथमपक्षे अनवस्था । द्वितीये त एव अर्थक्रियाकारिणः किं नैकीभवति ? | अभ्युपेतहा निश्चेति । तदेवमत्र बहुबक्तव्यम् । तब नोच्यते बिस्तरभयादिति । तनापोहोऽपि परोक्षस्य विषय इति । [३७]
६१. एवं विषयविप्रतिपत्तिं निराकृत्य इदानीं फलविप्रतिपत्तिं निराकर्तुमाह-प्रमाणफलसद्भाव इति ।
प्रमाणफलसद्भावो ज्ञेयः प्रत्यक्षवदुषैः ॥ ३७ ॥
१२. यथैव हि प्रत्यक्षस्य प्रमाणमेव फलम् अर्थाधिगतिरूपं, तदेव व प्रमाणं परिच्छेदकत्वात्, तथा परोक्षस्यापि विज्ञेयमिति । [३७]
६१. संख्याविप्रतिपत्तिं निराकुर्वन्नाह परोक्षं द्विविधम् इति । परोक्षं द्विविधं प्राहुर्लिङ्ग शब्दसमुद्भवम् । लैङ्गिकात् प्रत्यभिज्ञादि भिन्नमन्ये प्रचक्षते ॥ ३८ ॥
§ २. अक्षाणां परं परोक्षम् । कारस्करादित्वात् सुडागमः । द्वौ विधौ प्रकारावस्येति द्विविधम् । द्वैविध्यमेवाह - लिङ्गशब्दसमुद्भवम् इति । लिङ्गजनितं शब्दजनितमेव परोक्षार्थनिश्चायकं नान्यदिति ।
अकलड
मतस्य
६३. नम्बन्यदपि प्रत्यभिज्ञादिकं परोक्षं मन्यन्ते । तदेवाह - लैङ्गिकात् प्रत्यभि - ज्ञादि भिभमन्ये प्रचक्षते - समानतन्त्राः, “परोक्षं प्रत्यभिज्ञादि त्रिधा भुतनिरासः । मविप्लवमिति” वचनात् इति । तदयुक्तम् । यतः श्रौतं त्रिविधं भवति । न त्वविप्लवम् । तथा हि- प्रत्यक्षेण परोपदेशसहायेन यज्जन्यते ज्ञानं तच्छ्रोतम् प्रत्यक्षपूर्वकम् । तथा लिङ्गेन परोपदेशसैंहितेन जनितं श्रौतं लिङ्गपूर्वकम् । परोपदेशेन तु केवलेन जनितम् शब्दॆपूर्वमिति । एवं त्रिविधं भवति श्रौतम् । न त्वविप्लवं प्रमाणमित्यर्थः । प्रत्यक्षे हि 20 परोपदेशस्यानर्थकत्वात् । अथ तत्रापि किंचित् परोक्षम् । तर्हि तत्रानुमानमेव स्यात् तथा हि-परोक्षं हि वस्तु न साक्षात् प्रतीयते किन्तु अन्यदर्शनात् । अन्यस्माच यदि अनियतात् प्रतीयेत तदा यतः कुतश्चित् सर्व प्रतीयेत । नियताच प्रतीतौ लैङ्गिकमेव । तत्र यदक्षानुसारि प्रत्यभिज्ञानं तत् प्रत्यक्षमेव । न श्रौतम् । यत्तु प्रत्यक्षानिश्चितम् दृष्टसाधर्म्याद् अर्थक्रियाकारित्वं निश्चीयते तलैङ्गिकमेवेति कुतस्त्रिविधं परोक्षमिति ? [३८] | 24
१. अथायमपि वहिर्दाहादिसमर्थ इति सामर्थ्यविषयं प्रत्यभिज्ञानं न प्रत्यक्षम्, प्रत्यभिशा- सामर्थ्यस्य परोक्षत्वात् । नाप्यनुमानम्, व्याप्तिस्मरणाद्यननुभवात् । तस्मात् विचारः । प्रमाणान्तरमिति । तदयुक्तम् । यस्मात् न सामर्थ्य वहेरन्यत् । ततः प्रत्यक्षेण तत्स्वरूपनिश्चयादेव सामर्थ्यस्य निश्चयात् । यो हि' दाहिकां शक्तिं न जानाति स वहिमपि । तत् स्वरूपापहारे भिन्नं सामर्थ्यमिति चेत्; न मचादेः तथाभूतस्यैव वहिस्वरूपस्म " पर्यायस्मोत्पत्तेरिति । भवतु वा सामर्थ्यम् । तनिश्वयो मूढस्य दृष्टसाधर्म्यादनुमानमेव
१. तदेव प्रमाणं अ० ब० । २. विज्ञानमिति भ० क० । ३. पारस्क' मु० । ४. "देशरहि' मु० । ५. शब्दपूर्वकमिति मु० । ६. परोक्षं वस्तु अ० ब० । ७. प्रतीतिलैंङ्गिकमेव ब० मु० । प्रतीतिलौकिकमेव क० । ८. यदाक्षा क० । ९. यो दाहि० क० । १०. त्पत्तिरिति क० । ११. भवतु साम
क० मु० ।
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ
[ ३. अनुमानपरि०
इत्युक्तम् । स्वात्वस्मरणं तु कचिदकस्माद् धूमदर्शनात् वह्निप्रतिपत्तौ अपि दृष्टम् । अब अर्थित्वात् पूर्वमेव सर्वस्य कर्तस्वात् तथा प्रतिपत्तिः । अत्रापि समानम् ।
२. किल, किं तत् प्रमाणान्तरम् १ । भौतमिति चेत्; किमिदं भौतम् ? किं शब्दविषयम्, किं वा शब्दलेखीति ? । प्रथमपक्षे भोत्रेन्द्रियज्ञानं सकलमेव श्रोतम् ३ स्यात् । तचागमविरोधीति । तथा हि- अष्टाविंशतिभेदमतिज्ञानाभिधायी जिनागमः । स चैवं त्यक्तः स्यात् । अथ शन्दोलेखि । एवमपि मतिज्ञानम् श्रौतं स्यात् । सविकल्पकं च सकलं प्रमाणं प्रसत्येते । तभेदं श्रौतस्य लक्षणम् । किं तत्याह- परोपदेशजं श्रौतस् इति । परोपदेशजं श्रौतं मर्ति शेषं जगुर्जिनाः ।
परोक्षं प्रत्यभिज्ञादि त्रिधा श्रौतं न युक्तिमत् ॥ ३९ ॥
६३. परस्मै परस्मादुपदेशः परोपदेशः । तस्माख्यातं यत् ज्ञानं तत् भौतं जगुर्जिनाः ।
तथा चागमः ।
绵
"सुयकारणं जओ सो सुयं च वकारणं तेंड तम्मि ।
कीर सुभवयारो सुर्य तु परमत्थय जीवो ॥ [ विशेषा० ९९ ] अस्वायमर्थः - श्रौतस्म ज्ञानस्य कारणं यतः स इति शब्दः । श्रौतं वा तत्कारणं " तस्य शब्दस्य हेतुः । ततः तस्मिन् शब्दे क्रियते श्रुतोपचारः । कारणे कार्योपचारात् कार्ये वा कारणोपचारादिति । परमार्थतस्तु जीव एैव श्रुतमिति । ज्ञानस्म जीवात् कथंचिदभिन्नत्वादिति ।
६४. नन्वनेन शब्दस्य जन्यं जनकं वा ज्ञानं श्रुतमभिहितम्, न तु सकलमेव परोपदेशजम्, शरीरचेष्टालक्षणेन उपदेशेन जनितस्मासंग्रहात् । न, शब्दस्योपलक्षणत्वात् । 20 यद्वा सापि शब्द एव इत्याह ।
"सो चिय सहत्थो विय जं तंमि कर्यमि पचओ होति ।
"कचा वि हु तदभावे तदभिप्याओ कुणति" चे ॥” [विशेषा० १७५] errears । सापि च हस्तादिसंज्ञा परबोधनाय क्रियमाण शब्दस्थाने प्रयुक्तत्वात् teasers | शब्दस्म अर्थो यस्याः सा शब्दार्था । शब्द एवेत्यर्थः । कुत एतदित्याह - यत् * तस्यां कृतायां प्रत्ययो भवति प्रतिपाद्यस्य । चेष्टायाः स्त्रीलिङ्गत्वेऽपि प्राकृतत्वात् लिङ्गउवत्ययः । एतदेव समर्थयति - कर्तापि चेष्टायाः । हुरिति यस्मादर्थे । यस्मात् कर्ताऽपि तमावे शब्दाभावे मूकत्वात् । तदभिप्रायः शब्दार्थप्रतिपादनाभिप्रायः । करोति पेष्टाम् हस्तादिलक्षणम् इत्यर्थः । तस्मात् परोपदेशजं श्रौतमिति । तेनें कचित् शब्दाभावेऽपि श्रौतम् । सत्यपि च शब्दे शब्दोलेक्यपि कचित्र श्रौतमिति । अत एव आह । " मतिं "शेषमिति । अपरोपदेशशब्दजनितां मर्ति प्रतिपादयन्ति स्म । " भुतनिःसृता च " इति वचनात् ।
१. कृतकत्वात् अ० ब० स० । २. प्रसज्यते अ० ब० । ३. 'दुपदेशः तस्मा' मु० । ४. रणं वि श्री सम्मि - विशेषा० । ५. कार्योपचारादिति अ० ब० । ६. 'मार्थतः जीव मु० क० । ७. जीवः श्रीतमिति सु० क० । ८. जनकलं जन्यं वा । ९. सा वा सहत्यो थिय तया वि जं तम्मि पचओ होइ विशेषा० । १०. तदभावेपि तद क० । ११. कुन चिट्ठं विशेषा० । १२. सा च मु० क० | १३. माण मु० । १४. तदाभानें अ० । १५. चेष्टा ह' मु० क० । १६. क्षणा इत्यर्थः मु० क० । १७. तब क अ० । तेन शब्दा 'मु० । १८. कचिचात्रौ भ० ब० मु० । १९. शेषामिति अ० मं० क० | २०. 'पदेशजनितां अ० ।
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कारिका ४१.]
अनुमानमेकधैव। ६५. बलात् यदि प्रत्यमिक्षा आप्तोपदेशजनिता तदा प्रत्यक्षाविषयत्वात् न प्रमाणास्तरम् । अधानातजनिता तदा छात्रपिकल्पवत् न प्रमाणमिति निगमयमाह-परो प्रत्य मिक्षादि इति । प्रमाणभूतं मौत 'निषेति न युक्तियुक्तमिति । [३९] ६१. भागमवापामाह-अन्ययेहादिकमिति ।
अन्यषेहादिकं सर्व प्रीतमेवं प्रसज्यते।
यो नागमापेक्षं मानं तबामवृम्भितम् ॥४०॥ ६२ यदि सविकल्पकं सकलमेव औतं वदाईहादि अादिमाणात् जवाबोशातिलिद इति । सकलमेव शम्दोल्लेखित्वात् मौत स्थाविति ।
६३. अब कचिदागमत्यागोऽपि, यथा इन्द्रियज्ञानं परोक्षमपि प्रत्वसं प्रलपापीति । वदयुक्तम् इलाह-योलादि । तद् दिगम्बराणां जापविलसितम् । तवाहि-सका बखानापेक्षया परोक्षमिन्द्रियज्ञानमुक्तम् । न त्वेकस्मिक्ष इति । तत् लिवम् विपा मौतमिति । [४०]
६१. एवं वैविण्यं व्यवसाय इदानी लैङ्गिकं परोक्षं व्याख्यातुमाह-लिमाहिनिति इनादि।
लिगल्लिङ्गिनि यज् ज्ञानमनुमानं तदेकधा।
प्रत्येति हि यथा वादी प्रतिवाचपि तत् तथा ॥१॥ ६२. लिङ्गात् लिङ्गविषयमपि जानं भवति इति लिलिमहणम् । लिगिन्यपि वदेशसितम समानः, प्रत्यक्ष भवतीति लिङ्गमहणम् । ननु तस्य तल्लिोष न भवति, यस तु लिशिवस
' + मन्तरेण तत्र मानमिति किं लिङ्गमहणेन ? । ये लिङ्गमेवानुमान मन्यन्ते बनिरासा मिन्महणमिति । लिङ्गात् यत् लिङ्गिानि ज्ञानं सदनुमानं न मिामेवेत्यर्थः । . बयेवं वदा लिमिनि शानमिवेवास्तु । अनेन हि यत् मुनिरस्तं भवति । न, एवं हि प्रतिपचिगौरवं सात् इति लिङ्गमहणमिति ।
६३. स्वार्थपरार्थभेदेन द्वैविध्यं प्रतिपन्नाः तन्निरासार्थमाह -तदेकषेति । एकप्रकारे परोक्षार्यस्य प्रतिपत्तिरिति । तदेवाह-प्रत्येति हि यथा वादी प्रतिवायपि तत् तथाइति । हिर्यस्मादयः । यस्मादन्यथानुपपन्नालिझात् यथा स्वयं बादी परोक्षं बस्त प्रत्येति प्रतिवादपि तथैव तत् वयं निश्चितात् लिङ्गात् प्रत्येति न परवचनादिति । तथा हिपरवचनं यदि वादा किं त्रिरूपवचनेन ?, प्रतिक्षामात्रेवासिद्धः । अवाप्रमाणं तदा कथं वो बिनविपचिरपि । अथ प्रत्यक्षमेव तत्र प्रमाणं 'पश्य मृगो धावति' इतिअत् संमुखीमपावनुमानत्वम् । न, अक्षिनिकोचादेरपि स्यात् । [४१]
६१. जब सम्पस सर्वबाऽप्रमाणत्वात् अनुमानोपचारात् प्रामाण्यं नान्ययेति व्याप.. नार्थमित्याह-मापारेष चेत् क्त् खादिति ।
१.त्रिविषेति म००। २. णादपोहादिपरि ब. मु. क०। ३. इन्द्रियजं ज्ञानं मु०। ४. बयेत्यादि मु००। ५. तल्लिामेव मु०। ६. तस्य लिङ्गमन्तरेण न तत्र अ०। ७. मित्लवस्तु क.मु०।८सिद्धिःक०। ९."रति अ० ब०मु०। १०.इति तत्सं अ०क.मु०।
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न्यायावतारसूत्रवातिकवृत्तौ [३. अनुमानपरि० उपचारेण चेत् तत् स्यादनवस्था प्रसज्यते । ६२. यद्यनुमानोपचारमात्रेण अनुमानत्वं वचनस तदा पुरुषादेरपि स्पावित्याहअनवस्यैवं प्रसज्यत इति । उपचारेण प्रामाण्ये यत्किंचिदिति दधिमक्षणाविकमपि अनुमानं स्यादिति । शब्दस्य चाप्तप्रणीतत्वेन प्रामाण्यम प्रतिपादयिष्यमाणत्वादिति । तस्मादेकंधेवानुमानमिति । [४२] ६१. इदानी अवयवान्तरनिरासेन यस्यावयवस्य साधनाङ्गत्वं तदाह -अन्यसेत्यादि ।
अन्यस्यासाधनादाह लक्षणे(ण) हेतु-साध्ययोः॥४२॥ ६२. अन्यस्योपनयनिगमनादेरैसाधनादिति असाधनाङ्गत्यादित्यर्थः, हेतुसाम्ययोरेव लक्षणमाह। . ६३. ननु प्रतिज्ञामन्तरेणापि पक्षधर्मसंबंधस्मरणादेव साध्यसिद्धेः किं तलक्षणकथनेवः । प्रतिशायाः तथा हि-साध्यवचनं यदि प्रमाणं तदा किं हेतूपन्यासेन १ । अथाप्रमाणं तदा साधनालम किं तद्वचनेनेति १ । अथ प्रतिक्षामन्तरेण 'यत् कृतकं तदनित्यम्' इति उक्ते न ज्ञायते किमयं साधर्म्यवान् प्रयोगः किं वा वैधर्म्यवानिति ? । तत्र 'अनित्यः शब्दः' इत्युक्ते' साधर्म्यवान् प्रतीयते। 'अकृतकः शब्दः' इति तु वैधर्म्यवानिति । नैतदस्ति । पक्षधर्मवचनादि " तनिश्चयात् । तथा हि- 'यत् कृतकं वदनित्यम्' इत्यभिधाय न कश्चिदास्ते साधनन्यूनताभिधानादेव तस्य निरासात्, किन्तु पक्षधर्मोपसंहारं करोति । तत्र 'कृतकच शब्दः' इति यपभियते तदा साधर्म्यवान् प्रतीयते । यदि तु 'नित्यः शब्दः' इति तदा वैधर्म्यवानिति ।
६४. अथ सर्व एव कालादिविषयं व्यवस्थाप्य कुठारादिसाधनं व्यापारयति । सदापि विषयव्यवस्थापनार्य प्रतिक्षाप्रयोग इति । न, पक्षधर्मसंबन्धवचनादेव तदर्थस्य गतत्वात् कि " प्रतिज्ञाप्रयोगेण ? । किन, स्वार्थानुमाने कोऽस्मै साध्यं व्यवस्थापयति । अथार्थित्वात् प्रस्तावात् पक्षधर्माद्वा तव्यवस्था; परार्थानुमाने तथैवास्तु । एवमसाधनाङ्गत्वात् प्रतिज्ञा साधनाभिरस्यन्ति।
६५. अत्रोच्यते - यदुक्कम् 'प्रतिज्ञा किं प्रमाणमुताप्रमाणम्' इति तत्र प्रमाणमिति ब्रूमः । तर्हि किं हेतूपन्यासेन ? । आप्तत्वसंदेहे तदुपयोगः । तन्निश्चये तु प्रतिक्षामात्रादेव साम्यसिद्धेः हेतूपन्यासोऽपि न युक्ता, किं पुनः त्रैरुप्यवचनमिति । [४२] ६१. एतदेव दर्शयितुमाह - अन्यथानुपपनत्वमित्यादि।
"अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥ ४३ ॥ ६२. एतदुक्तं भवति -आप्तत्वसंदेहे अन्यथानुपपन्नादेव हेतुमात्रात् साध्यसिद्धः कि * हेतोले- त्रिरूपवचनेनेति । तथा हि- उपनयनिगमने तावत् सौगतैरेव निराकते । रूप्यनिरासः। दृष्टान्ते दृष्टसामर्थ्यस्य हि हेतोः पुनर्मिणि वचनमुपनयं वर्णयन्ति । तथा
१. 'नोपकारक०। २. देकमेवा । ३. 'गमनादेरस्य अयार्थिलात् (पं० २.) मु० । गमनादेरथार्थित्वात् (पं० २०)क०। ४. इत्युक्तसा ब०। ५. रस्यति मु० क०। ६. प्रमाणमिति मु०म०। . ७. तनिश्चये हेतुप्रब०। ८. सिद्धिः मुक०। ९. नेनेति तचायुकम् (पं० २२)क०।
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कारिका ४३. ]
तोमैरूण्यनिषेधः ।
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हेतोः ख्यापनं
I
युक्तम् । पक्षधर्मवचनादेव तदर्थस्य गवत्वात् । अथानेन दृष्टसामर्थ्य क्रियते । तेन, व्याप्तिवचनादेव सामर्थ्यसिद्धेः । यदि चानेन समर्थहेतुख्यापनं क्रियते तर्हि इदमेवास्तु किं हेतुवचनेन १ । तदेवम् उपनयं निरस्यन्ति । निगमनमपि अयुक्तम् । तथा हि- गृहीतव्याप्तिकस्य हेतोर्धर्मिण्युपसंहारादेव निगमनार्थस्य गतत्वात् किं तेन ? । तदेवं त्रिरूप एव हेतुरिति ।
९३. ऐतदूषयन्ति - यत्र हेतौ साध्येन विनाऽनुपपन्नत्वं तत्र किं त्रैरूप्येण १ । तदभावे 'स श्यामः, तत्पुत्रत्वात्' इत्यादौ सत्यपि त्रैरूप्येऽगमकत्वादित्याह - नान्यथेत्यादि । तथा हि । नित्यानित्यात्मकं सर्व सत्स्वान्यथानुपपत्तेरिति उक्ते भवत्येव साध्ये प्रतीतिः । अथ सर्व नित्यं सत्त्वान्यथानुपपत्तेरित्यपि किं न भवति ? । नैं, व्याप्तेरग्रहणात् ।
४. अर्थं व्याप्तेष्टान्ते ग्रहणे सति कथं न त्रैरूप्यम् ? । ननु दृष्टान्ते व्याप्तिग्रहणम् ॥ यद्यसाकल्येन तदा बहिर्व्याप्तिग्रहणेऽपि न साध्यधर्मिणि हेतोर्गमकत्वं स्यात् । अथ साकल्येन तदाऽनुमानं गृहीतग्राहित्वादप्रमाणं स्यात् । अथ देशविशेषप्रतीत्यर्थमनुमानम् । तन्न । यत्र यत्र साधनं तत्र तत्र साध्यमिति आधारान्तर्भावेनैव व्याप्तेर्महणात् कथं न देशविशेषप्रतीतिः ? । अथ आधारसामन्यस्यैव प्रतीतिर्नाधारविशेषस्य । किमिदं सामान्यम् ? किं विवक्षितसाध्यविशिष्टम्, किं वाऽविशिष्टमिति ? । यदि साध्यविशिष्टं तदा कथं न साध्यप्रतीति: ? । अथाविशिष्टं तदा न तंत्र व्याप्तिरिति ।
६५. अथ विवक्षितदेशमन्तरेणापि व्याप्तेरखण्डनीच द्विशेषप्रतीतिरनुमानादिति । ननु स विशेषः व्याप्तिप्राहिणा प्रमाणेन प्रतिपन्नः, किं वा नैति ? । यदि प्रतिपद्मः तदा किमनुमानेन ? । अथ गृहीतस्सदा न तस्य व्याप्तावन्तर्भाव इति । तदेवं " व्याप्तिप्राहिणा प्रमाणेनान्यथानुपपत्तौ गृहीतायां न किंचित् त्रैरूप्येण ।
६६. अथ यदि व्याप्तिप्राहिणा प्रमाणेन साकल्येन व्याप्तिग्रहणं तदा किं हेतूपन्यासेन ?, साध्यस्म सिद्धत्वादिति । सत्यम्, प्रतिपाद्यार्थ हि तदुपन्यासः । तथा हि- द्विविधः प्रतिपाद्यः गृहीतव्याप्तिकोऽगृहीतव्याप्तिकञ्च । तत्रागृहीतव्याप्तिकस्य व्याप्तिग्राहकप्रमाणोपदर्शनमेव नोपपद्येत प्रथमं हेतूपन्यासमन्तरेण । तब सपक्षाद्यनपेक्षं प्रवर्तमानं त्रैरूप्यं व्यपोहति । गृहीतव्याप्तिकस्य तु हेतोरुपदर्शनमात्रमेव क्रियते । एतत् तैरप्युक्तम्, “विदुषां बाच्यो हेतुरेव हि केवल:" [ प्रमाणवा० ३.२६] इति । तदेवं सति नियमे न किंचित् त्रैरूप्येण ? । [ ४३ ] §3.
"कार्यकारणभावाद्वा स्वभावाद्वा नियामकात् ।
अविनाभावनियमो ऽदर्शनाम न दर्शनात् ॥ [ प्रमाणवा० ३.३० ]
इति चेत्-न दर्शनादर्शनाभ्यां नियमं मन्यते । किन्तु तर्कादभ्यूहापरनान्नः । तथा हि " प्रमाणात् तादात्म्यतदुत्पत्ती यथा निश्चीयेते तथा नियमोऽपि निश्चीयतां किं व्यवधिना ? | एतदेवाह - कार्यकारणसद्भाव इत्यादि ।
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१. तदा मु० । २. सिद्धिः मु० । ३. रिति यत्र मु० क० । ४. तत्पुत्रत्वादो अ० मु० । खत्पुत्र
वाद क० । ५.येवं अ० । ६. भवति व्या° मु० । ७. अत्र क० । ८. तदा व्या° मु० क० । ९. अथ साकल्यं न मु० क० । १०. न विशेष सु० क० । ११. साम्यस्यैव मु० । १२. डना तद्वि मु० अ० ब० । १३. अथ ही क० । १४. ०० । १५. असत्यम् मु० क० । १६. 'मानं व्यापो अ० ब० ।
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१०४
तर्फा
व्याप्ति6. निर्णयः ।
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कार्यकारणसद्भावस्तादात्म्यं चेत् प्रतीयते । प्रत्यक्षपूर्वकात् तर्कात् कथं नानुपपचता ॥ ४४ ॥
६२. मत् कार्यकारणत्वादि पर निजीयते किन्तु बाधकप्रमाणात् । त् कथमेतदिति । अत्रेदमुच्यते । किमिदं बाथर्क प्रमाणम् ? प्रत्यक्षम् उतानुमानमिति १ । तत्र यद्यनुमानम्, तदाऽनवस्था । नापि प्रत्यक्षम् । तद्धि निर्विकल्पकत्वात् पुरो व्यवस्थितयोरपि वहिधूमयोः कार्यकारणभावं प्रत्येतुं न शक्नोति, किमङ्ग पुनः साकल्येनेति ? । तस्मात् यदि धूमस्यान्यत् किमपि कारणं स्यात् तदा अयमपि धूम्रो भवत्पद्यमान उपलभ्येत । ततो अभ्यूझते सकलमेवैतद्रूपं सर्वत्रैवंविधरूपमन्द्रले चोपपद्यत इति । तब तर्काख्यं प्रमाणं केचित् प्रत्यक्ष मन्यन्ते । अपरे अनुमानम् । अन्ये प्रमाणान्तर" मिति । तदेवमन्यथानुपपन्नत्वमेव गमकत्वे निबन्धनं न [४४]
६१. अथ अन्यथानुपपतिर्व्यतिरेकः । स चे नावमन्तरेण घटते । तथाभूता हेतु: कचिद्धर्मिण्युपसंहर्तव्यः, अन्यथा सर्वत्र प्रतीति मनवेत्, न मा कचिदपीति । तत् कथं न त्रैरूप्यमित्येतदाशंक्याह - व्यतिरेकेोऽनुवनचिदित्यादि ।
20
म्यापावचारसूनवार्विक
[ ३. अनुमानपरिक
व्यतिरेकोऽनुपपत्तिचैवन्वयनिबन्धनम् ।
कथं सत्यं विना तेन क्षणिकत्वप्रसाधकम् ॥ ४५ ॥
६२. नैतदस्ति । न हि सर्वत्रान्वयाविना भूतो व्यतिरेकः परैरभ्युपगम्यते । बहु"यो हि सकलपदार्थव्यामि शक्ति इच्छति तं प्रति पतदेवाह । कथमित्यादि । [ ४५ ]
सेवाभावादिति”
६१. इदानीं स्वसिद्धान्तमाह - विनाप्यन्वयमास्मादावित्यादि ।
विनाप्यन्वयमात्मादौ प्राणादिः साधनं यदा ।
तदा स्यानान्वयापेक्षा हेतोः साध्यस्य साधने ॥ ४६ ॥
१२. 'नेदं निरात्मकं जीवच्छरीरम् अप्राणादिमत्त्वप्रसंगात्' इत्यस्मिन् प्रयोगे केवलोऽपि व्यतिरेको गमकत्वे निबन्धर्नमिति वर्णयन्ति ।
९३. अथात्मानमन्तरेण प्राणादिमंश्वस्य अनुपपत्तिः कथं निश्चिता ? । स्तम्भादिषु * नैरात्म्यस्य अप्राणादिमत्वेन व्याप्तेरिति चेत्; ननु स्तम्भादिषु नैरात्म्यं कथं निश्चितम् ? । न तावत् प्रत्यक्षेण । परोक्षत्वादात्मनः । तद्भावात् नानुमानेन । पराभ्युपगमेन तु तनिश्वये काल्पनिकत्वं हेतोः स्यादिति ।
६४. अत्रोच्यते । नित्यं सत्त्वादिप्रसंगान प्राणादयोऽहेतवः । हेतुस्तेषां " यद्यचेतनः, तदा खम्भादिष्वपि प्रसज्येरन् । सचेतनोऽपि किं नित्यः किं वा क्षणिक इलि १ । न तावभिनः । * अप्रयुवानुत्पन्नस्थिरैकरूपस्य न कदाचित्क्रियाविरामः स्यात् । यहा कदाचित भवेदित्युक्तम् ।
क० अ० । ३. रुत्पाय' क० । ६.ज्याह- अ० ब० । खसिद्धाह क० ।
१. ननु च न अ० । च तत् मु० । २. ४. स नान्व° अ० ब० ० ५. कानु० मु० । ७. जीवशरीरं मु० । ८. निबन्धन इति मु० ० । ९. प्राणादिक० मु० । १०. चेत् स्तम्भा ब० । ११. हेतुवैषां मु० क० ।
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कारिका ४८.] हेतोर्लक्षणम् ।
१०५ क्षणिकमपि कि विधमान कार्य करोति, कि पाऽविद्यमानम् ।। प्रथमपासना . : मेककालताप्रसङ्गः । द्वितीये तु पूर्वमेव कार्यमुत्पयो कारणाभावाऽविशेषात् । काठमावित्वं कारणत्वम् । तरक्षणमावित्वं किं न भवति । कोहि पूर्वोत्तरक्षणयोर्विशेषा?, अनिवाममाविशिष्टत्वात, अपरन र कर्तवमानभ्युपगमात् । अय पूर्वमेव कार्यका साये कि कारणेन १ । उत्तरमपि कार्पस सद्भावे कारणेन ? । तस्मिन् सति । पचरस भावादिति चेत् पूर्णमापि समानम् । अवमस्तु, वापि क्षणिकल कर्तुत्वं सिखमिति चेत् न सितम्, सत्तामात्रेण कर्तुत्वे सर्वकार्यकरीत्वं स्यात् । खसन्तानमेव कार्य करोति नाम्बसन्तानमिति चेत् न, इतरेतरामयासंगात् । तथा हि-कार्यत्वात् एकसन्तानत्वम् , एकसन्तानत्वात् कर्तृत्वमिति । तम क्षनिकलापि कर्तृत्वम् । वलात्कचिवजहतपूर्वरूपम द्रव्यमेवोत्तरोचरेषु कार्येषु परिणमतः कर्तुत्वं माम्बलेति । तेम प्राणाविरात्मान-॥ मन्तरेणोपपयते इति निक्षल्यावृत्तिरेव अन्वयमन्तरेणापि गमिकेति । [४६] ११. ना बन्धमन्तरेण कथमन्यमानुपपनस्वमित्यालाह-संबन्धिम्याम् इत्यादि ।
संपवियां विनिसंबमा सास लगेष्टवत् ।
बनवला मसात तक्यपरिकल्पने ॥४७॥ ६२. वाह-संबधिम्या संकल्या मित्रः साद, अमिनो वा' । यमिता, सदा ॥ संवन्धो पालात संबंधिनी वा । अब मिना, सदा डोष्ठकल्पो न योरसाविति । अब संवन्मान्तरेण बोरयाविति । बमाण्यमेदे पूर्व प्रसंगः । मेदेऽनवला साविति ।
१. कि संबन्धेन कि संखयोः संवन्धः क्रिया, यहा बसंवद्धयोरिति १ । पपसंवबोरिति, सदा समविन्ध्ययोः क्रियेत । भय संपदयो, पदाकि संपन्न , सत पर संबडत्वादिति । वस्मारनुपपचिरेष गमकर निवन्धनम्, न संवन्धान्तरमिति । [१७] . ११. देवमन्वयं निरस पक्षधर्मत्वं निरसमाह-कृषिकोदपप्रादेरित्यापि । कृत्तिकोवयपूरादे कालादिपरिकल्पनात्।
। यदि खान पक्षधर्मत्वं चाक्षुषत्वं न कि ध्वनी ॥४८॥ ६२. कपिकोदयब नदीपूरब।आदिमहणात् पन्द्रोदयाविसमामाने। या हिपक्षमा उतिकोदमाद रोहिण्युपपानुमाने कालो धर्मी परिकल्प्यते । पार गनुमाने । भावेऽपि नदीपूरा देशविशेष इति । तथा समुदाबावपि । पिपीलिकोत्सरणमल्सालिकाहेलम्। रामनमाने भूविशेष इति । एवं यदि यस्किचित् कल्पयित्वा पक्षनर्मल व्यवसाप्यते वदा भवनौ अनित्यत्वे साध्ये पानुषत्वं पब: सात, नापि जनतो पर्मिलेन कल्पनाविति । तथा हि-जगवर्मी भनित्यशदान भवति इति साम्यो धर्मः पापपटारवा इति । तत्र पक्षधर्मत्वमपि गमकत्वे निवन्धनमिति । [१८] .
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१.विद्यमानं करोविक०। २. विशेषलात्म०, नात् तत्का०।४.मानसिक प्राणामुक०। ५.तथा संबन्धि भ०००। बग्विनामि०। ७. पाकि संबंधषो मागसंवन्धयोरितिक०। ८. क.मु०। ९. भूत वि .मु०।१०.पाल भवति। ११. पाइपलातू पटवादिति तनाबाशुषलादिति तनपाइपषसाविति ।
मा.१४
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ [३. अनुमानपरि० ६१. "विशेषेऽनुगमाभावात् सामान्य सिद्धसाध्यता" इति अनुमानदूषणं परिहर्तुमाहसमानपरिणामस्वेत्यादि।
समानपरिणामस्य यस्य नियमग्रहे ।
नाशक्तिर्न च वैफल्यं साधनस्य प्रसज्यते ॥४९॥ ६२. तुल्यपरिणामयो'योलिङ्गसाध्ययोनियमग्रहेऽन्यथानुपपन्नत्वप्रहे सति नाशक्तिः, अननुगमात्, नापि सामान्यमात्रसाधनात् सिद्धसाध्यतादोषः । किन्तु विशेषा एव समानपरिणामिनः साध्यन्त इति ६१. एवं हेतुलक्षणमभिधाय इदानीं पक्षलक्षणमाह - इष्टं साधयितुं शक्यम् इत्यादि ।
इष्टं साधयितुं शक्यं वादिना साध्यमन्यथा।
साध्याभासमशक्यत्वात् साधनागोचरत्वतः॥५०॥ ६२. सिद्धं प्रत्यक्षादिबाधितं वादिना साधयितुं न शक्यते । तथा, इष्टमपि साधनपक्षस्य विषयीकृतं साध्यम् । नोक्तमेव । अन्यथेति उक्तविपरीतं साध्याभासम् । कुत लक्षणम् । इत्याह । अशक्यत्वाद् इति । सिद्धस्य साधयितुम् अशक्यत्वात् । तथा हियथा पूर्व प्रमाणेन सिद्धमपि साधनमपेक्षते तथाऽनेनैव सिद्धमन्यदपेक्ष्येत । तथा, ततोऽप्यन्यदिति न स्यात् साधननिष्ठेति । एवं सिद्धस्य साधयितुमशक्यत्वमिति ।
६३. बाधितस्य च साधनागोचरत्वादित्याह-साधनागोचरत्वतः इति । प्रत्यक्षादिबाधितं प्रतिपाद्यमानं न साधनमपेक्षते इति ।
६४. यद्वा सिद्धं बाधितं च साधयितुं न शक्यते । ततो हेतोः साधनगोचरचारि न भवतीति । [५०] ६१. एवं पक्षलक्षणमभिधाय इदानीं बाधितोदाहरणान्याह - यथा सर्वगम् इत्यादि ।
यथा सर्वगमध्यक्षं बहिरन्तरनात्मकम् ।
नित्यमेकान्ततः सत्वात् धर्मः प्रेत्यासुखमदः ॥५१॥ ६२. सर्वगतं सामान्य प्रत्यक्षं प्रतिज्ञायमानं प्रत्यक्षबाधितम् । एकान्तेन नित्यं शब्दावि बाधितोदा- प्रतिज्ञायमानम् अनुमानबाधितम् । प्रेत्य परलोके धर्मः सुखप्रदो न भवतीति " हरणानि प्रतिज्ञां कुर्वत आगमवाधा । समानतः प्रत्यक्षपूर्वकं श्रौतमभ्युपगतम् । तदपेक्षयोदाहरणम् -बहिरन्तरनात्मकं सर्वमिति । आत्मा परिणामि द्रव्यम् तदभावस्थ प्रतिज्ञायमानस्य प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षेण अनुमानेन वा अन्यथा बाधनान्न पृथगुदाहरणं युक्तं साविति [५१]
६१. एवं हेतु-पक्षलक्षणमभिधाय इदानी हेत्वाभासानभिधातुमाह -रूपायसिद्धित इत्यादि।
१. "मयोर्लिाक०। २. भासम् अ°मु०क०। ३. अशक्यादिति ब०। असत्यला मु०क०। ४. सिद्धश्वासामु०क०। ५. तथा हि पूर्व प्रमाक० मु०। ६. पूर्वप्रमा० अ० ब०। ७. च साधनागोचरखतः इति प्रत्य ब०। ८. मानो मु० क० । ९. ततो हेतोः साधनागोचरलादित्याह साधनगोबर
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कारिका ५३. ]
हेत्वाभासनिरूपणम् ।
रूपासिद्धितोऽसिद्धो विरुद्धोऽनुपपत्तिमान् । साध्याभावं विना हेतुः व्यभिचारी विपक्षगः ॥ ५२ ॥
६२. स्वरूपासिद्धः - अनित्यः शब्दः, चाक्षुषत्वात् । सन्दिग्धासिद्धः - वहिसिद्धावुपादीयमानो धूमरूपतया सन्दिह्यमानो बाष्पादिसंघातः । भागासिद्धो यथा - सर्वमनित्यम् हेल्ला- प्रयत्नानन्तरीयकत्वात् । वाद्यसिद्धः सांख्यस्य सुखादीनामचैतन्यं साधयतः । भासाः । यथा अचेतनाः सुखादयः अनित्यत्वादिति । प्रतिवाद्यसिद्धो वैशेषिकस्य जैनं प्रति द्रव्यादीनां सत्त्वं साधयतः । यथा सन्ति द्रव्यादीनि सन्त्वादिसंबन्धादिति । आश्रयासिद्धो यथा - ईश्वरः सर्वज्ञः सर्वकर्तृत्वादिति । संदिग्धाश्रयो यथा - इह निकुजे मयूरः केकावितादित्यादयः आदिग्रहणेन गृपन्ते ।
६३. विरुद्धमभिधातुमाह - विरुद्ध इत्यादि । साध्याभावाव्यभिचारी विरुद्धः । यथा - ॥ नित्यः शब्दः कृतकत्वादिति ।
६४. इदानीमनैकान्तिकमाह - व्यभिचारीति । सपक्षविपक्षगामी अनैकान्तिक इति । [ ५२ ]
६१. अथवा एकान्तवादिनां सर्व एव हेतुखयीं दोषजातिं नातिक्रामतीत्याह - असिद्धः सिद्धसेनस्येत्यादि ।
१०७
असिद्धः सिद्धसेनस्य विरुद्धो मल्लवादिनः । द्वेषा समन्तभद्रस्य हेतुरेकान्तसाधने ॥ ५३ ॥ १२. सिद्धसेनस्य सूत्रकर्तुः साकल्येनासिद्धत्वान् सकल एव हेतुः असिद्ध इति । तथाहि - सामान्यं वा हेतुः स्यात् विशेषो वा ? । अपोहस्य च पूर्वमेव निरासात् तत्र सामान्यं सकलव्यापि सकलस्वाश्रयव्यापि वा हेतुत्वेनोपादीयमानं प्रत्यक्षसिद्धं वा स्यात् 20 अनुमानसिद्धं वा । न तावत् प्रत्यक्षसिद्धम् । तद्धि अक्षानुसारितया प्रवर्तते । अक्षं च विनियतदेशादिनैव संनिकृष्यते । अतः तद्नुसारिज्ञानं तत्रैव प्रवर्तितुमुत्सहते न सकलदेशकालव्यापिनि । अथ नियतदेशस्वरूपाव्यतिरेकात् तनिश्वये तस्यापि निश्चय इति । नैनु नियतदेशस्वरूपाव्यतिरेके नियतदेशतैव स्यात् न व्यापिता । तन्न व्यापिसामान्यरूपो हेतुः प्रत्यक्षसिद्धः । अनुमानसिद्धतायां अनवस्थां प्रतिपादयैन्ति । तदुक्तम् ।
"सामान्यं नानुमानेन विना यस्य प्रतीयते । न च लिङ्गविनिर्मुक्तमनुमानं प्रवर्तते ॥ असामान्यस्य लिङ्गत्वं न च केनचिदिष्यते । म चीनवगतं लिङ्गं किंचिदस्ति प्रकाशकम् ॥ तस्य चाप्यनुमानेन स्यादन्येन गतिः पुनः । अनुमानान्तरादेव शीतेनैवं च कल्पने ॥
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१. संबन्धत्वादिति क० । २. वा भवेत् मु० क० । ३. संनिरूप्यते मु० क० । ४. इति तनियत क० । ५. प्रतिपादयति मु० । ६. न वान° क० । ७. इतः परं श्लोकवर्तिके - " तदुत्पत्तिथ लिज्ञात् स्यात् सामान्यज्ञानसंहतात् । तस्य चाप्यनुमानलात् भवेहिमेन चोद्भवः" इति पद्यं वर्तते तत् तु नोद्धृतं प्रन्थकारेण -- सं० । ८. ज्ञानेनैवं लोकबा० ।
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ . [३. अनुमानपरि० लिजलिजपनुमानानामानन्यादेकलिङ्गिनि।।
गतियुगसामेषु बहुवपि न विद्यते ॥" [लोकवा. अनुमा० १४९-१५३] अपि । अशेषव्यक्त्यायखरूपं प्रत्यक्षानुमानाभ्यां सामान्य निधीयमानं खापारनिवपत्पादयेत् । तनिश्चयोऽपि साधारनिश्चयमिति सकलः सकलाः प्रसन्येत । कसैकान्तसामान्यरूपो हेतुः साकल्येन सिद्धः।
६३. नापि विशेषरूपः । स हि एकान्तेन विशेषः परमाणुरूप: स्यात् । तस्य प न प्रत्यक्षानुमानाभ्यां सिद्धिरित्युक्तम् । न चानन्वितस्स हेतुत्वं सिखम् । ६४. विवखानेकान्तिकावपि साभ्यान्यथानुपपनस्वेन न सिद्धौ ।
६५. बरिया सिद्धत्वादेव तो निरखौ । तपाहि-पक्षधर्मत्वे सति तो साताम् । . बदमारे सावप्वसिपिति सकल एकान्तवापिनो हेतुर्न सिख इति ।
६६. महपादिन नयचक्रविधातुर्मतेन सकल एवैकान्तसाधनो हेतुर्विला इति । भनेकान्तात्मकवस्तुविपर्ययसाधनाविति।
६७. अनेकान्तिकासिद्धावपि साभ्यनिमयविपर्ययसाधनाविरुद्धाविति । तथाहि- लिमयेन सहाप्रतिपत्ति-संदेहावपि विनवावेन । तदविनाभूतौ चौसिद्धानेकान्तिकाविति सकल एप हेतुर्विद्ध इति ।
६८. देषा समन्तभद्रसेति । स हि प्रविबन्धविकलानां सर्वेषामेव हेतूनां व्यभिचारित्वं मन्यते । न चैकान्तसामान्ययोर्विशेषयोर्चा प्रतिबन्ध उपपद्यते । तपाहि-सामान्ययोरेकान्तेन नित्ययोः परस्सरमनुपकार्योपकारकभूतयोः कः प्रतिवन्धः । विशेषयोस्तु नियतदेशकालयोः प्रतिबन्धप्रदेऽपि तत्रैव तयोर्ध्वंसात् साध्यधर्मिण्यगृहीतप्रतिवन्ध एवान्यो विशेषो' हेतुत्वेनोपादीयमानः कथं नानेकान्तिक इति । तस्मात् समानपरिणामक्षेत्र सामान्यविशेषात्मनो देतोरनेकान्तात्मनि साध्ये गमकत्वम् । नेकान्तसाधन इति सिवम् । [५३]
सर्वसाधनविधौ परलोकसिखौ
मात्मावि यब निरुपद्रपसौल्पहेतुः। तत्रोपयुक्तमुभयात्मकवस्तुनिष्ठम्
म्युत्पादित विशदमेतविहानुमानम् ॥ ॥ इति श्रीशान्त्याचार्यविरचितायां बार्तिक वृत्ती अनुमानपरिच्छेदः ॥
१.क्याधिय म०प०। २. निववाढत्सा म०। ३. कपः हिमु००। ४. मनेग्रन्ति मु० क.। ५. 'भूतो पाति म०क.मु०। ६. विशेष मु०। ७. मुत्पादिवे ।
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४. आगमपरिच्छेदः।
६१. एवं प्रत्यक्षानुमाने व्याख्याय इदानी शाब्दं प्रमाणं व्याख्यातुमाह-ननु समस पूर्वपक्षिणा संकेवपत्तेरवस्तुविषयत्वात् कुतः प्रामाण्यमिति १ । तथाहि-ये यत्रावसंकेताः शामा सम्पाते समयं नामिवधति । यथा गोशब्दादयोऽश्चाविकम् । अकृतसंकेताब सापनम् सर्व एव शब्दा: परमार्यवस्तुनीति व्यापकानुपलब्धिः । अशक्यक्रियत्ववेक। स्थाभ्यां न वापदयमसिनो हेतुः। तपाहि-समुत्पन्ने वा वस्तुनि संकेतः क्रियेत अनुत्पन्ने पान वावदनुत्पन्ने । न हि अनुत्पन्नं वस्तु शब्दस्यान्यस या विषयतामुपयाति । शब्दो पा अनुत्पमविषये नियोज्यमानो न कल्पितगोचरतामविकामेत् शशविषाणाविशन्द इव । समानुपन संकेवभूमिः । उत्पन्नमपि कि गृहीवम् अगृहीतं वा । न वावगृहीतं वख संवगोपरा, अतिप्रसंगात् । गृहीवमपि क्षणिकत्वेन नष्टत्वात् न शब्दविषयः । तथाहि-॥ पतुनो ग्रहणम् । ततो लिया। तदनन्तरं शब्दस्मरणम् । ततो नियोग इति । एवं त्रिचतुसमेत सुदूरमुत्समत्वात्मसदगोचरवा । अब बसमानजातीयक्षणस विद्यमानत्वात् कथं न सान्दविषयवादसत् । गत अगदी विचमानमपि सन्दविणवामुपयाति । पवा अचापगृहीतं विचमानमपि गोशब्दल । पूर्वोपरेकीकरणप्रन्मेण नियोग्यमानः शमः कल्पितविषय एष लियोजिका स्यात् । वन बस्तु शब्दनियोगगोचरः।
६२. किंव, बस्तुनि संबंधकरणं प्रत्यक्षेण वा सावनुमानेन ना ?, न वावत् प्रत्यक्षेण । वेन पुरोग्यवस्थितरुपमात्रम प्रकाशनात् शब्दल च । न च तयोज्यिवाचकसंबन्धोऽपरः कर्तुं शक्यते । अयेन्द्रियज्ञानालढ एव रूपे संबन्धव्युत्पचिदृश्यते- इदमेव समाद वाच्यम्, बखेदमभिधानमिति । असदेवत् । तथाहि-अस्लेदं वाचकमिति को: १ प्रतिपादक, यदि वा कार्य कारणं वेति ? । तत्र यदि प्रतिपादक तत् किम् अधुनेव. वायदा वत्र पयधुना शब्दरूपम् बर्षल प्रतिपादकं विशदेन रूपेणेतिवयुलम् । अक्षम्यापारणेष बामीलादेवमासनात् न तत्र शब्दव्यापारलोपयोगः । अयाम्पदा छोपनपरित्सन्दामा पादोऽर्थानुदासयेत् । तदपि किं विशदेनाकारेण आकारान्तरेण पापति विज्ञदेन सदा पधुरादीनां वैफल्यमासज्येत । प्रवृत्तिब मसात् । सर्वमा बलमा प्रतिपनत्वात् । नहि प्रतिपन एष तावन्मात्रप्रयोजना प्रवृचिर्युका, प्रारविराम.. प्रसंगात् । अब किचिवप्रतिप रूपमति तदर्य प्रवर्तनम् । ननु यवप्रतिपनं म्पत्तिरूपं प्रवृत्तिविषयः [वत् ] बर्हि न शब्दार्थः वदेव 4 पारमार्षिकम् , ततोऽयक्रियावर्शनात् । मान्यत्, बस बर्षकिवावियात् ।
अब कागतरे संतरेणाकारेण वानसावभासयेत् । नम्बसो आकारलदा संबन्ध
सं
१. सब मु०। २. क्रियताम् मु०। ३. कमेव मु०। ४. स्थितन्दकप मु००। ५. को। ० । सबम्युमु.क०। ६.मेव भन्यदा म० मु०। ७. दाभावेनशक.मु०।
भाकरण, विधान पाम। ९. मनात प्रम००।१०. यदि प्रतिम०प०। ११. तदेव पारमावर परक०। १२. सुटतरेण ताणम०।
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8 ६३. नाप्यनुमानतः तदभावे तदनवतारात् । अथार्थापत्य संबन्धवेदनम् । तथाहिव्यवहारकाले शब्दार्थौ प्रत्यक्षे प्रतिभातः श्रोतुश्च शब्दार्थप्रतिपत्तिं चेष्टया प्रतिपद्यन्ते व्यवहारिणः तदन्यथानुपपत्त्या तयोः संबन्धं विदन्ति । तदप्यसत् । सिध्यत्येवं काल्पनिकः संबन्धो ! न वास्तव: । तथाहि - श्रोतुः प्रतिपत्तिः संकेतानुसारिणी दृश्यते, कलिमार्यादिशब्देभ्यो मिडार्थयोर्विपरीतप्रतिपत्तिदर्शनात् । तन वस्तु शक्यसंकेतक्रियम् ।
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ
[ ४. आगमपरि०
व्युत्पत्तिकाले कालान्तरे वा नेन्द्रियगोचरः । तत् कथं तत्र शब्दाः प्रवर्तमाना नयनादिगोचरेऽर्थे वृत्ता भवन्ति ? । नापि शब्दोऽर्थानां कारणं स्वहेतोरेव तेषामुत्पत्तेः । नाप्यर्थकार्यम् विद्यमानेऽत्यर्थे दर्शनप्रतिपादनाभिप्रायविवक्षाविभिर्व्यवधानात् । तना [य]क्षतैः संबन्धवेदनम् ।
४. संकेतव्यवहार कालाव्यापिनि वस्तुनि निष्फलश्च संकेतः । तथाहि — कथं नाम अस्माच्छब्दादमुमर्थं प्रतिपद्यन्तां व्यवहारकाले प्रतिपत्तार इति संकेतं कुर्वते प्रेक्षाकारिणः । स चान्यत्वे न संभवति ।
६५. अथ कालान्तरस्थायिनो नित्यस्य वा विशेषस्य सामान्यस्य वा आकृतेर्षा' अवयवसंयोगलक्षणायाः सद्भावात् कथं न संकेतकरण साफल्यम् । तदसत् । नित्यस्य क्रमयोग" पद्यायोगेन अर्थक्रियाविरहतोऽसत्त्वात् । यदि च वस्तुनि शब्दवृत्तिः स्यात्, तदा न कश्चिद् दरिद्रः स्यात् शब्दस्यैव सर्वार्थप्रतिपादकत्वात् । जातेरभिधानीभेद मिति चेत् ; न जातेरभावात् ।
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६६. अथावभासमानापि कथं नास्तीति चेत्; न जातिप्रतिभासाऽभावात् । तथाहि - दर्शने परिस्फुटतयाऽसाधारणमेव रूपं चकास्ति, न साधारणम् । अथ साधारणमपि रूपमनुॐ भूयते गौगौरिति । तदसत् । सावले (शाबले) यादिरूपविवेकेनाप्रतिभासनात् । न च साबले - (शाले) यादिरूपमेव साधारणं, प्रतिव्यक्तिभिन्नरूपोपलम्भात् । नापि कल्पनाज्ञाने । कल्पनापि पुरः परिस्फुटमुद्भासमानं" व्यक्तिरूपं व्यवस्यन्ती हृदि बीभिजल्पाकारं प्रतीयते न तद्व्यतिरिक्तो वर्णाक्षराचांकारशून्यः प्रतिभासो लक्ष्यते । वर्णादिस्वरूपरहितं च जातेरूपमुपगम्यते । तन्न कल्पनावसेयाऽपि सा । यच न कचिद्विज्ञाने भाति तदसत् शशविषाणमिव ।
१७. भवतु वा जातिः शब्दार्थः तथापि न शब्दात् प्रवृत्तिः स्यात् ज्ञानमात्रलक्षणत्वाव्वात्यर्थक्रियायाः । तस्याश्च तदैव निष्पन्नत्वात् । अथ जात्या व्यैक्तिर्लक्ष्यते तेन लक्षितलक्षणावृत्तिः । तदसत् । क्रमवत्प्रतीतेरभावात् पूर्वं जातिः पश्चाद् व्यक्तिरिति । किं च यदि नाम शब्दाज्जातिरौभाति व्यक्तेः किमायातम्, येन सौ तां लक्षयति ? । संबन्धरेत् ।
१. तन्नाक्षितः अ० ब० । २. त्या संवेदनम् अ० क० मु० । ३. प्रत्यक्षः प्रतिभावतः मु० क० । ४. पद्यते मु० क० । ५. द्रा ६. 'हारकला मु० क० । ७. संभावयन्ति मु० । ८. स्य तत्रापि विशे० मु० क० । ९. afsव्ययवसं (?) अ० । १०. शब्दः वृत्तिः अ० ब० । ११. धानाचैवमिति चेत् जाते क० । १२. मिति जाते ब० । १३. रूपमिव क० । १४. प्रतिशक्ति क० । १५. 'मानशक्तिखरूपं क० । १६. हृदि याभि° मु० क० । १७. क्षराकार' य० । १८. भावि तच्छशवि० अ० । १९ जातिः तथापि अ० । २०. तस्यास्तु मु० क० । २१. जात्या शकि० क० । २२. जातिः पराभाति ब० । २३. येन तां मु० । २४. लक्षति मु० क० । २५. संबन्धलाचेत् मु० क० ।
मु० |
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कारिका ५४.]
शब्दप्रामाण्यस्थापनम् । 'संबन्धस्तयोः किं तदेव प्रतीयते आहोखित् पूर्वम् ? । न तावत् तदा व्यकेरनधिगते । अधिगमे वा किं लक्षितलक्षणया ? । सैव शब्दार्थः स्यात् । तस्मात् तदनधिगमे तद्रतसंबन्धानधिगैतेन तदा तत्प्रतीतिः। नापि पूर्वम् । यदि नामैकदा अकार्यकारणभूतयोः सहभावः तथापि सर्वदा ताभ्यां तथा भाव्यमिति कोऽयं नियमः ।
६८ अथ जातेरिदमेव रूपं यदुत विशेषनिष्ठता । ननु सर्वदा सर्वत्र जातिव्यतिनिधति' किम् अध्यक्षेणाधिगम्यते अनुमानेन वा ? । न तावत् प्रत्यक्षेण सर्वव्यक्तीनां युगपदप्रकिभासनात् नैकदा तनिष्ठता तेन गृह्यते । क्रमेणापि व्यक्तिप्रतीतो निरर्वधेर्व्यक्तिपरंपरायाः सकलायाः परिच्छेत्तुमशक्यत्वादिति न तमिष्ठतामहः । नाप्यनुमानेन तत्पूर्वकत्वेन तस्य तभावेऽप्रवृत्तेः । तन्न जात्या व्यक्त्युपलक्षणम् ।
६९. किंच, जातेरपि शब्देन प्रतिपादनं न संभवति, तत्र संकेतासंभवात् । तथाहि-. प्रतिपनायां तस्यां संकेतः । तत्प्रतिपत्तिश्च प्रत्यक्षानुमानाभ्यां नेत्युक्तम् , शब्दकप्रमाणसमधिगमे चानवस्थेतरेतराश्रयत्वं वा स्यादिति ।
६१०. किं च, शब्दवाच्यं यद्यक्षणिकं तदा व्यवहारकालभावि क्रमवत् विज्ञानं नोत्पद्येत "नाक्रमात् क्रमिणो भावः" [प्रमाणवा० १.४५] । न च स्खविषयज्ञानोत्पादनादन्यत् वाच्यत्वं । तन्न शाब्देविज्ञानं अवस्तुविषयत्वात् प्रमाणम् । इत्याशमाह -तापच्छेद-" करैः शुद्धमिति ।
ताप-च्छेद-कषैः शुद्धं वचनं स्वागमं विदुः। ६११. तापश्च च्छेदश्च कषश्च । तैर्यद्वचनं शुद्धं तत् प्रमाणमिति । एतदुक्तं भवति-न शब्दस बामार्थाविनामावित्वेनार्थप्रतिपादकत्वात् प्रामाण्यम् । किन्तु पुरुषप्रामाण्यमेव शब्देसंक्रान्तं प्रमाणत्वेनाभिधीयते इत्युक्तम् ।
६१२. यह 'अशक्यक्रियत्व-वैफल्यादि दूषणम्' अभाणि क्षणिकपक्षाश्रयणेन वनोभया. मकवस्तुवादिनां क्षतिमावहति अस्पष्टविशेषविषयत्वं च परोक्षसोक्तम् । तेन न केवलसामान्यपक्षभावी दोषः संभवी।
६१३. अथ किमिदम् अस्पष्टत्वम् ? । किं ग्रहणम् , उताग्रहणम् १ । यदि ग्रहणम्, कथमस्पष्टत्वम् । अथाग्रहणम् । तदा कथं तत्प्रतीतिरिति । न, अनिदन्त्वप्रतीतेरस्पष्टत्वप्रतिपादनात् । अपि च, घटशब्दादुत्पन्न विज्ञानं पटं किं न प्रत्येति यदि निर्विषयं शाब्वं विज्ञानम् ? । अर्थ संकेतवशात् वस्त्वन्तरमपि प्रत्येत्येव । ननु का प्रतीति: १ । किं प्रहणमाहोश्विदग्रहणम् । । यदि प्रहणम् तदा कथं निर्विषयम् ? । अथाप्रहणम् तदा केतद्विषयार्थः । अथ दृश्यविकल्प्यैकीकरणेन तव्यवसाय: । न, अप्रहणे व्यवसायाऽयोगात् ।
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१. चेत् स संब' ब०। २. गमे न त ब०। ३. गतिर्न मु०। ४. भूतयोः ताभ्यां मु०। ५. जातिति क०। ६. °वधियं मुक०। ७.चन प्र° मु००। ८. भ्यामित्यु मु.क०। ९.काले नाक्रमात् अ०। १०. भावाः ब०। ११. न्यवाध्य १०। १२. शब्द अ०। शब्दाद विमु०। तम अशब्दात् क०। १३. °मिति न मु०क०। १४. शब्दबाया म०प०। १५. मेष संक्रान्तं मु०क०।१६. प्रमाणशब्दलेना मु०क०।१७. केवलप्रामाण्यप'मु०।१८. अतः मु००। १९. तदा सद्विष मुछ। तदा तद्विषक०।
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इति । [ ५४ ]
६१. नतु एवं सर्वागमानां प्रामाण्यमासन्देश । नैवइति । एवं हि सर्वमाक्षाणामपि • प्रामाण्यं खात् । भव तत्र कारवारद्धिहवो विशेषः । अत्रापि समानः इति दर्शवितुं वापायातुमाह-शापो हखादि ।
प्रणीताशी रामादिसंशयात् ॥ ५४ ॥ यो मानसः ।
२.
पुरुषप्रामाण्यात् शब्दप्रामान्ययुक्तम् । पुस् त्रिभिर्गुणैः प्रमाणम् । सर्वज्ञ॥ स्पेन, वीतरागत्वेन, अमूहस्वेव च । तानेव त्रिनिर्विशेन्नैर्वर्शयति । नाऽवीतरागोऽन जहाति । न यूहः पूर्वावति । नासः मानसंगादि रचपति ।
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६२. कफ है।
after
। वन
। किं च
ददाति
वर्ष बीतरागः १ । अथ न ददाति । तदा किं तेन भावनिवेनेति १ । ॥ वक्ति । दिनकरडडान्तेन निम्यामण्याविडान्सेन हि शाकारैः समाहितमिति नेह प्रतम्पते ।
म्यापावतारसूनवार्तिकवृत्तौ
[ ४. भागमपरि०
व्यवसायादम्यत् । नहि प्रत्यक्षं वस्तु अय:सन्देशकन्यायेन गृहाति । कि व्यवसाय एवं तहः । स च शाब्देऽपि समानः । किन्तु स्पहास्पस्वकृतो
तापी कचः पूर्वापराचा
१४. देवं गुणत्रयनैकस्याज्ञागमान्तराणां प्रामाण्यम् । तोहि छोभाविमूलोऽधर्मः । ज्ञानं चाधर्मशोधनम् इति पूर्वापरव्याघातः । वैया,
"गंगाहारेपनि
ती संभवे
" इसनिवार पुनरष्णु
तथा,
वैवाहि
।
॥"
"चिन्तर्गत दुईति।
शतशोऽसुराभाण्डमिवाशुचि ॥” [ जावाल० ४.५४ ]
"न हिंस्यात् सर्वभूतानि” [ छान्दो० अ० ८] इत्यभिधाय पुनहिंसाभिधानात् ।
"वैतानि निहन्यन्ते पशूनां मध्यमेऽहनि । अभ्वमेधस्य वचनान्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः ॥"
तथा, आगमान्तरप्रणेतृणामवीतरागत्वम् अङ्गनासमालिङ्गनात् सुप्रसिद्धमेव । [ ५५ ] ६१. तथा प्रमाणसंवाद्युत्पादव्ययभौ व्यात्मकवस्त्वनभिधानादप्रामाण्यमित्याह मशवादी - 'विधिनियमभन्तर्मुत्तिष्यतिरिक्तत्वादनर्थकवचोवत् । जैमादन्यच्छासनमगतं भवतीति वैधर्म्यम् ॥ ५६ ॥ इति ।
१. ०० । २. तथा कोमा° अ० मु० । ३. तथा च गं० क० । ४. बतें चैक क० । बै० | ५. कमल अ० प०। ६. नाद तथा भाग सु० । ७. ब० मु० क० आवड माती पथम् [सं० । ८. वृत्तिरिक क० । ९. तीति वैधम्र्ममिति तथाहि क० ।
'तीति धर्ममिति
देवप्रयोगः ० ।
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पारित ५६.] सालमा नियम ११. वैवमिति वैयप्रयोगः । ववाहि-त्यारोमानिस
____ व्याप्तम् । वस्यापकामाषा व्याप्याभाषप्रतिपादनं वन्यप्रयोगः । विपिन शासन
- नियमात्र मान्यते तयोः । वेषु अपिलदमिपानम् । मतिरिकतार मा। यादिवसात वादन्वासनमिति बाला जीपायोडो मात्रामा मिनमीता। बलादपरेशानियतं बलमा मावि बना सन्मत्तानमिव । बा, बनकर वर्षमा परापारिमादिवासवत् । विपिलाया, मनो व्यया, मित्रको प्रौव्यमिति वदात्मक संकटमेव बस्तु, बल साल्लेनापविमान मागमान्यपणां न प्रामाण्यामिति ।
१३. नेगमसंग्रहबहार स्वादसममिल्देवभूता है सप्तमकाः । न इम्याधिक पर्यायाखिको मेडनयो । शेषाखवेदाः । बहुम्।।
पत्र कापिळ सुखम्बालिकम् ।
बोधिम् । पर्सनालि पुरावानि इति । ६४. सांस्यो औजार प्रतिमा न विधिविमयी । बस नालियो पारि दिनीन
मिः शामिः सत्कार्यबादः समर्षिक। -- पवा नाकासमम् । बसप परमन भी
योनि देवम् । वस्मात् सत् कारणे काम मादायमाणा नियतलैव प्रहम् । बम्पया सबसेष विमानत्वाविशेरचित् । न चैवम् । बाबत् कार्यमिति । या संमपाऽभावादी समास कार्यमुत्पयेत । पूर्व कारणाश्रवणेन प्रसंग का, संप्रति im e न च सर्व सर्ववो भवति । तस्मादयं नियमः । वत्रैव वस समाचाविति । बयान शक्यकरणाविति । यद्यप्यसत्कार्यवाविमिर्नियवमेव कारणं नियतकाकरणशक्षिपेवते, तथापि शक्यमेव कार्य करोति । यब नीरूपं तदनाचेयाविशयम् । तमामू प क केनचिच्छक्येत कर्तुम् । तस्मात् सदेव शक्यते कर्तुम् , नासविति । तथा, उतन्यावादसकार्य" न किंचित् कारणं स्यात् । अखि कारणम् । वाह-कारणभावाच सत्कार्यमिति ।
६५. वदसत् । एवं हि नै कार्यकारणे साताम् । न हि यद् वोऽव्यतिरिक बत् तस्य कारणं कार्य वेति व्यपदेष्टुं युक्तम्, कार्यकारणयोर्मिनलक्षणत्वात् । अन्यथा हि 'इर्द कार्य कारणम्' इति व्यवस्था न स्यात् । मा भूदिति चेत् न, अभ्युपगमविरोधात् ।। तथाहि
१. सर्व मु०। २. कमवोचदनयंका । ३. तद्वचनं बमु००। ४. मकसकका ५. मौलनमो ब०। ६. व्यक मु०। ७. पञ्चमिः सत्का समु००। ८"पिः प्रसाशक०। ९. तस्मात् स्यात् सत् मु०।१०. उपादानकारणं मु००। ११. वसत्कार्य क०मु०। १२. तपाहम० या । १३. हि कार्य क०। १४. कारणतयोक।
न्या. १५
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ [४. आगमपरि० "भूलप्रकृतिरविकृतिमहदायाः प्रकृतिविकतयः सप्त ।
षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिने विकृतिः पुरुषः॥" [सांख्य० ३] इत्यभ्युपगमात् । से बाध्येत । सर्वेषां हि कार्यत्वं कारणत्वं वा प्रसज्येत । यहा पुरुषवन प्रतित्वं विकृतित्वं वा सर्वेषां स्यात् । पुरुषस्य वा प्रकृतिविकृतित्वं प्रसज्येत । तदसंबद्धमिदम् । उक्तञ्च।
“यदेव दधि तत्क्षीरं यत्क्षीरं तहपीति च। वदता विन्ध्यवासित्वं ख्यापितं विन्ध्यवासिना।"
६६. 'हेतुमत्त्वादिधर्मासंगि व्यक्तम् अव्यक्तमन्यदिति' एतदपि बाध्येत । न हि यद् "यतोऽव्यतिरिक्तस्वभावं तत् ततो विपरीतं युक्तम्, रूपान्तरलक्षणत्वाद्वैपरीत्यस्य । सत्त्वरज
समसां चैतन्यस्य च भेदे अन्यनिमित्ताभावात् ततश्च यदि न भेदः सर्व विश्वमेकं द्रव्य स्यात् । सहोत्पत्तिप्रसंगच भवेदिति ।
६७. अथ नापूर्वरूपोत्पत्त्या कार्यकारणत्वमभ्युपगम्यते यतो रूपाभेदे तद्विरभ्येत । किन्तु प्रधानं महदादिरूपेण परिणमति, सर्प इव कुण्डलादिरूपेणेति । ततो' रूपाभेदेऽपि " कार्यकारणव्यपदेशो न विरोधमनुभवतीति । तदसत् । परिणामासिद्धेः । तथाहि-किमसौ पूर्वरूपापरित्यागेन परित्यागेन वा ? । प्रथमपक्षे अवस्थानां सांकर्य स्यात् । ततश्च वृद्धावस्थाया. मपि बालाघवस्थोपलभ्येत । द्वितीयपक्षे न परिणामः स्यात् । पूर्वकं हि स्वरूपं निरुद्धम् अपरं चोत्पन्नमिति कस्य परिणामः।
६८. अपि च तस्यैवान्यथाभावः परिणामो भवद्भिर्वर्ण्यते । स चैकदेशेन, सर्वात्मना वा। न तावदेकदेशेन एकस्यैकदेशासंभवात् । नापि सर्वात्मना । पूर्वपदार्यनिरासेन पदार्थान्वरोत्पादप्रसंगात् । अतो न तस्यैवान्यथात्वं युक्तम् । तस्य स्वभावान्तरोत्पादनिबन्ध नत्वात् ।
६९. व्यवस्थितस्य धर्मिणो धर्मान्तरनिवृत्तौ धर्मान्तरप्रादुर्भावलक्षणः परिणामोऽभ्युपगम्यते में तत्स्वभावान्यथात्वमिति चेत् ; तेदयुक्तम् । यतो विपद्यमान उत्पद्यमानश्च धर्मों धर्मिणोऽर्थान्तरभूतोऽभ्युपगन्तव्योऽन्यथा धर्मिण्यवस्थिते तस्य तिरोभावाविर्भावासंभवात् । तथाहि-यस्मिन्ननुवर्तमाने यो व्यावर्तते स ततो भिन्नो यथा घटे अनुवर्तमाने ततो व्यावर्तमानः पटः । व्यावर्तते च धर्मिण्यनुवर्तमानेऽपि आविर्भावतिरोभावासङ्गी धर्मकलाप इति कथमसौ ततो न भिन्न इति धर्मी तदवस्थ एवेति कथं परिणतो नाम ? | यतो नार्थान्तरभूतयोः केटपटयोरुत्पादविनाशेऽचलितरूपस्य घटादेः परिणामो भवति, . अतिप्रसंगात् । अन्यथा चैतन्यमपि परिणामि स्यात् ।
१.मात् सर्वे अ०। २. प्रकृतिलं च सर्वेषां मु०। ३. ततश्च न क०। ४. सर्ववि० अ०व०मु०। ५. ततः प्रकृते रूपा मु० क०। ६. पूर्वरूपात्या अ००। ७.गेन वा पूर्वरूपपरि° मु०। ८. लभ्यते स०। ९. पूर्वकं ख क० अ०। १०.भ्यते ननु ख°मु०क०। ११. चेत् असदेतत् क०मु०। १२. यतः प्रच्यवमान उत्पद्य क. मु०।१३. धर्मिण्यस्थिते अ००मु०।१४. 'भावाना सं क०।१५. ततो भिन्न ब० । ततो नाभिन्न मु०। १६. यथा मु०क०। १७. 'तयोः घटयोरु मु०। "तयोः घटपटयोरु० क०।
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कारिका ५६.]
सत्कार्यवादनिषेधः ।
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१०. तत्संबंयोर्धर्मयोरुत्पादविनाशात् तस्यासौ अभ्युपगम्यते नान्यस्येति चेत्; न, सदसतोः संबन्धाभावेन तत्संबन्धायोगात् । तथाहि - संबन्धो भवन् सतो वा भवेदसतो बेति ? । न तावत् सतः, समधिगताशेषस्वभावस्यान्यानपेक्षितया कचिदपि पारतथ्याऽसंभवात् । नाध्यसतः । सर्वोपाख्याविरहतया तस्य कचिदप्याश्रितत्वानुपपत्तेः । न हि शशविषाणादिः कचिदप्याभित उपलब्धः ।
११. न च व्यतिरिक्तधर्मान्तरोत्पादविनाशे सति परिणामो भवद्भिर्व्यवस्थाप्यते । किं तर्हि ? यत्रात्मभूत स्वभावानुवृत्तिरवस्थाभेदश्च तत्रैव तदूव्यवस्था । न चात्यन्तभेदे धर्माणामात्मभूतो धर्मोऽनुवर्तत इति । तन्न भेदे परिणामः कश्चित् । एकान्तभेदे धर्मो वा स्यात् धर्मी वा । न तत्रापि कश्चित् परिणाम इति ।
I
९१२. ननूक्तम् - न सलिलात् कल्लोलानां भेदो नाप्यहे उत्फणाद्यवस्थानम्, अथ च भिन्ना 10: इव प्रतीयन्ते । तद्वद्धर्माणामाविर्भावतिरोभावमात्रम् परिणामो नापूर्वविधिरिति । अथ कोऽयमाविर्भावः १ । किं स्वभावातिशयोत्पत्तिरुत तद्विषयं विज्ञानम्, आहोखिद् उपलम्भावरणविगम इति ? । तत्र न तावदाद्यः पक्षः । यतः स्वभावातिशयो यद्यनुत्पद्यते तदा कथं सत्कार्यवादः ? । अथ सन् तदा नाविर्भावः । अथ तस्याप्यवस्था पूर्वमसती पश्चाद्भवति । ननु माप्यवस्था यदि सती तदा कथं भवति ? । अथ न सती तदा कथं नापूर्वविधिरिति ? | s तत्राप्यवस्थाम्तराभ्युपगमेऽनवस्था । तन्न स्वभावातिशयोत्पत्तिराविर्भाव इति । नापि तद्विषयं विज्ञानम् । नित्यत्वोपगमात् । तथाहि - भवतां सिद्धान्तः 'संविदोसर्गप्रलयादेकैव बुद्धि:' इति । न च न बुद्धिस्वभाषा तद्विषया वित्तिः, किन्तु मनःस्वभावेति वक्तव्यम् । यतो बुद्धिरुपलब्धिरध्यवसायो मनः संवित्तिर्ज्ञानमित्यनर्थान्तरत्वात् । तन्न तद्विषयं विज्ञानमप्याविर्माषः । नाप्युपलम्भावरणविगमलक्षणः । न हि अनाधेयनपनेयस्वरूपस्य नित्यस्मावरणं 20 किंचित् । भवतु वा, तद्धि सद्वा स्यात् असद्वा ? । यद्यसत् कथं तस्य विगम: ?, स्वत एव तस्य विगमरूपत्वात् । विगमरूपस्याप्यावारकत्वे न कदाचित् उपलम्भोपलम्भः स्यात् । अथ सत् । तदा कथं तस्य विगमः १ । न हि भवन्मतेन किंचिद्विनश्यति । तिरोभावो विनाश इति चेत्; कोऽयं तिरोभावः ? किं स्वरूपविनाशः, पर्यायविनाशो वा, किं वाssवरणयोगः, विज्ञानानुत्पादकत्वं वेति ? । तत्र न तावत् स्वरूप-पर्यायविनाशोऽनभ्युपगमात् । नाप्यावरण- 20 योगो अविचलितरूपस्यवैरणायोगात् । अकिंचित्कुर्वाणस्यावरणत्वासंभवात् । अन्यथा जगतोऽपि स्यात् । करणे वा नित्यताहानेः । विज्ञानानुत्पादकत्वमप्ययुक्तम् । येन हि " स्वरूपेण ज्ञानमकार्षीत् तस्य विद्यमानत्वात् सहकारिणोऽकिंचित्करत्वेन निरस्तत्वात् । तदेवमुत्पादव्ययावपि प्रमाणोपपन्नाविति तदनभ्युपगच्छतो द्रव्यास्तिकनयवादिनो मिध्यात्वमिति ।
१. संबन्धयो° अ० मु० क० । २. रुत्पाय वि° अ० । ३. 'संबन्धिलायो' मु० क० । ४. 'गतशेष क० । ५. मेदस्य तत्रैव अ० । ६. नचात्यन्त्य मेदे अ० । न चासन्तमेदे क० । ७. इति न भेदे अ० ब० । ८. एकान्तमेदे मु० क० । ९. धर्माः वा स्युः धर्मी मु० क० । १०. 'वस्था अथ सु० क० । १९. यद्यदुत्प' मु० । १२. संविदसर्ग° अ० । १३. स्वभावातिविषया अ० । स्वभावो तद्विषया संवितिः मु० क० । १४. अनाधिया अ० । १५. स्यावारक क० । १६. चित् उपलम्भः स्यात् मु० ब० । १७. रूपस्यायोगात् अ० ब० मु० । १८. 'लस्य यु० मु० क० । १९. येन खरू' ब० ।
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सर्वगत.
न्यावावतारखूचवार्विती [४. भागमपरिक १३. एवेन शाकाशकालविगात्ममनःशब्दानां केवलं प्रौव्यमभ्युपगच्छन्तोऽशुखनयमालवा वादिनो निरता इति । प्रमाणासंबापर्कमियानात् । बाहि-मात्मनः सर्व
- म्यापित्वं न प्रमाणसंवादि । तद्धि प्रत्यक्ष वा सावनुमानं वान तावत् सन्नम्। प्रत्यक्षम् परोक्षत्वेनाभ्युपगमात् । यलायभ्युपगमः सोऽपि न मुख्याती पर वत् प्रत्यक्षं नेन्द्रियजन्यम् अभ्युपगम्यते किन्तु बालमनासनिकर्षजम् । न च फूटबल प्रागिव मनसा संयोगः संमपति । वल हिवरसंयुकं वत् संयोगकाले किमसिरिया नातिपसि तदा न मनसा संयुज्यते । ववाहि-पदसंयुक्तरूपं तन मनसा संयुज्यते । बवा मुजामावि । बसंयुक्तपथ बात्मा पूर्वावस्थायामिति स्वभावविवखोपळधिरिति । संयुकासंयुक्तरूपयोः परस्परपरिहारेणावलानात् । अवैकरूपले न खलपापम् । तेन ॥ नासंयुजवल्पः, सर्वदेव तद्रूपत्वात् । नवदति । सो मैकरूपल संसरवं खाद । बाहिगरिरलरूपः वदा न भोक्वखरूपः । बष मोक्रलपखवा न करतः । बदि पेडखमायो न मुजसमावः । अब मुजखमावः, बदा न पडसमाव इति । किच, दिगाविमिरपि मनसः संयोगः किं न भवति । बनात्मरूपत्वादिति चेत् न, सर्वव्यापिले एटलानित्यत्वे महत्त्वे च सति कयमयं विभागोऽयमात्माऽात्माऽवनिति १ बल मन:संबन्ध सभामा तदन्योऽनात्मेति चेत्न, इतरेतरामवत्वसंगात् । सत्तात्मत्वे मन:संबन्धर, सति मनासंबन्धे वात्मत्वमिति । शरीरसंबन्धेन आत्मा बदन्योऽजालेति वधुब्येत वत्रेदमुच्यते-शरीरसंबन्धोऽपि आकाशादिमिः किं न भवति । अनामरूपत्वात् । नोचरमिवरेवराभयत्वामिधानात् । तन्नात्ममनःसन्निकर्षोत्पन्न प्रत्यक्षाधिगम्यः । नाप्बनुमानगम्यः । तदभावे तस्याप्यभावात् । . १४. अब 'सर्वगत चात्मा, सर्वोपलम्बमानगुणत्वात् अवः सर्वगामालाना सिदिः । तवाहि-सुखदुःखसावमसूत्पादो देशान्तरे नाहेतुक न पाइष्टादन्यः सुखाबेतुः । न चादृष्टस्यानाधारस्य गुरुत्वात् सत्र सस्थम् । न चासत्वे कार्यकर्तृत्वमिति आत्मनः बत्रापि सत्त्वमिति । खखि । बत: वत्रात्मनः सत्वे सुखायुपलम्मान भवति । एकार्यसमवायिनो मामलामावादिति चेत्, तदपि पत्र किं न भवति । शरीराभावादिति चेत् ; तत् किं शरीरे समवेत किंवा भात्मनि । बदिरीरे खवा शरीर भोक्त स्यात् नात्मा । न चैषोऽभ्युपगमः परख । अब बास्मनि । सदा सर्वशत्यो विद्यमानत्वात् समवायस्य च व्यापित्वात् सर्वत्र सुखाधुपलब्धिः सात् । मबारविकि एस्सैवोपलब्धिः नाम्यस्येति चेत्, न, एकत्यहानेः । तवाहि-बसिन् विविधिमाणे यन्त्र विशिष्यते तत् वतो भिन्नम् । यथा नीलत्वेन विशिष्यमाणे पटे अविशिष्यमाणो घटः । न विशिष्यते च शरीरात्मनि विशिष्यमाणे" देशान्तरस्थ आत्मेति ।
१५. किंच, शरीरात्मनि स्थितमदृष्टं देशान्तरस्थसुखादिसायकवस्तूलादकमस्तु किं तत्र
१. रूपस्य तस्य रूपद्वयं मु० क०। २. बन्ध मु०क०। ३. निल्यले जरखे च मु०क०। ४. विभागोऽयमात्मा अयमिति अ०। ५. संबन्धिखादात्मा भ०। ६. "मुच्येत मु००। ७. खान- . वारकस्य मु०क०। ८.०मिति यतः क०। ९.न्यत्रेति भ० ब०क०। १०. विशेष्य अ०। ११. घटे मु०। १२. °माणो देशा मुक०। १३. सुधादि क०। १४. साधकमस्तु अ० ब० मु०।
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कारिका ५६.] क्षणभङ्गचिन्ता।
११७ अदृष्टकल्पनया ? । दूरत्वान्न इति चेत्, कथं चन्द्रादयो विज्ञानोत्पादकाः । वस्मानास्ति' नियमः-सन्निहितेनैव कारणेन कार्यमुत्पादनीयम्, न दूरस्थेनेति । तेन सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वेनात्मनः सर्वगतत्वम् । इत्येकान्ताभेदवादिनो मिथ्यावादिन इति ।
६१६. तथा, एकान्तभेदवादिनोऽभिदधति-विनाशस्याहेतुत्वाद् उदयानन्तरं ध्वंसात् क्षणभङ्गवा- कुतो द्रव्यस्य संभव इति । तथाहि-ये यद्भावं प्रत्यनेपेक्षाः ते तद्भावनियताः।। दिनः पूर्वप यथा अन्त्या कारणसामग्री स्वकार्योत्पादने । अनपेक्षाश्च विनाशं प्रति भावा इति । तथाहि विनाशहेतुना किं स्वरूपं क्रियते, किं वाऽभावः क्रियते ? । न तावत् स्वरूपम् । तस्य खहेतोरेवोत्पन्नत्वात् । किं च, तत् स्वरूपं नित्यम्, अथानित्यम् ? । यदि नित्यं तेदा तस्याविनाश्यत्वात् अकिंचित्करो विनाशहेतुः । अथानित्यं तदा तस्य स्वत एव नश्वरत्वात् किं विनाशहेतुना । अथ कालान्तरस्थायिनो' विनाशहेतुना विनाशः क्रियते । न, कालान्तर-" स्थायित्वे नित्यतैव स्यात् । येन हि स्वभावेन भावः संवत्सर स्थितः स चेत् संवत्सरान्तेऽपि खभावः, पुनरन्यत् संवत्सरान्तरमासितव्यम् । तत्राप्येवमिति कालान्तरस्थायित्वाभ्युपगमे नित्यतैवापतति । तन्न पक्षान्तरसंभव इति । तत्र च विनाशहेतोरकिंचित्करत्वमिति । तन्न स्वरूपकरणाद्विनाशहेतुरिति ।
६१७. अथाभावं करोति । तदपि नास्ति । यस्मादभावः किं पर्युदासरूपः किं वा । प्रसज्यरूपः ? । तत्र न तावत् पर्युदासरूपः, तस्ये वस्त्वन्तरलक्षणत्वात् । तत्करणे न विनाश्यस्य किंचित् कृतं स्यात् । तथाहि - मुद्राद् यदि कपालानामुत्पादो घटस्य किमायातम् ? । तध्यंशेन(तद्धसेन) तेषामुत्पादादिति चेत्, तदुत्पादेऽन्यस्य ध्वंसः किं न भवति । तस्यैव निर्वृत्तरिति चेत् ; न, निवृत्तेर्वस्त्वन्तररूपत्वात् तदुत्पादे सर्वस्य स्यात् न वा कस्यचिदपि" विशेषाभावादिति । असंबद्धं च स्यात् । तथाहि - कपालोत्पत्तौ कपालो." त्पत्तिरिति ।
६१८. अपि च ध्वंसोऽपि किं घटस्वरूपः ? किं वा अर्थान्तरमिति ? किं वा तुच्छरूप इति ? । तदेवावर्तत इति अनवस्था । तन्नार्थान्तररूपाभावकरणे भावस्य किंचित्स्यात् । किन्तु स्वरसत एव निवर्तमानो घटक्षणो मुद्गरादिसहकारिकारणं प्राप्य कपालान्युत्पादयति । तदुत्पत्तौ च विजातीयसन्तानोत्पादे 'नाशितो घटः' इति जनस्याभिमान इति ।
१९. अथ प्रसज्यरूपमभावं करोति । तदपि नास्ति । निरूपस्य कर्तुमशक्यत्वात् । करणे वा भावरूपतैव स्यात् । यतो भवतीति भावोऽभिधीयते । नान्यद्भावस्यापि लक्षणम् । अथ भावो भावरूपतया भवति अभावोऽभावरूपतयेति । विचित्ररूपा हि पदार्थी भवन्ति । न हि नीलं पीतरूपतया भवति । तदप्यसत् । यतः केनचिद्रूपेणोन्मजनं हि भवनमभि
१. अदृष्टपरिकक०। २. तत्र मु०क०। ३. कान्तभेद मु०क०। ४. °हेतुत्वात् अ० ब०। ५. प्रत्यपेक्षाः अ० मु०क०। ६. अनपेक्षश्च मु० क०। ७. भाव इति मु०क०। ८. तस्य हेतोरुत्प मु०क०। ९. नित्यं तस्या मु०क०। १०. विनश्यक०। ११. स्थायिना विक०। १२. येन खमु०क०। १३. संवत्सरः क०। १४. अथ भावं क० । अथ भावं न करोति मु०।१५. तस्यावस्थान्तरल°क०। १६. कृतं तथाहि मु०। १७. तदंशेन तेषा अ० तच्चांशेन तेषामु०। १८. निवृत्तिरिति मु०क०। १९. चिदभावादिति मु०क०। २०. असंबन्धं स्यात् मु०क०। २१. भिधान इति मु०क०।
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न्यापावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ [४. आगमपरि० धीयते । सर्वोपास्मारहित निरूपत्वात् न कस्यचिद्रूपस्य करणमिति कथं तत्र हेतुव्यापारः फलवानिति । वलात् अभावं करोति'-भावं न करोतीति क्रियाप्रतिषेधमात्रं स्यात् । तस्मा. द्विनाशस्य अहेतुकत्वाद् उदयानन्तरं ध्वंसः । कुतोऽनुगतस्य रूपस्य संभवो येन त्रैलप्यं
वस्तुनः साविति । .६२०. अपि च, एकरूपत्वे वस्तुनः प्रथमे क्षणे यपं तदेव यदि द्वितीयादिष्वपि तदोत्पतिरूपत्वात् प्रथमक्षणलेव सर्वेषामुत्पत्तिरूपता स्यादिति प्रतिक्षणमुत्पादे न कस्यचित् स्थितिरिति । अथ प्रथमे'क्षणे उत्पत्तिः द्वितीयादिषु तु स्थितिरिति । तदा उत्पत्तिस्थित्योत्पत्तिस्थितिमद्भ्यां न भेद इति तयोरपि भेद इत्याविना क्षणिकस्य वस्तुनः सिद्धेः कुतो द्रव्यस्य संभव इति । ॥ ६२१. अत्र वदन्ति । यद्यहेतुकत्वं नाशस्य तदा नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा स्यात् । तत्र क्षणमा- यदि घटाभावस्य सत्त्वं तदा अहेतोदेशकालनियमाभावाजगति घटस्य नामापि भाः। न स्यात् । अथाऽसस्वं तदा घटस्य नित्यत्वं व्यापित्वं वा प्रसज्येत । अथ न घटात् तदभावस्य भेदः । एवं तर्हि कथमभावस्याहेतुकत्वम् ? । अन्यथा घटस्याप्यहेतुकता स्यात् । अथ घटहेतोरन्यो न मुंद्ररादिहेतुरिसहेतुकतोच्यते । यद्येवं प्रथमेऽपि क्षणे न ॥ घटस्य सत्त्वं स्यात्, विरोधिनः संनिधानात् ।
६२२. ननूक्तम् - न स्वरूपादन्यो[s]भाव इति कः केन विरुध्यते ? । यद्येवं तदा घटस नित्यत्वं व्यापित्वं च स्यात् । तथाहि-यस्य यत्र स्वरूपं तस्य तत्र सत्त्वम् । यथा प्रथमे क्षणे घटस्य । अस्ति च सर्वत्र देशे काले घटस्य स्वरूपभूतोऽभाव इति । अथ
खहेतोरेकक्षणस्थायी घट उत्पयते तेन तदात्मको विनाशः कथ्यते । न पुनर्षिनाशो नाम "कमि विग्रहवानिति । तेन द्वितीये क्षणे से एष न भवति । न पुनस्तस्य किंचिद् भवति । अथ द्वितीये क्षणे घटस्य किं सस्वं किं वाऽसत्त्वम् १ । यदि सत्त्वं कथं क्षणिकत्वम् ? अथासस्वम् तदा तदसत्त्वम् यद्यहेतुकं तदा प्रथमेऽपि क्षणे किं न भवति ? । अथ तदसत्त्वं न किंचिद् येन प्रथमेऽपि क्षणे स्यात् । यदि तन्न किंचिद् किं न घटो भवति ? ।
६२३. अथ द्वितीयादिक्षणेषु तुच्छरूपोऽस्याऽभावो भवति तेन न सत्त्वमिति । प्रथमे क्षणे तुच्छरूपाभावाभावात् सत्त्वमिति । ननु तुच्छरूपोऽभावः किं घटादभिन्नः किं वा मिम इति ? । यद्यभिन्नः तदा पूर्वः प्रसंग:- प्रथमेऽपि क्षणे सत्त्वं न स्यात्, सर्वदेशकालेषु वा सत्त्वं स्यात् इति । अथ भिन्नः स किं निर्हेतुकः किं वा हेतुमानिति । यद्यहेतुकः तदा प्रथमेऽपि क्षणे घटस सत्त्वं न स्यात् अहेतुकत्वात् तस्य तत्रापि भावात् । अथ हेतुमासदा कथमहेतुकोऽभावः इति । .६२४. अपि च तुच्छरूपाभावोत्पत्तौ द्वितीयादि क्षणेषु यदि घटो न भवति त्रैलोक्यमपि किम न भवति । तत्संबन्धिनोऽभावस्योत्पत्तेः स एव न भवति न तु" त्रैलोक्यमिति
१. करोतीति न करो ब०। २. सद्भावो क०। ३. प्रथमक्षणे मु०। ४. तदोत्पत्तिस्थितिमन्यां क. मु०। ५. मेदे इत्या अ०१०। ६. तदा हेतो मु०। ७. तदाभा क०। ८. मेदः तर्हि मु०। ९. घटस्थाप्य मु०। १०. न मुद्रादेर्हेतुकतोच्यते अ०। ११. विरोधिनि क०। १२. देशकाले मु० क०। १३. क्षणे एव मु०क०। १४. तथा अ०ब०। १५. मपि न किन भ मु० क० । १६. सत्तौ स अ०। १७. न त्रैलो ब०मु०क०।
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कारिका ५६.]
क्षणभङ्गभङ्गः ।
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वेत्; कः संबन्धः १ । न तावत् तादात्म्यम्, तत्र पूर्वमेवोक्तं दूषणम् । अथ तदुत्पतिः । तदपि नास्ति यतः किम् अभावेन घटो जन्यते किं वा घटेन अभाव इति १ । तत्र यद्यभावेन घटो जन्यते तदा तत्कारणवैफल्यं स्यात् । सर्वत्र च घटस्य सत्त्वं भवेदिति । अथ घटेनाभावो जन्यते तदा कथमद्देतुकत्वम् ? । द्वितीयश्च घटक्षणोऽभावेन व्यवहितोत्पत्तिः स्यात् । अथ द्वितीयैघटक्षण एव प्रथमस्याभावो नान्योऽभावोऽन्तराले 8 कश्चिदिति । ननु तस्य क्षणिकत्वात् तद्विनाशे प्रथमघटस्योत्पत्तिः स्यात् । एवं कपालविनाशेपि ।
२५. अपि च यदि वस्त्वन्तरमेवाभावः तदा यदुक्तं- 'पर्युदास एवैको नमर्थः स्यात् सोऽपि वा न भवेत् । यदि हि किंचित् कुतश्चिद् व्यावर्तेत तदा तद्व्यतिरेकि संस्पृश्येत तत्पर्युदासेन अन्यथा घटो न भवतीत्युक्ते पटो भवति इति पटस्य विधिरेवोक्तः ॥ स्यात् न घटस्य निवृत्तिरिति' "विरुध्येत । तस्मात् सुदूरमपि गत्वा वस्तूभयात्मकमभ्युपगन्तव्यम् । स्वरूपेण सत् पररूपेणासदिति । तेन भाववत् तदभावोऽपि हेतुमानिति ।
२६. अपि चैवमेकान्तवादिनो जन्माप्यहेतुकं स्यात् । तथाहि - कारणेन कार्यस्य किं जन्म भिन्नं क्रियते ' किं वाऽभिन्नं क्रियते ? | यदि भिन्नं क्रियते तदा कार्यस्य न किंचित् कृतं स्यात् । तत्संबन्धित्वं च " संबन्धनिरासात् निरस्तम् । अथाभिनं क्रियते तदा तदेव ॥ क्रियते न जन्म । तच किं विद्यमानं क्रियते किं वा अविद्यमानम् १ | यदि विद्यमानं तदा किं क्रियते १ । अथाविद्यमानं तदा शशविषाणमपि क्रियेत । अथाविद्यमानमेव क्रियते न तु अविद्यमानं क्रियत एव । तेन यस्य कारणमस्ति तत् क्रियते यस्य नास्ति तत्र क्रियते । ननु अविद्यमानत्वाविशेषेऽपि मृत्पिण्डो घटस्यैव कारणं न शशविषाणस्येति किं कृतो नियमः ? । अथ यस्योत्पत्तिर्दृश्यते तस्य कारणं नेतरस्य । ननु अविद्यमानत्वाविशेषेऽपि एकस्योत्पत्ति - 2 र्नान्यस्येति कुतः ? । वस्तुस्वभावैरुत्तरं वाच्यमिति चेत्; एवं तर्हि हेतुमद्विनाशवाद्यप्येतद्वक्तुं शक्नोति । कपालोत्पत्तौ घटस्यैवाभावः क्रियते नान्यस्येति वस्तुस्वभावैरुत्तरं वाच्यमिति । तद्युक्तिवादिना पादप्रसारणं न कर्तव्यम् किन्तु युक्तिरनुसरणीया ।
६२७. तत्रैकान्तषादे उत्पादव्ययौ "नियुक्तिकाविति । अनेकान्तवाद एवं युक्तिमारसह इति" तदेव वस्तु केनचिद्रूपेण विनश्यति केनचिदुत्पद्यते " नैकान्तेनासदुत्पद्यते नाप्येकान्तेन 24 विनश्यति इति युक्तं । तदेवमुत्पादव्ययधौव्ययुक्तं वस्त्वनभिदधानानि आगमान्तराणि मिथ्यावादीनि इति । तस्मात् सूक्तम् - जैनादन्यच्छासनमनृतं भवतीति ।
२८. ननु भवतु विधिनियमभङ्गवृत्तिव्यैतिरिक्तत्वादन्यच्छाशन मनृतमनम्ब (मम्ब)
१. नास्तीति यतः क० ।
६.
२. घटेनेति अ० । ३. तत्करण मु० क० । ४. द्वितीये घट° अ० । ५. नाद्योs सु० क० 'तिरेके सं° मु० क० । ७. विधिरुच्येत सु० क० । ८. मिनं क्रियते यदि क० । ९. वाऽभिनं यदि सु० । १०. तत्संबंधिनिरासात् अ० । तत्संबन्धनिरासात् सु० क० । ११. संबंधित्वनिरा' ब० । १२. मानं क्रियते यदि ६० मु० । १३. क्रियते तदा मु० क० । १४. तथा मु० क० । १५. न तु अ० । १६. विशे मु० क० । १७. स्यापि किं अ० ब० । १८. स्यैव कि० मु० । १९. यौ न युक्ति मु० क० । २०. इत्यादि म० ब० । २१. बवे नाप्येका अ० । २२. व्यक्तिरि° अ० ।
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न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तौ [४. आगमपरि० रवपुषां त्वभ्युपगमः कथम् !, तस्य हि विधिनियमभङ्गवृत्त्यव्यतिरिक्तत्वादिति । तेऽपि स्त्रीणाममोक्षमनागममभ्युपेताः तेन मिथ्यादृश इति । तदुक्तम् ।
"पयमक्खरं च एगं जो न रोएइ सुत्तनिटुिं ।
सेसं रोतन्तो विहु मिच्छहिट्ठी जमालि व्व ॥" • तथाहि - यथा तिर्यनारकामरासंख्यातायुःसम्मूर्च्छजनरेषु रमत्रयस्य निर्वाणहेतोरभावोभिहितोऽर्हता तथा न योषासु तथापि ते तत्र तदभावं प्रतिपन्ना इति । नापि प्रत्यक्षेण रमत्रयस्याभावः, परचेतोवृत्तीनां दुरन्वयत्वात् । नाप्यनुमानेन प्रत्यक्षाभावे तस्याप्यभावात् । तदेवं प्रत्यक्षानुमानागाबाधितं शानदर्शनचारित्रलक्षणं रनत्रयमविकलं कारणं निर्वाणस्य बीवस्तीति कथमनिर्मोक्ष इति । प्रयोगः- यदविकलं कारणं तदवश्यमेव कार्यमुत्पादयति ॥ यथा अन्त्या बीजादिसामग्री अडरादिकम् । अविकलं च निःश्रेयसकारणं योषिखिति ।
६२९. अथाधस्तादुत्कृष्टगमनवद् उपरिष्टादप्युत्कृष्टगमनासंभवः तासामिति स्त्रीत्वेनैव "विरुद्धं रबत्रयमित्यसिद्धो हेतुरिति चेत् ; न, प्रतिबन्धाभावात् । न हि सप्तमपृथ्वीगमनाभावो मोक्षाभावेन व्याप्तो विपर्यये व्याप्तेरसिद्धेः । इह यद्यत्र नियम्यते तद्विपर्ययेण तद्विपक्षस्य व्याप्तौ नियमः सिध्यति । यथा वहिना धूमस्य व्याप्तौ धूमाभावेन वहयभावस्य ॥ व्याप्तिः । यथा वा शिंशपात्वस्य वृक्षत्वेन व्याप्तौ वृक्षत्वाभावस्य शिंशपात्वाभावेन व्याप्तिरिति । न चैवं सप्तमपृथ्वीगमनं कारणं मोक्षगमनस्य नापि तदात्मकम् येन विपर्ययव्याप्तिः स्यादिति । न चाव्यापकैमिवृत्तावपि व्याप्यस्य निवृत्तिरतिप्रसंगात् । न च त्रीत्वेनाविकल. कारणं भवनिर्वाणकारणं निवर्त्यमानमुपलब्धम् । येन "विरोधादसिद्धो हेतुः स्यादिति ।
६३०. न चोत्कृष्टाशुभपरिणामेन उत्कृष्टशुभपरिणामस्य व्याप्तिः येन तदभावे तस्याप्य" भावतः प्रकृष्टाशुभार्जनायोग्यत्वे प्रकृष्टशुभार्जनायोग्यत्वं तासां स्यादिति । उक्तं च ।
"विषमगतयोप्यधस्तात् उपरिष्यातुल्यमासहस्रारम् । गच्छन्ति च तिर्यश्चस्तद्धोगतिन्यूनताऽहेतुः॥"नीमु० श्लो०६]
"भूयन्ते चानन्ताः सामायिकमात्रपदसिद्धाः॥" [ तत्त्वार्थसं• का० २७] इति वचनात् नोत्कृष्टश्रुताभावेन सिद्ध्यभावः स्त्रीणामिति ।
६३१. न च वस्त्रेण व्यवधानं निर्वाणस्य, अन्यथा तद्रहितानां तस्य सत्त्वं स्यात् । मोहयुक्तत्वात् [न] इति चेत् ; स एव तर्हि परिग्रहोऽस्तु न वनादिरिति । अन्यथा "कप्पर निग्गंथाणं निग्गंधीणं समणीणं" ति व्यपदेशो न स्यात् । तेन मूछों परिग्रहं वर्णयन्ति नोपकरणम् । तेन पुंसामपि वसपात्रादि धर्मोपकरणं न परिग्रह इति । तदुक्तम् ।
"यत् संयमोपकाराय वर्तते प्रोक्तमेतदुपकरणम् । धर्मस्य हि तत् साधनमतोन्यदधिकरणमाहाईन ॥"[खीमु० श्लो. १२]
१, बनभ्युब०। २. एगं पि जो ब०। ३. रोवइ ब०। ४. मानेन अप्रत्यक्षे एतस्य मु०। ५. गमवाधिक०। ६. विकलका ब०। ७. अधखा ब० मु०क०। ८. नैव निरुद्धं अ० ब०। R..गमनामोक्ष अ०। गमनाभावे मोक्षाक०। १०. व्याप्तिः मु०क०। ११. इत आरभ्य 'प्रोक्तमेतदुपकर [पं० २९] पर्यन्तं मु० प्रतौ नास्ति सं०। १२. गमकं भ०। १३. °पकत्वनिवृत्तावव्याप्यस्य म०। १४. निवृत्तिरिति प्रसं० अ०। १५. विरुद्धादसि ब०। १६. स च एव परिक०। १७. पुंसामिति वन अ०।
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कारिका ५६.]
स्त्रीमुक्तिवादः। ६३२. अपि च, संसारस्य किं कारणं वस्त्रादिः, किं वा रागादिरिति ? यदि वनाविः तदा तद्रहितानां मोक्षः स्यात् । अथ रागादिः तदा तद्विपक्षसेवया रागादिक्षयो न वस्त्रादित्यागेन । अथ वस्त्रादिधावनादौ हिंसा भवति । सा च संसारकारणमिति । तन्न, अप्रमत्तस्य हिंसायामपि बन्धाभावात् । तदुक्तम् -
"जियउ य मरउ य जीवो अजयाचारिस्स निछओ बन्धो॥ पययस्स नस्थि बन्धो हिंसामेत्रोण दोसेण ॥" [प्रवच० ३. १७] "उच्चालियम्मि पाए ईरियासमियस्स माणस्स। पायजेज कुलिंगी मरेज तं जोगमासज्ज नहु तस्स तणिमित्तो बन्धो सुमो वि देसिओ समए ॥"
[ोघ. ७४८-४९] तस्मात् प्रमादाविरेव हिंसा न बनाविधर्मोपकरणप्रहणमिति ।
६३३. अवन्याः स्त्रियः । तेन न निर्वान्तीति चेत्, नैनु कस्यावन्याः १ । किं सर्वस्य, किं वा एकस्य कस्यचिदिति । न तावत् प्रथमः पक्षः, चक्रवादिभिर्वन्धत्वात् । द्वितीयपक्षे तु गणधरीदीनामप्यनिर्मोक्षत्वप्रसंगः । तेऽपि हि नाईता वन्यन्ते । अथ महवे' सत्यबन्यत्वात् इत्युच्यते । तथाहि-महतीभिरपि विनदीक्षितो" बन्यते । न पुनस्तास्तेनेति ।। नैतदस्ति । महत्त्वामहत्त्वव्यवस्थितेरागमनिबन्धनत्वात् । 'धर्मस्य पुरुषप्रधानत्मात् तेन पुरुषस्य महत्त्वं न बीणाम्' इति आगमः।
६३४. अतिसंच्छिष्टकर्मत्वादिति चेत् । न, कर्मलापषस्य सम्यक्त्वाविप्राप्तौ तुल्यत्वात् । ६३५. मायाप्रधानत्वात् सत्यरहितत्वात् इत्यपि न वक्तव्यम् । यतः
"शीलाम्बुरोधवेला गुणरमसमुज्वला भतिखच्छाः। राज्यमपहाय साध्व्यः संजाताः सत्यभामाचाः॥" "गाईस्थ्येऽपि सुसस्वा विख्याताः शीलवत्तया जगति ।
सीतादयः कथं तास्तपसि विसवा विशीलाय?"[बीमु. ३१] ६३६. अपि च यदि न स्त्रीणां मोक्षोऽस्ति तदाऽयमागमः कथम् ?
"भट्सयमेगसमए परिसाणं निव्र्वासमक्खाया।
थीलिंगेण च वीस सेसा वसगं तु बोखब्वा॥" औपचारिकत्वादस्पेति चेत् -पुरुषस्यापि श्रीवेदोदये सति स्त्रीवद् व्यवहृतिर्यथा लोके पुरुषकार्याकरणात् पुरुषोऽपि नीति व्यवडियते । तदसत् । मुख्य बाधकाभावात् । अन्यथा सर्वशब्दानां व्यवस्था विलुप्येत । किं च, आप्ता अप्यौपचारिकशब्दैयदि वस्तु प्रतिपादयेयु: तदाऽऽप्तता हीयेत । प्रयोजनं चोपचारस्य न किंचिदस्ति । वेदोदये तत्संभवप्रतिपादनं ।
१. 'रस्य कारणं अ०। २. निच्छिदा हिंसा प्रवच०। ३. हिंसामित्तेण समिदस्स प्रवच०। ४. वचमा' मु०। यस्स संकमट्ठाए ओघ०। ५. तज्जोग मु०००। ६. न य तस्स ओघ०। ७. चेत् कस्या क० मु०। ८. गणधराणाम० अ०। ९. महत्त्वेपि सत्य क० मु०। १०. 'भिर्दिन मु०। २१. क्षितोपि ब° मु०क। १२. शीलानुरोधवलाः मु०। शीलाहुरोधवला:क०। १३. वसर्ग चमो००। १५. स्यामिहिनीक०। १५. लोकेषुक०।१३. स्थाऽप ००
म्या.१६
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न्यायापारिक तौ
[ १. महाममरि० प्रयोजनमिति चेत् । नं, क्षीणवेदसैद निर्वाणप्राप्तेः । न च श्रीवेदोदये सति क्षपकण्यारम्भकत्वं येन तथा व्यपदेशः स्यात् । न हि दोषब गुणश्रेणिमारभन्ते । अब कदाचित् तस्म श्रीवेदोदय आसीत् तेन तथा व्यपदेशः, तर्हि क्रोधादयोऽपि कदाचित् आसीत्, तेन किन व्यपदिश्यन्ते क्रोधवन्तः ईयन्तः सिध्यन्तीति । तस्मात् औपचारिकत्वमागमा प्रति• पैद्यमानो विधिवाक्यस्यैव प्रामाण्यमिच्छतो मीमांसकस्यानुहरति ।
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३७. अपि च चतुर्दशगुणस्थानानि श्रीणामर्हतोकानि निर्मोक्षत्वे विरुध्यन्ते ।
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एवं जिनवर कथितं खीष्वपि मोक्षं न साधु मन्यन्ते
विध्यादिषादिनोऽपि हि तथापि मिध्यादृशोऽहीकाः । एवं सप्तनयाम्बुधेर्जिनमतात् बाह्यागमा येऽभवन् स्थित्युत्पादविनाशवस्तु विरहात् तान् सत्यतायाः चिपम् । 'यो बौद्धावधिद्धतीर्थिकमतप्रादुर्भवद्विक्रमः
मलो मलमिवान्यवाद जयच्छ्रीमलवादी विभुः || श्रीमान्यलक्षणम माध्यमनन्यनेयं सूत्राभिधानिगदितं विशदं यदर्थम् ।
पदार्थविधौ पटीयः प्रोक्तं प्रमाणमिह शाब्द मिर्व गरीयः ॥ [ ५६ ] ॥ इति श्रीशान्त्याचार्यविरचितार्या वार्तिकवृत्तौ आगमपरिच्छेदः ॥
सूरिश्चन्द्रकुल|मलैकतिलकश्चरित्ररत्नाम्बुधिः
सारे लाघवमादधाति च गिरेर्यो वर्धमानाभिषः । तच्छिष्यावयवः स सूरिरभवच्छ्रीशान्तिनामा कृता
येनेयं विवृतिर्विचारकलिका नामा स्मृताचा [त्मनः ] ॥ १ ॥
rari हीने समधिकगुणे द्वेषमधिकम्
समाने संस्पर्धा गुणवति गुणी यत्र कुरुते । तदस्मिन् संसारे विरलसुजनेऽपास्तविषया
प्रतिष्ठाशा शास्त्रे तदपि भवेत् कृत्यकरणम् ॥ २ ॥ ॥ ग्रन्धाय २८७३ ॥
१. नाक्षीण मु० क० 1 २. क्रोधवन्तः सि° अ० । ३. प्रतिपाद्यमाने भु० क० । ४. यी श्रीमानविद्युदित्ती म० । ५. यंत्रा' अ० । ६. सूत्रमिदा नि° ५० । ७. परिच्छेदः चतुर्थः संपूर्णः इत्मेवं एषा पुष्पिका—सूरिन्द्रेत्यादिप्रन्यक्कृत्प्रशस्ति श्लोकद्वयानन्तरं मुक्तितो वर्तते । सं० । ८. इवं पर्व अ० प्रती मास्ति । ९. अवज्ञा न होने क० । १०. तदपि न भवेत् अ० ६० मु० । ११. ॥ २ ॥ मंगलं महा श्रीः ॥ लिपीकृतं या व्यास लावुराम जेठमल । रवासी अहिपुरमध्ये । जसलमेरुस्थः मुथा ज्ञानचन्दः वरेडीयागोत्रीयः । यस्य भार्यायां किखापितमिदं पुस्तकं । श्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वराणां प्रथमशिष्यपंडित भीमक्ष्मी विजयाभिधानाः, तेषां शिष्यहंसाख्योपदेशात् लिखापितं क० । इति श्रीशांत्या...... आगमपरिच्छेदः चतुर्थः संपूर्णः । संवत् १९६५ शाके १८३० पौष कृष्ण द्वितीया २ जीयो सौम्यवारे समाप्तम्मु० । १२ ० ० ०
सं०
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॥ टिप्पणानि ॥
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टिप्पणा नि ।
पृ० ११. पं० ४. हिताहितार्थ - इस कारिका की दो व्याख्याएँ वृत्तिमें हैं । उनमें से दूसरी व्याख्या ( पृ० १३. पं० १२) स्पष्टतया दिग्नाग के 'प्रमाण समुच्चय' के 'प्रमाणभूताय' इत्यादि मंगल श्लोक का अनुकरण करके की गई है' । दिग्नाग ने 'प्रमाण समुच्चय' की रचना करते समय बुद्ध भगवान् को 'प्रमाणभूत' कहा है । वही बात शान्त्या चार्य ने प्रस्तुत कारिका की दूसरी व्याख्या में कही है ।
न्यायभाष्यकार वात्स्या य न ने कहा है कि “प्रमाणेन खल्वयं ज्ञातार्थमुपलभ्य तमर्थमभीप्सति, जिहासति वा” ( १. १. १ ) । उयो त कर ने स्पष्टीकरण किया है कि उपेक्षणीयार्थ की प्रतिपत्ति से पुरुष की प्रवृत्ति या निवृत्ति होती नहीं है किन्तु सुखहेतु या दुःखहेतु अर्थ की तथाभूत प्रतिपत्ति ही प्रवर्तक या निवर्तक होती है । - न्यायवा. पृ० ७ ।
इसी बात को लक्ष्य में रख कर आचार्य धर्म कीर्ति ने 'प्रमाण समुच्चय' के उक्त मंगल लोक के वार्तिक में कहा है कि भगवान् हेयोपादेय तत्त्व के ज्ञाता होने से प्रमाण है । - प्रमाणवा० १. ३४ । उन्हों ने ज्ञान के प्रामाण्य का भी समर्थन उसी प्रकार से किया है । - प्रमाणवा० १. ५ । ३. २१७ | फलितार्थ यह है कि प्रमाण हेयोपादेय तख के विवेक में समर्थ होना चाहिए । धर्मोत्तर ने 'न्याय बिन्दु' की टीका में आदिवाक्य की व्याख्या में स्पष्ट कहा है कि - सर्व पुरुषार्थ की सिद्धि सम्यग्ज्ञान से होती है और वह सिद्धि हेय के हान में और उपादेय के उपादान में पर्यवसित है । - न्यायबि० टी० पृ० ८ । उन्हों ने उपेक्षणीयार्थ को हेय के अन्तर्गत मान लिया है
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वात्स्यायन ने प्रमाण के-हान, उपादान और उपेक्षा बुद्धि ऐसे तीन फल माने हैं। ( न्यायभा० १. १. ३; १. १. ३२ ) फिर भी उन्हों ने प्रमाण को, जैसा ऊपर कहा गया है, हेय के हान में और उपादेय के उपादान में समर्थ बताया है । उद्द्योतकर ने उस का समर्थन किया है । ठीक वैसे ही यद्यपि सिद्ध सेन और समन्तभद्र ने प्रमाण के तीन फल माने हैं और उस का समर्थन अकलंक ने किया है । - ( न्याया० २८, आप्तमी० १०२, न्यायवि० का० ४७६ ) फिर भी अकलंक ने अनेकत्र प्रमाण को हेयार्थ के हान में और उपादेयार्थ के उपादान में समर्थ बताया है'। साथ ही उपेक्षणीयार्थ की उपेक्षा की बात नहीं कही। प्रभा चन्द्रा चार्य जैसों ने धर्मोत्तरादि की तरह उपेक्षणीयार्थ के पार्थक्य का मी निरास किया है । - प्रमेयक० पृ० ४ ।
इससे स्पष्ट है कि अ कलंक ने इस विषय में वा त्स्या य ना दि के पूर्वोक्त कथन का अनुसरण
१. प्रभा चन्द्र ने भी 'परीक्षा मुख' के प्रथमश्लोक की दूसरी व्याख्या वैसे ही की है - प्रमेयक० पृ० ७ । २. तुलना - " हिताहितविधिब्यासेधसम्भावनम्” आत्मतस्वविवेक पृ० १ । १. "हिताहिवार्थप्राप्तिपरिहारसमर्थे द्वे एव प्रमाणे" - प्रमाणसं० पृ० ९७ पं० ७; लषी० स्व० का० ६१५ न्यायवि० का० ४ इत्यादि ।
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टिप्पणानि ।
[१० ११. ५० ५किया है। उन्हीं का अनुकरण शान्ख्या चार्य ने अन्य जैनाचार्यों की तरह प्रस्तुत कारिका में किया है।
पृ० ११. ५० ५. 'सिद्धसेनापत्रितम् -इससे स्पष्ट है कि शान्ख्या चार्य ने सिख सेन के सूत्र के उपर वार्तिक किया है। वे अपने वार्तिके का विशेष नामकरण नहीं करते किन्तु वार्तिक की खोपा इत्ति को उन्हों ने 'विचारक लि का ऐसा नाम दिया है जो गित प्रशस्तिश्लोक से स्पष्ट है।
सिद्धसेन का वह सूत्र 'न्या या व तार' नामक द्वात्रिंशिका ही है; क्यों कि वार्तिक का आधारभूत 'प्रमाणं खपराभासि' इत्यादि शास्त्रार्थ संग्राहक जो लोक उन्होंने दिया है वह न्या या व तार की प्रथम कारिका हैं।
श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के आप वैयाकरण श्री बुद्धि सागर के सहोदर भाचार्य जिने वरने 'श्वेताम्बरों के पास अपना प्रमाणलक्षण प्रन्थ नहीं है, वे परोपजीवी है। ऐसे आक्षेप के उत्तर में पूर्वाचार्यों का गौरव दिखाने के लिए आय सूरि की सुकृति न्यायावतार की ही उक्त कारिका को ले कर के 'श्लोकवार्तिक' की रचना की है, और उसे खोपन वृत्ति से विभूषित किया है। __ अतएव आचार्य सिद्धसेन के ही न्याया वतार के ऊपर दो वार्तिकों की रचना हुई है यह स्पष्ट है।
इन दोनों वार्तिकों के मी पूर्व में आ० सिद्ध र्षि ने इसी न्या या व तार के ऊपर एक संक्षिप्त टीका लिखी है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि थे ताम्बर आचार्यों ने स्पष्टरूप से सिद्ध से नाचार्य की इस छोटीसी कृति का काफी महत्व बढाया है। दिगम्बराचार्यों ने मी खासकर अकलंकने इस का अच्छा उपयोग किया है। न्या या वतार को हम जैनन्याय का आप लक्षणग्रन्थ कह सकते हैं।
पृ० ११. पं० ६. 'नमः खताप्रमाणाय-वृत्ति के इस मंगल श्लोक के साप कुमारि ल कृत मंगल तुलना के योग्य है
___ "विपुलवामदेवाय विवेदीदिव्यचक्षुषे"-मीमांसा श्लोकवा० १।।
जैनसंमत बाप्त का प्रामाण्य खतः है। मी मां स क का प्रत्येक प्रमाण खतःप्रमाण है। फिर भी उन के मत से आप्तस्थानीय महे घर, मनु आदि अतीन्द्रियार्थ के साक्षादृष्य नहीं हैं। ऐसे पदापों का उन का ज्ञान वेदाश्रित है और वह वेद किसी पुरुष के द्वारा निर्मित या उपदिष्ट नहीं है किन्तु नित्य है-'अपौरुषेय है । वेदखरूप दिव्यचक्षु मिलने पर महेबर का
1. परीक्षा० १.२, प्रमेयक०पू०४, प्रमाणन १.३। २. वहाचा किक बार्तिक ए मया मोकं विएना छते' का०५७। ३. नेवं चितिर्विचारकलिका नामा'। १. प्रमालम का०४०४। ५प्रमालक्ष्मवृतिका०४०५। शोकार्तिकमाचसूरिसुती-प्रमालक्ष्मीकाके मंगलाचरणकी कारिका । देखो 'न्यायावतार की तुलना' का परिवित। .. "खता सर्वप्रमामानां प्रामान्यमिति गम्मवार"-लोकवा०२.४७॥ ९"पहा बरमान न खुर्दोषाविसअपाः" -लोकवा०२.६३।"दलापौरपेयत्वे सिदा व प्रमाणता"-सोकबा.२.९७३
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पृ० ११. पं० .] टिप्पणानि।
१२७ ज्ञान विशुद्ध हो सकता है लेकिन जैनों के आप्त की तरह अपने दोषों का क्षय करके सकल अतीन्द्रिय पदार्थों का साक्षात्कार करना उन का काम नहीं। .
जैन, बौद्ध, नै या यि क, वैशेषिक, सांख्य और योग इन समी के परमाप्त समी वस्तुओं का साक्षात्कार करके उन के विषय में दूसरों को उपदेश करते हैं अतएव वे प्रत्यक्ष से अपने अपने पक्ष के उपदेष्टा कहे जाते हैं । जब कि मी मां स क के मत से वे ऐसा नहीं कर सकते । मी मां स क के मत से अतीन्द्रिय वस्तुओं का उपदेश आगमाश्रित है और वह बागम संयंसिद्ध है । मीमांसकेतर के मत से आगम आताश्रित है और आप्त स्वयंसिद्ध है।
मंगल की रचना के समय स्तोतव्य पुरुष को प्रन्यगत विषयानुकूल विशेषण देने की प्रथा प्रायः प्राचीन और नवीन ग्रन्थों में देखी जाती है । उसी का अनुसरण करके शान्या चार्य ने प्रस्तुत वृत्ति के मंगल में और वार्तिक के प्रथम लोक की व्याख्या में भगवान् को 'प्रमाण' कहा है।
आ० दिमाग ने मी 'प्रमाण स मुचय की रचना करते समय भगवान् बुद्ध को 'प्रमाणभूत' कहा है। प्रमाण, खासकर प्रत्यक्ष प्रमाण, बौद्ध के मत से निर्विकल्पक होता है अतएव धर्म की र्ति ने प्रमाण वार्तिक' के प्रारम्भ में भगवान को 'विधूतकल्पनाजाल' कहा।
जैनाचार्य प्रभा चन्द्र मी मगवान को 'प्रमाणलक्षण' कहते हैं । कुमारिल जब वेदानित मीमांसा दर्शन का समर्थन करने के लिए प्रस्तुत हुए तब उन्हों ने महादेव को 'त्रिवेदीदिव्यचक्षुष्' कहा।
पूज्यपाद जब मोक्षमार्गशाम की टीका करने लगे तो भगवान को 'मोक्षमार्ग के नेता' कहा- 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' - सर्वार्थः ।
योगविषयक ग्रन्थ का प्रणयन करते समय आचार्य हरिभद्र ने भगवान को अयोगम् , योगिगम्यं ( योगद्द०)। योगीन्द्रवन्दितम् (योगबिन्दु) कहा । जब कि दार्शनिक कृति में उन्हों ने भगवान को 'सदर्शन' (षड्द०) कहा है। वे ही जब *सर्वज्ञसिद्धि' रचते है तब भगवान को अखिलार्यशताऽऽक्लिष्टमूर्ति कहते हैं । 'अनेकान्त की जयपताका' फहराते समय बही नाचार्य भगवान को 'सबूतवस्तुवादी' के रूप में देखते हैं।
वेदान्त के किसी भी अन्य में यदि मंगलाचरण है तो वह ब्रह्म के खरूप प्रतिपादक विशेषणों से युक्त अवश्य हेण।।
ऐसे और मी उदाहरण दिये जा सकते हैं। इतने उदाहरणों से हम उक्त नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि यह मी एक प्रथा अवश्य रही कि प्रत्यकार अपने प्रतिपाप विषय के बनु विशेषण से इष्ट देवको भूषित करते थे।
पृ० ११.५०७. 'पचपेण'-आवश्यक नियुक्ति में नमस्कार शब्द का पदार्थ बताते समय कहा है कि "दब्वभावसकोयणं' पदार्थ है । अर्थात् नमस्कार दो प्रकार से होता है-एक तो बाम शरीर के अवयवों का संकोचन, यह द्रव्यसंकोचनरूप इत्य नमस्कार है और दूसरा विशुद्ध मन को प्रणति में लगाना, यह भावसंकोचरूप भाव नमस्कार है । मनःधिपूर्वक जो
..भावनि यि २८० २.विशेषा० २८५७।
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१२८
टिप्पणानि ।
[४० ११. पं० ८द्रव्यनमस्कार किया जाय वही सफल है । कोरा द्रव्य नमस्कार निष्फल होता है । द्रव्य नमस्कार न मी हो किन्तु भाव नमस्कार हो तब भी वह फलदायी है।
प्रस्तुत में शान्त्या चार्य जिन भगवान को पश्चरूप से नमस्कार करने की बात कहते हैं । यद्यपि यह उल्लेख उन के द्रव्य नमस्कार का ही है फिर भी वह भावनमस्कारपूर्वक ही होगा ऐसा समझना चाहिए। उन्हों ने अपने भाव नमस्कार की सूचना भगवान के गुणवर्णनसे दी है। द्रव्य नमस्कार जिन पांच रूप से किया जाता है उन का वर्णन वंदन कप्र कीर्ण क में है
"दो जाणू दोण्णि करा पंचमगं होइ उत्तमंगं तु।।
पणिवाओ पंचंगो भणिओ सुत्तटुदिट्ठीहिं॥" वंदन०१४। अर्थात् प्रणाम पांच अंगों से किया जाता है । दो हाथ, दो जानु और मस्तक इन पांच अंगों के संकोचन से द्रव्य नमस्कार होता है।
पृ० ११. पं० ८. 'अन्यार्थवत्तेति' इस पद्य में शा त्या चार्य ने सज्जनों को निर्मत्सर होकर अपने ग्रन्थ की परीक्षा करने को कहा है। यह एक पुरानी प्रथा का अनुकरण मात्र है। महाकवि कालिदास ने भी ऐसा ही अपनी कृति 'रघुवंश' में किया है'; और का लि दास के बाद भी यही प्रथा बराबर चालू रही। __'अपूर्वार्थक होने से ग्रन्थ की रचना अनावश्यक है, क्यों कि वह खरुचिविरचित होने से सत्पुरुषों के आदर योग्य नहीं । यदि पूर्वप्रसिद्धार्थक ग्रन्थकी रचना करते हो तब तो और मी अनादरणीय है, क्यों कि पिष्टपेषण होनेसे व्यर्थ है' इन आक्षेपों का समाधान आचार्य विथा नन्द ने अपने त स्वार्थ श्लोक वार्तिक में दिया है (पृ० २. पं० २२)।
शान्त्या चार्य ने भी 'अन्यार्थवत्ता' शब्द से उपर्युक्त दोनों आक्षेपों का उल्लेख किया जान पाडता है । क्यों कि इस शब्द का 'अन्य अर्थ से युक्तता' अर्थात् अपूर्वार्थकत्व और 'अन्यों के अर्थसे युक्तता' अर्थात् पूर्वार्थकता ऐसे दोनों अर्थ स्पष्टतया फलित होते हैं।
शान्त्या चार्य ने इन आक्षेपों का उत्तर दिया है कि दूसरों ने इसी बात को सामान्य रूप से कही है और मैंने उसे अन्यथा अर्थात् विशेष रूप से कहा है । अतएव मेरा कथन मात्र भपूर्वार्थक भी नहीं और मात्र पूर्वार्थक भी नहीं । सत्पुरुषों को चाहिए कि वे इस की परीक्षा करें। इस के साथ जयन्त के ये शब्द तुलनीय हैं - __"कुतो वा नूतनं वस्तु वयमुस्प्रेक्षितुं क्षमाः।
बचोविन्यासवैचिध्यमात्रमत्र विचार्यताम् ॥"-न्यायमं०पू०१।। "आदिसर्गात्प्रभृति वेदवदिमा विद्याः प्रवृत्ताः, संक्षेपविस्तरविवक्षया तु तांस्तांस्तत्र कर्तनाचक्षते"-पृ०५। इन्हीं का अनुकरण हे म चन्द्रा चार्य ने 'प्रमाण मीमांसा' के प्रारंभ में किया है-पृ० १ ।
पृ० ११. पं० ८ 'अन्यार्थ' तुलना-यद्यपूर्वार्थमिदं तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकं न तदा वक्तव्यम्, सतामनादेयत्वप्रसंगात्, स्वरुचिविरचितस्य प्रेक्षावतामनादरणीयत्वात् । पूर्वप्रसिद्धार्थे तु सुतरामतन्न घाच्यम् , पिष्टपेषणवद्वैयर्थ्यात्-इति वाणं प्रत्येतदुच्यते"। इत्यादि तत्त्वार्थश्लो० पृ० २ पं० २२, प्रमेयक० पृ० ६. पं० ५।
.. विशेषा० २८५८,२८५९। २. "वं सन्त श्रोतुमर्हन्ति सदसद्वयक्तिहेतवः" रघु० १.१० । 1. "सन्तः प्रणयिवाक्यानि गृहन्ति मानसूयवः श्लोकषा०३, न्यायमं०पृ०१।
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पृ० ११. पं० १०] टिप्पणानि ।
१२९ पृ० ११. पं० १०. 'अभिधेयप्रयोजनम् शान्त्या चार्य ने खकीय वार्तिककी प्रथम कारिकाको 'आदिवाक्य' मान करके कहा है कि इस वाक्यसे ग्रन्थकारने ग्रन्थके अभिधेयके प्रयोजनका अभिधान किया है । अत एव हम यहाँ आदिवाक्यके विषयमें कुछ चर्चा करें सो अनुपयुक्त न होगा।
आदिवाक्य के विषयमें निम्नलिखित मुद्दों पर विचार करना इष्ट है(१) आदिवाक्यका खरूप और स्थान । (२) आदिवाक्यकी चर्चाका प्रारंभ कब हुआ। (३) आदिवाक्यका प्रतिपाय । (१) आदिवाक्यका प्रयोजन । (५) आदिवाक्यके विषयमें अनेकान्त ।
(१) ग्रन्थकार जब लिखने बैठता है तब कुछ न कुछ प्रारम्भमें लिखेगा ही । उसके आदिवाक्य होने पर भी यहाँ उस एक वाक्य या अनेक वाक्योंके समुदायरूप महावाक्यको 'आदिवाक्य' कहना इष्ट है जिसमें ग्रन्थके अभिधेयादिका प्रतिपादन किया गया हो।
वैसा आदिवाक्य प्रन्थके प्रारम्भमें या मङ्गलके अनन्तर मी लिखनेकी प्रथा है । प्राचीन सूत्रग्रन्थोंमें विना मङ्गलके ही आदिवाक्य उपलब्ध होते हैं और बादमें मङ्गल करना जब आवश्यक माना जाने लगा तब मंगलके अनन्तर भी कुछ अन्यकारोंने आदिवाक्यका उपन्यास किया है। प्राचीन कालसे प्रन्योंके आदिवाक्य दो प्रकारके मिलते हैं(अ) सामान्यतः विषयप्रतिपादक । (ब) विशेषतः विषयप्रतिपादक ।
(अ) सामान्यतः विषयप्रतिपादक वाक्यमें प्रतिपाय विषयका विभागशून्य सामान्य कपन होता है । अर्थात् ऐसे वाक्योंमें प्रतिपाद्य विषयका सामान्यरूपसे नामकरण मात्र होता है । ऐसे वाक्य हम प्राचीन श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्रोंमें तथा दार्शनिक सूत्रग्रन्थोंमें पाते हैं । जैसे-"अय विध्यव्यपदेशे सर्वक्रत्वधिकारः" लाट्यायनश्रौ० । “अथातो गृहस्सालीपाकानां कर्म"- पारस्करगृ० । “अथातो धर्म व्याख्यास्यामः" -वैशे० इत्यादि ।
(ब) विशेषतः विषयप्रतिपादक वाक्योंमें संक्षिप्त किन्तु विभागपूर्वक विषयनिर्देश होता है। जैसे - "अयातो दर्शपूर्णमासौ व्याख्यास्यामः -आपस्तम्बत्रौतसूत्र; "प्रमाणप्रमेयसंशय” इत्यादि न्यायसूत्र; "लक्षणं चावृतिस्तत्त्वं" इत्यादि 'मध्यान्तविभाग' की प्रथम कारिका; "प्रमाणं खपराभासि" इत्यादि न्याया० का प्रथम श्लोक इत्यादि ।
(२) ऊपर हम देख चुके कि श्रौतसूत्रके कालमें मी आदि वाक्यकी रचना तो होती थी। किन्तु श्रौतसूत्रकी बात तो जाने दें दार्शनिक सूत्रग्रन्थोंमें मी आदिवाक्यकी चर्चा .. "
शाबेदारम्भणीयं कमवृत्तित्वाद्वाचः प्रथममवश्यं किमपि वाक्यं प्रपोकम्यम्..." इत्यादि न्यायमं० पृ०६। २. श्लोकपाका०२।प्रमाणसं.का०२।लपी० का.३न्यायमं० पृ० १. का०५। इत्यादि।
न्या०१७
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टिप्पणानि ।
[ पृ० ११. पं० १०
अर्थात् आदिवाक्यमें क्या कहना चाहिए और उसे क्यों कहना चाहिए यह चर्चा देखी नहीं जाती । इन मूल ग्रन्थोंकी जब टीकाएँ लिखी जाने लगीं तब ही इस चर्चा का सूत्रपात होता । व्याकरण महा भाष्य के प्रारम्भमें ही पतञ्जलि ने व्याकरणके प्रयोजनोंका प्रतिपादन किया है । इससे हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि पतञ्जलि के समयमें प्रन्यारम्भमें प्रयोजनका प्रतिपादन करनेकी प्रथाने' मूर्तरूप धारण किया था। इससे पहलेके ग्रन्थोंमें ऐसी चर्चा हमारे देखने में आई नहीं और बादके प्रायः सभी ग्रन्थोंके प्रारम्भमें आदिवाक्यकी विविधरूपसे चर्चा देखी जाती है । इससे यही कहना पडता है कि यह चर्चा पतञ्जलि जितनी प्राचीन अवश्य | 'व्याकरणका ही प्रयोजन बतानेकी क्यों आवश्यकता हुई' ऐसी शंकाका समाधान भी पतञ्जलि को करना पडा है - यह बात भी उक्त नतीजेकी पोषक ही है ।
(३) आदिवाक्यके प्रतिपाद्यके विषयमें जो मतभेद हैं उन समीका समावेश निनोक्त दो प्रकारोंमें हो जाता है
-
(अ) प्रयोजनादित्रयका प्रतिपादन ।
(ब) अनुबन्धचतुष्टयका प्रतिपादन ।
(अ) प्रयोजन, अभिधेय और सम्बन्ध ये तीन प्रयोजनादित्रय कहे जाते हैं । आदिवाक्यसे इन तीनोंका प्रतिपादन गौणमुख्यभावसे अनेक प्रकारसे आचार्योंने बताया है । उनमें से मुख्य प्रकार ये हैं -
१ शास्त्र के प्रयोजनका प्रतिपादन ।
२ अभिधेयके प्रयोजनका प्रतिपादन ।
३ अभिषेय और प्रयोजनका साक्षात् प्रतिपादन तथा सम्बन्धका अर्थात् ।
४ प्रयोजनादित्रयका प्रतिपादन ।
५ प्रयोजन और सम्बन्धका प्रतिपादन ।
६ शब्दतः शास्त्रके प्रयोजनका और अर्थतः अभिधेयका, अभिधेयके प्रयोजनका तथा सम्बन्धका प्रतिपादन ।
इन मतोंकी विशेषता और उनके माननेवालोंका वर्णन इस प्रकार है
१ - कुमारिल के मतसे आदिवाक्यमें शास्त्रके प्रयोजनका वर्णन होता हैं । सम्बन्ध आक्षेपलम्य है जो कि शास्त्र और प्रयोजनका साध्यसाधनभावरूप है । शिष्यप्रश्नानन्तर्यादि अन्य सम्बन्ध नहीं । यही मत शान्त र क्षित को ( वादन्याय पृ० १) और अष्ट शती
१. "कानि पुनः शब्दानुशासनस्य प्रयोजनानि” इत्यादि पृ० १६ । २. पु० ३७ । ३. (१) शिष्यप्रनानन्तर्यरूप संबंधकी कल्पना माठरने और गौडपाद ने सांख्य का रि का की अपनी अपनी बुद्धिमें की है। पूज्यपादने सर्वा मं सिद्धि में भी वैसी ही कल्पना की है। (२) गुरुपर्वक्रमसम्बन्ध की कल्पना नन्दी सूत्र के प्रारम्भमें है औौर किसी भी मांसकने भी की है- व्यायरता० लो० २४ । सांप का रिका के अन्तमें भी गुरुवर्यक्रम है। (३) क्रियानन्तर्यरूपसम्बन्ध भी कहीं कहीं देखा जाता है - शांकरभाष्य० सू० १ । तत्त्ववै० १.१ । न्यायरता० लो० २२ । शास्त्रवा० का० १ ।
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पृ० ११. पं० १० ]
टिप्पणानि ।
( का० १) में अकलंक को और तस्वार्थ श्लोका वार्तिक विद्यानन्द को मान्य है ।
२ - कुमारि लादि के अनुसार आदिवाक्यसे शाखके प्रयोजनका प्रतिपादन होता है । किन्तु धर्मोत्तर ने कहा कि आदिवाक्यमें शास्त्रका प्रयोजन नहीं किन्तु शासके अभिधेयका प्रयोजन कहना चाहिए; क्यों कि वही बात श्रोताको ग्रन्थमें प्रवृत्ति कराएगी । ग्रन्थके अमिघेयादि सामर्थ्यलम्य हैं। - न्यायबि० टी० पृ० १ - ३ ।
यही मत सन्मति तर्कटी का कार अभय देवे और प्रस्तुत ग्रन्थकार शान्त्या चार्य का 1 ३ - इस विषय में तीसरा मत न्या य मंजरी में ( पृ० ६) जयन्त भट्ट का है कि आदिवाक्य से प्रधानरूपसे प्रकरणके प्रयोजन और अभिधेयका कथन होता है । सम्बन्ध आक्षेपलम्य है । यही मत कमल शील ( तत्त्वसं० पृ० २ ) हरिभद्र ( न्यायप्र० वृ० पृ० ९ शी ला ङ्क ( सूत्रकृ० पृ० ४ ), सिद्धर्षि (न्याया० टि० पृ० ७-८ ) आदिको मान्य है ।
?
४ - उपर्युक्त प्रायः सभी मतोंमें सम्बन्धको आक्षेपलभ्य माना गया है । किन्तु आचार्य हरिभद्र शास्त्र वार्ता स मुच यो दि में प्रयोजनादित्रयका प्रतिपादन आदिवाक्यमें मानते हैं ।
१३१
( पृ० २. पं० ३३ ) में
वाचस्पति, अनन्तवीर्य, प्रभा चन्द्र और वादी दे व सूरि का भी यही मत है'।
५ - पदार्थ धर्म संग्रह के टीकाकार श्रीधर के मतसे आदिवाक्य प्रयोजन और सम्बन्ध का प्रतिपादन करता है । -कंदली पृ० ३ ।
६ - उपर्युक्त सभी मतोंसे विलक्षण मत हेतु बिन्दु टी का कार अर्च ट का है । उन्होंने शाब्दन्यायके अनुसार आदिवाक्यका प्रतिपाच प्रकरणका प्रयोजन माना और आर्थन्यायके अनुसार प्रतिपाच प्रकरणका अभिधेय, अभिधेयका प्रयोजन और सम्बन्ध माना है । - हेतुबिन्दुटी० पृ० १, ३ ।
इस प्रकार प्रयोजनादित्रयके विषयमें जो नाना प्रकारके मत हैं उन्हींमेंसे कुछका दिग्दर्शन ऊपर कराया है।
(ब) अधिकारी, प्रयोजन, अभिधेय और सम्बम्ध ये अनुबन्ध चतुष्टय हैं 1
आचार्य शंकर ने शास्त्रके प्रारम्भमें अनुबन्ध चतुष्टयकी व्यवस्था की है। उन्हींका अनुकरण करके प्रायः सभी वेदान्त ग्रन्थोंमें यही प्रथा देखी जाती है ।
इस अनुबन्ध चतुष्टयमें प्रयोजनादित्रयके अतिरिक्त अधिकारीका वर्णन भी होता है । प्राचीन ग्रन्थोंमें अधिकारीका वर्णन करनेकी प्रथा रही उसीको शंकराचार्य ने अनुबन्धचतुष्टयमें स्थान दिया ऐसा मानना चाहिए ।
इस प्रकार भिन्न भिन्न आचार्योंके मतसे आदि वाक्यका प्रतिपाद्य क्या होना चाहिए इसका संक्षिप्त वर्णन हुआ। अब हम उसके प्रयोजनके विषय में नाना प्रकारके मतों को देखें ।
१. सम्मतिटीका पृ० १६९ । २. शास्त्रवा० का० १ । अनेकान्त० टी० पृ० ७ । योग ० डी० का० १ । तस्थार्थटी० पृ० ११ । ३. तात्पर्य० पृ० ३ । सिद्धिवि० टी० पृ० ४ । प्रमेयक० पृ० ३ | न्यायकु० पृ० २१ । स्याद्वादर० पृ० ७. पं० २१ । ४. नन्दी सूत्रके प्रारम्भका परिषदका वर्णन, न्यायवा० पृ० २ इत्यादि ।
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टिप्पणानि । [पृ० ११. पं० १० (४) आदिवाक्यके प्रयोजनके विषयमें भी नाना प्रकारके मतभेद देखे जाते हैं। उनमें से मुख्य ये हैं
(अ) शास्त्रार्थसंग्रह (आ) श्रोताकी प्रवृत्ति (इ) अर्थसंशयोत्पादन (ई) असिद्धतोद्भावन (उ) श्रद्धाकुतूहलोत्पादन
(अ) प्राचीन भाष्य ग्रन्थों में प्रायः आदिवाक्यका प्रयोजन शास्त्रार्थसंग्रह ही बताया गया है। उस एक ही शास्त्रार्थसंग्रहके तीन रूप नजर आते हैं । वे इस प्रकार हैं
१-न्या य भाष्य का र वात्स्या य न ने शास्त्रकी प्रवृत्ति तीन प्रकारसे मानी है-उद्देश, लक्षण और परीक्षा । उनका कहना है कि आदिसूत्रमें शास्त्रके विषयका उद्देश हुआ है । अर्थात् जिन विषयोंका इस शास्त्रमें लक्षण और परीक्षण किया गया है उन विषयोंका नाममात्रसे कपन ही' इस सूत्रसे होता है । सारांश कि आदिवाक्यका प्रयोजन उद्देश है । यह मत न्या यभाष्य कार का है । और यह उद्देश शास्त्रार्थसंग्रह ही है।
तत्त्वार्थ सूत्र कार उ मा खा ति भी खोपज्ञ भाष्यमें इसी मतका अवलम्बन लेते हैं- "शास्त्रानुपूर्वीविन्यासार्थ तूद्देशमात्रमिदमुच्यते"।
२-उपर्युक्त प्रकार वहीं संभव है जहाँ आदिसूत्रमें विभागपूर्वक विषयका कथन हों किन्तु "अथातो धर्म व्याख्यास्यामः" जैसे सूत्रोंमें जहाँ विषयका सामान्य निर्देश है; या "अथ प्रमाणपरीक्षा" जैसे सूत्रोंमें जहाँ सामान्यनिर्देश इस ढंगसे हुआ है कि प्रन्यके नामका भी निर्देश हो जाय; वहाँ इन सूत्रोंको सकलशास्त्रार्थसंग्राहक होने पर भी उद्देशपरक समझना ठीक न होगा । इसे श बरखा मी के मतानुसार सकलशास्त्रार्थकी प्रतिज्ञों, जिसका समर्थन संपूर्ण शास्त्रसे होता है, कहना चाहिए ।
यही प्रकार योग भाष्य के कर्ता व्यास ने अपनाया है ऐसा वा च स्पति का कहना है । -तत्त्ववै० १.१।
३-उपर्युक्त उद्देश और प्रतिज्ञाके अलावा शास्त्रार्थसंग्रहका एक तीसरा प्रकार भी है जो शास्त्रशरीर के नामसे प्रसिद्ध है । शास्त्रका शरीर दो प्रकारका है शब्दरूप और अर्थरूप( न्याया० टी० पृ०८)। आदिवाक्यमें इन दोनों प्रकारके शरीरकी व्यवस्था करना चाहिए ऐसा भी प्राचीनकालमें कुछ लोगोंका मत अवश्य रहा होगा। फलखरूप हम न्या य वा ति क के प्रारम्भमें शास्त्रशरीरकी व्यवस्था देखते हैं।
१. "सोऽयमनवयवेन तत्रार्थ उद्दिष्टो बेदितव्यः" न्यायभा० १.१.१ । २. "नामधेयेन पदार्थमात्रस्थाभिधानमुद्देशः" न्यायभा०१.१.३। ३. “स चायं शास्त्रार्थसंग्रहोऽनूयते नापूर्वो विधीयते"न्यायभा०४.२.१ । इससे पता चलता है कि वे उद्देशपरक आदि सूत्रको शास्त्रार्थसंग्राहक भी मानते थे। ४. "इत्येतासां प्रतिज्ञानां पिण्डस्यैतत् सूत्रम्" पृ० १२। ५. वादन्यायटीका० पृ० २. पं० २२। स्याद्वादर० पृ० १९। ६. "शास्त्रं पुनः" इत्यादि पृ०२।
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पृ० ११. पं० १०]
टिप्पणानि ।
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मध्यान्त विभाग की प्रथम कारिकाको वसुबन्धु ने शास्त्रशरीरकी व्यवस्थापिका कहा है किन्तु वह उद्देशके लिए ही है ऐसा समझना चाहिए ।
(आ) शान्त्या चार्य ने आदिवाक्यका प्रयोजन श्रोताकी प्रवृत्ति कराना ही माना है । यह मत बहुत पुराना है । वैसे तो यह मत कुमारिल का समझा जाता है किन्तु उसके पहले भी व्याकरण शास्त्रके प्रयोजन बताते हुए पत अ लिने कहा है कि अध्येता की प्रवृत्तिके लिए शास्त्रारंभ में प्रयोजन बताना आवश्यक है । उसी बातका अनुवाद कुमारिल ने दार्शनिक क्षेत्रमें मी - सर्व प्रथम किया जान पडती है । कुमारिल के बादके बौद्धेतर दार्शनिक प्रन्थोंमें प्रायः कुमारिल का ही मत उन्हीं के शब्दोंमें स्वीकृत हुआ है ।
(इ) आदिवाक्यको यदि प्रमाण माना जाय तब वह अर्थप्रतिपादक होकर प्रवृत्त्यंग हो सकता है। किन्तु बौद्ध दार्शनिक शब्दको बाह्यार्थ में प्रमाण नहीं मानते अत एव उन्होंने कहा कि शब्दरूप आदिवाक्यसे प्रयोजनका प्रतिपादन हो नहीं सकता । किन्तु 'यह शास्त्र निष्फल है, अशक्यानुष्ठेय है' इत्यादि अनर्थसंशयको निवृत्त करके अर्थका संशय उत्पन्न करना यही – आदिवाक्यका प्रयोजन है । तदर्थी की अर्थसंशयसे ही शास्त्रमें प्रवृत्ति हो जायगी । इसी मतका समर्थन धर्मोत्तर, शान्त रक्षित, कमलशील आदि बौद्ध विद्वानोंने किया है।
(ई) हेतु बिन्दु के टीकाकार अर्चट ने पूर्वोक्त मतों का खण्डन करके एक नया मत स्थापित किया है । 'जो सप्रयोजन हो वही आरम्भयोग्य है । यह शास्त्र तो निष्प्रयोजन है। अत एव आरम्भयोग्य नहीं' इस प्रकार व्यापकानुपलब्धिके बलसे जो शास्त्रको अनारम्भणीय कहता हो उसको व्यापकानुपलब्धि की असिद्धताका अर्थात् व्यापककी उपलब्धि का भान कराना यही आदिवाक्यका प्रयोजन है। ऐसा अर्च टका मन्तव्य है ।
इस मतका कमलशील ने खण्डन करके धर्मोत्तर के पक्षका ही समर्थन किया है । बौद्धों को शब्दका प्रामाण्य इष्ट न होने से इस मतकी अपेक्षा पूर्वोक मत ही उनको अधिक संगत जैंचे यह स्वाभाविक है । यही कारण है कि यह मत अर्चट के अलावा 1 और किसी बौद्ध दार्शनिकको मान्य हुआ नहीं जान पड़ता न्यायप्रवेश की टीकामें हरिभद्र ने, जो कि जैन हैं, अर्च ट के मत को मी मान्य रखा है ।
( उ ) आदिवाक्यसे श्रोताके दिलमें श्रद्धा या कुतूहल उत्पन्न करना इष्ट है - यह मत किसी जैन का ही है ऐसा अनन्त वीर्य के 'स्वयूथ्य' शब्दसे प्रतीत होता है । उन्होंने उसी मतको ठीक समझा है । त्रिद्यानन्द इस मतको ठीक नही समझतें । उनको प्रथम मत श्रोताकी प्रवृत्ति ही इष्ट है ।
१. सुहृद्भूत्वा भाचार्य इदं शास्त्रमन्वाचष्टे - इमानि प्रयोजनानि अध्येयं व्याकरणम्" पात० पृ० ३८ । २. “सर्वस्यैव हि शास्त्रस्य" इत्यादि - श्लोक० १२ । ३. कंदली - पृ० ३ | तत्त्वार्थलो० पृ० २ । सम्मतिटी ० पृ० १६९ । प्रमेयक० पृ० ३ । ४. इस मतका प्रसिद्ध समर्थक धर्मों सर होनेसें दूसरे आचार्य इस मतका उल्लेख धर्मोत्तर के नामसे करते हैं किन्तु उस मतका खण्डन अर्थट में है और अधर्मोत्तर से पूर्ववर्ती है अतएव वह मत धर्मोत्तर से पहले किसी आचार्य का होना हिये । ५. " तद्वाक्यादभिधेयादौ श्रद्धाकुतूहलोत्पादः ततः प्रवृत्तिरिति केचित् स्वयूथ्याः " सिद्धिवि० टी० पृ० ४ । ६. तत्त्वार्थलो० पृ० ४ ।
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टिप्पणानि ।
[० ११. पं० १० (५) आचार्य विद्यानन्द ने आदि वाक्यके विषयमें दो प्रकारचे अनेकान्तका स्थापन किया है । एक तो उन्होंने यह कहा कि आदिवाक्यका प्रयोग अवश्य करणीय है सो मात नहीं। आदिवाक्य गम्यमान भी हो सकता है और प्रयुक्त भी हो सकता है। दूसरा उन्होंने यह भी कहा कि आदिवाक्य अनुमान प्रमाण भी है और आगम प्रमाण भी है । यही बात वादी देवसूरिने भी कही है। तत्त्वार्थश्लो० पृ. ३-४-स्माद्वादर० पृ० ११-१३ । __ पृ० ११. पं० १०. 'अभिधेयप्रयोजन' तुलना- "सम्यग्णागपूर्विकल्यादिनाउन प्रकरणस्यामिषेयप्रयोजनमुख्यते-न्यायबि० टी० पृ० २ । सन्मतिटी० पृ० १६९ ।
पृ० ११. पं० १०. । 'तदभिधानात्' -तुलना - "असिम्बार्थ उज्यमाने सम्बन्धप्रयो. जनामिषेयान्युक्तानि भवन्ति" न्यायबि० टी० पृ० ३।
पृ० ११. पं० १० 'तच श्रो' तुलना - श्लोकवा० श्लो० १२ । हेतुबि० टी० पृ० १ । १। सिद्धिवि० टी० पृ० ४ । सन्मतिटी० पृ० १३९ । तत्त्वार्थ श्लो० पृ० २।
पृ० ११. पं० १४ 'कश्चित्' यह मत कुमारि ला दि का है।
पृ० ११. पं० १७ 'अन्ये यह मत किसी बौद्ध का है किन्तु धर्मो चरने इसका समर्थन किया है अतएव धर्मोत्तर का माना जाता है-न्यायबि० टी० पृ० ४ । तत्त्वसं० पू० पृ० २ । न्याया० टी० पृ० २ । न्यायप्र० पं० पृ० ३८।
पृ० १२. पं० ४. 'निष्फल' तुलना-न्यायबि० टी० पृ. ४। तत्वसं० ६० पृ.२ । न्यायकु० पृ० २०।
पृ० १२. पं० ७. 'अर्थसंशयात्' तुलना "उज्यते व्यवहारो हि संदेहादपि लौकिका"प्रकरणपं० पृ०१४।
पृ० १२. पं० ९ 'अन्ये यह मत अर्चट का है- हेतुबिन्दुटी० पृ० २।
पृ० १२. पं० १७. 'यतो' तुलना तत्त्वार्थश्लो० पृ० ४ । सन्मतिटी० पृ० १७१। स्याद्वादर० पृ० १७।
पृ० १२. पं० १३. 'निःप्रयोजन यह अशुद्ध है। प्राचीन हस्तलिखित प्रतियोंमे विसर्ग लिखनेकी प्रथा है किन्तु 'निष्प्रयोजन' ऐसा शुद्ध पाठ समझना चाहिए ।
पृ० १२. पं० २२. 'तस्मात् यहीसे शान्या चार्य अपना मत स्थापित करते हैं। उनका कहना है कि जैसे प्रत्यक्षादि और प्रमाण हैं वैसे ही वचन भी प्रमाण है । अतएव प्रमाणभूत आदिवाक्यसे प्रेक्षावान् फला की प्रवृत्ति हो जायगी । विद्यानन्द ने आदिवाक्यको आगम और परार्यानुमानरूप माना है- तत्त्वार्थ श्लो० पृ०३ । उन्हींका अनुसरण वादी देव सूरि भी करते हैं -स्याद्वादर० पृ० १२ । किन्तु सन्म ति टी का कार अभय देव ने स्पष्ट कहा है कि यह आदिवाक्य प्रत्यक्ष या अनुमानरूप नहीं है । किन्तु वह शब्द प्रमाणरूप अवश्य . है ( पृ० १७२)। शान्त्या चार्य ने इन्हीं का अनुकरण किया है । कम ल शील ने भी आदिवाक्यको आगम ही कहा है। उनके मतसे आगमप्रामाण्यका निश्चय प्रवृत्तिके लिए आवश्यक नहीं है । क्यों कि हमलोग आगमप्रणेताके गुणदोषकी परीक्षा करनेमें असमर्थ हैं और अत्यन्त
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पृ० १३. पं० १०] टिप्पणानि । परोक्षायें आगमको छोड कर दूसरा प्रवर्तक साधन हमारे लिए है भी नहीं । - तत्त्वसं० पं० पृ० ४. पं० ४।
पृ० १३. पं० १. 'पश्चात् देखो-का० ५४,५५।
पृ० १३. पं० ३. 'हितोऽपि' अर्थ स्वयं निश्चय दृष्टिसे न हितकारी है और न अहितकारीऐसा वाचक उमा खा ति ने प्रशमरति प्रकरण में प्रतिपादित किया है । क्योंकि एक ही अर्थ पुरुषमेदसे, देशभेदसे कालभेदसे इष्ट भी हो सकता है अनिष्ट भी हो सकता है । अतएव व्यावहारिक दृष्टि से हम उसे तत्तत् अपेक्षासे हित भी कह सकते हैं और अहित भी कह सकते हैं।
इसी बातका समर्थन तात्पर्य टीका (पृ० २९) में वा च स्पति ने भी किया है । और भी देखो-स्याद्वादर० पृ० ४३-४४।।
इसी बातको दूसरे ढंगसे भर्तृहरि ने कहा है
"योऽसौ येनोपकारेण प्रयोक्तृणां विवक्षितः। अर्थस्य सर्वशक्तिस्वात् स तथैव व्यवस्थितः॥४३७॥ सर्वात्मकत्वादर्थस्य नैरात्म्यावा व्यवस्थितम् ॥४४१॥-वाक्यप० का०२।
पृ० १३. पं० ४. 'उपेक्षणीयोऽपि' उपेक्षणीय अर्थको शान्त्या चार्थ ने प्रमाणका अविषय कहा; किन्तु हान, उपादान और उपेक्षा ऐसे प्रमाण के तीन फलोंको गिनानेवाली न्या या वतार की कारिका (२८) ध्यानमें आते ही उन्होंने 'अथवा' कहके उस अर्थको हेयके अन्तर्गत कह कर उसकी प्रमाणविषयता सूचित की है । ऐसा करनेकी अपेक्षा यदि थे स्याद्वादरत्नाकर कार की तरह उपलक्षणसे उपेक्षणीयार्थका ग्रहण करते (पृ. १४) तो और भी अच्छा होता।
उपेक्षणीयार्थको खतन्त्र मानने न माननेके बारेमें पक्षमेदोंका वर्णन 'प्रमाण मी मा सा भाषा टिप्पण' (पृ०९) में हो चुका है अतः यहां दुहराने की आवश्यकता नहीं ।
पृ० १३. पं० ५. 'प्राप्तित्यागौं' प्रमाणके फलकी चर्चा करते हुए बौद्धोंका अनुसरण करके शान्त्या चार्य ने कहा है (पृ० ९४) कि प्रमाणसे अर्थपरिच्छित्ति होती है । ज्ञानगत अर्थपरिच्छेदकत्व ही प्रवर्तकत्व और प्रापकत्व है ।
इस का तात्पर्य यह है कि पुरुषको जब अर्थाधिगति होती है तभी वह प्रवृत्त होता है और तहारा अर्थका प्राप्ति -परिहार करता है ।
अतएव प्रमाणको प्राप्ति - परिहारका परंपरासे कारण समझना चाहिए । देखो-न्यायबि० टी० पृ० ५।
पृ० १३. पं०. ६: 'प्रकर्षण' - तुलना- "विप्रतिपत्तिनिराकरणार्थ शास्त्र । संख्याखरूप-गोचर-फलविषया चतुर्विधा चात्र विप्रतिपत्तिः" - प्रमाणसमु० टी० १. २ । न्यायबि० टी० पृ० ९ । न्याया० टी० पृ० ८। तत्त्वसं पं० पृ० ३६६ ।
पृ० १३. पं० ८ 'नन्वतीत' तुलना- प्रमेयक० पृ० २६. पं० १४ । पृ० १३. पं० १० 'प्रतिपादयि' देखो का० ३५ ६ २५-२९ ।
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टिप्पणानि ।
[पृ. १३. पं० १३ पृ० १३. पं० १३. 'प्रमाणभूतम्' तुलना-"तज्ञान प्रमाण भगवान्" प्रमाणवा० १॥ "एवंभूतं भगवन्तं प्रणम्य प्रमाणसिद्धिर्विधीयते । प्रमाणाधीनो हि प्रमेयाधिगमः । भगवानेव च प्रमाणम्, प्रमाणलक्षणसङ्गाबाद" -प्रमाणवा० अ० पृ० १ और पृ० ३७ ।
"मा अन्तरजवहिरजानम्तमानमातिहार्यादिश्रीर, अण्यते शब्दयते येनार्थोऽसावाणः शब्द:,माच आणखमाणी, प्रकृयो महेश्वराचसम्भाविनी माणी यस्यासी प्रमाणो भगवान सर्वसोरटेष्टाविरुवाकच, तसादुकप्रकारात मसंसिद्धिर्भवति" प्रमेयक० पृ० ७. पं० १२ ।
पृ० १३. पं० १४. 'सिद्धसेन' तुलना-"माचार्यों दुषमारसमाश्यामासमयोभूतसमस्तजनताहादसंतमसविध्वंसकत्वेन अवाप्तयथार्थाभिधानः सिद्धसेनदिवाकरः" सन्मति० टी० पृ० १. पं० १६ ।
पृ० १३. पं० २०. 'शास्त्रार्थसंग्रह' तुलना- "प्रमाणे इति संग्रह"-लघी० ३ । प्रमाणसं० २। “इति शालार्थस्य संग्रहः" प्रमाणसं० पृ. २१ "अक्षुण्णसफलशालार्थसंग्रहसमर्थमादिश्लोकमाह" -न्यायकु० पृ० २० । प्रमेयक० पृ० २।।
न्या या व तार की प्रथम कारिकामें संपूर्ण शास्त्रके विषयका संग्रह होनेसे उसीको उद्धृत करके वार्तिककारने उसे 'शास्त्रार्थसंग्रह' कहा है । प्रमाण लक्ष्म में भी ऐसा ही उसके कर्ताने किया है।
पृ० १३. पं० ३०. 'तत्र विधिवाक्ये शान्त्या चार्य ने धर्मोत्तर (न्यायबि० टी० पृ० ११-१२) के समान लक्षणका विधान और लक्ष्यका अनुवाद माना है । किन्तु सिद्धर्षि का कहना है कि अधिकारी मेदसे लक्षणका अनुवाद करके लक्ष्यका भी विधान हो सकता है । किसीको प्रमाणत्व अप्रसिद्ध हो सकता है और किसी को खपरव्यवसायित्व । यही बात बादी देवसूरि ने भी कही है।-न्याया० टी० पृ० १० । स्याद्वादर० पृ० २० ।।
प्रमाण लक्ष्म में प्रस्तुत न्या या वतार की कारिकाके दो व्याख्यामेदोंका उल्लेख किया गया है। एक मत यह रहा कि कारिकागत 'प्रमाण' पद अनुवाद है । और दूसरा यह कि वह पद विधेय है । प्रमाण लक्ष्म कार ने द्वितीयको ही ठीक समझा है । और शान्त्या चार्य ने प्रथम पक्षको ।-प्रमालक्ष्म पृ० ४।
पृ० १४. पं० २. 'तादात्म्यात' लक्षण दो प्रकारका होता है-आत्मभूत और अनात्मभूत । प्रमाण और उसका लक्षण अत्यन्त भिन्न नहीं हैं । उन दोनोंका तादात्म्य है । अतएव यह लक्षण आत्मभूत है। इन दोनों का तादात्म्य होते हुए भी बौद्धों के मतसे एक प्रसिद्ध और दूसरा अप्रसिद्ध हो सकता है । क्यों कि जितना भी शाब्दिक व्यवहार है वह सांवृतिक है । अर्थात् विकल्पजन्य है और विकल्प बाह्य वस्तुकी अपेक्षा नहीं करता । अतएव बाह्य वस्तुकी दृष्टिसे दोनोंका तादात्म्य होते हुए भी किसीको वह प्रमाणरूपसे प्रसिद्ध हो सकता है और उसके लक्षणरूपसे अप्रसिद्ध होसकता है । - स्याद्वादर० पृ० ३०-३१ ।
न्या य बिन्दु टी का कारने जिस शंकाका समाधान ( न्यायबि० टी० पृ० १२) प्रत्यक्ष लक्षणके व्याख्याके समय किया है उसी शंकाका समाधान शान्त्या चार्य ने यहां प्रायः उन्हींके शब्दोंको लेकर किया है, किन्तु जैन दृष्टिसे इस प्रश्नका समाधान जो हो सकता है
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१. १४.०९]
हिणणालि। उसे तो बादी देवसूरि ने स्वादादरमा करमें किया है (पृ. ३०-३१) । उनका कहना
कि लक्ष्य और क्षणका सादाम्य है सही किन्तु बौद्धोंकी तख यह ऐकान्तिक नहीं कश्चित् तादाम्य है । अत एव वह किसी रूपसे प्रसिद्ध और किसी अपसे भमसिड हो सकता है।
वादी देवसूरि का यह विवेचन विधामद की परिनिष्ठित शुद्धिका फल हैतत्वार्थश्ली० पृ० ३१८।
पृ० १४. पं० २. तादात्म्यात्-तुलना-"म तम्मन्तव्यम्-कल्पनापोडाभातस्पं बेवमसि किमन्यत् प्रत्यक्षात मानल्य रुपमवधियते पत् मलसरायवाच्यं सदनुतेति। पलादिन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधायथेषु साक्षात्कारियानं प्रवाशदवाच्यं सर्वे लिखम्, तदनुवादेन कल्पनापोडामातत्वविधिः।" न्यायबि० टी० पृ० १२ । स्थानावर पृ० ३०-३१।
पृ० ११. पं० ५. 'सनिकादि' न्यायाब तारकी प्रमम कारिकामें शानको प्रमाण कहा है। उस ज्ञानपदका व्यावर्त्य क्या है इसकी चर्चा प्रस्तुत कारिकाके पूर्वार्धमें की गई है।
तिमें सन्निकर्ष और सामग्रीके एकदेशरूप चक्षुरादि, अज्ञानरूप होनेके कारण, प्रमाण नहीं है, ऐसा प्रतिपादन किया गया है।
सिद्धर्षि ने ज्ञानपदका व्यावर्य नै या पि का दि सम्मत सन्निकर्ष है ऐसा कहा हैन्याया० टी० पृ० १३।
प्रमालक्ष्म कारके मतसे चक्षुरादिका व्यवच्छेद प्रमाणपदसे ही होता है-१०१। और ज्ञानपदसे निराकार बोधरूप दर्शनकी व्यावृत्ति होती है-पृ० २।
पृ० ११. पं० ९. 'संयोग नैयायिक और शेषिकके मतसे न्याश्रित संयोग गुण मामक पदार्थ है । वह एक होकर मी अनेक च्याश्रित है । गुण और गुणीका सम्बन्ध समवाय नामक पदार्थ के कारण होता है। अत एव द्रव्य, गुण और समवाय ये तीनो खतम वस्तुभूत पदार्थ हैं।
बौद्ध के मतसे संयोग वस्तुभूत खता पदार्थ नहीं । नै या पिक-वैशेषिक संयोग को संयुक्तप्रमयका नियामक मामते हैं। बौद्धों ने कहा कि उस प्रमयके नियामकरूपसे संयोग पदार्थकी कल्पना करना आवश्यक नहीं । विजातीयव्यापिके मेदसे एक ही वस्तु नाना प्रकारकी कल्पनाका विषय बन सकती है। अत एव एक ही वस्तुको अनीलम्मावृल्या हल नीळकल्पनागोचर और असंयुकन्यारत्या संयुक्तकल्पनागोचर कर सकते।
जैसे 'यह एक पंकि है। यह वीर्ष पंकि लादि प्रत्यय होनेपर मी नैयायिकोंने पंकिगत एकत्व या दीर्घत्व नहीं मामा क्योंकि पकि संयोग होनेके कारण गुण और गुणमें गुण रहता नहीं । वैसे ही हम बौद्ध भी नीलादि बाम वस्तुके अतिरिक तगत संयोगनामक गुण की कल्पना आवश्यक नहीं समझते । विजातीयव्याचिकेबलसे तन्द प्रलय उपपल हो जाता है। अत एव संयोगि ऐसे रूपादि मानना चाहिए तातिरिक्त सेयोगकी आवश्यकता १.प्रमाणवा० १.१३। १.ममाता-mdI..प्रमाणवाw..
न्या.१८
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टिप्पणानि।
[१० १४. पं० ९नहीं । संयुक्तप्रतीतिका विषय संयोगिमात्र है अन्य नहीं । प्रत्यासम उत्पन ऐसी वस्तुएं ही संयोगि कही जाती हैं । और वेही संयुक्तप्रत्यय की आलम्बन हैं । उनके अतिरिक्त संयोगनामक कोई और पदार्थ नहीं है
"प्रत्यासषतयोत्पञ्चास्तत्र संयोगिनः परम् । संयुक्तप्रत्ययालम्म्या न संयोगस्ततः परम् ॥
पुरास्थिताः यथा तेऽर्थाः किं संयोगस्तथा स्थितः ॥" प्रमाणवा० म०पू० ११६ । विप्रकृष्ट अवस्थामें जो वस्तुएं दिखती हैं वेही सन्निकृष्ट अवस्थामें भी दिखती हैं । उनका संयोग तो दिखता नहीं । किन्तु उनकी वैसी अवस्थाका बोध संयोग शम्दसे होता है । अत एव यह विकल्प ज्ञानका विषय होनेके कारण वस्तुभूत नहीं । पदार्थका मेद, शब्दज्ञानकी विलक्षणतासे नहीं किन्तु प्रत्यक्षज्ञानके भेदसे होता है । अर्थात् जहां प्रत्यक्षप्रतीति विलक्षण है वहीं वस्तुमेद है । शब्दजन्य प्रतीतिके मेदसे वस्तुमेद आवश्यक नहीं' । अनादिवासनाके कारण नाना प्रकारकी विकल्पात्मिका बुद्धि उत्पन्न होती रहती है । अत एव विकल्पबुद्धिके आधार पर बाह्य वस्तुकी व्यवस्था करना बुद्धिमानी नहीं है । बाह्य वस्तुकी प्रतिष्ठा तो प्रत्यक्षप्रतीतिके ऊपर निर्भर है।
अत एव जैसे पंक्तिमें दीर्घत्वका या संख्याका प्रत्यय होनेपर मी उसमें वास्तविक दीर्घत्व या संख्या नै या यि क न मानकर औपचारिक मानते हैं। वैसे ही सर्वत्र विकल्पमेदसे वस्तुभेद न मानकरके औपचारिक ही मानना संगत है । अत एव संयोगप्रत्यय होनेपर भी पृथग्भूत संयोगका अस्तित्व मानना ठीक नहीं।
बौद्धों ने जैसे संयोगके पृथग्भाव का निराकरण किया है वैसे ही द्रव्यसे पृथग्भूत समस्तगुणोंका निराकरण भी उनको इष्ट है । अत एव उनके मतसे गुण-गुणीका भेद नहीं है । धर्म-धर्मीका भेद नहीं है । एक ही शब्द जिसप्रकार किसी एक धर्मका वाचक है वैसे ही धर्मीका भी वाचक है और धर्मधर्मीके समुदायका मी वाचक है । अत एव शब्दके बल पर वस्तुव्यवस्था करना ठीक नहीं।
संयोगके विषयमें अद्वैत वा दी वेदान्ति ओं का मत बौद्धों के समान है । फर्क इतना ही है कि उन्होंने संयोगनामक गुण को द्रव्यात्मक माना और बौद्धों ने द्रव्य जैसी कोई स्थिर वस्तु तो मानी नहीं अत एव उसे रूपादि क्षणिक वस्त्वात्मक माना । बौद्धों की तरह वेदान्ति ओंने भी संयोग या समवाय जैसे किसी सम्बन्धका सम्बन्धिओंसे पृथगस्तिस्व माना ही नहीं
१. "संबोगिन एवं पादया केवळाः न वा पर संयोगः उपकम्धिगोचर संपुछ इति संबोगिन एवं प्रवीतिः संयुक्तशब्दस्यमापरमन्त्रालम्बनम्" प्रमाणवा० अ० १० ११६। २." शवशामखमण्यमात्रादेव पदार्थ मेदोऽपि तु प्रत्यक्षलक्षणज्ञानमेवार ।" वही पू० ११६ । 1."विकश्पिका हिडिरनादिवासनासामथ्यात् उपजायमाना तथा तथा पूबते । ततो मार्थवरवं प्रतिहाँ समवे"-वही ११६। १. प्रमाणवा०१.९५। तत्त्वसं०का०६५०। ५. कर्ण० पृ०२१७ ॥ ..प्रमाणबा०१.९९-१०२।... "वसाव्यात्मकदा गुणन"-शां० प्रा० २.२.१७।
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पृ० १५. पं० १]
टिप्पणानि ।
१३९
"नापि संयोगस्य समवायस्य वा सम्बन्धस्य सम्बन्धिव्यतिरेकेणास्तित्वे किञ्चित् प्रमाणमस्ति ।" शां० ब्रह्म० २.२.१७ ।
बौद्ध मतका आश्रय लेकरके शान्ख्या चार्य ने नैयायिक संमत संयोग का विस्तारसे खण्डन किया है। और अंतमें कह दिया कि संयोग जैसी कोई पृथग्भूत वस्तु नहीं है । किन्तु द्रव्यकी एक अवस्थाविशेष ही, द्रव्यका एक पर्यायमात्र ही संयोग है - पृ० १५. पं० ६,७ ।
जैन के मत से द्रव्य और पर्याय का मेदामेद है । जिस प्रकार द्रव्य वास्तविक है वैसे उसके पर्याय भी वास्तविक हैं । अत एव वे बौद्धों की तरह संयोग को सिर्फ वासनामूलक कह करके उस का निराकरण नहीं कर सकते । जहां तक संयोगके एकान्तरूपसे पृथगस्तित्वका सवाल है वहां तक तो नैयायिकों का निराकरण करने के लिए जैन और बौद्ध समाम रूपसे कटिबद्ध हैं किन्तु उस की व्यवस्थाके प्रश्न पर दोनोंमें मौलिक मतभेद है । बौद्ध उसे वासनामूलक कह देता है। जैन वासनामूलक कह करके भी उस वासनाका भी कुछ न कुछ मूल खोजता है । और उसे वस्तुकी पर्याय मान करके वस्तुभूत ही सिद्ध करता है और बौद्ध वासनामूलक कह करके अवस्तुभूत कहता है यही दोनों में मेद हैस्याद्वादर० पृ० ९३२ से ।
व्यावृत्तिभेदका मूल मी जैन दृष्टि से कोरी कल्पना नहीं किन्तु वस्तुका तथाभूत पर्याय है । अत एव व्यावृत्तिके भेदसे मी वस्तुमेदकी व्यवस्था हो सकती है।
पार्थसारथी मिश्रने एक संयोग को नैयायिक की तरह अनेकाश्रित नहीं माना । उन्होंने कहा है कि जैसे सादृश्य प्रतिव्यक्ति भिन्न है वैसे ही संयोग मी प्रतिव्यक्ति -भिन्न है। अर्थात् मी मां स क के मतसे दोनों संयोगिव्यक्तिओं में पृथक् पृथक् संयोग रहता है । किसी एक वस्तुमें संयोगकी वृति और प्रतीति अन्य सापेक्ष है ।
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संयोगका प्रस्तुत वर्णन जैनों से मिलता है। जैनों ने भी प्रत्येक संयुक्त वस्तुमें भिन्न भिन्न पर्यायरूप संयोग माना है। वस्तुके उस पर्यायकी अन्यसापेक्षता भी जैन सम्मत है ।
पृ० १४. पं० ९. 'न सभिहित' तुलना - "न जलु संयोगोऽपरः प्रतिभासते संयोगिव्यतिरिक्तः " - प्रमाणवा० अ० पृ० ११६ । तत्त्वसं० का० ६६६ । कर्ण० पृ० २१७ । “न च निरन्तरोत्पलवस्तुद्वयप्रतिभासकालेऽभ्यक्ष प्रतिपतौ तद्व्यतिरेकेणापरः संयोगः”सन्मति टी० पृ० ११४. पं० १ । न्यायकु० पृ० २७७ । प्रमेयक० पृ० ५९४ ।
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पृ० १४. पं० २४. 'क्षितिबीज' संयोगसाधक प्रस्तुत अनुमान उ पो त क रने दिया हैन्यायवा० पृ० २१९. पं० १४ । उसीका अनुवाद करके खण्डम तत्त्वसंग्रहमें (का० ६५४-६५६, ६६४) शान्तरक्षितने और प्रमाणवार्तिक की खोपटीकाकी व्याख्यामें कर्णकं गोमी ने किया है - पृ० २१७ । सम्मलिटी का कार ( सम्मति० टी० पृ० ११४. पं० ६ पृ० ६७९. पं० ५) अभय देव, और प्रभा चन्द्रा चार्य (प्रमेयक० पृ० ६१३. पं० २४ ) उन्हीका अनुसरण करते हैं ।
पृ० १५. पं० १. 'अनवस्था' - तुलना "अथ संयोगशक्तिव्यतिरेकेण न कार्योत्पादने कारणकलापः प्रवर्तते इति निर्बन्धस्तर्हि संयोगशफ्स्युत्पादनेऽप्यपरसंयोगशक्तिव्यति
१. शाखादी० पृ० १०३ ।
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[पृ. ११.५०रेकेण नासी प्रवर्तत इत्वपरा संयोगशक्तिः परिकल्पनीया, स्त्राप्यपरेखावला-" सन्मतिटी० १० ११४. पं. ३३।। ।' पृ० १५. पं० २. 'कार्यण' तुम्मा-"तथा संयोगमन्तरेण कार्यात्मकत्वमेष किनेष्यते" कर्ण० पृ० २६७ ।। - पृ० १५. पं० ६. 'योग्यदेशादि तुलना- "न व विशिष्टाषस्थाव्यतिरेण पूर्षिव्यादयः संयोगशक्तिमपि निर्वर्तयितुं क्षमाः । तस्मादेकसामध्यधीन विशिष्टोत्पत्तिमस्यदार्थव्यतिरेकेण नापसंयोगः।" सन्मति० टी० पृ० १५४. पं० ३७,४०।
पृ० १५. ५०. ९. 'प्रमाणत्वं न' - प्रत्यक्षकी व्याख्या करते हुए वात्स्यायन ने कहा है कि इन्द्रियोंकी वृत्ति-व्यापार प्रत्यक्ष है। वृत्ति का अर्थ उन्होंने सन्निकर्ष और ज्ञान किया है। अर्थात् उनके मतसे ज्ञान अथवा सन्निकर्ष प्रत्यक्ष प्रमाण है । जब सन्निकर्षको प्रमाण मानना हो तब ज्ञान प्रमिति है और जब हानोपादानोपेक्षा बुद्धिको फल मानना हो तब ज्ञान प्रमाण है-न्यायभा० १.१.३ । वार्तिककारने भी इसी मतका समर्थन करके सभिकर्ष को ही प्रत्यक्ष प्रमाण माननेवाले किसी का खण्डन किया है-न्यायवा० पृ० २९ । तात्पर्य० पृ० १०५।
किन्तु जैन-बौओं ने तो सनिकर्षक प्रामाण्य का मी खण्डन किया है । क्योंकि उन दोनों के मतसे ज्ञान ही प्रमाण हो सकता है अज्ञानरूम समिकर्ष नहीं।
नै या यिकों ने प्रमाण को करण कहा है और करण को साधकतमै । साधकतम यह है जिसके होनेपर कार्य निष्पत्ति होती है और जिसके नहीं होनेपर कार्य निष्पत्ति नहीं होती। यदि समिकर्ष प्रमाण हो तब उसके होनेपर प्रत्यक्ष ज्ञान अवश्य होना चाहिए । किन्तु समिकर्ष के होने पर मी प्रमाणभूतज्ञान उत्पन्न न होकर संशयादि उत्पन्न होते है । और आकाशादिके साथ चक्षुका समिकर्ष होनेपर मी तद्विषयक ज्ञान उत्पन होता नहीं । तथा सन्निकर्ष के अभावमें अर्थात् विशेष्यके साथ समिकर्ष न होते हुए भी विशेषणहानसे विशेष्य विषयक प्रत्यक्षप्रमिति होती है।
आपकान के को साधकतम मानना चाहिए क्योंकि उसके होनेपर बव्यवहितोतरक्षणमें प्रमिति होती है।
ज्ञान ही सर्व पुरुषार्थकी सिद्धि में उपयोगी है। अत एव यदि पुरुषार्थकी सिद्धिक लिए प्रमाण का अन्वेषण हो तब तो प्रमाण को ज्ञानरूप ही मानना चाहिए क्यों कि वहीं हिताहितार्यकी प्राप्तिपरिहारमै समर्थ है, जडरूप सन्निकर्षादि नहीं। - सन्निकर्ष को प्रत्यक्ष प्रमाका करण माननेके बारेमें दिमाग ने आपत्ति की हैं। उनका कहना है कि यदि प्रत्यक्ष ज्ञान इन्द्रियसन्निकर्ष जन्य हो तब चक्षुसे जो विप्रकृष्टसान्तर वस्तुका
।
१.प्रमाणवा० २.३१६ । प्रमाणवा० अ० मु० पू० ८। २. न्यायमा० ११.३। 1. "साधकतमं प्रमाणं" न्यायवा० पू० ६ । १. "भावामायोखाता" न्यायवा०पू०६। ५. वस्वाचनलो० पू० १३८ । अएस०पू० २७६ । प्रमेयक० १४ । न्यायकु०पू० २९ । यावर ५। ६. न्यापरि० पू०२। लपी० स० ३ । परीक्षा० १.२ ।
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१० १५. पं० २२]
डिपणानि । ग्रहण होता है और जो अधिक का ग्रहण होता है वह नहीं हो सकता । तथा श्रोत्रसे दूर देशस्थित शब्द का ग्रहण होता है वह मी कैसे होगा । अत एव चक्षु और श्रोत्रजन्य ज्ञान प्रत्यक्ष होने पर भी सन्निकर्षजन्य नहीं होनेसे लक्षण में अव्याप्ति दोष है-प्रमाण- . समु० १,२०,४६।
दिमाग की इस आपति का उत्तर उड्यो त करने समी इन्द्रियोंकी प्राप्यकारिता सिद्ध करके दिया । उसका कहना है कि जो जो करण होगा वह वास्यादिकी तरह प्राप्यकादि ही होगा-न्यायवा० ए०३३,३६।
किन्तु कुमारिल ने संप्रयोग-सनिकर्ष का अर्थ ही बदल दिया । इन्द्रियोंका व्यापार ही संप्रयोग है'-सन्निकर्ष है। यदि ऐसा माना जाय तब बौद्धोंने जो सन्निकर्ष के विषयमें दोष दिया ( प्रमाणसमु० १.४१ ) उससे मी मांस कका प्रत्यक्ष लक्षण कैसे दूषित हो सकता है ! श्लोकवा० ४.४० । कुमारिल के पहले भवदासा दिने संप्रयोग का अर्थ सनिकर्ष किया था। किन्तु कुमारिल ने व्यापार अर्थ किया और बौद्धोक्त दोषोंसे बच गए।
कुमारिल का कहना है कि विना सम्बन्धके किसी एकसे दूसरेकी प्रतीति होगी नहीं यह कोई राजाज्ञा नहीं । सम्बन्ध विना मी प्रत्यक्ष प्रमाण है-श्लोकवा० अर्था० ८० ।
कुमारिल ने इन्द्रिय व्यापार के अलावा संप्रयोग का एक और मी अर्थ किया है। अर्थकी ऋजुदेशस्थिति और इन्द्रियकी योग्यता मी संप्रयोगशब्दवाच्य है-श्लोक० १.४२-४३। - जैनों को यही पक्ष मान्य है। किन्तु जैनों ने योग्यता का अर्य किया है प्रतिबन्धापाय अर्याद शानावरण के हटनेसे आत्मामें जो शक्ति आविर्भूत होती है. वही योग्यता है. क्यों कि उसके होनेपर ही ज्ञान होता है और उसके नहीं होनेपर ज्ञान नहीं होतान्यायकु० पृ० ३१. पं० ६,१७।
कुमारिल ने उपर्युक्त नाना प्रकारके अर्थ करके दोषवारण किया और अखिरमें फिर बदल कर कह दिया कि सन्निकर्षका अर्थ संयोग मानें तब मी दोष नहीं क्यों कि चक्षुरादि समी इन्द्रियाँ प्राप्यकारी हो सकती हैं। इस प्रकार उन्होंने बौद्धों के साथ बैठने की अपेक्षा सांख्य और नै या यि का दि के साथ रहना ही अच्छा समझा । उनको सांख्या दि की अपेक्षा बौद्ध पक्ष कुछ दुर्बल माछम हुआ-श्लोक ४.४३ ।
पृ० १५. पं० २२. 'वोढा समिकर्ष' सन्निकर्ष छ: प्रकारका प्राचीन वर्णन न्याय वा ति कमें मिलता है-पृ. ३१ । प्रमाणस मुख्यके टीकाकारने पांच प्रकारके सनिकर्षका उल्लेख किया है। उन्होंने विशेषणविशेष्यभावका उल्लेख नहीं किया-पृ० ३९ । प्रज्ञा करने छः प्रकारके सनिकर्षका उल्लेख किया हैं-प्रमाणवा अमु पृ०॥
खण्डनके लिए देखो प्रमाणवा २.३१५ अ० म० पृ०८ । न्यायमं० पृ० ४६ । तस्वार्थला० पृ० १६८।न्यायकुछ पृ० ३१ । माया पृ० ५९।
शालिक नाप ने 'बोढा सचिकर्ष का खण्डन करके सिर्फ १ संयोग, २ संयुक्तसमवाय और ३ समवाय ये तीन सचिकर्ष माने हैं-प्रकरणपं० पृ०१४-०६। .. "पोंग हालचाणा समापोऽन्यते"-मोकवा० ४.३८ ।
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१४२
टिप्पणानि।
[१० १६. पं० १पृ० १६.५० १. 'वस्तुखमावैः' दार्शनिकोंमे प्रायः देखा जाता है कि जब वे अपने पक्षका समर्थन दलीलोंसे करनेमें असमर्थ हो जाते हैं तब अखिरमें कह देते हैं
"इदमेवं मस्येतत् कस्य पर्यनुयोज्यताम् ।
अग्निर्वहति नाकाशं कोऽत्र पर्यनुयोज्यताम् ॥" प्रमाणवा० म.पू. ४३ । किन्तु इस वस्तुखभावमूलक उत्तरकी क्या मर्यादा हो सकती है इसका विचार प्रज्ञा करगुप्त ने किया है । उन्होंने कहा है
"खभावेऽध्यक्षता सिद्ध परैः पर्यनुयुज्यते।
तत्रोत्तरमिदं वाच्यं न रोऽनुपपाता।" वही• पृ. ४३ अर्थात् वस्तु जिस रूपसे प्रत्यक्ष सिद्ध हो उसी रूपके विषयमें कोई यदि पूछे कि वह क्यों है तब ही यह उत्तर देना चाहिए कि जो प्रत्यक्ष सिद्ध हो उसके विषयमें प्रश्न उठाना ठीक नहीं। यदि सर्वत्र यही उत्तर दिया जाय तब तो समी दर्शनवाले अपने अपने पक्षको उसी एक उत्तरसे सिद्ध करके विजयी हो जायंगे- वही पृ० ४४ । आप्तमी० का० १००।
पृ० १६. पं० ४. 'प्रमाणजननात्' -तुलना-न्यायकु० पृ० ३० । पृ० १६. पं० ४. 'ईश्वरस' तुलना-न्यायकु० पृ०३२ पं० १७।।
पृ० १६. पं० ८. 'अथोत्सर्गो' 'प्रमाणजननात् प्रमाणम्' यह उत्सर्ग है । अर्थात् इस नियमके बलसे प्रमाणका जनक जो मी कर्ता, करण, कर्मादि हो वह सब प्रमाण है । किन्तु 'जो जनक हो करके मी कर्ता है वह प्रमाता कहा जाता है। इस अपवादके बलसे प्रमाता प्रमाण नहीं कहा जा सकता वह प्रमाता ही कहा जायगा क्यों कि अपवाद उत्सर्गका बाधक है।
पृ० १६. पं० १३. 'समवायं समवायके खरूपादिके विषयमें जो नानाप्रकारके मतभेद हैं उनका दिग्दर्शन कराना यहां इष्ट है।
वैशेषिक और नैयायिक प्रतीतिका शरण लेकर समवाय को पृथक् पदार्थरूप मानते हैं। उनके मतानुसार वह एक नित्य, व्यापक और अमूर्त है।
वैशेषिक के मतसे अतीन्द्रिय है अत एव यह अनुमान गम्य है किन्तु नैया यि कों ने देखा कि बौद्धादि सभी दार्शनिक जब समवायका खण्डन करनेके लिए उचत होते हैं तब यही कह देते हैं कि समवायका प्रत्यक्ष तो होता नहीं तो फिर उसका अस्तित्व कैसे मानें ! अत एव उश्योतकर ने विशेषणविशेष्यभाव नामक सन्निकर्षके बलपर उसका प्रत्यक्ष माना है"समवाये च अभावे च विशेषणविशेष्यभावात्" न्यायवा० पृ. ३१ । और बादके नैया यिकों ने उसका समर्थन किया है-मुक्ता० का० ११ ।
बौद्धों के मतसे अवयव और अवयवी, धर्म और धर्मी, गुण और गुणी ऐसी दो वस्तुएं एककालमें या एक देश में नहीं । एक ही वस्तु है उसे गुण कहो या धर्म कहो या और कुछ
."सर्व चेतवाधिवप्रतीतिबहाद काप्यतेसशासपरिभाषया-न्यायमं०२८५। "दुजम्संविदेवहि. भगवती. वस्तुपगमे मशरणम्" [प्रकरणपं०१०२२]-वैशे० उप० ७.२.२६ ।
प्रशस्त०पृ०३२४ान्यायवा०पू०५२-५३। स्याद्वादम०का०७ वैशे०७.२.२६ । प्रशस्त पृ० ३२९। ५.प्रमाणवा० २.१५९।
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१० १६. पं० १३] टिप्पणानि ।
१४३ कहो । अत एव आश्रयायिभाव या आधाराधेयभाव बौद्ध सम्मत नहीं । इसी लिए बौद्धों ने समवायका खण्डन किया है-प्रमाणवा० १.७१. ।
धर्मकीर्ति ने कहा है कि समवाय अतीन्द्रिय होनेसे प्रत्यक्षप्राह्य नहीं । समवायके नहीं होनेपर मी अवयवों में अवयविविषयक 'इन तन्तुओंमें पट हैं' इत्यादि प्रतीति खशास्त्रोत वासनाके बलसे होती है, नहीं कि वस्तुकृत । क्यों कि 'गौमें शंग है' ऐसी प्रतीत होनेपर भी शंग अवयव होनेसे समवेत नहीं- आधेय नहीं । और जिस अवयवीको आधेय माना है उसकी आधेयतया प्रतीति होती नहीं । अन्यथा 'शृंगमें गाय है। ऐसी प्रतीति मानना पडेगा जो लोकसिद्ध नहीं । वस्तुतः बात यह है कि इन तन्तुओंमें पट है। ऐसी प्रतीति तो होती नहीं किन्तु 'तन्तुओंसे यह पट बना है ऐसी प्रतीति होती है और इस प्रतीतिके मूलमें आधाराधेयभाव या तन्मूलक समवाय न होकर कार्यकारणभाव ही है । पट तन्तुका कार्य है अर्थात् सहकारिकारणोंसे संस्कृत तन्तु ही पट है । तन्तु और तद्गत पट ऐसी दो भिन्न वस्तुएं और उनको जोडनेवाला समवाय ये तीन पृथग्भूत पदार्थ एक ही कालमें मानने की आवश्यकता नहीं । कार्य और कारण एक कालमें होते ही नहीं अत एव उनके समवायकृत सम्बन्धकी कल्पनाकी आवश्यकता ही नहीं । यदि कार्य और कारण एक कालमें नहीं होते तब पटमें तन्तुकी प्रतीति कैसे होगी ! इस प्रश्न उत्तरमें कहा कि कार्यमें कारणका उपचार करके अथवा एकाध तन्तुका पटसे बुद्धिद्वारा अपोदर करके भी व्यवहर्ता 'पटे तन्तुः' ऐसी प्रतीति कर सकता है । वस्तुतः तन्तव्यतिरिक्त कोई पट पदार्थ नहीं । तन्तुका साहित्य ही अर्थात परस्पर उपकार्योपकारकभावसे व्यवस्थित तन्तु ही पट नामसे व्यवहृत होते हैं । अत एव पट और तन्तु ऐसे दो नामों की भिन्नताके कारण वस्तुमेद का होना अनिवार्य नहीं -प्रमाणवा० २. १४९.-१५३ । तस्वसं० का० ८२३-८६६ ।
द्रव्य और गुण का भी मेद नहीं है । अत एव 'घटे रूपम्' इस प्रतीति के बलसे मी समवाय की सिद्धि हो नहीं सकती । वस्तुतः रूपादि ही वस्तुएँ हैं और वे नाना प्रकारकी अवस्थाओंमें पायी जाती है। कोई रूप पटात्मक है और कोई रूप घटात्मक है। अत एव पटात्मकलपकी व्यावृत्ति के लिए 'घटे रूपं' ऐसे दो शब्दों का व्यवहार होता है । इसका अर्थ इतना ही है कि घटात्मक रूप है । घट जैसे चक्षुह्य होनेसे रूपात्मक है वैसे रसनग्राह्य होनेसे रसात्मक मी है। अत एव रसात्मक घटकी व्यावृत्ति करने के लिए भी 'घटे रूप' शब्दका प्रयोग करके उसकी चक्षुरिन्द्रियग्राह्यता दिखाना मी दोनों शब्दोंके एकसाथ प्रयोगका फल है। अत एव समवायके अभावमें भी 'घटे रूपं' इत्यादि प्रतीति हो सकती है । समवाय, घट और रूप इन तीनों को भिन्न माननेकी क्या आवश्यकता है- तत्त्वसं० का० ८३२-८३४ ।
शान्त र क्षित ने संयोगका उदाहरण देकर समवायकी एकता और नित्यता का भी खण्डन किया है-का० ८३५-८६६ ।
"मर्चट ने कहा है कि समवाय मी यदि स्वतन्त्र पदार्थ हो तो उसका दूसरे द्रव्यादिसे सम्बन्ध, एक और सम्बन्धके बिना कैसे होगा। एक और समवाय मानने पर अनवस्था होती है। उसकी एकतामें भी दोष अर्चटने दिये है-हेतु० टी० पृ०५२।।
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टिप्पणानि ।
[पृ० १६. पं० १३
अद्वैतादिओं के मतसे मी धर्म-धर्मीका, कार्य-कारणका, अवयव अवयवीका मेद नहीं अत एव वे समवाय का खण्डन करें यह खाभाविक ही है । ब्रह्मसूत्र मूलमें समवाय मानने पर अनवस्थादोष होने की बात कही है। और उसका समर्थन शंकराचार्य ने अच्छी तरहसे किया है- २.२.११. । २.२.१७ ।
१४४
वैशेषिक और नैयाविकों ने द्रव्य, गुण, सामान्य इत्यादिको अत्यन्त मित्र मान करके मी गुणादिको समवाय के कारण द्रव्य परतत्र ही माना । तब शंकराचार्य ने कहा कि वस्तुतः द्रव्यके होने पर ही गुणादि होते हैं और द्रव्यके अभावमें नहीं होते अतएव गुणादिको द्रव्यामक ही मानना चाहिए। द्रव्य और गुणादिका जब तादात्म्य ही सिद्ध है तब समबाय सम्बन्ध की क्या आवश्यकता ! द्रव्य ही संस्थानादिके भेद से अनेक प्रकारके शब्दप्रत्ययका विषय बनता है। जैसे एक ही देवदत्त नानाप्रकारकी अवस्थाओंके कारण नानाप्रकारके पितापुत्रादि शब्दप्रत्ययका गोचर होता है। वैसे एक ही द्रव्य-गुण सामान्य समवाय इत्यादि अनेक रूपसे प्रतीत होता है
"तस्मात् द्रव्यात्मकता गुणस्य व्यास्वाता"- शां० ० २.२.२७ ।
एतेन कर्मसामान्यविशेषसमवायानां द्रव्यात्मकता
मैदवादी होने से बौद्धों ने रूपादिको ही वस्तुभूत मानकर उसके द्रव्यरूप आश्रयका निरास किया जब कि अती वेदान्ति यों मे अभेदवादी होनेसे द्रव्यको ही वस्तुभूत मानकर गुणादिरूप आधेय का निरास किया । वस्तुतः दोनों ने आधाराधेयभावका ही निरास करके समवाय का निरास किया है। बोद्ध सभी वस्तुएँ अत्यन्त भिन्न अत एव स्वतन्त्र हैं ऐसा मानकर आधाराधेयभावका निरास करते हैं तब वेदांती संपूर्ण जगत् को एक अखण्ड अद्वितीय रूप मानकर आधाराधेयकी कल्पनाको निरस्त करते हैं
" हि कार्यकारणयोः मेदः आश्रिताश्रयभावो वा वेदान्तवादिभिरभ्युपगम्यते । कारयैव संस्थानमार्ग कार्यमित्यभ्युपगमात्" - शां० ब्रह्म० २.२.१७ ।
बौद्धों ने कार्यकारणभाव मान करके भी कार्य और कारण को समकालमें नहीं माना जत एव उनका आधाराधेयभाव भी नहीं माना । जब कि वेदान्तने कार्यकारणका अभेद माम कर उनके आधाराचेयभावको नहीं माना। अभेदवादीकी दृष्टि से मेदमूलक कार्यकारणभाव
ही संभव नहीं ।
सांख्यों ने भी समवाय का खण्डन किया है।' क्यों कि उनके मतसे भी प्रकृति के विकार का विस्तार चाहे कितना ही हो फिर भी वह है प्रकृस्यात्मक ही, क्यों कि परिणामिनिस्म प्रकृति के परिणाम प्रकृतिले भिन्न नहीं । जब भेद ही नहीं तब समवाय की क्या अवश्यकता ? । कार्य और कारण का भी मेद सांख्य संमत नहीं - "कार्यस्य कारणात्मकत्वात् । न हि कारणाद् भिन्नं कार्य (सांख्मत ० का ० ९) इत्यादि प्रतिज्ञा करके वाचस्पति ने अनेक अनुमानके
से कार्य और कारण का अभेद सिद्ध किया है (सांख्यत० का० ९ ) और कहा है कि "तन्तव एव तेन तेन संस्थानभेदेन परिणताः पटो न तन्तुभ्योऽर्थान्तरम्" - (सांख्यत ०
१ प्रमाणवा० ममो० १.२३२ ।
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१० १६.५० १३] का०९)। अभेद होनेपर भी भेदध्यवहारकी सिद्धि हो सकती है। जैसे-'इस क्नमें तिलकवृक्ष है इस प्रलयमें वन और तिलकका अभेद होने पर भी भेदव्यवहार है, वैसे ही सर्वत्र भेदप्रलय होने पर भी वस्तु अभिन्न-एक हो सकती है-सांख्यत० का०९।
सांख्य ने वेदान्त की तरह अमेदवादका आश्रयण करके समवायका निरास किया है। कित मीमांसक द्रव्य और गुण का, जाति और व्यक्तिका, कार्य और कारणका न एकान्त भेद मानता है न एकान्त अमेद' । अत एव उसने मेदामेदवादी होनेके कारण समवायका निरास न करके उसके खरूप के विषयमें विप्रतिपत्ति उठा कर' समवायका खलप ही बदल दिया । उसका कहना है कि समवायको खतन पदार्थ माननेकी अपेक्षा धर्मधार्मिके खरूप का अभेद मानकर उसी अभिन्नरूपको समवाय कहना युक्त है-"जमेदार समवायोऽस्तु सातपं धर्मधर्मिणोः"-लोकबा० ४.१४९ । समायकी ही महिमासे आधाराय विषयक अमेदप्रतीति होती है । समवायके ही कारण किसी व्यक्तिमें सामान्यका अभेद मालूम होता है। क्यों कि समकायकी यह शक्ति है कि आधेय आधारमें खानुरूपप्रलयकी उत्पत्ति करावे । अत एव आधेयभूत जाति आधारभूत व्यक्ति भी जातिका बोध कराती है।'
मीमांसक संमत इस समवायका दूसरा नाम है रूपलपित्व । बौदों ने इस रूपरूपित्व सम्बन्धकी मीमांसा की है और कहा है कि इस विषयमें मीमांसक सिर्फ नयी वचनभङ्गीका प्रयोग करते हैं उसके खरूपका ठीक निर्वचन नहीं करते-"तलावाचोयुकिनूः समतामात्रमिहरुतम्, न स्वर्षः कबिदुरमेश्यते"-न्यायमं० पृ० २७३।।
जैनों के मतसे मी द्रव्य और गुणका, धर्म और धर्मीका मीमांसकों की तरह मेदामेद ही है । अतएव नै पायिक सम्मत समवायका खण्डन करनेमें वे बौद्धादि सबका साथ देते है। जैनों के मतसे समवाय द्रव्यका एक पर्याय मात्र है
"ततोऽस्येव पर्यायः समवायो गुणादिवत् । वादात्म्पपरिणामेन कचिवमासमाद।"
तत्त्वार्यश्लो० पृ० २० । पर्याय और द्रव्यका मेदामेद है । अमेद इसलिए कि किसी एक व्यके पर्यायको अन्य दव्य में कोई ले नहीं जा सकता
"लामवद्रव्यात् बान्ता मेतुमायक्वत्वस्वाशयविवेचनलस कपना"-तस्वार्थलो० पृ० २१ ।
अतएव पर्यायका द्रव्यसे विवेक अशक्य है । मेद इसलिए कि पर्याप के नष्ट होनेपर मी द्रव्य विधमान रहता है । यदि एकान्त अमेद होता तो पर्यायकी तरह द्रव्य मी नष्ट हो जाता।
द्रव्यकी गुणादिके साथ अविष्वाभावरूपसे रहनेकी अनर्थान्तरभूत असा को ही बैनों ने
१.विमा परमशिवो हिनापदिकान्यको मिच्चिा-- पम् । सामा सदा पुर्वि विशेष समवेद कप" शोकबा०५१,९५२ .ही 1291-8.पसम्बनायेवमाधारेसादुल्लापरिजनपति सारेकोषपचीस .....खैष महिमालाचारमावे खारपाबुरखवा"-शासादी०पू०१०॥
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टिप्पणानि ।
[पृ० १६.५० १३समवाय कहा है । अर्थात् द्रव्यको गुणादिलपसे परिणति ही समवाय है- द्रव्यका गुणादिके साथ एकलोलीभाव ही समवाय है- स्याद्वादर० पृ० ९६५,९७० । अभ य देव ने स्पष्ट कहा है कि समवायका अन्तर्भाव जीव और अजीवमें है। पिछले समयमें नव्य नै या यि कों ने समवाय के ऊपर दिये गए दोषोंका अवलोकन करके उन दोषोंकी यथार्थता मानकर समवायको अनिस्य और अनेकरूप माना है। __ पृ० १६. पं० १३. 'नच कश्चित् तुलना-“समवायाग्रहादः सम्बन्धादर्शनं स्थितम्" -प्रमाणवा० २.१४९ ।
पृ० १६. पं० ११. 'इहेति' प्रशस्त पाद ने समवायको इहबुद्धिसे अनुमेय कह दिया है। प्रस्तुत अनुमानके प्रयोगके लिए देखो-व्यो० पृ० १०९।
समवायके समर्थनके लिए देखो-न्यायवा० पृ० ५२-५३ । व्यो० १०७-१०९,६९८ । समवायके खण्डनके लिए देखो-श्लोकवा० ४.१४६ । प्रमाणवा० २.१४९-१५३ । तत्त्वो० पृ. ७,७५ । प्र० शांकर० २.२.१३,१७। तत्स्वार्थश्लो० पृ० १९, ५९ । न्याया० टी० पृ० ३६ । सन्मति० टी० पृ० १०६,१५६,७०० । न्यायकु० पृ० २९४ । स्थाद्वादर० पृ० ९६५।
पृ० १६. पं० १८. 'उक्तमत्र' देखो पृ० १४. पं० १४ । पृ० १७. पं० २. 'अमिधासते' देखो पृ० १९. पं० २२ । पृ० १७. पं० ३. 'प्रतिपादयिष्यते' देखो पृ० ९१. पं० १।
पृ०.१७. पं०५ 'सामयेकदेश सामग्रीप्रमाणवाद दो प्रकारका है । सकल कारकसमुदाय जो बोधाबोधखभाव है प्रमाण है - यह पक्ष व्योम शिव और जयन्तभका है"भव्यभिचारिणीमसन्दिग्यामर्थोपलब्धि विवधती बोधाबोधखमावा सामग्री प्रमाणम्"न्यायमं० पृ० १२ । व्यो० पृ० ५५४।
दूसरे एक पक्षका खयं जयन्त ने निर्देश किया है। उस मतके अनुसार सकल कारकका समुदाय नही किन्तु. कर्ता और कर्म से व्यतिरिक्त कारक समुदाय प्रमाण है
"कर्तृकर्मव्यतिरिक्कमव्यभिचारादिविशेषणकार्थप्रमाजनकं कारक करणमुच्यते । तदेष चहतीयया व्यपदिशन्ति-दीपेन पश्यामि, चक्षुषा निरीक्षे” इत्यादि न्यायमं० पृ० १३ ।
इसी सामग्र्येकदेशको प्रमाण कहनेवालेके मतसे चक्षुरादि प्रमाण होंगे।
शान्त्या चार्य ने 'आदि शब्दसे इसी दूसरे मतका ग्रहण किया है । सन्म ति टी काकारने दोनों प्रकारके सामग्रीवादका उल्लेख किया है-सन्मति० टी० पु० ४५८. पं०९।
सामग्रीप्रामाण्य के खण्डन के लिए देखो-सन्मति० टी० पृ० ४७१ । न्यायकु० पृ० ३३ ।
पृ० १७. पं० ५. 'चक्षुरादिः' इन्द्रियके प्रामाण्यके खण्डनके लिए देखो तत्त्वार्थश्लो० पृ० १६७।
पृ० १७. पं० ६. 'प्रामाण्यम्' जैम दर्शनमें प्रामाण्यचिन्ता दो दृष्टिओंसे होती हैभाध्यात्मिक दृष्टि अथवा निश्चय दृष्टिसे और बाह्य दृष्टि अथवा व्यावहारिक दृष्टि से । १. सन्मतिटी० पृ० ७३३ ।
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पुं० १७. पं० ६] टिप्पणानि ।
१४७ नन्दी सूत्र में मिथ्यादृष्टि जीवके समी ज्ञानोंको अज्ञान ही कहा है । और सम्यग्दृष्टिके समी ज्ञानोंको ज्ञान ही कहा है। मिथ्यादृष्टि घटको घट जाने फिर भी वह अज्ञान है।
और सम्यग्दृष्टिके संशयादिक भी ज्ञान ही कहे जाते हैं । आचार्य उ माखा तिने समर्थन किया है कि उन्मत्त पुरुषकी तरह मिथ्यादृष्टि जीवको सदसद्का विवेक नहीं होता । जैसे उन्मादी मनुष्य माताको पनी और पत्नीको माता कहता है तब तो उसका अविवेक स्पष्ट है किन्तु जब वह माता को माता या पनी को पनी कहता है तब भी वहाँ यादृच्छिक उपलब्धि होनेसे विवेकका अभाव ही मानना चाहिए क्योंकि उसको सत्यासत्यके अन्तरका पता नहीं । उसकी चेतना शक्ति मदिराके कारण उपहत है । ठीक वैसे ही जिसकी चेतना शक्ति मिथ्यादर्शनसे उपहत होती है उसका ज्ञान-चाहे यथार्थ हो या अयथार्थ-सत्यासत्यका विवेक नहीं होनेसे, अज्ञान ही कहा जाता है । जिन भद्रगणि ने इसके विषयमें और स्पष्टता की है कि मिथ्यादृष्टिका ज्ञान अज्ञान इस लिए कहा जाता है कि वह मोक्षका हेतु न बनकर संसारका ही हेतु होता है । और खास बात तो यह है कि ज्ञानका फल जो चारित्र है वह मिध्यादृष्टिमें सम्भव नहीं, अत एव निष्फल होनेसे मी वह अज्ञान ही है। तथा वस्तु अनन्तपर्यायात्मक है, फिर भी मिथ्यादृष्टि निर्णयकालमें मी उसे वैसी नहीं जानता, क्योंकि उसका अनेकान्तमें विश्वास ही नहीं । वस्तुतः उसको सर्वत्र विपर्यास ही है क्योंकि उसे अपने मतका मिथ्याभिनिवेश होता है। ___ इस तरह आध्यात्मिक दृष्टिसे जो सम्यग्दृष्टि मोक्षाभिमुख जीव है उसके समी ज्ञान प्रमाण ही हैं, और मिथ्यादृष्टि संसाराभिमुख जीवके समी ज्ञान अप्रमाण ही है-इसी बातको ध्यानमें रखकर उमा खा तिने सम्यग्दृष्टिके पांच ज्ञानोंको ही प्रमाण कहा है, और मिथ्यादृष्टिके तीन अज्ञानोंको प्रमाण नहीं कहा।।
आगमिकशैलीसे जहाँ प्रमाण-अप्रमाणका विवेचन होता है वहाँ इसी आध्यात्मिक दृष्टिका आश्रय लेकर सैद्धान्तिकोंने ज्ञानके प्रामाण्यका निर्णय किया है। किन्तु तार्किकदृष्टिसे प्रामाण्यके चिन्तन प्रसंगमें व्यावहारिक या बाह्य दृष्टिका अवलम्बन जैन दार्शनिकोंने किया है । अत एव प्रस्तुतमें भी शान्त्या चार्य ने व्यावहारिक दृष्टिसे ही व्यवसायको प्रमाण कहा है। यह व्यवसाय सम्यग्दृष्टिका हो या मिथ्याष्टिका प्रमाण ही है।
जितने अद्वैतवा दी हैं उन समीको प्रामाण्यकी चर्चा दो दृष्टिओंसे ही करनी पड़ती है। ज्ञानमें प्रामाण्य या अप्रामाण्यका प्रतिपादन, या प्रमाण, प्रमेय, अमिति और प्रमातारूप क्रिया. कारकोंकी कल्पना बिना मेद माने हो नहीं सकती । समी अद्वैत वा दि ओं के मतमें एक, अखण्ड, निरंश तत्व ही सत्य माना गया है । किसीने उसे ब्रह्म कहा तो किसीने शून्य किसीने ज्ञान कहा तो किसीने शब्द । वही पारमार्थिक तत्त्व है । अत एव पारमार्थिक दृष्टिसे समी भेदमूलकव्यवहार मिथ्या हैं, सांवृत हैं। किन्तु व्यावहारिक दृष्टिसे या सांवृतिक दृष्टिसे ये समी भेदमूलक व्यवहार सत्य हैं । व्यवहारका मूलाधार ही भेद है । अत एव व्यावहारिक
१. नन्दीसूत्र सू० २५। तत्त्वार्थभा० १.३२.-३३। २. विशेषा० गा० ३१४। ३. "सदसदविलेसणामो भवहेटजहिच्छिमोवलम्मामो । नाणफलाभावामओ मिच्छदिहिस्स अण्णाणं "विशेषा० गा० ११५,३१९ । विशेषा० गा० ३२३-३२४ । ५. तस्वार्थ० १.१० । ६.ज्ञानविन्दु ४०-४१।
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२४०
टिप्पणानि । [१० १७.५० ११दृष्टिसे ही अद्वैतवा दिओं के मतमें प्रमाण-प्रमेयादि व्यवहारोंकी घटना सत्य समझी जाती है । पारमार्थिक दृष्टि से ब्रम हो या ज्ञान वह निर्विकल्प है अत एव वहन प्रमाण है न अप्रमाण, न वह प्रमाण है न प्रमेय, न वह प्रमिति है न प्रमाता । वह ऐसी समी कल्पनासे शून्य है । वह खयंप्रकाशक है । अनुभवगम्य है- अवाच्य है।।
परमार्थ मेदशून्य होते हुए भी भ्रान्तिके कारण, अविषाके कारण मेदयुक्त प्रतीत होता है । भेदप्रतीति वासनामूलक है । जब तक वासना बलवती रहती है भेदव्यवहारकी सस्यता मानकर प्रमाण-अप्रमाण की व्यवस्था होती है । वासनाके अन्तके साथ भेदव्यवहारकृत व्यवस्थाका भी अन्त होता है । तब परम तत्त्वका खप्रकाश न प्रमाण है न अप्रमाण । वह सकल विकल्पातीत और खसंवेष है।
नै या यि क, वैशेषिक, सांख्य और मीमांसा दर्शनोंमें इस प्रकार दो दृष्टिओंका अवलम्बन ले करके विचार नहीं किया गया है। ये दर्शन प्रामाण्यकी चिन्ता लौकिक दर्शनके आधार पर ही करते हैं । उनके मतानुसार शाखदृष्टिसे वासितान्तःकरण पुरुषके चाक्षुष ज्ञानमें और रथ्यापुरुषके चाक्षुष ज्ञानमें प्रामाण्याप्रामाण्यकृत कोई भेद नहीं। दोनों के ज्ञान समानरूपसे प्रमाण होंगे । जैन तार्किकोंके मतसे मी यही बात है । किन्तु जैनसैद्धान्तिकों के मतमें एकका यथार्थज्ञान होते हुए मी अप्रमाण हो सकता है और दूसरेका अयथार्थ होता हुआ मी प्रमाण हो सकता है । सैद्धान्तिकों के मतमें आत्माका ज्ञान कैसा भी हो-अविसंवादि भी क्यों न हो, पर आत्मा यदि मोक्षाभिमुख नहीं है तो उसकी उस अयोग्यताके कारण उसका ज्ञान अप्रमाण ही कहा जायगा । जब कि मोक्षामिमुख आत्मा का संशय मी ज्ञान है, प्रमाण है।
एक और दृष्टिसे भी प्रामाण्यका विचार दार्शनिकोंने किया है । ज्ञानका ज्ञान-अर्थात् ज्ञानको विषयकरनेवाला ज्ञान-चाहे वह खसंवेदन हो या अनुव्यवसायरूप प्रत्यक्ष या अर्यापत्तिरूप परोक्ष-प्रमाण ही है । जैन, बौद्ध और प्राभा करने ज्ञानको खाकाश माना है। नैयायिकों ने ज्ञान को विषयकरनेवाला अनुव्यवसायरूप मानस प्रत्यक्ष माना है और भामीमांसकों ने अर्यापत्तिरूप परोक्ष ज्ञानको ज्ञानविषयक माना है। जैनादि संमत ये खसंवेदनादि कमी अप्रमाण नहीं । या यों कहना चाहिए कि ज्ञानमें जो प्रामाण्यका विचार है वह खापेक्षासे नहीं किन्तु खव्यतिरिक्त अर्यकी अपेक्षासे ही होता है।
पृ० १७. पं० ११. 'अवभासो' तुलना-"व्यवसायात्मकं शानमारमार्थप्राहकं मतम् । ग्रहणं निर्णयस्तेन मुल्यं प्रामाण्यमभुते॥" लघी० ६० ।
पृ० १७. पं० ११. 'व्यवसायो' संशयादि समी ज्ञान तो हैं किन्तु अमुक ज्ञानको ही प्रमाण कहा जाता है अन्यको नही । तब सहज ही प्रश्न होता है कि ज्ञानके प्रामाण्यका नियामक तत्त्व क्या हो सकता है जिसके होनेसे किसी जानव्यक्तिको प्रमाण कहा जाय।
..भावप्रमेयापेक्षायां प्रमाणामासनिडवः । बहिअमेयापेक्षायां प्रमाणं वधिमंच ते ॥" मातमी. का० ८३ । स्याद्वादर० १.२० । "वरूपे सर्वमान्वं पररूपे विपर्वयः" प्रमाणवा० स० मु०पू०४१।
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१० १७. पं० ११]
टिप्पणानि। इस प्रश्नके उत्तरमें दार्शनिकोंका ऐकमत्य नहीं । शान्त्या चार्य ने अर्थग्रहण, अगृहीतार्थप्रापण और गृहीतार्थप्रापण ऐसे तीन प्रामाण्य नियामक तत्त्वोंका उल्लेख करके खण्डन किया है और अपना मत बताया है कि व्यवसाय ही ज्ञानका प्रामाण्य है।
अर्थग्रहणरूप प्रामाण्य सौत्रान्ति क को सम्मत है । उसके मतसे ज्ञानगत अर्थाकार ही अर्थात् अर्थग्रहण ही प्रामाण्य है जिसे वह सारूप्य भी कहता है।
अगृहीतार्थप्रापणका मतलब है अपूर्वार्थप्रापण या अनधिगतार्थप्रापण । बौद्ध' और मीमांस क' दोनोंको यह इष्ट है । दोनों के मतसे ज्ञान अपूर्वार्थक हो तमी प्रमाण है अन्यथा नहीं । वेदकी नित्यताके खीकारके कारण मी मां स कों को प्रामाण्यका नियामक अपूर्वार्थकत्व मानना पडा है। और वस्तुकी ऐकान्तिक अनित्यता-क्षणिकताके खीकारमें ही बौद्ध सम्मत अपूर्वार्थकत्वका मूल है।
वेद यदि नित्य न हो तो पौरुषेय होने से श्रुतिको प्रत्यक्ष या अनुमानमूलक मानना पडेगा । ऐसी स्थितिमें वेदभिन्न अन्य पौरुषेय आगम शास्त्र भी प्रमाण हो जायेंगे जो मीमांसकों को इष्ट नहीं । अत एव वेदको अपूर्वार्थक मान कर प्रमाणके लक्षणमें ही 'अगृहीतग्राहि' ऐसा विशेषण मी मांसकों ने दिया ।
बौद्धों के मतसे समी वस्तुएँ क्षणिक हैं । अत एव जैसे एक ज्ञान भिन्नकालीन दो वस्तुओंको विषय नहीं कर सकता वैसे ही एक ही वस्तु भिन्नकालीन दो ज्ञानोंका विषय हो नहीं सकती। क्योंकि ऐसा होने पर वस्तु अक्षणिक सिद्ध होगी । अत एव बौद्धोंने खसंमत क्षणिकत्वकी रक्षा करनेके लिए प्रमाणको अगृहीतग्राहि-अपूर्वार्थक कहा । इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध और मी मां स क परस्पर अत्यन्त विरुद्ध मन्तव्यके आधार पर एक ही नतीजे पर पहुंचे कि प्रमाण तो अपूर्वार्थक ही होना चाहिए।
इस प्रकार प्रमाण लक्षणमें जब इस विशेषणने प्रवेश कर ही लिया तब जैनों ने भी इसे अपने ढंगसे अपनाया है । अकल ने अप्रसिद्ध अर्थकी ख्यातिको प्रमाण कहा"प्रामाण्यमप्रसिद्धार्थख्याते:" प्रमाणसं०३। और माणिक्य नन्दी ने तो अपूर्वार्थ व्यवसायको ही प्रमाण कहा-"खापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्" -परी० १.१ । किन्तु उन्होंने अपूर्व पदका खसंमत अर्थ मी स्पष्ट कर दिया है कि "अनिश्चितोऽपूर्वार्थः, दृष्टोऽपि समारोपात् ताहर" - परी० १.४-५ । प्रभा चन्द्रा चार्य ने स्पष्टीकरण किया है कि हमारे मतमें यह एकान्त नहीं कि विषय अनधिगत ही हो । ज्ञान अधिगत विषयक हो या अनधिगत विषयक, जो मी अव्यभिचारादिसे विशिष्ट प्रमाको उत्पन्न करता है वह प्रमाण कहलायगा'
क्षत्र अनधिगतार्थाधिगन्तत्वमेव प्रमाणस्य लक्षणम । तद्धि वस्तन्यधिगतेऽनधिगते बाऽव्यभिचारादिविशिष्ट प्रमा जनयनोपालम्भविषयः।” प्रमेयक० पृ० ५९।।
जैनों के मतसे वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक है। अत एव द्रव्यार्थिक दृष्टिसे अधिगत वस्तु मी पर्यायार्थिक दृष्टिसे अनधिगत हो सकती है । मी मां स कों ने मी वस्तुको सामान्यविशेषात्मक
१. न्यायवि०पू०६। २. "सर्वस्थानुपलब्धेऽर्थे प्रामाण्यं" श्लोकवा०पृ०२१०। ३. "गृहीतमगृहीतं वा स्वार्थ यदि व्यवस्यति । तम लोके न शास्त्रेषु विजहाति प्रमाणताम्" त० श्लोक पृ०१७४।
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टिप्पणानि । [पृ० १७. पं० ११माना ही है। उनके मतमें मी वस्तु सामान्यतया अधिगत और विशेषतया अनधिगत हो सकती है । अत एव ऐकान्तिक रूपसे अनधिगत ही प्रमाणका विषय होना चाहिए' यह मी मां स कों का आग्रह ठीक नहीं -प्रमेयक० पृ० ६०। ___ इसी प्रकारके अपूर्वार्थक बोधको अकलंक ने प्रमितिविशेष, अनिश्चितनिश्चय और व्यवसायातिशय ( अष्टश० का० १०१) कहा है । तथा विद्यानन्द ने उपयोगविशेष भी कहा है-अष्टस० १०४।
श्वेताम्बर जै ना चा यों ने तो प्रमाण लक्षणमें उक्त विशेषणको स्थान ही नहीं दिया । प्रत्युत उस विशेषणका खण्डन ही किया है - प्रमाणमी० १.४।।
गृहीतार्थप्रापणका मतलब है अविसंवाद । धर्म की र्ति ने प्रमाण वा र्तिक में अविसंवादि ज्ञानको प्रमाण कहा है - "प्रमाणमविसंवादि शानम्" प्रमाणवा० १.३ । और अविसंवाद का अर्थ किया है "अर्थक्रियास्थितिः अविसंवादनम्" १.३ । इसीका अर्थ धर्मोत्तरने न्या य बिन्दु टीका में स्पष्ट किया है - "लोके च पूर्वमुपदर्शितमर्थ प्रापयन् संवादक उच्यते । तवज्ज्ञानमपि स्वयं प्रदर्शितमर्थ प्रापयत् संवादकमुच्यते । प्रदर्शिते चार्थे प्रवर्तकरवमेव प्रापकत्वम् । तथा हि-न झानं जनयदर्थ प्रापयति । अपि त्वर्थे पुरुष प्रवर्तयत् प्रापयत्यर्थम् । प्रवर्तकत्वमपि प्रवृत्तिविषयप्रदर्शकत्वमेव । न हि पुरुषं हठात् प्रवर्तयितुं शक्नोति विज्ञानम्" न्यायबिन्दुटीका पृ० ५।
यदि वस्तु एकान्त क्षणिक हो तब अविसंवाद संभव ही नहीं ऐसा कह कर शान्या चार्य ने धर्म की ति संमत इस लक्षणका खण्डन किया है । किन्तु उनको मी अविसंवाद एकान्ततः प्रमाण लक्षणरूपसे अनिष्ट है सो बात नहीं । क्योंकि उन्होंने आगम प्रामाण्यके समर्थनमें "छेदो मानसमन्वयः" (का० ५५) कह करके अविसंवादको भी खीकृत किया ही है । तथा दूसरोंके आगमको प्रमाणसंवाधर्थका अप्रतिपादक होने से (पृ० ११२. पं० २८) अप्रमाण कहा है । इससे भी यही फलित होता है कि उनको अविसंवाद भी प्रमाणलक्षणरूपसे इष्ट है।
वस्तुतः सम्यग्ज्ञान, व्यवसाय, अविसंवादि, अबाधित, निर्णय, तत्त्वज्ञान, साधकतम, समारोपव्यवच्छेदक, अव्यभिचारि, अभ्रान्त - इन सभी शब्दोंसे दार्शनिकोंने प्रामाण्यका ही प्रतिपादन किया है । इन शब्दोंके अभिधेयार्थमें भेद भले ही मालूम हो पर तात्पर्यार्थमें कोई भेद नहीं । सभी दार्शनिक अपनी अपनी प्रक्रियाका भेद दिखानेके लिए नये नये शब्दोंकी योजना करते हैं । परिणामतः तात्पर्यार्थमें अभेद होने पर भी अभिधेयार्थमें भेद होनेके कारण परस्पर खण्डन-मण्डनका अवकाश रहता है ।
अत एव हम देखते हैं कि विद्यानन्द ने तत्त्वार्थ श्लोक वा ति क में (१.१०) नै या यिकादि सभी दार्शनिक संमत प्रमाणलक्षणके खण्डन प्रसंगमें बौद्ध संमत अविसंवादका भी खण्डन किया है। किन्तु उन्होंने खयं और अकलंक ने भी आप्तमी मां साकी टीका' अनेकत्र अविसंवादको प्रमाण लक्षण माना है । अत एव विद्यानन्द को आखिरकार समन्वय भी करना पडा कि अविसंवाद कहो या खार्थव्यवसाय तात्पर्यमें कोई भेद नहीं।
..अष्टस०पृ०७४,२७८ । २. अष्टस० पृ० २७९ । प्रमाणपरीक्षा पृ०५३ ।
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पृ० १७. पं० २३] टिप्पणानि ।
१५१ पूर्वोक्त तीनों प्रामाण्य नियामक तत्त्वोंका खण्डन शान्त्या चार्य ने किया है और अपनी ओरसे व्यवसायको ही नियामक तत्त्व माना है। इसके अलावा अन्य जैना चार्यों ने जिन नियामक तत्त्वोंका स्वीकार किया है उनका उल्लेख भी यहाँ आवश्यक है । अकलंक
और विधा नन्द आप्त मी मां सा की टीकामें (का०६) तर्कका प्रामाण्य सिद्ध करते हुए विचारकत्व, संवादकत्व, और समारोपव्यवच्छेदकत्व ऐसे तीन हेतु देकर इन तीनोंकी प्रामाण्य नियामकता सूचित करते हैं । वैसे ही साधकतमत्व और स्वार्थाधिगमफलत्वकी भी सूचना उन्होंने उसी प्रसंगमें दी है । आप्त मी मां सा मूलमें तत्त्वज्ञानको ही प्रमाणका लक्षण कहा गया है ( का० १०१)। उसीके समर्थनमें विद्या नन्दने एक और लक्षणकी भी सूचना की है। वह है - सुनिश्चितासम्भवद्बाधकत्व । तत्त्वार्थ श्लोक वा र्तिक में भी उसका उल्लेख है (पृ० १७५); और तत्त्वोपप्लवकारको उत्तर देने के लिए भी विद्यानन्द ने उसी लक्षण की कल्पना करके कहा है कि अदुष्टकारणारब्धत्वादि अन्यसंमत प्रमाण लक्षण भले ही असंगत हों किन्तु सुनिश्चितासम्भवद्बाधकत्व असंगत नहीं और वही स्वार्थव्यवसायरूप है-अष्टस० पृ० ४१ । ।
परन्तु सन्म ति टी का कार अभय देव को सुनिश्चितासम्भवद्बाधकत्वरूप प्रमाण लक्षण इष्ट नहीं । उनका कहना है कि बाधकामावका निर्णय करना संभव नहीं । अत एव वह प्रमाणलक्षण नहीं हो सकता - सन्मतिटी० पृ० ६१४ । यहाँ हमें एक बात अवश्य ध्यानमें रखनी होगी कि अभय देव ने भी प्रमाण लक्षणरूपसे स्वार्थनिर्णितिको' ही माना है और विद्यानन्द ने खार्थनिर्णिति और सुनिश्चितासम्भवद्वाधकत्वकी एकता सिद्ध की है । ऐसी स्थितिमें दोनों के बीच कोई मौलिक भेद नहीं रहता।
तत्त्वोपप्लव कारने प्रमाणके खण्डन प्रसंगमें जिन प्रामाण्य नियामक तत्त्वोंका उल्लेख किया है वे ये हैं - अदुष्टकारकसन्दोहोत्पाद्यता, बाधारहितत्व, प्रवृत्तिसामर्थ्य (पृ०२), अनधिगतार्थगन्तृत्व (पृ० २२) और अविसंवादित्व (पृ० २८)। विद्यानन्द ने तत्त्वोपप्लवके इस पूरे पूर्वपक्ष को उद्धृत करके अपनी ओरसे सुनिश्चितासम्भवद्बाधकत्वको नियामकतत्त्व सिद्ध किया है- अष्टस० पृ० ३८-४१ । और वही शान्त्या चार्य संमत व्यवसाय है ।
पृ० १७. पं० १६ 'ज्ञानाभिधान' तुलना- “प्रत्यक्षस्यापि प्रामाण्यं व्यवहारापेक्षं । स पुनः अर्थामिधानप्रत्ययात्मकः” लघी० स्व० ४२ ।
पृ० १७. पं० १९. 'वयमेव' शान्त्या चार्य ने खसंवेदनको सिद्ध करनेके लिए यह पूर्वपक्ष उठाया है । खसंवेदनके विषयमें दार्शनिक मतभेदोंके वर्णनके लिए देखो-प्रमाण० भाषा० पृ० १३० ।
पृ० १७. पं० २३ 'सुशिक्षितो' तुलना - "न हि सैवासिधारा तयैव च्छिद्यते" प्रमाण
१. "तस्मात् प्रमाण स्वार्थ निर्णितिस्वभावं ज्ञानम्" सन्मतिटी० पृ०४७५। २. इस के साथ प्रमेय कमलमार्तण्ड गत (पृ. ३६) अप्रामाण्यनियामकतत्वोंके संचयकी तुलना करना चाहिए । इन तस्वोंकी गिनती बौद्ध दृष्टिसे प्रभा चन्द्र ने की है।
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१५२
टिप्पणानि ।
[पृ० १७. पं० २५
अ० मु० पृ० १४ । तात्पर्य० पृ० ३६९ । प्रमेयक० पृ० १३६ । स्याद्वादर० पृ० २२१ “अंगुल्यनं यथात्मानं नात्मना स्प्रष्टुमर्हति" प्रकरणपं० पृ० ६३ ।
पृ० १७. पं० २५ ' कथम्' यहाँसे शान्त्या चार्य उत्तरपक्षकी रचना करते हैं। तुलना"स्वस्मिन्नेव प्रमोत्पत्तिः स्वप्रमातृत्वमात्मनः । प्रमेयत्वमपि स्वस्य प्रमितिचेयमागता ॥" तत्त्वार्थश्लो० पृ० ४३ ।
पृ० १७ पं० २५. 'कल्पिताः' शान्त्या चार्य ने क्रियाकारक व्यपदेशको कल्पित कहा है उसका तात्पर्य है कि 'यह कर्ता है', 'यह करण है' 'यह क्रिया है' इत्यादि व्यवहार विवक्षाधीन है अतएव कल्पित है। क्यों कि एक ही वस्तुको हम विवक्षाके मेदसे कर्ता-करणादि अनेक रूपसे कह सकते हैं । विवक्षाका मूल जैन दृष्टिसे वस्तुकी अनेकात्मकता है । जब कि बौद्ध दृष्टिसे वासना है ।
जैन और बौद्ध दोनों कारकव्यवहारको काल्पनिक मानते हैं । बौद्धों ने उसे वासनामूलक माना । जब कि जैनों ने अनन्तधर्मात्मक वस्तुके किसी विवक्षित रूपको तत् तत् व्यवहार का कारण माना
"कारकाणां विवक्षातः प्रवृत्तेरेकवस्तुनि ॥ विवक्षा च प्रधानत्वात् वस्तुरूपस्य कस्य चित् । तदा तदन्यरूपस्याविवक्षा गुणभावतः ॥ तत्त्वार्थश्लो० पृ० ६१ । "एवंप्रकारा सर्वैव क्रियाकारकसंस्थितिः ", " एवंप्रकारा = २.३१९ ।
- कल्पितैव" - प्रमाणवा ०
"कल्पितः कर्मकर्मादिः परमार्थो न विद्यते ।
आत्मानमात्मनैवात्मा निहन्तीति निरुच्यते ॥” - प्रमाण० अ० मु० पृ० ३७ | इस विषय में भर्तृहरि का मत मी उल्लेख योग्य है - उन्होंने मी सकल पदार्थोंको सर्व शक्तियुक्त मान करके व्यपदेशको विवक्षाधीन स्वीकार किया है - और उस व्यवहारको बुद्धिकृत माना है -
" शक्तिमात्रासमूहस्य विश्वस्यानेकधर्मणः । सर्वदा सर्वथा भाषात् कचित् किंचिद्विवक्ष्यते ॥ साधनव्यवहारम्ध बुद्ध्यवस्थानिबन्धनः । सन्नसन् वार्थरूपेषु मेदो बुज्या प्रकल्प्यते ॥” वाक्य० काण्ड. ३. पृ० १७४, १७५ । " प्रयोकैवाभिसन्धते साध्यसाधन रूपताम् । अर्थस्य वाऽभिसम्बन्धकल्पनां प्रसमीहते ॥” वाक्य० का० २.४३५ |
पृ० १८. पं० १. 'प्रदीपवदिति' तुलना - "न, प्रदीपप्रकाशसिद्धिवत् तत्सिद्धेः ।” न्यायसू० २.१.१९ । “केचित्तु दृष्टान्तमपरिगृहीतं हेतुना विशेषहेतुमन्तरेण साध्यसाधनायोपाददते - यथा प्रदीपप्रकाशः प्रदीपान्तरप्रकाशमन्तरेण गृह्यते तथा प्रमाणानि प्रमाणान्तरमन्तरेण गृह्यन्त इति ।" - न्यायभा० २.१.१९ । “उत्पद्यमानैवासौ शायते ज्ञापयति चार्थान्तरं प्रदीपवत्" । - शाबर० १.१.५ ।
"आत्मरूपं यथा ज्ञाने शेयरूपं च दृश्यते ।
अर्थरूपं तथा शब्दे स्वरूपं च प्रकाशते ॥” वाक्य० १.५० ।
"प्रकाशमानस्तादात्म्यात् स्वरूपस्य प्रकाशकः । यथा प्रकाशोऽभिमतस्तथा धीरात्मबेदिनी ॥” प्रमाणवा० २.३२९ । परी० १.१२ । न्याया० टी० पृ० १२ । प्रमाणलक्ष्म पृ० १ । स्याद्वादर० पृ० २२०,२३१ ।
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१० १८.५०.] टिप्पणानि ।
१५३ पृ० १८. पं० १. 'सजातीयानपेक्षत्वेन तुलना-"संषित् खप्रकाशे खावान्तरजातीयं नापेक्षते, वस्तुत्वात्, घटयत्" प्रमाणमी० १.१.२ ।
वलं प्रकाशकत्वं सजातीयान्तरानपेक्षत्वे साध्ये विकल्पनीयं-किमत्यन्तसजातीयम्, माहो सजातीयमात्रम् । यद्यत्यन्तसजातीयं ततः सिद्धसाधनम् । न हि चक्षुरादिप्रमाणं खग्रहणे चक्षुराचस्तरमपेक्षते। मथ कश्चित्लजातीयम्, तदपेक्षत्वम् आलोकस्याप्यस्ति, तस्य चक्षुराधपेक्षत्वात् । ततश्च साध्यहीनो दृष्टान्तः, विश्वच हेतु विषयज्ञानमपि विषयमानेन म गृह्यते किन्तु ज्ञानविषयेण ज्ञानेनेति नात्यन्तसजातीयमिति"तात्पर्य० पृ० ३७२।
पृ० १८. पं० ३. 'न किञ्चित' तुलना-"अथात्मरूपं नो वेत्ति पररूपस्य वित्कथम्"प्रमाणवा० २.४४४ । “यदि हानेऽपरिच्छिन्ने हातोऽसाविति तत् कुतः । शातत्वेनापरिछिनमपि तमकं कथम् ॥" वही २.४६७ । “सर्व हि सापकं शातं खयमन्यस्य वेदकम्" तत्त्वार्थश्लो० पृ०.४१ ।
पृ० १८. पं० १. 'अन्धमूकं तुलना-"अध्यक्षमात्मनि ज्ञानमपरत्रानुमानिकम् । नान्यथा विषयालोकव्यवहारविलोपतः॥" न्यायवि० १३।।
पृ० १८. पं० ५. 'इतश्च' यहाँ से मी मां स क संमत आत्मव्यापारके प्रामाण्य का खण्डन शान्त्या चार्य ने किया है। जयन्त ने न्याय मजरी में (पृ० १५) औरोंके प्रमाणलक्षणके खण्डनके प्रसंगमें इसका खण्डन किया है । ज यन्त ने इसे शाबरों का मत कहा है । और प्रसंगसे कहा है कि "अपि च क्रियापि प्रत्यक्षद्रव्यपर्तिनी प्रत्यक्षव, माना प्रत्यसबारमा" । पूर्वपक्षमें स्पष्ट कहा है कि वह व्यापार फलानुमेय है और उस बातके समर्थनमें भाष्यकारके "न बहातेऽर्थे कधिदुर्मि उपलभते जाते त्वनुमानादवगच्छतीति" इस वाक्य को उद्धृत करके 'वा ति क कार' कु मा रिल के वचनको मी उद्धृत किया है । इससे स्पष्ट है कि यह मत भाट्टों का है । प्राभा करों का नहीं । किन्तु प्रभा चन्द्र ने दो प्रकारके ज्ञातृव्यापारका खण्डन किया है। उनका कहना है कि अज्ञानरूप ज्ञातृव्यापार प्रभाकर संमत है-प्रमेयक० पृ० २० । और ज्ञानरूप ज्ञातृव्यापार कु गा रिल संमत है- वही० पृ० २५ ।
इसके विपरीत प्रभा कर और प्रा भाकरों के अन्यकी बात है। प्रभा करने खयं वृहती (१.१.५) में अनुभूतिको प्रमाण कहा है । और शा लि क ना थने मी वही किया हैप्रकरणपं० पृ० ४२ । तब प्रश्न यह है कि प्रभा चन्द्र ने जो कुछ कहा है उसका मूलाधार क्या है। प्रभा चन्द्र ने पूर्वपक्ष-उत्तरपक्षमें प्रस्तुतवाद में सर्वत्र जयन्त का ही शब्दशः अनुकरण किया है । किन्तु जयन्तने ज्ञातृव्यापारको प्रभाकरसंमत नहीं बताया है । प्रस्तुत वादकी चर्चा सन्म ति तर्क टी का (पृ० २०) में भी है।
प्रस्तुत चर्चा शान्त्या चार्य ने न्याय मंजरी आदि ग्रन्थोंके आधार पर ही की हुई जान पडती है।
पृ० १८. पं० ७. 'आत्मव्यापार' "शायरास्तु लुवते...""शानं हि नाम क्रियात्मकं, क्रिया च फलानुमेया कातृव्यापारमन्तरेण फलानिष्पत्तेः । संसर्गोऽपि कारकाणां क्रियागर्भ एव भवति । तदनभ्युपगमे किमधिकृत्य कारकाणि संसृज्येरन् । न चासंसृष्टानि तानि फलवन्ति..."तस्माद्यथा हि कारकाणि तण्डुलसलिलानलस्थाल्यादीनि सिद्धस्वभा.
न्या० २०
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१५४
टिप्पणानि ।
[ पृ० १८. पं० २३
वान साध्यं धात्वर्थमेकं पाकलक्षणमुररीकृत्य संसृज्यन्ते । संसृष्टानि च क्रियामुत्पादयन्ति तथाऽऽत्मेन्द्रियमनोऽर्थसन्निकर्षे सति ज्ञानाख्यो व्यापार उपजायते । स च न प्रत्यक्षः ॥” - न्यायमं० पृ० १५ ।
“अप्रसिद्धसत्ताकम्ध प्रभाकरमतानुसारिभिरभिप्रेतो शाढव्यापारः " न्यायकु० पृ० ४२ । प्रमेयक० पृ० २० ।
पृ० १८. पं० २३. 'मनःपरिकल्पनया' जैनों को मन अनिष्ट है यह बात यहाँ अभिप्रेत नहीं किन्तु जैसा औरोंने मनका स्वरूप माना है वह इष्ट नहीं - ऐसा शान्त्या चार्य का तात्पर्य है ।
पृ० १९. पं० ५. ' अर्थप्राकट्य' तुलना " नान्यथा हार्थसद्भावो दृष्टः सनुपपद्यते । ज्ञानं चेनेत्यतः पश्चात् प्रमाणमुपजायते ।” श्लोक ० शून्य० १८२ । “वेद्यताऽर्थातिशयलक्षणा अर्थस्य दृष्टा न संवेदन विशिष्टता । सर्वस्यार्थेन्द्रियमनःसन्निकर्षे सत्यर्थस्यापि वेद्यतालक्षणपरोक्षापरोक्षरूपातिशयोऽस्ति यदुत्पन्नः । आत्मनोऽप्यर्थातिशयान्यथानुपपत्तिगम्या यस्मिन् सति शातृता सञ्जायत इति प्रक्रिया” श्लोक० तात्पर्य० पृ० २८३ । "ज्ञानजन्योऽर्थगतः कश्चिदतिशयः प्रकाशनभासनादिपर्याय पदवाच्यः । स च पाकजन्यौदनादिगतातिशयवदनवगतेऽपि ज्ञाने शक्यतेऽवगन्तुम् ।" श्लोक ० पृ० ३१९ ।
न्यायर ०
पृ० १९. पं० ६. 'नियतम्' "अर्थ प्रकाशतालक्षणोऽर्थधर्मोऽन्यथानुपपन्नत्वेनानिश्चितस्तं कल्पयति आहोस्विदनिश्चित इति ।” - सन्मति० टी० पृ० २६. पं० ३८ ।
पृ० १९. पं० १६. 'अनुमानमपि' सन्मति ० टी० पृ० २०. पं० ९ से जो चर्चा शरू हुई है उसीका संक्षेप यहाँ है ।
पृ० १९. पं० १४. 'निषेत्स्यते' देखो, का० १५ ।
पृ० १९. पं० २०. 'अभावप्रमाण' - का० १५-१६ ।
पृ० १९ पं० २२. 'दृश्यानुपलम्भ' - दृश्यानुपलब्धिके स्वभावानुपलब्ध्यादि एकादशप्रयोगमेदोंका वर्णन न्या य बिन्दु में है - पृ० ४७-५५ ।
पृ० २०. पं० २. 'कारकसंबन्ध' - "बाह्येषु कारकेषु व्यापारवत्सु फलं दृष्टम् - अन्यथा सिद्धस्वभाषानां कारकाणामेकं धात्वर्थे साध्यमनङ्गीकृत्य कः परस्परं सम्बन्धः । अतस्तदन्तरालवर्तिनी सकलकारक निष्पाद्याऽभिमतफलजनिका व्यापारस्वरूपा क्रियाऽभ्युपगन्तव्या इति प्रकृतेपि व्यापारसिद्धिरिति" - सन्मति० टी० पृ० २५. पं० १० ।
१० २०. पं० ५. 'कारकजन्यः' तुलना सन्मति० टी० २५. पं० १३ । पृ० २०. पं० ११. ‘क्रियारूप:' तुलना - सन्मति ० टी० पृ० २५. पं० ३२ । पृ० २०. पं० २०. 'व्यापारेण' तुलना - सन्मति ० टी० पृ० २६. पं० ६ । पृ० २०. पं० २२. "संयोग - समवाय" देखो पृ० १४. पं० ९ तथा पृ० १६. पं० १३ । पृ० २०. पं० २३. 'नोपपद्यत' देखो पृ० ९१ ।
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पृ० २१. पं० ७] . टिप्पणानि।
१५५ पृ० २०. पं० २६ 'सुखदुःख धर्मकीर्तिने सुखादिको ज्ञानरूप सिद्ध किया है । उनका कहना है कि विज्ञानोत्पत्तिके जो कारण हैं वे ही सुखोत्पत्तिके भी हैं । अत एव सुख और ज्ञानमें मेद नहीं । शान्त्या चार्य ने भी उन्हींका अनुकरण करके और उन्हींके वचनका उद्धरण देकर सुखादिको ज्ञानात्मक कहा है । शान्त्या चार्य के इस कथनको द्रव्यार्षिक नयदृष्टिसे ही ठीक समझना चाहिए । चेतन आत्मासे अभिन्न ऐसे ज्ञान और सुखका चेतनत्वेन अमेद हो सकता है "एतेन शानादर्थान्तरभूतत्वात् सुखादीनामचेतनत्वमेवेति वदन्तोऽपाकृताः प्रत्येतव्याः, चेतनादात्मनोऽनन्तरत्वेन कथञ्चित् चेतनत्वसिद्धेः"अष्टस० पृ० ७८ । किन्तु पर्यायनयकी अपेक्षासे ज्ञान और सुख ऐसे दो अत्यन्त भिन्न पर्याय एक ही आत्माके हैं । अत एव ज्ञान और सुख का ऐकान्तिक तादाम्य नहीं । सुख आहादनाकार है और ज्ञान मेयबोधनरूप है - इस प्रकार दोनोंके खरूपका मेद स्पष्ट है । दोनोंके कारणोंका भी मेद स्पष्ट ही है । सुख होता है सद्वेद्य नामक अदृष्टके उदयसे और ज्ञान होता है ज्ञानावरणीयादिके क्षयोपशमादिसे । यह भी कोई नियम नहीं कि अभिन्न कारण जन्य होनेसे ज्ञान और सुख अभिन्न ही हो क्यों कि कुम्भादिके भङ्गसे होने वाले शब्द और कपालखण्डमें किसी भी प्रकारसे ऐक्य नहीं देखा जाता- अष्टस० पृ० ७८ । न्यायकु० पृ० १२९ । स्याद्वादर० पृ० १७८। - नै या यि क-वैशेषिकों ने भी सुख और ज्ञानके मेदको ही माना है और बौद्धों का खण्डन किया है। किन्तु वे जैनों की तरह उनको आत्मसम्बन्धी मानकर भी आस्मासे उनका अत्यन्त मेद ही मानते हैं । समवायके कारण ही आत्मा और उन दोनोंका सम्बन्ध होता है ऐसा वे मानते हैं । जैनों के मतसे आत्मा ही उपादान कारण है और वही ज्ञान और सुखरूपसे परिणत होता है अत एव ज्ञान और सुखका कथंचिद् मेद होने पर भी आत्मासे उन दोनोंका अत्यन्त भेद नहीं।
सांख्यों ने सुखादि को प्रकृति का परिणाम माना है अत एव अचेतन मी । किन्तु जैन और बौद्ध समानरूपसे सुखादिको चैतन्यरूप ही सिद्ध करते हैं और खसंविदित मी-प्रमाणवा० २.२६८। तत्त्वसं० का० ३६ । तत्त्वार्थश्लो० पृ० ४९ । अष्टस० पृ० ७८ ।
पृ० २०.५० २८ 'पूर्व' देखो पृ० १६। ..
पृ० २०. पं० ३१ 'तदतदू' व्याख्या- “तदूपिणो विवक्षितकरूपवन्तोऽतदूपिण इतररूपवन्तो भाषा यथाक्रमं तपाद टैकरूपाखेतोः सामग्रीलक्षणाजाता अतवूपहेतुजाता विलक्षणसामग्रीजाता भवन्तीति तावत् स्थितम् । तत् तस्मादिमं न्यायमुलंन्य विज्ञानेन सहाभिन एको हेतुरिन्द्रियविषयमनस्कारादिसामग्रीलक्षणः तस्माद जातं मुखादिकं कसावलानं ? समानसामग्रीप्रसूतत्वात इयमपि शानं स्थानमा किश्चित्"मनो। . पृ० २१. पं० १. 'अविशेष' तुलना-"तस्याविशेषे बाह्यस्य भावनातारतम्यतः । तारतम्यं च बुद्धौ स्यात् न प्रीतिपरितापयो।" प्रमाणवा० २.२७०. ।
पृ० २१. पं० ७ 'मिनाभः' प्रमाणवा० २.२७९ । “इत्यन्तरलोकः"-प्रमाणवा० ० १. प्रमाणवा० २.२५१.। १. न्यायवा० पृ० ३६ । तात्पर्य पृ० १२३ । न्यायमं० पृ०७०। वैशे० १.१.६ । व्यो०पू०६२७॥
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टिप्पणानि ।
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[ ४० २१. पं० ११
पृ० ५०२ । व्याख्या - सांख्यस्य तु सितदुःखादिर्भिन्नाकारोऽभिन्न इष्टः । बुद्धिवेदने तु अभिन्नामे विभिन्ने इष्टे चेत् । मेदाभेदौ किमाश्रयौ किंनिमित्तौ ते व्यवस्थापनीयौ ।" - मनो० । मूल पुस्तकमें नीचे जो पाठान्तर 'रभिन्नो' दिया है वही ठीक है अत एव उसे मूलमें ले लेना चाहिए ।
पृ० २१. पं० ११. 'स्वसंवेदनं' खसंवेदनकी चर्चा के लिए निम्न लिखित ग्रन्थ देखें - प्रमाणवा० २.४२३-५३१ । प्रमाणवा० अ० पृ० ४६६ । प्रकरणपं० पृ० ५१ । भामती१.१.१ । न्यायवि० का० १३ से । तत्त्वार्थश्लो० पृ० ४१, १२५, १६५ । अष्ट० पृ० ६४ | सन्मति० टी० पृ० ४७५ । प्रमेयक० पृ० १२१ । न्यायकु० पृ० १७६ । स्याद्वादर पृ० २१० । इस विषयमें दार्शनिक मतभेदोंके वर्णनके लिए देखो - प्रमाण ० भाषा० पृ० १३०,१३६ ।
पृ० २१. पं० १२. 'अथ प्रमाणात्' - यहाँ से प्रामाण्यका निश्चय स्वतः होता है कि परतः - इस चर्चाका उपक्रम शान्त्या चार्य ने किया है। इस विषयमें दार्शनिकोंके मतभेदोंके वर्णन के लिए देखो - प्रमाण० भाषा० पृ० १६ ।
प्रस्तुत चर्चा का प्रारम्भ मीमांसक के द्वारा परतः प्रामाण्यवादिओंका खण्डन करा कर किया गया है। बौद्ध संमत संवादकज्ञान या नैया यि का दि संगत कारणगुणज्ञान ये दोनों प्रवर्तक ज्ञानके प्रामाण्यके निश्चयमें असमर्थ हैं - इस बातकी स्थापना मीमांसक करता है ( ९१ - ९ ) । शान्त्या चार्य ने उत्तर दिया है कि ज्ञानके अबाधित होनेसे प्रामाण्य का निश्चय होता है (१०) । सिद्ध सेन ने प्रमाणको बाधविवर्जित कहा है- न्याया० १ । उसी पदका यह विवरण है ऐसा समझना चाहिए ।
फिर प्रश्न हुआ कि बाधकाभावका निश्वय मी कैसे होता है ? । जब बाध्यबाधकभाव ही संभव बाधकाभावका निश्चय कैसे होगा ? यदि वह न हो तो अबाधितत्वके कारण प्रामाण्यनिश्चय नहीं हो सकता ( पृ० २६. पं० १६ ) | यह पूर्वपक्ष (१११ - २४ ) बौद्ध का है क्यों कि उसे प्रामाण्यका नियामकतत्त्व अबाधितत्व नहीं किन्तु 'अविसंवादित्व इष्ट है । अत एव उसने अबाधितत्वके खण्डनके लिए बाध्यबाधकभावका ही खण्डन किया है ।
उत्तरपक्ष में (६२५) शान्त्या चार्य ने बाध्यबाधकभावके निराकरणको असंगत बता कर इस मूल प्रश्नको स्पष्ट किया है कि प्रमाणका नियामक तत्व क्या है- अविसंवाद या अबाधितत्व (६२६ ) । उन्होंने अविसंवादका खण्डन करके (६२७) अबाधितत्वको ही प्रमाणका लक्षण सिद्ध किया है ( ६२८) और उसका निश्चय कारणगुणकी पर्यालोचना के द्वारा स्थापित करके मीमांसक संमत खतः प्रामाण्य वादका खण्डन किया है ।
१. “एवं तर्हि अर्थक्रियामातेः अनालम्बनत्वेपि प्रामाण्यव्यवहार इति किं नेष्यते" प्रमाणवा० म० पृ० २५५ । निराकम्पनवाद सिद्ध करनेके लिए प्रज्ञाकर ने भ्रमका निरूपण किया है। उनका कहना है कि ज्ञानमें आकारमात्रका अनुभव होनेके कारण ही वह सालम्बन होगा नहीं। ऐसा मानने पर भ्रायाआन्तविभाग संभव नहीं । सालम्बन होने पर भी अर्थक्रियाप्राप्तिकृत प्रामाण्य यदि माना जाय तब अच्छा यही है कि ज्ञान साकम्बन न भी हो किन्तु यदि अर्थक्रियामाति हो तब प्रमाण माना जाय । अर्थक्रियाप्रति ही अविसंवाद है-प्रमाणवा० १.३ । इसी प्रसंगमें क्यातियोंका निरूपण जैसा कि हावा चार्य ने पूर्वपक्षमें किया है - (६११-२४) महाकर किया है-प्रमाणवा० अ० २५७॥
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पृ० २३. पं० १४]
टिप्पणानि ।
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अन्य जैनाचार्य संमत खतः परतः प्रामाण्यके अनेकान्तकी शान्त्या चार्य ने चर्चा नहीं की है। इसका मुख्य कारण तो यह जान पडता है कि 'प्रामाण्यका निश्चय परतः हो ही नहीं सकता' इस मी मां स क संमत एकान्त का खण्डन करना ही उनको यहाँ मुख्यतया इष्ट है । और प्रसंगतः प्रमाणका अबाधितत्व स्थापित करके अविसंवादका खण्डन करना मी इष्ट है ।
इस चर्चा की सम्मति तर्कटी का गत चर्चाके साथ तुलना करना जरूरी है । देखो सन्मति० टी० पृ० ५ ।
पृ० २२. पं० ९. 'किश्व' इस कण्डिकाकी और अनन्तरवर्ती कण्डिकाकी तुलना आगे आनेवाली बाधककी चर्चागत कण्डिका ( १२३ ) से करना चाहिए ।
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पृ० २३. पं० ३. 'द्विष्ठ' यह कारिका प्रज्ञा करगुप्त की है । इसका उत्तरार्ध है"द्वयवरूपग्रहणे सति सम्बन्धवेदनम् ।" - प्रमाणवा० अ० पृ० २ ।
पृ० २३. पं० १३. 'ननु किं बाध्यम्' यहाँ से (१११ ) जो बाध्यबाधकभावका निराकरण किया गया है वह प्रज्ञा करगुप्तकृत प्रमाणवार्तिकालंकारसे ( पृ० २५७ ) प्रायः शब्दशः लिया गया है । अन्य दार्शनिकोंने मी पूर्वपक्षरूपसे जो बाध्यबाधकभावका निराकरण किया है वह भी प्रायः उक्त ग्रन्थके आधार पर ही किया है। देखो व्यो० पृ० ५२५ । न्यायमं० पृ० १६१ | सन्मति० टी० पृ० १२,३६७ ।
वो पल व कारने मी अपने ढंगसे मिथ्यात्वका विचार किया है- देखो तत्त्वो० पृ० १३. पं० २१ । और बाध्यबाधकभावका निराकरण भी किया है- पृ० १४. पं० २४ ।
पृ० २३. पं० १४. 'मिथ्यात्व' अतत्त्वज्ञान मिध्यात्व, मिथ्याप्रत्यय, भ्रम, विभ्रम भ्रान्ति, व्यभिचारिज्ञान, विपर्यय, मिथ्याज्ञान इत्यादि शब्दोंसे दार्शनिकोंने असम्यग्ज्ञान - अविद्याका बोध कराया है। किन्तु उसके निरूपणमें नाना प्रकारके मत-मतान्तर देखे जाते हैं । अतः यहाँ पर मिथ्याज्ञान' के विषयमें निम्न लिखित बातों पर विचार किया जाता ।
१ - अस्तित्वके विषयमें मतभेद ।
२ - मुख्य भ्रम और व्यावहारिक भ्रम ।
३ - व्यावहारिक भ्रमकी प्रक्रियामें मतभेद ।
४ - दोषमीमांसा ।
५ - प्रत्यक्षेतर भ्रम ।
६ - प्रामाण्यचिन्ता ।
१ - अस्तित्वके विषयमें मतभेद ।
वो पलवा दी जय राशि भट्टका एक मात्र मुख्य कार्य यह है कि दूसरे दार्शनिकोंने
१. विद्यानन्द ने विपर्ययके दो अर्थ किये हैं। सामान्य और विशेष । सामान्य विपर्ययमें संशय, मध्यवसाय और विपर्ययविपरीत निर्णय का समावेश है । और विशेषविपर्ययमें अमका । प्रस्तुत दूसरा अर्थ ही विवक्षित है- स्वार्थसो० पृ० २५५ ।
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टिप्पणानि ।
[ पृ० २३. पं० १४
अपने अपने तर्कबलसे जो कुछ सिद्ध समझ रखा है उसकी नितान्त असिद्धि उनको दिखलाना । सभी दार्शनिकोंने अपने अपने दर्शनका महल मिथ्याज्ञानके आधार पर स्थिर किया है। सभी दार्शनिक इसी मिथ्याज्ञानके नाश द्वारा मोक्षका होना स्वीकार करते हैं । यदि संसारसे मिथ्याज्ञानका अस्तित्व ही मिट जाय तब दर्शनका प्रयोजन ही नहीं रहता । अतएव दार्शनिकोंके निरूपणीय मिथ्याज्ञानका मी खण्डन करना ज य राशि ने उचित समझा । नैयायिक संमत प्रत्यक्ष लक्षणमें अव्यभिचारि पद है । जय राशि ने बतलाया है कि कोई व्यभिचारि ज्ञान संसारमें हो तब तो उसकी व्यावृत्ति करनेके लिए प्रमाण लक्षणमें वह पद रखना योग्य है; किन्तु जब व्यभिचारि ज्ञानका अस्तित्व ही नहीं तब अव्यभिचारी विशेषण से किसकी व्यावृत्ति करना' ! । यदि ज्ञानके विषयकी व्यवस्था घट सके तब तो हम यह कह सकते हैं कि ज्ञानका आलम्बन अन्य है और प्रतीति किसी अन्यकी होती है अतएव अमुक ज्ञान मिथ्या है । परन्तु जब वास्तवमें ज्ञानके विषयकी व्यवस्था ही नहीं बन पाती तब मिष्याज्ञानका अस्तित्व कैसे सिद्ध होगा । उसने अनेक विकल्प उठा करके यह सिद्ध किया है कि ज्ञानके विषयकी व्यवस्था ही नहीं हो सकती' ।
इसका उत्तर जैन दार्शनिक प्रभा चन्द्र ने दिया है' ।
२ - मुख्य भ्रम और व्यावहारिकभ्रम ।
समी दार्शनिकोंने अपनी अपनी दृष्टिसे तत्त्वकी विवेचना की है । अतएव समीके मतसे तत्वज्ञान भिन्नभिन्न विषयक फलित होता है। जब नैयायिका दि कहते हैं कि द्रव्य-गुण आदिका मेद ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान-तत्वज्ञान है तब इसके विरुद्ध अद्वैतवादी कहते हैं कि उस दशानसे बढकर दूसरा कोई मिथ्याज्ञान ही नहीं । अर्थात् किसीको परमतत्वविषयक भ्रम है। या नहीं इसका निर्णय अत्यन्त कठिन है । क्यों कि जबतक परमतस्त्वके विषयमें समी दार्शनिक एकमत नहीं हो जाते तब तक सबमें परम तत्त्व विषयक भ्रम सदा बना ही रहेगा। दार्शनिकोंका यह भ्रम परम भ्रम या मुख्य भ्रम है ।
इस परमभ्रमकी व्याख्या करना कठिन है। इस परमभ्रमको सभी दार्शनिक मानते हैं। किन्तु इसका कोई एक लक्षण नहीं बन सकता ।
दूसरा भ्रम है व्यावहारिकभ्रम । इस व्यावहारिक भ्रमका ही प्रमाण शास्त्रमें मुख्यतः विवेचन होता है। सभी प्रामाणिकोंने इस भ्रमके अस्तित्वको समानरूपसे स्वीकार किया है और कौनसा ज्ञान इस भ्रम के अन्तर्गत है इस बारेमें भी विवाद नहीं । विवाद यदि है तो इस भ्रमज्ञान की उत्पत्तिकी प्रक्रियामें ।
महमरीचिकामें जल ज्ञान, शुक्कशंखमें पीतज्ञान, चलती गाड़ीसे दौड़ते हुए वृक्षादिका ज्ञान, केशोण्डुकविज्ञान, अलातचक्रज्ञान, द्विचन्द्रज्ञान, शुक्तिकामें रजतज्ञान, गन्धर्वनगरेज्ञान, रज्जमें
१. तवो० पृ० ११. पं० २० । पृ० १३. पं० १६ । २. “कोऽयमालम्बनार्थो नाम येनेवसुदुच्यते अम्पदाकम्बनमन्यच प्रतिभातीति ? । किं विज्ञानजनकत्वम् आकारापकत्वम्, विज्ञानाधिकरणत्वम्, विज्ञानावभासितता वा ? " तस्वो० पृ० १२ । ३. प्रमेयक० पृ० ४८ । ४. तुलना - "सर्वदेषु च भूषस्तु विल्दार्थोपदेशिषु । तुम्पहेतुषु सर्वेषु को नामैकोऽवधार्यताम् ॥ सुगतो यदि सर्वशः कपिको नेति का प्रमा। भथोभावपि सर्वज्ञौ ममेदखयोः कथम् ॥" तत्वसं० ३१४८-९ ।
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Д
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Ратчик and far (хат, растот до 943)
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न्यायावतार बार्तिकवृत्ति (देखो, टिप्पण पृ. १५९)
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पृ० २३. पं० १४ ]
टिप्पणानि ।
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सर्पज्ञान, पित्त दोषसे शर्करामें तिक्तताका ज्ञान, स्वप्नविज्ञान इत्यादि ज्ञानोंको सभी दार्शनिक एकमतसे भ्रम मानते हैं । इसी व्यावहारिक भ्रमकी प्रक्रिया में दार्शनिकोंका जो कुछ मतमतान्तर है उसीका विवेचन आगे करना इष्ट है ।
आधुनिक मानस शाखने भी व्यावहारिक भ्रमका विवेचन किया है । इन्द्रियके सामने उपस्थित पदार्थ में होने वाले मिथ्याप्रत्ययको मानसशास्त्री 'इल्यूशन' ( Illusion ) कहते हैं । और निर्विषयक मिथ्याज्ञानको 'हेल्यूशिनेशन' (Helucination) कहते हैं। रजमें सर्पका ज्ञान 'इल्यूजन' है और स्वमविज्ञान 'हेल्यूशिनेशन' है, क्योंकि उसमें विषयकी उपस्थितिके बिना ही पदार्थका स्पष्ट आकार प्रतिभासित होता है । 'इल्यूजन' के दृष्टान्त बडे मनोरंजक हैं। उनमें से कुछका यहाँ निदर्शन करना अप्रस्तुत नहीं ।
विषयकी अवस्थाविशेषमें इन्द्रियाँ समीको अवश्य धोखा देती हैं। उस दशामें इन्द्रियज्ञान यथार्थ हो ही नहीं पाता । जैसे एक नापकी दो रेखाएँ हों फिर भी अवस्थाविशेषमें उनमेंसे एक छोटी और दूसरी बडी मालूम होगी (देखो चित्र नं ० १ ) । नियम यह है कि क्षितिजकी समानान्तर (Horizontal ) रेखासे लम्बरूप रेखा ( Vertical ) हमेशा बडी ही प्रतीत होगी । इसी नियमके आधार पर टोपीकी ऊंचाई और चौडाई समान हो तब मी चौडाईसे ऊंचाई ज्यादह मालूम होगी (देखो चित्र नं० २ ) ।
खाली जगह से भरी जगह या विभक्त जगह हमेशा ज्यादह मालूम होती है (चित्र० नं० ३ ) । इस चित्रमें श्याम लकीरोंसे भरी जगह रिक्त जगह से अधिक प्रतीत होती किन्तु दोनोंका नाप बराबर ही है ।
विरोध भी इन्द्रियज्ञानों में भ्रम पैदा करता है। तीरकी नोकके आकारको किसी रेखाके अंतभागमें उलटा और सीधा रखनेसे रेखाके नापके जाननेमें भ्रम अवश्य होता है । चित्र नं० ४ (अ) में तीरके एक सिरेसे दूसरे सिरे तकका अन्तर समान होने पर मी असमान प्रतीत होता है। (ब) में असमानता अत्यन्त स्पष्ट है। फुटपट्टीसे नापकर समानता जानकर भी आंखोंको असमानता ही नजर आती है ।
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दूसरी रेखाओंके अमुक प्रकारसे संसर्गसे रेखाएँ अपना असली रूप दीखा नहीं सकतीं । सीधी रेखा टेढ़ी दिखती है (चित्र नं० ५ ) । इस चित्रमें अब और क ड रेखाएँ सीधी होने पर मी टेढी ही दिखती हैं। क्षेत्रफल विषयक हमारा अन्दाज प्रायः गलत होता है। नीचेके चित्र नं० ६ में दो चौरस हैं । उनमेंसे बडा छोटेसे दूना है । फिरमी वह दूना मालूम नहीं पड़ता । द्रष्टाकी दूरी या निकटताके कारण तथा उसकी अमुक स्थानमें अवस्थितिके कारण मी भ्रम होता है ( Illusion of Perspection ) । इसके लिए देखो चित्र नं० ७ । इसमें तीनों लकडीके टुकड़े समानाकार हैं फिरमी छोडे बड़े मालूम होते हैं । हम सभी जानते हैं। कि रेलकी दोनों पटरियाँ कमी नहीं मिलतीं किन्तु दूरदूर वह मिलती हुई नजर आती हैं।
३ - व्यावहारिक भ्रमकी प्रक्रियामें मतभेद ।
समी दार्शनिक शुक्तिकामें रजतज्ञानको भ्रम तो भानते हैं । किन्तु उसको भ्रम क्यों कहना इस विषयमें उनका ऐकमत्य नहीं । समी दर्शन अपने अपने तत्वज्ञानकी प्रक्रियाके शनुसार
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टिप्पणानि ।
[पृ० २३. पं० १४उस भ्रम ज्ञानकी उपपत्ति करते हैं । दर्शनमेदसे इन उपपत्तिओंके आठ प्रकार पाये जाते हैं। जैसे
(१) चार्वाक संमत अख्यातिवाद । (२) माध्यमिक संमत असख्यातिवाद । (३) सांख्य संमत प्रसिद्धार्थख्यातिवाद । (१) योगाचार संमत आत्मख्यातिवाद । (५) प्रमाद्वैत वा दि संमत अनिर्वचनीयख्यातिवाद । (६) मी मां स क सं मत अलौकिकार्यख्यातिवाद । (७) प्रा भाकरसं मत स्मृतिप्रमोषापरपर्याय विवेकाल्यातिवाद ।
(८) नै या यि क-जै ना दि संमत विपरीतख्यातिवाद । - समी दार्शनिकोंके सामने मुख्य प्रश्न यही है कि शुक्तिकामें रजतप्रत्ययकी उत्पत्तिका निमित्त क्या है ! । अर्थात् शुक्तिकाके होने पर मी उसमें रजतप्रत्यय क्यों होता है ! रजतका तो नेत्रके साथ संसर्ग है ही नहीं तब रजतप्रत्यय हुआ कैसे ! । शुक्तिका उपस्थित होनेपर मी उसका ज्ञान क्यों नहीं हुआ ? । दोष किसका ? । आत्मा-प्रमाताका, शुक्तिका-विषयका, इन्द्रिय-अधिपतिका या आश्रयका । इन दोषोंकी मीमांसाके समय ही समी दार्शनिक दो विभागोंमें विभक्त हो जाते हैं। बाह्यार्थवादिओंके लिये समस्याका हल एक है । और अद्वैतवादिओंके लिये समस्याका हल दूसरा ही है । बाह्यार्थवादिओंके सामने प्रश्न यह है कि यदि ज्ञान अर्थानुसारि हो तो फिर शुक्तिकाका अनुसरण न करके वह रजतावसायि कैसे हुआ। जब कि अद्वैतवादिओंके सामने प्रश्न यह है कि शुक्तिका और रजत इन दोनोंका अस्तित्व न होते हुए मी वहाँ रजत क्यों दिखाई देता है और शुक्तिमें शुक्तिका ज्ञान अभ्रान्त और उसीमें रजतका ज्ञान प्रान्त क्यों ? । जब कि अर्थाभाव दोनों स्थलमें समान है फिर भ्रान्ताभान्त विवेक कैसे है। इन प्रश्नोंक उत्तरमें से उपर्युक्त मतोंका आविर्भाव हुआ है।
(१). चार्वाक संमत अख्यातिवाद ।
चार्वाक अख्यातिवादी है। प्रभाकरसंमत विवेकाख्याति मी संक्षेपमें अख्याति कहलाती है। किन्तु चार्वाक संमत अख्यातिका मतलब कुछ और है और प्रभा क र संमत अख्यातिका मतलब कुछ और।
चार्वाक का कहना है कि अन्य वस्तु अन्याकारसे प्रतीत नहीं हो सकती । वह दलील करता है कि यदि रजतज्ञानका विषय रजत माना जाय तब वह प्रान्त कैसे सिद्ध होगा। और शुक्तिकाको तो रजतज्ञानका विषय मान ही नहीं सकते क्योंकि रजत ज्ञानमें वह प्रतिमासित ही नहीं होती । अत एव चावो क का सिद्धान्त यह है कि शुक्तिकामें रजत प्रत्ययको निरालम्बन ही मानना उचित है । क्यों कि इस प्रत्ययमें किसी भी वस्तुकी ख्याति है ही नहीं, इस लिये इसे अख्याति कहना चाहिए। .. प्रमेयक पृ०४८ । स्थाबादर० पृ० १२४ ।
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पृ० २३. पं० १४] टिप्पणानि ।
१६१ चार्वाक के इस मन्तव्यमें निरालम्बनज्ञानवादी यो गा चार और मा ध्य मि क बौद्धों की स्पष्ट छाप है । ये ही बौद्ध सभी ज्ञानोंको निरालम्बन मानते हैं । क्योंकि उनके मतमें बाह्यार्थका अभाव है फिर मी प्रत्ययका अस्तित्व तो है । वे वासनाके बलसे निरालम्बन प्रत्ययोंकी उत्पत्ति घटाते हैं । चार्वा कों ने नै या यि का दि बाह्यार्थवादिओंकी युक्तिका आश्रय लेकरके सम्यग्ज्ञानोंको सविषय माना जब कि मिथ्याज्ञानोंको निरालम्बन सिद्ध करनेमें बौद्धों की युक्तिओंका उपयोग किया।
विपर्ययको भी सालम्बन माननेवालोंने चार्वाक को उत्तर यह दिया है कि यदि विपरीतप्रत्यय निरालम्बन है, उसमें ख या पर कुछ भी प्रतिभासित नहीं होता तब वह रजतज्ञान क्यों कहा जाता है।
दूसरी बात उन्होंने चार्वाक से यह कही है कि तुम्हारे मतसे सुप्तावस्था और भ्रम इन दोनोमें जब कुछ प्रतिभासित नहीं होता तब उक्त दोनो अवस्थाओंमें भेद क्या रहा।
यह चार्वा क संमत अख्यातिवाद प्रभा चन्द्र के पहलेके ग्रन्थों में देखा नहीं .जाता । मालूम होता है कि तत्त्वोपप्लव कार के भ्रमज्ञानके निराकरणको ही प्रभा चन्द्र ने चार्वाक संमत अख्यातिवाद मानकरके उसे अख्यातिवादी कहा है । उनका ऐसा कहना युक्तिसंगत ही है। क्योंकि तत्त्वोपप्लव कार भ्रमनिराकरणके प्रसंगमें बारबार कहता है कि "खविषयपर्यवसायिन्यो हि बुद्धयः" (पृ० १४, पं० २३ । पृ० १५, पं० २६)। और उसी प्रसंगमें उसने आलम्बनका निषेध किया है (पृ० १२)। ..
तस्वोपप्लवके शब्दोंका अनुवाद करके ही प्रभा चन्द्र ने अख्यातिवादको उपस्थित किया है। इससे स्पष्ट है कि चार्वाक संमत अख्यातिवादका मूल त खोपप्लव में ही है-देखो प्रमेयक० पृ० ४८ और तत्त्वो० पृ० ११ से।
(२) माध्यमिक संमत असत्ख्यातिवाद ।
सुषुप्ति अवस्थामें अर्थका प्रतिभास नहीं है और भ्रान्त प्रत्ययमें अर्थका प्रतिभास है यही दोनों अवस्थाका भेद है अत एव भ्रान्तप्रत्ययको चार्वाक की तरह निरालम्बन माना नहीं जा सकता । 'जिस अर्थका प्रतिभास होता है उसीको आलम्बन मानना उचित है! ऐसा मानते हुए मी माध्यमिक कहता है कि भ्रममें प्रतिभासका विषय कोई बाह्य सत् तो नजर आता नहीं अत एव उसमें असत् का ही प्रतिभास होता है ऐसा मानना चाहिए।
इस प्रकार माध्यमिक ने एक ही तीरसे दो पक्षिओंको मारनेकी उक्तिको सार्थक किया है । क्योंकि ज्ञानको सालम्बन मान करके भी यदि वह बाह्यार्थको आलम्बन नहीं मानता तो उसके मतसे एक प्रकारका निरालम्बनवाद ही सिद्ध होता है। इसी तरह वह यदि ज्ञानके विषयको असत् मानता है तो उसके मतानुसार प्रमाणके बलसे प्रमेयकी सिद्धि न होनेके कारण शून्यवाद ही सिद्ध होता है।
सारांश यह है कि माध्य गि क सभी वस्तुओंको असत् ही-निःखभाव ही मानता है। १. प्रमेयक० पृ०४९। २. विप्रह० का० १, २१-२३,६७ ।
न्या.२१
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टिप्पणानि ।
१६२
[ पृ० २३. पं० १४
यह पदार्थोंकी' व्यावहारिक सत्ता मानकर उनकी परीक्षा करता है और अन्तमें सभी की असता सिद्ध करता है । माध्यमिक की कोई प्रतिज्ञा या स्थापना नहीं है । दूसरोंकी प्रसिद्धिको असंगत बताना ही उसका कार्य है। अत एव उसके मतानुसार सभी सविषयक ज्ञान मिथ्या - भ्रम ही हैं । व्यावहारिकसस्यके आधार पर ज्ञानोंमें भ्रमा भ्रम विवेक भले ही हो पर परमार्थहम सभी ज्ञान भ्रम हैं ।
(३) सांख्यसंमत प्रसिद्धार्थख्याति ।
माध्यमिक से ठीक विरुद्ध बात सांख्य कहता है। माध्यमिक के मतसे सभी शून्य है असत् है निःखभाव है । तब सांख्य के मतसे सर्व वस्तुकी सर्वत्र सत्ता है । माध्यमिक के मतसे बाह्यार्थको विषय करनेवाले सभी ज्ञान परमार्थतः भ्रान्त हैं तब सांख्य के मतसे कोई ज्ञान परमार्थतः भ्रान्त नहीं । अर्थात् स्थूलदृष्ट्या ही कुछ ज्ञानोंमें भ्रान्तताका व्यवहार होता है । सांख्य का कहना है कि यदि वस्तु सर्वथा असत् हो तो आकाश कुसुमवत् वह प्रतिभासका विषय बन ही नहीं सकती । ज्ञानमें जब और जहाँ अर्थ प्रतिभासित होता है तब और तहाँ वह अर्थ प्रमाणप्रसिद्ध ही है । अत एव जिसे भ्रमज्ञान कहा जाता है वह प्रसिद्ध अर्थकी ही ख्याति होनेसे प्रसिद्धार्थख्याति है । बादमें जब अर्थ अव्यक्त हो गया तब व्यवहार में उसकी अनुपलब्धि होनेसे हम उस ज्ञानको भ्रम भले ही कहें पर वस्तुतः वह भ्रम नहीं है। क्योंकि विद्युत् आदि क्षणिक पदार्थकी तरह उत्तरकालमें उसकी उपलब्धि न मी हो तो भी ज्ञान कालमें उसका अस्तित्व सिद्ध ही है । अभ्यथां विद्युदादि ज्ञानोंको भी भ्रम मानना होगा।
सांख्य का यह मत उसके सिद्धान्तानुकूल ही है । तथापि उसे प्रस्तुतमें नैया यि का दि के 1 प्रभावसे मुक्त नहीं माना जा सकता। क्योंकि 'ज्ञान निरालम्बन हो नहीं सकता' इस नै या यि क आदिके सिद्धान्तको अर्थतः स्वीकार करनेके बाद ही अपनी ज्ञेय-मीमांसा के आधार पर उसे यही कहना पड़ा कि भ्रममें भी ख्याति प्रसिद्धार्थकी ही होती है । सांख्य के मतसे किसी वस्तुका कहीं भी अभाव नहीं है। इसी लिये वह सत्कार्यवादी है ।
सांख्यमत के साथ रामानुज संमत भ्रमका निरूपण तुलना के योग्य है । रामानुज ने भ्रम स्थलमें सत्ख्याति मानी है। उनका कहना है कि जिसे हम शुक्तिका समझते हैं वस्तुतः उसमें रजतांश और शुक्तिकांश दोनों हैं । शुक्तिकामें शुक्तिकांश का बाहुल्य होनेसे वह शुक्तिकाके नाम से व्यवहृत मात्र होती है । अत एव शुक्तिकामें जब रजत प्रत्यय होता है तब वह यथार्थ ही है । फिर भी व्यवहारमें मिथ्या - भ्रम इस लिए कहा जाता है कि चक्षुरादिके दोष के कारण मात्र रजतांशका दर्शन हुआ और शुक्तिकांशका नहीं हुआ । दोषके हट जाने से
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१. "संव्यवहार च वयं नानभ्युपगम्य कथयामः ।" विग्रह० २८ । "व्यवहारमनाश्रित्य परमार्थों न देश्यते । परमार्थमनागम्य निर्वाणं नाधिगम्यते ॥ " माध्य० २४.१० । २. "यदि काचन प्रतिज्ञा तत्र स्यात् एष मे भवेद् दोषः । नास्ति च मम प्रतिज्ञा तस्मा चैवास्ति मे दोषः ॥" विप्र६० २९ । माध्य० वृ० पृ० १६ । ३. "यदि किञ्चिदुपलभेयं प्रवर्तयेयं निवर्तयेयं वा प्रत्यक्षादिभिरर्थैस्तदभावान्मेऽनुपालम्भः ॥" विग्रह० ३० । ४. प्रमेयक० पृ० ४९ ।
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पृ० २३. पं० १४] टिप्पणानि ।
१६३ शुक्तिकांशका दर्शन होने पर रजतज्ञान निवृत्त हो जाता है । इस प्रकार रामा नु ज के मतानुसार व्यवहारमें रजतप्रत्यय बाध्य होनेसे भ्रम कहा जाता है पर वस्तुतः वह यथार्थ ही है ।
रामानुजने सांख्यो की तरह सब वस्तुओंकी सर्वत्र सत्ता मानी है अत एव उनके मतानुसार परमार्थतः समी ज्ञान यथार्थ ही होते हैं।
खनादिज्ञानों में अन्य दार्शनिक जब विषयका अत्यन्ताभाव मानते हैं तब रामानुज मानते हैं कि उन ज्ञानोंमें मी जीवके पापपुण्यके कारण ईश्वर तत्तत्कालभावी पदार्थोकी रचना कर देता है
"यथार्थ सर्वविज्ञान मिति वेदविदां मतम् । श्रुतिस्मृतिभ्यः सवस्य सर्वात्मत्वप्रतीतितः" ॥ "शुफ्त्यादौ रजतादेव भावः श्रुत्यैष चोदितः । सप्यशुक्त्यादिनिर्देशमेदो भूयस्त्वहेतुकः ॥ रुप्यादिसहशश्चायं शुक्त्यादिरूपलभ्यते । अतस्तस्यात्र सद्भाव प्रतीतेरपि निश्चितः॥ कदाचिचक्षुरादेस्तु दोषाच्छुक्त्यंशवर्जितः । रजतांशो गृहीतोऽतो रजतार्थी प्रवर्तते ॥ दोषहानौ तु शुक्त्यंशे गृहीते तन्निवर्तते । अतो यथार्थ सप्यादिविज्ञानं शुक्तिकादिषु ॥ बाध्यबाधकभावोपि भूयस्त्वेनोपपद्यते । शुक्तिभूयस्त्ववैकल्यसाकल्यप्रहरूपतः॥नातो मिथ्यार्थसत्यार्थविषयत्वनिबन्धनः । एवं सर्वस्य सर्वत्वे व्यवहारव्यवस्थितिः॥ खमे च प्राणिनां पुण्यपापानुगुणं भगवतैव तत्तत्पुरुषमात्रानभाव्याः तत्तत्कालावसानास्तथाभूताचार्थाः सृज्यन्ते ॥" श्रीभाष्य १.१.१. ।
(४) योगाचारसंमत आत्मख्याति ।
विज्ञान वा दी बौद्धोंने भ्रम दो प्रकारका माना है । एक मुख्य भ्रम और दूसरा प्रातिभासिक भ्रम । व्यवहारमें हमारी इन्द्रियोंकी जितनी शक्ति है उसके अनुसार ही, उसकी मर्यादामें ही रहकर हम समी अपने संवादि ज्ञानोंको प्रमाण-अभ्रान्त मानकर प्रवृत्त होते हैं । यद्यपि ये हमारे समी ऐन्द्रियक ज्ञान पारमार्थिक दृष्टि से अर्थात् योगिज्ञानकी दृष्टि से भ्रान्त ही होते हैं। जैसे दोनों तैमिरिकोंको परस्पर द्विचन्द्रदर्शनमें संवाद है और एक दूसरे की अपेक्षासे उन दोनोंका ज्ञान उनको अविसंवादि ही मालूम होता है । उसी प्रकार हम समी पूथग्जनोंकी ऐन्द्रियक शक्तिमर्यादा करीब करीब एकसी है अत एव एक हदतक, हम समी, अपने कुछ ज्ञानोंको अभ्रान्त और कुछ को भ्रान्त मानकर, अपना व्यवहार चलाते हैं । वस्तुतः जिस इन्द्रिय ज्ञानको हम प्रमाण-अभ्रान्त समझते हैं वह भी योगिज्ञानकी दृष्टिसे अर्थात् पारमार्थिक प्रत्यक्षकी दृष्टिसे भ्रम ही है । जिस अविसंवादके कारण इन्द्रिय ज्ञानको अमान्त समझा जाता है वह अविसंवाद वस्तुतः दृश्य और प्राप्यके एकत्वारोपसे ही घट सकता है ऐसी स्थितिमें पृथग्जनोंका अविसंवादि ज्ञान भी परमार्थ दृष्टिसे भ्रम ही समझना होगा । इसी पारमार्थिक दृष्टिसे ही अनुमान ज्ञानको भ्रान्त कहा जाता है । व्यावहारिक दृष्टिसे तो वह भी अभ्रान्त है।
व्यावहारिक दृष्टिसे भी जो विसंवादि है वह व्यावहारिक या प्रातिभासिक भ्रम है। यदि इन्द्रियजन्य कोई ज्ञान पारमार्थिक दृष्टिसे अभ्रान्त हो सकता है तो वह साक्षात् अर्थ
.. 'बुद्धिस्ट लोजिक' भाग, १. पृ० १५३ । २. "भ्रान्तं हि अनुमानम्" न्यायवि० टी०पू०१३।
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टिप्पणानि। [१० २३. पं० १४जन्य अर्थात् प्रथमक्षणभावि इन्द्रियज्ञान ही है, अन्य नहीं । बादके समी ज्ञान कल्पनाजनित हैं अर्थजन्य नहीं । खलक्षणका साक्षात्कार करनेवाला ज्ञान निर्विकल्पक है, अव्यपदेश्य है, कल्पनापोढ है । जितने मी सविकल्पक ज्ञान हैं, जिन्हें हम इन्द्रियजन्य मानते हैं वे बौद्ध मतानुसार साक्षात् इन्द्रियजन्य नहीं किन्तु परंपरासे इन्द्रियजन्य है। अत एव सविकल्पक. ज्ञान वस्तुतः इन्द्रियजन्य नहीं किन्तु मनोजन्य हैं।
कोई मी इन्द्रियजन्य ज्ञान प्रान्त नहीं होता । भान्त ज्ञान मनोजन्य होते हैं-"मनोविषयो हि विभ्रमविषयः"-प्रमाणसमु० १.१९, वृत्ति समी इन्द्रियजन्य ज्ञान अभ्रान्त ही होते हैं । अत एव दि मा गने प्रत्यक्षलक्षणमें अभ्रान्त विशेषण देनेकी आवश्यकता नहीं समझी।
धोत्तरने मी धर्म की र्तिकृत प्रत्यक्षलक्षणगत अभ्रान्तपदकी दो व्याख्याएँ की है। एक व्याख्याके अनुसार तो उन्होंने कहा कि इन्द्रियप्रत्यक्षशान मी प्रान्त होते हैं। और दूसरी व्याख्याके अनुसार कहा कि अभ्रान्त विशेषणका व्यावर्य प्रान्त ऐसा अनुमान शान है। क्योंकि अनुमानका यथापि प्राय अनर्य-सामान्य है तथापि यह अनर्य-सामान्यमें अर्याध्यवसायी होनेसे विपर्यस्त है । जब कि प्रत्यक्ष अपने प्राय विषयमें विपर्यस्त नहीं होता । मत एव वह सर्वदा अमान्त ही होता है।
व्यवहारमें जिस शानको हम पृथग्जन प्रम कहते हैं उसका खरूप योगा चार बौद्धों ने अपनी दृष्टिसे इस प्रकार प्रतिपादित किया है कि अन्य दार्शनिक जैसा समझते हैं, "प्रमखलमें विषय कुछ और है और प्रतिभासित कुछ और होता है वस्तुतः ऐसी बात नहीं है। विद्यमें तत्व तो एक ही है और वह है विज्ञान । विज्ञान मिन कोई बास बस्तु है ही नहीं । यह सर्वप्रकाश विज्ञान मी प्रामग्राहकमावसे रहित है। ऐसी स्थितिमें अन्यमें अन्यका प्रतिभास संभव ही नहीं । योगा चार की दृष्टिसे वस्तुतः आन्तर तत्व विज्ञानका साकार ही वापरूपसे प्रतीत होता है । यदि प्रम है तो उसका अर्थ इतना ही समझना चाहिए कि अन्तस्तत्वमें बाघलपका भारोप है । उसका प्राधाहकरूपसे द्वैधीभाव करना ही अम है
"अविभागोपि घुयात्मा विपर्यासितदर्शनः । प्रायसाहकसंवितिमेदवानिव लक्ष्यते ॥" प्रमाणवा० २.३५४।
अर्थक अभावमें मी वासनाके कारण प्रतिभासमेद हो सकता है तक अतिरिक्त अर्यको माननेसे क्या लाभ ?
"कस्यचित् किधिदेवान्तर्वासनायाः प्रबोधकं । ततो पियां विनियमो न बाधाव्यपेक्षया ।" प्रमाणवा० २.३३६ ।
१. "अविकल्पमपि शानं विकल्पोत्पत्तिशक्तिमत्" तत्त्वसं० का०१३०६ । "वर्शनं पार्थसाक्षाकरणाल्यं प्रत्यक्षव्यापारः । उत्प्रेक्षणं विकल्पव्यापार!"-न्यायवि०टी०पू०२७। २. दुबिस्ट लोजिक माग १. पृ०१५६ । तत्वसं. पं० पू० ३९४।३. "वथानान्तहणेनापि भनुमाने निवर्तिते कल्पनापोडग्रहणं विप्रतिपत्तिनिराकरणार्थम् ।
प्रानुमानं खप्रतिमासेऽनडाबबसायेन प्रवृत्तत्वात् । प्रत्यक्षं तु माझे कमें न विपर्यसम् ।" ज्याववि. बुद्धिस्ट कोजिको संशोधितपाठ जो दिया गया है वही ऊपर उड़त किया है-भाग २०१७ । भा० ... १५५ । ४. "नायोऽनुमाव्यतेनाखि तख नानुभवोऽपरः । तखापि सुस्यवोचत्वार खयं सैव प्रकाशते" । प्रमाणवा० २.३२७॥
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पृ० २३. पं० १४]
टिप्पणानि । योगा चार की उक्त दृष्टिसे केवल शुक्तिकामें रजतप्रत्यय ही प्रान्त नहीं किंतु सभी सविषयक प्रत्यय प्रान्त हैं। योगा चार मानता है कि समी प्रत्ययों में ज्ञानकी अपनी ही ख्याति होती है अत एव आत्मख्याति मानना ही उचित है । ज्ञानोंमें प्रान्ताप्रान्तका विवेक लोकव्यवहारसे है। जब वस्तुतः बाध्यबाधकभाव ही नहीं घटता तब परमार्थतः ज्ञानोंमें प्रान्ताप्रान्तका विवेक करना संभव नहीं-प्रमाणवा० अ० पृ० २५७ । वही मु० पृ० २३ ।
सारांश यह है कि जितना मी वासनाका कार्य है चाहे वह संवादि हो या अविसंवादि वह सब मृषा-मिथ्या है । वासनाप्रतिबद्धत्व ही मिथ्यात्व है । इस न्यायसे पृथग्जनोंके सब व्यवहार वासनामूलक होनेसे परमार्थतः मिथ्या हैं । व्यवहारमें अविसंवाद होनेसे जहाँ पृथग्जन ज्ञानको अप्रान्त समझते हैं वहाँ वह अविसंवाद अविपरीतवासनाप्रबोधमूलक है । और जहाँ विसंवाद होनेसे पृथग्जन भ्रमका व्यवहार करते हैं वहाँ वह विसंवाद विपरीतवासनाप्रबोधमूलक है। अर्थात् दोनों स्थलमें वासनाप्रतिबद्धत्व समानरूपसे है । अत एव ये दोनों व्यवहार परमार्थतः मिथ्या है-"कथं तर्हि मृषात्वपरिक्षानम् ? । वासनाप्रतिषञ्चत्वज्ञानादेव । द्विविधं हि मृषार्थत्वम्-असदर्थत्वं विसंवादित्वं च । विसंवादित्वं विपरीतवासनाप्रबोधतः। अविपर्यासवासनाप्रबोधतच संवादित्वम् इति । ननु संवादश्चेदस्ति कथम. सदर्षत्वम्। भविसंवादाकारस्यापि वासनाप्रतिबद्धत्वात् । नाविसंवादिप्रतिभासेऽपि मर्थान्वयव्यतिरेकानुविधानमस्ति । एतदेवासदर्थत्वम्"-प्रमाणवा० अ० मु० पृ० ५८।
(५) ब्रह्माद्वैतवादिसंमत अनिर्वचनीयख्याति ।
प्रमाद्वैत वा दिके मतसे समी प्रपञ्च अविधाका विलास है । भा मती टीका में वा च स्पति. मिश्र ने भ्रमस्थलमें अनिर्वाच्यख्याति मानी है । उनका कहना है कि मरुमरीचिकामें जलज्ञानका विषय जो जल है वह सत् नहीं क्योंकि यदि सत् होता तो वह जलज्ञान मिथ्या नहीं कहलाता । वह जल असत् मी नहीं क्योंकि असत् से खपुष्पकी तरह तद्विषयक ज्ञान या प्रवृत्ति ही संभव नहीं । वह जल सदसद्रूप भी माना नहीं जा सकता क्योंकि एक तो इस पक्षमें पूर्वोक्त दोनों दोषोंकी आपत्ति होगी दूसरे विरोध के कारण सदसपका संभव भी नहीं । अत एव ज्ञानप्रतिभासित उस जलका सदसदादि किसी रूपसे निर्वचन' अशक्य होनेके कारण उसे अनिर्वचनीय ही मानना चाहिए । और उसकी ख्यातिको अनिर्वचनीय ख्याति मानना चाहिए।
भद्वैतवादिओंके मतसे एक ब्रह्म ही सद्रपसे निर्वचनीय है और बाकी सब अविचारूप होनेसे-मायिक होनेसे सदादि किसीरूपसे निर्वचनीय नहीं । अत एव अमस्थलमें आविधक रजत का प्रतिभास अनिर्वचनीय ख्यातिरूप मानना उचित है।
विज्ञानवादिओंकी आत्मख्याति और अद्वैतवादिओंकी अनिर्वचनीय ख्यातिमें नाममात्रका भेद है । दोनों बाह्य वस्तुको न सत् कहना चाहते हैं न असत् । दोनों ही आन्तरिक तस्वका
1. "सर्वे प्रत्ययाः मनालम्बनाः प्रत्ययस्वात् । इदमेव मनालम्बनत्वं यदारमाकारवेदनत्वम्"प्रमाणवा अ०म०पू०२२। २. "परमार्थतः सकलं स्वरूपविषयमेव, व्यवहारतोऽर्थविषयता" यह सिद्धान्त है मत एवं व्यवहारमें अर्थका बाध हो तो प्रान्त, भन्यथा भनान्त-वही पृ०९८।३.ब्रह्मसूत्र १.१.१. । प्रमेयक० पृ०५१ । १. चित्सुखी पृ०७९। ५. "विदारमा तु श्रुतिस्मृतीतिहासपुराणगोचरखन्मूलतदविल्वन्यायनिर्णीवशुद्धबुद्धमुकखभावः सत्वेनैव निर्वाभ्योऽवाधिवः ।"भामती १.१.१.
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टिप्पणानि ।
[पृ० २३. पं० १४ही बाह्यरूपसे प्रतिभास मानते हैं । आन्तरिक तत्त्वको एकने विज्ञान कहा है और दूसरेने अविया । एकके मतसे विपरीत वासनाके कारण एकरूप विज्ञान का द्वैधीभाव होकर उसकी प्राह्यमाहकरूपसे प्रतीति होती है । और दूसरेके मतसे वस्तु सत् नहीं किन्तु अविधानिष्पनअविद्योपादानक रजतकी प्रतीति होती है।
(६) मीमांसकसंमत अलौकिकार्थख्यातिवाद । .
जिस प्रकार सांख्य अविधमानका ज्ञानमें प्रतिभास नहीं मानते उसी प्रकार कुछ मी मां सक मी अविद्यमानका प्रतिभास नहीं मानते । उनका कहना है कि दूसरे लोक शुक्तिकामें रजत
य मानकर उसे विपरीत प्रत्यय कहते हैं सो ठीक नहीं । ज्ञानमें इस प्रकारका विपर्यय संभव नहीं है कि विषय कुछ और हो प्रतिभासित कुछ और हो । उन मी मां स कों के मतानुसार वस्तुतः अर्थ दो प्रकारका है । एक व्यवहारसमर्थ और दूसरा व्यवहारासमर्थ । व्यवहारसमर्थ अर्थ लौकिक कहा जाता है और दूसरा अलौकिक । भ्रम माने जानेवाले रजतप्रत्ययका विषय लौकिक रजत नहीं किन्तु अलौकिक रजत है । रजतप्रत्ययमें प्रतिभासित होनेसे वह रजत है पर व्यवहारासमर्थ होनेसे अलौकिक है। ___ मीमांसक सोचते हैं कि ज्ञानमात्रको निरालम्बन तो मान नहीं सकते क्योंकि ऐसा मानने पर विज्ञानवाद और शून्यवादको अवकाश मिलता है । पर दूसरी और प्रमस्थलमें रजतके अभावमें मी रजत प्रत्ययका होना स्पष्ट है । यदि सिर्फ प्रमस्थलमें ज्ञानको निरालम्बन माना जाय तब. मी पूर्वोक्त दोनों बौद्ध वादोंको अवकाश मिल जाता है । ऐसी स्थितिमें क्या किया जाय इसी चिन्तामेंसे मी मां स क ने यह रास्ता निकाला कि अमस्थलमें रजतको अलौकिक माना जाय । ऐसा मानने पर फलित यह हुआ कि अमस्थलमें रजतसाध्य क्रियाका अभाव रजतकी अलौकिकताके कारण है न कि रजतके अभाव के कारण ।
परन्तु मी मां सकका यह नया मार्ग भी कण्टकरहित नहीं है । क्योंकि यदि अर्थक्रियाकी निष्पत्ति न करना यही अलौकिकताकी कसौटी है तो खमप्रत्ययमें भासमान योषिद् आदि अर्थ अर्थक्रियाकारी होनेसे लौकिक ही सिद्ध होगा। इसी तरह जब कूटकार्षापणसे सत्यकार्षापणसाध्य अर्थक्रियाकी निष्पत्ति होती है तब उसे कूट क्यों कहा जाय ।
(७) प्रभाकरसंमत अख्यातिवाद ।
वृद्ध मी मां सकों ने नै या यि का दि की तरह विपरीत ख्याति मानी है किन्तु प्रभाकरने मीमांसक संमत खतः प्रामाण्यवादके साथ उस विपरीतख्यातिवादका स्पष्टतः विरोध देखा । उन्होंने तर्क किया कि यदि कोई ज्ञान अयथार्थ भी हो, मिथ्या भी हो, विपरीत भी हो तब यथार्थज्ञानका खतःप्रामाण्य घट नहीं सकता, जो कि मी मां स क का मुख्य सिद्धान्त है। क्योंकि यथार्थ ज्ञानमें भी सहज शंकाका अवकाश रहेगा कि यह ज्ञान मिथ्या तो नहीं है। उस शंकाको दूर करने के निमित्त यथार्थ ज्ञानको अबाधित सिद्ध करने के लिए बाधकाभावका निर्णय आवश्यक हो ही जाता है । अर्थात् बाधकामावनिश्चय सापेक्ष ही प्रामाण्य निश्चय होने के कारण यथार्थ ज्ञान भी परतः प्रमाण सिद्ध होगा न कि खतः।
१. न्यायमं० पृ० १७२। अष्टस० पृ० २५५।
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पृ० २३. पं० १४]
टिप्पणानि ।
१६७
दूसरा तर्क प्रभाकर ने यह भी किया कि यदि अन्यदेशस्थ रजतका अन्यत्र भान हो जाय तब अत्यन्त असत् का भी भान क्यों न हो ? । भ्रमस्थलीय विवक्षित देशमें जब अन्यत्र सत् और अत्यन्तासत् का असत्त्व समान ही है । तब शून्यवाद ही फलित होगा । अत एव विपरीतख्याति माननेका मतलब होगा कि शून्य वा दको अवलम्बन देना ।
उक्त इन दोनों दोषोंसे बचनेके लिए प्रभाकर ने अख्यातिवादका एक नया मार्ग निकाला । यही मार्ग अग्रहण विवेकाग्रहण, स्मृतिप्रमोष और विवेकाख्याति के नामसे व्यवहृत होता है ।
भाकर कहता है कि यह संभव नहीं कि चक्षुरादि इन्द्रियोंका संपर्क तो किसी अन्यसे हो पर प्रत्यक्ष ज्ञान हो अन्यविषयक – "तस्मात् सूक्तम् - अन्य संप्रयुक्ते चक्षुष्यन्यविषयं शानं न प्रत्यक्षम् - इति” - बृहती पृ० ६६ ।
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शबरखामिने अपने भाष्यमें वृत्तिकार का प्रत्यक्षविषयक मत उद्धृत किया है । वृत्तिकारके शब्द ये हैं- " यत् प्रत्यक्षम् न तत् व्यभिचरति, यत् व्यभिचरति न तत् प्रत्यक्षम् । किन्तर्हि प्रत्यक्षम् ?, तत्संप्रयोगे पुरुषस्य इन्द्रियाणां बुद्धिजन्म सत्प्रत्यक्षम् । यद्विषयं ज्ञानं तेनैव संप्रयोगे इन्द्रियाणां पुरुषस्य बुद्धिजन्म सत्प्रत्यक्षम् यदन्यविषयज्ञानमन्यसंप्रयोगे भवति न तत् प्रत्यक्षम् ” शाबर० १.१.५. ।
वृत्तिकार को सामान्यतः इतना इष्ट है कि प्रत्यक्ष और व्यभिचारि ये दो परस्पर विरुद्ध हैं । अन्यके संप्रयोगसे अन्य विषयक ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता अर्थात् सत् प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता प्रत्यक्षाभास - भ्रान्त प्रत्यक्ष भले ही कहा जाय । किन्तु प्रभाकर उसका मतलब कुछ और समझता है । प्रभाकरका मन्तव्य है कि चक्षुका संप्रयोग जिस आकारयुक्त वस्तुके साथ है उसी आकारको विषय करनेवाला प्रत्यक्ष ज्ञान हो सकता है । चक्षु किसी अन्यसे संप्रयुक्त हो और तदुत्पन्न ज्ञानका विषय कोई अन्य ही हो यह बात असंभव है । क्योंकि यदि असंप्रयुक्त आकारको भी प्रत्यक्ष ज्ञानका विषय माना जाय तब अन्धपुरुष भी शुक्तिकामें रजतका प्रत्यय हो जाना चाहिए। जैसे चक्षुष्मान् को भ्रमस्थलमें रजतके साथ चक्षुसंपर्क नहीं उसी प्रकार अन्धको भी नहीं है । फिर भी अन्धको शुक्तिकामें रजत प्रत्यय नहीं होता और चक्षुष्मान् को होता है । अत एव प्रभाकर मानता है कि सभी प्रत्यक्ष ज्ञान यथार्थ ही होते हैं । जिस प्रत्ययमें जो आकार प्रतिभासित होता है वही उसका वेद्य - विषय - आलम्बन है और जो प्रतिभासित नहीं होता वह अवेद्य - अविषय - अनालम्बन है । अत एव
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१. " भवता शून्यवाद-परतः प्रामाण्यप्रसक्तिभयात् स्मृतिप्रमोषोऽभ्युपगतः, विपरीतख्याती तयोरariभावित्वात् " - सन्मति० टी० पृ० २७ पं० ३८ । २. "कथं तर्हि विपर्ययः १ । अग्रहणादेवेति वदामः " - बृहती पृ० ६६ । ३. बृहती० पं० पृ० ६६ । ४. बृहती पृ० ७३ । ५ विवेक मेद, अक्याति=अग्रह=अग्रहण प्रकरणपं० नयवीथिप्रकरण पृ० ३३,३४ । न्यायकु० पृ० ५२ । ६. "न झम्यसंप्रयुक्ते चक्षुषि अन्यालम्बनस्य ज्ञानस्य उत्पत्तिः संभवति, अन्धस्यानुत्पादाद इत्युकम् । मत एवेदमुच्यते- नान्याकार मालम्बनमन्याकारस्य ज्ञानस्योत्पत्तिहेतुः इति" - बृहती पृ० ६४ । ७. " यथार्थ सर्वमेवेह विज्ञानमिति सिद्धये । प्रभाकरगुरोर्भावः समीचीनः प्रकाश्यते ॥ १ ॥ " प्रकरणपं० पृ० ३२ ।
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टिप्पणानि ।
[४० २३. पं० १४रजन प्रत्ययमें रजत ही को आलम्बन मानना उचित है, शुक्तिकाको नहीं । क्योंकि अन्यमें अन्यका भान प्रतीतिपराहत है। .
इसीसे अमस्थलमें रजतप्रत्यय प्रत्यक्ष नहीं हो सकता 'न तत् प्रत्यक्षं किन्तु 'स्मरण' है। जब कोई पुरुष रजतसहश शक्तिकाका प्रत्यक्ष कर रहा हो पर वह किसी इन्द्रियादिगत दोषके कारण रजत और शुक्तिकाके भेद - वैलक्षण्यका ग्रहण न करके मात्र दोनों के सादृश्यका ही ग्रहण करे तब उस पुरुषको ऐसे सादृश्यविषयक प्रत्यक्ष ज्ञानसे रजतविषयक स्मरण हो जाता है। वह पुरुष मनोदोषके कारण उस प्रत्यक्ष और स्मरण ज्ञानके भेदका तथा प्रत्यक्षविषय शुक्तिका और स्मरणविषय रजतके पारस्परिक भेदका भी ग्रहण कर नहीं पाता । ऐसी दशामें वह शुक्तिकाको ही रजत कह देता है । एकत्वाध्यवसायके कारण जो भेदाप्रह-विवेकाख्याति-स्मतिप्रमोष होता है वही विपर्यय-भ्रम कहा जाता है-"कथं तर्हि विपरीतप्रहाः? । उच्यते विषयान्तरं सहशमवलम्ब्यागृहीतविवेकं यत ज्ञानमत्प तत् सरशविषयान्तरे स्मृतिशानहेतुतां प्रतिपद्यते-'मरामि' इति हानशून्यस्य"बृहती पृ० ६५ । प्रकरणपं० ३४।
सारांश यह है कि वृत्ति कार ने इस रजत प्रत्ययको जहाँ 'न तत् प्रत्यक्षं इतना ही कहा था, प्रभाकर उसे स्मरण कह देता है । अर्थात् प्रभाकरके मतसे वह रजत ज्ञान प्रत्यक्षाभासमिथ्या प्रत्यक्ष नही किन्तु यथार्थ स्मरण है इस प्रकार 'इदं रजतम्' यह एक ज्ञान नहीं किन्तु दो ज्ञान है-'इदं' विषयक प्रत्यक्ष और रजतविषयक स्मरण । जब अन्य दार्शनिकोंने इसे एक ही ज्ञान माना है तब प्रभाकर ने 'सर्व ज्ञानं यथार्थ' इस सिद्धान्तकी रक्षा करने के लिए इसे दो ज्ञानोंमें विभक्त किया है ।
जयन्त ने प्रभाकर संमत विवेकाख्याति का प्रबल खण्डन किया है । जयन्त ने प्रत्यभिज्ञाके दृष्टान्तसे 'इदं रजतम्' इस प्रत्ययको एक-अखण्ड सिद्ध किया है-न्यायमं० पृ० १६६ ।
और स्पष्ट आक्षेप किया है कि प्रभाकर का यह सिद्धान्त धर्म की र्तिसे चुराकर लाया गया है-"श्रुतमिदं यदा भवद्भिः धर्मकीर्तिगृहावाहतं 'श्यविकल्प्यावावेकीकृत्य प्रवर्तते' इति"।-पृ० १६७ । धर्मकीर्तिने जैसे दृश्य और विकल्प्यके एकत्वाध्यवसायसे प्रवृत्ति मानी है वैसे ही प्रभा करने भी स्मरण और अनुभवको एक मान करके पुरुषकी प्रवृत्ति अनुभूत शुक्तिकामें ही मानी है । जयन्त का कहना है कि प्रभाकर की वह चोरी भी उसके स्वार्थको पुष्ट नहीं करती-पृ० १६७ ।
भखिरमें जयन्तने यह भी कह दिया है कि खतःप्रामाण्यकी रक्षाके लिये तथा शून्यवादका निरास करने के लिये जो प्रभा करने यह नया वाद स्थापित किया है सो ठीक नहीं । इससे न तो परतःप्रामाण्य निरस्त होता है और न शून्यवाद ही । इसके निरासके लिये कुछ और ही युक्ति देना चाहिए"न चैतथापि परतः प्रामाण्यमपहन्यते । न चैष शून्यपादस्य प्रतिकारक्रियाक्रमः ।
१.मत्र भूमो य एवार्थों यस्यां संविदि भासते । वेषः स एव नान्यति वेद्यावेचस्य लक्षणम् ॥ २३॥ इदं रजतमित्यत्र रजतबावभासते । तदेव तेन वेचं स्यात् न तु शुक्तिरवेदनात् ॥ २४॥ तेनान्यस्यान्यथा भानं प्रतीत्यैव पराहतम् । परमिन् भासमाने हि न परं भासते यतः ॥ २६ ॥" प्रकरणपं०पृ०३३ ।
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०२३. पं० १४]
टिप्पणानि ।
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अथास्ति काचित् परतः प्रामाण्यस्य निषेधिका । शून्यवादस्य या युक्तिः सैव वाच्या किमेतया ॥" - न्यायमं० पृ० १६९ ।
८ - नैयायिकादिसंमत विपरीतख्याति ।
न्याय-वैशेषिक, जैन, कु मा रिल आदिको विपरीतख्याति इष्ट है। पूर्वोक्त ख्यातियोंसे विपरीतख्यातिका बैलक्षण्य स्पष्ट है । प्रभाकर की तरह दो ज्ञान नहीं किन्तु एक ही प्रत्यय मानकर सभी विपरीतख्यातिवादी श्रमकी उपपत्ति करते हैं। विपरीतख्यातिवाद के अनुसार बाह्य वस्तुएँ सर्वथा ज्ञानरूप या शून्यरूप या सर्वत्र सत् रूप नहीं है, अतएव इस बादमें आत्म ख्याति या असत् ख्याति या सत् ख्याति को अवकाश नहीं है । विपरीतख्यातिवाद में बाह्य वस्तुओंका निर्वचन शक्य है अत एव इस वादमें अनिर्वचनीयख्याति भी संभव नहीं । बाह्य वस्तुओंका लौकिकालौकिक रूपसे विभाग भी विपरीतख्यातिवादको मान्य नहीं । अत एव इस वादमें अलौकिकख्यातिको भी अवकाश नहीं । विपर्ययका मतलब यह है कि अन्य आलम्बनमें अन्य प्रत्ययका 1 होना । शुक्तिकामें शुक्तिकाप्रत्यय ही अविपरीत प्रत्यय है और रजतप्रत्यय विपरीत, जो कि इन्द्रियादिके गुण दोषोंका फल है । दोषके कारण शुक्तिका निजरूपसे प्रत्यक्ष न होकर रजतरूपसे दिखती है । रजतसदृश शुक्तिकाके दर्शनजन्य रजत - स्मृतिके कारण शुक्तिकामें ही रजतका दर्शन होता है । अर्थात् हृदयमें परिस्फुट रजतका बाह्य शुक्तिमें दर्शन करना ही रजतविपर्यय है । बाह्यार्थ रजत नहीं पर शुक्तिका है अतएव यह प्रत्यय विपर्यय है' । शुक्तिका में रजत दर्शन रजतस्मृतिजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान है, न कि स्मृति । यही स्मृतिप्रमोष और विपरीतख्यातिका भेद है ।
४ - दोषमीमांसा |
किसी दार्शनिकने भ्रमज्ञानको निर्दोष नहीं माना है । अत एव समीने अपनी अपनी दृष्टि से दोषोंकी मीमांसा की है ।
उद्योतकर ने स्पष्ट कहा है कि विपर्ययज्ञानमें ज्ञानको व्यभिचारि मानना चाहिए अर्थको नहीं । निरुक्त कार के वचनको उद्धृत करके वाचस्पति मिश्रने कहा है कि 'स्थाणुको अन्ध पुरुष नहीं देखता यह कोई स्थाणुका अपराध नहीं है, यह अपराध तो पुरुषका है।' वैसे ही इन्द्रियसे प्रथम मरीचिकाका निर्विकल्पकज्ञान होता है पर जब सविकल्पकज्ञानका अवसर आता है तब मरीचिकासे उपघात होनेके कारण इन्द्रिय अपना कार्य ठीक ठीक कर नहीं पाती अतएव विपर्यय हो जाता है । अर्थात् मरीचिविषयक जलप्रत्ययरूप सविकल्पकज्ञान हो जाता है । सारांश यह है कि दोष अर्थका नहीं, द्रष्टाका है या उसके साधनका है ।
प्रशस्तपाद को भी यही विचार मान्य है - देखो पृ० ५३८ । व्यो० ५३९ ।
बौद्धों के मत से ऐन्द्रियक प्रत्यक्षमें इन्द्रियोंकी ही मुख्यता है । अत एव बौद्धों ने माना है कि
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१. “सपदार्थदर्शनोभूतस्मृत्युपस्थापितस्य रजतस्याश्र प्रतिभासनमिति । ... ... हृदये परिस्फुरतोsधेस्य बहिरवभासमम् । न चैतावतेयमात्मख्यातिर सख्यातिर्वेति वक्तव्यम् । विज्ञानाद्विच्छेदप्रतीतेः अत्यन्तादर्थप्रतिभासाभावाचेति । अत एव पिहितखाकारा परिगृहीतपराकारा शुक्तिकैवात्र प्रतिभातीति" न्यायमं० पृ० १७० । २ देखो न्यायथा० पृ० ३७ । तात्पर्य पृ० १३२ ।
न्या० २२
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१७०
टिप्पणानि ।
[पृ० २३. पं० १४अधिपतिके दोषके कारण ही मिथ्याप्रत्यय होता है। अन्य जितने भी दोष हों वे सभी मिलकर इन्द्रियोंमें ही विकार करते हैं। जब तक इन्द्रियाँ विकृत नहीं होती तबतक मिथ्याज्ञानका संभव नहीं।
जैन दृष्टिसे आत्माकी मुख्यता है । अत एव उसके अनुसार मुख्य रूपसे प्रमाताका ही दोष भ्रमका निमित्त है । समी दोष मिलकर प्रमाताको ही विकृत कर देते हैं तब प्रमाता भ्रान्तज्ञान करता है । शुक्तिका मौजुद हो, इन्द्रिय निर्दोष हो, आश्रय मी दोषमुक्त हो फिर मी यदि प्रमाता शुक्तिकामें रजतमान करता है तो वह उसीका दोष है । जहाँ विषय, साधन आदिका दोष हो वहाँ भी वह दोष आत्माकी मोहावस्था ही के कारण अपना कार्य करता है । इस लिये जैन दृष्टि यही मानती है कि अन्य समी दोष आत्मदोषके सहायक होकर ही मिथ्याप्रत्ययके जनक हैं, पर मुख्यतया जनक आत्मदोष मोह ही है ।
मी मांस कों ने इन्द्रिय, मन और बाह्य अर्थ इन तीनोंमेंसे किसी एकके दोषके कारण भ्रान्तज्ञानकी उत्पत्ति मानी है । भ्रान्तज्ञान उत्पन्न हुआ मी हो पर यदि दोषज्ञान हुआ न हो तो पुरुष उस ज्ञानको प्रमाण मान कर ही प्रवृत्त होता है। जब तक बाधक प्रत्यय न हो तब तक अमज्ञान प्रमाण ही माना जाता है । जब बाधक प्रत्यय उत्पन्न होकर मिथ्यात्वकी प्रतीति करा देता है तमी वह प्रवर्तकज्ञान प्रान्त माना जाता है।
इसी प्रकार अद्वैतवादिओंका कहना है कि मुख्य दोष अविद्या, वासना, माया, अभ्यास ही है । उसीके कारण इन्द्रियों में विकृति होनेसे अमकी उत्पत्ति होती है ।
५- प्रत्यक्षेतर भ्रम। यहाँ तक जो विवेचन किया गया है वह प्रत्यक्षश्रम का है । जैन दर्शन में मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानोंमें विपर्यय होनेकी मान्यता है । अवधिज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष है। मतिज्ञान परोक्ष है किन्तु व्यावहारिक दृष्टिसे इन्द्रियजमतिज्ञान प्रत्यक्ष मी कहलाता है । पर भुतज्ञान तो परोक्ष ही है । अत एव प्रत्यक्ष और परोक्ष उभय ज्ञानोंमें जैनदर्शनके अनुसार भ्रम का संभव है । इसी बातका स्पष्टीकरण वि यानन्द ने बहुत ही सुंदर ढंगसे किया है।
विधा नन्द ने विपर्ययके सहज और आहार्य ऐसे दो भेद किये हैं। उपदेशके बिना होनेवाला विपर्यय सहज है, जब कि उपदेश से होनेवाला विपर्यय आहार्य है।
१. "सवैरेव च विभ्रमकारणैः इन्द्रिय-विषय-बाह्माध्मिकाश्रयगतैरिन्द्रियमेव विकर्तव्यम् । अविकृत इन्द्रिय इन्द्रियनान्स्ययोगात्" न्यायबि० टी० पृ०१७। २. "मिथ्यात्वं त्रिषु बोधेषु दृष्टिमोहोदयानवेत् ॥ १४ ॥ यथा सरजसाकाबूफलस्य कटुकस्वतः। क्षितस्य पयसो बटः कटुभावस्तथाविधः ॥ १९॥ तथारमनोऽपि मिथ्यास्वपरिणामे सतीप्यते । मत्यादिसंविदां तादृचिभ्यावं कस्यचित् सदा ॥२०॥ तत्त्वार्थश्लो० पृ०२५६ । ३. "याधकं हि यत्र ज्ञानमुत्पद्यते 'नैतदेवं, मिथ्याज्ञानम्' इति तदन्यसंयोगे
विपरीतं ..."यदा हि चक्षुरादिभिरूपहतं मनो भवति, इन्द्रियं वा तिमिरादिभिः, सौम्यादिभिर्बाझो .. वा विषयः ततो मिथ्याज्ञानम् । अनुपहतेषु हि सम्यग्ज्ञानम् ।.......कथं दुष्टादुष्टावगम इति चेत् ।
प्रयलेनान्विच्छन्तो न चेहोषमवगच्छेमहि प्रमाणाभावाददुष्टमिति मन्येमहि । तमाघस्य च दुष्टं करणम् , पत्र व मिथ्येति प्रत्ययः, स एवासमीचीनः प्रत्ययो नाम्य इनि" शाबर० १.१.५ । १. "मतिश्रुतावश्चयो विपर्ययन" तत्वार्थ० १.३२। ५. तत्त्वार्थश्लो० पृ०२५७ ।
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पृ० २३. पं० १४]
टिप्पणानि ।
१७१
मतिज्ञानके अवग्रहादि धारणापर्यंत भेदोंमें जो विपर्यय है वह सहज है क्योंकि उसमें उपदेशकी अपेक्षा नही है । धारणाका एक विशेषमेद स्मृति है उसमें भी सहज विपर्यय है । स्मृति परोक्षज्ञान है । अननुभूत वस्तुका अनुभूतरूपसे स्मरण ही स्मृतिविपर्यय है ।
प्रत्यभिज्ञानका अम युगपज्जातशिशुमें स्पष्ट है । या सदृश 'घट' शब्दको सुनकर 'यह वही 'घट' शब्द है जो मैंने पहले सुना था' ऐसा ज्ञान करना प्रत्यभिज्ञानभ्रम है । सादृश्यमें एकताका ज्ञान होनेसे यह भ्रम कहा जाता है। वस्तुतः सभी शब्द वक्ता के प्रयत्नसे उत्पन्न होते हैं किन्तु मीमांसक भिन्न शब्दोंको भी सादृश्यके कारण एक समझ कर नित्य मानता है । अत एव उपर्युक्त प्रत्यभिज्ञान जो मीमांसक को होता है वह प्रत्यभिज्ञाभास है । क्योंकि विषय है तिर्यम्सामान्य किन्तु उसमें वह ऊर्ध्वता सामान्यका बोध करता है ।
इसी प्रकार लिङ्गलिङ्गिसंबंधज्ञानरूप तर्क भी विसंवाद होने पर विपरीत कहा जाता है । स्वार्थानुमानस्थलमें हेत्वाभासजन्य लिङ्गिज्ञान अनुमानका विपर्यय है ।
स्मृति, प्रत्यभिज्ञान तर्क और खार्यानुमान ये परोक्ष मतिविशेष हैं । उक्त रीति से समी मत्यज्ञान सहज विपर्यय है ।
श्रुताज्ञान जो चक्षुरादिमतिपूर्वक है वह सहज विपर्यय है । क्योंकि वह परोपदेशनिरपेक्ष होता है । किन्तु श्रोत्रमतिपूर्वक श्रुताज्ञान आहार्य विपर्यय है, क्योंकि वह उपदेशसापेक्ष है ।
1
श्रुताज्ञानरूप आहार्य विपर्ययके वि या नन्द ने दो भेद किये हैं । एक सद्विषयक और दूसरा असद्विषयक | प्रथमके जो उदाहरण उन्होंने दिये हैं उनमें से कुछ ये हैं
(१) खरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षासे सर्व वस्तुओंके सद्रूप होने पर मी शून्य वा द
मानना ।
(२) अ - प्राह्मग्राहकभाव होने पर भी विज्ञान वा द ।
ब - कार्यकारणभाव होने पर भी ब्रह्मा द्वै त ।
क - वाक्यवाचकभाव होने पर मी शब्दा द्वै त ।
(३) अ - सर्व वस्तुओंमें सादृश्यके होने पर मी तथागत संमत वैसादृश्यवाद । ब - सर्वं वस्तुओंमें एकत्व होने पर भी सर्वथा सादृश्यका स्वीकार ।
(४) द्रव्य और पर्यायमें मेदाभेद होने पर भी नै या यिक संमत अत्यन्त भेद । (५) जीवका अस्तित्व होने पर भी चार्वा क संमत नास्तित्व ।
(६) अजीवका अस्तित्त्र होने पर भी ब्रह्मवाद ।
इसी प्रकार असद्विषयक आहार्य विपर्यय के विषयमें विद्यानन्द ने ये उदाहरण दिये हैं(१) सभी वस्तुएँ पर द्रव्यादिकी अपेक्षासे असत् होने पर भी सदेकान्तवादका स्वीकार । (२) अ - प्रतीत्यारूढ प्रायग्राहकभाव नहीं होने पर मी योगा चार संमत प्रतीत्यारूढ
ग्राह्यग्राहकभाव ।
इसी प्रकार उपर्युक्त 'सत्' पक्षके उदाहरणोंसे उलटा असत् पक्षमें घटा लेना चाहिए । अवधिज्ञानका विपर्यय विभंग नामसे प्रसिद्ध है । उसका सहज विपर्यय ही होता है । क्योंकि वह परोपदेशसापेक्ष नहीं है ।
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१०२
टिप्पणानि । [१० २३. पं० २८विपानन्द ने विस्तारसे विपर्ययका विवेचन किया है उसमें जो आहार्य विपर्यय है उसके उदाहरणोंमें समी दार्शनिकोंके मतसे मेद हो सकता है । क्योंकि जैनों के मतसे अमवाद आहार्य विपर्यय है जब कि ग्रामवाद के अनुसार मेद वाद ही आहार्य विपर्यय है । इसी प्रकार समी दार्शनिक खखशासजन्य ज्ञानको सम्यग् मानते हैं और अन्यान्य शासजन्य ज्ञानको विपरीत मानते हैं।
प्रशस्त पादने खागम दृष्टि से ऐसे आहार्य विपर्ययोंका वर्णन किया है और व्यो म शिवने उसका पल्लवन किया है-देखो० व्यो० पृ० ५४२ ।
६-प्रामाण्यचिन्ता।
जैन दर्शन संमत अनेकान्त वाद की व्यापकतामें ऐसा संदेह किया जाता है कि यदि अनेकान्त सर्वव्यापक है तब प्रमाण मी अप्रमाण होना चाहिए और अप्रमाण मी प्रमाण होना चाहिए । अन्यथा अनेकान्तको सर्ववस्तुन्यापि कैसे कहा जा सकता है। इस शंकाका समाधान विपानन्द ने विम ज्यवाद का आश्रयण करके किया है। उस प्रसंगमें कलंक की युक्तियोंका आश्रयण करके विया नन्द ने भ्रम ज्ञानका भी प्रामाण्य सिद्ध किया है । इन्द्रियदोषजन्य चन्द्रहपदर्शनमें संख्याशके विषयमें विसंवाद होनेके कारण संख्याज्ञान प्रमाण है सही पर चन्द्र के खरूपांशमें तत्त्वज्ञान-सम्यग्ज्ञान - अविसंवादि ज्ञान होने से, उस अंशमें वह हान प्रमाण ही है । अत एव कोई भ्रम एकान्ततः प्रम नहीं कहा जा सकता । हानोंमें प्रामाण्येतर व्यवस्था प्रायशः संकीर्ण है-"तेन प्रत्यक्षतदामासयोरपि प्रायशः संकीर्णप्रामाण्येतरसितिरन्नेतबा प्रसिद्धानुपडतेन्द्रियहरपि चन्द्रार्काविषु देशमस्यासत्याच. भूताकारावमासनात, तथोपहतासादेरपि संक्यादिविसंवादेपि चन्द्रादिस्वभावतत्वो. पलम्भाव।"- अष्टशती का० १०१।
यदि किसी ज्ञानमें प्रामाण्य या अप्रामाण्य नियत नहीं है तब किसी एक ज्ञानको प्रमाण और दूसरेको अप्रमाण कहा जाता है सो कैसे सिद्ध होगा। इस प्रश्नके उत्तरमें अकलंकने कहा है कि संवाद या विसंवादके प्रकर्षकी अपेक्षासे प्रामाण्य या अप्रामाण्यका व्यवहार किया जाता है। जैसे कस्तुरिकादि द्रव्यमें स्पर्शादि गुणोंकी अपेक्षा गन्धगुणकी मात्रा उत्कट होने से वह गन्धद्रव्य कहा जाता है वैसे ही जिस ज्ञानमें संवादको अपेक्षा विसंवादकी मात्रा अधिक हो उसे अप्रमाण कहा जाता है । भ्रमज्ञानोंमें संवादकी अपेक्षा विसंवादकी मात्रा अधिक है अत एव व्यवहारमें उन्हें अप्रमाण कहा जाता है-"तत्मकर्षापेक्षया व्यपदेशव्यवस्था गन्धादिद्रव्यपद्" -अष्टश० का० १०१ ।
एक और दृष्टि से मी अममें प्रामाण्याप्रामाण्यका विचार हो सकता है । खपरप्रकाशवादी जैन-बोद्ध दृष्टिसे समी प्रमझान खपरसंवेदि हैं । अत एव वे खांशमें प्रमाण और परांशमें
प्रमाण हैं-"खरूपे सर्वमभ्रान्तं पररूपे विपर्ययः" । प्रमाणवा० अ० म० पृ० ४१ । आप्तमी० का० ८३।
पृ० २३. पं० २८. 'विपरीतख्याति विपरीतख्यातिके खण्डन-मण्डनके लिऐ, देखो 1. मशती का० १०१ । भएस० पृ० २७६ । तत्स्वार्थश्लो० पृ० १७०।
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पू० २५. पं० १०]
टिप्पणानि ।
न्या यकुमुद चन्द्र और उस पर संपादककृत टिप्पणियाँ पृ० ६४-६६ । तथा प्रमेयक पृ० ५२-५९।
४० २३. पं० २९. 'स्मृतेः प्रमोष' प्राभा क र समत स्मृतिप्रमोषका विस्तृत खण्डन सर्वप्रथम प्रज्ञा करगुप्त ने किया जान पडता है। देखो प्रमाणवा० अ० पृ० २५८ । तथा मुद्रित पृ० १८। तदनन्तर अन्य दार्शनिकोंने भी तदनुसारी खण्डन किया है । देखोन्यो० पृ० ५३९ । न्यामं० पृ० १६४ । तत्त्वो० पृ० १७ । तात्पर्य० पृ० ८७ । सन्मति. टी० पृ० २७,३७२ । न्यायकु० पृ० ५२ । स्याद्वादर० पृ० १०४ । शास्त्रदी० पृ. ४९ । स्मृतिप्रमोषकी स्थापनाके लिये देखो बृहती० पृ० ६४,६६,७३ । प्रकरणपं० पृ० ३२ । पृ० २४. पं० १४. 'वक्ष्यामः' देखो, ६१७. पृ० २४. पं० १७. 'अलौकिकत्वम्' अलौकिकख्याति मी मां स कै क दे शी को मान्य है। देखो प्रमाणवा० अ० पृ० २५८ । न्यायमं० पृ० १७२ । कन्दली पृ० १८१ । न्यायकु० पृ० ६४ । स्याद्वादर० पृ० १३४।।
पृ० २५. पं० ३. 'प्रमाणाभावात् सन्मतिटीकामें भेदग्राहक प्रमाणाभावका जो विस्तारसे वर्णन है उसीका संक्षेप शान्त्या चार्य ने किया जान पडता है । देखो सन्मति० टी० पृ० २७३, पं० १९ । शब्दसादृश्यके लिये देखो न्यायकु० पृ० १४९ ।
पृ० २५. पं० १०. 'गजविकल्पायते' हरिभद्र सूरिने यो गड ष्टि स मु च य में कुतर्कके उदाहरणमें हस्तिविषयक प्राप्ताप्राप्तविकल्पोंका उल्लेख किया है और उनकी निःसारता बताई है। अत एव विकल्पोंकी निःसारता बतानेके लिये 'गजविकल्पायते' यह प्रयोग रूढ है ऐसा समझना चाहिये । उस प्रन्थका पाठ यह है - "जातिमायश्च सपोऽयं प्रतीतिफलबाधितः । हस्ती व्यापादयत्युक्तो प्रासाप्राप्तविकल्पवत् । ९१ ॥ जातिप्रायम दूषणामासप्रायन सोऽयं कुतर्कः । प्रतीतिफलबाधित इति कृत्वा । एतदेवाह-'हस्ती व्यापादयति' उक्ती मेण्डेन । किमिवेत्याह-माताप्राप्तविकल्पवत् । कवियायिकच्छात्रः कुतबिदागच्छन् अवशीभूतमत्तहस्त्याकडेन केनचिदुका 'भो भोर, परितमपस हस्ती घ्यापादयति' इति पोतदाऽपरिणतन्यायशाल भाह-रेरे बठर किमेवं युक्तिवाचं प्रलपसि। तथाहिकिमयं प्राप्तं व्यापादयति, किंवाऽप्राप्तमिति । आद्यपक्षे भवत एवं व्यापत्तिप्रसकर, प्राप्तिभाषात् ।' एवं यावदाह तायद्यस्तिना गृहीतः स कथमपि मेण्डेन मोचित इति ।" योगह पृ० ९१।
प्राप्ताप्राप्त विकल्पोंके अलावा गजविकल्पोंका एक दूसरा रूप भी वादी दे वसूरि ने दर्शाया है। और उपसंहारमें कहा है कि इन विकल्पोंसे जैसे हस्तीके खरूपका अपलाप नहीं किया जा सकता वैसे ही अप्रामाणिक विकल्पोंसे प्रमाणसिद्धका निरास नहीं किया जा सकता। विकल्प ये हैं-"किामदं मन्धकारनिकुरम्बं मूलकान् कवलयति, किं वा धारिवादोऽय बलाकावान् वर्षति गर्जति च। यद्वा बान्धवोऽयं-'राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः' इति परमाचार्यवचनात् । अथवा योऽयमासनमेदिनीपृष्ठप्रतिष्ठायी पुरुषस्तस्य छायेयं स्त्यानीभूतेति ॥" स्याद्वादर० पृ० १४५।
पृ० २५. पं० १०. 'मेद' मेदसाधकप्रमाणोंके विस्तारके लिये देखो, सन्मति० टी० पृ० २८५ | शम्दसादृश्यके लिये-न्यायकु० पृ० १५३ ।
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१७४
टिप्पणानि । [पृ० २५. पं० १२पृ० २५. पं० १२. 'अमेद: तुलना-न्यायकु० पृ० १५४. पं० १३ ।
पृ० २५. पं० १८ 'किञ्च' इस पंक्तिमें जो पाठशुद्धि की है उसके भाधारके लिए देखो-न्यायकु० पृ० १५४. पं० २६ ।।
पृ० २५. पं० २३. 'प्रतिपादयिष्यते-देखो, का० १६.६१-६ ।
पृ० २५. पं० २४. 'आत्मख्याति' आत्मख्यातिके समर्थनके लिये देखो, प्रमाणवा० अलं० मु० पृ० २२ । खण्डनके लिये देखो-न्यायमं० पृ० १६४ । तात्पर्य० पृ० ८५ । न्यायकु० पृ० ६२ । स्याद्वादर० पृ० १२८ ।
उपाध्याय यशो विजयजी ने ख्यातिवादका एक खतंत्र प्रकरण बनाकर अष्टसहस्रीके विवरणमें सन्निविष्ट किया है-"यशोविजयनामेत्यं साधुायविशारदः । स्पष्टं निष्टंकयामास स्यातीरष्टगरिष्टधीः॥१॥" - अष्टस० वि० पृ० ३१८ । पृ० २५. पं० २५. 'बाधकं तुलना
"बाधकः किं तदुच्छेदी किंवा ग्राह्यस्य हानिकृत् ।
ग्राह्याभावेशापको वा त्रयः पक्षाः परः कुतः॥" इन विकल्पोंके द्वारा प्रज्ञा करने विस्तारसे बाधेकका निराकरण किया हैं-प्रमाणवा० अलं० मु० पृ० ४२ । सन्मति० टी० पृ. १२. पं० १२ । पृ० २५. पं० २८ 'चक्रकम्' देखो-पृ० २१. पं० २२ ।
पृ० २५. पं० २९. 'समानजातीयम्' ये विकल्प बाधकज्ञानके हैं। संवादकज्ञानके विषयमें मी ऐसे ही विकल्प करनेकी प्रथा है । देखो, सन्मति० टी० पृ० ५. पं० ३५। और प्रस्तुत । अन्य पृ० २२.६६-७।
पृ० २६. पं० १९ 'निराकरिष्यमाणत्वात् । देखो, का० २५ । पृ० २६. पं० २२. 'प्रमाणं' प्रमाणका नियामक तत्त्व क्या हो सकता है-इस प्रश्नकी जैसी चर्चा शान्त्या चार्य ने प्रस्तुतमें की है वैसी चर्चा सन्म ति टीका में अभय देव ने मी विस्तारसे की है-सन्मति० टी० पृ० ५।
पृ० २६. पं० २३. 'प्रसिद्धानि सिद्ध से न दि वा करने इस कारिकामें पूर्वपक्ष किया है कि प्रमाण और तत्कृत व्यवहार जब प्रसिद्ध ही है तब प्रमाणशास्त्र या प्रमाणके लक्षणका प्रणयन करना निरर्थक है। फिर उसका उत्तर उन्होंने दिया है कि
"प्रसिद्धानां प्रमाणानां लक्षणोको प्रयोजनम् ।
तल्यामोहनिवृत्तिः स्थान्यामूढमनसामिह ॥" न्याया० ३ । प्रमाण और तस्कृत व्यवहार प्रसिद्ध होने पर भी कुछ लोगोंको तद्विषयक मोह बना ही रहता है । इसी मोहकी व्यावृत्ति करनेके लिये शासरचना आवश्यक है।
शान्त्या चार्य वार्तिककार हैं अत एव उन्होंने भी सिद्ध से न के उक्त कथनका स्पष्टीकरण किया है।
शासके प्रतिपायके विषयमें शास्त्रकारको सर्वप्रथम ऐसी शंकाका समाधान करना पड़ता है। क्योंकि जितने मी पुरुषकृत आगम होते हैं उनका विषय प्रसिद्धसा ही
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१० २६. पं० २३] टिप्पणानि ।
१७५ होता है । किन्तु शास्त्रकार उस विषयका प्रक्रियाबद्ध वर्णन करता है । यदि प्रत्येक शासकारकी नवीनता है तो मुख्यतया प्रक्रियामें ही है । यही कारण है कि प्रक्रियामेदसे शासमेद हो जाता है। ___ यवपि प्रमाण सबको प्रसिद्ध है फिर भी जब उसका प्रक्रियाबद्ध वर्णन होने लगा तब मालम दुला कि न्यायदर्शन में उसका जो रूप बताया गया है उससे ठीक विपरीत बात बौद्ध दर्शन में कही गई है । एक ही वस्तुके विचारविषयक दृष्टिकोणमें तथा वस्तुके वर्णनमें मेद हो जानेसे ही दर्शनभेद-शास्त्रमेद हुआ है। वस्तुतः वस्तुके मेदसे शास-दर्शनभेद नहीं है किन्तु वस्तुके विचार व वर्णनमेदसे शास्त्रमेद है । अत एव समी शास्त्रकार समझते हैं कि 'यद्यपि समी लोक किसी एक वस्तुके विषयमें अपने आपको सम्यक्प्रतीतिसंपन्न' समझते हैं फिर मी उनकी वह प्रतीति मिथ्या है । और उस मिथ्याप्रतीतिको दूर करना ही हमारा काम है। इसी समझके बलपर वे अपने माने हुए वस्तुके रूपका खशास्त्र में वर्णन करते हैं और दूसरोंके माने हुए वस्तुके रूपका निराकरण करते हैं।
अत एव वस्तुतः देखा जाय तो शास्त्रोंमें विद्याकी अपेक्षा अविधाका ही विलास, अधिक मात्रामें होता है । इस सत्यका स्वीकार भर्तृहरि ने दृढताके साथ किया है ।
"शालेषु प्रक्रियामेदैरविथैवोपवर्ण्यते।।
मनागमविकल्पा तु स्वयं विद्योपवर्ण्यते ॥" वाक्य० ३. पृ० ४८९ । यदि शास्त्रों में अविधाका विलास है तो तब उससे सत्यका दर्शन कैसे हो सकता है, और मोहको दूर करनेके लिये शास्त्रोंके प्रणयनकी बात भी कैसे संगत हो सकती हैइस प्रश्नका उत्तर भी खयं भर्तृहरि ने ही दिया है कि-"असत्ये पद्म नि स्थित्वा ततः सत्यं समीहते"-वाक्य० २.२४० ।' भावोंका जैसा वर्णन किया जाता है वे वस्तुतः वैसे नहीं होते हैं किन्तु इस असत्य वर्णनके मार्गसे ही परमार्थतक पहुंचना सहज है । परमार्थको देखनेमें खयं असमर्थ ऐसे पुरुषोंके लिये शास्त्र चक्षुका काम देते हैं- "शानं चक्षुरपश्यताम् ।" बाक्य० ३. पृ० ४८९।
जब योगीतर सामान्य जन तत्त्वके चिंतन पथ पर विचरण करने लगता है तब यदि यह केवल अपने ही तर्कबल पर भरोसा रखकर चले तो संभव है कि वह परमार्थ जाननेमें धोखा खा जाय । अत एव यदि वह दूसरोंके अनुभवोंको जान ले तो उसकी प्रज्ञा विवेकयुक्त बने और उसके बल पर वह परमार्थको सहज ही में पा सके। दूसरोंके अनुभवोंके भंडार शास ही
१.देखो, न्यायमं०पू०१५ प्रमाणमी०पू०१। २. तुलना-"धर्मः प्रसिद्धो वा खादप्रतिको वासचेत् प्रसिद्धः, न जिज्ञासितव्यः । अथाप्रसिद्धो नराम् । तदेवदनर्थकं धर्मजिज्ञासाप्रकरणम् । अथवाऽर्थवत् । धर्म प्रति हि विप्रतिपचा बहुविदः केचिदन्यं धर्ममाहुः, केचिदन्यम् । सोऽयमविचार्य प्रवर्तमानः कषिदेवोपाददानो विहन्येत, अनर्थ च ऋच्छेत् । तस्माद्धर्मो जिज्ञासितम्य इति"-शाबर० १.१.१. प्रमाणवा० अलं० पृ०३७।व्यो० पृ०१९०। तरवार्थश्लो००२। कदली. पृ०२०॥ ३.दुलना करो-समयसार गाथा ८"यद्यपि नामायं संवृत्या व्यवहार तथापि न लावता क्षतिः। गजलिमीलनेन वापदयं व्यवहारः प्रवर्यताम् । पुनरयमवि निरूप्यमाणो विशीत एव ।"प्रमाणवा० मलं. मु०पू०४७। १. "भावा पेन निरुप्यन्ते तडूपं नाति पत:"-प्रमाणपा० २.३६०।
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टिप्पणानि ।
[पृ० २७. पं० ३-. हैं । इस दृष्टिसे भी शास्त्ररचना और उसका अभ्यास, अविधाका विलास होते हुए भी, उपयोगी है।
पृ. २७. पं० ३. 'विषयदोषः' तुलना-"तिमिराशुभ्रमणनौयानसंक्षोभायनाहित. विभ्रमं" इत्यादि न्याय बिन्दु सूत्र की टीका देखनी चाहिए जिसमें नाना प्रकारके दोषोंका वर्णन किया गया है । तथा देखो, सन्मति० टी० पृ० ३, पं० २२।।
पृ० २७. पं० १५. 'शक्तिः शक्ति वस्तुका सामर्थ्य है । बीजका सामर्थ्य अंकुरजननमें है, वहिका सामर्थ्य दाहमें है, विषका सामर्थ्य मारणमें है, शब्दका सामर्थ्य अर्थप्रकाशनमें है, परशुका सामर्थ्य छेदनमें है - इस प्रकार सामर्थ्यके विषयमें तो किसी दार्शनिकका मतभेद नहीं है, किन्तु वह सामर्थ्य क्या है, उसका स्वरूप क्या है, सामर्थ्यका समर्थके साथ क्या सम्बन्ध है, सामर्थ्यका ग्रहण किस प्रमाणसे होता है, इत्यादि बातोंमें नाना मतमेद देखे जाते हैं । अत एव यहाँ शक्तिके विषयमें निम्न लिखित मुद्दों पर विचार किया जाता है
१-शक्तिकी कल्पनाका बीज । २-शक्तिका खरूप ।
३-शक्तिप्राहक प्रमाण । । ५- शक्तिकी कल्पनाका बीज ।
संसारमें नाना प्रकारके कार्योंकी उत्पत्ति देखी जाती है । उत्पत्तिमें भी व्यवस्था देखी जाती है। जैसा कारण हो वैसा ही कार्य होता है । जिस किसी कार्य की जिस किसी कारणसे उत्पत्ति नहीं होती, किन्तु अमुक कार्यकी उत्पत्ति अमुक कारणसे ही होती है । यदि पट बनाना हो सब तन्तुका ही ग्रहण आवश्यक होता है, और घट बनाना हो तो मृत्तिकाका । इस व्यवस्थाके मूलमें ही शक्तिकी कल्पनाका बीज है।
२-शक्तिका स्वरूप।
कार्यकारणभावका विचार दार्शनिकोंने दो प्रकारसे किया है । अद्वैत वा दि ओं के मतसे कार्यकारणभाव व्यावहारिक सत्य है, संवृतिसत्य है, पारमार्थिक सत्य नहीं । बा ह्या र्थ वा दि ओं के मतसे ही कार्यकारणभाव पारमार्थिक सत्य है । अत एव कार्यकारणभावकी व्यवस्थामेंसे ही फलित होनेवाली शक्तिके खरूपके विषयमें भी दार्शनिकोंके दो मन्तव्य हों यह खाभाविक ही है । अद्वैतवादिओंके मतसे शक्तिस्थानापन्न अविद्या, माया, वासना' या मिथ्यात्व है । उसका खरूप सामान्यतः अनिर्वचनीय है । वह न सत् है न असत्, न उभयरूप है न अनुमयरूप । बाह्यार्थवादिओंके मतसे शक्ति अनिर्वचनीय नहीं किन्तु पारमार्थिक वस्तु है। ___ माध्यमिक बौद्धने सभी व्यवहारोंको अविचारित रमणीय माना है । भावोंको उसने सर्व
१. "प्रज्ञा विवेकं लभते भिरागमदर्शनैः । कियद्वा शक्यमुझेतुं स्वतर्कमनुधावता ॥ १९२ ॥ तत्तदुप्रेक्षमाणानां पुराणैरागमैर्विना । अनुपासितवृद्धानां विद्या नातिप्रसीदति ॥ १९३ ॥" वाक्य०३। २. श्लोकबा०शून्यवाद २५३,२५४ । न्यायकु० पृ०१५८. पं०१३ । पृ० १६०.पं०१७। ३. "वासनैव युष्माभिः शक्तिशब्देन गीयते" श्लोक० शून्य०२५६।
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१. २५. पं० १५] टिप्पणानि । खमावशून्य माना है। अत एव भाव उत्पादादिधर्मशून्य होनेसे उसमें कार्यकारणभावको वस्तुतः अवकाश नहीं रहता । अनाथविषावासनाके कारण सब व्यवहार चलते हैं । अत एव शून्यवादीके मतसे कार्यकारणभावकी नियामिका-शक्ति नहीं, किन्तु अविषा या वासना ही है । अर्थात् पासना ही शक्तिस्थानापन है।
शब्दाती के मतसे सकल प्रपञ्चके मूलमें एकमात्र शब्द ही है । सकल बाह्य-आभ्यन्तर वस्तुओंका समन्वय एक शब्दब्रममें ही होता है । शब्दब्रह्मकी नाना शक्तिओंके कारण नाना कार्य दिखाई देते हैं। और नानाशक्तिके कारण ही एक ही ब्रह्म नाना दिखाई देता है । वस्तुतः नानात्व शक्तिमें होने पर भी अझमें आरोपित होता है ये शक्तियाँ अनिर्वाच्य है । वस्तुतः वेदान्ति ओं की अविषा-माया और वैयाकरणों की शक्तियोंमें मौलिक मेद नहीं । अत एव प्रभा चन्द्रा चा र्यने शब्दाति ओं के पूर्वपक्षमें आविर्भावादि मेदप्रपञ्चकी घटनाको अलियामूलक' बताते हुए जो उसके समर्थनमें वृहदारण्य क वार्तिक की कारिका उद्धृत की है वह असंगत नहीं।
धर्म की र्ति ने सभी प्रकारके सम्बन्धका निषेध करते समय खास कर कार्यकारणभावका निषेध किया है। उनका कहना है कि दर्शनादर्शनकृतविकल्पका विषय ही कार्यकारणभाव है अत एव वह अवस्तु होनेसे पारमार्षिक नहीं । विकल्पका मूल वासनामें है अर्थमें नहीं । अत एवं कार्यकारणमाषकी व्यवस्था वासनासे सिद्ध है।
धर्म की र्ति के अनुगामी प्रभाकर गुप्त ने कहा है कि जितने भी कार्य है ये सब, कार्य होनेके कारण ही, समदर्शनके कार्योंकी तरह वासनाकृत हैं। ईबर हो या कर्म, प्रधान होगा अन्य कुछ, समी की कल्पना वासनामूलक है । न्यायी ईबरको मानकर. मी पदि जगतमें मैचित्र्य लाना हो तो वासनाको बिना माने काम चल नहीं सकता । अत एव ईबर, प्रधान या कर्म इन समी नदीजों का सोत वासनासमुद्रमें मिलकर एक हो जाता है यही मानमा चाहिए
"कार्यत्वात् सकलं कार्य वासनावडसंभवम् ।
कुम्भकारादिकार्य वा खमदर्शनकार्यवत् ॥ .."मण्यमाप्रतिपद सैव सर्वधर्मनिरास्मता" न्यायक०पू०१३१ में रखा २."खोवापि परवानाम्या माध्यतः उत्पाजातु विचन्ते भाषाकपन केचन" माया प्रत्याका०१॥ महायानवि०१८ "पया माषा पया समो गन्धर्वनगर यया । योत्पादच्या खाना मा ग्वाहतः॥"माभ्य संसा.का० ३४ महायानसू०पू०६३। लंकावतार पू०१११ । "परमान नोत्पादो निरोधोऽपिनama रमाकापावर बर साचा बवेक्षणा"महापानशिफ 1." सोडखि प्रायोकोके पासादायुगमाते । बहुविवामिवामाति सर्व प्रतिशिखर" वाक्य०१.१२४ । १. "एकमेव यदानावं मिमाफियपानवाद गपूयक्वेअपिशाचिया पकानेर बर्तते ।" वही १.२ । "एकरस सबबीजसणः तत्वाम्बत्वाम्यां सत्वासाचाम्बा गावाच्या अधिस्मा"-वाक्य.०१.४। ५. न्यायकु०पू० १४१।१. "काकारणमायोजनिचोरसामावता प्रतिपातिक विभेजो संबन्धवा कथम् । दर्शनादर्शने मुक्त्वा कार्यादेमवाए। कातिरषाकाववालिविता पवावन्मानाचा कार्यकारणगोचरा विकल्पावन्नान नियामांरपरिवानिव" इब्यादि सम्बन्धपरीक्षा । प्रमेयक. पू. ५१० । साहादर. पृ०६९-८१७॥
मा.२३
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टिप्पणानि।
[पू० २७.५० १५प्रधानमीश्वर कर्म यदन्यदपि कल्ल्यते। वासनासङ्गसम्मूढचेतम्प्रस्यन्द एव सः॥ प्रधानानां प्रधानं तद् ईश्वराणां तथेश्वरम् । सर्वस्य जगतः कर्वी देवता वासना परा॥ अशक्यमन्यथा कर्तुमत्र शक्तिः कथं मता। वासनाबलतः सोऽपि तस्मादेवं प्रवर्तते ॥ इति प्रधानेश्वरकत्वादनयः सदा शीनवहार प्रवृत्ताः। विशम्स्य एवादयतां प्रयान्ति तद्वासनामयसमुद्रमेव ॥"
प्रमाणवा० अ० मु० पृ० ७५। शंकराचार्य ने ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ताको व्यावहारिकसल्य कहा है, भाविषक कहा है। और कहा है कि जब विद्यासे आत्मामें सर्व उपाधिओंका नाश हो जाता है तब परमार्यतः ईश्वरमें सर्वज्ञत्व, सर्वशक्तिमत्त्व आदि व्यवहारोंका अभाव हो जाता है।
शंकराचार्य के मतसे शक्ति, माया, और प्रकृति में कोई भेद नहीं । शक्ति ही सर्वप्रपञ्चकी बीजभूत है । और ईश्वरमें शक्ति होने पर मी ईश्वरसे उसका अत्यन्त मेद है । क्योंकि ईश्वर सत्य है तब शक्ति, माया या प्रकृति मिथ्या है
"समस्येश्वरस्यात्मभूते इवाविद्याकल्पिते नामरूपे तत्वान्यत्वाभ्यामनिर्वचनीये संसारप्रपञ्चवीजभूते सर्वशस्येश्वरस्य माया शक्तिः प्रकृतिरिति च श्रुतिस्मृत्योरमिलप्येते, ताभ्यामन्यः सर्पक्ष ईश्वरः।" शां० ब्रह्म० २.१.१४ ।
इन समी अद्वैतवा दि ओं से ठीक विपरीत मार्ग बा ह्या थवा दिओं का है। उनके मतसे कार्यकारणभावकी व्यवस्था पारमार्थिक होनेसे शक्ति मी पारमार्थिक है । किन्तु शक्तिके स्वरूपके विषयमें इन समीमें ऐकमल नहीं ।
वैशेषिकों के मतसे पृथिव्यादि द्रव्योंमें समवायसम्बन्धसे सम्बद्ध पृथिव्यादि जाति और अन्यतन्तुसंयोगादि चरमसहकारिरूप दो प्रकारकी शक्ति मानी गई है । सारांश यह है कि यदि पृथ्वीमें पृथ्वीत्व न हो तो पार्थिवकार्य सम्पन्न नहीं हो सकता अत एव पृथ्वीत्व ही शक्ति है। इसी प्रकार पृथ्वीत्वके होने पर भी यदि पार्थिव पटकी उत्पत्ति इष्ट है तब अन्यतन्तुसंयोगरूप चरमसहकारि कारण अवश्य चाहिए । अत एव इसे मी शक्ति मानना चाहिए । क्योंकि जिस प्रकार पृथ्वीत्वके बिना कार्य सिद्ध नहीं होता वैसे अन्यतन्तुसंयोगके बिना मी कार्यसिद्धि नहीं।
वैशेषिकों के मतसे पदार्थ और उसका सामर्थ्य अत्यन्त भिन्न है क्योंकि उनके मतसे द्रव्य, जाति और गुणका अत्यन्त मेद है'।
यही मत नै या यि कों को भी इष्ट है।
.."देवं विधामकोपाधिपरिच्छेदापेक्षमेवेश्वरस्येश्वरत्वम्, सर्वज्ञत्वं सर्वाक्तिमत्त्वं, न परमार्थतो विचापावासोंपाकिससे आमनीषिनीधितव्यसर्वज्ञस्वादिव्यवहार उपपद्यते।"-शांझ०२.१.१४ । ..बो.पू. १९३३. न्यायमं०पू०३८,६५। तात्पर्य०पू०३७,१०३। न्यायकु०पू०५९।
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पृ० २७. पं० १५]
टिप्पणानि ।
१७९
मीमांसकों ने पदार्थ के स्वरूपसे अतिरिक्त पदार्थगत जाति या सहकारि साकल्यसे अतिरिक्त शक्तिनामक एक अतीन्द्रिय स्वतन्त्र पदार्थकी कल्पना की 1
बीजके होने पर अंकुरोत्पत्ति होती है और बीजके अभावमें नहीं होती - ऐसा अन्वय व्यतिरेक देख कर बीजको अंकुरका कारण माना जाता है । किन्तु यदि बीज मूषिकात्रात हो तब बीजके स्वरूपमें और सहकारिओंमें किसी भी प्रकारकी त्रुटि न होने पर भी उस बीजसे अंकुरोत्पत्ति नहीं होती अत एव मानना पडता है कि बीज अंकुरोत्पत्तिमें अकारण मी है। एक ही वस्तु कारण और अकारण नहीं हो सकती । अत एव यदि यह माना जाय कि कार्यकी उत्पत्ति तत्तत् बीजादि वस्तुओंसे नहीं किन्तु तद्गत अतीन्द्रिय शक्तिसे ही होती हैतब ही पूर्वोक्त विरोधका निरास हो सकता है। बीजादिमें जब तक शक्ति अखण्डित रहती है। अंकुरोत्पत्ति हो सकती है और जब मूषिकाघ्राणसे या और किसी कारणसे उस शक्तिका नाश हो जाता है तब कार्य उत्पन्न नहीं होता' ।
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इसी युक्तिके आधार पर वहिमें दाहशक्तिका भी समर्थन मीमांसकों ने किया है। मणिमन्त्रादिसे अग्निकी शक्तिका जब उपघात होता है तब अग्निका स्वरूप अखण्डित होने पर भी वह दाहकार्य उत्पन्न नहीं कर सकती । अत एव दाहजनक अग्नि नहीं किन्तु अग्निगत अतीन्द्रिय शक्ति ही है ।
इन्हीं युक्तिके बलसे तथा अन्य युक्तिओंके बलसे' नै या यिक संमत द्रव्यादि सभी पदार्थोंसे अतिरिक्त अतीन्द्रिय ऐसे शक्तिनामक स्वतंत्र पदार्थकी मीमांसकों ने कल्पना की है।
मीमांसक वस्तुतः वैशेषिकादि की तरह बाह्य पदार्थोंका विवेचन करनेके लिये प्रवृत्त नहीं हुआ है किन्तु कर्मकाण्डका समर्थन करना ही उसका मुख्य ध्येय है । उस समर्थनमें जहाँ पदार्थ विवेचनाका प्रसंग आ जाता है वह उसे करता है । शक्तिको इस प्रकार खतन पदार्थ मानने की आवश्यकता उसे कैसे हुई इस बातका मीमांसक संमत 'अपूर्वकी' कल्पनाका समर्थन देख कर लग सकता है ।
पता हमें
याग कर्म होनेसे क्षणिक है अत एव प्रश्न हुआ कि यागसे होनेवाला खर्गादि फल तो मृत्यु के बाद होगा, और मृत्यु पर्यंत यागकी अवस्थिति नहीं, तब यागसे स्वर्गकी उत्पत्ति होगी कैसे ? । इस प्रश्न के उत्तर में मीमांसकने अपूर्व की ' कल्पना की है। याग नष्ट हो जाता है फिर मी यागसे एक 'अपूर्व' उत्पन्न होता है, जिससे स्वर्गकी उत्पत्ति होगी ।
कुमारिल ने कहा है कि कर्मके अनुष्ठानसे पहले, पुरुष और याग स्वर्गकार्यको उत्पन्न करनेमें अयोग्य होते हैं । उसी अयोग्यताका निरास करके पुरुष और ऋतुमें योग्यताको उत्पन्न
१. शास्त्रदी० पृ० ८० । २. प्रकरण पं० पृ० ८१ । ३. "म द्रव्यं गुणवृत्तित्वात् गुणकर्मबहिष्कृता । सामान्यादिषु सवेन सिद्धा भावान्तरं हि सा ॥" - संग्रहश्लोक न्यायली० पृ० २२ । ४. “एवं यागादेरपूर्वस्वर्गादिसाधमशक्तिकल्पनमूहनीयम्" शास्त्रदी० पृ० ८० । ५. "अपूर्व पुनरसि मत मारम्भः शिष्यते 'स्वर्गकामो यजेतेति' । इतरथा हि विधानमनर्थकं स्यात्, भङ्गित्वात् यागस्य । यद्यन्मनुत्पाद्य यागो विनश्येत् फलमसति निमित्ते न स्यात् । तस्मादुत्पादयतीति ।" शाबर० २.१.५ । "काय विहितं कर्म क्षणिकं चिरभाविने । तत्सिद्धिर्नान्यथेत्येवमपूर्वं प्रतिगम्यते ॥" तन्त्र० २.१.५ ।
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टिप्पणानि ।
[ पृ० २७. पं० १५
१८०
करना यह अनुष्ठानका कार्य है - यह बात समीको स्वीकार करनी होगी क्योंकि यदि ऐसा न हो तो याग करना न करना तुल्य होगा । यही योग्यता 'अपूर्व' शब्दसे कही जाती है'। एकार्थक हैं फिर भी 'अपूर्व' शब्दका प्रयोग सिर्फ वेदबोधित कर्मजन्य शक्तिके लिये ही
'संस्कार, योग्यता, सामर्थ्य, अपूर्व, शक्ति ये लौकिक कर्म जन्य शक्तिके लिये नहीं होता है होता है ।
कुमारिल ने एक दूसरा समाधान भी किया है। उनका कहना है कि शक्तिद्वारा फलकी सिद्धि होती है अथवा फल ही सूक्ष्मशक्तिरूपसे उत्पन्न होता है। कोई भी कार्य हो वह हठात् उत्पन्न नहीं होता किन्तु क्रमशः सूक्ष्मतम सूक्ष्मतर और सूक्ष्मरूपसे स्थूलरूपमें आविर्भूत होता है । दूधसे दधि हठात् नहीं बन जाता किन्तु दधि अपने अनेक सूक्ष्मरूपों का अनुभव करके नियतकालमें स्थूल दधिरूपको धारण करता है । इसी प्रकार यागसे भी अपने सूक्ष्मंतम रूपमें - शक्तिरूपमें स्वर्ग उत्पन्न होता है और कालके परिपाकसे वह स्थूलरूपमें आविर्भूत होता है - ऐसा मानना चाहिए ।
स ने शक्ति दो प्रकारकी मानी है। एक सामान्य शक्ति और दूसरी विशेष । समी 1 पदार्थों में अर्थक्रियाका जो सामर्थ्य है वह सामान्य शक्ति है और नियतकायको उत्पन्न करनेवाली शक्तियाँ विशेष शक्तियाँ हैं । अपूर्व मी एक विशेष शक्ति है ।
अपूर्व सक्रिय भी है और निष्क्रिय मी । चलनादि क्रिया अपूर्वमें नहीं अत एव निष्क्रिय है और कर्ता के साथ सम्बम्धमात्रसे वह कर्ताको देशान्तरादिमें ले जाने आदि क्रिया करता है अत एव वह सक्रिय भी है ।
शक्ति कहाँ रहती है - उसका आश्रय क्या है इसका भी उत्तर कुमारिल ने दिया है कि शक्ति प्रत्यक्षगम्य तो है नहीं । वह कार्यानुमेय है अत एव जहाँ मानना उपयुक्त हो वहीं मानमा चाहिए । स्वर्गका जनक कर्म है अत एव स्वर्गजनकत्वशक्ति कर्मकी है फिर भी उसका आश्रय कर्म ही हो यह आवश्यक नहीं क्योंकि कर्म तो क्षणिक होनेसे अनन्तर क्षणमें नष्ट हो जाता है । अत एव उसका आश्रय कर्म नहीं किन्तु आत्मा ही मानना चाहिए ।
१. "कर्मम्यः प्रागयोग्यस्य कर्मणः पुरुषस्य वा । योग्यता शास्त्रगम्या या परा साsपूर्वमिष्यते ॥" ता० २.१.५ । २. नैयायिकसंमत 'संस्कार' का जो रूप है वह शक्ति नहीं है । तथापि कुमारिल ने शक्तिके लिये संस्कारशब्दका प्रयोग किया है- "यदि हि अनाहितसंस्कारा एव यागा नश्येयुः ।" तन्त्र० पृ० ३९६ । ३. तन्त्रवा० पृ० ३९५ । ४. " यागादेव फलं तद्धि शक्तिद्वारेण सिध्यति । सूक्ष्म
त्यात्मकं वा तत् फलमेवोपजायते" - तन्त्रवा० पृ० ३९५ । कुमारि क संमत प्रस्तुत बातका समर्थन पढते समय जैनों की नैगमनयसंगत विचारधारा उपस्थित होती है । ५. " सर्वत्र शक्तिसामान्योपलम्भात् तद्विशेषमात्रत्वाच अपूर्वस्य ।" तन्त्र० पृ० ३९७ । ६. “सत्यपि चात्य चलनादिक्रियारहितत्वे कर्तृसम्बन्धमात्रेण तद्देशान्तर प्रापणादिक्रिया सम्बन्धाभ्युपगमा निष्क्रियतानुपालम्भः ।" तन्त्र० पृ० ३९७ । ७. "शक्तिः कार्यानुमेयत्वात् यद्वतैवोपयुज्यते । तद्गतैवाभ्युपेतव्या स्वाश्रयान्याश्रयापि वा ॥" तन्त्र० पृ० ३९८ । शास्त्रादी० पृ० ८० । ८. “यदि स्वसमवेतैव शक्तिरिष्येत कर्मणाम् । वद्विनाशे ततो न खात् कर्ता तु न नश्यति ।" वही ।
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पृ० २७. पं० १५] टिप्पणानि ।
१८१ अग्निआदिको दाहकादि शक्तिका आश्रय मानने पर कोई आपत्ति आती नहीं अत एव उसका आश्रय अग्नि आदिको मानना चाहिए।
शक्ति कर्मकी है और वह रहती आत्मामें है यह कैसे संभव है ? । इस प्रश्नके उत्तरमें कुमारिल ने कहा है कि क्रिया और आत्माका अत्यन्तमेद नहीं अत एव कर्म की शक्ति आत्मामें रह सकती है । शक्ति खयं कार्यक्षम हो इतना ही पर्याप्त नहीं है किन्तु खाश्रय मी कार्यक्षम होना चाहिए । अत एव नष्ट कर्म अशक्त होनेसे आत्मा को ही शक्त-शक्तियुक्त मानना चाहिए।
अपूर्व अमूर्त है । अमूर्तमें आश्रयाश्रयिभावका कोई विरोध नहीं । आत्मा और सुखादि अमूर्त होने पर भी उनमें जैसे आश्रयाश्रयिभाव है वैसे ही अमूर्त शक्ति और आत्मा का मी आश्रयाश्रयिभाव घट सकता है - तत्र० पृ० ३९८ । __ मी मांसकों के इस अपूर्वकी तुलना जैन सम्मत भावकर्मसे करना चाहिए । भावकर्म भी अतीन्द्रिय और अमूर्त है । द्रव्यकर्मजन्य होने पर भी वह आत्मा का धर्म है। जैसे मी मांस कों ने कर्म -क्रिया को आत्मासे अभिन्न माना है वैसे जैनोंने भी द्रव्यकर्मको आत्मासे कयचिदभिम माना है । मी मां स कों ने अपूर्वको जैसे कर्म जन्य माना है वैसेही भावकर्म को-जैनों ने द्रव्यकर्मजन्य माना है । मीमांसकों ने जैसे अपूर्वको फलजननमें समर्थ माना है वैसे ही जैनों ने भावकर्म को विशिष्ट फलजनक माना है। __प्रभा करानु गा मी शा लिक नाथ का कहना है कि शक्तिका आश्रय यदि नित्य है तो वह नित्य होगी और यदि अनित्य है तो अनित्य होगी। अनित्य शक्तिकी उत्पत्ति आश्रयके कारणों से ही होती है।
जिस वस्तुसे कमी कार्योत्पत्ति न हो वहाँ शक्ति का नाश माना जाता है और वस्तुका मी माश माना जाता है। किन्तु कुछ कालके लिये कार्योत्पत्ति न हो तो शक्तिका अभिभव मानना चाहिए, नाश नहीं । जैसे मणिमन्त्रादि से दाहक शक्तिका कुछ कालके लिये अभिभव होता है माश नहीं। शादी पि का कार के मतसे मन्त्रादिसे शक्तिका अभिभव नहीं किन्तु नाश होता है । मी मांस कों के मतसे वस्तुके साथ शक्तिका मेदाभेद है-तत्त्वसं० का० १६१४ ।
नै या यि क संमत संस्कार और उक्त शक्तिका मेद यह है कि नित्याश्रय संस्कार अनिल है तब नित्याश्रया शक्ति नित्य है । अनित्याश्रय संस्कार खाश्रयातिरिक्त कारण जन्य है तब शक्ति खाश्रयकारणातिरिक्त कारण जन्य नहीं - ऐसा शा लि क नाथ का मन्तव्य है । किन्तु ऐसा मानने पर शक्ति और तदाश्रयकी मेदरेखा नहिंवत् हो जाती है । एखादिसे शक्तिके मेदको स्पष्ट करनेवाला निम्न लिखित श्लोक प्रसिद्ध है
"सुखमाबादनाकारं विज्ञानं मेयबोधनम्।।
शक्तिः क्रियानुमेया स्याद् यूनः कान्तासमागमे ॥ १. "क्रियात्मनोरत्यन्तभेदाभावात्" वही। २. जैन मतानुसार भावकर्म द्रव्यकर्मका जनक भी है। १. निस्य आस्माकी स्वशक्ति नित्य होगी किन्तु कर्मजन्य अपूर्व शक्ति यद्यपि आत्माश्रित है फिर भी अनित्य ही है यह अपवाद है। १. प्रकरणपं० पृ० ८२। ५. प्रकरणपं० पृ० ८२ । "न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन शक्यते"-श्लोक० सूत्र०२.४७। ६. अष्टस०पू०७४, सम्मति टी०पू०४७८, स्याद्वादर० पृ० १७८ इत्यादिमें उद्धृत ।
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टिप्पणानि ।
[ पृ० २७. पं० १५
जैनों ने मी मीमांसकों की तरह अतीन्द्रिय शक्ति का समर्थन किया है। और नै या विक के मतका खण्डन किया है ।
'जैनों के मतसे शक्तिकी कल्पना क्यों आवश्यक है इसे ठीक समझनेके लिये जैन संमत वस्तुस्वरूपको समझना होगा। जैनों के मतसे उत्पाद, व्यय और धौव्ययुक्त वस्तु ही सत् है। धौव्यांशको द्रव्य कहा जाता है। उत्पाद और व्यय - ये पर्याय हैं। वस्तुमें उत्पादशील और विनश्वर अनन्त पर्याय हैं। वे सभी पर्याय अर्थपर्याय और व्यञ्जनपर्यायके अन्तर्गत हैं । वस्तुके अतीन्द्रिय पर्यायोंको अर्थपर्याय कहा जाता है और स्थूल पर्यायोंको व्यञ्जन पर्याय कहा जाता है' । अर्थपर्याय ही शक्तिके नामसे व्यवहृत होते हैं। क्योंकि इन पर्यायोंके कारण ही अर्थ नाना कार्यों के उत्पादनमें समर्थ समझा जाता है । शक्तिमत् - वस्तु अपने व्यञ्जन पर्याय - स्थूलरूपमें ही हमारी इन्द्रियोंका विषय बनती है किन्तु जो उसका सूक्ष्मस्वरूप है - अर्थात् अनन्तसामर्थ्य रूप जो उसका खरूप है उस रूपसे वह हमारे प्रत्यक्षका विषय नहीं अत एव शक्तिको अतीन्द्रिय कहा जाता है ।
यदि इन अर्थपर्यायोंको - शक्तिओंको अनेक माना न जाय तो एक ही वस्तुको अनेक कार्यों में समर्थ माना नही जा सकता । व्यञ्जनपर्याय ही अर्थपर्याय नहीं हो सकते क्योंकी उनका खरूप तो प्रत्यक्ष है किन्तु अर्थपर्यायका बोध तो किसी कार्यको देखकर ही अनुमानसे होता है - स्याद्वादर० पृ० ३०६ |
वस्तु के साथ पर्यायोंका मेदाभेद होने से जैनोंके मतसे शक्तिका पदार्थसे मेदाभेद समझना चाहिए - स्याद्वावर० पृ० ३०६ ।
शक्ति द्रव्यरूपसे नित्य और पर्यायरूपसे अनिक्म है- वही० पृ० ३०४ | शक्तिका कारण पदार्थस्वरूप ही है ।
सांख्य सत्कार्यवादी हैं । अत एव वे कारण को ही शक्तिसंपन्न मानते हैं। कार्यकी अव्यक्तावस्था का ही दूसरा नाम शक्ति हैं । तैलके लिये उपादान तिल है अर्थात् तैलके लिये तिल शक्त है और दूसरा पदार्थ अशक्त है इसका मतलब यही है कि तिलमें ही तैल अव्यक्तावस्थामें है । वस्तुतः तिल और शक्तिका मेद नहीं । शक्ति कारणात्मक है ।
इस विषय में वेदान्त और सां रूय में कोई भेद नहीं । व्यवहारमें जहाँ किसी कारणको किसी कार्यमें शक्त माना जाता है वहाँ शंकराचार्य ने शक्तिको कारणात्मक ही बताया है' ।
१. तस्वार्थग्लो० पृ० ५९-६० | सन्मति० टी० पृ० २५४ । न्यायकु० पृ० १५८ । स्याद्वाद० पृ० २८७ । २. "अर्थव्यञ्जनपर्यायैः शक्तिव्यक्तिरूपैरन तैरनुगतोऽर्थः " -सन्मति० टी० पृ० ४३१ । ३. "यथैव हि सहकारफलादौ रूपादिज्ञानानि रूपादिस्वभावभेदनिबन्धनानि तथैकस्मादपि प्रदीपादेर्भावाद वर्तिकादाहतैलशोषादि विचित्र कार्याणि तावच्छतिभेदनिमित्तकानि व्यवतिष्ठन्ते जन्यथा रूपादेर्नानात्वं न स्यात् ।" स्याद्वादर० पृ० ३०५ । अष्टस० पृ० १८३ । ४. “शक्तिव कारणगता न कार्यस्थान्यक्कवादन्या । न हि सत्कार्यपक्षे कार्यस्याव्यक्तताया अन्यस्यां शक्तौ प्रमाणमस्ति । अयमेव हिं सिकताभ्यस्तिकानां तलोपादानानां मेदो यदेतेष्वेव तैलमनागतावस्थं न सिकतास्थिति ।" - सांख्यत० का० १५ । ५. “शक्तिश्च कारणस्य कार्यनियमार्था करूप्यमाना नान्या नाप्यसती तस्मात् कारणस्यात्मभूवा शक्तिः " - शां० ब्रह्म० २.१.१८ ।
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१० २८. पं० २९]
टिप्पणानि । धर्म की ति ने मी शक्ति पृथक् न होनेसे पदार्थको ही नानैककार्यकारि माना है । अर्थात् पदार्थ ही शक्त है-शक्ति है तव्यतिरिक्त कोई सामर्थ्य उसमें नहीं-प्रमाणवा० २.५३५॥ धर्मकीर्तिके मतसें सत्त्व ही अर्थक्रियाकारित्व है, वही शक्ति है और वही पदार्थ है । शान्तरक्षित ने इसी बातका स्पष्टरूपसे समर्थन किया है
"तत्र शक्तातिरेकेण न शक्तिर्नाम काचन । याऽर्थापत्त्यावगम्येत शकश्चाध्यक्ष एव हि॥ अर्थक्रियासमर्थ हि स्वरूपं शक्तिलक्षणम् ।
एषमात्मा च भावोऽयं प्रत्यक्षाव्यवसीयते॥" तत्त्वसं०१६०७,१६१०। ३-शक्तिग्राहक प्रमाण । मी मांस कके मतसे यह एकान्त है कि शक्ति अतीन्द्रिय होनेसे प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय हो नहीं सकती। वह अर्यापत्तिसे गम्य है-श्लोक० शून्य० २५४ ।
नै या यि क के मतसे शक्ति जातिरूप या गुणरूप होनेसे प्रत्यक्ष प्रमाणका मी विषय हैन्यायमं० पृ०६५।
बौद्ध के मतसे शक्ति पदार्थका स्वभाव होनेसे अप्रत्यक्ष नहीं । पदार्थका जहाँ प्रत्यक्ष है वहाँ वह प्रत्यक्ष ही है । यही मत सांख्य और वेदान्त को भी मान्य हो सकता हैतस्वसं० १६०७॥
जैनों का इस विषयमें एकान्त नहीं । शक्तिका द्रव्यरूपसे प्रत्यक्ष और पर्यायरूपसे अप्रलक्ष माना गया है । तत्त्वार्थश्लो० पृ०६०।
पृ० २७. पं० १५. 'शक्ति' विविधरीतिसे शक्तिका विचार जाननेके लिये देखो-तावा० पृ० ३९०-४०० श्लोकवा० शून्य० २४८-२५७, अर्था०१-६४७-४८ सम्बन्धात २५-२९, ३७, ३८७ ८९-९७, शब्दनि० ४३-४५, वाक्या० ६० से । तत्त्वसं०.पृ० ४५७। प्रकरणपं० पृ० ८१ । शास्त्रदी० पृ०८० । व्यो० १९३ । न्यायमं० पृ० ३४-३९१ ६५ तात्पर्य० पृ० ३७, १०३ । अष्टस० पृ० १८३ । सन्मति० टी० पृ०९, २५४ । न्यायकु० १५८-१६४ । प्रमेयक० पृ० १९५-२०२ । स्याद्वादर० पृ० २८६-३०६ ।
पृ० २८. पं० १२. 'प्रतिपादयिष्यते' देखो, का० ३४ । क्षणिकत्वनिराकरणके लिये देखो, का० ३५ ६२० । का ५६ ६२१ ।।
पृ० २८. पं० २१. 'वेदेश्वरादयः वेद, ईश्वर आदि नित्यप्रमाणोंको शान्त्या चार्य ने बाधाका संभव होनेसे अप्रमाण कहा है किन्तु धर्म की र्ति ने वेदादिका प्रामाण्य विलक्षण दंगसे खण्डित किया है । उनका कहना है कि ज्ञेय ही जब अनिल्य है तब तजन्य ज्ञान मी अनित्य ही होगा। अत एव नित्य वेदादि प्रमाण नहीं हो सकते
"नित्यं प्रमाणं नैवास्ति प्रामाण्यात् वस्तुसंगतः । यानित्यतया तस्याभोव्यात् ॥" प्रमाणवा० १.१०।
पृ० २८. पं० २३. 'वेदाच' तुलना-प्रमाणवा० अ० पृ० ४०।
पृ० २८. पं. २७ 'तत्वम् - "जीवाजीवासवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्वम्" वत्स्वार्थ० १.४।
पृ० २८. पं० २९. 'दर्शयिष्यते' देखो, का० ११,१२ ।
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टिप्पणानि ।
[पृ० २९. पं०४पृ० २९.५० ४. 'यद्येन' तुलना-सन्मति० टी० पृ० ३९ पं० ३५। पृ० २९. पं० ३. 'अपौरुषेयत्वम्' मी मां स कों ने वेद को अपौरुषेय' माना है। धर्म की र्ति ने अपने प्रमाण वा ति क (३.२३९-३३९) और उसकी खोप ज्ञ वृत्ति में वेद की अपौरुषेयता एवं नित्यताका विस्तारसे खण्डन किया है। दूसरे दार्शनिकोंने' प्रायः धर्म की र्ति की युक्तिओंका ही संकलन करके वेदकी पौरुषेयता सिद्ध की है । प्रस्तुतमें शान्त्या चार्य ने वैसा ही किया है।
पृ० २९. पं०४. 'यधेन' तुलना-“यजातीयो यतः सिद्धः सोऽविशिष्टोऽग्निकाष्ठबत्।" प्रमाणवा० ३.२४२ । “अपि च 'यजातीयः' यद्रव्यसमानसजातीयः । 'यतो' हेतोः, 'सिद्धः' अन्धयव्यतिरेकाभ्यां । 'स' तज्जातीयत्वेन 'अविशिष्टः' अन्योऽप्यदृष्टहेतुरपि तस्माखेतोर्न भवतीत्येवं संप्रतीयते। किमिव ? । 'अग्निकाष्ठवत्। यथेन्धनादेको वहिर्दष्टः, तत्समानखभाषोऽपरोऽपि तत्समानहेतुरेषादृष्टहेतुरपि संप्रतीयते । अनेन वेदस्यापौरुषे यत्वसाधने प्रतिज्ञाया अनुमानबाधामाह ।............"लौकिकेन शब्देन समानधर्मों वैदिकोऽपि शब्दो लौकिकवत् पुरुषहेतुकः स्यात् न वा कश्चिदपि ।......"अयं हि कार्यस्य धर्मों यत् कारणनिवृत्ती निवृत्तिः। यदा तु निवृत्तेऽपि पुरुषे वैदिकेषु शब्देषु पौरुषेयं रूपं स्यात् तदा तेन कार्यधर्मों व्यतिवृत्तः स्यात् । 'ततः' कार्यधर्मव्यतिक्रमात् ततः पुरुषात्न किश्चिद्वाक्यं स्यादिति न कश्चिच्छब्दो लौकिक: 'तथेति' पौरुषेयत्वेन वचनीयः स्यात् । रूपविशेषो वा पौरुषेयाणां वैदिका भिन्नो दर्शनीयो यो रूपविशेष एनं पुरुषास्यं हेतुमनुविदध्यात् । 'येन' विशेषेण, 'इष्टस्य' अपौरुषेयत्वेन वेदस्य । 'अनिएस्य'
लौकिकस्य इष्टविपर्ययो न स्यात् । यथाक्रमं पौरुषेयत्वमपौरुषेयत्वम्वा स्यात् ।नच लौकिकवैदिकानां कश्चित् स्वभावभेदोऽस्तीत्युक्तम् ।"-कर्ण० ३.२४२ ।
सन्म ति टीका (पृ० ३९. पं० ३५.) में विस्तारसे लौकिक-वैदिकवाक्योंके अविशेषकी सिद्धि की गई है।
पृ० २९. पं० ७. 'विशेष' तुलना - कर्ण० ३.२४२।
पृ० २९. पं० ८. 'दुर्भणत्वादि' तुलना- "दुर्भणत्वानुदात्तत्वक्लिष्टत्वाश्रव्यतादयः। बेवधर्मा हि श्यन्ते नास्तिकादिवचस्वपि" तत्त्वसं० का० २७८८ । अष्टस० पृ० २३७ ।
कुमारिलने तन्त्रवार्तिकमें लौकिककाव्य आदिसे वेदकी विलक्षणता सिद्ध करते हुए कहा है कि-"प्रपाठकचतुःषष्टिनियतखरकैः पदैः। लोकेष्वप्यश्रुतप्रायैर्ऋग्वेदं कः करिष्यति ॥ मग्निमीळे पुरोहितं यशस्य देवमृत्विजम् । होतारं रनधातममित्येतवृवचः कथम् ॥ किमाकोच्यक था राधाक्प्रतिच्छन्दमीदृशम् । रचयेत् पुरुषो वाक्यं किं चोहिश्य प्रयोजनम्॥ अग्नेः पुरोहितत्वं च क दृष्टं येन कीर्त्यते । ईळेशब्दप्रयोगश्च क दृष्टस्तोत्रगोचरः॥....."स्वतन्त्रो वेद एवैतत् केवलो वक्तुमईति । इषे त्वेत्ययमप्यर्थः पुरुषेणो. व्या कथम् ॥" इत्यादि। तत्रवा० पु० २३७-३८ ।
प्रभा चन्द्राचार्य ने खण्डन किया है कि दुर्भणत्वादि विशेषता अपौरुषेयताके कारण नहीं किन्तु विज्ञान और करण की पटुताके कारण किसी भी पुरुषके वचनमें हो सकती है। न्यायकु० पृ० ७३० । स्याद्वादर० पृ० ६३२ ।
१. शाबरभा० १.१. अधि० ५,८ और उसकी टीकाएँ-श्लोकवार्तिक, बृहती आदि । तथा प्रकरणपं० पृ० ९७, १३३। २. तस्वसं० का० २०८५-२८१० । न्यायमं पृ० २१३ । शाखपा०६०२-६२६ । तस्वो० पृ० ११६ । अष्टश० का०७८ । अष्टस० का०७८ | तत्त्वार्थमो०पू०२३८ । सन्मति० टी०पृ०२९ । न्यायकु० पृ०७२१ । प्रमेयक० पृ. ३९१।
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१.३... ]
टिप्पणानि पृ० २९. पं० ९. 'शावरेषु'-"तथा शवराणां च षांचित् खनियमखानामचामि विषाचपनयनशक्तियुक्तस्य कारणात् शकुचन्स्येव पुरुषा मन्त्रान् कर्तुम् ।” कर्ण० ३.२४८ ।
पृ० २९. पं० १०. 'मत्रत्वम् तुलना "अपि च न मन्त्रो नामान्यदेष किश्चित् । कि साई सस्येत्यादि । यथाभूताल्यानं सत्यम् । इन्द्रियमनसोर्दमनं तपः । तयोः प्रभावो विषस्तम्भनादिसामर्थ्यम् । स विद्यते येषां पुंसां ते तथा, तेषां सत्यतपःप्रभाववतां पुंसां समीहितार्थस्य साधनम् , तदेष मन्त्रः। - कर्ण० ३.२४८। ।
पृ० २०. पं० २५. 'अवैदिकानाम् तुलना- "अवैदिकानां च वेदादन्येषां बोजादीनामिति । मादिशब्दात् माईत-गारुड-माहेश्वरादीनां मन्त्रकल्पानाम् । मन्त्राणां मनकल्पानां बर्शनात् । विद्याक्षराणि मन्त्राः । तत्साधनविधानोपदेशाः माकपा षांक बौखादीनां मजकल्पानां 'पुरुषकते' पुरुषैःकरणात् ।"-वही।
पृ० २९. पं० २५. 'तत्रापि तुलना- "तत्रापि बौखादिमन्त्रकल्पेऽपि अपौरुषेयत्वे कल्प्यमाने, कथमिवानीमपौरुषेयं पाक्यं सर्वमवितथं स्यात् । किन्तु मिथ्यार्थमपि स्यात् । तथाहीत्यादिना एतदेव बोधयति । बौद्धमत्रकल्पे हिंसामैथुनात्मदर्शनादयः, आदिशब्दाद. मृतवचनादय अनभ्युदयहेतयो दुम्मतवो वर्ण्यन्ते । तरसिंस्त्वबौखमन्त्रकरुपे त एवं हिसादयोऽन्यथा चाभ्युदयहेतषो वर्ण्यन्ते । यदि च सर्वे माकपा अपौरुषेयाः स्युस्तदा वित विवामिषामियान्यवयमेकापौरुषेये कथं सत्यं स्यात् ।" कर्ण० ३.२४४।
पृ. २९. पं० २८. . 'जैनानाममत्रत्वे तुलना-"योद्धादीनां मत्वमेव नास्तीति दाह-बौखादीनाममनावे इति । तदन्यत्रापि तसादु बौखादिम बादन्यत्रापि वैदिक मचे मन्नत्वप्रतिपादनाय कोशपानं करणीयम् । न हि काचिद् व्यक्तिव्यतिरस्तीत्यभिप्रायः । रविरुवं चतत् 'बौखादयो न मन्त्राः' इति । तथाहि विषादिकर्मकतो विषादी कुर्वन्तो बौखा अपि मन्त्रा दृश्यन्ते । तेन तर बौखादिषु मन्त्रकस्पेषु ममत्वमपि बिप्रतिषिसम । विषकर्मादिकरणद्वारेण वैदिकानामपि ममत्वव्यवस्थापनात् । न च विषम्मनादिखामर्ययोगात् वेदवाक्यं लौकिकवाक्यादतिशयपवित्येवापौरुषेयं युकम्।" कर्ण० ३.२४४ ।
पृ. ३०.० १. 'मुद्रामण्डल' तुलना-"पाण्यालसभिवेशो मुद्रा । मण्डलं देवतादिरचनाविशेषः । ज्यानं देवतादिरूपचिन्तनम् । तैरनसरैपशब्दखभावः स्वकर्माणि विषाय. पनयनादिलक्षणानि क्रियन्ते । म ब तानि मुद्रामण्डलध्यानानि मपौरुषेयाणि युज्यन्ते ।" वही।
पृ. ३०. पं० ३. 'अथ यदि तुलना- "यदि बौखेतरी मन्त्रकम्पो सावपि पौरुषेयौ तोच सत्यप्रमवौ मषितथाभिधायिपुरुषात्पनौ । तत् कथमिदानीं तावेष सत्यमभवी मनकापी बांयेतरौ परस्परविरुखो युज्यते । एका हिंसादीनामनभ्युदयतुत्वेन देशमादन्यत्राभ्युदयतुत्वेन । नेस्यादिना परिहरति । सर्वत्र ती मकस्पो सत्यप्रभवी येनायं विरोधः किन्तु प्रभावयुक्तपुरुषप्रतिज्ञालक्षणावपि तो मनकल्पी स्तः । प्रभाषषता पुरुषेण 'इमां वर्णपदरचनामभ्यस्यति द्विधि चानुतिष्ठति तस्याहं यथाप्रतिज्ञातं अर्थ संपादयिष्यामि' इति या प्रतिक्षा तल्लक्षणावपि मनपा भवतः । ततोऽन्यथा पाचपि मभावयुक्तौ मन्त्रकापौ कुर्यादेवेत्याविरोधः।" वही।
पृ० ३०. पं०.६. 'अथ वेदेतरयो' तुलना-"मनु सामान्यतो रहं पौरुषं वचनं वितथमुपलभ्य वचनसाम्यादिदमपि,वितथमवगम्यते । न, अन्यत्वात् । नहिभव्य
न्या.२४
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१८६
टिप्पणानि ।
[पृ० ३०. ०७
विसावे यस्य तवं भवितुमईति अन्यत्वादेव । न हि देवदचस्य श्याम यह दत्तस्यापि श्यामत्वं भवितुमर्हति ” सावर० १.२ । " ननु वेदावेदयोस्तस्वान्यत्वलक्षणो विशेषोऽस्त्येव । ...... सत्यमित्याचार्यः । नन्वीदृशो विशेषस्तयोः पारुषेयत्वापौरुषेयत्वसाधको यस्मान्न केवलमनयोरेव लौकिक वैदिकयोर्विशेषः । किन्नर्हि । डिण्डिकपुराणेतरयोरपि । डिण्डिकैः नग्नाचार्यैः कृतस्य पुराणस्य इतरस्य च पुराणस्य ईदृशो विशेषोऽस्ति । म तावता स्वयं व्यवहारार्थे स्वप्रक्रिया भेददीपनः समयपरिकल्पितो नाम मेदः संज्ञामेदः
कृर्ति बाधते वेदस्य । किं कारणं । अन्यत्रापि पुराणेऽपौरुषेयत्वप्रसंगात् । डिण्डि केशरपुराणानां नाम मेदस्य विद्यमानत्वात् । यदि तु या वेदवाक्ये वर्णपदरचना दृश्यते तादृशीं रचनां पुरुषाः कर्तुं न शक्नुयुः, कृतां वा निष्पादितां वा वर्णपदरचनां अकृतसंकेतः श्रवणमात्रात् विवेचयेद् इयं पुरुषपूर्विकेति तदा व्यक्तमपौरुषेयो वेदः स्यात् ।" कर्ण ० ३.२४४ ।
पृ० ३० पं० ७. 'नाम मेदः' अशुद्ध है 'नाममेदः' ऐसा शुद्ध करना चाहिए ।
पृ० ३०. पं० १८. 'दोषाणां पुरुषाश्रयत्वात्'
-
"शब्दे दोषोद्भवस्तावद् वक्त्रधीन इति स्थितम् । तदभावः कचित्तावद् गुणवद्वत्तृकत्वतः ॥ गुणैरपकृष्टानां शब्दे संक्रान्त्यसंभवात् ।
या वक्रभावेन न स्युर्दोषा निराश्रयाः ॥” शोकवा० चोद० ६२-१३।
इम कोकोंमें कुमारिक ने यही समर्थन किया है कि बेदका प्रामाण्य उसकी अपौरुषेयताके कारण ही है। यदि पुरुष वक्ता हो तब वाक्यमें दोषकी आशंका हो सकती है किन्तु यदि कोई बता ही नहीं तब दोष की आशंका मी कैसे ! अतएव वेद खतः प्रमाणसिद्ध है ।
इसके उत्तर में धर्म कीर्ति ने कहा है कि -
"जापौरुषेयमित्येव यथार्थज्ञानसाधनम् ।
टोsन्यथापि वहचादिरदुष्टः पुरुषागसा ॥" प्रमाणवा० ३.२८३ । अर्थात् अपौरुषेयता के कारण ही वेद यथार्थज्ञानका साधन नहीं हो सकता । सर्वत्र पुरुषदोषके कारण ही ज्ञापक साधन अयथार्थ ज्ञानका हेतु हो जाता है वह बात नहीं । क्योंकि पुरुषदोष न भी हो तब भी ज्ञापक प्रदीप का ऐसा खभाव ही है कि रात्रिमें नीलकमल में वह पीतप्रतिभासका जनक होता है । ज्योत्स्नाका भी यह स्वभाव है कि पीतवामें भी वह शुक्कज्ञानका हेतु होती है। इसी प्रकार ज्ञापक वैदिक शब्दोंके विषयमें भी शंका हो सकती है कि उनका भाव ही ऐसा है कि वे बितथज्ञानके जनक हैं। इसी बांतको अत्यन्त स्पष्ट करके धर्मकीर्ति ने अपनी खोपज्ञवृद्धिमें कहा है। शान्त्या चार्य मी प्रस्तुतमें उन्हींका अनुसरण करते हैं
-
" भवन्तु नामापीरुषेया वैदिकाः शब्दाः । तथापि संभाव्यमेवैषामयथार्थज्ञानहेतुत्वम् । न हि पुरुषदोषोपधानादेवार्थेषु ज्ञानविभ्रमः । तद्रहितानामपि प्रदीपादीनां नीलोत्पलादिषु वितथज्ञानजननात् । तदिमे शब्दाः संस्कारनिरपेक्षाः प्रकृत्या चार्थेषु प्रतिभानहेतवः स्युः स्वभावविशेषाद् वहयादिवत्, वितथव्यक्तयश्च नियमेन । नियमकारणाभावादयुक्तमिति चेद् । भवितथव्यक्ति नियमे किं कारणम् । तस्माद् यथार्थव्यक्तिनियमवद् प्रकृत्या अयथार्थव्यक्तिनियमः किस कल्प्यते । अथवा वह्नपादिव देवार्थेषूभयज्ञानत्व हेतुत्वं स्यादं । व झपौरुषेया अपि बहादच एक यथार्थज्ञानहेतवोऽपि सर्वत्र तथा भवन्ति । तथा शब्दानामपि
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१०.३१. ५० ६) टिप्पणाला
१८७ मौरुषेपत्वेऽपि उमयं स्यात्' -प्रमाणवा० ० १.२८४ । सन्मति० टी० पृ० ११.५०९। पृ. १९.२०२४।
पृ. ३०.६० २३. 'प्रत्यक्षेण तुलना-सन्मति० टी० पृ. ३१.१० न्यायकु. पृ०७२।
पृ० ३१. पं० २. 'कर्वरस्मरणं'-शबरखा मि ने अपने भाष्यमें कर्ताका अस्मरण होनेसे वेदापौरुषेयत्वका समर्थन किया है-१.१.५ । उन्हींका अनुकरण बादके मीमांसकों ने किया है। धर्मकीर्ति ने इस हेतुका खण्डन निम्नशब्दोंमें किया है
"अपौरुषेयतापीटा कणामस्मृतेः किल । सन्स्यस्याप्यनुवकार इति घिग्व्यापकं तमः॥"
प्रमाणवा० ३.२३९,४०। "यमादिदं साधनं मसिद्धमनैकास्तिकं च । तत्रासिद्धमधिकृत्याह-तथाहीति । सरन्ति सौगता वेदस्य कर्तन मष्टकादीन् । आदिशब्दादू वामकवामदेवविश्वामित्रप्रपतीदा हिरण्यगर्ने प्रयाणं वेदस्य कर्तारं मरन्ति काणादा वैशेषिकाः।" कर्णः ।
Motaस्तिकत्वमप्यार-यन्ते चेत्यादि । उपदेशपारम्पर्य सम्प्रदायः । विच्छिन। कियालदायापुरुषकतत्वसंप्रदायो येषां बटे बटे वैभवणादिशब्दाना ते तथा । अनेनासर्वमाणकत्वमाह तकाच पौरुषेयाधता पौरुषेवेऽपि पापये कर्तुरमरणं वर्तते इस्यनकाम्बियोऽयं तु कर्ण ।
. ११. ५० ५. 'अष्टकादीन वर्ष निकाय के ते विज (भाग १.४० २३५) में वैदिक मंत्रकि कर्ताओंके जो नाम दिये हुए हैं वे ये हैं-अहक, वामक, वामदेव, वेस्सामित, यमतग्गिा मगरस, भारद्वाज, वार्सेड, कस्सप और भूगु । इन्हीं ऋषिओंको बुद्धकालीन मामाक पूर्वजलपसें कहा है।
इन अपिमिसे वामदेव ऋग्वेदकै चौथे मण्डलके कर्ता माने जाते हैं और भारद्वाज तक क्रमश और सातवें मण्डलके । gक (मारक)पिका उल्लेख ऐतरेय माण(.१७)मेत समायगीतसूत्र (१५.२६) में विवामित्रके पुत्ररूपसे बाता है। वामक और मुगु ऋषिका उल्लेख शतपथब्रामण (१०.६.५.९७७.२.१.११)
तापमतानि (अमदनिवशिक्कि विसपारपसे पासण अन्धमि प्रसिद्ध होनीरसकातेनिस हि ताम(१.१.७.३ ७.१.१. ता है।
बापाकेरमाण और तरकाढमें संत प्रसिब रहे -Early morastic . Buddhianp.961 सम्मति ० १.१०.० १० ३१. पं०५. 'काणादा -"प्रजापति दक मासीमाहरातीच रामिरातीद,
उतपत । तसारपसमत्वारो वेदा मजापत त्यानायव कर्वसरणार" जन्दकी० पृ० २१ ।
स... ६. अब छिचम्ल तुर्जना-सम्मति ० . ०३३। पृ. १२. पं० १५ । न्यायकु पृ० ७२२,७२९ ।
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१८८
टिप्पणानि ।
[पृ. ३१. पं० १३पृ० ३१. पं० १३. 'अथ आगमान्तरे तुलना-सन्मति० टी० पृ० ४२. पं० ३३ ।
पृ० ३१. पं० १८. 'यद्वेदाध्ययनम्' इस अनुमानको शबर. खामिने . मूलसूत्रः (१.१,३०.).में से फलित किया है। कुमारिल ने इसे स्पष्ट शब्दोंमें इस प्रकार रक्खा है
"वेदाध्ययनं सर्वे गुर्वध्ययनपूर्वकम् । वेदाध्ययमवाच्यत्वायनाध्ययनं यथा ॥"
श्लोकवा० वाक्या० ३६६। देखो सन्मति० पृ०४० । न्यायकु• पृ० ७२२ ।
पृ० ३१. पं० २८. 'एकस्वे' तुलना-"एकरवे कतको म स्याद् मित्रोऽवधीभवेत्।" श्लोकवा० संबन्धा० १४ । पृ० ३२. पं० ८. 'एकार्थानाम् संपूर्ण पत्र इस प्रकार है
"एकार्थानां विकल्पधेनेतरात्यन्तवाधनात् ।
समुपयोऽपि नैतेषां व्यवहारेऽवगम्यते ॥" इस पचकी टीका इस प्रकार है"शवंत-एकार्थानामिति । एकशवषिषया अपि सम्बन्धा विकल्पन्त इति । निराकरोति देति । यत्रोकस्य शम्यस्यानेकैरातैरनाच नानार्यसम्बन्धः कथ्यते पथा-पीलुशब्दस्यायमसम्बन्धो म्लेच्छैम हस्तिसम्बन्धः। तत्र म्लेच्छोकस्यात्यम्तबाधः क्रियते। विकल्प हि पसो वा हस्ती पाऽभिषेय रति गम्यतेति । नापि समुषय इत्याह-समुख्य इति । समुपयेऽप्युभावाविति गम्येत । न चैवमस्ति इति ।" न्यायर०प०६४३।
पृ०-१२.५० २३.. 'नित्यत्व' तलना-"प्रयमानम्तरा अधिनित्येऽपिन विकायते" श्लोकबाल शब्द० १९ । “आकाशमपि नित्यं सयदा भूमिजलावृतम् ॥ ३० ॥ व्यज्यते सत्र पोहेन बननोसेचनादिमिः । प्रयत्नानन्तरं शानं तदा तत्रापि रश्यते ॥ ३१ ॥ वही।
४० ३३. पं० ८. 'शब्दसंस्कार' तुलना-“सा हि स्वाच्छब्दसंस्कारादिन्द्रियमो. भयस्य था।" वही ॥ ५२ ॥ सन्मति० टी० पृ० ३४ । .
पृ० ३३. पं० ९. 'श्रोत्रं' तुलना-"सक संस्कृतं भो सबंशदान प्रबोधयेत् । घटायोन्मीलितं चक्षुः पटं न हि न बुध्यते।" श्लोकवा० शब्द० ६०,११ । सन्मति दी पृ. ३६ ।
पृ० ३१.५० १२. 'शब्दख' तुलना-"तत्र सर्वैः प्रतीयेत शम्दः संस्क्रियते यदि । निर्भागस्य विभोर्न स्याद् एकदेशे हि संस्किया।"-श्लोकवा० शब्द० ५२,५३ ॥
पृ० १३. पं० १५.: 'आकाशम् तुलना-"माकाशभोजपक्षेप विभुत्वाद मातितुस्थता दरभावेऽपि शम्दानामितिमन प्रसज्यते । भोषमा रमेकत्वं सर्वमाणमा भवेत् ॥ तेनेकभुतिवेलायर्या शृणुयुः सर्व एव ते॥" वही ५३-५८॥
४०.३३. पं० १६. 'अथास्माकं तुलना-"तेनाकाशैकदेशो वा यहा परत भवेत् । कार्यार्थापचिगम्यं नः श्रोत्रं प्रतिनरं स्थिरम् ।" वही ६७६८)
१०.३३.० २२. 'उभयसंस्कारो तुलना-"प्रत्येकामिहिता दोषा सुर्वसोरमि संस्कृती।" की ३४।
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प० ३६. पं०५]
टिप्पणानि । पृ० ३४. पं० ७. 'तेन' इस शब्दसे लेकर 'का प्रमा' तकका भाग प्रमाण वार्तिक की कारिका है जिसे इस तरह पढना चाहिए
"तेमाग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम इति श्रुतौ।
खादेच्छमांसमित्येष नार्थ इत्यत्र का प्रभा ॥" [प्रमाणवा० ३.३१८] हरिभद्र रिने इसे शासवार्ता समुच्चय में (का० ६०५) उद्धृत किया है। इस विषयमें प्रमाण वार्तिक की निम्नलिखित कारिकाएँ अवगाहनके योग्य हैं
"अर्थोऽयं नायमों न इति शब्दा वदन्ति न । कम्प्योऽयमर्थः पुरुषैस्ते च रागादिसंयुताः॥ स एकस्तस्वविन्नान्य इति मेदश्च किं कृतः। तबद पुंस्त्वे कथमपि शानी कश्चित् कथं न पः॥ प्रमाणमषिसंवादि वचनं सोऽर्थविद्यादि। नत्यन्तपरोक्षेषु प्रमाणस्यास्ति सम्भवः॥ यस्य प्रमाणसंवादि वचनं तत्कृतं वचः।
३.३१२-३१५। पृ० ३४.५० १६. 'सामान्यस्य' यहाँ से परपरिकल्पित सामान्यका निरास किया गया है। सामान्यका जैन संमत खरूप आगे दिखाया है- देखो कारिका २६६१ । उसी प्रसंगमें हम मी सामान्यके विषयमें विशेष विचार करेंगे।
धर्म की तिने सामान्यको निःखभाव सिद्ध करनेके लिये बारबार इसी बातको दोहराया है कि जाति व्यक्तिसे न तो भिन्न ही सिद्ध हो सकती है, न अभिम । देखो-प्रमाणवा० २.२५२९ । ३.१४९-१५३ इत्यादि । प्रज्ञा कर गुप्त ने भी धर्म की र्ति का अनुगमन किया है।
प्रस्तुतमें शाम्या चार्य ने प्रज्ञा करका अनुसरण प्रायः शब्दशः किया है - देखो प्रमाणवा. अ०. पृ० २६४,२७९,२८०,३६६,५४४,७२४ आदि ।
अन्य जैनाचार्य भी इस विषयमें प्रमाण वा र्तिक और तदनुगामी दूसरे बौद्ध आचार्योंका अनुसरण करके ही मीमांसक और नैया यि क संमत जातिवादका खण्डन करते हैं-देखो तत्त्वसं० का० ७०८ से । अष्टश० का० ६५, अष्टस० पृ० ३३,२१४,२१९ इत्यादि । सन्मति० टी० पृ० ११०,२३९,६८९ इत्यादि; न्यायकु० पृ० २८५, प्रमेयक० पृ० ४७०-८१स्याद्वादर पृ० ९५० इत्यादि ।
पृ० ३६. पं० ३. 'तादात्म्य' तुलना-“अथ सति सम्बन्धे मनु कोऽयं तस्य तेन सम्बन्ध-संयोगः, तादात्म्यम्, विशेषणीभावः, वाच्यवावकमावो वा" । न्यायकु. पृ० १७७।
पृ० ३६. पं०५. 'क्षुरिका तुलना-"पूरण प्रदाह-पाटनानुपलब्ध सम्बन्धाभावः"न्यायसू० २.१.५४ । "स्यावेदन सम्बन्धः क्षुरमोदकशब्दोचारणे मुखस्य पाटनपरणे स्याताम्"। शाबर० १.१.५ । "सकयपाययमासाविणियुसंदेसतो अणेगविहं । ममिाणं ममियातोहोर मिणं अमिण्णं च ॥ ५७ खुरमग्गिमोयगुवारणम्मि जम्हा जवपणसवणाणविदोणविवाहो, णनि पूरण तेण मिपणं तु ॥५॥ जहा उ मोयगे भमि.
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टिप्पणानि ।
૧૦
[ ४० ३६. पं० १७
हियम्मि तत्थेव पचओ होह । णय होइ सो अणसे तेण अभिण्णं तदस्थातो ॥ ५९ ॥ बृहत् । शास्त्रवा० ६४५ । सन्मति० टी० पृ० ३८६ । न्यायकु० पृ० १४४ | स्याद्वादमं० का० १४ ।
पृ० ३६. पं० १७. 'मैदानम्युपगमात् ' - "थ एव लौकिकाः शब्दाः त एव वैदिकाः"शाबर० १.३.३० । “अन्याविशेषाद् वर्णानां साधने किं फलं भवेद ।" - प्रमाणना ० ३.२४७ ।
पृ० ३६. पं० २३. 'नापि वाक्यम्' तुलना - " वाक्यं भिन्नं न वर्णेभ्यो विद्यतेऽनुपलम्भतः । अनेकावयवात्मत्वे पृथक तेषां निरर्थता ॥" प्रमाणका० ३.२४८ ।
पृ० ३७. पं० १. 'सार्थकाः' - "प्रत्येकं सार्थकत्वेऽपि मिथ्यानेकत्वकल्पना ॥ एकाथयक्षगत्या च वाक्यार्थप्रतिपद् भवेत् ॥” वही ३.२४९, २५० ।
पृ० ३७. पं० २२. 'वर्णानुपूर्वी' तुलना- "बर्णानुपूर्वी वाक्यं चैत्र वर्णानाममेदतः”
प्रमाणवा० ३.२५९ ।
पृ० ३७. पं० २६, 'अव्यापित्वे' तुलना - " सर्वत्रानुपलम्भः स्यात् तेषामव्यापिता यदि ॥ २५३ ॥ सर्वेषामुपलम्भः स्यात् युगपद् व्यापिता यदि ।" वही० ।
पृ० ३७. पं० २९. 'नानुपूर्वी सात्' तुलना - "देशकालक्रमाभावो व्याप्तिनित्यत्ववर्णनात् ॥ २६० ॥” वही० ।
"ला चेयमानुपूर्वी वर्णानां देशकृता वा पिपीलिकानामिव पंतौ स्यात्, कालकृता वा बारादीनामिव। द्वयोरपि देशकालक्रमयोरभावो वर्णानां व्याप्तिनित्यत्वयोवर्णनात् । अन्योऽन्यदेशपरिहारेण वृत्तिर्हि देशपौर्वापर्यम्, तच्च सर्वगानामसम्भवि । तथान्योऽन्यकालपरिहारेण वृत्तिः कालपौर्वापर्य च नित्यानाम सम्भवि ।” मनो० ३.२६० ।
पृ० ३८. पं० ९. 'अयमेव' तुलना - " अयं हि मेट्रो मेदहेतुर्वा विदधर्माभ्यासः कारणमेदका । ततश्चेत् न मेदः अन्यनिमित्ताभावात् एकं द्रव्यं विश्वं स्यात् इत्यादि प्रसज्येत - " हेतुबिन्दुटी० पृ० ४७ | सन्मतिटीका ( पृ० ३) में मी ऐसा ही वाक्य उद्धत है।
अवतरणसमाप्तिके सूचक चिन्हको 'हीयेत' शब्दके बाद रखना चाहिए । यह वाक्य धर्म कीर्ति का होना चाहिए। देखो, अनेकान्तज० पृ० ४९ ।
पृ० ३८. पं० १४. 'सस्यादिप्रसंगात्' तुलना - "नित्यं सस्वमसत्वं वाऽहेतोरन्यानपेक्षणात् । अपेक्षातच भावानां कादाचित्कस्य सम्भवः ॥” प्रमाणवा० ३.३४ । १.१८२ ।
पृ० ३८. पं० १६. 'ईश्वरस्य' न्याय सूत्र में ( ४.१.१४ - ४३ ) एकान्तवादोंकी परीक्षा की गई है। जिसमें प्रसंगसे पुरुषकर्म प्रधान है या ईश्वर इस प्रश्न का भी निराकरण किया गया है । मनुष्य प्रयत्न करता है किन्तु फलनिष्पत्ति ईश्वराधीन हैं। पुरुषकर्मसे रहित ईश्वर कुछ मी फल नहीं दे सकता और ईश्वरके अनुग्रहके बिना पुरुषकर्म मी निष्फल ही रह जाते हैं - इस प्रकार पुरुषार्थ और ईश्वरकारणतावाद में अनेकान्तकी सिद्धि करके एकान्त पुरुषार्थवाद और एकान्त ईश्वरकारणवादका निराकरण किया गया है।- मा० ४.६-१९-२१।
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१. १८.५० २८]
टिप्पणानि । चर्चासे स्पष्ट है कि नैयायिकों को ईश्वर निमित्तकारण रूपसे इष्टबत एक बारके टीकाकारोंने इस प्रकरणको ईश्वरोपादानतानिराकरणप्रकरण' ऐसा नाम दिया है और मूलसूत्रों की टीकामें वेदान्तसंमत ब्रमकी उपादानकारणताका निरास किया है। नै या यि.कों के मतसे जगदका उपादान कारण पार्थिव भादि परमाणु है।
ईघरकारणषाद प्राचीन है। किन्तु प्राचीन कालमें ब्रामणग्रन्थों में और उपनिषदू साहित्यमें मम या प्रजापतिके रूपमें उसे जगत्का उपादान कारण माना है। नैयायिकों ने अपनी तर्क बुखिसे उसे कारण तो सिद्ध किया किन्तु उपादान न मानकर निमित्त कारण माना। यही बात वैशेषिकों ने भी की।
इसके विपरीत नमसूत्र में शंकर आदि आचार्योंने नै या विक और वैशेषिक समत निमित्तकारणवादका प्रबल विरोध करके ईश्वरको जगत् का अधिष्ठाता और उपादान सिद्ध किया है।-० अम० २.२.३७-४१. ।
जैन, मी मां सक, सांख्य, योग और बौद्ध ईबरको जगतका निमित्तकारण या उपादानकारण कुछ भी नहीं मानते ।
ईबरकी सिद्धिमें शान्त्या चार्य ने जो अनुमान उपस्थित किया है उसके लिये तथा वैसे दूसरे अनुमानोंके लिये देखो-न्यायवा० पृ० १५७-४६७ । न्यो० पृ० ३०१ । कंदकी. पृ० ५७ । न्यायमं० पृ० १७८ । तात्पर्य० पृ० ५९८ ।
१. १८.५० १६. 'सर्वज्ञत्वे तुलना-"सर्वकर्दवासिनी ववत्वमपत्नतः । निबमम पता कर्ता कार्यकपादिवेदकः ॥" तस्वसं० का० ५५।
"सा- इति सर्वार्थातीतानागतवर्तमानविषया प्रत्यक्षा नानुमानिकी"-न्यावया. पृ० १५६।
पृ० ३८. पं० २०. 'खरूपेण उकना-"तवासिनता हेतोः प्रथमे बाधने पतः । सचिवेयो न योगाच्या सिदो नाषयवी यतः॥" - तत्स्वसं० का० ५६ ।
इस कारिकाकी व्याख्याका मूलाधार सन्म ति टी का है । सन्म ति टी का मी अपने पुरोगामि बौद्ध ग्रन्थोंकी ऋणी है।- देखो सन्मति० टी० पृ० १०२-१०५ । तथा तत्त्वसं० न्यपदार्थपरीक्षा । सन्म ति में पूर्वपक्ष पृ० ९३ वें से शुरू होता है।
पु० ३८. पं० २५. संस्थानवद' इस अनुमानसे पर्वतादिमें कार्यस्व सिद्ध किया गया है। देखो म्यो० पृ० ३०१ न्यायमं० पृ० १७८ । तात्पर्य० पृ० ५९९। इसकी समागेपनाके लिये देखो, श्लोकवा० पृ० ६५९ । सम्बन्धाक्षेपपरि० ७४ से । प्रमाणवा० १.१२ । पृ० ३८. पं० २८. 'अवयवी' प्राचीन समयसे ही दार्शनिकोंने स्थूल दृश्य विधा
- .."वकारिवत्वादि युवता निमित्तकारणमीबर इलपगवं भवति"-न्यायवा० पू० ४५७ । .. तात्पर्य०१० ५९३ । ३. "जगवः साक्षादुपादानकारणं किम् । रथं प्रविबादिपरमस्वयं परमाणुसंशितं व्यसमिति" न्यायवा०पू०४५७। १.खाबादम० में प्रो.जगदीश चन्द्र वैदिक साहिल के विविध मोका वर्णन किया है उसे देखना चाहिए-पू०४११ । तयासमा २.२.३७-४१।
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टिप्पणानि । [पृ० ३८.५० २८सूक्ष्म तत्वके साथ क्या सम्बन्ध है इस प्रश्नको नाना प्रकारसे सोचा है । इसी प्रश्नके विचारमेंसे ही अवयव और अवयवी का विचार भी फलित हुआ है । दश्य जगतके प्रपञ्चको दार्शनिकोंने अपनी अपनी दृष्टिसे माने हुए कुछ ही मूल सूक्ष्म तत्त्वोंमेंसे घटाया है । यह घटना सभीके मतसे एक ही प्रकारसे नहीं है । नै या यि क-वैशेषिक आरम्भवादके पुरस्कर्ता हैं । बौद्ध प्रतीत्यसमुत्पादके द्वारा घटनाको बताते हैं । सांख्य - योग और जैन परिणामवादके द्वारा स्थूल विश्वकी योजना सिद्ध करते हैं । मी मां स क कु मारि ल भी इसी मतका अनुगामी है। और अद्वैतवा दिओं ने ब्रह्मविवर्तवादका आश्रय लिया है।
इतनी पूर्वभूमिकाको ध्यानमें रखकर अब हम अवयवीका विचार करें । अवयवीके विषयमें निम्न लिखित बातें विचारणीय हैं।
(१) अवयवीकी सत्ता और खरूप (२) अवयवी और प्रत्यक्ष प्रमाण
(१) अवयवीकी सत्ताके विषयमें ही नागार्जुन ने आपत्ति की है। उनका कहना है कि उत्पत्ति ही जब नहीं घट सकती तब अवयवीकी सत्ता कैसे संभव है। उन्होंने स्कन्धपरीक्षा में घटपटादि 'रूप' के अस्तित्वका ही निराकरण किया है । और अनीन्धन परीक्षा में उपादानोपादेयभावका निराकरण किया है । अवयवीकी सत्ताकी सिद्धि तब ही हो सकती है जब उपादानोपादेयभाव सिद्ध हो, उत्पत्ति सिद्ध हो और रूपस्कन्ध सिद्ध हो । किन्तु नागार्जुन ने इन तीनोंका विस्तारसे खण्डन किया है अत एव उनके मतमें अवयव और अवयवी वस्तुसत् नहीं किन्तु काल्पनिक हैं।
वसुबन्धुको विज्ञानाद्वैत सिद्ध करना था। अत एव उनके लिए बाशार्थका निराकरण अनिवार्य था । बाह्यार्थके विषयमें उन्होंने तीन विकल्प किये हैं
"न तदेकंन चाने विषयः परमाणुशः।
न.च ते संहता यस्मात् परमाणुन सिध्यति ॥" विज्ञप्ति० का० ११ । इसमें एकका मतलब है अवयवी । इन तीनों पक्षका खण्डन उन्होंने यह कह करके किया है कि इन तीनों पक्षमें परमाणुकी सत्ता अनिवार्य है; और परमाणु तो असिद्ध ही है । क्यों कि
"षकेन युगपद्योगात् परमाणोः षडंशता।
षण्णां समानदेशत्वात् पिण्डः स्यादणुमात्रकः॥" विज्ञप्ति० का० १२। १.भारम्भवादमादिके विषयमें सूक्ष्म निरूपणके लिये देखो प्रमाणमी. प्रस्तावना पू०६। .." खतो नापि परतो न द्वाभ्यां नाप्य हेतुतः । उत्पना जातु विचम्ते भावा: कचन केचन ॥" माध्य०११। 1. रूपकारणनिर्मुकं न रूपमुपलभ्यते । रूपेणापि न निर्मुकं यते स्पकारणम् ॥ निकारणं पुना रूपं नैव मैवोपपद्यते । तमापगतान् कांबिम विकल्पान् विकल्पवेदन कारणख साशं कार्यमित्युपपद्यते । न कारणस्यासरशं कार्य मित्युपपद्यते ॥" वही ४.१,५,६ । १. "भनीन्धनाम्या व्यापात भामोपादानयोः क्रमः । सबों निरवशेषग सार्थ घटपटादभिः ॥" यही १०.१५ । "बटाइयो दि कार्यकारणभूत अवयवाव विभूना लपलक्षणभूता गुगगुणिभूता वा स्युः । वा माणसूत्रस. लिबकुकालकरव्यायामादयो घटस्य कारणभूताः घटः कार्यभू । कपालादयो नीलादयो वा अवयम्भूता, परोऽवववी ......इखेवं व्यवस्थाप्य अनीन्धनवत् कमो योज्यः।" वही वृ०। ५. "तदेकंवा स्यात् पभावयविरूपं करप्यते बैशेषिकैः।" विज्ञप्ति०भा०११।
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पृ० ३८. पं० २८]
टिप्पणानि ।
१९३
बन्धु ने स्थूलद्रव्यको एक- अखण्ड-जैसा कि नैयायिक - वैशेषिकों ने अवयगीको माना है - मानने पर मी आपति की है। उनका कहना है कि यदि स्थूल पृथ्यादि द्रव्य एक है तब उसमें गमन और अगमन, ग्रह और अग्रह, भिन्न भिन्न पदार्थों की अनेकत्र वृति, प्राप्ति और अप्राप्ति इन समीकी घटना युगपद् हो नहीं सकती । अत एव अवयवीको एकerror द्रव्य माना नहीं जा सकता' ।
वसुबन्धु के बाद दिमाग, धर्म कीर्ति आदि आचार्योंने अवयवीके खण्डनमें इन्हीं मुख्य दलीलोंका उपयोग किया है। और पंडित अशोक ने तो अवय विनिराकरण नामक एक छोटासा प्रकरण ही लिख दिया है ।
आगे चलकर अवयवी और सामान्य की चर्चा के प्रसंग में आचार्योंने बहुतसी समान दलीलोंका उपयोग किया है। क्योंकि जैसे सामान्य एक है वैसे अवयवी मी एक है । सामान्य अनेकवृत्ति है तो अवयवी मी अनेकवृत्ति है । कृत्स्नैकदेशवृत्तिका विकल्प जैसे सामान्यविषयक होता है वैसे ही भवयवीके बारेमें भी होता है। और यही बात भेदाभेदके विकल्पके विषयमें भी है। इस प्रकार अवयवी और सामान्यविषयक चर्चाका साम्य देखकर ही जयतने बौद्धोंको आवेशपूर्ण भाषामें जो उत्तर दिया है वह देखने योग्य है—
" अपूर्व एष तर्कमार्गों यत्र प्रतीतिमुत्सृज्य तर्जनी विस्फोटनेन वस्तुव्यवस्थाः क्रियन्ते । ....... न च शकुमः पदे पदे वयमेभिरभिनवमल्पमपि किञ्चिदपश्यद्भिस्तदेव पुनः पुनः प्रकुर्वद्भिः शाक्यनर्तकैः सह कलहमतिमात्रं कर्तुम् । ...... किं वा तदस्ति यत्सामान्यसमर्थनावसरे न कथितम् । तस्मात्तयैव नीत्या अवयव्यपि सिद्ध एष, तज्ञाहिणः प्रत्यक्षस्य निरपवादत्वात् ।" न्यायमं० वि० पृ० ५४९ ।
शंकराचार्य ने भी ब्रह्म व्यतिरिक्त बाह्य तत्व अनिष्ट होनेके कारण परमाण्वारब्ध अवयatha चर्चा प्रसंग परमाणुका खण्डन व सु बन्धु की युक्ति का अवलम्बन करके किया है। सांख्य भी कार्य और कारणका अमेद इष्ट होनेसे अवयवीकी पृथक् सत्ता नहीं मानते । सांख्यत० का० ९ ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि वैशेषिक सम्मत अवयवीकी सत्ताके विषयमें दार्शनिकोंने प्राचीन काल से आपत्ति की है। तब यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि इन दार्शनिकोंने जब दृश्य स्थूल अवयवीका निषेध किया अर्थात् दृश्य घटपटादिकी स्वतन्त्र सत्ताका निषेध किया तब इस दृश्य स्थूल पदार्थके विषयमें अपना क्या क्या मन्तव्य स्थिर किया ? |
अद्वैतवा दिओं ने तो अविद्या - वासना का आश्रय लिया। प्रकृतिपरिणामवादी सांख्य ने स्थूल जगत्को प्रकृतिका परिणाम माना । अर्थात् स्थूल वस्तुका प्रधानसे अमेद ही सिद्ध
१. "यदि यावदविच्छिन्नं नानेकं चक्षुषो विषयः सदेकं द्रव्यं करूप्यते पृथिव्यां क्रमेणेतिनं खादगमनमित्यर्थः । सकृत्पादप्रक्षेपेण सर्वस्य गतत्वात् । भर्वाग्भागस्य च ग्रहणं परभागत्य चाग्रहणं युगपच स्यात् । न हि तस्यैव तदानीं ग्रहणं चाग्रहणं च युक्तम् । विच्छिन्नस्य चानेकस्य हस्त्यश्वादिकस्य भनेक वृचिर्न स्यात् । यत्रैव हि एकं तत्रैवापरमिति कथं तयोर्विच्छेद इष्यते । कथं वा तदेकं यत् प्राप्तं च ताम्यां न च प्राप्त अम्बराले तच्छून्यग्रहणात् ।” - विज्ञप्ति० भा० १५ । २. ब्रह्म० शा० २.२.१२-१७ । ३. “परमाणूनां परिच्छिनत्वाद्यावत्यो दिशः षडौ दश वा तावन्निरवयवैः सावयवारले स्युः" ब्रह्म० शा० २.२.१७ ।
म्या० २५
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टिप्पणानि ।
[पृ०३८. पं०२८किया। जैन और मीमांसक भी परिणामवादी हैं किन्तु दोनोंने अनेकान्तवादके आधारसे सूक्ष्म-परमाणु और स्थूलका मेदामेद माना । परमाणुवादी-सौत्रान्तिक और वैभाषिक बौखों ने कह दिया कि स्थूल पदार्थ-और कुछ नहीं किन्तु परमाणुपुख मात्र है।
भावयविवादके विरुद्ध प्रथम तो बौद्धों ने इतना ही कहा कि वह परमाणुपुख मात्र है। किन्तु दार्शनिकोंमें परमाणुकी एक परिभाषा' सढ हो गई थी कि वह निरवयव होता हैइसी परिभाषाके प्रकाशमें जब बौद्धों ने परमाणुपुञ्जका विचार किया तब इस परमाणपुलके बारेमें बौद्धों में ही तीन मत प्रचलित होगये ऐसा कमल शील के स्पष्ट उल्लेखसे मालूम होता है।
"तत्र चिदाहुः परस्परं संयुज्यन्ते परमाणवः इति, सान्तरा एव नित्यं न स्पृशम्ती. स्यपरे, निरन्तरत्वे तु स्पृष्टसमेत्यन्ये ।"-तत्त्वसं० पं० पृ० ५५६ ।
वस्तुतः परमाणुओंका परस्पर संयोग होता है कि नहीं इस बातको लेकर ही ये मतभेद हुए है। प्रथम मतके अनुसार परमाणुओंका परस्पर संयोग होता है और अंतिम दोनों मतोंके अमुसार परमाणुओंका परस्पर संयोग नहीं होता । उन दो से एकका कहना है कि परमाशुओं में व्यवधान अवश्य होता है । और दूसरेका कहना है कि व्यवधान होता भी है और मी भी होता । जब व्यवधान नहीं होता तब परमाणु निरन्तर होनेसे उनकी 'स्पृष्ट' ऐसी संहा है।
प्रथम मत प्राचीन बौद्धों का है । दूसरा काश्मीर वैभाषिकों का और तीसरा भदन्त (पबन्धु) का है', जो कि अभिधर्मकोषकार वसुबन्धु से प्राचीन है।
इन तीनों मतों का साधर्म्य यही है कि जब परमाणुपुत्र होता है तब मी पुजघटक परमाणुओंके अतिरिक्त यहाँ और किसी द्रव्यकी उत्पत्ति नहीं होती । इसके विपरीत वैशेषिक और नै या पिकों का कहना है कि परमाणुपुलसे एक अपूर्व अवयवी उत्पन्न होता है। उसकी सत्ता पुजघटक परमाणुओंसे अर्थात् अवयवोंसे भिन्न है । वह समी अवयवोंको ब्याप्तकरके रहता है । अवयवी अनित्य होता है क्योंकि वह कार्य है । अणुकव्यतिरिक्त अवयवीका विनाश खख अवयवविनाशसे होता है । और व्यणुकावयवीका विनाश अणुओंके विभक्त होनेपर हो जाता है।
जैनों के मतसे अवयवी कार्य ही हो यह नियम नहीं । आकाश, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय ये द्रव्य नित्स होते हुए भी सावयव' हैं। घटपटादि पुद्गलस्कंध अनिस्य होते हुए सावयव हैं । इन नित्य और अनित्य सावयव द्रव्यमें भेद सिर्फ इतना ही है कि निस्य द्रव्यके अवयव कमी पृथक् नहीं होते । वैशेषिक परिभाषाके अनुसार इस प्रकार कह सकते हैं कि जैनों के मतसे नित्य द्रव्यके अवयव सर्वदा अयुतसिद्ध होते हैं-अपृथक्सिद्ध होते हैं । जैनों के मतसे परमाणु और कालव्यतिरिक्त कोई ऐसा द्रव्य नहीं जो निरवयव हो । काल भी इसी लिये निरवयव माना गया है कि वह क्षणिक है अत एव उसका स्कंध बन नहीं सकता।
.."वया चोकम् 'मारमाविमात्ममध्यं च तथात्माम्तमतीन्द्रियं । भविभागं विजानीयात् परमाणुमनंशकम् ।"-तरवार्थश्लो० पृ०४३०। २. आलम्बन० पृ०९६। ३. सप्रदेशी और सावयवमें सूक्ष्ममेव है किन्तु उसकी प्रस्तुतमें उपेक्षा की है।
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१० ३८. पं० २८] टिप्पणानि ।
१९५ बौद्ध और जैन मान्यतामें यह भेद है कि बौद्ध परमाणुवादी हैं । अर्थात् परमाणुसे अतिरिक्त या परमाणुपुञ्जसे अतिरिक्त स्कंधकी खतन्त्र सत्ता उनके मतसे नहीं है । जैनों के मतसे पुद्गल द्रव्य अणुरूप भी है और स्कंध रूप भी है । जैन संमत स्कंध सिर्फ परमाणुपुत ही नहीं है किन्तु परमाणुओंका विशिष्ट प्रकारका परिणाम ही स्कंध है । जैन मत आरम्भवादी नैयायिकों मान्य नहीं । बौद्ध क्षणिकवादी हैं अत एव उनको भी वह मत मान्य नहीं, क्योंकि परिणामवाद द्रव्यनित्यताके खीकारमेंसे ही फलित हो सकता है।
जैनों के मतसे अवयव और अवयवीका भेदाभेद है अर्थात् कथंचित् तादात्म्य' है । नैयायिक अस्यन्त भेद मानकर भी उनको अयुतसिद्ध कहते हैं । अर्थात् दोनोंको संयुक्त नहीं मानते । वस्तुतः तादात्म्य और अयुतसिद्धिमें नाममात्रका फर्क है । विचारपद्धति के भेदके कारण ही परिभाषामें ऐसा मेद हो जाता है इस बातको भूलना नहीं चाहिए । नै या यि क किसी वस्तुका परिणाम नहीं मानते । उनके मतसे अदृश्य परमाणु दृश्यरूपसे परिणत हो नहीं सकते । फिर भी वे परमाणुओंके मिलने पर स्थूलद्रव्यके दिखाई देनेका इनकार तो कर ही नहीं सकते । अत एव उनके लिए दृश्य अवयवीकी - परमाणुपुञ्जसे अतिरिक्त अवयवीकी कल्पना करनेके सिवाय और कोई चारा ही नहीं रहता। इसीसे उन्होंने अवयवीकी सत्ताको सिद्ध तो किया पर वे उसे संयुक्त घट और जलादिकी भांति अत्यन्त भिन्न-पृथक् सिद्ध न मान कर, उसे अवयवोंसे अप्रथक्सिद्ध-अयतसिद्ध कहने लगे। इस तरह कथंचित् तादात्म्य और अयुतसिदिमें वस्तुतः नाम मात्रका मेद है।
मीमांसकों ने भी कार्य द्रव्यको सिर्क परमाणुपुञ्ज न मान कर स्वतन्त्र माना है' । खतन्त्र मान कर भी उन्होंने नै या यि कों की तरह कार्य द्रव्यको अवयवोंसे अत्यन्त भिन्न न मान कर जैनों की तरह अवयव और अवयवीका भेदाभेद ही माना है । तदनुसार अवयवोंकी विशिष्ट अवस्थामें अवस्थिति ही अवयवी कहा जाता है। मीमांसकों का यह मत उनकी परिणामवाद की खीकृतिमें से ही फलित हुआ है । परिणामवादी जैन और मीमांसक भेदाभेदवाद समानरूपसे मानते हैं जबकि सांख्य परिणामवादी होकर मी अमेदवाद ही मानता है ।
(२) अब अवयवी और प्रत्यक्ष प्रमाण-इस प्रश्नके विषयमें विचार करना क्रमप्राप्त है ।
बौद्धों ने परमाणुपुञ्जको ही माना तब उन पर आक्षेप हुआ कि परमाणु अतीन्द्रिय होनेसे परमाणुपुञ्जका भी प्रत्यक्ष हो नहीं सकता । न्याय सूत्र कार ने तो यहाँ तक कह दिया कि यदि अवयवी असिद्ध हो तो संसारमें किसी भी वस्तुका प्रत्यक्ष हो ही नहीं सकता।
.."अणवः स्कन्धा"-तस्वार्थ० ५.२५ । २. "सर्वथार्थान्तरत्वस्याभावादशाशिनोरिह"तस्वार्थश्लो०पृ० १२२। ३. "सर्वाग्रहणं अवयव्यसिद्धेः"-न्यायसूत्र २.१.३४ । १. शाखदी. पृ०४२-४३। ५. "वयं तुमिवामित्रत्वम् । न हि तन्तुभ्यः शिरःपाण्यादिभ्यो वा भययवेभ्यः निरः पटो देवदत्तो वा प्रतीयते । सन्तुपाण्यादयोऽवयवा एव पटाद्यात्मना प्रतीयन्ते । विद्यते च देवदते 'अल हसः शिरः' इत्यादिः कियानपि भेदावभास इत्युपपनमुभयात्मकस्वम् । तस्मादवयवानामेबावलान्तरमवयवी नव्यान्तरम् । त एवं हि संयोगविशेषवशादेकद्रव्यतामापचम्ते, सदात्मनामहरवं पटजाति विनवा पटबुद्या गृह्यन्ते । तेन पटारमना तेषामेकत्वं भवयवात्मना तु मानात्वम्"-शानदीपृ.१०६।.."सर्वाग्रहणमवयम्वसिद्धे।" न्यायसू० २.१.३४ ।
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टिप्पणानि ।
[ पृ० ३८. पं० २८
बौद्ध इस आक्षेपका जो उत्तर न्या य सूत्र कार के समय पर्यन्त देते होंगे वह यह है - जैसे सेना या वन कोई एक द्रव्य नहीं किन्तु हस्ती, अश्व आदि का समूह ही सेना और आम्रादि अनेक वृक्षों का समूह ही वन कहा जाता है । और सेनाघटक या वनघटक प्रत्येक इयादि या आम्रादिके प्रत्यक्ष न होने पर भी सेना या वनका प्रत्यक्ष होता है । वैसे ही परमाणुपुञ्ज वस्तुतः एक न होने पर भी एक मालूम पडता है और पुञ्जघटक प्रत्येक परमाणु अतीन्द्रिय होनेपर भी पुलका प्रत्यक्ष हो सकता है' ।
न्यायसूत्र कार ने सेना - वन-न्यायके अतिरिक्त बौद्ध सम्मत एक और न्यायका भी उल्लेख किया है - जैसे तैमिरिक व्यक्ति एक एक केशकी उपलब्धिका सामर्थ्य न रखते हुए भी केशसमूहका प्रत्यक्ष कर सकता है वैसे ही हम सभी यद्यपि प्रत्येक परमाणुके प्रत्यक्ष करनेमें असमर्थ हैं फिर भी परमाणुपुञ्जका प्रत्यक्ष कर पाते हैं ।
बौद्धों की इन युक्तिओं का उत्तर नै या यिकों ने यह दिया है कि अणु अतीन्द्रिय होनेसे परमाणुपुख का भी प्रत्यक्ष हो नहीं सकता' । वनघटक प्रत्येक वृक्षमें या सेनाघट प्रत्येक अंगमें प्रत्यक्ष होनेकी योग्यता है किन्तु परमाणुपुञ्जके घटक प्रत्येक परमाणुमें वैसी योग्यता नहीं । दूसरी बात यह भी है कि इन्द्रियाँ स्वविषयोंका अतिक्रमण नहीं करतीं । चक्षु कितनी ही पटु क्यों न हो फिर भी वह गन्धग्राहक नहीं हो सकती । चक्षुरिन्द्रिय के मन्द होनेसे तैमिरिक पुरुषको एक एक केश नहीं दीखता पर केशसमूह दिखाई देता है । परन्तु अतैमिरिकको एक एक केश भी दिखता है और केशसमूह भी । इससे स्पष्ट है कि केशोंमें चक्षुरिन्द्रियके विषय होनेकी योग्यता है । जब कि परमाणुमें तो वह योग्यता ही नहीं । अत एव उनका समूह भी 1 केशसमूह की तरह कैसे दिख सकता है ? ।
इतनी चर्चाका फलितार्थ इतना ही है कि यदि परमाणुको अतीन्द्रिय माना जाय तब परमाणुपुख भी अतीन्द्रिय ही रहेगा । परिणामवादी जैन, मीमांसक और सांख्य अतीन्द्रिय परमाणु या प्रकृतिकी तथापरिणति मानकर स्थूल पदार्थको इन्द्रियका विषय मानते हैं परन्तु नैयायिक वैशेषिकों ने तो स्पष्ट ही कह दिया कि परमाणु या प्रकृतिका तथापरिणाम माननेकी अपेक्षा परमाणुओंसे एक नूतन अवयवीका आरम्भ मानना ही ठीक है । क्योंकि ऐसा माननेसे परमाणु तो अपने स्वभावानुसार अतीन्द्रिय ही बने रहते हैं जब कि अवयवी स्वभावतः अतीन्द्रिय न होनेके कारण दृश्य भी बन सकता है । परन्तु बौद्ध के सामने तो यह समस्या बनी ही रह गई कि परमाणुओंके स्वयं अतीन्द्रिय होने पर भी तदभिन्न पुञ्ज दृश्य कैसे हो जाता है ! 1
इस समस्याको लेकर बौद्धों में अनेक मतभेद हुए होंगे ऐसा जान पडता है । न्या य सूत्र में बौद्ध की ओरसे पूर्वपक्ष किया गया है कि 'यह वृक्ष है' ऐसा ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं किन्तु अनुमान है । इसी प्रसंग में न्याय सूत्रकार ने अवयवीको सिद्ध करके उसका प्रत्यक्ष भी सिद्ध किया
१. "सेनावनवद् ग्रहणम्" - न्यायसू० २.१.३६ । “भन्यस्तु मन्यते एकैकपरमाणुरम्यनिरपेक्ष्योऽसीन्द्रियः । बहवस्तु परस्परापेक्ष्या इन्द्रियमाझाः ।" विशप्ति० त्रिं० भाष्य० पृ० १७ । २. “केशसमूहे तैमिरिकोपलब्धिवत् तदुपलब्धिः ।" न्यायसू० ४.२.१३ । ३. "न, अतीन्द्रियत्वादणूनाम् ।"न्यायसू०.२.१.३६ । ४. “स्वविषयानतिक्रमेणेन्द्रियस्य पदमन्दभावाद्विषयग्रहणस्य तथाभावो नाविषये प्रवृत्तिः" न्यायसू० ४.२.१४ । ५. “प्रत्यक्षमनुमानमेकदेश महणावुपलब्धे ।" न्यायसू० २.१.३० ।
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१० ३८. पं० २८]
टिप्पणानि। . है । इस पर से हम यह कह सकते हैं कि स्थूल वृक्षादि पदार्थ, जिसे वैशेषि का दि अवयवी कहते हैं, वह प्रत्यक्षका विषय नहीं किन्तु अनुमेय है ऐसा किसी बौद्ध का मत न्याय सूत्र के पहले था। संभवतः वह मत सौत्रान्ति क का ही होगा क्योंकि वह बाह्य पदार्थोंको प्रत्यक्ष नही किन्तु अनुमेय मानता है।
इसी सौत्रान्तिक मतका प्रतिघोष दिमाग के द्वारा स्थापित और धर्म की र्ति के द्वारा पोषित बौद्ध तार्किक परंपरामें भी हुआ । कहा जाता है कि वह बौद्ध तार्किक परंपरा सौ त्रा न्तिक और योगा चार के सिद्धान्तोंके सम्मिश्रणसे निप्पन्न हुई है । इस परंपराके अनुसार प्रमेय दो प्रकारका है-स्खलक्षण और सामान्यलक्षण"स्व-सामान्यलक्षणाभ्यां भिनलक्षणं प्रमेयान्तरं नास्ति ।"-प्रमाणसमु० ० का० २ । इसमेंसे प्रत्यक्ष का विषय खलक्षण और अनुमान का विषय सामान्य है"तस्य विषयः खलक्षणम् । तदेव परमार्थसत् । "अन्यत्सामान्यलक्षणम् । सोऽनु. मानस्य विषयः।"-न्यायबि० पु०२१-२५ । _ 'यह वृक्ष है' 'यह गौ है' इत्यादि ज्ञान जो कि सविकल्पक और सनिर्देश हैं वे सामान्य विषयक ही हैं क्योंकि स्खलक्षण तो अनिर्देश्य है । अत एव फलितार्थ यही हुआ कि दिना गा दि के मतसे अवयवी सामान्यलक्षणरूप प्रमेय होने के कारण अनुमानका विषय हो सकता है प्रत्यक्षका नहीं । दिमागका यह मन्तव्य प्राचीन सौ त्रान्ति क मान्यताका प्रतिघोष मात्र कहा जा सकता है।
दिमाग ने आलम्बन परीक्षा में एक मतविशेषका उल्लेख किया है जिसके अनुसार सश्चिताकार परमाणु ही प्रत्यक्षके विषय माने गये हैं।
आगे जाकर इसी मतका समर्थक भदन्त शुभ गुप्त हुआ जान पडता है। उसका कहना है कि परमाणुका उत्पाद और विनाश समुदायरूप में ही होता है । अर्थात् उसके मतानुसार परमाणुका उत्पाद और विनाश प्रत्येकक्षण में होता है पर वह असंयुक्तरूपसे न होकर संयुक्त अर्थात् सश्चितरूपसे ही होता है । जब कि परमाणु कभी खतन्त्र असंयुक्त अवस्थामें है ही नहीं तब प्रत्येक परमाणुके प्रत्यक्ष होने न होने का प्रश्न ही नहीं उठता। इस प्रकार भदन्त शुभ गुप्त ने परमाणुपुञ्जके ज्ञानको प्रत्यक्ष मानकर भी परमाणुओंमें स्थूलताके ज्ञानको स्पष्ट ही भ्रम कहा है। शुभ गुप्त भ्रमका समर्थन यह कह कर करता है कि-'जसे सदृशापरापर क्षणोंकी उत्पत्तिसे ज्ञाताको नित्यत्वका भ्रम होता है वैसेही सजातीय ओर अविच्छिन्न देशोत्पन्न परमाणुओंमें भी स्थूलताका ज्ञान मानसिक भ्रम मात्र है।
१. "प्रत्यक्षो न हि बाद्यवस्तुविसरः सौत्रान्तिकैराश्रितः।" षड्द० गुण का०११। २. "स्वलभणविषयकं प्रत्यक्षमेव सामान्यलक्षणविषयकमनुमानमेव ।"-प्रभाणसमु०टी० पृ०६। ३. "स्वसं' बेचमनिदेश्य रूपमिन्द्रियगोचरः"-प्रमाणसमु०५। ४. "साधन सञ्चिताकारमिच्छन्ति किल केचन'भलम्बन०३। ५. "श्रथापि स्यात् -समुदिता एव उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति चेति सिद्धान्तात् नैकपरमाणुप्रतिभास इति । यथोकं भदन्तशुभगुप्तेन - "प्रत्येकयानां स्वातछये नास्ति संभवः । अतोऽपि परमाणूनामेककाप्रतिभासनम् ॥' इति ।"-तत्त्वसं पं० पृ०५५१। ६. "तुल्येत्यादिना भदन्तसुभगुमख परिहारमाशंकते- 'तुल्यापरक्षणोत्पादायय: निन्यन्त्र विभ्रसः । अविच्छिन्नसजातीयग्रहे चेत्स्थूलविनमः'।"-तत्त्वसं० पृ०५५२।
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१९८
टिप्पणानि ।
[पृ० ३८. पं० २४__ शुभ गुप्त के मन्तव्यका सारांश यह है कि परमाणुका प्रत्यक्ष हो सकता है अत एव स्थूलपदार्थकी प्रतीतिको सिद्ध करनेके लिये खता अवयवी माननेकी कोई आवश्यकता नहीं । त्यूल अवयवीका ज्ञान भ्रम मात्र है । और भ्रमके विषयको वास्तविक मानना उचित नहीं ।
नै या यि कों ने अवयवीको एक और अखण्ड मानकर भी अनेक अवयवोंमें व्याप्त माना है। इस सिद्धान्तको लक्ष्यमें रखकर दूसरे दार्शनिकोंने यह आक्षेप किया है कि- अवयवीका प्रत्यक्ष ग्रहण संभव ही नहीं । क्योंकि किसी भी अवयवीके सभी अवयव कभी प्रत्यक्ष हो नहीं सकते। बहुतसे मध्यभागवर्ती और अपरभागवर्ती ऐसे अवयव हो सकते हैं जिनका प्रत्यक्ष, व्यवाहन होने के कारण, संभव ही नहीं । कतिपय अवयवके प्रत्यक्षमात्र होने से अवयवीका प्रत्यक्ष हो जायगा ऐसा भी-माना नहीं जा सकता, क्योंकि एक बात तो यह है कि वह उतने में अवयवोंमें पर्याप्त नहीं, दूसरी बात यह है कि यदि कतिपय अवयवोंके प्रत्यक्षमात्रसे संपूर्ण अवयवीका प्रत्यक्ष हो तब यह मानना पडेगा कि पानीमें डूबे हुए महास्तम्भके बाहरी कुठे है अवयवोंके दर्शनसे संपूर्ण स्तम्भ उपलब्ध हो, किन्तु यह बात प्रतीतिबाधित है । अत एवं अवयवीका प्रत्यक्ष संभव ही नहीं ।
इस आक्षेपके उत्तरमें नै या यि कों ने कहा है कि हम अवयवी और अवयवको अत्यन्त मिल मानते हैं। अतएव अवयवग्रहण और अवयविग्रहण का विषय भी अलग है । अनेक अवयवोंके विषयमें सकल और कतिपय ऐसा विकल्प हो सकता है किन्तु जो एक हैहै उसके विषयमें ये विकल्प असंभव हैं । अवयवी जो कि एक है - अखण्ड है उसके विषय में एकदेशसे ग्रहण और दूसरे देशसे अग्रहण संभव ही नहीं । वस्तुतः बात यह है कि जिन अवयवोंका इन्द्रियके साथ सन्निकर्ष होकर ग्रहण होता है उन अवयवोंके 'साथ' अवयवीका भी प्रहण हो जाता है किन्तु जिन अवयवोंका व्यवधानके कारण ग्रहण नहीं होता उनके 'सार अवयवीका भी ग्रहण नहीं होता।
इस प्रकार ग्रहण और अग्रहण होते हुए भी अवयवीमें भेदका-अनेकताका आपादन संभव महीं । जैसे देवदत्त यदि चैत्रके साथ देखा गया और मैत्रके साथ न देखा गया तो एतावता देवदत्त दो नहीं हो जाते किन्तु एक ही रहता है वैसे ही अवयत्री कुछ अवयवोंके साथ दिखाई दे और कुछ के साथ नहीं तो एतावता वह दो नहीं हो सकता है।
मै या यि कों के इस उत्तरमें एक त्रुटि तो रह ही जाती है और वह यह कि यदि अवयवी एक है- अखण्ड है-निरंश है उसमें कृत्स्नैकदेशका विकल्प संभव नहीं तब वह अपने संपूर्णरूपमें दिखाई क्यों नहीं देता ! वह भागशः क्यों दिखता है ! । जलमग्न स्तम्भ बाहर और भीतर पूर्णरूपेण क्यों नहीं दिखता है। यह कह देना कि एकमें- अखण्डमें कृस्नैकदेशका विकल्प करना अनुचित है - मूल आक्षेपका यथार्थ उत्तर नहीं है, न प्रतीतिकी पूरी व्याख्या ही है ।
प्रस्तुत चर्चामें अनेकान्तवाद ही सहायक हो सकता है । यदि अत्रयवीको अक्यवोंसे
१. एकस्मिन् कृरखैकदेशशब्दासम्भवाद" न्यायधा० पृ० २१४। २. "इदं तस्य वृत्त बेला इन्द्रियसनिकर्पाहणमवयवाना तैः सह गृहाते । येषां अवयवानां व्यवधामादग्रहणं तैः सहन गृह्यते । न चैतस्कृतोऽस्ति भेद इति"-न्यायभा०२.१.३२। ३. न्यायवा०पृ०२१६।
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१०४०.५०४]
टिप्पणानि ।
१९९
कबंचिदमिन माना जाय तब यह कहा जा सकता है कि चूंकि अवयव अदृश्य हैं अत एव तदमिम अवयवी भी अदृश्य है और कयंचिद् भिन्न होनेसे कुछ अवयव अदृश्य हों तब भी अवयवीका दर्शन हो सकता है । तथा अवयवोंसे कयंचिदमिन्न होने के कारण अवयवी उनकी तरह अनेक भी कहा जा सकता है अत एव उसका दर्शनादर्शन भी घट सकता है ।
१०.३९. पं० १. 'ननु धर्मिण' प्रस्तुत प्रश्नका उत्तर पंडित अशोक ने एक दूसरे ढंगसे दिया है-"इह रक्ष्यमानस्थूलो नीलादिरथों धर्मी, स चानुभवावसितोऽसति वाधके मलमसिद्धो हेतोराभयासिविं निहन्ति । ननु भवद्भिरसभेषावयवी प्रतिज्ञायते स कथं प्रत्यक्षसिखः। नावयविनामिह धर्मिणं प्रतिपमा सकिन्तु प्रतिभासमानस्थूलनीलादिकमर्थम् नतर्हि विक्रधर्मसंसोदण्यविन एकत्वं निषि स्यात् । यो कस्तर्हि भवतो. जयवी।एकोऽमेकावयवसमवेतार्थ इति चेत् । स किं प्रतिभासमानात् स्थूलनीलादे. रापोऽनम्यो काम तापदन्या, रश्यत्वेनाभ्युपगमात् । न च प्रतिभासमानस्थूलनीलार्थअतिरेरणापरः प्रतिभाति । अनन्यश्चेत् । तस्यैकत्वप्रतिक्षेपे कथमप्रतिषिद्धमेकत्वमवय. विनः।"-अवय० पृ० ७९ । तुलना-व्यो० पृ० ४६ ।
पृ० ३९. पं० ३. 'प्रसङ्गाविपर्ययसाधन' व्याख्या- "प्रसङ्गध नाम परप्रसिद्धन परस्य मनिहापादनमुख्यते ।-न्यायमं० वि० पृ० १०२ । कन्दली पृ० ४३ । “साध्य साधनयोाज्यव्यापकभावसिौ हि व्याप्याभ्युपगमो व्यापकाभ्युपगमनान्तरीयको यत्र प्रवर्यते तत् प्रसङ्गसाधनम् । व्यापकनिवृत्ती चावश्यंभाषिनी व्याप्यनिवृत्तिः स विपर्यया।"-प्रमेयक पृ० २५७ । प्रमाणवा० मनो० १.८६ । पृ० ३९. पं० १६. 'सामस्त्येन' तुलना
"या सर्वात्मना वृत्तावनेकत्वं प्रसज्यते ।
एकदेशेन पानिष्ठा नैको वा न कविध सः॥"-तत्त्वसं० का० ६१३ । "कत्यैकदेशावृतिस्वादषयवानामवयव्यभावः” न्यायसू० ४.२.७ । न्यायवा० पृ० २१३,५०३ । ज्यो० पृ० ४४ । कंदली० पृ० ४२ ।
५० ३९. पं० १३. 'आहेतोश्च' तुलना-"नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वाऽहेतोरन्यानपेक्षा पात् । अपेक्षातच भाषानां कादाचित्कस्य संभवः॥" प्रमाणवा० ३.३४ ।
पृ.१०.५० १. 'इतोपि' तुलना-प्रमाणवा० अ० पृ० ११३ ।
पृ० १०.५० १. 'चलति' तुलना-"पाण्यादिकम्पे सर्वस्य कम्पप्रातर्विरोधिनः । एकमिन् कर्मणोऽयोगात् स्यात् पृथक्सिचिरन्यथा ॥" प्रमाणवा० १.८६. । अवय० पृ० ८१। ___ पृ० ४०. पं० २. 'एकावयवरागे' तुलना- "श्येत रक्त चैकसिन् रागोऽरक्तस्य वाऽगतिः॥" प्रमाणवा० १.८७ । तत्त्वसं० का० ५९४ । अवय० पृ० ८७।
पृ० ४०.५० ३. 'आवरणे' तुलना- "एकस्य चावृतौ सर्वस्यावृतिः स्यादनावृती।" प्रमाणवा० १.८७ । “स्थूलस्यैकस्वभावरचे मक्षिकापदमात्रतः। पिधाने पिहितं सर्वमा. सज्वेवाविभागतः॥" तत्त्वसं० का० ५९३ । अवय० पृ० ८५।
पृ० १०. पं० १. 'न चावयवानामेव' तुलना- "तदारम्भकेऽवयवे वर्तत इति चेत् । पवम्-अवयवानामेव रकत्वादयविकपमरकमिति रकारकं समं दृश्येत।" तत्त्वसं०
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२००
दिपणानि।
[४० ४१. पं० ११पं० पृ० २०० । “स्यादेतत्-पाण्यादावेकसिलवयवे कम्पमाने नावयविनः कम्पकपमा भ्युपेयम् । अवयष एव हि तदा क्रियावान् श्यते । न चेदं मन्तव्यम् । अवयवे क्रियावति तदाधेयेन अवयविनापि क्रियावता भवितव्यम् । यथा रथे वळति तदाकदोऽपि चल. तीति ।” अवय० पृ० ८२।
पृ० ४१. पं० १३. 'भूयोऽवयव - तुलना- "भूयोऽषयवेन्द्रियसभिकर्षानुगृहीतेनाव. यवेन्द्रियसभिकर्षण प्रहणात् ।" व्यो० पृ० ४६ । अवय० पृ० ८५,८७ ।
पृ० ४१. पं० १६. 'न च' प्रस्तुत पंक्तिमें 'प्रतिभासेप्यव्यव' के स्थानमें 'प्रतिभासेपि व्यव'-ऐसा संशोधन उपस्थित किया है वह पूर्वापरसंदर्भ की दृष्टिसे ही समजना चाहिए। शान्त्या चार्थने दलील की है कि व्यवहित अवयथीको भी यदि जाना जाय तब तत्संलम अन्य भी जाना जा सकता है और इस प्रकार सबको सभी अवयवीका ज्ञान हो जायगा । यह दलील शान्या चार्य की ही होना चाहिए । इस दलीलको ध्यानमें रखें तो 'व्यवहित' पाठ ही ठीक जंचता है, 'अव्यवहित' नहीं।
सन्म ति त के टी का में प्रस्तुत प्रसंगमें 'अव्यवहित' ही पाठ है । और वहाँ वह संगत है। सन्मति० टी० पृ० १०४ पं० ३। उपर्युक्त शान्त्याचार्यकृत दलील सन्मतिमें नहीं है।
पृ० ४१. पं० २४. 'प्रवृत्तेरिति' यहाँ तक शान्त्या चार्य ने यह सिद्ध किया है कि अवयवीका ग्रहण प्रत्यक्ष या स्मृतिसे नहीं हो सकता है । अवयवीके अग्रहणका समर्थन सन्म ति तर्क टी का में (पृ० १०३-१०५) विस्तारसे है । प्रस्तुतमें वस्तुतः अवयवीका अग्रहण अभय देव ने बौद्ध मतानुसार समर्थित किया है। और तदनुगामी शान्त्या चार्य ने भी वैसा ही किया। किन्तु जैन दृष्टिसे अवयवीका ग्रहण होता है कि नहीं, होता है तो किस प्रमाणसेइस प्रश्नका उत्तर प्रस्तुतमें न तो अभ य दे व ने दिया है और न शान्त्या चार्य ने । दोनोंको ईश्वरसाधक कार्यत्व हेतुका खण्डन करना ही अभीष्ट है । अवयवीका विचार इसी प्रसंगमें है अत एव बौद्ध नयका आश्रयण करके नै या यि क संमत अवयवीके खण्डनसे ही दोनोंका उद्देश सिद्ध हो गया । इसीसे प्रस्तुतमें जैन दृष्टि से अवयवीके स्वरूप और ग्रहणका विचार दोनोंने नहीं किया।
अवयवीके ग्रहणके विषयमें जैन दृष्टिसे प्रभा चन्द्र ने यह कहा है - "प्रत्यक्षस्मरणादिसहायेन आत्मना अर्वापरभागभाव्यवयवव्यापकत्व(१)स्य अवयविनो प्रहणोपपत्तेन हि अस्माभिः प्रत्यक्षादिक्षानपर्याय एव अर्थग्राहकोऽभिप्रेतः येनायं दोषः स्यात्, किन्तर्हि ? तत्परिणत आत्मा।" न्यायकु० पृ० २३५ ।
अवयवीमें बौद्धों में विरुद्धधर्मसंसर्गके कारण भेद सिद्ध किया है । जैन दृष्टिसे प्रभा चन्द्र ने उसमें संशोधन यह किया है कि वह भेद कथंचित् माना जाय ऐकान्तिक नहीं । क्योंकि जैन दृष्टिसे अवयवी निरंश नहीं-न्यायकु० पृ० २३५ ।
प्रभा चन्द्र का कहना है कि अवयवी रूपाद्यात्मक भी है । और उसकी सिद्धि प्रत्यभिज्ञा प्रमाणसे होती है । अवयवी अवयवोंसे कथंचिदभिन्न है, वास्तव है और एकानेकखभाव हैन्यायकु० पृ० २३६ ।
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५० ४३. पं०७] टिप्पणानि।
२०१ अवयवीकी चर्चा के लिये देखो-न्यायसू० २.१.३२-३६ । ४.२.५-१७ नारायसं० वि० पृ० ५४९-५५१ । व्यो० पृ० ४४ । कंदली पृ० ४१ । वादन्याय पृ०.३८ । . प्रमाणवा० १.८६ इत्यादि । प्रमाणवा० अलं० पृ० ११३ । तत्त्वसं० का० ५३१-६२१. . अष्टस० का० १२ । तत्त्वार्थश्लो० पृ० ४०५, ११८-१२० । सन्मति० टी० पृ० १०२ । न्यायकु० २२० । प्रमेयक० पृ० ५४० । स्याद्वादर० पृ० ८७३ । श्लोकवा० वन० ७५ । शास्त्रदी० पृ० ४२,१०६ ।।
पृ० ४१. पं० २६. 'यथाविधम्' तुलना-"स्थित्वा प्रवृत्तिः संस्थानविशेषाकिया. दिषु । इष्टसिधिरसिबिर्वा रथान्ते संशयोऽथवा ॥ १२ ॥ सिखं याहगधिष्ठातभावामा. वानुवृत्तिमत् । सनिवेशादि तपुकं तमाद् यदनुमीयते ॥ १३॥" प्रमाणवा० १ । तस्वसं० का० ६१ से । व्यो० पृ० ३०२ । कंदकी पृ०५५ । तात्पर्य० पृ० ६००। सन्मति० टी० पृ० ११५ । न्यायकु० पृ० १०२।
पृ० ४२. पं० १६. 'विरुद्धं' तुलना-अत एवायमिष्टस्य विघातकदपीप्यते ।" तत्त्वसं० का० ७४।
पृ० ४२. पं० २७. 'तत्र' इसके बाद शान्त्या चार्य ने ईश्वरकर्तृत्ववादकी असंगति दिखानेके लिये जिन कारिकाओं की रचना की है उनमें से बहुतसी लोक वार्तिक और प्रमाण वा ति कालं कारसे शब्दशः उद्धृत की है और शेषकी रचना ईसरवादकी चर्चा करनेवाले अन्यमन्थोंकी युक्तिओंके आधार पर की है।
ईश्वरवादके लिये निम्नलिखितग्रन्थ देखने चाहिए-न्यायसू० ४.१.२१ । न्यायवा० पृ० ४५७ । तात्पर्य० पृ० ५९५ । न्यायमं० वि० पृ० १९० । कुसुमांजली स्त० ५। श्लोकवा० संबन्धाक्षे० श्लो० ४३ । प्रमाणवा० १.१२ । प्रमाणवा० अलं० पृ० ४४ । तत्त्वसं० का० ४६ । शास्त्रवा० का० १९४ । आप्तपरीक्षा का० ८। अष्टस० पृ० २६८ । तस्वार्थश्लो० पृ० ३६० । सन्मति० टी० पृ० ९३ । न्यायकु० पृ० ९७। प्रमेयक० पृ० २६६ । स्याद्वादर० पृ० ४०६।
पृ० १२. पं० २८. 'सतनं' तुलना-श्लोक० संबन्धा० ८१ । प्रमाणवा. अलं० पृ०४४। पृ० १२. पं० ३०. 'कुलाल' तुलना-प्रमाणवा० अलं० पृ. ४४ । पृ० १३.५० १. 'प्रेक्षावताम् तुलना-वही पृ० ४४।
पृ० १३. पं० २. 'प्रयोजनम्' तुलना- श्लोक० सं० ५५ । तत्त्वसं० का० १५६ । तत्त्वसं का० १६९।
पृ०.१३. पं० ३. 'प्रयोजनम् तुलना- वही० ५२ । प्रमाणवा० अलं० पृ०४४। पृ० ४३. पं० १. 'छागादीनाम् तुलना-प्रमाणवा० अ८० पृ० ४८ ।
पृ० ४३. पं० ६. 'क्रीडार्थी' तुलना-श्लोक० सं० ५६ । प्रमाणवा० अलं० १० १३, ९५ | तत्त्वसं० का० १६१ । पृ० १३. पं० ७. 'किश्चित् तुलना-प्रमाणवा० अलं० पृ० ४९।
न्या. २६
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२०२
टिप्पणानि ।
[पृ० ४३. पं०९पृ० १३.५० ९. 'एकस्य तुलना-प्रमाणवा० अलं० पृ० ४६,९५ । पृ० १३. पं० १०. 'कर्मणां' तुलना - तत्त्वसं० का० १५९ । पृ० ४३. पं० १७. 'अथेदृशः तुलना-प्रमाणवा० अ० पृ० ४२ । पृ० ४३. पं० १८. 'खभावो' तुलना- तत्त्वसं० का० १५९ ।
पृ० ४४. पं० ३. 'प्रकृत्यन्तर' इत्यादि कारिका और उसका व्याख्यान मूलतः प्रमाण वार्ति का लंका रा नुगामी है-पृ० १९० । और परंपरासे सन्मति० टी० पृ० ३०० और न्यायकु० पृ० ८२२ के साथ भी शब्द साम्य है।
पृ० ११. पं० ५. 'ते हि व्यो म शि व ने भी 'गुणपुरुषान्तरविवेकदर्शनं निःश्रेयससाधनम्' इस सांख्य संमत वाक्यको उद्धृत करके उसका खण्डन किया है । व्यो० पृ० २० (घ)।
पृ० ११.५०५. 'पुरुषः "तस्साच विपर्यासात सिहं साक्षित्वमस्य पुरुषस्य । कैवल्यं माध्यस्थ्यं प्रकृत्वमकर्तृभाषश्च ।" सांख्य० का० १९ ।
पृ० ११. पं० ६. 'मुझे तुलना-“भोगापवर्गों बुद्धिकतो बुद्धावेव वर्तमानी कथं पुरुष आपविश्यते इति । यथा विजयः पराजयो वा योदषु वर्तमानः खामिनि व्यपदि. श्यते,सहि तस्य फलस्य भोकेति एवं बन्धमोक्षौ बुद्धावेव वर्तमानी पुरुष व्यपदिश्यते, स हि तत्फलस्य भोकेति । बुद्धरेव पुरुषार्थापरिसमाप्तिर्वन्धः । तदवसायो मोक्ष इति । एते प्रहणधारणोहापोहतस्वज्ञानाभिनिवेशाः बुद्धौ धर्तमानाः पुरुषेऽभयारोमितसङ्गापा, सहि तत्फलस्य भोकेति ।" योगभाष्य २.२८ ।।
पृ० ११. पं० ६. 'अज्ञानतमश्छन तुलना-"तस्य हेतुरविधा" योगद० २.२४ । "सयैतदन्यत्रोकम् -'व्यक्रमव्यकं वा सत्त्वमात्मत्वेनाभिप्रतीत्य तस्य सम्पदमनु नन्दति मात्मसम्पदं मन्धानः, तस्य चापदमनु शोचत्यात्मव्यापदं मन्वाना, स सर्वोऽप्रतिदुख' इति ।" योगमा० २.५ । न्यायकु० पृ. ८१५।
पू० ११. पं० ७. 'ज्ञानम्' यह ज्ञान विवेकल्याति के नामसे प्रसिद्ध है । इसे प्रकृयन्तरविज्ञान, तवज्ञान, केवलज्ञान या गुणपुरुषान्तरोपलब्धि मी कहते हैं
"एवं तत्स्वाभ्यासाचासिन मे नाहमित्यपरिशेषम् ।" सांख्य० का० ६३१ विवेकण्यातिरविप्लवा हानोपायः ।" योगद० २.२६ । "कि हानं ? गुणपुरुषान्तरोपलधिरूपमित्यर्थः।"- माठर० ६३ ।
पृ०१४. पं० ९. 'विज्ञातखरूपा' तुलना-"प्रकृतेः सुकुमारतरं न किश्चिदस्तीति मे मतिर्भवति । या दृष्टास्मीति पुनर्न दर्शनमुपैति पुरुषस्य ॥ दृष्टा मयेत्युपेक्षक एको राहमित्युपरमत्येका । सति संयोगेऽपि तयोः प्रयोजनं नास्ति सर्गस्य " सांख्यका० ६१, ६६ ।
पृ० ४५. पं० १. 'पड्न्वन्ध' तुलना-"पुरुषस्य दर्शनार्थे कैवल्यार्थ तथा प्रधाना। पनवन्धवत्रुभयोरमिसंयोगात् तत्कृतः सर्गः।" सांख्यका० २१ ।।
पृ० १५. पं० १३. 'पुद्गालावर्त पश्च संग्रह में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके मेदसे पुद्गलपरावर्त चार प्रकारका माना गया है।
१.पश्वसं०७१।
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पृ० ४५. पं० १८] टिप्पणानि ।
२०३ द्रव्य पुद्गलपरावर्तका खरूप इस प्रकार है-संसारमें भ्रमण करता हुआ एक जीव जितने ' कालमें समस्त परमाणुओंको ग्रहण करके छोड देता है उतने कालको बादर पुद्गल परावर्त और औदारिकादि किसी एक शरीरके द्वारा जितने कालमें समस्त परमाणुओंको ग्रहण करके छोड देता है उतने कालको सूक्ष्म पुद्गल परावर्त कहते हैं।
इसी प्रकार क्षेत्र, काल और भाव पुद्गल परावतों के खरूप वर्णनके लिये देखो-पञ्चसं० ७३-७५ | पञ्चप्रकर्मग्रन्थ गा०८६-८८।।
दिगम्बर शास्त्रोंमें उक्त चारके अतिरिक्त भवपरिवर्तनका वर्णन आता है । और द्रव्यादि पुद्गलपरिवर्तके खरूपमें मी थोडा मतभेद है । देखो-षट्खण्डागम पुस्तक ४. पृ० ३२५ । सर्वार्थ० २.१० । पञ्चमकर्मग्रन्थ पृ० २८१ । __ पृ० ४५. पं० १४. 'रलत्रय सम्यग्दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये तीन रन यहाँ अभिप्रेत हैं।
यह कारिका उत्पादा दि सिद्धि में उद्धृत है-पृ० २१४ ।
पृ० १५. पं० १६. 'शरीराविध यहाँ से पृथिव्यादिभूतातिरिक्त आत्मतत्त्वके तथा अनुमानप्रामाण्यके निषेधक चार्वा क के खण्डनका प्रारंभ किया गया है।
पृ० १५. पं० १८. 'नानुमानं प्रमा'- जिस प्रकार माध्यमिक के सर्वशून्यवादका निषेध करनेके लिये खवचनविरोध' नामक दोष दिया जाता है उसी प्रकार चार्वा क संमत अनुमानाप्रामाण्यका खण्डन करनेके लिये मी वही दोष दिया जाता है-"खवचननिराकतो यथा नानुमान प्रमाणम्" न्यायबि० पृ० ८५।
'अनुमानप्रमाण नहीं है' चार्वाक की इस मान्यताका स्पष्टीकरण पुरन्दर नामके किसी चार्वा कानुगामी ने किया है कि लोकप्रसिद्ध अनुमान चार्वाक को सम्मत है। किन्तु दूसरे लोग लौकिक मार्गका अतिक्रमण करके अनुमान का निरूपण करते हैं अत एव उस बलौकिक अनुमानका प्रामाण्य खण्डित करना ही वृहस्पति को अभिमत है।
सारांश यह है कि प्रत्यक्षगम्य वस्तुओंका परस्पर सम्बन्ध जान कर अनुमान किया जा सकता है। किन्तु यदि उस अनुमानका क्षेत्र परोक्ष परलोक आदि तक विस्तीर्ण किया जाय तब वह अनुमान अलौकिक हो जाता है।
अनुमानकी मर्यादित शक्ति सिर्फ चार्वाक ने ही मानी है यह बात नहीं है । भर्तृहरि ने भी एक ही विषयमें परस्पर विरोधी अनुमानों की प्रवृत्ति देखकर अनुमान प्रामाण्यमेंसे अपना . विश्वास खो दिया।
पृ० ४५. पं० १८. 'चार्वाक' चार्वाक भूतवादी है। भौतिकवादका प्रारंभ दार्शनिक
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पसं०७२। २. विग्रहव्या० का०१।१. "पुरन्दरतु माह-कोकप्रतिदमदुमान चार्वाकरपि इयत एव, यत्तु कैबिष्ौकिकं मार्गमतिकम्यानुमानमुच्यते तनिनिभ्यत इति"-तस्वसं०५० पृ०४३१ । १. "अवस्थादेशकाकाना मेदात् भिवासु शक्तिषु । भावानामनुमानेन प्रसिबिरति दुभा ॥ यसेनानुमिवोऽप्यर्थः कुशखैरनुमातृभिः । अभियुकवरैरम्बैरन्ययैवोपपद्यते ॥" वाक्यंपाकाण्ड तत्त्वसं० का १४६०-१४६२ ।
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२०४
टिप्पणानि।
[पृ०४५. पं० १८
विचारोंके साथ साथ ही है । उपनिषद् जैसे प्राचीन ग्रन्थमें मी भौतिकवादके बीजका पता चलता है "विज्ञानधन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति । न प्रेत्य संवाऽस्ति।" बृहदा० २.४.१२ ।
प्राचीन जैन और बौद्ध शाखमें भौतिकवादका स्पष्ट उल्लेख है । सूत्र कृ तांग में (१.१. ६-८) कहा है कि कुछ श्रमण-ग्रामण ऐसे हैं जो मानते हैं कि इस विश्वमें पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और आकाश ये पांच भूत ही हैं । आत्मा, देही या जीव इन पांचों भूतोंमेसे ही उत्पन होता है। और इन पांचोंके विनाशके साथ ही जीवका मी विनाश हो जाता है।
एक और मतका भी उल्लेख उसीमें (१.१.११-१२) है जिसके अनुसार यह शरीर ही भारमा माना गया है । यह मत मी भौतिकवादविशेष ही है।
इन दोनों मतोंके विषयमें सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कंध (अ० १.) विशेषतः कहा गया है कि ये लोग परलोकको नहीं मानते, पुण्यपापको नहीं मानते, हिंसा-अहिंसाको नहीं मानते और कहते हैं कि शरीर है तब तक जितना भोग किया जा सके करना चाहिए।
बौद्ध ग्रन्थों में जितकेस कम्बल के सिद्धान्त का वर्णन आता है । वह भी भौतिकवादी ही है-उसका कहना था कि न दान है, न यज्ञ है, न होम है, न पुण्य या पाप है। मनुष्य चार महाभूतोंसे बना है । मनुष्य जब मरता है तब उसमेंसे पृथ्वी धातु पृथ्वीमें लीन हो जाती है, अपधातु जलमें, तेजो धातु तेजमें, और वायु धातु बायुमें लीन हो जाती है । तथा इन्द्रियाँ भाकाशमें मिल जाती है। मनुष्य मरे हुए को खाटपर रख कर ले जाते हैं। उसकी निन्दा प्रशंसा करते हैं। और जला देते हैं तब वह भस्म हो जाता है । भास्तिकवाद ठा है। दान. होमादि कार्य मूर्खता मात्र है इस्मादि।
महाभारत में मी भौतिकवादिओंका उल्लेख है। कौटिल्य के गर्यशान में तथा पुरा णों में भी उल्लेख मिलते हैं।
इस दर्शन का मुख्य सूत्रप्रम्य वृहस्पति कृत माना जाता है जो उपलब्ध नहीं । किसी जन्य चार्वाकाचार्य की मी चार्वाक सिद्धान्त प्रतिपादक कृति उपलब्ध नहीं होती। धर्म की ति कत प्रमाण वार्तिक, हरिभद्रकृत षड्दर्शन समुचय और शासवार्ता समुचय तथा माधवाचार्य का सर्वदर्शन संग्रह ही ऐसे अन्य हैं जिनमें चार्वाक दर्शनका संक्षिप्त वर्णन पूर्वपक्ष रूपसे मिलता है।
गायकवाड सिरीजमें तत्वोपप्लव सिंह नामक ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है । उसमें चार्वाक दर्शनका मंडन नहीं है किन्तु इतर दार्शनिक संमत प्रमाणों का खण्डन करके कहा गया है कि जब प्रमाण ही सिद्ध नही तब प्रमेयकी सिद्धि कैसे हो सकती है। इस प्रकार एक बैतण्डिकके रूपमें तत्वोपप्लव सिंह कार जयराशिम दार्शनिकोंके बीच उपस्थित होते हैं।
प्रो. राधाकृष्णम् का कहना है कि प्राचीन मंत्रवाद और धार्मिक क्रियाकाण्डके विरोध करने में चार्वाक जैसे भौतिकवादिओंको काफी बल लगाना पड़ा है। कालक्रमसे धार्मिक
सर्वद० पृ०१। २.दीय सामअफलनुस। शांतिपर्व-लो० १४१४,२३३०४३ शस्थपर्वसो०३६१९ । १.विष्णुपुराण-३.१८१४-२६ ।
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पृ० ४५. पं० १८]
टिप्पणानि ।
२०५
संस्थाएँ रूढ हो जाती हैं और मनुष्य धार्मिकक्रियाकाण्डोंको यत्रवत् करने लग जाता है तब वैसी संस्थाओंसे और वैसे क्रियाकाण्डोंसे मनुष्य पूरा लाभ नहीं उठा सकता है । ऐसे समय में मनुष्यको अपने अन्धविश्वासों और वहमोंसे मुक्त करने के लिये चार्वाक जैसे वादका उत्थान आवश्यक हो जाता है। वस्तुतः भौतिकवाद व्यक्तिके स्वातन्त्र्यवादको अग्रसर करता है । और आगमप्रामाण्यका बहिष्कार करके तर्कवादका आश्रय लेता है । चार्वाक ने भूतकालीन पीडाजनक भारसे उस समयकी जनताको मुक्त करने के लिये अत्युप्र प्रयत्न किया है । धार्मिक कट्टरताका उसने जो निषेध किया वह उस जमानेमें आवश्यक भी था । फलस्वरूप कट्टरताके स्थानमें आगे जाकर रचनात्मक दार्शनिक विचारों की विविध धाराएँ चलीं ।
I
प्रो० राधा कृष्ण म् का यह कथन भगवान् बुद्ध और महावीर के जमानेको लक्ष्यमें रखकर हुआ है । किन्तु भौतिकवाद का सामान्यलक्षण उन्होंने जो यह बताया कि भौतिकवाद व्यक्ति स्वातत्र्यवाद को प्राधान्य देता है और मनुष्यको रूढिवादसे छुड़ाने का कार्य करता है वह ज य राशि के दर्शनमें भी चरितार्थ हुआ हम देखते हैं ।
I
बृहस्पति के दर्शनने उस जमाने में परलोक के लिये किये जानेवाले नानाप्रकारके वेदप्रतिपादित यज्ञों और क्रियाओंके भारसे मनुष्यको मुक्त करानेका सत्साहस किया और साथ ही दार्शनिक विचारधाराओं तथा ध्यान और तपस्या जैसे धार्मिक आचारों के निर्माणके लिये भी मार्ग साफ कर दिया । किन्तु समय की गतिमें पड कर ये दार्शनिक विचार मी रूढ और खतबुद्धिशक्तिके घातक ही सिद्ध हुए । बुद्ध या महावीर, गौतम या कणाद, जैमिनी या बादरायण, कपिल या पतञ्जली इन सभी के विचारोंको लेकर भिन्न भिन्न दार्शनिक धाराएँ च । किन्तु समयके चक्रमें पडकर सभी दार्शनिक धाराएँ भी रूढ मान्यताओंमें परिवर्तित हो गई । वेदके ऋषिओंके वचनोंका जैसा महत्त्व था वैसा ही महत्त्व इन बुद्ध - महावीर आदि समी दार्शनिकोंके वचनोंका मी हो गया । प्रायः सभी दार्शनिक अपनी बुद्धि और तर्कशक्तिसे खत विचार करना छोड कर उन प्राचीन पुरुषोंके वचनोंका समर्थन करनेमें ही चरितार्थताका अनुभव करने लगे । ऐसे समय में फिर बृहस्पति जैसे एक चार्वाक की अत्यन्त आवश्यकता थी जो इन सभी आगमाश्रित बुद्धिवादिओंको बताता कि तुम्हारी बुद्धिशक्तिका, तर्कशक्तिका मार्ग अवरुद्ध हो गया है। तुम लेगोंने अपनी तर्कशक्तिको एक खीलेमें बांधकर उसका खैरविहार रोक दिया है । अत एव देखो तुम तार्किक कहलानेवालोंमें कैसा परस्पर विरोध आता है और तुम्हारे तर्कवादमें कैसा खोखलापन है । जय राशि ने आठवीं शताब्दिमें यही किया। उन्होंने दार्शनिकोंकी ही दलिलोंका उपयोग परस्पर के खण्डनमें कर के यह सिद्ध कर दिया कि किसी मी दार्शनिक की कोई बात अविरुद्ध सिद्ध नहीं होती है।
राशि की परंपरा उन्हीं तक सीमित रही हो ऐसा मालूम देता है । क्योंकि जयरा शि की शैलीका तो दूसरे दार्शनिकोंने पूर्वपक्षोंका खण्डन करनेके लिये उपयोग किया है किन्तु 'प्रामाणप्रमेय सर्वथा असिद्ध है अत एव परम तस्वकी सिद्धि मानी नहीं जा सकती' इस बातका समर्थन ज य राशि के बाद किसीने किया हो ऐसा अभी तक देखनेमें नहीं आया । खण्ड न
3. Indian Philosophy Vol. I. P. 283.
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टिप्पणानि।
[पृ०४५, पं० २०खा य में श्री हर्ष ने परमबमका बाधक प्रमाण कोई हो नहीं सकता इस बातको समर्थित कारनेके लिये प्रमाणों की असिद्धि बतलाई है किन्तु उस असिद्धिके पीछे परम ब्रह्मकी सिद्धि
उनको अभिप्रेत है। जब कि जयराशि को प्रमाणकी असिद्धिके पीछे तत्वोपप्लव अभिप्रेत है। .. जयराशि को बृहस्पति संमत भूत मी अनिष्ट है । वह तो कहता है कि बृहस्पति ने चार
भूतोंके अस्तिलकी बात सूत्रबद्ध की है वह उनका सिद्धान्त नहीं है, किन्तु उन्होंने लोकसिद्ध सूतोंका अनुवाद मात्र किया हैं।
पृ० १५. पं० २०. 'प्रतिवादमिप्यते' देखो, पृ० ६१.
पृ०१५. पं० २६. "चैतन्यम् जैनागमों में चार्वाक मतका निषेध किया गया है। नियुक्ति, भाष्य, चूणि आदि आगमिक टीकापन्नोंमें तथा सन्म तितर्क टीका जैसे दार्शनिक प्रन्थों में मी चैतन्यसाधक प्रमाण उपलब्ध होते हैं । किन्तु प्रस्तुतमें शान्त्या चार्य ने प्रमाण बार्ति कालंकार (पृ०१७-११२) में से ही शब्दशः अवतरण करके जीवतत्त्वकी सिद्धि की है । प्रज्ञा करके कई श्लोकों को 'तदाह' या 'तदुक्तं' ऐसे निर्देशके बिना ही तथा उनकी युक्तियोंको शब्दशः उत्तार कर शान्या चाये में प्रज्ञा करके पाण्डिसके प्रति अपना मूक आदर ही व्यक्त किया है।
यहाँ एक बासका स्पष्टीकरण करना बसन्त आवश्यक है। बौदोंने चैतन्यकी सिद्धि की है सही। परंतु बौद्धोंके मतसे चैतन्यका अर्थ जीवद्रव्य नहीं है । अपि तु चित्तसंतति है। जैन मतसे जानधाराका-ज्ञानपर्यायोंका जो खरूप है वही बौद्धसमत चित्तसंतति है । जैसे जैनोंके मतसे झानपर्याय प्रत्येकक्षणमें बदलते रहते हैं और पूर्वज्ञानका नाश होते ही उत्तरज्ञान पर्याय उत्पन्न होता है । वैसेही बौद्धोंके मतसे पूर्वचित्तका नाश और उत्तर चित्तका उत्पाद होता है। इस प्रकार चितकी धारा-चित्तकी संतति अनादि कालसे प्रवृत्त है और भागे मी चलती रहती है।
बौद्ध पर्यायवादी है, द्रव्यवादी नहीं । अत एव उनके मतसे चित्त अर्थात् एकमात्र ज्ञान ही है किन्तु ज्ञानको धारण करनेवाले किसी अन्य द्रव्य का अस्तित्व नहीं । जब कि जैन द्रव्यपर्यायात्मक वस्तुवादी होनेसे ज्ञानको जीवद्रव्यका गुण कहते हैं । और इसी गुणकी विविध अवस्थाओंको पर्याय । अत एव चैतन्वकी सिद्धिके प्रसङ्गमें जैन-बौछ एक होकर चार्वाक को परास्त करें यह खाभाविक है । किन्तु इतना करनेके बाद मी जैन और बौद्धों का आपसी शालार्य बाकी ही रह जाता है । प्रस्तुत प्रसंगमें शान्त्या चार्य ने चैतन्यके पार्थक्यकी सिद्धि करके ही शालार्य पूर्ण किया है किन्तु अन्यत्र बनेकान्तवाद की सिद्धिके प्रसंगमें (पृ० ११७) बौद्ध संमत द्रव्याभाव का निरास किया है।
बौद्धोंके मतसे पित्तक्षण एकान्त क्षणिक हैं । क्षणिक चितोंका उत्तरोत्तर उत्पाद निरन्तर होता रहता है । निरन्तर अपरापर सघश वित्त क्षणोंकी उत्पत्तिके कारण सादृश्यमें एकत्वका भ्रम होता है और द्रष्टा इन अनेक चिसक्षणोंकी संतति-धाराको एक वस्तु समज लेता है।
.."सखम्, अनाथ चैतन्य संवानापेक्षया न पुनरेकाम्पविद्रब्यापेक्षवा, क्षणिकपिचानामन्यवासुपपवेरिरूपरः । सोचनात्मशः । वदनम्ववस्वस्थ मनुमानवाधितत्वात् । तथा हि । एकसम्वालगाबित पर्यावाखणतोस्विताः । प्रत्यभिज्ञापमानत्वात् मृत्पर्याया यशाः ॥"तस्वार्थलो.पृ०३३।
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पृ०४६. पं० २७]
टिप्पणानि।
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संतति या संतान एक वस्तु नहीं किन्तु काल्पनिक है, अवस्तु है । अर्थात् अनुयापि कोई जीव द्रव्य संसारमें वस्तुभूत नहीं, काल्पनिक है । और ऐसे अनेक सर्वथा पृथभूत काल्पनिक संतान संसारमें विद्यमान हैं जिन्हें हम नाना नामोंसे पुकारते हैं।
जैन दार्शनिकोंका कहना है कि वस्तुभूत एकत्वका यदि मिव किया जाय अर्थात अनुयापि जीव द्रव्यका निहव किया जाय तब संतानकी ही घटना नहीं हो सकती है। संतानकी घटना प्रतीत्यसमुत्पादके बल पर अर्थात् कार्यकारणभावके बल पर की जाती है । पर कार्योत्पत्तिके लिये यह आवश्यक है कि कारण, कार्यके कालमें भी मौजूद रहे। क्षणिकवादमें ऐसा संभव नहीं। यदि समसामयिकोंमें सव्येतर गोश्रृंगवत कार्यकारणभाव बाधित मानकर कारणकी स्थिति कार्यकालमें न मानी जाय तो कारणको पर्वकालमें और कार्यको उत्तर कालमें मानना होगा । किन्तु प्रतिनियत पूर्वभावी वस्तुको ही प्रतिनियत उत्तरभाषिकार्यका कारण मानने के लिये अर्थात् प्रतिनियत वस्तुओंमें ही कार्यकारणभाव माननेके लिये यह
आवश्यक हो जाता है कि उन पूर्वापरभावि कारण और कार्यमें अन्यकी अपेक्षा अतिशय या प्रत्यासत्तिविशेष माना जाय अन्यथा कार्यकारणभावकी व्यवस्था हो नहीं सकती । सब सबका कार्य या कारण हो जायगा । वह अतिशय या प्रसासत्ति और कुछ नहीं किन्तु कपंचिदैक्य ही है अर्थात् द्रव्य ही है।
पृ० ४५. पं० २६. 'जन्मादौ तुलना-"प्राणिनामा चैतन्यं चैतन्योपादानकारणक चिद्विवर्तत्वात् मध्यचैतन्यविवर्तवत् ।" अष्टस० पृ० ६३ ।
पृ० १५. पं० २७. 'अभ्यासपूर्षिको तुलना- "पूर्वाभ्यस्तस्मृत्यनुबन्धाजातस्य हर्षमयशोकसंप्रतिपचे। प्रेत्याहाराभ्यासकृतात् स्तन्याभिलाषः ।" न्यायसू० ३.१.१९, २२ । न्यायमं० वि० पृ० १६९ । बृहती पृ० २०७। तत्त्वसं० ५० पृ० ५३२ । प्रमेयक० पृ० ११९ । न्यावकु० पृ० ३४७ ।
पृ० १६. पं० १. 'अर्थ' यहाँ से लेकर पं० १९ पर्यन्त शब्दशः प्रमाणवार्तिकालंकारके पृ० ६७ से उद्धृत है।
पृ० १६.५० १. कार्यकारणभाव:' कार्यकारणभाव व्यवस्थित नहीं हो सकता है इस बातका समर्थन मर्तृहरिने मी किया है । देखो वाक्यप० १.३२ से । भर्तृहरि के इस मतका खण्डन धर्म की र्ति ने किया है -हेतुबिन्दु पृ० १५३ ।
तुलना-प्रमाणवा० ३.३३-३७ । तत्त्वसं० का० १४६०-१४६२, १४७५-७७ । तत्त्वार्थश्लो० पृ० १४९ । अष्टश० अष्टस० पृ० ७१-७२ । सन्मति० टी० पृ० ५०, ७० । प्रमेयक० पृ० ११८, ५१३ ।
पृ० ४६..पं० २०. 'नच' यह पंक्ति गधमें है। किन्तु पयरूपसे छपी है । 'चेतसं' के बाद का पूर्णविराम तथा अवतरणचिह निकाल देना चाहिए।
यहाँ से लेकर आगेका भाग प्रमाणवार्तिकालंकार पृ० १०५ से उद्धृत है।। पृ०१६. पं० २७. 'अपूर्वोत्पनख' प्रमाणवा० अलं० पृ० १०६ । । १. मातमी० का० २९। २. अष्टशती का० २९ । न्यायकु. पृ०९।
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टिप्पणानि । [१० ४६. पं० ३०पृ० १६. पं० ३०. 'अर्थ' 'अथ' शब्दके बाद अवतरण चिह रखना चाहिए । कोष्ट. कान्तर्गत पाठ निकाल देना चाहिए।
पृ० १६. पं० ३०. 'देहात्मिका' तुलना-प्रमाणवा० अलं० पृ. ६५ । व्यो० पृ० ३९३।
पृ० १७. पं० १७. 'अथ यदि प्रमाणवा० अलं० पृ० ७० । पृ०४७. पं०२६. 'यतो मृतस्य प्रमाणवा० अलं० १० ८९ । प०४७. पं० २९, 'अथ वैगण्य प्रमाणवा० अलं० १०९०। पृ०४८. पं० ९. 'तथा हि प्रमाणवा० अलं० पृ० ९३ । पृ० १८. पं० १३. 'कि' प्रमाणवा० अलं० पृ० ९३ । पृ० १८. पं० २७. 'चक्षुरादीनि प्रमाणवा० अलं० पृ० ७०। पृ० ४९. पं० ५. 'प्राणापान' प्रमाणवा० अलं० पृ० ८४ । पृ० ४९. पं० १६. 'अथ स्थिरो वायु: वही ।
पृ० १९. पं० २२. 'नापि देहाश्रितम्' -प्रमाणवार्तिकमें आश्रयाश्रयिभावका निरास करके देहाश्रितचैतन्यका निरास किया गया है -प्रमाणवा० १.६५-७४ । उसीके आधार पर प्रज्ञा करने जो विवरण किया है वही यहाँ उद्धृत है- अलं० पृ०९६ । अष्टस० पृ० १८६ । तत्त्वार्थश्लो० पृ० १५१। पृ० ५०. पं० २६. 'नापि कायात्मकम्' प्रमाणवा० अरू० पृ० १११ । पृ० ५०. पं० २८. 'अन्तःस्पष्टव्य' प्रमाणवा० अलं० पृ० १०६। पृ० ५१. पं० १. 'अर्थ' वही पृ० ८६ । पृ० ५१. पं० ८. 'अर्थ' वही पृ० ७२ ।
पृ० ५१. पं० ११. 'चैतन्येन' शरीरादिसे अतिरिक्त आत्मतत्त्वकी सिद्धिके लिये देखोन्यायसू० ३.१ । न्यायमं० वि० पृ० ४३७ । व्यो० ३९१ । श्लोकवा० आत्मवाद । प्रमाणवा० १.३७ । तत्त्वसं० का० १८५७-१९६४ । ब्रह्मसू० शां० ३.३.५३ । धर्मसंग्रहणी गा० ३६-1 विशेषा० गणधरवाद । अष्टस० पृ० ६३ । तत्त्वार्थश्लो० पृ० २६ । प्रमेयक० पृ० ११० । न्यायकु० पृ० ३४१ । स्याद्वादर० पृ० १०८०।
पृ०५१. पं० १७. 'अन्त्यसामग्य' इस कारिकाकी टीकामें मीमांसक और धर्म कीर्ति संमत सर्वज्ञखण्डन को विस्तारसे पूर्वपक्षरूपसे उपस्थित करके सर्वज्ञकी सिद्धि की गई है। पूर्वपक्ष को उपस्थित करनेमें गद्यकी अपेक्षा पय का ही विशेष अवलम्बन लिया है। क्योंकि मूल पूर्वपक्ष मीमांसा लोक वार्तिक और प्रमाण वार्तिक में कारिकाबद्ध ही है। और शान्त रक्षित ने भी सर्वज्ञसिद्धिके प्रसंगमें कुमारिल संमत पूर्वपक्ष कारिकाओंमें ही उपस्थित किया है । शान्त्याचार्यने प्रायः सभी पूर्वपक्षकी कारिकाएँ उक्त तीनों प्रन्थोंसे ही उद्धृत करके पूर्वपक्षकी योजना की है। कुछ कारिकाएँ ऐसी हैं जो उक्त प्रन्योंमें नहीं हैं। उन्हें शायद शान्त्याचार्यने खयं निबद्ध किया हो या अन्य किसी ग्रन्थसे उद्धृत किया हो।
सर्वज्ञवादके तुलनात्मक ऐतिहासिक विवेचन के वास्ते जिज्ञासुओंको प्रमाणमीमांसाका भाषाटिप्पण (पृ०.२७) देखना चाहिए ।
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१०५८.६० १५] टिप्पणानि ।
२०९ उत्पादा दि सिद्धि के कर्ताने सर्वज्ञवादकी चर्चा, शान्त्या चार्य की इस टीका के आधारसे ही की हो ऐसा दोनोंकी तुलना करने पर स्पष्ट प्रतीत होता है-उत्पादा० पृ० २०९।
पृ० ५१.५० २९. 'पूर्वमेव' देखो, पृ० २९ । पृ० ५६. पं० १०. 'दशोत्पाबापि' देखो, पृ० ५२. पं० १-५।
पृ० ५६. पं० २१. 'नियोगः' प्रज्ञा करने प्रमाण वा र्ति का लं कार के प्रारम्भमें ही नियोगवाद, विधिवाद और भावनावादका विस्तारसे खण्डन करके अपोहवादकी सापना की है। असहस्री' और त स्वार्थ श्लोक वार्तिक में विधानन्द ने इन वादोंके विवेचनमें उक्त मन्यसे प्रायः शम्दशः उद्धरण किया है । प्रस्तुतमें शान्त्या चार्य ने मी नियोग, भावना और विधिवादका खण्डन करनेके लिये प्रज्ञा कर का ही अनुसरण किया है।
इन वादोंके विषयमें तुलनात्मक दृष्टिसे विशेष जाननेके लिये न्याय कुमुद चन्द्र (पृ. ५५१) और उसकी संपादककृत टिप्पणियाँ देखने योग्य हैं । तया देखो, सन्मति० टी० पृ० १७३ ।
पृ० ५६. पं० २८. 'प्रचण्ड' तुलना-प्रमाणवा० अ० पृ०८। पृ० ५७. पं० २. 'विपर्ययात्' तुलना-वही। पृ० ५७. पं० ११. 'तद्धमतायामपि तुलना- वही पृ०९। पृ० ५७. पं० २०. 'एतच' तुलना- वही पृ० १४।। पृ० ५७. पं० २५. 'अथ शब्दात् तुलना-वही पृ० १० । पृ० ५८.पं० १. 'भावना' तुलना-वही० पृ० १८। पृ० ५८. पं० ३७. 'उक्तम् देखो, पृ० ५२. पं० २३ । पृ० ५९. पं० १. 'तुल्यजातीय' तुलना-यसाच तुल्यजातीयपूर्वबीजप्रवृदया। पादिबुद्धयस्तासां सत्यभ्यासे कुतः स्थितिः॥" प्रमाणवा० १.१२८ । तत्वसं० का० ३४१४।
पृ० ५९. पं० ९. 'धर्माधर्मशता' तुलना-"खधर्माधर्ममात्रबसाधनप्रतिवेषयो । ताणीतागमप्राबाहेयत्वे हि प्रसियतः॥ ३१४०॥ तत्र सर्वजगत्सूक्ष्मभेदात्यप्रसाधने । अस्थाने क्लिश्यते लोका संरम्भाद् प्रन्यवादयोः ॥ ३१४१ ॥ निम्शेषार्थपरिज्ञानसाधने विफलेऽपि च । सुधियः सौगता यत्नं कुर्वन्त्यन्येन चेतसा ॥ ३३०८ ॥ स्वर्गापवर्गसंप्राप्तिहेतुझोस्तीति गम्यते । साक्षात केवलं किन्तु सर्वोऽपि प्रतीयते ॥ ३३०९ ॥ तत्त्वसं० । "मुख्यं हि तावत् स्वर्गमोससंमापकहेतुत्वसाधनं भगवतोऽसामिा क्रियते, यत्पुनरशेषार्यपरिक्षाहत्वसाधनमस्य तत् प्रासनिकम्, अन्यत्रापि भगवतो ज्ञानप्रवृत्तेर्वाधकप्रमाणाभावात् साक्षावशेषार्थपरिज्ञानात् सर्वको भवन न केनचिद्वाध्यत इति ।" तत्त्वसं० पं० पृ० ८६३ ।
पृ० ५८. पं० १५. 'जे एगं जाण' तुलना “यथोक-'भावस्यैकस्य यो द्रष्टा प्रश सर्वस्य स स्मृतः। एकस्य शून्यता यैव सैव सर्वस्य शून्यता" इति । "मार्यगगणगासमाधिसूत्रेऽपि-'एकेन धर्मेण यु सर्वधर्मान् , अनुगच्छते मायमरीचिसाशान् । भगाह..मएसहस्त्री पृ०५ तस्वार्थलो पृ० २६१ ।
न्या.२७
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२१.
टिप्पणानि। [४० ५९. पं० १५सुच्छानलिकानशाश्वतार सो बोधिमण्डं न चिरेण गच्छति ॥ इति ।" मध्यमकवृत्ति पृ०. १२८ । विशेषा• गा० ३२० । स्याद्वादमं० का० १५।।
पृ० ५९. पं० १५. 'सकलकर्म तुलना-प्रमाणवा० अ० पृ० १३५ । पृ० ५९. पं० १८. 'यथाहिं' तुलना वही० पृ० ५११ ।
पृ० ६०. पं० २. 'संख्या' तुलना- "विप्रतिपत्तिनिराकरणाथै शाखम् । संख्यासरूपगोचरफलविषया चतुर्विधा चात्र विप्रतिपत्तिः।" प्रमाणसमु० टी० १.२ । न्यायबि० टी० पृ०९ । न्याया० टी० पृ० ८।।
द्वितीयपरिच्छेदः। पृ. ६०.५० ५. 'ज्ञानपेक्षं तुलना-"मयममामिप्राय:-लसंवेदनं प्रति मिशिलपानानामेकरूपतया साक्षात्करणचतुरत्वात् नास्स्येव मेदः, बहिरये पुनरपेक्ष्य कवित चक्षुरादिसामग्रीवललब्धसत्ताका खावयवव्यापिनं कालान्तरसंचरिष्णुं स्थमिवक्षणवि. वर्तमलक्षितपरमाणुपारिमाण्डल्यं संनिहितं विशदनिर्भासं सामान्यमाकारं साक्षात्कुर्वाण: प्रकाशः प्रथते तत्र प्रत्यक्षव्यवहारः प्रवर्तते । यः पुनर्लिनशब्दादिद्वारेण नियतानियतसामान्याकाराषलोकी परिस्फुटतारहितः सत्यात्मनोऽर्थग्रहणपरिणामः समुल्लसति स परोक्षतां स्वीकरोति ।" न्याया० टी० पृ० २५ ।
पृ० ६०. पं० ५. 'प्रमेयस्य' शान्या चार्य ने द्वितीयपरिच्छेदके प्रारम्भमें दो बातें कही हैं
(१) प्रमेय दो हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष ।।
(२) प्रमेय दो हैं अत एव प्रमाण मी दो हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष । शान्त्या चार्य के इस कपनको समझनेके लिये बौद्ध विद्वान् दिमाग और धर्म की र्ति के ऐसे ही मन्तव्योंका थोड़ा स्पष्टीकरण आवश्यक है । क्योंकि इन दोनों बातोंका जैनदर्शनमें प्रवेश और स्पष्टीकरण, उन्हीं दोनोंकी विचारधाराके आधार पर हुआ है।
जैनाचार्योंने इन बातोंको अपनाकर भी जैनदार्शनिक दृष्टिका पुट उन पर दिया है । अत एष तुलनाके साथ साथ विषमताका स्पष्टीकरण और समन्वय भी दिखाना आवश्यक हो जाता है। इस लिये निम्नलिखित मुद्दों पर यहाँ विचार किया जाता है
१-दिमागसम्मत प्रमाणविप्लव । २-धर्मकीर्तिसम्मत स्खलक्षण और सामान्यका भेद । ३-धर्मकीर्तिसम्मत एक ही प्रमेय । ४-धर्मकीर्तिसम्मत प्रमाणविप्लव । ५-धर्मकीर्तिके मतका संक्षेप । ६-जैनदार्शनिकोंका अभिमत, उसका बौद्योंसे साम्य-वैषम्य वथा समन्वय ।
७-जैनसम्मत प्रमाणविप्लव और सम्प्लव । १-दिमागने प्रमाण समुच्चय की खोपज्ञ वृत्तिमें स्पष्ट कहा है कि प्रमेय दो प्रकारका है अत एव दो ही प्रमाण हैं । खलक्षण और सामान्यके अतिरिक्त प्रमेय नहीं है । टीकाकारने
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पृ० ६०. ५० ५] टिप्पणानि।
२११ स्पष्टीकरण किया है कि खलक्षणको विषय करनेवाला प्रत्यक्ष ही है और सामान्यविषयक अनुमान ही है। ___ भावार्थ यह है कि प्रमाणसंप्लव नहीं किन्तु प्रमाणविप्लव दिना ग संमत है । अर्थात् एक प्रमेयको विषय करने वाले दो प्रमाण नहीं हैं और साथ ही एक प्रमाणके अनेक विषय भी नहीं' हैं । बौद्ध संमत क्ष णि क वाद में से ही उक्त सिद्धान्त फलित हुआ है।
२-धर्म की र्ति दिमाग के प्रमाण समुच्चय का वार्तिककार है । अत एव उसने इस विषयकी गंभीर चर्चा की है । उसने भी दिमाग के मूल कथनको दोहराया है
"मानं द्विविध विषयद्वैविध्यात् शक्त्यशक्तितः।
अर्थक्रियायां, केशादिर्नार्थोऽनर्थाधिमोक्षतः॥" प्रमाणवा० २.१ । धर्म की ति ने दोनों विषयोंका स्पष्टीकरण विस्तारसे किया है। किन्तु खलक्षण और सामान्यके भेदको संक्षेपमें इस प्रकार अवगत करना चाहिए -प्रमाणवा० २.१-३,२७,२८,५०-५१ । स्खलक्षण
सामान्य १ अर्थक्रियामें शक्त
१ अर्थक्रियामें अशक्त २ असदृश-सर्वतो व्यावृत्त
२ सदृश-सर्वव्यक्तिसाधारण ३ शब्दाविषय-अवाच्य
३ शब्दविषय-वाच्य ४ खातिरिक्तनिमित्तके होने पर स्वविषयक ४ खातिरिक्तनिमित्तके होने पर खविषयक बुद्धिका अभाव
बुद्धिका सद्भाव । ५ परमार्थसत् - अकल्पित
५ संवृतिसत् - कल्पित ६ सखभाव
६ निःखभाव ७ वस्तु
७ अवस्तु ८ असाधारण
८ साधारण ९ संकेतस्मरणानपेक्षप्रतिपत्तिकस्व ९ संकेतस्मरणसापेक्षप्रतिपत्तिकत्व १० सन्निधानासन्निधानसे
१० सन्निधानासन्निधानसे स्फुट या अस्फुट रूप
स्फुट या अस्फुट रूप प्रतिभासमेदका जनक
प्रतिभासभेदका अजनक। ३- इस प्रकार वलक्षण और सामान्यका भेद सिद्ध करके धर्म की र्ति ने सूचित किया है कि परमार्थसत् तो खलक्षण ही है और सामान्य काल्पनिक है । अत एव सामान्य भाव, अभाव
और उभयाश्रित है, खतन्त्र नहीं । जब सामान्यकी खतन्त्र सत्ता ही नहीं तब वस्तुतः प्रमेय एक ही है। और वह खलक्षण ही है । उसीसे अर्थक्रियाकी सिद्धि होती है अत एव प्रमाता उसीकी सत्ता या असत्ताकी विचारणामें तत्पर होता है।
१.प्रमाणसमु०१.२। २. "विजानातिन विज्ञानमेकमर्थद्वयं यथा । एकमर्थ विजानाति न विज्ञानद्वयं तथा"-सर्वार्थसिद्धिमें उद्धृत १.१२। ३. “यस्वार्थस्य सविधानासनिधानाम्या ज्ञानप्रतिभासमेवः तत् स्खलक्षणम् । भन्यत् सामान्यलक्षणम् ।" न्यायबि० पृ०२३-२४। ५. "सामान्य त्रिविधं तम भावाभावोभयानयाद" प्रमाणवा० २.५१। ५. "मेयं वेकं स्खलक्षणम्" प्रमा. जवा०२.५३। ६. तसादर्थक्रियासिद्धेः सदसत्ताविचारणातू"-प्रमाणवा०२.५४ ।
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टिप्पणानि । [५० ६०. पं०.५यहाँ प्रश्न होता है कि यदि प्रमेय एक ही है तब दिमाग ने दो प्रमेय माना है और खयं धर्म की र्ति ने भी प्रारम्भमें प्रमेयद्वैविध्य बताया है उसकी क्या गति होगी। इस प्रश्नका उत्तर धर्म की र्ति ने दिया है कि प्रमेय एक ही है किन्तु उसका ज्ञान दो प्रकारसे होता है । अत एव प्रमेयका द्वैत घट सकता है । उसका कहना है कि एक ही प्रमेयकी गति-ज्ञान ख-पररूपसे होती है । खलक्षणका 'ख'रूप प्रत्यक्ष गम्य है । और 'पररूप अनुमानगम्य है । खलक्षणका असाधारणरूप 'ख'रूप है और वही प्रत्यक्षका विषय है। खलक्षणका 'पर'रूप सामान्य है या साधारणरूप है। यह साधारणरूप 'पर'रूप इसी लिये है कि वह आरोपित है-कल्पित है और वही अनुमानगम्य है।
'सामान्य तो भारोपित है अत एव असत् होनेसे प्रमेय हो नहीं सकता इस लिये तद्विषयक अनुमानका प्रामाण्य पृथक् माना नहीं जासकता' चार्वाक की इस शंकाकां भी समाधान धर्मकी ति ने किया है। उसने चार्वाक की इस बातको तो मान ही लिया कि असत् प्रमेय हो नहीं सकता। किन्तु साथ ही अनुमानके प्रामाण्यको भी दूसरे ढंगसे सिद्ध किया है। प्रस्तुतमें धर्म की र्ति के अभिप्रायको टीकाकारने स्पष्ट किया है कि खलक्षण ही पररूपसे अवगत होता है तब सामान्यलक्षण कहा जाता है। और वह तो सत् ही है अत एव वह अप्रमेय कैसे ! इस लिये उसका साधन भी प्रमाण ही हैं । यह स्पष्टीकरण धर्मकीर्तिके विचारका विवरण है, टीकाकारकी अपनी सूझ नहीं।
१-एक ही प्रमेय को उपर्युक्त रीतिसे दो प्रकारका सिद्ध करके धर्म की र्ति ने उसी दिमाग सम्मत प्रमाणविप्लववादका समर्थन किया है । और प्रतिपादित किया है कि प्रमेय दो हैं अत एष प्रमाण भी दो होने चाहिए । इस विषयमें प्रमाणसंप्लववादीकी ओरसे या चार्वाककी ओरसे जो शंकाएँ होती है, उसका समाधान करके दिमागके मतका स्पष्टीकरण भी धर्मकीर्तिने किया है।
प्रत्यक्ष ही सामान्य विषयक हो तो क्या बाधा है इस शंकाका समाधान यों किया है कि प्रत्यक्ष निर्विकल्पक होता है और सामान्यका ग्रह विकल्पके विना नहीं होता । अत एव सामाभ्यप्राहक प्रत्यक्ष हो नहीं सकता किन्तु अनुमानको ही उसमें प्रमाण मानना चाहिएप्रमाणवा०२.७५।
सामान्यविशेषात्मक तृतीयप्रमेयका असंभव सिद्ध करके उसने प्रमेयद्वित्वके नियमसे प्रमाणद्वित्वका नियम स्थिर किया है-वही० २.७३-८० ।
५-धर्म कीर्ति के मतका संक्षिप्त सार यह है कि प्रमेय वस्तुतः एक.ही है किन्तु उसी एक ही वस्तुकी ख और पर रूपसे होनेवाली प्रतीतिके आधार पर ही प्रमेयके दो भेद हैं-खलक्षण और सामान्य । खलक्षण प्रत्यक्ष कहा जाता है क्योंकि वह प्रत्यक्ष प्रमाणका विषय है और
"तस्य स्वपरस्पाभ्यां गतेमैयाइयं मवम् ॥"प्रमाणवा०२.५४ । "तल कक्षणस प्रत्यक्षता खरूपेण, अनुमानतः पररूपेण सामान्याकारेण गतेः मेयवयं मतं न भूतसामान्यख सत्वात् ॥"मनो० १. "एकमेवाप्रमेयत्वादसतन्मतं च नः"-प्रमाणवा० २.६४ । ३. वही २.६५ से । १. "स्खलक्षणमेव तु पररूपेण गतेः सामाग्यलक्षणमियम्, सबसदेवेति कपम् अप्रमेयम् । ततः उत्साथनमपि प्रमाणमेव ।" मनो०२.६५ ।
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४० ६०. ५० ५] टिप्पणानि।
२१३ सामान्य परोक्ष कहा जाता है क्योंकि वह परोक्ष प्रमाण-अनुमानका विषय है । अत एव दो ही प्रमेय होनेके कारण प्रमाण भी दो ही हैं।
परोक्षार्थप्रतिपत्तिका साधन मात्र अनुमान ही है अन्य शाब्दादि नहीं । जो भी परोक्ष प्रमेय हो वह सब कभी विशेषरूपसे-असाधारणरूपसे प्रतीतीका विषय नहीं हो सकता। गमकानुयायी सामान्यरूपकी ही प्रतीति लिङ्गसे होती है अत एव सर्वतोव्यावृत्त खलक्षणरूप विशेषकी प्रतीति अनुमानसे कभी नहीं हो सकती । उसे तो प्रत्यक्ष ही विषय करता है।
६-जैन दार्शनिकोंने भी वस्तुतः प्रमेय एक ही माना है । और वह है द्रव्यपर्यायात्मक * वस्तु । उस एक ही वस्तुकी विज्ञप्ति अनेक प्रकारकी हो सकती है । एक ही वृक्ष प्रमातासे दूरीके कारण या अन्धकारके कारण अस्पष्टप्रतिभासका विषय बनता है और वही सन्निकट हो तब स्पष्ट प्रतिभासका विषय होता है । किसी वस्तुके सन्निहित होने पर या आलोकके होने पर उसका स्पष्ट प्रतिभास होता ही है यह भी नियम नहीं है, क्योंकि अंजनशलाकाका नेत्रसे भतिसम्भिधान होने पर भी चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं होता । और आलोकके होने पर भी घूकादिको दिनमें स्पष्ट प्रतिभास होता नहीं । अत एव मानना यह चाहिए कि वस्तुतः प्रमाताकी नाना प्रकारकी शक्ति या योग्यताके कारण ही नाना प्रकारका ज्ञान होता है। अर्थात् प्रमेयमें मेद न होते हुए भी उसकी नाना प्रकारकी विज्ञप्तिमें प्रमाता या उसकी शक्तियाँ ही नियामक तत्त्व हैं। विज्ञप्तिके भेदसे प्रमेयमें वस्तुतः भेद नहीं माना जा सकता किन्तु प्रमाता या उसकी शक्तिओंमें ही भेद मानना उचित है । इन नाना प्रकारकी विज्ञप्तिओंके आधार पर प्रमेयमें भी भेदकी कल्पना उपचारसे की जा सकती है । अर्थात् प्रतीति यदि अस्पष्ट हो तो प्रमेय को भी अस्पष्ट और यदि प्रतीति स्पष्ट हो तब प्रमेयको भी स्पष्ट कहा जा सकता है । ऐसी स्थितिमें विषयी अर्थात् शानके धर्मका विषय अर्थात् प्रमेयमें उपचार करके ही उक्त व्यवहारोंकी संगति कर लेना चाहिए।
धर्म की र्ति ने प्रमेय एक ही मानकर ख और पर रूपसे उसीकी प्रतीतिके आधार पर उसका द्वैविध्य सिद्ध किया है वैसे ही जैन दार्शनिकोने भी द्रव्यपर्यायात्मक एक वस्तुको ही प्रमेय मानकर सामग्रीके मेदसे उसीकी विशद और अविशद रूपसे होनेवाली प्रतीतिके आधार पर उसे प्रत्यक्ष और परोक्ष कहा है-देखो का० १३ । __इस प्रकार जैन और बौद्ध दोनोंमें वस्तुके खरूपके विषयमें मतभेद होते हुए मी प्रमेय एक ही है और यही अपेक्षाकृत नाना है इस विषयमें मतैक्य है।
१. प्रत्यक्षपरोक्षाभ्यां मेयस्यान्यस्य संभवः । तस्मात् प्रमेयद्विस्वेन प्रमाणद्वित्वमिष्यते ॥" प्रमागवा० २.६३। २. "परोक्षार्थप्रतिपत्तेरनुमानाश्रयत्वात्" हेतु० पृ० ३। “सानुमानं परोक्षाणामेकान्तेनैव साधनम् ।"-प्रमाणवा०२.६२। ३. "गमकानुगसामान्यरूपेणैव तदा गतिः । तस्मात् सवा परोक्षार्थों विशेषेण न गम्यते ॥" प्रमाणवा० २.६१। ४. "अनेकान्तात्मकं वस्तु गोचरः सर्वसंविदाम् ।" न्याया० का० २९ । तद्रव्यपर्यायारमार्थों बहिरन्तश्च तस्वतः ॥" लघी०७। ५. "मळविद्यमणिव्यक्तिर्यथाऽनेकप्रकारतः । कर्मविद्धारमविज्ञप्तिस्तथानेकप्रकारतः ॥" लघी० ५७ । अस०पू० २९-३० १२४,१८४,२२६ । तत्वार्थश्लो० पृ० २२९ । प्रमेयक० २.३ । स्याद्वादर०२.२।
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टिप्पणानि।
[पृ०६०. पं०५___ न्यायावतार (का० १) में इतना ही कहा गया कि प्रमेयका विनिश्चय दो प्रकारका है मत एव प्रमाण भी दो हैं । शान्त्या चार्य ने वार्तिकमें स्पष्टीकरण किया कि वस्तुनः प्रमेय एक है किन्तु ज्ञाता की अपेक्षासे उसका द्वैविध्य मानना चाहिए । जिसके दूर-आसन्न होनेपर प्रतिभास मेद हो अर्थात् अस्पष्ट या स्पष्ट प्रतिभास क्रमशः होते हों तो वह प्रमेय प्रत्यक्ष कहा जाता है और इसके विपरीत जो हो वह परोक्ष है । धूमादिलिङ्गज्ञानद्वारा अनुमित वहि दूर या आसन्न हो तब भी तत्कृत प्रतिभासभेद देखा नहीं जाता अत एव वहि परोक्ष प्रमेय है । फलितार्थ यह है कि एक ही वहि किसी प्रमाताकी अपेक्षासे प्रत्यक्ष और किसी अन्यकी अपेक्षासे परोक्ष हो सकता है । एक ही प्रमेयके दो रूप होनेसे प्रमाण भी दो ही हैं । शान्त्याचार्य जिसे प्रत्यक्ष प्रमेय कहते हैं उसे ही धर्म की र्ति स्खलक्षण कहते हैं
“यस्यार्थस्य सन्निधानासनिधानाभ्यां वानप्रतिमासमेदः, तत् स्खलक्षणम् ।" न्यायबिन्दु पृ० २३ ।
और शा त्या चार्य सम्मत परोक्ष प्रमेय ही धर्म की ति सम्मत सामान्य है"अन्यत् सामान्यलक्षणम्" न्यायबिन्दु पृ० २४ ।। _ "विकल्पविज्ञानेनावसीयमानो यर्थः सन्निधानासनिधानाभ्यां बानप्रतिभासं न मिनति"-न्यायबिन्दुटीका पृ० २४ ।
शान्त्या चार्य ने प्रमेयको प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप कहा है। धर्म की र्ति भी खलक्षणको प्रत्यक्ष और सामान्यको परोक्ष कहता है । जिस प्रकार दिमाग और धर्म की र्ति ने प्रमेय द्वैविध्यके आधार पर प्रमाण द्वैविध्य सिद्ध किया है उसी प्रकार न्या या व तार और उसके 'वार्तिकमें भी वैविष्य सिद्ध किया गया है। इतना तो जैन और बौद्ध का साम्य है किन्तु साम्यकी अपेक्षा जो वैषम्य है वह अधिक महत्वका है । वैषम्य भी आपाततः मालूम होता है, वस्तुतः वह है नीं । अत एव उसका विवेचन कम महस्त्रका नहीं है ।
बौद्ध दार्शनिक जैसा कि प्रथम कहा जा चुका है सामान्यको अवस्तुभूत मानते हैं। तब जैन सामान्यको वस्तुभूत मानते हैं । जैन दार्शनिकोंके मतसे वस्तु सामान्य-द्रव्य और पर्यायविशेषरूप है । अन्य दार्शनिक विरोधादि दोषोंसे भीत हो कर वस्तुको उभयात्मक माननेसे इनकार करते हैं और यही कारण है कि धर्म की र्ति ने भी उभयात्मक वस्तुवादका निषेध किया है -प्रमाणवा० २.७६-८० । किन्तु जैन दार्शनिकोंको उभयवादमें कोई दोष प्रतीत नहीं होता बल्कि एकान्तवादमें ही दोष मालूम होता है । धर्म की र्ति ने वस्तुको एक-विशेष रूप माना फिर भी उसने यदि अनुमानके प्रमेयरूपसे प्रतीत सामान्यको खलक्षणसे अत्यन्त पृथक् न मानकर स्खलक्षण ही को सामान्यलक्षण माना' तब वह स्वलक्षण एकान्तरूपसे विशेषरूप ही है यह बात सिद्ध हो नहीं सकती। तथापि जैसे जैन दार्शनिक स्पष्ट शब्दोंमें वस्तुको उमयात्मक स्वीकृत करते हैं बौद्ध दार्शनिक वैसा खीकार नहीं करके अपने एकान्तवादका समर्थन करते जाते हैं।
प्रमालक्ष्मकार भी यही मानते हैं-(पृ०६ तथा का०३१६) कि प्रमाणसंख्याका नियमन विषयके आधारसे होता है। २. अष्टस० पृ०२२६। ३. "स्वलक्षणमेव पररूपेण गतेः सामान्य लक्षणमिष्टम् । तच सदेव।"-प्रमाणवा० मनो०२.६५।
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०६०. पं० ५]
टिप्पणानि ।
२१५
धर्मकीर्ति ने वस्तुके खरूप और पररूप ऐसे दो रूप माने हैं। जैनों ने भी ये ही दोनों रूप माने हैं। इस अर्थ में दोनोंको उभयवाद इष्ट है फिर भी दोनोंमें मतभेद है । जैनोंके मतसे आपेक्षिक धर्मके मूलमें केवल वासना ही नहीं है' । अत एव वस्तुका पररूप आपेक्षिक होते हुए भी खरूप के समान ही वास्तविक । जब कि बौद्धों के मतसे पररूप कोरी कल्पना के बलसे प्रवृत्त है । उस कल्पनाका उपादान वस्तु नहीं किन्तु वासना 1
इस प्रकार सामान्य यह वस्तुका पररूप है - अत एव कल्पनाभूलक और वासनामूलक है । बौद्धों ने सामान्यको वासनामूलक मानकर भी अर्थसम्बद्ध माना है अन्यथा मरुमरीचिकाकी कल्पना या आकाशकेशादिकी कल्पना और वह्निकल्पना में भेद ही क्या ? । इस प्रकार दोनों कल्पनाएँ होते हुए भी एक अर्थसे सम्बद्ध है दूसरी असम्बद्ध । जो अर्थ से सम्बद्ध हो वही सामान्य और असम्बद्ध हो वह असत् । इस प्रकार बौद्धोने सामान्यका उपादान वासना मानकर भी उसे अर्थसे सम्बद्ध ही माना है तब जैन सम्मत आपेक्षिक धर्मोकी वास्तविकता और बौद्धसम्मत आपेक्षिक धर्मोकी अवास्तविकता में शब्दतः भेद भले ही हो, अर्थतः कुछ भी भेद नहीं है। जैनों का तो कहना है कि कथञ्चित् तादात्म्यके अभाव में किसी भी प्रकारका सम्बन्ध घटित नहीं हो सकता है । अत एव सामान्यको यदि अर्थसम्बद्ध माना जाय तो वह कथंचित् अर्थाभिन्न ही सिद्ध होगा । ऐसी स्थितिमें वह एकान्तरूपसे अवास्तविक नहीं हो सकता ।
- पहले ही यह कहा गया है कि बौद्धों के प्रमाणविप्लववाद के मूलमें क्षणिकवाद है । जैनों को भी पयार्यार्थिक दृष्टिसे क्षणिकवाद इष्ट है । पर्यायनयकी अपेक्षासे वस्तु प्रत्येक क्षणमें नई नई होती है अत एव कोई भी प्रमाण पर्यायनयकी दृष्टिसे गृहीतग्राहि नहीं होता । अत एव जैन दृष्टिसे भी प्रमाणविप्लव स्वतःसिद्ध है । इसी पर्यायवादका आश्रय लेकर प्रस्तुतमें शान्याचार्यने प्रमाणविप्लववादका आश्रय लिया है । परन्तु जैनदार्शनिक एकान्तवादी तो है नहीं । वे पर्यायनयके समान ही द्रव्यनयको भी महत्त्व देते हैं । इस लिये प्रमाणसंप्लव भी जैनसम्मत है । द्रव्यार्थिकनकी अपेक्षासे वस्तु स्थिर है, नित्य है । अत एव एक ही वस्तुमें अनेक प्रमाणोंकी प्रवृत्ति संभव है । किन्तु भिन्न भिन्न प्रमाणोंमें उपयोगविशेष होने पर ही प्रमाण संप्लव इष्ट है, अन्यथा नहीं" । अर्थात् अग्निविशेषको परोपदेशसे जानकर यदि कोई उसी अग्निको अनुमानसे जानना चाहे तभी उस अग्निमें अनुमानप्रमाणकी प्रवृत्ति हो सकती है । विशेषता यह होगी कि परोपदेश से अग्निका ज्ञान मात्र सामान्यरूपसे होता है जबकि अनुमानके द्वारा उसी सामान्य वह्निका ज्ञान धूमसम्बद्धरूपसे होता है । उसी अनुमित वह्निको यदि कोई प्रत्यक्ष करना चाहे तो अग्निदेशमें जा कर उसका प्रत्यक्ष ज्ञान भी कर सकता है । किन्तु विशेषता यह होगी कि प्रमाता उस सामान्य वह्निके विशेषधर्म तृणजन्यत्व, पर्णजन्यत्व आदि भी जान लेता है ।
19
१. ततो यावन्ति सम्बन्ध्यन्तराणि तावन्तः प्रत्येकं भावस्वभावभेदाः परस्परव्यावृत्ताः । नहि कस्यचित् केनचिद साक्षात्परंपरया वा सम्बन्धो नास्ति इति, निरूपस्य स्वप्रसङ्गात् " - अष्टश० का० ११ । "म चापेक्षिकता व्यासा नीरूपत्वेन"-तरवार्थम्लो० पृ० १५६ । २. "तस्य संबन्धिभिः कथंचित् वादाम्बे कार्यकारणादीनामपि तदेवास्तु " अष्टस० पृ० २१८ । ३. प्रमाणमी० १.१.४ । ४. अष्टस० पृ० ४ और १७१ । प्रस्तुत वार्तिककी का० २३ । ५. प्रमाण संवाद न्यायवैशेषिकोंको भी इष्ट है - व्यो० पृ० ३२६, ५८६, । कंदली पृ० ६१ । न्यायभा० १.१.३ ।
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२१६
टिप्पणानि ।
[पृ. ६०.५०८पृ० ६०. पं० ८. 'ननु' ऐसा ही प्रश्न जैन दार्शनिकोंने बौद्धों से भी किया है । देखो प्रमेयक० २.२ । स्याद्वादर० पृ० २७० ।
इस विषयकी विशेषच के लिये देखो-प्रमाणवा० अ० पृ० २०७। प्रमाणवा० मनो० २.१ ।
पृ० ६०. पं० ९. 'अथाकस्मात् प्रज्ञा करका यह सिद्धांत है कि परोक्षवहिविषयक ज्ञान भी प्रत्यक्ष हो सकता है । यदि ज्ञाता अकस्मात् अर्थात् धूम देखकर व्याप्तिस्मरणके बिना ही वहिकी प्रतीति करता है तब वह वह्निका ज्ञान प्रत्यक्ष कहा जाता है, अन्यथा अनुमान । देखो, प्रमाणवा० अ० पृ० १३५, १४०, ४३६ ।
प्रज्ञा कर के इस सिद्धान्तके खण्डनके लिये देखो- सन्मति० टी० पृ० १३. पं० २२ । प्रमेयक० २.३ । स्याद्वादर० २.२ ।
पृ०६०. पं० २५. 'अत्रोच्यते' तुलना- "अत्रोच्यते-प्रत्यक्षमपि स्खलक्षणं विषयी. कुर्वत् तत्संभावि विजातीयव्यावृत्युपकल्पितं सामान्यं पृष्ठविकल्पेन निश्चिन्यत् तद्विषयमपि, निश्चयविषयेण च प्रत्यक्षविषयव्यवस्था । एवन्तर्हि स्खलक्षणविषयता न स्यादिति चेत् । ना सजातीयव्यावृत्तत्वेनापि ततो निश्चयात् । द्वे च व्यावृत्ती खलक्षणे स्तो निश्चितेच प्रत्यक्षबलात् । न चैवमपि अनुमानस्य वैवर्थ्यम् । न हि सामान्यमित्येव प्रत्यक्षविषवा, परोक्षे तस्याऽप्रवृत्तः। न च यदेकदाऽपरोक्षं तत् सर्वदा तथा । खलक्षणं कदाचिदपरोंक्षमपि अन्यदा परोक्षम् । एवं सामान्यमपि । ततोऽपरोक्षे सामान्ये गृहीतायां व्याप्ती परोक्षे तसिषनुमानवृत्तिरिति न कश्चिद्विरोधः । तस्मात् प्रत्यक्षवाहा विषयद्वैविध्यसिद्धिः, प्रत्यक्षानुमानाभ्यां वेत्युभयथाप्युपपन्नम् ।” प्रमाणवा० मनो० २.१ ।।
"न च प्रत्यक्षपरोक्षातिरिक्तप्रमेयान्तराभावप्रतिपादकप्रमाणान्तराभावादसिद्धो हेतुरिति वक्तव्यम्। अध्यक्षेणैव प्रमेयान्तरविरहप्रतिपादनात् । तद्धि पुरस्थितार्थसामर्थ्यासुपजायमानं तदात्मनियतप्रतिभासावभासादेव तस्य प्रत्यक्षव्यवहारकारणं भवति तदन्यात्मतां च तस्य व्यवच्छिन्दानमन्यदर्थजातं सकलं राश्यन्तरत्वेन व्यवस्थापयत् तृतीयप्रकाराभावं च साधयति । तत्राप्रतीयमानस्य सकलस्यार्थजातस्यान्यत्वेन परोक्षतया व्यवस्थानादन्यथा तस्य तदन्यात्मताऽव्यवच्छेदे तद्रूपतया परिच्छेदो न भवेदिति न किश्चिदध्यक्षणावगतं भवेत् ।" सन्मति० टी० पृ० ५७३ ।
पृ० ६१. पं० २. 'दरासन्नादि' इस कारिकामें प्रत्यक्ष तथा परोक्ष विषयकी व्याख्या की गई है । यह व्याख्या न्याय बिन्दु गत स्वलक्षण और सामान्यकी व्याख्याकी अनुगामिनी है यह बात पूर्व टिप्पणीमें दोनोंकी तुलनाके साथ बताई गई है।
प्रमेयकी विशेषरूपसे अर्थात् पंचज्ञानोंकी दृष्टिसे विवेचना प्रमा लक्ष्म में की गई है जो इस प्रकार है
"तत्र केवलापेक्षया सर्वस्यापि प्रमेयराशेः प्रत्यक्षत्वात्, अवधिज्ञानापेक्षया रूपिद्रव्यं प्रत्यक्षम् अन्यश्च परोक्षम् । मनःपर्यायज्ञानापेक्षया मानुषोत्तरपर्वतान्तपर्तिसंक्षिमनोद्रव्यं प्रत्यक्षम्, शेषं परोक्षम् । श्रुतमतिद्वयापेक्षया परोक्षमशेषमिति निश्चयतः, व्यवहारेण पुनरिन्द्रियज्ञानं प्रत्यक्षम्, परोक्षं पुनरनुमानमागमश्च ।" पृ० ५। जयन्तने भी प्रमेयकी प्रत्यक्षता और परोक्षता इन शब्दोंमें स्वीकृत की है
"प्रत्यक्षत्वं परोक्षोपि प्रत्यक्षोपि परोक्षताम् । देशकालादिमेदेन विषयः प्रतिपद्यते ॥" न्यायमं० पृ० ३४ ।
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पू० ६१. पं० ४.]
टिप्पणानि ।
२१७
पृ० ६१. पं० ४. 'तनिमित्तम् ' प्रमाणमेदका नियामक तत्व क्या है इस विषय में दार्शनिकों में निम्नलिखित नाना मत प्रचलित हैं जिनका विवेचन यहाँ संक्षेपसे किया जाता है
-
१ बौद्ध तथा कुछ जैमाचार्यसंमत विषयभेद । २ मीमांसकसम्मत सामग्रीमेद आदि ।
३ नैयायिकसम्मत विषय, सामग्री और फलभेद ।
४ जैमदार्शनिकसम्मत लक्षणभेद ।
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१ - प्रमेय दो हैं - प्रत्यक्ष और परोक्ष अर्थात् स्खलक्षण और सामान्य । अत एव प्रमाण भी दो हैं - प्रत्यक्ष और परोक्ष । परोक्ष प्रमाण सिर्फ अनुमान है । इस बौद्ध मतका विस्तार से विवेचन पूर्व की टिप्पणीमें हो चूका है। इससे स्पष्ट है कि बौद्धोंने प्रमाणभेदका नियामक तत्व प्रमेयभेदको ही माना है ।
बौद्ध प्रमाणसंप्लवन मान कर प्रमाणविप्लव मानते हैं - यह भी कहा जा चुका है । विप्लववाद के समर्थन में एक युक्ति यह भी है कि प्रत्यक्षके विषय स्खलक्षण में अनुमान शाब्दादि किसी परोक्ष प्रमाणकी प्रवृत्ति मानना नहीं चाहिए क्योंकि ऐसा होनेपर बुद्धिमेद नहीं घट सकेगा । अर्थात् अनुमान और शाब्द बुद्धि भी प्रत्यक्ष जैसी ही होगी क्योंकि विषयभेद नहीं है । अनुमान और प्रत्यक्षबुद्धिमें भेद तो स्पष्ट है अत एव विषयभेद मानना चाहिए। और उसीके कारण प्रमाणमें भेद हुआ है यह मानना चाहिए' ।
इसी बात का समर्थन भर्तृहरि ने भी किया है -
"अन्यथैवाग्निसंबन्धाद् दाहं दग्धोऽभिमन्यते ।
अन्यथा दाहशब्देन दाहार्थः संप्रतीयते ॥” वाक्य० २.४२५ ।
बौद्ध विद्वान् प्रमेयभेदके आधार पर प्रमाणका भेद माने यह तो समझमें आ सकता क्योंकि उस बात की संगति बौद्ध सम्मत क्षणिकवाद, प्रमाणविप्लव, खलक्षण और सामान्य की कल्पना आदि अन्य सिद्धान्तोंसे हो जाती है किन्तु जैन दार्शनिक शान्त्या चार्य जो प्रस्तुत ग्रन्थके प्रणेता हैं और प्र मा लक्ष्मकार जिनेश्वर ये दोनों जब उसी बात को मानें तब उसकी संगति जैन दर्शनसंमत अन्य सिद्धान्तोंसे कैसे करना यह एक समस्या है। यह समस्या और मी जटिल हो जाती है जब हम देखते हैं कि अन्य सभी जैन दार्शनिक लक्षणभेदको ही प्रमाणभेदका नियामक मानते हैं और विषयके भेदसे प्रमाणभेद नहीं माना जासकता - यह दृढतापूर्वक सिद्ध करते हैं ।
इस विषय में शान्त्या चार्य का स्पष्टीकरण क्या है उसे देखना चाहिए और उसका जैन सिद्धान्त के साथ मेल बैठता है या नहीं इसकी विवेचना करनी चाहिए । अन्य जैन दार्शनिक प्रमाणोंके विषयरूपसे एक ही द्रव्यपर्यायात्मकवस्तुको मानते हैं । इस बातको स्वीकार करते हुए भी शान्त्या चार्य का कहना है कि एक ही प्रमेय प्रमाताकी अपेक्षासे द्विविध हो जाता
१. " तदाहुः - समानविषयत्वे च जायते सशी मतिः । न चाध्यक्षधिया साम्यमेति शब्दानुमानभीः ॥" न्यायमं० पृ० ३१ । "आह च - अन्यदेवेन्द्रियग्राह्यं अन्यः शब्दस्य गोचरः । शब्दात् प्रत्येति भिन्नाक्षो न तु प्रत्यक्षमीक्षते ॥” न्यायमं० पृ० ३१ । ये दोनों कारिकायें अन्यत्र भी उद्धृत हैं।
म्या० २८
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२१८
टिप्पणानि । [१० ६१. ५० ५है। शान्त्या चार्य की यह बात जैन सिद्धान्तके प्रतिकूल नहीं है । फिर भी यह तो मानना पड़ेगा कि मूलतः प्रमेयोंका इस प्रकारसे शान्त्या चार्य कृत वर्गीकरणका विचार बौद्धों के असरसे अछूता नहीं । यही कारण है कि उनकी प्रत्यक्ष प्रमेयकी व्याख्यामें तथा धर्म की र्तिकृत खलक्षणरूप प्रत्यक्ष प्रमेयकी व्याख्या वस्तुतः कोई भेद नहीं दीखता। यही बात दोनोंके परोक्ष प्रमेयके विषयमें भी लागू होती है।
दूसरे जैन दार्शनिक प्रमाणसंप्लववाद को एकखरसे मानते हैं यह पूर्व टिप्पणमें कहा जा चुका है। ऐसी स्थितिमें प्रमेयमेदके आधार पर प्रमाणका भेद मानने पर शान्मा चार्य को प्रमाणसम्प्लववाद का त्याग करना पड़ेगा और बौद्धों की तरह विप्लववादको अपनाना पड़ेगा। अत एव प्रमाणविप्लववाद जैन सिद्धान्तके प्रतिकूल है या नहीं इस बातका विवेचन होना भी जरूरी है। __ प्रमाणसंप्लव मान कर भी जैनों ने मीमांसकों की तरह एक ही अर्थक नये नये परिणामोंको प्रमाणका विषय माना है । अर्थात् धर्मीकी एकताके कारण प्रमाणसंप्लव कहा जाता है । वस्तुतः प्रत्येक प्रमाणान्तरमें धर्मी नये रूपमें या यों कहना चाहिए कि प्रत्येक प्रमाणान्तरमें नये नये धर्म प्रतिभासित होते हैं । जैन दर्शनमें धर्म और धर्मीका एकान्त मेद नहीं है, अत एव प्रत्येक प्रमाणका विषय धर्मकी दृष्टिसे भिन्न होते हुए भी धर्मीकी दृष्टिसे अभिन्न ही है। इसी धर्मीकी एकता-अमेदको मुख्य मान कर जैन दार्शनिकोंने प्रमाणसंप्लवका समर्थन किया है। परन्तु इस धर्मी या द्रव्यदृष्टि के अतिरिक्त एक दूसरी दृष्टि भी है जो पर्यायको प्रधानता देती है और वह जैन संमत भी है। उसीके अनुसार अर्थात् उसी पर्यायदृष्टिसे सोचा जाय तो प्रमाणविप्लववाद जो शान्त्या चार्य के मतसे फलित होता है वह जैन दर्शनके सिद्धान्तसे प्रतिकूल नहीं कहा जा सकता।
प्रमा लक्ष्म कार के मतकी संगति भी इसी प्रकार समझ लेनी चाहिए । क्योंकि प्रमालक्ष्मकार भी इसी मतके समर्थक हैं___"विधामेयविनिश्चयादिति बदता प्रन्यकृता प्रमेयमेदाधीनः प्रमाणमेदा, नापरं निमिचान्तरमस्येत्येतत् प्रतिपादितम् । तथा च व्यापकानुपलब्ध्या प्रमाणान्तरामावमाह।" पृ०६। "एतान्येव प्रमाणानि नापरं विषयारते"-प्रमालक्ष्म का० ३१६ ।
२-बौद्धों की तरह मीमांसक कु मा रिल के मतसे मी प्रमाणसंप्लव संभव नहीं है, क्योंकि प्रमाण अपूर्वार्थक-अगृहीतग्राहि होना चाहिए। अत एव उनके मतसे विषयमेदसे प्रमाणमेद है । प्रमाणमेदमें सिर्फ विषयमेद ही कारण है यह बात नहीं । उनके मतसे विषयभेदके अतिरिक्त सामग्रीमेद मी कारण है । अनुमानसे शाब्डप्रमाणका भेद सिद्ध करते हुए कुमारिल ने कहा है
"तसादननुमानत्वं शाब्दे प्रत्यक्षववेत् । रूप्यरहितत्वेन तारग्विषयवर्जनात् ॥" श्लोकवा० शब्द० १८।
"पत्रापि सात् परिच्छेदः प्रमाणहत्तरैः पुनः । मूनं सत्रापि पूर्वेण सोऽयों नावएतस्तथा ॥" लोकवा०२.१४। २. मीमांसकोंने एक ही धर्मी में प्रमाणातरकी प्रवृत्ति मानी है फिर भी प्रमाणसंबनहीं माना बहधर्मकी मुख्यता को लेकर ही।
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१० ६१.५० ४] टिप्पणानि ।
२१९ इससे स्पष्ट है कि सामग्री और विषयके भेदसे अनुमान और शाब्दमें पार्थक्य है । इस प्रकार उन्होंने उपमान, अर्थापत्ति और अभावका पार्थक्य उन्ही निर्दिष्ट दो कारणोंसे सिद्ध किया है - प्रमेयक० पृ० १८३ । स्याद्वादर० पृ० २११ ।।
वादी देवसूरि के कथनानुसार कुमारिल के मतसे अभावप्रमाणका पार्थक्य तीन कारणोंसे फलित है
"एवं सरूपमेदात्, गोचरमेदाद, फलस्य मेदाच ।
मित्रं सिद्धमभावप्रमाणमपरप्रमाणेभ्यः।" स्याद्वादर० पृ० २८३ । - वस्तुतः यदि सामग्रीभेदको प्रमाणभेदका नियामक माना जाय, जैसा कि कु मारिल ने समी प्रमाणों के विषयमें माना है, तो विधानन्द का कहना है कि कुमारिल योगिज्ञानका- सर्वत्र ज्ञानका निषेध नहीं कर सकता । क्योंकि उसकी सामग्री कुमारिलसंमत समी प्रमाणोंसे पृषक ही है। सामग्रीमेंदको प्रमाणभेदका नियामक न मान कर यदि लक्षणभेदको ही नियामक माना जाय तमी प्रमाणसंख्यांका ठीक नियमन होता है-तत्त्वार्थश्लो०.पृ० १८०-१८०।
३-सुष्यतु दुर्जनः न्यायसें जयन्त ने बौद्ध सैमत विषयके भेदसे प्रत्यक्ष और अनुमानका भेद मानकर भी कहा है कि प्रत्यक्ष और अनुमान की सामग्री तथा फलसे, उपमान-शाब्दकी सामग्री तथा फल मिल में बत एव इन दो कारणों से मी प्रमाणभेद मानना चाहिए । अर्थात् सामग्री और फलभेद मीप्रमाणभेदका नियामक होना चाहिए यह जयन्त का मत है। न्यायम:-पृ.३३।
१-अन्य-समी वार्शनिकों की चर्चाको देखकर जैन दार्शनिकोंने यही निर्णय किया कि वस्तुतः लक्षणभेद ही प्रमाणभेदका नियामक मानना चाहिए ।
निवामदने बौखके विषयभेदके सामने मीमांसक संमत सामग्रीवादको उपस्थित किया और मीमांसकसमत सामग्रीवादमें मी पूर्वोक्त दोष बतलाकर लक्षणभेदको ही प्रमाणभेदका नियामक तल सिद्ध किया है- तत्त्वार्यश्लो० पृ० १८०-१८१ । प्रमाणप० पृ० ६४।।
सिदार्षिने म्या यावतारके द्विधामेयविनिश्चयात्' इस पादका भावार्थ यह किया है कि जानकी प्रापि ही दो प्रकारकी होती है-एक तो विशद और दूसरी अविशद । इनके अतिरिक्त और किसी भी प्रकारको ज्ञानप्रवृत्ति नहीं होती । अत एव प्रमाणका तीसरा प्रकार हो नहीं सकता।
"तीकारी विहाय प्रकारान्तरेण ज्ञानप्रवृतिं पश्यामःन वापश्यन्त प्रमाणात स्परिकल्पनं क्षमामहे।
न मोप्रथमानयोरेक निहुपानं उपेक्षामहे ।" न्याया० टी० पृ.२५
सिवर्षि ने कहा है कि सामग्रीके भेदसे कोई ज्ञान स्पष्ट होता है और कोई अस्पष्ट । किन्तु जानकी परत या पत्परताका विचार बाचार्य सापेक्ष है । खसंवेदनकी दृष्टिसे तो समी ज्ञान एकल सायाकारात्मक है। सारांश यह है कि बाघार्थका ज्ञान दो प्रकारसे होता है विशद और अघिद । गत एक दो ही प्रमाण है। प्रमापौर पर देवसूरिको मी लक्षणमेदसे ही प्रमाणमेद इष्ट है । चक्षुरादि नाना.
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टिप्पणानि।
[१० ६१ पं० ११सामग्रीके कारण चाक्षुषादि अनेक प्रत्यक्ष ज्ञानव्यक्तियाँ हो सकती हैं किन्तु उन सभी का एक सामान्य लक्षण वैशय होनेसे सभी प्रत्यक्ष प्रमाणमें अन्तर्भूत हो जाती है । इस प्रकार लिा. शम्दादि नाना सामग्रीके कारण अनुमानागमादि परोक्षहान व्यक्तियाँ अनेक हो सकती है किन्तु उन सभी का अन्तर्भाव एक परोक्षप्रमाणमें इस लिये होता है कि उन सभी का एक सामान्य लक्षण अवैशय है । इस प्रकार प्रमाणभेदका नियामक लक्षणभेद है, विषयभेद नहीं। यहाँ पर यह बात जान लेना चाहिए कि लक्षणभेदसे प्रमाणभेद जैनोंने माना किन्तु सामग्रीभेद, विषयभेद इत्यादि ही लक्षणभेदके नियामक तत्त्व हैं।
पृ० ६१. पं० ११. 'इह प्रामाण्यं तुलना-"प्रमाणमेदव्यवस्थापको हि विषयमेव एव । तदमेदे गृहीतग्राहितया प्रामाण्याभावापः । कथमन्यथा अनधिगतार्थाधिगन्त प्रमाणमिति प्रमाणलक्षणं प्रणीयते। किन्तु अर्थक्रियार्थिनो नान्यद्विषयान्तरमस्ति यत् परिच्छिन्दद् मन्यत् प्रमाणान्तरं स्यात् । न चाविषयस्य प्रमाणचिन्तया किचिद्, मर्चकियोपयोगिन एव चेतसः प्रमाणतयेष्टेरिति"-प्रमालक्ष्म पृ० ७५।।
पृ० ६१. पं० १६. 'इयं चाग्ने वार्तिककी आगे आनेवाली कारिकाओंमें प्रत्यक्ष और परोक्षके अतिरिक्त और कोई प्रमाण अर्थवत् नहीं है। इसी व्यापकानुपलब्धिकी सिद्धि की गई है-का० १४-१६।
पृ०६१. पं० २१. 'प्रमाणेतर यह कारिका धर्म की र्ति की है-"तदुक्तं धर्मकीर्तिमा'प्रमाणेतर' इत्यादि प्रमाणप० पृ० ६४ । स्याद्वादर० पृ० २६८।
पृ० ६२. पं०५. 'साहश्यं तुलना - "गवयस्योपलम्मे च तुरमादौ प्रवर्तते । तसा. स्यविज्ञानं यत्तदन्या प्रमान किम् ॥" तत्त्वसं० का० १५५९ । प्रमाणवा० अलं० पृ० ५७४ । लधी० १९।
पृ० ६२. पं० ६. 'यथा' उपमानका यह उदाहरण मीमांसक की दृष्टिसे दिया है।
पृ० १२.५० ६. 'उपमान' उपमानके १-खरूप, २-प्रामाण्य, ३-और फलंके विषयमें दार्शनिकोंका जो मतभेद है उसे बताना यहाँ अमीष्ट है।
१-उपमानका स्वरूप। उपमानके खरूपके विषयमें दार्शनिकोंमें निम्न लिखित मतभेद हैं(अ) वृद्ध नै या यि कसंमत अतिदेशवाक्य । (आ) उपवर्षा दि मीमांसक और वेदान्त संमत सादृश्य-सादृश्यज्ञान । ( नवीन नै या यिकसमत सादृश्यप्रत्यक्ष । (६) प्राचीन जैन संमत सादृश्य-वैसादृश्यज्ञान । (उ)नवीन जैन संमत संकलनात्मकसादृश्यज्ञान । .."तथा हि-बदेकलक्षणलक्षितं सद्य तिमेदेऽपि एकमेव पथा बैसबैकलक्षणाक्षि सुरादिप्रत्यक्षम्, अवैशबैकशक्षणलक्षितं च शाब्दादि इति । परादिसामग्रीमेदोपि हिमहामानां वैशरक
क्षणाशिवत्वेनेवामेवा प्रसिदः प्रत्यक्षरूपवानतिक्रमाद, बबर शब्दादिसामग्रीमेदेपि भवैशबैककक्षण. पक्षिवखेनैवामेवः शाब्दादीनां परोक्षरूपस्वाविशेषात् ।" प्रमेयक पृ० १९२ । स्याहादर० पृ०२८३॥
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पृ० ६२. पं०६] टिप्पणानि ।
२२१ (अ) न्याय सूत्रकार ने उपमानका लक्षण यह किया है - "प्रसिद्धसाधात् साध्या साधनमुपमानम् । १.१.६ । इस सूत्रके व्याख्यानमें वृद्ध नै या यि कों में तथा उस्योतकरादि में मतभेद है। द्धनैया यि कों के मतमें अतिदेश वाक्य ही उपमान प्रमाण है । जय न्स ने बने यायिकों के अनुसार इस सूत्रका व्याख्यान इस प्रकार किया है
"मत्र बनेयापिकास्तावदेवमुपमानखरूपमाचक्षते । संहासविसंबन्धप्रतीतिफलं प्रसिद्धतरयो सारूप्यप्रतिपादकमतिदेशवाक्यमेवोपमानम् । गषयार्थी हि नागरकोऽनवगतगवयसकपस्तदमिक्षमारण्यकं पृच्छति 'कीडर गषयः' इति । स तमाह-'याडशो गौलाग्यो गवयः' इति । तदेतद्वाक्यमासिकस्य प्रसिद्धन गवा सारश्यममिवषद तद्वारकममसिदस्य गवयसंहामिषेयत्वं ज्ञापयतीत्युपमानमुच्यते ।" न्यायमं० वि० पृ० १४१ ।
जयन्त का कहना है कि भाष्य कार भी अतिदेशवाक्यको ही उपमान प्रमाण मानते हैं, भौर ऐसा माननेमें कोई असंगति नहीं - न्यायमं० वि० पृ० १४२।।
(आ) शबरने अपने भाष्य में वृत्ति कार उपवर्ष के मतका अनुवाद किया है। उससे उपवर्षसमत उपमानलक्षणका पता चलता है । भाष्य के टीकाकार और अन्य ग्रन्थकार इस उपवर्षके मतका ही शबरके मतके रूपमें उल्लेख करते हैं इसका कारण यही है कि शबरने अपने भाष्य में उसे लिख दिया है।
उपवर्षके मतानुसार उपमानका लक्षण यह है - "उपमानमपि सारश्यमसभिकष्टेऽर्थे पुविभुत्पादयति, यथा गवयवर्शनं गोसरणस्य" । शाबर० १.१.५।
हुमारिल का कहना है कि अतिदेशवाक्यको उपमान मानने पर भागममें ही उपमान का अन्तर्भाव हो जाता है इसी लिये श बरने (अर्थात् उपवर्ष ने) उपमानका यह नया लक्षण खिर किया है । इसके अनुसार सादृश्य' उपमान प्रमाण है। क्योंकि उसीसे असनिकृष्ट गोमेंजो कि स्मरणका विषय है-गवयसाऽस्यकी बुद्धि होती है अर्थात् 'वह गो इस गवपके सदृश ऐसी दुखि उत्पन होती है।
सारस्य नहीं किन्तु सादृश्यज्ञान उपमान प्रमाण है-ऐसा स्पष्टीकरण टीकाकारोंने किया है-"पूर्व मर्यमाणेऽर्थे रश्यमानार्थसारयज्ञानमुपमानम् ।" शास्त्रदी० पृ० ७४ ।
जैसे अनुमानमें ज्ञायमानलिङ्गके खानमें लिझज्ञानको करण माना गया है उसी प्रकार उपमितिका करण मी सारश्य नहीं किन्तु सादृश्यज्ञान ही माना गया है। मीमांसा की तरह वेदान्त में मी उपमान सादृश्यज्ञान ही कहा गया है-"तत्र सारश्य
"सावरे सागमावीमावास्यवोपवर्णितम् ।" सोकमा उप० । तस्वसं०६० WI १. " गोसारणलेखन्दो मायामा उपवसंमत एवं भापकारेण लिखितवाद बाबारादिमिर भायखेनैवरचते।"शाखदी० युकि०पू०७४।६.सवरने बाहरनमें गवर. सबको साहचलानीव रखा है। इसका मतलब है-साध्वविशिगवदर्शनम् भार "भरवं मालमसाल्पगविक्षेत्र पस्सनः गोसको गवयः' इत्याकारकं सारयविशिष्मवयनम्"-शाबर माप. .."अनुमावाशांबमा कितुका नहि।"कारिका०६७। ..."सारस्य गोवंशा सावविपापमान"-प्रकरणपं०पू० ११० ।
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२१२
टिप्पणानि ।
[पृ० ६२, पं० ६प्रमाकरणं उपमानम् । तथाहि-नगरेषु रगोपिण्डस्य पुरुषस्य वनं गतस्य गवयेन्द्रियसनिकर्षे सति भवति प्रतीतिः 'मयं पिण्डो गोसाशः' इति । तदनन्तरं च भवति 'अनेन सहशी मदीया गौः' इति । तत्र अन्वयव्यतिरेकाभ्यां गषयनिष्ठगोसारयज्ञानं करणं गोनिष्ठगवयसारश्यशानं फलम् ।" वेदान्तप० पृ० १७६ ।
(३) यद्यपि जयन्त ने वृद्ध नै या यि कों के लक्षणकी संगति बतलाई है और मीमांसकों के आक्षेपका उत्तर दिया है। फिर भी अतिदेशवाक्यको उपमान माननेवाले वृद्ध नै या यिक ही रहे हैं यह मानना पडेगा । क्योंकि उसोतकरसे लेकर सभी नै या यि कों ने-जिन्हें जयन्त 'अवतन' कहके पुकारता है-तथा जयन्त ने भी उपमानके नये लक्षणको ही अपनाया है । और उसीका समर्थन किया है । इन नवीन नै या यि कों के द्वारा उक्त न्या य सूत्र की व्याख्या ऐसी की गई है- "अद्यतनास्तु व्याचक्षते-श्रुतातिदेशवाक्यस्य प्रमातुर प्रसिद्ध पिण्डे प्रसिद्धपिण्डसारूप्यवानमिन्द्रियज संज्ञासंक्षिसम्बन्धप्रतिपत्तिफलमुपमानम्"- न्यायमं० वि० पृ० १४२ । अर्थात् इन नवीनोंके मतमें अतिदेशवाक्यस्मृतिसापेक्ष साखप्यप्रत्यक्ष उपमान प्रमाण है ।
प्रस्तुतमें इतना ध्यान रखना चाहिए कि नवीन नै या यिक और मीमांसक संमत उपमानके स्वरूपमें वस्तुतः मेद नहीं है किन्तु दोनोंके मतसे उपमान प्रमाणका कार्य- फल भिन्न भिन्न है अत एव 'कार्यभेदात् कारणभेदः' इस न्यायसे दोनोंको भिन्न भिन्न रूपसे लिया गया है। दोनोंके फलभेद - कार्यभेदकी चर्चा आगे की जायगी।
दूसरी बात यह भी है कि नै या यि क और मीमांसकों में सादृश्यक खरूपके विषयमें मी मौलिक मतभेद है अत एव सादृश्यज्ञान दोनोंके मतसे भिन्न प्रकारका ही होगा । अत एव दोनोंके मतसे सादृश्यज्ञान उपमान होते हुए भी उपर्युक्त प्रकारसे मतभेद होनेके कारण दोनोंके मतोंको अलग अलग ही प्रस्तुतमें गिना है। . (ई) जैनों के अनु योग द्वार सूत्रमें 'औपन्य' प्रमाणका निरूपण है । अनु योगद्वार की शैली यह है कि वस्तुके भेदकथन द्वारा उसका खरूप बताना। अत एव उसमें उपमा प्रमाणके भेद तो गिना दिये किन्तु लक्षण नहीं 'बतलाया किन्तु निर्दिष्ट साधोपनीत और वैधोपनीत ऐसे उपमाप्रमाणके दो भेदोंसे अंदाजा करें तो कहा जा सकता है कि अनु योग द्वार कारके मतसे सादृश्य-वैसादृश्यज्ञान उपमान प्रमाण है।
न्याय सूत्र में उपमानपरीक्षामें पूर्वपक्षमें कहा गया है कि अत्यन्त, प्रायः और एकदेशसे जहाँ साधर्म्य हो वहाँ उपमान प्रमाण हो नहीं सकता और इन तीनके अतिरिक्त साधर्म्यका अन्य प्रकार नहीं । अत एव उपमान प्रमाण असिद्ध है। किन्तु अनु यो गद्वार में साधर्यो
.."समाचया लिलिशिसम्बन्धस्मृत्यनुग्रहे सति लिडपरामशोऽनुमानम्, तर प्रत्यक्षम्, तथाऽगमा. दिवसंस्कारस्पखपेक्षं सारूप्पप्रत्यक्षमुपमानमिति"न्यायवा०२.१.४८। २. भगवतीमें भी उपमान प्रमाणका निरूपण है-शतक ५. उदेशा४१."से किओवम्मे? भोवम्मे दुविहे पण्णते जहा-साहम्मोवणीए महम्मोवणीए " इत्यादि-अनयो०१० २१७। १. "अत्यन्यप्रायैकदेशसाबाबुपमानातिदि"-न्यायसू०२.१.४४ । अत्यवसायम्योपमानम सिध्यति । भवति पथा गौरव गौरिति । पायःसापोदुपमान म सिध्यति नहि भवति यथाऽमहाने महिष इति । एकदेससाघम्बापमान मसिध्यति, सहि सर्वेण सर्व उपमीयते इति"-न्यायमा० ।
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पृ० ६२. ५०६] टिप्पणानि ।
२२३ पनीत उपमान और वैधोपनीत उपमान प्रमाणके तीन तीन भेद किये गये हैं और वे उक्त पूर्वपक्षीके द्वारा निषिद्ध भेद ही हैं ऐसा तुलना करनेसे पता लगता है-“से किं तं साहम्मोषजीए' साहम्मोतिविहे पण्णते, तं जहा किंचिसाहम्मो० पायसाह० सव्यसाह । से किंतं किंचिला..."जहा मंदरो वहा सरिसवो जहा समुहो तहा गोप्पयं. जहा
आइचो तहा बजोतो.""जहाचंदोतहा कुमुदो से कितं पायसाह... जहा गोवहा गवयो" से किं तं सबसाह०१ सम्बसाहन्मे थोषम्मे नत्थि तहावि तेणेव तस्त मोवम्मं कीरर जहा मरिहंतेहिं भरितसरिसं कयं"।" अनुयो० पृ० २१७ ।
(उ) जैनों के प्राचीन सूत्र अनु योग द्वार के उपमान प्रमाणको आगे जाकर जैन दार्श निकों ने प्रत्यभिज्ञानके अन्तर्गत कर दिया है । और उसका लक्षण संकलनारूप सम्यम्मान बताया है। इस प्रत्यभिज्ञानमें अतीत और वर्तमान पर्यायकी संकलनाका ज्ञान होता है। ऐसी संकलनाका विषय सादृश्य हो तब दूसरे लोगोंने उसे उपमान कहा जब कि उसीको बैनाचायों ने सादृश्यप्रत्यभिज्ञान कहा है- तत्त्वार्थश्लो० पृ० १९० । परीक्षा० ३.५ । प्रमाणन० ३.५।
२-उपमानका प्रामाण्य उपमानके प्रामाण्यके विषयमें चार मत निम्नलिखित प्रकारसे हैं(1) उपमानका सर्वथा अप्रामाण्य (आ) उपमानका अन्यमें अन्तर्भाव (३) उपमानका पृथक् प्रामाण्य (६) उपमानके प्रामाण्य-अप्रामाण्यका अनेकान्त
(अ) उपमानका सर्वथा अप्रामाण्य बौद्ध संमत है । तखोपप्लव सिंह कार जयराशि चा िक भी इसका प्रामाण्य नहीं मानते । उन्हीं का अनुकरण करनेवाले श्रीहर्ष वेदान्ती और शान्त्या चार्य जैन मी उपमानप्रामाण्यको नहीं मानते।
शान्त रक्षित और प्रज्ञा कर गुप्त इन दोनों बौद्ध आचार्योंने समान रूपसे यही दलील की है कि उपमान प्रमाण नहीं है क्योंकि उसका कोई प्रमेय है ही नहीं। दूसरी बात यह है कि यदि सादृश्यप्रतिपादक उपमान प्रमाण माना जाता है तो वैसादृश्यग्राहक एक अन्य प्रमाणकी कल्पना करनी चाहिए - तत्त्वसं० का० १५५९ । प्रमाणवा० अलं० पृ० ५५६ ।
शान्त र क्षित ने उपमान और स्मृतिमें अभेद सिद्ध करके स्मृतिकी तरह उसका अप्रामाण्य सापित किया है । उनका कहना है कि गो और गवय दोनोंमें कुछ ऐसे अवयव हैं जो तुल्यप्रत्ययकी उत्पतिमें हेतु होते हैं । इन अवयवोंके अतिरिक्त सादृश्य या सामान्यं ऐसी पृषाभूत कोई वस्तु नहीं जो तुल्यप्रत्ययकी उत्पत्तिमें हेतु होती हों। अत एव जब हम गवयको देखते हैं तब गोगत उन अवयवोंकी स्मृति भूयोदर्शनके कारण होती है। यही उपमान है। अत एव स्मृतिरूप होनेसे वह प्रमाण नहीं - तत्त्वसं० का० १५४७-४९।
चार्वाक प्रत्यक्षप्रमाण मानता है यही सामान्यरूपसे सब की धारणा है किन्तु तत्वोपप्लव
.. "प्रमेयवस्वभाग नामिप्रेतास मानता।" तस्वसं का० १५४३ । प्रमाणा. मलं. पृ०५७४।
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टिप्पणानि।
[पृ० ६२. पं०६
सिंहकार जयराशि चार्वाक हो कर भी प्रत्यक्षको भी प्रमाण नहीं मानता । तब उनके मसमें उपमानके प्रामाण्यका प्रश्न ही नहीं । उनका कहना है कि 'जब प्रत्यक्ष ही प्रमाण नहीं लब प्रत्यक्षमूलक उपमान कैसे प्रमाण हो सकता है। उन्होंने मी बौद्धों की तरह कहा है कि सादृश्यरूप विषय ही सिद्ध नहीं तब उपमान प्रमेयहीन हो कर प्रमाण कैसे हो सकता है :तत्त्वो० पृ० ११०।
श्रीहर्ष ने भी तत्त्वोपप्लव और माध्य मि कों का अनुसरण करके प्रत्यक्षादि सभी का प्रामाण्य खंडित किया है अत एव उनके मतमें भी उपमानका प्रामाण्य नहीं-खण्डन० प्रथमपरि०।
जयन्त ने मीमांस क संमत उपमानका अन्तर्भाव स्मृतिमें किया है और इस प्रकार उसका अप्रामाण्य सिद्ध किया है । उनका कहना है कि गवयको देखकर प्रतीति यह होती है कि अनेन सदृशो गौः मया नगरे दृष्टः' और यह प्रतीति स्पष्टतया स्मृति है- न्यायमं० वि० पृ० १४७। __ अकलं का दि अन्य सभी जैनाचार्यों ने उपमानको प्रत्यभिज्ञाके अन्तर्गत माना है-इस बातको आगे कहा जायगा । किन्तु न्या या वतार मूलमें तीन ही प्रमाण प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम माने गये हैं। उपमानके विषयमें मूलमें कुछ भी नहीं कहा गया है । शान्त्या चार्य ने अपने प्रस्तुत वार्तिकमें अन्य जै ना चा यों का अनुसरण न करके बौद्धों की तरह उन्हीके शब्दोंमें उपमानको अप्रमाण ही सिद्ध किया और अन्य जै ना चार्य संमत उसका प्रत्यभिज्ञामें अन्तर्भाव मी मान्य नहीं रखा । यह उनका मूल न्या या व तार का समर्थन कहा जा सकता है किन्तु इससे अपने समय तक हुए समग्र जैन न्यायके विकास की उपेक्षा मी फलित होती है। प्रस्तुत प्रसंगके अतिरिक्त इसी वार्तिकमें अन्यत्र भी उन्होंने उपमानके प्रामाण्यका निरास किया है- देखो पृ० ५८. पं० ३३ ।
प्रस्तुत प्रसंगमें एक और बात भी जानने योग्य है वह यह कि शान्त्या चार्य ने उपमानको तो अप्रमाण ही कहा किन्तु जिस प्रत्यभिज्ञानमें दूसरे जैनाचा यों ने उपमानका अन्तर्भाव किया है उसे तो प्रमाण ही माना है।
दूसरे जैनाचा यों ने प्रत्यभिज्ञाको स्वतन्त्र परोक्ष प्रमाण माना है तब शान्त्या चार्य ने प्रत्यभिज्ञाको नै या यि का दि की तरह प्रत्यक्ष ही माना है'।
(आ) अब उपमानके अन्तर्भावके विषयमें विचार करना क्रमप्राप्त है । जो दार्शनिक उपमानको प्रमाण तो मानते हैं किन्तु पृथक् प्रमाण माननेसे इनकार करते हैं वे उपमानका खाभिमत किसी न किसी प्रमाणमें अन्तर्भाव कर लेते हैं । उपमानके अन्तर्भावके विषयमें निम्रलिखित मत पाये जाते हैं -
(१) आगममें अन्तर्भाव । (२) अनुमानमें अन्तर्भाव ।
.. "प्रत्यक्षमूमुपमानम् । वदपगमे वसाप्यपगमात् ।" तस्वो०पू०११०। बार्तिक पू०९२. पं१८॥
१.देखो, प्रस्तुत
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पृ० ६२. पं० ६.] टिप्पणानि ।
२२५ (३) प्रत्यभिज्ञामें अन्तर्भाव । (४) प्रत्यक्षमें अन्तर्भाव।
(१) प्राचीन भै यायिकों ने अतिदेशवाक्यको उपमान प्रमाण माना है । उस अतिदेशवाक्य खलप उपमानका अन्तर्भाव आगममें ही हो जाता है ऐसा मी मांसकों ने, वैशेषिकों ने तथा सांख्यों ने कहा है
"तस्यागमावहि वादन्यथैवोपर्णितम् । पुरुषप्रत्ययेनैव तत्रार्थः संप्रतीयते । तदीय. बचनत्वेन तलादागम एव सः॥" श्लोकवा० उप० २,३ ।
"मातेन मप्रसिद्धस्य गषयस्य गधा गवयप्रतिपादनापमानं भाप्तवचनमेव"-प्रशस्त पृ० ५७६ ।
"उपनानं तावद् 'यथा गौतथा गपया' इति वाच्यम्, सजनिता पीरागम एवं" सांस्यत० का० ५।
इनमें मीमांसकों को उपमानका पृथक् प्रामाण्य इष्ट है किन्तु उनके मतसे उसका लक्षण नै या पिकों से मिल ही है । अत एष वृद्ध नै या यि कसंमत उपमानको वे बागममें अन्तर्भूत कर लेते हैं। सांख्य और वैशेषिकों को उपमानका प्रामाण्य इष्ट है किन्तु पृथक् प्रामाण्य महीं । अत एव उक्त लक्षणको वे भी आगममें ही अन्तर्भूत करदेते हैं।
(२) अतिदेशवाक्यके स्पष्टतया आगमरूप होनेसे नवीन नै या यि कों ने उपमानका दूसरा लक्षण किया। इसके अनुसार अतिदेशवाक्यको सुनकर अरण्यमें जानेपर सारूप्य दर्शन होता है अर्थात् गोसदृश गवयका दर्शन होता है तब संज्ञासंझिसंबन्धप्रतिपत्ति होती है अर्थात् यह गवयपदवाप्य है ऐसी प्रतीति होती है । यह प्रतीति उपमानका फल है बत एष सारयदर्शन करण होनेसे उपमान प्रमाण कहा जाता है-ऐसा नवीन नै या पिकों ने माना । इस अपमानको तो बागममें अन्तर्भूत नहीं किया जा सकता था । अतएव उपमानको पृषक प्रमाण नही मानने वाले सांख्यों ने इसे अनुमानमें अन्तर्भूत कर लिया-“योप्ययं 'गवयशम्दो गोसरशय पाचक रति प्रत्ययः सोऽपि अनुमानमेव । यो हि शब्दो पत्र प्रवेः प्रयुज्यते सोऽसतित्यन्तरे वसवाचका, यथा गोशदो गोत्वस्य, प्रयुज्यते च गपशब्दो गोलच्छति तस्यैव पाचक रति सज्जानमनुमानमेष" सांस्यत० का० ५।।
नवीन नै यायिकों के इस लक्षणको मी शान्तरक्षित ठीक नहीं समझते । उनका कहना है कि अतिदेशवाक्यका श्रवण हुआ. उसी समय समाल्यासंबन्ध प्रतिपति हो ही जाती है अत एव गवयदर्शनके बाद उसे माननेपर गृहीतग्राहि होनेसे सूतिकी तरह उपमान सामान
हो जायगा-तस्वसं० का० १५६४-६५ भागे जाकर उन्होंने यह भी कह दिया है कि यदि उपमान को किसी भी तरह प्रमाण मानना ही हो तब उसे सता नहीं किन्तु अनुमानान्तर्गकर लेना चाहिए।
1. "गोचरपेऽपि भवत्येवाउमैव वा। निस्पवित्वमलप्रीव ५५ो पा सम्मोऽसौरिगबहुतिगोचरा सोचमहणावतो पुरिलोगोपचा140"वसं०।
म्या. २९
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२२६
टिप्पणानि ।
[पृ० ६२. पं० ६जैन व्याख्याकार सिद्ध र्षि ने मी उपमान प्रमाणको अनुमानके अन्तर्गत कर लिया हैन्याया० टी० पृ० २० ।
प्रमा लक्ष्म में भी उपमानका अन्तर्भाव अनुमानमें किया गया है-का० ३१६,३३४ । विवेक यह है कि प्रमा लक्ष्म कारने मी मां स क संमत उपमानको अनुमानान्तर्गत माना है
और नैयायिकसंमत उपमानको अधिगतग्राहि होनेसे शान्त र क्षित की तरह अप्रमाण ही माना है-प्रमालक्ष्म- का० ३४१ ।
(३) जैन आचार्योंने उपमानको प्रत्यभिज्ञान नामक परोक्ष प्रमाणान्तर्गत माना है। जैसे ऊर्ध्वता सामान्यको विषय करके 'स एवायं' ऐसा संकलनात्मक प्रत्यय होता है वैसे ही तिर्यग्सामान्यको लेकर 'तत्सदृशोऽयं' ऐसा संकलनात्मक प्रत्यय होता है । जैन आचार्योंके मतसे ऐसे और भी संकलनात्मक प्रलय हो सकते हैं, जैसे- 'इदमस्मात् दूरं, हखम्' इत्यादि । इन सभी प्रकारके संकलनात्मक ज्ञानोंको प्रत्यभिज्ञानके अन्तर्भूत ही माना गया है-प्रमेयक० ३.५-१०। स्याद्वादर० पृ० ४९७।
(१) वाचस्पति मिश्र ने सांख्य तत्व को मु दी में मी मां स क संमत उपमानका अन्तर्भाव प्रत्यक्षमें किया है__ "यत्तु गवयस्य चक्षुःसनिकृष्टस्य गोसादृश्यज्ञानं तत्प्रत्यक्षमेव, अत एव मर्यमाणायाँ गवि गषयसारश्यज्ञानं प्रत्यक्षम् । न हि अन्यद् गवि सादृश्यम्, अन्यथ गवये । भयोषयवसामान्ययोगो हि जात्यन्तरवती जात्यन्तरे साहश्यमुख्यते । सामान्ययोगम एकः । स वेद् गवये प्रत्यक्षो गत्यपि तथा।" सांख्यत० का० ५।
(३) नै या यि क और मी मां सकों ने ही उपमानका पृथक् प्रामाण्य माना है । वेदान्तदर्शन व्यवहारमें भट्ट न य का अनुगामि है अतः उसे मी उपमानका पृथक् प्रामाण्य इष्ट है। अन्य किसी दर्शनमें ऐसा नहीं माना गया ।
(ई) आचार्य उ मा खा ति ने उपमान का विचार नयवादरूप जैन दृष्टि से किया है अत एव उनके मतसे वह प्रमाण है मी और नहीं मी । ___ आचार्य उमा खा ति ने जब प्रमाणके प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो भेद करके मत्यादि पांचों ज्ञानों का उन्हीं दोमें समावेश कर दिया तब उनके सामने प्रश्न हुआ कि नै या यि का दिको सम्मत और भ ग व ती जैसे जैन शास्त्रमें निर्दिष्ट प्रमाणके प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम ऐसे चार भेदोंके साथ इन दो भेदोंका समन्वय कैसे करना है। आचार्य उमाखा तिने उत्तर दिया कि उन चारों प्रमाणोंका समावेश मतिज्ञान और श्रुतज्ञानमें कर लेना चाहिए । अर्थात् प्रत्यक्ष, अनुमान और उपमानका मतिमें और आगमका श्रुतमें अन्तर्भाव कर देना चाहिए । इस प्रकार फलित यह होता है कि ये चारों ही प्रमाण परोक्ष प्रमाणान्तर्गत हैं। प्रस्तुतमें यह कहना चाहिए कि उपमान प्रमाण है पर वह परोक्ष है और मतिज्ञान है।
जैन दृष्टिके अनुसार जो सम्यग्दृष्टि जीव है उसीका मतिज्ञान ज्ञान है अत एव प्रमाण है। और मिथ्यादृष्टि जीवका मतिज्ञान अज्ञान है अत एव अप्रमाण है । इसी दृष्टिसे उमा खा तिने
१.भगवती ५.४.। २. तस्वार्थभा०१.१३ ।
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२२७
१० ६२. पं० १०]
टिप्पणानि। फिर कहा कि प्रमाणके निर्दिष्ट चार भेद मिथ्यादृष्टिके द्वारा परिगृहीत होनेसे अप्रमाण ही हैं। इस विचारके अनुसार उपमान यदि मिध्यादृष्टिका हो तो वह अप्रमाण ही कहा जायगा ।
एक और दृष्टि से भी उ मा खा ति ने इस विषयका विचार किया है । उनका कहना है कि शब्दनयके मतानुसार कोई जीव मिथ्यादृष्टि या अज्ञ होता ही नहीं । अत एव शब्द दृष्टिसे देखा जाय तो सभी ज्ञान प्रमाण ही हैं। प्रस्तुतमें कहना होगा कि इस विचारसे उपमान प्रमाण ही है।
३-उपमानका फल ।
उपमानके फलके विषयमें भी विवाद देखा जाता है । इस विषयमें उल्लेखनीय मतभेद नै या यि क और मीमांसकों का है।
नैयायिकों ने उपमिति को संज्ञासंझिसंबन्धप्रतीतिरूप माना है । अर्थात् अतिदेशवाक्यको सुन कर अरण्यमें जानेवाले व्यक्तिको 'अयं गवयपदवाच्यः' ऐसी जो प्रतीति होती है उसे उपमानका फल माना है। किन्तु मी मां स कों ने ऐसा नहीं माना । उनका कहना है कि उपमानका फल समाख्यासंबन्धप्रतीति नहीं किन्तु परोक्ष गौमें गवयसादृश्यका जो ज्ञान होता है अर्थात् 'मद्गृहगतो गौः गवयसदृशः' ऐसा जो ज्ञान होता है वही उपमानका फल है । अर्थात् संज्ञासंज्ञिसंबन्धप्रतीति नहीं किन्तु परोक्षवस्तुविषयक सादृश्यज्ञान ही उपमिति है। पृ० ६२. पं० ८ 'महिष' तुलना-प्रमाणवा० अलं० पृ० ५७६ ।
पृ० ६२. पं० ८. 'सादृश्याभाव' तुलना-"स्यादेतत्-वैसादृश्यं हि सादृश्याभावः । तसादस्त्येवाभावान्तर्गतिरित्याह-अन्योन्येत्यादि । अन्योन्याभावतायां सत्यां यद्यभावरूपं प्रमेयं व्यवस्थाप्यते तदा समम् । कथमित्याह
"सारश्यस्य विवेको हि यथा तत्र प्रमीयते ।
सर्वावयवसामान्यविवेको गम्यते तथा ॥" तत्त्वसं० का० १५६०,६१ । पृ० ६२. पं० १०. "किमिदं सादृश्यम्' कुमारिल ने सादृश्यका लक्षण इस प्रकार करके उसे पृथक् वस्तु सिद्ध किया है
"सादृश्यस्यापि पस्तुत्वं न शक्यमपबाधितुम् ।
भूयोऽवयवसामान्ययोगो जात्यन्तरस्य तत् ॥१८॥" श्लोकवा० । मतलब यह है कि दो गोव्यक्तियोंमें तो गोत्वरूप एक ही जाति होनेके कारण दोमें साधर्म्य या समानता है किन्तु गो और गवयमें गोत्व या गवयत्वरूप एक जाति नहीं । गोमें गोत्व और गवयमें गवयत्व जाति भिन्न भिन्न होने पर भी दोनोंमें समानताका प्रत्यय जो होता है उसका कारण खजातिके अतिरिक्त कुछ दूसरा होना चाहिए और वही सादृश्य है । गो और गवयमें बहुतसे समान अवयवोंका जो योग है वही सादृश्य है । शास्त्र दी पि का में सादृश्यका लक्षण इस प्रकार किया गया है- "अर्थान्तरयोगिभिः संबंधिप्तामान्यैरर्थान्तरस्य ताश.
.."अप्रमाणान्येव वा। कुतः मिथ्यादर्शनपरिग्रहात्, विपरीतोपदेशाच"-तत्वार्थभा० १.१३ । २. "चेतनाज्ञवाभाव्याच सर्वजीवानां नास्य कश्चिन्मिध्यादृष्टिरज्ञो वा जीवो विद्यते तस्मादपि विपर्ययान न अयत इति । अता प्रत्यक्षानुमानोपमानातवचनानामपि प्रामाण्यमभ्यनुज्ञायत इति ॥" तत्त्वा. र्थमा०१.३५।
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२२८
टिप्पणानि ।
[पृ० ६२. पं० ११योगः सादृश्यम् । यथा गोजातियोगिभिः कर्णाद्यवयव सामान्यैर्गधयजातेर्योगो गवयस्य गोसादृश्यम् । गवयसंयोगिभिश्च गोर्योगः तत्सादृश्यम् ।” शास्त्रदी० पृ० ७५ ।
सामान्यका लक्षण तो यह है कि जो अनुवृत्ति प्रत्ययमें निमित्त हो वह सामान्य है' । अर्थात् गोस्वसामान्यके कारण सभी गायोंमें 'अयं गौः' 'अयं गौः' ऐसा प्रत्यय होता है । मीमांसकों का कहना है कि सादृश्य सामान्यरूप नहीं किन्तु उससे भिन्न पदार्थ है क्योंकि सादृश्यके कारण अनुवृत्ति प्रत्यय नहीं होता किन्तु सादृश्य प्रत्यय होता है'। सादृश्य सामान्यमें भी उपलब्ध होता है अत एव वह सामान्यसे भिन्न होना चाहिए' ।
किन्तु नैयायिकों ने उसे द्रव्यादि सात पदार्थसे अतिरिक्त नहीं माना और उसका लक्षण इस प्रकार किया
"तद्भित्वे सति तद्वतभूयोधर्मवस्वम्" मुक्ता० का० २ ।
इसका मतलब यह है कि जब हम मुखको चन्द्रकी उपमा देते हैं अर्थात् मुखको चन्द्र सदृश कहते हैं तब इसका अर्थ यह है कि चन्द्रसे भिन्न होते हुए भी चन्द्रगत आह्लादकत्वादि धर्म मुखमें हैं। यही मुखगत चन्द्रसादृश्य है ।
नैयायिकों ने मीमांसकों की तरह सादृश्यको पृथक् पदार्थ माना है
"नव्यास्तु सादृश्यमतिरिक्तमेव । न चातिरिक्तत्वे पदार्थविभागव्याघातः इति वाच्यम् । तस्य साक्षात् परंपरया वा तत्वज्ञानोपयोगिपदार्थमात्रनिरूपणपरत्वात्" दिनकरी का० २ |
बौद्धों ने तो कह दिया कि जब सामान्य ही सिद्ध नहीं तब 'भूयोवयवसामान्ययोग' रूप सादृश्य कैसे सिद्ध हो सकता है- तत्त्वसं० का० १५४४ ।
पृ० ६२. पं० ११. ' गवयालम्भने' उपमानके प्रयोजनमें कुमारिल ने बताया है कि प्रतिनिधि चुनाव में सादृश्यके ज्ञानकी अपेक्षा है। और सादृश्य ज्ञान उपमानसे होता है । उन्होंने श्रीहिके अभाव में नीवारको प्रतिनिधि मान कर यज्ञ करलेना चाहिए ऐसी बात मीमांसासूत्र (६.३.१३ - १७ ) के आधारसे कही है - श्लोकवा० उप० ५३ ।
प्रस्तुत में शान्त्या चार्य ने गवयको गोके प्रतिनिधिरूपसे बताया है । भी मां सा दर्शनमें गोका 1 वयसे सादृश्य माना गया है किन्तु गवयको गोका प्रतिनिधि बनाया जाय ऐसी विधि देखनेमें नहीं आती फिर भी ऐसी कल्पना बौद्धों ने और जैनों ने मीमांसक कों की हिंसाप्रिय प्रकृतिको देखकर की हो तो कोई आश्चर्य नहीं ।
पृ० ६२. पं० १५. ' प्रमाणेयचा' तुलना - " एतावता च लेशेन प्रमाणत्वव्यवस्थितौ । नेयता स्यात् प्रमाणानामन्यथापि प्रमाणतः ॥” तत्त्वसं० का० १५५६ ॥
पृ० ६२. पं० १६ 'नविषयवत्' तुलना - " प्रमेयवस्त्वभावेन नाभिप्रेताऽस्य मानता ॥" तत्त्वसं० का० १५४३ ।
१. प्रशस्त० पृ० ६७७ । २. "अनुवृत्तिप्रत्यय निमित्ताभावाच न सामान्यम्” प्रकरणपं० पृ० ११० । ३. "सामान्येपि सरवात् यथा गोत्वं नित्यं तथा अश्वत्वमपि नित्यमिति सारस्यप्रतीते: " मुक्ता० का० २ । ४. प्रमाणवा० अलं० पृ० ५७६ ।
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१० ६४.५०८] टिप्पणानि ।
२२९ पृ० ६२. पं० १८. 'अर्थापत्तिः सिर्फ मी मां स क और वेदान्तको छोड कर अन्य किसी दार्शनिकने अर्यापत्तिका पृथक् प्रामाण्य माना नहीं । उसका अन्तर्भाव सभीने अनुमानमें ही किया है। इसकी चर्चा के लिये देखो-शाबरभा० पृ० ३८ 1 श्लोकवा. अर्थापत्तिपरिच्छेद । प्रकरणपं० पृ० ११३ । तत्त्वसं० का० १५८७-१६४७ । न्यायमं० वि० ० ३६ । सन्मति० टी० ५७८,५८५ । न्यायकु. पृ० ५०५ । स्याद्वादर० पृ० २७६ ।
पृ० ६२. पं० २४. 'पूर्वम्' देखो, पृ० १९. पं०९। पृ० ६२. पं० २१. 'अनियमें तुलना-सन्मति० टी० पृ० २६ पं०४०। पृ० ६३. पं० ६. 'अभावप्रमाणम्' देखो, प्रमाणमीमांसाका भाषाटिप्पण पृ० २६ ।
पृ० ६३. पं० ७. 'प्रमाणपञ्चकाभावे तुलना-"प्रत्यक्षादेरनुत्पत्तिः प्रमाणामाष उध्यते । साऽऽस्मनः परिणामो वा विज्ञानं वाऽन्यवस्तुनि ॥" श्लोकवा० अभाव० ११ ।
पृ०६३.५०८. 'तथा हि' यहाँसे मीमांसा कने यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि प्रत्यक्षादि भाषग्राहि प्रमाणोंसे अभावका ग्रह हो नहीं सकता । प्रारंभमें नैयायिक और वैशेषिकों के पक्षका खण्डन किया गया है। क्योंकि उनके मतसे अभाव प्रत्यक्ष प्राह्य है।
पृ. ६३. पं० २२ 'न तु...लिङ्गम् तुलमा-"न चाप्यत्रानुमानत्वं लिकामावाद प्रतीयते । भाषांशो न तु लिङ्गं स्यात् तदानीं नाऽजिघृक्षणात् ॥ २९॥" इत्यादि । वही।
पृ० ६३. पं० २६. 'नाप्यनुपलब्धे" तुलना-"प्रत्यक्षादेरनुत्पचिन तु लिहं भविष्यति । म विशेषणसम्बन्धस्तस्याः सामान्यतो भवेत् ॥ ३८॥" वही । बौद्ध और प्राभा करों ने अनुपलब्धिलिङ्गक अभावव्यवहार माना है-प्रकरणपं० पृ० १२१ ।
१० ६३. पं० २८. 'अनवस्था' तुलना-न चानवगतं लिहं गृह्यते चेदसावपि । समाववादमावेन रखेतान्येन हेतुना ॥ ४०॥ स चान्येन गृहीतव्यो नागृहीते हि लिगता। तहीतिर्हि लिन स्यादव्येनेत्यनन्तता॥४१॥” इत्यादि वही।
पृ०१४. पं० २. 'धूमेन' इसको 'धूमेन' पढा जाय ।
पृ० ६१.५० ५. 'अन्योपलब्धि' अनुपलब्धि हेतुका खरूप धर्मोत्तरने इस प्रकार ज्याख्यात किया है- “स एव घटविविक्तप्रदेशः, तदालम्बनं च ज्ञानं दृश्यानुपलम्भनिभयहेतुत्वात्यानुपलम्भ उच्यते । याव कहानसंसर्गि वस्तु न निश्चितं तज्ज्ञानं ब, न तावाश्यानुपलम्भनिन्धयः। ततो वस्तु अपि अनुपलम्भ उच्यते तज्ज्ञानं च । दर्शननिवृत्तिमा तु खयमनिश्चितत्वादगमकम् । ततो दृश्यघटरहितः प्रदेशः तवानं च पचनसामदेिव यानुपलम्मरूपमुक्तं द्रष्टव्यम् ।" न्यायबि० टी० पृ० ३६-३४ । अर्थात् बौद्धों के मतसे घटविविक्त प्रदेश और घटविविक्त प्रदेशका ज्ञान ये दोनों अनुपलब्धि शब्दके प्रतिपाय है। उनमें से घटविविक्त प्रदेशका ज्ञान प्रस्तुतमें अन्योपलब्धिशब्दसे विवक्षित है।
पृ० ६१. पं० ८. 'असयवहार' वस्तुतः धर्म की र्ति ने अनुपलब्धि हेतुसे असन्यवहारकी सिद्धि होती है यही माना है-"अमूढस्मृतिसंस्कारस्यातीतस्य वर्तमानस्य च प्रतिपत्रप्रत्यक्षस्य निवृतिः अभावव्यवहारसाधनी।" न्यायबि० पृ० ४४ ।
असावहार अर्थात् अभावव्यवहारकी व्याख्या धर्मो तर ने इस प्रकार की है- "अमावस्य
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टिप्पणानि ।
२३०
[ पृ० ६४. पं० ८व्यवहारः - नास्तीति एवमाकारं ज्ञानं शब्द एवमाकारो निःशंकं गमनागमनलक्षणा च प्रवृत्तिः कायिकोsभावव्यवहारः । घटाभावे हि ज्ञाते निःशंकं गन्तुमागन्तुं च न प्रवर्तते । तदेवमेतस्य त्रिविधस्याप्यभावव्यवहारस्य दृश्यानुपलब्धिः साधनी - प्रवर्तिका ।” न्यायबि० टी० पृ० ४६। “इत्यक्षज्ञापनायैकानुपाख्योदाहृतिर्मता ।” प्रमाणवा० ४.२६३ ॥ पृ० ६४. पं० ८. 'एतदुक्तं भवति' बौद्ध अपने पक्षका समर्थन करता है । पृ० ६४. पं० १०. 'स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धा' तुलना - "पकोपलम्भानुभवादिदं नोपलभे इति ।
बुद्धेरुपल मे बेति कहिपकायाः समुद्भवः ॥" प्रमाणवा० ४.२७० ।
पृ० ६४. पं० १३. 'स्मार्यते' संपूर्ण कारिका इस प्रकार है
"विद्यमानेऽपि विषये मोहादत्राननुबुवन् ।
केवलं सिद्धसाधर्म्यात् स्मार्थते समयं परः ॥” प्रमाणवा० ४.२६७ ।
व्याख्या – “अभावव्यवहारस्य विषये दृश्यादर्शने विद्यमानेपि केवलं मोहाद् असज्ज्ञानशब्दव्यवहाराम् अननुभुषन्- नानुवदन् परो असद्व्यवहारविषयतया सिद्धेन घटेन डान्तेन दृश्यादर्शनवत्तायाः साधर्म्यात् समयं व्यवहारं स्मार्थते । पूर्वमपि त्वया दृश्यादर्शनमात्रको सद्व्यवहारः प्रवर्तितः तत्सद्भावादिहापि प्रवर्तयेति परः प्रतिपाद्यते ।" मनो० |
पृ० ६४. पं० १६. ' वादन्याये' - " एतावन्मात्रनिमित्तोऽयमसद्व्यवहारोऽन्यस्य तनिमित्तस्य अभावात् । सर्वसामर्थ्यविवेको निमित्तमिति चेत्" इत्यादि - वादन्याय पृ० २१ ।
पृ० ६४. पं० १८. 'ननु' मी मां सक ने यह शंका की है।
पृ० ६४. पं० १९. 'स्वभावहेतौ ' - " ननु यथा स्वभावकार्य ( कारण ) सिद्ध्यर्थ द्वौ हेतू उक्त तथा अनुपलब्धिरपि वक्तुं युक्ता हेतुत्वात् । स्वभावानुपलब्धिस्तावत् तादात्म्यप्रतिबन्धात् स्वभावहेतोर्न भिद्यत इति स्वभावहेतु निर्देशादेव निर्दिष्टा । कारणव्यापकानुपलब्धिभ्यां च निषेध्यानुपलब्धिरेव प्रतिपाद्यत इति न ते अपि स्वभावानुपलब्धेर्भिद्येते ।"मनो० पृ० ५०४ ।
स्वभावहेतुमें बौद्ध तार्किकोंने तादात्म्य सम्बन्ध माना है अत एव धर्म की र्ति ने अनुपलब्धिमें भी तादात्म्य सम्बन्ध की सिद्धि निम्न कारिकामें की है -
“तत्रोपलभ्येष्वस्तित्वमुपलब्धेर्नचापरम् ।" प्रमाणवा० ४.२६३ ।
मनोरथ नन्दी ने इसकी व्याख्या निम्न शब्दोंमें की है । -
" ननु स्वभावानुपलब्धौ कथं तादात्म्यं प्रतिबन्ध इत्याह- तत्रोपलभ्येषु भावेषु विचार्यमाणमस्तित्वमुपलब्धेरपरं न भवति यदि हि उपलब्धिः कर्मधर्मस्तदा उपलभ्यमानता अस्तित्वम् । अथ कर्तृधर्मः, ज्ञानम् ; तदा तदन्वयव्यतिरेकानुविधानाद् भावसत्ताव्यवस्थानस्योपचारात् सैव सत्ता । यथा चोपलब्धिरेव सत्ता तथा अनुपलब्धिरेवासन्तेति तादात्म्यमनयोः सम्बन्धः ।" मनो० ।
पृ० ६४. पं० २०. 'नैष दोषः' बौद्ध उत्तर देता है ।
पृ० ६४. पं० २४ : ' हेतुना' व्याख्या - हेतुना समग्रेण यः कार्योत्पादोऽनुमीयते स कस्मिन् हेतावन्तर्भवतीत्याह-स स्वभावहेतुरनुवर्णितः । न हि समप्राद्धेतोः कार्यसम्भ
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पृ० ६७. पं० ७]
टिप्पणानि ।
वोऽनुमीयते किन्तर्हि - कार्यार्जनयोग्यत्वम् । तथार्थान्तरानपेक्षत्वात् हेतुसाकल्यमात्रानु बन्ध्येवेति । तस्मिन् साध्ये हेतुसाकल्यं स्वभावहेतुरेव ।” प्रमाणवा० मनो० ३.६३
१० ६५. पं० ३. 'नन्वेषं मी मां स क बौद्ध पक्षका उत्तर देता है।
पृ० ६५. पं० ४. 'योग्यतायाः वस्तुतः असद्व्यवहारकी योग्यता अनुपलब्धि हेतुका साध्य है तभी तो उसका अन्तर्भाव स्वभाव हेतुमें होता है - हेतु० टी० पृ० ५० ।
पृ० ६५. पं० ६. ' तस्य भावव्यतिरेकेण' तुलना - " न हि वस्तुव्यतिरिक्तम् असनांमप्रमाणस्य अर्थविषयत्वात् । सकलशक्तिविरहलक्षणस्य निस्पाक्यस्य स्वभावकार्यादेरभावात् कुतस्तत्प्रमितिः ।" अष्टश० का० ९ ।
पृ० ६५. पं० १४. 'सम्बन्धं विना' तुलना - " कथं तर्हि अभावेन सम्बन्धः १ न कथञ्चित् । किन्तु बुद्धिपरिकल्पित एवासौ इत्याह
" तस्मादनर्थास्कन्दिन्योऽभिन्नार्थाभिमतेष्वपि ।
शब्देषु वाच्यमेदिन्यो व्यतिरेकास्पदं धियः ॥" प्रमाणवा० २.११७ ।
पृ० ६५. पं० १८. 'सम्बन्धपूर्वकत्वेन विशेषणविशेष्यभाव मी तब होता है जब दोनों सम्बन्धिओं में कोई न कोई सम्बन्ध हो ऐसा प्रतिपादन विधानन्द ने स्पष्टतया किया है । उन्ही का अनुगमन प्रभा चन्द्र और देव सूरि ने भी किया है।
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"कथं समवायिभिरसम्बद्धस्य तस्य तद्विशेषणभावो निश्चीयते ?” तत्त्वार्यश्लो० पृ० २०१ "मापि विशेषणभावात् सम्बन्धान्तरेण सम्बद्धार्थेष्वेव अस्य प्रवृत्चिप्रतीते', वृण्डविशिष्टः पुरुषः इत्यादिवत् । अन्यथा सर्वे सर्वस्य विशेषणं विशेष्यश्च स्यात् ।" इत्यादि । न्यायकु० पृ० ३०३ स्याद्वादर० पृ० ९६९ ।
पृ० ६५. पं० १९. 'पुरुषेच्छया' तुलना - “विशेषणविशेष्ययोः विवक्षापरतन्त्रत्वाद पुर्ववेच्छानुरोधात् न पारमार्थिकत्वम् । तथा विषाणी गौरिति गोर्विवाणमित्यादौ विपर्ययो विशेषणविशेष्ययोः प्रयोक्तुरिच्छावशेन दृश्यते ।" प्रमाणवा० मनो० २.२२७ ।
पृ० ६६. पं० १३. 'स्वतन्त्रः' तुलना - "अभावो हि नाम न कश्चित् स्वतन्त्रो व्यवहारविषयोऽपि तु विवक्षितस्य वस्तुन एव ।” प्रमाणवा० अ० पृ० ८३३ |
पृ० ६६. पं० १५. 'एकदाऽस्ति' तुलना - " प्राग्भूत्वा द्यभवन्भावोऽनित्य इि पीयते ॥" प्रमाणवा० २.११० । “म तस्य किञ्चिद् भवति न भवत्येव केवलम् ॥११ वही ३.२७७ । हेतु० टी० पृ० ८२ ।
पृ० ६६. पं० २२. 'अकिञ्चित्करत्वेन' तुलना - "अपेक्षेत परः कार्य यदि विद्येत किश्चन ।
यवाकिञ्चित्करं वस्तु किं केनचिदपेक्ष्यते ॥" प्रमाणवा० ३.२७९ ।
पृ० ६७. पं० २. 'सचया भाव्यम् तुलना -
पृ० ६७. पं० ७. 'उक्तमत्र' देखो पृ० ६६. पं० २१-२४ ।
"अविनाशात् स एवास्य विनाश इति चेत् कथम् ।
अन्योऽर्थोऽन्यस्य नाशोऽस्तु कार्ड कस्मान्न दृश्यते ॥” प्रमाणवा• ३.२७० 1
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टिप्पणानि ।
पृ० ६७. पं० १०. 'क्षीरे दधि' प्रासंगिक श्लोक ये हैं
" क्षीरे दधि भवेदेवं दनि क्षीरं घटे पटः । शशे शुक्रं पृथिव्यादौ चैतन्यं मूर्तिरात्मनि ॥ ५ ॥ अ गन्धो रसधानौ वायौ रूपेण तौ सह ।
व्योम्नि संस्पर्शिता ते च न चेदस्य प्रमाणता ॥ ६ ॥” श्लोकवा० अभाव |
. इसके साथ आंत मीमांसा की निम्न कारिकाएँ तुलनीय हैं.
―
[ पृ० ६७, पं० १०
"कार्यद्रव्यमनादि स्यात् प्रागभावस्य निहवे ।
प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनन्ततां व्रजेत् ॥ १० ॥ सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोहव्यतिक्रमे ।
- अन्यत्र समवाये न व्यपदिश्येत सर्वथा ॥ ११ ॥ "
पृ० ६७. पं० २३. 'अनवस्था' अर्घटने अनेकान्तवादमें जो अनवस्था दोष दिया है।
वही यहाँ उद्धृत है - हेतु० टी० पृ० ४३. ।
पृ० ६७. पं० २५. 'सर्वभावाः' तुलना -
"सर्वे भावाः स्वभावेन स्वस्वभावव्यवस्थितेः ।
स्वभावपरभावाभ्यां व्यावृत्तिभागिनो यतः ॥” प्रमाणवा० ३.३९ । “सर्वभावानां स्वस्वभावव्यवस्थितेः स्वभावसांकर्याभावात् ।" हेतु० टी० पृ० २४ । तथा पृ० २२,१९५ ।
1
पृ० ६८. पं० ४. 'दृश्यत्वम्' बौद्ध तार्किकोंने अनुपलब्धिके दो प्रकार बताये हैंदृश्यानुपलब्धि और अदृश्यानुपलब्धि । उनमें से दृश्यानुपलब्धि ही अभावव्यवहारकी साधिका है अन्य नहीं । धर्म कीर्ति का कहना है कि पिशाचादिके सद्भाव होने पर भी अदृश्यानुपafaet संभव है क्योंकि पिशाचादि पदार्थ स्वयं दृश्य नहीं अत एव अदृश्यानुपलब्धि अभावका निश्चय नहीं करा सकती, संशयका हेतु है ।
"अनिश्चयफला होषा मालं व्यावृत्तिसाधने ।” प्रमाणवा ० ४.२७७ ।
"विप्रकृष्टविषयानुपलब्धिः प्रत्यक्षानुमाननिवृत्तिलक्षणा संशयहेतु:, प्रमाण निवृत्तावप्यर्थाभावासिद्धेरिति ।" न्यायबि० पृ० ५९ ।
दृश्यत्वका लक्षण धर्म कीर्ति ने इस प्रकार किया है - "उपलब्धिलक्षणप्राप्तिः - उपलम्भप्रत्ययान्तरसाकल्यं स्वभावविशेषश्च । यः सत्सु अन्येषूपलम्भप्रत्ययेषु सन् प्रत्यक्ष एव भवति स स्वभावः ।" न्यायवि० पृ० ३६ ।
किसी भी वस्तुकी दृश्यताके लिये दो शर्तें हैं- एक तो चक्षुरादि अन्य सभी ज्ञानजनक प्रत्ययोंकी उपस्थिति आवश्यक है तथा उस वस्तुका विशेष स्वभाव जिसके कारण प्रत्ययान्तरोंके साकल्य होने पर वह अवश्य प्रत्यक्ष हो ।
धर्मोत्तर ने स्पष्टीकरण किया है कि जब किसी वस्तुको कोई द्रष्टा देखनेके लिये प्रवृत्त होता है और उसे देखता है तब समज लेना चाहिए उसमें उक्त दोनों बातें हैं । त्रिविप्रकृष्ट वस्तुओंका दर्शन उसी पुरुषको इस लिये नहीं होता है कि अन्य सामग्री मौजूद होते हुए भी उसमें दूसरी बात - विशेष स्वभावकी कमी है।
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टिप्पणानि ।
०६८. पं० १२]
१३३
किन्तु यदि पुरुष देखनेके लिये प्रवृत्त ही नहीं होता है तो वह योग्यदेशस्थ दृश्यको भी नहीं देखता क्योंकि दृश्य पदार्थ तो अपने विशेष स्वभावके साथ मौजूद है परंतु प्रायान्तरका साकम्य नहीं हुआ और वह विप्रकृष्टको भी नहीं देखता क्योंकि उसमें तो दोनों ब्रावों की कमी है।
फलित यह होता है कि दर्शनके लिये प्रवृद्ध पुरुषकी अपेक्षासे कोई भी पदार्थ प्रमयान्तर से free होनेके कारण दिखाई न दे यह बात नहीं । स्वभावविशेषकी विकलताके कारण ही न दिखाई दे यह संभव है। तथा देखनेके लिये अप्रवृत पुरुषकी अपेक्षासे दृश्य पदार्थ समयान्तरकी विकलताके कारण और अदृश्यपदार्थ उभयकी विकलताके कारण दिखाई नहीं देते हैं - न्यायबि० टी० पृ० ३७ ।
धर्म कीर्ति ने पिशाचादिके अतिरिक्त सर्वज्ञ और वीतरागको भी विप्रकृष्ट पदार्थ मांगा है । अत एव उनका कहना है कि इन्द्रियगम्य वचनादि जैसे किसी भी हेतुके साथ अतीन्द्रिय सर्वज्ञ और वीतरागका अम्बय सन्दिग्ध ही होगा । व्यतिरेककी असिद्धि तो हो सकती है क्योंकि अवीतराग और असर्वच अस्मदादिमें वचनव्यावृत्ति नहीं। किसी भी हेतुके लिये अन्वय और व्यतिरेक दोनों रूपोंकी सिद्धि आवश्यक है । वचनादि हेतुमें अन्वय सन्दिग्ध है और व्यतिरेक असिद्ध । अत एव वह अनैकान्तिक हेत्वाभास होगा - न्यायवि० पृ० १०५ ।
किन्तु समन्तभद्र ने अर्हत् की निर्दोषता - बीतरागतामें युक्तिशाखाविरोधि वचनको ही हेतु कहा है और इसीका समर्थन अकलंक और विद्या नन्द ने किया है- आप्तमी ० का ० ६ ।
समन्तभद्र ने स्पष्ट कहा है कि विप्रकर्षिता मी आपेक्षिक है । हमारे लिये परमाणु आदि भले ही विप्रकृष्ट हों किन्तु उनका प्रत्यक्ष किसी न किसीको तो अवश्य ही होगा । जिसे होगा नही आई है, वीतराग है। इसी का समर्थन अ क लं का दि ने किया है - वही का० ५ ।
पृ० ६८. पं० ५. 'तद्योग्यत्वम्' इसके बाद पूर्णविराम चिह्न नहीं चाहिए ।
पृ० ६८ ६० ६. 'समारोपितम् - तुलना "अथ यो यत्र नास्ति स कथं स दृश्यः । दृश्यत्व समारोपाद् मसमपि दृश्य उच्यते । यचैवं संभाव्यते यद्यसावत्र भवेद हृदय एव भवेदिति स तत्राविद्यमानोपि दृश्यः- समारोप्यः । का पर्व संभाव्यः ॥ । यस समग्रानि सालम्बनदर्शनकारणानि भवन्ति । कदा च तानि समप्राणि गम्यन्ते १ । यदा एकज्ञानसंसर्गिवस्त्वन्तरोपलम्भः । एकेन्द्रियज्ञानप्रायं लोचनादिमणिधानामिमुकं वस्तुइयमन्योन्यापेक्षमेकज्ञानसंसर्गि कथ्यते । तयोर्हि संतोनकनियता भवति प्रतिपत्तिः, योग्यताया द्वयोरपि अनिशित्वात् । तमादेकज्ञानसंसर्गिविज्यमाने सत्येकसिन् इतरत् समप्रदर्शनसामग्रीकं यदि भवेद् दृश्यमेव भवेदिति संमाणितं हयमारोप्यते ।" न्यायवि० टी० पृ० ३६ ।
० ६८. पं० ८. 'योग्यताखभावः' पदच्छेद करके 'योग्यता खभाव:' इस प्रकार पढें । पृ० ६८. पं० १०. ' अत्राहु:' बौद्ध ने जब' अभावको भावाव्यतिरिक्त सिद्ध करके अनुपलब्धिसे असद्वयवहारकी उपपत्ति मानकर अभाव प्रमाणका पार्थक्य निषिद्ध किया तब पुनः मीमांसक यहाँसे अपना पक्ष रखता है ।
पृ० १८. १० १२. 'तत्रैतत् स्यात्' यह शंका बौद्ध की है।
न्या० ३०
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टिप्पणानि।
[पृ० ६८.५० १२
पृ० ६८. पं० १२. 'ननु' यह मीमांसकों ने उसर दिया है। पृ० ६८. पं० १४. 'अत्राहु: यह बौद्धो ने अपना पक्ष रखा है।
पृ०६८. पं० १४. 'प्रतिभासोत्पादादेव' तुलना- "यद्यनपेक्षितमावान्तरसंसर्गज्युतिमात्रमेष तुच्छरूपं ध्वंसः तदा तत्र कारकव्यापारो नैव संभवति भवनधर्मिण्येव तत्संभवात् । तस्याप्यभूस्वा भावोपगमात् कार्थता न विदभ्यते इतित्नामवनधर्मणो भाषरूपताप्राप्रभावबहाने। यतो भवतीति भावो भण्यते । नापरमादेरपि भावशब्दप्रवृत्तिनिमित्तम् । अर्थक्रियासामर्थ्यमिति चेत् । सर्वसामर्थ्यविरहिणस्तर्हि अस्य कथं प्रतीतिविषयता।।नाकारणं प्रतीतिविषयः, अतिप्रसंगात् । तदविषयस्य वाकर्ष हेतुमत्तापगति, वस्तुता था?, येनोच्यते 'तुच्छरूपमेव तद् वस्तु' इति । प्रतीतिजनकरये घा कथं न सामर्थ्यसम्बन्धिता?।" हेतु० टी० पृ. ८० । पृ. ६८. पं० १५. 'तद्विलक्षणेन' तुलना
"अभावेऽर्थवलाजातेरर्थशक्त्यनपेक्षणे।
व्यवधानादिभावेऽपि जायतेन्द्रियजा मतिः॥" प्रमाणवा० २.६६ । "नासा मतिरभावे विषये प्रवर्तते अर्थस्य प्रायस्य बलाजाते। यद्लेन प्रत्यक्ष प्रवर्तते तदेष प्रतिपद्यते। न चाभावस्य सामध्ये नाम । यदि पुनरर्थसामर्थ्यानपेक्षणमस्य तदा प्राह्यस्यार्थस्य शक्त्यनपेक्षणे तद्व्यवधानादिभावेपि इन्द्रियजा मतिर्जायेत । न चैत. दस्ति । ततोऽर्थसामर्थ्यापेसि नाभावविषयं भवितुमर्हति ।" मनो०।
पृ० ६८. पं० १७. 'तत् भाव एवं' मी मांस कों ने कहा था कि विधिविकल्पकी उत्पत्ति भावसे और प्रतिषेधविकल्पकी उत्पत्ति अभावसे होती है । किन्तु इसके उत्तरमें बौद्धों ने कहा कि भावकी ही उपलब्धिके अनन्तर उपलब्धिसे ही विधिविकल्प और प्रतिषेधविकल्प की उत्पत्ति होती है क्योंकि भाव खभावसे ही पररूपासंकीर्णरूपसे व्यवस्थित है।
तुलना-"प्रत्यक्षं हि पुरोवस्थितमौत्तरापर्येण धूमप्रदेशादिकं विधिरूपेण धूमादिखलक्षणं सकलसजातीयविजातीयव्यावृत्तं च खस्वभावव्यवस्थितेः सर्षासामर्थमाषाणां परस्परमसंकीर्णरूपत्वात् तत्सामर्थ्यभावियथास्थानमनुकुर्वत् पाश्चात्यविधिप्रतिषेधविकपदयं जनयति येन धूमप्रदेशाख्यौ धर्मधर्मिणो तयोश्चौत्तराधर्य 'एवमेतत् नान्यथा' इति विकल्पयति ।" हेतु० टी० पृ० २२ ।
पृ० ६८. पं० २०. 'अत्रोच्यते' यहाँसे मी मांस कों के द्वारा अपने पक्षका समर्थन है। पृ० ६८. पं० २२. 'तत्रैतद्भवेत् बौद्ध उत्तर देता है। पृ० ६८. पं० २२. 'नैतत् चारु' मी मां स क का कथन है। पृ० ६८. पं० २३. 'पूर्वोक्त' देखो पृ० ६७ ६२१ । पुं० ६८. पं० २३. 'उपागतम्' -पंक्ति १ देखो। पृ० ६८. पं० २५. 'विषयभेदात्' तुलना
"मानं कथमभावश्चेत् प्रमेयं चास्य कीदृशम् । मेयो यदभावो हिमानमप्येवमिष्यताम् ॥४५॥ भावात्मके यथा मेये नाभावस्य प्रमाणता। तथाऽभावप्रमेयेऽपि न भावस्य प्रमाणता ॥ ४६॥" श्लोकवा० अभा० ।
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पृ०६९. पं० १३] टिप्पणानि
२३५ पृ० ६८. पं० २७. 'ननु' बौद्ध स्मरण दिलाता है कि अभाव जनक तो हो नहीं सकता अत एव प्रतिषेधविकल्पका विषय मी हो नहीं सकता यह कहा जा चुका है (पंक्ति १६)।
पृ०६८.५० २७. 'अत्र केचिद' बौद्धों के द्वारा मी मां स क के प्रति किये गये भाक्षेपका उत्तर कोई इस प्रकार देता है कि जनक ही विषय बने यह नियम भावके विषयमें ठीक है । अभाव इस नियमका अपवाद है । बौद्धों को यह मी तो कहा जा सकता है कि तुम्हारे मतमें वस्तु क्षणिक है अत एवं प्राह्य जनक ही हो यह नियम बन नहीं : सकता । क्योंकि जिस प्राधाकार का प्रतिभास हो रहा है वह तो समकालीन होने से ग्राहकका जनक नहीं । जो जनक था वह तो अतीत हो जानेसे ग्राह्य ही नहीं । . पृ० ६९. पं० १. 'तत्रैतवेद' उक्त आक्षेपका उत्तर बौद्ध ने यह दिया कि ज्ञान और शेयमें ग्राह्यग्राहकभाव सन्दंशायोगोलकवत् नहीं जिससे समकालीनता अपेक्षित हो किन्तु प्राह्य उसे कहा जाता है जो ज्ञानमें खाकारका जनन-खाकारका समर्पण करे । अभावका कोई आकार ही नहीं तो खाकारका समर्पण कैसे ! । इस विषयमें देखो प्रमाण वार्तिक की निम्न कारिकाएँ
"हेतुभाषारते नान्या प्राधता नाम काचन । तत्र बुद्धिर्यदाकारा तस्यास्तद्वाहमुच्यते ॥ २२४॥ मित्रकालं कथं ग्राह्यमिति चेद् ग्राह्यतां पितुः। हेतुत्वमेव युक्तिवाशानकारार्पणक्षमम् ॥ २४७॥ कार्य घनेकहेतुत्वेप्यनुकुर्षदुदेति यत् । ततेनाप्यत्र तद्रूपं गृहीतमिति चोच्यते ॥ २४८॥ सर्वमेव हि विज्ञानं विषयेभ्यः समुद्भवन् । तदन्यस्यापि हेतुत्वे कथञ्चिद् विषयाकृति ॥ ३६८ ॥ यथैवाहारकालादेहेतुत्वेऽपत्यजन्मनि । पित्रोस्तदेकस्याकार धचे नान्यस्य कस्यचिव ॥ ३१९॥ रूपादेम्वेतसवमविशुद्धधियं प्रति ।
प्राह्यलक्षणचिन्तेयमचिम्त्या योगिनां गतिः ॥ ५३२॥" प्रमाणवा० २१ "नहि संवंशायोगोलयोरिष शानपदार्थयोद्यप्राहकमावः।" मनो० २.२४७ ।
पृ० ३९. पं० ५. 'अत्र वदन्ति' यह मी मां स कों का कथन है । इस कथनमें जैनों का मी ऐकमत्य है । क्योंकि उनके मतमें मी ज्ञान और ज्ञेयमें कार्यकारणभाव नहीं।
पृ० ६९. पं०९. 'मा भूव' बौद्ध का कथन है। पृ० ६९. पं० १०. 'एतदप्यसत्' मी मां स क का कथन है । पृ० ६९. पं०.११. 'कः पुनः बौद्ध का प्रश्न है । पृ० ६९. पं० १२. 'न कश्चित्' मीमांसकका उत्तर ।
पृ. ६९. पं० १३. 'तदकार्य ज्ञान और ज्ञेयमें कार्यकारणभाव नहीं किन्तु ज्ञानकी विशेष योग्यताके कारण ही प्रतिनियत विषयव्यवस्था हो जाती है ऐसा जैनाचा यों का मत प्रस्तुतमें तुलनीय है
"पथासं कर्मक्षयोपशमापेक्षिणी करणमनसी निमित्तं विज्ञानस्य , बहिरादयः।
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टिप्पणानि ।
[ ४० ६९. ५०१५०
'मानकुतान्वयव्यतिरेकं कारणं नाकारणं विषयः' इति बालिशगीतम् ।" लषी० स्वो० न्यायकु० पृ० ६७४ ।
पृ० ६९. पं० १५. 'नतु' यह बौद्ध की आशंका है। पृ० ६९. पं० १० ६९. पं०
पृ० ६९. पं०
२३६
१५. 'स्वादयं' यह मीमांसक का समाधान है । १६. किं पुनः' बौद्ध की शेका ।
१७. 'प्रतिविष्य' मीमांसक कृत समाधान"गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा व प्रतियोगिनम् ।
मानसं नास्तिताज्ञानं जायतेऽज्ञानपेक्षया ॥” लोकवा० अभाव० २७ । पृ० ६९. पं० २०. ' अन्ये मुबते' दूसरे प्रकारसे किसीने अमानको प्रमेय सिद्ध करके तग्राहक अभावप्रमाणका पार्थक्य सिद्ध किया है।
पृ० ६९. पं० २२. 'क्षणभङ्गभङ्गे' देखो, पृ० ९१, ११८ .
पृ० ६९. पं० २६. 'अथ' बौद्ध का कथन है कि बैलक्षण्यके नियामक विरुद्धधर्माभ्यास और कारणमेद हैं- "अयं हि मेदो मेदहेतुर्वा विरुद्धधर्माध्यासः कारणमेव । तवद् न बेद: 'अम्यनिमित्ताभाबाद एकं द्रव्यं विश्वं स्यात्' इत्यादि प्रसम्पेव । प्रतिभासमेदोऽपि हि इतरेतराभावरूपतया विरुद्धधर्माध्यासतां नातिक्रामति ।" हेतु० टी० पृ० ४७ ।
पृ० ६९. पं० २६. 'तदभावे' बौद्धों के प्रति यह आक्षेप है ।
पृ० ६९. पं० २७. 'अथोच्येत' बौद्ध पक्षका अनुवाद है ।
पृ० ७०. पं० १. 'न' मीमांसक कृत समाधान । पृ० ७०. पं० ३. 'अथ' बौद्ध कथन ।'
पृ० ७०. पं० ५. 'एतत्' मी मां स क का उत्तर ।
पृ० ७०. पं० ७. 'तत्रैतत्' बौद्ध पक्षका अनुवाद |
पृ० ७०. पं० ८. 'नतु' मीमांसक की आशंका ।
पृ० ७०. पं० १०. 'एकज्ञानसंसर्गः' तुलना - "एकज्ञानसंसर्गाद् इति । एकत्र. हि ज्ञाने द्वापि तो स्वाकारद्वारेण संसृष्टौ न साक्षात् । तद्विवानं पदार्थद्वयाकारमाजायमानं तयोरात्मनि संसर्ग दर्शयति ।" हेतु० टी० पृ० १७२ ।
पृ० ७०. पं० १४. ‘योग्यता' तुलना - "यादेती तुस्ययोग्यतारूपी ती यदि सभी भवतस्तदा नैवैकाकारनियता प्रतिपत्तिर्भवति । फलाद ? असम्भवाद । न शेष सम्म पोऽति-पत् तुरुपयोग्यतारूपयोरेक एवं प्रतिमासेत नापर इति । तथाहि अनिशि त्वात् योग्यतायाः कस्तच साकारं न समर्पवेद ।” हेतु० टी० पृ० १७२ ।
पृ० ७०. पं० २४. 'बक्ष्यमानात् जैनों के मतसे तो ज्ञानका खसंवेदन सिद्ध ही है किन्तु भी मां स क परोक्षज्ञानवादी है, अत एव उसके किसी प्रन्यके अवतरणकी अपेक्षासे प्रस्तुत कपन को समजना चाहिए । प्रस्तुत प्रन्थमें तो खसंवेदनकी सिद्धि पहले आ चुकी है । देखो, पृ० १७ ।
०७०, पं० २८. 'आरोपितस्थ' बौद्धों के मतसे अनुमानका विषय सामान्य है. सामान्य
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पृ० ७४. पं० ५] टिप्पणानि ।
२३५ अवस्तु होनेसे-काल्पनिक होनेसे उसे यहाँ आरोपित कहा गया है - "अन्यत् सामान्य लक्षणम् । सोऽनुमानस्य विषयः।" न्यायबि० परि० १. ।।
पृ०७१. प० १. 'ननु तुलना-“तत्र यदसाधारणविषयं दर्शनं तदेव प्रमाणम् । तस्मिन् तथा रटे स येन येन असाधारणं ततो मेदं अभिलपम्ती अतन्यावृत्तिविषया स्मृतिसत्पना प्रत्यक्षवलेन न प्रमाणम्, यथापरिहष्टाकारग्रहणात्।":"अर्थक्रिमांसाधनस्य मालोचना मानेन दर्शनादरष्टस्य पुनस्तत्साधनस्य विकल्पेनापतिपत्तेः विधिविकल्पो में प्रमाणम् ।" हेतु० टी० पृ० २५-२७।।
पृ० ७२. पं० १३. 'निरस्तत्वान्' देखो, पृ० १४।। पृ० ७२. पं० २१. 'नमूक्तम्' देखो, पृ० ६३. पं० ११ ।
पृ० ७३. पं० ६. 'किंच, भावांश" के स्थानमें 'किञ्च अभावांश' ऐसा पाठ होना चाहिए।
पृ०७३. पं० १०. 'न हि' ऐसा ही वाक्य हेतु बिन्दु में भी है-पृ० १८९ । सन्मति० टी० पृ० २८५ पं० २० । पृ०७३. पं० १६. 'अभिधास्यते' देखो पृ०७१. पं० १३ ।
पृ०७३. पं० २१. 'अण्णोण्णा व्याख्या- "अन्योन्यानुगतयोः परस्परानुप्रविषयोः 'वं वातद्वा ' इति"... विभजनं पृथक्करणं, तद् अयुक्तम् -अघटमानकम्, प्रमाणा. भावेन कर्तुमशक्यत्वात् । यथा दुग्धपानीययोः परस्परप्रदेशानुप्रवियो।" सन्मति० टी० पृ०४५२ ।
पृ०७४. पं० १. 'प्रतिगतम्' तुलना-"प्रतिगतमाश्रितम् अक्षम् । अस्यादयः कान्ता 'पयें रितीययेति समास । तापमालमतिसमासेषु परवलिङ्गप्रतिपादमिधेयवल्लिो सति सर्वलित प्रत्यक्षशब्दः सिखः । अक्षाश्रितस्वं च व्युत्पत्तिनिमितं शव्यस्य, नतु प्रवृत्तिनिमित्तम् । अनेन तु अक्षाभितत्वेनैकार्यसमवेतमर्थसाक्षात्कारित्वं लक्ष्यते । तदेष शब्दस्य प्रवृत्तिनिमितम् । ततश्च यत्किश्चिदर्थस्य साक्षात्कारिक्षानं तत् प्रत्यक्षमुच्यते यदि तुमक्षाभितत्वमेव प्रवृत्तिनिमितं स्यादिन्द्रियज्ञानमेव प्रत्यक्षमुच्येत । न मानसादि। पथा गच्छतीति गोरिति गमनक्रियायां व्युत्पादितोऽपि गोशब्दो गमनक्रियोपळसितमेकार्यसमवेतं गोत्वं प्रवृत्तिनिमित्तीकरोति । तथा च गच्छति अगच्छति च मवि गोशम्बर सिखो भवति ।" न्यायबि० टी० पृ० १०-११ । सन्मति० टी० पृ० ६२. पं. ३ । प्रमाणमी० भाषा० पृ० २३. पं०.२४ । ..
पृ० ७४. पं० ५. 'वैशयम्' वैशथके लक्षणकी चर्चामें शान्त्या चार्य ने निर्विकल्पकत्व तथा स्पष्टत्वरूप वैशयका लक्षण खण्डित किया है । और अन्तमें 'इदन्त्वेनाक्भासन'रूप साक्षात्कारिखको वैशयका सम्यग् लक्षण सिद्ध किया है। मतलब यह है कि प्रत्यक्ष ज्ञान विशद होता है अर्थात् साक्षादनुभवरूप होता है ऐसा शान्त्या चार्यको इष्ट है।
नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक और सांख्यों के प्रत्यक्ष प्रमाणके प्राचीन लक्षणों में प्रत्यक्षकी उत्पादक सामग्रीका या अप्रामाण्यव्यावर्तक विशेषणोंका तो निर्देश हुआ है किन्तु प्रत्यक्षका अन्यव्यावृत्त खरूप प्रकाशित करनेवाले विशद, स्पष्ट, या साक्षात्कारात्मक जैसे शब्दोंका प्रयोग देखा नहीं जाता । दार्शनिक क्षेत्रमें बौद्धों के पदार्पणके साथ ही प्रत्यक्षका
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२३८
टिप्पणानि । [पृ० ७४. पं०५संक्षिप्त और खरूपबोधक लक्षण प्रत्यक्षलक्षणमें प्रविष्ट हुआ, एक ओर तो उन्होंने प्रत्यक्षका कल्पनापोट, निर्विकल्प इत्यादि निषेधात्मक लक्षण बताया और दूसरी ओर प्रत्यक्षको विशद प्रतिभास (प्रमाणवा० २.१३०), साक्षात्कारित्वव्यापारयुक्त (न्यायवि० पृ०२०) स्फुटाभ (वही पृ० २१), स्पष्ट (प्रमाणवा० २.२८१,२८४ रुटामता (वही २.८), स्पष्ट प्रतिभास (वही २.१४८,५०४ ) इत्यादि विधेयात्मक रूपसे प्रतिपादित किया । यही कारण है बादके दार्शनिकोंने मी प्रत्यक्षके लक्षणमें इन विशेषणोंको अपनाया । जैन दार्शनिक अकलंकने और विद्यानन्द ने तथा तदनुगामी अन्य' आचाोंने प्रत्यक्षको स्पष्ट, विशद या साक्षात्कारि' कहा । योग विद्वान् भासाने प्रत्यक्षको अपरोक्षानुभव' का साधन कहा और न्याय सिद्धान्तमंजरी कारने 'साक्षात्काररूपप्रमाकारणम्' (पृ.२) कहा । मी मांसक शालिक नाथ ने साक्षाप्रतीतिको प्रत्यक्ष कहा। नव्यन्यायके पिता गंगेश ने तो प्राचीन लक्षणका खण्डन करके "प्रत्यक्षस्य साक्षात्कारित्वं लक्षणम् ।" (तत्वचिं० पृ० ५४३) ऐसा प्रत्यक्षका जो लक्षण किया वह बौद्ध असरसे ही किया है ऐसा समझना चाहिए।
यपि इन समी दार्शनिकोंने प्रत्यक्षको स्पष्ट, विशद या साक्षात्कारात्मक बताया.फिर मी बौदोंने निर्विकल्पकत्व और स्पष्टत्व का जो समीकरण किया था उसे किसीने मान्य नहीं रखा । यही कारण है कि शान्स्या चार्य वैशबके लक्षणरूपसे निर्विकल्पकत्वका खण्डन करते है। बौद्रों की मान्यता है कि जो स्पष्ट होगा वह निर्विकल्पक ही होगा और जो निर्विकल्पक होगा वह स्पष्ट ही होगा । कल्पनाज्ञान स्पष्ट हो नहीं सकता वह अस्पष्ट ही है । दूसरे दार्शनिकोंने प्रलक्षको विशद तो मान लिया किन्तु उसकी ऐकान्तिक निर्विकल्पकता स्वीकृत नकी अत एव बौद्धों के उक सिद्धान्तका खण्डन करके ही प्रत्यक्षको स्पष्ट या विशद सिद्ध किया । दूसरे आचार्योंने स्पष्टता और विशदतामें कोई भेद नहीं किया है अत एवं प्रत्यक्षको कहीं स्पष्ट कहा और कहीं विशद । पूर्वोक्त बौद्ध उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि कहीं तो धर्मकीर्ति ने प्रत्यक्षको स्पष्ट कहा और कहीं विशद । इसी लिये हम बादके दार्शनिकोंमें मी देखते हैं कि किसीने प्रत्यक्षको स्पष्ट कहा और किसीने विशद । किन्त शाम्याचार्य ने विशद और स्पष्टके अर्थ में मी मेद बताया है। उनका कहना है कि प्रत्यक्षका लक्षण विशदता अर्थात् साक्षात्कारित्व-दन्त्वेनावभास हो सकता है किन्तु स्पष्टता नहीं। क्योंकि दूरदेशसित पदार्थका दर्शन अस्पष्ट होते हुए मी प्रत्यक्ष कहा जाता है और बालककी अपेक्षा परका दर्शन अस्पष्ट होते हुए भी प्रत्यक्षान्तर्गत है। अत एव स्पष्टता प्रत्यक्षका लक्षण नहीं।
१. "स्पट साकारमंजसा" न्यायविका०३| "प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं" लघी०३।२. "विशवज्ञानास्मकं प्रत्यक्षम्" प्रमाणप० पृ०६७। तरवार्थश्लो०पृ०१८४।३.परीक्षामुख २.३ प्रमाणन २.२ । प्रमाणमी..... प्रमालक्ष्म का०२०। .. न्याया०टी०१०२८ ५.न्यायसारपू०२। ..प्रकरणपं० पृ०५१।.."विकल्पो हि विकस्पिायगोचरत्वावल्पप्रतिमा एव।" प्रमाणवा० मनो०२.५०३। “विधूतकलपनाजा स्पष्टमेवावभासते।" "न विकसानुविना स्पष्टार्थप्रतिभासिता।" प्रमाणवा०२.२८१,२८३। ८. "विशदं स्पष्टं पविज्ञान व प्रलक्ष" प्रमेयक पू०२१६ | "वैशचं स्पष्टत्वापरपर्मान स्वीकार्यम् । स्यावादर०पू०३१७॥
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पृ०७४. पं० ५.]
टिप्पणानि ।
यही बात वियानन्द ने भी कही है -
"अध्यक्षत्वं नहि व्याप्तं स्पष्टत्वेन विशेषतः ।
दविष्ठपादपाध्यक्षज्ञानस्यास्पष्टतेक्षणात् ॥” तत्त्वार्थश्लो० पृ० २२८ ।
उनका कहना है कि कभी कभी प्रत्यक्षज्ञान भी अस्पष्ट होता है क्योंकि स्पष्ट प्रत्यक्षमें जैसा क्षयोपशम होता है वैसा अस्पष्ट अध्यक्षमें नहीं होता ।
२३९
"क्षयोपशममेदस्य तादृशोऽसंभवादिह ।
अस्पष्टात्मक सामान्यविषयत्वं व्यवस्थितम् ॥” तवार्थश्लो० पृ० २२८ ।
तब प्रत्यक्षको स्पष्ट कहा जाता है उसका क्या मतलब है ? यदि अस्पष्ट भी प्रत्यक्ष हो तो प्रत्यक्ष लक्षणमें अकलंक ने "स्पष्टम् " ऐसा विशेषण दिया है उसकी संगति कैसे करना ? इस प्रश्नके उत्तर में विद्यानन्द ने प्रत्यक्षकी लक्षणभूत स्पष्टताका जो समर्थन किया है उसे यदि शान्त्या चार्य स्वीकृत करते तो असंगतिको स्थान रहता नहीं । तथा विशद और स्पष्टमें मेद करने की आवश्यकता रहती नहीं । विद्यानन्दका कहना है कि पारमार्थिक प्रत्यक्षका लक्षण जब स्पष्टत्व कहा जाता है तब मतिज्ञानादि जो इन्द्रियानिन्द्रियसापेक्ष हैं वे आत्ममात्रसापेक्ष पारमार्थिक प्रत्यक्ष की अपेक्षा अत्यन्त अस्पष्ट होनेसे प्रत्यक्ष कहनेके योग्य ही नहीं अत एव परोक्ष ज्ञान हैं । किन्तु जब व्यवहार नयका आश्रयण किया जाता है तब मत्यादि ऐन्द्रियक ज्ञान प्रादेशिक स्पष्ट होनेसे प्रत्यक्षान्तर्गत हो जाते हैं। दूरदेशसे जो वृक्षादिका दर्शन अस्पष्ट कहा जाता है वह मात्र अस्पष्ट नहीं किन्तु उसमें संस्थान विषयक स्पष्टता भी है और उसी स्पष्टताकी मुख्यतासे उस ज्ञानमें प्रत्यक्षका व्यवहार अनुचित नहीं ।
शान्ख्या चार्य का अभिप्राय यह जान पडता है कि इस व्यवहार और निश्चयके झगडेसे 'अलिप्त रह करके यदि प्रत्यक्षका निर्दोष लक्षण करना हो तो स्पष्टताके स्थान में वैशद्य शब्द रख करके उसका अर्थ साक्षात्कार करना चाहिए । जिससे अस्पष्ट दूरदेशादि दर्शन भी प्रत्यक्षान्तर्गत हो सके। और अन्य दार्शनिकों को भी उसमें आपत्ति न हो । एक और बात भी है कि सन्मतिटीकाकार अभय देव ने अस्पष्टत्व की जो व्याख्या की है उसे मद्दे नजर रखकर यदि शान्त्या चार्य प्रत्यक्षका लक्षण बनाते तब वे स्पष्टत्वको प्रत्यक्षका लक्षण नहीं कह सकते थे । क्योंकि अभयदेवने' उस अस्पष्ट ज्ञान को भी प्रत्यक्षान्तर्गत गिना है । 1 अतएव शान्त्या चार्य ने विशद और स्पष्टमें भेद करके विशदशब्दसे ही प्रत्यक्षका बोध कराना चाहा उसमें उनकी विवेकदृष्टि स्पष्ट हैं ।
अ कलंक देव ने वैशयका अर्थ "अनुमानाद्यतिरेकेण विशेषप्रतिभासनम्” (लघी० ३)
१. तस्वार्थलो० पृ० १८४ । २. " पादपादिसंस्थानमात्रे दवीयस्यापि स्पष्टत्वावस्थितेः ।"— तस्वार्थलो० पृ० १८५. पं० ३४ । "समन्धकारादौ ध्यामलितवृक्षादिवेदनमपि अध्यक्षप्रमाणस्वरूपमेव संस्थानमात्रे वैशद्या विसंवादित्वसम्भवात् ।" प्रमेयक० पृ० २२० । ३. "प्रत्यक्षबुद्धावपि अस्पष्टस्यकक्षणप्रति भासस्य प्रतिपादितत्वात् । यत्र हि विशेषोपसर्जनसामान्यप्रतिभासो शाने तद् reve व्यवह्रियते यत्र च सामान्योपसर्जनविशेषप्रतिभासः सामग्रीविशेषाद तत् स्पष्टमुच्यते ।" सम्मति० टी० पृ० २६० । ४. किन्तु अभयदेव स्वयं स्पष्ट और विशदमें कोई भेद नहीं मानते । उन्होंने स्पष्टके पर्यायरूपसे विशद शब्दका प्रयोग किया है- सम्मति० टी० पृ० ५५२ ।
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टिप्पणानि ।
[पृ० ७४. पं० ६किया है । इसी अर्थका अनुसरण दे व सू रि ने ( प्रमाणन० २.३ ) किया है । न्याय कु मुदचन्द्र में प्रभा चन्द्र ने उसका यह अर्थ किया है
"अनुमानादिभ्योऽतिरेकेण आधिक्येन वर्णसंस्थानादिविशेषरूपतया अर्थग्रहणलक्षणेन अधारतरविशेषान्वितार्थावधारणरूपेण वा यद विशेषाणां नियतदेशकालसंस्थानापर्थाकाराणां प्रतिमासनम् ।" न्यायकु० पृ०७४।
माणिक्य न न्दि ने "प्रतीत्यन्तराव्यवधानेन प्रतिभासनम्" ( परीक्षामुख २.४ ) ऐसा बैशनका लक्षण किया है और प्रमेय कम ल मा त ण्ड में प्रभा चन्द्र ने उस लक्षणका समर्थन भी किया है। किन्तु वादी दे व सूरि ने इस लक्षणका खण्डन करके पूर्वोक्त शकलंक के मतको ही मान्य रखा है। ___ गंगेश ने भी माणिक्य नंदी के समान ही प्रत्यक्षका लक्षण स्थिर किया है और नवीन नैया यि कों ने उसको स्वीकार किया है।
बाचार्य हेमचन्द्र ने गंगेश और प्राचीन जैना चायों के लक्षणोंको विकल्पसे स्वीकार किया है-"प्रमाणान्तरानपेक्षेदन्तया प्रतिभासो वा वैशद्यम् ।" प्रमाणमी० १.१.१४ ।
यशोविजय जी ने अकलंक का ही अनुसरण किया है।
पृ०७४. पं० ६. 'अथ तच्छुतम्' दूरदेशस्थपादपादिका अस्पष्टदर्शन श्रुतज्ञान मानना चाहिए ऐसा किसी का मत यहाँ उल्लिखित है । आचार्य विद्या नन्द ने भी इस मतको पूर्वपक्षरूपसे रख कर उस का खण्डन किया है। और स्पष्ट रूपसे उक्तज्ञानको अक्षज प्रत्यक्ष सिद्ध किया है तथा उसकी. श्रुतज्ञानता निषिद्ध की है
"विष्ठपावपादिकानम् अक्षजम्, अक्षान्वयव्य तिरेकानुविधायित्वात् सविरुष्पाद प्रादिविज्ञानवद । भुतहानं वा न भवति साक्षात् परंपरया चा मतिपूर्वकस्वाभावात् वदेवेति ।" तत्त्वार्थश्लो० पृ० २२८ ।
विपा नन्द ने उक्तपूर्वपक्षका आधार "श्रुतमस्पष्टतर्कणम्" इस श्रुतलक्षणको बताया है-यह वाक्य किस जैनाचार्यका है इसका पता नहीं । किन्तु आचार्य विधा नन्द ने खयं अतकी व्याख्याके प्रसंगमें इसका उपयोग किया है और इस वाक्यांशके आगे “मतिपूर्व" ऐसा विशेषण जोड कर श्रुतका निर्दोष लक्षण किया है जिससे मात्र अस्पष्टताके कारण किसी हानको श्रुत ज्ञान कहनेकी शक्यता नहीं रह जाती।
किन्तु शान्त्या चार्य ने उक्त पूर्वपक्षका आधार 'श्रुतमस्पष्टतर्कणम्' को न बनाकर अकलं को.पज्ञ श्रुतके तीन भेद से प्रत्यक्षपूर्वक श्रुतको बनाया है ऐसा उनकी चर्चासे
अकलंक ने प्रमाण संग्रह की द्वितीय कारिका की खोपज्ञ व्याख्यामें "श्रुतम्
परीक्षामुख तथा उसकी टीकानों में सर्वत्र "प्रतीत्यन्तराध्यवधानेन विशेषवत्तया वा प्रतिमासन बसचम्" ऐसा सूत्र पाठ छपा हुआ है किन्तु मार्तण्डकार प्रमाचन्द्रको उस सूत्रका "मव्यवधानेन प्रतिमास कायम्" ऐसा पाठ मान्य है-ऐसा मेरा मन्तव्य है। २. स्याद्वादर० पृ० ३१७।
"शानाकरणकं ज्ञानम् इति तु वयम्" तस्वचिं० प्र० पृ० ५५२ । मुक्का० का० ५१ । जैनत०पू०२। ५. "मतिपूर्व ततो शेनं श्रुतमस्पष्टतर्कणम्" तत्त्वार्थश्लो० पृ०२३७
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पृ० ७४. पं० १७] टिप्पणानि ।
२५१ अविप्लवं प्रत्यक्षानुमानागमनिमित्तम् ।" ऐसा कहा है उसीके आधारसे शास्त्राचार्य ने "अथ त्रिधा श्रुतम्-प्रत्यक्षपूर्वकम् , लैङ्गिकम्, शाब्दं चेति" इत्यादि कयन किया है क्योंकि अंतमें जाकर वे "त्रिधा भुतमविप्लवम्" ऐसी प्रमाण संग्रह की कारिकाका निरास करते हैं। इससे स्पष्ट है कि उक्त पूर्वपक्ष अकलंक का है। प्रत्यक्षके विषयमें अन्य ज्ञातव्य बातोंके लिये देखो, प्रमाणमीमांसा-भाषाटिप्पण पृ० १३२॥ पृ० ७४. पं० १७. 'त्रिधा' प्रत्यक्षका विभाग दार्शनिकोंने अनेक दृष्टिसे किया है। प्रशस्त पाद ने इन्द्रियज और योगज ऐसे प्रत्यक्षके दो विभाग प्रत्यक्षके कारणके भेदसे या अधिपतिके भेदसे किये हैं। इन्द्रियाँ छः हैं -घ्राण, रसन, चक्षु, त्वक, श्रोत्र और मन अत एव इन्द्रियज प्रत्यक्षके छः भेद हैं । और योगिके दो भेद हैं-युक्त और वियुक्त मत एव योगज प्रत्यक्ष मी दो तरहका है।
न्या य सूत्र का आधार लेकरके टीकाकारोंने प्रत्यक्षके निर्विकल्प और सविकल्प ऐसे दो भेद भी किये हैं । ऐसे विभागके समय नै या यि कों की दृष्टि प्रत्यक्षके खरूपमेद की ओर विशेषतः है । न्या य सूत्र के भाष्य और वार्तिक में समस्त प्रत्यक्षसूत्र( १.१.१)को प्रमक्ष सामान्यका लक्षणपरक कहा गया है । किन्तु वा च स्पति ने उस सूत्र को प्रस्मक्षके दो भेद-निर्विकल्प और सविकल्पके जुदे जुदे दो लक्षणों का संग्राहक माना है। उनका कहना है कि सूत्रस्थ 'अव्यपदेश्य' पदसे निर्विकल्पजातीय प्रत्यक्षका और व्यवसायात्मक' पदसे सविकल्पजातीय प्रत्यक्षका ग्रहण होता है।
नव्य नै या यि कों ने इन्द्रिय-ज्यापारकी विशेषताकी दृष्टिसे प्रत्यक्षका विभाजन किया है। उनके मतानुसार प्रत्यक्षके मुख्य दो भेद हैं लौकिक और अलौकिक । संयोग, संयुक्तसमवाय, संयुक्तसमवेतसमवाय, समवाय, समवेतसमवाय और विशेषणविशेष्यमाव ये छः इन्द्रियों के लौकिक व्यापार हैं । अत एव इन छः प्रकारके 'सन्निकर्षरूप लौकिक व्यापारसे जन्य प्रत्यक्षको लौकिक प्रत्यक्ष कहा जाता है । इस लौकिक प्रत्यक्षके मुख्य दो भेद हैं । बाहोन्द्रियण्यापारजन्य और अन्तरिन्द्रियव्यापारजन्य । बाह्य चक्षुरादि पूर्वोक्त पांच इन्द्रियके व्यापारजन्य वाय प्रत्यक्ष पांच प्रकारका है । और अन्तरिन्द्रिय एक मन है अत एव मनोजन्य मानस प्राक्ष एक प्रकारका है।
अलौकिक व्यापारके तीन भेद हैं-सामान्यलक्षण, ज्ञानलक्षण और योगजधर्म । अत एवं अलौकिक प्रत्यक्षका भी उक्त तीन अलौकिक व्यापारके मेदसे त्रैविष्य है।
१. प्रशस्त० पृ०५५२। २. "तसादेकद्वित्रिचतुष्पदपहुंदासात् पापपरिमादेन स्विकील सम लक्षणमित्युच्यते" न्यायवा० पृ०४०। ३. “इह इवी प्रत्वबजाति:--अविकसिकाअनिक पिकाचेति । तत्र उभयी इन्द्रियार्थससिकोत्पज्ञानमयभिचारीति सजेन संगडीमानिसको पाता, वन विप्रतिपत्तेः । तत्राविक्षिपकायाः पदमव्यपदेश्यामिति । सविकसिकाकायला मकमिति ।" तात्पर्य० प्र० १२५। १.देखो प्रस्तुत टिप्पण पू० १४१ । १.कारिका का०५२ से।
न्या.३१
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टिप्पणानि ।
[पृ० ७४. पं० १७लौकिक प्रत्यक्ष सविकल्प और निर्विकल्प दोनों प्रकारका होता है जब कि अलौकिक एक सविकल्पकरूप ही होता है। ___धर्म की र्ति ने प्रत्यक्षके चार भेद किये हैं- इन्द्रियप्रत्यक्ष, मानसप्रत्यक्ष, स्वसंवेदन और बोगिप्रत्यक्ष' । ये चारों ही निर्विकल्प होते हैं । प्रत्यक्षका यह विभाजन मी अधिपतिकी प्रधानता को लक्ष्यमें रख कर किया गया है । इन चार भेदोंमें खसंवेदन एक ऐसा भेद है जो खरूपबोधक है बाकीके तीन साधनभेदसे भिन्न हैं।
प्राभा करों ने प्रत्यक्षका मेद विषयके भेदसे किया है । प्रमेयप्रत्यक्ष, प्रमातृप्रत्यक्ष और प्रमितिप्रत्यक्ष ऐसे प्रत्यक्षके तीन भेद शा लि क नाथ ने गिनाये हैं उससे स्पष्ट है कि शा लिकनाथ प्रत्यक्षके मैदका आधार विषयमेद मानता है । उसने प्रमेयप्रत्यक्षके दो भेद किये हैं - सविकल्प और निर्विकल्प । उसके मतमें प्रमेय हैं - द्रव्य, गुण और जाति । उन्हीके साथ इन्द्रियसन्निकर्षसे जो ज्ञान होगा वह प्रमेयप्रत्यक्ष है। और वह निर्विकल्परूप और सविकल्परूप दो प्रकारका है। ___ प्राभा करों की मान्यता है कि सभी प्रकारकी प्रतीतिओंमें चाहे वह प्रत्यक्ष हो, अनुमिति या स्मरणरूप हो, आत्माका तो प्रत्यक्ष ही होता है । ऐसी कोई प्रतीति हो नहीं सकती जिसमें विषयका प्रतिभास हो किन्तु आत्माका प्रत्यक्ष न हो। अत एव प्रमाताकी दृष्टिसे समी ज्ञानप्रत्यक्ष या परोक्ष-प्रत्यक्ष ही हैं । किन्तु यदि प्रमेयकी दृष्टिसे ज्ञानका विभाजन किया जाय तब यदि प्रमेय परोक्ष हो तो ज्ञान भी परोक्ष कहा जायगा और जब प्रमेय प्रत्यक्ष होगा प्रतीति मी प्रत्यक्ष कही जायगी । अत एव प्रमाणभेदकी व्यवस्थाका आधार प्राभा करों के मतानुसार प्रमेयकी प्रत्यक्षता या परोक्षता है । प्रमाता तो सभी प्रतीतिओंमें प्रत्यक्ष ही है। - प्राभाकरों का कहना है कि प्रमाताकी तरह प्रमिति भी प्रत्यक्ष होती ही है । फर्क यह है कि प्रमेय और प्रमाता को प्रत्यक्ष करनेवाली प्रतीति उन दोनोंसे भिन्न होती है । किन्तु प्रमिति को प्रत्यक्ष करनेवाली प्रतीति भिन्न नहीं किन्तु अभिन्न है । अर्थात् प्रतीति खयं प्रत्यक्ष होती है । और प्रमाता और प्रमेय अन्यसे प्रत्यक्ष होते हैं । मेय और माता तो अप्रकाशखभाव हैं अत एव उनके प्रत्यक्षके लिये प्रकाशकी आवश्यकता है। किन्तु प्रतीति-प्रकाश तो खयं प्रकाशखभाव है अत एव अन्य प्रकाशकी अपेक्षा नहीं। प्रकाश होकरके अप्रकाशित रहे यह संभव ही नहीं । उसकी सत्ता ही प्रकाशरूप है।
सातिगुणे सा।
१० १२७।
ति । न
१. न्यायकोष पृ० ४९९ । २. न्यायबिन्दु पृ० १७। ३. प्रत्यक्षस्य विशेषमाह-मेयमाप्रमासु सा" प्रकरणपं० पृ०५२। ४. "मेयेग्विन्द्रिययोगोत्था द्रध्वजातिगुणेषु सा । सविकल्पाऽवि. करूपा च प्रत्यक्षा बुद्धिरिष्यते ॥" प्रकरणपं० पृ० १२७। ५. "यावती काविद्रहणमरणरूपा प्रतीतिस्तत्र साक्षादात्मा प्रतिभाति । न साल्मन्यनवभासमाने विषया भासन्ते ।.....नन्वेवं वर्हि सर्व प्रत्यक्षं प्रसकंयदि मात्रभिप्रायम्, इटमेव । प्रमेयाभिप्रायमिति चेछ । सर्वत्र प्रमेयस्खापरोक्षस्वनियमाभावात् ।......तेन प्रमेयापेक्षया प्रमाणान्तरध्यपदेशः ।" प्रकरणपं० पृ० ५६ । ६. "सर्वाब प्रतीतयः खयं प्रत्यक्षाः प्रकाशस्ते । तासान युक्तमेव स्वास्मनि प्रत्यक्षस्वं मामत्वं । मेचे मावरि च व्यतिरिका प्रतीतिः साक्षात्कारवती । मिती तुमव्यतिरिका ।" प्रकरणपं० पृ०५६। ७. "मप्रकाशखमावानि मेवानि माता च प्रकाशमपेक्षम्साम् । प्रकाशस्तु प्रकाशात्मकस्वाबाम्बमपेक्षते ।......"प्रकाशाय स्वप्रकाकामानस्य सत्तेव नाम्युपेयते।" प्रकरणपं० पू०५७।
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५०७६.५०६ टिप्पणानि ।
९४५ प्राचीन जैन आगमोंमें इन्द्रियजन्य मतिज्ञानको प्रत्यक्ष भी कहा है और परोक्ष मी कहा है। इस विरोधका समन्वय करके आचार्य जिन भद्र ने कह दिया कि वस्तुतः प्रत्यक्षके दो मेद हैं। एक सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और दूसरा पारमार्थिक प्रत्यक्ष । जैनदार्शनिकोंने प्रत्यक्षशब्दगत 'अक्ष'का अर्थ आत्मा किया है। अत एव जो आत्ममात्रसापेक्ष हो वही पारमार्थिक प्रत्यक्ष है और क्योंकि इन्द्रियजन्य ज्ञानोंको लोकमें - अन्य दर्शनोंमें प्रत्यक्ष कहा जाता है अत एव वह सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष है । यही व्यवस्था प्रायः सभी जैन दार्शनिकोंने खीकृत की है।
आचार्य अकलं क ने भी अन्यत्र यही व्यवस्था की है किन्तु उन्होंने अपने प्रमाण संम ह में - प्रत्यक्षके तीन भेद किये हैं' - इन्द्रियप्रत्यक्ष, अनिन्द्रियप्रत्यक्ष और अतीन्द्रियप्रत्यक्षप्रमाणसं० पृ० ९७ । आचार्य विद्यानन्द ने भी प्रमाण परीक्षा में प्रत्यक्षके उपर्युक्त तीन भेद बताये हैं-प्रमाणप० पृ० ६८। उन्हीका अनुकरण प्रस्तुतमें शान्त्या चार्य ने किया है और प्रत्यक्षके उक्त तीन भेद गिनाये हैं।
प्रत्यक्षके अवान्तर भेदोपमेदोंके लिये देखो-प्रमाणप० पृ० १८ स्याद्वादर० २.४-२३ ।
पृ० ७४. पं० २१. 'न मानसादि' यह बौद्ध संमत मानसप्रत्यक्ष और स्वसंवेदन प्रत्यक्षके निषेधको लक्ष्य करके कहा गया है ।
पृ० ७४. पं० २२. 'इन्द्रियम्' इन्द्रियके विषयमें विस्तृत ऐतिहासिक और दार्शनिक आलोचनाके लिये देखो, प्रमाणमीमांसा - भाषाटिप्पण पृ० ३८। ___ पृ० ७४. पं० २३. 'ननु' सांख्यों का यह पूर्वपक्ष शब्दशः व्यो म व ती टीका से लिया गया है । देखो, व्यो० पृ० १५८ । कंदली पृ० २३।। ___ पृ० ७५. पं० २०. 'वक्ष्यामः' दूसरे ग्रन्थमेंसे शब्दशः पाठ लेने पर अपने ग्रन्थमें असंगत ऐसी बात मी प्रविष्ट हो जाती है इसका यह उदाहरण है। 'वक्ष्यामः' यह पद व्यो मवती का ज्योंका त्यों शान्त्या चार्य ने उद्धृत कर लिया है । प्रस्तुत वार्तिक वृत्ति में तो 'वक्ष्यामः' कह करके जिस अनुमानका निर्देश किया है उसका कोई प्रसंग आगे आता ही नहीं । किन्तु व्यो म शिव को खयं व्यो म व ती में उक्त अनुमान का निर्देश करना है अत एव उसने 'वक्ष्यामः' ऐसे पदका प्रयोग किया । शान्त्या चार्य ने अवधानपूर्वक पाठमें काटछांट की नहीं अत एव व्यो म शिव का वह पद ज्योंका त्यों उद्धृत हो गया, तुलना-"तेजसत्वेऽनुमानमिति वक्ष्यामः ।" व्यो० पृ० १५९।।
प्रस्तुत अनुमानके लिये देखो, व्यो० पृ० २५६ । कंदली पृ० ४० ।
पृ० ७६. पं० ६. 'वक्ष्यमाणम्' यह मी पूर्ववत् व्योम शिव की ही उक्ति है -व्यो. पू० १६० । किन्तु पूर्ववत् प्रस्तुतमें असंगत नहीं क्योंकि शान्त्या चार्य ने आगे जा करके सांसयों का खण्डन किया है । देखो, पृ० ११३। ।
१. देखो प्रमाणमी० भाषाटिप्पण पृ०२२ २. "प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं मुख्यसंव्यवहारतः।" लघी०३। ३.घीयमयकी स्वविवृतिमें भी अन्यत्र ये ही तीन मेद किये है-लघी०स.६१।
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२४४
टिप्पणानि । [०७५.५० ११पृ० ७६. पं० १२. 'प्रतन्यते' सांख्य के पूर्वपक्षका वैशेषिकने जो उत्तर दिया यह यहाँ समाप्त होता है । और व्योमवती टी का का उद्धरण भी यहीं समाप्त होता है । देखो, व्यो० पृ० १६०।
पृ० ७६. पं० २१. 'तम' नै या यि क, वैशेषिक और प्रा भाकरों ने 'तम' को अमावात्मक माना है। जैन, भर्तृहरि, भा, सांख्य और वेदान्तिओं ने उसे भावात्मक माना है । आयुर्वेद सांख्य दर्शनानुगामी होनेसे उसमें भी तमको भाषास्मक माना है। अन्धकारके विषयमें दार्शनिक चर्चा के लिये देखो, सन्मति० टी० पृ० ५४३ । न्यायकुमदचन्द्र पृ० १६६ । इन दोनों ग्रन्थकी तुलनात्मक टिप्पणीमें अन्यदर्शनोंकी मान्यताको तत्वत्दर्शनके प्रन्योंसे मूल पाठ उद्धृत करके बताया गया है ।
पृ० ७६. पं० २५. 'लब्धि'-तुलना- "लम्भनं लब्धिः। का पुनरसीवानापरणभयोपशमविशेषः। यत्सनिधाना मात्मा द्रव्येन्द्रियनिति प्रति व्याप्रियते, तचिमिच, मात्मनः परिणाम उपयोगः।" सर्वार्थ० २.१८ । “मर्थग्रहणशकिः लम्पिा, उपयोगा पुनः मर्वप्रहपव्यापारा।" लघी० स्व० ५।
पृ० ७६. पं० २९. 'गवाक्ष तुलना-"उपलखा तथाऽऽया तब्धिगमे तदुपरसरणामो। गेहगवक्लोघरमे वि तदुषलखाऽणुसरिया वा॥" विशेषा० गा० ९२ ।
पृ० ७७. पं० ९. 'स्मृति' स्मृत्यादि अत्यन्त परोक्ष ज्ञानोंको मी मानसप्रत्यक्ष बताने की परंपरा अककके प्रन्थमें देखी जाती है । उन्होंने स्पष्ट ही कहा है कि स्मृति, संबा, चिन्ता और आमिनिबोधिक ज्ञान अनिन्द्रियप्रत्यक्ष हैं-"मनिन्द्रियमत्वसं स्मृतिसंवाचिन्ताऽऽमिनियोधात्मकम् ।" लघी० स्व० ११ ।
साबमें इन्द्रिय और अनिन्द्रियसे होनेवाले शानको मतिज्ञान कहा गया है।मत एवं उन्होंने संपूर्ण मति बामको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष मान करके उसके दो मेद किये इन्द्रियप्रत्यक्ष
और अनिन्द्रियप्रत्यक्ष । शासमें स्मृति आदि ज्ञानोंको मतिरूप माननेकी मी पद्धति थी। बत एव उन्होंने स्मृत्यादि ज्ञानोंको अनिन्द्रियप्रत्यक्षके मेदरूपसे बता दिया ।
बकलंक की तरह वा दिराज का मी यही मन्तव्य है कि स्मृत्यादि ज्ञान मानसप्रत्यक्ष हैंप्रमाणनिर्णय पृ० २७।
यद्यपि स्मृति, संज्ञा आदि ज्ञानोंको नंदी सूत्र (सूत्र ३६) तथा आवश्यक नियुक्ति में (गा० १२) मति ज्ञान कहा मया है', आचार्य उमा खा ति ने मी त स्वार्थ सूत्र में बागमिक उक्त परंपराका समर्थन किया है; तथापि आगमिक परंपराको संपूर्ण मतिज्ञान प्रत्यक्षरूपसेसाम्यवहारिकप्रत्यक्षरूपसे . मान्य हो ऐसा प्रतीत नहीं होता । क्योंकि नंदी सूत्र में इन्द्रियप्रत्यक्षके मेदरूपसे श्रोत्रादि पांच इन्द्रियोंसे होनेवाले ज्ञानको ही बताया गया है- "इन्दिप पथक्क पंचविहं पण्णवं तं जहा, सोइन्दियपवावं, पक्विान्दियपवावं, मानिन्दियपवावं, जिम्मिन्दियपवक्वं, फासिन्दियपवक्वं" नन्दी० सू०४।।
. "सणा सई मई पणा सर्व भाभिणियोहिन ।" २. "मतिः पतिः संक्षा, विवामिनियोध इलामन्चर"तस्वा० १.१३॥
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पृ० ७७. पं० ९]
टिप्पणानि ।
२४५
नन्दी सूत्र में परोक्षके भेद गिनाते हुए मतिज्ञानके संपूर्ण मेदोपमेदोंको बताया गया है' । उसमें मानस अवग्रहादि तथा स्मृत्यादि भी गिनाये हैं । किन्तु सिर्फ इन्द्रिय ज्ञानको ही प्रत्यक्षके भेदरूपसे गिनाया । इससे स्पष्ट है कि नन्दी कार के मतमें सांव्यवहारिक प्रत्यक्षमें सिर्फ इन्द्रिय ज्ञानका समावेश है अनिन्द्रिय ज्ञानका नहीं ।
अत एव यह कहना पडता है कि अकलंक ने स्मृत्यादिको मानसप्रत्यक्ष कहा उसका आधार आगमिक परंपरा नहीं है। उन्होंने अपनी सूझसे ही ऐसा किया है या किसी अहात परंपराका आधार लेकर किया है इसका निर्णय कठिन है । इतना तो निर्णयपूर्वक कहा जा सकता है कि उनके इस अभिप्रायको स्वयं उनके टीकाकारोंने तथा विधानन्द जैसे तार्किक विचारकोंने पसंद नहीं किया है । किन्तु शान्त्या चार्य के मतानुसार अनन्तवीर्य उक्त मन्तव्यका स्वीकार करते हैं। अनन्त वीर्य की उक्त मान्यताका आधार हमें प्राप्त नही हुआ है।
विद्यानन्द और प्रभा चन्द्र ने तो अकलंक के वचनोंमेंसे ही अपने अभिप्रायको फलित करने की कोशिश की है। और अकलंक के मूल अभिप्रायको ही बदल दिया है ।
आचार्य विद्यानन्द ने उक्त परंपराका परित्याग करके शुद्ध तार्किक दृष्टिसे स्मृति आदि ज्ञानोंको परोक्ष ही कहा है । और आश्चर्य है कि उन्होंने अपने समर्थनमें अकलंक की कारिका भी उद्धृत की है
"तत्रावग्रहादिधारणापर्यन्तं मतिज्ञानमपि देशतो वैशद्यसद्भाबाद सांव्यवहारिकम् इन्द्रियप्रत्यक्षमतीन्द्रियप्रत्यक्षं चाभिधीयमानं न विरुध्यते । ततः शेषस्य मतिज्ञानस्य स्मृति-संज्ञा-चिन्ता-Sऽभिनिबोधलक्षणस्य, भुतस्य च परोक्षत्वव्यवस्थिते । तदुकम्
9
अफलंकदेवै:
"प्रत्यक्षं विशवं ज्ञानं मुख्यसंव्यवहारतः ।
परोक्षं शेषविज्ञानं प्रमाणमिति संग्रहः ॥” प्रमाणप० पृ० ६८ । इतना ही नहीं उन्होंने स्मृतिको अनिन्द्रियप्रत्यक्ष माननेवालेका खण्डन भी किया हैवही पृ० ६९ ।
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आचार्य प्रभा चन्द्र ने उक्त स्मृतिरूप अनिन्द्रिय प्रत्यक्षकी व्याख्या करते समय कहा है कि अकलंकने स्मृत्यादिको जो मानसप्रत्यक्ष कहा है वह खरूपांशमें स्पष्टताकी अपेक्षासे है । बाह्यार्थकी अपेक्षासे स्मृत्यादि ज्ञान सर्वथा अस्पष्ट होनेसे परोक्ष ही है - न्यायकु० पृ० ६८३ । उनका यह स्पष्टीकरण जैन तार्किकोंकी स्मृत्यादिको परोक्षान्तर्गत करनेकी पद्धतिका एकान्ततः अनुसरण और अकलंकसंगत परंपराको अमान्य करके ही हुआ है । अत एव उन्होंने लघीयबय गत "ज्ञानमाद्यम्” (का० १० ) इत्यादि कारिकाकी व्याख्या मी खमान्यतानुकूल की हैं जो विद्यानन्द आदिसे विपरीत ही है । उन्होंने व्याख्या की है कि नामयोजनासे पहले होनेबाले अस्पष्ट ज्ञान मी श्रुत हैं । और ऐसे अस्पष्ट ज्ञानोंमें स्मृति, संज्ञा इत्यादि हैं – न्यायकु • पृ० ४०४ । अर्थात् इनके मतसे स्मृत्यादि मतिरूप है ही नहीं । तब विद्यानन्दका कहना है कि' स्मृत्यादि ज्ञान नामयोजनासे पहले मति हैं और नामयोजनाके बाद श्रुत हैं । स्मृत्यादि
१. सूत्र २६-३३ / २. स्वार्थको० पृ० २३९ ।
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टिप्पणानि ।
[ ४० ७७: पं० ११
1
। अनन्तवीर्य भी स्मृत्या
मत्यन्तर्गत हो कर भी परोक्ष हैं ऐसा विद्यानन्दका स्पष्ट अभिप्राय है दिको मति और श्रुतरूप मानते हैं - सिद्धिवि० टी० पृ० १०० । अभय देव ने तो एक दूसरा रास्ता लिया । उन्होंने उमा खाति के सूत्रका तात्पर्य बतलाया कि स्मृत्यादि ज्ञानोंका विषय एक है । स्मृत्यादि ज्ञान मतिरूप हैं कि श्रुतरूप या वे कब मति हैं और कब श्रुत- इन प्रश्नोंका उत्तर उन्होंने अपनी ओर न देकरके अ कलंकविद्या नं. द-अ न म्त वीर्यसंमत मन्तव्यको 'केचित् ' के नामसे उद्धृत कर दिया । तथा उसके विरोधमें सैद्धान्तिकों के मन्तव्यको रखा कि मतिज्ञानके ही स्मृत्यादि शब्द वाचक हैं । सैद्धान्तिकोंके इस मन्तव्य के लिये विशेषावश्यक भाष्य गा० ३९६ -४०१ देखना चाहिए ।
पृ० ७७. पं० ११. 'प्रातिभम् ' प्रातिभको मानसप्रत्यक्ष माननेवाला कौन टीकाकार शान्त्या चार्य को अभिप्रेत है यह कहना कठिन है ।
म्याय कुमुद चन्द्र में प्रभा चन्द्र ने प्रसंगसे उसे मनोमात्र निमित्तक कहा है । अत एव उनके मतमें वह मानसप्रत्यक्ष हो तो कोई आश्वर्यकी बात नहीं । अन्यत्र उन्होंने शब्द, लिङ्ग और अक्षसे - इन्द्रियसे वह उत्पन्न नहीं होता ऐसा भी कहा है ' ।
न्यायसूत्र मूल प्रसंगसे प्रातिभका उल्लेख है किन्तु उसके खरूप और सामग्रीके विषयमें न्याय सूत्र मौन है। परन्तु न्या य सूत्र के टीकाकार जयन्त ने स्पष्टरूपसे उसे मानसप्रत्यक्ष सिद्ध किया है.
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"अपि चानागतं ज्ञानमस्मदादेरपि क्वचित् ।
प्रमाणं प्रतिमं श्वो मे भ्राताऽऽगन्तेति दृश्यते ॥ नानर्थजं न सन्दिग्धं न बाधविधुरीकृतम् ।
न दुष्टकारणं चेति प्रमाणमिदमिष्यताम् ॥......
प्रमाणं च सन् प्रत्यक्षमेव न प्रमाणान्तरम् । शब्दलिङ्ग सारूप्यनिमित्तानपेक्षस्यात् । ननु प्रत्यक्षमपि मा भूद् इन्द्रियानपेक्षत्वात् । मैवम् । मनस एव तत्रेन्द्रियत्वात् । ....... शब्दाद्युपायान्तरविरतौ च जायमानमनवद्यं ज्ञानं मानसं प्रत्यक्षं भवति ।" न्यायमं० वि० पृ० १०६ - १०७ ।
वैशेषिकसूत्र में आर्ष और सिद्धदर्शनका उल्लेख है । इन दोनों ज्ञानकी उत्पत्तिमें कणाद ने इन्द्रियको नहीं पर धर्मको कारणरूपसे बताया है । प्रशस्त पाद ने विद्याके मेद गिनाते हुए आर्षको प्रत्यक्षसे स्वतन्त्ररूपसे गिनाया है और उसकी व्याख्या के समय आ ज्ञानको ही प्रातिभ कहा है - "विद्यापि चतुर्विधा - प्रत्यक्ष लैङ्गिक स्मृत्यार्षलक्षणा ।” प्रशस्त ० ५५२ । "आम्नायविधातॄणामृषीणामतीतानागतवर्तमानेष्यतीन्द्रियेष्वर्थेषु धर्मादिषु
ग्रन्थोपनिबद्धेषु अनुपनिबद्धेषु चात्ममनसोः संयोगात् धर्मविशेषाच्च यत् प्रातिमं यथार्थनिवेदनं ज्ञानमुत्पद्यते तदार्षमित्याचक्षते । तत्तु प्रस्तारेण देवर्षीणाम् । कदाचिदेव लौकिकानां यथा कन्यका ब्रवीति श्वो मे भ्राताऽऽगन्तेति हृदयं मे कथयतीति" प्रशस्त ० पृ० ६२१ ।
१. सम्मति० टी० पृ० ५५३ । २. " इन्द्रियादिबाह्यसामग्रीनिरपेक्षं हि मनोमात्रसामग्रीप्रभवं अर्थ तथाभावप्रकाशं ज्ञानं प्रतिभेति प्रसिद्धम् 'वो मे भ्राता आगन्ता' इत्यादिवत्" न्याय कु० ५. "भाषं सिद्धदर्शनं च
पृ० ५९६ । ३. प्रमेयक० पृ० धर्मेभ्यः । " वैशे० ९.२.१३ ।
२५८ । ४. न्यायसू० ३.२.३४ ।
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०७७. पं० ११]
टिप्पणानि ।
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व्योम शिव ने इस प्रातिभज्ञानको इन्द्रियज तथा अनिन्द्रियज नहीं होनेसे स्पष्ट ही प्रत्यक्ष
व्यतिरिक्त माना है । तथा लिङ्ग और शब्द जन्य या शाब्दमें भी नहीं किन्तु इसे पृथक् ही प्रमाण म्यो० पृ० ६२२ ।
किन्तु शंकर मिश्र के उल्लेखानुसार वृत्तिकृत् ने आर्षका समावेश योगिप्रत्यक्षमें किया है । स्वयं शंकर मिश्र का कहना है कि जब उत्प्रेक्षासहकृत मनसे उसकी उत्पत्ति होती है तब उसका समावेश मानस प्रत्यक्षमें होता है। वह नियमदर्शनादि लिङ्ग जनित भी होता है ऐसा शंकर मिश्र का कथन है- वैशे० उप० ९.२.१३ ।
मी नहीं अत एव उसका समावेश अनुमान मानना चाहिए ऐसा उसका मन्तव्य है -
योगसूत्र में प्रातिभज्ञानको सर्वप्राहि बताया है "प्रातिभाद्वा सर्वम्” योग० ३.३३ । योग भाष्य में इसके खामिरूपसे योगीका उल्लेख है । अत एव कहा जा सकता है कि उनके तसे प्रातिभ योगिप्रत्यक्षान्तर्गत है ।
अभय देव ने प्रातिभको आत्माकी विशेषयोग्यताके कारण उत्पन्न मान कर उसे विशद होनेसे प्रत्यक्षान्तर्गत ही माना है । तथा वह इन्द्रिय या अनिन्द्रिय निरपेक्ष है ऐसा भी कहा है - सन्मति० टी० पृ० ५५२ ।
आचार्य विद्यानन्द ने 'उत्तरप्रतिपत्तिरूप प्रतिभाको श्रुतान्तर्गत माना है । और अभ्यासज प्रतिभाको प्रत्यभिज्ञाके अन्तर्गत किया है । प्रत्यभिज्ञा मतिज्ञानका भेद है किन्तु परोक्ष है प्रत्यक्ष नहीं - तस्वार्थश्लो० पृ० २४३ ।
मीमांसकों का कहना कि प्रातिभज्ञान लिङ्गायाभासजन्य होनेसे अप्रमाण ही है अत एव वह धर्मग्राहक हो ही नहीं सकता । - - श्लोकवा० ४.३२ । शास्त्रदी० पृ० १९ ।
पू० ७७. पं० ११. 'स्वमविज्ञानम्' शान्त्या चार्य के कथनानुसार अनन्त की र्ति खन विज्ञानको मानसप्रत्यक्ष ( प्रमाण ) मानते हैं । अनन्त की र्तिकृत किसी ग्रन्थ में यह बात देखी नही गई अतः कहना कठिन है कि शान्त्या चार्य के कथनका आधार क्या है ।
1
आचार्य जिनभद्र ने खप्तज्ञानकी जो चर्चा की है उसमें उन्होंने यह स्वीकार किया है कि वह मानसज्ञान है । इतना ही नहीं किन्तु कुछेक स्वप्नानुभवको सत्य भी माना है । और खमशाखके अनुसार होनेवाले अमुक खामिक दर्शनसे फल भी मिलता है इस बात को भी स्वीकार किया है । किन्तु उनका कहना है कि गमनादिक शारीरिक क्रिया और उसका फल जैसे स्वममें देखे जाते हैं वैसे वस्तुतः होते नहीं हैं । - विशेषा० गा० २२४-२३४ | जैनत • पृ० ३ ।
आचार्य विद्यानन्द तथा तदनुसारी प्रभा चन्द्र और वादी देवसूरि ने यह स्पष्ट ही स्वीकार किया है कि खम सत्य और असत्य होते हैं । इनमेंसे सत्य खम साक्षात् या परंपरा से स्वपरव्यवसायक होते हैं । इससे स्पष्ट है कि स्वप्न मानस प्रत्यक्ष है । - प्रमाणप० पृ० ५८ । न्यायकु० पृ० १३५ । स्याद्वादर० पृ० १८६ ।
१. न्यायसूत्र - ५.२.२९ में अप्रतिभाका लक्षण है- "उत्तरस्याप्रतिपत्तिरप्रतिभा" उसीसे प्रतिभात यह लक्षण फलित किया जान पड़ता है।
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टिप्पणानि। [पृ० ७७. पं० १२प्रशस्त पादने खमका लक्षण इस प्रकार किया है- "उपरतेन्द्रियप्रामस्य प्रलीनमनएकस्येन्द्रियबारेणैव यदनुभवनं मानसं तत् खमज्ञानम् ।"..."प्रशस्त० पृ० ५४८ । प्रशस्त पादने भी खमको मानसप्रत्यक्षमें ही गिना है किन्तु वह उनके मतमें अप्रमाण ही है क्योंकि उसका परिगणन उन्होंने अविषामें किया है- पृ० ५२० ।
के शव मिश्र के कथनानुसार सभी-खमज्ञान अयथार्थ ही होते हैं और मानसप्रत्यक्ष नहीं किन्तु स्मृतिरूप हैं । - "सने तु सर्पमेष सानं स्मरणमयथार्थ च ।" तर्कभाषा० पृ० ३० ।
पृ० ७७. पं० १२. 'स्वसंवेदन' मानसप्रत्यक्ष मात्र खसंवेदन ही है- शान्त्या चार्य ने अपने इस मतकी पुष्टि करनेके लिये स्मृतिको अप्रमाण बतलाया या उसके पृथक् प्रामाण्यका ही निरास किया । ऊहको संशयविशेष बता दिया, प्रत्यक्ष और अनुमानके फलभूत अवायका अन्तर्भाव उन्हीं दोमें कर दिया । प्रातिभ और स्वमज्ञानके प्रामाण्यका ही अखीकार कर दिया। तथा अन्तमें मन की पृथक् सत्ता न मानकर मानसज्ञान( जो सुखादि संवेदनरूप है)का निरास कर दिया। इस प्रकार अन्य आचार्योंको मानसप्रत्यक्षरूपसे जो जो ज्ञान स्वीकृत थे उन सभीका निरास करके शान्त्या चार्य ने स्वसंमत खसंवेदनको ही मानसप्रत्यक्ष माना । शान्त्या चार्य की यह मान्यता अपूर्व है। इस विषयमें किसी जैन-जै ने तर दार्शनिककी संमति हो ऐसा अभी तक देखनेमें नहीं आया । ऐसी अपूर्व मान्यताको सिद्ध करनेके लिए उन्होंने जिन विषयोंमें जैन दार्शनिकोंकी अधिकांश संमति थी उनका भी निरास किया । अन्यथा वे बता सकते थे कि स्मृति प्रत्यक्ष नहीं किन्तु परोक्षज्ञान है । किन्तु सर्व जैनदार्शनिक संमत स्मृतिका पृथक् प्रामाण्य निषिद्ध करके उन्होंने इस विषयमें नै या यि क और बौद्धा दि दार्शनिकों का साथ दिया । ऐसा करके उन्होंने अपना नैयायिकत्व ही जाहीर करना चाहा हो तो कोई पाश्चर्य की बात नहीं। यही बात ऊहके विषयमें भी है। ऊह यदि ईहा अर्थमें लिया जाथ तब वह जैनाचा यों को सर्वसंमतिसे प्रमाण ही है । वे संशय और ईहामें भेदका समर्थन करते हैं। ईहाको संशयविशेष नहीं कहते । ऊहका अर्थ यदि नै यायिक संमत तर्क लिया जाय तब भी वह संशय तो है ही नहीं । इन्द्रियज अवायको या अनुमानके अवयवभूत निगमनरूप अवायको प्रत्यक्ष या अनुमानमें अन्तर्भूत किया जा सकता है किन्तु मनोजन्य अवाय जो आगममें तथा अन्य जैनदार्शनिक प्रन्योंमें वर्णित है उसकी क्या गति होगी ! इस विषयमें शान्त्या चार्य सर्वथा मौन हैं। दूसरोंने जैसा मन माना है वैसा न हो, किन्तु जैनों ने जैसा माना है तथा उन्होंने स्वयं जैसा खीकार किया है वैसे मनका तो अस्तित्व मानना ही चाहिए । अन्यथा मुखादिसंवेदनको किस ज्ञानमें उनके मतानुसार अन्तर्भूत किया जायगा । सुखादिसंवेदन इन्द्रियप्रत्यक्ष तो है ही नहीं और शान्त्या चार्य के मतानुसार मानसप्रत्यक्षमें मात्र खसंवेदन है-ऐसी स्थितिमें सुखादिसंवेदन जिसे सभीने मानस माना है उसकी गति क्या होगी। प्रातिमकी चर्चा में उसके प्रामाण्यको सिर्फ मी मां स क नहीं मानते यह पूर्व टिप्पणमें कहा गया हैमीमांसकको सर्वन नहीं मानना है अत एव वह प्रातिभ जैसे ज्ञानोंको अप्रमाण कह सकता है किन्तु शान्त्या चार्य जैसे जैनाचार्य भी-अव्यभिचारि प्रातिभज्ञानके प्रामाण्यका
१."विषयेषु प्रत्यक्षाकारं समज्ञानमुत्पचते।" प्रशस्त० पृ०५४८।
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पृ० ७९. पं० २२]
टिप्पणानि ।
२४१
निरास करे यह आश्वर्यकी बात है । समी जैन और ने या विक - वैशेषिक आचार्यने अव्यभिचारि होने पर उसका प्रामाण्य स्वीकृत किया ही है । उसे मी शान्ख्या चार्य ने अप्रमाण बतला कर मानसप्रत्यक्ष ज्ञानकी कोटिसे बहिर्भूत कर दिया । जैसा पहले कहा गया है अन्य जैन दार्शनिकोंने खमज्ञानको भी अव्यभिचारि होने पर प्रमाण माना है। तब शा
चार्य ने उसे अप्रमाण बतलाकर मानसप्रत्यक्ष से बहिर्भूत कर दिया । इस प्रकार लसंवेदनको ही मानसप्रत्यक्ष सिद्ध करनेकी धूनमें शान्ख्या चार्य ने अनेक पूर्वस्थापित मान्यताओंका उत्थापन किया है । यह कहाँ तक ठीक है इसका निर्णय विद्वान् करें ।
सभी ज्ञान स्वसंविदित होते हैं अत एव जैन दार्शनिकों का स्पष्ट मम्तव्य है कि संदेदनकी दृष्टिसे सभी ज्ञान प्रत्यक्ष हैं । अर्थात् सभी स्वसंवेदन चाहे प्रत्यक्षका हो या परोक्षका प्रत्यक्ष ही है । किन्तु सभी खसंवेदनों का समावेश मानसप्रत्यक्ष में- अनिन्द्रियप्रत्यक्षमें करना युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता । क्योंकि अतीन्द्रिय प्रत्यक्षका पारमार्थिक प्रत्यक्षका स्वसंवेदन मानस कमी भी नहीं ।
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पृ० ७७. पं० २१. 'उक्तम्' देखो, पृ० ७६. पं० २६ ।
पृ० ७७. पं० २५. 'पञ्चभिः' इस कारिकाका पूर्वार्ध प्रमाणवा० २.१३६ वीं कारिकाका उत्तरार्ध है । टीकाके अनुसार 'भात्यव्यवहितेव या' ऐसा पाठ यहाँ होना चाहिए । यह अशुद्धि 'च' और 'व' के लेखनसादृश्यके कारण हुई है।
1
ब्याख्या – “सङ्क्रान्तकान्तावदन प्रतिविम्बस्य सहकारसुगन्धिनः शीतस्य भ्रममरोपगीतस्य स्वादुन मधुनः सार्वगुणानुभवकाले प्रसरत्संकल्पजन्मनां यून या मतिः पक्षभिरिन्द्रियबुद्धिभिर्व्यवधानेपि त्वत्पक्षेऽव्यवहितेव समकालेव भाति ।" मनो० २.१३६ ।
पृ० ७७. पं० २६. [ प्रमा.... ]' यह कोष्ठक रद करना चाहिए ।
पृ० ७८. पं० २. ‘अक्रमम्' सर्वज्ञ के ज्ञान-दर्शन-उपयोगकी क्रमिकता, अक्रमिकता और एकता के विषयमें जैन दार्शनिकोंकी विप्रतिपत्तिके इतिहासके जिज्ञासुओंको ज्ञान बिन्दु प्रकरण की प्रस्तावना देखना चाहिए ।
पृ० ७८. पं० १६. 'एकांशेन' अकलंक ने इन्द्रियज ज्ञानको स्पष्ट होते हुए मी - प्रादेशिक प्रत्यक्ष कहा है उसी अर्थ में शान्त्या चार्य ने प्रस्तुतमें इन्द्रियज ज्ञानको एकांशव्यवसायक कहा है - लघी० स्व० ६१ । " यद्देशतोऽर्थज्ञानं तदिन्द्रियाभ्यक्षमुच्यते ॥" न्यायवि० ४ ।
पृ० ७८. पं० २६. 'बाह्यार्थाभावात् ' विज्ञानवादी बौद्धों ने बाद्यार्थके अभावको सिद्ध किया है । इस विषयकी चर्चा के लिये देखो, प्रमाणवा० २.३२० से । तस्वसं ० का ० १९६७ । श्लोकवा ० निरा० । बृहती । न्यायमं० वि० पृ० ५३६ । अष्टस० पृ० २४२ | सन्मति ० टी० पृ० ३४९ । न्यायकु० पृ० ११९ । स्याद्वादर० पृ० १४९ ।
पृ० ७९. पं० ३. 'उपलब्धि:' देखो, “उपलम्भः सतोच्यते" प्रमाणवा० अलं० मु० पृ० ९५ | सन्मति० टी० पृ० २८७ ।
पृ. ७९. पं० २२. 'प्रकाशायोगात् ' तुलना - " अदृष्टत्वात्, जडस्य प्रकाशायोगाच इत्यपि वदतः सौगतस्य न वक्त्रवक्रता समुपजायते तथा हि-असावप्येवं वकुं समर्थ:
म्या० ३२
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टिप्पणानि ।
[ ४० ८०.०६
प्रकाशते विधानपद, जडत्वहानिप्रसंगात् । नापि परतः प्रकाशमानं श्रीवादिव्यतिरिकस्य विज्ञानस्यासंवेदनेन असस्वाद ।" सन्मति० टी० पृ० ८१ ।
पृ० ८०० पं० ६ 'सहोपलम्भनियमः' तुलना-- " सहोपलम्भनियमाद मेदो वीकतजियोः ।" उद्धृत - स्याद्वादर० पृ० १४९ । “सकृत् संवेद्यमानस्य नियमेन धिया सह । विषय ततोऽन्यत्वं केनाकारेण सिद्ध्यति ।" प्रमाणवा० २.३८८ । तत्त्वसं० का● २०३०-३१ ।
निराकरणके लिये देखो ० तत्त्वो० पृ० १०२ । भामती २.२.२८ । अष्टस० पृ० २४२ | न्यायकु पू० १२२ ।
पू० ८०० पं० ८० 'निरालम्बना!' तुलना - "अत एव सर्वे प्रत्यया अनालम्बनाः प्रत्ययस्वात् लमप्रत्ययवदिति ।" प्रमाणवा० अलं० मु० पू० २२ ।
पू० ८०. पं० २४. 'सविकल्पकसिद्धी' देखो, पृ० ८१. पं० १६. से ।
१५०
पृ० ८०. पं० ३१. 'निरस्तम्' देखो पृ० ३४. पं० १६ ।
पृ० ८१. पं० १. 'सामान्यम्' भारतीय दार्शनिकोंमें सामान्यके विषयमें निम्नलिखित पक्ष हैं
(१) बौद्धों का अवस्तुरूपसामान्यवाद । (२) वैशेषिका दिका भिन्नसामान्यवाद । (३) सांख्या दि का अभिन्नसामान्यवाद ।
(४) मी मां स क का भिन्नाभिन्नसामान्यवाद । (५) जैनों का अनेकान्तात्मक सामान्यवाद ।
।
सामान्यके विषय में चार्वाक की क्या राय है इसका निर्णय करना कठिन है । चार्वा को का एक मात्र उपलब्ध प्रन्य त स्वो पल व सिंह है । उसमें प्रसंगसे भिन्न, अभिन्न और भिन्नाभिन्न इन तीनों पक्षोंको लेकर सामान्यका खण्डन किया गया है'। इससे यह फलित होता है कि जिन दार्शनिकोंने सामान्य को वस्तु सत् माना है उन समीका खण्डन करना प्रन्धकारको उक प्रसंग में अमीष्ट है। वस्तुतः बात यह है कि बौद्ध दलीलोंका आश्रय लेकर प्रन्थकारने वस्तु सद् सामान्यका खण्डन किया है। और अन्यत्र बौद्ध प्रत्यक्षलक्षण परीक्षाप्रसंग में सामान्यको काल्पनिक सिद्ध करनेके लिये प्रदत्त सभी बौद्ध युक्तियों का भी निरास किया है। इस प्रकार किसीकी दलीलें ठीक नहीं है - यही दिखाकर ग्रन्थकारने अपने वक्तव्य त खोप लव को पुष्ट किया है। उनका ध्येय किसी वस्तुका निरूपण नहीं किन्तु किसी स्थिर मान्यताका खण्डन ही है। अत एव वा व क संमत सामान्य कैसा है इस विषयमें मौनाश्रयण ही अच्छा है।
अन्य समी दार्शनिक सामान्यके प्रतिभासको तो स्वीकार करते हैं । अत एव उस प्रतिभासके किसी न किसी प्रकारके निमित्त - सामान्यके बारेमें तो कोई विवाद नहीं" । किन्तु उस निमित्तभूत सामान्यका स्वरूप क्या हो इसी विषयमें दार्शनिकोंमें विवाद हैं ।
१. यह वाक्य दिमाग का हो सकता है। क्योंकि कमल शी क ने इसे आचार्यय प्रयोग कहा हैतत्वसं० पृ० ५६७ ॥ २. तत्त्वो० पृ० ४ । ३. तस्वो० पृ० ४६ । ४. "सामान्यं तच पिण्ड:मितं बल्कचित्सामान्यं शब्दचरम् । सर्व एवेच्छतीत्येवमविरोधोऽत्र ०३,४
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१० ८१.० १]
टिप्पणानि । सामान्यके खरूपके विषयमें विचार करें इसके पहले यह बता देना आवश्यक है कि वस्तुतः देखा जाय तो सामान्यके बारेमें दो ही पक्ष हैं-एक पक्ष है सामान्यको पस्तुसत् मानने वालोंका जिसमें उपर्युक्त बौद्धा तिरि क सभी पक्षोंका समावेश है । और दूसरा पक्ष है सामान्पको काल्पनिक माननेवाले बौद्धोंका । अब हम पांचों पक्षोंका क्रमशः विचार करें
(१) बोद्धोंका अवस्तुरूपसामान्यवाद ।
अन्यत्र हम कह आये हैं कि बौद्धों के मतसे दो प्रमाण हैं और विषय मी दो हैं। सबक्षणरूप वस्तुका ग्रहण करता है और अनुमान सामान्यरूप अवस्तुका । वहीं बनने खलक्षण और सामान्यमें क्या भेद है यह दिखाया है-देखो, पृ० २१०-२१५ ।
धर्म की र्ति ने सामान्यको वस्तुसत् माननेवालोंका विस्तारसे खण्डन प्रमाण वार्तिक तथा उसकी खोपा टीकामें किया है-प्रमाणवा० स्त्रो० पृ० १०७-३४१।
समी वास्तवसामान्यवादी दार्शनिकोंके विरुद्ध बौद्ध दार्शनिकोंका कहना है कि सामान्य वस्तुसत् नहीं । सामान्यप्रतीतिका विषय बाह्य सामान्य नहीं क्योंकि बाम वस्तुएँ तो बलात विलक्षण हैं । अत एष सामान्यप्रत्यय निर्विषय है । अथवा यों कहना चाहिए कि कलित सामान्यविषयक है। परस्परव्यावृत्त ऐसे पदार्थोंसे ही एकाकारपरामर्शिनी भुद्धि उत्पन होती है जो कि पदापोंके परस्परल्यावृत्त खरूपका संवरण कर देती है अत एवं उनमें अमेरका मतिमास होने लगता है । वस्तुतः पदार्पोमें अमेद नहीं किन्तु भेद ही है। एकाकारपरामर्थ होनेका कारण विजातीयव्यावृत्ति है
. "एकार्यमतिभासिन्या भावानाभिस्य मेदतः।
पररूपं सरूपेण यया संवियते धिया ॥१७॥ तया संवृतनानात्वाः संवृत्या मेदिनः खयं । अमेदिन वामान्ति मेदा रूपेण केनचित् ॥ ६८॥ तस्या ममिप्रायवशात सामान्यं सत्प्रकीर्तितम् ।
सदसत् परमार्थेन यथा संकल्पितं तया ॥ ६९॥"प्रमाणवा०३। असन्त न्यावत ऐसे पदामि एकाकारप्रमय क्यों होता है इस प्रश्नका उचर धर्म की ति में दिया है कि
"तसार यतो यतोऽर्थानां ध्यावृत्तिस्तभिवन्धनाः।
जातिमेदार प्रकल्प्यन्ते तद्विशेषाधगाहिनः॥" प्रमाणवा० ३.१०। एक ही गोको अगोग्यावर होनेसे गो कहा जाता है, अपशुव्यावृत्त होनेसे पशु कहा जाता है, अन्यव्यावृत्त होनेसे द्रव्य कहा जाता है. और मसलावत होनेसे सत् कहा जाता है। इस प्रकार व्यावृत्तिके मेदसे जातिभेदकी कल्पना की जाती है । जितनी परवस्तएँ हो उतनी ध्यावत्तियाँ उस वस्तुमें कल्पित की जा सकती है। अत एव सामान्य विका विषय वस्तुसत् सामान्य नहीं । किन्तु अन्यापोह ही मानना चाहिए।
.."पारमार्थिकस्स गोत्वस्य निषेधः क्रियतेन कविपवस्येति ।" कर्ण०पू०१११ । "वदात्मानमेव सनम्ती दिसामान्यविषया प्रतिमासते" प्रमाणषा० खोकर्ण० पू० ११७। ..साद पास भावनाविपररूपाणिवावस्या व्यायः वदपेक्षया ।" प्रमाणवा० सो० १० ११९ । 1. "नाबापोडविषबा मोका सामान्यगोचराः ॥ शादाबादपबैव पखुम्बेवामनबाद।" प्रमाणवाश
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टिप्पणानि ।
२५२
(२) वैशेषिकादिका भिन्नसामान्यवाद ।
"वैशेषिकों ने सामान्यको स्वतन्त्र पदार्थ माना है। सत्ता सामान्य एक' होकर भी अनेकवृति है । कणाद ने उसे द्रव्य गुण और कर्मसे अर्थान्तर सिद्ध करनेका मी प्रयत्न किया है । प्रशस्तपाद का कहना है कि क्योंकि वह द्रव्यादिसे अर्थान्तर है अत एव वह निम है । यदि द्रव्यादिसे अभिन्न माना जाय तो उसके नाशके साथ सामान्य भी नष्ट हो जाय । और नष्टातिरिक्त द्रव्यादिमें अनुवृत्ति प्रत्यय न हो । प्रशस्त पाद ने उसे सर्वव्यापक नहीं किन्तु विषय सर्वगत माना है । सामान्य दो प्रकारका है सत्ता पर सामान्य है और द्रव्यत्वादि अपर सामान्य है । पर सामान्य अनुवृत्तिका ही हेतु होता है अत एव वह सामान्य ही कहा जाता है किन्तु द्रव्यत्वादि अनुवृत्तिके अतिरिक्त व्यावृत्तिका मी हेतु होता है अत एव सामान्य की तरह विशेष भी कहा जाता है। अर्थात् उसे सामान्य-विशेष मी कहते हैं ।
मैयायिकों ने मी सामान्यका खरूप वैसा ही माना है । यद्यपि वार्तिक कार ने सामान्यको वैशेषिकों की तरह खविषय सर्वगत माना हैं किन्तु न्या य मंजरी कार जयन्त ने उसे सर्वसर्वमत ही माना है। क्योंकि एक और अनेकवृत्ति सामान्य यदि व्यापक न माना जाय तब अर्थात् फलित होगा कि वह एक नहीं हो सकता क्योंकि उसके अंश तो हैं नहीं जो अंशतः प्रत्येक व्यक्तिमें रहे । जयन्त ने प्रतीतिका शरण लेकर कह दिया कि वह व्यापक है। अन्तरालमें अनुपलब्धिका कारण व्यक्तिका अभाव है । व्यक्ति ही जाविव्यंजक है अत एव उसके अभाव में अन्तरालमें जातिकी अभिव्यक्ति नहीं होती' ।
[५०८१. पं० १
सामान्यको वस्तुसत् माननेवालोंका कहना है कि सामान्यप्रत्ययका विषय सामान्य उसी प्रकार वस्तुसत् है जैसे व्यावृत्तिप्रत्ययका विषय विशेष" । यदि विशेषकी सत्ता प्रतीतिके बलसे सिद्ध है तो सामान्यकी सत्ता मी प्रतीतिके बलसे ही सिद्ध है । किसी बस्तुका दर्शन करते समय उसे सजातीयोंके साथ अनुगतरूपसे तथा सजातीय और विजातीयोंसे व्यावृत्तरूपसे यदि देखा न जाय तो उसके व्यक्तित्वका ठीक ठीक निर्णय नहीं हो सकता । किसी वस्तुका निर्णीतज्ञान 'वह यह नहीं है' ऐसे व्यावृत्ति मात्रके ज्ञानसे हो नहीं सकता किन्तु उसमें अनुगत -विधानात्मक प्रत्यय 'वह घट है' इत्यादि मी - आवश्यक । जब हम उसे घटत्वेन जानते हैं तब हम उसकी पटादिसे सिर्फ व्यावृत्ति - विशेषका ही ज्ञान करते हैं यह बात नहीं किन्तु उसकी अन्य घटोंसे सजातीयता भी जानते हैं। ऐसी दशामें व्यावृत्ति - स्खलक्षण - विशेषको ही वस्तुसत् मानना और अनुवृत्तिसामान्यको काल्पनिक मानना यह युक्तिसंगत नहीं" ।
१. "सदिति लिङ्गाविशेषाद विशेषलिङ्गाभावाच एको भावः ।" वैशे० १.२.१७ । २. "साहिति द्रव्यगुणकर्मसु सा सचा ।” वैशे० १.२.७ । ३. " द्रव्यगुणकर्मस्पोऽर्थान्तरं सचा | गुणकर्मसु च भावाच कर्म न गुणः । सामान्यविशेषाभावेन च ।" वही १.२.८-१० । ४. प्रशास्त० पू० ६७८ । ५. वही पृ० ६७७ । ६. "भावोऽनुवृतेरेव हेतुत्वात् सामान्यमेव । द्रव्यत्वं गुणत्वं कर्मवंच सामान्यानि विशेषाच ।” वैशे० १.२.४,५ । ७. न्यायसू० २.२६८ । न्यायवा० पृ० ३१५ से । न्यायमं० पृ० २९७ । ८. "न्, अनभ्युपगमात् केन सर्वगतत्वं जातेरम्युपगम्यते ? अपि तु खविषये सर्वत्र वर्तते इति सर्वगतेत्युच्यते ।” न्यायवा० पृ० ३१५ । ९. "यथा प्रतीतिरादिसति भगवती तथा वयमप्युपगच्छामः । सर्व सर्वगता जातिरिति तावदुपेयते । सर्वत्राग्रहणं तथा व्यकव्यवस्थसंविधेः ॥ न्यायमं० वि० पृ० ३१२ । १०. तत्वार्थसो० पृ० १०१ । ११. न्यायमं० पू० ३००, ३११ । शावादी० पृ० ९९ । न्यायकु० पृ० २८९ ।
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पृ० ८१. पं० १]
टिप्पणामि ।
२५३
प्राभाकरों ने मी प्रतीतिका शरण लेकर जातिका अस्तित्व स्वीकृत किया है। प्राभा क नैयायिकों के समान ही जातिको व्यक्तिसे भिन्न, नित्य और एक माना है। एकाकारपरामर्शके कारण जातिका निर्णय होता है इस बातको मी स्वीकार किया है ! किन्तु कुछ बातोंमें अपना मतभेद मी प्रकट किया है। शालिक नाथ का कहना है कि द्रव्य, गुण और कर्म में सत्प्रत्ययकी अनुवृत्ति तद्गत सत्तानामक महासामान्यके कारण नहीं किन्तु सामान्य, विशेष और समवाय की तरह खरूपसत्तोपाधिक ही है ।
इस मतभेदका कारण यह मालूम होता है कि प्राभाकरों ने जातिको भा ट्टों की तरह आकाररूप माना है । और द्रव्य, गुण तथा कर्मका कोई समानाकार है ही नहीं जिससे कि I उनमें एक महासामान्य रूप सत्ता जाति मानी जाय ।
इसी प्रकार उसने शब्दगत शब्दत्व जातिका मी निषेध किया है । उसका कहना है कि सब ककारमें कत्व जाति और गकारमें गत्व जाति समानाकार के कारण सकती है किन्तु ककार और गकारमें कोई आकारसाम्य नहीं जिससे शब्दत्व जाति पृथग् मानी जाय" ।
इतना ही नहीं किन्तु उसने ब्राह्मणत्वादि जातिका भी निषेध किया है। नै या यिकों ने ' तथा भाट्टों ने ब्राह्मणत्व जातिको सिद्ध करनेके लिये प्रयत्न किया था । जातिवादके विरोघी बौद्धों ने ब्राह्मणत्व जातिका खण्डन किया है। जैनों ने भी अपने ग्रन्थोंमें जातिवादका प्रबल विरोध किया है। शालिक नाथ ने बाह्मणोंके अधिकारविशेषकी तो रक्षा की किन्तु ब्राह्मणशब्द की प्रवृत्तिके निमित्तरूपसे ब्राह्मणत्व जातिको न मानकर लोकप्रसिद्ध ब्राह्मण वंशको ब्राह्मण माना । और उन वंशोंमें होनेवालेको ब्राह्मण कहा जाय ऐसा स्पष्टीकरण करके कह दिया कि सन्ततिविशेषप्रभवत्व ही ब्राह्मणशब्दकी प्रवृत्तिमें उपाधि है । बौ द्वादि की दलीलोंके कायल होकर शालिक नाथ ने ब्राह्मण जातिका निषेध तो किया किन्तु ऐसा करके जो प्रयोजन बौद्धादिको इष्ट था वह शालिक नाथ को इष्ट न था । इस लिए उसने दार्शनिक दृष्टिसे ब्राह्मण जातिवादका निषेध करके भी लौकिक दृष्टिसे ब्राह्मणोंके अधिकारोंकी रक्षा करके ब्राह्मणों के जातिमदको पुष्ट ही किया । और इस प्रकार जातिवाद के निरासके पीछे 'जातिमद निरास की जो बौद्धादि की भावना रही उसे शालिकनाथ अपना न सका ।
शालिक नाथ ने एक ही वर्तिमें क्रमशः होनेवाली ज्वालाओंमें ज्वालात्व सामान्यका मी निरास किया है। उसका कहना है कि एकाकारप्रत्यय यदि सामान्यको बिना माने घट न
१. "संविदेव हि भगवती विषयसरवावगमे शरणम् ।” प्रकरणपं० पृ० २२ । २. तस्मात् स्वरूपसोपाधिक एव सच्छन्दो न पुनरेक माकारः सत्ता नाम द्रव्यगुणकर्मणाम् । अपि च काश्यपीयानां जाति 'समवायविशेषेषु स्वरूपसतोपाधिक एवं सच्छन्दः इत्यभ्युपगमः ।" प्रकरणपं० पृ० १९ । २. " नानाजातीयेषु द्रव्येषु सर्षपमहीधरादिषु गुणेषु गन्धरसादिषु समानाकारानुभवो भवति केवलं तु सत्सदिति 'शब्दमात्रमेव प्रयुज्यते ।" - वही पृ० २८ । ४. “न हि ककारगकारपोरे काकारमनुगतं परामृशन्ती मनीषा समुन्मिषति ।" वही पृ० ३० । ५. न्यायमं० पृ० ४२२ । ६. लोकवा० बन० २५२९ । तावा० १.२.२ । ७. धम्मपद गा० ३९३, ३९६ । कर्ण० पृ० ६१८ । प्रमाणवा० अलं० डि० पृ० १२ । तरवसं० का० ३५७५ से । ८. उत्त० २५.३३ । सम्मति० टी० पृ० ६९७ । न्यायकु० पृ० ७६७ । स्याद्वादर० पृ० ९५८ । ९. “शतशः प्रतिषिद्धायां जातौ जातिमबुद्ध किन ।" तत्वसं० का० ३५७५ ।
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[१०८१.६०१सके तभी जातिको मानना चाहिए । प्रस्तुतमें मेदाग्रहणरूप भ्रम माननेसे काम चल जाता है गत एव ज्यालास्त्र सामान्यकी कल्पना अनावश्यक है- प्रकरणपं० पृ० ३१ ।
(३) सांख्यादिका अमिन्नसामान्यवाद ।
सोच्यो ने जड जगत्को प्रकृतिका परिणाम माना है। प्रपञ्चविस्तारमें प्रकृति अनुस्यूत है। अत एव वह सौख्यों के मतसे सामान्य है । "सांस्यैस्तु"गुण्यरूपस्य सामान्यस्याम्पगमात्"। न्यायप्र० पं० पृ०१४। किन्तु नै या यि क और वैशेषिकों के समान प्रकृतिसामान्यको एक, नित्य, व्यापक और अनुस्यूत मानते हुए भी उन्होंने उसे अपने परिणामरूप व्यक्तिओंसे अमन्त मिम नहीं माना है। नैयायिकों के मतमें भिन्न भिन्न व्यक्तियाँ सामान्यका कार्य नहीं, आश्रय है । जब कि साक्ष्यों के मतसे जो मी पुरुष व्यतिरिक्त दिखता है यह सब प्रकृतिका कार्य-नाविर्भाव-परिणाम है । नै या यि कों के समान सांख्यों ने कार्यकारणका बसन्त मेद न मान कर अत्यन्त अमेद माना है । अत एव सांख्यों के मतसे कार्य-व्यक्तिपरिणाम-विकारका कारण - प्रकृति - सामान्यसे अमेद ही है।
वेदान्त के अनुसार गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय ये द्रव्यात्मक' ही है। तदनुसार एक मम ही पदार्थ है अत एव वही सामान्यरूप है जब कि नै या यिक संमत घटस्वादि मिल जाति द्रव्यसे असन्त भिम मानी जाती है। उसकी सिद्धि के अनुमानसे करते हैं। वेदा
सपरिभाषा में कहा गया है कि-"घटोऽयमित्यादि प्रत्यक्षं हि घटस्वादिसावे मानन हुख आतित्वेपि । जातिवापखायामसिदौ सरसाधकानुमानस्याप्यनवकाशात् ।" पृ.१०।
शब्दातवादी भर्तृहरि के मतसे मी शब्दबम सामान्य कहा जायगा क्योंकि सारा प्रपत्र शब्दमसे ही होता है । समीमें शब्द अनुस्यूत हैं - वाक्यप० १.१ ।
(१) मीमांसकोंका मिनामिन्नसामान्यवाद । मामीमांसकों ने जाति और व्यक्ति का मेदामेद माना है। जयन्त ने यह ठीक ही माक्षेप किया है कि बौद्धों के बत्तिविकल्प आदि आक्षेपोंसे डरकर ही मीमांसकों ने जाति
और म्यक्तिका मेदामेद माना है। परन्तु जयन्त के आक्षेपका यदि यह मी अर्थ लिया जाय कि बौदों के भाक्षेपोंसे उरने की कोई बात नहीं। उन भाक्षेपोंसे सत्यके निकट नहीं पहुंचा जा सकता-तब तो यह एक भारी भ्रम होगा । उन आक्षेपोंसे बचकर सामान्यकी जटिल समस्याको कैसे सुलझाना इसी विचारमेंसे मी मांस कों ने जाति और व्यक्किमें मेदामेद माना
यति साल्पदर्शने कर्ण. पृ० १९४, २१३। . शां. ब्रह्म०१.२.१७ ॥ 1. न्यवादिना - सामान्यमेव विषयो पो पाल्मादेवसमा सर्वस एकस्वाद" पायपि
माटि०प्र०परि० न्यायप्र.टिप्पणी पृ.८४।.."मनुषिकरूपत्वा पीचीडायफेनवत् । पापा सारनपेक्षासम्पमोरगावम्" स्याहादर.१०९१ में उसत। ५. "तसाद प्रमाणबडेन मिवामित्वमेव पुकम् ।"शाखदी० पू०१००।."
पचितिकल्पादिभ्यो बिभ्यतेबाम्यू. पग वनमवता इति विन्द न्यायमं०बि०पू०११ ।
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१०८१.६०१]
टिप्पणानि । है। क्योंकि ज पन्त की तरह ऐकान्तिक भेदवाद मानने पर बौछकत भाक्षेपोंसे रखना संभव ही नहीं।
खयं जयंत ने उन आक्षेपोंका जो जवाब दिया है उसमें उसने तर्कसे काम न लेकर केवल अपनी मान्यतासे येन केन प्रकारेण चिपके रहनेका ही प्रयत किया है। किसी मी तटस व्यक्तिको जयन्तकृत समाधानसे संतोष हो नहीं सकता । अत एव बौद्धों के आक्षेपोंसे डर कर ही सही पर यदि मीमांसकों ने सामान्यके बारेमें नै या यि कों के विरुद्ध कुछ नया मार्ग लिया है तो उसमें सत्यके निकट पहुंचनेका प्रयन ही है ऐसा समझना चाहिए।
कु मा रिल ने वस्तुको ही सामान्यविशेषात्मक माना है । उसका कहना है कि सामान्यको छोड विशेषका, और विशेषको छोड सामान्यका सद्भाव नहीं हो सकता। अत एव वस्तुको सामान्यविशेष उभयात्मक ही मानना चाहिए । उसे वेदान्ति की तरह मात्र सामान्यरूप या बौदों की तरह मात्र विशेषरूप नहीं माना जा सकता । और न नै या विकों तथा वैशेषिकों की तरह सामान्य और विशेषको अत्यन्त भिन्न ही माना जा सकता है। ऐसा माननेका मुख्य कारण यही है कि हमें जब वस्तुविषयक बुद्धि होती है तब वह बुद्धि व्यावृत्ति और अनुगमास्मक होती है। यदि वस्तु व्यावृत्यनुगमात्मक न होती तो तजन्य वैसी बुद्धि मी नहीं होती। अत एक वस्तुको सामान्यविशेषात्मक ही मानना चाहिए।
जब वस्तुसे सामान्य और विशेषका अभेद हो गया तब नै या यि कों के समान मी मांसक सामान्य और विशेषका परस्परमें आयन्तिक मेद मान नहीं सकते । अत एष कुमारिल ने सामान्य और विशेषमें आत्यन्तिक भेद का निराकरण किया है। उसके मतमें सामान्य विशेषामक है और विशेष सामान्यात्मक है क्योंकि निर्विशेष सामान्य और निःसामान्य विशेषका जब सद्भाव ही नहीं तब अर्यात ही फलित हो जाता है कि सामान्य और लिशेषका आत्यन्तिक मेद नहीं हैं।
जैसे जयंतने आकाशके समान सामान्यको व्यापक सिद्ध किया है उसी प्रकार कु मा रिट मे मी उस मतका विकल्पसे समर्थन तो किया है किन्तु उसने अपना मत यही सिर किया है कि उसे पिण्डमत मानना चाहिए, व्यापक नहीं । प्रायः यह देखा गया है कि दार्शनिक पीके समय कुमाल वेदप्रामाण्यमें अबाधक ऐसे परस्पर विरोधी मतोंका सीकार करता है। क्योंकि उसका मुख्य उद्देश है वेदप्रामाण्यकी रक्षा । अन्य चर्चा तो प्रासंगिक है। बरस ऐसी प्रासंगिक चर्चाके समय कुमारिल परस्पर विरोधी मन्तव्योंका स्वीकार और समर्थन कर लेता है, जब कि विरोधी दोनो मन्तव्योंमें तर्कका सहारा हो । यही कारण है कि प्रस्तुतने उसने सामान्यको व्यापक और अव्यापक माना।
..न्यायमंदि०१० ३११। २.निर्विक्षेपं सामान्य मानिसबदाबानापतीशिवहरेकदि।" मोकमा मारुति०१०।.."सानिमारल्यबुकमारली
साबले यमदेव विकासाससिच्चाति" बही५..."तेवामन्तमेयोनिमाविषयो।" बही ११। बही २६-३०। .. 'मिन्द सामाजालाराम नाकाबबाहितियायाम नाम सिंचन"बी२५.
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२५॥
टिप्पणानि ।
[१० ८१. पं० १कुमा रिल ने पिण्डसे जातिका तादात्म्य माना है' अत एव अर्थात् ही उसके मतमें नै या यिक-वैशेषिकों के समान सामान्यका ऐकान्तिक एकत्व नहीं किन्तु वह एक और अनेकरूप है। एक ही वस्तुकी एकता और अनेकतामें दृष्टिभेदसे विचार किया जाय तो कोई विरोध नही ऐसा कुमारिल का मन्तव्य है । और सामान्य तथा विशेषमें भेदाभेद मानने पर भी कोई विरोध नहीं यह भी कु मा रिल ने माना है।
गोत्व जाति स्वरूपसे तो एक ही है किन्तु शाबलेयात्मक गोत्वसे बाहुलेयात्मक गोत्वका मेद है। इस प्रकार जातिमें एकता स्वरूपकृत है और अनेकता व्यक्तिमेदकृत है। इसी प्रकार विशेषोंमें भी एकता और अनेकता निर्विरोध सिद्ध हो सकती है । व्यक्ति व्यक्त्यन्तरसे खरूपसे मिन है किन्तु जात्यपेक्षया अभिन्न ही है । इस प्रकार अपेक्षामेदसे विचार किया जाय तो विरोधको अवकाश नहीं रहता ऐसा कु मा रिल का मन्तव्य है। ___ वस्तु उभयात्मक होते हुए भी कभी सामान्य गौण हो जाता है और विशेषका प्रतिभास होता है, कभी विशेष गौण हो जाता है और सामान्यका प्रतिमास होता है । किन्तु जब वस्तुका युगपत् प्रतिभास होता है तब न तो मेदबुद्धि ही होती है और न अभेदबुद्धि ही किन्तु अखण्ड का भान होता है । यह अवस्था निर्विकल्पज्ञानके समय होती है । ऐसी अवस्थामें वह वस्तु शब्दागोचर होती है । इससे हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि वस्तु न तो केवल सामान्यरूप है और न केवल विशेषरूप किन्तु शबल है।
जाति और व्यक्तिका जब मेदामेद है तब अर्थात् ही फलित होता है कि जाति को वै शे षिकों की तरह मी मां स क एकान्त निल्य नही मान सकते । पार्थ सा र पि का कहना है कि जाति निल्स भी है और अनिस्य भी। जाति जातिरूपसे नित्य है और व्यक्तिरूपसे अनित्य है। सिर्फ जाति ही नित्यानित्य हो सो बात नहीं । व्यक्ति भी जातिरूपसे निल्य है और खरूपसे बनिस्स है।
नै या यि कों के समान जाति प्रत्यक्षग्राह्य है ऐसा कुमारिलने माना है।
प्रा भाकरों की जातिविषयक मान्यता और कुमारिल की तद्विषयक मान्यतामें अत्यधिक भन्तर है। प्रा भाकरों की मान्यता नै या यि कों के सन्निकट है जब कि भाट्टों की मान्यता बनेकान्तवादसे रंगी हुई है । मूलतः मी मां सा दर्शन का विषय तत्त्वज्ञान नहीं । किन्तु कर्मकाण्डोपयोगि वेदमत्रोंके विनियोगका विचार करना है । अतएव मी मां स क टीकाकारोंके सामने वैशेषिक या सांख्यों के समान कोई तत्त्वविषयक सुनिश्चित परंपरा नहीं । यही कारण है कि तत्त्वविचारमें कुमा रिल और प्रामाकरोंका मार्ग अत्यन्त भिन्न होगया । जिसको जिस
.."कमात् सामाविमस्खेव गोत्वं यमात् तदात्मकम् । वादात्म्यमय कमाघे सभावादिति गम्यवाम् ॥" यही ४७। २. "विरोधस्तावदेकाम्वाद्वक्तुमत्र म युज्यते । सामान्यानन्यविज्ञाते विशेष
काचिता । सामान्यानम्बवृत्तित्वं विशेषात्मैकमावतः। एव परिहर्तव्या मित्राभिवत्वकल्पना । केनविचाममैकरवं नानात्वं चाख केनचित् । सामान्यस्य यो मेले तस्य विशेषतः॥ दर्शयिस्वाभ्युपेतर्य विशेष जातिवः । वही ५४-५७।३."एकस्बेऽप्याकृतेर्यद्वबाहुस्वं व्यक्त्यपेक्षया बहुवे हि बाबरेकर जात्यपेक्षया । एकानेकामिधाने च शब्दाः लियतशतयः॥" वही वन०८५,८६। ..मलोकवा०मा०५९-६३। ५. शामंदी०पू०१०१। ६.लोकवा०वन०२५॥
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टिप्पणानि ।
२५७
पृ० ८१.०१]
विषयमें जो परंपरा अच्छी प्रतीत हुई उसने अपनी दृष्टिसे उसका समर्थन किया । इस विचारके प्रकाशमें यदि हम कुमारिल का उपर्युक्त जातिविषयक मत देखें तो कहना होगा कि कुमारिल के ऊपर अनेकान्तवादी जैनों की गहरी छाप है। इसके विपरीत यह कहना कि जैनों ने अपना अ ने कान्त वा द कुमारिल से सीखा यह एक भ्रम होगा । कुमारि छ के पहले मी जैनों में अनेकान्तवाद प्रसिद्ध ही रहा। इसका उदाहरण सन्मति तर्क और
न है। सम्मति के निश्चित ही कुमारिलसे पहले की कृति है । तथा न य च क और उसकी टीका भी । क्योंकि उनमें कुमारिल के श्लोक वा र्ति क का कोई उल्लेख नहीं ।
कुमारिल जैनों के समान अनेकान्तवादको ही पकड कर बैठे नही रहता । यही कारण है कि उसने जातिका अनेकान्तवादी समर्थन करके मी वैशेषिकों की दलीलों को लेकर जातिके वैशेषिक संमत खरूपकी संगति बिठानेका प्रयत्न किया है । इस परसे स्पष्ट है कि कुमारि वस्तुतः अनेकान्तवादी नहीं पर उसे वह पसंद जरूर है ।
कुमारिल का तो कहना है कि मीमांसा शास्त्रमें खाभिमत पदार्थोंकी स्थापना करके कोई नया तत्वदर्शन स्थिर करना इष्ट नहीं किन्तु लोकप्रसिद्ध पदार्थोंको लेकर ही मीमांसा शास्त्र अपना व्यवहार चला लेता है । अत एव जाति और पंक्तिमें लोकको मेद दिखता है तो हमने भेद बताया है। यदि मेद बाधित मी हो तो भी इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं। इससे भी स्पष्ट है कि कुमारिल ने जातिका जो अनेकान्तवादी वर्णन किया है वह जैनों से उधार लिया है। पदार्थवर्णनमें उसका खास कोई ध्रुवमत नहीं ।
(५) जैनोंका अनेकान्तात्मक सामान्यवाद ।
जैन मतानुसार सामान्य दो प्रकारका है । तिर्यग्सामान्य और ऊर्ध्वतासामान्य । दैशिक विस्तार में समानताकी बुद्धिका कारण तिर्यग्सामान्य है जब कि कालिक विस्तारमें समानताकी बुद्धिका कारण ऊर्ध्वतासामान्य है । सामान्य सदृशपरिणतिरूप है। सदृशपरिणतिका मतलब है समान परिणति । अत एव नै या यि क और वैशेषिकों की तरह वह एक नहीं; किंतु प्रत्येक व्यक्ति व पर्यायनिष्ठ होनेसे अनेक है । क्योंकि अनेकमें ही समानताका मान हो सकता है
1
1
एक नहीं । जैन सम्मत द्विविध सामान्य और सांख्या नु सारी प्रकृतिरूप सामान्य में तत्वतः कोई भेद नहीं है । क्योंकि प्रकृति, जैसे अपने अनेक दैशिक कार्यप्रपश्चमें अनुगत होकर रही है वैसे ही वह अपने कालिक परिणामप्रवाहमें भी अनुस्यूत है। इसी कारण से प्रकृति परिणामिनित्य कहलाती है । परिणामदादी वेदान्तीका चिह्न और शब्दाद्वैतीका शब्द सांख्यसम्मत प्रकृतिकी तरह परिणामिनित्य ही है । अत एव वह भी तिर्यग् और ऊर्ध्वतासामान्यकी व्याख्यामें ही आ जाता है। नैयायिकादिसम्मत सामान्य नित्य ही है जबकि जैनसम्मत सामान्य अनित्य भी है। क्योंकि सदृशपरिणति की उत्पत्ति भी उन्हीं कारणोंसें होती है जिन कारणोंसे व्यक्ति व
१. "मीमांसकस्तु प्रायेण सर्वत्र जैनोच्छिमोजीति" स्याद्वादर० पृ० ८३३ । २. लोकवा० वन० ३३ से । ३. " इति निगदिवमेोकसिद्धैः पदाथैवहतिरिह शास्त्रे न स्वतन्त्राभ्युपेतैः । भवति च अनख्या जातिपङ्कधादिमेदो, यदि तुम घटतेऽसौ नैव बाधोऽसि कचित् ॥” श्लोकवा० वन ०९७ ।
म्या• ३३
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२५८
टिप्पणानि ।
[ ४० ८१. पं० १
पर्याय स्वयं उत्पन्न होते हैं । न्यायादि सम्मत सामान्य व्यापक है जब कि जैनसम्मत सामान्य अव्यापक है । क्योंकि सदृशपरिणाम व्यक्ति व पर्यायरूप होनेसे उनसे अभिन्न है ।
सामान्यकी अनेकता, अनित्यता, अव्यापकता, व्यक्त्यमिन्नता जैनदर्शन में एकान्तरूपसे इष्ट नहीं है क्योंकि दूसरोंके एकान्तको निरस्त करनेके लिए ही उसने अनेकता आदिको सिद्ध किया है । अत एव एकाकारपरामर्शका कारण सदृशपरिणाम कथचिदेकानेक, कमशिद निवानित्व, कथश्चिद् सर्वगतासर्वगत और व्यक्तिसे कथञ्चिद्भिन्नाभिन्न रूप ही अनेकान्तदृष्टि फलित होता है । सामान्यके ऐसे स्वरूपका वर्णन तो मी मां स क करते हैं; किंतु सामान्यके वैसे वर्णनमें उनकी निष्ठा नहीं । क्योंकि वे उस अनेकान्तवादी वर्णनके साथ एकान्तवादको भी मिला देते हैं और अपने पक्षको निश्चित नही कर पाते ।
बौद्धों ने उपादानोपादेयभावके स्थान में प्रतीत्यसमुत्पादबाद स्वीकार करके वस्तुको एकान्तरूपसे क्षणिक सिद्ध किया है । जैनोंका मार्ग उसके ठीक विपरीत है। जैन दर्शनमें द्रव्यको ऊर्ध्वतासामान्य कह कर उसे नित्य, ध्रुव, स्थिर कहा है, जिसका तात्पर्य अम्वयिपर्यायप्रवाहके अविच्छेदमें है नहीं कि कूटस्थनित्यतामें । जैन सम्मत द्रव्य या ऊर्ध्वतासामान्यकी व्याख्या सांख्यसम्मत प्रकृतिके स्वरूपमें बराबर लागू होती है । अनेकान्तवादी जैनदर्शनकी तो व्याप्ति यही है कि जो प्रमेय होगा वह अनेकान्तात्मक होगा । इस न्यायसे द्रव्य मात्र निम्मानिम फलित होता है ।
वेदान्त और भर्तृहरि सम्मत ब्रह्म और शब्दसे जैन सम्मत द्रव्यका यही मुख्य भेद है। कि जैनदर्शनानुसार द्रव्यके कार्य मायिक या आविद्यक नहीं, किंतु जैसी सत्यता द्रव्यकी वैसी ही कार्योंकी है, दोनों सच हैं मिथ्या एक भी नहीं हैं जब कि ब्रह्म और शब्दका प्रपच मायिक है आवियक है। एक सच है और दूसरा मिथ्या । यह भी मेद है कि ब्रह्म और शब्द एकान्त निष्म और व्यापक 'जब कि जैनसम्मत द्रव्य कयंचिद् वैसा है ।
वैशेषिक और नैयायिक सम्मत समवायिकारण ही जैनदृष्टिसे ऊर्ध्वता सामान्य है । न्यायवैशेषिकके मतानुसार आकाश, काल, दिग्, आत्मा और मन ये पाँच एकान्त निष्म ही हैं जब कि पार्थिवादि कार्य - अवयवी अनित्य हैं । परन्तु उनके मतमें कोई भी द्रव्य जैनमतकी तरह नित्यानित्य नहीं है । और न जैनमतकी तरह कार्य तथा समवायिकारणके बीच कयंचिद्भेदाभेद है ।
जैन दर्शनने सामान्य को ऐसा माना है कि जिससे बौद्धोंके द्वारा दिये गये सब दोषोंका निवारण हो जाता है। वस्तुतः देखा जाय तो सामान्यको तब तक ही दूषित किया जा सकता है जब तक उसकी सिद्धिमें एकान्तवादका आश्रय लिया जाता है। अनेकान्तवाद तो सर्वदोषभक्षी है अत एव अनेकान्तवादका आश्रयण करके सामान्यके स्वरूपका जो निर्णय किया जाता है उसमें दोषको अवकाश नहीं रहता । इस बातको विबानन्द ने क्षतिसंक्षिप्तमें बडे सुंदर ढंगसे कहा है - तत्त्वार्थश्लो० पृ० ९९ ।
१. "स्वकारणादेव हि वासरूपत्वं यत् तथाविधां 'बुद्धिमुत्पादयति" न्यायकु० पृ० २८६ ] ९. तस्वार्थ लोक० पृ० ९९-१०० । प्रमेयक० ४.३-६ । स्याद्वावर ५३-५।
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१० ८२. पं०९] टिप्पणानि ।
२५९ पृ० ८१. पं०११. 'ऊर्ध्वतारूपम् व्याख्या- "परापरविवर्तव्यापिद्रव्यमूर्खता मृदिष स्थासादिषु।" परी० ४.६ । “पूर्वापरपरिणामसाधारणं द्रव्यमूर्धतासामान्यं कटककर णायनुगामिकाञ्चनवदिति।" प्रमाणन० ५.५।
पृ० ८१. पं० ११. 'तिर्यग्रूपं" व्याख्या- "सरशपरिणामस्तिर्यक् खण्डमुण्डादिषु गोत्वषत्।" परी० ४.५ । प्रतिव्यक्ति तुल्या परिणतिस्तिर्यक्सामान्य शबलशावलेयादिपिण्डेषु गोत्वं यथा।"प्रमाणन० ५.४।
पृ० ८१. पं० १५. 'विशेष' - "विशेषश्च । पर्यायव्यतिरेकमेदात् । एकसिन् द्रव्ये क्रमभाविनः परिणामाः पर्यायाः आत्मनि हर्षविषादादिवत् । अर्थान्तरगतो विसरशपरिणामो व्यतिरेकः गोमहिषादिवत् ।" परी० ४.७-१० । “विशेषोपि द्विरूपो गुणः पर्यायश्चेति । गुणः सहभावी धर्मो यथात्मनि विज्ञानव्यक्तिशक्त्यादिरिति । पर्यायस्तु क्रममावी यथा तत्रैव सुखदुःखादिरिति।" प्रमाणन० ५.६-८ । __ पृ० ८१. पं० १९. 'कल्पनाज्ञानम्' बौद्धों ने निर्विकल्पज्ञानको प्रत्यक्ष प्रमाण माना है । उसके विरोधमें यहाँ कहा गया है कि कल्पनाज्ञान प्रत्यक्ष है। बौद्ध कल्पनाज्ञानको अर्थात् सविकल्पक ज्ञानको प्रत्यक्ष नहीं मानते । उनके मतसे वह अनुमान, शाब्द या अप्रमाण हो सकता है किन्तु प्रत्यक्ष नहीं ।
शब्दार्ययोजना या शब्दार्ययोजनाकी योग्यता होनेसे ज्ञानको कल्पना ज्ञान कहा जाता है इस बौद्ध मन्तव्यको अमान्य करके प्रस्तुतमें शान्त्या चार्य ने सामान्यविशेषात्मक व्यवसायको कल्पनाज्ञान कहा है और उसी कारणसे प्रत्यक्षको सविकल्पक कहा है।
तुलना-"प्रत्यक्षं कल्पनाऽपोढमभ्रान्तमिति केचन । तेषामस्पष्टरूपा स्यात् प्रतीतिः कल्पनाऽथवा ॥ स्वार्थव्यवसितिर्नान्या गतिरस्ति विचारतः।" तत्त्वार्थश्लो. पृ० १८५।
पृ० ८१. पं० २१. 'कल्पना' तुलना- “अमिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासप्रतीतिः कल्पना।” न्यायबि० पृ० १३ । "केयं कल्पना- किं गुणचलनजात्यादिविशेषणोत्पादितं विज्ञानं कल्पना, आहो स्मृत्युत्पादकं विज्ञानं कल्पना, स्मृतिरूपं वा, स्मृत्युत्पाचं वा, भभिलाषसंसर्गनिर्भासं वा, अभिलापवती प्रतीतिर्वा कल्पना, अस्पष्टाकारावा, अतास्विकार्थगृहीतिरूपा वा, खयं वा अतात्त्विकी, त्रिरूपाल्लिङ्गतोऽर्थडग्या, अतीतानागतार्थनिर्भासा वा?" तत्त्वो० पृ० ३२ । न्यायकु० पृ० ४६ ।
पृ० ८१. पं० २५. 'विशेषणविशेष्यभावः' तुलना- "विशेषणविशेष्यत्वं द्वयोर्न परमार्थतः । कदाचित् कस्यचित् कश्चिद्विशेष्यादितया मतः । न खलु पारमार्थिको विशेषणविशेष्यभावः । कदाचिद्विशेष्यस्यापि विशेषणत्वेन प्रतीतेः। ततो बुद्धिरेव सा तथाभूता प्रतीयते।" प्रमाणवा० अलं० मु० पृ० १२५ ।
पृ० ८२. पं० १. 'पूर्वमेव' देखो, पृ० ४९. पं० २२ ।
पृ० ८२. पं० ९. 'अनवस्थाम्' "तन्नामान्तरपरिकल्पनायामनवस्था" अष्टश० अष्टस० पृ० १२१ ।
"स्वाभिधानविशेषस्य निश्चयो यद्यपेक्षते ।
स्वामिलापान्तरं नूनमनवस्था तदा न किम् ॥” तत्त्वार्थश्लो० पृ० १८७ । सन्मति० टी० पृ० २४९ ।
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टिप्पणानि।
[पृ० ८९.५० ११पृ० ८२. पं० १२. 'अणूनाम्' तुलना-"खमेऽपि निरशानिकानेकपरमाणुरूपस तस्यासंवेदनात् ।" सन्मति० टी० पृ० २५१ । पृ० ८२. पं० १५. 'प्रत्यक्षं धर्म की ति ने कहा है
___ "प्रत्यक्ष कल्पनापोढं प्रत्यक्षेणैव सिध्यति ।" प्रमाणवा० २. ५२३ । इसीके उत्तरमें शान्त्या चार्य का प्रस्तुत कथन है -
"प्रत्यक्ष कल्पनायुक्तं प्रत्यक्षेणैव सियति।" पृ० ८२. पं० १६. 'ननु' यहाँसे बौद्ध की आशंका है। इसका उत्तर का० ३१ में दिया गया है।
__"तस्मानार्थेषु न शाने स्थूलाभासस्तकात्मनः।
एकत्र प्रतिषिद्धत्वाद् बहुवपि न संभवः।" प्रमाणवा० २.२११ । देखो, प्रमाणवा० अलं० २.२११ । पृ० ८२. पं० २४. 'पिण्ड' संपूर्ण कारिका इस प्रकार हैं
"षट्केन युगपद्योगात् परमाणोः परंशता। पण्णां समानदेशत्वात् पिण्डः स्थावणुमात्रका"
विज्ञप्ति० १२ । सन्मति० टी० पृ० २५२ । पृ० ८३. पं० ३. 'अथ' बौद्धपक्ष पर यह शंका है। उसका समाधान बौछने 'नैतदस्ति' (पं० १) से किया है।
पृ० ८३. पं० १९. 'परमाणवः परमाणु अतीन्द्रिय होनेसे उसमें प्रत्यक्ष होने की योग्यता नहीं है किन्तु सजातीय परमाणुओंका समूह होता है तब वे अस्यूलरूप होने पर मी स्थूलरूपसे प्रत्यक्ष होते हैं- यह मत भदन्त शुभगुप्तका है । उसीको यहाँ पूर्वपक्ष रूपसे रखा है । देखो तत्त्वसं० पं० पृ० ५५१-५५२ ।
पृ० ८४. पं० ४. 'उक्तम्' देखो, पृ० ८१. पं० २४ । पृ० ८४. पं० ९. 'निराकरणाद' देखो, पृ० ८१. पं० २५ ।
पृ० ८४. पं० २६. 'प्रत्यभिज्ञान' बौद्ध क्षणिकवादी होनेसे ऊर्चतासामान्यरूप द्रव्य अर्थात् एकत्वकी साधक प्रत्यभिज्ञाको अप्रमाण मानता है । विशेष चर्चा के लिये देखो, प्रमाणवा० स्वो० कर्ण० पृ० ४९४ से । तत्त्वसं० का० ४४६ से । प्रमाणवा० अलं० लि. पृ० ३४७,७६२ । आप्तमी० का० ५६ । न्यायकु० पृ० ४११ । न्यायमं० वि० पृ० ४४९ । प्रमाणमी० भाषाटि० पृ० ७५ ।
५०८४. पं० ३१. 'जन्ममृत्यु' तुलना- “यदि कालकलाव्यापिवस्तुग्रहणमक्षतः । सर्वकालकलालम्बे प्रहः स्यान्मरणावधेः॥” प्रमाणवा० अलं० पृ० ७६२ ।
पृ० ८६. पं० ७. 'भावा' टिप्पणीमें दिया हुआ क० प्रतिगत पाठ 'भावों ठीक है । उसे मूलमें ले लेना चाहिये और अ० ब० मु० प्रतिगत 'भावा' पाठान्तररूपसे टिप्पणीमें रखना चाहिए । देखो, प्रमाणवा० १.४५।
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० ९०. पं० १७]
टिप्पणानि ।
पृ० ८६. पं० ३१. 'अनुमानत्वे' इस पचके प्रथम पादमें ९ अक्षर हैं ।
पृ० ८७. पं० १३. 'प्रतिपादयिष्यते' देखो, पृ० ९१ ।
पृ० ८७. पं० १४. 'प्रतिपादयिष्यते' देखो, पृ० ९२ १२५ से । तथा
का० ३८-३९ ।
पृ० ८८. पं० १. 'गुडश्चेत्' ये दोनों पथ अ र्च ट कृत हैं और उन्होंने कई पद्योंके साथ इनको भी है तु बिन्दु टीका में उद्धृत किया है - हेतु० टी० पृ० १०६ का आलोक | तुलना"तदाहुः श्रीहेमसूरिपादाः - 'गुडोऽपि कफहेतुः स्यान्नागरं पित्तकारणम् । द्वयात्मनि न दोषोऽस्ति गुडनागरमेषजे । इति" अष्टस० वि० पृ० १७२ । हेतु० टी० पृ० १०६ । धर्मसं० टी० पृ० १४६A |
पृ० ८८. पं० १६. 'संख्या' तुलना - " संज्ञा संख्याविशेषाच्च स्वलक्षणविशेषतः । प्रयोजनादि मेदाच्च तनानात्वं न सर्वथा ॥" आप्तमी ० ७२ ।
२६१
पृ० ८८. पं० १६. 'नरसिंहाकारमेव ' ' गवये नरसिंहे वाप्येकज्ञानावृते यथा । भागं जात्यन्तरस्यैव सदृशं प्रतिपद्यते ॥" वाक्य० २.९२ । “अस्वशब्दाभिधानास्तु नरसिंहादिजातयः " वही० का० ३ जाति० ४८ | "न व नरसिंहाभ्यामारब्धो नरसिंहः, अपि तु जात्यन्तरमेवात्र शबलरूपे वस्तुनि समवेतम्, चित्र इव रूपे चित्रत्वमिति । " वही टीका । " सादृश्यं नरसिंहादौ युक्तं जात्यन्तरे सति । तत्र ह्यवयवाः सिद्धाः प्राक्संयोगविभागिनः ॥" श्लोकवा० वाक्याधि० १२५ । " यदुक्तम्- भागेसिंहो नरो भागे योऽर्थो भागद्वयात्मकः । तमभागं विभागेन नरसिंहं प्रचक्षते ॥" तत्त्वो० पृ० ७९ ।
पृ० ८८. पं० २०. 'नान्वयो' तुलना - " तथा चोक्तम्- नान्वयस्तद्विभेदत्वान्न मेदोम्बयवृतितः । मृद्भेदद्वयसंसर्गवृत्ति जात्यन्तरं हि तत् ॥” अनेकान्तज० पृ० ११९ । तत्त्वार्थमा ० सि० टी० पृ० ३७७ ।
पृ० ८८. पं० २७. 'विरोधी' तुलना - "द्विविधो हि पदार्थानां विरोधः । अविकलकारणस्य भवतोऽन्यभावेऽभावाद्विरोधगतिः । शीतोष्णस्पर्शवत् । परस्परपरिहारस्थितलक्षणतया वा, भावाभाववत् ।" न्यायबि० पृ० ९६ | सन्मति० टी० पृ० २४१ ।
पृ० ८८. पं० ५. ‘दैवरक्ताः' तुलना - "देवरक्ताः किंशुकाः । क एनानधुना रञ्जयति ।" प्रमाणवा० अलं० मु० पृ० ४३ ।
पृ० ८९. पं० ८. 'निर्हेतुविनाशवादो' - बौद्धों ने वस्तुकी क्षणिकता सिद्ध करनेके लिये वस्तुका विनाश निर्हेतुक माना है। इसके विवेचनके लिये देखो, प्रमाणवा० ३.२६९ - २८३ । कर्ण० पृ० ५१० | तत्त्वसं ० का ० ३५७ से ।
खण्डनके लिये देखो - न्यायवा० पृ० ४०३ । तात्पर्य० ५४६ । न्यायकु० ३८६ । पृ० ८९. पं० १५. 'नित्यानित्यत्वयोः' तुलना - " अध्यक्षेण नित्यानित्यमेव तदवगम्यते अन्यथा तदवगमाभावप्रसङ्गात् ।" अनेकान्तज० पृ० ९६ । आप्तमी० का० ५६ । पृ० ८९. पं० २२. 'अथ परस्पर' तुलना - सन्मति० टी० पृ० २४१ | पृ० ९०. पं० १७. 'प्रतिपादितम्' देखो० का० १६ ।
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टिप्पणानि। [पृ. ९०. पं० १९पृ० ९०.६० १९. 'निरस्तत्वात्' देखो० पृ० १३ । पृ० ९०. पं० २१. 'प्रतिपादयिष्याम:'- देखो, पृ० ९१ ।।
पृ० ९०. पं० २४. 'सत्त्वम्' सत्त्व या सत्ताके खरूपके विषयमें नानामतवादोंके लिये देखो, प्रमाणमी० भाषाटि० पृ० १२६ ।
पृ० ९०. पं० २४. 'अर्थक्रिया' देखो, प्रमाणमी० भाषाटि० पृ०५८ । पृ० ९०. पं० २७. 'सचासंबन्धेन तुलना-हेतु० टी० पृ० १४५ । व्यो० पृ० १२४ सन्मति० टी० १०९,११० ।।
पृ० ९१. पं० ६. 'सौगतैरेव' अर्थक्रियाकारित्वरूप शक्तिको सत्का लक्षण मान करके बौद्धों ने यह तर्क किया है कि क्योंकि क्रमसे या अक्रमसे एकान्तनित्य वस्तुमें अर्थक्रिया घट नहीं सकती अत एव एकान्त निस्य वस्तु सत् नहीं । “शक्तिर्हि वस्तुलक्षणम् । सर्वशक्तिविरतिहि वस्त्वभावस्य लक्षणम् । अक्षणिकं हि न कदाचित् कचित् समर्थ क्रमयोग. पद्याभ्याम् अर्थक्रियाया अभावात्।" हेतुबि० लि. पृ० २४।।
"तथा हि क्रमयोगपद्याभ्यां कार्यक्रिया व्याप्ता प्रकारान्तराभावात् । ततः कार्य क्रियाशक्तिव्यापकयोस्तयोरक्षणिकत्वे विरोधात् निवृत्ते, तद्व्याप्तायाः कार्यक्रियाशक्तेरपि निवृत्तिरिति सर्वशक्तिविरहलक्षणमसत्त्वमक्षणिकत्वे व्यापकानुपलब्धिराकर्षति, विडयो रेकायोगात् । ततो निवृत्तं सवं मणिकेम्वेवावतिष्ठमानं तदात्मतामनुभवति ।" हेतु० टी० पृ० १४६ ।
"क्रमाक्रमविरोधेन नित्या नो कार्यकारिणः।" तत्त्वसं० का० ७६ । "क्रमेण युगपञ्चापि यस्मादर्थक्रियाकृतः।
न भवन्ति स्थिरा भाषा निःसत्वास्ते ततो मताः॥" वही० का० ३९४ । व्यो० पृ० ३८६ । कंदली० पृ० ७३ ।
पृ० ९१. पं० १२. 'एकान्तक्षणिकम्' - बौद्धोंने अर्थक्रियाकारित्वको क्षणिकका ही धर्म मान कर क्षणिक ही वस्तुसत् है ऐसा सिद्ध करना शुरू किया तब अक्षणिकवादिओंने उसे अक्षणिकका ही धर्म मानकर कहा कि क्षणिक वस्तु क्रमाक्रमसे अर्थक्रियामें असमर्थ होनेसे वस्तुसत् नहीं।
"क्रमेण युगपचापि यतस्तेऽर्थक्रियाकृतः।
नभवन्ति ततस्तेषां व्यर्थः क्षणिकताश्रयः॥" तत्त्वसं० का० ४३१ । यह कथन भदन्त योग से नका है । वह बौद्ध होने पर भी आत्मस्थिरता मानता होगा अत एव उसने एकान्त क्षणिकमें भी अर्थक्रियाकी अघटना सिद्ध की है । योग से न का अनुकरण करके अन्य दार्शनिकोंने मी क्षणिकमें अर्थक्रियाका विरोध बताया है-न्यायमं० वि० पृ० ४५३ । तात्पर्य० पृ० ५५६ । न्यायकु० पृ० ३७९ । स्याद्वादमं० का० ५।
पृ० ९१. पं० १६. 'क्रमः' तुलना-"क्रमो नाम परिपाटिः कार्यान्तरासाहित्य कैवल्यमहरादेः, योगपद्यमपि तस्यापरैः बीजादिकार्यैः साहित्यम् ।" हेतु० टी० पृ० १४७।
पृ० ९१. पं० १८. 'द्विविध कारणम्' तुलना- “अथ सामग्रीकारणमाश्रित्योच्यते..." हेतु० टी० पृ० ९३ । “अथ कारणशब्देन सामग्रीव्यपदेशविषयाः सहकारिण उच्यते....." वही० पृ० ११० ।
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१० ९३.५० २९] टिप्पणानि ।
२६३ पृ० ९१. पं० २०. 'एकमेव' तुलना-"सामग्रीजन्यस्वभावत्वात् कार्यस्य ।..."तदुक्तं 'तस्यैबैकस्य जनने समर्थाः नान्यस्य' न चाकरमाद् भवदनेकं प्रामोति । यतो नामाकं भवतामिव कारणमेव कार्यात्मतामुपैति ।" वही पृ० ९३।
पृ० ९१. पं० २२. 'तथाहि तुलना-"तस्मादयस्थामेदेपि यदेकाकारपरामर्शप्रत्ययनिबन्धमतया ससंततिपतितकार्यप्रसूति निमित्तं तद् उपादानकारणम् । यत् सन्तानान्तरे प्रागवस्थापेक्षविशेषोदय निबन्धनं तत् सहकारिकारणम् । सा चेयं भावानां खहेतुपरम्परायाता प्रकृतिर्यया किञ्चित्कार्य खसन्तानव्यवस्थानिबन्धनं जनयन्ति, अपरं च सन्तानान्तरव्यपदेशनिवन्धनम् ।" वही० पृ० ९५।।
पृ० ९१. पं० २९. 'व्यापारः तुलना- "भवनधर्मिणि च कार्ये तेषां प्राग्भाव एष व्यापारः, तदन्यस्यायोगात् । यदि हि व्यापृतादन्य एव व्यापार तदा तत एव कार्योत्पादाद् व्यापारवतः कारकत्वमेष हीयते ।" हेतु० टी० पृ० ९० ।
पृ० ९२. पं० 'मृतेन' तुलना-न हि मृताच्छिखिनः केकायितसम्भवः ।" न्यायकु० पृ० १०।
पृ० ९२. पं० १६. 'तदुक्तम्' देखो पृ० ८०. पं० २९ । पृ० ९२. पं० १८. 'ननु द्रव्यस्य' तुलना___ "अन्षयप्रत्ययात् सिद्धं सर्वथा बाधवर्जितात् ।
तद् द्रव्यं बहिरन्तश्च मुख्यं गौणं ततोऽपरम् ॥” तत्वार्थश्लो० पृ० ११२ । पृ०९३. पं० २१. 'लूनपुनर्जात' तुलना-"केशंगोलकदीपादावपि स्पष्टावभासनात्।" प्रमाणवा० २.५०४ । “लूनपुनर्जाते केशादौ, मायाकारदर्शिते भोलकादौ क्षणविनाशिदीपादौ स्पष्टावभासनात् ।" प्रमाणवा० मनो० ।
पृ० ९३. पं० २९. 'सर्वस्य अनेकान्तवादके खण्डनमें धर्म की र्ति का यह कथन है । जैनाचार्यों ने धर्म की र्ति के इस तर्कका जवाब विविध प्रकारसे दिया है -आचार्य अकलंक का जवाब आवेश तथा तर्कपूर्ण होनेके उपरान्त जैसेको तैसावाली नीतिका अनुसरण करके दिया गया है
"तत्र मिथ्योत्तरं जातिः यथानेकान्तविद्विषाम् ॥ दध्युष्ट्रादेरमेदत्वप्रसङ्गादेकचोदनम् । पूर्वपक्षमविज्ञाय दूषकोऽपि विदूषकः॥ सुगतोऽपि मृगो जातो मृगोऽपि सुगतः स्मृतः। तथापि सुगतो वन्द्यो मृगः खाद्यो यथेष्यते ॥ तथा वस्तुबलादेव मेदामेदव्यवस्थिते।
चोदितो दधि खादेति किमुष्ट्रमभिधावति ?॥" न्यायवि० ३७१-४। आचार्य हरि भदने इस प्रश्नका उत्तर विस्तारसे स्या द्वा द कु चोध परिहार नामक खतन्त्रप्रन्थ लिख कर दिया है किन्तु वह उपलब्ध नहीं । उन्होंने किसी अन्यका उद्धरण देकर अनेकान्तजयपताकामें इस कुतर्कका उत्तर दिया है, अनेकान्तज० पृ० २९६ । ___ अन्य जैनाचार्यों ने भी इन्हींका अनुकरण करके उत्तर दिया है- सन्मति० टी० पृ० २४२ । न्यायक० पृ० ६२१ । स्याद्वादर० पृ. ८३७ ।।
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टिप्पणानि । [१० ९३. पं० २९आचार्य विथा नन्द ने कहा है कि धर्म की र्तिकृत वह आरोप अनेकान्तवादमें नहीं किन्तु अभावका अपहव करनेवाले सांख्यों के मतमें युक्तिसंगत हो सकता है- अष्टस० पृ० ९३ ।
पृ० ९३. पं० २९. 'सप्तमङ्गी' तुलना-"नात्र दोषा, गुणप्रधानव्यवस्थाविशेषप्रति. पादनार्थत्वात् सर्वेषां मनानां प्रयोगोऽर्थवान् । तयथा द्रव्यार्थिकप्राधान्ये पर्यायगुणभावे चप्रथमः। पर्यायार्थिकस्य प्राधान्ये द्रव्यगुणभावे च द्वितीयः ।" इत्यादि-राजवा० ५० १८१ | तत्त्वार्थश्लो० पृ० १२८ । सन्मति० टी० पृ० ४४१।।
पृ० ९४. पं० ५. 'फलविप्रतिपत्तिम्' जैन और जैने तर दार्शनिकोंमें प्रमाण और उसके फलके विषयमें जो मतमेद है उसके विवेचनके लिये देखो, प्रमाणमी० भाषाटि. १०६६ । प्रस्तुतमें अन्य जै ना चायों से शान्त्या चार्य के मतमें जो विलक्षणता है उसीका निर्देश करना अमीष्ट है।
न्या यावतार (का० २८) और आस मीमांसा (का० १०२) दोनोंमें अज्ञाननाशको प्रमाणका साक्षात् फल कहा गया है । अज्ञाननाश ही खपरव्यवसाय है ऐसा टीकाकारोंने स्पष्टीकरण किया है । अत एव प्रमाण और फलका कथंचित् अभेद है ऐसा फलित होता हैयह जैनाचायों का मत है।
कथंचिदमिन्न अज्ञाननिवृत्तिरूप फलके अलावा जैनाचा यों ने कथंचिदिन ऐसी हानोपादनोपेक्षा बुद्धिओंको मी प्रमाणका व्यवहित फल माना है-न्याया० २८ । आप्तमी० १०२।
किन्तु प्रस्तुतमें वार्तिक और वृत्तिमें शान्त्या चार्य ने प्रमाण और फलके अमेद पक्षका ही वर्णन किया है। हानादि व्यवहित फलोंके विषयमें मौनावलम्बन किया है । प्रस्तुत वार्तिक न्या यावतारके ऊपर है यह तो खयं ग्रन्थकारने प्रारंभमें कह दिया है तब प्रमाणफलके साक्षात् और परंपरासे दो प्रकारोंका वर्णन करना क्रमप्राप्त था किन्तु प्रस्तुतमें शान्त्या चार्य ने ऐसा न करके प्रमाणके साक्षात् फलका ही वर्णन किया । इससे वार्तिककारका सूत्रकारसे सातव्य ही चोतित होता है । मात्र अभेदपक्षका वर्णन करके मी शान्या चार्य ने अन्य जैनाचा योंके भेदाभेद पक्षकी. उपेक्षा ही की है । उस उपेक्षाका कारण उनके ऊपर विज्ञान वादी बौद्धोंका प्रभाव ही है ऐसा समजना चाहिए । क्योंकि विज्ञान वादी के ही मतसे प्रमाण और फलका पारमार्थिक भेद नहीं । पारमार्थिक दृष्टिसे उन दोनोंका अमेद ही है। इसी विचारको उन्होंने जैन दृष्टिसे अपनानेका प्रयत्न किया है । जैन दृष्टिसे इस लिये कि जैनाचार्यों ने प्रमाण और फलका अमेद जो माना है वह एक आत्मामें प्रमाण और फलका बमेद होनेके कारण । अर्थात् एक ही आत्मा प्रमाण और फलरूपसे परिणत होता है मत एव प्रमाण और फलका अमेद है । बौद्धों ने आत्मा तो माना नहीं है । उनके मतसे एक ही ज्ञान अपेक्षामेदसे, व्यावृत्तिके मेदसे प्रमाण और फल कहा जाता है । अत एव शान्त्या चार्य ने उक बौद्ध मन्तव्यको इन शब्दोंमें जैन दृष्टि से संगत करनेका प्रयत्न किया है
"नात्मनः परमार्थेन प्रमाणं भिद्यते किन्तु आत्मैव शानावरणक्षयोपशमवान् प्रमाणं स एक प्रतीतिरूपत्वात् फल मिति ।" पृ० ९४. पं० २१ ।
..प्रमेयक० पृ० ६२५ । स्थाबादर० पृ०९९३,९९८ ।
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१० ९१.५० २१] टिप्पणानि ।
अन्य जैमाचार्यों ने शानस्या चार्य निर्दिष्ट युक्तिका प्रयोग साक्षात् फल और प्रमाणके अमेदको सिद्ध करनेमें नहीं किन्तु व्यवहित अत एव भिन्न ऐसी हानादि बुद्धिओंका प्रमाणसे कथंचिदमेद सिद्ध करने किया है यह खास ध्यान देनेकी बात है।
दूसरी यह मी बात मार्केकी है कि अन्य जैनाचार्य भेद और अमैद दोनोंको पारमार्थिक मानते हैं और प्रमाण तथा फलके मेदको काल्पनिक या सांवृतिक माननेवाले बौद्धों का' निराकरण करते हैं, तब शन्या चार्य बौद्ध पक्षपाती होकर अभेदको पारमार्थिक मानते हैं और भेदको काल्पनिक, यह बात उनके ऊपर निर्दिष्ट उद्धरणसे स्पष्ट है।
यद्यपि प्रस्तुत फलवर्णन प्रसंगमें शान्त्या चार्य ने व्यवहित फलोंका वर्णन नहीं किया किन्तु उनको व्यवहित फल सर्वथा अमान्य था ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि वार्तिकके प्रारंभकी कारिका (१)
"हिताहितार्थसंप्राप्तित्यागयोर्यनिवन्धनम् ।
तत् प्रमाणं प्रवक्ष्यामि सिद्धसेनार्कसूत्रितम् ॥" में स्पष्ट ही हानोपादान क्रिया प्रमाणको कारण माना है। पृ० ९१.५० ११. 'यदि भिमविषयम्' तुलना
"नेटो विषयमेवोऽपि क्रियासाधनयोईयोः। एकार्थत्वे द्वयं व्यर्थ न च स्यात् क्रमभाविता॥३१४॥
तस्माद्विषयमेदोऽपि न ॥ ३५१॥" प्रमाणवा० २। "मिनप्रमाणफलवादिन प्रति बौखेनोकम् यदि प्रमाषफलयोमेदोऽभ्युपगम्यते तदा मित्रविषयत्वं स्यात् प्रमाणफलयोः । न चैतघुक्तम् । न हि परश्वादिके छेदने खदिरमाते सति पलाशे छेदो भवति । तस्मात् प्रमाणफलयोरेकविषयत्वादमेद इति ।" तत्वसं० पं० पृ० ३९९ ।
पृ० ९४. पं० १९. 'न हि प्रमाणम्' तुलना- "तथा हिनशानं जनयदय प्रापयति । मपि तु अर्थे पुरुषं प्रवर्तयत् प्रापयत्यर्थम् । प्रवर्तकत्वमपि प्रवृत्तिविषयप्रदर्शकत्वमेव ।न हि पुरुषं हठात् प्रवर्तयितुं शक्नोति विज्ञानम् ।" न्यायबि० टी० पृ०५। "नहि मानेन अर्थो हस्ते गृहीत्वाऽन्यतो निवर्तनीयः।" हेतु० टी० पृ० १९६ । प्रमेयक० पृ० २५ । स्याद्वादर• पृ० ४४.।
पृ० ९४. पं० २३. 'आकार प्रमाणम्' सौत्रान्तिक बौद्ध बाह्यार्थवादी हैं । उनके मतसे श्राकार, मेयरूपता, अर्थरूपता, सारूप्य, ताप्य, सादृश्य, ज्ञानात्मभूतविशेष, अनाकारव्यावृत्ति इत्यादि शब्दोंसे प्रतिपापं ज्ञानांश प्रमाण है। प्रमाण वा र्तिक में सारूप्यको प्रमाण
..परी०५.३ । प्रमाणन०५.८-११ । २. “सा च तस्यात्मभूतैव तेन नार्यान्तरं फलम् ॥३०॥ क्रियाकरणयोरेक्यविरोष इति चेदसत् । धर्ममेवाभ्युपगमाद्वस्वमिममितीप्यते ॥३८॥ एवंप्रकारा सर्वैर कियाकारकसंस्थितिः॥१९॥" प्रमाणवा०२॥"धर्मभेदस्य ज्यावृत्युपकल्पित" मनो। "धानुदर्शन मेयमानफलस्थितिः। क्रियतेऽविचमानापि प्रामग्राहकसंविदाम् ॥ ३५७ ॥ अन्यथैकस भाषख नानारूपावभासिनः । सत्यं कथं स्युराकारातदेकरवस्य हानितः ॥ ३५८ ॥" प्रमाणवा०२॥ ३. अष्टस० पृ० २८४ । तत्त्वार्थश्लो० पृ० १२६ । प्रमेयक पृ० ६२७ । प्रमाणन०६.२१ ।
न्या. ३४
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[प. ९४.५०:२१ मागनेकाले सत्रान्ति कों का वर्णन (प्रमाणवा० २.३०१-३१९ ) हुवा है। इससे पता चलता है कि उनके मतमें एक ज्ञानके कस्पित दो अंश' प्रमाण और प्रमिति सपसे व्यवहत होते हैं । अत एव प्रमाण और फलका अभेद ही है । यही .बाल. म्यापविन्दुमें भी कही गई है। - सौत्रान्ति कों का कहना है कि ज्ञान यबपि अनेक कारणोंसे उत्पन्न होता है, किन्तु उसका सारूप्य चक्षुरादिसे न होकर. अर्यसे ही होता है । जैसे पुत्र मातापितादि अनेक कारणोंसे उत्पन्न होनेपर भी माता या पिताके ही. आकारको धारण करता है, इसी प्रकार अनेक कारणोंसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान मी आलम्बन प्रत्ययके आकारका सेता है। यही अकार विषयव्यवस्थापक होता है । अर्थात् प्रतीतिको किसी एक विषय नियत करनेके लिये यही आकार साधकतम है अत एव यही आकार प्रमाण है।
सौत्रान्ति कों का कहना है कि यह आकार ज्ञान अर्थात् प्रतीतिसे मिल नहीं है। एक ही ज्ञान व्यावृत्तिके मेदसे प्रमाण और फल कहा जाता है। नै या यि का दि की तरह सौ त्रान्तिकों को प्रमाण और फलमें जन्यजनकभाव-कार्यकारणभाष इष्ट नहीं है किन्तु व्यवस्थाप्य: व्यवस्थापकभाव इष्ट होनेसे एक ही वस्तुमें प्रमाण और फलका अभेद माननेमें कोई विरोध नहीं । एक ही बुद्धि या ज्ञान अनाकारल्याच होनेसे प्रमाण और वही अनधिगतिव्यावर होनेसे प्रमिति है।
सौत्रान्ति कों के इस आकारवादका खण्डन समी दार्शनिकोंने किया है। खयं धर्म कीतिने मी वह आकार अर्थजन्य नहीं किन्तु वासनाकृत है ऐसा स्थापित करनेके लिये बाह्य वस्तुके आकारका संभव ज्ञानमें नहीं ऐसा स्थापित किया है-श्लोकवा० १.७९ । शास्त्रदी० पृ. ५५ । प्रमाणवा० २.३२० । तत्त्वो० पृ० ५२। व्यो० पृ० ५२८ । न्यायमं० वि० पृ० ५४३ । अष्टस० पृ० ११८,१३५,२४० । तत्त्वार्थश्लो० पृ० १२६,१६९ । सन्मीत. टी० पु० २५६,४६० । प्रमेयक० पृ० १३० । न्यायकु० पृ० १६७ । प्रमाणन० ४.४७ ।
...प्रमाणवा०२.३१५। २. वही०२.३०७ ।.. "देष. प्र ज्ञानं प्रमाणपस् अतीविरूपत्वाव । अर्थसाकप्यमय प्रमाणम्, वावर्षप्रवीतिसि।" न्यायवि०पू०२५-२६ । १. "अर्येन घटवलेनी महिमुस्वार्थरूपताम् । अन्य स्खमेदाज्हानस मेदकोरियन।१०५॥ वसाद प्रमेवाधिगते साधन मेयरूपता॥३०६॥" प्रमाणवा०२ । तस्वस० का० १३४४ । "सर्वमेव हि विज्ञान विषयेभ्यः समुनवत् । बदन्यखापि हेतुस्खे कपडिविषयाकृति ॥८॥पचाहारकागत्वेऽपत्यजन्मनि । पित्रोखदेकरयाकार धचे मान्य कखपित् ॥१९॥ देवेन स्वेपि वदयविषये मवम् । विषयत्वं वदंशेन वदभावेन बनवेत्॥ १.०॥" प्रमाणचा०२॥
प्रमाणवा० २.३०७,३१५,३१८ । “अधिगविज्ञानात्मभूतविशेषखालंचपोस्तु सपखान अपलापकमाव पनिवज उभयोरपि ज्ञानवरूपाप्मत्वात् ।" मनो०२.३०५ । "मास्त्वाकार्यकारमात्मका' क्रियाकरणमावः किन्तु व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकभावः । स . वादात्म्येपि अविस्वः ।" वही २.३१५। १. "अनाकारच्यावृत्तिः प्रमाणम् । अनधिगतिव्यावृत्तिा फकम् ।" वही २.३१८॥
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३. अनुमानपरिच्छेदः। पृ० ९५.५० १७. 'अथ प्रथम वैशेषिक और नै या यि कसंमत सामान्यको दूषित करने के लिये यहाँस उनकी ओरसे पूर्वपक्षकी योजना की गई है।
पृ० ९६. पं० १०. 'दोहि व्याख्या-"माभ्यामपि द्रव्यार्थिक-पर्यायाधिकनयाभ्यां प्रणीतं शास्त्रम् उलूकेन वैशेषिकशासप्रणेत्रा, द्रव्य-गुणादेः पदार्थषट्कस्य नित्यानित्यकान्तनपख वा प्रतिपावनात् ततब एतत् तचापि मिथ्यात्वम्, तत्पदर्शितपदार्थषट्कस्य प्रमाणवाधितत्वात् । "यमा खविश्वप्रधानताव्यवस्थितान्योन्यनियमाने भयनयाश्रितं तद, भन्योन्यनिरपेक्षनमाश्चितत्वस्य मिथ्यात्वादिनाऽविनाभूतत्वात् ।" सन्मति० टी०।
पृ० ९६. पं० १२. 'अथाभित्र मी सांसक और सांस्य पश्च को दूषित करनेके लिये उनकी ओरसे पूर्वपक्षकी योजना यहाँसे की गई है। १० १६. पं० १८. 'कि मुना सन्मति १४०,१९५ । पृ. ९६. पं० २२. 'व्यक्ति' तुलना-“तत्र देशान्तरे वस्तुमादुर्भावे कथं मुहै। एवन्ते वृत्तिमाजो या तस्मिन्निति नमाम्यते ॥ ८०६ ॥ नवितेन सहोपना निस्यत्वाचा प्यवस्थिता। तत्र प्रागविभुत्वेन न पायान्त्यन्यतोऽक्रियाः ॥ ८०७४" तत्वसं० । प्रमाणावा० ३.१५२,१५४ ॥
पृ० ९५. पं०-२६. न याति पर कारिका प्रमाण वा तिककी है-२,१५६,९५९ । पृ० ९६. पं० ३१. 'अप्पमा सामान्यको मतभूल नहीं किन्तु कालामिक र अन्यापोहखरूप माननेवाले बौद्ध पक्षका दूषण यहाँसे किया गया है। अपोहकी चर्चा के लिये देखो, प्रमाणवा० २.५६३ मे । सन्मति० टी० १७३ । न्यायकु० पृ० ५५१1.
तुलना-सन्मति० टी० पृ० १८६ । न्यायकु० पृ० ५६३ उत्साह पृ पृ० ९५. पं० ३. 'किमानयामि' तुलना-प्रमाणबा० अ० पृ० ३८५। .. पृ० १७. पं० ७. 'कि' तुलना-न्यायकु० पृ० ५३१।। पृ० ९७. पं० १९. 'वासनानम् तुलना-न्यायकु० पृ० ५६२।
पृ० ९८.६०१० सर्वे मावा व्याख्या -"यदि य एव कृतका स एषामियो मेधा भावात् तदा प्रतिक्षार्थेकवेशो हेतुः स्वादिस्याह-सवें भावाः खभावेन स्वस्वभावव्यय सित-मात्मात्मीयरूपव्ययस्थितत्वात् समाषपरभाषाभ्यां सजातीया विजातीयाध बावृतिमागिलो-पलास केचिन्मिनासाचतो यतोऽखरूपाद व्यावृतिः मोनों तभिवन्धनार-तत्वब्यावृचिनिमिचा जातिमेमस्तविशेषावगाहिना-सत्खलक्षणाश्रया कम्यन्ते शब्द वाच्यतयाः। यह शक काम्बिाकुचतकालियोऽशहद कृतकाभित्यावेन व्यावृत्त इति तत्यवच्छेदप्रतिपादनार्य बालकालिमत्तामा अमर घोऽनन्यशब्दवाच्यतया कल्प्यन्ते । तस्मात् खभावामेदेपि कृतकत्वांनित्यत्वादीनां येन धर्मेण नामा 'मनित्य' इत्यनेन यो विशेषो नित्याद् व्यावृत्तिः संप्रतीयते म स विशेष: शक्य तता-अनित्यशम्दाद् भन्मेक-कसकालदेन प्रोतुम्न -मारमेन साध्यसाधनपोर्मिना व्यवसिमिनो
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टिप्पणानि । [१० ९९.५० १०पृ० ९९.५० १०. 'परोक्ष द्विविधम् न्या या व तार का वार्तिक होनेसे शान्त्या चार्य ने न्यायावतारका अनुसरण करके परोक्षके अनुमान और आगम ऐसे दो भेद बताये हैं । किन्तु अन्य जेनाचार्योंने अकलंकोपज्ञ परोक्षके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ऐसे पांच भेद माने हैं । लघी०१० परी० ३.२ । प्रमाणन० ३.२ । प्रमाणमी० १.२.२ ।
पृ० ९९. पं० १६. 'परोक्षम्' तुलना-"प्रत्यक्षं विशवं बानं त्रिधा श्रुतमविप्लवम् । परोसं प्रत्यमिक्षादि प्रमाणे प्रति संग्रहः ॥" प्रमाणसं० का०२।। - पृ० ९९. पं० १७. 'श्रीतं त्रिविधम् तुलना-"श्रुतम् अविलयम्-प्रत्यक्षानुमानागम. निमित्तम् ।" प्रमाणसं० पृ० ९७. पं०६।
पृ०९९. पं० २४. 'प्रत्यभिज्ञा' शान्त्या चार्य ने प्रत्यभिज्ञाको प्रत्यक्ष या अनुमानमें गन्तर्गत किया है किन्तु अन्य जैनाचायोंने उसे परोक्ष प्रमाणके मेद रूपसे पृथक् माना है । मूलकारके अनुसरण करनेके कारण शान्त्याचार्यने अन्य समी जैनाचार्योंके मतकी उपेक्षा की है और नैयायिकादि अन्य दार्शनिकोंसे मैत्री।
पृ० १००. पं० ५. 'अष्टाविंशति “से किं तं भामिणिबोहियनाणं? आमि० विहं पण । तं जहा-सुयनिस्सियं च अनुयनिस्सियं च ।"असुयनिस्सियं घडविह पण्णतं । तं जहा-उप्पतिया, वेणया, कम्मया परिणामिया । बुद्धी बउबिहा बुता पंचमा नोवलम्मई । "सुयनिस्सियं चउब्विहं-पण्णतं । तं जहा-उग्गहे हा मवामो धारणा।"उग्गहे दुविहे पण्णत्ते । तं जहा-अस्थुग्गहे य वंजणुग्गहे य।"वंजणुग्गहे च. उब्धिहे पण्णते । तं जहा-सोईदियवंजणुग्गहे, घाणिदिय०, जिम्भिन्दि०, फासिदिय०। मत्युग्गहेछविहे पण्णचे । तं जहा, सोईदिय० वक्खिदिय०, घाणिदिय०, निम्मिदिय०, फासिदिय०, नोइंदिय०,हा छब्धिहा पण्णता"। मवाए छविहे पण्णवेधारणा बिहा पण्णचा"। एवं अट्ठावीसइविहस्स आभिनियोहियनाणस" नन्दी० स० २६-३५।
पृ० १००.६० १०. 'श्रीतम्' श्रुतज्ञानकी सहमचर्चा के लिये देखो ज्ञानबिन्दु पृ०६ तथा उसको प्रस्तावना पृ०२०।
पृ० १००. पं० १२. 'सुयकारणं' व्याख्या "यतो-यमात् कारणात् स-शब्दो वात्रामिधीयमानः श्रोतगतस्य श्रुतवानस्य कारणं-निमितं भवति, श्रुतं च वक्तगतभुतोपयो. गरूपं व्याख्यानकरणादी, तस्य-वक्त्राभिधीयमानस्य शब्दस्य कारणं जायते इति अतः तस्मिन् भुतज्ञानस्य कारणभूते कार्यभूते वा शब्दे श्रुतोपचारः क्रियते । ततो न परमार्यतः शब्दः श्रुतम्, किन्तूपचारतः इस्पदोषः । परमातस्तहि किं श्रुतम् । इत्याह-सुर्य स्वित्यादि । परमार्थतस्तु जीवः श्रुतम् । शानबानिनोरनन्यभूतत्वात् । तथा च पूर्वमा मिहितम्-गुणोतीति श्रुतम्-मात्मैवेति । तस्मात् भूपत इति भुतमिति कर्मसाधनले
व्यधुतमेवामिषीयते,श्रणोतीति श्रुतमिति कर्वसाधनपक्षे तुभावभुखमात्मैवेतिनकातिदनात्ममावता भुतमानस्य ।" विशेमा० ० ९९ ।
पृ.१००. पं० ३०. 'भुतनिस्ताच' प्राकृत भागमवाक्यका अनुवाद है। उक नागमवाक्यका पूर्व टिप्पणमें निर्देश हो चुका है। शुतनिःसृतमतिका लक्षण जिन भद्र ने इस प्रकार किया है
"पुण्यं सुपपरिकस्मियमइस्स ज संपयं सुयाईयं ।
मिस्सियमियर पुण मणिस्सियं महब " विशेषा० ११९ ॥
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१० १०१.५० १०] टिप्पणानि ।
व्याख्या- "व्यवहारकालात् पूर्व यथोकरूपेण श्रुतेन परिकर्मिता-आहितसंस्कारा मतिर्यस्य स तथा तस्य साध्वादेर्यत् सांप्रतं व्यवहारकाले श्रुतातीतं श्रुतनिरपेक्षंज्ञानमुपजायते तच्छुतनिश्रितमवप्रहादिकं सिद्धान्ते प्रतिपादितम् । इतरत् पुनरश्रुतनिश्रितम्, तबोत्पत्तिक्यादिमतिचतुष्कं द्रव्यम् , श्रुतसंस्कारानपेक्षया सहजत्वात् तस्य।" विशेषा० बृ० १६९।
पृ० १००.पं०१५. 'तदेकघा वार्तिककारको यह खातय है कि वह मूलकारका विरोध मी करे । इसी खातभ्यका उपयोग प्रस्तुतमें शान्त्या चार्य ने किया है । न्यायावतार मूलमें प्रत्यक्ष और अनुमान इन दोनों प्रमाणोंके खार्य और परार्थ ऐसे दो भेद किये गये हैं। शान्याचार्यने प्रत्यक्षका तो क्या सर्वसंमत अनुमानका द्वैविध्य मी खण्डित किया है । उनका कहना है कि लिङ्गके बलसे जैसे खयं वादी परोक्ष अर्थका ज्ञान करता है वैसे ही प्रतिवादी श्रोता मी करता है फिर अनुमानके खार्य और पदार्थ ऐसे मेद करने की क्या आवश्यकता है।
शान्त्याचार्यने वचनरूप परार्थ अनुमानको उपचारसे मी प्रमाण मानने पर आपत्ति की है कि ऐसा मानने पर अनवस्था होगी । उनकी वह आपत्ति एक वैतण्डिकको शोमा देनेवाली है । परार्थानुमानके प्रामाण्यमें किसी भी वादीका विवाद नहीं ।
अनुमानके विशेष विवेचनके लिये देखो प्रमाणमी० भाषा० पृ० १३८ ।
पृ० १०२. पं० ७. 'अन्यस्यासाधनाद्' न्या या व तार मूलमें हेतुवचनको परार्थानुमान कह करके फिर पक्षादिवचनात्मक मौ कहा
"साध्याविनाभुषो हेतोचो यत् प्रतिपादकं ।
पराधमनुमानं तत् पक्षादिषचनात्मकम् ॥" न्याया० १३ ॥ इस विरोधका निरास करते हुए टीकाकार सिद्ध र्षि ने कहा है कि पराजुमानके अवयवोंका अनियम न्यायावतारकारको इष्ट है।
खयं मूलकारने पक्ष, हेतु और दृष्टान्तके लक्षणों का प्रणयन किया है और अन्तर्व्याप्तिस्थलमें दृष्टान्तकी अनावश्यकता मी प्रदर्शित की है इससे मी यही प्रतीत होता है कि न्यायावतारकारको अषयवका नियम करना अमीष्ट नहीं किन्तु टीकाकारने जैसा तात्पर्य निकाला है वही ठीक है।
किन्तु प्रस्तुतमें शान्त्या चार्य अपना खातव्य दिखाते हैं । उनका कहना है कि अनुमानके हेतु और साध्य सिर्फ ये दोनों ही अवयव हैं अन्य नहीं ।
अन्य दार्शनिकोंके अवयव सबन्धी मन्तव्यके विषयमें देखो प्रमाणमी० भाषा० पृ० ९४ । पृ० १०२. पं० १. 'प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् देखो, का० ५४. पृ० ११२।
पृ० १०२. पं० १०. 'ननु प्रतिज्ञामन्तरेण प्रतिज्ञाका प्रयोग अनावश्यक है ऐसा धर्मकीर्तिका मन्तव्य है
"अथवा तस्यैव साधनस्थ या प्रतिमोपनयनिगमनादि तस्यासाधनाजस्य साधनवाक्ये उपादानं वादिनो निग्रहस्थानं व्यर्थाभिधानात् । ननु च विषयोपदर्शनाय प्रतिबावचनमसाधनागमपि उपादेयमेव । न । वैयर्थ्या, असत्यपि प्रतिज्ञावचने यथोकाद बामवाल्यालयलेवेशार्थसिद्धिरित्यपार्यकं तस्योपादानम् ।" वादन्याय पृ० ११-१५
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टिपणान। [१० १०१.०२"मत्र सामर्थ्यादेव प्रतिक्षार्थस्य प्रतीतेः न प्रतिक्षायाः प्रयोगः । प्रदर्शिते प्रमेवे कयं तत्प्रतीतिरिति चेत् । वयं प्रतिपत्तौ प्रमेयस्य क उपदर्शपिता । प्रदेशस्थ धूममुपलब्धवतः तस्य अग्निना व्याप्तः सरणे, तत्सामर्थ्यादेव अग्निरत्र' इति प्रतिहार्यप्रतीतिर्थवति । न च तत्र कधिद् 'अभिरत्र' इत्यसै निवेदयति । नापि खयमपि प्रागेव प्रतिपयते किश्चित् । प्रमाणमन्तरेण एवं प्रतीतेः निमित्ताभावात् । प्रतीतो लिङ्गस्य वैयर्थ्यात् । स्वयमेव माग 'अग्निरत्र' इति प्रमेयं व्यवस्थाप्य तत्प्रतिपत्तये पश्चात् लिगमनुसरतीति कोऽयं प्रतिपत्ते क्रमः परेणापि तदुच्यमानं प्लवत एष उपयोगाभावात् । विषयोपदर्शनं चेन्मतम् तेनैव ताषय॑मानेन कोऽर्थः । यदि प्रतीतिरन्यथा न स्यात् तदा सर्व शोमेत । तस्मादेष खयं प्रतीतो विषयोपस्थापकेन केनचिद्विनापि प्रतियन् अस्मान कार्यिणो राष्ट्रा पर्वब्राह्मण इव व्यक्तं मूल्यं मृगयते । असाचनादपि नैव लिगमपि प्रत्येति । असाचनेन तु स्मृतिसमापानमा क्रियते तदा खयं सिद्धमेव लिगमनुसृत्य प्रत्येति । तस्मात् कोऽनयोः अवस्थयोः विशेषः । एष्टा च साधर्म्यवत्प्रयोगादेः प्रतिक्षावचनमन्तरेणापि प्रतीतिः पक्षधर्मसम्बन्धवचनमात्राद् । तत् कस्तस्योपयोगः।।" हेतुबिन्दु लि० पृ०७। हेतु० टी० पृ० ६३ । प्रमाणवा० ४.१६-२७।
पृ० १०२. पं० २७. 'अन्यथानुपपन्नत्वम्' यह कारिका अकलं ककृत न्याय विनिश्व य में है-का० ३२३ । इस कारिकाके विषयमें प्रवाद है कि पावतीके द्वारा सीमन्धर खामीके पाससे वह लाई गई थी और पात्र केसरी खामीको समर्पित की गई थी। देखो प्रमाणमी० भाषा० पृ० ८३ ।
पृ० १०२. पं० ३०. 'सौगतैः' उपनय और निगमनका प्रयोग अनावश्यक है यह बात सांख्य, मी मांस क और सौ ग त को मान्य है । प्रस्तुतमें शान्त्या चार्य ने सौगतकृत उपन य और निगमनके प्रयोगके निरासका निर्देश किया है । इसके लिये देखो, वादन्याय पृ० ६१ । हेतुबि० टी० पृ० ७० । 'पृ० १०३. पं० २८. 'कार्य' व्याख्या- "कार्यकारणभावा-बकुलपया निवासकार साधनस्य साध्याव्यभिचारकारणात् खभावात्-तादात्म्याला नियामका अविवाभाषनियमः साध्याव्यभिचारित्वनियमः साधनस्य । विपक्षे हेतोरदर्शनातन सपने दर्शनाद । दर्शनादर्शनयोयभिचारिण्यपि हेतौ सम्भवात् नियमहेत्वभावाच ।" प्रमाणवा० मनो० ३.३०।
पृ० १०३. पं० ३०. 'तर्कात् शान्त्या चार्य ने तर्कसे ब्यासिका ग्रहण माना है किन्तु तर्कका समावेश उनके मतसे किस प्रमाणमें होता है यह उन्होंने नहीं बताया । अन्य जैनाचायोंके मतसे तर्क परोक्ष प्रमाणका एक खतन्त्र मेद है । किन्तु शान्त्याचार्यने परोक्षके दो ही भेद अनुमाम और आगम माने है । उन्होंने तर्कके विषयमें मतान्तरोंका उल्लेख इस वाक्यमें किया है
"ता वा स्यं प्रमा केचित प्रत्यक्षं मन्यन्ते । अपरे मनुमालम् । अन्य प्रमाणान्तर मिति ।" पृ० १०४. पं०९।
इस पापा यह पता लगाना कठिन है कि उनका इस विषको क्या मामला तर्कके विषय में विशेष विचारके लिये देखो, प्रमाणमीमांसा० भाषाटिप्पण० पृ ७६ । पू०.११२, ६०९, किचित्र या विक, भारत के
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पू० १०५. पं० १२]
टिप्पणानि ।
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पृ० ४४ । तात्पर्य० पृ० १६६ । न्यायमं० वि० पृ० १२१ | श्लोकवा० अनु० १२ कंदली० पृ० २०९ |
पृ० १०४. पं० ९. 'अपरे' व्याप्तिका ग्रहण अनुमानसे होता है - यह किस दार्शनिकक मन्तव्य है कहना कठिन है । दार्शनिकोंने इस पक्षका खण्डन तो किया है किन्तु वह मत किसका है इस विषय में कुछ निर्देश नहीं किया है। देखो, लघी० स्व ० का ० ११ । न्यायकु० पृ० ४३३ । प्रकरणपं० पृ० ६९ । न्याया० टी० पृ० ५१ । इत्यादि ।
पृ० १०४. पं० ९ 'अन्ये' व्याप्तिग्राहक तर्क स्वतन्त्र दार्शनिकोंका है । न्यायावतारके टीकाकार सिद्धर्षिको मी न्याया० टी० पू० ५१ ।
प्रमाण है यह मत अन्य जैन तर्कप्रामाण्यका खातच्य मान्य
पृ० १०४. पं० १७. 'यो हि' तुलना - "यो हि सकलपदार्थव्यापिनी क्षणिकताम् इच्छति तं प्रति कस्यचित् सपक्ष स्यैवाभावात् ।" हेतु ० टी० पृ० १५. पं० २० । प्रमाणमी० पृ० ४४६४७।
४० १०४. पं० २०. 'प्राणादिः' विवेचनाके लिये देखो प्रमाणमी० भाषाटिप्पण पृ० 4 | Buddhist Logic Vol, I p. 338., Vol II P. 208
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पृ० १०५ पं० १२ 'संबन्धमन्तरेण' बौद्धों ने अविनाभाव के नियामक तादात्म्य और तदुत्पचि हम दो सम्बधोंकी कल्पना की है - "स च प्रतिबन्धः साध्येऽर्थे लिङ्गस्य वस्तुतः तादात्म्यात् साध्यार्थादुत्पत्तेश्च व्यतत्स्वभावस्यातदुत्पत्तेश्च तत्राप्रतिबद्धस्वभावत्वात् । " न्यायवि० पू० ४१ । प्रमाणवा० ३.३० । हेतु० टी० पृ० ८ |
शान्त्या चार्य ने प्रस्तुत में उसी कल्पना को लक्ष्य में रख कर पूर्वपक्ष किया है।
अन्य दार्शनिकोंने अविनाभाव के नियामक रूपसे किसी भी सम्बन्ध की अनिवार्यता निश्चित नहीं की है। यही कारण है कि अन्य दार्शनिकोंने स्वभाव और कार्यसे अतिरिक्त हेतुओंकी मी शक्यता मानी है।
नैयायिक जयन्त के मतसे हेतु और साध्यमें व्याप्ति - अविनाभाव - नित्य साहचर्यका होना पर्यास है । व्याप्तिको सूक्ष्म विचार करके मी तादात्म्य और तदुत्पत्ति में सीमित करने की अपेक्षा स्थूल दृष्टिसे इतना कहना ही पर्याप्त है कि साध्य -साधन में नित्य साहचर्यरूप सम्बन्ध
। क्योंकि सीमित करने पर कार्य और खभाव ही हेतु होंगे किन्तु विचार करने पर स्पष्ट होता है कि कार्य और स्वभाव से अतिरिक्त भी कई प्रकारके हेतुओंकी सिद्धि होती हैन्यायमं० वि० पृ० ११३-११७ ।
वाचस्पति का कहना है कि साध्य और साधन में कई प्रकार के सम्बन्धकी कल्पना की जा सकती है। अत एव साध्य-साधनके सम्बन्ध की संख्याका नियम करना ठीक नहीं । सम्बन्ध कोई भी हो किन्तु जो खभावसे ही किसीसे नियत होगा वही गमक होगा । मतलब यही है कि एक खाभाविक सम्बन्ध अर्थात् अविनाभाव - अन्यथानुपपत्ति ही पर्याप्त है। अन्यथानुपपत्ति क्यों है इसका नियम किया नहीं जा सकता । कहीं कार्यकारणभावप्रयुक्त, कहीं पूर्वापरभावप्रयुक्त, कहीं सहचारप्रयुक्त इत्यादि अनेकरूप अविनाभाव हो सकता है इन कार
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टिप्पणानि । [१० १०५. पं० २२गोंकी-सम्बन्धोंकी इयत्ताका निश्चय कठिन है-"तसाचो वासवाऽस्तु सम्बन्पावलं यस्यासी सामाविको नियतः स एव गमको गम्यश्चेतरः सम्बन्धीति युज्यते ।तमा. उपाधि प्रयत्नेनान्विष्यन्तोऽनुपलभमाना नास्तीत्यवगम्य सामाविकत्वं सम्बन्धस्य निधि नुमः।" तात्पर्य० पृ० १६५ । __ वैशेषिक सूत्र में (९. २. १) चार प्रकारके सम्बन्धका उल्लेख है किन्तु प्रशस्त पादने स्पष्टीकरण किया है कि सूत्रमें कार्यादिका प्रहण हेतुसंख्याके अवधारणार्थ नहीं किन्तु निदर्शनार्थ है । अत एव सूत्रनिर्दिष्ट सम्बधोंसे अतिरिक्त सम्बन्धके कारण मी कोई हेतु हो सकता है। वस्तुतः सम्बन्धसामान्यका प्रहण ही पर्याप्त है विशेष सम्बन्धोंका नियम नहीं किया जा सकता।
"शाले कार्यादिग्रहणं निदर्शनार्थे कृतं नावधारणार्थम् । कस्माद् व्यतिरेकदर्शनाद।.. एवमादि तत् सर्व 'मस्येवम्' इति सम्बन्धमात्रवचनात् सिद्धम् । प्रशस्त० वि० पृ० २०५ । कंदली० पृ० २११ ।
जैनों मे भी अविनाभावरूप एक सामान्यसम्बन्ध ही पर्याप्त माना है । अविनामावके नियामक सम्बन्धोंकी संख्या नियत नहीं की है-परी० ३.१५-१६,६१-६४ ।
मीमांसकों को मी अविनाभाव-व्याप्तिरूप एक सम्बन्धसामान्य ही इष्ट है। व्यातिनियामक अन्य सम्बन्धोंकी संख्याका नियम नहीं किया जा सकता है ऐसा उनका मन्तव्य हैशानदी० पृ०६०। प्रकरण पं० पृ०६४।
पृ० १०५. पं० २२. 'कालादिपरिकल्पनात्' हेतुका त्रैरुप्य लक्षण मानने पर पक्षसल-अर्षात् हेतुका पक्षवृत्तिस्व एक आवश्यक अंग सिद्ध होता है। किन्तु 'शकटका उदय होगा, कृतिकाका उदय होनेसे', इत्यादि अनुमानोंमें कृत्तिकाका उदय पक्षधर्म नहीं फिर मी उससे शकटोदय सिद्ध होता है अत एव पक्षवृत्तित्व अन्यात होनेसे हेतुलक्षण नहीं । इस आक्षेपके उत्तरमें बौद्धोंने कहा कि ऐसे स्थलमें काल या देशको पक्ष मानकर हेतुकी पक्षधर्मता सिद्ध की जा सकती है
"यघेवं तत्कालसम्बन्धित्वमेव साध्यसाधनयोः । तदा च स एव कालो धर्मी तत्रैव च साध्यानुमानं चन्द्रोदयश्च तत्सम्बन्धीति कथमपक्षधर्मत्वम्।" प्रमाणवा० कर्ण०प०११
वैशेषिक दर्शनमें मी त्रैरूप्य हेतुलक्षणरूपसे मानागया है । प्रशस्त पादने 'अनुमेयेन सम्बद्धम्' का अर्थ किया है कि "यदनुमेयेन अर्थेन देशविशेषे कालविशेषे वा सहचरितम् ।" प्रशस्त० वि० पृ० २०१।
वार्तिककारमे प्रस्तुतमें अन्य जैनाचा योंका अनुसरण करके पक्षधर्मताकी सिद्धिके लिये की गई कालादि धर्मीकी कल्पनाका निरास किया है।
पृ० १०६. पं० १. 'विशेषेऽनुगमाभावात्' इत्यादि अनुमानका दूषण चार्वाक के किसी प्रन्याश्रित है । ज य राशि ने इस पोशका अनेक प्रकारसे अर्थ करके अनुमानके प्रामाण्यका निरास किया है । और अन्य दार्शनिकोंने मी इसका उत्तर विस्तारसे दिया है-तत्त्वो० पृ.
१.तात्पर्य०पू०१६४। २. तुलना-ग्लोकवा० अर्थापति०१७ । प्रमाणसं०पृ० १०४। तरवार्थन्लो० पृ० १९८-२००। प्रमाणप० पृ० ७१ । न्यायकु०पृ०४४० । स्याद्वादर. पृ०५१९।
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पृ० १०९, पं० २] टिप्पणानि ।
२७३ ७२,७३,८२,८९ । न्यायमं० वि० ११९ । शास्त्रदी० पृ० ६३ । प्रकरणपं० पृ० ७१ । सन्मति० टी० पृ० ५५४ । न्यायकु० पृ० ६९ । स्याद्वादर० पृ० २६३ । प्रमाणवा० कर्ण० पृ० ३५१ ।
प्रमेय क म ल मा त ण्ड में इसके उत्तरार्धकी पूर्ति टिप्पणमें की गई है, यथा"नानुमान प्रमाणं स्यानिश्चयाभावतस्ततः।" प्रमेयक० टि० पृ० १७७।
पृ० १०६. पं० ८. 'पक्षलक्षणम्' विशेष विवेचनके लिये देखो,-प्रमाणमीमांसा-भाषाटि० पृ०८७-९०।
पृ० १०६. पं० २५. 'समानतत्रै दिगम्बरेरित्यर्थः । देखो-प्रमाणसं० पृ० ९७ पं०६ ।
पृ० १०६. पं० २९. 'हेत्वाभासान् विशेष विवेचनके लिये देखो-प्रमाणमी० भाषाटि० पृ० ९६,१४२।
पृ० १०७. पं० १६. 'असिद्ध दिगम्बराचार्य मकलंकने प्रमाण सं माह में कहा है कि
"असिद्धः सिद्धसेनस्य विरुद्धो देवनन्दिनः।
द्वेधा समन्तभद्रस्य सत्वादिरचलात्मनि ॥" प्रमाणसं० का०५६ । सिद्धि वि निश्च य में भी यही कारिका है किन्तु वहाँ उसका अन्तिम पद प्रमाण संग्रह जैसा नहीं किन्तु प्रस्तुत वार्तिकसे मिलता हुआ होगा ऐसा सिद्धिविनिश्चयकी टीका देखनेसे प्रतीत होता है-सिद्धिवि० टी० पृ. ३२३ ।
यह कारिका न्याय विनिश्चय में उद्धृत है-पृ० ५०२। वहाँ भी उसका अन्तिम पाद हेतुरेकान्तसाधने' ऐसा है । अतएव वा ति क की प्रस्तुत कारिकाका सीधा सम्बन्ध सिद्धि विनिश्चय की कारिकासे हो तो कोई आश्चर्य नहीं।
वातिक कारने दिगम्बरा चार्य पूज्य पाद-देव नन्दी के स्थानमें श्वेताम्बराचार्य मल्ल वा दी का उल्लेख किया है। मलवा दीका नय च क प्रसिद्ध है । वह ग्रन्थ दोनों संप्रदायमें प्रमाणभूत माना जाता है-प्रमाणसं० का० ७७ । न्यायवि० का० ४७७ । तत्त्वार्थश्लो० पृ० २७६।
पृ० १०७. पं० १९. 'पूर्वमेव' देखो-पृ० ९६. पं० ३१ ।
४. आगमपरिच्छेदः। पृ० १०९. पं० २. 'ननु शब्दस्य बौद्ध आगम को प्रमाणभूत नहीं मानता है । उसीकी यह आशंका है।
बौद्ध का कहना है कि शब्दका अर्थके साथ कोई सम्बन्ध नहीं । अतएव शब्दसे किसी भी अर्यका बोध नहीं हो सकता ।
.."बाया अर्थाः शब्दस्य न रूपम् , नापि शब्दोऽर्थानाम् । येनाभिचारमतया व्यवस्थामेदेपि कृतकस्वा. नित्यत्ववद् भविनामाविता स्यात् । नापि शब्दा विवक्षाजन्मानो नायजन्मानो विवक्षाव्यंग्याः नार्यायत्ताः।" प्रमाणवा० खो० पृ०४१६। "शब्दानां बहिरय प्रतिबन्धामावाद"हेतु०टी०ए०२॥ हेतु० भालोक०पू०२३९ ।
भ्या०३५
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टिप्पणानि । [पृ० १०९. पं०३धर्म की तिने तो यह नियम किया है कि परोक्षार्थप्रति पत्ति अनुमानाश्रित ही है। अतएव शब्दादिको किसीप्रकार प्रमाण मानना भी हो तबभी अनुमानसे उसका पार्यक्य नहीं । शब्द अनुमान ही होगा, उससे पृथक् नहीं।
पृ० १०९. पं० ३. 'ये यत्र' तुलना- “ये यत्र भावतः कृतसमया न भवन्ति न ते परमार्थतस्तमभिधति यथा सानादिमति पिण्डेश्वशब्दोऽकृतसमय:, न भवन्ति व भावतः कृतसमयाः सर्वमिन् वस्तुनि सर्वे ध्वनय इति व्यापकानुपलब्धेः।" तत्त्वसं० पं० पृ० २७६ । सन्मति० टी० पृ० १७४ पं० १९ । पृ० १०९. पं० ५. 'अशल्यक्रियत्व' तुलना
"अशक्यं समयस्याऽस्य जातेऽजाते च कल्पनम् । नाऽजाते समयो युक्तो भाविकोऽश्वविषाणवत् ॥ नापि जाते गृहीतानां पूर्व वाचामनुस्मृती।
क्रियते समयस्ता चिरातीते कथं नु तत् ॥” तत्त्वसं० का० ८७६-८७७ । सन्मति० टी० पृ० १७६. पं० ११ । ।
पृ० १०९. पं० १२. 'अथ तुलना-तत्त्वसं० का० ८७८ । पृ० १०९. पं० १५. 'कल्पितविषय' तुलना
"अनादिवासनोद्भुतविकल्पपरिनिष्ठितः। शब्दार्थसिविधो धर्मी भावाभावोभयाश्रयः॥ परमार्थेकतानत्वे शब्दानामनिबन्धना। न स्यात् प्रवृत्तिरर्थेषु दर्शनान्तरमेदिषु ॥ अतीताजातयोवळपिन च स्यादनृतार्थता। वाचः कस्याधिदित्येषा बौद्धार्थविषया मता ॥"
प्रमाणवा० ३.२०४ २०७, २१२ । ३.२८६ । "निवेदितं तावत् यथा एते शब्दा म स्खलक्षणविषयाः। अनादिकालीनवासनाप्रभवे विकल्प प्रतिभासिनमथै विषयत्वेनात्मसात् कुर्वन्ति ।" प्रमाणवा० स्वो० पृ० ३८४ ।
पृ० १०९. पं० १६. 'सम्बन्धकरणं' तुलना-"स चायं चक्षुर्माह्यः सन् खबुद्धौ तदन्यविवेकेन रूपेणाप्रतिभासमानः कथं तथा स्यात् ।"नानुमानात् प्रतिपत्तिः, लिहा. भावात् शान्तासिखे।" प्रमाणवा० स्वो० पृ० ४२४-५२५ । सन्मति० टी० पृ० २३५. पं० २७ । पृ० १०९. पं० २१. 'तदयुक्तं तुलना___"अन्यथैधानिसम्बन्धाहाहं दग्धोऽभिमन्यते। अन्यथा दाहशब्देन दाहार्यः संप्रकाश्यते ॥"
वाक्यप० २.४२५ । तत्त्वसं० ८७९ । पृ० ११०. पं० ५. 'अथार्थापत्या' तुलना-"अत एव अर्थप्रतीत्यन्यथानुपपत्त्यापि शक्तिसंबन्धकल्पना निरस्ता।" प्रमाणवा० कर्ण० पृ० ४२७ । सन्मति० टी० पृ. २३५ पं०७॥
.."परोक्षार्थप्रतिपचेरनुमानामयत्वाद" हेतु० पू०३ ग्वेऽनुमानवा" हेतु०टी०पू०४।
१. "
शब्दादीनां सति प्रामा
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१० ११२. पं० १४] टिप्पणानि ।
२७५ पृ० ११०. पं० १०. 'संकेतव्यवहार' तुलना - सन्मति० टी० पृ० १७५।
पृ० ११०. पं० १३. 'अथ' यह पूर्वपक्ष नै या यि कके मतको लेकर हुआ है"व्यक्त्याकृतिजातयस्तु पदार्थः" न्यायसू० २. २. ६५ । तत्त्वसंग्रह० पं० पृ० २८१ । सन्मति० टी० पृ० १७७. पं० १९।।
पृ० ११०. प० १८. 'तथाहि तुलना-सन्मति० टी० पृ० २३३. पं०६।।
पृ० ११०. पं० २६. 'अथ' तुलना-सन्मति० टी० पृ० २३४. पं० १। यह पक्ष भाट्टोंका है-देखो शास्त्रदी० अ० १. पा० ३. अधि० १०. पृ० ५१ । पृ० १११. पं० ११. 'नाक्रमाव' संपूर्ण कारिका इस प्रकार है
"नाकमात् क्रमिणो भावो नाप्यपेक्षाऽविशेषिणः।
क्रमाद् भवन्ति धीः कायात् क्रमं तस्यापि शंसति ॥" प्रमाणवा० १.४,५। व्याख्या-"नाक्रमात् ऋमिणः कार्यस्य भावः । क्रमरहितत्वात् कारणस्य । तनिष्पायानि कार्याणि सजायेरन् । क्रमवतः सहकारिणोऽपेक्ष्य क्रमाजनयिष्यतीति चेत् । नाप्यविशेषिणः स्थिरैकरूपस्य परैरनायविशेषस्य परेषां सहकारिणामपेक्षास्ति । तस्मात् क्रमाद् भवन्ती धीः कायात् , क्रमं तस्यापि कायस्य शंसति ।" मनो० १.४.५ । पृ० १११. पं० १७. 'ताप-च्छेद' तुलना
"तापाच्छेदानिकषाद्वा कलधौतमिवामलम् । परीक्ष्यमाणं यत्रैव विक्रियां प्रतिपद्यते॥ तापाच्छेदाच निकषात्सुवर्णमिव पण्डितैः। परीक्ष्य भिक्षवो प्राचं मदचो न तु गौरवात् ॥"
तत्त्वसं० का० ३५४४,३५८८ ।
ज्ञानसारसमुच्चय ३१ । पृ० ११२. पं० १४. 'अथ न ददाति वीतराग कोप और प्रसाद रहित होनेसे उनकी आराधना निष्फल है इस शंकाका समाधान अतिविस्तारसे जिनभद्र ने किया है । उसका सारांश यही है कि जैसे दानादि शुभाशुभ क्रियाओंका फल खायत्त है-अपने परिणाम पर निर्भर है उसी प्रकार वीतरागकी पूजाका फल भी अपने परिणाम पर ही निर्भर है अतएव यद्यपि जिन और सिद्ध वीतराग होनेसे कुछ फल देते नहीं तथापि उनकी आराधनासे आत्माके परिणाम विशुद्ध होते हैं और उसी विशुद्ध परिणामका शुभ फल मिलता है अतएव उनकी आराधना करना चाहिए। __ यह नियम नहीं किया जा सकता कि जो जो कोपादि रहित होगा वह फलद नहीं होगानिष्फल होगा। क्योंकि अन्नादि कोपादिरहित होते हुए भी निष्फल नहीं । और देखा तो यह गया है कि कोपादिविरहित ही सब वस्तुएँ फलद होती हैं-अनुग्रह और उपघातकी जनक होती हैं । जैसे चिन्तामणि, विष, गुड, मरीचादि औषधियाँ, इत्यादि ।
'यदि कोपादि विरहित हीसे फलावाप्ति मानी जाय तब राजादिके द्वारा कुपित होनेपर धनहरण और प्रसन्न होनेपर धनप्रदान होता देखा गया है-वह नहीं होना चाहिए'इस शंकाका-समाधान जिन भद्र ने यह किया है कि वस्तुतः धनके हरण या धनकी प्राप्ति में खकृत कर्म ही कारण है। राजादिका क्रोधादि निमित्त मात्र है।
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टिप्पणानि । [पृ० ११२. पं० १७वस्तुतः जिन गवान्की पूजा उनको प्रसन्न करनेके लिये नहीं की जाती किन्तु अपने चित्तकी प्रसन्नताक लियेही की जाती है क्योंकि धर्म और अधर्म दूसरोंकी- प्रसन्नता या कोपादिके पर निर्भर नहीं किन्तु अपने भावकी शुभाशुभताके ऊपर निर्भर हैं । अतएव वीतराग की पूजा निष्फल न होनेसे करणीय है । विशेषा० गा० ३२२८ से
पृ० ११२. पं० १७. 'पूर्वापरव्याघातः' दूसरोंके शास्त्रवचनोंमें परस्पर विरोध किस प्रकारका है उसका प्रदर्शन धर्म की र्ति ने निम्न कारिकामें किया है
"विरोधोद्भावनप्राया परीक्षाप्यत्र तद्यथा।
अधर्ममूलं रागादि स्नानं चाधर्मनाशनम् ॥" प्रमाणवा० ४. १०७। इसकी व्याख्यामें प्रज्ञा करने जिन दो श्लोकोंको उद्धृत किया है शान्त्या चार्य ने भी उन्हींको प्रस्तुतमें उद्धृत किया है-प्रमाणवा० अलं० लि. पृ० ६४३ ।
तुलना-न्यायकु० पृ० ६३४ । स्याद्वादमं० का०६।।
पृ० ११२. पं० २९. 'विधि' यह कारिका न य चक्र की है-देखो- नयचक्र लिखित पृ०६।
पृ० ११३. पं० १. 'सत्यत्वम्' बुद्ध को अर्थात् बुद्ध वचनको प्रमाण माननेमें धर्म कीर्ति ने हेतु दिया है कि भगवान् बुद्धने अपने दोषोंके क्षयका जो मार्ग प्रत्यक्ष किया था उसीका उपदेश दूसरोंको किया था। उनकी तो प्रत्येक प्रवृत्ति दूसरोंके हितकी दृष्टिसे होती थी, वे ज्ञानी थे, कृपावन्त थे; वे निष्प्रयोजन झूठ क्यों बोलते- अतएव भगवान् प्रमाणभूत हैं
"तायः स्वदृष्टमार्गोक्तिः वैफल्याक्तिनानृतम् ।
दयालुत्वात् परार्थे च सर्वोरम्भाभियोगतः॥" प्रमाणवा० १.१४७,८।
"दयया श्रेय आचष्टे शानात् सत्यं ससाधनम् ।” वही १.२८४। इतनाही नहीं किन्तु उनके उपदेशमें विसंवाद भी नहीं इसलिये भी वे प्रमाण हैं । अर्थात् बुद्धने वस्तुका स्वरूप जो बताया कि सब कुछ क्षणिक होनेसे दुःखरूप हैं और दुःखरूप होनेसे अनात्म है- उसमें कोई बाधा नहीं यह भी बुद्धके प्रामाण्यमें हेतु है-"उपदेशतथाभावः" वही १. २८५।
निष्कर्ष यह है कि बौद्धों के मतसे तत्त्वका खरूप अनित्य, दुःख और अनात्म इन तीन शब्दों में कहा जाता है और वही सत्य है । इसके विपरीत मल्ल वा दी का कहना है कि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीन शब्दोंमें ही वस्तुका सत्यस्वरूप कहा गया है अतएव तदुपदेष्टा भगवान् ही प्रमाण है और अन्य अप्रमाण । पृ० ११३. पं० ११. 'दब्वडिओ कारिका का पूर्वार्ध इस प्रकार है
"तित्थवरवयणसंगह-विसेसपत्थारमूलवागरणी।" व्याख्या-"तरन्ति संसायर्णवं येन तत् तीर्थ-द्वादशाकं तवाधारो वा सहा-तत् कुर्वन्ति उत्पद्यमानमुत्पादयन्ति तत्वाभाव्यात् तीर्थकरनामकर्मोदयावेति तीर्थकराणां वचनम्-आचारादि, अर्थतस्तस्य तदुपदिष्टत्वात्-तस्य संग्रहविशेषौ-द्रव्यपर्यायौ... "अनित्यात प्राह तेनैव दुःखं, दुःखाबिरामताम् ।" प्रमाणवा० १.२५६ । "बदलि दुक्खं । मं दुख वदमत्ता ।" संयुत्तनिकाय ३.२२ । विमुशिमग्ग २१.७-८।
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१०.११५. पं०१०] टिप्पणानि ।
२७७ सामान्यविशेषशब्दवाच्यावभिधेयौ-तयोः प्रस्तार-प्रस्तीर्यते येन नयराशिना संग्रहादिकेन स प्रस्तारः । तस्य संग्रहव्यवहारप्रस्तारस्य मूलव्याकरणी-आद्यवक्ता ज्ञाता वा द्रव्यास्तिकः"पर्यवनयः। शेषास्तु नैगमादयो विकल्या मेदाः अनयोर्द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकयोः।" सन्मति० टी० पृ० २७१ ।
पृ० ११३. पं० १२. 'कापिलम्' जैनेतर दर्शनोंको जनसंमत नयोंके आभास मानकर दुर्नयों में समाविष्ट करनेका प्रारम्भ संभवतः सिद्ध से न ने किया है । उन्होंने स्पष्टरूपसे कापिल दर्शनको द्रव्यार्थिकमें, बौद्धदर्शनको पर्यायार्थिकों और काणाद दर्शनको द्रव्यपर्याय - उभयनयमें समाविष्ट किया है और उन सभीको मिथ्यावाद कहा है। -सन्मति० ३. ४८, ४९ ।
इसी प्रकार हरिभद्र अकलंक, विद्यानन्द आदिने क्रमशः खसमयप्रसिद्ध दर्शनोंकी नयवादों में जो घटना की उसका उपयोग करके उ० यशोविजयजीने सातों दुर्नयोंके साथ दर्शनान्तरोंको जोड दिया है वह इस प्रकार
१. नैगमाभास= वैशेषिक और नैयायिक २. संग्रहाभास= वेदान्त, समी अद्वैतदर्शन, सांख्य ३. व्यवहाराभास = सांख्य', चार्वाक ४. ऋजुसूत्राभास =ताथागत -सौत्रान्तिक' ५. शब्दनयाभास = शब्दब्रह्मवाद, ताथागत (वैभाषिक) ६. समभिरूढाभास योगाचार
७. एवंभूताभास = माध्यमिक पृ० ११३. पं० १७ 'सत्कार्यवादः प्रस्तुतमें शान्त्याचार्यने सत्कार्यवादके पूर्वोत्तरपक्षकी - रचना तत्त्वसंग्रह और सन्मतिटीकाके आधारसे की है-तत्त्वसंग्रह का०८ से। सन्मति० टी० पृ० २८२ से।
पृ० ११३. पं० २८. 'नहि तुलना तत्त्वसं० का० १६ । सन्मति० टी० पृ० २९६ ।
पृ० ११४. पं० ९. 'हेतुमन्वादि' इस पूर्वपक्षवचनका मूलाधार निम्न कारिका हैउसमें सांख्य मतानुसार व्यक्त और अव्यक्तका वैधर्म्य वर्णित है
"हेतमदनित्यमव्यापि सक्रियमनेकमाश्रित लिङ्गम।
सावयवं परतन्त्रं व्यक्तं विपरीतमव्यक्तम् ॥” सांख्यका० १० । पृ० ११४. पं० २३. 'परिणामो' तुलना- "अवस्थितस्य द्रव्यस्य पूर्वधर्मनिवृत्ती धर्मान्तरोत्पत्तिः परिणामः।" योगसू० भा० पृ० ३०५ । "तद्भावः परिणामः । अनादिरादिमाश्च ।" तत्त्वार्थ० ५.४१,४२ | "धर्मादीनां द्रव्याणां यथोक्तानां च गुणानां खभावः खतत्त्वं परिणामः।" तत्त्वार्थभा० ५.४१ । पृ० ११५. पं० १०. 'सलिलात्' तुलना -
"न चान्ये न च नानन्ये तरङ्गा ह्युदध्यान्विताः।
विज्ञानानि तथा सप्त चित्तेन सह संयुताः॥ १. यशोविजयजीने अन्यत्र नयविषयक प्रकरणोमें सांख्यको संग्रहाभासमें समाविष्ट किया है किन्तु भनेकाम्तव्यवस्थामें व्यवहाराभासमें सांख्यका समावेश किया है-पृ० ३१। २ अनेका० पृ० ५५ सन्मति०टी०पृ०३१८ ।
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२७८
टिप्पणानि। [पृ० ११५.५० १०उदः परिणामोऽसौ तरशाणां विचित्रता।
मालयं हि तथा चित्रं विज्ञानास्यं प्रवर्तते ॥" लंकावतार १०. ३८६, ३८७ । तत्त्वार्थश्लो० पृ० ११८. पं० १७ ॥ पृ० ११५. पं० १०. 'अहे!' तुलना
"तसावुभयहानेन व्यावृत्त्यनुगमात्मका!
पुरुषोऽभ्युपगन्तव्या इण्डकादिषु सर्पवत् ॥" श्लोकवा० आत्म० २८ । "यथाहे कुण्डलावस्था व्यपैति तदनन्तरम।
सम्भवत्यार्जबावस्था सर्पत्वं त्वनुवर्तते ॥" तत्त्वसं० का० २२३ । न्यायबि० का० ११७।
पृ० ११५. पं० १२. 'आविर्भाव:' तुलना तत्त्वसं० का० २६-२७ । सन्मति० टी० पृ० २९९. पं० २२।
पृ० ११५. पं० १९. 'बुद्धि तुलना-"बुद्धिरूपलब्धिर्वानमित्यनान्तरम् ।" न्यायसू० १.१.१५।
पृ० ११५. पं ३०. 'मिथ्यात्वमिति' तुलना - द्रव्यास्तिकनयवादी सांख्योंका खण्डन निम्न प्रन्थों में देखना चाहिए-ब्रमसू० शां० २. २.१-१०। प्रमाणवा० स्वो० कर्ण० पृ० ३२० । तत्त्वसं० का० ७-४५ । न्यायमं० वि० पृ० ४८७ । व्यो० पृ० ५४३ । कंदली० पृ० १४३ । आप्तमी० का० ३७-४० । सन्मति० टी० पृ. २९६ । न्यायकु० पृ० ३५४ । प्रमेयक० पृ० २८५ । स्याद्वादमं० का० १५
पृ० ११६. पं० २. 'सर्वव्यापित्वं आत्माके परिमाणके विषयमें उपनिषद्के ऋषिओंने लाना कल्पनाएँ की हैं। किन्तु पर्यवसान उसे व्यापक माननेमें हुआ इसका प्रमाण दार्शनिक सूत्रोंमें मिल जाता है । क्योंकि वेदान्तसूत्रके व्याख्याता निंबार्क, मध्व, रामानुज और वल्लभके अलावा सभी दार्शनिकसूत्रकारोंने और उनके व्याख्याताओंने आत्माको व्यापक ही माना है और सिद्ध किया है । वैदिक दार्शनिक रामानुजादि और अवैदिक दार्शनिक जैनोंने क्रमशः आत्माको अणुपरिमाण और देहपरिमाण माना है । आत्माको अणुपरिमाण माननेकी तथा देहपरिमाण माननेकी परंपराका दर्शन उपनिषदोंमें होता है । किन्तु उपनिषद्कालके बादके सभी वैदिक दार्शनिक आत्माके परिमाणकी अन्य सभी कल्पनाओंका निरास करके उसे सिर्फ व्यापक मानने लगे।
उपनिषदोंमें आत्मपरिमाणके विषयमें जो कल्पनाएँ की गई हैं वे ये हैं
कौषितकी उपनिषद्के ऋषिके मतसे आत्मा शरीरव्यापी है। उनका कहना था कि जैसे खुरा अपने म्यानमें, जैसे अग्नि अपने कुण्डमें व्याप्त है वैसे ही आस्मा शरीरमें नख और रोम पर्यन्त व्याप्त होकर रहता है।
जैनाचार्योका भी यही मत है। बृहदारण्यकमें कहा गया है कि आस्मा चावल या यवके दाने जितना है। 1. "वया धुरः पुरधाने हिवा, विधभरोमा विश्वभरकुलावे एवमेवैष प्रज्ञास्मा इदं शरीरमनुप्रविष्ट मा कोमम्मामा नखेभ्यः"कौषी०४.२०। २."यथा नीहिर्वा पवो वा स एष सर्वस्वेशाना" वृहदा०५.६.१.।
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१० ११६. पं०४] टिप्पणानि ।
अनेक बार विभिन्न उपनिषदोंमें यह कहा गया है कि आत्मा अंगुष्ठपरिमाण है। छान्दोग्योपनिषदमें प्रादेशपरिमाण होनेका उल्लेख है । प्रादेशका मतलब है बिलस्त'। इसप्रकार परिमाणको उत्तरोत्तर बढाते ऋषिओंकी कल्पना व्यापक तक पहुँच गई । मुण्डक उपनिषदमें कहा है कि आत्मा नित्य है, विभु है, सर्वगत है-"नित्यं विभुं सर्वगतम्" मुण्डको० १.१.६।
इसीको दार्शनिक ऋषिओंने अपनाया । प्रो० रानडेका कहना है कि इन परस्पर विरोधी मन्तव्यों से किसको ठीक मानना इसका जब निर्णय करना कठिन होगया तो किसीने कह दिया कि "शरीरमादेशांगुष्ठमात्रमणोरप्यण्व्यं ध्यात्वा"-मैत्री० ६.३८ इत्यादि ।
इतना ही नहीं किन्तु विरोधके समन्वयकी भावनासे किसीने तो यहाँ तक कह दिया कि आत्मा अणुसे भी छोटा है और महत्से भी महान् है। किन्तु इस कथनकी संगति क्या हो सकती है इसका स्पष्टीकरण उपनिषदोंमें नहीं। यही कारण है कि बादके दार्शनिकोंने उसे सिर्फ व्यापक मानना ही उचित समझा।
जैन दार्शनिकोंने देहपरिमाण और व्यापकताका समन्वय अपनी दृष्टिसे किया है। केवलज्ञानकी दृष्टिसे आत्माको व्यापक और आत्मप्रदेशकी दृष्टिसे अव्यापक-अर्थात् शरीरव्याप्त माना जा सकता है ऐसा द्रव्य संग्रह की वृत्तिमें ब्रह्मदेव ने कहा है।
उपाध्याय यशोविजयने कहा है कि समुद्धात दशामें आत्मा लोकव्यापी होता है उसी बातको चढाकर दूसरोंने आत्माको व्यापक माना है जो अर्थवाद मात्र है । उन्होंने अन्यत्र आत्माकी लोकप्रमित प्रदेशमें व्याप्त होनेकी शक्तिके कारण उसे विभु कहा है और आवरणके कारण उसे देहपरिमाण माना है
"शक्त्या विभुः स इह लोकमितप्रदेशः।
व्यक्त्या तु कर्मकृतसौवशरीरमानः॥" न्यायखण्डखाय । आत्माकी व्यापकताकी चर्चा के लिये देखो० वैशे० ७. १. २२ । व्यो० पृ० ११० । कंदली पृ० ८८ । न्यायमं० वि० पृ० ४६८ । प्रकरणपं० पृ० १५८ सन्मति० टी० पृ० १३३ । न्यायक० पृ० २६१ । प्रमेयक० पृ० ५७० । स्याद्वादमं० का०९।
पृ० ११६. पं० ४. 'यस्याप्यभ्युपगमः सोपि इसे इस प्रकार शुद्ध करना चाहिए'यस्याप्यभ्युपगमः [प्रत्यक्ष आत्मा इति ] सोपि'
प्राचीन न्याय और वैशेषिक दर्शनमें आत्माका प्रत्यक्ष नहीं किन्तु अनुमान माना गया था
१. "अंगुष्ठमात्रः पुरुषो मध्य आरमनि तिष्ठति"। कठो०२.२.१२ । मैत्री०६.३८। २. "प्रादेशमात्रमभिविमानमात्मानम्" छान्दो० ५.१८.१ । मैत्री०६.३८। ३. अभिधानचि०३.२५९ । 8. A Constructive survey of Upanishadic Philosophy-P. 133. ५. "मणोरणीयान् महतो महीयान् आत्माय जन्तोर्निहितो गुहायाम् ।" कठो० १.२.२० । छान्दो० ३.१४.३। १. केवलज्ञानोत्पत्तिप्रस्तावे ज्ञानापेक्षया व्यवहारनवेन कोकाकोकण्यापका, मच प्रदेशापेक्षया।" द्रव्यसं०० गा०१०। ७. शालवा० यशो०टी०पू०३३८।
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२८०
टिप्पणानि। [पृ० ११६. पं० २०किन्तु उदयोतकर और उससे बाद के नवीन नैयापिकोंने आत्माका मानस प्रत्यक्ष माना हैदेखो-प्रमाणमीमांसा भाषा० पृ० १३७ ।
पृ० ११६. पं० २०. 'सर्वत्रोपलम्यमानगुणत्वात् तुलना - "तथा धर्माधर्मयोरात्मगुणत्वात् तदाभयस्याव्यापकत्वेन स्यादमेकर्षज्वलनम्, वायोस्तिर्यग्गमनम्, अणुमनसोस्वायं कर्मेति तयोः स्वाभयसंयोगापेक्षित्वात्।" व्यो० १० १११ । सन्मति० टीक पृ० १४५। . पृ० ११७. ५० ३. 'एकान्तामेदवादिनो' जो लोग उत्पाद और विनाशकृत मेद नही मानते उन्हें प्रस्तुतमें आचार्यने अमेदवादी कहा है। अर्थात् आकाश, काल, दिग्, आस्मा और मनको एकान्त नित्य माननेके कारण नै या यिक और वैशेषिक एकान्तामेदवादी हैं। और शब्दको एकान्तनिस्य मीमांसक मानता है अतएष शब्दकी अपेक्षासे मी मासक मी एकान्तामेदवादी है। इसी दृष्टिसे 'एतेन आकाशकालदिगात्ममनम्शब्दाना केवलं प्रौव्यमभ्युप. गच्छन्तोऽशुधनयवादिनो निरस्ताः' (पृ० ११६. पं० १) इस कथनको समझना चाहिए।
पृ० ११७. पं० १ 'विनाशस्याहेतुकत्वात् दि मा गादि बौद्धोंने वस्तुकी क्षणिकताको तार्किकभूमिका पर लेजाकर कहा है कि यदि वस्तुको अनित्य मानना हो तब उसकी स्थिति एक क्षण, जो कि अविभाज्य समय रूप है, उससे अधिक नहीं मानी जासकती है। वह उत्पन्न हुई यही उसका विनाश है । यदि वह एकाधिक क्षण स्थायी होजाय तब वह नित्य हो जायगी। यदि उसको अनित्य मानना हो तो उसके विनाशको उसके खभावरूप मानना होगा विनाश और वस्तुको अभिन्न मानना होगा।
उत्पत्ति और विनाशका काल एक ही है । अतएव फलित यही होता है कि जिन कारणोंसे वस्तु उत्पन्न हुई तदतिरिक्त कारणोंकी आवश्यकता विनाशके लिये नहीं-ऐसा मन्तव्य दिमाग का रहा होगा इसका पता उद्दयोतकरके "अथोत्पन्नः विनष्टः इत्येककालः । उत्पत्तिविनाशी एककालो" (न्यायवा० पृ० ४१५) इस बौद्धपूर्वपक्षसे चलाता है । इसी नितुक विनाशवादका समर्थन धर्म की र्ति आदिने किया है
"अहेतुत्वाद्विताशस्य खभावादनुबन्धिता।
सापेक्षाणां हि भावानां नावश्यंभावतेश्यते ॥” प्रमाणवा० ३.१९३ । "येषां तापद विनायो रयते तेषां यदि न प्रतिक्षणं विनाशः स्यात् तदा विनाशमतीतिरेव न स्यात् । तथा हि यदि द्वितीये क्षणे भावस्य स्थितिस्तदासी सर्वदेव तिष्ठेत् । द्वितीयेऽपि क्षणे क्षणद्वयस्थायिखभावत्वात् । तदा च तेनापरक्षणद्वयं स्थातव्यम् इति नविनाशो भावस्य स्यात् । श्यते च । तस्माद् विनाशप्रतीत्यन्यथानुपपस्या प्रतिक्षणविनाशानुमानम्।" प्रमाणवा० स्वो० कणे० पृ० ३६९ । हेतुबि० टी० पृ० १४१ ।। __ इन तार्किक बौद्धों ने सत्त्व और क्षणिकत्वका अविनाभाव माना है । ऐसा कोई सत् नहीं जो क्षणिक नहीं । संस्कृत-असंस्कृत सभी-वस्तुएँ यदि सत् हैं तो क्षणिक ही मानना चाहिए। अन्यथा असत् ही होंगी-“यत् सत् तत् क्षणिकमेव" हेतु० पृ० ४४ ।
"नचा विनाशो नाम कश्चिद्, भाव एव हि नाशः।" प्रमाप वा० खो०पू० ३६६ । “यो हि भावा क्षणस्थायी विनाश इति गीयते ।" तस्वसं० का० ३७५। "वत् खभाववर सदस्यतिरेकिणो नामस्य विष्पत्ती एव लिष्पनत्वात्।" तत्त्वसं०पं०का०३७६।
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}
टिप्पणानि ।
"यदि तु व्योमकालाद्याः सन्तः स्युक्ते तथा सति । नातिक्रामन्ति तेऽप्येनं क्षणभङ्गं कृता इव ॥ ३९९ ॥ तथा सन्तो ये नाम ते सर्वे क्षणभङ्गिनः । तद्यथा संस्कृता भाषास्तथासिद्धा अनन्तरम् ॥ ३९२ ॥ सम्तचामी त्ययेष्यन्ते व्योमकालेश्वरादयः । क्षणिकत्ववियोगे तुम सत्तेषां प्रसज्यते ॥ ३९३ ॥ तत्त्वसं० |
१०.११७. पं० ४
४]
शान्तरक्षितने क्षणिक शब्दका अर्थ भी स्पष्ट करदिया है. "उत्पादानन्तरास्थापि स्वरूपं यच वस्तुमः ।
तदुच्यते क्षणः सोस्ति यस्य तत् क्षणिकं मतम् ॥ ३८८ ॥ असत्यप्यर्थमेदे च सोऽस्यस्येति न बाध्यते । इच्छारश्चितसङ्केतमात्रभाषि हि वाचकम् ॥ ३८९ ॥ तत्त्वसं० ।
अब प्रश्न यह है कि क्या दिना गा दि योगाचार-सौत्रान्तिक बौद्धोंने क्षणिकताका जैसा अर्थ लिया है और उसकी जैसी सर्ववस्तुमें व्याप्ति मानी है, वैसाही अर्थ और उसकी वैसीही व्याप्ति भगवान् बुद्धको अभिप्रेत थी ? ।
२८१
उत्तर स्पष्ट है, कि ऐसा नही था । इस विषयमें प्रथम यह बात ध्यान देनेकी है कि भगवान् बुद्ध ने उत्पाद, स्थिति और व्यय इन तीनोंके भिन्न क्षण माने थे ऐसा अंगुत्तरनिकाय और अभिधर्मग्रन्थोंके देखनेसे प्रतीत होता है। अंगुत्तर में संस्कृतके तीन लक्षण बताये गये हैं। संस्कृत वस्तुका उत्पाद होता है, व्यय होता है और स्थितका अन्यथात्व होता है । इससे फलित होता है कि प्रथम उत्पत्ति फिर जरा और फिर विनाश इस क्रमसे वस्तुमें अनित्यताक्षणिकता सिद्ध है । उत्पत्ति, स्थिति और विनाश एककालिक नहीं । उत्पत्ति, स्थिति और विनाशके तीन क्षण भिन्न होते हैं ऐसा अभिधम्म त्थ संग्रहमें चित्तकी आयु बताते हुए स्पष्टरूप से कहा है । और चित्त ही सब वस्तुमें चञ्चल अधिक है । अर्थात् चित्तक्षण क्षणिक है इसका मतलब है कि वह तीन क्षणतक है । प्राचीन बौद्धशास्त्रमें मात्र चित्त - नाम ही को योगाचारकी तरह वस्तुसत् माना नहीं है किन्तु नामके अतिरिक्त रूप- बाह्य भौतिक पदार्थ भी - वस्तुसत् माना है और उसकी आयु योगाचारकी तरह एकक्षण नहीं, खसंमत चित्तकी तरह त्रिक्षण नहीं किन्तु १७ क्षण मानी गई है। ये १७ क्षण भी समयके अर्थ में नहीं किन्तु १७ चित्तक्षणके अर्थ लियागया है अर्थात् वस्तुतः एकचित्तक्षण = ३ क्षण होनेसे ५१ क्षणकी आयु रूपकी मानी गई है।
1
यदि अभिधम्मसंग कारने जो बताया है वैसा ही भगवान् बुद्धको अभिप्रेत हो तो कहना होगा कि बुद्धसंगत क्षणिकता और योगाचारसंमत क्षणिकतामें महत्वपूर्ण अन्तर है ।
दूसरी बात यह है कि योगाचारसे मी प्राचीन सर्वास्तिवाद है । उस वादमें भी प्राचीन मार्गका अवलंबन दिखाई देता है । सर्वास्तिवादिओंने योगाचार की तरह मात्र विज्ञान - नामको ही वस्तुसत् नही माना किन्तु नाम और रूप दोनोंको पारमार्थिक माना है । इतना ही नहीं
१. "तिणीमाल मिक्सचे संखतस्स संसतक्खणानि । ... उप्पादो पन्नापति, बयो पन्नापति, ठितस्स अम्मयतं पब्जायति ।" अंगुत्तर० तिकनिपात । २. "पाठिति भङ्गयसेन सणसर्व एकविसा नाम । तानि पम सत्तरस चित्तक्खणानि रूपधम्मान आयु।" अभिधम्मस्थलंगहो ४.८ ।
न्या० ३६
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[०१७...किन्तु दोनोंकी क्षणिकताकी कल्पना मी बनान-पासमानका अन्तर योगाचारने रिपवादरूपसे गर्वक्षणिकताका सिद्धान्त स्थिर किया है। उसके मतमें सत्ल और क्षणिकताकी व्याप्ति है। इसके विरुद्ध सर्वातिवादियोंके मतसे सत् की त्रैकालिक बस्तिपसे व्याति है। जो सत् है अर्थात् वस्तु है वह तीनों कालमें गति है। 'सर्व' वस्तुको तीनों काल में 'बखि' माननेके कारण ही उस वादका नाम सर्वास्तिवाद पग' है। वस्तुकी विभिन्न अवसाएँ है अनित्य हैं क्षणिक हैं', वस्तु तो त्रिकालवर्ति होनेके कारण निस्स है।
सर्वास्तिवादिओंने रूपपरमाणुको निस्स मानकर उसीमें पृथ्वी, अप, तेज और वायुरुप होनेकी शक्ति मानी है। यही मत जैनों का भी है । और सांख्यों का मी यही मत है कि एक ही प्रधानमें पांचोंभूतरूपसे आविर्भूत होनेकी योग्यता है । मूलतत्त्व एक ही है। सर्वास्तिवादी, जैन और सांख्य ये तीनों मूलतत्त्वको समान रूपसे निस मानते हैं।
सर्वास्तिवादिनोंने नैयायिकोंके समान परमाणुसमुदायजन्य अवयवीको अतिरिक्त नही किन्तु परमाणुसमुदायहीको अवयवी माना है । दोनोंने परमाणुको निस मानते हुए मी समुदाय और अक्यवीको अनिस माना है । सर्वातिवादिओंने एक ही परमाणुकी बन्य परमाणुके संसर्गसे नाना अवस्थाएँ मानी है और उन्ही नाना अवलाओंको या समुदायोंको अनिल माना है, परमाणुको नहीं। .
सर्वास्तिवादका यह परमाणुसमुदायवाद साक्ष्योंके प्रकृति-परिणामवादसे, जैनोंके द्रव्यपर्यायवादसे और मीमांसकोंके अवस्था-अवस्थातावादसे जितना अधिक सन्निकट है उतनाही अधिक दूर वह योगाचारके क्षणिकैकान्तवादसे है । परमाणुसमुदायकी क्षणिकताको योगाचारने तर्ककी भूमिका पर लेजाकर क्षणिकैकान्तवादकी कोठिमें रख दिया और परमाणुकी वास्तविक नित्यताको काल्पनिक सन्तानमें सन्निहित कर दिया । परिणाम यह हुआ कि सर्वास्तिवाद और योगाचारका मार्ग अत्यन्त विरुद्ध हो गया । भगवान बुद्धके एकही अनित्यताके उपदेशको एकने समुदायमे घटाया तो दूसरोंने सर्व वस्तुओं में स्थापित किया।
सर्वास्तिवादका समावेश हीनयानमें किया जाता है । महायानी विज्ञानवाद' और माध्यमिकोंके संवृतिसत्य और पारमार्थिक सत्यके सिद्धान्तको अश्वघोषने फुट किया है। और अधिक तर्कसंगत करके उस सिद्धान्तको भूततयतावादमें उसने परिणत कर दिया है। इस भूततयतावादको महायानके अन्यवादोंकी तुलनामें उच्च स्थान प्राप्त है । इतना ही नही किन्तु वह वाद संपूर्ण विकसित महायान समझा जाता है । इस भूततयतावादका प्रतिपादन अश्वघोषने अपने अन्य Awakening of Faith (श्रद्धोत्पादशास्त्र')में किया है।
१. तत्त्वसं०का० ३९१-३९४। २. It means rather the doctrine which lays down that substance of all things has a permanent existance throughout the three divisions of time." Systems of Buddhistic Thought. p. 103. ३. बही p. 134,137 etc. .वही पृ० १२५। ५.वही पृ० १२१,१३७ आदि ।
.Systems of Buddhistic Thought. p. 252. ७. मूलसंस्कृत प्रन्थ लुस है। परमार्थ मौर शिक्षानन्दके चीनी अनुवादके आधारसे सुजूकीने अंग्रेजी अनुवाद किया है।
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१० ११७.५०५] टिपनि।
भूततपतावादका प्रतिपादन पढते हुए जैनों के इम्प-गुण-पर्यायवादका निचय और व्यवहारनयसे किया हुमा विचार सामने आ जाता है।
जैन संमत आत्माकी तरह भूततयताके दो रूप अवघोषने बताये हैं। पारमार्थिक और साहतिक-व्यावहारिक । पारमार्षिक भूततथता वह है जो विश्वका परमतत्व है। और व्यावहारिक भूततयता संसारके रूपमें है अर्थात् जन्म और मृत्युके रूपमें । जैनोंने जिसे नैश्चयिक आत्मा कहा है वही रूप भूततयताका है। फर्क यही है कि जैनोंने नैश्चयिकआत्माको एकमात्र परमतत्त्व नहीं माना । तदतिरिक्त एक अजीवतत्व भी माना है । अथवा एक दूसरी दृष्टिसे देखा जाय तो कुन्दकुन्दा चार्य जिसे सत् कहते हैं वही भूततथताके निकट है। सांख्योंकी प्रकृति जो समस्त भौतिकपदार्थ और चित्तका मूलतत्व है वह मी भूततयताके समीप है। __ भूततयताके व्यावहारिकल्म अर्थात् सांवृत्तिकरूप संसारके मुख्य तीन रूप है-द्रव्य, गुण और क्रिया । संसारकी अर्थात् व्यवहारकी ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसमें ये तीन न हों। गुण और क्रिया (भाव-पर्याय) उत्पत्ति और विनाशको प्राप्त होते हैं किन्तु द्रव्य ध्रुवभावी है। व्यावहारिक आत्माका जो रूप जैनोंने माना है या सांख्यों ने प्रपञ्चका जो रूप माना है उसके समीपका यह भूततयताका सांवृतिकरूप है। __ योगाचार बौद्धोंने एकान्तमेदको ही परमतत्त्व माना है । विज्ञानाद्वैतका मतलब ब्रह्माद्वैतकी तरह एक मात्र विज्ञानका अस्तित्व तो है किन्तु इसका मतलब यह कदापि नहीं कि सब विज्ञान मी एक हैं । धर्म की र्ति ने सन्तानान्तरसिद्धिं लिखकर इस वक्तव्यको स्पष्ट किया है जिससे यह स्पष्ट है कि विज्ञानात मानकर मी योगाचार एकान्त अमेदवादी नहीं किन्तु मेदवादी है । जबकि इसके विपरीत भूततयत्यवादके अनुसार परम तत्त्वमें सबका समन्वय है।
और वह सांख्योंकी प्रकृतिके समान और जैनोंके सामान्य द्रव्यके समान निल है । ___ बोद्धोंके ऐसे सिद्धान्तोंकी तुलना जब हम दिग्नागादि प्रतिपादित पूर्वोक क्षणिकान्तवादसे करते हैं तब यही कहना पड़ता है कि भगवान् बुद्धको अभिप्रेत वही हो सकता है जो सर्वास्तिवादादि प्राचीनवादोंमें प्रतिपादित है। ___ अतएव विनाशस्य अहेतुकत्वाद' जैसे क्षणिकैकान्तके साधक हेतुका प्रयोग दियागादि तार्किक योगाचारोंके प्रन्योंमें ही मिले तो कोई बाधर्यकी बात नी । इस हेतुका खण्डन उद्घोतकर तथा कुमारिल वादिने किया है । इससे वह धर्मकीर्तिसे पहलेके बमुबन्धु और दिग्नागके अन्यमें होना चाहिए। उसीका उपयोग धर्मकीर्तिने भी किया है यह स्पष्ट है।
..वही पृ०२५४ पं०१६। २.वही पृ०२५४।३.वही पृ०२५५। 8. "Bhūtatathată implies oneness of the totality of things or Dharmadhatu-The great all-including whole, the quintessence of the doctrine. For the essential nature of the Soul is uncreated and eternal." Awakening of faith p.55-56. Systems of Buddhistic Thought p. 2551
५ न्यायवा०पृ०४१३ | श्लोकवा०शब्दनि०२४।.."वदेवं विनाशं प्रत्यनपेक्षामसामीवैपाम्पा देवयोगेन कृतवणल सत्त्वमा पूर्वाचार्यवासितां पतिपाब"-हेनुर्वियुद्धीका पृ०१४३ । प्रमाणवा० ३.१९३३२६९।
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[१० ११.५५धर्म की र्ति के बादके समी दार्शनिकोंने उक्त क्षणिकसाधक हेतुका निरास करनेका पूरा प्रयास किया है।
पृ० ११७. ५० ५. 'ये यावम्' तुलना-"प्रयोगस्तु एवम्-ये या प्रत्यनपेक्षा ते तापनियताः। तद् यथा भन्स्या कारणलाममी सकार्योत्पादने" हेतुबि० टी० पृ० १४३ । प्रमाणवा० स्त्रो० कर्ण० पृ० ३३१। .
पृ० ११७.१०.१०. 'कालान्तरस्थायित्वे' तुलना-हेतुबि० टी० पृ० १४१॥ देखो, प्रस्तुत टिप्पण पृ० २८० "येषां तापनिनाशो रक्ष्यते तेषां यदि प्रतिमण विनाशः स्यात् तदा विनाशप्रतीतिरेव न स्यात् । तथाहि यदि द्वितीये मणे भाषस्य स्थितिस्तदालौ सर्वदेव तिष्ठेत् । द्वितीयेपि भणे क्षणद्वयस्थायिखभावत्वात् ।" प्रमाणवा० स्वो० कर्ण० पृ० ३६९ ।
पृ० ११७. पं० १५. 'किं पर्युदासरूपा तुलना-हेतुबि० टी० पृ० ८०।
पृ० ११७. पं० २६. 'अथ प्रसज्यरूपम्' तुलना-हेतुबि० टी० पृ० ८० । प्रमाणवा० कर्ण० पृ० ३६७।
पृ० ११७. पं० २९. 'केनचिद्रूपेण' तुलना-"केनचिदूपेणोन्मजनम् हि भवनम् ।" हेतुबि० टी० पृ० ८५ पं० १० ।
पृ० ११८. पं० १०. 'यद्यहेतुकत्वं तुलना-"यद्यकारणत्वानिस्यो विनाशा, कार्यस्योत्पादो न प्रामोति । उत्पनस्य च भावस्य विनाशेन सहावस्थानमिति च दोषः। ततश्च भाषानामभाषाविरोधादत्यन्तमवस्थानमिति । अथासन विनाशा, एवमपि सर्प निस्यत्वं विनाशाभावात् ।" न्यायवा० पृ० ४१४ ।
पृ० ११७. पं०१४. 'अथ तुलना-"परस्य खकारणव्यतिरिक्तस्योत्तरकालं मुद्रादे शकस्याभावादहेतुकमिच्छामः।" तत्त्वसं० पं० पृ० १३८ ।।
पृ० ११८. पं० १९. 'खहेतो' तुलना-"न हि नाशो भावानां कुतश्चित् भवति । तद् भावखभावो भवेद् भावस्यैष खहेतुभ्यः तधर्मणो भावात् ।" प्रमाणवा० स्वो० पृ० ५१०।
पृ० ११८.पं० १९. 'न पुनः' तुलना- “न तस्य किश्चिद्रपति न भवत्येव केवलम्" प्रमाणवा ३.२७७ । “न बयं विनाशोऽन्यो वा कश्चिद्भवतीत्याह । किन्तर्हि । स एव भावो न भवतीति ।" वही० स्त्रो० ५० ५२३ । “तेनायमर्थः प्रथमे क्षणे भावोऽभूतो भवति । द्वितीये सणे तस्य न भावो भवति नामावो वा नापि खरसहानिर्वा भवति । केवलं खयमेव निवर्तते।" कर्ण० पृ० ५२३ ।
पृ० ११८. पं० २४. 'अथ' तुलना- "नाशस्तु प्रसज्यप्रतिषेधरूपो निस्वभावस्वाद" मनो० ३.२७८।
पृ० ११९. पं० ८. 'पर्युदास' तुलना - "पर्युदास एवैको नमश्च स्यात् । सर्वत्र विधेः प्राधान्यात् । सोऽपि वा न भवेत् । यदि हि किञ्चित् कुतश्चित् निवत्येत तदा तद्य- 1. व्यो०० ३९९ । न्यायमं० वि० पृ० ६१,४५७ । तात्पर्य० पृ०४५७ । प्रकरणपं० मीमांसाजीवरक्षा पृ० ७ । शास्त्रदी० पृ० १४५ । अष्टश० का०४१ । सन्मति०टी० पृ० ३८८। न्यायकु०पृ० ३८६ । स्याद्वादर० पृ०७८७ ।
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१० ११०. ५० ५] टिप्पणानि।
१८५ तिरेकि संपश्येत तत्पर्युदासेन । तब नास्ति । सर्वत्र निवृत्तिर्मवंति इत्युक्ते षस्वन्तरस्यैव कस्यचित् विधानात् ।" हेतुबि० टी० पृ० ८१ । कर्ण० पृ०५२।
पृ० ११९. पं० ९. 'तदव्यतिरेकि अशुद्ध है । इस प्रकार शुद्ध करना चाहिए"सदबचि]तिरेकि" देखो, ऊपरका टिप्पण।।
पृ० १२०. पं० २. 'त्रीणाममोक्षम्' बीमोक्षकी दार्शनिक चर्चा संस्कृतमें शा कटा यनने सर्वप्रथम की हो ऐसा जान पडता है। उनके पहले चर्चा चल पड़ी थी इसमें तो संदेह महीं किन्तु उस चर्चाको व्यवस्थित रूप सर्व प्रथम उन्हींने दिया है यह इसलिये संभव जान पड़ता है कि सीमोक्षका समर्थन करनेवाले श्वेताम्बर दार्शनिक प्रन्य और बीमोक्षका निराकरण करनेवाले समस्त दिगम्बर दार्शनिक अन्य शाकटायमके श्रीमुक्ति प्रकरणको ही भाधारभूत मानकरके चलते हैं । वेताम्बर अपने पक्षके समर्थनमें उक प्रकरणका उपयोग करते है और दिगम्बर उक्त प्रकरणकी प्रत्येक युक्तिको पूर्वपक्षमें रखकर उसका खण्डन करते हैं। ___ भाचार्य जिन भद्र ने युक्तिपुरःसर वनका समर्थन करनेका प्रयन किया है किन्तु सीमुक्तिकी चर्चा उन्होंने नहीं की। आचार्य कुन्दकुन्द ने इस प्रश्नको उठाया है किन्तु वह दार्शनिक ढंगकी चर्चा न होकर आगमिक मालूम होती है। उनके बादही इस चर्चाने गंभीर रूप पकडा है इसमें तो संदेह है ही नहीं । पूज्य पाद जैसे आचार्य मात्र निषेध करके ही चुप रह माते हैं विशेष युकि नहीं देते । अकलंक ने भी विशेष चर्चा नहीं की।
प्रतीत होता है कि श्रीमुक्तिकी चर्चा प्रथम यापनीय और दिगम्बरोंके बीच शुरू हुई । यापनीयोंने स्त्रीमोक्षका समर्थन किया। उन्हींकी युक्तिओंको श्वेताम्बरोंने अपनाया । वाचार्य हरिभद्र ने इस चर्चाको चेताम्बरीय ग्रन्थोंमें प्रविष्ट की हो ऐसा जान पडता है । भाचार्य हरिभवने इस चर्चाको यापनीयोंसे लिया है इस विषयमें सन्देहको स्थान नहीं । क्योंकि उन्होंने ललितविस्तरामे इस विषयमें प्रमाणभूत यापनीय तरको साक्षी रूपसे उद्धृत किया है। ललितविस्तरा पृ० ५७।
इसके बाद तो यह चर्चा मुख्य रूपसे श्वेताम्बर और दिगम्बरोंके बीच हुई है। किन्तु दोनोंकी चर्चाकी मूल मित्ति शा कटायन का खीमुक्तिप्रकरण ही रहा है । उसीके आधार पर अमयदेव, प्रभाचन्द्र, वादीदेवरि और यशोविजयजीने इस चर्चाको उत्तरोत्तर पल्लवित की है।
प्रस्तुतमें शान्याचार्यने मी मुख्यरूपसे शाकटायनके प्रकरणको ही पूर्वोत्तरपक्षकी चर्चाका भाधार बनाया है जो तुलनासे स्पष्ट होगा। पृ० १२०. पं०५. रसत्रयस' तुलना
"मति मीनिर्वाण पुंषत् यदविकलहेतुकं लीषु । नविरुण्यते हि रखत्रयसपद निवृतेहेतुः॥" नीमु० २ । सन्मति० टी० पृ०
७५२ । न्यायक० पृ० ८३५। .. ..देखो वीमुकिकरणमें पूर्णपक्ष । ३. विशेषा० गा० २५५८ से। सूत्रप्राभूत (षट्माम तान्तर्गत) गा० २३-२६ । ४. सर्वार्थः १०.९ । बाजवा पृ० १६६। ५. सम्मति टी०पू०७५१ । न्यायकु०पू०८६५ । प्रमेयक० पू० ३२८ । शासवा० यशो० पृ०४२४४३० । स्थाबाद (डित) पृ० १९२२ ।
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दिपणानि [०११०.०९- पृ० १२०.५०९. 'यदविकल तुलना-सन्मति० टी० पृ० ७५२ पं० १०॥ पृ. १२०.५० ५. 'बमानो मिहिने तुलना"रसायं
विलीन यथामपदिमावेन। इति वामा नात्र प्रमाणमातागमोऽन्यद्वा ॥ जानीते जिनवचनं भवतेवरति चार्यिकाऽशवलम् ।
मास्यास्यसमवोऽस्यां नाराविरोधगतिरस्ति ॥ सौमु०३,४। पृ० १२०. पं० ११. 'अथावस्ताद तुलना
"सप्तमपृथिवीगमवायभावमव्यानमेव मन्यन्ते।
निर्वाणामावेनापश्चिमतनवो न तां यान्ति ॥” स्त्रीमु० ५। सन्मति० टी० पृ० ७५२. पं० ३६ । प्रमेयक० पृ० ३२८ । न्यायकु० पृ० ८०६ । पृ० १२०. पं० २१. 'नोत्कृष्टधुता तुलना
"वादविकुर्षणत्वादिलब्धिविरहे भुते कनीयसि च । जिनकल्पमनापर्ययविरहेपि न सिद्धिविरहोऽस्ति ॥ बादादिलब्ध्यभाववद् अभविष्यद् यदि च सियभावोपि । तासामधारविष्यद् यथैव जम्बूयुगादापत् ॥" मीमु० ७८ । न्यायकु०
पृ०८६७। पृ० १२०. पं० २५. 'न च वस्त्रेण तुलना
"यदि वसादविमुक्तिः त्यजेत तत्, अथ न कल्पते हातुम् ।
उत्सङ्गमतिलेखनवद्, अन्यथा दूषको दूप्येत ॥” इत्यादि । सीमु० १०-२१ । सन्मति० टी० पृ० ७४७,७४९ । न्यायकु० पृ० ८६८ । प्रमेयक० पृ० ३३० । पू० १२१. पं० १२. 'अवन्या' तुलना
"अप्रतिवन्धत्वात् पेत् संयतवर्गेण मार्यिकासिद्धिः। .
बन्यतां ता यदि ते नोनत्वं कल्प्यते तासाम् ॥" इत्यादि स्त्रीमु० २४-२६ । सन्मति० टी० पृ० ७५४ । न्यायकु० पृ.८६९ । प्रमेयक० पृ० ३३०। पृ० १२१. पं० १८. 'अतिसंक्लिष्टत्वाव' तुलना
"महता पापेन सीमिथ्यात्वसहायकेन न सुदृष्टिम् ।
बीत्वं चिनोति, तत्र तदने क्षपणेऽपि निर्मानम् ॥” स्त्रीमु० ३३ । पृ० १२१. पं० १९. 'मायाप्रधानत्वात्' तुलना
"मायादिः पुरुषाणामपि देशाधि(वेषादि प्रसिद्धभावन।
षणां संस्थानानां तुल्यो वर्णत्रयस्यापि ॥" स्त्रीमु० २८। सन्मति० टी० पृ० ७५४ । न्यायकु०८३९।।
पृ० १२१. पं० २०. 'शीलाम्बु' तुलना-स्त्रीमुं० २९-३०,३२ । पृ० १२१. पं० २५. 'अड्डसमय' तुलना-स्त्रीमु० ३५-४०।। पृ० १२२. पं० ६. 'चतुर्दश' तुलना-स्त्रीमु० ४१ ।
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परिशिष्ट १. न्यायावतारकी तुलना।
कारिका १. "लपरावमालकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम्।" बृहत्स्व० ६३ ।
"प्रत्यक्षं च परोक्षं च द्वे प्रमाणे तथा मते" षड्द० ५५। "प्रत्यक्षं विशदं पानं मुख्यसंव्यवहारतः। परोसं शेषविज्ञानं प्रमाणे इति संग्रहः ॥" लघी०३। "प्रत्यक्ष विशदंशानं विषा भुतमविप्लवम् । परोसं प्रत्यभिज्ञादि प्रमाणे इति संग्रहः॥" प्रमाणसं का०२ । न्यायवि०
४३९,४७०। "व्यवसायात्मकं शानमारमार्थप्राहकं मतम् । प्ररणं निर्णयस्तेन मुख्यं प्रामाण्यमझते। तत्प्रत्यक्ष परोसंच विषैवाचान्यसंविदाम् । अन्तर्भावान युज्यन्ते नियमाः परकल्पिता" लघी० ६०,३१ । "सापूर्वाधव्यवसायात्मशानं प्रमाणम्। . तदेवा। प्रत्यक्षेतरमेदात् ॥" परी० १.१.२.१,२। "खपरव्यवसापि प्रमाणम् ।" प्रमाणन० १.२।
"तद् छिमेदं प्रत्यक्षं च परोक्षं च ॥" प्रमाणन० २.१ । प्रमालक्ष्मकी प्रथम कारिका यही है । वार्तिक और वृत्तिकार शान्त्याचार्य और प्रमालक्ष्मकार जिनेबरने 'द्विधा मेयविनिश्चयाद' इस पयांशको प्रमाणविप्लववादके अर्थमें व्याख्यात किया है और तात्पर्य निकाला है कि प्रमाणभेद प्रमेयमेदाधीन है, देखो, टिप्पण पृ०२१७-२१८। इस सिद्धान्तके लिये तुलना करो, दिमाग-प्रमाणसमु० वृ० १.२।
"न प्रत्यक्षपरोक्षाभ्यां मेयस्यान्यस्य संभवः। तस्मात् प्रमेयद्वित्वेन प्रमाणद्वित्वमिष्यते॥ ज्येकसंख्यानिरासो वा प्रमेयस्यदर्शनात् ।" प्रमाणवा० २.६३,६४।
"मानं द्विविध विषयद्वैविध्यात्।" वही २.१ । का०२-३. "शालं मोहनिवर्तनम्" प्रमाणवा० १.७ ।
"असंमोहाय लक्षणम्" प्रमाणवा ४.२८ । "यदि तर्हि व्यवहारेण प्रामाण्यं प्रमाणलक्षणशास्त्रं तर्हि किमर्थम् ? शास्त्रं हि निई (१) ममिन वचनमात्रात्तथा भवति अपितु व्यवहाराविसंवादादेव।सचेदस्ति व्यर्थक शाखामियाह "शालं मोहनिधर्तनम्"-प्रमाणवा० अ० पृ० ३६ । पृ० ७७४ ।
"धर्मार्थिभिः प्रमाणादेर्लक्षणं न तु युक्तिमत् । प्रयोजनाचमावेन तथा चाहमहामतिः॥
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२८८
परिशिष्ट ।
[का०६-. प्रसिद्धानि प्रमाणानि व्यवहारब तत्कृतः। प्रमाणलक्षणस्योको ज्ञायते न प्रयोजनम ॥" हरि० अष्टक० १३.४,५। "प्रामाण्यं यदि शासगम्यमयन प्रागर्थसंवादनात्, संख्यालक्षणगोचराकथने किं कारणं घेतसाम् । आशातं सकलागमाविषयज्ञानाविरोधं दुधार,
प्रेक्षन्ते तदुदीरितायंगहने सन्देहविच्छित्तये ॥" न्यायवि० ३८५। का०४. यही क्रारिका षड्दर्शनसमुचयमें शम्दशः है-षड्द० का० ५६ ।
"प्रत्यक्ष विशवं शानम्" लघी० ३।। "अनुमानायतिरेकेण विशेषप्रतिमासनम् । तबेशचं मतं बुद्धेरवैशयमतः परम् ॥" लघी०४। "प्रत्यमलमणं प्राहु रूप साकारमजसा।" न्यायवि०३। "प्रत्यक्षमाला पपम्" वही १६९ |
"सामाइतिर्हि प्रत्यक्षम्" प्रमाणवा० अलं० पृ० ३१ । "एवं तर्हि कथं प्रत्यक्षानुमानयोः लक्षणमेदः । उकमत्र । स्पष्टेतरतिमासमेदात् ।"
वही पृ० ३०७।
विशेष तुलनाके लिये देखो 'वैशष' शब्दका टिप्पण पृ० २३७।। का० ५. "त्रिकपालिङ्गतोऽयंरक" प्रमाणसमु० परि० २ । न्यायबि० पृ० २९
__न्यायप्र० पृ० ७. पं० १४ । "लिसात् साध्याविनामावामिमिवोधैकलक्षणात्।
लिङ्गिधीरनुमानम् ॥" लघी० १२,१३ । न्यायवि० १७० । परी० ३.१४ । प्रमाणन० ३.१० । प्रमाणमी० १.२.१३ । प्रमालक्ष्म २१,४५। .
का०५-७. यहाँ प्रो० वैध और जेकोबीका यह कहना है कि प्रस्तुतमें जो अनुमानमें भान्तताका निवारण किया गया है वह धर्मकीर्तिक मतका निराकरण है क्योंकि धर्मकीर्तिने ही सर्व प्रथम प्रत्यक्षको अभ्रान्त कह कर यह सूचित किया था कि अनुमान प्रान्त होता है।
अन्य सुनिश्चित प्रमाणोंसे जब सिद्धसेनका समय. धर्मकीर्तिके पूर्वमें ही स्थिर होता है तब प्रस्तुतमें यह दलील नहीं दी जा सकती कि इन कारिकाओंमें धर्मकीर्तिका खण्डन है। तब मी इस अमान्तपदके विषयमें जो यह कहा जाता है कि सर्व प्रथम धर्मकीर्तिने ही इसे प्रत्यक्ष लक्षणमें प्रयुक्त किया है, उसका मी निराकरण आवश्यक है। प्रत्यक्ष लक्षणमें अप्रान्त पदकी योजनाका इतिहास बताते समय प्रो० चारबिट्स्कीने स्पष्ट ही कहा है कि सर्वप्रथम असं गने अभ्रान्तपदका ग्रहण किया था । किन्तु दिमाग ने उसे अनावश्यक समझ छोड दिया । और फिर धर्म की ति ने उसका ग्रहण किया।
वस्तुतः असंगसे मी पहले सौत्रान्तिक मैत्रेयनायने उसका ग्रहण प्रत्यक्ष लक्षणमें किया या। इतनाही नही किन्तु धर्मकीर्तिके 'तिमिरांशुभ्रमणनीयानसंक्षोभाधनाहितविभ्रमम्'
1. Buddhist Logie Vol. I. p. 155. Sanmati Tarka-Intro. p. IS. १. Journal of the Royal Asiatic Society 1929. p.464.
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का०६-७] १. न्यायावतारको तुलना। (न्यायबि० पृ० १६ इस सूत्रका मूल मी उतनाही पुराना है । मैत्रेयनापने सात प्रकारके अम बताए हैं और उन प्रमोंसे रहितको अभान्त कहा है।
न्याय बिन्दु टीकाटिप्पणमें मल्लवादी ने कहा है कि वस्तुतः यो गा चार की दृष्टिसे प्रत्यक्ष लक्षणमें अभ्रान्त पद अनावश्यक होते हुए भी धर्म की र्ति ने सौत्रान्ति ककी दृष्टिसें अभ्रान्तपदका प्रहण किया है। इससे स्पष्ट है कि अभ्रान्तपद यह धर्मकीर्तिकी नई सूस नही किन्तु योगाचारके पूर्ववर्ती सौत्रान्तिकका अनुकरण है । इस बातको प्रो० एचीने स्पष्ट शब्दोंमें स्वीकार किया है।
वस्तुतः देखा जाय तो योगा चार निरालम्बनवादी हैं । अतएव प्राह्यप्राहकमावको लेकर जो मी प्रमाणाप्रमाण व्यवहार है उसे भ्रान्त ही मानते हैं । उनके मतमें न सिर्फ अनुमान ही, न सिर्फ प्रत्यक्ष ही, किन्तु समी बाह्यालम्बन प्रत्यय भान्त हैं । अनुमानके लक्षणको समाप्त करके क्रमप्राप्त प्रत्यक्षको अनान्तता सिद्ध करनेके माप अमुमानकी अधान्तता सर्वप्रथम सिद्ध की गई है इसीसे यह अम होता है कि सिंद्ध से न धर्म की र्ति का खण्डम कर रहा है क्योंकि धर्मकीर्तिके टीकाकारोंने प्रत्यक्षमें अमान्तपद देखकर 'भ्रान्तं हि अनुमान न्याय वि०टी० ए०१३) कहा है तथा स्वयं धर्मकीर्तिने-“ममिमायाविसंवादादपि प्रान्त प्रमाणता" प्रमाणवा० २.५६) कहा है।
लिइसेनने अनुमानको अमान्त सिद्ध करने के लिये जो अनुमानप्रयोग किया है उसमें 'समक्ष'- प्रत्यक्षको दृष्टान्त बनाया है । 'प्रत्यक्ष' को मी पूर्वपक्षीने भ्रान्त माना है। तमी तो सिंद्धसेनको यह कहना पड़ा है कि “म प्रत्यक्षमपि प्रान्तं प्रमाणत्वषिनिमयात्।। (६) इस्मादि । पूर्वपक्षी सिर्फ अनुमान या सिर्फ प्रत्यक्षको ही भ्रान्त मामता हो यह बात नहीं किन्तु उसने तो सकल प्रतिभासको ही भान्त माना है। तभी तो सिद्धसेन ने अन्तमें कह दिया कि "सकलप्रतिमासस्य भ्रान्तत्वासिद्धितः स्फुटम् ।" (७) इत्यादि । ऐसी स्थितिमें सिद्धसेनके सामने पूर्वपक्षीके रूपमें धर्मकीर्ति नहीं है क्योंकि उन्होंने तो प्रत्यक्षको स्पष्टरूपसे अमान्त
कहा ही है।
अतएव जब बनान्तपदका प्रयोग धर्मकीर्तिसे भी पहलेके मैत्रेयनाथके योगाचारभूमिशास्त्र में मिलता है और धर्मकीर्तिका खण्डन उपर्युक्त युक्तिसे संभव नहीं तब यही मानना पड़ता है कि प्रस्तुतमें योगाचार सम्मत निरालम्बनवादके 'सर्वमालम्बने भ्रान्तम्" इस सिद्धान्तका ही खण्डन है।
पोगाचारमतमें वस्तुके तीन प्रकारके खमाव माने गये है-कल्पित, परतन्त्र और परिनिष्पक्ष । लोकमे जो वस्तुएँ मिन मिन आकार प्रकारकी दीखती हैं यही परतन खभाव है। परिनिष्पन-परमार्थ प्राह्यप्राहकभावशून्य है किन्तु संवृतिके कारण ग्राह्यग्राहकरूपसे परमार्थका प्रहण होता है-यही तो अम है । इसका निरूपण अनेक प्रकारसे योगाचारके ग्रन्थों में दुणा है और इसी निरालम्बनवादका प्रस्तुतमें खण्डन है । अतएव यहाँ सिद्धसेनके पूर्ववर्ति प्रन्यों से कुछ अवतरण दिये जाते है जिनमें भ्रम-भ्रान्ति जैसे शब्दोंका ग्रहण हुआ है
..देखो, वही p. 464। २. वही। ३. विवरण के लिये देखो. प्रमाणवा मलं०पू०४१४ । म्यायपिम्बुढीकाटिप्पण पू०१९ ।
ज्या०३०
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परिशिष्ट ।
[ का० ८-९
"थ एव कल्पितो भाषः परतन्त्रः स एव हि ।" लंका० १०.२९८ । "भ्रान्तिनिमित्तं संकल्पः परतन्त्रस्य लक्षणम् ।" वही १०.१३८ । "तेन प्राह्यग्राहकेण परतन्त्रस्य सदा सर्वकालमत्यन्तरहितता या स परिनिष्पन्नस्वभावः " विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि पृ० ४० ।
"भ्रान्तेः सन्निभयः परतन्त्रः " महायानसूत्रालंकार पृ० ५८ । "विद्यते भ्रान्तिभावेन यथास्यानं न विद्यते ।
परतन्त्र यतस्तेन सदसलक्षणो मतः ॥” त्रिस्वभाव निर्देश १२ ।
२९०
"यथा मायायापरिगृहीतं भ्रान्तिनिमित्तं काष्ठलेोष्ट्रादिकं तथाऽभूतपरिकल्पः परतन्त्रः स्वभावो वेदितव्यः । यथा मायाकृतं तस्यां मायायां हस्त्यश्वसुवर्णाद्याकृतिस्तद्भावेन प्रतिभासिता तथा तस्मिन्नभूतपरिकल्पे द्वयभ्रान्तिग्राह्यग्राहकत्वेन प्रतिभासिता परिकल्पितस्वभावाकारा बेदितव्या ।” महायानसूत्रालंकार पृ० १५ ।
दिमाग ने प्रत्यक्षमें अभ्रान्तपदका ग्रहण नहीं किया है अतएव वह और तदनुसारी अन्य विभ्रमको भी प्रमाण मानते हैं (देखो तस्वसं० का० १३२४ ) उसीको लक्ष्यमें रखकर ही सिद्धसेनने कहा है कि - "भ्रान्तं प्रमाणमित्येतत् विरुद्धं वचनं यतः " -
तुलना - "पीतशंखादिबुद्धीनां विभ्रमेपि प्रमाणताम् । अर्थक्रियाऽविसंवादादपरे संप्रचक्षते ॥” तत्त्वसं० का० १३२४ |
न्याया० की प्रस्तुत कारिकाओंकी तुलना - न्यायवि० का० ५१-५४, तथा प्रमालक्ष्म १६७ से करना चाहिये ।
अभिन्न हों। इस कारिकामें
कारिका ८- ९, “ विकल्पयोनयः शब्दाः विकल्पाः शब्दयोनयः ।” इत्यादि कारिकाको हरिभद्रने' भदन्त दिनकी कही है। संभव है दिन और दिग्नाग प्रतिपादित सिद्धान्त कि शब्दका संबन्ध बाह्यार्थसे नहीं है, शब्द करते, शब्द विकल्पसे उत्पन्न होते हैं और विकल्पको उत्पन्न करते हैं, आचार्य धर्मकीर्तिने भी अपनाया है और समर्थन किया है ।
बाह्य अर्थका प्रतिपादन नहीं
"अनादिवासनोद्भूत विकल्पपरिनिष्ठितः शब्दार्थः” प्रमाणवा० ३.२०४ |
" शब्दार्थः कल्पनाज्ञानविषयत्वेन कल्पितः ।
धर्मो वस्त्वाश्रयासिद्धिरस्योक्ता न्यायवादिना ॥" वही २११ ।
"विकल्पवासनोद्भूताः समारोपितगोचराः ।
जायन्ते बुद्धयस्त केवलं नार्थगोचराः ॥" वही २८६ ।
उन्होंने स्पष्ट ही कहा है कि शब्द परम अर्थका वाचक कभी नहीं हो सकता । अन्यथा एक ही अर्थ प्रतिपादनमें दार्शनिकोंका विवाद क्यों होता -
"परमार्थैकतानत्वे शब्दानामनिबन्धना ।
न स्यात् प्रवृत्तिरर्थेषु दर्शनान्तर मेदिषु ॥" वही २०६ |
इसी सिद्धान्त विरुद्ध प्रस्तुत कारिकामें 'परमार्थाभिधायिनः' तथा " तत्वोपदेशकृत " विशेषण दिये गये हों तो आश्चर्य नहीं ।
१. अनेकान्तज० पृ० ३३७ ।
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२९१
का० ९-१२] १. न्यायावतारकी तुलना ।
और भी तुलना करो___ "सम्बधानुगुणोपायं पुरुषार्थाभिधायकम् ।
परीक्षाधिकृतं वाक्यमतोमधिकृतं परम् ॥” वही २१५॥ इस कारिकाकी व्याख्या और प्रस्तुत न्याया० की कारिकाकी सिद्धर्षिकृत व्याख्यामें अत्यधिक साम्य है। धर्मकीर्तिने शास्त्रका लक्षण इस प्रकार किया है
"शासं यत् सिद्धया युक्त्या खवाचा पन बाध्यते।
दृष्टेऽदृष्टेऽपि तद् प्रायमिति चिन्ता प्रवर्तते ।" वही ४.१०८ ॥ और भी तुलना करो-न्यायसू० १.१.७-८ । शास्त्रवा० २. २८ प्रमाणसं० ६३ । लघी० २८ । न्यायवि० ३८७ । परी० ३. ९९ । प्रमाणन० ४. १।
कारिका ९. यह कारिका रत्नकरण्डश्रावकाचारमें भी है । प्रो० हीरालालने वर्ष ८ के 'अनेकान्त' मासिकमें निश्चित किया है कि रनकरण्डश्रावकाचार समन्तभद्रकृत नहीं । पंडित सुखलालजीने यह सिद्ध किया है कि प्रस्तुत कारिका न्यायावतारकी ही है । ऐसी स्थिति में यही कहना चाहिए कि रत्नकरण्ड में ही न्यायावतारसे यह कारिका लीगई है।।
कारिका १०. खनिश्चयवदन्येषां निश्चयोत्पादनेच्छया" यह वाक्य दिमागका हैप्रमाणवा० अ० पृ० ५४१ । ५७२ । “परार्थमनुमानं तु खरष्टार्थप्रकाशकम्"-इस दिमागकृत परार्थानुमानकी तुलना न्याया० के परार्थमानके साथ करने योग्य है । इस लक्षणवाक्यके लिये देखो, प्रमाणवा० मनो० ४.१ । श्लोकवा० निरा० न्यायरत्ना० पृ० २५२ । प्रमाणवा० अलं० पृ० ५७२।
इसी प्रकार प्रशस्तपादमें भी परार्थानुमानके लक्षणमें 'खनिधितामतिपादनम्' यह पद पड़ा हुआ है-प्रशस्त० पृ० ५७७ । माठर०५।
कारिका ११-१२. 'द्वयोरपि' इसमें 'अपि' पदके द्वारा और १२ वी संपूर्ण कारिकासे न्यायावतारकारने यही सूचित किया है कि अनुमानकी तरह प्रत्यक्षको भी परार्थ मानना चाहिए ।
दिमागने अनुमानके ही खार्थ-परार्थरूप दो मैदोंकी स्पष्टता की है । न्यायप्रवेशके प्रथम पथ. "साधनं दूषणं चैव साभासं परसंविदे।
प्रत्यक्षमनुमानं च साभासं त्वात्मसंविदे" ॥ से यही सूचित होता है । धर्मकी ति ने उन्हींका अनुकरण किया है । धर्मकीर्तिके टीकाकार प्रज्ञा कर ने इन शब्दोंमें प्रत्यक्षकी परार्थताका निराकरण किया है -
"यद्यनुमानोत्पादनाद्वचनम् अनुमानं प्रत्यक्षोत्पादनात् वचनमपि परार्थ प्रत्यक्षं भवेत् । नेदं चतुरस्त्रम् -
यथा गृहीतसम्बन्धसरणे वचनात् सति ।
अनुमानोदयस्तद्वन्न प्रत्यक्षोदयः कचित् ॥ १. उत्तरा इस प्रकार है-"पक्षधर्मत्वसम्बन्धसाध्योक्तेरन्यवर्जनम् ।" यह कारिका प्रमाणसमुख्यकी है-प्रमाणवा० अलं० पृ०५७२ ।
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[१२-१३ निकपलिजसरणे नियमेनानुमोदयः।
समतीतापमाणस्य वचनेभ्यक्षवितु॥ नपचनमाजावभ्यक्षं परस्योदेति । ननु 'पश्य मृगो धावति' इति श्यते दर्शनोदयः । ना तत्राप्यनुमानत्यानन्तरत्वात् । तथाहि
तदयोन्मुखवायां स पश्यत्येवं नियुज्यते।
मया प्रतीतमेतब सामर्थ्यात्प्रतिपादितम् ॥ 'ममिमुखी भव मृगदर्शने' इति नियोमवचनमेव । अमिनुलीमाया यथा मम तथा तवापि । तत एषममिमुखीभवने हेतूनां व्यापार इति सरन् प्रपर्वत इति अनुमानमेव ।" प्रमाणवा० अलं० पृ० ५३४।
बौ छों ने परार्थ प्रत्यक्ष इसलिये नहीं माना है कि प्रत्यक्षार्य - खलक्षण-वचनमोचर नहीं। इसके विपरीत जैनों ने प्रत्यक्षगोबरको वाच्य माना है। उसी दृष्टिसे प्रस्तुतमें पराप्रपाकी कल्पना की गई है। अकलंक आदि किसी जैनदार्शनिकने प्रत्यक्षकी परार्यता प्रतिपादित नहीं की है। सिर्फ देव सूरि ने न्यायावतारका आश्रय लेकर परार्थ प्रत्यक्षका वर्णन किया है (स्याद्वादर० पृ० ५५७ ) यह एक आश्चर्य है।
म्या य प्रवेश की टीकामें हरिभद्र ने कहा है-“साधनदूषणे एव सामासे परसविदे परावबोधाय, न प्रत्यक्षानुमाने । प्रत्यक्षानुमाने एव सामासे आत्मसंविदे मात्मावबोधाय, न साधनको मात्मसंविफलत्वात् तयोः।" न्यायप्र० वृ० पृ० १०-११।।
कारिका १३. दिनागने परार्थ अनुमानका लक्षण दो प्रकारसे किया है एकमें तो हेनुवचनको और दूसरेमें पक्षादिवचनको पराप अनुमान कहा है। उन दोनों प्रकारका समावेश सिबसेनने प्रस्तुत कारिकामें किया है।
"पक्षादिषचनानीति साधन" यह न्यायमुखमें पसर्व अनुमानका क्षप है प्रतीका अनुकरण न्यायप्रवेशमें है-यथा
"तत्र पतादिवचनानि साधनम्, पसहेतुष्टान्तवावरि मालिकानाममतीतो मतिपायत इति ।" इस लक्षणका ग्रहण सिद्धसेनने इन शब्दोंमें किया है-"तत् पक्षादि. वचनात्मकम्।"
प्रमाणसमुच्चयमें परार्थ अनुमानका लक्षण दिमागने किया है कि "परार्थमनुमानं तु खडष्टार्थप्रकाशनम्" इस वाक्यांशमें 'अर्थ' शब्दका अर्थ 'हतु' है ऐसा मीमांसाश्लोकवार्तिकके निम्नपद्यसे सूचित होता है
"नच व्याप्रियतेऽन्यत्र वचनं प्रानिकान् प्रति ।
खनिश्चयाय यो हेतुस्तस्यैव प्रतिपादनात् ॥” पृ० २५३ । इतना ही नहीं किन्तु प्रज्ञाकर और मनोरथनन्दीने दिमागके उक्त लक्षणकी जो व्याख्या की है उससे भी फलित यही होता है कि हेतुवचन परार्थ अनुमान है__ "खेन दृष्टं खदृष्टं वादिप्रतिवादिभ्यां खडष्टस्य इत्यर्थः । यदि प्रालिकास्तेषामपि, [वादे] तेषामधिकारात् ।"तत्र खदृष्टोऽर्थः त्रिरूपम् लिकम् ।" प्रमाणवा० अलं. पृ०५३३ ।
१.प्रमाणपा० मनो० में उद्धत-पृ०४१३। श्लोकवा० निरा० न्यायरता में उड़त पृ०२५२।
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का० १३-१६] १. न्यायावतारकी तुलना ।
२१३ "तत्र 'परार्थमनुमान [तु] खदृष्टार्थप्रकाशनम्' इति आचार्यायलक्षणम् । खेन पर सदृष्टः । वहष्टबासावर्थश्चेति त्रिरूपो हेतुः । तस्य प्रकाशनं वचनम् , अनुमानहेतु. स्वादित्यर्थः।" प्रमाणवा० मनो० ४.१ ।
प्रमाणसमुच्चयवृत्ति जो दिमागकृत ही है उसका एक वाक्य प्रज्ञाकरने उद्धृत किया है उससे भी यही प्रतीत होता है कि दिमागको हेतुवचन परार्थानुमानरूपसे इष्ट था-"ततः 'त्रिरूपलिङ्गाल्यानं परार्थानुमानम्' इति प्रमाणसमुच्चयवृत्तिर्विरुभ्यते ।" प्रमाणवा० अलंक पृ० ५३५। __ इस दिमागप्रोक्त लक्षणका भी संग्रह सिद्धसेनने इन शब्दोंमें किया है - साध्याविनासुको हेतोचो यत् प्रतिपादकं ।"
तुलना-“पश्चावयवेन वाक्येन स्वनिश्चितार्थप्रतिपादनं परार्थानुमानम्" प्रशस्त. पृ० ५७७ । मार० ५। "त्रिरूपलिकाख्यानं परार्थानुमानम्" न्यायबि० पृ० ६१ । परी० ३.५५, ५६ । प्रमालक्ष्म का० ५५ । प्रमाणमी० २.१.१-२ । प्रमाणन० ३.२३ ।
कारिका १४-१६. दिमागने पक्षका लक्षण दो प्रकारसे किया है। एक है न्यायमुखमें और दूसरा है प्रमाणसमुच्चयमें । विशेषता यह है कि न्यायमुखमें स्वयंशब्दवर्जित पक्षलक्षण है तब प्रमाणसमुच्चयमें खयंशब्दसहित । न्यायमुखमें पक्षका लक्षण यह है
"साध्यत्वेनेप्सिता पक्षो विरुद्धार्थानियकृतः।" इसके लिये देखो प्रमाणवा० अलं० पृ० ११३, १२८, ३३४ । प्रमाणवा० मनो०८३ । प्रमाणसमुखयमें पक्षका लक्षण इस प्रकार है
"सपणेव निर्देश्यः स्वयमियोऽनिराकृतः।" इसके लिये देखो, प्रमाणवा० अलं० ६७६ । प्रमाणवा० मनो० ४. २८ ।
पक्षप्रयोग कर्तव्य है या नहीं इसके विषयमें दिग्नागका मन्तव्य क्या हो सकता है तत्सम्बन्धी प्रकाश हमें पूर्वोक्त दिमागकथित परार्थानुमानके लक्षणोंसे मिलता है । देखो, कारिका १३ की तुलना। __ न्यायमुखके लक्षणके अनुसार तो पक्षका वचन परार्थानुमानमें होता है ऐसा फलित होता है किन्तु प्रमाणसमुच्चय जो उनके भिन्न भिन्न अनेक ग्रन्थोंके मन्तव्योंका विकसित निष्कर्षमात्र है उसमें तो उन्होंने जो लक्षण परार्थानुमानका किया है उससे यही फलित होता है कि दिमागको पक्षप्रयोग अभिमत नहीं था क्योंकि उसने प्रमाणसमुच्चयमें परार्थानुमानका जो लक्षण किया है उसका अर्थ कुमारिलसे लेकर बादके सभी टीकाकार जो करते हैं उससे यही फलित होता है कि हेतुवचन परार्थ अनुमान है । खयं दिनागने प्रमाणसमुच्चयकी वृत्तिमें त्रिरूपलिङ्गाख्यानको परार्यानुमान कहा है । इसका मतलब यही होगा कि पक्षप्रयोग अनावश्यक है । देखो, पूर्वोक्त १३ वी कारिकाकी तुलना।
प्रमाणसमुच्चयके वार्तिककार धर्मकीर्तिने पक्षप्रयोग अनावश्यक बताया है (प्रमाणवा० १.१६-२७ ) वह उनकी खतन्त्र सूझ नहीं किन्तु उन्होंने यह स्पष्ट ही कहा है कि खयं
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२९४
परिशिए ।
[० १६-१४
दिशागको भी यही बात इष्ट थी । इससे भी यही कहा जा सकता है कि दिज्ञानको पक्षवचनअमीष्ट नहीं था । दिग्नागकी एक कारिका इस प्रकार है
"स्वनिश्चयवदन्येषां निधयोत्पादनेच्छया ।
पक्षधर्मत्वसम्बन्धसाध्यो केन्यवर्जनम् ॥”- प्रमाणवा० अक० में उद्धत पू०
५७२ ।
इस कारिकामें आये हुए 'साध्योति' शब्दसे पक्षप्रयोगको आवश्यक समझनेवाले शंका करते थे कि दिमागने पक्षप्रयोग आवश्यक माना है किन्तु इस शंकाका निरास जयं धर्मकीर्ति किया है तथा प्रज्ञाकरने उक्त कारिकाके अर्थको स्पष्ट किया हैं उससे ज्ञात होता है कि दिग्नागको पक्षप्रयोग अभीष्ट नहीं था ।
यही
“हेत्वर्थविषयत्वेन तदशकोकिरीरिता ।” प्रमाणवा० ४.१८ ।
"तु आचार्यस्य पक्षवचनमसाधनत्वेनेडमिति कथं ज्ञायत इत्याह- हेतोरचे साच्यः, स विषयोऽस्य इति हेत्वर्थविषयः तरवेन साध्यार्थोपदर्शकत्वेन तस्य पक्षवचनंस्य साम्यसाधनं प्रति मशकस्य उतिरीरिता- निर्दिष्टा माचार्येण - 'तत्रातुमेषनिर्देशो हेत्वर्थविषयो मतः" इत्यनेन प्रभ्येन । ततो ज्ञायते पक्षवचनमसाधन मिष्ठमाचार्यस्येति । मनो० ४.१८ ।
प्रज्ञाकरने दिमागी उक्तकारिकाके अंशका इस प्रकार व्याख्यान किया है- "बलाकं तु योऽनुमेयनिर्देशः सहेत्वर्थविषयत्वेन, म साधनत्वेन, अतः साक्षात् साधनत्वप्रतिपाद तस्य साध्यस्य उत्तरशकता कबिता । कथं तर्हि - पक्षधर्मत्वसम्बन्धसाध्योकि निर्देशाभ्युपगमः । नास्यायमर्थः- पक्षधर्मका सम्बन्धच साभ्योतिवेति । अपि तु सम्बन्धोकिसंगता साभ्योकि सम्बन्धसाप्योतिः । यत् कृतकं तदनित्यमिति व्यात्यन्तर्गता साग्यो कर्म प्रतिज्ञारूपेण । अवश्यं हि साधने व्यापकत्वं साम्पत्योपदर्शनीयम् ।" प्रमाणवा• अलं० पृ० ५७२ ।
दिनागके न्यायमुखके किसी टीकाकारने पक्षप्रयोग संबंधी पूर्वपक्षका जो परिहार किया था वह परिहार भी धर्मकीर्तिको जंचा नहीं और उसने उक्त पूर्वपक्ष और परिहार दोनोंको विडम्बना मात्र बताया है - इससे भी यही फलित होता है कि पक्षप्रयोगकी अनावश्यकता बतानेवाले धर्मकीर्ति नहीं किन्तु दिमाग है- प्रमाणवा० मनो० ४. २७ । प्रवाणवा० अलं० पृ० ५८२ ।
इस बातकी साक्षी भर्तृहरि भी देते हैं कि पक्षप्रयोगकी अनावश्यकता बौद्धोंने सिद्ध की थी। भर्तृहरि धर्मकीर्ति से पहले हुए हैं। अत एव यह कहा जा सकता है कि धर्मकीर्तिके भी पहले पक्षाप्रयोग बौद्धपरंपरामें प्रतिपादित हुआ था । संभवतः वह कथन दिनागके मन्तव्यको लेकर ही हो - वाक्य० कां० ३. पृ० १०९ ।
सिद्धसेनने दिग्नागके इसी मन्तव्यका -
" तत्प्रयोगोऽत्र कर्तव्यो हेतोर्गोचरदीपकः ॥” इत्यादि कारिकाओं में निरास किया है ।
कारिका १४ ५०, न्यायसू० १.१.३३ । न्यायबि० पृ० ७९ । प्रमाणवा० ४.८६ । न्यायप्र० पृ० १ । न्यायवि० १७२ । प्रमाणसं० का० २० । परी० ३.२० । प्रमाणन ० ३. १४ । प्रमाणमी० १.२.१३ ।
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का० १४-२१] १. न्यायावतारकी तुलना ।
कारिका १४ उ०. परी० ३.३४ । प्रमाणन० ३.२८ प्रमाणमी० २.१.८॥ कारिका १६. प्रमाचन्द्रने इस उपमाका उपयोग किया है-न्यायकु० पृ० १३७ ।
कारिका १७. न्यायस० १.१.३४,३५ । न्यायप्र० पृ० १. पं० ८। न्यायबि० पृ० ६२-६३ । परी० ३.९४ । प्रमाणन० ३.२९-३२ । प्रमाणमी० २.१.४-६ । न्यायकु० पृ०:४२३ ।
कारिका १८-१९. न्यायसू० १.१.३६,३७ । असंगने दृष्टान्तके साधर्म्य और वैधर्म्य भेद माने हैं-J. R. A.S. 1929 p. 476. न्यायप्र० पृ० १, पं० १५ । न्यायवि० का० ३८० । परी० ३. ४७-४९ । प्रमाणन० ३.४२-४७। प्रमाणमी० १.२.२०-२३ । · कारिका २०. न्यायबिन्दुमें हेतुके साधर्म्य और वैधर्म्य प्रयोगसे ही साधर्म्य और वैधर्म्य दृष्यंत कैसे गतार्थ हो जाते हैं इसका धर्मकीर्तिने स्पष्टीकरण किया है अतएव पृथक् दृष्टान्तका विवरण अनावश्यक उन्होंने बताया है-न्यायबि० पृ० ११७-१२१ । प्रमाणसं० का० ३२,५० । न्यायवि० का० ३८१ । परी० ३.३७-४२ । प्रमाणन० ३.२८,३३-३८ प्रमाणमी० १.२.१८,१९।
प्रो० टूचीका कहना कि दिग्नागके पहले के कुछ बौद्धदार्शनिकोने दृष्टान्तका प्रयोग अनावश्यक माना है-देखो J. R.A. S. 1929. p. 487.
ऐतिहासिक क्रम यह जान पडता है कि जबतक हेतुका लक्षण सुनिश्चित नहीं हुआ था तबतक दृष्टान्तके बलसे ही साध्यको हेतुके द्वारा सिद्ध किया जाता था। जब तक ऐसी स्थिति रही तबतक हेतुके साथ दृष्टान्तका पृथक् अवयवके रूपमें प्रयोग नितान्त आवश्यक माना जाता था । किन्तु जबसे हेतुका लक्षण स्थिर हुआ यानि साध्य और साधनकी व्याप्तिका पता लग तब अन्तर्व्याप्तिका सिद्धान्त आविर्भूत हुआ और उसीके बलसे साध्यकी सिद्धि हेतुसे की जाने लगी। यह सिद्धान्त वसुबन्धु और दिग्नागसे पहले का है । वसुबन्धु और दिमागने फिरसे अन्तर्व्याप्तिके सिद्धान्तको मानते हुए भी दृष्टान्तकी उपयोगिता व्याप्ति स्मारकरूपसे मानी यानि दृष्टान्तको पृथक् अवयव न मानकर हेतुके ही अन्तर्गत कर लिया । अतएव फलितार्थ यह हुआ कि वह साधनावयव तो रहा नहीं किन्तु पूर्ववत् अत्यन्त निरुपयोगी भी नहीं माना गया और न एकान्त आवश्यक ही माना गया । यही सिद्धान्त धर्मकीर्तिका भी है।
आचार्य सिद्धिसेनका भी यही मन्तव्य है । जो उन्होंने १८-२० कारिकाओंमें प्रतिपादित किया है।
कारिका २१. "यत्पुनरनुमान प्रत्यक्षागमविरुवं न्यायामासः स इति ।" न्यायमा० १.१.१।
"प्रत्यक्षार्थानुमानाप्तप्रसिद्धन निराकृतः।" यह दिग्नागसंमत बाधित-निराकृत पक्षाभास है। दिमागकी इस कारिकाको प्रज्ञाकरने उद्धृत किया है-प्रमाणवा० अलं० पृ० ६७७ । विशेष तुलनाके लिये देखो-प्रमाणमी० भाषा० पृ० ८८।
1. "वडावहेतुभावौ हि दृष्टान्ते तदवेदिनः ।
क्यानते विदुषां वाच्यो हेतुरेव हि केवलः ॥" प्रमाणवा०३.२६ ।
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परिशिष्ट ।
[फा० २१-२८ दिमागके निराकृत पक्षाभासोका परिष्कृतरूप जैसा धर्मकीर्तिने स्थिर किया है-सिद्धसेनने भी कुछ ऐसा ही किया है
१ विभाग-प्रत्मक्षनिराकृत, अनुमाननि० खवचननि० आप्तनि० प्रसिद्ध० .२ धर्मकीर्ति
"
प्रतीति ३ न्यायावतार ,
लोकनिक सिद्धसेनसंमत खवचननिराकृत ययपि दिमागकी उक्त कारिकामें नहीं किन्तु दिनागसंमत है जो कि प्रशस्तपादमें तथा कुमारिलमें है-श्लोकवा० अनु० १२,६३ | Buddhisb Logic Vol 1, सिखसेनका लोकनिराकृत और दिमामका प्रसिद्धनिराकृत अमिन है। किन्तु लोक निराकृतसे. धर्मकीर्तिसंमत प्रतीतिनिराकृत अधिक व्यापक है । प्रतीतिमें धर्मकीर्तिने सकल निकाल्पज्ञानोंका समावेश किया है। किन्तु लोकप्रसिद्धिका क्षेत्र कुछ संकुचित है ऐसा लोकविरुद्धके उदारहणसे मालम देता है-"लोकविरुद्धो यथा शुचि नरशिराकपालम् ।" न्यायप्र० प्र० २. पं० २० । “प्रतीति निराकृतो यथा चन्द्र शशीति।" न्यायबि० पृ०८४ । प्रतीतिविरुद्धका यह धर्मकीर्तिका उदाहरण नया नहीं है । उसका उल्लेख धर्मकीर्तिसे भी पहले होनेवाले कुमारिलने सर्वलोकविरुद्धके उदाहरणरूपसे किया है
"चन्द्रशब्दाभिषेयत्वं शशिनो यो निषेधति।
स सर्वलोकसिद्धेन चन्द्रमानेन वाध्यते ॥" श्लोकवा० अनु० ६४,६५ । तुलना करो-परी० ६.१५-२० । प्रमाणन० ६.४०-४५ प्रमाणमी० १.२.१४ ।
कारिका २२-२३. 'ईरितम्' पद न्यायावतारके पूर्वोक्त हेतुलक्षणका स्मारक है, देखो का०१७॥
"अन्यथानुपपन्नत्वरहिता ये विडम्बिताः।
हेतुत्वेन परैस्तैषां हेत्वाभासत्वमीक्ष्यते ॥" न्यायवि० ३४३ । ३२३ । प्रमासं० का० ४०-५० न्यायवि० ३६५-७१ । न्यायप्र० पृ० ३. पं०८ । न्यायवि० ८८ से। परी० ६.२१-३९ । प्रमाणन० ६.४७-५७ । प्रमाणमी० २.१.१३-२१ । प्रमाणमी० भाषा० पृ० ९६-१०३।
कारिका २४-२५. देखो प्रमाणमी० भाषा० पृ० १०४-१०८। इन दोनों कारिकामें 'न्यायविदीरिता' शब्द है। संभव है 'न्यायविद्' शब्दसे दिमाग अभिप्रेत हो।
कारिका २६. देखो, प्रमाणमी० पृ० भाषा० १०८-१२४ । कारिका २७. देखो वही-पृ० २७ से । प्रमालक्ष्म २८२ ।
कारिका २८. "अज्ञानादेर्न सर्वत्र व्यवच्छेदः फलं न सत्।" प्रमाणसमुच्चयकी इस कारिका (१.२३) का खण्डन प्रस्तुत में है ।
"उपेक्षा फलमाद्यस्य शेषस्यादानहानधीः।
पूर्वा वाऽज्ञाननाशो वा सर्वस्यास्य खगोचरे ।" आप्तमी० १०२ । सर्वार्थ० १.१० । न्यायवि० ४७६ । परी० ५.१ । प्रमालक्ष्म ३१६ | प्रमाणन० ६.१-५॥ प्रमाणमी० १.१.३४,३८,४०
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का० २८-८] २. न्यायावतारवार्तिककी तुलना ।
२९७ वादी देवसूरिने केवलज्ञानका फल सुख भी है इस न्यायावतारके मतकी असंगति होनेसे उपेक्षा की है-स्याद्वादर० पृ० ९९५ ।
"ननु उपेक्षावत् केवलशाने सुखस्यापि फलत्वं वक्तुमुचितमन्यथा 'कवलस्य सुखोपेक्षे' इति पूर्वाधार्यवचनविरोधो दुष्परिहर इति चेत् । सत्यम् । किन्तु न सहदयक्षो. दामोऽयं केवलज्ञानस्य सुखफलस्वपक्षा, इत्युपेक्षितोऽस्माभिः । सुखस्य हि संसारिणि सवेधकोदयफलत्वम् । मुक्त तु समस्तकर्मक्षयफलत्वं प्रमाणोपपन्नम् । न पुनर्खानफलस्वम् ।" कारिका २९ "तत्वं त्वनेकान्तमशेषरूपम् ।" युक्त्यनु० ४७ ।
"अनन्तधर्मकं वस्तु प्रमाणविषयस्त्विह। "येनोत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं यत् सत् तदिष्यते ।
अनम्तधर्मकं वस्तु तेनोक्तं मानगोचरः।" षड्द० ५५,५७ । "ततः सिद्धं द्रव्यपर्यायात्मकं, उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं वस्तुतत्वमन्तर्बहिश्च प्रमेयम् । एकान्तस्यानुपलब्धेः तदनेकान्तात्मार्थः।" लघी० स्व०९। लघी० ६२।
"व्यावहारिकप्रकृत्यादिप्रक्रियाप्रविभागेन यथा पारमार्थिकादनेकान्तात्मकादादपोत्य तदंशमेकान्तं व्यावहारिकं तत्प्रतिपत्त्युपायं प्रकाशयन्नयो न मिथ्यात्वमनुभवेत्, निरपेक्षत्वस्यैव मिथ्यात्वात्" । लघी० स्व० ७२।
"स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यञ्जको नयः।" आप्तमी० १०६ ।'
"प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नयः।" राजवा० १.३३.१ । ४.४२.१६, १७ । परी० ४.१ । प्रमालक्ष्म ३९५ | प्रमाणन० ५.१ । प्रमाणमी० १.१.३० । कारिका ३० "उपयोगी श्रुतस्य द्वौ स्याद्वादनयसंहितौ ।
स्याद्वादः सकलादेशो नयो विकलसंकथा ॥" लघी० ३२ । कारिका ३१ "यः कर्ता कर्ममेदानां भोक्ता कर्मफलस्य च ।
संसर्ता परिनिर्वाता स खात्मा नान्यलक्षणः ॥" शास्त्रवा० ९० । "तत्रज्ञानादिधर्मभ्यो भिन्नाभित्रो विवृत्तिमान् । शुभाशुभकर्मकर्ता भोक्ता कर्मफलस्य च॥
चैतन्यलक्षणो जीवः" षड्द० ४८,४९ । प्रमालक्ष्म ३०६-७ । प्रमाणन० ७.५५-५६ । प्रमाणभी० १.१.४२।।
____२. न्यायावतारसूत्रवार्तिकतुलना।। कारिका १. प्रमाणवा० १.५ न्यायवि०४। का० २. यह कारिका न्याया० की है । प्रमालक्ष्मकी प्रथम कारिका मी यही है। का० ३. पू० लघी० स्व०३। लघी० ५५। का० ३. उ० लघी०६०।। का० ४. वाक्यप० १.५० । प्रमाणवा० २: ३२९ । २.४४४ । अष्टश० का० ३१ ।
प्रमालक्ष्म का० १५४ । स्याद्वादम० का० १२। का०६. प्रमाणवा० १.१० । का०७. तत्त्वसं० का०५६,६१ । का०८. पू० तत्वसं० का० ७४ । का०८. उ० प्रमाणवा० अल० पृ० १९०
न्या.३८
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परिक्षित। का१९. उ० प्रमाणवा० अ० पृ० ५०९ न्यायवि० का० ३३४। .का०९. उ० न्यायवि० का० ३५९।।
का०१०. प्रमालक्ष्म २८२। . का० १२.३० न्यायवि० का० ३३० । का०१२. उ० न्यायवि० का०९। का० १३. प्रमाणवा० २. ५९ । न्यायबि० पृ० २३ । का० १४. पू० प्रमाणवा० २. ६४। का० १४. उ० तत्त्वसं० का० १५५९ । लपी० १९ । का० १५. पू० प्रमालक्ष्म ३६४।. का० १५. उ० श्लोकवा० अभाव०१॥ तत्त्वसं० १६४८ प्रमालक्ष्म ३८२ । का० १६. प्रमाणवा० ४. २७४ । प्रमाणवा० अलं० पृ०६ । प्रमालक्ष्म० ३९२ । का० १७. प्रकरणपं० पृ० ५१ । प्रमाणसं० पृ. ९७। प्रमाणप० ६८। का० १७. उ० प्रमाणमी० १. १. १४। का० २१. न्यायवि० १३८ । का० २२. पू० न्यायवि०४। का० २३. पू० न्यायवि० ३ । लघी०७। का० २३. उत्पादादिसिद्धि पृ० ७२ और १३२ में उद्धृत । का० २५.. , पृ० २२ में उद्धृत। का० २९.
पृ० २६ में उक्त । का०३०-३१., पृ० २८ में उद्धृत । का० ३४. आतमी० का० ३६ । न्यायवि० .११४-११५ । १२५ १२६ । - 'उत्पादा० पृ० ११९ में उद्धृत । का० ३५. आतमी० ५९ । उत्पादा० पृ० १२२ में उद्धृत ।
का० ३६. प्रमाणसमु० १.९ से प्रमाणवा० २. ३०७ । प्रमाणवा० अलं पृ० २८ । वही मु० पृ० ३, प्रमालक्ष्म का० ३१६ ।
का०३९. प्रमाणसं० का० २ न्यायवि० ४६९-७०। का०४१. न्यायवि० का० १७० । लघी० १२,१३ । प्रमालक्ष्म, २१,४५। का०४३. न्यायवि० ३२३ । का० ४५. न्यायवि० ३४४, ३८१ ।।
का०४७. "इयोरेकामिसम्बन्धाद" इत्यादि सम्बन्ध परीक्षाकी कारिका जो जैन प्रन्योंमें उद्धृत है-प्रमेयक० पृ० ५०६ । स्याद्वादर पृ० ८१३ | उससे भावसाम्य है।
का०४९. न्यायवि० २८४, १८५। का०५०. न्यायवि० १७२, १७३ । प्रमालक्ष्म१०२-१०५। का० ५२. प्रमालक्ष्म का० ७२। 'का० ५३. स्याद्वादर में (पृ० १२३२) उद्धृत । प्रमाणसं० का० ५६।
का०५४-५५. झानसारसमुच्चय ३१ । तत्त्वसं० ३३४४, ३५८८ । तस्वसं० - पं० पृ० १२ । पञ्चवस्तु १०२०-२३ । प्रमालक्ष्म ११५, १३८, १३६ ।
का०५६ यह पच नयचक्रका है। उत्पादा० पृ० २२२ में उद्धृत ।
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३. न्यायावतारसूत्रकारिकासूची ।
अनुमानं तद्भ्रान्तं अन्तयत्यैव साध्यस अनेकान्ता बस्तु अन्यधातुपपच अन्यथा बाचनप्रेत अपरोक्षतवार्थस अपलक्षणहेतुत्याः सिद्धत्वप्रतीतो वो भासोपज्ञमङ एकदेशविशिष्टोऽथ केवल सुलोपेक्षे क्याप्यते यत्र चे तवमाहितयोत्प तोपदेशकृत्सार्व वच्त्रयोगोऽत्र कर्तव्यो
५ न प्रत्यक्षमपि आतं २० नयानामेकनिडान २९ परख सदुपायत्यात् २२ परार्थ मानमाख्यातं १५ परार्थमनुमानं तत् ४ प्रतिपाचस्य मः सिद्धः २४ प्रत्यक्षं च परोक्षं च २३ प्रत्यक्षं प्रतिभासल
भ्रान्तं प्रमाणमित्येतद् २० लोकलवचनाम्यांच ११ बाझुके साधने प्रोक १० बिरुद्धो योऽन्यथान्मत्र १३ वैधम्र्म्येणात्र टा २१ व्या खात्तदसावे १ संपूर्णाविनिश्रमि १२ सकरुप्रति भासल
सकलाम'
15
१९ प्राप्रतिपत्त्रार्थ
१७ सकछावरणसुकास्म १२ सर्वसंव्यवहर्तॄणां ४ साधम्र्मेण सहान्तः
१९
प्रत्यक्षमिवरज्शेवं
११ साधम्र्म्येणात्र इटाव
प्रत्यक्षेणानुमानेन प्रत्यायस्व भवेत् हेतुः
प्रमाणं स्वपराभासि २२ प्रमाणं स्वाम्यनिमामि
तद्प्रतीति संदेह धद्वयामोहनिवृत्तिः सा
३ प्रमाणकक्षणलोको २६ प्रमाण फर्क साक्षात्
दूषणं निरवचेतु हव्याहवाद्वाक्याद द्विविधोम्यतरेणापि धातुष्कगुणसंक्षि धानुक दिया क
१५ साध्यसाधनयुग्माना १ साध्यसाधनयोतिः ७. साध्याभ्युपगमः पक्षः २ साध्याविनाभुवो किताव, १८ साच्यादिनावो हैतोः १२ साच्ये निवर्तमाने तु ३१ स्वनिश्रवद संवेदनसंसिदो २| देवखोपपत्या बा
८ प्रमाणादिव्यवस् १७ प्रमावा खाम्यनिभीसी १६ प्रसिद्धान प्रमाणानां १६ / प्रसिद्धानि प्रमाणानि
३
१ अड्डाः कारिकाद्वानां सूचकाः ।
V
१६
१५
३०
३२ १८
१४ २५ 16
18
५
१३ १९
३१ .१७
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१५
अक्ष भज्ञानविनिवर्तन नरेशविरोधक अनादिनिधनामिका अनुमान मनिवृत्ति अवेकान्तात्मक सनकास्तिक शाम्तयांति अम्बयानुपपद्यत्व अपरोक्षता माप्रतीत
४. न्यायावतारसूत्रशब्दसूची।
१६बागभिनेतहेतुगोचरमोहिन् २८ मय
२९,३० विपर्यास ९ निरवच १२ न्यायविद्
२५ विल्दारेकित
१७ विवृत्तिमत् २५ पक्षादिवचनात्मक ११ विषम २९ पक्षाभास
, २० वैधयं २४ परमार्थाभिधायिन्
... व्याप्ति
.७व्यामूहमनस् परोक्ष प्रतिपाथ
१२ शुतवर्मन् प्रत्यक्ष ३,
५ १,०२,२७ संदेह प्रत्यक्षप्रतिपचार्थप्रतिपादिन् १२ संपूर्णार्यविनिवाविन प्रत्यक्षाचनिराकृत
संवन्यस्मरण
२० परार्थ २२ परार्थव
२१ बास
स्पातीति
२२ प्रतिभास
अम्रान्त अर्थ मसिब मादानहानपी मासोपा
२० मसाध्य
उपेक्षा
प्रमाण १,२,३ प्रमाणत्व प्रमाणत्वविनिमय प्रमाणलक्षण प्रमाणादिव्यवस्था अमावा
प्रमाता २७,२८
प्रयोग
...
कापथषम
२९ प्रयोजन
गोचर गोचरदीपक प्रहणेक्षा
,१० संशय ५सकलाप्रतिमास
सकलात्मसततप्रतिमासन... सकळावरणमुक्तम्मन् समक्षवत् ।
साधन 161९,२५,२६ ११,१७साधब
१२५ साध्य १९,२०,२५,16
साध्यनिनायक २० साम्यसिदि
साध्यादिविकल २. साध्याभ्युपगम साध्याविनाभु
२१
प्रसिदार्थप्रकाशन
जीव
बाधविवर्जित
बान तरबमाहिता तत्वोपदेशकर वयोपपति तदाभवा तमामोहनिति
भोक्ता
भ्रान्त १७ मान्दस्वसिदि २२ मान
मेयविनिमय २६लिस
२६ कोक १८,१९/वचस् २५,२५/वस्तु
दूषणामास
८,.. खाद्वादश्रुत
खनिमयवद् ५,२७ खपराभासिन् २० सवचन १२ खसंवेदनसंसिद्ध
१९ सान्यनिर्मासिन् 41.खान्यनिमाबिन्
२१ हेतु
देशाब्यात दोष
२५ वादिन
१,१५,१०,२२
महाःकारिकारसुचकाः।
Page #492
--------------------------------------------------------------------------
________________
५. न्यायावतारसूत्रवार्तिककारिका सूची ।
भवाऽपि योग्यत्वात् मांस्तु युगपद्मास
अनवस्था प्रसज्येव अनात्मवेदने ज्ञाने अन्य सामन्यवद्धेतुः 'अन्यथानुपपचरथं'
अन्यथेहादिकं सर्व
मम्बयासाधनादाह अभावोऽपि च नैवाति अयोगे प्रतिभासोऽपि
भर्यापतेर्न मानवं
भवभासो व्यवसायो भविस्पष्टाखयेव स्युः मसिद्धः सिद्धसेनस्य मावृतिप्रक्षयज्ञानं महारासति चैतन्यं इदं साधयितुं शक्यं उपचारेण चेत् तत् स्वाद कथं सत्यं बिना तेन कषः पूर्वापराधातः
कार्यकारणसद्भावः काकवैपुल्ययोग्मस्थ कृत्तिकोदय पूरादेः घटमोलिसुवर्णेषु चकाति योजितं यत्र जातमिन्द्रियणं ज्ञानं जिनांशेषु सर्वेषु श्रीगांशाद कर्मनिर्मुकात् 'मेनादन्यच्छासनम' ज्ञानपेक्षं प्रमेयत्व ज्ञानदर्शनमम्येषां ज्ञानम्बवतो नाखि ज्योतिः साक्षात्कृतिः
व प्रत्यक्षं परोक्षं तु तत्प्रमाणं प्रवक्ष्यामि वत्रेन्द्रियजमध्यक्षं यदि कश्त दापि कल्पना मैचा
३६थैषामेवविज्ञानाद्
३२ वदा स्यानान्वयापेक्षा
४७ तन्निमित्तं द्विधा मानं
४ तापच्छेदकषैः शुद्धं ११ तापो झासप्रणीत वं
४३ | तेन तत्करूपनाशानं ४० दीपवनोपपद्येत
४२ दूरासनादिभेदेन
१६ द्रव्यपर्यायसामान्य
२९ द्वेषा समन्तभद्रस्य
१५ न जडस्यावभासोऽस्ति
३. न नास्तीति यतो ज्ञानं
२३ नं भिन्नविषयं ज्ञानं
५३ 'माम्यथानुपपचत्वं'
१० नाशक्तिर्न च वैफल्यं -११ नासंयुक्तः
५० निस्पत्वे सर्वदा मोक्षो ४२ नित्यमेकान्ततः सत्वात् ४५ निरंशपरमाणूनां ५५ नैतदस्ति यतो नाति ४४ परोक्षं द्विविधं प्राहुः ९ परोक्षं प्रत्यभिज्ञादि ४८ परोपदेशणं औतं ३५ पर्यवस्यन्ति पर्यायाः ३३ पूर्वमेव परोक्षस्य
१८ [तेरम्वरशामं २१ प्रतीतेस्तु फळं नान्यत् १८ | प्रत्यक्ष कल्पनायुकं ५६ प्रत्यक्षं च परोक्षं च प्रा १२ 'प्रत्यक्षं च परोक्षं च द्वि" २१ प्रत्यक्षं विज्ञवं ज्ञानं
१५ प्रत्यक्षपूर्वकासक १२ प्रत्येति हि यथा वादी १३] प्रमाणं बाधवैकपाद् १ 'प्रमाणं खपराभासि' २२ प्रमाणपकाभावे ३० प्रमाणसङ्गावः ३२ बाधनात् संशयाचासे
१ अड्डाः कारिकाडानां सूचकाः ।
३४ | भिन्नदेशस्वरूपाणां ४६ मिश्रमस्ति समानं तु -१४ भेदज्ञानात् प्रतीयन्ते ५४ मनः संज्ञस्य जीवस्य ५४ यच्चोतं नागमापेक्षं २७ यतचित्रौ ततो ज्ञान यथा सर्वगमध्यक्ष
2
१३. यदि स्यात् पक्षधर्मत्वं
२३ | योगजं चेति वैशचं
५३
२४
१६
२४
४३
४९
रूपासिद्धिवोऽसिद्धो
लिङ्गा लिङ्गिनि यज्ज्ञानं
लैङ्गिकात् प्रत्यभिज्ञादि
| वचसोsपौरुषेयत्वं
२९
९ विनाप्यम्ययमात्मा
३६
२८
५
२
१७
वस्तु तत् कल्पनाज्ञानं
| 'विधिनियमभङ्गवृत्ति"
५१
विपरीतो विशेष २८ बिरुद्धं चेष्टवान ११ वेदनं च परोक्षं च ३८ देवेश्वरादयो नैव
४४
४१
३९ व्यतिरेकोनुपपति क्षेत्
३९ संधियां विभिद्यद
२६
बिसिद्धप्रतिक्षेपे
३७ संविशिष्टा हि भावानां
८
सहेतुकमतीह
सहसः परिणामो यः
सन्निकर्षादिकं नैव
समानपरिणामस्व
साहश्यं चेत् प्रमेयं स्यात् साध्याभावं बिना हेतुः साध्याभासमशक्यत्वात् सूत्र सूत्रकृता कृतं
२ स्मृत्यूहादिकमित्येके १५ स्वमविज्ञानमित्यन्ये
३१ स्वरूपेण विशेषेण ५ हिताहितार्थ संप्राप्ति
222.25 2 22*
३०
४०
५१
86
10
५२
81
ઢ
७
३३
५६
४६
१७
२२
६
४५
४१
२५
३५
१०
२६
1
१९
१४
५२
५०
५७
१९
१९
Page #493
--------------------------------------------------------------------------
________________
अंकम
भ
मनुमात्र
अगध्यक्ष
About Jabe
अनात्मक
अनात्मवेदन मनिन्द्रिय
अनुपपति
अनुपपत्तिमत्
अनुपपचता
मेनुमान
wwww
अन्तरज्ञान अम्मामध्यदेव
अन्यथानुपपत्य
सम्वनिबन्धन
अन्ययापेक्षा
अपवनेचरव
जनाव
ममेद
भविज्ञान
योग
मंथे
ईद
बगनास
अवभासन
WERE
[=]
भागम
आगमापेक्ष
[जा]
६. न्यायावतारसूत्रवार्तिकशब्दसूची ।
२१ आत्मन्
३० भास
२९ प्रणीतत्व
३६ आवृतिप्रशय
२३ महारासक्तिचैतन्य
१७
५१
१७,१८ इट
१२,१२,५१
४५ इष्टवाव
५२ ईश्वर
५७ हादिक
४१ उपचार
99
भ
24
४५
४६
आगमाबध
१५,
२४
इयुव इन्द्रियज
५२, ५३
कह
१. महाः कारिकाः।
एकावसान
ऐन्द्रिय
साधन
कल्पना
[]
गान
कल्पमायुक्त
कार्यकारणसाच
१९
कार्यकृद
२५ कावैपुल्य
१५
कादिपरि ३,२४काभ्यास १० इकोन
२३
29
५० गोचर
२९ ग्राहक
५४
४० | फेद
[क]
क्षणिकत्वप्रसाधक
[ग]
२१
४६ जड
५४ जगदा
५४ जिन
१० जीव
११ जीवांश
जैन
१० शापेक्ष
[घ]
१८,२२ शान
५०
८ ज्ञानयोगपच
४० ज्ञानावृति
४२ ज्योति
६ शानशून्यवत्
१९
५३ वत्यवेदन
१७ वादन
तर्क
८ वय
८
४४ धर्म
११
३२ वाप
१०,२३ दर्शन २८ ५४५५ राचादिमेद
९
[ज]
ve found निचतार्थ
४८
नियम
९ १८
नियमग्रह
४५ निरं
[त, द, ध, न ]
पक्षचत्व
2,9,10,14,10,14,
२१,२४,४१
२०
२५
२०
१२
निरंशपरमाणु निरंक्षामतिमान
२४
[]
8
२१,३९
२०
१८
५६
१२
१२
४४
安话
५४
१३
२३,१६,३१
५३
१८
५१
३६
१५,५६
४९
२९
२८
३३
*
२८
२६
३५ परमाणु ४८ परिणाम
५४५५ परोक्ष २,५,१३,११,१०,१८,१९
Page #494
--------------------------------------------------------------------------
________________
परोपदेशन पर्याय
पूर
पूर्वापराधात
प्रकृति
प्रतिमास
प्रतिवादिन
प्रतीति
प्रत्यक्ष
प्रत्यक्षवत् प्रत्यभिज्ञादि
प्रमाण
प्रमाणपत्र कामाच
प्रमाणफकसाथ
प्रमेच
प्राणादि
प्रातिम
प्रेमसुखम
फक
पापविवर्जित
पाचव
पावस्तुमकाचक
भाव
भूधराह
मेव
मेरज्ञान
मेदावभासिनी
मति
मनसेच
महवादिन
महत्
माग
मागस्य
मानसमन्वय
मेवविनिमय
मोक्ष
मौकि
[फ-म]
६. न्यायावतारसूत्रवार्तिकवान्दसूची ।
[4, 5, 8]
१९
१३,१६,३२ युगपद्मास ४८ योग
५५ योग्यत्व ८ रा १३,१९ दि
99 कक्षण
" fr
२,५,१३,१०,२८ जिय
विहिन
2° firs
१,२,३,६,३६
१५
१२, १४, १६
वचन
[वचस
वस्तु
| वादिन बार्तिक
१६
१९ विधि
५१
विपक्षग
२१ दि
विषद विशेष
● विषय
३५ व
३५ वेदन ● वैच
२४ वैफल्य
२४ वेक्षण्य
२५ वैशच
३९ व्यतिरेक
२०
५३
२९
व्यभिचारिन्
व्यवसाय
१४,४० १५ क्य
५५
२
सय
३५ शासन
[ब]
[श, स, ]
योजन
वर्जि
२१ म
१०,१२
९, १६ संबन्धिन्
५४ संयुक्त
५२ संयोग ४२ संवित्सिमतिक्षेप V1ting
२८ संचा
४१ सरब
१८ क
५४
७ समन्तभद्र
१५,३३ समानपरिणाम
४१,५० सर्व
HEAT
सचिकर्षादिक
५० साखाकृति
८,५२, ५३
५६ साय
५२ साधन
साधनागोचरत्व
१७ साध्य
२३,१७ | सापाभाव
१७ साध्याभास ५ सामान्य
२९ श्व २१ सिद्धसेव ५६सिद्धसेनार्क
४९ सुव
१४ सूत्र
१७ | सूत्रकृ
४५ सोक् १२ वेदन
३ स्मृति
समविज्ञान ५० खपराभासिन्
१८ खरूप
२०
१२ विहिवार्थ ५६ दे
૦૨
२४
26,00
80
80
१९
२९
२५
३५
४५,५१
ܐ
30
१६
५३
४९
१२
18
४६,४९
४२,४६,५० ५१
* ÷
२६.९१
१५ ५१
२०,३१
२८
१९
१९
१९
४२,४६,५२, ५३
Page #495
--------------------------------------------------------------------------
________________
अद्वैतवादिन कीर्ति
अनन्तवीर्य
अनेकान्तवाद
अम्बरपुस
महेंद
अवैदिक अशुद्धनमवादिन
मटक
आगम
ईश्वरवादिन्
एकान्तचाद
अस्वसंवेदनवादिन् आकारवादिन्
कान्तवादिन्
७. न्यायावतारवार्तिकवृत्तिगतानां वाद-वादि-ग्रन्थग्रन्थकाराणां सूची ।
कामार
कादम्बरी
प्रकान्तमेदवादिन्
कान्वामेदवादिन्
कान्यकुब्ज
कापिक
चन्द्र कुक
चार्वाक
चूडामणि
जिन
जिनप्रणीत जिनागम
२५.१२ | जैन
७७.११
२९.२५,२६,२८,२९; | वार्तिककार ३८.२९;५८.२५,७३.२०१ विचारकलिका
७७.१० -१०७.६,११३.४,११९.२७ वेद २८.२३,३०.६, ९, १९५ ५८.१२ | ३१.५,७,८,१८,३४.५:३६.१७,
११९.२४ जैमिनि
११९.२८|शानवादिन्
८७.२०
२०१३८.५,१५,५२,२०,५३. २२:५७.२६,११३.५
८०.११
३०.१३:३८.१०१
१२२.६ शामशून्यवादिन्
२९.२५ डिण्डिक
११६. १ दिगम्बर
३१.५ द्रव्यास्तिक नयवादिन् २७.२८ धर्मकीर्वि
९५. ३ | नयचक्रविधात्
११५.२९ वैभाषिक
५४.३४ वैशेषिक १०८.११ शान्ति
१००.११| नास्तिक
१७.२ शाबर ३८.३० |सरकार्यवाद २१.२४ सत्यभामादि
११२.१७
१२१.२१
४१.२४ नित्यानुवादि ११९.२४ निरात्मवादिन् १०७, १४; ११९.१३ ११७.४
८९.८ सदसदात्मक वस्तुवादिन् २८.१२
११७.३ भह
१०८.१६ ३१.४,११३.१२ सम्बन्धापोहनेथनादिन ३१.२४ ६२.१२ सर्वज्ञवादीका | मलवादिन १०८ ११; ११२.२८; सर्वशून्यवादिन्
३१.५
५९.३१ ८७.२७
३०.२६
३७.१७
१२२.१२ ३७.२७
११३.१२
१२२.१६
४५.१८,६१.२३
| निर्हेतुकविनाशवाद
मान्यखेट
मीमांसक
बुद्ध ५३.१७,२०,५५.११, १२, समन्तभन् बौद्ध
मीमांसा
५९.३० ४५.६ वर्धमान
.३०.७ वैदिक
११३.५ वादन्याय १८०.५ वार्तिक
१०१.१०
मूलः पृष्ठसूत्रकाः सूक्ष्माश्च पङ्क्तिसूचकाः ।
३०.२७:३३.१२,
७७.१३
११२.१९
५७.१०१६३.१६, १८३
९८.६
७४.२३; १०७.६
१६; १२२.५ सिद्धसे नार्क
५६. १० सीतादि
१२२.१७ सौगत
सांख्य ४४.१,१०७.५१११३.१३ सिद्धसेन
१२२.१८
२९.९
१३.१४,९५.८;
१०७.१८;
७८.१०
१२१.२३
६२.१२, १३,७७.
६४.१६ २३: ९१.६, १६, १८:१०२.३० ५०.१५ | हिरण्यगर्भ
३१.५
Page #496
--------------------------------------------------------------------------
________________
८. न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तिगताना शब्दानां सूची।
२०."
अंश
३९.२२ भनुगताकार ८४.२५ मन्यापोह
३९.२५ भनुगमाभाव १०६.१ विषया भकरणाधीनता ५९.१९ अनुत्पत्र
१७.२ भन्योपलब्धि अकार्यकारण ६९.०मनुपपत्ति
१०५.२० मन्वय १०४.१४१०५.२१॥ ६९.१ अनुपकनिष २५.२५,६३.२६ दोष१६.1 मुख१९... भक्ष २७.३३३०.१४ ६४.०६५.६८.२,३० परिस्फुट
४०.१५ भक्रम
प्रास ३१..प्यापक अपारमार्षिकत्व ७८.९० भक्रियारूप
१२.१४ अपेक्षा
४७.२. भनिहोत्र
३४.. अनुएकम्म १९.२०, भाइयभपोह ९७.७°पक्ष९८.२२॥ भजनक ६८.२८. व ६८.१६ १९.२१°१९.२२
'मानविषय५७.५ भजम्म २०.५ अनुभवसिद्ध
८४.० अपौरुषेय ३१.२॥३६.७, अज्ञात १५.२० अनुमा
स्व२९.५३४.१२ महान
२०.३२ अनुमान १४.२४,१६.१३ अप्रच्युत अतिशय
१९:१९.५,१६,१८१२२.२७, मप्रतिभासमान ४१.२०
५२.२५ २३.१,१,२५.५,१४,३०.२३. अप्रतीति भतीन्द्रिय ५१.२३०५२.२६ ३१.१,७३५.२९/३८.२७ अप्रत्यक्षोपकम्म दर्शन ५२.१२१५८.११
४१.२०१४५.७१५६.२७ अप्रमत्त "विज्ञान
५८.१७
६०.९४६१,२०६३.१२/७०. मममाण ११.०१२२.११ माध्यदूपता
२०,२०१८५५९४८६.१७८७. अप्रवर्तक भाइपानुपक्षम्म १९.२०
१४९३.४९५१४१०१.१९, मचिनिएतिक ७३.. भारत
१०४.१४१०७.१५,११०.५७/प्राणादिमत्वमा १०४.११
११६. अवयव१०१.६ भाग्यकारिण ३७.१४१७४. भधर्म
११२.१६गतान भधिकरण
१२.१ "मनुस्यूताकारता ३४.२५ मप्रामाण्य २७.११,१०,११२.२० अधिकारिख
३९.३ अबाधित २८.
१ १ २२. भण्यक्ष ३७.७,५६.२५० भनेकान्तास्मन्
८८.२५ ८२६.१६२६.२२:२७." ५८.२७, ७२.१६;अनिन्द्रिय°७७.५,९न्द्रियज भनेकान्ताल्मन्
१०८.२१
प्रत्ययस्व १६.६ ७८.११. योगज° ७८.१० अनेकान्तिक १०७.१२,१०८. मभाव [प्रमेय] २८.११७६१.२९) भनपेक्ष
६३.८७६५.५,६६.१५,३० अनभिमत
६७.२६,६८.९,१५,२०६९. अनर्थसंशयलिदस्यर्थ
अन्तरस
९२.१७ २०,२७,७०.९७३.२०,९०. भनवस्था १०७.२५ अन्तरुपप्लव
२४.२४ १५,१८११७.१५,१०,११८. मनास्मविद् २०.२६ मनस्वकारणसामग्री
१६७११९.८ अंश ६७.२७, अनात्मवेदन १८.५ मन्त्यबीजादिसामग्री ६१.१७
७२.२१, प्रहण १५.१२॥ अनासप्रणीतस्व १२.२७ अन्ध-मूक
जमक६६.६: ज्ञान ६८.101 अनित्य ९०.२५ अन्यथानुपपत्ति १०४.११
निराकरण ६६.२६, भनिन्द्रिय
७४.१९ भन्यथानुपपत्र १०२.२९ अभाव [प्रमाण] १९.२०१५२.२९) भनिवत्यविकारारम्भक ४८.१
श्व१०४.१०; ५८.२६,७२.३ प्रमाण ३१. अनिश्चितप्रामाण्य २१.१२ भन्य निषेध ९७.२९/११६३.६॥६९.१९, प्रमाणवा भनुगत ८४.२५ मन्यापेक्ष
१४.२५ न्या.३१
४४.२९ अनेकवृत्ति
१२.५ मन्तर
Page #497
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०६
अभिजाकार
अभिधान
अभिधेय
भमेद
अर्थापत्ति
२५.१२, १८८४.१३० भविष्यव
"ज्ञान८४, २३। अध्यवसाय अविसंवादित्व २२.२१ अव्यक्त
नईद कोरिय
अवकाव्य
अवभासमान
अवयव
८. म्यायामतारसूत्रवार्तिकवृत्तिगतानां शब्दानां सूची ।
११०.२२ / अविकलकारण १७.१९
१२.१०
अम्बास
५२.२०१५९.२ शाहान १०३.१० जमेच
बम्पूर
पा
अस्थाय
मोक्ष [ श्रीणाम] १२०.२ ता ११२.१ ३७.१८ सत्त १६.२२/३६०-१२ मा दि १६.१९ ८०.१९११०.२० किया२२. स
युवसिद्ध
२५०
१, ७१.११९२. १३३९४. असम्व्यवहार २०९५१६ क्रियाकारित्व असम्भवद्विशेषस्वरूप ८७.५०९०. १४०क्रियाज्ञान असाधनाङ्ग २२. शिवाविरोध ३५. सामन्यत्पाद तथात्यप्रकाशनशक्ति २७. १२३६९° निषेध ७९. १४ परिछे ९४. १ प्रकाशकत्वान्ययानुपपति १८.२१ प्रतीति ३२. २०१० प्रकल्प १९.५१ मत् $8. 14: www 4. 111 ३३.१९४
१७.२२१ संशयोत्पादन १२. ७ आकारता ९४. २३: अभिवति ९४ ९ मा ७८.२७ अस्तित्व ८०.१:
१९.४१३१.१०
६२.१७०६३.१६:११०.५
२८.२७, ४५.१५
२४.१७
९४.१
अवस्थाकारण जवाब
विमाभावनियम
अवधि ३८.२८/३९.१५४०. १,७,१६,२७,४१.१,९,१३० 'रूप ८०.१९
७७.९,१६,१०१.०
१६,६०.२७,७७.१७१९२.६, ९४.१११११६.२,२०० प्रका
१८.३ व्यापार १८.७ ३२.३० ३३.
१२३, १२.१९
१२.४ आधार ३५.२,५०,११, चेता ३५.५० मा १७. १८२१ वभूव १६. २२ दोष २७.३
२३.२५ पा
३२.१७,४७,१९,६७. भालुपूर्वी
अस्पष्ट
| मसिद्ध ३८.२१।१०७.१३,१८ भाविर्भाव १०८ स्वरूप १०७.३० भाश्रय सन्दिग्ध १०७ ३३ भाग १०७. ४. बाद १०७ ५। प्रतिवादिभित १०७.६१०७ भासवित
अस्फुट.
अस्मरण
अहिव
भहेतुक
आकार ४१.२० आकाश
३८.१५४०१६ भाकृति
१०२. ६ आगम
५१.२२
२४.२०,२५१.
१०३.१९ ९९.१० मदद २६.२२२९ व ११४.९ महि
११२.१५
६७.२१ ६७१३२१९.१२
१२,६९,१० णीवरच २२.५ बारोग्य
६४.५,८,७३१३ माखपविज्ञान भाकोक २९. १ १०२८ आवरण ३३.९,३७.१६७५.९० ८९.७ • ३३.० ११५.११ ३५.२१। 'विभाव ४९.२२। विभावप्रतिषेध ४९.२९ २०.११ ४५.१७
७: सन्दिग्धाश्रम १०७. इन्द्रिय २२.२०७४.१११ सोज १२.१४
४०.१८; ११११.
२४; आकार ४०.१७ ४०.२७ ३१.२
१३.४,१२
११९.१३
३८.० ३९.१३ स्व
७६.७,१६म्यतिरेकाविधायिन् ८६.३३३ -आईकारिकत्व ७४ २३- भौतिक ७४. २२३ - अप्राप्य कारित्व ७४. २५ °ज ७८.१६; ज्ञान १०१.१
र ७१.१२ १०६.१११
• विपर्यय ४२.१४
४२.२८
१६. ५,२८.२३३८. 19/83.20148.19 ११०.१३ उत्पलपत्रशतयतिमेद ७५.१४ ११९.१०/बोय९०.२६:- धोब्यामा ११३.१/उपकरण
१२०.२९
११७.४,११८.१० ईश ६९.५/९४.२३ ईश्वर ३२.२४/३३.१५
३५.५
३७.१९
५३.६, ६३.१६, उत्पादव्यय ● गम्यत्व ५५, ४ : 'त्याग १०१. ९: विधि ५९.७ : 'अन्तर ३१.०१११२.१६११९.२६
१६.४१७.१२७. उपकार २५:३३.१७; ४४.११,४५.४,
१२.२०
४७.१०
२१.१५
४१.१
३५.११
48.1
Page #498
--------------------------------------------------------------------------
________________
८. मायावतारषार्षिकवृत्तिगवानां शब्दानां सूची।
८१.३१)कापम १९.२ क्षीणवेष १२२.. उपकार्यामान ६९. कामादिभावना ५८.२७ ल्याति २३.४ असद उपकायोपचारका ८१.३० कारकजन्य
२०.५ २३.२१॥-मौकिकरब २४. १०२.३ कारण ४९.१९:९१.८ -भास्म २४.१२॥
१०२.८,१०,३७ ९२.१५११९,१३,१२०.९ विपरीत २३.२५ -स्मृतिउपमान ५८.६१/६२.१, १२१.-अवस्था० १५.३६
प्रमोष २४. ६३.२० माविका ५१.२२, उपादान गिर
३०.४ उपयोग
७६.२६ ८.२० गुणज्ञान २१. गुरु-नागर ८७.३२८८.२ उपकम्धिप्रतिषेध .६४.. २२.२७,-'गुणनिबाय २७. गुण १५.१९७२३.७:५१. उपलब्धिलक्षणमास ४०.१० ७ सहकारि २१.१६६ ०८०.२९, -प्रहण १५. उपादान ४८.२५) कारण ४८.
सामग्री ५१.२२ २१-वग्रहण १५.२० २०-०विकार ४८.१३ कार्य ३४.२४॥४१.१४,४९.२० गृहीतग्राहित्य २२.१६९६.. उपादेय
४८.१४
५१.२२९९२.०११५:११९. ग्रहण ७२.१६७११२.. उपायनिखब
१३७१२०.९७ अनुत्पादक ग्रहोपराग ५१,२३४-मादिपाक्मेव ७०.२०
१४.२५,
शासकर्तृ ५१.२० उपायोपेच
कारणप्रवाह २१.३०, प्रायव उपेक्षणीय
कारणभाव १९.२४,८१. प्रासाकार ६९. २ उभयरूपत्व
९३.२७ ३१७८९.१० कारणमा-चक्रक २१.११४२५.२८ उभवात्मक ८७.२८,११९."
वत्व ६६.९, कारणभा-चक्षुर १७.५१४८.२०७२. कर्णवारूप ८१.११ वाव्यवस्था ४६.४-जन
११७४.२०७५.१०७६. कर्षवासामान्य ८४.१४:
कस्व ६९.२२/- ताहेतु माहिन ९३.२१
१९७७.४-मादिकार्यता
४३.१४॥ व ३८.१४ कह ७७.९,१६,१०१..
४९.. ३८.२४,२७,-रूपता चन्दनगन्य एककार्यकरण
८९.९ एकसानसंसर्ग ७०.१०७९.१०
४८.२१४९.२३
२१२.२० कीटसंख्यापरिज्ञान ५४.३० मित्र ४७.२/-भदैत ८०.२२
१७.२ एकसामअवधीनस्व
९१.१७-चेतस ४८.२९५०.२५
निस्स-९०.२५ एकान्तक्षणिक ९१.१२
-कायात्मकंन ५०.२७ एकान्तसाधन
३१.२० -कायाश्रितम ५०.२५ एकार्थसमवाय २०.२० कपा
४५.२४१४६.१४ एकोपसम्भानुभव
कृषीवल
१२.७ ४७.२१,५०.२३,३०, कबिदेकत्व
४४.१०४५.४
कारणव ४७.६ कोशपान
२९.२० चोदना कर्तृ ३१.२,४२.०,९,११,128
३२.२७ जर कर्म १८.२२१३१.१५१४२.१० कक्ष
९१.१४ जनक
'६८.२८,६९.३३३.२५/-योगपथ
व ३५.११,६९.२ ४३.१४७.१५-वासना क्रम २१.२८माधिपत्य ४८.२०
३५.२५,८७.५ जन्मन् ४५.२०७११९.१ कल्पना ८१.१८४./क्रियाकारकव्यपदेश १७.९६ जन्यजनकभाव
२०.१७ जन्यत्व
२०.२३ . ११०.११ भोट ८६.५:-क्रियारूप
शान १६.१८४८१.२० क्रीडा (प्रवृत्ति) ४३.६ जामदशा कविपन
१७.२३ अधिक ८७.१०,९१.२७- जाति ९६.२५५११०.१५,२९७ गोचर ९४.४०
वा १०४.१७५१०५.९ १११.५- अन्तर८८.१९, काकदन्तपरीक्षा १२४० माही ८६.१५-त्व २८.10 २१- अक्रिया ११०.२९७
टस्थ
१०८.२०/कृतक
स्व १०५.९ कोड
Page #499
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०८
८. न्यायावतारवार्तिकवृत्तिगवाना शब्दानां सूची । -शानोपसंहार ५४... दशवाडिमादिवाक्य ११३.६ सिको मूलमयौ १९३.९ पर्या- शापक ३५.१५-प्रति-दर्शन
७१. पनय ९३.२९ पाण्याखिक भासाभाष ११०.१८ मेद दुर्मणत्व
२९. ११३.१२-गुरपयास्तिक ९८.१३-कक्षित५४. रहस्य
११३.१२:-गुबार ११३. १६-मरण ४६.९० च्या जिन
१९.७७८.. ब-विकरण ९८.५,२१-नानाप्रकृतिकस्व बीव २८.२७,५१.२५,१००.
एकीकरण १११.२९ मालिकेरद्वीपायात ३८.२२ -मध्य ४५.२४१५०.२॥
४१.९९,१०३.१०,नाश ५०.१११८... -'खामाव्य ४५.१२
१०४.१७ निश्रेियसकारण १२०.. १५.२७ देव
५२.३७ निगमम १०२.४११०३.१,३० ६०.६ देश
८३.१०, नित्य ८७.९-मनित्यात्मक १४.५,१७.१,५१८.
काल-सभावामेद ८८. ८७.१५,९०.२२:- भनित्या२५.२५,२९४२७.३४५.
विशेष १०५.२५ स्मन् ९२.81-स्व ३२.२३: १५:५४.१५९.३४६०.२७, देख ४६.३०-कायो (मलि) -परमाण्वारा ३३.२३॥ १००.१६-मनुगत ८४.२५, ४६.३०, मास्मिका (मति)
वारब्ध ३३.२५ - भन्सर ९४.10-मभिधान- ४६.३० गुणा (मति) ४६. नियम
नियम ६२.१९७११३.१, प्रवृत्ति १७.१६-आकार ४१. ३०, माश्रित ४९.२२ १२०.१४-प्रह १०६.५:५.८०.२०९७.२८मात्म-दोष
अविनामा १०३.२९
२७.९:३०.16 वेदन ८०.९:-माइतिक्षय
नियोक्त .
५७.२५ मक्ष २७.३४-भभाव ४५.१५-केवळ ४४.०४५.
५६.२२,२४,५७.11 २३.बाधार २७.३ - प्रतिभासमेव ४१.३;
५८.२,१०९." ___°वत् ५४.३५-पादो२२.२११३४.२४,३९, लियोज्य
५७.२५ १७८०.१०,८३.२८,१०१८४. निरंश
९१.१४ २०९५.१५,१०,१०५.१०, निरालम्बन ज्ञापकरव
५७.११७८०.८) ज्योतिर्षिद ५२.११
११७.५:११८.८७ निर्गुण
मशिकमय ११३.५ निर्वाण बरहरवक्षकारस
१२०.१५) -ग्रहण १५.२०-पोष
हेतु १२०.५ सामाबविशेष ७८.२५ निर्विकपदर्शन
२८.२७ बदपिम् २०.३॥ धर्म ६७.१९:-अधर्म ५९.१४ निवर्वन
८९.८ सदाभासता
-मधर्मशता ५९.७:५९.९ निवर्वनिवर्तकमाव बदुत्पत्ति ३६. ५५.७-शत्वनिष५५. निवत्यविकारारम्भक
४८.२ प्रजापनियत 1-धर्मिभाव ५७.२० निवृत्ति
८९.१२ वापता -साधकस्व ६२. निनवप्रवक्ष
७८.११ तपस्व
३९.७६७.१९, निशिवपामाग्य ४४.२२७६.२१
१०५.२५ निखितत्व
८५.१५ तर्क. १०३.१०११०४.३,९, धूम तादात्म्य ३६.१,९६.२०, यान
३०.नियोजन
१२.॥ - -तदुत्पत्ति १०३.०ीब १९३.७११६. पक्षदेशिन् वापादि ११२.६/ध्वंस
११७.२२ पक्षधर्म .१०२. पहर तिरोभाव
११५.२५ ध्वनि ३२.२८-धर्म ३२.३० १०२.११- १०५.२७. विर्यप ८१.. ममर्ष
वचन १०२.101-संवग्ध२८.१३४११८.२५ मब १९३.९/-यम-संग्रह-पर१०३.१०/- हारनाम्पसममिक्वंभूत पक्षण
१०६.० वचन १०२.२५ -१९३.
९बाक्षिक-पर्यावा-पवन्य
२०.२२ धर्मिन्
Page #500
--------------------------------------------------------------------------
________________
८. न्यायावतारवातिकवृत्तिगतानां शब्दानां सूची।
३०९
मित
पट-कुटी
३३.२८ प्रकृति ४४.५,११,३०,११४. ता ६०.२२:- स्व७३.४१पषिकानि
३१.२० -पुरुषान्तरज्ञान ४४.१ निवृत्ति ६१.२९,-निश्चय३८.५ प्रशोन्मेष
५८.१३ ७८.१९:-व्यवहार ७८.१८पदार्थ २८.२७,५१.२४ प्रतिक्षणविनाशिन् ५०.२०
शब्दवाय ५२.४ ६७.१४८७.२५ प्रतिज्ञा १२.२१,५२.१,५३.२९, प्रत्यभिज्ञा ३९.१९७८६.१२४८८
संकर ६७.५/ ५५.९:१०२.१०,२६७ २३,९९.१५:१०१.१, प्रत्यक्ष परमसिड
७८.३० अथैकदेशत्व ८७.२९/
९२.१८९३.२१, परमाणु ३८.२८८२.१७ प्रतिपादनाभिप्राय ३६.९ प्रत्यभिज्ञान ५०.१९,८४.२६॥ ८३.२५७८४.१७९२.२९:- प्रतिबन्धग्रह
२३."
९३.८९९.२६ रूप ८०.१९. समूह ८३.३० प्रतिबिम्ब
१२.२५ प्रत्ययस्व पररूप ६७.१३६८.१११९.१२ प्रतिभा
७७.१० प्रत्ययमेव ८६.७- भेदित्व परकोक ४६.११७६१.२८-प्रतिभास ६१.६,६८.१६,२८,
भनुमान ५१.८ ६९."- जनकरव ६९.२०, प्रथमाक्षसत्रिपात ८४.१२ परकोकिन् ४६.२५ धर्म ८३.३ निबन्धन ६५.१५ प्रदीप
११.१९, वत् १८.१ परवचन
-भेद ७०.२०, प्रधानं ११४.११ भम्तरज्ञान परस्परपरिहार
८८.२७ समानकालस्व ६९.२
२८.२३ परस्परासतीर्णस्वभाष ६७.२४/मातमाल
प्रतिभास्य ८५.७-भेद ७०.७ प्रध्वंस ६७.३:-अभाव९०.१०
८१.७१-मद ७०.७मध्वस ६७.३ परात्मन्
६७.१२ प्रतिवादिन्
१२.१८ प्रमाण ११.१०१३.१३७१४.५ परार्थानुमान
प्रतिवाचसिद्ध १०२.२१
१०७.६ १६.३,७,१६.१०,१७.५, परिग्रह
१२०.२७
प्रति विध्यमानपदार्थमरण ६९.१७/ २६.२२,२८.२३,३५.१४:५४. परिणाम
०१. प्रतिषिध्यमानवस्तूपलब्धिप्रतिषेध | १०:५९.११:६१.१५,७१.५, भसिदि ११४.१५
६३.२७|| ९४.१७,२०,९४.२३:१०८.२ परिस्फुट ४०.२५ प्रतिषिध्यमानवस्वग्रहणस्वभावा
| -अबाधित २८.१६ 'भाभास परोक्ष १८.७१९.४६०.७,
६३.२६ १३.२६-गोचरचारिन ५६. २५६१.९,१३:७३.२८ प्रतिषिध्यमानवस्वभाव ६४.६ 16-जनन १६.३, स्व१५.९, ७८.२४,९५,११,१४,९६. प्रतिषिध्यमानमरण ७०.९ - दशक ५६.१२ - पञ्चक ५३. २८९९.०,१२,१५ प्रतिषेधविकल्प ६८.२७,७१.६
२४- भूत१३.१३ लक्षण२६. मर्थ १०१.२४ प्रतिसंधान
२४-'विप्लव२६.२०- विषय
८८.२३ परोपदेश
६०.६ सिद्ध१७.२६ १००.१० प्रतीति ९४.२०,१११.२७ प्रमाता पर्याय ८०.२८,८४.२३,९२. प्रत्यक्ष ११.७,१९,१४.१०,१६. प्रमादादि
१२१.११ १५,१७-'नय ९३.२९;- १४,१८.८७१९.१८२१.१६ प्रमोष
२३.२९ भास्मक ८३.३०- २२.२७,२३.२,२५.४,१०, प्रयवानम्तर
३२.२३ 'मस्तिक ११३.१०; १३.३०.२३,३१.७:३५.२९, प्रयोजन ११.१०,१६,२२.१,२६. पर्युदास ६६.२६:११९.८० ३७.७,४५.१६:६०.७,८, २४,४२.३२:५४.५,११२.१२,
रूप ९६.३१,११७.१६ ६०.२५,६१.६,१३,६३.८ प्रवर्तक २१.१७-स्व ९४.१० पारतम्घ्य
८१.२५ ७०.२०७२.१८७३.१३,२८, प्रवृत्ति १७.१६९४.१० पुण्यपाप
७४.१७८१.११:८२.१२,८३. प्रसाविपर्ययसाधन ३९.३ पुलावर्त
३१८६.३३,८७.६,२४,९२. प्रसज्यप्रतिषेध ६६.२८ पुरुष ४४.५,३०,५२.३५, २३९३.१३,१६,२०,९८.१; प्रसज्यरूप ९६.३१,११७.२६ ११४.२-भाश्रयस्व ३०. १०४.९,१०९.१६,११२.१ प्राणादिमत्व
१०४.२४ १८-प्रामाण्य १२.२४ ११६.४;- आदिबाधित १०६. प्राकव्य
13-मनुपलम्भसाधक१९. प्रागभाव ६७.५,९०.१८९२.९ प्रकाश ७९.२८योग ७९.२२ २४;-ऐन्द्रिय ७४.१९, प्राणापान ४९.५:-कार्यताष्ट५ .
Page #501
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६.१५ योगपथ ७४.२२ रचनावर २८.२ रखनप
११. .न्यायपवारवातिकवृत्तिगतानां शब्दानां सूची। प्रतिम .७७.1,100 ९८.१०,११७.१७-श मिथ्यात्वं २३.१४,२४.१,
८१.१० ७२.२२:७३.६-भमा- २७.३11-हेतु ३०.16 वात्मक ९०.१७-एक-मिप्येवर
१२.२५ परमार्थ ३८.-शकि मीमांसा मामलब ९७०२३.१२:२७.२७,
२९.१२१ मुद्रा
३०.१ २९.४४.६२.११७००
भावना २१.२५८. मूछा
१२०.२० ८६.९६.४,१११.१९, मित .११६.२९- प्रत्यय- मूलमय -कारिल २१.३॥-निबार २२.
विषयब ७०.५ मेचकबुद्धि .ARI. पा २७.१२, मेव . २५.३,१०,२०.३८.९, मोक्ष
४४.१. लिखित २१.१२ ६७.२०,८४.२३-भनुमान पारितकमण्डन ४४.१२ पातिकम
३२. ५ ७०.२६:- ज्ञान ८४.२२-युगपज्ज्ञानानुत्पत्ति १८.१२ शंन ९२.२०/- ववहार योग
७४.१९/
७४.२०७८.. ४४.४० योगिज्ञान
७८.८ फक ११.१३.२७,२०.२० मोग
२१. योग्यता ७०.१२,१३७२.१६७ १२.९४.९४-'विप्रतिपत्ति भोगबरूपा
४४.३०
९४.२० ९४५ भौताल्यान १२१. भौतिक
३८.२५,२८ ९३.१० महेतु
४५.११,१२०.५ बहियाटियारण १०३.१ प्रान्त
२४.१३,२८ रागादि
४४.२२ अषक २३RRCA-माव प्रान्ति २४.२४,२५.३।२८.रूपशब्दवाच्यत्व ५२.२ २६.1-अमावनिमय २८. मण्डल
३०.१ रूपादिवपरीत २३.२१ -अधि१२.२५,०मति ४६.३०,१००.३० लक्षण
१३.१०६०.३ ममाय १८,१०४.३ देहास्मिका ४६.३०-देह-लक्षितलक्षणा विवय २२.५४२३.
कायर्या ४६.३०देहगुण काय ४६.५:
७६.२५ पनिदान ०६.२० मदशक्ति
लाक्षणिकविशेष बाल मनस २७.३४८.२०१७६..
६३.५,२२.१०१.१७, २७७.२०,२७,३०.७८."
१९.- भूत २१.10बाध्यविज्ञान. २८५
- अभिसन्धि ३३.२१॥
अलि ९९.बाबा भाव
परिकल्पमा १८.२३/
बळ ३१.१ . विज्ञान ४९.१,५- संकल्प दि. २२.२९४४२... .., ७८. - संक्रान्ति ५१. लिकिन
१०१.१७ CAR404१९५७. . सडाव १८.११. सम्बन्ध
७३.११७४.
९९.१५७१०१.१ ५६मत्कारमा
२९.३-अर्थवाद ५३. पचामामायहेतु मपूर्वक -व२९.१०वचन
१२.१२ बा म रीतिला १२.२५.१७.१३ वर्ण ३३.२४॥३४.२.३५.०० - महाभूतपरिणाम ४७.५
३७.३,२५-अनुवी प्रकार: .. मादविवाहोपदेश १२.५
३७.२२ मान .. ५६.१०,६१.१४-वस्तु ४८.१४६०.०१८२.११ सिड ७ .
निष्ठा ५९.१० ८७.१५,९१.२४,९३.२३॥ m. . 0:३६.२०१६ मानस ७२.२८,७४.२१,७७.२०; ११९.१-भसर.६७.
RRIER..८ मिचाहान १७.१७,६१.१५॥ २४वर ११९..
Page #502
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२.१७/विशेष्य
८. न्यायाषतारसूत्रवार्तिकवृत्तिगतानां शब्दानां सूची। ३११ उत्पावन्यपभोग्यात्मक ९३, विरोध १७.२७,३९.२०,६५. व्याक ३२.३०,३३.४१३७.१९ २५-उभयरूपस्व ९३.२७. २५,८७.२१,८८.२७,८९.१५ व्यतिरेक ५७.१९:१०४.१, उभयात्मक८७.२८,११९.११ -अविरोध ६६.५, क ६६.
५
१ ६२३:- मुख१९.१७ -नित्यानित्यात्मक ९३.२३-विलक्षणता
६९.२६ व्यतीतमनस् लिरश९१.१४-भावाभावात्मक विषक्षा १२.१,२३४३६.९ व्यभिचार ९०.101-व्यवस्थापकस्व१६. विशद
५८.२१ व्यभिचारित्व
१०८.१६ १८ सदसदात्मक ९३.२४॥ विशेष २९.७१३४.१९,८१.१५, व्यवसाय -सामान्यविशेषात्मक ९३.२४, ९०.१२,९५.२३९६.२८.
व्यवहारप्रत्यक्ष ७८.१८ -खभाव १६.१ १०१.५:१०७.१९:११०.१३॥
व्याकरण
५२.१७ वाक्य १२.२३:२९.१.३१.२३ ११२.५/-°कारणाविशुद्धिकृत
ध्यापकानुपलब्धि १२.१५ __ ३६.२३:३७.९,२२,५७..
११२.५
२०.३,२० १५-मर्थ ५७.६:५८. विशेषण ३०.११; विशेष्यभाव व्यापार
३२.२३ ३३.२४ १५.२२,६५.९,१८८१.२५/
१०३.०८७.६॥ वाधिका
३०.१२ व्या
भसरण १००.७ प्रहण बाच्यवाचकभाव
विषय ७८.२३,२५,९५.१५,९६. २९, दोष २७.२,
८७.१, ८७.१०, प्राहक वाच्यवाचकसम्बन्ध १०८.१७
९३.२०, वाच्यशक्ति
वैविध्य ६०.२४, "भेद ४१.३॥ ३२.१७
७०.२६ °वत्ता ६१. व्यायव्यापकभाष १९.२५ वादिन्
१२.१७
विप्रतिपत्ति ७८.१२,२० व्यावृत्ताकारा . ८७.११ ३२.२७,४९.१७
विषयिभाव ३६.१४ विषयि- व्यावृत्ति ६७.२४,९८१ बासमा ९७.१९;- प्रतिबोध
९८.२९
लक्षण ३६.५ व्यवस्थापनार्थ ध्याहारादिलिस ६१.२६ विकलादेश
९४.२. १०२.१९॥ व्यवास्थात ८८./
१०२.१९, व्यवस्थिति ८८.७ शकि १८.२१,२७.१,५३०. ३२.४६८.२१॥ विसंवाद
१४१३२.१७१४४.२४०६२. विज्ञान २०.१,३७.८
११२.१२ २५९९.२९, मत् २७. विज्ञान २४.२५/-अनात्मविद् वृत्ति ३५.५,७६.७ विकल्प १५९१., रूपता ४४. २०.२६ ६९.१२
२६ वितर्क
१७.२५ शब्द ११.१९,१२,२७,३२.२०, विधि ४३.१८:५८.४९६.३२;
वेदाध्ययन ३१.१९:५३१.१९ २२,३३.१२,३६.६.५६. ११३.१,६,रूपापोह ९७.२९
१७.२५ २९,५७.१०,२६८२.१७ वाक्य ५६.१५५८.६:१२२.
३१.१४ ९८.४,१४,१००.11,165 ५°विकल्प ७१.४
वैधयंप्रयोग ११३.. १०१.३०,१०९.२,११०. बिनाश ११७.४-निरन्वयक्षणिक
वैधयंवत् .१०२.१३ २,१११.१९;-मर्थ ९६. २१.२५:-हेतु ११७.७ वैपरीस्य
२३.१४
३२, अर्थयोजना ८२.७,
'भर्था १००.२४, विपक्षव्यावृत्ति वैफल्य
छेखि१०५.११
१०९,५
ज्ञान ८२.., ग्रहण १५. विपर्यय १८.१,२३. भाक्रान्त वैलक्षण्य ६२.८,६९.२३७०..
२१;-जनित ९९.७ ५८.१८७४.५
स्वग्रहण १५.२२, निर्मित विभाषा
९५.२८
८१.२२, निष्पत्ति ३६. विरुव ४२.२२,१०७.१०:१०८. वैश्रवण
१०प्रामाण्य ११२.९ 1, धर्मसंसर्ग३९. व्यक्त
'योजित ८२.६, विकल्प १५, धर्माकान्तता ४०.१, व्यक्ति ३४.१६:३५.५:५४.१६, १४.१४, °संस्कार ३३.. 'धर्मात्मता ३९.३३ धर्मा
११०.२६-उपलक्षण शरीर ४२.२३, रहितरव ४२. ध्यास ३८.९,३९.१० धर्मा
५०.२६ 10 भम्तरसंध्यासिता ३९.२५ व्याय
३७.१०
७७.९ वेदन
१७.१३ वैशच
५९.१०वेशिक्ष्य
Page #503
--------------------------------------------------------------------------
________________
९३.२९ साधनाथ
४. न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तिगतानां शब्दानां सूची। काय ९५,१४,९८.२,१०९.२॥ सत्यत्व
११३.१-वफा ५४.१९, सामान्य४६.७ सय ४७.१९:५७.३६५.१५; सिदि
२७.५ ७०.१८७.१,५,९०.१४- सर्वत्रोपकम्यमानगुणस्व ११६.२० सास ११.१७.१२.१,२६.३२ अन्यथानुपपत्ति ८७.२५ सर्वग्यापित्व ११६..
, म १२.१९, १३.२. सदसमवहारजननसामर्थ्य सविकल्प शुत ७४.७९९.१६,१७११००.
१७.१५ सविकल्पक ८१.२०,१००.॥ "ज्ञाम २७.५३ सदहेतुक
४५.२५ १०१.101-मा ८५.१५४तिभित १००.३० सदुपलम्भकप्रमाण
तिदि८१. मोखावत्यर्थ ११.१४ सश ३५.१५,-'परिणति ८१.२ सहकारिकारण
२९.१५ श्रोत्र ३३.१३:३७.२० संस्कार समवहार
७३.१३ सहकारित्व ३३.९ सयवहति ८४.16-पथ सहकारिन् मौत ९९.१७१००.३,१०,१०१.
१८.६:५६.१८ सहकारिखक्षण ८-प्रत्यक्षपूर्व ९९.१८- सन्तान २१.२७, ३३.११; कारण सहभाष लिमपूर्ण ९९.१८-शब्द- ४८.२०, कार्यकारणप्रवाह सहानवस्थान ८८.२० पूर्व ९९.१८
२१.३० सहोपसम्भनियम संयुक्तसमवाय १५.२० सन्तानिन्
२१.२९ साक्षात्कारिन् ६०.२२:संयुक्तसमवेतसमवाय १५.२० सन्देह
१२.१० संयोग १४.९,३६.३,११,७२. समिकर्ष १४.५,१५.८,२३, सारश्य २८.२,३५.१५,६२.
१९॥ संवादक २८.५ ज्ञान २२.९ सप्तमी
१०२.० संबविज्ञान २१.११,१५,३१॥२२. समय ३१.२५, कार ३५.७, साधम्यवर
१०२.४ _- सरण ६४.१ साध्य १०२.८५१०६.१२-17 संबादासंवाद १२.२६ समवाय १५.२१,१६.११३ १०६.१३°मामास१०६. संविद ८५.३७, नि८८.. १७.२, ३४.२०१३६.५, १२,
१२, धर्मिन् ४१.२९) संशय २३.. . ३९.२६,९५.२९
पचन १०२.११॥विपसंसार १२१. समयायिविशेष
यसाधन ४२.२१ संस्कार
४६.२२ समवेतसमवाय १५.२२ सावराभावप्रसादूषण ७७.२५ संखानपद ३८.२५ समामदेशस्व
४०.१३ सामग्रीमेव संहार
४३.१० समानपरिणाम १०८.२० सामग्रीलक्षण ९१.११ सककादेश १४. समान हेतुक
२९.५ सामर्थ्य ९९.१८ लक्षण ६८.१४॥ सहेत १४.३/३२.२०,५६.
६... विनाशन १२७१०९.१७११०.१०. समुपय
३२. सामान्य ३४.१५1८०." -अशक्यक्रियरव१०९.५. समूहा
१४.२० ८१.२,९०.७९५.११७ - -वैकल्य १०९.५- सम्बन्ध ११.१०,३१.२३, ९८.११०३.१६७ १०६."
वृत्ति १०९.३ ३२.१७७३४.३७३५.२१,२७, १०७. १९, २६॥ ११०. ॥ सजया ३४.२४- संज्ञा-लक्षण- ४४.१६, १०५.१२, १५ अर्यता ४. तिए
कार्यमेव ८८.१६ ११५.२/- करण १०९.१५- ८४.१११ ९३. १९-योग सजातीयत्व ९८.१७
'प्रह१९.१६ सजातीवानपेक्षख १८. सर्वकर्तृत्व
३८.१६ सारूप्य सत् ११९.१२-कार्यवाद सर्वगत
११६.२० सार्वज्ञज्ञान ५९.१२, भकरणा११३.१० सर्वज्ञ ५२.३१५३.६:५५.८७ धीनता ५९. १९३-मक्रम सत्ता १४.१८-समवाय ९०. ५८.१९;-तासिदि ५६.८१
२० सम्बन्ध ९०.२७ व ३८.११५४.१९:११२.९, सिब
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८. न्यायावतारसूत्रवार्तिकचिगवानां शब्दानां सूची।
८०.८ साकारार्पण
८. खानुमान
सुस २०.१५- २०.२६/ 'उपनीव ८५.२० सावप्रतिवन्ध समपान .४६.स्वताप्रमाण
११. बसमावण्यवस्थिति ९८. खामकरणाभिमान
७८.२० लाखभापस्थिति ६७.२५ सिर सौप समविज्ञान
खापरार्थमेव १०१.२५ स्खमान्तिकारीरसबार ५१.२ स्पर्सनेन्द्रिय खप्रतिवन्धक
१०२... खभाष ४३.१७६४.१५. हिंसा
१२१.४, ६४.१९, हित १३.१,११-हित११...
खरूप ६८१११९.१२॥ असारप्रतिभासमेत
महिवार्ष-६१.१ ४१. ११८.१६ वाचकस्व५८.५ ३१.१३७.१७०. वर्गकाम
५०.२१,५१.१९४१०२.१
३४.८०५६.२१ १७८५.२२९२.५ स्खलक्षण ९७.१८१९८.१॥
। १०३.१,२६४१०७.१,१९, सार्व
१५.२५४७७.
फळभाव ५७.१९ स्पति २३.२९४७१.
७८.१६९८.२५० हेत्वाभास ७७.५,१६. प्रमोष २४.॥
मला १५. योपादेषतस्प
५४.५
खरूप
वारप्रतिभासमेत
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९. न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तिगतानामवतरणानां स्वोपज्ञकारिकाणां च सूची ।
३४.७ | असिद्धावाश्रयासिद्धिः
अग्निहोत्रं जुहुयात् [ मैत्रा० ६.३६ ] अर्निस ताम्रस्य [प्र० भ० पृ० ९४] ४८.२२ आकारमन्तरेण अट्ठसय मेगसमये
गाणं [ सम्मति० १.४७] अतश्च व्यक्तिभेदानां अनुव्यद्रूपता
केयं
८५. ११
अथ तद्वचनेनैव [ तत्वसं० का० ३१८८] ५३.८
अथ प्रत्ययमेदेपि
८५.७
अथ स्मृत्युपनीतेन
१२१.२५ | इति निखिल विधाना° [ खो०] ७३.२१ इति निगदिवमेतत् [ स्वो०] ५४.१८ इति वाक्यस्य ये वाच्यं
अथाव्यश्रुतया भाति अथानित्यः सहेतुः स्यात् अथेशः स्वभावोऽस्य अनात्मविदि विज्ञाने
८५.२१
५३.१७
८५.९
एकत्वात् प्रत्यभिज्ञानं
८६.२५
४३.१७ २०.२६
४३.१९ एकशास्त्रविचारेषु [ तरवसं० का० ३१६४ ] ५२.१५ एकस्य क्षणिका तृप्तिः एकार्थसमवायस्य
४३.९ २०.२८
अनित्यं यशसंभूतं [ प्रमाणवा० ३.२५१] ३७.१४
अनिर्दिष्टफलं सर्व
अनुमानत्वेपि नैवास्याः
१३.१५ ८६.३१ ८५.३९
अनुमानारते नान्यत्
८६. १९
अनुमानेन नो बाध्यम् मनुमा बाध्यतेऽध्यक्षात्
८६.२३
अन्यस्मिन्नहि सर्वज्ञे [ तत्वसं० का० ३२३४ ] ५५
३४ ११.८
५६.७ ११३.१४ ६३.१८
नवकरणादुपादान' [ सांख्य०९] असद्वा इदमप्रे [ तैत्ति० २.७ ] सर्वज्ञप्रणीतासु [तरवसं० का० ३१९० ] ५३.१२ असामान्यस्य लिङ्गत्वं [ लोकवा० अनुसार १५० ]
इत्यन्यलक्षणतमः पटलं निरत्य [ वो० ] उच्चालियम्मि पाए [ ओघ० ७४८ ] उपदेशो हि बुद्धादेः [ तरवसं० का० ३२१७ ]
अम्मार्थव सेति [ स्वो० ] मम्योन्यसहकारित्वाद् [ प्र० भ० पृ० ९४] ४८.२४
अन्योन्याश्रयदोषोप
५८.३२
अपौरुषेयता नो चेत् अप्रत्यक्षोपलम्भस्य
१८.३० कस्मान्सा खादिमत्स्वेव
अप्रामाण्येन युक्तायाः
८६. ११
८६. २१
अर्थस्यासंभवे भावात् नवज्ञानं हीने [ स्वो० ] अवस्थाकारणं वस्तु [ प्र०अनं० पृ० ९४] ४८.१८
१२२.२०
अविशेषेपि ब्राह्मस्य
२१.१
असत्यार्थ थं तद्वाक्यं
१ स्थूलाङ्काः पृष्ठसूचकाः सूक्ष्माश्च पचिसूचकाः ॥
एतच्च फलवज्ज्ञानं [तस्वसं० का० ३२०३ ] ५४.४ एतावतैव मीमांसा' [ तश्वसं० ३१४३ ] एवं क्षणिक पर्याय' [ खो० ]
५५.५
एवं जिनवरकथितं [ खो० ]
एवं तावदसिद्ध
एवं सप्तनयाम्बुधेः [ स्वो० ] कप्पइ निग्गंथाणं कर्मणामीशता प्राप्ता
कल्पनापोढमध्यक्ष
५८.३०
९४.२८
-४३.३६
५१.१४
५८.२
९५.७
१२१.७
८६. १३ | कश्चिद्भौतः किलान्येन [ प्र० अ० पू. ६७ ]
[ लोकवा० आकृ० ४७ ] कारणादुष्टताप्यस्याः
कार्यकारणभावाद्वा [ प्रमाणवा० ३.३० ]
१०७.२८ । किञ्चिन्मात्र विशुद्धोऽपि
५१.१२
१२२.७
५६.५
१२२.९
१२०.२७
४३.११
८६.५
४६.१६
९६१९
८६.२७
कार्यकारणसद्भावात्
किं वा भेदेन पूर्वस्मिन्
किं ष्टे प्रत्यभिज्ञानं किस किं
वेत्ति
किञ्च तत्कालयोगेन [प्र० श्रलं पृ० १३८ ]
१०३.२८
५१.११
ረ ८४.२६. ८५.१
५९.२४ ४३.७
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________________
१.यापाक्तरसूलपार्मिकरिंगतानाम् अवतरणानां खोपज्ञकारिकाणां च सूची । ३१५
४३.२९ | तथा वेदेतिहासादि [तरवसं०का०३१६७J५२.२१ मकरसंपर्क ४२.३० तथा हि चान्दने गन्धे,
८५.२९ विमेन स्वसत्येन विरवस० का० ३१४७] | तथा हि रक्तशिरसः [प्र०अलं० पृ०७०] ४७.५
तदतदूपिणो भावाः [प्रमाणवा०२.२५१]२०.११ या पुरुषार्थाब ५४.६ | तदसत्तुल्यजातीय
५९.. मरामकियाऽभावार
८६.१५ तदा स्वकारणादेव हिसा[शावर.पू.३३] २०.१० तदेन्द्रियसमुस्थत्वं
५८.२९ बीधि भवेदेोषवा. मा.५]
तदेवं दोषदुष्टस्य ६७.१० तदैव तत्रोत्पवस्व [प्र.अलं०पू०१.१] ४६.२८
११२.१४ तद्रूपबीजात् कमलादिभेदः [प्र०मळ०४०..] लपि पुसवाः [खो.] १२१
४७.१५ माता साबित...100] ८८..| उस्मादतिशयज्ञानः [तस्वसं०का०३११९] ५२.१५ मा वस्तुसमा बोल्मो ममा. २०] | तस्मादनुष्ठेयगतं [प्रमाणवा०१.३३] ५४.३०
७२.२७ | तस्माचतो यतोऽर्थानां [प्रमाणवा०३.१०]९८.१२ ति यो दोप
५८.१६ | तस्माद्यो येन शब्देन [प्रमाणवा०३..]९३,१४ बाकिसुवर्णार्थी [मामी.का० ५९] ८८.१२ | तस्य चाप्यनुमानेन [श्लोकवा अनुमा०१५.] अपविल्यथा [प्र. मर्क...] ४८.१२
१०७.३० चिन्तर्गत दुजाबाक...५.] १९२.२१ | तस्य सर्वज्ञता प्राप्ता नैक.
५८.२० निवित्रराजा [प्र.मलं.१०.] ४६.९ | तस्य सर्वज्ञता प्राप्ता सिखं
५८.२० मीना पुरीपाद ४३.५ | तृणौषधिलतावृक्ष
५४.१४ भगवाये पाक
४२.१२ तेनामिहोत्रं जुहुयात् [प्रमाणवा०३.११०] ३५.. बाकुडनोग्नेद
५४.२० तेनाबाध्यत्वमप्यस्याः कमरर पपीवो [प्रवच० १.१७] १२१.५ | सामान्यता सिद्धाः खो.] ४५.१२ तेषां समस्वमारोग्य
४७.२८ ग्रेगस्थिरबमोगा [भाष नि०९७९] त्रिधा श्रुतमविप्लवं [प्रमाणसं० का०२] ७४.१२
७८.९/ दम्वटिमओ भ पजव[सम्मति १.३] १९३." में एगं. बाण मात्रा० १.१.४.१२२] ५९.१५ दशहस्तान्तरं ब्योन्नः [सस्वसं०का०३१५८]
५८.१२ त्राप्यनिर्दि[ संका० ३२३१] दशोल्पाचापि मानानि
दुर्लभस्वात् समाधातुः [प्रामाणवा० १.६.] समार[, ३५] ५२.१७
४८. भाववान सम्बो कालिप्रमाणवा.
दूरं पश्यतु वा मा वा [प्रमाणवा० १.३५]५४." १]
५४.३५ श्यमानार्थतुल्येन योनिधि मोनिका देहास्मिका देहकार्या
५२.१९ दोहिं वि णएहि [सम्मति० ३.४९] ९६.. अपवाग्मतामा
५६.१५ द्वितीयेऽपि यदा सोयं देवा पर पुनर्वस्तु[शोकमा प्रत्य१२.] ७३.३ | द्विष्टसंबन्धसिवित्तिः [प्र. अलं० पू०२] २३.. चमै विशिष्टोऽपि
५५.२० | धर्मज्ञत्वनिषेधस्तु [तस्वसं० ३१२८] ५५.. हेमसात
| धर्मयोर्भेद इष्टो हि [लोकवा० सभा• बन एवोचराग्यो
८४.२८ २०] सजगत्सुक्ष्म [बस०का०३111] ५४.१ धर्माधर्मज्ञतामात्रात्
५९.. व खितं सारणापक्षा ८५.३३ धर्माधौं तयोः कार्य
५९.४ या कतिपयमेव
५४.१२ धूमो धूमास्तरोत्पाः [प्र. अलं० पु. .]४६.. पोन
५४.२६ ! धूमो धूमाधयाभूतः [H० अलं० १०५७] ४६.१२
Naga
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--------------------------------------------------------------------------
________________
५८.५
२१६ ९. न्यायावतारसूत्रवार्तिकवृत्तिगतानाम् अवतरणानां स्वोपक्षकारिकाणां च सूची। नक्सारबराहादि
५८. पिण्डा खादणुमात्रक [वि.वि.१] ८२.१४ महाबादामा
५३. पूर्वकालविशिन नागमविधिःकवितथि
५९.. पूर्वकाहादियोगिरये नवागंमविधिः कथित् [वस्वसं.का.
प्रबिन्यादिमहाभूत. १८.]
प्रज्ञाविवदिशियन्ते नपापवितुं सर्व
५३.५ प्रत्यक्ष परोक्ष-[पापा..] बचावस्थानमब्यापि
८४.१० प्रत्यक्षतोऽपि नाक्षाणां समादेष[प्रमाणवा. १.२९] ५९.। प्रत्यभिज्ञानिरपेक्ष महापरिनिर्णा[मोरयामा०16] १३.१ प्रलभिज्ञापमानत्वं
| प्रमाणपत्र वा [ोडमा ..] ५." प्रमाणमभावावं
| प्रमाणेवरसामाम्ब गमा लता प्रमाणाव [खो.] १५.६ प्रपोजनं विनाम्पस नपातिकबासी[प्रमाणपा०३.१५१..1 प्रतिबालिप्रमाणानि[पापा..] २६॥
९६२६ माधोपि हिमरा सूक्ष्मान[सं० ] ० कोष्यसि प [arat.. .]
५५...माझापड भरार दवा लसवान वसं० ] सामान्य वस्तुविवर्ष
७०.९० ५३...मेशावता पोतिः समबिए एपिण्याप्रमाणा .. | पवनोत्वमपुर
७३.१० वाधाकलहपिकासो.] परिवार [गन्दो..] १५२.२५ दापयो सवा [सं०.१४] महिनीडोत्पन्चानं महिममा गोपीचा
९४...भावपूर्वकागद मस्स सग्निमिचो गोष..] १२१.९ मिधामा सिवाणादि नाकमा कमिनो भाषा:[प्रमाणवा.१.४५] भूमे एकदेशवा
लिखाम्पत पतित [FOOT.] .. नामसार कमिलो भाग
महर महसखा .... cl नानापैकत्वकोपा सार
मनुष्यत्वे सतीले
५८. भानुमान प्रमेवेवर [लो.]
मूल्मतिरविहति [स ] १९५६ शान्पयो मेदरूपवार
८८.२०
पते विवादिसंहारान [प्रमाणा...]ct नासामनकरत्वं
पज्जातीयः प्रमाणे [ोक..] ५९६ नसत्वमा प्रिमाणवा...]४७.१९
ममापि चोपयुज्यन्ते मिलत्वम्यापित्वेऽपि
३२.२५ निमित पुनसस
५८.२५
पनापतिशयोकोमा .] ५२.५ निषतविषयवेन
२१.५
मत्सवमोपकाराम[बीमु.को..] १२०.१५ बिरमध्यान्ते खो.]
पर सर्व नाम छोपि .का. शिल्पासवान निर्विशेष सामान्य [भोकबा. भाकृति
परसायवाचनायोचर ..]
९०..या पाषा सार विवस.. निबिवलं हत्या पबामियवधानेऽपि [प्रमाणवा. ३.११] ७७.२४ पास शारदाविका [. . पवमक्सर गं
१२०.३ १०.१३९] परोक्ष मनमिवादि
९९.५ पदि वसुम्यता माति
२१..
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________________
.. ९. व्यापावतारवातिकसूत्रवृत्तिगतानाम् अवतरणानो खोपकारिका पसूची। ३१० पदिएरातिरिकोऽबाप का
शरीरानिचमात्मानं [खो.]
५५. शरीरावर्गवखैव बदीवागमसत्सव .१११] ५५... | शीगरोपोग[लो.] बदेवधि क्षीरं
११४.. भाम्बाबुका बचमानतो ब्याक्षिा ८६.१ भुवतिःक्षता
१००.३.
बन्ते चामता प्रस्थान का..] पक्षियहि सन्साने
१२०.१५ बाव बनासर्व
पदसतानि लिहन्यन्ते वापर होनससपि .का. संचातिकवाव्यामि ११ ]
सगाभ्याम् (बेता...] ५२.. बेऽपि हिसाबवावववका. . संसानसम्पवान्य
सचेतनं पदाकर्म
४२.२० बेऽपि मन्मादया सिदा पसं.का. सत्यमेवत्वमित्वेवर १९९८]
सम्वानकारण प [. .. ] ४८... देपि बातिलमा पसं. 10] ५२.1 माह मेजावन्ने [. ..] स्वावास्यमालो.] बता सोमपुरणाचा
५५.. समया प्रतिमवंबा stetne] पपोगो [वस्या..... ७६.२५ मिलियनुमानाना [कोदाममा.. समयवस्तुविचार
१०८.. समसामक्ति प.प. बसोपोरोवर
-10]. बवानन्दमेरल
५४. समुपयोऽपि देवा [ोशा संवन्यात विज्ञापते पता पक्ष लिबानो रेषाप्रमाणवा...]
सर्विरो पनि सौरम्म [लो.] ससस किपि का.
सावित्री[स] १०८॥ विशेषा परिहाराष
सपंजोक्यतया बावं [ ...] विशेषाति पन्ने
५८.१० विशेषगमामाचार
१०६.१ सशो मयते वापर [ सं.का. बिना [वा. ५२.. . ]
५२॥ विषमगतपोवबादाबीमु.को.]१२०.१.स
| सबको पस्वमिमेव [वपसं.. मीहिलामाकनीवार
१२३५] वैवाहममेवा ...]
सर्वममावसंवन्धि विपसं.. ] ५५॥ पैदाहममे पुल महान्वं
५०..सतोमवरूपले प्रमाणवा...] ९३.९० अजितन्मम्ममावाद
९६.२२ सर्वासा विकत्वेन
९६.२७ सर्वमावाससमाव'.. योगवना पारम्
५४.३१ स भाषा समावेन [प्रमाणपा. १३५] भरमा हिपदाता सग्देवाबापताक्षस
सर्वेची परवनस्वाद पारिश पावला
४१. सविकसकमध्य
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________________
३१८ ९. भ्यानांनसारसूत्रवार्तिकवृत्तिमतानाम् अवतरणाना सोपकारिका व सूची ।
४३.२९ | सार्यते समर्थ परः [ प्रमानवा० ०.२१०] १४. १००.२१ | वर्माधर्ममात्रशः [ तत्वसं० का० ३१४ १५३.२५ १४९ ] स्वरूपपररूपाभ्याम् [को०० १२] १०७.१६
६७.१५
५५.१८ | मला [ोकवा० अ० १८७२५ १००.१२ कार्यक्रमः [ मैभ्यु० ६.१५ ] १२२,१६ण कचिद तेषाम् ४३२१ | हेतुना यः सममेण [माण ५८१४ / देवस्व ["
सहेतोर्हेतुरस्यास्तु
-साविय सहत्यो [विशेषा० १७५] सामान्यं नानुमानेन [लोकवा० अनुमा०
सिसाधविषितो [ तस्व० का० १२३१] सुयकारणं जंबो सो [विशेषा० ९९] मिन्द्रा [लो०] सोध्यम्येन तदम्योप कोकान्तरत्वं
४३.२०
4.4] २
५४.३९
१.२४ ]
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--------------------------------------------------------------------------
________________
१०. टिप्पणगत वाद और बादी।
२०७/MANOON.,२८१,
का
२०० वयोपपदी
२०१
२०१
जादी १५,०, बगुणपर्वाववाद १४२ कादिवाईन
...10 .4,1९२. बपर्यायवाद बोबीपदान्ती
बानियवादी २७ माईववादि
महनव
११ १९८,२१२,२५०,१५०/निरालयवाद ११ मा १५,२४,२५,९५४ अनेकान्तवादी २५० निराडम्बनवादी
२५१,१०५ पोहबार
२०९ नितुकविनासवाद २१,२०० भावनाबाद अबखा-भवसाताबाद २८२
मेवायिक -११२, १४, भूवनवतावाद २८२,२॥ बमेदवादी २८०,२८५
१४५,104,1५०,१५५,१५९, मेदवार २१
१५ ,१२,१११,१९९. भौतिकवाद २५
१.1,106,101,10३,१८९, महायानी १९NSHIRO.४५, माध्यमिक ११,१२,100 २१,२२०,२१,२२२,२२४
२.१,२९४,९००,१०२ २२९.९१०,२०,२४,२४४, ११८,२५९,२५२-२५०,
मीमांसक १९,11,४५, २१५-१६०,२0१,२०५,२७०,
104,18,1441 एकान्सामेदवावी
१.0,101,100-100,100,
२८.१८ २११,२५२बाव (दर्शन)
१८९,191,1९९,१९४-१९५,
११४,२०९, काश्मीरवैमानिक
२०८,२१-२२९,२१४-१५, बानियाद
२१५-२३०,२०,२४० साविककन्यवाद २८२,२८३
२५०-२५१,१५८,२१७,१०१, पपरमाणुसमुदायवाद. २८२ पातिवाद
२८०,२८२ चार्वाक ११०,११,१, परिणामवादी १९५-१९१,२५७
मीमांसावन २.१२.१,१२,११,१२५/परोक्षज्ञानवादी
मीमांसासाब २३६ बापनीय
२८५ प्रकृतिपरिणामवाद जैन १९,100-10१, मामाकर १५८,1५५,१७/पा
योग (दर्शन) १९१,१९२ ११५.१५२,१५१,१५५,१५०, २४२,२४४,१५३,१५६/पोगाचार, ११,१५-१६५ .1461,100,10२,101,प्रवीलासमुत्पादबाद १९२,२५०/. १९०,२००,२१,२८२,२०५
१०२,१८५, १८९,१९, बाशावादी १०,00,२९५, योग १९५-१९५,२००,२०१,१०, बुर २०१२८१२८२ विज्ञानवाद ,101,२८२
२००,२०,२१५-२२०,ौर -४५,११,१११-विज्ञानवादी १५५,२४९,२६४
२२२-२२४,२२१,२२८ १५२,१५५,१५६, विज्ञानात १९२,२८३ २१५,२५,२३८,२४०,२२, १९१६९,१०२,७५,१८१ विधिवाद
२०९ २४४,२४५,२४८,२९९,२५३, १८९,१९१-१९०,२००,२०४, विभज्यवाद
२५०,२५८,२१५-२१५ २०६२१०,२२८-२३०,२५३ वेदान्त १५८,१४,१५,१८२, २०२,२७७,२७८,२७९,२८२, २१८-२५१,२५३-२५५, १८,१९,२२०,२२१,२२६,
२८३ २५८-२१२,२६५,२१५, २२९,२५१,२५०,२००
१.१,२१५/परमाणुवादी
परिणाम वार
Page #511
--------------------------------------------------------------------------
________________
११०
वेदान्ती १७०, २०४, १५५,१५० सी
वैभाषिक
वैशेषिक १३०, १०२, १४७, १४८,
१०. टिप्पणगत बाद और पापी ।
100, 240, at १५३ |
संपाव
२१५११५, ११९,२३०,२०१
दाद
१९४ २७५ शाबर
194,188,106,39%, १९१-१९७,३९,१९० बर
दावादी
२००,१०९, १८० साचाद २००
१०१ सदेकान्तवाद
२५० सद
141,144-146,
१०१, १०३
१५०, १८५
२०२ २०० सोग
१६२,३८२ सा
१७१
२०१,१०२ हीनयान
Razl
191,100,104,104, २६१३,१६,१०२, १८३, 131-151,194,196, २०२,११५, ११०, २०३, २४४, २५४, २५६-१५८, १९४,
१६७, २०७, २७८, २०२, २०३
२५९
199,149,156,
२६५, २६६,२००,२८१
२८२
Page #512
--------------------------------------------------------------------------
________________
११. टिप्पणगत प्रन्यकार ।
-
गिरम 100 केसलिम
२०ापjिीवार १५ . कौटिल्य
२ . चो, बोचर १५१,०२,२१५,२१,२५०/गंगेश ५९-२0१,२५,४५, जगदीसम्म Rai ,२००, चन्द २४, ५५, चावतिदावमारीमर २५०
२८५/ ११८,१९,२९,२१२० बावस्कार १९९३ अन्यकीति
२५. २२१,२२१,२५२,१५४,२५५, पवाकि
.. .
परमार्थ २५ बरालि १५०,१५4,२०४- - बमवरे I ns,
२०,२१,२१पासारथि १५1100,00,19,२५६ देतो वस्योपचापकार पुरन्दर. २०१५बर
स्वपार (मन्दी) १२. देखो, सम्मविटीकाकार | देखो, प्रमाश्मकार . अपर ३१,२५२, मागास प्रवकर १,२,५५५०,
२५० बिनभागवि ११R ,मकर देखो, हेतुविदुरीकाकार यासकार
[.._...
२००,२०९,९15 १९१,१९९/ देखो, माशादि प्र भाकर
8-10 २८९ प्रयोपकार १५१,५०
प्रभाचय 131 गायोकर १२५, माय १२५,११
११९,९९,11,1,16,
,१७, ११,१९,२१,२२९,२००, ११,१९०९12-२१२,१७,
| 10,100,२००,1, २८५ २५०,९८०,२८,२८३
२११,२०,९५५-२५०,३८५ देखो, बार्तिककार देवी ,११,१००
प्रमाणधमकार . . ., २२०,२११
१.२.१,२२,२०,२५०, उमासाति १,५५100 २२२१४,२४५
७
.प्रमखपाद . . , ., देखो, तपासून्कार | १५०,१५५,११,११८,00,
| २४१,२१,२०,२५९,११, कमळशीव १,१३,१४, १८,१८१,100,८९,१९०, १९१,२९०/१९१९०,१०१,२०००हस्पति
२०१-१.५ योनी
२१०-२१५,२२०,२९९,९३०, नरदेव २१२,२५,२१८,२२,२५१, महरि १५,१५१,१५,, २१०, २ ५ ,२५,२९९, २००,
२७,२४,२५,२५० अपराचा २०३,१८५ २०१,२०,२००,२८१,२०० भवदास
१७० जमारक १,१२० धर्मोचर १२५,१
, भारद्वाज 1,५५,१९ ५०,१११,२९९,२१२ भासह १०९,100,101,10,16, देखो, म्याचबिनटीकाकार भयु 16 .८,२४,२९, मागार्डन
१९२ मध्य २९१,१२,१२८,२५५,२५५, निम्बार्क २५०,16निरुजकार.
१११/मनोरपनन्दी
११. न्या.४१
Page #513
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२२
११. टिप्पणगत प्रग्यकार ।
१३२. शीला
-
महावादी २०५ विद्यानन्द १२८,
२०७१,९१५,१०,२१८, मानियनन्दी १५९,२४० १३१,१३७,१५०,141,1५७, २२३,२२५,२२८,२१७-२१, माधवाचार्य
१७०-१७२,२०९,२१९,
२४३,२४५,२४९,२५०,२१०, पमतागि २३१,२६३,२१८,२४०,२५३,
२६४,२१५, बमोविजय १७,२५०,२७७,
२४५-२४७,२५८,२५०
२६८-२0१,२०,२७,२८५
देखो, बार्तिककार २७८,२८५ प्रतिकार (मीमांसक) १९७
साडिकनाथ ११,५३,101, पोगसेन
११८
२५०,२५५ राधाकृष्ण २०१बेस्सामित
१८७/ |शिक्षामन्द
२८२ २७९, व्यास रामातुन १९२११०२७८ व्योमशिव ११,१७२,२०२,मगत १९७,१९८,१५०
२५३,२४७ श्रीधर बमबमदन्त) १९५ शंकर 11४,१४२,१९२, बीह १०१,२९५,११५ १९२-१९४,२०३
१९३ सम्मतिटीकार 11 , वाचस्पति १,१२,११५, शंकरमिन
11 ४,१५,१९,२२६,२१, वरनामी
देखो, समयदेव १८७,१८८,२२१
समन्तभार १२५,९५५ सिदर्षि १२,12,
13, वात्सायन १२५,१२,110 शाकटापन
२.९,२२५,२६९,१०१ देखो, वायभाग्यकार शान्तरक्षित ५०,३१३ सिरसेन १२५,१२ , पादिराज
२४ ११,१३,२०८,२२३,२२५,
१५६.४ बामदेव
२२६,२८० बार्तिककार १ १०,१५२|शाम्त्याचार्य, १२५,२९,
हरिमा १२०,1, 04 देखो, योतकार
१५,११,१३९,१११११४०, १८९,२००,२१,२८५ बार्तिककार १११,१५ १ ५९,१५०-१५०, विन्दुटीकाकार देखो, सान्नाचार्य
१७५,101,10१,१८९,९१, देखो, मर्चट बासेट्ट
२००,१०१,२०,२०८-हेमचन्द्र १९८४.
२४७
Page #514
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२. टिप्पणगत ग्रन्थ ।
२८४
अंगुत्तरनिकाय २८ज्ञामविन्दु १७, २५९, २६८ तर्कभाषा
२५० अनुपोपहारसूत्र २२२,२२५ शामसारसमुष २७५/वात्पीडा ५,१४०, बनेकान्तजयपताका ,18., वरवचिन्तामणि २३०, २०, १५२,१५,१५५,१९, __२१०,२॥ वपसारवी
१३३ १७,106,10,11,.1, बनेकाम्यबवला २७. वसंग्रह १,१५,१५, २४१,२९१,२९९,०१,२०२ अमिषम्मत्वसंगह २८१ १८,१९,५५,१११,101, अमिधानविम्वामान
१८५,10१,८९,१११,१९., वैत्तिरीयसंहिता
२०१ १९९,२०१,२०३,२००,२०९, दिनकरी . २२८ भवपातिनिराकरण १९५,९९, २२०,२२१,२२१,२२५,२२७, दीर्घनिकाय २९९,२५९,२५०,२५३,२६०,बसंग्रहाति
२०९ नासती ३०,५०,१२,१८, २१,२२,२९९,२०,२७४, धम्मपद
२५५ १४९,२००,१५,१०,२५८, २७५,२००,१०८,२८०,२८१, धर्मसंग्रहणी
२००
२८२ धर्मसंग्रहणीटीका बहसाली १५०,141,१५५, सरवसंग्रापंजिका १२५,१५,मन्दीसूत्र 1,100,२४५, १५६,१ २,१४, १५,५४,२०७,२५०,२५५,
२५५,२१८ १८1-10५,८९,२०, २७४,२७५,२८०,२००/मवाचक
नवयक २५७,२००,२०६ २०७-२०१,१११,२१५, स्वार्याधिगमसूत्र ११७,१७०,पावकन्दली , २४९,२५०,२५९,२१५,२५०
१८५,१४४,२७० १७५,160,१९१,१९९,२०, असहनीविवरण . १४४,२६१ वरवाधिगममान १४७,२२६ २१५,२५,२२,२७१,२७२, भारमवत्वविवेक १२५ २२०. २७०
२७८,२७९ बांपवम्यौतसूत्र १२९ वरवाधिगमावरीका मासपरीक्षा
२०१४ (सिरसेन) १५ १५९,११,१२,१९६ माझमीमांसा M106,५०,वचार्याधिगममापीका १५५-1५11100100, १५१,१७२,२००,२१,२३, (हरिमा)
१७९-104,1८३-14, २१०,११,१५,२७८ वयार्थराजबार्तिकाकार २९५ १८७-१९०,२००-३०२, भासम्बनपरीक्षा १९५,१९७ वाशोकवार्तिक ११८, २०७-२०९,२२९,२१,२३५ मावश्वकलियुंकि १२७,२४, २५,३१,३०,११,१५, २४०, २४१-२४०,२५९, उत्पादादितिदि १०१,२०९,२६७ ५५,१९-१५३,१५-१५० २५०,२५२,२५३,२५८-२१, उत्तरायवनसून
१७०,१०२,१७,१८२- २११,२०,२१-२७३,
१०,११,११५,२०, २०१,२००,२०९,२८०,२८५, कठोपनिषद
२७९
२०६-२०९,२१,९१५,२९, ऐवरेवनाक्षण २२१,२५१,९५८-२१०, बायकोष
२५२ कारिकाबली २९१,२७१ २४५,१०,२५२,२५०,२५९, बावजण्डलाच
२७९ समाजलि
२. १५-२५०,२७९,२१,२०० यावप्रवेश सन्डनकालाच १०५,२२७ वयोपसिंह ,1५1,1५७,बावप्रवेशति पितकी
२७४ १७,0416१,२०१,२२७ चाचप्रवेषिपंजिश ,९५४ १९५ २५०,२५९,२१,२१,२७१ न्यायविन्दु १९,५५,१७,
२.९/वचार्तिक १५-1010 10..९७,२१,२७,२१, पापा २४०, २४७
१८७,२५५/ २२९,१३२,२११०,११
Page #515
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२४
१२. टिप्पणगत प्रन्थ ।
२१२,२५९,२६१,२१,२७१,पातअलमहाभाष्य १२३ प्रमाणवार्तिकालंकार २७० पारस्करगृह्यसूत्र
१३५,१५८,१३९,११,१२, न्यायविन्दुडीका १२५,१३,१४, प्रकरणपत्रिका १३४,१४१,
१४८,१५१,१५२,१५,१५०, ११५,१११,१५०,१६६,१६४ १५२,१५६,१६७,१६८,१७३,
१६४,१५५,०२-१७५,106, १७०,१७६,२०,२७,२२९, १७९,१८१,१८३,१८४,२२१,
१८९,१९९,२०१,२०२,२०।२३१,२३७,२६५ २२८,२२९,२३८,२४२,२५३,
२१०,२१६,२२०,२२३,२२०, भावविन्दुडीकाटिप्पणी २५४ |
२५४,२७१-२७३,२७९,२८४, २२८,२३१,२४९,२५०,२५५, बीचमाय १२५,१३२,१४०, प्रमाणनयतरवालोक १२,२२३,
२५०-२६१,२६७,२७५ १५२,१९८,२१५,२२२,२४१,
२३८,२४०,२५९,२६५,२५६, प्रमाणसंग्रह १२५,१२९,९९, न्यायमजरी १२८,१२९,१३३,
२६८ १४९,२४०,२४,२४५,२१८, १,१५,१५१,१५३,१५४, प्रमाण निर्णय
२४४
२७२,२७५ १५५,१६,१६,१६९,१७३
प्रमाणपरीक्षा १५०,२१९,२२०, प्रमाणसमुपय १२५,१५,१९०, १७५,१८,१८३,१८,१९१,
२३८,२५३,२४५,२४७,२७२ १९३,१९९,२०१,२००,२०८, प्रमाणमीमांसा १२८,१५०,१५३,
...प्रमाणसमुषपढीका ११५,१९७, २११,२१७,२१८,२२१,२२२
२. २२४,२२९,२४१।२४९,२५२ १७५,१९२,२१५,२३८,२४०,
(दिमाग) २५३-२५५,२६०,२६२,२६६,
२६८,२७०,२७, प्रमाणसमुपति
११५,१९७,२१. २.१,२०२७८,२७९,२८४ प्रमाणमीमांसाभाषाटिप्पण १३५,
प्रमालम १२६५९ बावडोकावती १७९ १५१,१५६,२०८,२२९,२३७
१,२१,२२०,२२६,२१८ न्यायवार्तिक १२५,३१,३२, २४१,२४३,२६०,२६२,२६५,
प्रमालक्ष्मवृत्ति
१२६ • २९-१४1,1 ,1५५,१६९, २६९,२७०,२७१,२७३,२८०
प्रमेयकमकमाण्ड १२५,२६, १९१,१९८,१९९,२०१,२२२, प्रमाणवार्तिक १२५,१२७,१३७-| २४१,२५२,२५१,२७१,२८०,
१२८,१,२५,१५,१६ १३९,१४,१५३,१५१,१५०,
३९,४९-1५४,१५६ २८३,२८४ १५२,१५३,१५५,१५६,१६४, याविनिमय
१९०-१५२,१५ १२५,१५३,
4 .0, १७५,१८३,१८१,१८५,९८० १५१,२३८,२४९,२९३,२७०,
101,10,१८९,१९९,२0१, १८९-१९१,१९९,२०,२०१,
२००,१०८,
१ ९ ,२१, २०७-२०९,२.१-२१४,
२२०,२२१,२१८-२१०,९४१, बायसार २३०-२३२,२३४,२१५,२३८,
१५८,२१४-२५१२. न्यायसूत्र १२९,१५२,१०९,१९०, २४९-२५१,२६०,२६१,
२७८,२७९,२८५,२८५ १९५-१९०,१९९,२०१,२०७, २६५,-२६७,२९९,२७१,
प्रशस्तपादभाग्य २२५,२२८, २००,२२२,२१,२४६,२४७, २५२,२७८ प्रमाणवार्तिककर्णकगोमिटीका
२४१,२४५,२४८,२५९,२०२ न्यायावतार . ११५,१२६,१२८,
प्रशमरति
.
१३८-१४०,१८४-१८७, १५५-१६५६,२३,२१४
बहती १५,१०,११,११
२५१,२५३,२५४,२६०,२७२२१९,२२५,२६४,२६८,२६९.
१८५,२०७,२९ २७४,२७८,२८०,२८४,२८५ व्यापावतारटीका ३१,१३२,
हत्कल्पमाष्य १३-१३७,१५६,१५२,२१०, प्रमाणवार्तिकमनोरथमन्दिटीका ..
रहदारण्यक २१९,२२६,२३८,२७१
१५५,१५१,१९०,१९९,२१२, रहदारण्यकवार्तिक १७७,५०४ पचमकर्मग्रन्थ
२०३ २१४,२१५,२३०,२३४,२३५, ब्रह्मास्त्र १४,१५,११ पनसंग्रह
२०२,२०३
२३८,२४९,२६३,२६५-२६७, ब्रह्मसनशांकरभाष्य 116, पदार्थधर्मसंग्रह
१३१ २७०,२७५,२८४
१३९,१४५,१४५,104,1४१ परीक्षामुख. १२६,१५९,१५२, प्रमाणवार्तिकस्खोपज्ञवृत्ति
१९१,१०८,२५४,२०० २२१,९१८,२४०,२५९,२६५, १८४,104,1८७,२५१,३७३, मंगवती । २२१,२२१ २६८
२७१,२८०,२४४ भामती १५६ ,५५.
Page #516
--------------------------------------------------------------------------
________________
मध्यान्तविभाग महायानशिक महायानसूत्रालंकार माठरवृत्ति
माध्यमिककारिका माध्यमिककारिकावृत्ति
मीमांसासूत्र
मुक्तावली
सुण्डकोपनिषद् मैत्रीण्युपनिषद्
योगदर्शन
योगदृष्टिसमुचय योगीका
योगबिन्दु
योगभाग्य
रघुवंश
राजवार्तिक
कंकावतार
छत्रीयस्त्रयस्वोपशवृत्ति
१२. टिप्पणगत मन्थ ।
|
१२३,१२९ विशेषावश्यकभाग्य १३०,१२८, डोकवार्तिकतात्पर्यटीका १७७ १४७, १०८, २१०,२४४, २४५, डोकवार्तिकम्यावरणाकर १७७ २०७, २६८,२०६, २८५ २०२ विशेषावश्यक भाष्यवृत
१७७, १९२
१६२
२१०
२२८
रा
खाव्यायन श्रौतसूत्र बन्दकप्रकीर्णक
Sarvavate
१३२,२०२,२४०,
छत्रीयत्रय १२९,२३६, १४८, २१३,१२०,२३८,२३९, २४३,२४५,२६८
२२८,२४० | वैशेषिकसूत्र
१२५,
१५१,२३६२४३,२४४,२७९,
बिसुद्धिमग्ग
बेद
२७७ १२८ | शतपथमा झण २८५ शावर भाष्य १७७,२७८
२७९
२०९ वैशेषिकसूशेपस्कार
१३०
२०२,२४७ व्याकरणमहाभाष्य १२७, १७३ व्योमवती 198,144, 140,
१३०
१२७
१६९,१७२, १०३, १७५, १८३, १९१, १९९-२०२, २०८, २१५,२०३,२४०,२४०,२६२, २६६,२७८, १८०, १८७
१८७
२७१
२८५
१२९
१२८
वेदान्तपरिभाषा
१२६, १४९,१८३, १८४,
१६१,२७४
१५७,१८८ षट्खण्डागम २०३ १२७,१०४ २६८,२४९ दर्शनसमुचय २७६ पद्दर्शनसमुपडीका (गुणरस)
१८५, १८३ संयुत्तनिकाय २२२,२५४ सम्तामान्तरसिद्धि
१२६
१९२,
२६०
१९२
१९६
१२९, १५५, २४६, सम्मतितर्क २५२, १०२, १०९, सम्मतितर्कटीका
२४७
124,148,140,
१०६,१०७,२०३,२००,२१० अशा
श्रीभाग्य
१६३
१७७
arrestedte लोकवार्तिक (जिनेश्वर) १२५ वादन्याय १३०, २०१, २३०, श्लोकवार्तिक ( कुमारिक)
२६९ १२३ विमान १६१, १६२,२०३
attrarator
विचारकलिका
विज्ञसिमानतासिद्धि
विमित्रतासिदिभाष्य
१५२, १६७, १७०, १७५, १७९, १८४, १८६, १८७,
समयसार १८९,१९०,२२१ सम्बन्धपरीक्षा
सर्वार्थसिद्धि
शावर भाष्य व्याख्या २२१,२२९ २२१,२२९ सर्वसिद्धि शाकादीपिका १३९, १४५, १७३, सर्वदर्शनसंग्रह १७९, १८०, १८३, १९५, २०१, २२१,२२७,२२८,२४७, २५२, २५४, २५१,२६६,२०२, २०३, २७५,२८४ | शास्त्रवार्तासमुच्चय १३१, १८४,
१८९,१९०, २०१, २०४ शास्त्रवासीका ( यशोविजय ) २७९, १८५
२८२
२३४, २३६,२४७, २४९, २५०, २५३, २५५-२५७,२५१,२६६,
२७१, २७२,२७८, २०९
11,124,125,10,104, 141,142,148,148,140, 140,102,109.10,141१८४, १८७-१९१, २००, २०१, २०६,२०७,२०९,२१६,२२९, २३७,२३९,१४४, २७६, १४७, २४९,१५०, १५३, २५१-२६४, २६६,२५०, १०३-२७५, २०७ २८०, १००, २८५, २०६
१७५
सांख्यकारिका सांख्यवकौमुदी
सांख्यायन श्रौतसूत्र सिद्धिविनिमय
| सिद्धिविनिश्चयीका
३२५
१५४
सूत्रप्रासूत
१२६,१२८, १२९, १३३,१३४, 101,14,15,10,148, १७६,१०१, १०३, १८४, १८६, 166,191,201,206,216,| १२१,२२५,२२७-२२९,२३२ | स्याद्वादरत्नाकर
१९७
२७६
२८३
२५७
121,122,
१७७
१२७
२०४
१२७, २०३, २११,
२४४, २८५ १०२,२७७
१७७,१८२, १९३,१२५,१२६
१८७
૨૦૨
121,
१३३,१३७,२४६,२७३.
२८५ १३१,२०४ स्त्रीमुक्तिप्रकरण २८५,२८६ स्याद्वरोधपरिहार २१३ स्याद्वादमञ्जरी १९०, १९१, २१०,१६२,२०६, २०८, २०१ १३३,१३२,
12-124,925,181, 908,106,148, 144, 145,
१६०,
Page #517
--------------------------------------------------------------------------
________________
११. टिप्पणगत अन्य।
१७,100,100/देववियुठी
, ,|Constructive Survey 161-10४,१७९,२०, १५,१९०,२१,२२,२५०, of Upanishadio Phi. २००,२३,२१६,२९,२२०, २१६,२५७,२५०-२५३,२५५,
"
losophy losophy
279 २२१,२२९,२३१,२५८,२४० २.०,२०,२१,२४,२००,
.: Early Monastio Ba२५३,२४७,२१९,२५०,१५३
२०३,२०,२८५
२१०,२७ २५५,२५७,२५८,२१,२१५/हेतुविन्दुटीकाकोक
ddhism 187 २५५,२७२,२७३,२८४,२८५,jAwakening of Faith २४२ Indian philosophy 205 tohtors 118,600,711, Buddhist Logio 141, Systems of Buddhistio २३७,२१२,२७०,२७४,२००,
१४,२० Thought २०२,२८३
Page #518
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३. टिप्पणगत शब्दों और विषयोंकी सूची।
१९५
१५.
जगृहीताप्रापणं १५९/मन्ययानुपपति
श्यमंवयबीके विषय में नाबा अग्रह
१५० -अविनाभावनियामिका २७१ मत १९, का विनाश १९१, भवत्वज्ञान १५० भन्यापोर २५१,१६७
जैनमत १९५, बौद-चमकपतिदेशबाव २२०,२२१, अपूर्व अर्थका मतलब ११९ मा १९५, मीमांसकमत १९५, २२५,२२० अपूर्व
प्रत्यक्षकी चर्चा १९५, का भएकारकसन्दोहोत्याचवा १५॥
देखो, शक्ति
भनुमान १९१, अनेकान्त अदुकारणारब्धव १५. गपूर्थिक १२८1१९
१९८ जनाहिसे ग्रहण २००, २१२ अपौरुषेयत्व
भनित्य हैमाश्यानुपकब्धि
२५८
१८५ अश्वास १७० अप्रतिमा
२४७ भवाब
२१४ अनधिगतार्षगन्तव १५मवाधित
भविधा १५७,११५,१७०,१०५,
१५० भगव्यवसाय
१५७/मभाव, बनर्थ
अविनाभाव
-प्रमाणका पार्धक्य २५/भमाकारम्बाधि २६५ -बौसमत भावाव्यतिरिक |
के निवामककी चर्चा २७॥ अनिर्वचनीयल्याति ११५,१९५ २०-व्यवहार २२९, प्रमेय २.-यवहार परमविसंवाद
१५०,१६ भनुपकन्धि
२२९ - और वहाहप्रमाण २५१
अविसंवादिस्व
१५० inअमिधेवप्रयोजन १२४,२५,
भव्यपदेश्य
१५, भव्यभिचारि
१५० अनुभूति
१५०,११० मधुतसिद्धि
असल्याति बनुमान
असयवहार २२९,२५० -मान्त किस रहिसे ॥
के मेद
भसम्बग्ज्ञान -प्रामाण्य २०३,२१२,
" भौकिक -काविषवसामान्ब२१२,२३६
भागम से शान्दादिमित्र है २१ अर्थकिवाकारित्व १८,२१२,
प्रामाण्यनिसय १३४ २१९, -परोक्षान्तर्गत २११.मर्थग्रहण
-में उपमानका समावेश २५५ २६८, में उपमामकामवीर मर्षपर्याय
१८२
-परोक्षका मेद . २५० २२५, मेंबर्यापतिका सन्तोष अप्राकव्य
१५४
-पुथा प्रमाण नही २०१ २२९, में प्रत्यभिज्ञाका मत-मरूपता
-गुरवचनके प्रामाण्ड में हेतु मोव २५८,कशाम्त्याचार्यको मर्याकार
२७५ सार्थ-पार्वमेव असमत है अापत्ति २१९,२२९ मारमा २९९, के अवयव २१९ मौकिकल्याति
मात्मव्यापाररूप प्रमाण १५३ सेबाक्षिका प्रह २७ बलौकिकार्य
-से सुखदुःखादिमित्र १५५ -पक्षधर्मत्वाबाहेमलक मौकिकार्यक्याति
के विषय में चार्वाक २०० २७२, का चार्वाकसमत दूषण अवधि
१.०,100 -सिदि २७२ अषभास
-परिमाण अनुपसाब १.८ भवषव-भवबबीका ऐक्य १४२, प्रत्यक्ष,मनुमान २७९
१४४ -सायिक, व्यावहारिक २०१ १४ काल्पनिक
१९२ भास्मस्माति ११,१५,१९, का धर्मकीविजन और अवयवी १२,1971९९,२०१,
१७५ उसका उत्तर
२८२, सत्ता में नागार्जुनादि की भादिवाक्य
भापति १९९ का खरूप और खान १२५,
१४९
१९,२०१,
/
२०२,
Page #519
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२८
-चका प्रारंभ -का प्रतिपाच - का प्रयोजन
अनेकान्
आधाराधेयभाव
मास
मानावादिसमय
आकम्बन
freerefore
अनुमान पा आगम के १३७ कार्य
१४३, १४४
आर्ष
इन्द्रिय
का माध्यकारित्व
इन्द्रियज्ञान
ईश्वर
-कारणवाद
उत्पति
- निराकरण
उत्पाद
उपमान
關
का प्रामाण्य
-काय
उपमिति
उपलब्धि
उपलम्भ
म
-का पृथक्प्रामाण्य
अनेका
का फछ का प्रयोजन
उपादानपाचा
उपेक्षणीय
वारूप कवासामान्य
एकाकारपरामर्श
कान्वमेव
पेन्द्रियकशान
मौपम्य
करण
१३. टिपणगत शब्दों और विषयोंकी सूची ।
१२९,
1RS, 97
१३२, कल्पनाज्ञान
१३७ कम्पनापोड
141,100,141,
१२३
111 ११,१२० कार्यकारणभाव
१७३,१०१,
२०७,
२४६
२४३
१४१
१६४ का
१९०
- वासमाकृत का महति ममेव -की संस्थता और
किया
१११ किमकारक
२८१
२१
१५८ सवज्ञान १०१,२०० सचि १४३ समस
*#*
- संमदाबस्थानीय - समकालमें नहीं -का दो प्रकारचे विचार १०६ -ज्ञान और देवमें नहीं २३५ - प्रमाण और फल में नहीं २६६
वाकभन
१२६
२१७ गवाक्ष
२५४ | देखो, सामान्य विद
२५९
२५९ ज्ञान
१६० शानदर्शनोपयोग
२२८ गुण
२२७ गुणगुणी
२४९ गुरुवारोपविच
२४९ प्राण
१२७, एकता २५४|शातुव्यापार मायिकता तरव
१९२, १२० ग्राहक
१२५,१३५ मा
२५९ ग्राहकभाव २५०,१५८, वि
२५० विद्य PVC Four
१९४ १३
-व्यवहार में नानामतभेद १५९ दर्शन २६२,२८१ दुर्भणस्व
२१
१४९ व
१२३ -की मान्यताका विकासक्रम २८० यानुपलब्धि
-मिकता, भमिकता भीर
२४९
१४३,१७९,२५४२०३
२०२,२७९ वाच्य २८२ तिप
--भाव वा अभावरूप २४४
तिर्यग्सामान्य
का प्रामाण्य १५१, परोक्ष में अन्तर्भाव २६८, व्यामि
२०० प १०३ दोष २२८ मुख्य २४४
२०२ व्यव १५०व्य २३५ किम १३५ धर्म १९७,१७१ धर्म-धी
२०१ ध २५७ नमस्कार
पति और श्रीचय नय २०६ ་་་
१५१
१५५
२५१, २५८
૨૬
१६३, ब्रम्यजनकभा १११ १०९,२५६१५० १४०,१४२५३, मानव १५३ योग
१५३
१८३
१५०, २०१, २७१
जय मौर भाव
१९५,२१५,२०१
२७०
दर्शनान्तरोंमें नयामास की पा
२६५
१५९
१५७
119,182,184,908, १५८,१६०, २०३
१९२ १८१
२१५ 189,912
१५५
२१८
१४२, १४४
२१८
१३७
१८४
२३२
१३२
१५४
१८६
१२७
२७७
१६१
२०९
Page #520
--------------------------------------------------------------------------
________________
निरासम्बन
निर्णय निर्विकल्प
निय (मग) परमाणु
परमाणुपु
- का प्रत्यक्ष
परिणाम
परोक्ष
-के तीन मत
-मेद परोक्षार्थ
पर्याय
पर्यायदृष्ट
पर्यायनय
पारमार्थिक सत्य
पुत्रकद्रव्य पुत्र परावर्त
पुरुषकर्म
पूर्वपरव्याघात
प्रकृति
१६१, १६२, १६६,
२५०
१५०
-चार प्रकार
प्रकृत्यन्तरविज्ञान
प्रतिक्षा
प्रतिषेधविश प्रत्यक्ष
प्रत्यभिज्ञा प्रत्यभिज्ञान
२८३
१९२, १९४-१९०, १३३,२६०,२८९
प्रपञ्च
प्रमाण
१३. टिप्पणगत शब्दों और विषयोंकी सूची ।
१६४,२५९,२३७
२०१
१९०
२७६
१४४, २५४, २५७, २५८,
૨૦૧
२०२
२६९
२३४
१४०, १६७,२१२, २१३, २३६,२१९,२२०, २२३,१२६,
२५९,२६०
- भगवान्
१९४
१९६
२५४, २७७
२१३,२२०
२६८
२१३
१३९,१४५
- प्रादेशिक -विशदल -बीदकृतलक्षण
- जैनादिका -स्पष्टता मौर विशदवा में भेद २३८, -भेद
- सांव्यवहारिक
२१५
१५५
२८२
१९५
न्या० ४२
२६८
१६५
-बुद बौद्ध संमत निर्विकल्प नैयायिकाभित
- सामग्रीहर
- इन्द्रिय
-लक्षणचर्चा
-आत्मव्यापार
१५३
१५३
- व्यावहारिक और पारमार्थिक
- अनेकान्त
- प्रसिद्ध है
२४९
२३७ ૨૮ प्रयोजनादिजय २३८ प्रवर्तकरव
२४१ मनसामध्ये
२०४ |प्रसिद्धार्थयाति २४०,२६० प्रातिभ २२३,२२४,२२६
१२६, १२७
१२७
१४०
१६३
१७२
108
१७४
-कृतव्यवहार -के नियामक
108
"ज्ञान यधभव
- सारूप्य
- संप्लव और विप्लव२११, २१५ २६५ बाधारहि तत्व १२५,१३५,१४० बाझा - मेदका नियामक क्या है २१० -का अभाव २११ | ब्रह्म
-फल
मा
जैन २१५, ११८ ब्राह्मणस्वजाति वैवाधिक वैशेषिक २१५ मे
सथता
कान्तात्मकता
१४६
१४६
१९
प्रमाणविष दिमागसंमत २११ धर्मकीर्तिम संमत २१२, जैन संमत ११५ प्रति २१८ मंग १४०, २६५ मति के मेदसे मतिज्ञान
प्रमिति
प्रमेव दोमेद २० प्रमाण भेद २१०, २११, धर्मकीर्ति एक २११ नम मवकी ज्ञानकी
तुही २१३ पंच अपेक्षासे अपेक्षासे
प्रॉप करव
१२७ | प्रामाण्य
के विषय में नानामव शायाचा
३२९
आध्यात्मिक और व्यावहारिक
१४ मह
१४वैषामिव
१४८ ज्ञानग्राहकाना १४८, बौद का नियामक क्या १४८,
मीमांसक, जैव धर्माद
१४९ -१५१
काजव्यापार 142, # # 148, 111, बेदका १८६, चिन्वा १७२,
छविप्रतिपचि
साचार्यकी विशेषता २६४ अमेदप
२६६
बाधक
१७४
१७४
140,148
949
१९२
२४९
२५८
-का निषेध २१६, मन्त्रत्व
२१६ की मने महेर
२४८
-२०६६
भामामान्य
२४९
१३५
२५८ मानसप्रत्यक्ष
१३० -स्वसंवेदन है १३५ माया
१५१ मध्यान
१६२
-की प्रत्यक्षा
१५३
169
-२००,१०३,१२६
२२६,२४४
२४३
१५४
२४८
१८५
१२६
૧૨ -१५६, १५७ १५७ १२६
२०६,२०१ २४८
200,101,100
का अपराक्षिके मवबभाव
१५७
-- मोरारि १५८ -मानसाची हि १५९ - चार्वाककी अख्याति
११० सत्ययाति
- माध्यमिकी
१६१
Page #521
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६१
.१७०/विचारकस्व
१७२ विज्ञान
२५६
२.५/विपरीतल्याति
१३. टिप्पणगत शब्दों और विषयोंकी सूची । -पाकी प्रसिद्धार्थ क्याति| -कुमारिकसमत उभयात्मकता व्यवसाय १४८,१५०,१५१,
२५५
२५९, -योगाचारकी भामसाति| -खमावद्वारा उत्तर १४२ व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकमाव
१६३ -की उत्पाद-व्ययनाम्यामकता -मीमांसको किकार्थ
१८२ व्यवहारमय
२८३ वाति ५-प्रभाकरकी -संस्कृतका लक्षण २८ व्यापार अश्याति १५ बायवाचकभाव १७१ च्याति
२७१ चाविका विकी विपरीत वासना १३९,११८,६१,१६, -प्रहण १६९ १६५,१७०,१०६,१९३,२१५/प्याति
१५ दोषमीमांसा
१३० मेद
१३९,२५० -प्रत्यक्षेवरनाम
१५च्यावृत्यनुनमात्मक
२५५ -सहज और माहा १७०/विजातीययावृत्ति ५७,२५१, शक्ति -मामाग्यविचार
१६४,२८१
-की कल्पनाका बीज १०६ मिथ्यात्व विचा
-का स्वरूप
१७६ मिल्याप्रलय विधिविकल्प
-शून्यवादीके मतसे . १७६ बिना
२८०
-शब्दादेतीके मवसे १७. मेवरूपता
१६६,६७,
-धर्मकीर्ति और प्रभाकरका बचार्य
१९९,१७४ १७५ विपर्यय
-यांकरका मत बोगितान -सहन और माहार्य
-वैशेषिक नैयायिकका मत योग्यता
-मीमांसकका मत र १९९,२८१,-परमाणु २८२/
-के दो प्रकार १८. कमपित्व १०५ का मूल
-सक्रिय-निष्क्रिय १८० विवेकास्वाति
-कामाश्रय कम-सजका वादालय
१६७,२०२ ,
-अमूर्त
१८१ १३७, का अनुवाद या विधान,
-अपूर्व मौर भावकमकी २५१, मासूख-प्रमालभूत विशेष २५२,२५,२५५,५९,
तुलना विशेषणविशेष्यभाव २३१,
-प्रामाकरों का मत १८१,का जौकिकार्य
भेदाभेद १८१,-सुखादिसे
भित्र १८१, जैनमत १८२विषयव्यवस्थापक
नित्यानित्य १८२, सांस्यमत -चौरक मतसे शनिकोबीवराग
१८२,- शंकराचार्यका मत ११९,२५८,२८०, जैनसमत-की पूजाकी सफलता २७५/
१८२,-धर्मकीर्ति ८३,-ग्राहक बयपर्वावात्मक ११९,२ वैकक्षण्य
प्रमाण.८३-वस्तुका लक्षण २१२ २१५, वस्तुमेदना पाचार -का नियामक ५९मेदकामाधार वैशव
बायार्थ में अप्रमाण ॥ माममेद नहीं की अनेक -जैन-बौदादिकी रष्टिसे
२३७ शाब्दिक व्यवहार सांकृतिक प्रकारसे विज्ञछिM, धर्म- केनाना कक्षण .कीर्मित भवात्मकताका सारश्यज्ञान
२२० ब्रह्म २५८,१७७,२५४,२५० निरास २१४ व्यंजनपर्याय १८२ नय
२२६ -बर्मकीरिसमस पाहायोस्पध्यमिचारिज्ञान
१५७ शाग्द.
२१८ २१५'व्यय २८१ म्याय
१३१
१७१
101,100विभंग
२०५ विनम
१५२/
२५९
१५५,१९६/विषयदोष
Page #522
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३. टिप्पणगत शब्दों और विषयोंकी सूची।
३३१
१५०
२१५
२२८ सालम्बन
२२७
१४१
१५५
शान
। मीमांसकमव १५५, जैनमन -सांस्यका अमित सामाम्बवाद प्रक्रियामेदसे मेव१७५/ १४५, नव्यनैयायिकमत १४६
५.८ अविधाका विकास १०५ समवायिकारण २५० -वेदान्तमत
१५५ प्रवृत्ति-उदेश, लक्षण प्रवृत्ति- समारोपण्यवच्छेदक १५०-दावीमा मत २५५ १३२, शरीर-शब्दरूप, अर्थरूप समारोपव्यवच्छेदकरव ५१
-मीमांसकोका मिजामिक १३२, शास्त्रार्थ संग्रहके तीनरूप सम्यग्ज्ञान
सामाम्यबाद २५४ १३२ सर्वश
२१३,२०० जैनमत १७०२,४७, सविकरूप
-तिर्यगणता सामान्य २५. ज्ञान २२६, दूरदेशस्थ वस्तुका सविकल्पक
१६४ -जैनमवकी तुलना २५८,२९. अस्पष्ट वर्शन भुत है या नहीं। सहोपळम्भनियम
२५०
देखो, जाति २४०, ज्ञान के सीन भेद २४० साक्षात्कारिख
२९७ निःसत २६८, अज्ञान १७०, सारड्य
सामान्य विशेषात्मक
२२०,२२, १७१
सारूप्य संकलना
२२७ -कुमारिलकृत लक्षण २२३
प्रत्यक्ष
२२२ संकलनात्मक
-सामान्यसे मित्र संज्ञासंझिसम्बन्धप्रतिपत्ति २२५,
-नैनायिकमत २२८ सिद्धदर्शन -बौखमत
२२८ संतान
२०६,२०७ -प्रतिव्यक्ति मित्र
-की धर्मकीर्विसंमत ज्ञानरूपता संप्रयोग -प्रमाण
१५५ संबन्ध १३१,२१५,२७१,
-ज्ञान २२०,२२१,२२७० संयोग
-वैसाइयज्ञान
-शामायापार्यके मनकी संगति
२२२ वैशेषिक-नैयायिकमत ११७. साधकतम
१४०,१५०
-जैनसमवशामसे मेद १५५ बौदमत १३७, वेदान्तमत साधकतमत्व १३८, जैन १३९, मीमांसकमत सामर्थ्य
-न्यायवैशेषिकसमझायमेव १३९ सामान्य
१५५ संवादकज्ञान
१७४ -अनुमानमाझ मनर्थ १६४, -प्रकृतिका परिणाम संवादकत्व १५१
१९७,२३६ सनिवितासंभवहायकस्व १५॥ संवृतिसत्य
२८२ -धर्मकीर्तिकृत निराकरण १८९ सुषुप्ति संशय १५७ -अवयवीके साथ तुलना १९३ सेना
१९६ संस्कार . १८०,१८१ -स्खलक्षणका पररूप
सीमोक्ष
२८५ सत्ख्याति
१६२,१६९ -सामान्य २१२ स्कंध
१९५ २८०,२६२
-वासनामूलक सरशपरिणति
२५७
-अवस्तुभूत सरपरिणाम
१९२
स्थूलद्रव्य २५८
-वस्तुभून समिकर्ष
स्थूलपदार्थ -परोक्ष मप्रमाण १३७,१४०, प्रमाण
-उर्वतासामान्य और तिर्य १४०, कुमारिकमत १४॥
स्पस्व
सामान्य का प्रत्यय २२६ जैनमत १४१,के छः मेद १४१,
स्मृति २२३,२२५,२२२५ -चार्वाकका मत शालिकनाथका मत १४:
-मानसप्रखक्षरूप २५४ ससभंगी
-बौद्धोंका भवस्तुरूप सामान्य२६४
-सप्रमाण
२०
२५० समवाय
-प्रमोष १७,१८,१९,११ वैशेषिक-नैयायिकमत १४२,
-शान्तरक्षित २२२,२२५ बौद्धमत १४२, अद्वैतवादिमत वाद
... २५२ -जयन्त
२२. १४४,२५१, सांख्यमत १४४ -प्राभाकरोंका मत २५३ -परोक्षान्तर्गत प्रमाण
१८०
सत्व
२१५ स्थिति २१४
२८
२१४ नानामत
Page #523
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३.२ १३. टिप्पणगत शब्दों और विषयोंकी सूची । | खकाण १६१,१९७, हिताहितार्थ
१२५ मानसशासकी रटिसे १५९ सामान्यसे वैषम्य २१५ हेतु मानस प्रत्यक्ष है २४७ स्वसंवेदन १४८,१५1,1५६कालादिमिको मानकर पक्षकेशव मिश्के मासे स्मृतिरूप
___ २४८,२४९ धमत्व
२७२ २५८ शानस्याचार्यका मत २५०
हेवामास शान्याचार्यका मत २४९ स्वार्थनिनिति रामानुजका मत २६३ स्वार्थव्यवसाय
विषयक वार्तिककी तुलना स्वप्रकाश १४८स्वार्थाधिगमत्व । १५१
२७३
Page #524
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरस्वती पुस्तक
भंडार
हाथीखाना, रतनपोल
अमदावाद 380001
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