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________________ टिप्पणानि । [ पृ० २७. पं० १५ १८० करना यह अनुष्ठानका कार्य है - यह बात समीको स्वीकार करनी होगी क्योंकि यदि ऐसा न हो तो याग करना न करना तुल्य होगा । यही योग्यता 'अपूर्व' शब्दसे कही जाती है'। एकार्थक हैं फिर भी 'अपूर्व' शब्दका प्रयोग सिर्फ वेदबोधित कर्मजन्य शक्तिके लिये ही 'संस्कार, योग्यता, सामर्थ्य, अपूर्व, शक्ति ये लौकिक कर्म जन्य शक्तिके लिये नहीं होता है होता है । कुमारिल ने एक दूसरा समाधान भी किया है। उनका कहना है कि शक्तिद्वारा फलकी सिद्धि होती है अथवा फल ही सूक्ष्मशक्तिरूपसे उत्पन्न होता है। कोई भी कार्य हो वह हठात् उत्पन्न नहीं होता किन्तु क्रमशः सूक्ष्मतम सूक्ष्मतर और सूक्ष्मरूपसे स्थूलरूपमें आविर्भूत होता है । दूधसे दधि हठात् नहीं बन जाता किन्तु दधि अपने अनेक सूक्ष्मरूपों का अनुभव करके नियतकालमें स्थूल दधिरूपको धारण करता है । इसी प्रकार यागसे भी अपने सूक्ष्मंतम रूपमें - शक्तिरूपमें स्वर्ग उत्पन्न होता है और कालके परिपाकसे वह स्थूलरूपमें आविर्भूत होता है - ऐसा मानना चाहिए । स ने शक्ति दो प्रकारकी मानी है। एक सामान्य शक्ति और दूसरी विशेष । समी 1 पदार्थों में अर्थक्रियाका जो सामर्थ्य है वह सामान्य शक्ति है और नियतकायको उत्पन्न करनेवाली शक्तियाँ विशेष शक्तियाँ हैं । अपूर्व मी एक विशेष शक्ति है । अपूर्व सक्रिय भी है और निष्क्रिय मी । चलनादि क्रिया अपूर्वमें नहीं अत एव निष्क्रिय है और कर्ता के साथ सम्बम्धमात्रसे वह कर्ताको देशान्तरादिमें ले जाने आदि क्रिया करता है अत एव वह सक्रिय भी है । शक्ति कहाँ रहती है - उसका आश्रय क्या है इसका भी उत्तर कुमारिल ने दिया है कि शक्ति प्रत्यक्षगम्य तो है नहीं । वह कार्यानुमेय है अत एव जहाँ मानना उपयुक्त हो वहीं मानमा चाहिए । स्वर्गका जनक कर्म है अत एव स्वर्गजनकत्वशक्ति कर्मकी है फिर भी उसका आश्रय कर्म ही हो यह आवश्यक नहीं क्योंकि कर्म तो क्षणिक होनेसे अनन्तर क्षणमें नष्ट हो जाता है । अत एव उसका आश्रय कर्म नहीं किन्तु आत्मा ही मानना चाहिए । १. "कर्मम्यः प्रागयोग्यस्य कर्मणः पुरुषस्य वा । योग्यता शास्त्रगम्या या परा साsपूर्वमिष्यते ॥" ता० २.१.५ । २. नैयायिकसंमत 'संस्कार' का जो रूप है वह शक्ति नहीं है । तथापि कुमारिल ने शक्तिके लिये संस्कारशब्दका प्रयोग किया है- "यदि हि अनाहितसंस्कारा एव यागा नश्येयुः ।" तन्त्र० पृ० ३९६ । ३. तन्त्रवा० पृ० ३९५ । ४. " यागादेव फलं तद्धि शक्तिद्वारेण सिध्यति । सूक्ष्म त्यात्मकं वा तत् फलमेवोपजायते" - तन्त्रवा० पृ० ३९५ । कुमारि क संमत प्रस्तुत बातका समर्थन पढते समय जैनों की नैगमनयसंगत विचारधारा उपस्थित होती है । ५. " सर्वत्र शक्तिसामान्योपलम्भात् तद्विशेषमात्रत्वाच अपूर्वस्य ।" तन्त्र० पृ० ३९७ । ६. “सत्यपि चात्य चलनादिक्रियारहितत्वे कर्तृसम्बन्धमात्रेण तद्देशान्तर प्रापणादिक्रिया सम्बन्धाभ्युपगमा निष्क्रियतानुपालम्भः ।" तन्त्र० पृ० ३९७ । ७. "शक्तिः कार्यानुमेयत्वात् यद्वतैवोपयुज्यते । तद्गतैवाभ्युपेतव्या स्वाश्रयान्याश्रयापि वा ॥" तन्त्र० पृ० ३९८ । शास्त्रादी० पृ० ८० । ८. “यदि स्वसमवेतैव शक्तिरिष्येत कर्मणाम् । वद्विनाशे ततो न खात् कर्ता तु न नश्यति ।" वही । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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