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पृ० २७. पं० १५]
टिप्पणानि ।
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मीमांसकों ने पदार्थ के स्वरूपसे अतिरिक्त पदार्थगत जाति या सहकारि साकल्यसे अतिरिक्त शक्तिनामक एक अतीन्द्रिय स्वतन्त्र पदार्थकी कल्पना की 1
बीजके होने पर अंकुरोत्पत्ति होती है और बीजके अभावमें नहीं होती - ऐसा अन्वय व्यतिरेक देख कर बीजको अंकुरका कारण माना जाता है । किन्तु यदि बीज मूषिकात्रात हो तब बीजके स्वरूपमें और सहकारिओंमें किसी भी प्रकारकी त्रुटि न होने पर भी उस बीजसे अंकुरोत्पत्ति नहीं होती अत एव मानना पडता है कि बीज अंकुरोत्पत्तिमें अकारण मी है। एक ही वस्तु कारण और अकारण नहीं हो सकती । अत एव यदि यह माना जाय कि कार्यकी उत्पत्ति तत्तत् बीजादि वस्तुओंसे नहीं किन्तु तद्गत अतीन्द्रिय शक्तिसे ही होती हैतब ही पूर्वोक्त विरोधका निरास हो सकता है। बीजादिमें जब तक शक्ति अखण्डित रहती है। अंकुरोत्पत्ति हो सकती है और जब मूषिकाघ्राणसे या और किसी कारणसे उस शक्तिका नाश हो जाता है तब कार्य उत्पन्न नहीं होता' ।
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इसी युक्तिके आधार पर वहिमें दाहशक्तिका भी समर्थन मीमांसकों ने किया है। मणिमन्त्रादिसे अग्निकी शक्तिका जब उपघात होता है तब अग्निका स्वरूप अखण्डित होने पर भी वह दाहकार्य उत्पन्न नहीं कर सकती । अत एव दाहजनक अग्नि नहीं किन्तु अग्निगत अतीन्द्रिय शक्ति ही है ।
इन्हीं युक्तिके बलसे तथा अन्य युक्तिओंके बलसे' नै या यिक संमत द्रव्यादि सभी पदार्थोंसे अतिरिक्त अतीन्द्रिय ऐसे शक्तिनामक स्वतंत्र पदार्थकी मीमांसकों ने कल्पना की है।
मीमांसक वस्तुतः वैशेषिकादि की तरह बाह्य पदार्थोंका विवेचन करनेके लिये प्रवृत्त नहीं हुआ है किन्तु कर्मकाण्डका समर्थन करना ही उसका मुख्य ध्येय है । उस समर्थनमें जहाँ पदार्थ विवेचनाका प्रसंग आ जाता है वह उसे करता है । शक्तिको इस प्रकार खतन पदार्थ मानने की आवश्यकता उसे कैसे हुई इस बातका मीमांसक संमत 'अपूर्वकी' कल्पनाका समर्थन देख कर लग सकता है ।
पता हमें
याग कर्म होनेसे क्षणिक है अत एव प्रश्न हुआ कि यागसे होनेवाला खर्गादि फल तो मृत्यु के बाद होगा, और मृत्यु पर्यंत यागकी अवस्थिति नहीं, तब यागसे स्वर्गकी उत्पत्ति होगी कैसे ? । इस प्रश्न के उत्तर में मीमांसकने अपूर्व की ' कल्पना की है। याग नष्ट हो जाता है फिर मी यागसे एक 'अपूर्व' उत्पन्न होता है, जिससे स्वर्गकी उत्पत्ति होगी ।
कुमारिल ने कहा है कि कर्मके अनुष्ठानसे पहले, पुरुष और याग स्वर्गकार्यको उत्पन्न करनेमें अयोग्य होते हैं । उसी अयोग्यताका निरास करके पुरुष और ऋतुमें योग्यताको उत्पन्न
१. शास्त्रदी० पृ० ८० । २. प्रकरण पं० पृ० ८१ । ३. "म द्रव्यं गुणवृत्तित्वात् गुणकर्मबहिष्कृता । सामान्यादिषु सवेन सिद्धा भावान्तरं हि सा ॥" - संग्रहश्लोक न्यायली० पृ० २२ । ४. “एवं यागादेरपूर्वस्वर्गादिसाधमशक्तिकल्पनमूहनीयम्" शास्त्रदी० पृ० ८० । ५. "अपूर्व पुनरसि मत मारम्भः शिष्यते 'स्वर्गकामो यजेतेति' । इतरथा हि विधानमनर्थकं स्यात्, भङ्गित्वात् यागस्य । यद्यन्मनुत्पाद्य यागो विनश्येत् फलमसति निमित्ते न स्यात् । तस्मादुत्पादयतीति ।" शाबर० २.१.५ । "काय विहितं कर्म क्षणिकं चिरभाविने । तत्सिद्धिर्नान्यथेत्येवमपूर्वं प्रतिगम्यते ॥" तन्त्र० २.१.५ ।
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