SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 369
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ टिप्पणानि। [पू० २७.५० १५प्रधानमीश्वर कर्म यदन्यदपि कल्ल्यते। वासनासङ्गसम्मूढचेतम्प्रस्यन्द एव सः॥ प्रधानानां प्रधानं तद् ईश्वराणां तथेश्वरम् । सर्वस्य जगतः कर्वी देवता वासना परा॥ अशक्यमन्यथा कर्तुमत्र शक्तिः कथं मता। वासनाबलतः सोऽपि तस्मादेवं प्रवर्तते ॥ इति प्रधानेश्वरकत्वादनयः सदा शीनवहार प्रवृत्ताः। विशम्स्य एवादयतां प्रयान्ति तद्वासनामयसमुद्रमेव ॥" प्रमाणवा० अ० मु० पृ० ७५। शंकराचार्य ने ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ताको व्यावहारिकसल्य कहा है, भाविषक कहा है। और कहा है कि जब विद्यासे आत्मामें सर्व उपाधिओंका नाश हो जाता है तब परमार्यतः ईश्वरमें सर्वज्ञत्व, सर्वशक्तिमत्त्व आदि व्यवहारोंका अभाव हो जाता है। शंकराचार्य के मतसे शक्ति, माया, और प्रकृति में कोई भेद नहीं । शक्ति ही सर्वप्रपञ्चकी बीजभूत है । और ईश्वरमें शक्ति होने पर मी ईश्वरसे उसका अत्यन्त मेद है । क्योंकि ईश्वर सत्य है तब शक्ति, माया या प्रकृति मिथ्या है "समस्येश्वरस्यात्मभूते इवाविद्याकल्पिते नामरूपे तत्वान्यत्वाभ्यामनिर्वचनीये संसारप्रपञ्चवीजभूते सर्वशस्येश्वरस्य माया शक्तिः प्रकृतिरिति च श्रुतिस्मृत्योरमिलप्येते, ताभ्यामन्यः सर्पक्ष ईश्वरः।" शां० ब्रह्म० २.१.१४ । इन समी अद्वैतवा दि ओं से ठीक विपरीत मार्ग बा ह्या थवा दिओं का है। उनके मतसे कार्यकारणभावकी व्यवस्था पारमार्थिक होनेसे शक्ति मी पारमार्थिक है । किन्तु शक्तिके स्वरूपके विषयमें इन समीमें ऐकमल नहीं । वैशेषिकों के मतसे पृथिव्यादि द्रव्योंमें समवायसम्बन्धसे सम्बद्ध पृथिव्यादि जाति और अन्यतन्तुसंयोगादि चरमसहकारिरूप दो प्रकारकी शक्ति मानी गई है । सारांश यह है कि यदि पृथ्वीमें पृथ्वीत्व न हो तो पार्थिवकार्य सम्पन्न नहीं हो सकता अत एव पृथ्वीत्व ही शक्ति है। इसी प्रकार पृथ्वीत्वके होने पर भी यदि पार्थिव पटकी उत्पत्ति इष्ट है तब अन्यतन्तुसंयोगरूप चरमसहकारि कारण अवश्य चाहिए । अत एव इसे मी शक्ति मानना चाहिए । क्योंकि जिस प्रकार पृथ्वीत्वके बिना कार्य सिद्ध नहीं होता वैसे अन्यतन्तुसंयोगके बिना मी कार्यसिद्धि नहीं। वैशेषिकों के मतसे पदार्थ और उसका सामर्थ्य अत्यन्त भिन्न है क्योंकि उनके मतसे द्रव्य, जाति और गुणका अत्यन्त मेद है'। यही मत नै या यि कों को भी इष्ट है। .."देवं विधामकोपाधिपरिच्छेदापेक्षमेवेश्वरस्येश्वरत्वम्, सर्वज्ञत्वं सर्वाक्तिमत्त्वं, न परमार्थतो विचापावासोंपाकिससे आमनीषिनीधितव्यसर्वज्ञस्वादिव्यवहार उपपद्यते।"-शांझ०२.१.१४ । ..बो.पू. १९३३. न्यायमं०पू०३८,६५। तात्पर्य०पू०३७,१०३। न्यायकु०पू०५९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy