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________________ १. २५. पं० १५] टिप्पणानि । खमावशून्य माना है। अत एव भाव उत्पादादिधर्मशून्य होनेसे उसमें कार्यकारणभावको वस्तुतः अवकाश नहीं रहता । अनाथविषावासनाके कारण सब व्यवहार चलते हैं । अत एव शून्यवादीके मतसे कार्यकारणभावकी नियामिका-शक्ति नहीं, किन्तु अविषा या वासना ही है । अर्थात् पासना ही शक्तिस्थानापन है। शब्दाती के मतसे सकल प्रपञ्चके मूलमें एकमात्र शब्द ही है । सकल बाह्य-आभ्यन्तर वस्तुओंका समन्वय एक शब्दब्रममें ही होता है । शब्दब्रह्मकी नाना शक्तिओंके कारण नाना कार्य दिखाई देते हैं। और नानाशक्तिके कारण ही एक ही ब्रह्म नाना दिखाई देता है । वस्तुतः नानात्व शक्तिमें होने पर भी अझमें आरोपित होता है ये शक्तियाँ अनिर्वाच्य है । वस्तुतः वेदान्ति ओं की अविषा-माया और वैयाकरणों की शक्तियोंमें मौलिक मेद नहीं । अत एव प्रभा चन्द्रा चा र्यने शब्दाति ओं के पूर्वपक्षमें आविर्भावादि मेदप्रपञ्चकी घटनाको अलियामूलक' बताते हुए जो उसके समर्थनमें वृहदारण्य क वार्तिक की कारिका उद्धृत की है वह असंगत नहीं। धर्म की र्ति ने सभी प्रकारके सम्बन्धका निषेध करते समय खास कर कार्यकारणभावका निषेध किया है। उनका कहना है कि दर्शनादर्शनकृतविकल्पका विषय ही कार्यकारणभाव है अत एव वह अवस्तु होनेसे पारमार्षिक नहीं । विकल्पका मूल वासनामें है अर्थमें नहीं । अत एवं कार्यकारणमाषकी व्यवस्था वासनासे सिद्ध है। धर्म की र्ति के अनुगामी प्रभाकर गुप्त ने कहा है कि जितने भी कार्य है ये सब, कार्य होनेके कारण ही, समदर्शनके कार्योंकी तरह वासनाकृत हैं। ईबर हो या कर्म, प्रधान होगा अन्य कुछ, समी की कल्पना वासनामूलक है । न्यायी ईबरको मानकर. मी पदि जगतमें मैचित्र्य लाना हो तो वासनाको बिना माने काम चल नहीं सकता । अत एव ईबर, प्रधान या कर्म इन समी नदीजों का सोत वासनासमुद्रमें मिलकर एक हो जाता है यही मानमा चाहिए "कार्यत्वात् सकलं कार्य वासनावडसंभवम् । कुम्भकारादिकार्य वा खमदर्शनकार्यवत् ॥ .."मण्यमाप्रतिपद सैव सर्वधर्मनिरास्मता" न्यायक०पू०१३१ में रखा २."खोवापि परवानाम्या माध्यतः उत्पाजातु विचन्ते भाषाकपन केचन" माया प्रत्याका०१॥ महायानवि०१८ "पया माषा पया समो गन्धर्वनगर यया । योत्पादच्या खाना मा ग्वाहतः॥"माभ्य संसा.का० ३४ महायानसू०पू०६३। लंकावतार पू०१११ । "परमान नोत्पादो निरोधोऽपिनama रमाकापावर बर साचा बवेक्षणा"महापानशिफ 1." सोडखि प्रायोकोके पासादायुगमाते । बहुविवामिवामाति सर्व प्रतिशिखर" वाक्य०१.१२४ । १. "एकमेव यदानावं मिमाफियपानवाद गपूयक्वेअपिशाचिया पकानेर बर्तते ।" वही १.२ । "एकरस सबबीजसणः तत्वाम्बत्वाम्यां सत्वासाचाम्बा गावाच्या अधिस्मा"-वाक्य.०१.४। ५. न्यायकु०पू० १४१।१. "काकारणमायोजनिचोरसामावता प्रतिपातिक विभेजो संबन्धवा कथम् । दर्शनादर्शने मुक्त्वा कार्यादेमवाए। कातिरषाकाववालिविता पवावन्मानाचा कार्यकारणगोचरा विकल्पावन्नान नियामांरपरिवानिव" इब्यादि सम्बन्धपरीक्षा । प्रमेयक. पू. ५१० । साहादर. पृ०६९-८१७॥ मा.२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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