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________________ पृ० २३. पं० १४] टिप्पणानि । १६७ दूसरा तर्क प्रभाकर ने यह भी किया कि यदि अन्यदेशस्थ रजतका अन्यत्र भान हो जाय तब अत्यन्त असत् का भी भान क्यों न हो ? । भ्रमस्थलीय विवक्षित देशमें जब अन्यत्र सत् और अत्यन्तासत् का असत्त्व समान ही है । तब शून्यवाद ही फलित होगा । अत एव विपरीतख्याति माननेका मतलब होगा कि शून्य वा दको अवलम्बन देना । उक्त इन दोनों दोषोंसे बचनेके लिए प्रभाकर ने अख्यातिवादका एक नया मार्ग निकाला । यही मार्ग अग्रहण विवेकाग्रहण, स्मृतिप्रमोष और विवेकाख्याति के नामसे व्यवहृत होता है । भाकर कहता है कि यह संभव नहीं कि चक्षुरादि इन्द्रियोंका संपर्क तो किसी अन्यसे हो पर प्रत्यक्ष ज्ञान हो अन्यविषयक – "तस्मात् सूक्तम् - अन्य संप्रयुक्ते चक्षुष्यन्यविषयं शानं न प्रत्यक्षम् - इति” - बृहती पृ० ६६ । AbhA शबरखामिने अपने भाष्यमें वृत्तिकार का प्रत्यक्षविषयक मत उद्धृत किया है । वृत्तिकारके शब्द ये हैं- " यत् प्रत्यक्षम् न तत् व्यभिचरति, यत् व्यभिचरति न तत् प्रत्यक्षम् । किन्तर्हि प्रत्यक्षम् ?, तत्संप्रयोगे पुरुषस्य इन्द्रियाणां बुद्धिजन्म सत्प्रत्यक्षम् । यद्विषयं ज्ञानं तेनैव संप्रयोगे इन्द्रियाणां पुरुषस्य बुद्धिजन्म सत्प्रत्यक्षम् यदन्यविषयज्ञानमन्यसंप्रयोगे भवति न तत् प्रत्यक्षम् ” शाबर० १.१.५. । वृत्तिकार को सामान्यतः इतना इष्ट है कि प्रत्यक्ष और व्यभिचारि ये दो परस्पर विरुद्ध हैं । अन्यके संप्रयोगसे अन्य विषयक ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता अर्थात् सत् प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता प्रत्यक्षाभास - भ्रान्त प्रत्यक्ष भले ही कहा जाय । किन्तु प्रभाकर उसका मतलब कुछ और समझता है । प्रभाकरका मन्तव्य है कि चक्षुका संप्रयोग जिस आकारयुक्त वस्तुके साथ है उसी आकारको विषय करनेवाला प्रत्यक्ष ज्ञान हो सकता है । चक्षु किसी अन्यसे संप्रयुक्त हो और तदुत्पन्न ज्ञानका विषय कोई अन्य ही हो यह बात असंभव है । क्योंकि यदि असंप्रयुक्त आकारको भी प्रत्यक्ष ज्ञानका विषय माना जाय तब अन्धपुरुष भी शुक्तिकामें रजतका प्रत्यय हो जाना चाहिए। जैसे चक्षुष्मान् को भ्रमस्थलमें रजतके साथ चक्षुसंपर्क नहीं उसी प्रकार अन्धको भी नहीं है । फिर भी अन्धको शुक्तिकामें रजत प्रत्यय नहीं होता और चक्षुष्मान् को होता है । अत एव प्रभाकर मानता है कि सभी प्रत्यक्ष ज्ञान यथार्थ ही होते हैं । जिस प्रत्ययमें जो आकार प्रतिभासित होता है वही उसका वेद्य - विषय - आलम्बन है और जो प्रतिभासित नहीं होता वह अवेद्य - अविषय - अनालम्बन है । अत एव I १. " भवता शून्यवाद-परतः प्रामाण्यप्रसक्तिभयात् स्मृतिप्रमोषोऽभ्युपगतः, विपरीतख्याती तयोरariभावित्वात् " - सन्मति० टी० पृ० २७ पं० ३८ । २. "कथं तर्हि विपर्ययः १ । अग्रहणादेवेति वदामः " - बृहती पृ० ६६ । ३. बृहती० पं० पृ० ६६ । ४. बृहती पृ० ७३ । ५ विवेक मेद, अक्याति=अग्रह=अग्रहण प्रकरणपं० नयवीथिप्रकरण पृ० ३३,३४ । न्यायकु० पृ० ५२ । ६. "न झम्यसंप्रयुक्ते चक्षुषि अन्यालम्बनस्य ज्ञानस्य उत्पत्तिः संभवति, अन्धस्यानुत्पादाद इत्युकम् । मत एवेदमुच्यते- नान्याकार मालम्बनमन्याकारस्य ज्ञानस्योत्पत्तिहेतुः इति" - बृहती पृ० ६४ । ७. " यथार्थ सर्वमेवेह विज्ञानमिति सिद्धये । प्रभाकरगुरोर्भावः समीचीनः प्रकाश्यते ॥ १ ॥ " प्रकरणपं० पृ० ३२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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