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टिप्पणानि ।
[पृ० २३. पं० १४ही बाह्यरूपसे प्रतिभास मानते हैं । आन्तरिक तत्त्वको एकने विज्ञान कहा है और दूसरेने अविया । एकके मतसे विपरीत वासनाके कारण एकरूप विज्ञान का द्वैधीभाव होकर उसकी प्राह्यमाहकरूपसे प्रतीति होती है । और दूसरेके मतसे वस्तु सत् नहीं किन्तु अविधानिष्पनअविद्योपादानक रजतकी प्रतीति होती है।
(६) मीमांसकसंमत अलौकिकार्थख्यातिवाद । .
जिस प्रकार सांख्य अविधमानका ज्ञानमें प्रतिभास नहीं मानते उसी प्रकार कुछ मी मां सक मी अविद्यमानका प्रतिभास नहीं मानते । उनका कहना है कि दूसरे लोक शुक्तिकामें रजत
य मानकर उसे विपरीत प्रत्यय कहते हैं सो ठीक नहीं । ज्ञानमें इस प्रकारका विपर्यय संभव नहीं है कि विषय कुछ और हो प्रतिभासित कुछ और हो । उन मी मां स कों के मतानुसार वस्तुतः अर्थ दो प्रकारका है । एक व्यवहारसमर्थ और दूसरा व्यवहारासमर्थ । व्यवहारसमर्थ अर्थ लौकिक कहा जाता है और दूसरा अलौकिक । भ्रम माने जानेवाले रजतप्रत्ययका विषय लौकिक रजत नहीं किन्तु अलौकिक रजत है । रजतप्रत्ययमें प्रतिभासित होनेसे वह रजत है पर व्यवहारासमर्थ होनेसे अलौकिक है। ___ मीमांसक सोचते हैं कि ज्ञानमात्रको निरालम्बन तो मान नहीं सकते क्योंकि ऐसा मानने पर विज्ञानवाद और शून्यवादको अवकाश मिलता है । पर दूसरी और प्रमस्थलमें रजतके अभावमें मी रजत प्रत्ययका होना स्पष्ट है । यदि सिर्फ प्रमस्थलमें ज्ञानको निरालम्बन माना जाय तब. मी पूर्वोक्त दोनों बौद्ध वादोंको अवकाश मिल जाता है । ऐसी स्थितिमें क्या किया जाय इसी चिन्तामेंसे मी मां स क ने यह रास्ता निकाला कि अमस्थलमें रजतको अलौकिक माना जाय । ऐसा मानने पर फलित यह हुआ कि अमस्थलमें रजतसाध्य क्रियाका अभाव रजतकी अलौकिकताके कारण है न कि रजतके अभाव के कारण ।
परन्तु मी मां सकका यह नया मार्ग भी कण्टकरहित नहीं है । क्योंकि यदि अर्थक्रियाकी निष्पत्ति न करना यही अलौकिकताकी कसौटी है तो खमप्रत्ययमें भासमान योषिद् आदि अर्थ अर्थक्रियाकारी होनेसे लौकिक ही सिद्ध होगा। इसी तरह जब कूटकार्षापणसे सत्यकार्षापणसाध्य अर्थक्रियाकी निष्पत्ति होती है तब उसे कूट क्यों कहा जाय ।
(७) प्रभाकरसंमत अख्यातिवाद ।
वृद्ध मी मां सकों ने नै या यि का दि की तरह विपरीत ख्याति मानी है किन्तु प्रभाकरने मीमांसक संमत खतः प्रामाण्यवादके साथ उस विपरीतख्यातिवादका स्पष्टतः विरोध देखा । उन्होंने तर्क किया कि यदि कोई ज्ञान अयथार्थ भी हो, मिथ्या भी हो, विपरीत भी हो तब यथार्थज्ञानका खतःप्रामाण्य घट नहीं सकता, जो कि मी मां स क का मुख्य सिद्धान्त है। क्योंकि यथार्थ ज्ञानमें भी सहज शंकाका अवकाश रहेगा कि यह ज्ञान मिथ्या तो नहीं है। उस शंकाको दूर करने के निमित्त यथार्थ ज्ञानको अबाधित सिद्ध करने के लिए बाधकाभावका निर्णय आवश्यक हो ही जाता है । अर्थात् बाधकामावनिश्चय सापेक्ष ही प्रामाण्य निश्चय होने के कारण यथार्थ ज्ञान भी परतः प्रमाण सिद्ध होगा न कि खतः।
१. न्यायमं० पृ० १७२। अष्टस० पृ० २५५।
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