________________
टिप्पणानि ।
[४० २३. पं० १४रजन प्रत्ययमें रजत ही को आलम्बन मानना उचित है, शुक्तिकाको नहीं । क्योंकि अन्यमें अन्यका भान प्रतीतिपराहत है। .
इसीसे अमस्थलमें रजतप्रत्यय प्रत्यक्ष नहीं हो सकता 'न तत् प्रत्यक्षं किन्तु 'स्मरण' है। जब कोई पुरुष रजतसहश शक्तिकाका प्रत्यक्ष कर रहा हो पर वह किसी इन्द्रियादिगत दोषके कारण रजत और शुक्तिकाके भेद - वैलक्षण्यका ग्रहण न करके मात्र दोनों के सादृश्यका ही ग्रहण करे तब उस पुरुषको ऐसे सादृश्यविषयक प्रत्यक्ष ज्ञानसे रजतविषयक स्मरण हो जाता है। वह पुरुष मनोदोषके कारण उस प्रत्यक्ष और स्मरण ज्ञानके भेदका तथा प्रत्यक्षविषय शुक्तिका और स्मरणविषय रजतके पारस्परिक भेदका भी ग्रहण कर नहीं पाता । ऐसी दशामें वह शुक्तिकाको ही रजत कह देता है । एकत्वाध्यवसायके कारण जो भेदाप्रह-विवेकाख्याति-स्मतिप्रमोष होता है वही विपर्यय-भ्रम कहा जाता है-"कथं तर्हि विपरीतप्रहाः? । उच्यते विषयान्तरं सहशमवलम्ब्यागृहीतविवेकं यत ज्ञानमत्प तत् सरशविषयान्तरे स्मृतिशानहेतुतां प्रतिपद्यते-'मरामि' इति हानशून्यस्य"बृहती पृ० ६५ । प्रकरणपं० ३४।
सारांश यह है कि वृत्ति कार ने इस रजत प्रत्ययको जहाँ 'न तत् प्रत्यक्षं इतना ही कहा था, प्रभाकर उसे स्मरण कह देता है । अर्थात् प्रभाकरके मतसे वह रजत ज्ञान प्रत्यक्षाभासमिथ्या प्रत्यक्ष नही किन्तु यथार्थ स्मरण है इस प्रकार 'इदं रजतम्' यह एक ज्ञान नहीं किन्तु दो ज्ञान है-'इदं' विषयक प्रत्यक्ष और रजतविषयक स्मरण । जब अन्य दार्शनिकोंने इसे एक ही ज्ञान माना है तब प्रभाकर ने 'सर्व ज्ञानं यथार्थ' इस सिद्धान्तकी रक्षा करने के लिए इसे दो ज्ञानोंमें विभक्त किया है ।
जयन्त ने प्रभाकर संमत विवेकाख्याति का प्रबल खण्डन किया है । जयन्त ने प्रत्यभिज्ञाके दृष्टान्तसे 'इदं रजतम्' इस प्रत्ययको एक-अखण्ड सिद्ध किया है-न्यायमं० पृ० १६६ ।
और स्पष्ट आक्षेप किया है कि प्रभाकर का यह सिद्धान्त धर्म की र्तिसे चुराकर लाया गया है-"श्रुतमिदं यदा भवद्भिः धर्मकीर्तिगृहावाहतं 'श्यविकल्प्यावावेकीकृत्य प्रवर्तते' इति"।-पृ० १६७ । धर्मकीर्तिने जैसे दृश्य और विकल्प्यके एकत्वाध्यवसायसे प्रवृत्ति मानी है वैसे ही प्रभा करने भी स्मरण और अनुभवको एक मान करके पुरुषकी प्रवृत्ति अनुभूत शुक्तिकामें ही मानी है । जयन्त का कहना है कि प्रभाकर की वह चोरी भी उसके स्वार्थको पुष्ट नहीं करती-पृ० १६७ ।
भखिरमें जयन्तने यह भी कह दिया है कि खतःप्रामाण्यकी रक्षाके लिये तथा शून्यवादका निरास करने के लिये जो प्रभा करने यह नया वाद स्थापित किया है सो ठीक नहीं । इससे न तो परतःप्रामाण्य निरस्त होता है और न शून्यवाद ही । इसके निरासके लिये कुछ और ही युक्ति देना चाहिए"न चैतथापि परतः प्रामाण्यमपहन्यते । न चैष शून्यपादस्य प्रतिकारक्रियाक्रमः ।
१.मत्र भूमो य एवार्थों यस्यां संविदि भासते । वेषः स एव नान्यति वेद्यावेचस्य लक्षणम् ॥ २३॥ इदं रजतमित्यत्र रजतबावभासते । तदेव तेन वेचं स्यात् न तु शुक्तिरवेदनात् ॥ २४॥ तेनान्यस्यान्यथा भानं प्रतीत्यैव पराहतम् । परमिन् भासमाने हि न परं भासते यतः ॥ २६ ॥" प्रकरणपं०पृ०३३ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org