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________________ टिप्पणानि। [१० ६१ पं० ११सामग्रीके कारण चाक्षुषादि अनेक प्रत्यक्ष ज्ञानव्यक्तियाँ हो सकती हैं किन्तु उन सभी का एक सामान्य लक्षण वैशय होनेसे सभी प्रत्यक्ष प्रमाणमें अन्तर्भूत हो जाती है । इस प्रकार लिा. शम्दादि नाना सामग्रीके कारण अनुमानागमादि परोक्षहान व्यक्तियाँ अनेक हो सकती है किन्तु उन सभी का अन्तर्भाव एक परोक्षप्रमाणमें इस लिये होता है कि उन सभी का एक सामान्य लक्षण अवैशय है । इस प्रकार प्रमाणभेदका नियामक लक्षणभेद है, विषयभेद नहीं। यहाँ पर यह बात जान लेना चाहिए कि लक्षणभेदसे प्रमाणभेद जैनोंने माना किन्तु सामग्रीभेद, विषयभेद इत्यादि ही लक्षणभेदके नियामक तत्त्व हैं। पृ० ६१. पं० ११. 'इह प्रामाण्यं तुलना-"प्रमाणमेदव्यवस्थापको हि विषयमेव एव । तदमेदे गृहीतग्राहितया प्रामाण्याभावापः । कथमन्यथा अनधिगतार्थाधिगन्त प्रमाणमिति प्रमाणलक्षणं प्रणीयते। किन्तु अर्थक्रियार्थिनो नान्यद्विषयान्तरमस्ति यत् परिच्छिन्दद् मन्यत् प्रमाणान्तरं स्यात् । न चाविषयस्य प्रमाणचिन्तया किचिद्, मर्चकियोपयोगिन एव चेतसः प्रमाणतयेष्टेरिति"-प्रमालक्ष्म पृ० ७५।। पृ० ६१. पं० १६. 'इयं चाग्ने वार्तिककी आगे आनेवाली कारिकाओंमें प्रत्यक्ष और परोक्षके अतिरिक्त और कोई प्रमाण अर्थवत् नहीं है। इसी व्यापकानुपलब्धिकी सिद्धि की गई है-का० १४-१६। पृ०६१. पं० २१. 'प्रमाणेतर यह कारिका धर्म की र्ति की है-"तदुक्तं धर्मकीर्तिमा'प्रमाणेतर' इत्यादि प्रमाणप० पृ० ६४ । स्याद्वादर० पृ० २६८। पृ० ६२. पं०५. 'साहश्यं तुलना - "गवयस्योपलम्मे च तुरमादौ प्रवर्तते । तसा. स्यविज्ञानं यत्तदन्या प्रमान किम् ॥" तत्त्वसं० का० १५५९ । प्रमाणवा० अलं० पृ० ५७४ । लधी० १९। पृ० ६२. पं० ६. 'यथा' उपमानका यह उदाहरण मीमांसक की दृष्टिसे दिया है। पृ० १२.५० ६. 'उपमान' उपमानके १-खरूप, २-प्रामाण्य, ३-और फलंके विषयमें दार्शनिकोंका जो मतभेद है उसे बताना यहाँ अमीष्ट है। १-उपमानका स्वरूप। उपमानके खरूपके विषयमें दार्शनिकोंमें निम्न लिखित मतभेद हैं(अ) वृद्ध नै या यि कसंमत अतिदेशवाक्य । (आ) उपवर्षा दि मीमांसक और वेदान्त संमत सादृश्य-सादृश्यज्ञान । ( नवीन नै या यिकसमत सादृश्यप्रत्यक्ष । (६) प्राचीन जैन संमत सादृश्य-वैसादृश्यज्ञान । (उ)नवीन जैन संमत संकलनात्मकसादृश्यज्ञान । .."तथा हि-बदेकलक्षणलक्षितं सद्य तिमेदेऽपि एकमेव पथा बैसबैकलक्षणाक्षि सुरादिप्रत्यक्षम्, अवैशबैकशक्षणलक्षितं च शाब्दादि इति । परादिसामग्रीमेदोपि हिमहामानां वैशरक क्षणाशिवत्वेनेवामेवा प्रसिदः प्रत्यक्षरूपवानतिक्रमाद, बबर शब्दादिसामग्रीमेदेपि भवैशबैककक्षण. पक्षिवखेनैवामेवः शाब्दादीनां परोक्षरूपस्वाविशेषात् ।" प्रमेयक पृ० १९२ । स्याहादर० पृ०२८३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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