SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 410
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १० ६१.५० ४] टिप्पणानि । २१९ इससे स्पष्ट है कि सामग्री और विषयके भेदसे अनुमान और शाब्दमें पार्थक्य है । इस प्रकार उन्होंने उपमान, अर्थापत्ति और अभावका पार्थक्य उन्ही निर्दिष्ट दो कारणोंसे सिद्ध किया है - प्रमेयक० पृ० १८३ । स्याद्वादर० पृ० २११ ।। वादी देवसूरि के कथनानुसार कुमारिल के मतसे अभावप्रमाणका पार्थक्य तीन कारणोंसे फलित है "एवं सरूपमेदात्, गोचरमेदाद, फलस्य मेदाच । मित्रं सिद्धमभावप्रमाणमपरप्रमाणेभ्यः।" स्याद्वादर० पृ० २८३ । - वस्तुतः यदि सामग्रीभेदको प्रमाणभेदका नियामक माना जाय, जैसा कि कु मारिल ने समी प्रमाणों के विषयमें माना है, तो विधानन्द का कहना है कि कुमारिल योगिज्ञानका- सर्वत्र ज्ञानका निषेध नहीं कर सकता । क्योंकि उसकी सामग्री कुमारिलसंमत समी प्रमाणोंसे पृषक ही है। सामग्रीमेंदको प्रमाणभेदका नियामक न मान कर यदि लक्षणभेदको ही नियामक माना जाय तमी प्रमाणसंख्यांका ठीक नियमन होता है-तत्त्वार्थश्लो०.पृ० १८०-१८०। ३-सुष्यतु दुर्जनः न्यायसें जयन्त ने बौद्ध सैमत विषयके भेदसे प्रत्यक्ष और अनुमानका भेद मानकर भी कहा है कि प्रत्यक्ष और अनुमान की सामग्री तथा फलसे, उपमान-शाब्दकी सामग्री तथा फल मिल में बत एव इन दो कारणों से मी प्रमाणभेद मानना चाहिए । अर्थात् सामग्री और फलभेद मीप्रमाणभेदका नियामक होना चाहिए यह जयन्त का मत है। न्यायम:-पृ.३३। १-अन्य-समी वार्शनिकों की चर्चाको देखकर जैन दार्शनिकोंने यही निर्णय किया कि वस्तुतः लक्षणभेद ही प्रमाणभेदका नियामक मानना चाहिए । निवामदने बौखके विषयभेदके सामने मीमांसक संमत सामग्रीवादको उपस्थित किया और मीमांसकसमत सामग्रीवादमें मी पूर्वोक्त दोष बतलाकर लक्षणभेदको ही प्रमाणभेदका नियामक तल सिद्ध किया है- तत्त्वार्यश्लो० पृ० १८०-१८१ । प्रमाणप० पृ० ६४।। सिदार्षिने म्या यावतारके द्विधामेयविनिश्चयात्' इस पादका भावार्थ यह किया है कि जानकी प्रापि ही दो प्रकारकी होती है-एक तो विशद और दूसरी अविशद । इनके अतिरिक्त और किसी भी प्रकारको ज्ञानप्रवृत्ति नहीं होती । अत एव प्रमाणका तीसरा प्रकार हो नहीं सकता। "तीकारी विहाय प्रकारान्तरेण ज्ञानप्रवृतिं पश्यामःन वापश्यन्त प्रमाणात स्परिकल्पनं क्षमामहे। न मोप्रथमानयोरेक निहुपानं उपेक्षामहे ।" न्याया० टी० पृ.२५ सिवर्षि ने कहा है कि सामग्रीके भेदसे कोई ज्ञान स्पष्ट होता है और कोई अस्पष्ट । किन्तु जानकी परत या पत्परताका विचार बाचार्य सापेक्ष है । खसंवेदनकी दृष्टिसे तो समी ज्ञान एकल सायाकारात्मक है। सारांश यह है कि बाघार्थका ज्ञान दो प्रकारसे होता है विशद और अघिद । गत एक दो ही प्रमाण है। प्रमापौर पर देवसूरिको मी लक्षणमेदसे ही प्रमाणमेद इष्ट है । चक्षुरादि नाना. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy