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टिप्पणानि । [१० ६१. ५० ५है। शान्त्या चार्य की यह बात जैन सिद्धान्तके प्रतिकूल नहीं है । फिर भी यह तो मानना पड़ेगा कि मूलतः प्रमेयोंका इस प्रकारसे शान्त्या चार्य कृत वर्गीकरणका विचार बौद्धों के असरसे अछूता नहीं । यही कारण है कि उनकी प्रत्यक्ष प्रमेयकी व्याख्यामें तथा धर्म की र्तिकृत खलक्षणरूप प्रत्यक्ष प्रमेयकी व्याख्या वस्तुतः कोई भेद नहीं दीखता। यही बात दोनोंके परोक्ष प्रमेयके विषयमें भी लागू होती है।
दूसरे जैन दार्शनिक प्रमाणसंप्लववाद को एकखरसे मानते हैं यह पूर्व टिप्पणमें कहा जा चुका है। ऐसी स्थितिमें प्रमेयमेदके आधार पर प्रमाणका भेद मानने पर शान्मा चार्य को प्रमाणसम्प्लववाद का त्याग करना पड़ेगा और बौद्धों की तरह विप्लववादको अपनाना पड़ेगा। अत एव प्रमाणविप्लववाद जैन सिद्धान्तके प्रतिकूल है या नहीं इस बातका विवेचन होना भी जरूरी है। __ प्रमाणसंप्लव मान कर भी जैनों ने मीमांसकों की तरह एक ही अर्थक नये नये परिणामोंको प्रमाणका विषय माना है । अर्थात् धर्मीकी एकताके कारण प्रमाणसंप्लव कहा जाता है । वस्तुतः प्रत्येक प्रमाणान्तरमें धर्मी नये रूपमें या यों कहना चाहिए कि प्रत्येक प्रमाणान्तरमें नये नये धर्म प्रतिभासित होते हैं । जैन दर्शनमें धर्म और धर्मीका एकान्त मेद नहीं है, अत एव प्रत्येक प्रमाणका विषय धर्मकी दृष्टिसे भिन्न होते हुए भी धर्मीकी दृष्टिसे अभिन्न ही है। इसी धर्मीकी एकता-अमेदको मुख्य मान कर जैन दार्शनिकोंने प्रमाणसंप्लवका समर्थन किया है। परन्तु इस धर्मी या द्रव्यदृष्टि के अतिरिक्त एक दूसरी दृष्टि भी है जो पर्यायको प्रधानता देती है और वह जैन संमत भी है। उसीके अनुसार अर्थात् उसी पर्यायदृष्टिसे सोचा जाय तो प्रमाणविप्लववाद जो शान्त्या चार्य के मतसे फलित होता है वह जैन दर्शनके सिद्धान्तसे प्रतिकूल नहीं कहा जा सकता।
प्रमा लक्ष्म कार के मतकी संगति भी इसी प्रकार समझ लेनी चाहिए । क्योंकि प्रमालक्ष्मकार भी इसी मतके समर्थक हैं___"विधामेयविनिश्चयादिति बदता प्रन्यकृता प्रमेयमेदाधीनः प्रमाणमेदा, नापरं निमिचान्तरमस्येत्येतत् प्रतिपादितम् । तथा च व्यापकानुपलब्ध्या प्रमाणान्तरामावमाह।" पृ०६। "एतान्येव प्रमाणानि नापरं विषयारते"-प्रमालक्ष्म का० ३१६ ।
२-बौद्धों की तरह मीमांसक कु मा रिल के मतसे मी प्रमाणसंप्लव संभव नहीं है, क्योंकि प्रमाण अपूर्वार्थक-अगृहीतग्राहि होना चाहिए। अत एव उनके मतसे विषयमेदसे प्रमाणमेद है । प्रमाणमेदमें सिर्फ विषयमेद ही कारण है यह बात नहीं । उनके मतसे विषयभेदके अतिरिक्त सामग्रीमेद मी कारण है । अनुमानसे शाब्डप्रमाणका भेद सिद्ध करते हुए कुमारिल ने कहा है
"तसादननुमानत्वं शाब्दे प्रत्यक्षववेत् । रूप्यरहितत्वेन तारग्विषयवर्जनात् ॥" श्लोकवा० शब्द० १८।
"पत्रापि सात् परिच्छेदः प्रमाणहत्तरैः पुनः । मूनं सत्रापि पूर्वेण सोऽयों नावएतस्तथा ॥" लोकवा०२.१४। २. मीमांसकोंने एक ही धर्मी में प्रमाणातरकी प्रवृत्ति मानी है फिर भी प्रमाणसंबनहीं माना बहधर्मकी मुख्यता को लेकर ही।
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